दिनांक
16 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
क्या
प्रेम के
द्वारा सत्य
को उपलब्ध हुआ
जा सकता है?
प्रेम और
सत्य दो घटनाएं
नहीं हैं,
एक ही घटना के
दो पहलू है।
सत्य को पा लो
तो प्रेम प्रगट
हो जाता है।
प्रेम को पा
लो तो सत्य का
साक्षात हो
जाता है। या
तो सत्य की
खोज पर निकलो;
मंजिल पर
पहुंच कर
पाओगे, प्रेम
के मंदिर में
भी प्रवेश हो
गया। खोजने निकले
थे सत्य, मिल
गया प्रेम भी
साथ—साथ। या
प्रेम की
यात्रा करो।
प्रेम के
मंदिर पर
पहुंचते ही
सत्य भी मिल
जाएगा। वे साथ—साथ
हैं। प्रेम और
सत्य
परमात्मा के
दो नाम हैं।
लेकिन
दो तरह के
व्यक्ति हैं
जगत में। एक
हैं,
जिन्हें
सत्य को पाना
सुगम है; प्रेम
परिणाम में
मिलेगा।
दूसरे हैं, जिन्हें
प्रेम पाना
सुगम, सत्य
परिणाम में
मिलेगा।
इसलिए ज्ञान
और भक्ति दो
मौलिक मार्ग
हैं। स्त्री
और पुरुष दो
मौलिक विभाजन
हैं।
और
जब मैं कहता
हूं स्त्री और
पुरुष, तो
बहुत रूढ़
अर्थों में मत
पकड़ना। बहुत
पुरुष हैं, जिनके पास
स्त्रियों
जैसा प्रेम से
भरा हृदय है।
बहुत
स्त्रियां
हैं, जिनके
पास पुरुष
जैसा सत्य को
खोजने वाला
तर्क है। अपनी
पहचान ठीक से
कर लेना।
परमात्मा की
पहचान तो पीछे
होगी। अपनी
पहचान ठीक से
कर लेना। ऐसा
कुछ मार्ग मत
चुन लेना, जो
तुम्हारे साथ
रास न आता हो।
जो तुम्हें
सहज मालूम पड़े,
वही
तुम्हारा
मार्ग है।
सत्य
की खोज में जो
अंतिम फल है, वहां
'तू मिट
जाता हैं, 'मैं'
का विस्फोट
होता है—अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ही
ब्रह्म हूं और
कोई ब्रह्म
नहीं! सत्य की
खोज में 'पर'
से मुक्त
होना उपाय है।
ध्यान
से सुनना, क्योंकि
जो सत्य की
खोज में उपाय
है, वही
प्रेम की खोज
में बाधा है।
और जो प्रेम
की खोज में
उपाय है, वही
सत्य की खोज
में बाधा है।
दोनों भिन्न—भिन्न
जगह से चल रहे
हैं—जा रहे एक
तरफ। जैसे कोई
पश्चिम से चला
भारत आने को, कोई पूरब से
चला भारत आने
को। तो जो
इंग्लैंड से
चला वह पूरब
की तरफ आ रहा
है, जो
जापान से चला
वह पश्चिम की
तरफ जा रहा
है। दोनों
भारत आ रहे
हैं। दोनों एक
जगह
पहुंचेंगे; लेकिन जहां
से चले हैं वह
स्थान बड़ा
भिन्न—भिन्न
है।
सत्य
का खोजी 'तू को
गिरा देता है।
इसलिए तो
महावीर और
बुद्ध
परमात्मा को
स्वीकार नहीं
करते।
परमात्मा यानी
तू परमात्मा
यानी पर।
परमात्मा
यानी जिसके
चरणों में
पूजा करनी है,
अर्चना
करनी
है,
जिसके
सामने
नैवेद्य चढ़ाना
है। परमात्मा
यानी पर।
इसलिए बुद्ध
और महावीर
परमात्मा को
इंकार कर देते
हैं। पतंजलि भी
बड़े संकोच से
स्वीकार करते
हैं। और
स्वीकार ऐसे
ढंग से करते
हैं कि वह
इंकार ही है।
पतंजलि कहते
हैं, ईश्वर
प्रणिधान भी
सत्य को पाने
का एक उपाय, एक विधि है; आवश्यक नहीं
है, अनिवार्य
नहीं है।
ईश्वर है या
नहीं, यह
बात विचारणीय
नहीं है। यह
भी एक विधि
है। मान लो, काम करती
है। मानी हुई
बात है।
समस्त
ज्ञानी ईश्वर
को किसी न
किसी तरह
इंकार करेंगे।
शंकर कहते हैं, ईश्वर
भी माया का
हिस्सा है।
अहं
ब्रह्मास्मि!
मेरा जो
आत्यंतिक रूप
है, वह
ब्रह्म—स्वरूप
है। लेकिन वह
जो ईश्वर है
मंदिर में विराजमान,
वह तो माया
का ही रूप है, वह तो संसार
ही है। संसार
यानी पर, दूसरा।
स्वयं से बाहर
गए कि संसार।
फिर चाहे मंदिर
ही क्यों न
जाओ या दूकान
जाओ या बाजार
जाओ, कोई
फर्क नहीं
पड़ता—स्वयं से
बाहर गए तो
संसार में गए।
मंदिर भी उसी
संसार का
हिस्सा है
जहां दूकान
है। मंदिर और
दूकान बहुत
अलग— अलग नहीं
है,।
सत्य
का खोजी कहता
है,
पर को भूलो।
पर के कारण ही
तरंग उठती है।
कोई भाग। जा
रहा है स्त्री
को पाने, कोई
भागा जा रहा
है धन को पाने,
कोई भागा जा
रहा है प्रभु
को पाने। सत्य
का खोजी कहता
है, भाग—दौड़
छोड़ो। जिसे
पाना है, वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
अष्टावक्र
का मार्ग भी
सत्य का मार्ग
है। इसलिए
साक्षी पर जोर
है। साक्षी हो
जाओ। ऐसे गहन रूप
से साक्षी हो
जाओ कि
तुम्हारे
साक्षीत्व की
अग्नि में 'पर'
जल जाए, समाप्त
हो जाए, राख
रह जाए 'पर'
की—बचे 'मैं'। तभी तो
नमस्कार कर
सकोगे स्वयं
को। जहां कोई
नहीं बचा, अब
किसको
नमस्कार करें?
अब किसके
चरणों में सिर
झुकाएं?
स्वयं ही बचा
तो स्वयं को
ही नमस्कार।
प्रेम
का खोजी ठीक
विपरीत दिशा
से चलता है।
वह कहता है, स्वयं
को मिटाना है।
सब कुछ
समर्पित कर
देना है
परमात्मा को।
तू ही बचे। तू
ही तू बचे, मैं
न बचूं। मैं
गल जाऊं, पिघल
जाऊं खो जाऊं,
तुझमें लीन
हो जाऊं। तू
ही बचे!
इसलिए
इस्लाम—इस्लाम
प्रेम की खोज
है—मंसूर को
बर्दाश्त न कर
सका। क्योंकि
मैसूर ने कहा, अनलहक!
मैं ही ब्रह्म
हूं मैं ही
सत्य हूं! इस्लाम
बर्दाश्त न कर
सका। इस्लाम
है भक्ति—मार्ग।
यह घोषणा
भक्ति के
विपरीत है।
अगर तुम्हीं
हो ब्रह्म, तो फिर
भक्ति कैसी, फिर भगवान
कैसा? फिर
न भक्ति है न
भगवान है, न
भजन है, स्मरण
नहीं। किसका
करोगे स्मरण?
स्मरण तो 'पर' का ही
होता है। सब
स्मरण 'पर'
का है।
इस्लाम मैसूर
को बर्दाश्त न
कर सका। मंसूर
भारत में पैदा
होता तो हम
उसकी गणना
महर्षियों
में करते। ब्रह्म
ऋषियों में
करते। अरब में
पैदा हुआ, फांसी
लगी।
यहूदी
भी जीसस को
बर्दाश्त न कर
सके। क्योंकि जीसस
ने कहा कि मैं
और मेरा पिता, जिसने
मुझे बनाया, हम दोनों एक
हैं। वह जो
ऊपर है और
नीचे है—एक
है। यह घोषणा
यहूदियों को
पसंद न पड़ी।
प्रेम के
मार्गी को यह
बात कठिन
मालूम पड़ेगी।
यह तो प्रेम
के मार्गी को
अहंकार की
घोषणा मालूम पड़ेगी।
यह तो हद
दर्जे का
कुफ्र, यह
तो आखिरी
काफिरता है।
इससे बड़ा और
कोई पाप नहीं
हो सकता।
समझने
की कोशिश करना, क्योंकि
भक्ति की पूरी
व्यवस्था और
है। वहां तो 'मैं' को
गलाना है।
वहां तो कहना
है किसी दिन
कि मैं नहीं
हूं तू ही है।
जलालुद्दीन
रूमी की
प्रसिद्ध कथा
है। प्रेमी
आया प्रेयसी
के द्वार पर, दस्तक
दी। भीतर से
पूछा प्रेयसी
ने, 'कौन है?
कौन
खटखटाता है
द्वार?' प्रेमी
ने कहा, 'मैं
हूं तेरा
प्रेमी।
पहचाना नहीं?'
भीतर
सन्नाटा हो
गया। बड़ा उदास
सन्नाटा हो गया।
कोई उत्तर न
आया। प्रेमी
जोर से
खटखटाने लगा
कि 'क्या
तू मुझे भूल
गई?' प्रेयसी
ने कहा, ' क्षमा
करो, इस घर
में दो के
रहने के लायक
जगह नहीं। दो
यहां न समा
सकेंगे।
प्रेम गली अति
सीकरी, तामें
दो न समाए। और
तुम कहते हो, मैं हूं
तेरा प्रेमी!
लौट जाओ अभी!
जब पक जाओ, लौट
आना। '
प्रेमी
चला गया, जंगल
पहाड़ों में
भटकता, ध्यान
करता, पूछता,
रोता, गाता,
सोचता, विचार
करता—कैसे? कैसे पाऊं
प्रवेश? अनेक
दिन आए—गए, चांद
ऊगे —बुझे, सूरज
निकला—डूबा, महीने—वर्ष
बीते—तब एक
दिन प्रेमी
वापिस लौटा।
द्वार पर
दस्तक दी।
प्रेयसी ने
पूछा, 'कौन!'
प्रेमी ने
कहा, ' अब मत
पूछो, अब
तू ही तू है। ' कहते हैं, द्वार खुल
गए, तत्क्षण
द्वार खुल गए!
ये द्वार
परमात्मा के
द्वार हैं।
तो
प्रेम में
समर्पण मार्ग
है—स्वयं को
जला डालना, राख
कर डालना।
सत्य में
निखारना है, संघर्ष है, सब बुराई
काटनी है और
आत्यंतिक रूप
से 'पर' से
सारे संबंध
तोड़ लेने हैं,
असंबंधित, असंग हो
जाना है।
लेकिन
चमत्कार तो
यही है कि दोनों
एक ही जगह
पहुंच जाते
हैं। कैसे
पहुंच जाते
हैं? जब 'तू, गिर
जाता है
ज्ञानी का, तो 'मैं' बच नहीं
सकता।
क्योंकि 'मैं'
और 'तू
साथ—साथ बचते
हैं। 'मैं'
और 'तू
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। तुम कैसे
कहोगे कि मैं
हूं जब तू न
रहा? जब
ज्ञानी का 'तू, गिर
गया, तो 'मैं' को
कैसे बचाएगा?
'मैं' बच
नहीं सकता।
बिना 'तू
के सहारे 'मैं'
बच नहीं
सकता। 'मैं'
का कोई अर्थ
ही नहीं रह
जाता। जब 'तू
है ही नहीं, तो 'मैं' का क्या
अर्थ है? क्या
प्रयोजन है? किसे कहोगे 'मैं'? 'मैं'
हम उसी को
कहते हैं न, जो 'तू, के विपरीत
है, जो 'तू
से भिन्न है, जो 'तू से
अलग है।
तुमने
अपने घर के
आसपास बागुड़
लगा रखी है, दीवाल
बना रखी है, लेकिन वह
पड़ोसी के कारण
है। अगर पड़ोसी
है ही नहीं तो
किसके लिए
बागुड़ लगाते
हो? अगर
सोचो, तुम
अकेले होते
पृथ्वी पर र
तो घर की सीमा
बनाते? किसके
लिए बनाते? किससे बनाते?
सीमा के लिए
दो चाहिए। एक
से 'सीमा
नहीं बनती—पड़ोसी
चाहिए, अन्य
चाहिए, पर
चाहिए। जब 'तू ही गिर
गया, तो 'मैं' कैसे
बचेगा?
तो
ज्ञानी
गिराता है 'तू
को। और अंत
में जब 'तू
बिलकुल गिर
जाता है, बैसाखी
गिर जाती है, तब अचानक
देखता है कि
उसी के साथ 'मैं' भी
गिर गया—शून्य
रह जाता है।
और
यही घटना घटती
है प्रेमी को।
वह मिटाता है 'मैं'
को। एक दिन 'मैं' पूरा
गिर जाता है।
जिस दिन 'मैं'
पूरा गिर
जाता है, 'तू
कैसे बचेगा? जब 'तू को
कहने वाला न
बचा, जब
पुजारी न बचा,
जब आराधक न
बचा तो आराध्य
कैसे बचेगा? जब भक्त न
बचा तो भगवान
कैसे बचेगा? भक्त के साथ
ही भगवान बच
सकता है। भक्त
तो गया, शून्य
हो गया—तो
भगवान का क्या
अर्थ, क्या
प्रयोजन?
जिस दिन भक्त
शून्य हो जाता
है, उसी
दिन भगवान भी
विदा हो जाता
है।
सब
खेल दो का है, दो
के बिना खेल
नहीं। सब
संसार द्वि है,
द्वैत है।
तुम एक को
गिरा दो किसी
भी तरह, दूसरा
अपने से
गिरेगा। एक को
तुम मिटा दो, दूसरा अपने
से मिटेगा।
दोनों साथ—साथ
चलते हैं।
जैसे एक आदमी
दो पैरों पर
चलता है; तुम
एक तोड़ दो, फिर
चलेगा? फिर
कैसे चलेगा? पक्षी दो
पंखों पर उड़ता
है; तुम एक
काट दो, फिर
उड़ेगा? एक
से कैसे उड़ेगा?
स्त्री—पुरुष, दो
से संसार चलता
है। तुम सारी
स्त्रियों को
मिटा डालो, पुरुष बचेंगे?
कितनी देर?
तुम सारे
पुरुषों को
मिटा डालो, स्त्रियां
बचेंगी? कितनी
देर? यह
खेल दो का है।
यह संसार एक
से नहीं चलता।
जहां एक बचा, वहा तो समझ
लेना दोनों
नहीं बचे।
इसलिए
तो ज्ञानियों
ने,
भक्तों ने,
प्रेमियों
ने, जानने
वालों ने
परमात्मा को
एक नहीं कहा, अद्वैत कहा।
अद्वैत का
मतलब—दो न
रहे। एक कहने
में खतरा है।
क्योंकि एक का
तो अर्थ ही
होता है कि
दूसरा भी
होगा। अगर कहें
एक ही बचा, तो
एक की परिभाषा
कैसे करोगे, सीमा कैसे
खीचोगे? एक
की सीमा दो से
बनती है, दो
की सीमा तीन
से बनती है, तीन की सीमा
चार से बनती
है—यह फैलाव
फैलता चला
जाता है।
इसलिए हमने एक
अनूठा शब्द
चुना—अद्वैत;
दो नहीं।
पूछो परम
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति को, परमात्मा एक
है या दो? तो
वह यह नहीं
कहेगा एक या
दो; वह
कहेगा, दो
नहीं। बस इतना
ही कह सकते
हैं, इसके
पार कहा नहीं
जा सकता। न एक
है, न दो
है। दो नहीं
है, इतना
पक्का है।
इससे ज्यादा
वाणी सार्थक
नहीं, समर्थ
नहीं।
तो
चाहे प्रेम से
चलो,
चाहे सत्य
की खोज करो—स्व
घड़ी आएगी, न
दूसरा बचता, न तुम बचते।
तब जो बच रहता
है, वही
सार है, वही
पूर्ण है।
भक्त उसे
भगवान कहेगा
जो बच रहता है,
ज्ञानी उसे
आत्मा कहेगा।
यह सिर्फ अलग—
अलग भाषा, परिभाषा
की बात है; बात
वही है।
इसलिए
सबसे
महत्वपूर्ण
है यह खोज
लेना कि तुम कहा
हो?
तुम क्या हो?
तुम कैसे हो?
कहीं गलत
मार्ग पर मत
चल पड़ना। जो
मार्ग तुमसे
मेल न खाए, वह
तुम्हें
पहुंचा न
सकेगा। जो
मार्ग तुमसे न
निकलता हो वह
तुम्हें
पहुंचा न
सकेगा।
तुम्हारा
मार्ग
तुम्हारे
हृदय से निकलना
चाहिए। जैसे
मकड़ी जाला
बुनती है, खुद
ही निकालती है,
अपने ही
भीतर से बुनती
है—ऐसा ही
साधक भी अपना
जीवनपथ अपने
ही भीतर से बुनता
है।
अगर
प्रेम का जाल
बुनने में
समर्थ हो तो
भक्ति
तुम्हारा
मार्ग है। फिर
अष्टावक्र कुछ
भी कहें, तुम
फिक्र मत करना;
तुम नारद की
सुनना; तुम
चैतन्य, मीरा
को गुनना।
लेकिन अगर तुम
पाओ कि यहां
हृदय से प्रेम
के धागे
निकलते नहीं,
प्रेम का
जाल बनता नहीं,
तो घबड़ा मत
जाना, रोने
मत बैठ जाना।
कोई अड़चन नहीं
है। प्रत्येक
के लिए उपाय
है। तुम जिस
क्षण पैदा हुए,
उसी क्षण
तुम्हारा
उपाय
तुम्हारे साथ
पैदा हुआ है; तुम्हारे
भीतर पड़ा है; तुम्हारे
अंतस्तल में
प्रतीक्षा कर
रहा है। तो
शायद सत्य का
मार्ग
तुम्हारा
मार्ग होगा। तब
नारद के पास
फड़कना मत।
मीरा कितने ही
गीत गाए, तू_म अपने कान
बंद कर लेना, उसमें उलझना
मत। क्योंकि
वह उलझाव
महंगा पड़
जाएगा। जो
तुम्हारे भीतर
से आए, सहजस्फूर्त
हो—बस वही।
जो
जहां भी है।
समर्पित
है सत्य को।
ये
फूल और यह धूप
लहलहाते
खेत,
नदी का कूल
क्या
प्रार्थनाएं
नहीं हैं?
यह
व्यक्तित्व
निवेदित
ऊर्ध्व
के प्रति क्या
नहीं है?
गौर
से देखना फूल
को वृक्ष पर—वृक्ष
की प्रार्थना
है। यह वृक्ष
का ढंग है प्रार्थना
करने का। आदमी
ही थोड़े
प्रार्थना करता
है। तुम तभी
मानोगे जब
वृक्ष जाएगा
मंदिर में और
गंगाजल चढाका? तभी
तुम मानोगे? जब वृक्ष
पानी भर कर
लाएगा और शंकर
जी पर चढ़ाका, तभी तुम
मानोगे? और
वृक्ष रोज
अपने फूल झराता
रहा शंकर पर, अपने पत्ते
गिराता रहा, अपने
प्राणों से
पूजा करता रहा,
इसे तुम
स्वीकार न
करोगे? जो
जहां है.।
जो जहां
भी है
समर्पित
है सत्य को।
ये
फूल और यह धूप
लहलहाते
खेत,
नदी का कूल
क्या
प्रार्थनाएं
नहीं हैं?
प्रार्थनाएं
अलग—अलग होंगी, अलग—अलग
ढंग हैं। वैविध्य
है जगत में।
और सुंदर है
जगत—वैविध्य
के कारण।
तो
जब मुसलमान
मस्जिद में
झुके तो तुम
यह मत सोचना
कि गलत है। और
मंदिर में जब
हिंदू घंटियां
बजाए तो तुम
नाराज मत
होना। और चर्च
में जब ईसाई
गुनगुनाए या
बौद्ध अपने
पूजागृह में
बैठ कर ध्यान
करे,
तो तुम
जानना : जो
जहां है, वहीं
समर्पित है
सत्य को। और
धूप और फूल भी
प्रार्थना कर
रहे हैं। सारा
जगत
प्रार्थना—मग्न
है। झरने अपना
गीत गुनगुना
रहे हैं।
स्त्रियां
स्त्रियों के
ढंग से जाएंगी, पुरुष
पुरुष के ढंग
से जाएंगे। और
एक बार तुम्हें
यह समझ में आ
जाए कि मेरा
ढंग मुझे खोज
लेना है तो
तुम दूसरी बात
छोड़ दोगे, तुम
दूसरों को
घसीटने की आदत
छोड़ दोगे।
दुनिया
में बड़ा अहित
हुआ है। पत्नी
जिस मंदिर में
जाती है, पति
को भी ले जाती
है। बाप जिस
मंदिर में
जाता है, बेटे
को भी ले जाता
है। इससे
दुनिया में
इतना अधर्म
है। क्योंकि
लोगों को स्वभाव
के अनुकूल
सुविधा नहीं
है। मैंने
वर्षों घूम कर
देश में देखा।
किसी को पाया
जैन घर में
पैदा हुआ है, वह उसका
दुर्भाग्य हो
गया। उसके पास
हृदय था भक्ति
का, लेकिन
जैन घर में
भक्ति के लिए
कोई उपाय
नहीं। वहा तो
ध्यान की ही
गज, एकमात्र
गंज है। किसी
को मैंने देखा
कि भक्ति के
पंथ में पैदा
हो गया है, वल्लभ
संप्रदाय में
पैदा हो गया
है; लेकिन
उसका कोई रस
भक्ति में
नहीं है।
ध्यान से
सुगंध उठती, लेकिन ध्यान
से दुश्मनी है
पैदाइश के
कारण। कहीं
पैदाइश से कोई
धर्म होता है?
स्वभाव से
धर्म होता है।
स्वभाव यानी
धर्म। पैदाइश तो
सांयोगिक
घटना है। तुम
किस घर में
पैदा हुए, इससे
थोड़े ही धर्म
तय होता है!
दुनिया
अगर सच में
धार्मिक होना
चाहती हो, तो
हमें बच्चों
को धर्म में
जबर्दस्ती
प्रवेश
करवाने की
पुरानी
प्रवृत्ति
छोड़ देनी चाहिए।
हमें बच्चों
को, सारे
द्वार खुले
छोड़ देने
चाहिए। उन्हें
कभी मस्जिद भी
जाने दो, कभी
मंदिर भी, कभी
गुरुद्वारा
भी। उन्हें
खोजने दो।
सिर्फ उन्हें
तुम एक रस दे
दो कि खोजना
है परमात्मा को,
बस इतना
काफी है। फिर
तुम कैसे खोजो—कुरान
से तुम्हें
धुन मिलेगी कि
गीता
से—तुम्हारी
मर्जी। पहुंच
जाना
परमात्मा के
घर। कुरान की आयत
दोहराते
पहुंचोगे कि
गीता के मंत्र
पाठ करते, कुछ
लेना—देना
नहीं। तुम
पहुंच जाना, अटक मत जाना
कहीं। शुभ
होगा वह दिन, जिस दिन एक
ही घर में कई
धर्मों के लोग
होंगे—पत्नी
मस्जिद जाती,
पति
गुरुद्वारा
जाता, बेटा
चर्च में। और
जब तक ऐसा न हो
जाए, तब तक
दुनिया में
धर्म नहीं हो
सकता, असंभव
है। क्योंकि
धर्म का
पैदाइश से कोई
भी संबंध नहीं
है। तो तुम
अपनी खोज करो।
मेरे
पास जो लोग
हैं,
यही मेरी
देशना है
उन्हें।
इसलिए मैं सब
पर बोल रहा
हूं। तुम कभी—कभी
चौंकते हो।
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, आप
एक ही धारा पर
बोलें, तो
हम निश्चित हो
कर लग जाएं
काम में। कभी
आप भक्ति पर
बोलते हैं, कभी आप
ज्ञान पर
बोलते हैं।
कभी आप कहते
हैं, डूब
जाओ; कभी
कहते हैं, साक्षी
हो जाओ; कभी
अष्टावक्र, कभी नारद—हम
बड़ी बिबूचन
में पड़ जाते
हैं।
तुम
बिबूचन में
मेरे बोलने के
कारण नहीं पड़
रहे हो। तुम
बिबूचन में पड़
रहे हो, क्योंकि
तुम अभी तक यह
नहीं पहचान
पाए कि तुम्हारा
रस क्या है? तुम्हें
अपना रस समझ
में आ जाए, इसलिए
बोल रहा हूं।
ये सारे
शास्त्र
तुम्हारे
सामने खोल रहा
हूं कि
तुम्हें अपना
रस पहचान में
आ जाए।
ऐसा
हुआ,
इंग्लैंड
में एक आदमी
दूसरे
महायुद्ध में,
चोट खाया
युद्ध में, गिर पड़ा, स्मृति
खो गई। बड़ी
मुश्किल हो
गई। स्मृति खो
गई थी तो कोई
अड़चन न थी।
उसे नाम तक
याद न रहा, तो
१गई अड़चन न
थी। लेकिन
.युद्ध के
मैदान से लौटते
वक्त उसका
नंबर का
बिल्ला भी
कहीं गिर गया।
वह कौन है, यही
समझ में न आए।
किसी मनोवैज्ञानिक
ने सलाह दी कि
इसे इंग्लैंड
में गांव—गांव
घुमाया जाए, शायद अपने
गांव को देख
कर पहचान ले, शायद भूली
सुध आ जाए, जहां
पैदा हुआ, बचपन
बीता, जिन
वृक्षों के
नीचे खेला, जिस नदी के
किनारे नहाया,
शायद उस
गांव की हवा, उस गांव का
ढंग इसकी भूली
स्मृति को
खींच लाए।
तो
उसे इंग्लैंड
में गांव—गांव
घुमाया गया।
यह खड़ा हो
जाता
स्टेशनों पर जा
कर,
उसकी आंखें
कोरी की कोरी रहती।
सौभाग्य और
संयोग की बात
कि एक स्टेशन
पर गाड़ी रुकी,
जहां रुकना
नहीं था गाड़ी
को। सयोगवशात
रुकी, आमतौर
से वहां रुकती
न थी। कोई
दूसरी ट्रेन
निकलती थी, इसलिए रुक
जाना पड़ा।
उस
आदमी ने खिड़की
से नीचे झांक
कर देखा और
उसके चेहरे पर
रोशनी आ गई।
उसकी आंखें जो
अब तक खाली
थीं,
भर गईं। वह
तो बिना कहे
अपने साथियों
को उतर गया
नीचे। वह तो
भागने लगा।
उसके साथी
उसके पीछे
भागे। बोले, पागल हो गए
हो? उसने
कहा, पागल
नहीं हो गया।
अब तक पागल था,
होश आ गया!
यही मेरा गांव
है। यह वृक्ष,
कह
स्टेशन...।
मेरे पीछे आओ।
वह
ठीक भागता हुआ
गली—कूचों में
से अपने घर के
द्वार पर
पहुंच गया। उसने
कहा,
यह मेरा घर
है, वह
मेरी मां रही।
ऐसा
तुम्हारे
सामने मैं
शास्त्र
खोलता चलता हूं।
कभी
अष्टावक्र, कभी
नारद, कभी
महावीर, कभी
बुद्ध, कभी
सूफी, कभी
हसीद, कभी
झेन—सिर्फ इस
आशा में कि
जहां भी
तुम्हारे
स्वभाव का
तालमेल खाएगा,
किसी
स्टेशन पर, तो तुम
कहोगे : 'आ
गया घर'।
किसी स्टेशन
पर तो
तुम्हारी आंखों
में रोशनी आ
जाएगी, तुम
दौड़ने लगोगे,
तुम नाचने
लगोगे। किसी
जगह तो
तुम्हें एकदम
से
पुलक, उमंग
होगी.।
इसलिए
बोल रहा हूं
इतने पर, क्योंकि
मेरी मान्यता
है कि दुनिया
में जितने
मार्ग हैं, उतने ही तरह
के लोग हैं।
ये दो तो मूल
धाराएं हैं—ज्ञान
की और प्रेम
की। फिर प्रेम
की छोटी धाराएं
हैं, ज्ञान
की छोटी
धाराएं हैं।
प्रेम
से निश्चित ही
मार्ग जाता है, उतना
साफ—सुथरा
नहीं जैसा
सत्य का मार्ग
है। प्रेम का
मार्ग तो बड़ा
धुंधला—धुंधला
है। वही उसका
मजा भी है, वही
उसका स्वाद भी
है। सत्य का
मार्ग तो ऐसा
है जैसे दोपहर
में सूरज सिर
पर खड़ा है, सब
साफ—सुथरा।
प्रेम का
मार्ग तो ऐसा
है, जैसे
सांझ होने लगी,
सूरज ढल गया,
अभी तारे भी
नहीं निकले, संध्याबेला
है। इसलिए तो
भक्त अपनी
प्रार्थना को
संध्या कहते
हैं, पूजा
को संध्या
कहते हैं।
भक्तों की
भाषा का नाम
संध्या— भाषा
है— धुंधली—
धुंधली,प्रेम
रस पगी!
सांझ
के धुंधलके
में
एक
राह खुलती है।
एक
राह,
जिसकी उस
छोर
पर मदिम — मदिम
एक
दीप जलता है,
एक
लौ मचलती है।
सांझ
के
धुंध्ग्लके
में
एक
राह खुलती है।
दबे
पांव आ मुझको
रोशनी
बुलाती है
हाथ
थाम लेती है,
साथ
ले टहलती है
सांझ
के धुंधलके
में
एक
राह खुलती है।
भीतर
बाहर कुछ
जगमग
— जगमग होता है
दिनभर
की थकन — घुटन
वेदना
पिघलती है
सांझ
के धुंधलके
में
एक
राह खुलती है।
पद —
पद होता
प्रयाग,
क्षण
— क्षण होता
संगम,
प्रीति
तुम्हारी
मेरे
प्राणों
में पलती है।
सांझ
के धुंधलके
में
एक
राह खुलती है।
प्रेम
का मार्ग तो
धुंधला है। रस
का मार्ग तो मस्ती
का मार्ग है।
ज्ञान का
मार्ग साक्षी
का,
प्रेम का
मार्ग, बेहोशी
का। ज्ञान का
मार्ग समझ का,
प्रज्ञा का,
प्रेम का
मार्ग
मदमस्तों का,
मस्ती का।
ज्ञान के
मार्ग पर
ध्यान उपाय है,
प्रेम के
मार्ग पर
प्रार्थना, भजन, नृत्य,
गान। ज्ञान
का मार्ग
मरुस्थल से
निकलता है; प्रेम का
मार्ग कुंज, वनों से, वृंदावन
से।
ज्ञान
का मार्गी या
सत्य का खोजी
बड़ी प्रखर बुद्धि
का प्रयोग
करता है; तलवार
की धार की तरह
काटता चलता
है। निषेध का मार्ग
है सत्य का
मार्ग। असत्य
को काटते चलो,
असार को
तोड़ते चलो; फिर जो बच
रहेगा अनटूटा,
वही सार है।
प्रेम का मार्ग
कुछ भी तोड़ता
नहीं, काटता
नहीं। प्रेम
के मार्ग में
त्याग नहीं है,
विराग नहीं
है। प्रेम के
मार्ग में तो
जो तुम्हारे
भीतर राग पड़ा
ही हुआ है, उसी
राग के सहारे
सेतु बना लेना
है; जो
तुम्हारे
भीतर प्रेम की
छोटी—सी रोशनी
जल रही है, उसी
को प्रगाढ़ कर
लेना है। प्रेम
का मार्ग तो
आस्था का
मार्ग है।
मैं
गाता हूं
हर
गीत मधुर
विश्वास लिए।
लहराती
अंबर पर
तारों
से टकराती,
ध्वनि
पास तुम्हारे
एक
समय गूंजेगी
ही।
मैं
रखता हूं
हर
पांव सुदृढ़
विश्वास लिए।
ऊबड़—खाबड़
तम
की ठोकर खाते—खाते
इनसे
कोई
रक्ताभ
किरण फूटेगी
ही।
भक्त
तो ऐसा टटोल—टटोल
कर चलता है।
वह तो कहता है, आस्था
है, कभी
पहुंच
जाऊंगा।
जल्दी भी नहीं
है भक्त को, बेचैनी भी
नहीं है।
त्वरा से हो
जाए कुछ, ऐसी
आकांक्षा भी
नहीं है। भक्त
तो कहता है, यह खेल चले, जल्दी क्या
है? भक्त
तो कहता है, प्रभु! यह
छिया—छी चले।
तुम छिपो, मैं
खोजूं! मैं
तुम्हारे पास
आऊं, तुम
फिर—फिर छिप
जाओ। खोलूं
खोजूं और खोज
न पाऊँ। यह रास
चले, यह
लीला चले।
क्योंकि भक्त
के लिए यह
लीला है, रास
है, खेल
है। ज्ञानी के
लिए यह बड़ा
दुर्गम मार्ग
है। ज्ञानी के
लिए यह खेल
नहीं, लीला
नहीं, बड़ी
गंभीर बात है,
उलझन है, जंजाल है, आवागमन है; इससे
छुटकारा पाना
है।
ये
अलग— अलग
भाषाएं हैं; दोनों
सही हैं। और
एक के सही
होने से दूसरी
गलत नहीं होती,
यह खयाल
रखना। अक्सर
मन में ऐसा
होता है, अगर
एक सही तो
दूसरी गलत
होगी। जीवन
बहुत बड़ा है, विरोधों को
भी सम्हाल
लेता है। जीवन
इतना छोटा और
संकीर्ण नहीं
जैसा तुम
सोचते हो।
देखने की बात
है। शानी को
तो लगता है
जंजाल—कब
छूटूं इससे, कैसे मुक्ति
हो? तो
ज्ञानी के लिए
जो आत्यंतिक
चरण है, वह
मुक्ति है।
भक्त मुक्ति
की बात नहीं
करता। मोक्ष
शब्द ही भक्त
की भाषा में
नहीं है—बैकुठ।
वह कहता है, खेले यहां, वहां भी
खेलेंगे।
यहां बजाई
तुमने
बांसुरी की
धुन, वहां
भी बजाना।
यहां हम नाचे,
वहां भी
नाचेंगे।
नहीं, भक्त
कहता है, मुक्ति
मुझे नहीं
चाहिए, तुम
मुझे अनंत—
अनंत पाशों
में बांध लो।
तुम मुझे
जितने पाशों
में बांध सको
बांध लो, मैं
तुमसे बंधना
चाहता हूं।
ये
दोनों सही
हैं। अब बात
इतनी ही है कि
तुम्हें जो सही
लगे। तुम
दूसरे को छोड़
देना, भूल
जाना, उलझन
में मत पड़ना।
फिर तुम्हें
जो सही लग जाए,
जो
तुम्हारे
स्वभाव के
अनुकूल आ जाए,
जो
तुम्हारे
हृदय पर चोट
करे, फिर
उसी का जाला
तुम बुन लेना।
मगर मकड़ी की
याद रखना।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं :
परमात्मा ने
संसार को भी
मकड़ी के जाले
की तरह बुना, अपने
भीतर से
निकाला। और तो
कहां से
निकालेगा! और
तो कुछ था भी
नहीं निकालने
को। अपने भीतर
से ही निकाला
होगा।
और
हर चीज भीतर
से ही निकलती
है। एक बीज को
तुम देखो, इस
बीज में छिपा
है बड़ा वृक्ष।
जरा बो दो इसे
जमीन में, आने
दो ठीक मौसम, पड़ने दो
वर्षा, और
एक दिन तुम
पाओगे वृक्ष
फूट पड़ा, कोंपलें
आ गईं। इस बीज
में छिपा पडा
था वृक्ष।
भीतर से ही
निकल रहा है।
एक
वैज्ञानिक ने
जापान में एक
प्रयोग किया—चमत्कार
जैसा प्रयोग
है। उसे
प्रयोग करते—करते
पौधों पर, यह
खयाल आया कि
पौधा बीज में
से ही पूरा
आता है या कि
बहुत कुछ तो
जमीन से लेता
होगा? तो
उसने एक
प्रयोग किया।
एक गमले में
उसने सब तरह
से जाच—परख कर
ली कि कितनी
मिट्टी डाली
है। एक—एक
रत्ती—रत्ती
नाप कर सब काम
किया। कितना
पानी रोज डालता
है, उसका
भी हिसाब रखा।
वृक्ष बड़ा
होने लगा, खूब
बड़ा हो गया।
फिर उसने
वृक्ष को
निकाल लिया।
जड़ें धो
डालीं। एक
मिट्टी का कण
भी उस पर न रहने
दिया। और जब
मिट्टी तोली
तो बड़ा चकित
हुआ, मिट्टी
उतनी की उतनी
है। मिट्टी
में कोई फर्क नहीं
पड़ा। उस बीज
से ही आया है
यह पूरा वृक्ष,
उस शून्य से
ही प्रगट हुआ
है। ऐसे ही एक
दिन परमात्मा
से सारा
अस्तित्व
प्रगट हुआ।
तुम
भी अपना सारा
अस्तित्व
अपने भीतर बीज
की तरह छिपाए
बैठे हो। मगर
पहचान तो करनी
ही होगी कि
तुम्हारे
भीतर प्रेम का
बीज पड़ा है कि
सत्य का! और ये
दो ही बीज हैं
मौलिक रूप से—तुम
या तो संकल्प
करो या समर्पण
करो। संकल्प
दुर्धर्ष
मार्ग है। इसलिए
तो वर्धमान को
जैनों ने
महावीर कहा।
बड़ा गहन
संघर्ष है।
महावीर उनका
नाम ही हो गया
धीरे— धीरे, वर्धमान
तो लोग भूल ही
गए। इतना
संघर्ष किया;
समर्पण
नहीं है वहा, संकल्प है।
महावीर कहते
हैं : अशरण, किसी
की शरण मत जाना!
बुद्ध
ने मरते वक्त
कहा : अप्प
दीपो भव! अपना
प्रकाश खुद बन, आनंद!
कोई दूसरा
तेरा
मार्गद्रष्टा
नहीँ है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं : मैं
किसी का गुरु
नहीं और तुम
किसी को भूल
कर गुरु बनाना
मत। ठीक कहते
हैं। सहारे की
जरूरत नहीं है
सत्य के खोजी
को। सत्य का
खोजी बड़ा
अकेला चलता
है। अकेला
चलता है, इसलिए
मरुस्थल जैसा
होगा ही। वहा
से काव्य नहीं
फूटता।
बहुत
बार मुझसे
जैनों ने कहा
कि कुंदकुंद
पर आप कुछ
बोलें। मैं
नहीं बोलता।
कई बार
कुंदकुंद का
शास्त्र उठा
कर देखता हूं
सोचता हूं
बोलना तो
चाहिए।
कुंदकुंद
प्यारे हैं!
मगर बात
मरुस्थल की
है। उसमें
काव्य बिलकुल
नहीं है।
काव्य का उपाय
ही नहीं है।
काव्य के जन्म
के लिए प्रेम
की थोड़ी—सी
धारा तो
चाहिए। नहीं
तो फूल नहीं
खिलते, हरियाली
नहीं उमगती, गीत नहीं
गूंजते। सब
सूखा—सूखा है।
सुखा
लेना ही सत्य
के खोजी का
मार्ग है।
इतना सुखा
लेना कि सब रस
सूख जाए। उसी
को तो हम
विराग कहते
हैं,
जब सब रस
सूख जाए।
तो
अपने भीतर खोज
लेना है। अगर
तुम्हें लगे
कि मरुस्थल ही
तुम्हें
निमंत्रण
देता है, मरुस्थल
में आमंत्रण
मालूम पड़े, पुकार मालूम
पड़े, चुनौती
मालूम पड़े, तो हर्ज
नहीं है। फिर
मरुस्थल ही
तुम्हारे लिए
उद्यान है।
लेकिन अपने
भीतर कस लेना,
अपने भीतर
देख लेना।
और
एक बात कसौटी
में काम पड़ेगी
: जब भी तुम
पाओगे कोई
मार्ग
तुम्हारे
अनुकूल पड़ने
लगा,
तुम तत्क्षण
खिलने लगोगे,
तत्क्षण
शांति मिलने
लगेगी; जैसे
अचानक स्वरों
में मेल बैठ
गया, तुम्हें
अपनी भूमि मिल
गई, तुम्हारा
मौसम आ गया, तुम्हारी
ऋतु आ गई—फलने
की, फूलने
की!
कभी—कभी
ऐसा होता है, किसी
की वाणी सुनते
ही —तत्क्षण
तुम्हारे
भीतर एक खटके
की तरह कुछ हो
जाता है, द्वार
खुल जाते हैं।
किसी को देखते
ही किसी क्षण
अचानक प्रेम
उभय आता है।
किसी के पास
पहुंचते ही
अचानक बड़ी गहन
शांति घेर
लेती है, आनंद
के स्रोत
फूटने लगते
हैं। यह अकारण
नहीं होता। जहां
भी तुम्हारा
मेल बैठ जाता
है, जहां
भी तुम्हारी
तरंग मेल खा
जाती है, वहीं
यह हो जाता
है।
यहां
मैं बोलता हूं; साफ
दिखाई पड़ जाता
है—कौन तरंगित
हुआ, कौन
नहीं तरंगित
हुआ। कुछ पत्थर
के रोड़े की
तरह बैठे रह
जाते हैं, कुछ
डोलने लगते
हैं। किसी के
हृदय को छू
जाती है बात, कोई बुद्धि
में ही उलझा
रह जाता है।
तुम
मेरे पथ के
बीच लिए
काया
भारी भरकम
क्यों
जम कर बैठ गए
कुछ
बोलो तो!
क्यों
तुमको छूता है
मेरा
संगीत नहीं?
तुम
बोल नहीं सकते
तो
झूमो, डोलो तो!
रागों
की रोकी
जा
सकती है राह
नहीं,
रोड़ो, हठधर्मी
छोड़ो
मुझसे
मन जोडो।
तुमसे
भी मधुमय
शब्द
निकल कर
गूंजेंगे
तुम
साथ जरा
मेरी
धारा के हो लो
तो!
जब
भी तुम्हारा
कहीं मेल खा
जाए,
तब तुम और
सब चिंताएं
छोड़ देना। जहां
तुम्हारा मन
का रोड़ा
पिघलने लगे, जहां
तुम्हारे सदा
के जमे हुए, चट्टान जैसे
हो गए हृदय
में तरंगें
उठने लगें, तुम डोलने
लगो, जैसे
बीन को सुन कर
सांप डोलने
लगता है... तो
तुम चकित
होओगे? सांप
के पास कान
नहीं होते।
वैज्ञानिक
बड़ी मुश्किल
में पड़े जब
पहली दफे यह
पता चला कि
सांप के पास
कान होते ही
नहीं, वह
बीन सुन कर
डोलता है। सुन
तो सकता नहीं
तो डोलता कैसे
है? तो या
तो बीन—वादक
कुछ धोखा दे
रहा है, सांप
को किसी तरह
से
प्रशिक्षित
किया है। तो
बीन—वादकों को
दूर बिठाया
गया, बीच
में पर्दा
डाला गया, कि
हो सकता है
बीन—वादक
डोलता है, उसको
देख कर सांप
डोलता है। आख
है सांप के
पास, कान
तो है नहीं।
तो बीच में
पर्दे डाल दिए
गए, बीन—वादक
को दूर कर
दिया; लेकिन
फिर भी सांप
डोलता है। तब
एक अनूठी बात पता
चली और वह यह
कि सांप के
पास कान तो
नहीं है, लेकिन
बीन से जो
तरंग पैदा
होती है, उससे
उसके पूरे
शरीर पर तरंग
पैदा होती है।
कान नहीं है।
उसकी पूरी
काया डोल जाती
है।
जब
कोई बात छूती
है,
तो सब डोल
जाता है। तो
जिस बात से
तुम डोलने लगो,
वही
तुम्हारा
मार्ग है। जिस
बात से रस
घुलने लगे
तुम्हारे
भीतर, वही
तुम्हारा
मार्ग है। फिर
तुम सुनना मत,
और क्या कोई
कहता है। तुम
अपने हृदय की
सुनना और अपने
रस के पीछे चल
पड़ना।
दूसरा
प्रश्न :
जब
आपका प्रवचन
पड़ता हूं तो
आश्चर्य होता
है। लेकिन उसे
ही जब सनता
हूं तब सिर्फ
ध्वनि ही
ध्वनि गूंजती
रह जाती है।
अंत में रह
जाती है केवल
शुन्यता और
भीनी—भीनी
मस्ती। क्या
यही आपका स्वाद
है प्रभु?
निश्चित
ही।
तुम्हारी
बुद्धि को
समझाने को मैं
कुछ भी नहीं
कह रहा हूं।
यहां मेरा
प्रयास
तुम्हारी बुद्धि
को राजी करने
के लिए नहीं
है। या तो कभी
बोलता हूं
भक्ति पर, तब
प्रयास होता
है कि
तुम्हारा
हृदय तरंगित हो,
या कभी
बोलता हूं
ज्ञान पर, तब
प्रयास होता
है कि तुम
हृदय, बुद्धि
दोनों का अतिक्रमण
करके साक्षी
बनी। लेकिन
बुद्धि के लिए
तो बोलता ही
नहीं। बुद्धि
तो खाज जैसी
है, जितना
खुजलाओ.।
खुजलाते वक्त
लगता है सुख, पीछे बड़ी
पीड़ा आती है।
तुम्हारी
बुद्धि के लिए
नहीं बोल रहा
हूं तुम्हारे
सिर के लिए
नहीं बोल रहा
हूं। या तो
बोलता हूं
हृदय के लिए
कभी,
या बोलता
हूं उसके लिए
जो सब के पार
है—हृदय, बुद्धि
दोनों के। या
तो साक्षी के
लिए या तुम्हारे
भाव के लिए।
या तुम्हारे
प्रेम के लिए
या सत्य का
तुम्हारे
भीतर जागरण हो,
उसके लिए।
और
अधिकतम लाभ
उन्हीं को
होगा, जो
बुद्धि को छोड़
कर सुनेंगे।
बुद्धि से
सुना कुछ खास
सुना नहीं।
शब्दों का सुन
लेना कुछ
सुनना नहीं
है।
मैं
जो बोल रहा
हूं उसकी
ध्वनि
तुम्हें
गुंजाने लगे, तुम
सांप की तरह
डोलने लगो। यह
कोई तर्क नहीं
है जो मैं
यहां दे रहा
हूं—स्थ
उपस्थिति है।
इस उपस्थिति
से तुम आंदोलित
हो जाओ!
शुभ
हो रहा है, फिक्र
मत करो। जब
होता है ऐसा
तो बड़ी चिंता
होती है, क्योंकि
आए थे सुनने
और यह क्या
होने लगा, ध्वनि
ही ध्वनि
गूंजती रह गई!
हाथ तो कुछ
आया नहीं, ऐसा
लगता है। सोचा
था, कुछ
ज्ञान लेकर
लौटेंगे, कुछ
पोथी थोड़ी और
बड़ी हो जाएगी
बुद्धि की, थोड़ा और भार
लेकर लौटेंगे,
यह क्या हुआ
जा रहा है? सिद्धात
तो हाथ नहीं आ
रहे, संगीत
हाथ आ रहा है।
संगीत लेने तो
आए भी नहीं थे,
यह तो सोचा
भी नहीं था।
तो मन में
चिंता भी व्यापती
है। और ऐसा भी
लगता है, कहीं
ऐसा तो नहीं
हम गंवाए दे
रहे हैं? क्योंकि
सदा तो केवल
हमने जीवन में
शब्द ही जोड़े,
सिद्धात ही
जोड़े। इसलिए
स्वभावत:
हमारा अतीत कहता
है, यह
क्या कर रहे
हो? कुछ
संगृहीत कर लो,
कुछ ज्ञान
पकड़ लो, कुछ
जुटा लो, काम
पड़ेगा पीछे।
इस
मन की बातों
में मत पड़ना।
अगर तुम्हें
संगीत सुनाई
पड़ने लगा, अगर
ध्वनि सुनाई
पड़ने लगी, अगर
भीतर लहर आने
लगी, तो शब्द
से तुम पार
निकले। शब्द
से पार जाता
है संगीत।
इसलिए तो
संगीत सभी को आंदोलित
कर देता है।
संगीत की कोई
भाषा सीमित
नहीं है।
हिंदी बोलो; जो हिंदी
समझता है, समझेगा।
चीनी बोलो; जो चीनी
समझता है, समझेगा।
जो चीनी नहीं
समझता, उसके
लिए तो सब
व्यर्थ है।
लेकिन वीणा
बजाओ, सारे
जगत में कहीं
भी वीणा
बजाओ..।
स्विटजरलैंड
में एक विश्व
कवि—सम्मेलन
था। उसमें
भारत से दो
कवि भाग लेने
गए—एक हिंदी
के कवि और एक
उर्दू के।
उर्दू के कवि थे—सागर
निजामी।
हैरानी हुई कि
हिंदी के कवि
को तो लोगों
ने सुन लिया
सौजन्यतावश, लेकिन
कोई मांग न आई
कि फिर—फिर
सुनाओ। लेकिन
सागर निजामी
के लिए तो लोग
पागल हो गए।
खूब मांग आने
लगी कि फिर से
सुनाओ, फिर
से सुनाओ। खुद
सागर निजामी
हैरान हुआ कि
मामला क्या
है! इनको समझ
में तो कुछ
आता नहीं। लेकिन
तरजुम गीत तो
पकड़ में आता
था। शब्द पकड़
में नहीं आते
थे। हिंदी कविता
तो आधुनिक
कविता थी।
उसमें न कोई
तुक न कोई छंद
न कोई
लयबद्धता।
सुन ली, अगर
भाषा समझ में
आती तो शायद
कुछ समझ में
भी आ जाता, भाषा
समझ में नहीं
आती तो फिर तो
कुछ बचा नहीं।
छह घंटे तक
सागर निजामी
को लोगों ने
बार—बार सुना।
थका डाला, मगर
सागर निजामी
चकित! पीछे
पूछा लोगों से
कि बात क्या
है? तुम्हारी
समझ में तो
कुछ आता नहीं?
उन्होंने
कहा,
समझ का कोई
सवाल भी नहीं।
वह जो तुम
गाते हो, वह
जो धुन है, वह
पकड़
लेती
है,
वह हृदय को
मथ जाती है।
हम समझे नहीं,
फिर भी समझ
गए।
यहां
जो मैं तुमसे
बोल रहा हूं,
उसमें अगर
तुम्हें शब्द
ही समझ में
आएं तो परिधि
समझ में आई।
अगर संगीत पकड़
में आ जाए तो
केंद्र पकड़
में आ गया। अगर
शब्द ही ले कर
गए तो तुम
थोड़े और
बुद्धिमान हो
जाओगे; वैसे
ही तुम
बुद्धिमान थे,
और बीमारी
बढ़ी। अगर
संगीत पकड़ में
आया, तो
तुम सरल हो कर
जाओगे। वह जो
तुम
बुद्धिमानी लाए
थे, वह भी
यहीं छोड़
जाओगे।
मैं
भरा,
उमड़ा— भरा, उमड़ा गगन
भी।
आज
रिमझिम मेघ, रिमझिम
हैं नयन भी।
कौन
कोना है गगन
का आज सूना
कौन
कोना प्राण मन
का आज सूना
पर
बरसता मैं, बरसता
है गगन भी
आज
रिमझिम मेघ, रिमझिम
हैं नयन भी।
मौन
मुखरित हो गया, जय
हो प्रणय की
पर
नहीं
परितृप्त है
तृष्णा हृदय
की।
पा
चुका स्वर, आज
गायन खोजता
हूं
पा
चुका स्वर, आज
गायन खोजता
हूं
मैं
प्रतिध्वनि
सुन चुका, ध्वनि
खोजता हूं
पा
गया तन, आज
मैं मन खोजता
हूं
मैं
प्रतिध्वनि
सुन चुका, ध्वनि
खोजता हूं।
जो
शब्द हैं, वे
तो तन की
भांति हैं, देह की
भांति, उनके
भीतर छिपा हुआ
जो रस है, वह
शब्दों की
आत्मा है। जब
तुम डोलने लगो,
जब तुम्हें
मेरी ध्वनि
घेरने लगे, तुम मेरी
ध्वनि में
खोने लगो, मेरी
ध्वनि जब
तुम्हें नशे
की तरह मदमस्त
कर दे—तब
तुमने प्राण
को छुआ, तब
तुमने मूल
स्वर को छुआ!
वेणुधारी!
वेणु तुम ऐसी
बजाना
विस्मरणकारी
कि गत
वनप्रांत
निर्गत
मैं
चलूं पीछे
तुम्हारे
मुग्ध
अवनत
चेतनाहत।
रूँ
तत्सत्
तत्सत् सतत
वेणुधारी!
तुम वेणु ऐसी
बजाना
विस्मरणकारी
कि गत
वनप्रांत
निर्गत
मैं
चलूं पीछे
तुम्हारे
मुग्ध
अवनत
चेतनाहत।
जो
कह रहा हूं वह
तो ऊपर—ऊपर है; जो
तुम्हें दे
रहा हूं वह
कहने से बहुत
भिन्न और बहुत
गहरे है। शब्द
तो तुम्हें
उलझाए रखने को
हैं, ताकि
तुम शब्दों
में उलझे रहो
और मैं
तुम्हारे
हृदय के पात्र
को भर दूं — भर
दूं ओंम
तत्सत् से!
शब्द
तो तर्कजाल है; जीवन
के द्वार वहां
से नहीं
खुलते।
वस्तुत: तर्क
के कारण ही
बहुत लोग भटके
रह जाते हैं।
सुनो
मेरे शब्दों
को,
पर जरा गहरे
झांकना। सतह
पर ही मत अटके
रहना। सतह पर
तरंगें हैं, तुम जरा
गहरे उतरना, डुबकी
लगाना। अगर
तुमने मेरे
शब्दों में
डुबकी लगाई, तो तुम
शून्य का रस
पाओगे। वही
उनकी ध्वनि
है। और यह
तुम्हारे बस
में नहीं है
कि तुम इसे
जबर्दस्ती कर
लो। यह सहज
होता है तो ही
होता है, होता
है तो ही होता
है।
तो
जिसने पूछा है, उसे
हो रहा है। 'आनंदतीर्थ'
का प्रश्न
है। तो अब
इसकी आकांक्षा
मत करने लगना,
अन्यथा
अड़चन पड़
जाएगी। अब ऐसा
मत करना कि कल
तुम बिलकुल जम
कर बैठ जाओ कि
आज और हो, और
गहरा हो—तो
चूक जाओगे। यह
तो हो ही रहा
है। तुम इसमें
बीच में मत
आना, तुम
इसकी
आकांक्षा भी
मत करना; तुम
इसकी
प्रतीक्षा भी
मत करना, अपेक्षा
भी मत करना—तो
यह गहरा होता
जाएगा। अगर
तुमने इसकी
अपेक्षा की और
तुम
प्रतीक्षा
करने लगे, तो
बुद्धि आ गई, हिसाब आ गया,
अड़चन आ गई।
फिर तुम अचानक
पाओगे कि अब
वह बात नहीं
घटती।
तुम्हारे
घटाए घटती ही
नहीं थी।
यह
प्रश्न तो तीन—चार
दिन पुराना है, मैंने
उत्तर नहीं
दिया था। जान
कर रोक रखा था कि
होने दो कुछ
देर और, रस
और थोड़ा
प्रगाढ़ हो
जाने दो।
क्योंकि
कहीं ऐसा न हो
कि मेरे कहने
से तुम्हारे
भीतर वासना जग
जाए कि यह तो
ठीक,
अब और हो!
जहां 'और' आया, मन
आया। जहां
मांग आई, मन
आया। और जहां
मांग आई, वहीं
तुम भिखमंगे
हुए; वहीं
भिखारी हुए; वहीं दीन—दुर्बल!
होते
हैं क्षण
जो
देशकाल मुक्त
हो जाते हैं।
होते
हैं,
पर
ऐसे क्षण हम
कब दोहराते
हैं?
या
क्या हम लाते
हैं?
उनका
होना, जीना, भोगा जाना
है
स्वैर्सिद्ध, सब
स्वत—मूर्त
हम
इसीलिए तो
गाते हैं।
तो
जब ग्गुनगुन आ
जाए,
गा लेना। जब
ध्वनि पकड़ ले,
डूब लेना, डुबकी ले
लेना। जब न आए,
तो तने बैठे
प्रतीक्षा मत
करना। हवा के
झोंके हैं; जब आते हैं, आते हैं।
ऐसे ही प्रभु
के झोंके भी
आते हैं।
मनुष्य के हाथ
में नहीं है
खींच लाना।
प्रसाद—रूप
आते हैं।
बस
इतना खयाल
रहे। सब शुभ
हो रहा है।
मांग भर न बने।
अन्यथा
मनुष्य के मन
की पुरानी आदत
है,
जिसमें. सुख
मिलता है उसकी
मांग पैदा हो
जाती है। बस
वहीं सब अड़चन
हो जाती है।
दोहराने की बात
ही मत करना।
जीवन में कोई
अनुभव
दोहराया नहीं
जा सकता। होगा,
बार—बार
होगा; लेकिन
तुम दोहराने
की आकांक्षा
मत करना। ज्यादा—ज्यादा
होगा, लेकिन
तुम दोहराने
की आकांक्षा
मत करना।
तुम
तो जो प्रभु
दे दे, उसे
स्वीकार कर
लेना। जिस दिन
दे दे, धन्यवाद।
जिस दिन न दे, उस दिन भी
धन्यवाद।
क्योंकि जिस
दिन न दे, समझना
कि आज
आवश्यकता न थी,
जरूरत न थी।
जिस दिन दे, समझना जरूरत
थी।
तीसरा
प्रश्न :
आपसे
संबंधित होने
के लिए क्या
संन्यास अनिवार्य
है?
मैंने अभी
संन्यास नहीं
लिया है और न
व्यक्तिगत
रूप से आपसे
मिला ही हूं।
फिर भी आपके
प्रति अजीब
अनुभूतियों
से भर जाता
हूं; कभी
रोता हूं और
कभी आपको
निहारता ही रह
जाता '।
प्रभु, ऐसा
क्यों होता है?
और यह कि ' क्या करूं?
पहली
बात,
पूछा है. 'आपसे
संबंधित होने
के लिए क्या
संन्यास अनिवार्य
है?' यह ऐसे
ही पूछना है, जैसे कोई
पूछे कि क्या
आपसे संबंधित
होने के लिए
संबंधित होना
अनिवार्य है?
संन्यास
तो केवल ढंग
है,
बहाना है
संबंधित होने
का। यह तो एक
उपाय है संबंधित
होने का। किसी
व्यक्ति का
हाथ आप अपने हाथ
में ले लेते
हैं, तो
क्या हम पूछते
हैं कि प्रेम
प्रगट करने के
लिए क्या हाथ
में हाथ लेना
अनिवार्य है?
किसी को हम
छाती से लगा
लेते हैं, तो
क्या हम पूछते
हैं कि क्या
प्रेम के होने
के लिए छाती
से लगाना
अनिवार्य है?
अनिवार्य
तो नहीं है।
प्रेम तो बिना
छाती से लगाए
भी हो सकता
है। लेकिन जब
प्रेम हो, तो
बिना छाती से
लगाए रह सकोगे?
फिर
से सुनो।
प्रेम
तो हाथ हाथ
में पकड़े बिना
भी हो सकता
है। लेकिन जब
प्रेम होगा, तो
हाथ हाथ में
लिए बिना रह
सकोगे? साथ
साथ आते हैं।
अभिव्यक्तियां
हैं। जिससे तुम्हें
प्रेम है, उसके
पास कुछ भेंट
ले जाते हो—फूल
ही सही, फूल
नहीं तो फूल
की पांखुरी ही
सही। क्या
प्रेम के लिए
भेंट ले जाना
अनिवार्य है?
जरा भी
नहीं। लेकिन
जब प्रेम होता
है तो देने का
भाव होता है।
संन्यास
क्या है? संन्यास
है इस बात की
घोषणा कि मैं
अपने को देने
को तैयार हूं!
संन्यास है इस
बात की घोषणा
कि आप मेरा
हाथ अपने हाथ
में ले लो!
संन्यास है इस
बात की घोषणा
कि आप अगर हाथ
मेरा अपने हाथ
में लोगे, तो
मैं छुड़ा कर
भागंगा नहीं।
संन्यास तो
केवल एक भाव—
भंगिमा है—और
बड़ी बहुमूल्य
है। मैं आपके
संग—साथ हूं
आप भी मेरे
संग—साथ रहना—इस
बात की
एक
आंतरिक
अभिव्यक्ति
है।
पूछते
हैं,
'आपसे
संबंधित होने
के लिए क्या
संन्यास अनिवार्य
है?'
और
जिसने पूछा है, वे
ज्यादा देर
संन्यास से बच
न सकेंगे।
पूछा ही
इसीलिए है कि
अब बात खड़ी हो
गई है प्राण
में। अब
मुश्किल खड़ी
हो गई है। अब
संन्यास लिए
बिना रहा न
जाएगा; चुनौती
आ गई है। भय भी
है, इसलिए
प्रश्न उठा
है। लेकिन जब
जीवन में कभी
कोई विधायक का
जन्म होता है,
जब भी कोई
विधायक दिशा
खुलती है, तो
फिर कितने ही
भय हों, उनके
बावजूद आदमी
को जाना ही
पड़ता है।
पुकार
तुमने सुन ली
है। इसीलिए तो
रो रहे हो, इसीलिए
तो निहार रहे
हो। अब कब तक
रोते रहोगे, कब तक
निहारते
रहोगे? द्वार
खुले हैं, प्रवेश
करो।
'अभी संन्यास
नहीं लिया है
और न
व्यक्तिगत
रूप से आपसे
मिला ही हूं। '
शायद
व्यक्तिगत
रूप से मिलने
में भी डर
होगा। और
सम्हल कर ही
मिलना, कि आए
कि मैंने
संन्यास दिया!
तुम छिपा न
सकोगे। प्रेम
कहीं छिपा? तुम लाख
उपाय करणैं, छिपा न
सकोगे। मेरे
सामने आए कि
मैं पहचान ही लूंगा,
कि यही हो तुम
जो रो रहे थे, कि यही हो
तुम जो निहार
रहे थे। तो
सोच कर ही आना!
वस्तुत:
मेरे सामने
तुम आते ही तब
हो,
जब
तुम्हारे
जीवन में
समर्पण की
तैयारी हो गई;
तुम छोड़ने
को राजी हो; तुम नत होने
को तैयार हो; तुम मेरे
शून्य के साथ
गठबंधन करने
को तैयार हो।
यह भी एक भांति
का विवाह है।
ये भी सात
फेरे हैं। यह
जो माला तुम्हारे
गले में डाल
दी है, यह
कोई फांसी से
कम नहीं है।
यह तुम्हें
मिटाने का
उपाय है। ये
जो वस्त्र
तुम्हारे
गैरिक अग्नि
के रंगों में
रंग दिए, ये
ऐसे ही नहीं
हैं, यह
तुम्हारी
चिता तैयार
है। तुम
मिटोगे तो ही तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
आविर्भाव
होगा।
संन्यास
साहस है—अदम्य
साहस है। और
मेरा संन्यास
तो और भी। क्योंकि
इसके कारण
तुम्हें कोई
समादर न
मिलेगा। इसके
कारण तुम्हें
कोई पूजा, शोभा—यात्रा,
कोई जुलूस,
कुछ भी न
होगा। इसके
द्वारा तो तुम
जहां जाओगे
वहीं अड़चन, वहीं झंझट
होगी, पत्नी,
बच्चे, पिता,
मां, परिवार,
दूकान, ग्राहक—जहां
तुम जाओगे
वहीं अड़चन
होगी। यह तो
मैं तुम्हारे
लिए सतत
उपद्रव खड़ा कर
रहा हूं।
लेकिन इस
उपद्रव को अगर
तुम
शातिपूर्वक
झेल सके, तो
इसी से साक्षी
का जन्म हो
जाएगा। इस
उपद्रव को अगर
तुम मेरे
प्रेम के कारण
झेलने को राजी
रहे, तो
इसी से भक्ति
का जन्म हो
जाएगा।
मेघ
गरजा,
घोर
नभ में मेघ
गरजा।
गिरी
बरखा
प्रलय
रव से गिरी
बरखा।
तोड़
शैलों के शिखर
बहा
कर धारें
प्रखर
ले
हजारों घने
धुंधले
निर्झरों को
कह
रही है वह नदी
से
उठ, अरी
उठ!
कई
जन्मों के लिए
तू
आज भर जा
मेघ
गरजा।
यह जो
मैं तुमसे
निरंतर पुकार
कर रहा हूं कि
उठो,
भर लो अपने
को...
उठ, अरी
उठ!
कह
रही है वह नदी
से
ले
हजारों घने
धुंधले
निर्झरों को
बहा
कर धारें
प्रखर
तोड़
शैलों के शिखर
उठ, अरी
उठ!
कई
जन्मों के लिए
तू
आज भर जा
मेघ
गरजा।
बुद्ध
ने तो समाधि
की अवस्था को ' धर्म—मेघ'
समाधि कहा
है, कि जब
कोई समाधि को
उपलब्ध होता
है, तो मेघ
बन जाता है।
धर्म—मेघ
समाधि! धर्म
का जल उससे
झरने लगता है,
जैसे मेघ से
वर्षा गिरती
है।
अरी
उठ!
कई
जन्मों के लिए
तू
आज भर जा
मेघ
गरजा।
यह
समय तुम छोडो
मत। यह पुकार
उठी है, इसे
दबाओ मत। यह
संन्यास का
आकर्षण पैदा
हुआ है, चूको
मत।
क्योंकि
शुभ करना हो
तो देर मत
करना। और अशुभ
करना हो तो
जल्दी मत
करना। क्रोध
आए,
तो कहना कल
कर लेंगे।
प्रेम आए, तो
अभी कर लेना, कल का क्या
भरोसा है!
दुश्मनी करनी
हो, कल—परसों
टालते जाना, टालते जाना।
लेकिन दोस्ती
बनानी हो, तो
क्षण भर नहीं
टालना। अभी
यहीं। अभी, तो ही होगी
दोस्ती। अगर
सोचा फिर कभी,
तो कभी
नहीं।
मैं
भी तुमसे
मिलने को आतुर
हूं। मेघ जब
बरसता है
पृथ्वी पर तो
ऐसा मत सोचना
कि पृथ्वी ही
प्यासी है—मेघ
भी आतुर है।
पृथ्वी ही
प्रसन्न नहीं
होती जब जल की
बूंदें उसके
सूखे कंठ को
गीला कर जाती
हैं,
मेघ भी
आनंदित होता
है।
कौन
मिलनातुर
नहीं है!
आ
क्षितिज फैली
हुई मिट्टी
निरंतर
पूछती है
कब
मिटेगा, कब
कटेगा
बोल
तेरी चेतना का
शाप?
और
तू हो लीन
मुझमें
फिर
बनेगा शांत।
कौन
मिलनातुर
नहीं है!
गगन
की निर्बंध
बहती वायु
प्रतिपल
पूछती है
कब
गिरेगी टूट
तेरी
देह
की दीवार
और
तू हो लीन
मुझमें
फिर
बनेगा मुक्त?
कौन
मिलनातुर
नहीं है!
सर्वव्यापी
विश्व का
व्यक्तित्व
प्रतिक्षण
पूछता है
कब
मिटेगा बोल
तेरा
अहं
का अभिमान
और
तू हो लीन
मुझमें
फिर
बनेगा पूर्ण?
कौन
मिलनातुर
नहीं है!
परमात्मा
भी मिलने को
आतुर है।
तुम्हीं नहीं
खोज रहे हो
उसे;
वह भी खोज
रहा है।
तुम्हीं नहीं
दौड़ रहे उसकी तरफ;
वह भी दौड़
रहा है। अगर
यह आग एक ही
तरफ से लगी होती
तो मजा ही न
था। यह आग
दोनों तरफ से
लगी है। तो ही
तो मजा है, तो
ही तो इतना रस
है।
संन्यास
का मैंने
निमंत्रण
दिया है; क्योंकि
जो मेरे पास
है, मैं वह
बांटना चाहता
हूं। तुम ले
लोगे, तो
मैं तुम्हारा
कृतश! तुम ले
लोगे, तो
मेरा धन्यवाद
तुम्हें। जब
कभी मन में
ऐसा भाव उठे
छलांग लगाने
का, तो
झिझकना मत, क्योंकि कभी—कभी
ऐसे हिम्मत के
क्षण आते हैं।
उस हिम्मत के
क्षण में घटना
घट जाए तो घट जाए;
अन्यथा तुम
टाल गए; सोचा,
कल कर
लेंगे.। कल का
क्या भरोसा
है!
बुद्ध
एक गांव से
तीस बार निकले
चालीस वर्षों की
यात्रा में।
और एक आदमी
बार—बार सोचता
था जाना है!
लेकिन कभी घर
मेहमान आ गए, कभी
पत्नी बीमार
हो गई। अब
पत्नियों का
कोई भरोसा
थोड़े ही है, कब बीमार हो
जाएं! ऐन वक्त
पर हो जाती
हैं। कभी
दूकान पर ज्यादा
ग्राहक, कभी
खुद को
सिरदर्द हो
गया। कभी जा
ही रहा था, दूकान
बंद ही कर रहा
था कि कोई
मित्र आ गया
वर्षों के
बाद। ऐसे अड़चन
आती रही, आती
रही। सोचा, अगली बार जब
आएंगे..। ऐसा
तीस बार बुद्ध
आए गांव और
तीस बार वह
आदमी चूक गया।
चौंकना
मत,
सोचना मत कि
तीस बार बहुत
हो गया। तुम
भी कम से कम
तीन हजार बार
चूके हो।
कितने जन्मों
से तुम यहां
हो, कितने
बुद्धों से
तुम्हारा
मिलना न हुआ
होगा! जीवन के
पथों पर बहुत
बार बुद्धों
के आस—पास
गुजर गए होओगे,
लेकिन
तुमने कहा 'कल! फिर मिल
लेंगे, अभी
जल्दी
क्या? अभी और
दूसरे काम
जरूरी हैं, वह पहले
निपटा लेना
है।'
परमात्मा
को तो हम
फेहरिस्त पर
आखिर में रखते
हैं;
जब कुछ करने
को न होगा, तब
परमात्मा को
सूझ—बूझ
लेंगे।
फिर
एक दिन अचानक
गांव में खबर
आई कि बुद्ध
ने घोषणा की
कि आज वे देह
छोड़ रहे हैं, तब
वह आदमी
घबराया। तब
उसने फिक्र न
कि पत्नी बीमार
है, कि
बच्चे का
विवाह करना है,
कि दूकान पर
ग्राहक है—वह
भागा। दूकान
बंद भी नहीं
की और भागा।
लोगों ने कहा,
पागल हो गए
हो, कहां
जा रहे हो? उसने
कहा, अब
बहुत हो गया।
वह भाग कर
पहुंचा, लेकिन
देर हो गई थी।
बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं से
पूछा था घड़ी—
भर पहले : कुछ
पूछना तो नहीं?
अन्यथा मैं
अब विलीन होऊं,
मेरा समय आ
गया है, मेरी
नाव आ लगी
किनारे, अब
मैं जाऊं?
भिक्षुओं
ने कहा. आपने
बिना पूछे
इतना कहा, बिना
मांगे इतना
दिया है—अब
पूछने को कुछ
भी नहीं। जो
आपने दिया है,
उसे ही हम कहां
समझ पाए? जो
आपने कहा है, उसे ही हम
अभी कहां गुन
पाए? जन्म—जन्म
लगेंगे हमें,
तब कहीं हम
उसका सार
निकाल
पाएंगे।
भिक्षु
तो रोने लगे।
बुद्ध वृक्ष
के पीछे जा कर
बैठ गए।
उन्होंने
शरीर का
साक्षी— भाव
साधा, शरीर से
अलग हो गए। मन
का साक्षी—
भाव साध रहे
थे, मन से
अलग होते जाते
थे, तभी वह
आदमी भागता
हुआ पहुंचा।
उसने कहा. कहां
हैं? बुद्ध
कहां हैं? अब
और नहीं चूक
सकता। अब कल
नहीं बचा, क्योंकि
अब वे जा रहे
हैं।
भिक्षुओं
ने कहा : अब तुम
चुप रहो, तुम
चूक ही गए। हम
तो उनसे विदा
भी ले चुके।
अब तो वे धीरे —
धीरे जीवन की
पर्तों को छोड़
कर अनंत की
यात्रा पर जा
रहे हैं। उनकी
नाव तो किनारे
से छूटने के
करीब है। अब
नहीं, अब
बहुत देर हो
गई।
लेकिन
कहते हैं, बुद्ध
ने जैसे ही यह
सुना...। वे मन
से छूट ही रहे थे।
मन से छूट गए
होते, तब
तो सुन भी
नहीं सकते थे।
मन की आखिरी
जगह से नाव की
रस्सी खोल रहे
थे कि सुन
लिया, कि
वापिस लौट आए।
उठ कर आए और
कहा. मत रोको, मेरे नाम पर
लांछन रह
जाएगा कि मैं
जीवित था, कोई
मेरे द्वार
आया था, झोली
ले कर आया था
और खाली हाथ
लौट गया। नहीं,
ऐसा मत करो।
उसे क्या
पूछना है, पूछ
लेने दो। उसने
तीस साल तक
भूल की, इससे
क्या मैं भूल
करूं? और
जब भी आ गया वह,
तभी जल्दी
है। तीस साल
में भी कौन
आता है! अनेक लोग
हैं जो तीस—तीस
जन्मों तक
नहीं आते हैं।
जब
ऐसा भाव जगे
तो हिम्मत
करना।
जग
के कीचड़ कादों
से
लथपथ
मटमैली
काल
कंटकित
झंखाड़ों में
अटकी—झटकी
चित
चिरबत्ती
जीवन
के श्रम ताप
स्वेद से
बुसी
कुचैली
चादर
का अब मोह
निवारो।
दलदल, जंगल,
पर्वत
मरुथल
मारी—मारी
फिरी
शिथिल
विकथित काया
से
जीर्ण—शीर्ण
यह वसन
उतारों।
तारक
सिकता फूलों
में
अविरत
बहती
शुभ्र
गगन गंगाधारा
में
मल—दल
नहला
नव
निर्मल कर
जलन
थकन हर
अपने
तन पर
वत्सलता
करुणा
अनुरंजित
सतरंगा
परिधान संवारो।
सतह
पर अस्तित्व
का उत्थान
किरणावली
समुज्ज्वल
मोतियों
की मुक्त कर
बौछार
कल—कल
गान
शत—शत
लहरियों के
संग
उमगित
अंग
तट
को प्रथम छूने
के लिए
प्रतियोगिता
अभियान
अब
सब वह बिसारो।
अब
लहर नत शीश
तिमिराच्छन्न
अंतर
सत्र
अंग— अंग
सर्वथा
निस्संग
निर्धन
हर
तरह से हार
अपना
रिक्त हस्त
पसार
अपने
मूक नयनों से
किनारा
देख अंतिम बार
पारावार
से असहाय
एकाकार
भूलो
लहर को
प्रभु
को पुकारों!
जब आ
जाए घड़ी, मन
जब राजी हो—चूक
मत जाना उस
क्षण को।
बुद्ध
कहते थे, एक
राजमहल में एक
अंधा आदमी बंद
था। उस राजमहल
में बहुत
द्वार थे।
लेकिन सब द्वार
बंद थे, सिर्फ
एक द्वार राजा
ने खुला छोड़ा
था। वह अंधा
आदमी निकलने
के प्रयास
करता है। वह
टटोलता, टटोलता,
टटोलता—लेकिन
सब द्वार बंद।
और जब वह खुले
द्वार के करीब
आया, तो
उसके सिर में
खुजलाहट आ गई
तो वह सिर
खुजलाने लगा,
निकल गया।
फिर टटोलने
लगा। फिर
महीनों के श्रम
के बाद फिर उस
द्वार पर आया,
बड़ा महल, तब एक मक्खी
उसके मुंह पर
आ गई, तो वह
मक्खी उड़ाने
में लग गया, तब तक वह
द्वार निकल
गया। एक ही
खुला द्वार, ऐसे हजार—हजार
द्वार थे
राजमहल में।
लेकिन खुले
द्वार पर जब
आया, तभी
कोई निमित्त,
कारण बन
गया। जीवन में
करोड़ों क्षण
हैं, किसी
एक क्षण में
तुम संन्यास
के करीब होते
हो। उस वक्त
मक्खी मत
उड़ाने लगना।
उस वक्त सिर मत
खुजलाने
लगना। फिर वह
द्वार दुबारा
आए न आए।
अब
लहर नत शीश
तिमिराच्छन्न
अंतर
सत्र
अंग अंग
सर्वथा
निस्संग निर्धन
हर
तरह से हार
अपना
रिक्त हस्त
पसार
अपने
मूक नयनों से
किनारा
देख अंतिम बार
पारावार
से असहाय
एकाकार
भूलो
लहर को
प्रभु
को पुकारो!
पूछा
है,
'व्यक्तिगत
रूप से आपसे
अभी तक मिला
नहीं, फिर
भी आपके प्रति
अजीब
अनुभूतियों
से भर जाता
हूं। कभी रोता
हूं कभी आपको
निहारता रह
जाता हूं। '
शुभ
लक्षण हैं।
कहीं तालमेल
बैठ रहा है।
कहीं तुम्हारी
धारा मेरी
धारा के साथ
बहने के लिए तैयार
हो रही है।
तुम राजी हो
रहे हो पंख
खोल कर उड़ने
को। इसलिए नई—नई
अनुभूतयों का
उन्मेष होगा।
डर मत जाना, क्योंकि
नए से बड़ा भय
लगता है।
पुराने से तो
हम परिचित
होते हैं।
परिचित से भय
नहीं लगता। परिचित
से चाहे दुख
मिले, मगर
भय नहीं लगता।
इसलिए तो लोग
इतने दुखी रहते,
फिर भी दुख
को बदलते
नहीं। दुख से
परिचय हो जाता
है, संबंध
जुड़ जाता है।
अगर अचानक सुख
तुम्हारे द्वार
पर आ जाए, तो
तुम मेरी मानो,
पक्की मानो,
तुम द्वार
बंद कर लोगे।
तुम कहोगे :
सुख, पहली
तो बात होता
ही नहीं सुख
दुनिया में।
दूसरी बात, धोखा होगा।
और तीसरी बात,
अब
बामुश्किल तो
दुख से राजी
हो पाए हैं, अब मत
उखाड़ी। किसी
तरह जम पाए
हैं। किसी तरह
संबंध बन गया
है, अब यह
नया और झंझट
कौन ले! फिर से
कौन शुरुआत
करे!
लोग
कारागृह मैं
भी आदी हो
जाते हैं रहने
को,
फिर उन्हें
बाहर अच्छा
नहीं लगता।
मैं
मध्य—प्रदेश
में कुछ
वर्षों तक था, तो
वहां की
सेंट्रल जेल
में जाता था।
गवर्नर मेरे
एक मित्र थे, तो उन्होंने
कहा कि आप
बाहर के
कैदियों को कब
तक समझाएंगे,
भीतर के
कैदियों को भी
समझाएं।
मैंने कहा, ठीक, मैं
आऊंगा। तो
वहां पहली बार
गया जेल में, तो मैंने जो
लोग देखे; दुबारा
गया कुछ महीने
बाद, वही
लोग, वही
लोग। बरस
बीतते गए। कभी
कोई छूट जाता,
फिर महीने
दो महीने के
भीतर वापिस
जेल में आ जाता।
मैंने एक के
कैदी से पूछा,
तू कितनी बार
जेल में आया
है? उसने
कहा, यह
मेरा तेरहवां
तेरहवीं बार
आया हूं।
'तो बाहर
रहने में अड़चन
क्या है तुझे?'
कहता, बाहर
अच्छा नहीं
लगता। सब
मित्र—प्रियजन
यहीं हैं।
अपने वाले सब
यहीं हैं। बाहर
बड़ा अजनबीपन—सा
लगता है।
किससे बोलो? किससे बात
करो? फिर
कहा, हजार
झंझटें हैं
बाहर। रोटी—रोजी
कमाओ, मकान
ढूंढो, रहने
का इंतजाम
करो। यहां सब
सुविधा है। न
रोटी—रोजी की
फिक्र, न
राशन लेने
लाइन में खड़े
होना पड़ता है,
न सुबह चार
बजे से पानी
भरने के लिए
नल पर खड़े रहो।
सब यहां
सुविधा है। यह
तो लाखों का
महल है, वह
कहने लगा।
डॉक्टर, जब
जरूरत तो
डॉक्टर आता
है। इतनी सारी
सुविधा के लिए
ये थोड़ी—सी
जंजीरें सहना
कुछ महंगा
सौदा नहीं।
फिर शुरू—शुरू
में आया था तो
बुरा भी गलता
था, अब तो
सबसे दोस्ती
भी हो गई है।
पुलिस वाले भी
पहचानते हैं,
अपने वाले
हैं, जेलर
भी जानता है।
यह अपना घर
है। अब कहां
जाना? छोड़
देते हैं, तो
मैं महीने दो
महीने में फिर
उपाय करके
भीतर आ जाता
हूं।
कारागृह
में भी तुम
ज्यादा देर रह
गए,
तो घर बन
जाता है। और
तुम जिस
कारागृह में
हो, इसमें
कई जन्मों से
हो। इसलिए अगर
कभी तुम्हें
बाहर के
पक्षियों के
गीत बुलाएं, जो मुक्त
हैं, अगर
उनकी वाणी
तुम्हें
पुकारे, तो
तुम इन
जंजीरों को
तोड्ने की
हिम्मत करना।
और
मजा तो यह है
कि इस कारागृह
में कोई दूसरा
जंजीरों पर
पहरा नहीं दे
रहा है, तुम
ही पहरा दे
रहे हो। कोई
दूसरा
तुम्हें रोक
नहीं रहा है।
कोई संतरी
तुम्हारे सिर
पर नहीं खड़ा
है, तुम्हीं
रोक रहे हो।
यहां
तुम्हारे दुख
का कारण तुम
हो। कभी अगर तुम्हें
आकाश में उड़ते
पक्षियों का
इशारा मिल जाए,
तो मैं
तुमसे कहता
हूं : द्वार
खुले हैं
तुम्हारे
पिंजरे के, किसी ने बंद
किया नहीं।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम नए को
प्रयोग करने
को तैयार हो।
संन्यास का
इतना ही अर्थ
है कि तुम
पुराने दुख के
साथ संबंध तोड्ने
की हिम्मत
रखते हो।
संन्यास का
इतना ही अर्थ
है कि तुम
जीवन को एक नई
शैली, एक नया
परिधान देने
को राजी हो; तुम एक
प्रयोग करने
को राजी हो।
संन्यास
साहस है।
और
तुम्हारे
भीतर जो नई—नई
अनुभूइतयों
की तरंगें बह
रही हैं, वे
तरंगें खो न
जाएं।
क्योंकि
तरंगें आती
हैं; अगर
तुम उन तरंगों
को जीवन में
स्वीकार न करो
तो खो जाती
हैं। तरंगें
उठती हैं; अगर
उन तरंगों के
साथ तुम अपने
जीवन को
रूपांतरित न
करो, तो
तरंगें सदा
नहीं उठेंगी।
आएंगी, खो
जाएंगी। धीरे—
धीरे उन
तरंगों के भी
आदी हो जाओगे।
अगर तुम किसी
मुक्तपुरुष
की वाणी को
बार—बार सुनते
रहो, सुनते
रहो और कुछ न
करो, तो
धीरे— धीरे
तुम सुनने के
आदी हो जाओगे।
फिर चोट न पड़ेगी।
फिर तुम्हारे
भीतर कोई हलन—चलन
न होगा, आख
से आंसू न
बहेंगे।
जो
मित्र पूछे
हैं,
अभी नया—नया
संपर्क है। इस
नए संपर्क में
नई अनुभूतियां
उठ रही हैं।
इसके पहले कि
ये
अनुभूतियां
अपना अर्थ खो
दें, इसके
पहले कि ये
तरंगें जड़ हो
जाएं, इसके
पहले कि
तुम
इन तरंगों को
भी धीरे— धीरे
स्वीकार कर लो, और
ये भी पुरानी
पड़ जाएं—छलांग
ले लेना।
'कभी रोता हूं
कभी आपको
निहारता रह
जाता हूं।'
रोना
खबर है इस बात
की कि संबंध
हृदय से बन
रहा है।
बुद्धि से बने
तो कभी रोना
नहीं आता।
बुद्धि से अगर
संबंध बने तो
व्यक्ति
ज्यादा से ज्यादा
सिर हिलाता है
कि ठीक; या
गलत, तो
सिर हिलाता है
कि गलत। बस
खोपड़ी थोड़ी—सी
हिलती है। आंसुओ
का कोई संबंध
सिर से नहीं
है। आंसू
तुम्हारी
खोपड़ी के भीतर
से नहीं आते। आंखों
से बहते हैं—आते
हृदय से हैं, आते अंतस्तल
से हैं। आंसू
ज्यादा
सार्थक हैं—बजाय
धारणाओं के, विचारों के,
संप्रदायों
के। आंसू
ज्यादा
सार्थक हैं। आंसू
खबर दे रहे
हैं इस बात की,
हृदय पर चोट
पड़ी, कोई
भीतर कैप गया
है। इसके पहले
कि आंसू सूख
जाएं, इसके
पहले कि
तुम्हारी आंखें
सूख जाएं—कुछ
करना। आंसुओ
को शुभ संकेत
मानो, और
उनके इशारों
पर चलो। अगर
तुम आसुरों के
इशारे पर चल
सके, आंसुओ
को तुमने
अंगीकार किया,
आंसुओ का
इंगित समझा, उनकी भाषा
पहचाने और कुछ
तुमने किया—तो
जल्दी ही तुम
पाओगे, आंसुओ
के पीछे छिपी.
हुई एक अनूठी
हंसी
तुम्हारे पूरे
जीवन पर फैल
जाएगी।
संन्यास
मेरे लिए कोई
उदास बात नहीं
है। संन्यास
तो हंसता—फूलता, आनंद—मग्न,
जीवन का एक
नया वितान, एक नया
विकास है। तुम
बंद हो, कुंद
हो, छोटे
हो, पड़े हो
कारागृह में—शरीर
के, मन के!
संन्यास तो इस
बात की खबर है
कि पूरा आकाश
तुम्हारा, सब
तुम्हारा!
भोगो! जागो! यह
जो रस बरस रहा
है जगत में, यह तुम्हारा
है, तुम्हारे
लिए बरस रहा
है। ये चांद—तारे
तुम्हारे लिए
चलते हैं। ये
फूल तुम्हारे
लिए खिलते
हैं! तुम
इन्हें भोगो!
तुम इस रस में
डूबो।
अगर
प्रेम का
मार्ग पकड़ो, तो
भोगो। अगर
ज्ञान का
मार्ग पकड़ो, तो जागो।
दोनों सही हैं,
दोनों
पहुंचा देते
हैं। और मेरे
संन्यासियों
में दोनों तरह
के संन्यासी
हैं।
वस्तुत:
मेरा संन्यास
कोई संप्रदाय
नहीं है। सारे
जगत के धर्मों
से लोग आए
हैं। ऐसी घटना
कभी पृथ्वी पर
घटी नहीं है।
तुम ऐसा कोई
स्थान न पा
सकोगे जहां
तुम्हें
हिंदू मिल
जाएं, मुसलमान
मिल जाएं, ईसाई
मिल जाएं, यहूदी
मिल जाएं, बौद्ध
मिल जाएं, जैन
मिल जाएं, सिक्ख
मिल जाएं, पारसी
मिल जाएं; और
जहां आकर सबने
अपनी जीवन—
धारा को एक
गंगा में डुबा
लिया है, जहॉ
कुछ भेद नहीं—ऐसी
सार्वभौमता!
और यहां कोई
सार्वभौमता
की बात नहीं
कर रहा है और यहां
कोई सर्व —
धर्म —समन्वय
की बकवास नहीं
कर रहा है।
कोई समझा नहीं
रहा है कि ' अल्ला
ईश्वर तेरे
नाम' रटो, 'अल्ला ईश्वर
तेरे नाम!' कोई
समझा नहीं रहा
है। इसकी कोई
बात ही क्या उठानी,
यह बात ही
बेहूदी है।
जिस दिन तुमने
कहा अल्ला
ईश्वर तेरे
नाम, उस
दिन तुमने मान
ही लिया कि दो
नाम विपरीत हैं,
तुम मिलाने
की राजनीति
बिठा रहे हो।
मान ही लिया
कि भिन्न हैं।
यहां कोई समझा
नहीं रहा है कि
अल्ला ईश्वर
तेरे नाम।
यहां
तो अनजाने
अनायास ही यह
घटना घट रही
है। अल्ला
पुकारो तो, ईश्वर
पुकारो तो—एक
ही को तुम
पुकार रहे हो।
और इसकी कोई
चेष्टा नहीं
है।
चकित
होते हैं लोग
जब पहली दफा
आते हैं। देख
कर हैरान हो
जाते हैं कि
मुसलमान भी
गैरिक वस्त्रों
में! 'कृष्ण
मुहम्मद' को
देखा? 'राधा
मुहम्मद' को
देखा? एक
सज्जन मुझसे
आकर बोले कि
राधा हिंदू है
कि मुसलमान?
मैंने
कहा,
क्या करना
है? राधा
राधा है, हिंदू—मुसलमान
से क्या लेना—देना?
नहीं, उन्होंने
कहा, नाम
से तो हिंदू
लगती है, लेकिन
कृष्ण
मुहम्मद के
साथ जाते
देखी।
यूं
कृष्ण
मुहम्मद की
पत्नी है वह।
कृष्ण मुहम्मद
हो गए हैं!
फासले बिना
किसी के गिराए, बिना
किसी की
चेष्टा के, बिना किसी
तालमेल
बिठाने का
उपाय किए, अपने—
आप घट रही है
बात। अपने— आप
जब घटती है तो
उसका मूल्य
बहुत है, उसका
सौंदर्य
अनूठा, उसमें
एक प्रसाद
होता है। ऐसा
संन्यास
पृथ्वी पर
पहले कभी घटा
नहीं। तुम एक
अनूठे
सौभाग्य से गुजर
रहे हो।
समझोगे, तो
चूकोगे नहीं।
नहीं समझे, तो पीछे
बहुत
पछताओगे। तुम
एक अनूठे
स्रोत के करीब
हो जहां से
बड़ी धाराएं
निकलेंगी—गंगोत्री
के करीब हो।
पीछे बहुत
पछताओगे। पीछे
गंगा बहुत बड़ी
हो जाएगी।
सागर पहुंचते—पहुंचते
सागर जैसी बड़ी
हो जाएगी।
लेकिन अभी गोमुख
से जल गिर रहा
है, अभी
गंगोत्री पर
है। अभी
जिन्होंने इस
जल को पी लिया,
फिर दुबारा
नहीं ऐसा मौका
मिलेगा। फिर
काशी में भी
गंगा है, लेकिन
फिर गंदी बहुत
हो गई है। फिर
न मालूम कितने
नाले .आ गिरे।
गंगोत्री पर
जो मजा है, जो
स्वच्छता है,
फिर दुबारा
नहीं।
तो
जितने जल्दी
तुम संन्यास
ले सको उतना
शुभ है। यह संन्यास
की गंगा तो
बड़ी होगी—यह
पूरी पृथ्वी
को घेरेगी। ये
गैरिक वस्त्र
अब कहीं एक
जगह रुकने
वाले नहीं है—ये
सारी पृथ्वी
को घेरेंगे।
पीछे तुम आओगे—कहीं
प्रयाग में, काशी
में—तुम्हारी
मर्जी है।
लेकिन मैं
तुमसे कहता हूं
अभी गंगोत्री
पर आ जाओ तो
अच्छा है।
मैं
एक
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
था। तो मेरे
जो —वाइस
चांसलर थे, वे
बुद्धजयति पर
एक दाल बोले
कि ' कई बार
विचार करता
हूं कि कैसा
धन्यभागी
होता मैं अगर
बुद्ध के समय
में होता, उनके
चरणों में
जाता!
धन्यभागी थे
वे लोग जो बुद्ध
के पास उठे—बैठे;
जिन्होंने
बुद्ध के साथ
सांस ली, जिन्होंने
बुद्ध की आंखों
में झांका, जो बुद्ध के
चरणों पर चले,
जो बुद्ध की
छाया में
बैठे।
धन्य१गगी थे
वे लोग। काश, मैं उनके
समय में होता!
मैं
तो
विद्यार्थी
था,
लेकिन जैसी
मेरी आदत थी, मैं बीच में
उठ कर खड़ा हो
गया। मैने
उनसे कहा, आप
शब्द वापिस ले
लो। उन्होंने
कहा, क्यों?
मैंने
कहा,
यह आपकी
लफ्फाजी है, क्योंकि मैं
आपसे कहता हूं
कि आप उस समय
में भी थे और
आप बुद्ध के
पास नहीं गए।
वे
थोड़े घबराए।
वे थोड़े बेचैन
भी हुए कि यह
मामला क्या हो
गया?
मैंने
कहा,
मैं निश्चित
कहता हूं कि
आप उस समय में
भी थे। रहे तो
होंगे कहीं न!
पुनर्जन्म को
मानते हैं?
वे
हिंदू
ब्राह्मण थे—कहा
कि मानता हूं।
मैंने
कहा. कहीं तो
रहे होंगे न!
पशु —पक्षी थे
कि आदमी, आप
क्या कहते हैं?
अब
पशु —पक्षी
कहने को वे भी
राजी नहीं थे, तो
कहा कि आदमी
रहा होऊंगा।
लेकिन
तब आप बुद्ध
के पास गए
नहीं, क्योंकि
गंगोत्री में
गंगा दिखाई
कहां पड़ती है!
तो गंगा तो तब
दिखाई पड़ती है
जब बहुत बड़ी
हो जाती है, लेकिन तब
स्रोत से बहुत
दूर निकल जाते
हैं। आज बुद्ध
का इतना बड़ा
नाम आपको
दिखाई पड़ रहा
है, क्योंकि
हजारों —करोड़ों
मूर्तियां
हैं, करोड़ों
मानने
वाले
हैं—इसलिए आप
प्रभावित
हैं। आप बुद्ध
से प्रभावित
नहीं हैं; आप,
बुद्ध का
.यह जो बड़ा नाम
है, इससे
प्रभावित
हैं। मैं आपसे
कहता हूं कि
आप इस जिंदगी
में कभी किसी
संत के पास गए?
मैं उन्हें
जानता था। संत
वगैरह तो दूर,
वे छाया न
संत की पड़ने
दें।
मांसाहारी, शराबी, वेश्यागामी...
मैं उन्हें
भलीभांति
जानता था। मैंने
कहा कि आप सच—सच
कह दो। आपको
मैंने और
जगहों में तो
देखा—क्लबघरों
में देखा है, शराब पीते
देखा है। और
मुझे शक है कि
अभी भी आप पीए
हुए हैं। नहीं
तो इतनी बात
आप कह नहीं
सकते थे—बेहोशी
में कह रहे
होंगे कि
बुद्ध के समय
में अगर होता
धन्यभाग! यह
नशे में कह
रहे होंगे आप।
क्योंकि
आपमें मैंने
धर्म की तरफ
तो कभी कोई
झुकाव नहीं
देखा, आप
पक्के
राजनीतिज्ञ
हैं! बिना
राजनीतिज्ञ हुए
कोई वाइस
चांसलर आजकल
हो ही नहीं
सकता। गधे से
गधे
राजनीतिज्ञ
वाइस चांसलर
हो कर बैठे
हैं।
तो
मैंने उनसे
कहा कि आप
वापिस ले लो
ये शब्द। आप
बुद्ध को
पहचान सकेंगे?
उन्हें
कोई राह न
सूझी। तो
उन्होंने कहा
कि बात तो समझ
में आती है कि
शायद मैं न
गया होता अगर बुद्ध
होते भी। शायद
यह बात भी ठीक
है कि उनका नाम
ही अब इतना
बड़ा है..।
पीछे
मुझे बुलाया
और कहा कि कुछ
भी कहना हो तो
एकांत में आकर
कह दिया करो।
ऐसा बीच भीड़
में खड़े हो गए.!
मैंने
कहा कि आप भी
सोच—समझकर, जब
तक मैं इस
विश्वविद्यालय
में हूं
वक्तव्य सोच—समझ
कर देना।
क्योंकि
वक्तव्य आप जब
लोगों के सामने
दे रहे हैं, तो वहीं
मुझे भी कुछ
कहना पड़ेगा।
अभी स्रोत के
करीब हो तुम।
यह स्रोत गंगा
बनेगा। अभी
गंगोत्री में
शायद तुम
पहचान भी न
पाओ। पीछे तुम
पछताओगे।
तो
अगर ऐसी
सौभाग्य की
किरण
तुम्हारे
भीतर उठी हो
कि भाव उठता
हो कि डूब लें, मस्त
हों लें—तो
रुको मत! लाख
भय हों, किनारे
सरका कर उतर
जाओ। और भय
मिटते ही हैं,
जब तुम
उन्हें सरका
कर आगे बढ़ते
हो, अन्यथा
वे कभी मिटते
नहीं।
दाना
तू खेती भी तू
बात
भी तू हासिल
भी तू।
राह
तू रहरव भी तू
रहबर
भी तू मंजिल
भी तू।
नाखुदा
तू डेहर तू
कश्ती
भी तू साहिल
भी तू।
मय
भी तू मीना भी
तू
साकी
भी तू महफिल
भी तू।
यहां
तो कुछ और
तुम्हें थोड़े
ही सिखा रहा
हूं। संन्यास
यानी
तुम्हारी याद
तुम्हें
दिलानी है। और
तुम सब कुछ
हो।
मय
भी तू मीना भी
तू।
साकी
भी तू महफिल
भी तू।
मेरे
पास सिर्फ
तुम्हें वही
दे देना है जो
तुम्हारे पास
है ही। मैं
तुम्हें वही
देना चाहता हूं
जो तुम्हारे पास
है। जो तुम
लिए बैठे हो, और
भूल गए हो और
जिसका
तुम्हें
विस्मरण हो
गया है।
तुम्हें
तुम्हारा
स्मरण दिला
देना है। संन्यास
उस स्मरण की
तरफ एक
व्यवस्थित
प्रक्रिया
है।
इस
चक्की पर खाते
चक्कर
मेरा
तन—मन, जीवन
जर्जर
हे
कुंभकार, मेरी
मिट्टी को
और
न अब हैरान
करो
अब
मत मेरा
निर्माण करो!
संन्यास
इस बात की
घोषणा है कि
हे प्रभु!
बहुत चक्कर हो
गए इस चाक पर।
इस
चक्की .पर
खाते चक्कर
मेरा
तन—मन, जीवन
जर्जर
हे
कुंभकार, मेरी
मिट्टी को
और
न अब हैरान
करो
अब
मत मेरा
निर्माण करो।
इस
अंधेरी रात से
जागना है—तो
संन्यास! इस
दुख भरे नर्क
से बाहर
निकलना है—तो
संन्यास।
सुबह को पास
लाना है—तो
संन्यास।
जीवन को
परमात्मा की
सुगंध से भरना
है—तो
संन्यास।
संन्यास का
अर्थ है :
तुमने तैयारी
दिखला दी कि
तुम मंदिर
बनने को तैयार
हो,
अब
परमात्मा की
मौज हो तो आ
विराजे
तुम्हारे हृदय
में।
हरि ओंम
तत्सत्!
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