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शुक्रवार, 14 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--13

समग्र संकल्‍प या समग्र समर्पण—प्रवचन—तैहरवां

      दिनांक 3 जनवरी, 1975;
      श्री रजनीश आश्रम पूना।
     
योगसूत्र:

 तीव्रसंवेगानामासन्न:।। 21।।

सफलता उनके निटकतम होती है जिनके प्रयास तीव्र, प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं।

 मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततो'ऽपि विशेष:।। २२।।

प्रयास की मात्रा मृदु मध्यम और उच्च होने के अनुसार सफलता की संभावना विभिन्न होती है।

 ईश्वरप्रणिधानाद्वा।। 23।।

सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते है।

            क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। 24।।

ईश्वर सवोंत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणाम से अछूता है।

            तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।। २५।।

ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।

तीन प्रकार के खोजी होते हैं। पहले प्रकार के तो मार्ग पर कुतूहल के कारण आते हैं। पतंजलि उन्हें कहते हैं—कुतूहली। इस प्रकार का व्यक्ति वास्तव में उत्सुक नहीं होता। वह तो जैसे किसी दुर्घटनावश आध्यात्‍मिकता में बह आया होता है। उसने कुछ पढ़ लिया होगा। हो सकता है उसने किसी को कुछ कहते हुए सुन लिया हो—परमात्‍मा के बारे में, सत्य के बारे में, परम मुक्‍ति के बारे में, और वह आकृष्ट हो गया हो। यह अभिरुचि बौद्धिक होती है, एक बच्चे की रुचि की भांति ही जो हर किसी चीज में रस लेता है और फिर कुछ समय बाद दूर हो जाता है उससे; क्योंकि और ज्यादा कुतूहल सदा उसके लिए द्वार खोल रहे हैं।
ऐसा आदमी कभी न पायेगा। कुतूहल से तुम सत्य को नहीं पा सकते हो क्‍योंकि सत्य के लिए सतत प्रयास की आवश्यकता होती है—एक निरंतरता की, एक स्थायित्व की। ये बातें कुतूहल भरे व्यक्ति के पास नहीं हो सकतीं। एक कुतूहल से भरा व्यक्ति अपनी मनःस्थिति के अनुसार कोई निश्चित बात कर सकता है, एक निश्चित समय के लिए, लेकिन फिर उसमें एक अंतराल आ जाता है। और उसी अंतराल में वह सब जो उसने किया, खो जाता है, नष्ट हो जाता है। फिर वह शुरू करेगा एकदम प्रारंभ से और फिर वही घटित होगा।
वह परिणाम की फसल प्राप्त नहीं कर सकता। वह बीज बो सकता है, लेकिन वह प्रतीक्षा नहीं कर सकता क्योंकि लाखों नयी दिलचस्पिया उसे हमेशा बुला रही होती हैं। वह दक्षिण में जाता है, फिर वह पूरब की ओर बढ़ता है, फिर वह पश्चिम की ओर जाता है, फिर उत्तर की तरफ। वह लकड़ी की भांति है जो सागर में इधर—उधर बह रही है। वह कहीं नहीं जा रहा, उसकी ऊर्जा किसी निश्चित लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रही। जो भी परिस्थितियां उसे धकेलती हैं वह उन्हीं के अनुसार चलता है। वह सांयोगिक है। और सांयोगिक व्यक्ति परमात्‍मा को नहीं पा सकता। और जहां तक क्रियात्मक होने की बात है वह शायद बहुत कुछ कर ले, लेकिन यह सब व्यर्थ है क्योंकि दिन में वह इसे करेगा और रात में वह इसे अनकिया कर देगा। दृढ़ता की जरूरत होती है; निरंतर रूप से चोट करने की जरूरत होती है।
जलालुद्दीन रूमी का एक छोटा—सा विद्यालय था—बोध का विद्यालय। वह अपने शिष्यों को खेतों की तरफ, फार्म के चारों ओर ले जाया करता था। विशेषकर एक खेत था जहां वह अपने सारे नये शिष्यों को ले जाया करता यह दिखाने के लिए कि वहां क्या होता था। जब कभी कोई नया शिष्य आ जाता, तो वह उसे उस खेत तक ले जाता। वहां देखने को था कुछ लाभप्रद। वह एक किसान के मन की एक निश्चित अवस्था का एक उदाहरण था। किसान कुआं खोद रहा होता, लेकिन वह दस फीट खोदता, और फिर वह अपना मन बदल देता। वह सोचता, 'यह स्थान अच्छा नहीं दिखता', इसलिए वह एक दूसरे गड्डे पर काम शुरू कर देता और फिर किसी दूसरे पर।
बहुत वर्षों तक, वह यही करता रहा होगा। अब वहां आठ अधूरे गड्डे थे। सारा खेत नष्ट हो गया था, और वह नौवें पर कार्य कर रहा था। जलालुद्दीन अपने नये शिष्यों से कह देता, 'देखो। इस किसान की भांति मत होना। अगर यह अपनी सारी कोशिश एक गड्डा पर लगा देता, तो इस समय तक वह गड्डा कम से कम सौ फीट गहरा हो चुका होता। उसने इतना प्रयत्न किया, बहुत ज्यादा काम किया, पर वह प्रतीक्षा नहीं कर सकता। दस, बारह, पंद्रह फीट, और फिर वह ऊब जाता। फिर यह दूसरे गड्डे पर काम करने लगता। इस ढंग से तो सारा खेत गड्डों से भर जायेगा, और कुआं कभी बनेगा ही नहीं।
यह कुतूहल वाला आदमी है; सांयोगिक आदमी, जो कुतूहल के कारण काम करता है। और जब वह आरंभ करता है, तो कहीं ज्यादा जोश होता है उसके पास; वास्तव में, बहुत ज्यादा ही होता है। यह बहुत अधिक जोश एक सातत्य नहीं बन सकता है। वह इतने तीव्र उत्साह और जोश सहित शुरू करता है कि तुम जान लेते हो कि वह जल्दी ही बंद कर देगा।
दूसरे प्रकार का व्यक्ति जो आंतरिक खोज तक पहुंचता है वह है जिज्ञासु व्यक्ति—पूरी खोज—बीन करने वाला। वह कुतूहल के कारण नहीं आता। वह गहन प्रश्नों सहित आता है। वह पूरा इरादा रखता है, लेकिन वह भी काफी नहीं है क्योंकि उसका यह इरादा रखना आधारभूत रूप से बौद्धिक होता है। वह दार्शनिक हो सकता है, लेकिन वह धार्मिक व्यक्ति नहीं हो सकता। वह गहराई से प्रश्न—परिप्रश्न करेगा, लेकिन उसकी जांच—पड़ताल बौद्धिक होती है। वह मस्तिष्कोमुखी बनी रहती है; यह एक समस्या हो जाती है जिसे कि सुलझाओ।
इसमें जीवन और मृत्यु की बातें संलग्न नहीं होतीं, यह कोई जीवन और मरण का प्रश्न नहीं बनता। यह एक पहेली होती है, एक समस्या। वह इसे हल करने का मजा लेता है उसी तरह जैसे तुम वर्ग—पहेली को हल करने का मजा लेते हो क्योंकि यह तुम्हें एक चुनौती देता है। इसे हल करना ही होता है और अगर इसे हल कर सकी तो तुम बहुत अच्छा अनुभव करते हो। लेकिन यह बात बौद्धिक होती है, और गहरे तल में अहंकार उलझा होता है। यह आदमी दार्शनिक हो जायेगा। यह कठोर प्रयत्न करेगा। वह सोचेगा, ध्यान से विचारेगा, लेकिन वह ध्यान कभी न करेगा। वह तर्कसंगत ढंग से चिंतन—मनन करेगा; बौद्धिक ढंग से वह कई सूत्र ढूंढ लेगा। वह एक पद्धति का निर्माण कर लेगा, लेकिन सारी चीज उसका अपना प्रक्षेपण होगी।
सत्य को तुम्हारी समग्र रूप में आवश्यकता है। निन्यानबे प्रतिशत भी काम न देगा; तुम्हारा ठीक सौ प्रतिशत चाहिए। और सिर तो केवल एक प्रतिशत ही है। तुम बिना मस्तिष्क के रह सकते हो। जानवर बिना मस्तिष्क के जी रहे है, वृक्ष बिना मस्तिष्क के जी रहे है। जीवित बने रहने में मस्तिष्क कोई इतनी जरूरी चीज नहीं है। तुम आसानी से इसके बिना जी सकते हो। वस्तुत: तुम मस्तिष्क के साथ जीने की अपेक्षा मस्तिष्क के बिना ज्यादा आसानी से जी सकते हो। यह लाखों जटिलताएं निर्मित करता है। बुद्धि परम आवश्यकता नहीं है; और प्रकृति यह जानती है। यह एक फालतू विलासिता है। अगर तुम्हारे पास पर्याप्त भोजन नहीं होता है, तो शरीर जानता है कि भोजन को कहां जाने देना चाहिए। वह इसे बुद्धि को देना बंद कर देता है।
इसीलिए, गरीब देशों में विचारशक्ति विकसित नहीं हो सकती, क्योंकि विचारशक्ति एक सुख—साधन है। जब हर चीज खत्म हो जाती है, जब शरीर को हर चीज पूरी तरह मिल रही होती है, केवल तभी ऊर्जा सिर की ओर सरकती है। जिंदगी में भी ऐसा प्रतिदिन घटित होता है, लेकिन तुम सजग नहीं होते हो। ज्यादा खा लेते हो और तुरंत उनींदा महसूस करने लगते हो। क्या घटता है? शरीर को पचाने के लिए ऊर्जा चाहिए होती है। सिर भुलाया जा सकता है; ऊर्जा पेट की ओर सरकती है। तब सिर चकराया—सा उनींदा अनुभव करता है। ऊर्जा नहीं सरक रही, रक्त नहीं सरक रहा होता सिर की तरफ। शरीर की अपनी नीति है, व्यवस्था है।
कुछ बुनियादी चीजें होती हैं, कुछ गैर—बुनियादी चीजें होती हैं। पहले बुनियादी चीजें पूरी कर लेनी होती हैं। पहले इसलिए, क्योंकि गैर—बुनियादी चीजें इंतजार कर सकती हैं। तुम्हारा दर्शन इंतजार कर सकता है लेकिन तुम्हारी क्षुधा इंतजार नहीं कर सकती। तुम्हारा पेट पहले भरना ही चाहिए भूख ज्यादा बुनियादी है। इसी अनुभव के कारण बहुत सारे धर्मों ने उपवास को आजमाया है। क्योंकि अगर तुम उपवास करते हो, तो मस्तिष्क नहीं सोच सकता। ऊर्जा इतनी ज्यादा है ही नहीं, इसलिए यह सिर को नहीं दी जा सकती। लेकिन यह एक धोखा है। जब ऊर्जा होगी वहां, तो सिर फिर सोचना शुरू कर देगा। इस प्रकार का ध्यान एक झूठ है।
यदि तुम निरंतर कुछ दिनों तक लंबा उपवास करते हो, तो मस्तिष्क नहीं सोच सकता। ऐसा नहीं कि तुम अ—मन को उपलब्ध हुए। केवल इतना ही हुआ है कि अतिरिक्त ऊर्जा अब तुममें विद्यमान नहीं रही। शारीरिक आवश्यकताएं सबसे पहले आती हैं। शारीरिक आवश्यकताएं बुनियादी होती हैं, महत्वपूर्ण होती हैं; मस्तिष्क की आवश्यकताएं गौण हैं, फालतू। यह तुम्हारे घर की अर्थ—व्यवस्था जैसा है। अगर तुम्हारा बच्चा मर रहा हो तो तुम टीवी. सेट बेच दोगे। इसमें कुछ ज्यादा रखा नहीं है। जब बच्चा मर रहा हो तो तुम फर्नीचर बेच दोगे। जब तुम भूखे होते हो तो तुम मकान भी बेच सकते हो। पहले पहली चीजें और दूसरे नंबर पर दूसरी चीजें—यह है अर्थनीति का अर्थ। और मस्तिष्क अंतिम है। यह तुम्हारा केवल एक प्रतिशत है, और वह भी अतिरिक्त। तुम इसके बिना बने रह सकते हो।
क्या तुम पेट के बिना बने रह सकते हो? क्या तुम हृदय के बिना विद्यमान रह सकते हो? लेकिन तुम मस्तिष्क के बिना बने रह सकते हो। और जब तुम मस्तिष्क पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हो, तुम पूरी तरह औंधे होते हो। तो तुम शीर्षासन कर रहे हो; सिर के बल खड़े हो। तुम बिलकुल ही भूल गये कि मस्तिष्क परम आवश्यक नहीं
जब तुम केवल तुम्हारा मस्तिष्क खोज—बीन में लगा देते हो, तो यह जिज्ञासा है। तब यह एक विलास है। तुम एक दार्शनिक हो सकते हो, और आरामकुर्सी पर बैठ आराम कर सकते हो और सोच सकते हो। दार्शनिक राजसी फर्नीचर की भांति है। अगर तुम ऐसा खर्च करने में समर्थ हो सकते हो तब खूब करना चिंतन। तो ठीक है, पर यह कोई जीवन—मरण का प्रश्न नहीं होता। इसलिए पतंजलि कहते हैं कि कुतूहल वाला आदमी, एक कुतूहली व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। और जिज्ञासु व्यक्ति, खोज—बीन करने वाला, दार्शनिक हो जायेगा।
फिर है तीसरा व्यक्ति जिसे पतंजलि मुमुक्षावान व्यक्ति कहते हैं। इस शब्द 'कक्षा' का सीधा अनुवाद करना कठिन है, इसलिए मैं इसकी व्याख्या करूंगा। कक्षा का अर्थ होता है इच्छाविहीन होने की इच्छा; संपूर्ण रूप से मुका होने की आकांक्षा; अस्तित्व—चक्र से बाहर हो जाने की इच्छा; फिर से जन्म न लेने की इच्छा; फिर से न मरने की इच्छा; यह अनुभूति कि लाखों बार उत्‍पन्‍न होना पर्याप्त नहीं है; बार—बार मरना और उसी दुष्‍चक्र में घूमते रहना पर्याप्त नहीं है। मुमुक्षा का अर्थ होता है अस्तित्व—चक्र से ही अंतिम रूप से अलग हो जाना। ऊबकर, परेशान होकर व्यक्ति इसमें से बाहर हो जाना चाहता है। खोज अब जीवन—मरण की समस्या हो जाती है। तुम्हारा सारा अस्तित्व दांव पर लग जाता है। पतंजलि कहते हैं कि केवल मुमुक्षावान व्यक्ति जिसकी मोक्ष की कामना उदित हो चुकी है, धार्मिक व्यक्ति हो सकता है। और इसलिए भी, क्योंकि वह बहुत—बहुत तर्कसंगत विचारक होता है।
जो मुमुक्षा की कोटि से संबंधित होते हैं वे भी तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति जो मुमुक्ष से संबंध रखते हैं वे अपनी समग्रता का एक—तिहाई प्रयास में लगाते हैं। तुम्हारे अस्तित्व का एक—तिहाई हिस्सा प्रयास में लगाने से तुम कुछ पा लोगे, लेकिन जो तुम पाओगे वह निषेधात्‍मक प्राप्ति होगी। तुम तनावपूर्ण नहीं होओगे। इसे बहुत गहराई से समझ लेना है। तुम शांत नहीं होओगे। तुम बेचैन भी नहीं होओगे तनाव गिर जायेंगे। लेकिन तुम शांतिमय, प्रशांत, धैर्यवान नहीं होओगे। उपलब्धि निषेधात्मक होगी। अस्वस्थता मिट जायेगी। तुम क्षुब्धता अनुभव नहीं करोगे, तुम निराशा नहीं अनुभव करोगे। लेकिन तुम परिपूर्णता भी न अनुभव करोगे। निषेध गिर जायेंगे, कांटे गिर जायेंगे, लेकिन फूल नहीं उगेंगे।
यह मुमुक्ष की पहली अवस्था होती है। तुम बहुत सारे लोग पा सकते हो जो वहां अटक गये हैं। तुम एक निश्चित गुणवत्ता अनुभव करोगे उनमें। वे प्रतिक्रिया नहीं करते, वे क्षुब्ध नहीं होते, तुम उन्हें क्रोधी नहीं बना सकते, तुम उन्हें चिंता में नहीं डाल सकते। उन्होंने कोई चीज प्राप्त कर ली है, लेकिन तो भी तुम अनुभव करोगे कि किसी चीज की कमी है। वे निश्चित नहीं होते। चाहे क्रोधी न हों लेकिन उनमें करुणा नहीं होती। हो सकता है वे तुम पर क्रोधित न हों, लेकिन वे क्षमा नहीं कर सकते। यह भेद सूक्ष्म है। वे क्रोधित .नहीं होते, यह सही है। लेकिन उनके अक्रोधी होने में भी कोई क्षमा नहीं होती। वे कहीं अटके हुए हैं।
वे तुम्हारी, तुम्हारे अपमान की चिंता नहीं करते, लेकिन वे एक तरह से संबंधों से कटे हुए हैं। वे बांट नहीं सकते। क्रोधित न होने के प्रयत्न में, वे संबंधों से बाहर हो गये हैं। वे द्वीप की भांति हो गये हैं— अलग— थलग। और जब तुम पृथक भू—प्रदेश की भांति होते हो, तब तुम उखड़े हुए होते हो। तुम खिल नहीं सकते, तुम प्रसन्न नहीं हो सकते, तुम स्वास्थ्य नहीं पा सकते। यह एक निषेधात्मक उपलब्धि होती है। कुछ फेंक दिया गया है, लेकिन प्राप्त कुछ नहीं हुआ है। निस्संदेह मार्ग स्पष्ट होता है। कुछ फेंकना भी बहुत अच्छा होता है क्योंकि अब संभावना बनी रहती है कि तुम कुछ विधायक चीज प्राप्त कर सकते हो।
पतंजलि ऐसे व्यक्तियों को मृदु कहते हैं। यह उपलब्धि की प्रथम अवस्था होती है, और यह निषेधात्मक होती है। तुम भारत में बहुत संन्यासियों को पाओगे कैथोलिक मठों में बहुत सारे संतों को पाओगे, जो प्रथम अवस्था पर अटक गये हैं। वै अच्छे लोग हैं, लेकिन उन्हें तुम उदास, नीरस पाओगे। क्रोधित न होना बहुत अच्छा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। कुछ चूक रहा है; कुछ विधायक नहीं घटा है। वे खाली पात्र हैं। उन्होंने अपने को खाली कर दिया है, लेकिन किसी तरह वे फिर भर नहीं गये। उच्चतर उतरा नहीं है, लेकिन निम्नतर फेंक दिया गया है।
फिर द्वितीय श्रेणी की मुमुक्षा होती है—सम्यक खोजी की द्वितीय अवस्था, जो अपना दो—तिहाई लगा देता है प्रयास में। अभी समग्र नहीं है, वह मध्य में ही होता है। मध्य में होने से ही पतंजलि उसे कहते हैं मध्य— 'मध्यस्थ व्यक्ति।वह कुछ प्राप्त कर लेता है। उसमें प्रथम अवस्था वाला व्यक्ति मौजूद होता है, लेकिन कुछ और ज्यादा जुड़ गया है। वह शांत होता है—मौन, शांत सुव्यवस्थित। जो कुछ संसार में घटता है उसे प्रभावित नहीं करता। वह अप्रभावित बना रहता है, निर्लिप्त। वह शिखर की भांति हो जाता है—बहुत शांत।
यदि तुम उसके निकट पहुंचते हो तो तुम उसकी शांति तुम्हारे चारों ओर छा रही अनुभव करोगे। उसी भांति, जैसे कि जब तुम बाग में जाते हो और ठंडी बयार और फूलों की सुगंध और पक्षियों का चहचहाना, ये सब तुम्हारे आसपास बना रहता है। यह तुम्हें स्पर्श करता है। तुम इन्हें महसूस कर सकते हो। प्रथम अवस्था वाले व्यक्ति के साथ, 'मृदु' के साथ, तुम कुछ महसूस न करोगे। तुम केवल एक रिक्तता अनुभव करोगे—स्व मरुस्थल जैसा अस्तित्व; और पहले प्रकार का आदमी तुम्हें चूस लेगा। यदि तुम उसके निकट जाओगे तो तुम अनुभव करोगे कि तुम खाली हो चुके हो। कोई तुम्हें चूसता रहा है क्योंकि वह मरुस्थल है। उसके साथ तुम अपने प्राण रूखे—सूखे हुए अनुभव करोगे, और तुम भयभीत हो जाओगे।
ऐसा तुम बहुत संन्यासियों के प्रति अनुभव करोगे। यदि तुम उनके निकट जाओ, तुम अनुभव करोगे वे तुम्हें सोख रहे हैं—चाहे अनजाने तौर पर ही। उन्होंने प्रथम अवस्था प्राप्त कर ली होती है। वे रिका हो चुके होते हैं और वही रिक्कता सूराख बन जाती है। तुम स्वचालित रूप से इसके द्वारा चूस लिये जाते हो।
तिब्बत में ऐसा कहा जाता है कि यह पहली अवस्था वाला आदमी अगर कहीं मौजूद है, तो उसे नगर में नहीं आने—जाने देना चाहिए। जब तिब्बत के लामा प्रथम अवस्था की प्राप्‍ति कर लेते हैं, उनके मठों से बाहर जाने का निषेध कर दिया जाता है। क्योंकि यदि ऐसा आदमी किसी के निकट जाये तो वह उसे सोख लेता है। वह सीखना उसके नियंत्रण से परे होता है; वह इस बारे में कुछ नहीं कर सकता। वह मरुस्थल की भांति होता है जहां कोई चीज जो निकट आती है, सोख ली जाती है, शोषित हो जाती है।
प्रथम अवस्‍था के लामा को यह अनुमति नहीं दी जाती कि वृक्ष को छुए क्योंकि ऐसा देखा गया कि तब वृक्ष मर जाते हैं। हिमालय में भी, हिदू संन्यासियों को अनुमति नहीं है वृक्षों को छूने की क्योंकि वृक्ष मर जायेंगे। वे सोखने की घटना होते हैं। इस प्रथम अवस्था वाले लामा को अनुमति नहीं दी जाती किसी के विवाह में सम्मिलित होने की क्योंकि वह एक विध्वंसात्मक शक्ति बन जायेगा। वह किसी को आशीष देने को अनुमत नहीं होता क्योंकि वह दे नहीं सकता आशीष। वह आशीष दे भी रहा हो, तो वह सोख रहा होता है। शायद तुम इसे न जानते हो, लेकिन मठ इन प्रथम अवस्थागत लामाओं, संन्यासियों, साधुओं के लिए निर्मित किये गये थे जिससे कि वे अपने बंद संसार में जी सकें। उनको बाहर आने की अनुमति न थी। जब तक वे द्वितीय अवस्था प्राप्त नहीं कर लेते, तो वे किसी को आशीष देने को अनुमत नहीं होते।
द्वितीय श्रेणी का खोजी जिसने अपना दो—तिहाई लगा दिला होता है, शांतिपूर्ण, प्रशांत बन जाता है। यदि तुम उसके निकट जाते हो, वह तुममें प्रवाहित हो जाता है; वह बांटता है। अब वह मरुस्थल नहीं बना रहता; वह हरा—भरा जंगल होता है। बहुत चीजें उसमें पहुंच रही होती हैं—मौन रूप से, शांति से, सहज प्रशांत रूप से। तुम इसे अनुभव करोगे। लेकिन ध्येय यह भी नहीं है, और बहुत वहीं अटके रहते हैं। मात्र मौन होना पर्याप्त नहीं है। यह किस प्रकार की उपलब्धि है—मात्र शांत हो जाना? यह मृत्यु की भांति हुआ। कोई उत्सव नहीं, कोई आनंद नहीं।
तीसरी अवस्था का खोजी जो इसमें अपनी समग्रता लगा देता है, वह आनंद प्राप्त करता है। आनंद एक विधायक घटना है। शांति तो निकट होती ही है। जब आनंद निकट आता है, तुम शांत हो जाते हो। यह आनंद का दूरवर्ती प्रभाव होता है जो तुम्हारे निकट पहुंच रहा होता है। यह नदी के पास पहुंचने जैसा है—बहुत दूरी से तुम अनुभव करने लगते हो कि हवा ठंडी हो चली है, हरियाली की गुणवत्ता बदलने लगी है। वृक्ष ज्यादा पल्लवित हैं, ज्यादा हरे है। हवा ठंडी है। अभी तुमने नदी देखी नहीं लेकिन नदी है कहीं निकट। पानी का स्रोत कहीं निकट है। जब जीवन का स्रोत कहीं निकट होता है, तुम शांत हो जाते हो, लेकिन अभी तुमने पाया नहीं है। वह बस निकट ही है। पतंजलि इस व्यक्ति को कहते हैं मध्य—मध्यस्थ व्यक्ति।
वह भी ध्येय नहीं है। ध्येय तक पहुंचना हुआ नहीं, जब तक कि तुम मप्र होकर, मस्त होकर नाचने न लगो। यह आदमी नाच नहीं सकता, यह आदमी गा नहीं सकता, क्योंकि गाना शांति भंग करने जैसा दिखाई देगा। नाचना नासमझी की बात लगेगी। गाकर और नाचकर क्या करते हो तुम? यह आदमी केवल मृत मूरत की भांति बैठ सकता है। निस्संदेह शांत है वह लेकिन खिला हुआ नहीं, हरा— भरा नहीं। फूल अभी तक खिले नहीं। परम उतरा नहीं है। फिर है तीसरी अवस्था का व्यक्ति जो नृत्य में उतर सकता है; जो पागल दिखाई देगा क्योंकि उसके पास बहुत है। वह स्वयं में समा नहीं सकता। और वह स्वयं को रोक नहीं सकता इसलिए वह गायेगा और नाचेगा और डोलेगा और वह बांटेगा। और जहां कहीं फेंक सकता हो वह वहीं फेंकेगा वे बीज, जो अनंत रूप से उस पर बरस रहे होते हैं। यह है तीसरी अवस्था का व्यक्ति।

 पतंजलि कहते हैं— सफलता उनके निकटतम होती है जिनके प्रयास तीव्र प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं। प्रयास की मात्रा मृदु मध्य और उच्च होने के अनुसार सफलता की संभावना विभिन्न होती है।

 'सफलता उनके निकटतम होती है जिनके प्रयास तीव्र रूप से प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं।तुम्हारी समग्रता की आवश्यकता होती है। ध्यान रखना, सच्चाई वह गुण है जो तब घटता है जब तुम किसी चीज में समग्र रूप से होते हो। लेकिन लोगों की सच्चे होने की, वास्तविक होने की धारणा करीब—करीब हमेशा गलत होती है। गंभीर होना प्रामाणिक होना नहीं है। प्रामाणिकता, सच्चाई, एक वह गुण है जो घटता है, जब तुम किसी चीज में समग्र रूप से होते हो। अपने खिलौने के साथ खेल रहा बच्चा प्रामाणिक होता है। वह समग्र रूप से इसी में होता है। निमग्र! कुछ पीछे नहीं छूटा रहता, कुछ भी रोके हुए नहीं। वह वस्तुत: वहां होता ही नहीं। केवल खेल चलता चला जाता है।
यदि तुम कोई चीज रोके हुए नहीं रहते तो कहां होते हो तुम? तुम कार्य के साथ बिलकुल एक हो गये होते हो। कोई कर्त्ता नहीं रहा वहां। जब कोई कर्त्ता नहीं रहता, तो प्रामाणिक होता है। कैसे हो सकते हो तुम गंभीर? गंभीरता संबंध रखती है कर्ता से। तो मसजिदों में, मंदिरों में, चर्चों में, तुम दो प्रकार के व्यक्ति पाओगे—एक तो वे जो वास्तविक हैं और वे जो गंभीर हैं। गंभीर लोगों के बड़े नीरस चेहरे होंगे जैसे कि वे बड़ा महान कृत्य कर रहे हों—कोई पवित्र बात, कोई आध्यात्मिक बात कर रहे हों। यह भी अहंकार है। मानो तुम कोई महान बात कर रहे हो। जैसे कि तुम सारे संसार को अनुगृहीत कर रहे हो क्योंकि तुम प्रार्थना करं रहे हो!
जरा धार्मिक व्यक्तियों की ओर देखना—तथाकथित धार्मिक। वे ऐसे चलते हैं जैसे कि वे सारे संसार को अनुगृहीत कर रहे हैं। वे पृथ्वी का सार—तत्व हैं जैसे। यदि वे मिट जायें तो सारा अस्तित्व मिट जायेगा। वे इसे संभाले हुए हैं। उन्हीं के कारण जीवन अस्तित्व रखता है; उनकी प्रार्थनाओं के कारण ही। तुम उन्हें गंभीर पाओगे।
गंभीरता संबंधित है अहंकार से, कर्ता से। एक पिता जो कहीं दुकान में, आफिस में काम कर रहा है उसकी ओर देखो। यदि वह अपनी पत्नी और बच्चों से प्रेम नहीं करता, तो वह गंभीर होगा क्योंकि यह एक कर्तव्य होता है। इसे करके, वह आस—पास के हर व्यक्ति को अनुगृहीत कर रहा होता है। वह हमेशा कहेगा, 'यह मैं अपनी पत्नी के लिए कर रहा हूं; यह तो मैं अपने बच्चों के लिए कर रहा हूं।और अपनी गंभीरता द्वारा यह आदमी अपने बच्चों के गले पड़ा एक जड़ पत्थर बन जायेगा। और वे इस पिता को कभी माफ न कर पायेंगे। क्योंकि उसने प्रेम कभी किया नहीं।
यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम ऐसी बातें कभी नहीं कहते। यदि तुम बच्चों से प्रेम करते हो, तो तुम तुम्हारे आफिस हंसी—खुशी, नाचते—कूदते जाते हो। तुम उन्हें प्रेम करते हो, अत: यह कोई अनुगृहीत करना नहीं है। तुम कोई कर्तव्य भर पूरा नहीं कर रहे, यह तुम्हारा प्रेम होता है। तुम खुश हो कि तुम्हें अपने बच्चों के लिए कुछ करने दिया गया है। तुम प्रसन्न हो और पुलकित, कि तुम अपनी पत्नी के लिए कुछ कर सकते हो।
प्रेम इतना असहाय अनुभव करता है क्योंकि प्रेम बहुत चीजें करना चाहता है और उन्हें कर सकता नहीं। प्रेम हमेशा अनुभव करता है, जो कुछ मैं कर रहा हूं वह उससे कम है जो कि किया जाना चाहिए। और कर्तव्य? कर्तव्य हमेशा अनुभव करता है, मैं जरूरत से ज्यादा कर रहा हूं। कर्तव्य गंभीर बन जाता है, प्रेम प्रामाणिक होता है, निष्कपट होता है। और प्रेम है समग्रता से किसी व्यक्ति के साथ होना। इतनी समग्रता से व्यक्ति के साथ होना कि द्वैत तिरोहित हो जाये। यदि ऐसा होना कुछ क्षणों के लिए भी हो, तो द्वैत नहीं रहता। तब दो में एक का अस्तित्व होता है, सेतु आ बनता है। प्रेम समग्र होता है, विचारपूर्ण कभी नहीं। और जब कभी तुम किसी चीज में अपना समग्र अस्तित्व लगा सको, यह प्रेम बन जाता है। यदि तुम एक माली हो और तुम इसे प्रेम करते हो तो तुम इस कार्य में तुम्हारा समग्र अस्तित्व ले आते हो।
सच्चाई को तुम पैदा नहीं कर सकते। तुम विचारशीलता को पैदा कर सकते हो, लेकिन सच्चाई को कभी नहीं। किसी चीज में समग्र रूप से होना छाया है सच्चाई की। पतंजलि कहते हैं, 'सफलता उनके निकटतम होती है जिनके प्रयत्न प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं।निस्संदेह, प्रगाढ़ और सच्चे कहने की कोई आवश्यकता नहीं। सच्चाई सदा ही प्रगाढ़ होती है। लेकिन पतंजलि क्यों कहते हैं प्रगाढ़ और सच्चे? निश्चित कारण से ही।
सच्चाई सदा प्रगाढ़ होती है लेकिन प्रगाढ़ता सदा आवश्यक रूप से ही सच्ची नहीं होती है। तुम किसी चीज में प्रगाढ़ हो सकते हो, पर सच्चे नहीं; शायद तुम सच्चे न हो। इसलिए वे योग्यता जोड़ते हैं, 'प्रगाढ़ और सच्चे' होने की। क्योंकि तुम तुम्हारी गंभीरता में भी प्रगाढ़ हो सकते हो। तुम प्रगाढ़ हो सकते हो तुम्हारे आशिक अस्तित्व सहित भी। तुम एक निश्चित भावदशा में प्रगाढ़ हो सकते हो। तुम तीव्र रूप से प्रगाढ़ हो सकते हो तुम्हारे क्रोध में। तुम प्रगाढ़ हो सकते हो तुम्हारी लालसा में। तुम लाखों चीजों में प्रगाढ़ हो सकते हो और शायद फिर भी तुम सच्चे न होओ, क्योंकि सच्चाई तो होती है तब, जब तुम समग्र रूप से इसमें होते हो।
तुम प्रगाढ़ हो सकते हो कामवासना में और शायद तुम सच्चे न होओ, क्योंकि कामवासना जरूरी नहीं कि प्रेम ही हो। तुम शायद बहुत ज्यादा प्रगाढ़ होओ तुम्हारी कामवासना में—लेकिन एक बार कामवासना संतुष्ट हो जाती है, तो यह खत्म। चली गयी प्रगाढ़ता। हो सकता है प्रेम बहुत प्रगाढ़ न लगता हो लेकिन यह वास्तविक होता है, तो प्रगाढ़ता बनी रहती है। वस्तुत: यदि तुम सचमुच प्रेम में पड़ते हो तो यह शाश्वतता बन जाती है। यह बात सदा प्रगाढ़ ही होती है। और स्पष्ट भेद समझ लेना, यदि तुम प्रगाढ़ होते हो बिना वास्तविकता के, तुम सदा के लिए प्रगाढ़ नहीं हो सकते। केवल क्षणिक तौर पर हो सकते हो तुम प्रगाढ़। जब इच्छा उठती है, तुम प्रगाढ़ होते हो। यह वास्तव में तुम्हारी प्रगाढ़ता नहीं है। यह इच्छा द्वारा लाद दी गयी है।
कामवासना उठती है, तुम एक भूख अनुभव करते हो। सारा शरीर, सारी जीव—ऊर्जा एक शइक्त चाहती है, अत: तुम प्रगाढ़ हो जाते हो। लेकिन यह प्रगाढ़ता तुम्हारी नहीं; यह तुम्हारे अस्तित्व से नहीं चली आ रही है। यह तो तुम्हारे चारों ओर की जैविक परत द्वारा मात्र आरोपित हो गयी है। यह तुम्हारे अस्तित्व पर शरीर द्वारा लादी गयी प्रगाढ़ता है। यह केंद्र से नहीं पहुंच रही। यह बाह्य सतह से लादी जा रही है। तुम प्रगाढ़ होओगे और फिर कामवासना के संतुष्ट होने से प्रगाढ़ता चली जायेगी। तब तुम्हें सी की परवाह नहीं रहती।
बहुत स्रियों ने मुझे बताया कि वे छली गयी अनुभव करती है। वे स्वयं को इस्तेमाल किया गया अनुभव करती हैं। जब उनके पति उन्हें प्रेम करते है, तो आरंभ में वे इतना प्रेममय अनुभव करते हैं, इतने प्रगाढ़; वे इतनी प्रसन्नता अनुभव करते हैं। लेकिन जिस क्षण कामवासना समाप्त हो जाती है तो पति दूसरी ओर करवट लेकर सो जाते हैं। सी को क्या हो रहा है इस बात की वे बिलकुल परवाह नहीं करते। जब प्रेम कर चुकते हो, तब तुम मुसकुरा कर विदा नहीं लेते। तुम सी को धन्यवाद नहीं देते। इसलिए सी स्वयं को इस्तेमाल किया हुआ अनुभव करती है।
तुम्हारी प्रगाढ़ता जैविक है, शारीरिक है; तुमसे कुछ नहीं पहुंच रहा। कामवासना की प्रगाढ़ता में पूर्वक्रीड़ा, फोरप्ले होता है; लेकिन आफ्टरप्ले, पश्चात—क्रीड़ा कोई नहीं। यह शब्द सचमुच अस्तित्व नहीं रखता। मैंने काम पर लिखी हजारों पुस्तकें देखीं, यह शब्द ' आफ्टरप्ले' उनमें अस्तित्व नहीं रखता। किस प्रकार का प्रेम है यह? शरीर की जरूरत पूरी होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है। सी का उपयोग कर लिया गया; अब तुम उसे फेंक सकते हो। जैसे तुम कोई चीज इस्तेमाल करते हो और फेंक देते हो। उदाहरण के लिए प्लास्टिक का कोई पात्र—तुम इसे इस्तेमाल करते हो और इसे फेंक देते हो। खत्म हो जाती है बात। जब इच्छा फिर से उठेगी, तो फिर तुम सी की ओर देखोगे, और उस सी के प्रति तुम बहुत भावप्रवण हो जाते हो।
नहीं, पतंजलि इस प्रकार की प्रगाढ़ता के लिए नहीं कहते। मैंने कामवासना की बात उठायी जिससे कि तुम्हें स्पष्ट कर दूं क्योंकि मात्र वही प्रगाढ़ता है जो तुम्हारे साथ बाकी बची है। कोई अन्य उदाहरण संभव नहीं। तुम अपने जीवन में इतने कुनकुने हो चुके हो, तुम ऊर्जा के इतने निम्न तल पर जीते हो कि कोई प्रागढ़ता है नहीं। किसी तरह तुम आफिस जाते हो। जरा सड़क के एक कोने में खड़े हो जाओ, जब लोग अपने दफ्तरों की ओर तेजी से चले जा रहे होते हैं, जरा उनके चेहरों को देखो—वे निर्जीव होते हैं।
कहां जा रहे होते हैं वे? क्यों जा रहे होते हैं? ऐसा जान पड़ता है जैसे कि उनके पास दूसरी कोई जगह नहीं है जाने को, तो वे दफ्तर की ओर जा रहे हैं! वे और कुछ कर नहीं सकते। वरना क्या करेंगे वे घर पर? इसलिए वे दफ्तर की ओर जा रहे हैं—ऊबे हुए, स्वचालित यंत्र की भांति, यंत्र—मानव जैसे। जा रहे हैं क्योंकि हर कोई दफ्तर जा रहा है और यह जाने का समय है। और यदि तुम जाना न चाहो तो? करोगे क्या? छुट्टियां इतनी पीड़ादायक बन जाती हैं। कोई प्रगाढ़ता नहीं होती। लोगों की ओर देखो शाम को घर लौटते हुए। नहीं जानते फिर क्यों जा रहे हैं वे। लेकिन कहीं और जाने को है नहीं, तो किसी तरह वे जिंदगी घसीट रहे हैं।
वे कुनकुने हैं। यह एक निम्न ऊर्जा का तल है। इसलिए मैंने कामवासना का उदाहरण दिया क्योंकि कोई दूसरी प्रगाढ़ता मैं नहीं पा सकता तुममें। तुम गाते नहीं, तुम नाचते नहीं, तुममें कोई प्रगाढ़ता नहीं। तुम हंसते नहीं, तुम रोते नहीं। सारी प्रगाढ़ता जा चुकी। कामवासना में थोडी प्रगाढ़ता बनी है और वह भी प्रकृति के कारण, तुम्हारे कारण नहीं।
पतंजलि कहते हैं, 'प्रगाढ़ और सच्चा।धर्म वास्तव में कामवासना जैसा है। ज्यादा गहन है कामवासना से, उच्चतर है कामवासना से, ज्यादा पवित्र है कामवासना से, लेकिन है यौन की भांति। यह एक व्यक्ति का मिलन है संपूर्ण से—यह एक गहन संभोग है। तुम संपूर्ण में घुल—मिल जाते हो और बिलकुल तिरोहित हो जाते हो। प्रार्थना प्रेम की भांति है। वस्तुत: इस योग शब्द का अर्थ है ही मिलन, घनिष्ठता, दो का मिलन। और यह इतना गहन और प्रगाढ़ और सच्चा मिलन है कि दो मिट जाते हैं। सीमाएं धुंधला जाती हैं और केवल एक का अस्तित्व बना रहता है। यह बात किसी दूसरी तरह से हो नहीं सकती। यदि तुम वास्तविक और प्रगाढ़ नहीं हो, तो तुम्हारी समग्र सत्ता को जुटाओ। केवल तभी परम सत्य की संभावना होती है। तुम्हें संपूर्ण रूप से स्वयं का जोखम उठाना होता है; इससे कम चलेगा नहीं।
'प्रयास की मात्रा के अनुसार सफलता की संभावनाएं विभिन्न होती हैं।यह एक मार्ग है—संकल्पशक्ति का मार्ग। पतंजलि मूल रूप से संकल्प के मार्ग से संबंध रखते हैं। लेकिन वे जानते हैं, वे सजग हैं कि दूसरे मार्ग का भी अस्तित्व है, इसलिए वे बस एक टिप्पणी, एक सूत्र देते हैं।

 वह सूत्र है : ईश्वरप्रणिधानाद्वा। सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।

 यह मात्र एक टिप्पणी है। सिर्फ यह सूचित करने के लिए दी गयी है कि दूसरा मार्ग भी है वहां। योग संकल्प का मार्ग है। प्रयास, जो प्रगाढ़ है, वास्तविक है, समग्र है। तुम्हारी समग्रता इस तक ले आओ। लेकिन पतंजलि जागरूक हैं। और जो जानते हैं वे सब दूसरे मार्ग के प्रति जागरूक होते हैं। और पतंजलि बहुत ध्यान देने वाले विचारशील हैं। वे बहुत वैज्ञानिक मन के हैं : वे एक भी बचाव का रास्ता नहीं छोड़ेंगे। लेकिन वह दूसरा मार्ग उनका मार्ग नहीं है, तो वे मात्र एक टिप्पणी दे देते हैं यह याद दिलाने को ही कि दूसरा मार्ग है 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा। सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।
चाहे मार्ग प्रयास का हो या समर्पण का, बुनियादी बात एक ही है—समग्रता की जरूरत होती है। मार्ग भेद रखते हैं, लेकिन वे पूर्णतया विभिन्न नहीं हो सकते। उनका प्रकार, उनका स्वरूप, उनकी दिशाएं अलग हो सकती हैं, लेकिन उनका भीतरी अर्थ और महत्व एक ही रहता है क्योंकि दोनों दिव्यता की ओर ले जाते हैं। प्रयास में तुम्हारी समग्रता ही की जरूरत है। इसलिए मेरे देखे केवल एक मार्ग है, और वह वही है जिसमें तुम्हारी समग्रता तुम्हें ले आनी होती है।
चाहे तुम इसे प्रयास द्वारा लाओ—जो है योग—यह तुम पर निर्भर है; या चाहे तुम इसे समर्पण द्वारा लाओ। समर्पण—स्वयं को ढीला छोड़ना; यह भी तुम पर निर्भर है। लेकिन हमेशा ध्यान रहे कि समग्रता की जरूरत होगी; तुम्हें संपूर्णतया स्वयं को दांव पर लगा देना होगा। यह एक दाव है, अशांत के साथ एक जुआ। और कोई नहीं कह सकता: यह कब घटेगा, कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। कोई तुम्हें गारंटी नहीं दे सकता। तुम जुआ खेलते हो, शायद तुम जीत जाओ, शायद तुम न जीतो। न जीतने की संभावना सदा वहां होती है क्योंकि यह एक बहुत जटिल घटना है। यह उतनी सरल नहीं जितनी कि दिखती है। लेकिन यदि तुम जुआ खेलते जाते हो, तो एक दिन यह घटित होना ही है।
यदि तुम एक बार चूक जाओ तो निराश मत होना, क्योंकि बुद्ध को भी बहुत बार चूकना होता है। यदि तुम चूकते हो, तो बस फिर जुट जाना और जोखम उठा लेना। कभी, किसी अज्ञात ढंग से सारा अस्तित्व आ पहुंचता है तुम्हारी सहायता देने को। किसी समय, किसी अज्ञात ढंग से, तुमने एकदम ठीक समय लक्ष्य साधा होता है जब द्वार खुला था। लेकिन तुम्हें बहुत बार लक्ष्य पर चोट करनी होती है। तुम्हारे चैतन्य का तीर तुम्हें फेंकते चले जाना होता है। परिणाम की चिंता मत लेना। बहुत घना अंधेरा है और लक्ष्य निर्धारित नहीं है, यह परिवर्तित होता रहता है। इसलिए तुम्हें तुम्हारा तीर अंधेरे में फेंकते जाना होता है। कई बार चूकोगे तुम, और मैं तुमसे यह कहता हूं ताकि तुम निराश न हो जाओ। हर कोई चूकता है बहुत बार, यह बात ही कुछ ऐसी है। लेकिन यदि तुम आगे बढ़ते जाते हो और बढ़ते जाते हो और बढ़ते जाते हो, बिना निराश हुए, तो घटना घटेगी। यह सदा घटी है। इसीलिए असीम धैर्य की जरूरत है।
परमात्मा के प्रति समर्पण है क्या? कैसे कर सकते हो तुम समर्पण? कैसे संभव होगा समर्पण? वह भी संभव हो जाता है यदि तुम बहुत प्रयत्न करते हो, और चूकते चले जाते हो, और फिर भी बहुत प्रयास करते हो। तुम स्वयं पर निर्भर करते हो। प्रयास स्वयं पर निर्भर करता है। यह संकल्प—शक्ति पर आधारित होता है—संकल्प के मार्ग पर। तुम स्वयं पर निर्भर करते हो। तुम असफल और असफल और असफल होते हो। तुम फिर खड़े होते हो, तुम गिरते हो, तुम फिर खड़े होते हो, और तुम फिर चलना शुरू कर देते हो। और फिर एक क्षण आता है, तुम्हारे बहुत चूकने और असफल होने के बाद, जब तुम समझ जाते हो कि तुम्हारा प्रयास ही इसका कारण है क्योंकि तुम्हारा प्रयास तुम्हारा अहंकार बन चुका है।
संकल्प के मार्ग पर यही समस्‍या है। क्योंकि वह व्यक्ति जो संकल्प के मार्ग पर कार्य कर रहा है, प्रयास कर रहा है, विधियों का, तरकीबों का प्रयोग कर रहा है, यह कर रहा है, वह कर रहा है, वह एक निश्चित बोध एकत्र कर लेने को विवश होता है कि मैं हूं—मैं श्रेष्ठ हूं विशिष्ट हूं असाधारण हूं। मैं इतना—उतना सब कर रहा हूं—तपस्या, उपवास, साधना कर रहा हूं। मैंने इतना अधिक कर लिया।
संकल्प के मार्ग पर व्यक्ति को अहंकार के प्रति बहुत—बहुत सजग होना होता है, क्योंकि अहंकार तो अवश्य ही चला आयेगा। यदि तुम अहंकार पर ध्यान दे सको, यदि तुम अहंकार संचित न करो, तो समर्पण की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि यदि अहंकार नहीं रहता, तो समर्पण करने को कुछ है नहीं। इसे बहुत—बहुत गहरे रूप से समझ लेना है। और जब तुम समझने की कोशिश कर रहे हो—पंतजलि को समझने की—तो यह एक बुनियादी बात है।
यदि तुम बहुत वर्ष सतत प्रयास करते हो, तो अहंकार खड़ा होगा ही। तुम्हें जागरूक होना होता है। तुम्हें काम करना है, तुम्हें सारे प्रयत्न करने हैं, लेकिन अहंकार इकट्ठा मत करो। फिर कोई जरूरत नहीं रहती समर्पण करने की। तुम समर्पण किये बिना लक्ष्य साध सकते हो। तब कोई जरूरत नहीं क्योंकि बीमारी रही नहीं।
यदि अहंकार होता है, तो समर्पण करने की आवश्यकता उठ खड़ी होती है। इसीलिए पतंजलि प्रगाढ़ता, सच्चाई, समग्र प्रयास पर बोलने के पश्चात अकस्मात वे कहते हैं, 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा—सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।
यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम निरंतर असफल हो रहे हो, तो ध्यान रखना कि असफलता परमात्मा के कारण नहीं है। असफलता घट रही है तुम्हारे अहंकार के कारण। वहां, जहां से बाण फेंका जा रहा है, तुम्हारे अस्तित्व का स्रोत, वहां कुछ घट रहा है—एक भटकन। अहंकार वहां एकत्रित हो रहा है। तब केवल एक संभावना रहती है—इसे समर्पित कर देना। तुम इसमें इतने समग्र रूप से असफल हो चुके हो, कई ढंग से। तुमने यह किया, वह किया, तुमने कुछ न कुछ करने की कोशिश की, और तुम असफल और असफल और असफल हुए। जब निराशा गहनतम हो जाती है और तुम नहीं समझ सकते कि क्या करना है, तो पतंजलि कहते हैं, ' अब ईश्वर को समर्पित हो जाओ।
इस अर्थ में पतंजलि बहुत अनूठे हैं। वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते; वे आस्तिक नहीं हैं। ईश्वर भी एक उपाय है। पतंजलि किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते; वे नहीं विश्वास करते कि कोई ईश्वर है। नहीं, वे कहते हैं, 'ईश्वर एक विधि है। वे जो असफल होते हैं, उनके लिए यह अंतिम विधि है।यदि तुम इसमें भी चूक जाते हो, तो कोई मार्ग नहीं। पतंजलि कहते हैं कि ईश्वर है या नहीं, सवाल यह नहीं है। यह तो बिलकुल ही कोई विवाद का विषय नहीं। सार यह है कि ईश्वर परिकल्पित है। बिना ईश्वर के समर्पण करना कठिन होगा। तुम पूछोगे, 'किसे करें समर्पण?'
अत: ईश्वर एक परिकल्पित बिंदु होता है मात्र तुम्हें समर्पण में सहायता देने को। जब तुम समर्पण कर चुके, तुम जानोगे कि कोई ईश्वर नहीं। लेकिन जब तुम समर्पण कर चुके होते हो और जब तुमने जान लिया होता है तब ऐसा होता है। पतंजलि के लिए ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करने वाली एक परिकल्पना है। यह एक झूठ है। इसीलिए मैंने तुमसे कहा था कि पतंजलि एक चालाक गुरु हैं। यह है मात्र एक सहायता। बुनियादी बात समर्पण है, ईश्वर नहीं। और तुम्हें इस भेद को ध्यान में रख लेना है। क्योंकि ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि ईश्वर बुनियादी बात है; कि ईश्वर है, इसलिए तुम समर्पण करते हो।
पतंजलि कहते हैं कि तुम्हें समर्पण करना है इसलिए ईश्वर को मान लो। ईश्वर मान ली गयी बात है। जब तुमने समर्पण कर दिया हो, तुम हंसोगे। ईश्वर है नहीं।
लेकिन एक बात और—ईश्वर है, पर एक ईश्वर नहीं। ईश्वरों की बहुलता है क्योंकि जब कभी तुम समर्पण करते हो, तुम भगवान हो जाते हो। अत: पतंजलि के ईश्वर को यहूदीवादी—ईसाइयो के ईश्वर के साथ एक मत समझ लेना। पतंजलि कहते हैं कि ईश्वरत्व प्रत्येक प्राणी की संभावना है। व्यक्ति ईश्वर के बीज की भांति है—प्रत्येक व्यक्ति। और जब बीज विकसित होता है, जब यह परिपूर्णता तक पहुंचता है, तो बीज ईश्वर हो चुका होता है। तो प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी अंतत: ईश्वर होगा।
'परमात्मा ' का अर्थ है मात्र परम पराकाष्ठा, परम विकास। ईश्वर नहीं है, लेकिन बहुत सारे ईश्वर हैं; अनंत भगवान हैं। यह एक समग्रतया भिन्न अवधारणा है। यदि तुम मुसलमानों से पूछो, वे कहेंगे, केवल एक ही है ईश्वर। यदि तुम ईसाइयों से पूछो, वे कहेंगे, केवल एक ईश्वर है। लेकिन पतंजलि अधिक वैज्ञानिक है। वे कहते है कि ईश्वर एक संभावना है। हर कोई यह संभावना हृदय में लिये रहता है। प्रत्येक व्यक्ति बीज ही है, ईश्वर होने की क्षमता है, संभाव्यता है। जब तुम उच्चतम तक पहुंचते हो जिसके पार कुछ नहीं बना रहता, तो तुम भगवान हो जाते हो। तुमसे पहले बहुत पहुंच चुके है, बहुत पहुंचेंगे, और बहुत पहुंच रहे होंगे तुम्हारे बाद।
अंततः प्रत्येक भगवान हो जाता है, क्योंकि हर कोई बीज रूप से भगवान है। अनंत भगवान होते हैं। इसीलिए ईसाइयों के लिए इसे समझना कठिन हो जाता है। तुम राम को भगवान कहते हो, तुम कृष्ण को भगवान कहते हो, तुम महावीर को भगवान कहते हो। रजनीश को भी तुम कह देते हो भगवान।
एक ईसाई के लिए असंभव हो जाता है इसे समझना। क्या कर रहे हो तुम? उनके लिए एक ही भगवान का अस्तित्व है—जिसने सृष्टि का निर्माण किया। पतंजलि के अनुसार तो किसी ने सृष्टि का निर्माण नहीं किया। लाखों भगवान अस्तित्व रखते हैं और हर कोई भगवान होने के मार्ग पर ही है। चाहे तुम इसे जानो या न जानो, तुम अपने अंतर—गर्भ के भीतर भगवान संभाले रहते हो। और शायद तुम बहुत बार चूक जाओ, लेकिन अंततः कैसे चूक सकते हो तुम? यदि तुम इसे अपने भीतर लिये रहते हो, किसी न किसी दिन बीज विकसित होना ही है। तुम इसे बिलकुल नहीं चूक सकते। असंभव!
यह एक समग्र रूप से भिन्न अवधारणा है। ईसाइयों का ईश्वर बहुत तानाशाह मालूम पड़ता है, सारे अस्तित्व पर शासन करता है! पतंजलि अधिक लोकतांत्रिक हैं। उनके साथ कोई शासक नहीं है, कोई तानाशाह नहीं, कोई स्टालिन नहीं, कोई जार सिंहासन के शिखर पर नहीं बैठा जिसके एक ओर उसका एकमात्र जन्मा बेटा क्राइस्ट हो और चारों तरफ उनके पट्टशिष्य हों। यह बड़ी नासमझी है। सारी धारणा ऐसी है जैसे यह सम्राट के सिंहासन पर बैठने की अवधारणा से निर्मित हुई हो! नहीं, पतंजलि नितांत लोकतांत्रिक हैं। वे कहते है कि भगवत्ता हर किसी की गुणवत्ता है। तुम इसे लिये हुए हो, इसे इसकी समग्रता तक ले आना तुम पर निर्भर है। यदि तुम ऐसा नहीं चाहते तो यह भी तुम पर निर्भर करता है।
संसार के ऊपर कोई नहीं बैठा है शासक की तरह; कोई तुम्हें जबरदस्ती उलन्न नहीं कर रहा या तुम्हें निर्मित नहीं कर रहा। स्वतंत्रता संपूर्ण है। तुम पाप कर सकते हो स्वतंत्रता के कारण, तुम दूर हट सकते हो स्वतंत्रता के कारण। तुम स्वतंत्रता के कारण पीड़ा भोगते हो। और जब तुम इसे समझ लेते हो तो पीड़ा भोगने की कोई जरूरत नहीं रहती, तुम लौट सकते हो और वह भी स्वतंत्रता के कारण ही। कोई तुम्हें वापस नहीं ला रहा और कोई कयामत का दिन नहीं आने वाला। तुम्हें जांचने को सिवाय तुम्हारे, अस्तित्व में और कोई नहीं। तुम कर्त्ता हो, तुम निर्णायक हो। तुम्हीं हो अपराधी, तुम्हीं हो कानून। तुम्हीं हो सब कुछ। तुम लघु अस्तित्व हो।

 ईश्वर सर्वोत्‍कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणामों से अछूता है।

 ईश्वर चैतन्य की अवस्था है। वह वस्तुत: कोई व्यक्ति नहीं, लेकिन वह निजता, अस्मिता है। अत: तुम्हें व्यक्तित्व और निजता के बीच के अन्तर को समझना होगा। व्यक्तित्व है बाह्य सतह। जैसे तुम दूसरों को दिखते हो वह तुम्हारा व्यक्तित्व होता है। तुम कहते हो, 'एक अच्छा व्यक्तित्व, एक सुंदर व्यक्तित्व, एक कुरूप व्यक्तित्व।यह जैसे तुम दूसरों को दिखायी पड़ते हो वैसा होता है। तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारे बारे में दूसरों की राय है, निर्णय है। यदि तुम इस धरती पर अकेले रह जाओ, तो क्या तुम्हारा कोई व्यक्तित्व रह जायेगा? कोई व्यक्तित्व नहीं रहेगा। क्योंकि कौन कहेगा कि तुम सुंदर हो, और कौन कहेगा तुम मूर्ख हो, और कौन कहेगा तुम लोगों के महान नेता हो? कोई होगा ही नहीं तुम्हारे बारे में कुछ कहने को। कोई राय न हो, तो तुम्हारे पास कोई व्यक्तित्व न होगा।
व्यक्तित्व के लिए जो 'पर्सनलिटी' शब्द है यह पीक शब्द 'पर्सोना' से आया है। पीक नाटकों में, अभिनेताओं को मुखौटों का प्रयोग करना पड़ता था। वे मुखौटे कहलाते थे पर्सोना। पर्सनलिटी शब्द पर्सोना से आया है। वह चेहरा, जिसे तुम ओढ़े रखते हो। जब तुम पत्नी की ओर देखते हो और मुसकुराते हो, यह है—पर्सनलिटी—पर्सोना। तुम मुसकुराना चाहते नहीं, लेकिन तुम्हें मुसकुराना पड़ता है। एक अतिथि आता है और तुम उसका स्वागत करते हो, लेकिन भीतर गहरे में तुम कभी नहीं चाहते थे कि वह तुम्हारे यहां आये। तुम परेशान होते हो। तुम सोचते हो, ' अब क्या करूं इस आदमी का?' लेकिन तुम मुसकुरा रहे होते हो और तुम उसका स्वागत कर रहे होते हो और तुम कह रहे होते हो, 'मुझे कितनी खुशी हुई कि तुम आये।
व्यक्तित्व वह होता है जिसे तुम प्रस्तुत करते हो; यह एक ऊपरी रूप होता है, एक मुखौटा। लेकिन अगर तुम्हारे बाथरूम में कोई नहीं हो, तो जब तक कि तुम दर्पण में न देख लो तब तक तुम्हारा कोई व्यक्तित्व नहीं होता। तब फौरन व्यक्तित्व चला आता है क्योंकि तुम स्वयं 'दूसरे' का कार्य करना शुरू कर देते हो और राय देने लगते हो। तुम चेहरे को देखते हो और कह देते हो, 'सुंदर।अब तुम बंटे हुए हो। अब तुम दो हो। तुम स्वयं के बारे में राय दे रहे हो। लेकिन बाथरूम में जब कोई नहीं होता, जब तुम बिलकुल निर्भय होते हो और आश्वस्त होते हो कि कोई नहीं देख रहा दरवाजे की कुंजी की सुराख में से, तुम व्यक्तित्व गिरा देते हो। क्योंकि अगर कोई सूराख में से देख रहा होता, तो फिर से व्यक्तित्व आ पहुंचता है।
केवल बाथरूम में तुम व्यक्तित्व गिरा देते हो। इसलिए बाथरूम इतना स्‍फूर्तिदायक होता है। तुम स्नान करके बाहर आते हो—सुंदर, ताजे! कोई बाह्य व्यक्तित्व न रहा; तुम एक निजता हो जाते हो। निजता वह है जो तुम हो, व्यक्तित्व वह होता है जैसा तुम अपने को दिखाते हो। व्यक्तित्व तुम्हारा बाहरी चेहरा है; निजता तुम्हारा अस्तित्व है। पतंजलि की धारणा में, ईश्वर का कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह एक वैयक्तिक इकाई है, एक निजता
यदि तुम विकसित होते हो तो कुछ समय बाद दूसरों से आये मूल्यांकन बचकाने हो जाते हैं। तुम उनकी परवाह नहीं करते। जो वे कहते हैं, वह निरर्थक होता है। वे जो कहते हैं, वह कुछ अर्थ नहीं रखता। जो तुम हो, जो तुम होते हो, यही बात अर्थ रखती है। इससे कुछ नहीं होता कि वे कह दें 'सुंदर।यह व्यर्थ है। यदि तुम सुंदर हो तो असली बात है। जो वे कहते हैं, वह असंगत होता है। जो तुम हो—वास्तविक तुम, प्रामाणिक तुम, वही है निजता।
जब तुम बाह्य व्यक्तित्व को गिरा देते हो तब तुम संन्यासी हो जाते हो। जब तुम व्यक्तित्व को त्याग देते हो, तुम संन्यासी हो जाते हो। तुम एक वैयक्तिक इकाई बन जाते हो। अब तुम अपने प्रामाणिक केंद्र द्वारा जीते हो। जब तुम दिखावा नहीं करते, तब तुम्हें कोई चिंता नहीं रहती। जब तुम स्वयं को प्रस्तुत करने का रुख नहीं अपनाते, तो दूसरे जो कहते हैं उसका तुम पर प्रभाव नहीं पड़ता। जब तुम दिखावा नहीं करते, तो तुम निर्लिप्त हुए रहते हो। व्यक्तित्व निर्लिप्त नहीं रह सकता। यह एक बहुत नाजुक चीज है। यह तुम्हारे और दूसरे के बीच निर्मित होता है, और यह दूसरे पर निर्भर करता है। दूसरा अपना मन बदल सकता है; वह तुम्हें संपूर्णतया नष्ट कर सकता है। तुम किसी खी की ओर देखते हो। वह मुसकुरा देती है, और तुम इतना सुंदर अनुभव करते हो उसकी मुसकान के कारण। लेकिन यदि आंखों में घृणा भर वह मुंह फेर लेती है, तब तुम एकदम टूट जाते हो। वस्तुत: तुम टूटे हुए हो क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व उसके जूतों के नीचे फेंका गया था। वह तुम पर से गुजर जाती है। वह देखती तक नहीं।
हर क्षण तुम डरे हुए हो कि कोई तुम्हारा व्यक्तित्व न कुचल दे। तब सारा संसार एक चिंता बन जाता है। ईश्वर की निजता है, पर व्यक्तित्व नहीं। जो कुछ वह है, वही वह दिखाता है। जो कुछ वह भीतर है, वही वह बाहर है। वस्तुत: उसके लिए भीतर और बाहर तिरोहित हो गये हैं।
'ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है।अंगेजी में इसे ऐसा कहा जाता है, 'गॉड इज दि सुप्रीम रूलर।इसीलिए मैं कहता हूं कि पतंजलि के विषय में गलतफहमी बनी हुई है। संस्कृत में वे ईश्वर को कहते हैं 'पुरुष—विशेष' —सवोंत्कृष्ट निज सत्ता। कोई रूलर, कोई शासक नहीं। मैं 'ईश्वर' को 'दि सुप्रीम' ही कहना चाहूंगा। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। ध्यान रहे, वैयक्तिक है, सर्वसामान्य नहीं है, क्योंकि पतंजलि कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर है।
'वह जीवन के दुखों से, कर्म से और उसके परिणाम से अछूता है।
क्यों? क्योंकि जितने ज्यादा तुम वैयक्तिक होते हो, जीवन उतनी ज्यादा विभिन्न गुणवत्ता पा लेता है। एक नया आयाम खुल जाता है—उत्सव का आयाम। जितना अधिक तुम संबंध रखते हो व्यक्तित्व के साथ और बाहर के साथ, बाहरी परतों के साथ, ऊपरी सतह के साथ, उतना अधिक तुम्हारे जीवन का आयाम बन जाता है एक कर्म। तुम परिणाम के विषय में चिंतित होते हो, इस बारे में कि तुम्हें लक्ष्य मिलेगा या नहीं। हमेशा चिंतित ही रहते हो कि चीजें तुम्हें मदद देने वाली हैं या नहीं। यह चिंता, कि कल क्या होगा?
वह व्यक्ति, जिसका जीवन एक उत्सव बन गया है, कल की चिंता नहीं करता, क्योंकि वह जीता है केवल आज में। जीसस कहते हैं, 'लिली के इन फूलों की ओर देखो। वे इतने सुंदर हैं।क्योंकि उनके लिए जीवन कोई कर्म नहीं है। नदियों की ओर देखो, सितारों की ओर देखो। मनुष्य के अंतिरिका हर चीज सुंदर और पवित्र है, क्योंकि सारा अस्तित्व एक उत्सव है। वहां कोई परिणाम के लिए चिंतित नहीं है। क्या वृक्ष को इसकी चिंता होती है कि फूल आयेंगे या नहीं? क्या नदी को चिंता है कि वह सागर तक पहुंचेगी या नहीं? मनुष्य के अंतिरिका कहीं किसी को चिंता नहीं। मनुष्य क्यों चिंतित है? क्योंकि वह जीवन को कर्म की भांति देखता है, लीला की भांति नहीं। और यह सारा अस्तित्व एक लीला है, एक उत्सव है।
पतंजलि कहते हैं कि जब कोई स्वयं के केंद्र में अवस्थित हो जाता है, तो वह एक लीला बन जाता है। तब लीला होती है। जीवन एक उत्‍फुल्‍ल क्रीड़ा है। और यह सुंदर है। परिणाम की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। परिणाम से कुछ लेना—देना नहीं है। यह बिलकुल असंगत है जो भी तुम कर रहे हो, वह स्वयं में मूल्य रखता है। मैं तुमसे बात कर रहा हूं; तुम मुझे सुन रहे हो। लेकिन तुम उद्देश्य लेकर सुन रहे हो, और मैं निरुद्देश्य होकर बात कह रहा हूं। तुम उद्देश्य सहित सुन रहे हो, और तुम आशा करते हो कि सुनने के द्वारा तुम्हें कुछ प्राप्त होने वाला है—कोई ज्ञान, कोई सूत्र, कुछ तरकीबें, कुछ विधियां, कोई समझ मिलने वाली है। और फिर तुम उनसे कोई रास्ता बना लोगे। तुम परिणाम के पीछे जाते हो, और मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं प्रयोजनरहित होकर। मैं तो बस इसमें आनंद पाता हूं।
लोग मुझसे पूछते हैं, 'आप क्यों रोज प्रवचन देते हैं? ' ुझे आनंद है इसमें। यह पक्षियों के गाने, चहचहाने जैसा है। क्या है उद्देश्य? क्या तुम गुलाब से पूछते हो कि वह क्यों खिलता चला जाता है में क्या होता है उद्देश्य? मैं बोल रहा हूं क्योंकि मेरा स्वयं को तुम्हारे साथ बांटना अपने में मूल्यवान है। इसमें एक आंतरिक मूल्य है। मैं परिणाम को नहीं खोज रहा; मुझे चिंता नहीं कि तुम इसके द्वारा रूपांतरित होते हो या नहीं। कोई चिंता नहीं है। यदि तुम मुझे सुनते हो, बस हो गयी बात। और अगर तुम भी चिंतित नहीं हो, तब रूपांतरण इसी क्षण घट सकता है। तुम्हें चिंता है कि जो कुछ मैं कहता हूं उसका उपयोग कैसे किया जाये—उसे कैसे उपयोग किया जाये, उसका क्या किया जाये!
तुम पहले से ही भविष्य में हो। तुम यहां नहीं हो; तुम क्रीड़ा का उत्सव नहीं मना रहे हो। तुम तो जैसे किसी कारखाने में हो। तुम जीवन—क्रीड़ा का उत्सव नहीं मना रहे। तुम इसके द्वारा कुछ परिणाम पा लेने की सोच रहे हो। और मैं सर्वथा प्रयोजनरहित हूं। इस तरह मैं स्वयं का आनंद तुममें बांटता हूं। मैं इसलिए नहीं बोल रहा हूं कि भविष्य में कुछ करना है; मैं बोल रहा हूं क्योंकि अभी इसी बांटने के द्वारा कुछ घट रहा है, और वह पर्याप्त है।
'आंतरिक मूल्य' इन शब्दों को खयाल में लेना; और अपने प्रत्येक कार्य में आंतरिक मूल्य होने देना। परिणाम की चिंता मत ले लेना क्योंकि जिस क्षण तुम परिणाम की सोचते हो, तो जो कुछ तुम कर रहे होते हो वह साधन बन जाता है और साध्य होता है भविष्य में। साधनों को ही साध्य बना दो; मार्ग को ही लक्ष्य बना दो, इसी क्षण को परम बना दो। इसके पार कुछ नहीं है। यह है एक भगवान की अवस्था। और जब भी कभी उत्सव मना रहे होते हो, तुम्हें इसकी थोड़ी झलक मिलती है।
बच्चे खेलते हैं, और तुम बच्चों के खेलने से अधिक दिव्य कोई और चीज नहीं खोज सकते। इसलिए जीसस कहते हैं, 'जब तक तुम बच्चों जैसे न हो जाओ तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न करोगे।बच्चों जैसे हो जाओ। इसका अर्थ यह नहीं कि बचकाना होना है, क्योंकि बचकाना होना एक पूर्णत: भिन्न बात होती है। बच्चों जैसा होना समपरूपेण अलग बात है। बचकानापन गिराना पड़ता है। वह बालपन है, मूर्खता है। परंतु बच्चों की भांति होने की बात को बढ़ाना है। वह निर्दोषता है—प्रयोजनविहीन निर्दोषता। लाभ की बात साथ में विष ले आती है; परिणाम तुममें विष घोलता है। तब निर्दोषता खो जाती है।
'ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की व्यक्तिगत इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणाम से अछूता है।

 तुम बिलकुल अभी भगवान हो सकते हो क्योंकि तुम वह हो ही। बात को केवल पूरी तरह समझ लेना है। तुम पहले से ही वही अवस्था हो। ऐसा नहीं है कि तुम्हें विकसित होना है भगवान होने के लिए। वास्तव में तुम्हें अनुभव कर लेना है कि तुम पहले से ही वही हो।
और यह घटता है समर्पण द्वारा।
पतंजलि कहते हैं कि तुम ईश्वर में विश्वास करते हो, तुम ईश्वर में आस्था रखते हो, जो है कहीं, वहां ब्रह्मांड में, कहीं ऊपर, ऊंचाई पर, और तुम समर्पण कर देते हो। वह ईश्वर मात्र एक आश्रय है समर्पण करने में तुम्हें मदद देने के लिए। जब समर्पण घटता है, तुम भगवान हो जाते हो। क्योंकि समर्पण का अर्थ है वह वृत्ति जिसमें तुम अनुभव करते हो कि अब मैं परिणाम से संबंध नहीं रखता। मैं भविष्य से संबंधित नहीं हूं मैं स्वयं अपने से ही बिलकुल संबंध नहीं रखता। मैं समर्पण करता हूं।
जब तुम कहते हो, 'मैं समर्पण करता हूं ' तो किसका होता है यह समर्पण? उस मैं का, उस अहंकार का। और बिना अहंकार के तुम उद्देश्य के बारे में, परिणाम के बारे में कैसे सोच सकते हो? कौन सोचेगा उनके बारे में? तब तुम स्वयं को बहने देते हो। तब तुम वहां जाते हो जहां चीजें ले जाती हैं। अब समग्र समष्टि करेगी निर्णय; तुमने तुम्हारे निर्णय बनाने का समर्पण कर दिया है।
पतंजलि कहते है कि दो तरीके हैं।
एक है, तुम्हारे प्रयास को समग्र बनाना। यदि तुम अहंकार एकत्रित नहीं करते, तब वह समग्र प्रयास स्वयं में ही एक समर्पण बन जायेगा। यदि तुम अहंकार एकत्रित करते हो, तब एक दूसरा तरीका होता है—ईश्वर को समर्पण कर दो।

 ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।

 तुम बीज हो, और परमात्मा प्रस्‍फुटित अभिव्यक्ति है। तुम बीज हो और परमात्मा वास्तविकता है। तुम हो संभावना; वह वास्तविक है। परमात्मा तुम्हारी नियति है, और तुम कई जन्मों से अपनी नियति पास रखे हुए हो बिना उसकी ओर देखे। क्योंकि तुम्हारी आंखें कहीं भविष्य में लगी होती हैं; वे वर्तमान को नहीं देखतीं। यदि तुम देखने को राजी हो तो यहीं, अभी, हर चीज वैसी है जैसी होनी चाहिए। किसी चीज की जरूरत नहीं। अस्तित्व संपूर्ण है हर क्षण। यह कभी अपूर्ण हुआ ही नहीं; यह हो सकता नहीं। यदि यह अपूर्ण होता, तो यह संपूर्ण कैसे हो सकेगा? फिर कौन इसे संपूर्ण बनायेगा?
अस्तित्व संपूर्ण है, कुछ करने की जरा भी कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो तो समर्पण पर्याप्त है। किसी प्रयास, किसी प्राणायाम, भस्त्रिका, किसी शीर्षासन, योगासन, या ध्यान या कोई विधि—किसी चीज की जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो कि अस्तित्व जैसा है, बस पूर्ण है...। भीतर खोज लो, बाहर खोज लो, हर चीज इतनी पूर्ण है कि उत्सव मनाने के अतिरिका कुछ नहीं किया जा सकता। वह व्यक्ति, जो समर्पण करता है, उत्सव मनाना आरंभ कर देता है।

 आज इतना ही।


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