कुल पेज दृश्य

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

भगवान नहीं--भगवत्‍ता




भगवान पर जोर नहीं देता हूं,
भगवता पर जोर देता हूं।
भग वत्ता का अर्थ हुआ,
नहीं कोई पूजा करनी है,
नहीं कोई प्रार्थना,
नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने है,
न पूजा के थाल सजाने है,
न अर्चना, न विधि-विधान, यज्ञ-हवन,
वरन अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है।
उस धारा का अनुभव करना है,
वह जो चेतना है, चैतन्‍य है।
वह जो प्रकाश है स्‍वयं के भीतर,
जो बोध की छिपी हुई दुनियां है,
वह जो बोध का रहस्‍यमय संसार है,
उसका साक्षात्‍कार करना है,
उसके साक्षात्‍कार से जीवन सुगंध से भर जाता है।
ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं।
उस सुगंध का नाम भग वत्ता है।
परम रस का अनुभव--

--ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें