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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

स्‍वर्णिम बचपन--सत्र ( 2 )

सत्र—2  ‘’जन्‍म का चुनाव’’

सब लोग अपने सुनहरबचपन बात करते हैं, पर कभी-कभार ही यह सच होता है। अधिकतर तो यह झूठ ही होता है। लेकिन जब बहुत लोग एक ही झूठ बोल रहे हों तो किसी को पता नहीं चलता कि यह झूठ है। कवि भी अपने सुनहरे बचपन के गीत गाते रहते हैं—उदाहरण के लिए वर्डसवर्थ—उसकी कवि‍ताएं अच्‍छी हैं, लेकिन सुनहरा बचपन बहुत ही दुर्लभ घटना हैं। साधारण से कारण से कि तुम इसे पाओगें कहां से।
      सबसे पहले तो व्यक्ति को अपना जन्‍म चुनना पड़ता है। जोकि बिलकुल ही असंभव है। जब तक तुम ध्‍यान की स्थिति में न मरे हो तब तक तुम अपने जन्‍म का चुनाव नहीं कर सकते। यह चुनाव तो केवल ध्यानी ही कर सकता है। वह होश पूर्वक मरता है, इसलिए होश पूर्वक जन्‍म लेने का अधिकार हासिल करता है। मैं होश पूर्वक मरा था। असल में मैं मरा नहीं था, मारा गया था। मैं तीन दिन के बाद मरने बाला था। पर वे लोग इंतजार न कर सके, तीन दिन का भी इंतजार न कर सके। लोग इतनी जल्‍दी में है।
      तुम्‍हें यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि जिस आदमी ने मुझे मारा था वह अब मेरा संन्‍यासी है। वह फिर मुझे मारने आया था, संन्‍यास लेने नहीं आया था। पर अगर वह अपनी जिद नहीं छोड़ता तो मैं भी अपनी जिद छोड़ने वाला नहीं। संन्‍यासी होने के सात साल बाद उसने स्‍वयं स्‍वीकार किया। उसने कहा: ‘प्‍यारे सदगुरू, अब मैं बिना भय के आपके सामने स्‍वीकार करता हूं कि अहमदाबाद में मैं आपको मारने आया था।
      मैंने कहा: ’हे परमात्‍मा, फिर से दुबारा?
      उसने कहा: ‘दुबारा से आपका क्‍या मतलब है?
      मैंने कहा: ‘ यह दूसरी बात है। तुम अपनी बात कहो।‘
      उसने कहा: ‘सात साल पहले अहमदाबाद में मैं आपकी मीटिंग में रिवाल्‍वर लेकर आया था। हॉल इतना भरा हुआ था कि संयोजकों ने लोगों को मंच पर बैठने दिया था।‘
      तो उस आदमी को, जो रिवाल्‍वर लेकर मुझे मारने आया था। मेरी बगल में बैठने दिया गया। कितना अच्‍छा अवसर था। मैने कहा: ‘तुम इस अवसर को चूके क्‍यों?
      उसने कहा: ‘मैने आपको इससे पहले कभी सुना नहीं था। मैने सिर्फ आपके बारे में सुना था। जब मैने आपको सुना, तो मुझे लगा कि आपको मारने की बजाय आत्‍महत्‍या कर लेनी बेहतर है। इस लिए मैने संन्‍यास लिया—यहीं मेरी आत्‍महत्‍या है।‘
      सात सौ साल पहले इस आदमी ने मेरी हत्‍या की थी। इसने मुझे जहर दिया था। उस समय भी यह मेरा शिष्‍य था.....लेकिन जुदास के बिना जीसस का होना बहुत मुश्किल है। मैं होश पूर्वक मरा। इसलिए मुझे होशपूर्वक जन्‍म लेने का अवसर मिला। मैंने अपने माता-पिता को चुना।
      पृथ्‍वी पर हजारों मूर्ख प्रतिक्षण संभोग कर रहे है और लाखों अजन्‍मी आत्‍माएं किसी भी गर्भ में प्रवेश करने को तैयार है। मैंने उपयुक्‍त क्षण की प्रतीक्षा में सात सौ साल इंतजार किया। और अस्तित्‍व का धन्‍यवाद कि वह क्षण मुझे मिल गया। लाखों वर्षो की तुलना में सात सौ साल कुछ भी महत्‍व नहीं रखते है।
केवल सात सौ साल! हां मैं कह रहा हूं, केवल!
          और, मैंने एक बहुत ही गरीब, लेकिन बहुत ही अंतरंग दंपति को चुना।
          मेरे पिता के ह्रदय में मेरी मां के लिए इतना प्रेम था कि मैं नहीं सोचता हूं कि कभी उन्‍होंने किसी दूसरी स्‍त्री को उस दृष्टि से देखा हो। यह कल्‍पना करना भी असंभव है—मेरे लिए भी, जो कि कुछ भी कल्‍पना कर सकता है—कि मेरी मां ने स्‍वप्‍न में भी किसी और पुरूष के बारे में सोचा हो—यह असंभव है। मैंने दोनों को जाना है। वे इतने घनिष्‍ठ थे, एक-दूसरे के प्रति इतने प्रेमपूर्ण थे, इतने संतुष्‍ट थे,
हालांकि गरीब थे—गरीब फिर भी अमीर। इस घनिष्‍ठता और परस्‍पर प्रेम के कारण ही वे गरीबी में भी इतने समृद्ध थे।
      जब मेरे पिता की मृत्‍यु हुई तो मैं अपनी मां के बारे में चिं‍तित था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि वे जिंदा रह पाएंगी। उन दोनों ने एक-दूसरे को इतना प्रेम किया था कि लगभग एक ही हो गए थे। वे बच पाईं क्‍योंकि वे मुझे प्रेम करती है। उनके बारे में मैं हमेशा चिंति‍त रहा हूं। मैं उन्‍हें अपने sपास ही रखना चाहता था, ताकि उनकी मृत्‍यु परम संतुष्टि में हो सके। अब तुम्‍हारे द्वारा एक दिन सारे संसार को मालूम होगा—कि वे बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो गई है। मैं उनका अंतिम मोह था। अब उनके लिए कोई मोह नहीं रह गया है। वे एक संबुद्ध महिला हैं--
अशिक्षित, सरल, उनको तो यह भी नहीं मालूम कि बुद्धत्‍व क्‍या होता है। यही तो सौंदर्य है। कोई बुद्ध हो सकता है, बिना यह जाने कि बुद्धत्‍व क्‍या है। और इससे उल्‍टा भी हो सकता है: कोई बुद्धत्‍व के बारे में सब जान सकता है और फिर भी अबुद्ध बना रहा सकता है।
      मैंने इस दंपति को चुना—सीधे-सादे सरल ग्रामीण। मैं राजाओं और रानियों को भी चुन सकता था। यह मेरे हाथ में था। सब प्रकार के गर्भ उपलब्‍ध थे। पर मैं बहुत ही सरल और सादी रूचि का व्‍यक्ति हूं—मैं हमेशा सर्वोत्‍तम से संतुष्‍ट हो जाता हूं। यह दंपति गरीब थी, बहुत गरीब। तुम समझ न सकोगे कि मेरे पिता के पास केवल सात सौ रूपये थे। यही उनकी कुल संपत्ति थी। फिर भी मैंने उनको अपना पिता चुना। उनके पास एक संपन्‍नता थी, जिसे आंखें नहीं देख सकतीं; एक अभिजात्‍य था जो दिखाई नहीं देता।
      तुममें से बहुतों ने उन्‍हें देखा है और निश्चित ही उनके सौंदर्य को अनुभव किया होगा। वे सीधे, बहुत सीधे और सरल थे, तुम उन्‍हें ग्रामीण कह सकते हो। लेकिन वे समृद्ध थे—सांसारिक अर्थों में नहीं, लेकिन अगर कोई पारलौकिक अर्थ है...;। सात सौ रूपये, यहीं उनकी कुल पूंजी थी। मुझे तो पता भी न चलता लेकिन जब उनके व्‍यापार का दिवाला निकल रहा था। और वे बहुत प्रसन्‍न थे। मैंने उनसे पूछा: ‘दद्दा’—‘मैं उन्‍हें दद्दा कहता था।‘ आप जल्‍दी ही दिवालिया होने वाले है और आप खुश है, क्‍या बात है, क्‍या अफवाहें गलत है?
      उन्‍होंने कहा: ‘नहीं अफवाहें बिलकुल सही है। दिवाला निकलेगा ही। लेकिन मैं खुश हूं क्‍योंकि मैंने सात सौ रूपये बचा लिए है। जिससे मैने शुरूआत कि थी। और वो जगह तुम्‍हें दिखाऊ......वे सात सौ रूपये अभी भी जमीन में कहीं गड़े हुए है और वे वहीं गड़े रहेगें जब तक कि संयोगवश कोई उन्‍हें पा न लें। मैंने उनसे कहा, ‘हालांकि आपने मुझे वो जगह दिखा दी है, लेकिन मैने देखा नहीं है।‘
      उनहोंने पूछा: ’क्‍या मतलब है तुम्‍हारा?
      ‘मैं किसी भी विरासत का हिस्‍सा नहीं हूं—बड़ी या छोटी, अमीर या गरीब।‘
      लेकिन उनकी और से वे बहुत ही प्‍यार करने बाले पिता थे। जहां तक मेरा सवाल है, मैं प्‍यार करने वाला बेटा नहीं हूं—‘मुझे माफ करो।‘
      अच्‍छा है कि मेरे पिता अब नहीं है, नहीं तो मैं उन्‍हें परेशान करता। लेकिन उनके ह्रदय में इस आवारा बेटे के लिए इतना प्रेम था और इतनी करूणा थी। मैं तो आवारा ही हूं। मैंने अपने परिवार के लिए कभी कुछ नहीं किया। किसी भी प्रकार से वे मेरे प्रति ऋणी नहीं है। उन्‍होंने मेरे लिए सब कुछ किया।
      मैंने इस दंपति का चुनाव विशेष कारण से ही किया—उनमें घनिष्‍ठता, उनकी अंतरंगता के कारण। वे दो होते हुए भी एक ही थे। इस प्रकार सात सौ साल बाद मैंने पुन: शरीर में प्रवेश किया।
      मेरा बचपन सुनहरा था। मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं। मैं फिर दोहरा दूँ, सभी कहते है कि उनका बचपन सुनहरा था, लेकिन ऐसा होता नहीं। लोग सिर्फ सोचते है कि उनका बचपन सुनहरा था। क्‍योंकि उनकी जवानी बेकार होती है और उनका बुढ़ापा तो और भी बदतर होता है। स्‍वभावत: बचपन सुनहरा हो जाता है। इस अर्थ में बचपन सुनहरा नहीं था। मेरी जवानी हीरे जैसी थी और अगर मैं बुढ़ापे तक जीवित रहा तो मेरा बुढ़ापा प्‍लैटिनम होगा। लेकिन मेरा बचपन निश्चित ही सुनहरा था—प्रतीक की तरह नहीं, सच में सुनहरा; काव्‍य की तरह नहीं बल्कि शब्दशः:, तथ्‍यगत।
      अपने आरंभिक वर्षो में मैं अधिकतर अपने नाना-नानी के घर रहा। वे वर्ष भुलाए नहीं जा सकते। अगर मैं स्‍वर्ग में भी पहुंच जाऊँ तो भी उन वर्षो को याद रखूंगा। एक छोटा सा गांव, गरीब लोग। पर मेरे नाना बहुत बड़े दिल के आदमी थे। अत्‍यंत उदार। वे गरीब थे, लेकिन उदारता में वे बहुत अमीर थे। उनके पास जो भी था, उन्‍होंने सबको दिया। मैंने भी देने की कला उन्‍हीं से सीखी। इतना मुझे स्‍वीकार करना पड़ेगा। मैंने उन्‍हें किसी भिखारी को या किसी और को न कहते नहीं सुना।
      मेरी नानी भारतीय कम, युनानी अधिक दिखाई देती थी। जब ‘मुक्‍ता’ को हंसते देखता हूं तो मुझे उनकी याद आ जाती है। शायद इसीलिए मेरे ह्रदय में मुक्‍ता के लिए विशेष स्‍थान है। शायद उनमें कुछ यूनानी खून था। कोई भी जाती बिलकुल शुद्ध होने का दाव नहीं कर सकती। विशेषकर भारतीयों को तो शुद्ध खून का दावा बिलकुल नहीं करना चाहिए। हूणों ने, मुग़लों ने, यूनानियों ने, और दूसरी अन्‍य जातियों ने कई बार भारत पर आक्रमण किए, भारत को जीता और उस पर शासन किया। वे भारतीय खून में घुल-मिल गए। मेरी नानी में बिलकुल स्‍पष्‍ट था। उनके नैन-नक्‍श भारतीय नहीं थे। वे यूनानी दिखाई देती थी। और वे बहुत शक्ति शाली स्‍त्री थी—बहुत मजबूत। मेरे नाना पचास वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी मृत्‍यु हो गई। मेरी नानी अस्‍सी साल तक जीवित रहीं और वे पूरी तरह स्‍वस्‍थ थी। तब भी कोई नहीं सोचता था कि वे मरने बाली है। मैने उनसे एक वादा किया था कि जब वे मरेगी तो मैं आऊँगा। और वह परिवार में जाने का मेरा अंतिम मौका होगा। उनकी मृत्‍यु उन्‍नीस सौ सत्‍तर में हुई। मुझे अपना वादा पूरा करना पडा।
          मैं अपने आरंभिक वर्षो में नानी को ही मां समझता था। यह समय था जब बच्‍चा धीरे-धीरे बड़ा होता है। उस समय मैं नानी के पास था। मेरी मां उसके बाद आर्इं। तब तक मैं बड़ा हो चुका था और एक खास ढंग में ढल चुका था। मुझे एक घटना याद आती है जो मैने इससे पहले कभी नहीं बताई। एक अंधेरी रात थी, बारिश हो रही थी और एक चोर हमारे घर में घुस आया। स्‍वभावत: मेरे नाना डर गए। सब देख सकते थे वे डरे गए है, लेकिन वे पूरी कोशिश कर रहे थे यह दिखाने की कि वे डरे नहीं है। चोर हमारे छोटे से घर के एक कोने में शक्कर की बोरियों के पीछे छुपा हुआ था।
      मेरे नाना हमेशा पान खाते रहते थे। वे सार दिन पान बनाते रहते और खाते रहते थे। तो उन्‍होंने पान खाना शुरू किया और कोने में छिपे हुए बेचारे चोर पर थूकने लगे। मैने यह गंदा दृश्‍य देखा और नानी से कहा: ‘यह ठीक नहीं है। माना की वह चोर है, फिर भी इस तरह से उस पर थूकना नहीं चाहिए। हमें सज्‍जनता से व्‍यवहार करना चाहिए। थूकना...., या तो उससे लड़ों या थूकना बंद करो।’
      मेरी नानी ने पूछा: ‘तुम क्‍या करना पसंद करोगे?
      मैंने कहा: ‘मैं उसे थप्‍पड़ मार कर बाहर भगा दूँगा।‘ उस समय मैं नौ वर्ष का भी नहीं था।
      वे ऊंचे कद की थी। मेरी मां उन जैसी नहीं है—न ही शारीरिक सौंदर्य में और न ही आंतरिक साहस में। मेरी मां तो सीधी-सादी है, मेरी नानी साहसी थी।
मैं तो हैरान रह गया, मैं तो भरोसा न कर सका, जब मैंने देखा कि चोर कोई और नहीं मुझे पढ़ाने आने वाला व्‍यक्ति ही था, मेरा टीचर, मैने जोर से उसे मारा, इसलिए नहीं कि वह मेरा टीचर था। मैंने उससे कहा: ‘अगर तुम केवल चोर होत तो मैं तुम्‍हें क्षमा कर देता, लेकिन तुम मुझे बड़ी-बड़ी बातें सिखाते हो और रात में तुम ऐसी हरकतें करते हो। अब जितनी तेजी से हो सको भाग जाओ, इससे पहले कि मेरी नानी तुम्‍हें पकड़े, अन्‍यथा वे तुम्‍हारा भुरता बना देगी।‘
      मुझे वह मास्‍टर याद है—गांव का पंडित, जो मुझे कभी-कभी पढ़ाने आता था। वह गांव के मंदिर का पुजारी था। उसने कहा: ‘तुम्‍हारे नाना ने मुझ पर थूकते रहे। क्‍या हालत हो गई है मेरे कपड़ों की, उन्‍होंने मेरे कपड़े खराब कर दिए।‘
      मेरी नानी हंसी और कहा: ‘कल आ जाना। मैं तुम्‍हें नये कपड़े दे दूंगी।‘ और उन्‍होंने सचमुच उसे नये कपड़े दिए। वह तो नहीं आया, उसकी हिम्‍मत नहीं पड़ी। लेकिन नानी चोर के घर गईं, मुझे भी अपने साथ ले गई। और उसे नये कपड़े देते हुए कहा: ‘हां मेरे पति ने तुम्‍हारे कपड़े खराब करने का भद्दा काम किया। यह ठीक नहीं है। तुम्‍हें जब भी कपड़ों की जरूरत हो तो मेरे पास आ सकते हो।‘
      वह मास्‍टर दुबारा मुझे पढ़ाने नहीं आया....ऐसा नहीं कि किसी ने उसे आने के लिए माना किया, लेकिन उसे आने कि हिम्‍मत ही नहीं हुई।
      मेरे नाना चाहते थे कि भारत के बड़े से बड़े ज्‍योतिषी मेरी जन्‍मपत्री बनाएं। हालांकि वे बहुत अमीर नहीं थे—अमीर ही नहीं थे, बहुत अमीर की तो बात अलग-लेकिन उस गांव में वे सबसे अमीर थे। मेरी जन्‍मपत्री बनाने के लिए वे कुछ भी कीमत देने को तैयार थे। वे लम्‍बी यात्रा करके वाराणसी गए और वहां के प्रसिद्ध ज्‍योतिषियों से मिले। मेरे नाना द्वारा दी गई मेरी जन्‍मतिथि और जन्‍मस्‍थान आदि को देख कर सबसे ज्‍योतिषी ने कहा: ‘मुझे दुख है, कि मैं यह जन्‍म-कुंडली केवल सात साल बाद ही बना सकता हूं। अगर यह बच्‍चा जीवित रहा तो मैं उसकी जन्‍म पत्री मुफ्त में बना दूँगा। पर मुझे नहीं लगता कि यह बचेगा। यदि यह बच गया तो यह चमत्‍कार होगा, क्‍योंकि तब उसके बुद्ध हो जाने की संभावना है।‘
      मेरे नाना रोते हुए घर आए। मैने उनकी आंखों में आंसू कभी नहीं देखे थे। मैने पूछ: ‘क्‍या बात है?
      उन्‍होंने कहा: ‘तुम्‍हारे सात साल के होने तक मुझे इंतजार करना पड़ेगा। कोन जानता है‍ की तब तक मैं बचूगां भी या नहीं?’ कौन जानता है कि वह ज्‍योतिषी खुद बचेगा कि नहीं, क्‍योंकि वह काफी बूढ़ा है। और मुझे तुम्‍हारी थोड़ी चिंता होती है।‘
      मैंने कहा: ‘इसमें चिंता की क्‍या बात है?
      उन्‍होंने कहा: ‘चिंता इस बात की नहीं है कि कहीं तुम मर न जाओ। मेरी चिंता इस बात की है कि कहीं तुम बुद्ध न हो जाओ।‘
      मैं हंसा, और वे भी आंसुओं के बीच हंसने लगे। फिर उन्‍होंने खुद कहा: ‘आश्‍चर्य है कि मुझे चिंता थी। हां बुद्ध होने में बुराई क्‍या है?
      जब मेरे पिता ने सुना कि ज्‍योतिषियों ने मेरे नाना को क्‍या कहा, तो वे स्‍वयं मुझे वाराणसी ले गए। लेकिन उसकी चर्चा बाद में करेंगे।
      जब मैं सात साल का था तो एक ज्‍योतिषी मुझे खोजते हुए मेरे नाना के गांव आया। जब एक सुंदर घोड़ा हमारे घर के सामने रुका तो हम बाहर निकल आए। घोड़ा बहुत शानदार दिख रहा था और उसका सवार कोई और नहीं, वहीं प्रसिद्ध ज्‍योतिषी था जिसे मैं मिल चुका था। उसने मुझे कहा, ‘तो तुम अभी तक जीवित हो, मैने तुम्‍हारी जन्‍म-कुंडली बना दी है। मैं डर रहा था, क्‍योंकि तुम्‍हारे जैसे लोग अधिक समय तक जीवित नहीं रहते।‘
      मेरे नाना ने घर के जेवर बेच दिए, आस-पास के गांव को भोज देने के लिए कि मैं बुद्ध होने बाला हूं इसका उत्‍सव मनाने के लिए। और मुझको नहीं लगता कि उन्‍हें ‘बुद्ध’ शब्‍द का अर्थ मालूम था। वे जैन थे, और शायद उन्‍होंने इससे पहले कभी यह शब्‍द सुना भी न होगा। लेकिन वह बहुत खुश थे और नाच रहे थे, क्‍योंकि मैं बुद्ध होने बाला था। उस क्षण मैं विश्‍वास ही न कर सका कि सिर्फ बुद्ध शब्‍द से वे इतने प्रसन्‍न हो सकते है। जब सब लोग चल गये तो मैंने उनसे पूछा, ‘बुद्ध शब्‍द का अर्थ क्‍या है, उन्‍होंने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम। सुनने में अच्‍छा लगता है। और मैं तो जैन हूं किसी बौद्ध से पूछ लेंगे।‘
      लेकिन वे बहुत प्रसन्‍न थे, क्‍योंकि ज्‍योतिषी ने कहा कि मैं बुद्ध बनूंगा। फिर उन्‍होंने मुझसे कहा: ‘मेरा अनुमान है कि बुद्ध का मतलब ब‍हुत बुद्धिमान व्‍यक्ति होना चाहिए।‘ बुद्धि का अर्थ होता है समझ, इसलिए उन्‍होंने सोचा कि बुद्ध का मतलब बुद्धिमान, समझदार व्‍यक्ति होना चाहिए।
      उनका अनुमान काफी सही था, वे अर्थ के बहुत करीब पहुंच गए—अफसोस कि अब वे जीवित नहीं हैं, नहीं तो वे देख लेते कि बुद्ध होने का क्‍या अर्थ है—शब्‍दकोश का अर्थ नहीं, वरन जीवित जाग्रत व्‍यक्ति के साथ साक्षात्‍कार। और उनका नाती बुद्ध हो गया है—इस खुशी में मैं उन्‍हें नाचते हुए देख सकता हूं। उनके समाधिस्‍थ होने के लिए यही पर्याप्‍त होता। लेकिन उनकी मृत्‍यु हो गई। उनकी मृत्‍यु मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण अनुभव था। उसके बारे में बाद में बात करेंगे।
      रूकने का समय हो गया है। पर यह बहुत सुंदर रहा, और मैं बहुत आभारी हूं।
      धन्यवाद।
     

3 टिप्‍पणियां:

  1. ओशो सर्वदा से सम्मोहित करते रहे है,,,,स्थापित से विद्रोह जैसा कुछ..जितना कुछ पढ़ सका हूँ, ओशो विस्मित कर देते हैं अपने तर्कों से ....और फिर ओशो 'शब्दों' की ससीमता जानते थे..पुनर्जन्म पुरी तरह से रहस्यमय लगता है, क्या इस प्रकरण में ओशो एक रहस्य रच रहे हैं ताकि कही और गहरे चोट की जा सके, क्या यहाँ से ओशो हमें कहीं और भीतर से जगा रहे हैं....?

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  2. यह सच अति कडूवा अपुतू स्‍तय है, निंद्रा से जिस दिन आदमी बहार आता है.....जीवन की अतिशय गुढ गहराइयों में डुबकी लगता है, पुर्नजन्‍म अति सफटिक है...डूबो तो जरा।
    किनारों से सगर नही नापे जाते

    जाग के स्‍वपन नहीं देखे जाते।

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