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शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

स्‍वणिम बचपन-- सत्र-( 7)

सत्र-07 जैन मुनि से संवाल

गुड़िया को मालूम है कि मैं नींद में बोलता हूं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि मैं किससे बोलता हूं। सिर्फ मैं जानता हूं यह। बेचारी गुड़िया, मैं उससे बातें करता हुं और वह सोचती है और चिंता करती है कि क्‍यों बोल रहा हूं और किससे बोल रहा हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि मैं इसी तरह उससे बातें करता हूं। नींद एक प्राकृतिक बेहोशी है। जीवन इतना कटु है कि हर आदमी को रात में कम से कम कुछ घंटे नींद की गोद में आराम करना पड़ता है। और उसको आश्‍चर्य होता है कि मैं सोता भी हूं या नहीं। उसके आश्‍चर्य को मैं समझ सकता हूं। पिछले पच्‍चीस सालों से भी अधिक समय से मैं सोया नहीं हूं।
      देव राज, चिंता मत करो। साधारण नींद तो मैं सारी दुनिया में किसी भी व्‍यक्ति से अधिक सोता हूं—तीन घंटे दिन में और सात, आठ या नौ घंटे रात में—अधिक से अधिक जितना कोई भी सो सकता है। कुल मिला कर पूरे दिन में मैं बारह घंटे सोता हूं। लेकिन भीतर मैं जागा रहता हूं। मैं अपने को सोते हुए देखता हूं।
और कभी-कभी रात के समय इतना अकेलापन होता है कि मैं गुड़िया से बात करने लगता हूं। लेकिन उसकी बहुत मुश्किलें है। पहली तो यह कि जब मैं नींद में बोलता हूं तो हिंदी में बोलता हूं। नींद में मैं अंग्रेजी में नहीं बोल सकता, मैं कभी नहीं बोलुगां, हालांकि अगर मैं चाहूं तो बोल सकता हूं, एक आध बार मैंने कोशिश भी की है और मैं सफल भी रहा हूं। लेकिन मजा किरकिरा हो जाता है।
       तुम्‍हें मालूम होगा मैं उर्दू की प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का एक गीत रोज सुनता हूं। रोज यहां आने से पहले मैं उसको बार-बार सुनता हू। इतनी बार सून कर तो कोई पागल हो जाएगा। मैं रोज गुड़िया पर उसी गीत की ड्रि‍लिंग करता हूं। उसे सुनना  ही पड़ता है, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। जब मेरा काम पूरा हो जाता है। तो मैं फिर उस गीत को सुनता हूं। मैं अपनी भाषा को प्रेम करता हूं,...इस लिए नहीं की वो मेरी भाषा है, लेकिन वह इतनी सुंदर है कि अगर वह मेरी न भी होती तो भी मैं उसे सिखा होता।
      जो गीत वह रोज सुनती है और जो उसे बार-बार सुनना पड़ेगा, उसमें कहा है: ‘तुम्‍हें याद हो के न याद हो, वह जो हममें तुममें करार था। कभी तुम कहा करते थे‍ कि तुम दुनिया में सबसे खूबसूरत स्‍त्री हो। अब मुझे नहीं मालूम कि तुम मुझे पहचान पाओगें या नहीं। शायद तुम्‍हें याद नहीं, लेकिन मुझे अभी भी याद है। मैं न उस करार को भूल सकती हूं, न तुम्‍हारे शब्‍दों को जो तुमने मुझसे कहे थे। तुम कहा करते थे कि तुम्‍हारा प्रेम पावन है। क्‍या तुम्‍हें अभी भी याद है। शायद नहीं, लेकिन मुझे याद है—निश्चित ही पूरी तरह से नहीं, समय ने कुछ-कुछ भुला दिया है।’
      ‘मैं तो जीर्ण शीर्ण महल हूं, लेकिन अगर तुम देखो, अगर तुम ध्‍यान से देखो तो पाओगें कि मैं वैसी ही हूं। मुझे अभी भी तुम्‍हारा करार और तुम्‍हारे शब्‍द याद है। वह करार जो कभी हमारे बीच था, क्‍या वह तुम्‍हे अभी भी याद है के नहीं? मैं तुम्‍हारे बारे में नहीं जानती, लेकिन मुझे अभी भी याद है।
      मेरी नींद में जब मैं गुड़िया से बातें करता हूं तो फिर हिंदी में बोलता हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि उसका अचेतन अभी भी अंग्रेजी नहीं है। वह इंग्‍लैड में सिर्फ कुछ वर्षो तक ही थी। उसके पहले वह भारत में थी और अब वह फिर भारत में है। इन दोनों कालों के बीच जो घटा, वह सब मैं पोंछ डालने की कोशिश करता  रहा हूं। इसके बारे में बाद में, जब समय आएगा....’
      आज मैं जैन धर्म के बारे में कुछ कहने बाला था। मेरा पागलपन तो देखो। हां, मैं बिना किसी सेतु के एक शिखर से दूसरे शिखर पर कूद सकता हूं। लेकिन तुम्‍हें एक पागल आदमी को थोड़ा सहन करना पड़ेगा। तुम प्रेम में पड़े हो, यह तुम्‍हारी जिम्‍मेवारी है, मैं इसके लिए जिम्‍मेवार नहीं हूं।
      संसार में सबसे कठिन तपश्‍चर्या बाला धर्म जैन  धर्म है, या दूसरें शब्‍दों में सर्वाधिक आत्‍मपीड़क और परपीडक धर्म जैन धर्म है। जैन मुनि स्‍वयं को इतना सताते है कि संदेह होने लगता है कि ये पागल तो नहीं है।
      मैं चार या पाँच साल का रहा होऊगां जब मैंने पहली बार एक दिगंबर जैन मुनि को देखा। वह मरी नानी के घर पा आमंत्रित था। मैं अपनी हंसी न रोक सका। मेरे नाना ने मुझे कहा: ‘चुप रहो, में जानता हूं कि तुम शरारती हो। जब तुम जब तुम पडोसियों को परेशान करते हो तो मैं तुम्‍हें माफ कर सकता हूं, लेकिन यदि तुमने मेरे गुरू के साथ कोई शैतानी की तो मैं तुम्‍हें क्षमा नहीं कर सकता। ये मेरे गुरु है। इन्‍होंने मुझे घर्म के आंतरिक रहस्‍यों में दीक्षा दी है।
      मैंने कहा: ‘आंतरिक रहस्‍यों से मेरा कोई संबंध नहीं हैं। मेरा तो दिलचस्‍पी बाहरी रहस्‍यों में है जो वह इतने साफ दिखा रहे है। ये नगन क्‍यों है। क्‍या ये कम से कम चडढी या ल्ंगोटी नहीं पहल सकते है?
      मेरे नाना भी हंस पड़े। उन्‍होंने कहा: ‘तुम समझते नहीं हो।’
      मैंने कहा: ‘ठीक है, मैं खुद ही उनसे पूछ लूंगा।’ फिर मैंने अपनी नानी से पूछा, ‘क्‍या मैं इस बिलकुल पागल आदमी से कुछ प्रश्‍न पूछ सकता हूं जो इस प्रकार पुरूष और स्त्रियों के सामने नग्‍न चले आते है?
          मेरी नानी ने हंस कर कहा: ‘जो पूछना हो पूछो, और तुम्‍हारे नाना क्‍या कहते है, इसकी फ़िकर मत करो। मैं तुम्‍हें इजाजत देती हूं। अगर ते कुछ कहें तो तुम इशारा कर देना। मैं उन्‍हें ठीक कर दूंगी।’
      नानी बहुत ही अच्‍छी थीं, बहुत साहसी थी; बिना किसी सीमा के पूर्ण स्‍वतंत्रता देने को तैयार थी। उनहोंने मुझसे यह भी नहीं पूछा कि मैं क्‍या पूछने जा रहा हूं। उन्होंने बस इतना ही कहा: ‘जो पूछना हो पूछो।’
      गांव के सब लोग जैन मुनि के दर्शन के लिए इकट्ठे हो गए थे। उनके तथाकथित उपदेश के बीच में मैं खड़ा हो गया। यह करीब चाल साल पहले की बात है। और तब से आज तक मैं निरंतर इन मूढ़ों से लड़ाई  लड़ रहा हूँ। जिसका अंत मेरी मृत्‍यु के साथ ही होगा। शायद तब भी समाप्‍त न हो, मेरे लोग शायद उसे जारी रखें।
      मैंने सरल से प्रश्‍न पूछे, लेकिन वह उत्‍तर न दे सका। मुझे बडी हैरानी हुई और मेरे नाना को बहुत शर्म आई। मेरी नानी ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा, ‘शाबाश तुमने कर दिखाया। मुझे पता था कि तुम कर सकोगे।’
      क्‍या पूछा था मैने?  सिर्फ सीधा-सरल प्रश्‍न पूछे थे। मैंने पूछा था, ‘आप दुबारा जन्‍म क्‍यों नहीं लेना चाहते, जैन धर्म में यह सरल सा प्रश्‍न है, क्‍योंकि जैन धर्म की कुल कोशिश है कि दुबारा जन्‍म न लेना पड़े। यह दुबारा जन्‍म को रोकने का पुरा विज्ञान है। तो मैने उससे बुनियादी प्रश्‍न पूछा। क्‍या आप दुबारा जन्‍म नहीं लेना चाहते?
      उसने कहा: ‘नहीं, कभी नहीं।’
      तो फिर मैंने पूछा: ‘आप आत्‍महत्‍या क्‍यों नहीं कर लेते, आप अभी भी श्‍वास क्‍यों लिए जा रहे है। क्‍यों खाना, क्‍यों पानी पीना? खत्‍म करो, आत्‍महत्‍या कर लो। छोटी सी बात के लिए क्‍यों इतना उपद्रव करना।‘
      वह चालीस साल से ज्यादा उम्र का न था। मैंने उससे कहा: ‘अगर आप इस प्रकार चलते रहे तो शायद आपको और चालीस साल तक या उससे भी अधिक जीना पड़ेगा।’
      यह एक वैज्ञानिक तथ्‍य है कि जो लोग कम खाते है वे लंबा जीते है। देवराज निश्चित ही मुझसे सहमत होगा, यह तो बार-बार प्रमाणित किया जा चूका है कि अगर आप किसी भी प्राणी को उसकी आवश्‍यकता से अधिक भोजन दें तो वे मोटे और सुंदर और सुडौल जरूर हो जाते है, लेकिन वे जल्‍दी मर जाते है। अगर आप उनकी आवश्‍यकता से आधा भोजन दें, ता यह आश्‍चर्य की बात है कि वे सुंदर तो नहीं दिखाई देते, लेकिन औसत आयु से करीब-करीब दुगुनी आयु तक जीवि‍त रहते है। आधा भोजन और दुगुनी आयु: दुगुना भोजन और आधी आयु।
      तो मैंने जैन मुनि से कहा: ‘ये सब तथ्‍य उस समय मुझे मालूम नहीं थे—अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो आप जी‍वित क्‍यों है, क्‍या केवल मरने के लिए, तो फिर आत्‍महत्‍या क्‍यों नहीं कर लेते?
      मुझे नहीं लगता कि ऐसा प्रश्‍न उससे कभी किसी ने पूछा होगा शिष्‍टाचार की इस दुनिया में अभी कोई असली प्रश्न नहीं पूछता है। और आत्‍महत्‍या का प्रश्‍न सबसे असली प्रश्‍न है। ‘अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो, तो आप आत्‍महत्‍या कर ले, मैं आपको रास्‍ता बता सकता हूं। यद्यपि दुनिया के रास्‍तों के बारे में मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन जहां तक आत्‍म हत्‍या का सवाल है मैं आपको कुछ सु1झाव अवश्‍य दे सकता हूं, आप गांव की पहाड़ी से कूद सकते है या आप नदी में छलांग लगा सकते है।’
      मैंने जैन मुनि से कहा: ‘बरसात के दिनों में आप मेरे साथ नदी में कूद सकते हो। थोड़ी देर हमारा साथ रहेगा, फिर आप मर स‍कते है, और में दूसरे किनारे पहुंच जाऊँगा। मैं अच्‍छा तैर सकता हूं।’ वह बहुत चौड़ी नदी थी, विशेषकर बरसात के दिनों में तो मीलों चौडी, करीब-करीब समुद्र जैसी लगती था। जब उसमें खूब बाढ़ आती तब मैं उसमें कूद पड़ता—दूसरे किनारे पहुँचे के लिए या मरने के लिए, ज्‍यादा संभावना यही होती थी कि मैं दूसरे किनारे कभी नहीं पहुंचूंगा।
      उन्‍होंने मेरी और इतने गुस्‍से से देखा कि मुझे उनसे कहना पडा याद रखो, आपको दुबारा जन्‍म लेना ही पड़ेगा, क्‍योंकि आप में अभी क्रोध है। चिंताओं के संसार से मुक्‍त होने का यह तरीका नहीं है। आप इतने गुस्‍से से मुझे क्‍यों देख रहे है। मेरे प्रश्न का उत्‍तर शांति से दीजिए। सुखपूर्वक उत्‍तर दीजिए। अगर आप उत्‍तर नहीं दे सकते तो कह दीजिए कि मैं नहीं जानता। लेकिन इतना क्रोध मत कीजिए।
      उसने कह: ‘आत्‍महत्‍या पाप है, मैं आत्‍महत्‍या नहीं कर सकता। लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरा दुबारा जन्‍म न हो। सभी वस्‍तुओं का धीरे-धीरे त्‍याग करके मैं उस स्थिति को प्राप्‍त कर लूँगा।’
      मैंने कहा: ‘कृपया मुझे आप बताइए कि आपके पास है क्‍या। क्‍योंकि जहां तक मैं देख सकता हूं, आप नग्न हैं और आपके पास कुछ भी नहीं है।’
      मेरे नाना ने मुझे रोकने की कोशिश की। मैंने अपनी नानी की और इशारा किया और उनसे कहा, ‘याद रखिए, मैंने नानी से इजाजत ले ली है। और अब मुझे कोई भी रोक नहीं सकता, आप भी नहीं। मैंने नानी से आपके बारे में बात कर ली थी, क्‍योंकि मुझे डर था कि आप मुझसे नाराज हो जाएंगे। नानी ने कहा था बस मेरी तरफ इशारा कर देना। चिंता मत करों जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगी, वे चुप हो जाएंगे।’
      और आश्‍चर्य, ठीक ऐसा ही हुआ। नानी ने देखा भी नहीं और नाना चुप हो गए। बाद में मैं और मेरी नानी खूब हंसे। मैंने उनसे कहा: ‘उन्‍होंने आप की तरफ देखा तक नहीं।’
      असल में उन्‍होंने अपनी आंखे बंद कर ली, जैसे कि ध्‍यान कर रहे हो। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, बहुत खूब, आप क्रोधित हैं, उबल रहे है, आग जल रही है आपके अन्‍दर, फिर भी आप आंखें बंद करके ऐसे बैठे है, जैसे ध्‍यान कर रहे है। क्‍योंकि आपके गुरु अत्‍तर नहीं दे पा रहे है, लेकिन मैं कहता हूं कि यह आदमी जो यहां उपदेश दे रहा है, मूर्ख है।’
      और मैं चार या पाँच साल से ज्‍यादा का न था। उसी समय से यही मेरी भाषा रही है। मैं मूढ़ को एकदम पहचान लेता हूं, वह कही भी हो, मेरी एक्‍सरे आंखों से कोई नहीं बच सकता है। मैं मानसिक-अपंगता को या किसी भी चीज को तुरंत देख लेता हूं।
      अभी उस दिन मैंने अपने एक संन्‍यासी को वह फाउंटेन पेन दिया जिससे मैंने उसका नया नाम लिखा था। सिर्फ यादगार के कि यही है वो पेन जिसका मैंने उसके नये जीवन की, संन्‍यास की शुरूआत में अपयोग किया था। लेकिन उसकी पत्‍नी भी वहां थी। मैंने उसकी पत्‍नी को भी संन्‍यास लेने के लिए आमंत्रित किया, वह राज़ी थी, और नही भी, डांवाडोल थी—वह हाँ कहना चाहती थी और फिर भी कह नहीं पा रही थी। फिर मैंने उसे फुसलाने की कोशिश की—मेरा मतलब है संन्‍यास के लिए। मैंने थोड़ी देर अपना खेल जारी रखा और वह हां कहने के बहुत करीब आ गई थी, अचानक मैं रूक गया। मैं भी तो उतना सीधा नहीं हूं जितना बाहर से दिखाई देता हूं। मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं जटिल हूं, मेरा मतलब यह है कि मैं चीजें इतनी स्‍पष्‍ट देख सकता हूं कि कभी-कभी मुझे अपना सीधापन और उसका निमंत्रण  वापस लेना पड़ता है।
      वह डर रहा था। मैं इस संन्‍यासी और उसकी पत्‍नी के आर-पार देख सकता था। उन दोनों के बीच कोई सेतु न था। और कभी रहा भी नहीं था, वे बस एक अंग्रेज दंपति थे, तुम जानते हो.....परमात्‍मा ही जाने कि उन्‍होंने शादी क्‍यों की थी? और परमात्‍मा तो है नहीं, मैं बार-बार यह दोहराता हूं, क्‍योंकि मुझे हमेशा लगता है कि तुम शायद सोचो कि परमात्‍मा सच में ही जानता है।
      परमात्‍मा नहीं जानता हैं, क्‍योंकि वह है ही नहीं। परमात्‍मा तो ऐसा शब्‍द है जैसे ‘जीसस’ इसका कोई अर्थ नहीं है। यह केवल एक विस्‍मयबोधक शब्‍द है। जीसस को अपना नाम कैसे मिला, उसकी ऐसी ही तो कहानी है।
      जोसेफ और मेरी अपने बच्‍चे के साथ बेथलेहम से घर वापस जा रहे है। मैरी बच्‍चे के साथ गधे पर बैठी है। जोसेफ गधे की रस्‍सी हाथ में पकड़े आगे-आगे चल रहा है। अचानक उसका पैर एक पत्‍थर से टकराया, उसे जोर की ठोकर लगी। वह चीख पडा, ‘जीसस’ और तुम स्त्रियों के ढंग तो जानते ही हो,...मैरी ने कहा, ‘जोसेफ’ मैं सोच रही थी कि अपने बच्‍चे का नाम क्‍या रखें। और अभी-अभी तुमने सही नाम ले दिया—‘जीसस।’
      इस प्रकार बेचारे बच्‍चे को अपना नाम मिला। यह संयोग नहीं है कि जब तुम गलती से अपने हाथ पर हथौड़ा मार लेते हो तो चिल्‍ला पड़ते हो—जीसस, ऐसा मत सोचो कि तुम कोई जीसस को याद कर हरे हो। चोट लगने से जोसेफ की भांति चिल्‍ला पड़ते हो—जीसस।
      मैं यह कह रहा था कि जिसस—यहां तक कि जीसस भी नाम नहीं है, बल्कि सिर्फ एक विस्‍मयबोधक शब्‍द है जिसे जोसेफ ने ठोकर लगने पर कहा था। इसी प्रकार है परमात्‍मा। जब कोई कहता है, ‘हे भगवान’ तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह भगवान में विश्‍वास करता है। वह तो केवल यह कह रहा है कि यह शिकायत कर रहा है—अगर यहां आकाश में कोई सुनने के लिए बैठा है तो। जब वह कहता है भगवान तो यह ऐसे ही है जैसे सरकारी कागजातों पर लिखा होता है—जिस किसी से भी संबंधित हो। ‘हे भगवान।’ का इतना ही अर्थ है—‘जिस किसी से भी संबंधित हो।’ और अगर वहां कोई नहीं है तो ‘माफ करे, ये किसी से भी संबंधित नहीं है।’ और इसका प्रयोग करने से मैं अपने को रोक नहीं सका’।

--ओशो

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