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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

आकाश में पंख फैलाना---

तुम्‍हें मैं निर्भय करना चाहता हूं,
यह पृथ्‍वी परमात्‍मा के विपरीत नहीं है,
अन्‍यथा यह पैदा ही नहीं हो सकती थी।
यह जीवन उसी से बह रहा है,
अन्‍यथा यह आता कहां से।
और यह जीवन उसी में जा रहा है,
अन्‍यथा जाने की कोई जगह नहीं है।
इसलिए तुम द्वंद्व खड़ा मत करना, तुम फैलना।
तुम संसार में ही जडें ड़ालना,
तुम आकाश में ही फंख फैलाना
तुम दोनों का विरोध ताड़ देना,
तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना।
तुम एक सीढ़ी बनना,
जो एक जमीन पर टिकी है--मजबूत जमीन पर,
और जो उस खुले आकाश में मुक्‍त है,   
जहां टिकने की कोजगह नहीं है,
ध्‍यान रखला, आकाश में सीढ़ी को कहां टिकाओगे,
टिकानी हो तो पृथ्‍वी पर ही टिकानी होगी।
दूसरी तरफ तो पृथ्‍वी पर ही टिकानी होगी।
उस तरफ तो अछोर आकाश है,
वहां टिकाने की भी जगह नहीं है।
वहां तो तुम बढ़ते जाओगे।
धीरे-धीरे सीढ़ी खो जाएगी,
तुम भी खो जाओगे।

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