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गुरुवार, 19 सितंबर 2013

संभोग से समाधि की ओर--ओशो ( चौदहवां-प्रवचन)

नारी एक और आयामप्रवचन चौदहवां



      स्‍त्री और पुरुष के इतिहास में भेद की, भिन्नता की, लम्बी कहानी जुड़ी हुई है। बहुत प्रकार के वर्ग हमने निर्मित किये हैं। गरीब का, अमीर का; धन के आधार पर, पद के आधार पर। और सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हमने स्‍त्री पुरुष के बीच भी वर्गोंका निर्माण किया है! शायद हमारे और सारे वर्ग जल्दी मिट जायेंगे, स्‍त्री पुरुष के बीच खड़ी की गयी दीवाल को मिटाने में बहुत समय लग सकता है। बहुत कारण हैं।
      स्‍त्री और पुरुष भिन्न हैं, यह तो निशित है, लेकिन असमान नहीं।
      भिन्नता और असमानता दो अलग बातें हैं। भिन्न होना एक बात है। सच में एक आदमी दूसरे आदमी से भिन्न है ही। कोई आदमी समान नहीं है।। कोई पुरुष भी समान नहीं है। स्‍त्री और पुरुष भी भिन्न हैं। लेकिन भिन्नता तो वर्ग बनाना, ऊंचा—नीचा बनाना, मनुष्य का पुराना षड्यंत्र और शैतानी रही है। 

      हजारों वर्षों का अतीत का इतिहास स्‍त्री के शोषण का इतिहास भी है। पुरुष ने ही चूंकि सारे कानून निर्मित किये हैं, और पुरुष चूंकि शक्तिशाली था। उसने स्‍त्री पर जो भी थोपना चाहा, थोप दिया।
      जब तक स्‍त्री के ऊपर से गुलामी नहीं उठती, तब तक दुनिया से गुलामी का बिलकुल अंत नहीं हो सकता।
      राष्ट्र स्वतंत्र हो जायेंगे। आज नहीं कल, गरीब और अमीर के बीच के फासले भी कम हो जायेंगे, लेकिन स्‍त्री और पुरुष के बीच शोषण का जाल सबसे गहरा है। स्‍त्री और पुरुष के बीच फासले की कहानी इतनी लंबी गयी है कि करीब—करीब भूल गयी है! स्वयं स्रियों को भी भूल गयी है,
पुरुषों को भी भूल गयी है!
      इस संबंध में थोड़ी बातें विचार करना उपयोगी होगा। इसलिए कि आने वाली जिंदगी को जिसे आप बनाने में लगेंगे— हो सकता है स्‍त्री और पुरुष के बीच समानता का, स्वतंत्रता का, एक समाज और एक परिवार निर्मित कर सकें। अगर खयाल ही न हो तो हम पुराने ढांचों में ही फिर घूमकर जीने लगते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि हमने कब पुरानी लीकों पर चलना शुरू कर दिया है!
      आदमी सबसे ज्यादा सुगम इसे ही पाता है कि जो हो रहा था, वैसा ही होता चला जाये, लीस्ट रेसिस्टेंस वहीं है। इसलिए पुराने ढंग का परिवार चलता चला जाता है। पुरानी समाज व्यवस्था चली जाती है। पुराने ढंग से सोचने के ढंग चलते चले जाते हैं। तोड़ने में कठिनाई मालूम पड़ती है, बदलने में मुश्किल मालूम पड़ती है—दो कारणों से। एक तो पुराने की आदत और दूसरा नये को निर्माण करने की मुश्‍किल।
      सिर्फ वे ही पीढ़ियां पुराने को तोड़ती हैं, जो नये को सृजन देने की क्षमता रखती है। विश्वास रखती हैं स्वयं पर। और स्वयं का विश्वास न हो तो हम पुरानी पीढ़ी के पीछे चलते चले जाते हैं। वह पुरानी पीढ़ी भी अपने से पुरानी पीढ़ी के पीछे चल रही है! कुछ छोटी—सी स्मरणीय बातें पहले हम खयाल कर लें—स्‍त्री और पुरुष के बीच फासले, असमानता किस—किस रूप में खड़ी हुई है।
      भिन्नता शुनिश्रित है और भिन्नता होनी ही चाहिए।
      भिन्नता ही स्‍त्री को व्यक्तित्व देती है और पुरुष को व्यक्तित्व देती है।
      लेकिन हमने भिन्नता को ही असमानता में बदल दिया। इसलिए सारी दूनिया में स्त्रियां भिन्नता को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं, ताकि वे ठीक पुरुष जैसी मालूम पड़ने लगें। उन्हें शायद खयाल है कि इस भांति असमानता भी टूट जायेगी।
      मैंने सुना है, एक सिनेमा गृह के सामने अमरीका के किसी नगर में बड़ी भीड़ है। क्यू लगा हुआ है। लंबी कतार है। लोग टिकट लेने को खड़े हैं। एक बूढ़े आदमी ने अपने सामने खड़े हुए व्यक्ति से पूछा, आप देखते हैं, वह सामने जो लड़का खड़ा हुआ है, उसने किस तरह लड़कियों जैसे बाल बढ़ा रखे हैं। उस सामने वाले व्यक्ति ने कहा, माफ करिये, वह लड़का नहीं है, वह मेरी लड़की है। उस बूढ़े ने कहा, क्षमा करिये, मुझे क्या पता था कि आपकी लड़की है। तो आप उसके पिता हैं? उसने कहा कि नहीं, मै उसकी मां हूं!
      कपडों का फासला कम किया जा रहा है। धीरे—धीरे कपड़े करीब एक जैसे होते जा रहे हैं। हो सकता है, सौ वर्ष बाद कपड़ों के आधार पर फर्क करना मुश्किल हो जाये। लेकिन, कपड़ों के फासले कम हो जाने से भिन्नता नहीं मिट जायेगी। भिन्नता गहरी, बायोलाजिकल, जैविक और शारीरिक है। भिन्नता साइकोलाजिकल भी है बहुत गहरे में। कपड़ों से कुछ फर्क नहीं पड़ जाने वाला है। एक
      पुरुषों ने भी भिन्नता मिटाने के बहुत प्रयोग किये हैं। हमें खयाल में नहीं है। क्योंकि हम आदी हो जाते हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर की मूर्तियां और चित्र आपने देखे होंगे। और अगर सोचते होंगे थोड़ा—बहुत तो यह खयाल आया होगा कि इन लोगों के चेहरे पर दाढ़ी मूंछ क्यों दिखायी नहीं पड़ते? असंभव है यह बात। एकाध के साथ हो भी सकता है कि किसी एक राम, कृष्ण, महावीर, किसी एक को दाढ़ी मूंछ न रही हो। यह संभव है। कभी हजार में एक पुरुष को नहीं भी होती है। लेकिन चौबीस जैनियों के तीर्थंकर, हिन्दुओं के सब अवतार, बुद्धों की सारी कल्पना, किसी को दाढ़ी मूंछ नहीं है! कुछ कारण है। पुरुष को ऐसा लगा है कि स्‍त्री सुन्दर है, तो स्‍त्री जैसे होने से जैसे पुरुष भी सुन्दर हो जायेगा। फिर राम और कृष्ण को तो हमने मान लिया कि उनको दाढ़ी मूंछ होती ही नहीं। फिर हम क्या करें? तो सारी जमीन पर पुरुष दाढ़ी मूंछ को काटने की कोशिश में लगा है। स्‍त्री जैसा चेहरा बनाने की चेष्टा चल रही है। उससे भी कोई भेद मिट जाने वाले नहीं हैं।
      न कपड़े बदलने से कोई फर्क पड़ने वाला है। न सपनों पर ऊपरी फर्क कर लेने से कुछ फर्क पड़ने वाला है। भेद गहरा है और अगर भेद मिटाने कि कोशिश से हम चाहते हों कि असमानता मिटे तो असमानता कभी नहीं मिटेगी। असमानता हमारी थोपी हुई है। भेद में असमानता नहीं है। दो भिन्न व्यक्ति बिलकुल समान हो सकते हैं। समान प्रतिष्ठा दी जा सकती है।
      पहली भूल मनुष्य ने यह की कि भिन्नता को असमानता समझा। डिफरेंस को इनइक्यालिटी समझा। और अब उसी भूल पर दूसरी भूल चल रही है कि हम भिन्नता को कम कर लें। जो काम पुरुष करते हैं, वे ही स्रियां करें! जो कपड़े वे पहनते हैं, वे हम भी पहनें! जिस भाषा का वे उपयोग करते हैं, स्त्रियां भी वैसी ही करें! अमरीका में जिन शब्दों का उपयोग स्त्रियों ने कभी भी नहीं किया था मनुष्य के इतिहास में, कुछ गालियां सिर्फ पुरुष ही देते हैं, वह उनका गौरव है। अमरीका की लड़कियां उन्हीं गालियों को देने के लिए भी चेष्टा में संलगन हैं! उन गालियों का भी उपयोग कर रही हैं! क्योंकि पुरुष के साथ समान खड़े हो जाने की बात है।
      और समानता का खयाल ऐसा है कि हम शायद भेद, भिन्नता को किसी तरह से लीप—पोत कर एक—सा कर दें, तो शायद समानता उपलब्ध हो जाय। नहीं, समानता उससे उपलब्ध नहीं होगी, क्योंकि असमानता का भी मूल आधार वह नहीं है। असमानता किन्हीं और कारणों से निर्मित हुई है। और जैसे हम कहानी सुनते हैं कि सत्यवान मर गया है, सावित्री उसे दूर से जाकर लौटा लायी है। लेकिन कभी कोई कहानी ऐसी सुनी कि पली मर गयी हो और पति दूर से जाकर लौटा लाया हो। नहीं सुनी है हमने।
      स्रियां लाखों वर्ष तक इस देश में पुरुषों के ऊपर बर्बाद होती रही हैं। मरकर सती होती रही है। कभी ऐसा सुना, कि कोई पुरुष भी किसी स्‍त्री के लिए सती हो गया हो? क्योंकि सारा नियम, सारी व्यवस्था, सारा अनुशासन पुरुष ने पैदा किया है। वह स्‍त्री पर थोपा हुआ है। सारी कहानियां उसने गढ़ी है। वह कहानियां गढ़ता है, जिसमें पुरुष को स्‍त्री बचाकर लौट आती है। और ऐसी कहानी नहीं गढ़ता, जिसमें पुरुष स्‍त्री को बचाकर लौटता हो।
      स्‍त्री गयी कि पुरुष दूसरी स्‍त्री की खोज में लग जाता है, उसको बचाने का सवाल नहीं है। पुरुष ने अपनी शुविधा के लिये सारा इलजाम कर लिया है। असल में जिसके पास थोड़ी—सी भी शक्ति हो, किसी भांति की, वे जो थोड़े भी निर्बल हों किसी भी भांति से, उनके ऊपर सवार हो ही जाते हैं। मालिक बन ही जाते हैं। गुलामी पैदा हो जाती है।
      पुरुष थोड़ा शक्तिशाली है शरीर की दृष्टि से। ऐसे यह शक्तिशाली होना किन्हीं और कारणों से पुरुष को पीछे भी डाल देता है। पुरुष के पास स्ट्रैंग्थ और शक्ति ज्यादा है। लेकिन रेसिस्टेंस उतनी ज्यादा नहीं है, जितनी स्‍त्री के पास है। और अगर पुरुष और स्‍त्री दोनों को किसी पीड़ा में सफरिंग में से गुजरना पड़े तो पुरुष जल्दी टूट जाता है। स्‍त्री ज्यादा देर तक टिकती है। रेसिस्टेंस उसकी ज्यादा है। प्रतिरोधक शक्ति उसकी ज्यादा है। लेकिन सामान्य शक्ति कम है। शायद प्रकृति के लिए यह जरूरी है कि दोनों में यह भेद हो, क्योंकि स्‍त्री कुछ पीड़ाएं झेलती है।
      जो पुरुष अगर एक बार भी झेले, तो फिर सारी पुरुष जाति कभी झेलने को राजी, नहीं होगी। नौ महीने तक एक बच्चे को पेट में रखना और फिर उसे जन्म देने की पीडा और फिर उसे बड़ा करने की पीड़ा, वह कोई पुरुष कभी राजी नहीं होगा। अगर एक रात भी एक छोटे बच्चे के साथ पति को छोड़ दिया जाय तो या तो वह उसकी गर्दन दबाने की सोचेगा या अपनी गर्दन दबाने की सोचेगा।
      मैंने सुना है, एक दिन सुबह मास्को की सड़क पर एक आदमी छोटी—सी बच्चों की गाड़ी को धक्का देता हुआ चला जा रहा है। सुबह है लोग घूमने निकले हैं। फूल खिले हैं, पक्षी खिले हैं। वह आदमी रास्ते में चलते—चलते बार—बार यह कहता है अब्राहम शांत रह— अब्राहम उसका नाम होगा। पता नहीं, वह किससे कह रहा है। वह बार—बार कहता है, अब्राहम शांत रह। अब्राहम धीरज रख। बच्चा रो रहा है। वह गाड़ी को धक्के दे रहा है। एक बूढ़ी औरत उसके पास आती है। वह कहती है, क्या बच्चे का नाम अब्राहम है?
      वह आदमी कहता है, क्षमा करना, अब्राहम मेरा नाम है। मैं अपने को समझा रहा हूं। शान्त रह, धीरज रख, अभी घर आया चला जाता है। इस बच्चे को तो समझाने का सवाल नहीं है। अपने को समझा रहा हूं कि किसी तरह दोनों सही सलामत घर पहुंच जायें।
      स्‍त्री के पास एक प्रतिरोधक शक्ति है, जो प्रकृति ने उसे दी है। एक रेसिस्टेंस की ताकत है। बहुत बड़ी ताकत है। कितनी ही पीड़ा और कितने ही दुख और कितने ही दमन के बीच वह जिंदा रहती है और मुस्करा भी सकती है। पुरुषों ने जितना दबाया है स्‍त्री को, अगर स्रियों ने उस दमन को, उस पीड़ा को कष्ट से लिया होता तो शायद वे कभी की टूट गयी होतीं। लेकिन वे नहीं टूटी हैं। उनकी मुस्कराहट भी नहीं टूटी है। इतनी लम्बी परतंत्रता के बाद भी उसके चेहरे पर कम तनाव है पुरुष की बजाय।
      रेसिस्टेंस की, झेलने की, सहने की, टालरेंस की, सहिष्णुता की बड़ी शक्ति उसके पास है। लेकिन मस्कुलर, बड़े पत्थर उठाने की, और बड़ी कुल्हाड़ी चलाने की शक्ति पुरुष के पास है। शायद जरूरी है कि पुरुष के पास वैसी शक्ति ज्यादा हो। उसे कुछ काम करने हैं जिंदगी में, वह वैसी शक्ति की मांग करते हैं। स्‍त्री को जो काम करने हैं, वह वैसी शक्ति की मांग करते हैं। और प्रकृति या अगर हम कहें परमात्मा इतनी व्यवस्था देता है जीवन को कि सब तरफ से जो जरूरी है जिसके लिए, वह उसको मिल जाता है।
      कभी हमने खयाल भी नहीं किया। जमीन पर, इतनी बड़ी पृथ्वी पर कोई तीन—साढ़े तीन अरब लोग हैं स्रियां पुरुष सब मिलाकर। किसी घर में लड़के ही लड़के पैदा हो जाते हैं। किसी घर में लड़कियां भी हो जाती हैं। लेकिन अगर पूरी पृथ्वी का हम हिसाब रखें तो लड़के और लड़कियां करीब—करीब बराबर पैदा होते हैं। पैदा होते वक्त बराबर नहीं होते। लेकिन पांच छ: साल में बराबर हो जाते हैं; पैदा होते वक्त 125 लड़के पैदा होते हैं सौ लड़कियों पर। क्योंकि लड़कों का रेसिस्टेंस कम है। पच्चीस लड़के तो जवान होते—होते मर जाने वाले हैं। लड़के ज्यादा पैदा होते हैं। लड़कियां कम पैदा होती हैं, लेकिन जवान होते—होते लड़के और लडकियों की संख्या दुनिया में करीब—करीब बराबर हो जाती है।
      कोई बहुत गहरी व्यवस्था भीतर से काम करती है। नहीं तो कभी ऐसा भी हो सकता है, इसमें कोई दुर्घटना तो नहीं कि जमीन पर स्रियां हो जायें एकबार। या पुरुष ही पुरुष हो जायें। यह संभावना है, अगर बिलकुल अंधेरे में व्यवस्था चल रही हो। लेकिन भीतर कोई नियम काम करता है। और नियम के पीछे बायोलाजिकल व्यवस्था दे। जितने अणु होते हैं, वीर्याणु होते हैं; उनमें आधे स्रियों को पैदा करने में समर्थ हैं, आधे पुरुषों को इसलिए कितना ही एक घर में भेद पड़े, लम्बे विस्तार पर भेद बराबर हो जाता है।
      स्‍त्री को वह शक्तियां मिली हुई हैं, जो उसे अपने काम को—और स्‍त्री का बड़े से बड़ा काम उसका मां होना है। उससे बड़ा काम संभव नहीं है। और शायद मां होने से बडी कोई संभावना पुरुष के लिए तो है ही नहीं। स्‍त्री कं लिए भी नहीं है। मां होने की संभावना हम सामान्य रूप से महण कर लेते हैं।
      कभी आपने नहीं सोचा होगा, इतने पेन्टर हुए, इतने मूर्तिकार हुए, इतने चित्रकार, इतने कवि, इतने आर्किटेक्‍ट, लेकिन स्‍त्री कोई एक बड़ी चित्रकार नहीं हुई! कोई एक स्‍त्री बडी आर्किटेक्ट, वास्तुकला में अग्रणी नहीं हुई! कोई।]क स्‍त्री ने बहुत बड़े संगीत को जन्म नहीं दिया! कोई एक स्‍त्री ने कोई बहुत अदभुत मूर्ति नहीं काटी! सृजन न,। सारा काम पुरुष ने किया है। और कई बार पुरुष को ऐसा खयाल आता है कि क्रिएटिव, सृजनात्मक शक्ति हमीर पास है। स्‍त्री के पास कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है।
      लेकिन बात उलटी है। स्‍त्री पुरुष को पैदा करने मैं इतना बड़ा श्रम कर लेती है कि और कोई सृजन करने कि जरूरत नहीं रह जाती। स्‍त्री के पास अपना एक क्रिएटिव एक्ट है। एक सृजनात्‍मक कृत्य है, जो इतना बड़ा कि न, पत्थर की मूर्ति बनाना और एक जीवित व्यक्ति को बड़ा करना.. लेकिन स्‍त्री के काम को हमने सहज स्वीकार कर लिया है। और इसीलिए स्‍त्री की सारी सृजनात्‍मक शक्ति उसके मां बनने में लग जाती है। उसके पास और कोई सृजन की न सुविधा बचती है, न शक्ति बचती है। न कोई आयाम, कोई डायमेंशन बचता है। न सोचने का सवाल है।
      एक छोटे से घर को सुंदर बनाने में—लेकिन हम कहेंगे, छोटे से घर को सुंदर बनाना, कोई माइकल एंजलो तो पैदा नहीं हो सकता, कोई वानगाग तो पैदा नहीं हो जायेगा। कोई इजरा पाउंड तो पैदा नहीं होगा। कोई कालिदास तो पैदा नहीं होगा। एक छोटे से घर को... लेकिन मैं कुछ घरों में जाकर ठहरता रहा हूं।
      एक घर में ठहरता था, मैं हैरान हो गया। गरीब घर है। बहुत सम्पन्न नहीं है। लेकिन इतना साफ सुथरा, इतना स्वच्छ मैंने कोई घर नहीं देखा। लेकिन उस घर की प्रशंसा करने कोई कभी नहीं जायेगा। घर की गृहणी उस घर को ऐसा पवित्र बना रही है कि कोई मंदिर भी उतना स्वच्छ और पवित्र नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन उसकी कौन फिक्र करेगा? कौन माइकेल एंजलो,कालिदास और वानगाग में उसकी गिनती करेगा? वह खो जायेगी। या : एक ऐसा काम कर रही है, जिसके लिए कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। क्यों नहीं मिलेगी? नहीं मिलेगी यह, यह दुनियां पुरुषों की दुनिया है।
      स्‍त्री के विकास, स्‍त्री की संभावनाओं, स्त्रियों की जो पोटेशियलिटीज हैं, उनके जो आयाम, ऊंचाइयां हैं, उनको हमने गिनती में ही नहीं लिया है। अगर एक आदमी गणित में कोई नयी खोज कर ले तो नोबल प्राइज मिल सकता है। लेकिन स्रियां निरंतर सृजन के बहुत नये—नये आयाम खोजती हैं। कोई नोबल प्राइज उनके लिए नहीं है! या : स्रियों की दुनिया नहीं हैं। स्रियों को सोचने के लिए, स्रियों को दिशा देने के लिए, उनके जीवन में जो हो, उसे भी मूल्य देने का हमारे पास कोई आधार नहीं है।      
      हम सिर्फ पुरुषों को आधार देते हैं! इसलिए अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो उसमें चोर, डकैत, हल।, बड़े—बड़े आदमी मिल जायेंगे। उसमें चंगेज खां, तैमूर लंग और हिटलर और स्टैलिन और माओ सबका स्‍थान है। लेकिन उसमें हमें ऐसी स्त्रियां खोजने में बड़ी मुश्किल पड़ जायेगी। उनका कोई उल्लेख ही नहीं है जिन्होंने सुन्दर घर बनाया हो। जिन्होंने एक बेटा पैदा किया हो और जिसके साथ, जिसे बड़ा करने में सारी मां की ताकत, सारी प्रार्थना, सारा प्रेम लगा दिया हो। इसका कोई हिसाब नहीं मिलेगा।
      पुरुष की एक तरफा अधूरी दूनिया अब तक चली है। और जो पूरा इतिहास है, वह पुरुष का ही इतिहास है, इसलिये युद्धों का, हिंसाओं का इतिहास है।
      जिस दिन स्‍त्री भी स्वीकृत होगी और विराट मनुष्यता में उतना ही समान स्थान पा लेगी, जितना पुरुष का है, तो इतिहास भी ठीक दूसरी दिशा लेना शुरू करेगा।
      मेरी दृष्टि में जिस दिन स्‍त्री बिलकुल समान हो जाती है, शायद युद्ध असंभव हो जाएं। क्योंकि युद्ध में कोई भी मरे, वह किसी का बेटा होता है। किसी का भाई होता है। किसी का पति होता है।
लेकिन पुरुषों को मरने, मारने की ऐसी लम्बी बीमारी है, क्योंकि बिना मरे मारे, वह अपने पुरुषत्व को ही सिद्ध नहीं कर पाते हैं। वे यह बता ही नहीं पाते हैं कि मैं भी कुछ हूं। तो मरने मारने का एक लम्बा जाल और फिर जो मर जाए ऐसे जाल में उसको आदर देना।
      उन्होंने स्त्रियों को भी राजी कर लिया है कि जब तुम्हारे बेटे युद्ध पर जाएं तो तुम टीका करना! रो रही है मां, आंसू टपक रहे है, और वह टीका कर रही है! आशीर्वाद दे रही है! यह पुरुष ने जबर्दस्ती तैयार करवाया हुआ है। अगर दूनिया भर की स्त्रियां तय कर लें, तो युद्ध असंभव हो जायें।
      लेकिन सब व्यवस्था, सब सोचना, सारी संस्कृति, सारी सभ्यता पुरुष के गुणों पर खड़ी है। इसलिए पूरी मनुष्यता इतिहास की युद्धों का इतिहास है।
      अगर हम तीन हजार वर्ष की कहानी उठाकर देखें तो मुश्किल पड़ती है, कि आदमी कभी ऐसा रहा हो, जब युद्ध न किया हो! युद्ध चल ही रहा है! आज इस कोने में आग लगी है जमीन के। कल दूसरे कोने में। परसों दूसरे कोने में। आग लगी ही है। आदमी जल ही रहा है। आदमी मारा ही जा रहा है। और अब? अब हम उस जगह पहुंच गये हैं जहां हमने बड़ा इंतजाम किया है। अब हम आगे आदमी को बचने नहीं देगे।
      अगर पुरुष सफल हो जाता है अपने अंतिम उपाय में, तीसरे महायुद्ध में तो शायद मनुष्यता नहीं बचेगी।
      इतना इंतजाम करवा लिया है कि हम पूरी पृथ्वी को नष्ट कर दें। पूरी तरह से नष्ट कर दें। यह पुरुष के इतिहास की आखिरी क्लाइमेक्स हो सकती थी चरम, वहां हम पहुंच गये हैं। यह हम क्यों पहुंच गये हैं?
      क्योंकि पुरुष गणित में सोचता है, प्रेम उसकी सोचने की भाषा नहीं है।
      ध्यान रहे, विज्ञान विकसित हुआ है। धर्म विकसित नहीं हो सका।
      और धर्म तब तक विकसित नहीं होगा जब तक स्‍त्री समान संस्कृति और जीवन में दान नहीं करती है। और उसे दान का मौका नहीं मिलता है।
      गणित से जो चीज विकसित होगी, वह विज्ञान है। गणित परमात्मा तक ले जाने वाला नहीं है। चाहे दो और दो कितने ही बार जोड़ो तो भी बराबर परमात्मा होने वाला नहीं है। गणित कितना ही बढ़ता चला जाये वह पदार्थ से ऊपर जाने वाला नहीं है।
      प्रेम परमात्मा तक पहुंच सकता है। लेकिन हमारी सारी खोज गणित की है। तर्क की है। वह विज्ञान लेकर खड़ा हो गया है। उसके आगे नहीं जाता।
      प्रेम की हमारी कोई खोज नहीं है! शायद प्रेम की बात करना भी हम स्त्रियों के लिए छोड़ देते हैं। या कवियों के लिए जिनको हम करीब—करीब स्त्रियों जैसा गिनती करते हैं। उनकी गिनती हम कोई पुरुषों में नहीं करते।     
      नीत्शे ने तो एक अदभुत बात लिखी है जो बहुत खतरनाक है। किसी को बुरी भी लग सकती है। नीत्शे ने कई बातें लिखी हैं; मैं मानता हूं सच हैं। उसने तो पोज में लिखी है और गाली देने के इरादे से लिखी है, लेकिन बात सच है। नीत्शे ने लिखा है कि बुद्ध और क्राइस्ट को मै बूमनिस्ट मानता हूं! स्रैण मानता हूं! बुद्ध और क्राइस्ट को मैं स्रैण मानता हूं। मैं पुरुष नहीं मानता। क्योंकि जो लड़ने की बात नहीं करते,और जो लड़ने से बचने की बात करते हैं वह पुरुष कैसे हो सकते हैं? पुरुषत्व तो लड़ने में ही है।
      नीत्शे ने कहा, मैंने सुन्दरतम जो दृश्य देखा है जीवन में, वह तब देखा, जब सूरज की उगती रोशनी में सिपाहियों की चमकती हुई तलवारें और उनके चमकते हुए बूटों की आवाजें, उनका एक पंक्तिबद्ध, रास्ते से गुजरना, सूरज की रोशनी का गिरना, और पंक्तिबद्ध उनके पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें—मैंने उससे सुन्दर दृश्य जीवन में दूसरा नहीं देखा।
      अगर यह आदमी, और यह मानता है कि ऐसा दृश्य सुंदर है, तो फूल स्रैण हो जायेंगे। निश्‍चित ही, जब चमकती हुई सगीने सुन्दर हैं तो फूल कहां टिकेंगे? फूलों को बाहर कर देना होगा सौन्दर्य के।
      और जब नीत्शे कहता है, जो लड़ते हैं, और लड़ सकते हैं, और लड़ते रहते हैं, युद्ध ही जिनका जीवन है, मै ही पुरुष हैं तो ठीक है। बुद्ध और क्राइस्ट और महावीर को अलग कर देना होगा। उनकी स्त्रियों में ही गिनती करनी पड़ेगी।
      लेकिन दुनिया में जो भी प्रेम के रास्ते से गया हो, उसमें किसी न किसी अर्थों मे नीत्शे का कहना ठीक है कि वह स्रैण है। यह अपमानजनक नहीं है। अगर पुरुष ने भी प्रेम किया हो तो, वह जो पुरुष की आम धारणाए हैं युद्ध की, संघर्ष की, हिंसा की, वायलेंस की, वे गिर जाती हैं। और नयी धारणाएं पैदा होती हैं—सहयोग की, क्षमा की, प्रेम की।
      एक बौद्ध भिक्षु था। उस भिक्षु का नाम था पूर्ण। उसकी शिक्षा पूरी हो गयी। शिक्षा पूरी हो जाने पर बुद्ध। उससे कहा कि पूर्ण, अब तू जा और मेरे प्रेम की खबर लोगों तक पहुंचा दे। तू उन जगहों में जा जहां कोई नहीं गया हो। तू मेरी खबर ले जा प्रेम की। हिंसा की खबरें बहुत पहुंचायी गयी हैं। कोई प्रेम की खबर भी पहुंचाये। न गया
      पूर्ण ने बुद्ध के पैर छुये और कहा कि मुझे आज्ञा दें कि मैं सूखा नाम का छोटा—सा बिहार का एक हिंसा। है, वहां जाऊं और आपका संदेश ले जाऊं।
      बुद्ध ने कहा, वहां तू मत जा, तो बड़ी कृपा हो। वहां के लोग अच्‍छे नहीं हैं। वहां के लोग बहुत बुरे हैं। पूर्ण ने कहा, तब मेरी वहां जरूरत ही जरूरत है। जहां लोग बुरे हैं और अच्छे नहीं हैं, वहीं तो प्रेम का संदेश ले जाना पड़ेगा।
      बुद्ध ने कहा, फिर मैं तुझसे दो तीन प्रश्र पूछता हूं। उत्तर दे दे। तब जा। सब से पहले पूछता हूं अगर भा:। के लोगों ने तेरा अपमान किया, गालियां दीं तो तुझे क्या होगा? पूर्ण ने कहा क्या होगा? मैं सोचूंगा, लोग कितने अच्छे हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, अपमान करते हैं, मारते नहीं हैं। मार भी सकते थे।
      बुद्ध ने कहा, यहां तक भी ठीक है। लेकिन अगर वे मारने लगे, वे लोग बुरे हैं, मार भी सकते हैं। अगर उन्होंने मारा, और तेरे प्रेम के संदेश पर पत्थर फेंके और लकड़ियां तेरे सिर पर बरसीं तो तुझे क्या होगा?
      पूर्ण ने कहा, क्या होगा, मुझे यही होगा कि लोग अच्छे हैं। सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते।
      बुद्ध ने कहा, मैं तीसरी बात और पूछता हूं। अगर उन्होंने तुझे मार ही डाला तो मरते क्षण में तेरे मन को क्या होगा?
      पूर्ण ने कहा, मेरे मन को होगा, कितने भले लोग हैं, मुझे उस जीवन से मुक्त कर दिया, जिसमें भूलचूक हो सकती थी। जिसमें मैं भटक भी सकता था। जिसमें मैं मारने को तैयार हो सकता था। उससे मुक्त कर दिया है।
      बुद्ध ने कहा, अब तू जा। तेरा प्रेम पूरा हो गया है। और जिसका प्रेम पूरा हो गया है वही युद्ध के विपरीत, हिंसा के विपरीत खबर और हवा ले जा सकता है। तू जा।
      स्रियां जिस दिन मनुष्य की संस्कृति में समान पुरुष के साथ खड़ी हो सकेंगी और मनुष्य की संस्कृति में आधा दान उनका होगा,उस दिन गणित अकेली चीज नहीं होगी। उस दिन प्रेम भी एक चीज होगी।
      प्रेम गणित से बिलकुल उलटा है। धर्म वितान से बिलकुल उलटा है। गणित की और ही दुनिया है।
      मिलट्री में हम आदमियों के नाम हटा देते हैं। अगर आप भर्ती हो गये हैं या मैं भर्ती हो गया हूं तो 11, 12, 15 ऐसे नंबर हो जायेंगे। जब एक आदमी मरेगा तो मिलट्री के बाहर नोटिस लग जायेगा, 12 नंबर गिर गया। आदमी नहीं मरता मिलट्री में। सिर्फ नंबर मरते हैं! आदमी के ऊपर भी हम नंबर लगा देते हैं, तो फर्क बहुत ज्यादा है।
      अगर पता चले कि फलां आदमी मर गया, जिसकी पत्नी है, जिसके दो बेटे हैं, जिसकी बूढ़ी मां है, वे सब असहाय हो गये। फलां आदमी मर गया तो एक आदमी की तस्वीर उठती है। लेकिन 12 नंबर की न कोई पत्नी होती है, न कोई बेटे होते हैं। नंबर की कहीं पत्‍नियां और बेटे हुए हैं? नंबर बिलकुल नंबर है। जब 12 नंबर गिरने का बोर्ड पर नोटिस लगता है तो लोग पढ़कर निकल जाते हैं।
      गणित का एक सवाल जैसा होता है कि इतने नंबर गिर गये। इतने नंबर खत्म हो गये। दूसरे नंबर उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। 12 नंबर दूसरे आदमी का लग जायेगा। दूसरा आदमी बारह नंबर की जगह खड़ा हो जायेगा। गणित में रिप्लेसमेंट संभव है। जिंदगी में तो नहीं। एक आदमी मरा, उसको अब दूनिया में कोई दूसरा आदमी उसकी जगह रिप्लेस नहीं हो सकता। लेकिन गणित में कोई कठिनाई नहीं है। गणित में हो सकता है। इसलिए तो मिलट्री में तकलीफ नहीं है। नंबर ही गिरते हैं, नंबर ही मरते हैं। और हमने पूरी व्यवस्था की है, गणित से सोचने वाला आदमी जो व्यवस्था करता है, वह इतनी ही कठोर यांत्रिक, मेकेनिकल और इतनी ही जड़ होती है।
      मैंने सुना है कि जिस आदमी ने सबसे पहले एवरेज का नियम खोजा—जब कोई आदमी कोई नया नियम खोज लेता है तो बड़ी उत्सुकता से भर जाता है। हम तो जानते हैं, आर्कमिडीज तो नंगा ही बाहर निकल आया अपने टब के, और चिल्लाने लगा युरेका, युरेका मिल गया, मिल गया। और भूल गया कि वह कपड़े नहीं पहने है, इतनी खुशी से भर गया।
      जिस आदमी ने एवरेज का सिद्धांत खोजा, वह भी इतनी ही खुशी से भर गया होगा। जिस दिन उसने सिद्धात खोजा, अपनी पली अपने बच्चों को लेकर खुशी में पिकनिक पर गया।
      एवरेज का मतलब.. एवरेज का मतलब है कि हिन्दुस्तान में एवरेज आदमी की कितनी आमदनी है। और मजा यह है कि एवरेज आदमी होता ही नहीं। एवरेज आदमी बिलकुल झूठी बात है। एवरेज आदमी कहीं नहीं मिलेगा। एवरेज आदमी एक रुपया है तो आप ऐसा आदमी नहीं खोज सकते कि जो एवरेज आदमी हो। सोलत्न आने वाला मिलेगा, सत्रह आने वाला मिलेगा, पौने सोलह आने वाला मिलेगा, पैसे वाला मिलेगा, भूखा मिलेगा। ठीक एवरेज आदमी पूरे हिन्दुस्तान में खोजने से नहीं मिलेगा। क्योंकि एवरेज गणित से निकली हुई बात है, आदमी की जिंदगी से नहीं। हम यहां इतने लोग बैठे हैं। हम सब की एवरेज उम्र निकाली जा सकती है। सब की उम्र जोड़ दी और सब आदमियों की गणना का भाग दे दिया। आ गया पंद्रह साल या सात साल या कुछ भी।
      वह आदमी अपनी पली और बच्चों के साथ जा रहा था। रास्ते में एक छोटा—सा नाला पड़ा। उसकी पत्‍नी —ने कहा नाले को जरा ठीक से देख लो, क्योंकि छोटे बच्चे हैं। पांच साल के बच्चे हैं। कोई डूब न जाये।
      उसने कहा, ठहर, मैं बच्चों की एवरेज ऊंचाई नाप लेता हूं और नाले की एवरेज गहराई। अगर एवरेज गहराई से एवरेज बच्चा ऊंचा है तो बेफिक्र होकर पार हो सकते हैं। उसने अपना फुट निकाला। फुट साथ रखा हुआ था। नाप लिया—बच्चे नाप लिए। एवरेज बच्चा, एवरेज गहराई से ऊंचा था। कोई बच्चा बिलकुल छोटा था, को? बच्चा बड़ा था और कहीं नाला बिलकुल उथला था, और कहीं गहरा था। लेकिन वह एवरेज में नहीं आती बातें। गणित में नहीं आती। उसने कहा, बेफिक्र रह, मैंने हिसाब बिलकुल ठीक कर लिया है। रेत पर हिसाब लगा लिया। आगे गणितज्ञ हो गया। बीच में उसके बच्चे हैं, पीछे पली है। पत्नी थोड़ी डरी हुई है।
      स्रियों का गणित पर कभी भरोसा नहीं रहा है। थोड़ा भय और नीचे भी कुछ गड़बड़ हुई जा रही है, क्‍योंकि नाले में कई जगह हरापन दिखायी पड़ता है। नाला कई जगह गहरा मालूम पड़ता है। उसने देखा कि उसका पति खुद कहीं बिलकुल डूब गया है, और साथ एक छोटा बच्चा भी है।
      वह सचेत है, लेकिन पति अकड़कर आगे चला जा रहा है। एक बच्चा डूबने लगा। उसकी पली ने चिल्लाकर कहा, देखिये बच्चा डूब रहा है! आप समझते हैं?
      उस आदमी ने क्या किया, पुरुष ने क्या किया? उसने कहा, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि गणित गलत कैसे हो सकता है? बच्चे को बचाने की बजाय वह भाग कर नदी के उस तरफ गया, जहां उसने रेत पर गणित किया था! पहले उसने गणित देखा, कि गणित कहीं गलत तो नहीं है। वह वहीं से चिल्लाया कि यह हो नहीं सकता गणित बिलकुल ठीक है।
      गणित की एक दिशा है, जहां जड़ नियम होते हैं। चीजें तौली, नापी जा सकती हैं।
      अब तक पुरुष ने जो संस्कृति बनायी है, वह गणित की संस्कृति है। वहां नाप, जोख, तौल सब है। स्‍त्री का कोई हाथ इस संस्कृति में नहीं है। क्योंकि उसे समानता का कोई हक नहीं है। उसे कभी हमने पुकारा नहीं कि तुम आओ और तुम एक दूसरे आयाम से, प्रेम के आयाम से भी दान करो कि समाज कैसा हो।
      स्‍त्री अगर सोचेगी तो और भाषा में सोचती है। और उसका सोचना भी हमसे बहुत भिन्न है। उसे हम सोचना भी नहीं कह सकते। भावना कह सकते है। पुरुष सोचता है, स्‍त्री भावना करती है। सोचना भी नहीं कह सकते, क्योंकि सोचना गणित की दुनिया का हिसाब है। और इसलिए पुरुष हमेशा हिसाब लगाता है। स्‍त्री हिसाब के आसपास चलती है। ठीक हिसाब नहीं लगा पाती। ठीक हिसाब नहीं है उसके पास।
      लेकिन जिंदगी अकेला गणित नहीं है। जिंदगी बहुत बड़े अर्थों में प्रेम है जहां कोई हिसाब नहीं होता। कोई गणित नहीं होता। जिंदगी बहुत बेबूझ है और इस जिंदगी को अगर हमने गणित की सीधी साफ रेखाओं पर निर्मित किया तो हम सीधी साफ रेखाएं बना लेंगे। लेकिन आदमी पुंछता चला जायेगा, मिटता चला जायेगा। और यही हो रहा है। रोज यह हो रहा है कि आदमी की जड़ें नीचे से कट रही हैं। क्योंकि हम जो इंतजाम कर रहे हैं, वह ऐसा इंतजाम है, जिसके ढांचे में जिंदगी नहीं पल सकती।
      जैसे कि अगर समझ लें, मुझे एक फूल बहुत प्यारा लगे तो मैं एक तिजोरी में उसे बंद कर लूं। गणित यही कहेगा कि तिजोरी में बंद कर लो। ताला लगा दो जोर से। मुझे सूरज की रोशनी बहुत अच्छी लगे, एक पेटी में बंद कर लूं। अपने घर रखूं बांधकर। लेकिन, जिंदगी पेटियों में बंद नहीं होती—न गणित की पेटियों में, न साइंस की पेटियों में। कहीं बंद नहीं होती। जिंदगी बाहर छूट जाती है, एकदम छूट जाती है। मुट्ठी बांधी... अगर यहां हवा है और मैं मुट्ठी जोर से बांधू और सोचूं कि हवा को हाथ के भीतर बंद कर लूं.. तो मुट्ठी जितने जोर से बंधेगी हवा, उतनी हाथ से बाहर हो जायेगी।
      जिंदगी बंधना मानती नहीं। जिंदगी एक तरलता और एक बहाव है। लेकिन हमारी, पुरुष की चितना की सारी जो कैटेगरिज हैं, पुरुष के सोचने का जो ढंग है, वह सब चीजों को बांधता है। व्यवस्थित बांध लेता है, हिसाब में बांध लेता है। अगर उससे पूछो कि मां का क्या मतलब है? अगर ठीक पुरुष से पूछो कि मां का क्या मतलब है? तो वह कहेगा, बच्चे पैदा करने की एक मशीन है! और क्या हो सकता है?
      मैं एक वैज्ञानिक की किताब पढ़ रहा था। उस वैज्ञानिक से किसी ने पूछा, मुर्गी क्या है? तो उस आदमी ने कहा, मुर्गी अंडे की तरकीब है, और अंडे पैदा करने के लिए। अंड़े की तरकीब, और अंडे पैदा करने के लिए! मुर्गी क्या है? अंडे की तरकीब। और अंडे पैदा करने के लिए— और क्या हो सकता है? गणित ऐसा सोचेगा—सोचेगा ही। गणित इससे भिन्न सोच भी नहीं सकता। वितान इससे भिन्न सोच भी नहीं सकता। विज्ञान आत्मा की गणना नहीं करता! जीवन की गणना नहीं करता! चीजों को काट लेता है। काटकर खोज कर लेता है। विश्लेषण कर लेता है। और विश्लेषण में जो जीवन था, वह एकदम खो जाता है।
      पुरुष ने जो दूनिया बनायी है.. वह पुरुष अधूरा है, अधूरी दुनिया बन गयी है। पुरुष अधूरा है, यह ध्यान रहे। और स्‍त्री के साथ बिना उसकी संस्कृति अधूरी होगी।
      तो एक—एक घर में पुरुष एक—एक स्‍त्री को लाया है। एक—एक घर में तो पुरुष अकेला रहने को राजी नहीं है। स्‍त्री भी अकेले रहने को राजी नहीं है। चाहे कितनी कलह हो, स्‍त्री और पुरुष साथ रह रहे हैं!
      लेकिन संस्कृति और सभ्यता की जहां दूनिया है, वहां स्‍त्री का बिलकुल प्रवेश नहीं हुआ है। वहां पुरुष बिलकुल अकेला है। पुरुष के अकेले, अधूरेपन ने.. पुरुष बिलकुल अधूरा है, जैसे स्‍त्री अधूरी है। वे काम्पलीमेंटरी हैं, दोनों को मिलाकर एक पूर्ण व्यक्तित्व बनता है।
      लेकिन मनुष्य की संस्कृति अधूरी सिद्ध हो रही है। क्योंकि वह आधे पुरुष ने ही निर्मित की है। स्‍त्री से उसने कभी मल नहीं की। स्‍त्री सब गड़बड़ कर देती है, अगर वह आये तो। अगर लेबोरेटरी में उसे ले जाओ तो बजाय इसके कि वह आपकी परखनली और आपके टैस्ट—ट्यूब में क्या हो रहा है यह देखे, हो सकता है टैस्ट—ट्यूब को रंग कर सुंदर बनाने की कोशिश करे। स्‍त्री को लेबोरेटरी में ले जाओ, गड़बड़ होनी शुरू हो जायेगी। या पुरुष को स्‍त्री की बगिया में ले जाओ तो भी गड़बड़ होनी शुरू हो जायेगी। इस गड़बड़ के डर से हमने कम्पार्टमेंट बांट लिए हैं।
      पुरुष की एक दुनिया बना दी है। स्‍त्री की एक अलग दुनिया बना दी है। और दोनों के बीच एक बड़ी दीवाल खड़ी कर ली है। और दीवाल खड़ी करके पुरुष अकड़ गया है और कहता है, मुझसे तुम्हारा मुकाबला क्या? का कुछ कर ही नहीं सकती। इसलिए घर में बंद रहो। तुमसे कुछ हो नहीं सकता। हम पुरुष ही कुछ कर सकते है। हम पुरुष श्रेष्ठ हैं। स्त्रियो, तुम्हारा काम है कि तुम बर्तन मलो, खाना बनाओ, बस इतना! इससे ज्यादा तुम्हारा कोई काम नहीं है। बच्चों को बड़ा करो! यह सब पुरुष ने स्‍त्री को एक दीवाल बना करके वहां सौप दिया है और वह बाहर अकेला मालिक होकर बैठ गया है! सब तरफ पुरुष इकट्ठे हो गये हैं।
      कल्वर की जहां दुनिया है, संस्कृति की, वहां पुरुष इकट्ठे हो गये हैं! स्रियां वर्जित हैं! स्त्रियां अस्पृश्य की, अनटचेबल की भांति बाहर कर दी गयी हैं!
      मेरी दृष्टि में इसीलिए मनुष्य की सभ्यता अब तक सुख की और आनंद की सभ्यता नहीं बन सकी। अब तक मनुष्य की सभ्यता पूर्ण इंटीग्रेटेड नहीं बन सकी है। उसका आधा अंग बिलकुल ही काट दिया गया है। इस आ हो अंग को वापिस समान हक न मिले, इसे वापिस पूरा जीवन, पूरा अवसर, स्वतंत्रता न मिले तो मनुष्य का बहुत भविष्य नहीं माना जा सकता। मनुष्य का भविष्य एकदम अंधकारपूर्ण कहा जा सकता है।
      स्‍त्री को लाना है। भेद हैं, भिन्नताएं है। भिन्नताएं आनंदपूर्ण हैं, भिन्नताएं दुख का कारण नहीं हैं। असमानता दुख का कारण है। और असमानता को हमने भिन्नता के आधार पर... असमानता को इतना मजबूत कर लिया है कि कल्पना के बाहर है, कि स्‍त्री और पुरुष मित्र हो सकते हैं। पुरुष को लगता ही नहीं कि स्‍त्री और पुरूष मित्र! नहीं हो सकती! पत्नी हो सकती है! पत्नी यानी दासी।
और जब वह चिट्ठी लिखती है कि आपकी चरणों की दासी तो पुरुष बड़ा प्रसन्न होता है पढ़कर। बहुत प्रसन्न होता है। ठीक पत्नी मिल गयी है। ऐसी ही पत्नी होनी चाहिए।
      पुरुषों के ऋषि—मुनि समझाते हैं कि स्‍त्री परमात्मा माने पुरुष को! पुरुष खुद ही समझा रहा है कि मुझे परमात्‍मा मानो!
      और स्त्रियों के दिमाग को वह तीन हजार साल से कंडीशंड कर रहा है। और उनके दिमाग में यह प्रचार कर रहा है कि मुझे यह मानो!
      पुरुषों ने किताबें लिखी हैं, जिसमें उन्होंने लिखा है कि स्‍त्री अगर कल्पना भी कर ले दूसरे पुरुष की, तो पापिन है! और पुरुष अगर वेश्या के घर भी जाये तो पवित्र! स्‍त्री वही है, जो उसे कंधे पर बिठाकर वेश्या के घर पहुंचा दे।
      मजेदार लोग हैं—बहुत मजेदार लोग हैं! और हम.. लेकिन यह स्वीकृत हो गया! इसमें स्रियों को भी एतराज नहीं है. यह स्वीकृत हो गया है!
      स्रियों को.. इतने दिन से प्रोपेगण्‍डा किया गया है उनकी खोपड़ी पर, हेमरिंग की गयी है कि उन्होंने मान लिया है। बचपन से ही उन्हें नंबर दो की स्थिति स्वीकार करने के लिए मां—बाप तैयार करते हैं। वह नंबर एक नहीं हे। वह नंबर दो है। इसकी स्वीकृति बचपन से उनके मन पर थोपी चली जाती है!
      पूरी संस्कृति, पूरी व्यवस्था.. कैसे यह छुटकारा हो, कैसे यह स्‍त्री पुरुष के सामान खड़ी हो सके, बहुत कठिन मामला मालूम पड़ता है।
      लेकिन दो—तीन सूत्र सुझाना चाहता हूं। इनके बिना शायद स्‍त्री पुरुष के समान खड़ी नहीं हो सकती। और ध्यान रहे जब तक पूरी परिस्थिति नहीं बदलती है.. पुरुष कितना ही कहे कि तुमको भी तो समान हक है वोट करने का, तुम समान हो। सब बातें ठीक हैं। असमानता क्या है? इससे कुछ हल नहीं होगा। स्‍त्री के नीचे होने में, उसके जीवन की गुलामी में, उसकी असमानता में कुछ कारण हैं। जैसे जब तक स्रियों की अपनी कोई आर्थिक स्थिति नहीं है, जब तक उनकी अपनी इकॉनामिक, अर्थगत, सम्पत्तिगत अपनी कोई स्थिति नहीं है, तब तक स्रियों की समानता बातचीत की बात होगी। गरीब अमीर समान हैं। हम कहते हैं. हम कहते हैं, गरीब अमीर समान हैं, बराबर   वोट का हक है। सब ठीक है। लेकिन गरीब अमीर समान कैसे हो सकता है? अमीरी और गरीबी इतनी  . असमानता पैदा कर देती है।
      और स्रियों से ज्यादा गरीब कोई भी नहीं है, क्योंकि हमने उनको बिलकुल अपंग कर दिया है कमाने से। पैदा से अपंग कर दिया है। वे कुछ पैदा नहीं करती। न वे कुछ कमाती हैं। न वे जिंदगी में आकर बाहर कुछ काम करती हैं। घर के भीतर बंद कर दिया। उनकी गुलामी का मूल—सूत्र यह है कि वे जब तक आर्थिक रूप से बंधी हैं, तब तक वे समान हक में हो भी नहीं सकतीं।
      और बुरा है यह। एकदम बुरा है, क्योंकि स्रियां सब तरफ फैल जायें, सब कामों में तो पुरुष के सब तरफ कामों जो पुरुषपन आ गया है, सब शिथिल हो जाय। फर्क हम जानते हैं। फर्क बहुत स्पष्ट है। स्‍त्री के प्रवेश से ही एक और हवा हर दफ्तर में प्रविष्ट हो सकती है और हो ही जाती है।
      एक क्लास, जहां लड़के ही लड़के पढ़ रहे हैं और पुरुष ही पढ़ा रहा है। एक और तरह की क्लास है। जहां लड़कियां भी आकर बैठ गयी हैं—क्लास की हवा में फर्क पड़ गया है, बुनियादी फर्क पड़ गया है। ज्यादा से ज्यादा सुगंध से भरी वह हवा हो गयी है। कम पुरुष, कम कठोर चीजें शिथिल हो गयी हैं और चीजें ज्यादा शिष्‍ट हो गयी हैं।
      स्‍त्री को जीवन के सब पहलुओं पर फैला देने की जरूरत है। ऐसा कोई काम नहीं है, जो कि स्रियां न कर सकती हो।
      रूस में स्रियों ने सब काम करके बता दिया है। हवाई जहाज के पायलट होने से, छोटे—छोटे काम तक। स्‍त्री अंतरिक्ष में उड़कर भी बताया है। वह इस बात की खबर है कि स्रियां करीब—करीब सब काम कर सकती हैं।
      कुछ काम होंगे, जो एकदम मस्कुलर हैं। कुछ काम होंगे, अब तो नहीं रह गये। क्योंकि मस्त का सब काम ० करने लगी है। पुराना जमाना गया। कोई शेर—वेर से लड़ने जाना नहीं पड़ता और गामा वगैरह बनना अब सब बेवकूफी हो गयी है। वह समझ की बातें नहीं हैं।
      अब तो, मस्ल का काम मशीन ने कर दिया है, इसलिए स्‍त्री को समान होने का पूरा मौका मिल गया है। मशीन बड़े से बड़ा काम कर देती है। बड़े से बड़ा पत्थर उठा देती है। बड़े से बड़े वजन को धका देती है। अब पुरुष को भी धकाना नहीं पड़ रहा है। अब कोई जरूरत नहीं है। अब स्‍त्री प्रत्येक काम में पुरुष के साथ खड़ी हो सकती
      और जैसे ही स्‍त्री जीवन के सब पहलुओं में प्रविष्ट कर जायेगी, सभी पहलुओं के वातावरण में बुनियादी फर्क पड़ेगा। और कुछ काम तो ऐसे हैं... अब यह हैरानी की बात है, ऐसा शायद ही कोई काम अब बचा है पुरुष के पास, जो स्‍त्री नहीं कर सकती।
      लेकिन कुछ काम ऐसे हैं, जो स्त्रियां ही कर सकती हैं और पुरुष नहीं कर सकते हैं। और उन कामों को भी पुरूष पकड़े हुए है। जैसे शिक्षक का काम है। शिक्षक के काम से पुरुष को हट जाना चाहिए। पुरुष शिक्षक हो ही नहीं सकता। उसका डिक्टेटोरियल माइंड इतना ज्यादा है कि वह शिक्षक नहीं हो सकता है।
      वह थोपने की कोशिश करता है। और वह जो भी मानता है, उसे थोपने की कोशिश करता है। वह कहता है, जो मैं कहता हूं वह ठीक है। वह इल्डिंग नहीं है। वह झुक नहीं सकता। वह विनम्र नहीं हो सकता। खुमिलिर्टा नहीं है। हम्बलनेस नहीं है। शिक्षक अगर जरा भी थोपने वाला है तो दूसरी तरफ के मस्तिष्क को बुनियादी रू'। से नुकसान पहुंचाता है।
      और नुकसान पहुंचता है सारी मनुष्य जाति को। क्योंकि शिक्षक कैसे व्यवहार कर रहा है। निशित ही सारी दुनिया में शिक्षा का करीब—करीब सारा काम—करीब—करीब कहता हूं सारा काम स्रियों के हाथ में चला ही जाना चाहिए। यह बिलकुल ही हितकर होगा। उचित होगा। महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि शिक्षा तब एक रूखी सूखी बात नहीं रह जायेगी। उसके साथ एक रस और एक पारिवारिक वातावरण जुड़ जायेगा और संबंधित हो जायेगा।
      बहुत काम ऐसे हो सकते हैं, जो कि स्रियों को पूरी तरह उपलब्ध हो जाने चाहिए। और बहुत काम जो स्रियां कर सकती हैं, उन्हें सब तरफ से निमंत्रण मिलने चाहिए और बहुत दिशाएं जो हमेशा से अधूरी पड़ी हुई हैं, जिनको कभी छुआ नहीं गया है, खोली जानी चाहिए। उन दिशाओं के दरवाजे तोड़े जाने चाहिए, ताकि एक और तरह की चितना—स्‍त्री की चितना, स्‍त्री की भावना, बिलकुल और तरह की है।
      उसमें कुछ डायनामिकली अपोजिट है। कुछ बुनियादी रूप से उलटे तत्व हैं। वह ज्यादा इनटयूटिव है। इंटलेल्युअल नहीं है। वह बहुत बुद्धि और तर्क की नहीं है, ज्यादा अंतर अनुभूति की है। मनुष्य अंतर अनुभूति से शून्य हो गया है, बिलकुल शून्य है।
      स्त्रियां अगर सब दिशाओं में फैल जायें और जीवन घरों में बंद न रह जाये, क्योंकि घरों का काम इतना उबाने वाला है, इतना बोरिंग है, इतना बोर्डम से भरा हुआ है कि उसे तो मशीन के हाथ में धीरे—धीरे छोड़ देना चाहिए। आदमी को करने की—न स्त्रियों को, न पुरुषों को—कोई जरूरत नहीं है। रोज सुबह वही काम, रोज दोपहर वही काम, रोज सांझ वही काम!
      एक स्‍त्री चालीस पचास वर्ष तक एक मशीन की तरह सुबह से सांझ, यंत्र की तरह घूमती रहती है और वही काम करती रहती है। और इसका परिणाम क्या होता है? इसका परिणाम है कि मनुष्य के पूरे जीवन में विष घुल जाता है।
      एक स्‍त्री जब चौबीस घंटे ऊब वाला काम करती है। रोज बर्तन मलती है—वही बर्तन, वही मलना; वहीं रोटी, वही खाना; वही उठना, वही कपड़े धोना, वही बिस्तर लगाना; रोज एक चक्कर में सारा काम चलता है। थोड़े दिन में वह इस सबसे ऊब जाती है। लेकिन करना पडता है।
      और जिस काम से कोई ऊब गया हो और करना पड़े तो उसका बदला वह किसी न किसी से लेगी। इसलिए स्रियां हर पुरुष से हर तरह का बदला ले रही हैं। हर तरह का बदला,पुरुष घर आया कि स्‍त्री तैयार है टूटने के लिए। इसलिए पुरुष घर के बाहर—बाहर घूमते फिरते हैं। क्लब बनाते हैं। सिनेमा जाते हैं, पच्चीस उपाय सोचते 256



वह अपने को समझा रहे हैं कि स्‍त्री नर्क का द्वार है। सावधान! बचना! स्‍त्री की तरफ देखना भी मत।      यह इन घबड़ाये हुए, भागे हुए एस्केपिस्ट, पलायनवादी लोगों ने स्‍त्री को समझने, स्‍त्री को आदृत होने, सम्मानित होने, साथ खड़े होने का मौका नहीं दिया।
      अभी जब मैं बम्बई था कुछ दिन पहले, एक मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे है। आपने उनके प्रवचन सुने होंगे, नाम तो काही होगा। वह प्रवचन कर रहे हैं। भगवान की कथा कर रहे हैं! या कुछ कर रहे हैं, स्‍त्री नहीं छू सकती हैं उन्हें! एक स्री अजनबी आयी होगी! उसने उनके पैर छू लिए! तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गये हैं! अपवित्र हो गये है! उन्होने सात दिन का उपवास किया है शुद्ध के लिए! जहा दस पन्द्रह हजार स्रियां पहुंचती थीं, वहाँ सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्रियां इकट्ठी होने लगीं कि यह आदमी असली साधु है!
स्रियां भी यही सोचती है कि जो उनके छूने से अपवित्र हो जायेगा, असली साधु है! हमने उनको समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक स्‍त्री भी नहीं जानी थी फिर। क्योंकि स्‍त्री के लिए भारी अपमान की बात है।
      लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है। लम्बी गुलामी अपमान के खयाल मिटा देती है। लाख स्रियां वहां इकट्ठी हो गयी है! सारी बम्बई में यही चर्चा है कि यह आदमी है असली साधु! स्‍त्री के छूने से अपवित्र हो गया है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज को किसी को पूछना चाहिए, पैदा किस से हुए थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था? वह सब स्‍त्री से लेकर आ गये हैं। और अब अपवित्र होते है स्‍त्री के छूने से। हद्द कमजोर साधुता है, जो स्‍त्री के छूने से अपवित्र हो जाती है! लेकिन इन्ही सारे लोगों की लम्बी परपरा ने स्‍त्री को दीन—हीन और नीचा बनाया है।   और मजा यह है—मजा यह है, कि यह जो दीन—हीनता की लम्बी परपरा है, इस परंपरा को तो स्त्रियां ही पूरी तरह बल देने में अग्रणी है! कभी के मंदिर मिट जायें और कभी के गिरजे समाप्त हो जायें—स्रियां ही पालन पोषण कर रही है मंदिरो, गिरजों, साधु, संतो—महंतों का। चार स्रियां दिखायी पड़ेगी एक साधु के पास, तब कही एक पुरुष दिखायी पड़ेगा। वह पुरुष भी अपनी पत्नी के पीछे बेचारा चला आया हुआ होगा।
      तीसरी बात मैं आप से यह कहना चाहता हू कि जब तक हम स्‍त्री—पुरुष के बीच के ये अपमानजनक फासले, ये अपमानजनक दूरियां—कि छूने से कोई अपवित्र हो जायेगा—नहीं तोड़ देते हैं, तब तक शायद हम स्‍त्री को समान हक भी नहीं दे सकते।
      को—एजुकेशन शुरू हुई है। सैकड़ों विश्वविद्यालय, महाविद्यालय को—एजुकेशन दे रहे हैं। लड़कियां और लड़के साथ पढ़ रहे हैं। लेकिन बड़ी अजीब—सी हालत दिखायी पड़ती है। लड़के एक तरफ बैठे हुए है! लड़कियां दूसरी तरफ बैठी हुई हैं! बीच में पुलिस की तरह प्रोफेसर खड़ा हुआ है! यह कोई मतलब है? यह कितना अशोभन है, अनकल्वर्ड है। को—एजुकेशन का अब एक ही मतलब हो सकता है कि कालेज या विश्वविद्यालय स्‍त्री पुरुष में कोई फर्क नहीं करता। को—एजुकेशन का एक ही मतलब हो सकता है—कालेज की दृष्टि में सेक्स—डिफरेंसेस का कोई सवाल नहीं है।
आखिरी बात, और अपनी चर्चा मैं पूरी कर दूंगा। एक बात आखिरी।
      और वह यह कि अगर एक बेहतर दुनिया बनानी हो तो स्‍त्री पुरुष के समस्त फासले गिरा देने हैं। भिन्नता बचेगी, लेकिन समान तल पर दोनों को खड़ा कर देना है और ऐसा इंतजाम करना है कि 'स्‍त्री को स्‍त्री होने की कांशसनेस' और 'पुरुष को पुरुष होने की कांशसनेस' चौबीस घंटे न घेरे रहे। यह पता भी नहीं चलना चाहिए। यह चौबीस घंटे ख्याल भी नहीं होना चाहिए। अभी तो हम इतने लोग यहां बैठे हैं, एक स्‍त्री आये तो सारे लोगों को खयाल हो जाता है कि स्‍त्री आ गयी। स्‍त्री को भी पूरा खयाल है कि पुरुष यहाँ बैठे हुए है। यह अशिष्टता है, अनकल्वर्डनेस है, असंस्कृति है, असभ्यता है। यह बोध नहीं होना चाहिए। ये बोध गिरने चाहिए। अगर ये गिर सकें तो हम एक अच्छे समाज का निर्माण कर सकते हैं। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहित हूं।
      और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
      मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

      एम—एस. कालेज बड़ौदा
      16 अगस्त 1969



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