भीड़ से, समाज से-दूसरों से मुक्ति—सोलहवां प्रवचन
मेरे प्रिय
आत्मन,
मनुष्य
का जीवन जैसा
हो सकता है, मनुष्य
जीवन में जो
पा सकता है।
मनुष्य जिसे
पाने के लिये
पैदा होता
है-वही उससे
छूट जाता है। वह
उसे नही मिल पाता
है कभी किसी एक
मनुष्य के जीवन
मे-किसी कृष्ण, किसी राम, किसी बुद्ध,
किसी गांधी के
जीवन में सौदर्य
के फूल खिलते
है। और सत्य
की सुगंध फैलती
है। लेकिन, शेष सारी मनुष्यता
ऐसे ही मुरझा जाती
है और नष्ट हो जाती
है।
कौन-सा
दुर्भाग्य है
मनुष्य के
ऊपर...कौन-सी
कठिनाई है?
करोड़ो बीजों
में से अगर एक बीज
में अंकुर आये
और शेष बीज, बीज ही रह कर सड़
जायें और समाप्त
हो जायें, तो
यह कोई सुखद स्थिति
नहीं हो सकती।
और अगर मनुष्य
जाति के पूरे इतिहास
को उठा कर देखें,
तो अंगुलियों
पर गिने जा सकें,
ऐसे थोडे-से
मनुष्य पैदा होते
है, जिनकी कथा
इतिहास में शेष
है। शेष सारी
मनुष्यता की
कोई कथा
इतिहास में
शेष नहीं है!
शेष सारे
मनुष्य बिना
किसी सत्य को जाने,
बिना किसी
सौदर्य को
जाने ही मर जाते
हैं! क्या ऐसे जीवन
को हम जीवन कहें?
एक फकीर
का मुझे स्मरण
आता है। कभी वह
सम्राट था, लेकिन
फिर वह फकीर हो
गया था। वह पैदा
तो सम्राट हुआ
था, और जिस राजधानी
में वह पैदा हुआ
था, उसी
राजधानी के
बहार एक झोपड़े
में रहने लगा
था। लेकिन उसके
झोपड़े पर
अक्सर उपद्रव
होते रहते थे।
जो भी उसके झोपड़े
पर आता, उसी
से उसका झगड़ा
हो जाता।
रास्ते
पर था उसका झोपड़ा
और गांव से कोई
चार मील बाहर
था-चौराहे पर
था। आने-जाने वाले
राहगीर उस से बस्ती
का रास्ता पूछते, तो
वह कहता, 'बस्ती
ही जाना चाहते
हो, तो बायी
तरफ भूलकर भी मत
जाना, दायीं तरफ के रास्ते
से जाना, तो
बस्ती पहुच जाओगे।'
राहगीर
उसकी बात
मानकर दायीं
तरफ के रास्ते
से जाते, और
दो-चार मील
चलकर मरघट पर
पहुंच
जाते-वहां, जहां बस्ती नही,
सिर्फ कब्रें
थीं। राहगीर क्रोध
में वापस लौटते
और आकर फकीर से
झगडा करते कि
तुम पागल तो
नहीं हो? हमने
पूछा था बस्ती
का रास्ता, और तुमने हमें
मरघट में भेज दिया?
तो वह
फकीर हंसने लगता
और कहता
तुम्हें मेरी परिभाषा
मालूम नहीं है।
मैं तो मरघट को
बस्ती ही कहता
हूं। क्योंकि जिसे
तुम से बस्ती
कहते हो, उसमें
तो कोई भी ज्यादा
दिन बसता नही।
कोई आज उजड़ जाता
है और कोई कल।
वहां तो मौत रोज
आती है और किसी
न किसी को उठा ले
जाती है। वह, जिसे तुम बस्ती
कहते हो, वह
तो मरघट है।
वहां तो मृत्यु
की प्रतीक्षा करनेवाले
लोग बसते हैं।
वे प्रतीक्षा करते
रहते है मृत्यु
की। मैं तो
उसी को बस्ती कहता
हूं जिसे तुम मरघट
कहते हो क्योंकि
वहां जो एक बार
बस गया, वह बस
गया,फिर उसकी
मौत नहीं होती।
बस्ती मैं उसे
कहता हूं जहां
बस गये लोग
फिर उजड़ते
नहीं, वहां
से हटते नहीं।
लगता है
पागल रहा होगा
वह फकीर।
लेकिन क्या दुनिया
के सारे समझदार
लोग पागल रहे हैं? दुनिया
के सारे ही समझदार
लोग एक ही बात कहते
रहे है कि जिसे
हम जीवन समझते
है, वह जीवन
नहीं है। और चूंकि
हम गलत जीवन को
जीवन समझ लेते
है, इसलिये
जिसे हम मृत्यु
समझते है, वह
भी मृत्यु नहीं
है। हमारा सब
कुछ ही उलटा है।
हमारा सब कुछ ही
अंजान से भरा हुआ
और अंधकार से पूर्ण
है। फिर जीवन क्या
है? और उस जीवन
को जानने और समझने
का द्वार और मार्ग
क्या है?
बुद्ध के
संघ में एक बूढा
भिक्षु रहता
था। बुद्ध ने एक
दिन उस बूढे भिक्षु
को पूछा कि 'मित्र
तेरी उम्र क्या
है? उस भिक्षु
ने कहा, 'आप
भली-भांति
जानते है, फिर
भी पूछते हैं?
मेरी उम्र पाँच
वर्ष है?
'बुद्ध
बहुत हैरान
हुए और कहने
लगे,'कैसी
मजाक कुरते हो?...सिर्फ
पांच वर्ष!
पचहत्तर वर्ष
से कम तो
तुम्हारी उम्र
क्या होगी, पांच वर्ष
कैसे कहते हो?'
बूढे भिक्षु
ने कहा, हां, सत्तर वर्ष
भी जिया हूं
लेकिन उन्हे जीने
के वर्ष नहीं कह
सकता। उसे जीवन
कैसे कहूं!
पिछले पांच
वर्षों से ही
जीवन को जाना
है, इसलिये
पांच ही वर्ष
की उम्र गिनता
हूं। वे सत्तर
वर्ष तो बीत
गये-नींद में,
बेहोशी में,
मूर्छा में।
उनकी गिनती
कैसे करूं? नहीं जानता
था जीवन को, तो फिर उनकी
भी गिनती कर लेता
था। अब, जब से
जीवन को जाना है,
तब से उनकी गिनती
करनी बहुत मुश्किल
हो गयी है।'
यही मैं
आप से भी कहना चाहता
हूं कि जिसे हम
अब तक जीवन जानते
रहे है, वह जीवन
नहीं है-वह एक
निद्रा, एक
मूर्छा है; एक दुःख की लबी
कथा है; एक
अर्थ हीन खाली
पन, एक मीनिंगलेस
एंपटिनेस
है। जहां कुछ
भी नहीं है हमारे
हाथों में।
जहां न हमने कुछ
जाना है और न कुछ
जिया है। फिर वह
जीवन कहा है, जिस की हम
बात करें।
जीवन के उसी
एकसूत्र पर
सुबह मैंने बात
की है, दूसरे
सूत्र पर अभी
बात करेंगे।
दूसरे
सूत्र को समझने
के लिये एक बात
समझ लेनी जरूरी
है कि मनुष्य का
जीवन भीतर से बाहर
की तरफ आता
है-बाहर से
भीतर की तरफ
नहीं। एक बीज में
जब अंकुर आता
है,
तो वह भीतर
से आता है।
अंकुर बड़ा होता
है तो उसमें
पत्ते और फूल लगते
हैं, फल
लगते हैं। उस
छोटे से बीज से
एक बड़ा वृक्ष
निकलता है, जिसके नीचे
हजारों लोग
विश्राम करते
हैं। एक छोटे
से बीज में
इतना बड़ा
वृक्ष छिपा
होता है।
लेकिन, वह
न वृक्ष बाहर
से नहीं आता
है-यह अंधा भी
कह सकता है।
यह वृक्ष भीतर
से आता है, उस
छोटे-से बीज
से आता है।
जीवन
भी छोटे से
बीज से ही
भीतर से बाहर
की तरफ फैलता
है। और हम
सारे लोग जीवन
को खोजते हैं
बाहर! जीवन
आता है भीतर
से-फैलता है
बाहर की तरफ।
बाहर जीवन का
विस्तार है, जीवन
का केंद्र
नहीं। जीवन की
मूल ऊर्जा, जीवन का मूल
स्रोत भीतर है
और जीवन की
शाखाएं बाहर
हैं। और हम सब
जीवन ' और
खोजते हैं
बाहर, इसलिये
जीवन से वंचित
रह जाते हैं, जीवन को
नहीं जान पाते
हैं! पत्तों
को जान लेते
है, पर।।
को पहचान लेते
हैं, लेकिन
पत्ते?., पत्ते
जड़ें नहीं हैं।
माओत्से-तुंग
ने अपने बचपन
की एक छोटी सी
घटना लिखी है।
लिखा है कि
मेरी मां का
एक बगीचा था।
उस बगीचे में
ऐसे सुंदर फूल
खिलते थे कि
दूर-दूर से
लोग उन्हें
देखने आते थे।
एक बार मेरी
बूढ़ी बिमार
पड़ गयी। वह
बहुत चिंतित
थी-अपनी
बीमारी के
लिये नहीं, बगीचे
में खिले
फूलों के
लिये-कि बगीचे
में खिले फूल
कुम्हला न
जाएं। वह इतनी
बीमार थी कि
बिस्तर से
बाहर नहीं निकल
सकती थी।
मैंने
मां से कहा, तुम
घबड़ाओ मत, मैं
फिक्र कर
लूंगा फूलों की।
और मैंने
पंद्रह दिन तक
फूलों की बहुत
फ्रिक की।
एक-एक पत्ते
की धूल झाड़ी, एक-एक पत्ते
को पोंछा और
साफ किया। एक--एक पत्ते को
संभाला, एक-एक फूल की
फिक्र की, लेकिन
न मालूम क्यों
फूल मुरझाते
गये, पत्ते
सूखते गये और
सारा बगीचा
सूखता गया!
पंद्रह
दिन बाद बूढ़ी मां
बाहर आयी और
बाहर आकर उसने
देखा कि उसकी
सारी बगिया
उजड़ गयी है।
बेहोश होकर
गिर पड़े हैं, फूल
कुम्हला गये
हैं, कलियां-कलियां
ही रह गयी हैं,
फूल नहीं
बनी हैं।
मां
पूछने लगी, ''तू
क्या करता था
पंद्रह दिन तक?
सुबह से रात
तक सोता भी
नहीं था! यह
क्या हुआ?'
मेरी आंखों
में आंसू आ
गये। मैंने
कहा,
''मैंने
बहुत फिक्र की।
मैंने एक-एक
पत्ते की धूल
झाड़ी। मैंने
एक-एक फूल पर
पानी छिड़का।
मैंने एक-एक
पौधे को गले
लगाकर प्रेम
किया, लेकिन
न-मालूम कैसे
पागल पौधे हैं,
सब कुम्हला
गये हैं, सब
सूख गये हैं।
यूं तो
मां की आंखों
में बगिया को
देखकर आंसू थे, लेकिन
मेरी हालत
देखकर वह
हंसने लगी और
उसने कहा, ''पागल,
फूलों के
प्राण फूलों
में नहीं होते,
उनकी जड़ों
में होते हैं,
जो दिखाई
नहीं पड़ती हैं
और जमींन
के नीचे होती
हैं। पानी
फूलों को नहीं
देना पड़ता है,
जड़ों को
देना पडता है।
फिक्र पत्तों
की नहीं करनी
पड़ती,? जड़ो की करनी
पड़ती है। पत्तों
की लाख फिक्र
करें तो भी जड़े
कुम्हला जायेंगी
और पत्ते भी
सूख जायेंगे। और
जड़ों की थोड़ी
सी फिक्र करें
और पत्तों की,
फूलों की
कोई भी फिक्र
न करें, तो
भी पत्ते फलते
रहेंगे, फूल
खिलते रहेंगे।
सुगंध उड़ती
रहेगी।
मैंने
पूछा, ''लेकिन
जड़ कहां है? वह तो
दिखायी नहीं
पड़ती है!'
…… हम
सब भी यही
पूछते
हैं-जीवन कहां
है? वह तो
दिखायी नहीं
पड़ता है। वह
बाहर नहीं
छिपा है, वह
अपने ही भीतर
है-अपनी ही
जड़ों में।
बाहर जहां
दिखाई पड़ता है
सब कुछ, वहां
पत्ते हैं, शाखाएं हे। भीतर
जहां दिखाई
नहीं पडता, जहां घोर
अंधकार है, वहां जड़ें
हैं।
दूसरा
सूत्र समझ
लेना जरूरी है
और वह यह कि जीवन
बाहर नहीं, भीतर
है। विस्तार
बाहर है, प्राण
भीतर हैं। फूल
बाहर खिलते
हैं, जड़ें
भीतर हैं। और
जड़ों के संबंध
में हम सब भूल
गये हैं। माओ
पर हम हंसेंगे
कि नादान था
वह लड़का बहुत,
लेकिन हम
अपने पर नहीं
हंसते हैं कि
हम जीवन के
बगीचे में
उतने ही नादान
हैं।
... और, अगर आदमी के
चेहरे से मुस्कुराहट
चली गयी है-और
आदमी की आंखों
से शांति खो
गई है... और आदमी
के हृदय में
फूल नहीं लगते
हैं... और आदमी
की जिंदगी में
संगीत नहीं
बजता है... और
आदमी की
जिंदगी एक बे-रौनक
उदासी हो गयी
है, तो फिर
हम पूछते हैं
कि कितना तो
हम सम्हालते हैं,
कितने
अच्छे मकान
बनाते हैं, कितने अच्छे
रास्ते बनाते
हैं, कितने
अच्छे कपड़े
निर्मित करते
हैं, कितनी
अच्छी शिक्षा
देते हैं-सब
तो हम करते हैं,
लेकिन आदमी
फिर भी
कुम्हलाता
क्यों चला
जाता है? यह
हम वही पूछते
हैं, जो उस
लड़के ने पूछा
था कि मैंने
एक-एक पत्ते
को सम्हाला, लेकिन फूल?.. फूल क्यों
कुम्हला गये?
पौधे क्यों
कुम्हला गये?
आदमी
कुम्हला गया
है,
क्योंकि वह
बाहर
सम्हालता रहा
है। और ध्यान
रहे कि जिसको
हम भौतिकवादी
कहते हैं, वे
ही केवल बाहर
नहीं
देखते-जिनको
हम अध्यात्मवादी
कहते हैं, दुर्भाग्य
है कि वे भी
बाहर ही देखते
हैं और बाहर
ही सम्हालते
हैं!
भौतिकवादी तो
बाहर सम्हालेगा,
क्योंकि
भौतिकवादी
मानता है कि '' भीतर-जैसी’‘ कोई चीज ही
नहीं है। भीतर
है ही नहीं।
भौतिकवादी
कहता है, ''भीतर''
कोरा शब्द
है। भीतर कुछ
भी नहीं है।
हालांकि
यह बड़ी अजीब
बात मालूम
पड़ती है, क्योंकि
जिसका भी बाहर
होता है, उसका
भीतर
अनिवार्य रूप
से होता है।
यह असंभव है
कि बाहर ही
बाहर हो और
भीतर न हो।
अगर भीतर न हो,
तो बाहर
नहीं हो सकता।
अगर एक मकान
की बाहर की
दीवाल है, तो
उसका भीतर भी
होगा। अगर एक
पत्थर की बाहर
की रूप-रेखा
है, तो
भीतर भी कुछ
होगा। बाहर की
जो रूप-रेखा
है, वह
भीतर को ही
घेरने वाली
रूप-रेखा होती
है। बाहर का
अर्थ है, भीतर
को घेरने वाला।
और अगर भीतर न
हो तो बाहर
कुछ भी नहीं
हो सकता।
लेकिन
भौतिकवादी
कहता है कि
भीतर कुछ भी
नहीं, इसलिये
भौतिकवादी को
तो क्षमा भी
किया जा सकता
है। लेकिन अध्यात्मवादी
भी सारी
चेष्टा बाहर
की करता है, वह भी कहता
है कि
ब्रह्मचर्य
साधो, वह
भी कहता है, अहिंसा साधो;
वह भी कहता
है, सत्य
साधो; वह
भी गुणों को
साधने की
कोशिश करता
है! अहिंसा, ब्रह्मचर्य,
प्रेम, करुणा,
दया-यें
सब फूल हैं, जड़ इनमें से
कोई भी नहीं
है।
जड़
समझ में आ
जाये, तो
अहिंसा
अपने-आप पैदा
हो जाती है।
और अगर जड़ समझ
में न आये, तो
अहिंसा को हम
जिंदगी भर
सम्हाले, फिर
भी अहिंसा
पैदा नहीं होती।
बल्कि, अहिंसा
के पीछे
निरंतर हिंसा
खड़ी रहती है।
और वे हिंसक
बेहतर हैं, जो बाहर भी
हिंसक है; लेकिन
वे अहिंसक
बहुत खतरनाक
हैं, जो
बाहर तो
अहिंसक, लेकिन
भीतर हिंसक
हैं।
जिन
मुल्कों ने
अध्यात्म की
बहुत बात की
है,
उन्होंने
बाहर से एक
थोथा
अध्यात्म
पैदा कर लिया
है। वैसा जो
थोथा
अध्यात्म है,
वह बाहर के
गुणों पर जोर
देता है, अंतस
पर नहीं। वह
कहता है-सेक्स
छोड़ो, ब्रह्मचर्य
साधो! वह कहता
है-झूठ को
छोड़ो, सत्य
को साधो! वह
कहता है-कांटे
हटा लो और फूल
पैदा करो!
लेकिन इसकी
बिलकुल फिक्र
नहीं करता है
कि फूल जो
जड़ों से पैदा
होते हैं, वे
जड़ें कहां हैं।
और अगर जड़ें न
सम्हाली
जायें, तो
फूल पैदा
होनेवाले
नहीं हैं। हां,
कोई चाहे तो
बाजार से कागज
के फूल लाकर
ऊपर चिपका ले
सकता है।
और
दुनिया में
अध्यात्म के
नाम से कागज
के फूल चिपकाए
हुए लोगों की
भीड़ खड़ी हो
गयी है। और
ऐसे लोगों के
कारण ही
भौतिकवाद को
दुनिया में
नहीं हराया जा
पा रहा है; क्योंकि
भौतिकवाद
कहता है, यही
है तुम्हारा
अध्यात्म? ये कागज के
फूल? और इन
कागज के फूलों
को देखकर भौतिकवादी
को लगता है कि
नहीं है कुछ
भीतर, सब
ऊपर की बातें
हैं।
अध्यात्म
के नाम से
बाहर का आरोपण
चल रहा है। कल्टिवेशन
और इंपोजीशन
चल रहा है।
आदमी, भीतर जो
सोया हुआ है, उसे जगाने
की चिंता में
नहीं है, बाहर
से अच्छे
वस्त्र पहन
लेने की चिंता
में है! इससे एक
अदभुत धोखा
पैदा हो गया
है। दुनिया
में या तो
भौतिकवादी
हैं और या फिर
झूठे अध्यात्मवादी
हैं। दुनिया
में कमा आदमी
खोजना
मुश्किल होता
चला गया है।
हां, कभी
कोई एकाध
सच्चा आदमी
पैदा होता है,
लेकिन उस
आदमी को भी हम
नहीं समझ पाते
हैं, क्योंकि
उसको भी हम
बाहर से देखते
हैं कि वह क्या
करता है, कैसे
चलता,, का
पहनता है, क्या
खाता है? और
इसी आधार पर
हम निर्णय लेते
हैं कि वह
भीतर से क्या
होगा!
नहीं, फूल
के आधार पर
जड़ों का पता
नहीं चलता है।
फूल के रंग देख
कर जड़ो
का कुछ पता
नहीं चलता है;
पत्तों से
जड़ों का कुछ
भी पता नहीं
चलता है। जड़ें
कुछ बात ही और
है। वह आयाम
ही दूसरा है; वह डायमेन्शन
ही दूसरा है।
लेकिन सब बाहर
से सम्हालने
की, वस्रों को सम्हालने
की लंबी कथा
चल रही है। और हमने
एक झूठा आदमी
पैदा कर लिया
है। इस झूठे
आदमी का कोई
भी जीवन नहीं
होता, इसलिये
इस झूठे-आदमी
को हम थोड़ा
समझ लें; क्योंकि
यह झूठा आदमी
कोई और नहीं
है, हम सभी
झूठे आदमी हैं।
मैंने
सुना है, एक
किसान ने एक
खेत में एक
झूठा आदमी
बनाकर खड़ा कर
दिया था।
किसान खेतों
में झूठा आदमी
बनाकर खड़ा कर
देते हैं।
कुरता पहना
देते हैं, हंडिया
लटका देते हैं,
मुंह बना
देते हैं।
जंगली जानवर
उस झूठे आदमी
को देखकर डर
जाते हैं, भाग
जाते हैं।
पक्षी-पक्षी
खेत में आने
से डरते हैं।
एक
दार्शनिक उस
झूठे आदमी के
पास से निकलता
था। तो उस
दार्शनिक ने
उस झूठे आदमी
को पूछा कि
दोस्त! सदा
यही खड़े रहते
हो?
धूप आती है,
वर्षा आती
है, सर्दियां आती हैं रात
आती है, अंधेरा
हो जाता
है-तुम यही
खड़े रह जाते
हो? ऊबते
नहीं, घबराते
नहीं, परेशान
नहीं होते?
वह
झूठा आदमी
दार्शनिक की
बातें सुनकर
बहुत हंसने
लगा। उसने कहा, परेशान!
परेशान मैं
कभी नहीं होता,
दूसरों को
डराने में
इतना मजा आता
है कि वर्षा
भी गुजार देता
हूं धूप गुजार
देता हूं।
रातें भी
गुजार देता
हूं। दूसरों
को डराने में
बहुत मजा आता
है; दूसरों
को प्रभावित
देखकर, भयभीत
देखकर बहुत
मजा आता है। 'दूसरों की आंखों
में सच्चा
दिखायी पड़ता
हूं, -बस
बात खत्म हो
जाती है।
पक्षी डरते
हैं कि मैं
सच्चा आदमी
हूं। जंगली
जानवर भय खाते
हैं कि मैं
सच्चा आदमी हूं।
उनकी आंखों
में देखकर कि
मैं सच्चा हूं
बहुत आनंद आता
है!
उस
झूठे आदमी की
बातें सुनकर
दार्शनिक ने
कहा,
''बड़े आश्रर्य
की बात है।
तुम जैसा कहते
हो, वैसी
हालत मेरी भी
है। मैं भी
दूसरों की आंखों
में देखता हूं
कि मैं क्या
हूं और उसी से
आनंद लेता चला
जाता हूं!
तो वह झूठा
आदमी हंसने
लगा और उसने
कहा,
''तब फिर मैं
समझ गया कि
तुम भी एक
झूठे आदमी हो।
झूठे आदमी की
एक पहचान है :
वह हमेशा
दूसरों की आंखों
में देखता है
कि कैसा
दिखायी पड़ता
है। इससे मतलब
नहीं कि वह
क्या है। उसकी
सारी चिंता, उसकी सारी
चेष्टा यही
होती है कि वह
दूसरी को कैसा
दिखायी पड़ता
है; वे जो
चारों तरफ
देखने वाले
लोग हैं, वे
उसके बारे में
क्या कह रहे
हैं।
यह जो
बाहर का थोथा
अध्यात्म है, यह
लोगों की
चिंता से पैदा
हुआ है। लोग
क्या कहते हैं।
और जो आदमी यह
सोचता है कि
लने क्या कहते
है, वह
आदमी कभी भी
जीवन के अनुभव
को उपलब्ध
नहीं हो सकता
है। जो आदमी
यह फिक्र करता
है कि भीड़
क्या कहती है,
और जो भीड़
के हिसाब से
अपने
व्यक्तित्व
को निर्मित
करता है, वह
आदमी भीतर जो
सोये हुए
प्राण हैं, उसको कभी
नहीं जगा
पायेगा। वह
बाहर से ही
वस्त्र ओढ़
लेगा। वह
लोगों की आंखों
में भला
दिखायी पड़ने
लगेगा और बात
समाप्त हो
जायेगी।
हम
वैसे दिखायी
पड़ रहे हैं, जैसे
हम नहीं हैं!
हम
वैसे दिखायी
पड़ रहे हैं, जैसे
हम कभी भी
नहीं थे।
हम
वैसे दिखायी
पड़ रहे हैं, जैसा
दिखायी पडना
सुखद मालूम
पड़ता है!
लेकिन वैसे हम
नहीं है।
मैंने
सुना है, लंदन
के एक फोटोग्राफर
ने अपनी दुकान
के सामने एक
बड़ी तख्ती लगा
रखी थी। और उस
तख्ती पर लिख
रखा था कि तीन
तरह के फोटो यहां
उतारे जाते
हैं। पहले तरह
के फोटो का
दाम सिर्फ
पांच रुपया है।
और वह फोटो
ऐसा होगा, जैसे
आप हैं। दूसरी
तरह के फोटो
का दाम दस
रुपया है। और
वह ऐसा होगा, जैसे आप
दिखायी पड़ते
हैं। तीसरी
तरह के फोटो
का दाम पंद्रह
रुपया है। और
वह ऐसा होगा, जैसे आप
दिखायी पड़ना
चाहते हैं।
'गांव
का एक आदमी
आया था फोटो निकलवाने,
तो वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। वह
पूछने लगा, तीन-तीन तरह
के फोटो एक
आदमी के कैसे
हो सकते हैं!
फोटो तो एक ही
तरह का होता
है। एक ही
आदमी के तीन
तरह के फोटो
कैसे हो सकते
हैं?
और वह
ग्रामीण
पूछने लगा कि
जब पांच रुपये
में फोटो उतर
सकता है, तो
पंद्रह रुपये
में कौन
उतरवाता होगा।
फोटोग्राफर
बोला, 'नासमझ, नादान, तू
पहला आदमी आया
है, जो
पहली तरह का
फोटो उतरवाने
का विचार कर
रहा है। अब तक
पहली तरह का
फोटो उतरवानेवाला
कोई आदमी नहीं
आया। जिसके
पास पैसे की
कमी होती है, तो वह दूसरी
तरह का फोटो
उतरवाता है।
नहीं तो तीसरी
तरह के ही लोग
फोटो उतरवाते
हैं। पहली तरह
का तो कोई
उतरवाता ही
नहीं। कोई
आदमी नहीं
चाहता कि वह वैसा
दिखायी पड़े, जैसा कि वह है-दूसरों
को भी वैसा
दिखायी न पड़े,
और खुद को
भी वैसा
दिखायी न पड़े,
जैसा कि वह
है।
तो फिर
भीतर की
यात्रा नहीं
हो सकती है।
क्योंकि भीतर
तो सत्य की
सीढ़ियों पर
चढ़कर ही यात्रा
शुरू होती है, असत्य
की सीढ़ियों पर
चढ़कर नहीं। और
ध्यान रहे, अगर बाहर की
यात्रा करनी
हो, तो
असत्य की
सीढ़ियों के
बिना बाहर कोई
यात्रा नहीं
हो सकती। अगर
दिल्ली
पहुंचना हो तो
असत्य की
सीढ़ियों पर
चढ़े बिना कोई
यात्रा नहीं
हो सकती है।
और भीतर जाना
हो, तो
सत्य की
सीढ़ियों पर
चढ़े बिना कोई
यात्रा नहीं
हो सकती है।
अगर बहुत धन
के अंबार
लगाने हों, तो असत्य की
यात्रा के
सिवाय कोई
यात्रा नहीं है।
अगर बहुत यश
पाना हो, प्रतिष्ठा
पानी हो, मित्रता
पानी हो, तो
असत्य के
सिवाय कोई
रास्ता नहीं
है।
बाहर
की सारी
यात्रा की
सीढ़ियां
असत्य की ईंटों
से निर्मित है।
और भीतर की
यात्रा सत्य
की सीढ़ियां
चढ़कर करनी
पड़ती है।
और इस
बात को जानना
बहुत कठिन
पड़ता है कि 'मैं
सच में क्या
हूं?' हम
सदा उसे दबाते
हैं, जो हम
नहीं हैं! हम
शरीर को तो
बहुत देखते
हैं आइने
को सामने रखकर,
लेकिन वह जो
भीतर है, उसके
सामने कभी
आइना नहीं
रखते। और अगर
कोई आइना सामने
ले आये, तो
हम बहुत नाराज
हो जाते हैं।
किसी के आइना
दिखाने पर हम
आइना भी तोड़
देते हैं और
उस आदमी का
सिर भी तोड़
देते हैं।
कोई
आदमी भीतर के
आदमी को देखने
के लिये तैयार
नहीं है।
इसलिये दुनिया
में जिन लोगों
ने भी हमारे, भीतर
के असली आदमी
को दिखाने की
कोशिश की है, उनके साथ
हमने वह
व्यवहार किया
है, जो हम
दुश्मन के
साथ करते हैं।
जीसस को हम
सूली पर लटका
देते हैं, सुकरात
को हम जहर
पिला देते हैं।
जो भी हमारी
असलियत को
दिखाने की
कोशिश करता है,
उससे हम
बहुत नाराज हो
जाते हैं; क्योंकि
वह हमारी नग्रता
को उघाड़कर
हमारे सामने
रख देता है।
और हम-हम धीरे-
धीरे भूल ही
गये हैं कि
वस्त्रों के
भीतर हम नग्न
ही है! हम
धीरे- धीरे
समझने लगे हैं
कि हम वस्त्र
ही हैं। भीतर
एक नंगा आदमी
भी है, उसे
हम धीरे- धीरे
भूल गय हैं-बिलकुल
भूल गये हैं!
उसकी हमें कोई
याद नहीं है, और वही हमारी
असलियत है। उस
असलियत '। '
पैर रखे
बिना- और जो भी
गहरी असलियतें
हैं भीतर, उन
तक पहुंचा
नहीं जा सकता
है।
इसलिये
दूसरा सूत्र
है. 'मैं जैसा
हूं उसका
साक्षात्कार।
लेकिन
वह हम नहीं
करते हैं! हम
तो दबा-दबाकर
अपनी एक झूठी
तसवीर, एक
फाल्स इमेज
खड़ी करने की
कोशिश करते
हैं!
भीतर
हिंसा भरी है
और आदमी पानी
छानकर पियेगा-
और कहेगा कि
मैं अहिंसक
हूं! भीतर
हिंसा की आग
जल रही है, भीतर
सारी दुनिया
को मिटा देने
का पागलपन है,
भीतर
विध्वंस है, भीतर वायलेंस
है और एक आदमी
रात खाना नहीं
खायेगा- और
सोचेगा कि मैं
अहिंसक हूं!
हम
सस्ती तरकीब
में पहुंच गये
हैं कुछ हो
जाने की। इतना
सस्ता मामला
नहीं है। आप
क्या खाते हैं, क्या
पाते हैं-इससे
आप अहिंसक
नहीं होते।
हां, आप
अहिंसक हो
जायेंगे तो
आपका
खाना-पीना
जरूर बदल
जायेगा।
लेकिन
खाना-पीना बदल
लेने से आप
अहिंसक नहीं हो
जाते। यह बात
जरूर सच है कि
आपके भीतर
प्रेम आयेगा,
तो आपका
बाहर का
व्यक्तित्व
बदल जायेगा।
लेकिन बाहर का
व्यक्तित्व
बदल लेने से
भीतर से प्रेम
नहीं आता है।
उलटा
सच नहीं है।
अगर प्रेम आ
जाये, तो मैं
किसी को गले
से लगा सकता
हूं; लेकिन
गले से लगा
लेने पर यह मत
सोचना कि
प्रेम आ
जायेगा। वैसे
गले लगा लेने
से कवायद तो
हो जाती
हैं-प्रेम-वेम
नहीं उगता, लेकिन लोग
सोचते हैं, गले लगाने
से प्रेम आ
जाता है! तो
गले लगाने की तरकीब
सीख लो, बात
खत्म हो जाती
है। तो एक
आदमी गले से
लगाने की
तरकीब सीख
लेता है और
सोचता है कि
प्रेम आ गया।
गले लगाने
से प्रेम के
आने का क्या
संबंध हो सकता
है….
कोई भी
संबंध नहीं हो
सकता।
श्रद्धा
भीतर हो, आदर
भीतर हो, तो
आदमी झुक जाता
है, लेकिन
झुकने से
श्रद्धा का
जन्म नहीं हो
जाता - कि आप
झुक गये तो
श्रद्धा आ गयी।
आपका शरीर तो
झुक जायेगा, पर आप पीछे
अकड़े हुए खड़े रहेंगे।
देख लेना खयाल
से-जब मंदिर
में मूर्ति के
सामने झुकें-तब
देख लेना कि आप
पीछे खड़े हैं
और सिर्फ शरीर
झुक रहा है।
आप खड़े ही हुए
हैं। आप खड़े
होकर चारों
तरफ देख रहे
हैं मंदिर में
कि लोग मुझे
देख रहे हैं, या नहीं!
शरीर के झुकने
से क्या अर्थ
है?
लेकिन, हम
जो हैं, उसे
छिपाने की
हमने अच्छी
तरकीबें खोज
ली हैं। एक
आदमी पाप करता
है और कौन आदमी
पाप नहीं
करता-और फिर
गंगा जाकर सान
कर आता है! और
निश्चित हो
जाता है कि
गंगा सान से
पाप मिट गये!
रामकृष्ण
के पास जाकर
एक आदमी ने
कहा,
''मैं गंगा
सान को जा रहा
हूं आशीर्वाद
दे दें!
रामकृष्ण
ने पूछा, ''किसलिये कष्ट कर रहा
है? किसलिये गंगा को
तकलीफ देने जा
रहा है? मामला
क्या है? गंगा
भी घबड़ा गयी
होगी। आखिर
कितना जमाना
हो गया उसे, पापियों के
पाप धोते-
धोते।
वह
आदमी कहने लगा, हां,
उसी के लिये
जा रहा हूं कि
पापों से
छुटकारा हो
जाए।
आशीर्वाद दे
दें।
रामकृष्ण ने
कहा, ''तुझे
पता है, गंगा
के किनारे जो
बड़े-बड़े झाडू
हैं, वे
जानते हो
किसलिए हैँ?''
उस
आदमी ने कहा, 'किसलिये हैं, मुझे
पता नहीं।
'' रामकृष्ण
ने कहा, ''पागल,
तू गंगा में
स्नान करेगा
और पाप बाहर
निकल कर झाड़ी
पर बैठ जाएंगे।
फिर तू सान
करके निकलेगा
तो वे झाड़ों
पर बैठे तेरा
रास्ता देखते
होंगे कि आ
गये बेटे, अब
हम तुम पर फिर
सवार होते हैं।
वे झाडू
इसीलिये हैं
गंगा के
किनारे।
''बेकार
मेहनत मत कर।
तुझे भी तकलीफ
होगी-गंगा को
भी, पापों
को भी, वृक्षों
को भी। इस
सस्ती तरकीब
से कुछ हल
नहीं होगा। ''
लेकिन
हम सब सस्ती
तरकीबें ही
खोज रहे हैं
कि गंगा सान
कर लेंगे। और
गंगा-सान जैसे
ही मामले हैं
हमारे सारे।
बाहर से
व्यक्तित्व खड़ा
करने की हम
कोशिश करते
हैं-उसे
झुठलाने के लिये, जो
हम भीतर हैं।
टाल्स्टाय
एक दिन
सुबह-सुबह
चर्च गया।
रास्ते पर
कोहरा पड़ रहा
था। पांच ही
बजे होंगे।
जल्दी गया था
कि अकेले में
कुछ
प्रार्थना कर लूंगा।
चर्च में जाकर
देखा कि उससे
पहले भी कोई
आया हुआ है।
अंधेरे में, चर्च
के द्वार पर
हाथ जोड़े हुए
एक आदमी खड़ा
था। और वह
आदमी कह रहा
था कि 'हे
परमात्मा, मुझसे
ज्यादा पापी
कोई भी नहीं
है। मैंने
बहुत पाप किये
हैं; मैंने
बहुत
बुराइयां की
हैं; मैंने
बड़े अपराध
किये हैं; मैं
हत्यारा हूं।
मुझे क्षमा
करना। '
टाल्स्टाय
ने देखा कि
कौन आदमी है, जो
अपने मुंह से
कहता है कि
मैंने बहुत
पाप किये हैं,
और मैं
हत्यारा हूं।
कोई आदमी ऐसा
नहीं कहता कि
मैं हत्यारा
हूं बल्कि
किसी हत्यारे
से यह कहो कि
तुम हत्यारे हो,
तो वह तलवार
निकाल लेता है
कि कौन कहता
है, मैं
हत्यारा हूं!
हत्या करने को
तैयार हो जाते
हैं, लेकिन
यह मानने को
राजी नहीं
होता कि मैं
हत्यारा हूं।..
यह कौन आदमी आ
गया है?
टाल्स्टाय
धीरे से उसके
पास गया। आवाज
पहचानी हुई
मालूम पड़ी। 'यह
तो नगर का
सबसे बड़ा
धनपति है! 'उसकी
सारी बातें टाल्स्टाय
खड़े होकर
सुनता रहा।
जब
वह आदमी
प्रार्थना कर
पीछे मुड़ा, तो
टाल्स्टाय
को पास खड़ा
देखकर उसने
पूछा, ‘‘क्या
तुमने मेरी
सारी बातें
सुन ली हैं?''
टाल्स्टाय
ने कहा, ‘‘मैं
धन्य हो गया
तुम्हारी
बातें सुनकर।
तुम कितने
पवित्र आदमी
हो कि अपने सब
पापों को
तुमने इस तरह
खोलकर रख
दिया! ''
तो उस
धनपति ने कहा, '' ध्यान
रहे, यह
बात किसी से
कहना मत! यह
बात मेरे और
परमात्मा के
बीच हुई है।
मुझे पता भी
नहीं था कि
तुम यहां खड़े
हुए हो। अगर
किसी दूसरे तक
यह बात पहुंची,
तो तुम पर
मानहानि का
मुकदमा दायर
कर दूंगा। ''
टाल्स्टाय ने
कहा,
''अरे, अभी
तो तुम कह रहे
थे कि…….
''…….वह सब
अलग बात है।
वह तुमसे
मैंने नहीं
कहा। वह दुनिया
में कहने के लिये
नहीं हैं। वह
मेरे और
परमात्मा के
बीच की बात है.....!
''
चूंकि
परमात्मा
कहीं भी नहीं
है,
इसलिये
उसके सामने हम
नंगे खड़े हो
सकते हैं।
लेकिन जो आदमी
जगत के सामने
सच्चा होने को
राजी नहीं है,
वह
परमात्मा के
सामने भी कभी
सच्चा नहीं हो
सकता है। हम
अपने ही सामने
सच्चे होने को
राजी नहीं हैं!'
लेकिन
यह डर क्यों
है इतना? यह
चारों तरफ के
लोगों का इतना
भय क्यों है? चारों तरफ
से लोगों की आंखें
एक-एक आदमी को
भयभीत क्यों
किये हैं? हम
सब मिलकर
एक-एक आदमी को
क्यों भयभीत
किये हुए हैं?
आदमी इतना
भयभीत क्यों
है? आदमी
किस बात की
चिंता में है?
आदमी
बाहर से फूल
सजा लेने की
चिंता में है।
बस लोगों की आंखों
में दिखायी
पड़ने लगे कि
मैं अजा आदमी
हूं बात समाप्त
हो गयी। लेकिन
लोगों की आंखों
में अच्छा
दिखायी पड़ने
से मेरे जीवन
का सत्य और
मेरे जीवन का
संगीत प्रगट
नहीं होगा। और
न लोगों की आंखों
में अच्छा
दिखायी पड़ने
से मैं जीवन
की मूल-धारा
से संबंधित हो
सकूंगा। और न
लोगों की आंखों
में अच्छा
दिखायी पड़ने
से मेरे जीवन
की जड़ों तक मेरी
पहूंच हो
पायेगी।
बल्कि, जितना
मैं लोगों की
फिक्र करूंगा,
उतना ही मैं
शाखाओं और
पत्तों की
फिक्र में पड़
जाऊंगा क्योंकि
लोगों तक
सिर्फ पत्ते
पहुंचते हैं,
जड़ें नहीं।
जड़ें
तो मेरे भीतर
हैं। वे जो रूट्स
हैं,
वे मेरे
भीतर हैं।
उनसे लोगों का
कोई भी संबंध
नहीं है। वहां
मैं अकेला हूं।
टोटली अलोन।
वहां कोई कभी
नहीं पहुंचता।
वहां सिर्फ
मैं हूं। वहां
मेरे
अतिरिक्त कोई
भी नहीं है।
वहां किसी
दूसरे की
फिक्र नहीं
करनी है।
अगर
जीवन को मैं
जानना चाहता
हूं;
और चाहता
हूं कि जीवन
मेरा बदल जाये,
रूपांतरित
हो जाये; और
अगर मैं चाहता
हूं कि जीवन
का परिपूर्ण
सत्य प्रगट हो
जाये; चाहता
हूं कि जीवन
के मंदिर में प्रवेश
हो जाएं;
मैं पहुंच
सकूं, उस
लोक तक, जहां
सत्य का आवास
है-तो फिर
मुझे लोगों की
फिक्र छोड़
देनी पड़ेगी।
वह जो क्राउड
है, वह जो
भीड़ मुझे घेरे
हुए है, उसकी
फिक्र मुझे
छोड़ देनी पड़ती।
क्योंकि जो
आदमी भीड़ की
बहुत चिंता
करता है, वह
आदमी कभी जीवन
की दिशा में गतिमान
नहीं हो पाता।
क्योंकि भीड़
की चिंता, बाहर
की चिंता है।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि भीड़ से
मैं अपने सारे
संबंध तोड़ लूं
जीवन
व्यवस्था से
अपने सारे
संबंध तोड़ लूं।
इसका यह मतलब
नहीं है। इसका
कुल मतलब यह
है कि मेरी आंखें
भीड़ पर न रह
जायें, मेरी
आंखे अपने पर
हों। इसका कुल
मतलब यह है कि
दूसरे की आंख
में झांककर
मैं यह न
देखूं कि मेरी
तसवीर क्या है।
बल्कि मैं
अपने ही भीतर
झांककर देखूं
कि मेरी तस्वीर
क्या है! अगर
मेरी सच्ची
तस्वीर का
मुझे पता
लगाता है तो मेरी
ही आंखों के
भीतर झांकना
पड़ेगा।
तो
दूसरों की आंखों
में मेरा जो अपीयरेंस
है-मेरी असली
तस्वीर नहीं
है वहां। और
उसी तस्वीर को
देंखने मैं
खुश हो लूंगा, उसी
तस्वीर को
देखकर
प्रसन्न हो
लूंगा। वह
तस्वीर गिर
जायेगी, तो
दुखी हो
जाऊंगा। लगा।-
चार आदमी बुरा
कहने लगेंगे,
तो दुखी हो
जाऊंगा। चार
आदमी अच्छा
कहने लगेंगे,
तो सुखी हो
जाऊंगा। बस इतना
ही मेरा होना
है? तो मैं
हवा के झोंकों
पर जी रहा हूं।
हवा पूरब की
ओर उड़ने लगेगी,
तो मुझे
पूरब उड़ना
पड़ेगा; हवा
पश्चिम की ओर
उड़ेगी, तो पश्चिम
की ओर उड़ना
पड़ेगा। लेकिन
मैं खुद कुछ
भी नहीं हूं।
मेरी कोई आथेंटिक
एंग्जिस्टेंस
नहीं हैं।
मेरी कोई अपनी
आत्मा नहीं है।
मैं हवा का एक
झोंका हूं।
मैं एक सूखा
पत्ता हूं कि
हवाएं जहां ले
जाये बस, मैं
वहीं चला जाऊं;
कि पानी की
लहरें मुझे
जिस ओर बहाने
लगें, मैं
उस ओर बहने
लगू। दुनिया
की आंखें मुझ
से जो कहें, वही मेरे
लिये सत्य हो
जाये।
तो फिर मेरा
होना क्या है? फिर
मेरी आत्मा
क्या है? फिर
मेरा
अस्तित्व
क्या है? फिर
मेरा जीवन
क्या है? फिर
मैं एक झूठ
हूं। एक बड़े
नाटक का
हिस्सा हूं।
और बड़े
मजे की बात यह
है कि जिस भीड़
से मैं डर रहा
हूं;
वह भी मेरे
जैसे दूसरों
की भीड़ है।
बडी अजीब बात
है कि वे सब भी
मुझ से डर रहे
हैं, जिनसे
कि मैं डर रहा
हूं।
हम सब
एक-दूसरे से
डर रहे हैं।
और इस डर में
हमने एक
तस्वीर बना ली
है और भीतर जाने
में डरते हैं
कि कहीं यह
तस्वीर मिट न
जाये। एक
सप्रेशन, एक
दमन चल रहा है।
आदमी जो भीतर
है, उसे
दबा रहा है; और जो नहीं
है, उसे
थोप रहा है, उसका आरोपण
कर रहा है। एक
द्वंद्व, एक
कानफ्लिक्ट
खड़ी हो गयी है।
एक-एक आदमी
अनेक-अनेक
आदमियों मे
बंट गया है, मल्टी
साइकिक हो गया
है। एक-एक
आदमी एक-एक
आदमी नहीं है।
एक ही चौबीस
घंटे में हजार
बार बदल जाता
है! नया आदमी
सामने आता है,
तो नयी
तस्वीर बन जाती
है उसकी आंख में और
वह बदल जाता
है!
आप जरा
खयाल करना कि
अपनी पत्नी के
सामने आप दूसरे
आदमी होते हैं, अपने
बेटे के सामने
तीसरे, अपने
बाप के सामने
चौथे, अपने
नौकर के सामने
पांचवें, अपने
मालिक के
सामने छठवें।
दिन भर आप
अलग-अलग आदमी
होते हैं।
सामने का आदमी
बदला कि आपको
बदलना पड़ता है।
नौकर के सामने
आप शानदार
आदमी हो जाते
हैं। और मालिक
के सामने-वह
जो हालत आपके
नौकर की आपके
सामने होती है,
वही-मालिक
के सामने आप
की हो जाती है!
आप कुछ
हों या नहीं, पर
हर दर्पण आपको
बनाता है! जो
सामने आ जाता
है, वही
आपको बना देता
है! बहुत अजीब
बात है। हम
हैं?
हम हैं
ही नहीं।
हम-एक अभिनय
हैं,
एक ऐक्टंग
हैं। सुबह से
शाम तक अभिनय
चल रहा है।
सुबह कुछ है, दोपहर कुछ
है, शाम
कुछ है। हमारे
खीसे में पैसे
हों, तो हम
वही आदमी नहीं
रह जाते हैं, बिलकुल
दूसरे आदमी हो
जाते हैं। जब
पैसे नहीं
होते हैं खीसे
में, तब
बिलकुल दूसरे
आदमी हो जाते
हैं।
किसी
मिनिस्टर को
देखें, जब वह
पद पर हो- और
फिर जब वह
मिनिस्टर न रह
जाये, तब
उसको देखें।
जैसे कि कपड़े
की क्रीज
निकल गयी हो, ऐसा वह हो
जाता है। सब
खअ। आदमी गया।
आदमी था ही
नहीं जैसे।
मैंने सुना
है,
जापान के एक
गांव में एक
सुंदर युवा
फकीर रहता था।
सारा गांव उसे
श्रद्धा और
आदर देता था।
लेकिन एक दिन
सारी बात बदल
गयी। गांव में
अफवाह उड़ी कि
उस फकीर से
किसी लड़की को
एक बच्चा पैदा
हो गया है। उस
सी ने अपने
बाप को कह
दिया है कि यह
उसी फकीर का
बच्चा है, जो
गांव के बाहर
रहता है। वही
फकीर इसका बाप
है।
सारा
गांव टूट पड़ा
उस फकीर पर।
जाकर उसकी झोपड़ी
में आग लगा दी।
सुबह सर्दी के
दिन थे, वह -
बैठा था। उसने
पूछा कि ‘‘मित्रों,
यह क्या कर
रहे हो? क्या
बात है?''
तो
उन्होंने उस
नवजात बच्चे
को उसकी गोद
में पटक दिया
और कहा, हमसे
पूछते हो, क्या
बात है न यह
बच्चा तुम्हारा
है।''
उस
फकीर ने कहा, ‘‘इज
इट सो? क्या
ऐसी बात है? अगर तुम
कहते हो, ठीक
ही कहते होओगे।
क्योंकि भीड़
तो कुछ गलत
कहती ही नहीं
भीड़ तो हमेशा
सत्य ही कहती
है। अब तुम
कहते हो, तो
ठीक ही कहते
होओगे। ''
वह
बच्चा रोने
लगा,
तो वह फकीर
उसे थपथपाने
लगा। गांव भर
के लोग
गालियां देकर
वापस लौट आये
और उस बच्चे
को उसके पास
छोड़ आये।
फिर
दोपहर को जब
फकीर भीख मांगने
निकला, तो उस
बच्चे को लेकर
भीख मांगने
निकला गांव मैं।
कौन उसे भीख
देगा? आप
भीख देते? कोई
उसे भीख नहीं
देगा। जिस
दरवाजे पर वह
गया, दरवाजे
बंद हो गये।
उस रोते हुए
छोटे बच्चे को
लेकर उस फकीर
का उस गांव से
गुजरना….।
बडी अजीब सी
हालत हो गयी
उसकी। लोगों
की भीड़ उसके
पीछे चलने लगी,
उसे
गालियां देती
हुई।
फिर
वह उस दरवाजे
के सामने
पहुंचा, जिसकी
बेटी को यह
बच्चा हुआ था।
और उसने उस
दरवाजे के
सामने आवाज
लगायी कि कसूर
मेरा होगा
इसका बाप होने
में, लेकिन
इसका मेरा
बेटा होने में
क्या कसूर हो
सकता है। बाप
होने में मेरी
गलती होगी, लेकिन बेटा
होने में इसकी
तो कोई गलती
नहीं हो सकती।
कम से कम इसे
तो दूध मिल
जाये।
उस
बच्चे को जन्म
देनेवाली
लड़की द्वार पर
ही खड़ी थी।
उसके प्राण कंप
गये,
फकीर को भीड़
में घिरा हुआ
पत्थर खाते
हुए देखकर
छिपाना मुश्किल
हो गया। उसने
बाप के पैर
पकड़ लिये, कहा,
मुझे क्षमा
करें, इस
फकीर को तो
मैं पहचानती
भी नहीं।
सिर्फ इसके
असली बाप को
बचाने के लिये
मैंने इस फकीर
का झूठा नाम
ले दिया था! ''बाप आकर
फकीर के पैरों
पर गिर पड़ा और
बच्चे को फकीर
से छीन लिया।
और फकीर से
क्षमा मांगने
लगा।
फकीर
ने पूछा, ‘‘लेकिन
बात क्या है? बच्चे को
क्यों छीन
लिया तुमने? उसके बाप ने
कहा, लड़की
के बाप ने, ''आप
कैसे नासमझ
हैं। आपने ही
क्यों न बताया
कि यह बच्चा
आपका नहीं है?
''उस फकीर
ने कता, ''इज
इट सो, क्या
ऐसा है? मेरा
बेटा नहीं है?
तुम्हीं तो
सुबह कहते थे
कि तुम्हारा
है, और भीड़
तो कभी झूठ
बोलती नहीं है।
अगर तुम बोलते
हो नहीं है
मेरा, तो
नहीं होगा। ''
लोग
कहने लगे कि ‘‘तुम
कैसे पागल हो!
तुमने सुबह
कहा क्यों
नहीं कि बच्चा
तुम्हारा
नहीं है। तुम
इत.।। निंदा
और अपमान
झेलने को राजी
क्यों हुए?''
उस
फकीर ने कहा, मैंने
तुम्हारी कभी
चिंता नहीं की,
कि तुम क्या
सोचते हो। तुम
आदर देते हो
कि अनादर तुम
श्रद्धा देते
हो कि निंदा।
मैंने
तुम्हारी आंखों
की तरफ देखना
बंद कर दिया
है। मैं अपनी
तरफ देखूं कि
तुम्हारी आंखों
की तरफ देखूं।
जब तक मैं
तुम्हारी आंखों
में देखता रहा,
तब तक अपने
को मैं नहीं
देख पाया। और
तुम्हारी आंख
तो प्रतिपल
बदल रही है।
और हर आदमी की
आंख अलग है।
हजार-हजार
दर्पण हैं, मैं किस-किस
में देखूं। अब
मैंने अपने
में ही झांकना
शुरू कर दिया
है। अब मुझे
फिक्र नहीं है
कि तुम क्या
कहते हो? अगर
तुम कहते हो
कि बच्चा मेरा
है, तो ठीक
ही कहते हो।
मेरा ही होगा।
आखिर किसी का
तो होगा ही? मेरा ही सही।
तुम कहते हो
कि मेरा नहीं
है, तो तुम्हारी
मर्जी। नहीं
होगा। लेकिन
मैंने
तुम्हारी आंखों
में देखना बंद
कर दिया है।
....और वह
फकीर कहने लगा
कि मैं तुमसे
भी कहता हूं कि
कब वह दिन
आयेगा कि तुम
दूसरों की आंखों
में देखना बंद
करणैं, और
अपनी तरफ
देखना शुरू
करोगे....?
यह
दूसरा सूत्र
आपसे कहना
चाहता हूं
जीवन क्रांति
का कि मत देखो
दूसरों की आंखों
में कि आप
क्या हैं।
वहां
जो भी तसवीर
बन गयी है, वह
आपके
वस्त्रों की
तसवीर है, वह
आपकी दिखावट
है, वह
आपका नाटक है,
वह आपकी एक्टिंग
है-वह आप नहीं
हैं, क्योंकि
आप कभी प्रगट
ही न हो सके, जो आप हैं, तो उसकी
तसवीर कैसे
बनेगी! वहां
तो आपने जो दिखाना
चाहा है, वह
दिख रहा है।
भीड़ से
बचना धार्मिक
आदमी का पहला
कर्त्तव्य है, लेकिन
भीड़ से बचने
का मतलब यह
नहीं है कि आप
जंगल में भाग
जायें। भीड़ से
बचने का मतलब
क्या है?
समाज
से मुक्त होना
धार्मिक आदमी
का पहला लक्षण
है,
लेकिन समाज
से मुक्त होने
का क्या मतलब
है? समाज
से मुक्त होने
का मतलब यह
नहीं है कि
आदमी भाग जाये
जंगल में। वह
समाज से मुक्त
होना नहीं है।
वह समाज की ही
धारणा है
संन्यासी के
लिये कि जो
आदमी समाज
छोड्कर भाग
जाता है, वह
उसको ही आदर
देता है। यह
समाज से भागना
नहीं है। यह
तो समाज की ही
धारणा को
मानना है। यह
तो समाज के ही
दर्पण में
अपना चेहरा
देखना है।
गेरुए
वस्र पहन
कर खड़े हो
जाना
संन्यासी हो
जाना नहीं है।
वह तो समाज की आंखों
में,
समाज के
दर्पण में
अपना
प्रतिबिंब
देखना है।
क्योंकि अगर
समाज गेरुए
वस्त्र को आदर
देना बंद कर
दे, तो मैं
गेरुआ वस्त्र
नहीं पहनूंगा।
अगर
समाज आदर देता
है एक आदमी
को-पत्नी और
बच्चों को
छोड्कर भाग
जाने को-तो
आदमी भाग जाता
है। यहां भी
वह समाज की आंखों
में देख रहा
है। .....नहीं, यह
समाज को छोड़ना
नहीं है।
समाज
को छोड़ने का
अर्थ है-समाज
की आंखों में
अपने
प्रतिबिंब को
देखना बंद कर
दें।
अगर
जीवन में कोई
भी क्रांति
चाहिये, तो
लोगों की आंखों
में देखना बंद
कर दें। भीड़
के दर्पण में
देखना बंद कर
दें।
धोखे
के क्षण में
वहां वस्त्र
दिखायी पड़ते
हैं। लेकिन
दुनिया में वस्रों की
ही कीमत है।
और अगर बाहर
की यात्रा
करनी है, तो
फिर मेरी बात
कभी मत मानना।
नहीं तो बाहर
की यात्रा
बहुत मुश्किल
हो जायेगी। इस
दुनिया में
वस्त्रों की
ही कीमत है, आत्माओं की
कीमत नहीं है।
मैंने सुना है,
कवि गालिब
को एक दफा बहादुरशाह
ने भोजन का
निमंत्रण
दिया था।
गालिब था गरीब
आदमी।
और
अब तक ऐसी दुनिया
नहीं बन सकी
है कि कवि के
पास भी
खाने-पीने को
पैसा हो सके।
अब तक ऐसा ' हो
सका है। अच्छे
आदमी को रोजी
जुटानी अभी भी
बहुत मुश्किल
है।
गालिब
तो गरीब आदमी
था। कविताएं
लिखी थीं, ऊँची
कविताएं लिखने
से क्या होता
है? कपड़े
उसके
फटे-पुराने थे।
मित्रों ने
कहा, बादशाह
के यहां जा
रहे हो तो इन
कपड़ों से नहीं
चलेगा।
क्योंकि
बादशाहों के
महल में तो
कपड़े पहचाने
जाते हैं।
गरीब के घर
में तो बिना
कपड़ों के भी
चल जाये, लेकिन
बादशाहों के महल
मैं तो कपड़े
ही पहचाने
जाते हैं।
मित्रों ने
कहा, हम
उधार कपड़े ला
देते हैं, तुम
उन्हें पहनकर
चले जाओ। जरा
आदमी तो मालूम
पड़ोगे।
गालिब
ने कहा, ‘‘उधार
कपड़े! यह तो
बडी बुरी बात
होगी कि मैं
किसी और के
कपड़े पहनकर
जाऊं। मे जैसा
हूं, हूं।
किसी और के
कपड़े पहनने से
क्या फर्क पड़
जायेगा? मैं
तो वही रहूंगा।''
मित्रों
ने कहा, ‘‘छोड़ो
भी यह फिलासफी
की बातें। इन
सब बातों से
वहां नहीं
चलेगा। हो
सकता है, पहरेदार
वापस लौटा
दें! इन कपड़ो
में तो
भिखमंगों
जैसा मालूम
पड़ते हो। ' ?'
गालिब
ने कहा, मैं
तो जैसा हूं
हूं। गालिब को
बुलाया है
कपड़ों को तो
नहीं बुलाया?
तो गालिब
जायेगा।
….. नासमझ
था-कहना चाहिए,
नादान, नहीं
माना गालिब, और चला गया।
दरवाजे
पर द्वारपाल
ने बंदूक आड़ी
कर दी। पूछा
कि,
कहां भीतर
जा रहे हो? ''
गालिब
ने कहा, 'मैं
महाकवि गालिब
हूं। सुना है
नाम कभी? सम्राट
ने बुलाया
है-सम्राट का मित्र
हूं, भोजन
पर बुलाया है।
द्वारपाल
ने कहा- ‘‘हटो
रास्ते से।
दिन भर में जो
भी आता है, अपने
को सम्राट का
मित्र बताता
है! हटो।। मै।
से, नहीं
तो उठाकर बंद
करवा दूंगा। ''
गालिब
ने कहा, 'क्या
कहते हो, मुझे
पहचानते नहीं?
‘'द्वारपाल
ने कहा, 'तुम्हारे
कपड़े बता रहे
है तुम कौन हो!
फटे जूते बता
रहे हैं कि
तुम कौन हो!
शक्ल देखी है
कभी आइने
में कि तुम
कौन है?'
गालिब
दुखी होकर
वापस लौट आया।
मित्रों से
उसने कहा, ‘‘तुम
ठीक ही कहते
थे, वहां
कपड़े पहचान जाते
हैं। ले आओ
उधार कपड़े। '' मित्रों ने
कपड़े लाकर
दिये। उधार
कपड़े पहनकर
गालिब फिर
पहुंच गया।
वहीं
द्वारपाल
झुक-झुक कर
नमस्कार करने
लगा। गालिब
बहुत हैरान
हुआ कि 'कैसी
दुनिया है?
'भीतर
गया तो बादशाह
ने कहा, बडी
देर से
प्रतीक्षा कर
रहा हूं।
गालिब
हंसने लगा, कुछ
बोला नहीं। जब
भोजन लगा दिया
गया तो सम्राट
खुद भोजन के
लिए सामने
बैठा- भोजन
कराने के लिए।
गालिब ने भोजन
का कौर बनाया
और अपने कोट
को खिलाने लगा
कि, ‘‘ए कोट खा
! 'पगड़ी को खिलाने
लगा कि 'ले पगड़ी खा! '
सम्राट
ने कहा, ''आपके
भोजन करने की
बड़ी अजीब
तरकीबें
मालूम पड़ती
हैं। यह
कौन-सी आदत है '
यह आप क्या
कर रहे हैं?''
गालिब
ने कहा, ‘‘जब
मैं आया था तो
द्वार से ही
लौटा दिया गया
था। अब कपड़े
आये हैं उधार।
तो जो आए हैं, उन्हीं को
भोजन भी करना
चाहिए! ''
बाहर
की दुनिया में
कपड़े चलते हैं।....
बाहर की
दुनिया में
कपड़े ही चलते
हैं। वहां
आत्माओं का चलना
बहुत मुश्किल
है;
क्योंकि
बाहर जो भीड़
इकट्ठी है, वह कपड़े
वालों की भीड़
है। वहां आत्मा
को चलाने की
तपश्चर्या
हो जाती है।
लेकिन
बाहर की दुनिया
में जीवन नहीं
मिलता। वहां
हाथ में कपड़ों
की लाश रह
जाती है, अकेली।
वह।
जिंदगी
नहीं मिलती है।
वहां आखिर में
जिंदगी की कुल
सम्पदा राख
होती है-जली
हुई। मरते
वक्त अखबार की
कटिंग रख लेनी
है साथ में, तो
बात अलग है।
अखबार में
क्या-क्या छपा
था, उसको
साथ रख ले कोई,
तो बात अलग
है।
जीवन
की ओर वही मुड़
सकते हैं, जो
दूसरों की आंखों
में देखने की
कमजोरी छोड़ देते
हैं और अपनी आंखों
के भीतर
झांकने का
साहस जुटाते
हैं।
इसलिए
दूसरा सूत्र
है,
' भीड़ से
सावधान। ' बीवेअर
ऑफ द क्राउड।
चारों
ओर से आदमी की
भीड़ घेरे हुए
है। और जिंदा
लोगों की भीड़
ही नहीं घेरे
हुए हैं, मुर्दा
लोगों की भीड़
भी घेरे हुए
है।
करोड़ों-करोड़ों
वर्षों से जो
भीड़ इकट्ठी
होती चली गयी
है दुनिया में,
उसका दबाव
है चारों तरफ
और एक-एक आदमी
की छाती पर वह
सवार है, और
एक-एक आदमी
उसकी आंखों
में देखकर
अपने को बना
रहा है, सजा
रहा है। वह
भीड़ जैसा कहती
है, वैसा
होता चला जाता
है। इसलिए
आदमी को अपनी आंख
का कभी
खयाल ही पैदा
नहीं हो पाता।
उसके जीवन के
बीज में कभी
अंकुर ही नहीं
आ पाता।
क्योंकि वह
कभी अपने बीज
की तरफ ध्यान
ही नहीं देता।
बीज की तरफ
उसकी आंख ही नहीं
उठ पाती। उसके
प्राणों की
धारा कभी
प्रवाहित ही
नहीं होती बीज
की तरफ।
जिन्हें
भी भीतर की
तरफ जाना है, उन्हें
पहले बाहर की
चिंता छोड़
देनी पड़ती है।
कौन क्या कहता
है, कौन
क्या सोचता
है-इसकी
चिन्ता छोड़
देनी पड़ती है।
नहीं, सवाल
यह नहीं है कि
कौन क्या
सोचता है।
सवाल यह है कि 'मैं क्या
हूं? और
मैं क्या
जानता हूं? अगर जीवन
में क्रांति
लानी है तो
सवाल यह है कि 'मैं क्या
हूं?' मैं
क्या पहचानता
हूं अपने को?' और स्मरण
रहे, जो
आदमी अपने
भीतर पहचानना
शुरू करता है,
उसके भीतर
बदलाहट उसी
क्षण शुरू हो
जाती है।
क्योंकि भीतर
जो गलत है, उसे
पहचानकर
बर्दाश्त
करना मुश्किल
है, असंभव
है। अगर पैर
में कांटा गड़ा
है, तो वह तभी
तक गड़ा रहा
सकता है, जब
तक उसका मुझे
पता नहीं है।
जैसे ही मुझे
पता चलता है, पैर से
कांटे को
निकालना
मजबूरी हो
जाती है।
एक
बच्चा स्कूल
में मैदान में
खेल रहा
है-हाकी खेल
रहा है। पैर
में चोट लग
गयी है, खून
बह रहा है।
उसे पता भी
नहीं चला, क्योंकि
वह हाकी खेलने
में संलग्न
है, आक्युपाइड है। उसकी
सारी अटेंशन,
उसका सारा
ध्यान, हाकी
खेलने में लगा
है वह जो गोल
करना है, उस
पर अटका हुआ
है। वह जो
चारों तरफ खिलाड़ी
हैं, उनसे
अटका हुआ है; वह जो
प्रतियोगिता
चल रही है, उसमें
उलझा हुआ है।
उसे पता भी
नहीं है कि
उसके पैर से
खून बह रहा है।
वह दौड
रहा है, दौड़
रहा है। फिर
खेल बंद हो
गया है और
अचानक उसे
खयाल आया है
कि पैर से खून
बह रहा है। यह
खून बहुत देर
से बह रहा है, लेकिन अब तक
उसे पता नहीं
चला। अब वह
मलहम-पट्टी की
चिंता में पड़
गया है। लेकिन
इतनी देर तक
उसे पता नहीं
चला! क्योंकि जब
तक वह खेल में
व्यस्त था, तब तक पता
चलने का सवाल
ही नहीं था।
हम
बाहर देख रहे
हैं। गोल करना
है,
वह देख रहे
हैं।
प्रतियोगिता
चल रही है, वह
देख रहे हैं।
लोगों की आंखों
में देख रहे
हैं। हमें पता
ही नहीं चलता
कि भीतर कितने
कांटे हैं और
कितने घाव हैं।
भीतर पता ही
नहीं चलता, कितना
अंधकार है!
भीतर पता ही
नहीं चलता, कितनी
बीमारियां
हैं! उलझे
रहेंगे और
उलझे रहेंगे।
जिंदगी बीत
जायेगी और पता
नहीं चलेगा।
एक बार हटायें आंख
बाहर से और
भीतर के घावों
को देखें! और
मैं आपसे कहता
हूं उन्हें
देखना उनके
बदलने का पहला
सूत्र है। एक
बार दिखायी
पड़ा कि फिर आप
उन्हें
बर्दाश्त
नहीं कर सकते।
फिर आपको
बदलना ही
पड़ेगा।
और
बदलना कठिन
नहीं है। जो
दुख दे रहा है, उसे
बदलना कभी भी
कठिन नहीं
होता, सिर्फ
भुलाये
रखना आसान
होता है।
बदलना कठिन
नहीं है, लेकिन
भुलाये
रखना बहुत
आसान है। और
जब तक भूला
रहेगा, तब
तक जीवन में
कोई क्रांति
नहीं होगी।
जीवन
क्रांति का
दूसरा सूत्र
है,
'मैं दूसरों
की आंखों में
न देखूं। '
अपनी आंख
में, अपने
भीतर, अपनी
तरफ, मै
जहां हूं-वहां
देखूं-यही
असली सवाल है,
यही असली
समस्या है
व्यक्ति के
सामने कि 'मैं
क्या हूं? जैसा
भी मैं है
उसको ही देखना
और
साक्षात्कार करना
है।
लेकिन
हम?
कोई हमसे
पूछेगा- आप
कौन हैं? तो
हम कहेंगे- 'फलां आदमी
का बेटा हूं
फलां मोहल्ले
में रहता हूं
फलां गांव में
रहता हूं, -यही
परिचय है
हमारा। यह
लेबल जो हम
ऊपर से
चिपकाये हुए
दें, यत।
हमारी पहचान
है, यही
हमारी जिंदगी
का सबूत
है-हमारी
जिंदगी का प्रमाण
है! यही हमारी
जानकारी है
अपने बाबत।
हमें पता ही
नहीं है कि
भीतर हम कौन
हैं! अभी तक हम
बाहर से कागज
चिपकाये हुए
हैं। और वे भी
दूसरों के
चिपकाये हुए
हैं। किसी ने
एक नाम चिपका
दिया है। उसी
नाम को जिंदगी
भर लिए हम घूम
रहे है। उस
नाम को कोई
गाली दे दे,
तो लड़ने को
तैयार हो जाते
हैं।
स्वामी
राम अमेरिका
गये थे। वहां
के लोग बड़ी मुश्किल
में पड़ गये।
एक बार राम को
कुछ लोगों ने
गालियां देने लगे, तो
राम ने मित्रों
को आकर कहा कि
आज बड़ा मजा हो
गया। बाजार
में कुछ लोग
मिल गये और
राम अच्छी
गालियां देने
लगे। हम भी
खड़े सुनते रहे।
लोगों
ने कहा, 'क्या
आप पागल हो
गये हैं। लोग
राम को
गालियां देते
थे? कौन
राम?
स्वामी
राम ने कहा, 'यह
राम जिसको लोग
राम कहते हैं।
कुछ लोगों ने
इस राम को घेर
लिया और लेगे
बहुत गालियां
देने लगे। हम
खड़े होकर
देखते रहे कि
आज राम को
अच्छी गालियां
पड़ रही हैं।
लेकिन
हम राम होकर
झगड़े में पड़े
हैं। पर हम
राम नहीं हैं।
हम तो जो हैं, उसका
नाम तो राम
नहीं है। यह
नाम तो किसी
का दिया हुआ
है। यह तो
समाज का दिया
हुआ है। हम तो
कुछ और हैं।
जब नाम नहीं
था, तब भी
हम थे। जब नाम
नहीं रह
जायेगा, तब
भी हम होंगे।
अभी भी
रात सो जाते
हैं,
तो नाम मिट
जाता है-समाज
भी मिट जाता
है, फिर भी
हम सोते हैं।
आप मिट
जाते हैं रात, न
पत्नी रह जाती
है आपकी, न
बेटा रह जाता है
आपका-न
धन-दौलत रह
जाती है-न पद
प्रतिष्ठा रह
जाती है, फिर
भी आप रह जाते
हैं, जब कि
सब मिट जाता
है। वह जो
सोसायटी देती
है, वह
बाहर ही छूट
जाता है, वह
भीतर जाता ही
नहीं। वह मरने
के वक्त भी भीतर
नहीं आता- और
ध्यान वक्त
भीतर नहीं
जाता। वह जो
समाप्त होता
है, वह
बाहर है, और
बाहर ही रह
जाता है।
लेकिन उसको हम
अपना
व्यक्तित्व
समझे हुए हैं!
इस भूल से
मुक्त हो जाना
चाहिए।
अन्यथा कोई
व्यक्ति जीवन
की यात्रा पर
एक कदम आगे
नहीं बढ़ सकता
है।
सुबह
मैंने एक
सूत्र कहा है
कि 'सिद्धात्तों से मुक्त हो
जायें', क्योंकि
जो सिद्धान्तों
से बंधा है, वह जीवन
क्रांति के
रास्ते पर
नहीं जा
पायेगा।
दूसरा
सूत्र कहता
हूं '
भीड़ से
मुक्त हो जाना
है', क्योंकि
जो भीड़ का
गुलाम है, वह
कभी भी जीवन
क्रांति के रास्ते
से नहीं गुजर
सकता।
आने
वाले दिनों
में कुछ और
सूत्र भी
कहूंगा, लेकिन
उन सूत्रों को
सुनने भर से
कुछ होने वाला
नहीं है।
थोड़ा-सा भी
प्रयोग
करेंगे, तो
द्वार खुलेगा;
कुछ दिखायी
पड़ना शुरू
होगा।
धर्म
एक वैज्ञानिक
प्रक्रिया है।
धर्म एक जीवित
वितान है।
जो
प्रयोग करता
है,
वह
रूपांतरित हो
जाता है और
उपलब्ध होता
है वह सब, जिसे
पाये बिना हम
व्यर्थ जीते
हैं और व्यर्थ
मर जाते हैं; और जिसे पा
लेने पर जीवन
एक धन्यता हो
जाती है; और
जिसे पा लेने
पर जीवन
कृतार्थ हो
जाता है; और
जिसे पा लेने
पर सारा जगत
परमात्मा में
रूपांतरित हो
जाता है।
लेकिन
जिस दिन भीतर
दिखायी पड़ता
है कि भीतर परमात्मा
है,
उसी दिन यह
श्रम भी मिट
जाता है कि
बाहर कोई और है।
बस, फिर तो
सिर्फ 'वही'
रह जाता है।
जो भीतर
दिखायी पडता
है, वही
बाहर भी
प्रमाणित हो
जाता है। और
जगत के मूल
सत्य को जान
लेना, जीवन
को अनुभव कर
लेना है। और
जीवन को अनुभव
कर लेना, मृत्यु
के ऊपर उठ
जाना है। फिर
कोई मृत्यु
नहीं है। जीवन
की कोई मृत्यु
नहीं है।
जो
मरता है, वह
समाज के
द्वारा दिया
गया झूठा
व्यक्तित्व है।
जो मरता है, वह प्रकृति
के द्वारा
दिया गया झूठा
शरीर है। जो
नहीं मरता है,
वह जीवन है।
लेकिन उसका
हमें कोई पता
नहीं है! पहले
समाज से
हटें-समाज के
झूठे
व्यक्तित्व
से हटें।
फिर
प्रकृति के
दिये गये
व्यक्तित्व
से हटें। उसकी
कल मैं बात
करूंगा कि
प्रकृति के
दिये गये शरीर
से कैसे
हटें; और
फिर हम वहां
पहुंच सकते
हैं, जहां
जीवन है। मेरी
बातों को इतने
प्रेम और
शांति से सुना,
उससे बहुत
अनुगृहीत हूं।
और अंत में
सबके भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
'जीवन-क्रांति
के सूत्र',
बड़ौदा,
13 फरवरी
1969 संध्या
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