दमन से मुक्ति—सत्तरवां प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन
'जीवन
क्रांति के
सूत्र' -इस
परिचर्चा के
तीसरे सूत्र
पर आज चर्चा
करनी है।
पहला
सूत्र था :
सिद्धांत शाख
और वाद से
मुक्ति।
दूसरा
सूत्र था भीड़
से,
समाज
से-दूसरों से
मुक्ति।
और आज
तीसरे सूत्र
पर चर्चा करनी
है। इस तीसरे
सूत्र को
समझने वो लिए
मन का एक
अद्भुत राज समझ
लेना आवश्यक
है। मन की वह
बड़ी अद्भुत
प्रक्रिया है, जो
साधारणत:
पहचान में
नहीं आती।
और वह
प्रक्रिया यह
है कि मन को
जिस ओर से
बचाने की
कोशिश की जाये, मन
उसी ओर जाना
शुरू हो जाता
है; जहां
से मन को
हटाया जाये, मन वहीं
पहुंच जाता है;
जिस तरफ से
पीठ की जाये, मन उसी ओर
उपस्थित हो
जाता है।
'निषेध'
मन के लिए
निमंत्रण है,
'विरोध' मन
के लिए बुलावा
है। और मनुष्य
जाति इस मन को बिना
समझे आज तक
जीने की कोशिश
करती रही है!
फ्रायड
ने अपनी जीवन
कथा में एक
छोटा-सा उल्लेख
किया है। उसने
लिखा है कि एक
बार वह बगीचे
में अपनी पली
और छोटे बच्चे
के साथ घूमने
गया। देर तक
वह पत्नी से बातचीत
करता रहा, टहलता
रहा। फिर जब
सांझ होने लगी
और बगीचे के द्वार
बंद होने का
समय करीब हुआ,
तो फ्रायड
की पत्नी को
खयाल आया कि 'उसका बेटा
न-मालूम कहां
छूट गया है? इतने बड़े
बगीचे में वह
पता नहीं कहां
होगा? द्वार
बंद होने के
करीब हैं, उसे
कहां खोजूं?' फ्रायड की
पत्नी चिंतित
हो गयी, घबड़ा
गयी।
फ्रायड
ने कहा, ‘‘घबड़ाओ
मत! एक प्रश्र
मैं पूछता है
तुमने उसे कहीं
जाने से मना
तो नहीं किया?
अगर मना
किया है तो सौ
में
निन्यानबे
मौके तुम्हारे
बेटे के उसी
जगह होने के
हैं, जहां
जाने से तुमने
उसे मना किया
है।
''उसकी
पत्नी ने कहा,
‘‘मना तो
किया था कि
फव्वारे पर मत
पहुंच जाना।'
फ्रायड
ने कहा, '' अगर
तुम्हारे
बेटे में थोड़ी
भी बुद्धि है,
तो वह
फव्वारे पर ही
मिलेगा। वह
वहीं होगा। क्योंकि
कई बेटे ऐसे
भी होते हैं, जिनमें
बुद्धि नहीं
होती। उनका
हिसाब रखना फिजूल
है। '' फ्रायड
की पत्नी बहुत
हैरान हो गयी।
वे गये दोनों
भागे हुए
फव्वारे की
ओर। उनका बेटा
फव्वारे पर
पानी में पैर
लटकाए बैठा
पानी से खिलवाड़
कर रहा था।
फ्रायड
की पत्नी ने
कहा,
‘‘बड़ा आश्चर्य!
तुमने कैसा
पता लगा लिया
कि हमारा बेटा
यहां होगा? फ्रायड
ने कहा, ''आश्रर्य इसमें कुछ
भी नहीं है।
मन को जहां
जाने से रोका
जाये, मन
वहीं जाने के
लिए आकर्षित
होता है। जहां
के लिए कहा
जाये, मत
जाना वहां, एक छिपा हुआ
रहस्य शुरू हो
जाता है कि मन
वहीं जाने को
तत्पर हो
जाता है।
'' फ्रायड
ने कहा, यह
तो आश्चर्य
नहीं है कि
मैंने तुम्हारे
बेटे का पता
लगा लिया, आश्चर्य
यह है कि
मनुष्य-जाति
इस छोटे-से
सूत्र का पता
अब तक नहीं
लगा पायी। और
इस छोटे-से
सूत्र को बिना
जाने जीवन का
कोई रहस्य कभी
उदघाटित
नहीं हो पाता।
इस छोटे-से
सूत्र का पता
न होने के
कारण
मनुष्य-जाति
ने अपना सारा
धर्म; सारी
नीति, सारे
समाज की
व्यवस्था
सप्रेशन पर, दमन पर खड़ी
की हुई है।
मनुष्य
का जो
व्यक्तित्व
हमने खड़ा किया
है,
वह दमन पर
खड़ा है, दमन
उसकी नींव है।
और दमन
पर खड़ा हुआ
आदमी लाख उपाय
करे, जीवन
की ऊर्जा का
साक्षात्कार
उसे कभी नहीं
हो सकता है।
क्योंकि
जिस-जिस का
उसने दमन किया
है, मन में
वह उसी से
उलझा-उलझा
नष्ट हो जाता
है। थोड़ा सा
प्रयोग करें
और पता चल
जायेगा। किसी
बात से मन को
हटाने की
कोशिश करें और
पायेंगे मन उसी
बात के आसपास
घूमने लगा है।
किसी बात को भूलने
की कोशिश करें,
तो भूलने की
वही कोशिश उस
बात को स्मरण
करने का आधार
बन जाती है।
किसी बात को, किसी विचार
को, किसी
स्मृति को, किसी इमेज
को, किसी
प्रतिमा को मन
से निकालने की
कोशिश करें, और मन उसी को
पकड़ लेता है।
भीतर, मन
में लड़े और आप
पायेंगे कि
जिससे आप लड़ेगें,
उसी से हार
खायेंगे; जिससे
भागेंगे, वही
पीछा करेगा।
जैसे छाया
पीछा कर रही
है। जितनी
तेजी से भागते
हैं, छाया
उतनी ही तेजी
से पीछा करती
है।
मन को
हमने
जहां-जहां से
भगाया है, मन
वहीं-वहीं
हमें ले गया
है; जहां-जहां
जाने से हमने
उसे इंकार
किया है, जहां-जहां
जाने से हमने
द्वार बंद
किये हैं, मन
वहीं-वहीं
हमें ले गया
है।
क्रोध
से लड़े-और मन
क्रोध के पास
ही खड़ा हो जायेगा; हिंसा
से लड़े-और मन
हिंसक हो
जायेगा। मोह
से लड़े-और मन
मोह मस्त हो
जायेगा। लोभ
से लड़े- और मन लोभ
में गिर
जायेगा। धन से
लड़े-और मन धन
के प्रति ही
पागल हो
उठेगा। काम से
लड़ने वाला मन,
सेक्स से
लड़ने वाला मन,
सेक्स में
चला जायेगा।
जिससे लड़ेंगे
मन वही हो
जायेगा। यह
बड़ी अदभुत बात
है। जिसको
दुश्मन बनायेंगे,
मन पर उस
दुश्मन की ही
प्रतिच्छवि
अंकित हो जायेगी।
मित्रों
को मन भूल
जाता है, शत्रुओं
को मन कभी
नहीं भूल
पाता।
लेकिन
यह तथ्य है कि
जिससे हम लड़े, मन
उसके साथ ढल
जाये, लेकिन
उसकी शक्ल बदल
ले, नाम
बदल ले।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
बहुत क्रोधी
आदमी रहता था।
वह इतना
क्रोधी था कि
एक बार उसने
अपनी पली को
धक्का देकर
कुएं में गिरा
दिया था। जब
उसकी पली मर
गयी और उसकी
लाश कुएं से
निकाली गयी तो
वह क्रोधी
आदमी जैसे
नींद से जग
गया। उसे लगा
कि उसने
जिंदगी में
सिवाय क्रोध
के और कुछ भी
नहीं किया। इस
दुर्घटना से
वह एकदम सचेत
हो गया। उसे
बहुत पश्चाताप
हुआ।
उस
गांव में एक
मुनि आये हुए
थे। वह उनके
दर्शन को गया
और उनके चरणों
में सिर रखकर
बहुत रोया और
उसने कहा, ‘‘मैं
इस क्रोध से
कैसे छुटकारा
पाऊं? क्या
रास्ता है? मैं कैसे इस
क्रोध से बचूं?'
मुनि
ने कहा, ‘‘तुम
संन्यासी हो
जाओ। छोड़ दो
वह क्रोध, जिसे
कल तक पकड़े थे…..।‘‘
लेकिन, मजा
यह है कि जिसे
छोड़ो, वह
और भी मजबूती
से पकड़ लेता
है। लेकिन यह
थोड़ी गहरी बात
है, एकदम
से समझ में
नहीं आती....।
‘‘क्रोध
को छोड़ दो; संन्यासी
हो जाओ; शान्त
हो जाओ! अब
तो इस क्रोध
को छोड़ो! '
वह
आदमी
संन्यासी हो
गया। उसने
अपने बस फेंक
दिये और नंग
हो गया! और
उसने कहा, 'मुझे
दिक्षा दें,
मैं शिष्य
हुआ। ''
मुनि
बहुत हैरान
हुए। बहुत लोग
उन्होंने देखे
थे,
पर ऐसा
संकल्पवान
आदमी नहीं
देखा था, जो
इतनी शीध्रता
से संन्यासी
हो जाये।
उन्होंने कहा,
‘‘तू तो
अदभुत है तेरा
संकल्प महान
है। तू इतना तीव्रता
से संन्यासी
होने को तैयार
हो गया है, सब
छोड्कर! ''
लेकिन, उन्हें
भी पता नहीं
कि यह भी
क्रोध का ही
दूसरा रूप है।
वह आदमी, जो
कि अपनी पली
को क्रोध में
आकर एक क्षण
में कुएं में
धक्का दे सकता
है, वह
क्रोध में आकर
एक क्षण में
नंगा भी खड़ा
हो सकता है? संन्यासी भी
हो सकता है।
इन दोनों
बातों में विरोध
नहीं है। यह
एक ही क्रोध
के दो रूप
हैं।
तो वे
मुनि बहुत
प्रभावित हुए
उससे।
उन्होंने उसे
दीक्षा दे दी
और उसका नाम
रखा दिया-मुनि
शांतिनाथ। अब
वह मुनि
शांतिनाथ हो गया।
और भी शिष्य
थे मुनि के, लेकिन
उस शांतिनाथ
का मुकाबला
करना बहुत मुश्किल
था, क्योंकि
उतने क्रोध
में उनमें से
कोई भी नहीं था।
दूसरे शिष्य
दिन में अगर
एक बार भोजन
करते तो
शांतिनाथ दो
दिन तक भोजन
ही नहीं करते
थे....। क्रोधी
आदमी कुछ भी
कर सकता है!
दूसरे
अगर सीधे
रास्ते से
चलते, तो मुनि
शांतिनाथ
उलटे रास्ते,
कांटों से
भरे रास्ते पर
चलते! दूसरे
शिष्य अगर
छाया में
बैठते, तो
मुनि
शांतिनाथ धूप
में ही खड़े
रहते! थोड़े ही
दिनों में
मुनि
शांतिनाथ का
शरीर सुख गया, कृश हो गया, काला पड़ गया,
पैर में घाव
पड़ गये; लेकिन
उनकी कीर्ति
फैलनी शुरू हो
गयी चारों ओर,
कि मुनि शान्तिनाथ
महान तपस्वी
हैं....।
वह सब
क्रोध ही था, जो
स्वयं पर लौट
आया था। वह
क्रोध, जो
दूसरों पर
प्रगट होता
रहा था, अब
वह उत '। पर
ही प्रगट हो
रहा था।
सौ में
से निन्यानबे
तपस्वी स्वयं
पर लौटे हुए
क्रोध का
परिणाम होते
हैं। दूसरों
को सताने की
चेष्टा
रूपांतरित
होकर खुद को
सताने की चेष्टा
भी बन सकती
है। दूसरों को
भी सताया जा
सकता है और
खुद को भी
सताया जा सकता
है। सताने में
अगर रस हो, तो
स्वयं को भी
सताया जा सकता
है।
.,.. अब
उसने दूसरों
को सताना बन्द
कर दिया था, अब वह अपने
को ही सता रहा
था। और पहली
बार एक नयी
घटना घटी थी :
कि दूसरों को
सताने पर लोग
उसका अपमान
करते थे और अब
खुद को सताने
से लोग उसका सम्मान
करने लगे थे!
अब लोग उसे महातपस्वी
कहने लगे थे!
मुनि
की कीर्ति सब
ओर फैलती गयी।
जितनी उसकी कीर्ति
फैलती गयी, वह
अपने को उतना
ही सताने लगा,
अपने साथ
दुष्टता करने
लगा। जितनी
उसने स्वयं से
दुष्टता की, उतना ही
उसका सम्मान
बढ़ता चला गया।
दो-चार वर्षों
में गुरु से
ज्यादा उसकी
प्रतिष्ठा हो
गयी।
फिर
वह देश की
राजधानी में
आया..।
मुनियों को राजधानी
में जाना बहुत
जरूरी होता
है। अगर आप मुनियों
को देखना
चाहते हो, तो
हिमालय पर
जाने की कोई
जरूरत नहीं है,
देश की
राजधानी में
चले जाइए और
वहां सब मुनि और
सब संन्यासी
अड्डा जमाये
हुए मिल
जायेंगे।
….. वे
मुनि भी
राजधानी की
तरफ चले।
राजधानी में पुराना
एक मित्र रहता
था। उसे खबर
मिली तो वह बहुत
हैरान हुआ कि
जो आदमी इतना
क्रोधी था, वह शांतिनाथ
हो गया! बड़ा
समझदार है, जाऊं दर्शन
कर आऊं।
वह
मित्र दर्शन
करने आया।
मुनि अपने
तख्त पर सवार
थे। उन्होंने
मित्र को देख
लिया, मित्र
को पहचान भी
गये-लेकिन जो
लोग तख्त पर सवार
हो जाते हैं, वे कभी किसी
को आसानी से
नहीं पहचानते;
क्योंकि
पुराने दिनों
के साथी को
पहचानना ठीक
भी नहीं होता।
क्योंकि वह भी
कभी वैसे ही
रहे हैं, इसका
पता चल जाता
है।
देख
लिया, पहचाना
नहीं। मित्र
भी समझ गया कि
पहचान तो लिया
है, लेकिन
फिर भी
पहचानने में
गड़बड़ है।
आदमी ऊपर चढ़ता
ही इसलिए है
कि जो पीछे
छूट जाये, उनको
पहचाने न। और
जब बहुत से
लोग उसको
पहचानने लगते
हैं, तो वह
सबको पहचानना
बंद कर देता
है। पद के शिखर
पर चढ़ने का रस
ही यही है कि
उसे सब पहचानें,
लेकिन वह
किसी को नहीं
पहचाने।
मित्र
पास सरक आया
और उसने पूछा
कि ‘‘मुनि जी
क्या मैं पूछ
सकता हूं-
आपका नाम क्या
है?'' मुनि
जी को क्रोध आ
गया। ‘‘क्या
अखबार नहीं
पढ़ते हो, रेडियो
नहीं सुनते हो,
मेरा नाम
पूछते हो? मेरा
नाम जग-जाहिर
है, मेरा
नाम मुनि
शांतिनाथ है। ''
उनके
बताने के ढंग
से मित्र समझ
गया,
कि कोई
बदलाहट नहीं
हुई है। आदमी
तो वही का वही
है, सिर्फ
नंगा खड़ा हो
गया है।
दो
मिनट दूसरी
बात चलती रही।
मित्र ने फिर
पूछा- ‘‘महाराज,
मैं भूल
गया-आपका नाम
क्या है?'' मुनि
की आंखों से
तो आग बरसने
लगी।
उन्होंने कहा-
‘‘छू! नासमझ!
इतनी जल्दी
भूल गया। अभी
मैंने तुझसे
कहा था, मेरा
नाम मुनि
शांतिनाथ
है।... मेरा नाम
है-मुनि
शांतिनाथ। ''
दो
मिनट तक फिर
दूसरी बातें
चलती रहीं।
फिर उसने पूछा
कि ‘‘महाराज, मैं
भूल गया, आपका
नाम क्या है?'' मुनि ने
डंडा उठा लिया
और कहा, ‘‘चुप
नासमझ! तुझे
मेरा नाम समझ
में नहीं आता?
मेरा नाम है
मुनि
शांतिनाथ। ''
उस
मित्र ने कहा, '' अब
सब समझ गया
हूं। सिर्फ
वही समझ में
नहीं आया, जो
मैं पूछता
हूं। अच्छा नमस्कार!
आप वही के वही
है, कोई
फर्क नहीं
पड़ा।
दमन से
कभी कोई फर्क
नहीं आता है, लेकिन
दमन से चीजें
स्वप्न बन
जाती हैं। और
स्वप्न बन
जाना बहुत
खतरनाक है, क्योंकि
बदली हुई शक्ल
में उनको
पहचानना भी मुश्किल
हो जाता है। आदमी के
भीतर सेक्स है,
काम-वासना
है, उसे
पहचानना सरल
है; और अगर
आदमी
ब्रह्मचर्य
साधने की
जबर्दस्ती कोशिश
में लग जाये, तो उस
ब्रह्मचर्य
के पीछे भी सेक्यूअलिटी
होगी, कामुकता
होगी। लेकिन,उसको
पहचानना बहुत
मुश्किल हो
जायेगा, क्योंकि
वह अब वस्त्र
बदल कर आ
जायेगी। ब्रह्मचर्य
तो वह है, जो
चित्त के
परिवर्तन से
उपलब्ध होता
है, जो
जीवन के अनुभव
से उपलब्ध
होता है।
एक
शांति वह है, जो
जीवन की अनुभूति
से छाया की
तरह आती है और
एक शांति वह है,
जो क्रोध
दबाकर ऊपर से
थोप ली जाती
है।
जो
भीतर वासना को
दबाकर, उसकी
गर्दन को पकड
कर खड़ा हो
जाता है, ऐसा
ब्रह्मचर्य
कामुकता से भी
बदतर है; क्योंकि
कामुकता तो
पहचान में भी
आती है, पर
ऐसा
ब्रह्मचर्य
पहचान में भी
नहीं आता।
दुश्मन
पहचान में आता
हो तो उसके
साथ बहुत कुछ
किया भी जा
सकता है, और
यदि दुश्मन ही
पहचान में न आ
पाये, तब
बहुत कठिनाई
हो जाती है।
मैं
एक साध्वी के
पास समुद्र के
किनारे बैठा हुआ
था। वह साध्वी
मुझसे
परमात्मा की
और आआ की
बातें कर रही
थी....।
हम सभी
बातें
आत्मा-परमात्मा
की करते हैं, जिससे
हमारा कोई भी
संबंध नहीं
है। और जिन
बातों से
हमारा संबंध
है, उनकी
हम कोई बात
नहीं करते।
क्योंकि वे
छोटी-छोटी और
क्षुद्र
बातें है। हम
आकाश की बातें
करते हैं, पृथ्वी
की बातें नहीं
करते। जिस
पृथ्वी पर चलना
पडता है-और जिस
पृथ्वी पर
जीना पड़ता है-
और जिस पृथ्वी
पर जन्म होता
है- और जिस
पृथ्वी पर लाश
गिरती है अंत
में, उसे
पृथ्वी की हम
बात नहीं
करते! हम बात
आकाश की करते
है, जहां न
हम जी रहे हैं,
न रह रहे है!
हम दोनों
आत्मा-परमात्मा
की बात कर रहे
थे....।
आत्मा-परमात्मा
की बात आकाश
की बात है।
….. कि
हवा का एक
झोंका आया और
मेरी चादर
उड़ी और साध्वी
को छू गयी, तो
वह एकदम घबड़ा
गयी। मैंने
पूछा, ‘‘क्या
हुआ?''
उसने
कहा,
''पुरुष की
चादर! पुरुष
की चादर छूने
का निषेध है।''
मैं तो
बहुत हैरान
हुआ। मैंने
कहा,
‘‘क्या चादर
भी पुरुष और
सी हो सकती है?
तब तो यह
चमत्कार है!
कि चादर भी सी
और पुरुष हो सकती
है..?.। ''
लेकिन
ब्रह्मचर्य
के साधकों ने
चादर को भी स्री-पुरुष
में
परिवर्तित कर
दिया है। यह
सेक्सुअलिटी
की अति हो गयी, कामुकता
की अति हो
गयी।
.. मैंने
कहा, '' अभी
तो तुम आत्मा
की बातें करती
थीं, और
अभी तुम शरीर
हो गयीं! अभी
तुम चादर छू
जाने से चादर
हो गयीं? अभी,
थोड़े समय
पहले तो तुम
आत्मा थीं, अब तुम शरीर
हो गयी चादर
हो गयीं ''! अब
यह चादर भी
सेक्स-सिम्बल
बन गयी, अब
यह भी काम की
प्रतीक बन
गयी। हवाओं को
क्या पता कि
चादर भी पुरुष
होती है, अन्यथा
हवाएं भी
चादरों के
नियमों का
ध्यान रखतीं। यह
तो गलती हो
गयी चादर के
प्रति हवाओं
से।
वे
कहने लगीं, ‘‘प्रायश्चित
करना होगा, उपवास करना
होगा। ''
मैंने
उसे कहा, ‘‘करो
उपवास जितना
करना हो, लेकिन
चादर के
स्पर्श से
जिसको सी और
पुरुष का भाव
पैदा हो जाता
हो, उसका
चित्त
ब्रह्मचर्य
को कभी उपलब्ध
नहीं हो
सकता..। ''
लेकिन
नहीं, हम इसी
तरह के
ब्रह्मचर्य
को पकड़े
रहेंगे; इसी
तरह की झूठी
बातों को; इसी
तरह की
नैतिकता को।
इस तरह का
धर्म सब झूठा
है। दमन जहां
है, वहां
सब झूठा है।
भीतर कुछ और
हो रहा है, बाहर
कुछ और हो रहा
है।
... अब इस
साध्वी को
दिखायी ही
नहीं पड़ सकता
कि यह अति
कामुकता है।
यह रुग्ण
कामुकता हो
गयी; यह
बीमार स्थिति
हो गयी कि
चादर भी सी और
पुरुष होती
है! जिस
ब्रह्मचर्य
में पुरुष और
सी न मिट गये
हों, वह
ब्रह्मचर्य
नहीं है।
कुछ
युवा एक
रात्रि एक
वेश्या को साथ
लेकर सागर तट
पर आये। उस
वेश्या के वस
छीनकर उसे
नंगा कर दिया
और शराब पीकर
वे नाचने-गाने
लगे। उन्हें
शराब के नशे
में डूबा देखकर
वह वेश्या भाग
निकली। रात जब
उन युवकों को
होश आया, तो वे
उसे खोजने
निकले।
वेश्या तो
उन्हें नहीं
मिली, लेकिन
एक झाड़ी के
नीचे बुद्ध
बैठे हुए
उन्हें मिले।
वे उनसे पूछने
लगे ‘‘महाशय,
यहां से एक
नंगी सी को, एक वेश्या
को भागते तो
नहीं देखा? रास्ता तो
यही है। यहीं
से ही गुजरी
होगी। आप यहां
कब से बैठे
हुए हैं?''
बुद्ध
ने कहा, ‘‘यहां
से कोई गुजरा
जरूर है, लेकिन
वह सी थी या
पुरुष, यह
मुझे पता नहीं
है। जब मेरे
भीतर का पुरुष
जागा हुआ था, तब मुझे सी
दिखायी पड़ती
थी। न भी
देखूं तो भी दिखायी
पड़ती थी। बचना
भी चाहूं तो
भी दिखायी पड़ती
थी। आंखें किसी भी
जगह और कहीं
भी कर लूं तो
भी ये आंखें सी को ही
देखती थीं। लेकिन
जब से मेरे
भीतर का पुरुष
विदा हो गया
है, तबसे
बहुत खयाल
करूं तो ही
पता चलता है
कि कौन सी है, कौन पुरुष
है। वह कौन था,
जो यहां से
गुजरा है, यह
कहना मुश्किल
है। तुम पहले
क्यों नहीं
आये? पहले
कह गये होते
कि यहां से
कोई निकले तो
ध्यान रखना, तो मैं
ध्यान रख सकता
था।
और यह
बताना तो और
भी मुश्किल है
कि जो निकला
है,
वह नंगा था
या वस्त्र
पहने हुए था।
क्योंकि, जब
तक अपने नंगेपन
को छिपाने की
इच्छा थी, तब
तक दूसरे के नंगेपन को
देखने की भी
बड़ी इच्छा थी।
लेकिन, अब
कुछ देखने की
इच्छा नहीं रह
गयी है। इसलिए,
खयाल में
नहीं आता कि
कौन क्या पहने
हुए है....। '' दूसरे
में हमें वही
दिखायी देता
है, जो
हममें होता
है। दूसरे में
हमें वही
दिखायी देता
है, जो
हममें है। और
दूसरा आदमी एक
दर्पण की तरह
काम करता है, उसमें हम ही
दिखायी पड़ते
हैं।
बुद्ध
कहने लगे, '' अब
तो मुझे याद
नहीं आता, क्योंकि
किसी को नंगा
देखने की कोई
कामना नहीं
है। मुझे पता
नहीं कि वह
कपड़े पहने थी
या नहीं पहने
थी। '' वे
युवक कहने लगे,
‘‘हम उसे
लाये थे अपने
आनंद के लिए।
लेकिन, वह
अचानक भाग गयी
है। हम उसे
खोज रहे हैं। ''
बुद्ध
ने कहा, ‘‘तुम
जाओ और उसे
खोजो। भगवान
करे, किसी
दिन तुम्हें
यह खयाल आ
जाये, कि इतनी
खूबसूरत और
शांत रात में
अगर तुम किसी
और को न खोज कर
अपने को खोजते,
तो तुम्हें
वास्तविक
आनंद का पता
चलता। लेकिन,
तुम जाओ और
खोजो दूसरों
को। मैंने भी
बहुत दिन तक
दूसरों को
खोजा, लेकिन
दूसरों को
खोजकर मैंने
कुछ भी नहीं
पाया। और जब
से अपने को
खोजा, तब
से वह सब पा
लिया है, जिसे
पाकर कोई भी
कामना पाने की
शेष नहीं रहती।
'' यह बुद्ध
ब्रह्मचर्य
में रहे
होंगे। लेकिन,
चादर पुरुष
हो जाये तो
ब्रह्मचर्य
नहीं है।
और यह
दुर्भाग्य है
कि दमन के
कारण सारे देश
का
व्यक्तित्व
कुरूप, विकृत,
परवटेंड हो
गया है। एक-एक
आदमी भीतर
उलटा है, बाहर
उल्टा है।
भीतर आत्मा
शीर्षासन कर
रही है। भीतर
हम सब सिर के
बल खड़े हुए
है। जो नहीं
है भीतर, वह
हम बाहर दिखला
रहे हैं। और
दूसरे धोखे
में आ जायें, इससे कोई
बहुत हर्जा
नहीं है; स्वयं
ही धोखा खा
जाते हैं।
लम्बे अर्से
में हम यह भूल
ही जाते हैं कि
हम यह क्या कर
रहे हैं।
दमन, मनुष्य
की आत्मा की
असलियत को
छिपा देता है
और झूठा आवरण
पैदा कर लेता
है। और, फिर
इस दमन में हम,
जिंदगी भर
जिसे दमन किया
है, उससे
ही लड़कर
गुजारते हैं।
ब्रह्मचर्य
की साधना करने
वाला आदमी
चौबीस घंटे
सेक्स सेंटर
में ही जिंदगी
व्यतीत करता
है। उपवास
करने वाला
चौबीस घंटे
भोजन करता है।
आपने कभी
उपवास किया हो
तो आपको पता
होगा।
उपवास
करें और चौबीस
घंटे भोजन
करना पड़ेगा। हां, भोजन
मानसिक होगा,
शारीरिक
नहीं। लेकिन,
शारीरिक
भोजन का कुछ
फायदा भी हो
सकता है, मानसिक
भोजन का सिवाय
नुकसान के और
कोई भी फायदा
नहीं है।
जिसने दिन भर
खाना नहीं
खाया है, वह
दिन भर खाने
की इच्छा से
भरा हो, यह
स्वाभाविक
है।
नहीं, उपवास
का यह अर्थ
नहीं है कि
आदमी खाना न
खाये। उपवास
का अर्थ
अनाहार नहीं
है। अनाहार
करने वाला दिन
भर आहार करता
है। उपवास का
अर्थ दूसरा
है। दमन नहीं
है उपवास का
अर्थ; लेकिन
दमन ही उसका
अर्थ बन गया
है। उपवास का
अर्थ भोजन 'न-करना' नहीं
है।
उपवास
का अर्थ है:
आत्मा के निकट
आवास।
और, आत्मा
के निकट कोई
इतना पहुंच
जाये कि उसे
भोजन का खयाल
ही न आये, तो
वह बात ही
दूसरी है; कोई
इतने भीतर उतर
जाये कि बाहर का
पता भी न चले
कि शरीर भूखा
है, वह बात
दूसरी है; कोई
इतने गहरे में
चला जाये कि
शरीर को प्यास
लगी है कि भूख
लगी है, भीतर
इसकी खबर ही न
पहुंचती हो, तो यह बात
दूसरी है।
लेकिन कोई-
भोजन नहीं छुऊंगा-ऐसा
संकल्प करके
बैठ जाये, तो
दिन भर उसको
भोजन करना
पड़ता है; वह
उपवास में
नहीं होता।
दमन, धोखा
पैदा करता है।
दमन, वह
जो असलियत
है-उपलब्धि की,
अनुभूति की;
वह जो सत्य
है, उसकी
तरफ बिना ले
जाये बाहर
परिधि पर ही
सब नष्ट करके
जबर्दस्ती
कुछ पैदा करने
की कोशिश करता
है। और यह
कोशिश बहुत
महंगी पड़ जाती
है।
हिन्दुस्तान
में ब्रह्मचर्य
की बात चल रही
है तीन-चार
हजार वर्ष से।
और इस बात को
कहने में मुझे
जरा भी अतिशयोक्ति
नहीं मालूम
पड़ती किं आज
इस पृथ्वी पर
हमसे ज्यादा
कामुक कोई
समाज नहीं है।
चौबीस घंटे हम
काम से लड़ रहे
हैं। छोटे
बच्चे से लेकर
मरते हुए बूढ़े
तक की सेक्स
से लड़ाई चल रही
है। और जिससे
हम लड़ते हैं, वही
हमारे भीतर
घाव की तरह हो
जाता है।
कोरिया
में दो फकीर
हुए हैं, मैंने
उनके जीवन के
बारे में पढ़ा
था। दो भिक्षु
एक दिन शाम
अपने आश्रम
वापस रहे हैं।
उनमें एक बूढ़ा
भिक्षु है, एक युवा
भिक्षु है।
आश्रम के पहले
ही एक छोटी-सी
पहाड़ी नदी
पड़ती है। सांझ
हो गयी है, सूरज
ढल रहा है। एक
युवती खड़ी है
उसी नदी के किनारे।
उसे भी नदी
पार होना है।
लेकिन डरती है,
क्योंकि
नदी अनजान है,
परिचित
नहीं है; पता
नहीं, कितनी
गहरी हो? इसलिए
भयभीत है।
वह
बूढ़ा भिक्षु
आगे-आगे आ रहा
है। उसको भी
समझ में पड़
गया है कि वह
सी पार होने
के लिए, शायद
किसी का सहारा
चाहती है।
बूढ़े भिक्षु
का मन हुआ है कि
हाथ से सहारा
देकर उसे नदी
पार करवा दे।
लेकिन थ का
सहारा देने का
खयाल भर ही
उसे आया है कि
भीतर वर्षों
की दबी हुई
वासना एकदम
खड़ी हो गयी
है। युवती के
हाथ को छूने
की कल्पना से
उसके भीतर, जैसे उसकी
नस-नस में, रग-रग
में बिजली दौड
गयी है। तीस
वर्ष से सी को
नहीं छुआ है
उसने। और अभी
तो सिर्फ छूने
का खयाल ही
आया है उसे, कि युवती को
हाथ का सहारा 'दे दे, लेकिन सारे
प्राण कंप गये
हैं उसके। एक
तरह के बुखार
ने उसके सारे
व्यक्तित्व
को घेर लिया
है। वह अपने
मन को समझाया
उसने कि, ‘‘यह
कैसी गंदी बात
सोची, कैसे
पाप की बात
सोची! मुझे
क्या मतलब है?
कोई नदी पार
हो या न हो, मुझे
क्या प्रयोजन
है? मैं
अपना जीवन
क्यों बिगाडू
अपनी साधना
क्यों बिगाडूं?
इतनी कीमती
साधना, तीस
वर्ष की साधना,
इस लड़की पर
लगा दूं..,। ''
बड़ी
बहुमूल्य
साधना चल रही
थी;
और ऐसी ही
बहुमूल्य
साधना के
सहारे लोग
मोक्ष तक
पहुंचना
चाहते हैं! 'ही कीमती
और मजबूत
साधना के
पुण्य पर चढ़कर
लोग परमात्मा
की यात्रा
करना चाहते
हैं!
.... आंख
बंद कर लीं थी
उसने, लेकिन
वह सी तो आंख
बंद करने पर
भी दिखायी
पड़ने लगी; बहुत जोर से
दिखाई पड़ने
लगी। क्योंकि
मन जाग गया था;
सोयी हुई
वासना जाग गयी
थी। आंख बंद
करके ही वह
नदी में
उतरा...।
अब यह
आपको पता होगा
कि जिस चीज से
आंख बंद
कर ली जाये, वह
उतनी सुंदर
कभी नहीं होती,
जितनी आंख
बंद होने पर
होती है। आंख बंद करने
से वह ज्यादा
सुंदर प्रतीत
होती है।
आंख
बंद की उसने
और वह सी
अप्सरा हो
गयी.?.!
अप्सराएं
इसी तरह पैदा
होती हैं। बंद
आंख से
वे पैदा हो
जाती है।
दुनिया
में सिर्फ
स्त्रियां
हैं,
आंख
बंद करो कि
वे ही
अप्सराएं हो
जाती है।
अप्सराएं
कहीं भी नहीं
हैं;
लेकिन आंख बंद
होते ही सी
अप्सरा हो
जाती है! मन
में एकदम से
कामुकता पैदा
हो जाती है; फूल खिल
जाते हैं; चांदनी
फैल जाती है।
एक ऐसी सुगंध
फैल जाती है
मन में, जो
सी में कहीं
भी नहीं है; जो सिर्फ
आदमी की
काम-वासना के
सपने में होती
है। आंखें बंद
करते ही सपना
शुरू हो जाता
है।
.... अब वह
भिक्षु उस सी
को ही देख रहा
है। अब एक ड्रीम,
एक सपना
शुरू हो गया
है। अब वह सी
उसे बुला रही है।
उसका मन कभी
कहता है कि यह
तो बड़ी बुरी
बात है कि
किसी असहाय सी
को सहारा न
दो। फिर तत्काल
उसका दूसरा मन
कहता है कि यह
सब बेईमानी है,
अपने को
धोखा देने की
तरकीब कर रहे
हो। यह सेवा
वगैरह नहीं है,
तुम सी को
छूना चाहते
हो...।
बड़ी
मुश्किल है स्त्री।
साधुओं की बड़ी
मुश्किल होती
है। काम है भीतर, तनाव
है भीतर। सारा
प्राण पीछे
लौट जाना चाहता
है, और वह
दमन करने वाला
मन आगे चले
आना चाहता है।
नदी के छोटे-से
घाट पर वह
आदमी भीतर दो
हिस्सों में बंट
गया है; एक
हिस्सा आगे जा
रहा है, एक
हिस्सा पीछे
जा रहा है।
उसकी अशांति,
उसका टेंशन,
उसकी तकलीफ,
भारी हो गयी
है। आधा
हिस्सा इस तरफ
जा रहा है, आधा
हिस्सा उस तरफ
जा रहा है।
किसी तरह
खींच-तान कर
वह पार हुआ
है। आंख खोलकर
देखना चाहता
है, लेकिन
बहुत डरा हुआ
है। भगवान का
नाम लेता है, जोर-जोर से
भगवान का नाम
लेता है-नमो: बुद्धाय, नमो: बुद्धाय...!
भगवान का नाम
आदमी जब भी
जोर-जोर से ले,
तब समझ लेना
कि भीतर कुछ
गड़बड़ है। भीतर
की गड़बड़ को
दबाने के लिए
आदमी जोर-जोर
से भगवान का
नाम लेता है।
आदमी
को ठंड लग रही
है,
नदी में
नहाते वक्त, तो 'सीता-राम,
सीता-राम ' का जाप करने
लगता है।
बेचारे
सीता-राम को
क्यों तकलीफ
दे रहे हो! पर
वह ठंड जो लग
रही है। सीता-राम
उस ठंड को
भुलाने की
तरकीब है।
अंधेरी गली
में आदमी जाता
है और कहता है,
' अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम'! वह
अंधेरे की
घबड़ाहट से
बचने की कोशिश
है।
जो
आदमी
परमात्मा के
निकट जाता है, वह
चिल्ल-पों
नहीं करता है
भगवान के नाम
की; वह चुप
हो जाता है।
जितने भी
चिल्ल-पों और
शोर गुल मचाने
वाले लोग हैं,
समझ लेना कि
उनके भीतर कुछ
और चल रहा है; भीतर काम चल
रहा है, और
ऊपर राम का
नाम चल रहा
है।
... भीतर
उसे औरत खींच
रही है और वह
किसी तरह भगवान
का सहारा लेकर
आगे बढ़ा जा
रहा है-कि
कहीं ऐसा न हो
कि औरत मजबूत
हो जाये और
नीचे खींच ले।
और उस
बेचारी को पता
भी नहीं कि
साधु किस मुसीबत
में पड़ गया
है। वह अपने
रास्ते पर खड़ी
है। तभी उस
साधु को खयाल
आया कि पीछे
उसका जवान
साधु कहां है।
लौटकर उसने
देखा, कि उसको
सचेत कर दे, कि वह कहीं
उस पर दया
करने की भूल
में न पड जाये।
लेकिन लौटकर
उसने देखा तो
भूल हो चुकी
थी। वह जवान
भिक्षु उस औरत
को कंधे पर
लिए नदी पार कर
रहा था। वह
देखकर आग लग
गयी उस बूढ़े
साधु को।
न-मालूम
कैसा-कैसा मन
होने लगा
उसका। कई बार
उसके मन में
होने लगा कि
कितना अच्छा
होता, अगर
मैं भी उसे
कंधा लगाये
होता! फिर
उसने स्वयं को
झिड्का, 'यह क्या
पागलपन की बात,
मैं और उस
औरत को कंधे
पर ले सकता
हूं? तीस
साल की साधना
नष्ट करूंगा?
गंदगी का
ढेर है औरत का
शरीर, तो
उसको कंधे पर
लूंगा?
नर्क
का द्वार है
सी,
और उसको
कंधे पर लिया
है?'
लेकिन
वह दूसरा
भिक्षु लिए आ
रहा है। आग लग
गयी उसे! आज
जाकर गुरु को
कहूंगा कि यह
युवक, भ्रष्ट
हो गया, पतित
हो गया; इसे
निकालो आश्रम
के बाहर। ' उस
भिक्षु ने उस
युवती को
किनारे पर छोड़
दिया और अपने
रास्ते चल
पड़ा। फिर वे
दोनों चलते
रहे, लेकिन
बूढ़े ने कोई
बात न की। जब
वे आश्रम के
द्वार की ओर
बढ़ रहे थे तो
उस बूढे
भिक्षु ने सीढ़ियों
पर खड़े होकर कहा,
‘‘याद रखो, मैं चलकर
गुरु को
कहूंगा कि तुम
पतित हो चुके हो।
तुमने उस स्त्री
को कंधे पर
क्यों उठाया
न: ‘‘ वह
भिक्षु एकदम
से चौंका।
उसने कहा, ‘‘स्त्री!
उसे मैने
उठाया था और
नदी पार छोड़
भी दिया।
लेकिन ऐसा
मालूम होता है
कि आप उसे अभी
भी कंधे पर
लिए हुए हैं!'‘‘ 'यु आर स्टिल कैरिग हर
आन योर शोल्डर।
आप अभी भी ढो
रहे हैं उसे
कंधे पर! मैं
तो उसे उतार
भी आया। और आपने
तो उसे कंधे
पर कभी लिया
भी नहीं था; आप अभी तक ढो
रहे हैं? मैं
तो घंटे भर से
सोचता था कि
आप किसी ध्यान
में लीन हैं।
मुझे यह खबर
भी न थी कि आप
ध्यान कर रहे
हैं उस युवती
का-कि उस स्त्री
को नदी के पार
करा रहे है, अब तक! ''
यह तो
मैंने कहानी
सुनी थी। ठीक
ऐसी ही कहानी अभी
मेरे साथ हो
गयी है दिल्ली
में,
वह आप लोगों
को बताऊं।
एक
महिला आयी और
मुझसे उसने
पूछा, ‘‘मैं
यहां ठहर जाऊं
आपके पास?'' मैंने
कहा, ‘‘बिलकुल
ठहर जाओ।
मुझे
पता नहीं था
कि मनु भाई
पटेल को बड़ी
तकलीफ हो
जायेगी इस बात
से। अगर मुझे
पता होता तो
संसद-सदस्य को
मैं तकलीफ
नहीं देता।
मैं किसी को
तकलीफ नहीं
देना चाहता।
कहता, ‘‘देवी, तुम्हारे
ठहरने से मुझे
तकलीफ नहीं
हैं, लेकिन
मनु भाई पटेल
को, बड़ौदा वालों को
तकलीफ हो
जायेगी। और
किसी को तकलीफ
देना अच्छा
नहीं है। तो
तुम्हें
ठहरना है तो
जाओ, मनु
भाई के कमरे
में ठहर जाओ; यहां मेरे
पास किस लिए
ठहरती हो। ''
लेकिन
मुझे पता ही
नहीं था। पता
होता तो यह भूल
न होती। यह
भूल हो गयी
अज्ञान में।
वह आकर सो गई
मेरे कमरे में, लेकिन
दूसरे दिन बड़ी
तकलीफ हो गयी।
मुझे पता चला
कि मनु भाई को
और उनके
मित्रों को
बहुत कष्ट हो
गया है इस बात
से कि मेरे
कमरे में वह
सो गयी। मैं
तो हैरान हुआ
कि वह मेरे
कमरे में सोयी,
तकलीफ उनको
हो गयी!
लेकिन
आदमी कंधे पर
उन चीजों को
ढोने लगता है, जिनको
लेकर उसके
भीतर कोई लड़ाई
जारी रहती है।
पता नहीं चलता,
खयाल में
नहीं आता कि
यह सब भीतर
क्या हो रहा
है। तो मैंने
सोचा कि वह
मनु भाई मुझे
मिलें तो उनसे
कहूं कि 'सर,
यू आर स्टिल
कैरिग हर
आन योर शोल्डर?' अभी भी ढो
रहे हैं उस
औरत को अपने
कंधों पर? मैने
उनको वहीं
दिल्ली में
कहा कि मनु
भाई, पीछे
तकलीफ होगी।
पीछे यह बात चलेगी,
मिटने वाली
नहीं है। तो
यह बात अभी कर
लें सबके
सामने। तो
उन्होंने कहा,
‘‘क्या बात
करनी है; कुछ
हर्जा नहीं; जो हो गया, हो गया।''
लेकिन
मैं जानता था, बात
तो उठेगी; बात
तो करनी ही
पड़ेगी। फिर वे
संसद-सदस्य
हैं।
संसद-सदस्य को
मुझ जैसे
फकीरों के
आचरण का ध्यान
रखना चाहिए, नहीं तो
मुल्क का आचरण
बिगाड़ देंगे।
और फिर
ऐसे
संसद-सदस्य
हैं,
इसलिए तो
मुल्क का आचरण
इतना अच्छा है,
नहीं तो कभी
भी बिगड़ जाता!
धन्य भाग है, हमारे मुल्क
का आचरण कितना
अच्छा है, अच्छे
संसद-सदस्यों
के कारण! जो
पता लगाते हैं
कि किसके कमरे
में कौन सो
रहा है! इसका
हिसाब रखते
हैं! ये
लोक-सेवक हैं!
लोक-सेवक ऐसा
ही होना
चाहिए। मुझे
तो जैसे खबर
मिली, मैंने
सोचा कि इस
बार इलेक्ट्रान
के वक्त अगर
मुझे वक्त
मिला तो
जाऊंगा बड़ौदा
में, लोगों
से कहूंगा कि
मनु भाई को ही
वोट देना, इस
तरह के लोगों
की वजह से देश
का चरित्र
ऊंचा है।
लेकिन, यह
जो दिमाग है, यह दिमाग
कहां से पैदा
होता है? यह
दिमाग कहां से
आता है? यह
भीतर क्या
छिपा हुआ है...?
यह
भीतर है, दमन
की लम्बी
परम्परा। यह
एक आदमी का
सवाल नहीं है।
यह हमारे पूरे
जातीय
संस्कार का
सवाल है; यह
मनु भाई का
सवाल नहीं है।
वह तो
प्रतिनिधि
हैं-हमारे और
आपके; हमारी
सब बीमारियों
के-वह जो
हमारे भीतर
छिपा है, उसके।
हमारे भीतर
क्या छिपा है...?
हमने
एक अजीब
सप्रेशन की
धारा में अपने
को जोड़ रखा है!
दबा रहे हैं, सब!
वह दबाया हुआ
घाव हो जाता
है। वह घाव
पीड़ा देता है।
उस घाव की वजह से
हमें बाहर
वही-वही
दिखायी पड़ने
लगता है, जो-जो
हमारे भीतर
है। सारा जगत
एक दर्पण बन
जाता है।
यह
सप्रेशन की
लम्बी धारा, यह
दमन की लम्बी
यात्रा
व्यक्तित्व
को नष्ट करती
है। इसने जीवन
के स्रोतों को
पॉयजन से
भर दिया है, जहर से भर
दिया है। जीवन
के सारे स्रोत
विकृत और
कुरूप हो गये
हैं। इसलिए यh
तीसरा
सूत्र आपसे
कहना चाहता
हूं कि दमन से
बचना।
अगर
जीवन को और
सत्य को जानना
हो,
और कभी
प्रभु के, परमात्मा
के द्वार पर
दस्तक देनी हो,
तो दमन से
बचना।
क्योंकि
दमन करने वाला
चित्त
परमात्मा तक
कभी नहीं
पहुंचता। वह
वहीं रुक जाता
है,
जहां दमन
करता है। उसको
वहीं ठहरना
पड़ता है, क्योंकि
जरा-सा भी हटा
कि दमन उखड़
जायेगा और जिसको
दबाया है, वह
प्रकट होना
शुरू हो
जायेगा।
अगर आप
एक आदमी की
छाती पर सवार
हो गये हैं तो
फिर आप उसको
छोड्कर नहीं
जा सकते, क्योंकि
छोड्कर आप
जैसे ही गये
कि वह आपके
ऊपर हमला कर
देगा। अगर
किसी आदमी की
छाती पर आप
सवार हो गये
तो आप समझना
कि जितना आपने
उसे दबा रखा
है, उससे
भी ज्यादा आप
उससे दब गये
हैं! क्योंकि
आप छोड्कर
उससे नहीं हट
सकते।
मनुष्य
जिन चीजों को
दबा लेता है, उन्हीं
के साथ बंध
जाता है। वह
उनको छोड्कर
हट नहीं सकता
और कहीं भी
नहीं जा सकता।
इसलिए दमन से
अक्सर साधक को
सावधान रहना
चाहिए।
दमन, पैदा
करेगा-पागलपन विक्षिप्तताएं
इन्फिरिअरिटी।
जितने
मनस-चिकित्सक
हैं,
उनसे पूछिए,
वे क्या
कहते हैं। वे
कहते हैं, सारी
दुनिया पागल
हुई जा रही ३
दमन के कारण।
पागलखाने में
सौ आदमी बंद
हैं, उनमें
अट्ठानबे
आदमी दमन के
कारण बंद हैं
जिन्होंने
बहुत जोर से
दबा लिया है।
एक विस्फोट की
आग को भीतर रख
लिया है। वह
विस्फोट
फूटना चाहता
है, वह
सारक
व्यक्तित्व
को किसी दिन
तोड़ देता है; किसी दिन खंड़-खंड़
बिखेर देता है
सारे मकान को।
एक दिन आदमी बिखर
कर, टूट कर
खड़ा हो जाता
है।
इसलिए, जितना
आदमी सभ्य
होता चला जा
रहा है, उतना
ही पागल होता
जा रहा है, क्योंकि
सभ्यता का
सूत्र दमन है।
नहीं, स्वभाव
को अगर जानना
है, तो दमन
से वह नहीं
जाना जा सकता।
लेकिन, तब
आप पूछेंगे कि
जब क्रोध आये
तो क्रोध करना
चाहिए? वासना
आये तो वासना भोगनी
चाहिए क्या आप
लोगों को
वासना में डूब
जाने के लिए कहते
हैं..?
बिलकुल
नहीं, जरा भी
नहीं कहता
हूं। दमन से
बचने को कह
रहा हूं अभी
भोग करने को
नहीं कह रहा
हूं।
अभी एक
सूत्र समझ लें, कल
दूसरे सूत्र
की बात
करेंगे।
दमन से
बचने का अर्थ :
भोग में कूद
जाना नहीं है।
अनिवार्यरूपेण
वही एक आल्टरनेटिव
नहीं है। और
विकल्प भी है।
उस विकल्प पर
हम कल बात
करेंगे।
इसलिए जल्दी
से नतीजा लेकर
घर मत लौट
जाना। मेरी
बातों से
जल्दी नतीजा
नहीं लेना
चाहिए, नहीं
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती है।
दमन
नहीं, खुद के
व्यक्तित्व
से संघर्ष
नहीं, खुद
के
व्यक्तित्व
से द्वंद्व
नहीं-क्योंकि खुद
के
व्यक्तित्व
से द्वंद्व का
अर्थ है, जैसे
मैं अपने
दोनों हाथों
को आपस में लड़ाने
लग। कौन जीते,
कौन हारे, दोनों हाथ
मेरे हैं!
दोनों हाथों
के पीछे लड़ने
वाली शक्ति
मेरी है!
दोनों हाथों
के पीछे मैं
हूं। कौन
जीतेगा...?
कोई
नहीं जीत
सकता। मेरे ही
दोनों हाथों
की लड़ाई में
कोई नहीं जीत
सकता; क्योंकि
जीतने वाले दो
है ही नहीं।
लेकिन, एक
अदभुत घटना घट
जायेगी।
जीतेगा तो कोई
नहीं-न बायां,
न दायां, लेकिन मैं
हार जाऊंगा
दोनों की लड़ाई
में; क्योंकि
मेरी शक्ति
दोनों के साथ
नष्ट होगी।
और, मैं
हार जाऊं या
शक्ति को
क्षीण होने
दूं-जों भी
दमन कर रहा है,
वह किसका
दमन कर रहा है...?
अपना ही; अपने ही
चित्त के
खंडों को दबा
रहा है। किससे
दबा रहा है...? चित्त के
दूसरे खंडों
से दबा रहा
है। चित्त के
एक खंड से
चित्त के
दूसरे खंड को
दबा रहा है।
खुद को ही, खुद
से दबा रहा है!
ऐसा
आदमी अगर पागल
हो जाये अंततः, तो
आश्चर्य ही
क्या है। वह
तो आदमी पागल
नहीं हो पाता,
क्योंकि
दमन सिखाने
वालों की बात
पूरी तरह से कोई
भी नहीं मानता
है। नहीं तो
सारी
मनुष्यता पागल
हो जाती। वह
दमन सिखाने
वालों की बात
पूरी तरह से
कोई नहीं
मानता है। और
न मानने की
वजह से थोड़ा-सा
रास्ता बचा
रहता है कि
आदमी बच जाता
है।
और न
मानने की वजह
से,
ऊपर से
दिखलाता है कि
मानता हूं; भीतर से
पूरा मानता
नहीं, ऊपर
से दिखलाता है
कि मानता हूं;
इसलिए पाखंड
और हिपॉक्रिसी
पैदा होती है।
हिपॉक्रिसी
दमन की सगी
बहन है। वह जो
पाखंड है, वह
दमन का चचेरा
भाई है। दमन
चलेगा, तो
पाखंड पैदा
होगा। अगर
पाखंड पैदा न
होगा, तो
पागलपन पैदा
होगा। पागलपन
से बचना हो तो
पाखण्डी हो
जाना पड़ेगा।
दुनिया को
दिखाना पड़ेगा।
दुनिया को दिखाना
पड़ेगा
ब्रह्मचर्य
और पीछे से
वासना के रास्ते
खोजने
पड़ेंगे।
दुनिया को
दिखाना पड़ेगा कि
मेरे लिए तो
धन मिट्टी है
और भीतर गुप्त
मार्गों से तिजोरियां
बंद करनी
पड़ेगी। वह
भीतर से
चलेगा।
लेकिन, यह
पाखंड बचा रहा
है आदमी को, नहीं तो
आदमी पागल हो
जाये। अगर
सीधा-सादा
आदमी दमन के
चक्कर में पड
जाये तो पागल
हो जाए।
ये
साधु-संन्यासी
बहुत बड़े अंश
में पागल होते
देखे जाते हैं, इसका
कारण आपको
मालूम है?
लोग
समझते हैं, भगवान
का उन्माद छा
गया है। भगवान
का कोई उन्माद
नहीं होता; सब उन्माद
भीतर के दमन
से पैदा होते
है। भीतर दमन बहुत
हो तो रोग
पैदा हो जाता
है, उन्माद
पैदा हो जाता
है, पागलपन
पैदा हो जाता लेकिन
उसको हम कहते
है-हर्षोन्माद,
एक्सटेसी! वह एक्सटेसी
वगैरह नहीं है,
मैडनेस है।
या तो
आदमी पूरा दमन
करे तो पागल
होता है, या
फिर पाखंड का
रास्ता निकाल
ले तो बच जाता
है।
और पाखंडी
होना, पागल
होने से अच्छा
नहीं है। पागल
में फिर भी एक सिन्सेरिटि
है, पागल
की फिर भी एक
निष्ठा है; पाखंडी की
तो कोई निष्ठा
नहीं होती; कोई नैतिकता,
कोई
ईमानदारी
नहीं होती।
अपने से नहीं
लड़ना है। आप
अपने से लड़े
कि आप गलत
रास्ते पर
गये। अपने से
लड़ना अधार्मिक
है।
दमन, 'मात्र
अधार्मिक' है।
दमन मात्र ने
मनुष्य को
जितना नुकसान
पहुंचाया है,
उतना
दुनिया में और
किसी शत्रु ने
कभी नहीं पहुंचाया।
उस दिन ही
मनुष्य पूरी
तरह स्वस्थ होता
है, जिस
दिन सारे दमन
से मुक्त हो
जाता है; जिस
दिन उसके भीतर
कोई कान्पिलक्ट,
कोई द्वंद्व
नहीं होता।
जिस दिन भीतर
द्वंद्व नहीं
होता है, उस
दिन एक दर्शन
होता है, जो
भीतर है।
अगर
ठीक से समझें, तो
दमन मनुष्य को
विभक्त करता
है; डिव्हाइड करता है।
दमन जिस
व्यक्ति के
भीतर होगा, वह इनडिवीजुअल
नहीं रह
जायेगा, वह
व्यक्ति नहीं
रह जायेगा; वह विभक्त हो
जायेगा, उसके
कई टुकड़े हो
जायेंगे; वह
स्कीजोफ्रेनिक
हो जायेगा।
दमन न हो
व्यक्ति में
तो योग की स्थिति
उपलब्ध होती
है।
योग का
अर्थ है-जोड़; योग
का अर्थ है-इन्टिग्रेट
योग का अर्थ
है- अखण्डता,
एक।
लेकिन
एक कौन हो
सकता है? एक
व्यक्तित्व
किसका हो सकता
है..?
उसका, जो
लड़ नहीं रहा
है; उसका
जो अपने को
खंड-खंड नहीं
तोड़ रहा है; जो अपने
भीतर नहीं कह
रहा है-यह
बुरा है, यह
अच्छा है; इसको
बचाऊंगा,
उसको
छोडूंगा।
जिसने भी अपने
भीतर बुरे
-अच्छे का भेद
किया, वह
दमन में पड़
जायेगा।
दमन से
बचने का सूत्र
है;
अपने भीतर
जो भी है, उसकी
पूर्ण
स्वीकृति, टोटल
एक्सऐबिलिटी।
जो
भी है; सेक्स
है, लोभ है,
क्रोध है, मान है-जो भी
है भीतर, उसकी
सर्वांगीण
स्वीकृति
प्राथमिक बात
है। तो
व्यक्ति
आत्मज्ञान की
तरफ विकसित
होगा।
अगर
उसने
अस्वीकार
किया-कि मैं
अस्वीकार करता
हूं -उसने कहा
कि मैं लोभ को
फेंक दूंगा
-उसने कहा कि
मैं क्रोध को
फेंक दूंगा
-तो फिर वह कभी
भी शान्त नहीं
हो पायेगा; इस
फेंकने में ही
अशान्त हो
जायेगा।
और, इसलिए
तो संन्यासी
जितने क्रोधी
और अहंकारी देखे
जाते हैं, उतने
साधारण लोग
क्रोधी नहीं
होते!
संन्यासी का
क्रोध और
अहंकार बहुत
अदभुत है।
दुर्वासा की
कथाएं तो हम
जानते हैं।
संन्यासी
में इतना
अहंकार कि दो
संन्यासी एक दूसरे
को मिल नहीं
सकते; क्योंकि
कौन किसको
पहले नमस्कार
करेगा! दो संन्यासी
एक साथ बैठ
नहीं सकते; क्योंकि
किसका तख्त
ऊंचा होगा और
किसका नीचा होगा!
ये संन्यासी
नहीं, पागल
हैं। जो तख्त
की ऊंचाई
नापने में लगे
हुए हैं, उन्हें
परमात्मा की
ऊंचाई का पता
भी क्या होगा।
मैं
कलकत्ते में
एक सर्व-धर्म
सम्मेलन में
बोलने गया था।
वहां कई तरह
के संन्यासी, कई
धर्मो के
उन्होंने
आमंत्रित
किये थे। उन
संयोजकों को
क्या पता
बेचारों को कि
सब संन्यासी
एक मंच पर
नहीं
बैठेंगे। कोई
उसमे शंकराचार्य
हो सकते हैं, वे अपने
सिंहासन पर
बैठेंगे। और
शंकराचार्य सिंहासन
पर बैठे तो
दूसरा आदमी
कैसे नीचे बैठ
सकता है!
संयोजकों ने
मुझे आकर कहा
कि सबकी खबरें
आ रही हैं कि
हमारे बैठने
का इंतजाम
क्या हे?
बच्चों-जैसी
बात मालूम
पड़ती है। जैसे,
छोटे-छोटे
बच्चे कुर्सी
पर खड़े हो
जाते है और अपने
बाप से कहते हैं,
'तुम मुझसे
नीचे हो। 'बच्चों
से ज्यादा
बुद्धि इनकी
नहीं मालूम पड़ती
है। तख्त
ऊंचा-नीचा
रखने से
ज्यादा उनकी
बुद्धि नहीं
है, कि
तख्त नीचा हो
जायेगा तो हम
नीचे हो
जायेंगे। हद हो
गयी, इस
भांति से ऊंचा
होना बहुत
आसान हो गया!
लेकिन
दबा रहे हैं
अहंकार को। तो
अहंकार दूसरे
रास्ते खोज
रहा है निकलने
के लिए।
अहंकार को दबा
रहे हैं, इधर
कह रहे हैं, 'मैं कुछ भी
नहीं हूं! हे
परमात्मा, मैं
तो तेरी शरण
में हूं। 'उधर
अहंकार कह रहा
है-अच्छा ठीक
है बेटे, उधर
तुम शरण में
जाओ, इधर
हम दूसरा
रास्ता खोजते
है। हम कहते
हैं कि सोने
का सिंहासन
चाहिए
क्योंकि हमसे
ज्यादा भगवान
की शरण में और
कोई भी नहीं
गया है!
तो
इनको सोने का
सिंहासन
चाहिए। इधर- 'मैं
कुछ भी नहीं
हूं; आदमी
तो कुछ भी
नहीं है, सब
संसार माया
है! और उधर? -उधर,
अगर जगतगुरु
न लिखें उनके
नाम के आगे तो
वे नाराज हो
जाते हैं कि
मुझे जगतगुरु
नहीं लिखा! '
….. और
मजा यह है कि
जगत से पूछे
बिना ही गुरु
हो गये हैं? जगत से भी तो
पूछ लिया होता,
यह जगत बहुत
बड़ा है...!
एक
गांव में मैं
गया था। वहां
भी एक जगतगुरु
थे!
.. जगतगुरुओं की कोई कमी
है! जिसको भी
खयाल पैदा हो
जाय, वह जगतगुरु
हो सकता है! इस
वक्त सबसे
सस्ता काम यही
है...!
गांव
में जगतगुरु
थे। मैंने
पूछा, ‘‘इतना
छोटा-सा गांव,
जगतगुरु कहां से आये?''
उन्होंने
कहा, ‘‘वे
यहां ही रहते
हैं सदा से। '' मैंने कहा, ‘‘जगत से पूछ
लिया है
उन्होंने?'' उन्होंने
कहा, ‘‘जगत
से नहीं पूछा।
लेकिन वे बहुत
होशियार आदमी
हैं। उनका एक
शिष्य है। '' मैंने कहा, '' और कितने
हैं?'' उन्होंने
कहा ‘‘बस, एक ही है।
लेकिन उसका
नाम उन्होंने
जगत रख लिया
है। तो वे जगतगुरु
हो गये है। ''
बिलकुल
ठीक बात है।
अब और कोई कमी
नहीं रह गई
है। अदालत में
मुकादम नहीं
चला सकते हैं
इस आदमी पर।
यह जगतगुरु
है। सारे जगतगुरु
इसी तरह के
है। किसी का
एक शिष्य होगा, किसी
के दस होंगे
लेकिन इससे
क्या फर्क
पड़ता है। इधर
वे कहते हैं, 'मैं तो कुछ
भी नहीं, आदमी
तो माया है; असली तो
ब्रह्म है-एक
ही ब्रह्म
है-और उधर जगतगुरु
होने का लोभ
सवार हो जाता
है! वह अहंकार,
इधर से बचाओ,
उधर से
रास्ता खोजता
है।
आदमी
जिस-जिस को
दबायेगा, वही-वही
नये-नये
मार्गों से
प्रकट होगा।
दमन
करके कभी कोई
किसी चीज को
नही समझ सका।
इसलिए दमन से
बचना है, दमन
से सावधान
रहना है। दमन
ही मनुष्य को
तोड़ता है। और,अगर जुड़ना
है, और एक
हो जाना है, तो दमन से बच
जाना चाहिए।
चौथे
सूत्र पर मैं
आपसे कल बात
करूंगा कि जब
हम दमन से
बचेंगे तो फिर
भोग एकदम से
निमंत्रण देगा
कि आओ; अब तो
क्रोध से बचना
नहीं है, इसलिए
आओ, क्रोध
करो; अब तो
सेक्स से बचना
नहीं है, इसलिए
आओ और सेक्स
में डूबो; अब
तो लोभ से
बचना नहीं है,
इसलिए दौडो
और रुपये
इकट्ठे करो।
जैसे ही हम इस
दमन से बचेंगे,
वैसे ही भतो
निमंत्रण
देगा कि आ
जाओ।
उस भोग
से बचने के
लिए भी क्या
करना है, उसकी
कल के सूत्र
में आपसे बात
करूंगा।
मेरी
बातों को इतनी
शांति और
प्रेम से सुना, उससे
बहुत-बहुत अनुग्रहीत
हूं और अंत
में सबके भीतर
बैठे परमात्मा
को प्रणाम
करता हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
'जीवन-क्रांति
के सूत्र',
बड़ौदा
14
फरवरी 1969
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें