यथाssदर्शे तथाssत्मनि यथा
स्वप्ने तथा
पितृलोके।
यथाप्सु
परीव ददृशे
तथा
गन्धर्वलोके
छायातपयोरिव
ब्रह्मलोके।।5।।
इन्द्रियाणां
पृथग्भावमुदयास्तमयौ
च यत्।
पृथगुत्पद्यमानानां
मत्वा धीरो न
शोचति।।6।।
इन्द्रियेथ्य:
परं मनो मनस:
सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि
महानात्मा
महतोsव्यक्तमुत्तमम्।।7।।
अव्यक्तात्तु
पर: पुरुषो
व्यापकोऽलिंग
एव च।
जैसे दर्पण
में (सामने आई
हुई वस्तु दिखती
है), वैसे
ही शुद्ध
अंतःकरण में (
ब्रह्म के
दर्शन होते
हैं) जैसे
स्वप्न में
(वस्तुएं
स्पष्ट दिखलाई
देती हैं), उसी
प्रकार
पितृलोक में (
परमेश्वर
दिखता है)।
जैसे जल में (
वस्तु के रूप
की झलक पड़ती
है), उसी
प्रकार
गंधर्वलोक
में परमात्मा
की झलक— सी
पड़ती है। (और)
ब्रह्मलोक
में ( तो ) छाया
और धूप की
भांति (आत्मा
और परमात्मा
दोनों का
स्वरूप पृथक—
पृथक स्पष्ट
दिखलाई देता
है)।।5।।
(अपने—अपने
कारण से)
भिन्न—भिन्न
रूपों में
उत्पन्न हुई
इंद्रियों की
जो पृथक—पृथक
सत्ता है और
जो उनका उदय
और लय हो
जानारूप
स्वभाव है उसे
जानकर (आत्मा
का स्वरूप
उनसे विलक्षण
समझने वाला)
धीर पुरुष शोक
नहीं
करता।।6।।
इंद्रियों
से (तो) मन
श्रेष्ठ है, मन से
बुद्धि
श्रेष्ट है, बुद्धि से
उसका स्वामी
जीवात्मा
श्रेष्ठ है, (और)
जीवात्मा से
अव्यक्त
शक्ति
श्रेष्ठ है।।7।।
परंतु
अव्यक्त से (
भी वह) व्यापक
और सर्वथा आकाररहित
परमपुरुष
श्रेष्ठ है
जिसको जानकर
जीवात्मा
मुक्त हो जाता
है और
अमृतस्वरूप
आनंदमय
ब्रह्म को
प्राप्त हो
जाता है।।8।।
परमात्मा :
परम तटस्थता
थोड़ी
सी बातें कल
के सूत्र के
संबंध में और।
जर्मनी
के एक बहुत बड़े
विचारक
रुडोल्फ ओटो
ने एक बड़ी
महत्वपूर्ण
पुस्तक लिखी
है—दि आइडिया
आफ होली: उस
परम पवित्र का
प्रत्यय।
उसमें एक शब्द
का रूडोल्फ
ओटो ने
बार-बार
प्रयोग किया
है—ट्रिमेंडम।
वह परमात्मा
अत्यंत भयंकर
है। यम ने भी
नचिकेता को
परमात्मा
भयस्वरूप है, ऐसी
दृष्टि दी। यह
दृष्टि थोड़ी
और गहराई से
समझ लेने जैसी
है, क्योंकि
भांति हो जाने
की संभावना है।
पहली
तो बात यह कि
परमात्मा का
भयस्वरूप
होना, वस्तुत:
परमात्मा का
स्वरूप नहीं
है, वरन
हमारा ही भय
है। हम भयभीत
होते हैं।
परमात्मा
भयानक है, ऐसा
कहने की बजाय,
हम भयभीत
होते हैं, ऐसा
कहना ज्यादा
उचित है। और
हमारे भयभीत
होने का कारण
समझ लेना
चाहिए। जैसे
बूंद सागर में
गिरने के पहले
डरेगी, क्योंकि
सागर में
गिरने का अर्थ
मिटना है, समाप्त
होना है। बूंद
का भयभीत होना
स्वाभाविक है।
सागर
से मिलने का
अर्थ मृत्यु
है। मृत्यु भय
देती है।
लेकिन अगर
बूंद जान पाए
कि सागर में
मिटने का एक
दूसरा पहलू भी
है—बूंद की
तरह तो बूंद
मिट जाएगी, लेकिन
सागर की तरह
हो जाएगी; क्षुद्र
की भांति तो
खो जाएगी, लेकिन
विराट की भाति
हो जाएगी। काश,
बूंद को यह
दिखाई पड़ सके
कि उसकी
मृत्यु विराट
से मिलन भी है,
तो बूंद का
भय खो जाए। और
अगर बूंद को
यह दिख सके कि
मेरी मृत्यु
परम जीवन का
द्वार है, तो
बूंद
परमात्मा को
प्रेमस्वरूप
अनुभव कर सके।
परमात्मा
भयस्वरूप है
या
प्रेमस्वरूप, यह हमारी
दृष्टि पर निर्भर
है। आदमी भी
जब परमसत्ता
की खोज में
जाता है, तो
मिटने की घड़ी
आती है। वह
क्षण आता है, जब स्वयं को
खोना पड़ेगा।
और जहा भी
स्वयं को खोने
की बात उठती
है, वहां
हृदय भय से
कंपित हो जाए,
स्वाभाविक
है।
हम
मृत्यु से किस
लिए डरते हैं? हम
मृत्यु से
इसीलिए डरते हैं
कि वह हमें
मिटा देगी।
लेकिन मृत्यु
भी इस भांति
नहीं मिटा
पाती, जिस
भांति
परमात्मा
मिटाता है।
क्योंकि
मृत्यु के बाद
भी हम बचेंगे,
नई देह
लेंगे, नई
योनियों में
यात्रा
करेंगे।
हमारी देह ही
छूटेगी
मृत्यु में, हमारा होना
नहीं छूटेगा।
लेकिन
परमात्मा
हमारे होने को
भी पोंछ
डालेगा।
हमारी सब
आकृति खो
जाएगी उस
निराकृति में,
उस निराकार
में, हमारा
सब रूप खो
जाएगा।
मृत्यु शायद
हमारी देह को
ही छीनती है, परमात्मा
हमारी
अस्मिता को, हमारे
अहंकार को भी
छीन लेगा। वह
बड़ी मौत है, वह
महामृत्यु है।
तो
जब हम मृत्यु
से डरते हैं, तो
स्वाभाविक है
कि हम
परमात्मा से
भी डरें। वह
डर परमात्मा
का स्वभाव
नहीं है, हमारे
अहंकार का भय
है। लेकिन जो
मिटने को राजी
है, परमात्मा
उसके लिए
भयस्वरूप
नहीं है। जो
मिटने को राजी
है, परमात्मा
उसके लिए
प्रेमस्वरूप
है।
इसे
हम इस भांति
भी समझें। भय
के कारण ही
लोग प्रेम
करने में
समर्थ नहीं हो
पाते।
क्योंकि
प्रेम भी
मिटाता है, प्रेमी
को पोंछ डालता
है। उसकी सारी
अस्मिता डूब
जाती है। और
जो प्रेमी
अपने प्रेम
में अपने को
खोने को राजी
नहीं है, वह
प्रेम को कभी
उपलब्ध नहीं
हो पाता।
प्रेम
का अर्थ ही है
विसर्जन, अपने को
डुबाने की
तैयारी, मिटाने
की तैयारी।
प्रेम भी थोड़े
अर्थों में
अहंकार का
विनाश है।
भयभीत
व्यक्ति
प्रेम भी नहीं
कर पाता। और
जो अपने को
खोने को राजी
है, उसके
जीवन में
महाप्रेम का
उदय होता है
और आनंद की
बड़ी वर्षा हो
जाती है। तो
भय और प्रेम
इस बात पर
निर्भर हैं कि
हम मिटने को
राजी हैं या
नहीं।
ध्यान
में जो लोग
गहरे जाते हैं, वे एक न
एक दिन मेरे
पास आकर
निश्चित ही
कहते हैं कि
एक ऐसी घड़ी आ
गई थी कि जहां
हमें डर लगने
लगा कि हम मिट
तो न जाएंगे।
फिर हम भयभीत
होकर वापस लौट
आए। वही घड़ी
थी, जहां
से परमात्मा
निकट था। और
अनेक ध्यान
करने वाले लोग
आखिरी क्षण
में वापस लौट
जाते हैं।
छलांग के ठीक
पहले, बूंद
गिरती सागर
में कि वापस
हो जाती है।
तट से ही वापस
हो जाती है।
लेकिन सभी को
ऐसा होना
स्वाभाविक है।
ध्यान
भी मृत्यु है, क्योंकि
ध्यान छलांग है
विराट में। जब
आपको घबड़ाहट
पकड़ ले तब आप
समझना कि ठीक
क्षण आया, उससे
लौटना मत। उस
समय ही जो
साहस रख पाता
है, वही
साधक है। उस
समय जो डरा, मन में वापस
लौट आया, अपने
को सम्हाल
लिया वापस
अपनी स्थिति
में. वह एक बड़ा
अवसर चूक गया।
फिर न मालूम
वह अवसर कितने
दिनों बाद आए!
अगर आप ऐसा
कोई अवसर चूक
गए हों, तो
दुबारा जब
अवसर आए तो
उसे चूके नहीं।
उसकी ही तो
तलाश है, उस
मिटने की ही
हम खोज कर रहे
हैं।
लेकिन
अहंकार आखिरी
समय तक पकड़ता
है। और डर, भय मन में
पैदा हो जाता
है कि मैं मिट
तो न जाऊंगा, मै मर तो न
जाऊंगा। उस भय
की झंकार में
हम वापस अपने
शरीर में खड़े
हो जाते हैं, फिर से पकड़
लेते हैं
किनारे को जोर
से कि नदी खो न
जाए।
परमात्मा
भयस्वरूप है, क्योंकि
परमात्मा
महामृत्यु है।
लेकिन जितनी
बड़ी मृत्यु, उतने बड़े
जीवन का उससे
जन्म होता है।
छोटी मृत्यु
से छोटा जीवन
पैदा होता है।
जिस
मृत्यु को हम
जानते हैं, वह छोटी
मृत्यु है, केवल शरीर
मरता है। और
तो मन भी बचता
है, अहंकार
भी बचता है, सब बचता है।
और बड़ी मृत्यु
हो, तो और
बड़े जीवन का
जन्म है।
जितनी मिटने
की तैयारी, उतनी ही
मात्रा में
पुनर्जीवन
उपलब्ध होता है।
जो पूरी तरह
मिटने को राजी
है, उसे
परिपूर्ण
जीवन उपलब्ध
हो जाता है।
जीसस
ने कहा है, जब तक तुम
अपने को खोओगे
नहीं, तब
तक तुम उसे
नहीं पा सकते
हो। और जो
अपने को बचाने
की कोशिश
करेगा, वह
खो जाएगा। और
जो अपने को खो
देगा, वही
केवल बच रहता
है। जीसस ने
बार—बार बीज
का उदाहरण
लिया है और
कहा है, बीज
जैसे मिट्टी
में खो जाता
है तो अंकुरित
होता है, ऐसे
ही तुम जिस
दिन विराट में
खो जाओगे, महाजीवन
तुम्हारे
भीतर जन्मेगा।
उस
जीवन का फिर
कोई अंत नहीं
है। जिसका अंत
हो सकता था, उसे तो
तुमने खो ही
दिया। जो मिट
सकता था, उमे
तुमने खुद ही
छोड़ दिया।
सिर्फ वही बच
रहा है अब, जो
मिट नहीं सकता
है। सिर्फ वही
बच रहा है, जिसे
खोने का कोई
उपाय ही नहीं
है।
इसीलिए
परमात्मा
भयस्वरूप
मालूम पड़ता है।
लेकिन वह भय
हमारा
प्रोजेक्यान
है। और चूंकि
ये वचन मृत्यु
के देवता ने
कहे हैं, इसलिए ये
वचन अधूरे
होंगे ही। अगर
कोई जन्म का
देवता हो तो
वह कहेगा, परमात्मा
प्रेमस्वरूप
है।
इसे
भी थोड़ा समझ
लें।
अगर
कोई जन्म का
देवता हो तो
वह कहेगा, परमात्मा
प्रेमस्वरूप
है। क्योंकि
जन्म की
प्रक्रिया
प्रेम से है; जन्म का
अकुरण प्रेम
से है। जीवन
की शुरुआत
प्रेम से है।
जीवन की पहली
पुलक, पहली
स्फुरणा
प्रेम से है।
अगर कोई प्रेम
का देवता हो
तो वह आधी ही
बात जानेगा।
वह कहेगा, परमात्मा
प्रेमस्वरूप
है। अगर
नचिकेता ने यम
से न पूछकर
ब्रह्मा से
पूछा होता, जो कि जन्म
का देवता है, सृष्टि का
देवता है, तो
परमात्मा
भयस्वरूप है,
ऐसा वचन
नहीं आता; तो
परमात्मा
होता
प्रेमस्वरूप।
लेकिन वह भी
आधी ही बात
होती।
मृत्यु
के देवता को
सिर्फ मृत्यु
का ही अनुभव है।
जीवन की पहली
झलक का नहीं, आखिरी
बुझते हुए दीए
का ही अनुभव
है। और मृत्यु
के देवता ने
जब भी किसी को
बुझते देखा है,
तो उसे भय
से कंपते देखा
होगा, स्वभावत:।
अरबों—खरबों
लोग मरे हैं, मृत्यु का
देवता उन सबका
गवाह है।
जिसको भी
मिटते देखा है,
उसको भय से
कंपते देखा है।
तो मृत्यु के
देवता की यह
गवाही
अर्थपूर्ण है,
लेकिन
अधूरी।
और
मृत्यु का
देवता जानता
है कि
परमात्मा तो महामृत्यु
है। जब मेरी
मौजूदगी में
लोग कंपते हैं
और भयभीत होते
हैं, और
मरना नहीं
चाहते और
मिटना नहीं
चाहते, और
हर कोशिश करते
हैं बचे रहने
की। सब खो जाए,
किसी तरह
बचे रहें।
अंधा हो आदमी,
लंगड़ा हो, लूला हो, कोढ़ी
हो, का हो, बीमार हो, सड़क पर पड़ा
हो, खाने
को न हो, कुछ
भी न हो, लेकिन
तो भी आदमी
बचना चाहता है।
मरने के लिए
कोई भी राजी
नहीं होना
चाहता। सब खो
जाए, सिर्फ
श्वास ही चलती
रहे। और
महानर्क हो, दुख हो, पीड़ा
हो, तो भी
कोई मरने को
राजी नहीं है।
मृत्यु
के देवता का
यह अनुभव
स्वभावत: उसे
यह निष्कर्ष
देता है कि
परमात्मा तो
और भी
भयस्वरूप
होगा।
क्योंकि वहां
तो सभी कुछ
मिट जाता है।
वहा तो शून्य
ही रह जाता है।
जहां आप थे, वहां
सिर्फ एक
रिक्तता रह
जाती है। वह
आपको पूरी तरह
बहाकर ले जाता
है।
मृत्यु
के देवता का
वचन है, इसलिए अधूरा
है। जन्म का
देवता कहेगा,
तो भी अधूरा।
लेकिन
जिन्होंने जन्म
और मृत्यु
दोनों को जाना
है—बुद्धपुरुषों
ने—जिन्होंने
जन्म और
मृत्यु दोनों
को जाना है, वे दो बातें
कहेंगे। या तो
वे कहेंगे कि
परमात्मा
दोनों है—प्रेमस्वरूप
और भयस्वरूप।
या वे कहेंगे
कि परमात्मा
दोनों नहीं है,
हमारी
दृष्टि के
अनुसार हमें
प्रतीत होता
है, या तो
प्रेमस्वरूप,
या
भयस्वरूप।
दूसरी
बात सत्य के
निकटतम है।
परमात्मा
तटस्थ है। हम
उसमें वही देख
लेते हैं, जो हमारी
मनोदशा होती
है। हमारा ही
मन, हमारी
ही वृत्तियां,
हमारे ही
विचार, हमारी
ही समझ उसको
रंग देती है।
परमात्मा
रंगहीन है, आकारहीन है।
न तो भयस्वरूप
है और न
प्रेमस्वरूप
है; तटस्थ
है। अगर हम
डरते हैं
मिटने से, तो
भयस्वरूप
मालूम होगा।
अगर हम तैयार
हैं मिटने को,
तो
प्रेमस्वरूप
मालूम होगा।
जीसस
को परमात्मा
प्रेमस्वरूप
मालूम पड़ा। और
जीसस ने
परमात्मा की
परिभाषा में
कहा कि वह
प्रेम है, क्योंकि
जीसस मिटने को
तैयार थे।
सूली 'पर
हमने अनुभव कर
लिया कि जीसस
मिटने से जरा
भी भयभीत नहीं
थे। वे सूली
पर मिटने को
इतनी आसानी से
तैयार थे कि
क्रास उनका
प्रतीक हो गया।
सूली उनकी
प्रतीक हो गई।
मरने की ऐसी
तैयारी थी कि
जीसस का
प्रतीक सूली
हो गई। मृत्यु
जैसे स्वीकृत
थी, सहज थी।
इसलिए जीसस को
अगर परमात्मा
प्रेमस्वरूप
मालूम पड़ा, तो बिलकुल
स्वाभाविक है।
आपका
परमात्मा
आपके मन का
प्रतिबिंब
होगा। आपका
परमात्मा
आपकी ही
निर्मिति है।
उसका प्रत्यय, उसकी
धारणा आप ही
करेंगे।
मेरे
देखे
परमात्मा
दोनों नहीं है।
परमात्मा तो
एक विराट, निराकार,
शून्य जैसा
अस्तित्व है।
उसमें हम अपने
को देख लेते
हैं। इसलिए
जैसे —जैसे
आदमी विकसित
होता है, उसका
परमात्मा
विकसित होता
चला जाता है।
परमात्मा
विकसित नहीं
होता, परमात्मा
तो जैसा है, है। लेकिन
आदमी विकसित
होता है, तो
परमात्मा
विकसित होता
चला जाता है—उसकी
धारणा, हमारा
प्रत्यय, हमारा
कनसेप्ट
विकसित होता
चला जाता है।
अलग—अलग
जातियां
परमात्मा की
अलग—अलग धारणा
करती हैं। अलग—
अलग युग
परमात्मा की
अलग— अलग
धारणा करते
हैं। अलग—अलग
व्यक्ति
परमात्मा की
अलग—अलग
प्रतीति, प्रतिमा
निर्मित करते
हैं।
परमात्मा
एक है, लेकिन
सभी उसे अलग—
अलग अर्थों
में देखेंगे।
और जब तक आपको
परमात्मा में
कोई भी अर्थ
दिखाई पड़ता
रहे, तब तक
आप समझना कि
अभी परमात्मा
नहीं देखा, अभी आप अपने
को ही
परमात्मा में
झांक रहे हैं।
जिस
दिन आपको
परमात्मा में
कोई भी अर्थ न
दिखाई पड़े; जिस दिन
परमात्मा में
कोई प्रतिबिंब
न बने, दर्पण
बिलकुल कोरा
रह जाए; कोई
भी दिखाई न
पड़े वहां, परम
शून्य रह जाए—उस
दिन आप जानना
कि जो आपने
जाना वह अब
सत्य है। वह
मन का आरोपण
नहीं है।
इसलिए
बुद्ध उस परम
सत्य को शून्य
कहते हैं। और
जब तक वह परम
सत्य शून्य की
तरह प्रगट न
हो जाए, तब तक हम अपने
को उस पर
आरोपित करते
चले जाते हैं।
यह स्वाभाविक
है मनुष्य के
लिए। यम के
लिए भी
स्वाभाविक है।
परमात्मा
तटस्थ ऊर्जा
है, किसी
तरफ झुकी हुई
नहीं।
परमात्मा का
होना कोई भी
चुनाव से भरा
हुआ नहीं है, चुनावरहित
है। कोई पक्ष
नहीं है उसका।
उस अवस्था में
किसी तरह का
रंग—रूप नहीं
है। इसलिए जो
भी हम उसमें
देखें, इसे
स्मरण रखना कि
वह देखना हम
पर निर्भर है।
जिस
दिन हमें वहां
कुछ भी न
दिखाई पड़े, एक विराट
कोरापन रह जाए—न
कृष्ण बनें
वहां, न
राम बनें वहा,
न बुद्ध की
प्रतिमा उभरे,
न जीसस वहा
दिखाई पड़े; न वहा भय, न
वहां प्रेम; वहा कुछ भी न
दिखाई पड़े। यह
उसी दिन होगा
जिस दिन आपका
मन इतना
निर्विकार हो
जाएगा कि उस
मन से कोई भी
विकार परमात्मा
पर प्रतिफलित
न हो। जिस दिन
आप भीतर शून्य
हो जाएंगे, उस दिन
परमात्मा
शून्य हो
जाएगा। मैं
आपसे यह कहना
चाहता हूं कि
जैसे आप हैं, वैसा ही आपका
परमात्मा
होगा। यह यम
का वक्तव्य है,
अधूरा है।
ब्रह्मा का
वक्तव्य होगा,
वह भी अधूरा
होगा। दोनों
एक—एक छोर से
परिचित हैं।
एक जन्म के
छोर से, एक
मृत्यु के छोर
से।
लेकिन
अगर आप, जो कि दोनों
हैं, जन्म
भी और मृत्यु
भी, जन्मे
भी हैं और
मरेंगे भी, जो दोनों छोर
को छू रहे हैं,
स्पर्श कर
रहे हैं, अगर
आप सजग हो
जाएं, तो
आप पाएंगे कि
परमात्मा
तटस्थ है। वह
न
प्रेमस्वरूप
है और न
भयस्वरूप है।
अब
हम सूत्र में
प्रवेश करें।
जैसे
दर्पण में
सामने आई हुई
वस्तु दिखती
है वैसे ही
शुद्ध
अंतःकरण में
ब्रह्म के
दर्शन होते
हैं।
शुद्ध
अंतःकरण में
ब्रह्म के
दर्शन होते
हैं। जितना
शुद्ध होगा
अंतःकरण, उतना ही
ब्रह्म का
दर्शन भी
शुद्ध होगा।
परम शुद्ध
होगा अंतःकरण,
तो परम
शुद्ध दर्शन
होगा। दर्पण
विकृत होगा, तो उतने ही
विकार
प्रतिबिंब
में भी हो
जाएंगे।
दर्पण टूटा—फूटा
होगा, तो
उतनी ही टूट—फूट
प्रतिबिंब
में भी हो
जाएगी। दर्पण
आड़ा—तिरछा
होगा, तो
वही
प्रतिबिंब
में भी प्रवेश
कर जाएगा।
दर्पण
का परम शुद्ध
होना, अंतःकरण
का परम शुद्ध
होना, ब्रह्म
के शुद्ध
दर्शन के लिए
अनिवार्य है।
लेकिन ब्रह्म
के दर्शन बहुत
तरह से हो
सकते हैं।
क्योंकि
दर्पण बहुत स्थितियों
में हो सकता
है। ये दर्पण
की स्थितियां
हैं।
जैसे
स्वप्न में
वस्तुएं
स्पष्ट
दिखलाई देती
हैं उसी प्रकार
पितृलोक में
परमेश्वर
दिखता है।
ये
लोक प्रतीक
हैं अलग—अलग
स्थितियों के।
पहली तो बात, अगर
शुद्ध
अंतःकरण हो तो
यहीं
पृथ्वीलोक पर
परमात्मा के
सीधे दर्शन हो
जाते हैं। अगर
अंतःकरण बहुत
शुद्ध न हो, तो शरीर के
छूटने पर जो
लोक है, पितृलोक,
जहा
देहरहित
आत्माओं का
वास है, वहां
भी परमात्मा
के दर्शन होते
हैं। शरीर के
छूट जाने से, शरीर के
कारण जो
विकृतियां
आती हैं मन पर,
वे वहां
नहीं होतीं।
वहां जो
परमात्मा के
दर्शन होते
हैं, वे
इतने स्पष्ट
होते हैं, जैसे
स्वप्न
स्पष्ट होता
है।
जैसे
जल में वस्तु
के रूप की झलक
पड़ती है उसी तरह
गंधर्वलोक
में परमात्मा
की झलक सी
पड़ती है लेकिन
स्वर्ग में, गंधर्वों
के लोक में, जैसे जल में
झलक पड़ती है
किसी वस्तु की,
हल्की सी
झलक, एक आभास,
ऐसा
स्वर्गलोक
में भी आभास
भर मालूम होता
है।
स्वर्गलोक
सुख की
उत्तेजना से
भरा हुआ लोक
है। दुख एक
उत्तेजना है, यह हम
जानते हैं, सुख भी एक
उत्तेजना है,
यह हम नहीं
जानते हैं।
दुख में भी मन
विचलित होकर
कंपित हो जाता
है, सुख
में भी मन
विचलित होकर
कंपित हो जाता
है। इसलिए जो
लोग आनंद की
तलाश में हैं,
वे
उत्तेजना से
मुक्त होना
चाहते हैं—वह
चाहे दुख की
हो और चाहे
सुख की हो।
आपको
खयाल है कि
सुख में भी आप
कैप जाते हैं? यह बड़े
आश्चर्य की
बात है।
मेडिकल साइंस
का कथन है कि
दुख में हृदय
का दौरा कम
पड़ता है, सुख
में ज्यादा
पड़ता है। और
हार्टफेल के,
हृदय—अवरुद्ध
हो जाने की
घटनाएं दुख
में नहीं घटतीं,
सुख में
घटती हैं।
होना नहीं
चाहिए ऐसा।
उलटा है यह।
होना तो यह
चाहिए कि दुखी
आदमी मर जाए
एकदम घबड़ाकर,
लेकिन दुखी
आदमी नहीं
मरता। सुखी
आदमी सुख की
चोट में मर
जाता है।
इसलिए
जितना मुल्क
सुखी होता
जाता है, उतना हृदय—रोग
बढ़ता चला जाता
है। गरीब और
दुखी मुल्कों
में हृदय—रहो
नहीं होता।
आदिवासियों
को हृदय—रोग
का पता ही
नहीं है। दुख
बहुत है, लेकिन
हृदय—रोग का
पता नहीं है।
हृदय—रोग के
लिए संपन्न
होना जरूरी है,
सुखी होना
जरूरी है।
चिकित्साशास्त्र
का कहना है कि
यह बड़ी अनूठी
बात है कि सुख
में आदमी का
हृदय इतना कैप
जाता है कि टूट
जातो है। दुख
में इतना नहीं
कंपता। दुख को
सहना आसान है, सुख को
सहना बहुत
मुश्किल है।
दुख से तो
बहुत लोग बचकर
निकल आते हैं।
सुख से बचकर
निकलने में
बड़ी कुशलता
चाहिए, नहीं
तो आदमी टूट
जाता है।
आपको
भी खयाल होगा
कि अगर सुख की
कोई अचानक घटना
घट जाए, तो कैसा
आघात पहुंचता
है। अभी कोई
खबर आकर दे दे
कि पांच लाख
की लाटरी मिल
गई। डर यह है
कि लाटरी लेने
तक आप पहुंच
नहीं पाएंगे।
एकदम कैप
जाएंगे, इतना
ज्यादा हो
जाएगा। लेकिन
पांच लाख
रुपये आपके खो
जाएं, तो
भी आप कपेंगे,
लेकिन इतने
नहीं। पांच
लाख मिलने से
जितना हृदय को
धक्का पहुंचने
वाला है, उतना
पांच लाख खोने
से नहीं
पहुंचता।
सुख
एक तरह की
तीव्र
उत्तेजना है।
गंधर्वलोक, जहां सुख
की वर्षा हो
रही है.।
सिर्फ प्रतीक
हैं ये लोक।
हममें से कई
लोग
गंधर्वलोक
में हैं, यहीं।
कई लोग
पितृलोक में
हैं, यहीं।
कई लोग
नर्कलोक में
हैं, यहीं।
कई लोग
ब्रह्मलोक
में हैं, यहीं।
ये लोक
भौगोलिक
स्थितियां कम,
मनोवैज्ञानिक
अवस्थाएं
ज्यादा हैं।
जहां
सुख बहुत है, वहां
परमात्मा की
कभी—कभी आभास
की स्थिति भर
हो सकती है।
क्योंकि
दर्पण हमेशा
कंपता रहेगा,
उत्तेजित
रहेगा। इसे आप
ऐसा भी समझें :
इसीलिए सुखी
लोग परमात्मा
को भूल जाते
हैं। जब आप
सुख में होते
हैं, तब
प्रार्थना, पूजा, मंदिर,
सब विस्मृत
हो जाते हैं।
दुख मैं होते
हैं, तब
शायद याद भी आ
जाए, सुख
में याद भी
नहीं आती। दुख
से आदमी छूटना
चाहता है, तो
परमात्मा की
तलाश करता है।
सुख से छूटना
ही नहीं चाहता,
तो
परमात्मा की
तलाश का सवाल
क्या है?
जुन्नैद
एक सूफी फकीर
हुआ। कभी कोई
बीमारी, कभी कोई और
बीमारी, कभी
फिर कोई और
बीमारी उसे
पकड़े रहती थी।
उसके शिष्यों
ने कहा, जुन्नैद,
तुम और
बीमार रहो!
तुम तो
परमात्मा को
इशारा भी कर
दो कि मैं
बीमार नहीं
होना चाहता, तो बात खतम
हो गई।
जुन्नैद ने
कहा कि मैं
उससे यह
प्रार्थना ही करता
रहता हूं कि
तू मुझे एकाध
न एकाध बीमारी
चलाए रख। तो
शिष्यों ने
कहा, तुम
पागल तो नहीं
हो गए हो? यह
भी कोई बात
हुई!
जुन्नैद
ने कहा, बीमारी रहती
है तो मैं
उसका स्मरण कर
पाता हूं।
बीमारी दुख
बनी रहती है; उस दुख में
मैं उसकी
प्रार्थना कर
पाता हूं। एक
बार ऐसा हुआ
था कि बहुत
दिन तक मैं
बीमार नहीं
रहा था, तो
मैं उसे भूल
गया था। तब से
मेरी यही
प्रार्थना है
कि तू मुझे
दुख देते रहना।
दुख
में तो उसकी
स्मृति भी आ
जाती है, सुख में
उसकी स्मृति
खो जाती है।
सुख में कभी—कभी
उसका कोई आभास
मिल जाए तो
मिल जाए, जैसे
जल में पड़ी
हुई कोई झलक।
लेकिन
अगर कोई
व्यक्ति
विदेह हो जाए, जिसको
पितृलोक कह
रहा है यम...।
विदेह का मतलब
जरूरी नहीं है
कि आपकी देह
छूट ही जाए; जरूरी इतना
है कि आपको
देह का स्मरण
न रहे। इसलिए
हमने जनक को
विदेह कहा है,
जीते—जी।
देह का कोई
स्मरण नहीं है,
देह की कोई
प्रतीति नहीं
है। जैसे देह
है या नहीं है,
कोई फर्क
नहीं है; देह
भूल गई है।
तो
ऐसी विदेह
अवस्था में
उसकी झलक इतनी
साफ होती है, जैसे
स्वप्न में
चीजें साफ
होती हैं।
लेकिन स्वप्न
में, आंख
बंद करके उसके
विजन हैं, उसकी
प्रतीतिया
होती हैं।
लेकिन आंख
खोलते ही उसकी
प्रतीतिया खो
जाती हैं।
स्वभ जैसी।
और
ब्रह्मलोक
में तो छाया
और धूप की
भांति आत्मा
और परमात्मा
दोनों का स्वरूप
पृथक— पृथक
स्पष्ट दिखाई' देता है
तो
एक विदेह
अवस्था है, जहां
स्वप्न जैसी
स्पष्ट
प्रतीति होती
है। पर बस, स्वप्न
जैसी, आंख
खोलते ही खो
जाती है।
संसार के
दिखाई पड़ते ही
धूमिल हो जाती
है।
एक
दूसरी अवस्था
है, जहां
सुख की
उत्तेजनाओं
से भरा हुआ
चित्त है, वहां
सिर्फ कभी
उसकी आभास, भनक, दूर
से आती हुई
ध्वनि की तरह
सुनाई पड़ती है।
या पानी में
पड़े हुए
प्रतिबिंब की
तरह। और पानी
तो प्रतिपल
कंप रहा है।
प्रतिबिंब
कभी भी थिर
नहीं हो पाता।
तीसरी
ब्रह्मलोक की
अवस्था है। उस
अवस्था का नाम
ब्रह्मलोक है, जब आप सब
भांति शुद्ध
हैं अंतःकरण
पूरी तरह
शुद्ध है, ब्रह्म
जैसे हो गए
हैं। कोई
विकार नहीं है,
वहां चीजें
बिलकुल दो और
दो की तरह साफ
हो जाती हैं। वहां
स्वप्न की तरह
साफ नहीं
होतीं, वहां
जागृति की तरह
साफ हो जाती
हैं, जैसे
जागने में सब
साफ दिखाई पड़
रहा हो। यह जो
अवस्था है
ब्रह्मलोक की,
अंतःकरण की
शुद्धता की
आखिरी ऊंचाई
है।
यह
अंतःकरण क्या
है, इसे
हम थोड़ा समझ
लें। क्योंकि
जिसे हम
अंतःकरण
समझते हैं, वह अंतःकरण
है ही नहीं।
अंतःकरण के
साथ बड़ी भूल—चूक
जुड़ी हुई है।
अंग्रेजी में
शब्द है
कान्यायिन्स,
संस्कृत का
शब्द है
अंतःकरण।
आप
चोरी करने
जाते हैं।
भीतर से कोई
आवाज आती है, चोरी
बुरी है, मत
करो। इसे हम
अंतःकरण कहते
हैं। यह
अंतःकरण नहीं
है, यह
स्थूडो
कान्यायिन्स
है, यह
मिथ्या
अंतःकरण है।
यह समाज के
द्वारा
सिखाया हुआ है,
यह आपका
नहीं है।
क्योंकि ऐसी
जातियां हैं,
जो चोरी को
पाप नहीं
मानतीं।
बल्कि ऐसी
जातियां हैं,
राजस्थान
में भी जाटों
का समूह है, जो सैकड़ों
वर्षों से
चोरी को पाप
नहीं मानता रहा
है। बल्कि
पुराने दिनों
में जाट युवक
की शादी ही नहीं
हो सकती थी, जब तक वह दो—चार
चोरी नहीं कर
ले और सफल न हो
जाए। युवक की
शादी करते
वक्त पूछते थे
कि वह कितनी
चोरियों में सफल
हो चुका! वह
उसकी कुशलता
का प्रमाण था।
चोरी
कुशलता तो है
ही। हर कोई
नहीं कर सकता।
थोड़ी बुद्धि
चाहिए। बुद्ध
के बस का काम
नहीं है। और
बुद्धि प्रखर
चाहिए। फिर
साहस भी चाहिए, भीरु का
धंधा नहीं है
वह। कमजोर की
वहां गति नहीं
है। कमजोर तो
अपनी ही
संपत्ति हाथ
में लेते
कंपता है।
दूसरे की
संपत्ति को
अपनी की तरह
मान लेने के लिए
बड़ा कड़ा हृदय
चाहिए। अपने
ही घर में
अंधेरे में
चलना मुश्किल
हो जाता है, दूसरे के घर
में अंधेरे
में चलने के
लिए कदमों में
आंखे चाहिए। और
बड़ा निष्कंप
हृदय चाहिए कि
कंपे नहीं। एक
तरह की
एकाग्रता भी
चाहिए।
चोर
बड़ा एकाग्र
होता है। उसका
मस्तिष्क एक
ही बिंदु पर
टिका रहता है।
अगर चोर का मन
बहुत ज्यादा यहां—वहां
भटके, तो
मुसीबत में पड़
जाएगा। एक
लक्ष्य और
सारी प्राण—ऊर्जा
उसी तरफ बहती
है। तो चोरी
सभी समाजों
में बुरी नहीं
रही है। तो
जिस समाज में
चोरी बुरी
नहीं है, उस
समाज में चोरी
करते वक्त कभी
भी यह खयाल पैदा
नहीं होगा, कोई अंतःकरण
नहीं कहेगा कि
रुको।
हिंदू
है। एक पत्नी
के रहते दूसरा
विवाह करे तो
भीतर से अंतःकरण
कहता है कि
पाप कर रहे हो, बुरा कर
रहे हो।
मुसलमान चार
को करे, कोई
दिक्कत नहीं
मालूम होती।
कुरान आशा
देती है : चार
विवाह कर सकते
हो। मुहम्मद
ने खुद नौ
विवाह किए।
जरा भी चिंता
नहीं होती। पर
इससे आप ऐसा
मत सोचना कि
मुहम्मद ने
बहुत बुरा
किया।
अपने
कृष्ण की कथा
आप स्मरण रखना।
मुहम्मद तो कुछ
भी नहीं हैँ, उस हिसाब
में। लेकिन
क्या की हमने
कभी निंदा
नहीं की है।
सोलह हजार
रानियों की
कथा है। यह
हमें कहानी
मालूम पड़ सकती
है कि सोलह
हजार! एक
स्त्री इतना
उपद्रव खड़ा कर
सकती है!
कृष्ण बड़ी
हिम्मत के
आदमी रहे
होंगे! लेकिन
उस समाज में
कोई
अस्वीकृति
नहीं थी।
सम्राट
सैकड़ों विवाह
करते ही थे।
अभी
निजाम
हैदराबाद की
पांच सौ
पत्नियां थीं।
जिस दिन भारत
आजाद हुआ, उस दिन
पांच सौ
पत्नियां थीं।
बीसवीं सदी
में पांच सौ
पत्नियां हो
सकती हैं, तो
कोई ज्यादा
बड़ी संख्या
नहीं है, सिर्फ
बत्तीस गुनी,
सोलह हजार।
कोई बहुत बड़ा
मामला नहीं है।
कहानी बनाने
की जरूरत नहीं
है। यह हो
सकता है।
लेकिन कोई
अड़चन नहीं थी।
समाज की धारणा
ही यही थी कि
सम्राट की
पत्नियां
ज्यादा होंगी
ही।
असल
में जितना बड़ा
सम्राट, उसका प्रमाण
ही एक था कि
कितनी
पत्नियां! वह
उसकी संपदा का
गणित था कि
कितनी
पत्नियां!
गरीब आदमी एक
ही पत्नी नहीं
रख सकता।
पत्नी रखना
खर्चीला
मामला है। सभी
एफोर्ड नहीं
भी कर सकते।
तो जितना बड़ा
सम्राट, उतनी
पत्नियां, यह
स्वीकृत
मान्यता थी।
तो
कोई अड़चन नहीं
होती थी किसी
सम्राट को
हजारों
शादियां कर
लेने में। कोई
भाव भी नहीं
उठता था।
अंतःकरण कभी
नहीं कहेगा कि
यह तुम क्या
कर रहे हो। या
इसमें कुछ पाप
है। इस बात पर
निर्भर करता
है कि समाज ने
क्या सिखाया
है।
जुआ
स्वीकृत था, तो
युधिष्ठिर
जुआ खेलते रहे।
लेकिन हमने
कभी उनको
धर्मराज के पद
से नीचे नहीं
उतारा। आज
अधार्मिक
आदमी भी जुआ
खेलता है तो
अंतःकरण में
चोट पड़ती है।
युधिष्ठिर को
जरा भी न पड़ी!
और जुआ कोई
साधारण नहीं
था, सब तो
लगाया ही, पत्नी
भी लगा दी।
अभी आप जरा
पत्नी को
लगाकर देखें।
छाती साथ नहीं
देगी, अंतःकरण
इनकार करेगा।
लेकिन
युधिष्ठिर को
बिलकुल भी
नहीं किया। और
युधिष्ठिर के
पीछे लिखने
वालों ने कभी
भी एतराज नहीं
उठाया। उनके
धर्मराज होने
में कोई शंका
पैदा नहीं हुई।
समाज
को स्वीकार था, जुआ एक
खेल था। और
जितने बड़े
खिलाड़ी थे, उतने बड़े
दाव थे।
युधिष्ठिर
बड़े खिलाड़ी थे,
पत्नी को भी
दाव पर लगाने
की हिम्मत
उन्होंने जुटाई।
इसमें कहीं
कोई नीति—निषेध
नहीं था।
इसमें कोई
कठिनाई नहीं आ
रही थी।
द्रौपदी
के पांच पति
हैं। लेकिन
हमने द्रौपदी
को पांच
महाकन्याओं
में गिना है।
जिन्होंने
पांच
महाकन्याओं
में गिना, उनकी
मान्यता और
रही होगी। हम
अगर आज एक
स्त्री के
पांच पति हों
तो उसे कहां
रखेंगे? उसे
हम पांच
प्रात:
स्मरणीय
कन्याओं में
नहीं गिन सकते।
लेकिन
जिन्होंने
गिना है, उन्हें
कोई अड़चन न थी।
पांच पति हो
सकते थे। पांच
पत्नियां हो
सकती थीं, पांच
पति हो सकते
थे। बहुपत्नी,
बहुपति
प्रथा
स्वीकृत थी, तो अंतःकरण
में कोई चोट
नहीं थी।
यह
जो अंतःकरण है, यह समाज
पर निर्भर है।
यह जो अंतःकरण
है, यह
वास्तविक
अंतःकरण नहीं
है, यह
समाज के
द्वारा
आरोपित है, प्लांटेड है।
यह ऊपर से थोप
दिया गया है।
इस अंतःकरण की
शुद्धि से
परमात्मा का
कोई संबंध
नहीं। जिस
अंतःकरण की
बात उपनिषद कह
रहे हैं, उसका
अर्थ है..।
हमारे
पास जितनी
इंद्रियां
हैं वे
बहिर्करण हैं, उनके
द्वारा बाहर
का ज्ञान होता
है। अंतःकरण
वह है, जिसके
द्वारा भीतर
का ज्ञान होता
है। जिसके
द्वारा चेतना
भीतर सजग होती
है। इस भीतर
के शान वाली
स्थिति को, जिसको हम
विवेक कह रहे
हैं, प्रज्ञा
कह रहे हैं, उसी का एक
नाम अंतःकरण
है।
इस
भीतर की
प्रज्ञा को
निखारने की जो
व्यवस्था है, वह समाज
के अंतःकरण के
अनुकूल चलने
से नहीं उपलब्ध
होने वाली है।
न ही प्रतिकूल
चलने से
उपलब्ध होने
वाली है। इसका
यह मतलब नहीं
है कि आप समाज
जो कहता है, उसको इनकार
करके व्यर्थ
उपद्रव में
पड़े। उसकी भी
कोई जरूरत
नहीं है। वह
एक समझौता है।
वह समाज में
जीने की एक
व्यवस्था है।
जहां
इतने लोग एक
बात को मानकर
चल रहे हैं, वहां
चुपचाप उनकी
बात मान लेने
से कम उपद्रव
होता है। और
आप अपने भीतर
की यात्रा पर
आसानी से जा
सकते हैं।
अन्यथा
व्यर्थ की
छोटी—छोटी बातो
में उलझाव खड़ा
हो जाएगा और
बाहर अटकाव हो
जाएगा।
अगर
साधुपुरुषों
ने समाज की
मान्यता
स्वीकार की है, तो इसलिए
नहीं कि वह
ठीक है, बल्कि
इसलिए कि उससे
शाति में जाना
आसान है। इस
बात को ठीक से
समझ लें। अगर
साधुपुरुषों
ने समाज की
सारी
व्यवस्था स्वीकार
कर ली, तो
इसलिए नहीं कि
वह बिलकुल ठीक
है। कोई समाज
की व्यवस्था
बिलकुल ठीक
नहीं है। और
बिलकुल ठीक
समाज की
व्यवस्था हो
भी नहीं सकती।
क्योंकि जब तक
सारे व्यक्ति
ठीक न हों, तो
उनके जोड़ के
ठीक होने का
कोई उपाय नहीं
है।
समाज
तो
अनिवार्यरूप
से गलत है और
गलत रहेगा। बस, कम गलत
होता जाए इतनी
ही आशा करनी
काफी है। केवल
व्यक्ति ही
पूरा ठीक हो
सकता है, समाज
तो भीड़ है। और
जैसे पानी
अपना तल बना
लेता है, ऐसे
ही भीड़ भी
अपना तल बना
लेती है। भीड़
हमेशा अपने
निम्नतम
व्यक्ति के तल
पर उतर जाती
है।
समाज
की धारणाएं
सही हैं या
गलत, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
साधुपुरुष
उनको स्वीकार
कर लेता है, सिर्फ इसलिए
ताकि बाहर कोई
उपद्रव खड़ा न
हो और वह भीतर
की यात्रा पर
सुगमता से जा
सके।
लेकिन
यह अंतःकरण
जीवन की चरम
बात नहीं है।
अंतःकरण तो
भीतर की उस
चेतना शक्ति
का नाम है, जिससे हम
बाहर नहीं
देखते बल्कि
भीतर देखने में
समर्थ हो जाते
हैं।
आप
आंख बंद करते
हैं, तो
भीतर अंधेरा
हो जाता है।
उस अंधेरे में
भी कोई जानता
हुआ मालूम
पड़ता है। आप
कान बंद कर
लें, तो
भीतर सन्नाटे
की आवाज आने
लगती है।
लेकिन उस
सन्नाटे की
आवाज में भी
कोई सुनता हुआ
मालूम पड़ता है।
यह
जो भीतर जानता
हुआ, सुनता,
देखता हुआ
मालूम पड़ता है,
यह आपका
अंतःकरण है।
और इसको जितना
आप प्रगाढ़
करते जाएं.।
पहले तो बहुत
धीमी झलक उसकी
मिलेगी।
क्योंकि हम
बाहर देखने के
इतने आदी हो
गए हैं कि आंखे
हमारी बाहर के
लिए नियोजित
हो गई हैं।
अचानक भीतर आंख
बंद करते हैं
तो कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
यह
ठीक वैसे ही
है, जैसे
आप सूरज की
रोशनी से एकदम
अंधेरे कमरे
में आ जाएं तो
आपको कुछ
दिखाई नहीं
पडता। लेकिन
थोड़ा बैठें। थोड़ी
ही देर में आंखे
अपने फोकस को
बदल लेती हैं।
वह कमरे के
लिए एडजस्ट
होती हैं, समायोजित
होती हैं। फिर
जितना अंधेरा
दिखाई पड़ता था,
उससे कम
अंधेरा दिखाई
पड़ता है। फिर
आप बैठे ही
रहें, चुपचाप
कमरे के साथ
एक होते जाएं।
थोड़ी देर में
कमरा
प्रकाशित
मालूम होने
लगता है।
अंधेरे से
अंधेरे कमरे
में भी अगर आप
राजी होकर
बैठें, तो
थोड़ी देर में
थोड़ा— थोड़ा
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है। लेकिन हम
अपने भीतर के
अंधेरे कमरे
में कभी बैठते
ही नहीं। कभी
थोड़ी—बहुत आंख
बंद करते है,।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
क्या आप कहते
हैं भीतर
देखें, भीतर
देखें! आंख
बंद करते हैं,
वहां तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
आप
जन्मों—जन्मों
से बाहर देख
रहे हैं। अनंत—अनंत
काल से बाहर
देख रहे हैं।
इतने काल के
बाद जब आप
भीतर जाएंगे, तो
अंधेरा तो
दिखाइएए
पड़ेगा। इसका
यह मतलब नहीं
है कि वहा
अंधेरा है। आप
जिस रोशनी को
देखने के आदी
हो गए हैं, वह
रोशनी वहा
नहीं है। वहां
और तरह की
रोशनी है। उस
और तरह की
रोशनी के लिए
थोड़ा धीरज
रखना जरूरी है।
इतना
ही एक आदमी कर
ले कि रोज एक
घंटा आंख बंद
करके बैठ जाए
और भीतर देखता
रहे, चाहे
कुछ दिखे और
चाहे न दिखे।
तीन महीने के
भीतर पाएगा कि
भीतर रोशनी
मालूम पड़ने
लगी। सिर्फ एक
घंटा। इतनी
प्रतीक्षा ही
करे—कुछ न करे।
लेकिन
हमारे पास
धैर्य इतना कम
है, जिसका
हिसाब नहीं।
धैर्य है ही
नहीं। एक आदमी
बैठता है दो
मिनट आंख बंद
करके, तो
कहता है : कुछ
भी सार नहीं
है। कुछ दिखाई
भी नहीं पड़ता।
न कोई आत्मा
है, न कोई
ब्रह्म के
दर्शन होते
हैं! छोड़ो भी।
इतनी देर में
तो रेडियो से
न्यूज ही सुन
लेते, कि
एक दफा अखबार
फिर से पढ़
लेते!
धैर्य
बिलकुल नहीं
है। पेशेन्स
जैसी कोई चीज
नहीं है। और
इस भीतर की
यात्रा में
धैर्य तो
आत्मा है।
सारे प्रयत्न
की आत्मा धैर्य
है।
आप
कुछ भी न करें
अगर, इतना
ही कर लें कि
रोज एक घंटा आंख
बंद करके बैठ
जाएं चाहे कुछ
हो, चाहे
कुछ न हो। बस
भीतर देखने की
कोशिश करते
रहें, टटोलते
रहें। आप थोड़े
ही दिनों में
पाएंगे कि
अंधेरा उतना घना
नहीं है, जितना
आपको लगता था।
थोड़ी— थोड़ी
रोशनी प्रगट होने
लगी। चीजें
थोड़ी साफ होने
लगीं। तीन
महीने निरंतर
धैर्यपूर्वक
देखने पर आपको
पहली दफा
अंतःकरण समझ
में आएगा कि
क्या है।
अंतःकरण का
मतलब है : भीतर
की इंद्रिय, जो भीतर
देखने में
समर्थ है। करण
का अर्थ होता
है, इंद्रिय,
उपकरण; और
अंत: का अर्थ
होता है, भीतर
की ओर ले जाने
वाली।
हमारी
बाकी
इंद्रियां
बहिर्करण हैं।
भीतर की तरफ
ले जाने वाली
इंद्रिय हम
उपयोग ही नहीं
कर रहे हैं।
और ध्यान रहे, जिस
इंद्रिय का
उपयोग नहीं
होता, वह
अपनी लोच की
क्षमता खो
देती है। आप
एक सालभर पैर
बांधकर बैठ
जाएं और उपयोग
न करें। फिर
पैर चल नहीं
सकेंगे। पैर
चल सकते थे
पहले, लेकिन
सालभर जड़ बने
रहे तो फिर चल
नहीं सकेंगे।
आप जिन—जिन
चीजों का
उपयोग नहीं
करेंगे, वे—वे
चीजें जड़ हो
जाएंगी।
उपयोग
जीवन का
हिस्सा है, उससे
चीजें सजग
रहती हैं।
हमने बहुत—सी
चीजों का
उपयोग बंद कर
दिया है, वे
समाप्त हो गई
हैं। और
अंतःकरण का
उपयोग तो हमने
न मालूम कितने
जन्मों से
नहीं किया है।
किया ही नहीं।
तो
इसलिए थोड़ी
प्रतीक्षा, धैर्य
अत्यंत
आवश्यक है। जो
पैर बहुत दिन
से न चला हो, उसकी मसाज
भी करनी पड़ेगी,
उसे चलाने
के थोड़े से
अभ्यास भी
करने पड़ेंगे।
और धीरे— धीरे
ही उसमें गति
होगी, खून
दौड़ेगा, प्राण
आएंगे। ठीक
वैसी ही
स्थिति
अंतःकरण की है।
यम
नचिकेता से कह
रहा है—शुद्ध
अंतःकरण। जिस
दिन यह भीतर
की इंद्रिय
पूर्ण
शक्तिवान हो
जाती है और
देखने में
समर्थ हो जाती
है, और
इसका
प्रत्यक्ष
शुद्ध हो जाता
है, चीजें
साफ होने लगती
हैं—इस
शुद्धता की
आखिरी अवस्था
में
ब्रह्मलोक है,
जहां आप
ब्रह्म जैसे
हो जाते हैं।
वहा दो और दो
चार, ऐसा
जाग्रत में
साफ हो जाए, स्वप्न में
नहीं।
प्रतिबिंब
में नहीं, सीधा
प्रत्यक्ष हो
जाए, साक्षात्कार,
वैसी सत्य
की प्रतीति
होती है।
अपने—
अपने कारण से
भिन्न— भिन्न
रूपों में
उत्पत्र हुई
इंद्रियों की
जो पृथक— पृथक
सत्ता है और
जो उनका उदय
और लय हो
जानारूप
स्वभाव है उसे
जानकर आत्मा
का स्वरूप
उनसे विलक्षण
समझने वाला
धीर पुरुष शोक
नहीं करता।
और
जैसे—जैसे
अंतःकरण
शुद्ध होगा, वैसे—वैसे
आपको दिखाई पड़ेगा
कि बाकी
इंद्रियों की
सारी शक्ति
उसी में लीन
होती जा रही
है। जैसे—जैसे
अंतःकरण सजग
होगा, बाकी
इंद्रियों की
जो बहती हुई
ऊर्जा है, जो
व्यर्थ उनसे
लीकेज—उनसे
व्यर्थ शक्ति
बाहर जा रही
थी—वह सब की सब
अंतःकरण को
उपलब्ध होने
लगी। और एक
घड़ी आती है, जब सारी बहिईंद्रिया
अपनी पूरी
ऊर्जा को
अंतःकरण में ही
लीन कर देती
हैं, उसी
में डूब जाती
हैं। कान, आंख,
जीभ, नाक—सब
उसी में डूब
जाते हैं।
डूब
जाने का अर्थ
है कि गंध की
जो क्षमता नाक
में थी, वह अंतःकरण
को उपलब्ध हो
जाती है। आंख
की जो क्षमता आंख
में थी देखने
की, वह अंतःकरण
को उपलब्ध हो
जाती है। अब
तो वैज्ञानिक
भी इससे किसी
दूसरे अर्थ
में राजी हैं।
आप
जानते हैं कि
अंधा आदमी
आपसे ज्यादा
अच्छी तरह से
सुनने लगता है।
इसलिए अंधा
संगीतज्ञ हो
सकता है—आपसे
ज्यादा अच्छा।
क्या कारण है? क्योंकि आंख
की ऊर्जा कान
को उपलब्ध हो
जाती है।
ट्रासफर हो
जाती है। आंख
काम नहीं कर
रही है तो जो
ऊर्जा आंख से
बाहर जाती है
और अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा आंख से
बाहर जा रही
है शरीर की।
आप अपनी आंखों
के दुरुपयोग
के कारण जितना
थकते हैं, उतना
और किसी चीज
के कारण नहीं
थक रहे हैं।
अमेरिका
में नई खोजें
कह रही हैं कि
टेलीविजन कैंसर
का मूल आधार
बनता जा रहा
है। क्योंकि
टेलीविजन आंख
को बुरी तरह
थकाने वाला है, जैसी और
कोई चीज नहीं
थका सकती।
अमेरिका में
डर पैदा हो
रहा है, टेलीविजन
का जैसा
विस्तार हुआ
है, वह
पूरे जीवन को
रुग्ण किए दे
रहा है। और
टेलीविजन
इतना
विक्षिप्त कर
देता है छोटे—छोटे
बच्चों को भी
कि वे दिनभर
देख रहे हैं।
जब भी उनको
मौका है, तब
वे टेलीविजन
पर अटके हुए
हैं! न उन्हें
खेलने में रस
है, न कहीं
बाहर जाने में।
सब कुछ
टेलीविजन हो
गया है।
आंख
की इतनी ऊर्जा
का व्यय कैंसर
पैदा कर सकता
है।, थक
जाए तो कैंसर
है। वह बीमारी
कम है, इसलिए
उसका इलाज
नहीं खोजा जा
रहा है, इलाज
खोजना
मुश्किल
मालूम पड़ रहा
है। क्योंकि
वह बीमारी
होती, तो
हम कुछ दवा
खोज लेते। वह
बीमारी कम है,
वह पूरे
यंत्र की गहरी
थकान है। जैसे
पूरा यंत्र
मरना चाहता है,
इतना थक गया
है। पूरे
यंत्र का रोआ—रोआ,
कण—कण मरने
के लिए आतुर
है, आत्मघाती
हो गया है, तो
फिर उसे जगाना
बहुत मुश्किल
है। उसको वापस
जीवन में लौटा
लेना बहुत
मुश्किल है।
आपकी
आंख जितना
थकाती है, उतनी कोई
चीज नहीं
थकाती। अंधे
आदमी की आंख
की ऊर्जा बह
नहीं रही, वह
कान की तरफ
बहने लगती है।
हैलन केलर है,
वह अंधी भी
है, बहरी
भी है, ग्ती
भी है। तो
सारी की सारी
ऊर्जा उसके
हाथों से बहने
लगी। उसके हाथ
इतने
संवेदनशील
हैं, कि
पृथ्वी पर
किसी के हाथ
नहीं।
क्योंकि वह
सारा काम हाथ
से ही लेती है।
किताब भी हाथ
से ही पढ़ती है।
लोगों से मिलती
भी है तो उनके
चेहरे को हाथ
से ही छूती है।
और जिस आदमी
का चेहरा एक
बार हाथ से छू
लेती है, उसके
हाथ की स्मृति
में प्रविष्ट
हो जाता है वह
चेहरा। दस साल
बाद भी चेहरे
को छूकर पहचान
लेगी कि वह कौन
है। सारी
ऊर्जा हाथ में
चली गई, स्पर्श
ही सब कुछ हो
गया।
वैज्ञानिक
इसको स्वीकार
करते हैं कि
ऊर्जाएं ट्रासफर
हो सकती हैं।
एक जगह से
दूसरी जगह
उपयोग में आ
सकती हैं। एक
इंद्रिय
दूसरे में लीन
हो सकती है।
लेकिन योग की
बहुत पुरानी
धारणा है कि
भीतर एक छठवीं
इंद्रिय है
जिसमें
पांचों
इंद्रियां
लीन हो सकती
हैं। और जिस
दिन उस छठवीं
इंद्रिय का
जागरण होता है
और सभी
इंद्रियां
उसमें लीन हो
जाती हैं, उस दिन
भीतर के अनुभव
शुरू होते हैं।
भीतर
ऐसी सुगंध है, जैसी
बाहर उपलब्ध
करने का कोई
उपाय नहीं। और
भीतर ऐसा नाद
है कि उस नाद
को बाहर का
श्रेष्ठतम
संगीत भी केवल
इशारा ही करता
है। और भीतर
ऐसा प्रकाश है
कि कबीर ने
कहा है कि हजार—हजार
सूरज जैसे एक
साथ उदय हो
जाएं।
अरविंद
कहते थे कि जब
मैं जागा हुआ
नहीं था, तो जिसे
मैंने जीवन
समझा था, अब
वह मृत्यु
जैसा मालूम
होता है।
क्योंकि अब
मैं भीतर के
जीवन से
परिचित हुआ हूं
तो तौल सकता
हूं। जिसे
मैंने सुख
समझा था, वह
आज परम दुख
मालूम पडता है।
क्योंकि भीतर
के आनंद का
उदय हुआ है, अब मैं
तुलना कर सकता
हूं कि सुख
क्या था। वह
परम दुख मालूम
होता है।
जिस
दिन सारी
इंद्रिया उसी
मूल इंद्रिय
में खो जाती
हैं जो
अंतःकरण है, उस दिन
भीतर के अनुभव
शुरू होते हैं।
भीतर जैसा
सौंदर्य है, जैसी सुगंध
है, जैसा
रस है, बाहर
तो केवल उसकी
झलक है। जिसे
हम संसार कह
रहे हैं, वह
सब फीका हो
जाता है।
त्यागियों ने
संसार छोड़ा
नहीं; उन्होंने
भीतर के, उस
परम भोग को
अनुभव किया है,
जिसके कारण
बाहर का सब
व्यर्थ हो गया।
इसलिए
मैं निरंतर
दोहराता हूं
कि सिर्फ
अज्ञानी
छोड़ते हैं, ज्ञानी
छोड़ते ही नहीं।
ज्ञानी तो और
श्रेष्ठतर को
पा लेते हैं।
उसके पाते ही
बाहर का
व्यर्थ हो
जाता है। आप
कंकड़—पत्थर से
खेल रहे थे, फिर किसी ने
कोहिनूर आपके
हाथ में दे
दिया।
कोहिनूर हाथ
में पड़ते ही
पत्थर—कंकड़
छूट जाते हैं।
फिर कोई
समझाने की
जरूरत नहीं कि
छोड़ो, ये
कंकड़—पत्थर
हैं; इनका
त्याग करो।
इसे समझाने का
कोई अर्थ ही
नहीं रह जाता।
कंकड़—पत्थर
तभी तक हीरे
मालूम होते
हैं, जब तक
हीरे को न
जाना हो। हीरे
को जानते ही
वे कंकड़—पत्थर
हो जाते हैं, क्योंकि
तुलना का उदय
होता है।
अंतःकरण
की जो प्रतीतियां
हैं, वे
जगत के सारे
सुखों को एकदम
फीका और क्षीण
कर जाती हैं, बासा कर
जाती हैं।
बाहर
भी संभोग है।
बाहर का संभोग
क्षणभर का सुख
है। लेकिन जब
अंतःकरण को
वीर्य की पूरी
ऊर्जा मिल
जाती है, तो भीतर जो
संभोग का रस
है...। भीतर के
पुरुष और
स्त्री का जो
मिलन है, हमने
उसी के प्रतीक
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
बनाई है, शंकर
की प्रतिमा
बनाई है, जो
आधी पुरुष है
और आधी स्त्री
है। सिर्फ
भारत ने वैसी
प्रतिमा बनाई,
पृथ्वी पर
कहीं भी कोई
वैसी प्रतिमा
नहीं है। वह
एक भीतर के
अनुभव का
अंकीकरण है
बाहर।
भीतर
जब स्त्री और
पुरुष की
दोनों
ऊर्जाएं
संयुक्त हो
जाती हैं.
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति में
दोनों
ऊर्जाएं हैं।
कोई भी आदमी न
तो पुरुष है
अकेला और न ही
कोई स्त्री
पूरी स्त्री
है। हर पुरुष
आधा पुरुष आधा
स्त्री, और हर
स्त्री आधी
स्त्री आधा
पुरुष है। इस
संबंध में इस
सदी के एक
बहुत बड़े
मनोवैज्ञानिक
कार्ल गुस्ताव
जुग की खोजें
बड़ी
महत्वपूर्ण
हैं।
कं
ने प्रमाणित
किया है कि हर
आदमी आधा—आधा
है। होगा ही।
क्योंकि हर एक
का जन्म 'स्त्री और
पुरुष के
मिलने से हुआ
है। और दोनों
ने दान दिया
है। आप जो भी
हैं, आपके
पिता का भी
अंश है और
आपकी मां का
भी अंश है। तो
आप एकदम पुरुष
नहीं हो सकते।
आप एकदम
स्त्री भी
नहीं हो सकते।
कुछ मां ने भी
दिया है, कुछ
पिता ने भी
दिया है, इसलिए
फर्क जो है वह
मात्रा का है।
अगर मां का
अंश ज्यादा है,
तो आप
स्त्री हो
जाएंगे। और
अगर पिता का
अंश ज्यादा है,
तो आप पुरुष
हो जाएंगे।
लेकिन यह
मात्रा का
फर्क है। साठ
परसेंट पुरुष,
चालीस
परसेंट
स्त्री, तो
आप पुरुष हो
जाएंगे। साठ
परसेंट
स्त्री, चालीस
परसेंट पुरुष—आप
स्त्री हो
जाएंगे।
इसलिए
कभी—कभी तो
ऐसी भी घटनाएं
घटती हैं कि
कुछ बाउंड्री
केसेज होते
हैं, सीमात—कि
करीब—करीब
पचास परसेंट
दोनों, तो
थर्ड सेक्स, एक तीसरी
यौन की स्थिति
बन जाती है।
कभी—कभी
इक्यावन
प्रतिशत और
उन्नचास
प्रतिशत, ऐसा फर्क
होता है। तो
पुरुष होता तो
पुरुष है, लेकिन
उसके सारे ढंग
स्त्रैण होते
हैं। स्त्री
होती तो
स्त्री है, लेकिन उसके
ढंग बिलकुल
पुरुष जैसे
होते हैं।
लक्ष्मीबाई
और जोन आफ
आर्क और
दुर्गावती—इनके
शारीरिक
विश्लेषण का
हमें कोई पता
नहीं है, लेकिन
इस बात की
पूरी संभावना
है कि इनमें
पुरुष—तत्व
बहुत ज्यादा
थे। खूब लड़ी
मर्दानी, वह
केवल कवि की
ही भाषा नहीं
है, अगर
कभी खोज—बीन
हो सके, तो
वह विज्ञान की
भी भाषा हो
सकती है।
लेकिन
यह समाज
पुरुषों का है, इसलिए
स्त्री अगर
तलवार लेकर
लड़े, तो हम
कहते हैं—शानदार
मर्दानी! और
अगर पुरुष बाल
बढ़ा ले और मधुर
ढंग से नाचे, तो हम कहते
हैं—नामर्द!
यह समाज
पुरुषों का है,
इसमें
स्त्री होना
पाप है। इसमें
पुरुष होना
बड़ी गुणवत्ता
है। अगर एक
पुरुष बड़े बाल
बढ़ाकर
स्त्रैण, मधुरभाव
में जीता है, तो हम निंदा
से देखते हैं।
और एक स्त्री
तलवार लेकर
मैदान में आ
जाती है, तो
हम बड़ी
प्रशंसा से
देखते हैं। यह
बड़ी अजीब बात
है।
अगर
मर्दानी
स्त्री
प्रशंसा के
योग्य है, तो
नामर्द पुरुष
क्यों प्रशंसा
के योग्य नहीं
है? दोनों
ही गुणवान हैं।
और अगर एक
निंदा के
योग्य है, तो
दूसरा भी
निंदा के
योग्य है।
लेकिन पुरुष
अपनी प्रशंसा
करता है
स्त्री की निंदा
करता चला जाता
है। और समाज
पुरुषों का है
और पुरुषों ने
इतना उपद्रव
किया है कि
स्त्रियों तक
को राजी कर
लिया है, कि
वे भी पुरुष
की धारणाओं से
राजी हो गई
हैं। वे भी
कहेंगी कि
क्या महान
लक्ष्मीबाई, मर्दानी! और
स्त्रिया भी
किसी पुरुष को
स्त्रैण ढंग
से देखकर
कहेंगी कि
नामर्द। उनके
मन में भी
निंदा है।
लेकिन हर आदमी
के भीतर दोनों
हैं।
आदमी
बायसेक्यूअल
है, द्विलिंगीय
है। इसलिए कभी—कभी
तो ऐसी घटनाएं
घट जाती हैं
कि एक पुरुष
अचानक थोड़े से
हार्मोन्स के
फर्क से, बीमारी
से, चोट से,
दुर्घटना
से स्त्री हो
जाता है। या
स्त्री पुरुष
हो जाती है।
इंग्लैंड में
कई मुकदमे
अदालत में आए
हैं, जिनमें
एक पुरुष ने
शादी की
स्त्री से, लेकिन बाद
में साल दो
साल के बाद वह
पुरुष स्त्री
हो गया और
अदालत को
डायवोर्स
दिलवाना पड़ा।
फिर तो इसकी
वैज्ञानिक
खोज बढ़ती चली
गई। और अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
ये हमारे हाथ में
है कि किसी भी
स्त्री को
पुरुष और
पुरुष को
स्त्री में
रूपांतरित
किया जा सकता
है। यह सर्जरी
हो सकती है।
व्यक्ति
के भीतर दोनों
हैं। और आपके
भीतर जो पुरुष
है, वह
बाहर की
स्त्रियों
में इसीलिए
उत्सुक है।
जिस दिन भीतर
की स्त्री से
मिलन हो जाए, उस दिन बाहर
की स्त्री में
रस खो जाएगा।
और
वह जो परम
संभोग है, जो
महासंभोग है,
जो भीतर
घटित होता है,
उसकी प्रतीक
है
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा—आधा
पुरुष आधी
स्त्री। जब
भीतर दोनों
मिल जाते हैं,
तब पहली दफा
इनडिवीजुअल, पहली दफा आप
में व्यक्ति
पैदा होता है;
विभेद, खंड
टूट जाते हैं।
आपकी दोनों
विपरीतताए
इकट्ठी हो
जाती हैं। एक
वर्तुल
निर्मित होता
है। उस वर्तुल
का नाम, उस
अंतर्संभोग
का नाम समाधि
है।
अंतःकरण
को सारी शक्ति
मिल जाती है
सारी इंद्रियों
की। और तब
भीतर जिस आनंद
की, अमृत
की वर्षा होती
है, कबीर
ने कहा है कि
घनघोर बरस रहे
हैं अमृत के बादल
और कबीर नहा
रहा है! हजार—हजार
सूरज उगे हैं
और प्रकाश
इतना, इतना
विराट है कि
जिसकी कोई
सीमा नहीं!
संतो
को निरंतर लगा
है कि वे जो
जानते हैं, उसे कहना
मुश्किल है।
क्योंकि जो भी
वे कहें, बाहर
की भाषा में
कहना पड़ेगा।
और बाहर की
चीजें ही सब
इतनी फीकी हो
गईं कि अब उस
भाषा का क्या
उपयोग करना!
सब बासा मालूम
होने लगा; बाहर
सब बासा मालूम
होने लगा। और
भीतर इतने
ताजे का, इतने
युवा का, इतने
स्फूर्त जीवन
से भरी हुई
धारा का अनुभव
होता है कि
बाहर के
शब्दों का
उसके लिए
उपयोग करना
अन्यायपूर्ण
लगता है।
इसलिए
बहुत संत चुप
रह गए हैं। या
उन्होंने कहा
भी है तो फिर
प्रतीक गढ़े
हैं। या फिर
उन्होंने
अपनी भाषा ही
गढ़ ली है अलग।
विद्वानजन
कबीर, नानक,
दादू की
भाषा को
सधुक्कड़ी
कहते हैं।
क्योंकि
उन्होंने
अपनी भाषा गढ़
ली। वे कुछ
ऐसे शब्दों का
प्रयोग करने
लगे, जो
उनके ही हैं।
कबीर
ने उलटबासिया
लिखीं, जिनमें से
कुछ मतलब नहीं
निकलता। उलटी
हैं ही वे।
जैसे कबीर ने
लिखा
है कि मछली
झाड़ पर चढ़ गई!
कहीं मछली कोई
झाड़ पर चढती
है? कि
नदी में आग लग
गई! नदी में
कहीं कोई आग
लगती है?
लेकिन
कबीर की
मजबूरी है।
आपकी जो भाषा
है अगर उसका
प्रयोग करें, ठीक वैसा
ही जैसा होता
है, तो वे
जो कहना चाहते
हैं, वह
इतना बड़ा है
कि उसमें
समाता नहीं।
तो फिर वे
आपसे उलटी
भाषा का
प्रयोग करते
हैं कि शायद
आपको चौंका
दें। शायद आप
समझने को
उत्सुक हो
जाएं। शायद आप
पूछने लगें, क्या मतलब
नदी में आग लग
जाने का? कि
मछली का झाडू
पर चढ़ जाने का
क्या प्रयोजन?
शायद
आप इस उलटी
भाषा से चौके।
यह एक शॉक
ट्रीटमेंट है, एक धक्का
है, जिससे
आपकी बंधी हुई
धारणाएं टूट
जाएं। बंधी
हुई भाषा
अस्तव्यस्त
हो जाए। तब
इशारे किए जा
सकते हैं।
और
जब सारी
इंद्रियां
लीन हो जाती
हैं अंतःकरण
में, तो
इस आत्मा के
विलक्षण
स्वरूप को
समझने वाला धीर
पुरुष शोक
नहीं करता। शोक
का कोई कारण
नहीं है। आनंद
से :परिपूर्ण
हो जाता है।
इंद्रियों
से तो मन
श्रेष्ठ है मन
से बुद्धि श्रेष्ठ
है बुद्धि से
उसका स्वामी
जीवात्मा श्रेष्ठ
है और
जीवात्मा से
अव्यक्त
शक्ति श्रेष्ठ
है। परंतु
अव्यक्त से भी
वह व्यापक और
सर्वथा आकाररहित
परमपुरुष
श्रेष्ठ है
जिसको जानकर
जीवात्मा
मुक्त हो जाता
है और
अमृतस्वरूप
आनंदमय
ब्रह्म को
प्राप्त हो जाता
है। इसे थोड़ा
समझ लें।
भीतर
से बाहर की
यात्रा के
पड़ाव हैं। ठीक
वे ही पड़ाव
बाहर से भीतर
की तरफ जाते
वक्त फिर से
पडेंगे। जब
चेतना उतरती
है पदार्थ तक, तो उसके
पड़ाव हैं, एक—एक
सीढ़ी नीचे
उतरती है। जब
वापस लौटती है,
तो उन्हीं
सीढ़ियों पर
फिर चढ़ती है।
सांख्य ने ये
पड़ाव बड़े
स्पष्ट किए
हैं। पहले
क्या है, फिर
वह कैसे तीन
में बंटता है,
फिर वह कैसे
नीचे उतरता
चला आता है।
शरीर तक आते—
आते कितनी जगह
चेतना
रूपांतरित
होती है।
जैसे
हम पानी को
गर्म करते हैं, या बर्फ
को गर्म करना
शुरू करते हैं।
बर्फ गर्म
होता है तो
पिघलता है।
पिघलकर पानी
बनता है। एक
खास डिग्री पर
बर्फ पानी हो
जाता है। फिर
हम गर्म करते
चले जाते हैं।
एक खास डिग्री
पर पानी उबलने
लगता है, फिर
सौ डिग्री पर
आकर भाप बनने
लगता है।
अगर
हमें वापस
बर्फ बनाना हो, तो हमें
लौटना पड़ेगा।
फिर हमें पानी
से गर्मी
खींचनी पड़ेगी;
भाप को ठंडा
करना पड़ेगा।
भाप ठंडी होगी
तो पानी बन
जाएगी। पानी
और ठंडा होगा
तो बर्फ बन
जाएगा। लेकिन
वे ही बिंदु
हमें पार करने
पड़ेंगे, वे
ही डिग्रियां,
जो हमने
बर्फ से भाप की
तरफ जाते वक्त
की थीं। वे ही
हमें लौटते
में, उलटी
यात्रा पर, बर्फ की तरफ
आने में? फिर
से उन्हीं
डिग्रियों से
गुजरना होगा।
ये
डिग्रियां
हैं :
इंद्रियों से
तो मन श्रेष्ठ
है। इसलिए
पहले
इंद्रियां मन
में लीन हो
जाती हैं, जब भीतर
की यात्रा
शुरू होती है।
मन से बुद्धि
श्रेष्ठ है।
इसलिए मन
विवेक में लीन
हो जाता है, जब भीतर की
तरफ चलते हैं।
बुद्धि से
जीवात्मा
श्रेष्ठ है।
फिर बुद्धि
जीवात्मा में
लीन हो जाती
है। जीवात्मा
से अव्यक्त
शक्ति
श्रेष्ठ है।
अव्यक्त
शक्ति को हम
ईश्वर कहें।
हमारी जो
प्रचलित भाषा
में अव्यक्त शक्ति
का नाम ईश्वर
है; वह
जो अप्रगट
होकर काम कर
रहा है। ईश्वर
ब्रह्म का काम
करता हुआ रूप
है।
परंतु
ईश्वर से भी
अव्यक्त से भी
व्यापक और सर्वथा
आकाररहित
परमपुरुष
श्रेष्ठ है
जिसको जानकर
जीवात्मा
मुक्त हो जाता
है और
अमृतस्वरूप
आनंदमय
ब्रह्म को
प्राप्त हो
जाता है।
जीवात्मा से
ईश्वर, ईश्वर से और
पीछे परम
निराकार
ब्रह्म।
उस
ओर से हम ऐसे
ही चलकर यहां
तक आए हैं।
भाप बनते तक
ब्रह्म पिघला
है, ईश्वर
बना है। ईश्वर
भी पिघला है, जीवात्मा
बना है।
जीवात्मा
पिघली है, बुद्धि
बनी है।
बुद्धि पिघली
है, मन बना
है। मन पिघलकर
इंद्रिया हो
गया है।
इंद्रियां
आखिरी पड़ाव
हैं। ठीक ऐसे
ही वापस लौटना
पड़ेगा। और एक—एक
चीज को उसके
पीछे छिपी हुई
शक्ति में लीन
करते चले जाना
है।
जिस
दिन लीन करने
को कुछ भी न
बचे, जिस
दिन आखिरी भाव
भी लीन हो जाए—ईश्वर
का भाव आखिरी
भाव है, उसके
पार फिर कोई
भाव नहीं, फिर
निर्भाव की
दशा है—जिस
दिन आखिरी भाव
भी लीन हो जाए,
उस दिन उस
परम का अनुभव
है, जिसे
उपनिषद
ब्रह्म कहते
हैं, जिसे
बुद्ध ने
निर्वाण कहा
है, महावीर
ने मोक्ष कहा
है।
इंद्रियों
से ब्रह्म तक
सरकना है, पीछे
वापस।
यह
सरकना हो सकता
है। क्योंकि जैसे
हम इंद्रियों
तक आ गए हैं, वैसे ही
हम वापस जा
सकते हैं।
इंद्रियों तक
आना हो सकता
है, तो
इंद्रियों से
वापस जाना भी
हो सकता है।
जिस रास्ते से
आप इस माउंट
आबू शिविर तक
आए हैं अपने
घर से, लौटते
वक्त उसी
रास्ते से आप
वापस अपने घर
की तरफ जाएंगे।
रास्ता वही होगा;
आप भी वही
होंगे। लेकिन
एक बार वह
रास्ता माउंट
आबू तक लाया
और दूसरी बार
वही रास्ता
माउंट आबू के
विपरीत आपको
ले जाएगा।
सिर्फ फर्क
होगा—दिशा
भिन्न होगी।
अभी माउंट आबू
की तरफ मुंह
था, जाते
वक्त माउंट
आबू की तरफ
पीठ होगी। बस
इतना ही फर्क
होगा।
बाकी
सब वही है। घर
भी वही, माउंट आबू
भी वही। आप भी
वही, रास्ता
भी वही। चलने
की शक्ति भी
वही। सब वही
है—सिर्फ दिशा।
अभी इस तरफ
मुंह था, जाते
वक्त इस तरफ
पीठ होगी।
अभी
हमारे मुंह
इंद्रियों की
तरफ हैं।
इंद्रियों की
तरफ पीठ हो
जाए, यात्रा
घर की तरफ
वापस शुरू हो
गई।
और
जब तक खोया
हुआ घर न मिल
जाए, तब
तक आदमी के
जीवन में कोई
चैन संभव नहीं
है। ध्यान के
लिए तैयार हों।
thank you guruji
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