सिद्धन, शास्त्र और वाद से मुक्ति—पन्द्रंहवां प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन
अभी-अभी
सूरज निकला।
सूरज के दर्शन
कर रहा था।
देखा आकाश में
दो पक्षी उड़े
जा रहे हैं।
आकाश में न तो
कोई रास्ता है, न
कोई सीमा है, न कोई दीवाल
है, न उड़नेवाले
पक्षियों के
कोई चरण-चिन्ह
बनते हैं।
खुले आकाश में
जिनकी कोई
सीमाएं नहीं,
उन
पक्षियों को
उड़ता देखकर
मेरे मन में
एक सवाल उठा :
क्या आदमी की
आत्मा भी इतने
ही खुले आकाश
में उड़ने की
गण नहीं करती?
क्या आदमी
के प्राण भी
नहीं तड़पते
हैं सारी सीमाओं
के ऊपर उठ
जाने के
लिये-सारे
बंधन तोड़ देने
के लिये? सारी
दीवालों के
पार-वहां, जहां
कोई दीवाल
नहीं; वहां,
जहां कोई
फासले नहीं; वहां, जहां
कोई रास्ते
नहीं; वहां,
जहां कोई
चरण-चिन्ह
नहीं बनते-उस
खुले आकाश में
उठ जाने को
मनुष्य की
आत्मा की भी
क्या प्यास
नहीं है?
उस
खुले आकाश का
नाम है, परमात्मा।
लेकिन अभी तो
पैदा होते ही
बंधनों में
बंधने लगता है।
चाहे पैदा कोई
स्वतंत्र
होता हो, लेकिन
बहुत कम
सौभाग्यशाली
लोग हैं, जो
स्वतंत्र
जीते हैं; और
बहुत कम
सौभाग्यशाली
लोग हैं, जो
स्वतंत्र
होकर मर पाते
हैं। आदमी
पैदा तो
स्वतंत्र
होता है, और
फिर निरंतर
परतंत्र होता
चला जाता है।
किसी आदमी की
आत्मा
परतंत्र न ही
होना चाहती; फिर भी आदमी
परतंत्र होता
चला जाता है!
.. तो
ऐसा प्रतीत
होता है कि
शायद हमने
परतंत्रता की बेड़ियों
को फूलो
से सजा रखा है;
शायद हमने
परतंत्रता को
स्वतंत्रता
के नाम दे रखे
हैं; शायद हमने
कारागृहों को
मंदिर समझ रखा
है। और इसलिये
यह संभव हो
सका है कि
प्रत्येक आदमी
के प्राण
स्वतंत्र
होना चाहते
हैं, पर
प्रत्येक
आदमी परतंत्र
ही जीता है और
परतंत्र ही
मरता है!
बल्कि, ऐसा
भी दिखायी
पडता है कि हम
अपनी
परतंत्रता की
रक्षा भी करते
हैं! अगर
परतंत्रता पर
चोट हो, तो
हमें तकलीफ भी
होती है, पीड़ा
भी होती है!
अगर कोई
परतंत्रता
हमारी तोड़
देना चाहे, तो वह हमें
दुश्मन भी
मालूम होता
है!
परतंत्रता
से आदमी का
ऐसा प्रेम
क्या है?
…… नहीं
परतंत्रता से
किसी का भी
प्रेम नहीं है।
लेकिन
परतंत्रता को
हमने स्वतंत्रता
के शब्द और
वस्त्र ओढ़ा
रखे हैं। एक
आदमी अपने को
हिंदू कहने
में जरा भी
ऐसा अनुभव
नहीं करता कि
मैं अपनी
गुलामी की
सूचना कर रहा
हूं। एक आदमी
अपने को
मुसलमान कहने
में जरा भी
नहीं सोचता कि
मुसलमान होना
मनुष्यता के
ऊपर दीवाल
बनानी है। एक
आदमी किसी बात
में, किसी
संप्रदाय में,
किसी देश
में अपने को
बांधकर कभी
ऐसा नहीं सोचता
कि मैंने अपना
कारागृह अपने
हाथों से बना
लिया है। बड़ी
चालाकी, बड़ा
धोखा आदमी
अपने को देता
रहा है। और
सबसे बड़ा धोखा
यह है कि हमने
कारागृहों को सुंदर
नाम दे दिये
हैं, हमने बेड़ियों
को फूलों से
सजा दिया है; और जो हमें
बांधे हुए हैं,
उन्हें हम मुक्तिदायी
समझ रहे हैं!
यह मैं
पहली बात आज
आपसे कहना
चाहता हूं कि
जो लोग भी
अपने जीवन में
क्रांति लाना
चाहते हैं, सबसे
पहले उन्हें
यह समझ लेना
होगा कि बंधा
हुआ आदमी कभी
भी जीवन की
क्रांति से नहीं
गुजर सकता। और
हम सारे ही
लोग बंधे हुए
लोग है।
यद्यपि हमारे
हाथों में
जंजीरें नहीं
हैं, हमारे
पैरों में बेड़ियां
नहीं हैं; लेकिन
हमारी
आत्माओं पर
बहुत जंजीरें
हैं, बहुत बेड़ियां
हैं। और पैरों
में बेड़ियां
पड़ी हों, तो
दिखायी भी पड़
जाती है, पर
आत्मा पर
जंजीरें पड़ी
हों, तो
दिखायी भी
नहीं पड़ती।
अदृश्य बंधन
इस बुरी तरह
बांध लेते हैं
कि उनका पता
भी नहीं चलता।
और जीवन हमारा
एक कैद बन
जाता है। और
वे अदृश्य
बंधन
हैं-सिद्धांतों
के, शास्त्रों
के और शब्दों
के।
एक
गांव में एक
दिन सुबह-सुबह
बुद्ध का
प्रवेश हुआ।
गांव के द्वार
पर ही एक
व्यक्ति ने
बुद्ध को पूछा, '' आप
ईश्वर को
मानते हैं? मैं नास्तिक
हूं। मैं
ईश्वर को नहीं
मानता हूं।
आपकी क्या
दृष्टि है?' बुद्ध ने
कहा, 'ईश्वर?
ईश्वर है।
ईश्वर के
अतिरिक्त और
कुछ भी सत्य
नहीं है। ''
बुद्ध
गांव के भीतर
पहुंचे तो एक
दूसरे व्यक्ति
ने बुद्ध को
कहा,
‘‘मैं
आस्तिक हूं।
मैं ईश्वर को
मानता हूं।
क्या आप भी
ईश्वर को
मानते हैं?'' बुद्ध ने
कहा, ‘‘ईश्वर?
ईश्वर है ही
नहीं। मानने
का कोई सवाल
ही नहीं उठता।
ईश्वर एक
असत्य है! ''
पहले
आदमी ने पहला
उत्तर सुना था, दूसरे
आदमी ने दूसरा
उत्तर सुना।
लेकिन बुद्ध
के साथ एक
भिक्षु था, आनंद। उसने
दोनों उत्तर
सुने। वह बहुत
हैरान हो गया
कि सुबह बुद्ध
ने कहा 'ईश्वर
है' और
दोपहर बुद्ध
ने कहा, 'ईश्वर
नहीं है! 'आनंद बहुत
चिंतित हो गया
कि बुद्ध का
प्रयोजन क्या
है? उसने
सोचा, सांझ
फुरसत होगी, रात सब लोग
विदा हो
जायेंगे, तब
पूछ लेगा।
लेकिन सांझ तो
मुश्किल और बढ़
गयी। एक तीसरे
आदमी ने आकर
कहा, ‘‘मुझे
कुछ भी पता
नहीं है कि
ईश्वर है या
नहीं। मैं
आपसे पूछता
हूं आप क्या
मानते
हैं-ईश्वर है,
या नहीं?'' बुद्ध उसकी
बात सुनकर चुप
रह गये और
उन्होंने कोई
भी उत्तर नहीं
दिया!
रात जब
सारे लोग विदा
हो गये, तो
आनंद बुद्ध को
पूछने लगा कि
मैं बहुत
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
मुझे बहुत
झंझट में डाल
दिया है आपने।
सुबह कहा, ऐँ 'ईश्वर
है; दोपहर
कहा, नहीं
है; सांझ
चुप रह गये।
मैं ' समझूं?
बुद्ध
ने कहा, ‘‘उन
तीनों में कोई
उत्तर तेरे
लिये नहीं
दिया गया था।
तूने वे उत्तर
लिये क्यों? जिनके
प्रश्न थे, उनको वे
उत्तर दिये
गये थे। तुझे
तो कोई उत्तर
दिया नहीं गया
था। '
आनंद
ने कहा, ‘‘क्या
मैं अपने कान
बंद रखता।
मैंने तीनों
बातें सुन ली
हैं। यद्यपि
उत्तर मुझे
नहीं दिये गये
लेकिन देने वाले
तो आप एक हैं
और आपने तीन
दिये ।''
बुद्ध
ने कहा, 'तू
नहीं समझा।
मैं उन तीनों
की मान्यताएं
तोड़ देना
चाहता था।
सुबह जो आदमी
आया था वह
नास्तिक था।
जो नास्तिकता
में बंध जाता
है, उस
आदमी की आत्मा
भी परतंत्र हो
जाती है। मैं
चाहता था, वद
अपनी जंजीर से
मुक्त हो जाये।
उसकी जंजीरें
तोड़ देनी थीं।
इसलिये उसे
मैंने
कहा-ईश्वर है।
ईश्वर है, मैंने
सिर्फ इसलिये
कहा कि वह जो
यह मानकर बैठा
है कि ईश्वर
नहीं है-वह
अपनी जगह से
हिल जाये, उसकी
जड़ें उखड
जायें, उसकी
मान्यता गिर
जाये, वह
फिर से सोचने
को मजबूर हो
जाये। वह रुक
गया है। उसने
सोचा है कि
यात्रा
समाप्त हो गयी
है। और जो भी
ऐसा समझ लेता
है कि यात्रा
समाप्त हो गयी
है, वह
कारागृह में
पहुंच जाता है।
जीवन
है अनंत
यात्रा। वह
यात्रा कभी भी
समाप्त नहीं
होती। लेकिन
हिंदू की
यात्रा
समाप्त हो
जाती है, बौद्ध
की यात्रा
समाप्त हो
जाती है, जैन
की यात्रा
समाप्त हो
जाती है, गांधीवादी की यात्रा
समाप्त हो
जाती है, मार्क्सवादी की यात्रा
समाप्त हो
जाती है; जिसको
भी वाद मिल
जाता है,उसकी
यात्रा
समाप्त हो
जाती है। वह
समझने लगता है
कि उसने सत्य
को पा लिया है,
कि वह सत्य
को उपलब्ध हो
गया है; अब
आगे खोज की
कोई जरूरत
नहीं है।
सभी
संप्रदायों
की,
सभी धर्मों
की, सभी पकड़वालों
की खोज समाप्त
हो जाती है।
…. बुद्ध
ने कहा, मैं
उसे अलग कर
देना चाहता था
उसकी जंजीरों
से, ताकि
वह फिर से
पूछे, वह
फिर से खोजे वह
आगे बढ़ जाये।
''.. दोपहर
जो आदमी आया
था, वह
आदमी आस्तिक
था। वह यह
मानकर बैठ गया
था कि ईश्वर
है। उसे मुझे
कहना पड़ा कि
ईश्वर नहीं है।
ईश्वर है ही
नहीं। ताकि
उसकी जंजीरें
भी ढीली हो
जायें, उसके
मत भी टूट
जायें; क्योंकि
सत्य को वे ही
लोग उपलब्ध
होते हैं, जिनका
कोई भी मत
नहीं होता।
'' और
सांझ जो आदमी
आया था, उसका
कोई मत नहीं
था। उसने कहा,
मुझे कुछ भी
पता नहीं कि
ईश्वर है या
नहीं। इसलिये
मैं भी चुप रह
गया। मैंने
उससे कहा कि
तू चुप रह कर
खोज, मत की
तलाश मत कर, सिद्धात की
तलाश मत कर।
चुप हो। इतना
चुप हो जा कि
सारे मत खो
जायें। तो
शायद, जो
है, उसका
तुझे पता चल
जाये। '' बुद्ध
के साथ आप भी
रहे होते तो मुश्किल
में पड़ गये
होते। अगर एक
उत्तर सुना
होता तो शायद
बहुत मुसीबत न
होती। लेकिन
अगर तीनों
उत्तर सुने
होते, तो
बहुत मुसीबत
हो जाती।
बुद्ध
का प्रयोजन
क्या है?.. बुद्ध
चाहते क्या
हैं?
.. बुद्ध
आपको कोई
सिद्धांत
नहीं देना
चाहते हैं; बुद्ध, आपके
जो सिद्धात
हैं, उनको
भी छीन लेना
चाहते हैं।
बुद्ध आपके
लिये कोई
कारागृह नहीं
बनाना चाहते;
आपका जो बना
कारागृह है, उसको भी
गिरा देना
चाहतें
हैं-ताकि वह
खुला आकाश
जीवन का, खुली
आंख उसे
देखने
की-उपलब्ध हो
जाये।
इससे
भी क्या होता है।
बुद्ध लाख
चिल्लाते
रहें कि तोड़
दो सिद्धांत, लेकिन
बुद्ध के पीछे
लोग इकट्ठे हो
जाते हैं और
उनके
सिद्धांत को. पकड़
लेते हैं।
दुनिया
में जिन
थोड़े-से लोगों
ने मनुष्य को
मुक्त करने की
चेष्टा की
है-मनुष्य
अजीब पागल
है-उन्हीं
लोगों को उसने
अपना बंधन बना
लिया है! चाहे
फिर वह बुद्ध
हों,
चाहे
महावीर हों, चाहे
मार्क्स हों
और चाहे गांधी
हों-कोई भी हो-जो
भी मनुष्य को
मुक्त करने की
चेष्टा करता है,
आदमी अजीब
पागल है, वह
उसी को अपना
बंधन बना लेता
है! उसी को
अपनी जंजीर
बना लेता है!
और जिंदा आदमी
तो कोशिश ही कर
सकता है कि वह
किसी के लिये
उसकी जंजीर न
बने, वह
मुर्दा आदमी
क्या करता है?
मरे
हुए नेता, मरे
हुए संत बहुत
खतरनाक सिद्ध
होते हैं-अपने
कारण नहीं, आदमी की आदत
के कारण। दुनिया
के सभी
महापुरुष, जो
कि मनुष्य को
मुक्त कर सकते
थे, लेकिन
नहीं कर पाये,
क्योंकि
मनुष्य उनको ही
अपने बंधन में
रूपांतरित कर
लेता है।
इसलिये
मनुष्य के
इतिहास में एक
अजीब घटना घटी
है कि जो भी
संदेश लेकर
आता है मुक्ति
का, हम
उसको ही अपना
एक नया काराणृह
बना लेते हैं!
इस भांति
जितने भी
मुक्ति के
संदेश दुनिया
में आये, उतने
ही ढंग की
जंजीरें दुनिया
में निर्मित
होती चली गयीं।
आज तक यही हुआ
है-क्या आगे
भी यही होगा? और आगे भी
यही हुआ, तो
फिर मनुष्य के
लिये कोई
भविष्य
दिखायी नहीं
पड़ता।
लेकिन
ऐसा मुझे नहीं
लगता कि जो आज
तक हुआ है, वह
आगे भी होना
जरूरी है। वह
आगे होना
जरूरी नहीं है।
यह संभव हो
सकता है कि जो
आज तक हुआ है, वह आगे न
हो-और न हो, तो
मनुष्यता
मुक्त हो सकती
है। लेकिन
मनुष्यता
मुक्त हो या न
हो, एक-एक
मनुष्य को भी
अगर मुक्त
होना है तो
उसे अपने
चित्त पर, अपने
मन पर, अपनी
आत्मा पर पड़ी
हुई सारी
जंजीरों को
तोड़ देने की
हिम्मत जुटानी
पड़ती है।
जंजीरें
बहुत मधुर हैं, बहुत
सुंदर हैं, सोने की हैं,
इसलिये और
भी कठिनाई हो
जाती है।
महापुरुषों
से मुक्त होना
बहुत कठिन
मालूम पड़ता है,
सिद्धांतों
से मुक्त होना
बहुत कठिन
मालूम पड़ता है,
शास्त्रों
से मुक्त होना
बहुत कठिन
मालूम पड़ता है।
और अगर कोई
मुक्त होने के
लिये कहे, तो
वह आदमी
दुश्मन मालूम
पड़ता है; क्योंकि
हम चीजों को
मानकर निशित
हो जाते हैं; खोजने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
और अगर कोई
आदमी कहता
है-मुक्त हो
जाओ, तो
फिर खोजने की
जरूरत शुरू हो
जाती है; फिर
मंजिल खो जाती
है; फिर
रास्ता काम
में आ जाता है।
और रास्ते पर
चलने में
तकलीफ मालूम
पड़ती है; मंजिल
पर पहुंचने के
बाद फिर कोई
यात्रा नहीं,
कोई श्रम
नहीं।
मनुष्य
ने अपने आलस्य
के कारण झूठी
मंजिलें तय कर
ली हैं। और हम
सबने मंजिलें
पकड़ रखी हैं।
पहली बात, पहला
सूत्र
जीवन-क्रांति
का मैं आपसे
कहना चाहता
हूं : और वह यह
कि एक
स्वतंत्र चित्त
चाहिये। एक
मुक्त चित्त
चाहिये।
एक
बंधा हुआ, केप्सूल के भीतर बंद,
दीवालों के
भीतर बंद, पक्षपातों
के भीतर बंद, वाद और
सिद्धांत और
शब्दों के
भीतर बंद
चित्त कभी भी
जीवन में
क्रांति से
नहीं गुजर
सकता।
और अभागे
हैं वे लोग, जिनका
जीवन एक
क्रांति नहीं
बन पाता; क्योंकि
वे वंचित ही
रह जाते हैं, उस सत्य को
जानने से कि
जीवन में क्या
छिपा है? क्या
था राज, क्या
था आनंद, क्या
था सत्य, क्या
था संगीत, क्या
था सौंदर्य? उस सबसे ही
वे वंचित रह
जाते हैं!
.. मैंने
सुना है, एक
सम्राट ने
अपनी सुरक्षा
के लिये एक
महल बनवाया था।
उसने ऐसा
इंतजाम किया
था कि महल के
भीतर कोई घुस
न सके। उसने
महल के सारे
द्वार-दरवाजे
बंद करवा दिये
थे। सिर्फ एक
ही दरवाजा महल
में रहने दिया
था और दरवाजे
पर हजार नंगी
तलवारों का
पहरा बैठा
दिया था। एक
छोटा छेद भी
नहीं था मकान
में। महल के
सारे
द्वार-दरवाजे
बंद करवाकर वह
बहुत
निश्चिंत हो
गया था। अब
किसी खिड़की से,
द्वार से, दरवाजे से; किसी डाकू
के, किसी
हत्यारे के, किसी दुश्मन
के आने की कोई
संभावना नहीं
रह गई थी।
पड़ोस
के राजा ने जब
यह सब सुना, तो
वह उसके महल
को देखने आया
पड़ोस का राजा
भी उस महल को
देखकर बहुत
प्रसन्न हुआ...।
आदमी
ऐसा पागल है, कि
बंद दरवाजों
को देखकर बहुत
प्रसन्न होता
है। क्योंकि
बंद दरवाजों
को वह समझता
है सुरक्षा, सिक्योरिटी,-
सुविधा।
….. उस
राजा ने भी
महल देखकर कहा,
‘‘हम भी एक
ऐसा महल बनायेंगे।
यह महल तो
बहुत
सुरक्षित है।
इस महल में तो
निशित रहा जा
सकता है। ''
जब
पड़ोस का राजा
विदा हो रहा
था और महल की
प्रशंसा कर
रहा था, तब
सड़क पर बैठा
हुआ एक बूढ़ा
भिखारी
प्रशंसा सुनकर
जोर से हंसने
लगा। भिखारी
को हंसता देख
महल के सम्राट
ने पूछा, 'तू
हंसता क्यों
है ' कोई
भूल तुझे
दिखायी पड़ती
है?
भिखारी
ने कहा, ''एक
भूल रह गयी है,
महाराज! जब
आप यह मकान
तैयार करवाते
थे, तभी
मुझे लगता था
कि एक भूल रह
गयी है। ''
सम्राट
ने कहा, ''कौन-सी
भूल?' उस
भिखारी ने कहा,
''एक दरवाजा
आपने रखा है, यही भूल रह
गयी है। यह
दरवाजा और बंद
कर लें, और
भीतर हो जायें,
तो फिर आप
बिलकुल
सुरक्षित हो
जायेंगे। फिर
कोई भी किसी
भी हालत में
भीतर नहीं
पहुंच सकेगा।'
सम्राट
ने कहा, ''पागल,
फिर तो यह
मकान कब्र हो
जायेगा। अगर
मैं एक दरवाजा
और बंद कर लूं
तो मैं मर जाऊंगा
भीतर। फिर तो
यह महल मेरी
मौत हो जायेगा।
''
भिखारी
ने कहा, ''इतना
आपको समझ में
आता है कि एक
दरवाजा और बंद
कर लेने से आप
मर जायेंगे, तो क्या
आपको यह समझ
में नहीं आता
कि जिस मात्रा
में दरवाजे
आपने बंद किये
है, उसी
मात्रा में आप
मर गये हैं? उसी मात्रा
में जीवन से आपके
संबंध टूट गये
हैं। अब एक
दरवाजा बचा है,
तो थोड़ा सा
संबंध बचा है।
अब आप थोड़े-से
जीवित हैं। इस
दरवाजे को भी
बंद कर देंगे,
तो बिलकुल
मर जायेंगे? अब यह मकान
एक कब की तरह
है, जिसमें
एक दरवाजा है।
यह दरवाजा और
बंद हो जाये, तो कब्र
पूरी हो
जायेगी। और
अगर आपके यह
लगता है कि एक
दरवाजा बंद
करने से मौत
हो जायेगी, तो जो
दरवाजे आपने
बंद करवा दिये
है, उन्हें
खुलवा
दें। और अगर
मेरी बात
समझें, सब
दीवालें
गिरवा दें, ताकि खुले
सूरज के नीचे,
खुले आकाश
के नीचे जीवन
का पूरा आनंद
उपलब्ध हो सके।'
शरीर
के लिये मकान
जरूरी हैं, और
शरीर के लिये
दीवालें भी
जरूरी हैं;' पर आला के
लिये न तो
मकान जरूरी है,
न दीवालें
जरूरी हैं।
लेकिन जिनके
पास शरीर को
छिपाने के
लिये मकान
नहीं हैं, उन्होंने
भी अपनी आत्मा
को छिपाने के
लिये दीवालें
और मकान बना
रखे हैं! जो
खुले आकाश के
नीचे सोते हैं,
उनकी
आत्माएं भी का
आकाश में नहीं
उड़ती! जिनके शरीर
पर वस्त्र
नहीं हैं, उन्होंने
भी आत्मा को
लोहे के
वस्त्र पहना
रखे हैं! और
फिर आदमी
पूछता है, हम
दुखी क्यों
हैं? फिर
आदमी पूछता है,
हम पीड़ित
फिर क्यों हैं?
फिर आदमी
पूछता है, आनंद
कहां मिलेगा?
कभी
परतंत्र चित्त
को आनंद मिला
है?
कभी
परतंत्रता
में कुछ जाना
गया है? परतंत्र
व्यक्ति कभी
भी किसी भी
स्थिति में सत्य
को, सौंदर्य
को उपलब्ध हुआ
है....?
मैं एक
घर में मेहमान
था। एक बहुत
प्यारी
चिड़िया उस घर
के लोगों ने
पिंजड़े में
कैद कर रखी थी।
चिड़िया को
बाहर का जगत
दिखायी पड़ता
होगा, लेकिन
पिंजड़े की
दीवालों के
भीतर बंद
चिड़िया को पता
भी नहीं हो
सकता कि बाहर
एक खुला आकाश
है, और
बाहर खुले
आकाश में उडने
का भी एक आनंद
है। शायद वह
चिड़िया उडने
का खयाल भी
भूल गयी होगी।
शायद, पंख
किस लिये हैं,
यह भी उसे
पता नहीं रहा
होगा। और अगर
आज उसे पिंजड़े
के बाहर भी कर
दिया जाये, तो शायद वह
बाहर आने से घबड़ायेगी
और अपने
सुरक्षित
पिंजड़े में
वापस आ जायेगी।
शायद, पंख
उसे अब
निरर्थक लगते
होंगे, बोझ
लगते होंगे।
और उसे यह भी
पता नहीं होगा
कि खुले आकाश
में सूरज की
तरफ बादलों के
पार उड़ जाने
का भी एक आनंद
है, एक
जीवन है। अब
उसे कुछ भी
पता नहीं होगा।
उस
चिड़िया को तो
कुछ भी पता
नहीं
होगा-क्या हमें
पता है? हमने
भी अपने चारों
और दीवालें
बना रखी हैं।
उन दीवालों के
पार, बियांड भी जहां कोई
सीमा नहीं है।
जहां आगे, और
आगे अनंत
विस्तार है।
जहां कोई लोक
है, सूरज
है, जहां
बादलों के पार
आगे खुला आकाश
है।
नहीं, हमें
भी उनका कोई
पता नहीं है।
शायद हमें भी
आत्मा एक बोझ
मालूम पड़ती है।
और हममें से
बहुत-से लोग
अपनी आत्मा को
खो देने की हर
चेष्टा करते
हैं। शराब
पीकर आआ
को भुला देने
की कोशिश करते
हैं। संगीत
सुनकर आत्मा
को भुला देने
की कोशिश करते
हैं। किसी तरह
आत्मा भूल
जाये, इसकी
चेष्टा करते
हैं। हमें
अपनी आत्मा भी
एक बोझ मालूम
पड़ती है, जैसे
पिंजड़े में
बंद एक चिड़िया
को उसके पंख
बोझ मालूम
होते हैं।
लेकिन हमें
पता नहीं है
कि एक आकाश है,
जहां आत्मा
भी एक पंख बन
जाती है। और
आकाश की एक
उड़ान है, जिस
उड़ान की
उपलब्धि का
नाम
है-प्रभु-परमात्मा।
धर्म
मनुष्य को
मुक्त करने की
कला है।
अगर
ठीक से कहूं
तो धर्म
मनुष्य के
जीवन में क्रांति
लाने की कला है।
इसलिये कायर
कभी धार्मिक
नहीं हो सकते।
डरे हुए लोग, भयभीत
लोग कभी
धार्मिक नहीं
हो सकते।
बल्कि भयभीत
और डरे लोगों
ने जो धर्म
पैदा किया है,
वह धर्म जरा
भी नहीं है।
वह धर्म के
बिलकुल उलटी
चीज है। वह
अधर्म से भी
बदतर है।
अधार्मिक
आदमी भी साहसी
हो सकता है। और
जो आदमी साहसी
है, वह
बहुत दिन तक
अधार्मिक
नहीं रह सकता।
अधार्मिक
आदमी भी
विचारशील
होता है। और
जो आदमी
विचारशील है,
वह बहुत दिन
तक अधार्मिक
नहीं रह सकता।
केशवचंद्र
विवाद करने
गये थे
रामकृष्ण से।
वे रामकृष्ण
की बातों का
खंडन करने गये
थे, सारे
कलकत्ते में खबर फैल
गई थी कि चलें,
केशवचंद्र की बातें
सुनें, रामकृष्ण
तो गांव के
गंवार हैं, क्या उत्तर
दे सकेंगे केशवचंद्र
का? केशवचंद्र तो बड़ा
पंडित है!
बड़ी
भीड़ इकट्ठी हो
गयी थी।
रामकृष्ण के
शिष्य बहुत
डरे हुए थे, कि
केशव के सामने
रामकृष्ण
क्या बात कर
सकेंगे! कहीं
ऐसा न हो कि
फजीहत हो जाये।
सब मित्र तो
डरे हुए थे, लेकिन
रामकृष्ण
बार-बार द्वार
पर आकर पूछते
थे कि 'केशव
अभी तक आये
नहीं'? एक
भक्त ने कहा
भी, 'आप पागल
होकर
प्रतीक्षा कर
रहे हैं! क्या
आपको पता नहीं
कि आप दुश्मन
की प्रतीक्षा
कर रहे हैं? वे आकर आपकी
बातों का खंडन
करेंगे। वे बहुत
बड़े तार्किक
हैं।'
रामकृष्ण
कहने लगे, 'वही
देखने के लिये
मैं आतुर हो
रहा हूं; क्योंकि
इतना तार्किक
आदमी
अधार्मिक
कैसे रह सकता
है, यही
मुझे देखना है।
इतना
विचारशील
आदमी कैसे
धर्म के विरोध
में रह सकता
है, यही
मुझे देखना है।
यह असंभव है।
'केशव
आये, और
केशव ने विवाद
शुरू किया।
केशव ने सोचा
था, रामकृष्ण
उत्तर देंगे।
लेकिन केशव
एक-एक तर्क
देते थे और
रामकृष्ण उठ-उठ
कर उन्हें गले
लगा लेते थे; आकाश की तरफ
हाथ जोड़कर
किसी को
धन्यवाद देने
लगते थे।
थोड़ी
देर में केशव
बहुत मुश्किल
में पड़ गये। उनके
साथ आये लोग
भी मुश्किल
में पड़ गये।
आखिर केशव ने
पूछा, ' आप करते
क्या हैं? क्या
मेरी बातों का
जवाब नहीं
देंगे? और
हाथ जोड़कर
आकाश में
धन्यवाद
किसको देते हैं?'
रामकृष्ण
ने कहा, ‘‘मैंने
बहुत चमत्कार
देखे, यह
चमत्कार
मैंने नहीं
देखा। इतना
बुद्धिमान
आदमी, इतना
विचारशील
आदमी धर्म के
विरोध में
कैसे रह सकता
है? जरूर
इसमें कोई
उसका चमत्कार
है। इसलिए मैं
आकाश में हाथ
उठाकर 'उसे'
धन्यवाद
देता हूं। और
तुमसे मैं
कहता हूं
तुम्हें मैं
जवाब नहीं
दूंगा, लेकिन
जवाब तुम्हें
मिल जायेंगे;
क्योंकि
जिसका चित्त
इतना मुक्त
होकर सोचता है,
वह किसी तरह
के बंधन में
नहीं रह सकता।
वह अधर्म के
बंधन में भी
नहीं रह सकता।
झूठे धर्म के
बंधन तुमने
तोड़ डाले हैं,
अब जल्दी, अधर्म के
बंधन भी टूट
जायेंगे।
क्योंकि, विवेक
अंततः सारे
बंधन तोड़ देता
है। और जहां
सारे बंधन टूट
जाते हैं, वहां
जिसका अनुभव
होता है, वही
धर्म है, वही
परमात्मा है।
मैं कोई दलील
नहीं दूंगा।
तुम्हारे पास
दलील देने
वाला बहुत
अद्भुत मस्तिष्क
है। वह खुद ही
दलील खोज लेगा।
''
केशव
सोचते हुए
वापस लौटे। और
उस रात
उन्होंने
अपनी डायरी
में लिखा, 'आज मेरा एक
धार्मिक आदमी
से मिलना हो
गया है। और
शायद उस आदमी
ने मेरा
रूपांतरण भी
शुरू कर दिया
है। मैं पहली
बार सोचता हुआ
लौटा हूं कि
उस आदमी ने
मुझे कोई
उत्तर भी नहीं
दिया और मुझे
विचार में भी
डाल दिया है! ''
मनुष्य
के पास विवेक
है,
लेकिन बंधन
में है! और
जिसका विवेक
बंधन में है, वह सत्य तक
नहीं पहुंच
सकता। हमें
सोच लेना
है-एक-एक
व्यक्ति को
सोच लेना है
कि हमारा
विवेक बंधन
में तो नहीं
है? अगर मन
में कोई भी
सम्प्रदाय है,
तो विवेक
बंधन में है।
अगर मन में
कोई भी
शास्त्र है, तो विवेक
बंधन में है।
अगर मन
में कोई भी
महात्मा है, तो
विवेक बंधन
में है। और जब
मैं ऐसा कहता
हूं तो लोग
सोचते हैं, शायद मैं
महात्माओं और
महापुरुषों
के विरोध में
हूं। मैं किसी
के विरोध में
क्यों होने
लगा? मैं
किसी के भी
विरोध में
नहीं हूं।
बल्कि सारे
महापुरुषों
का काम ही यही
रहा है कि आप
बंध न जायें।
सारे
महापुरुषों
की आकांक्षा
यही रही है कि
आप बंध न
जायें। और जिस
दिन आपके बंधन
गिर जायेंगे,
तो आपको पता
चलेगा कि आप
भी वही हो
जाते हैं, जो
महापुरुष हो
जाते हैं।
महापुरुष
मुक्त हो जाता
है,
और हम अजीब
पागल लोग हैं,
हम उसी
मुक्त
महापुरुष से
बंध जाते हैं!
समस्त
वाद बांध लेते
हैं। वाद से
छूटे बिना
जीवन में
क्रांति नहीं
हो सकती।
लेकिन यह खयाल
भी नहीं आता
कि हम बंधे
हुए लोग हैं।
अगर
मैं अभी कहूं
कि हिंदू धर्म
व्यर्थ है, या
मैं कहूं कि
इस्लाम
व्यर्थ है, या मैं कहूं
कि गांधीवाद
से छुटकारा
जरूरी है, तो
आपके मन को
चोट लगेगी। और
अगर चोट लगे, तो आप समझ
लेना कि आप
बंधे हुए आदमी
हैं। चोट
किसको लगती है?
चोट का कारण
क्या है? चोट
कहां लगती है
हमारे भीतर……?
चोट
वहीं लगती है, जहां
हमारे बंधन
हैं। जिस
चित्त पर बंधन
नहीं है, उसे
कोई भी चोट
नहीं लगती।
'इस्लाम
खतरे में है' यह सुनकर वे
जो इस्लाम के
बंधन में बंधे
है-खड़े हो
जायेंगे
युद्ध के लिए,
संघर्ष के
लिए! उनके
छुरे बाहर
निकल आयेंगे! 'हिन्दू-
धर्म खतरे में
है' -सुनकर,
वे जो
हिंदू- धर्म
के गुलाम हैं,
वे खड़े हो
जायेंगे लड़ने
के लिए! और अगर
कोई मार्क्स
को कुछ कह दे
तो जो मार्क्स
के गुलाम हैं वे
खड़े हो जाएंगे,
और अगर कोई
गांधी को कह
दे, तो जो
गांधी के
गुलाम हैं, वे खड़े हो
जायेंगे!
लेकिन वह और
यह गुलामी किसी
के साथ भी हो
सकती है। मेरे
साथ भी हो
सकती है...।
अभी
मुझे पता चला
कि बंबई में
किसी ने अखबार
में मेरे
संबंध में कुछ
लिखा होगा। तो
किन्हीं मेरे
दो मित्रों ने
उन मित्र को
रास्ते में
कहीं पकड़
लिया और कहा
कि अब अगर आगे
कुछ लिखा तो
तुम्हारी
गर्दन दबा
देंगे। मुझे
जिस मित्र ने
यह बताया, तो
मैंने उन्हें
कहा कि
जिन्होंने
उनको पकड़ कर
कहा कि गर्दन
दबा देंगे-वे
मेरे गुलाम हो
गये। वे मुझसे
बंध गये।
……मैं
अपने से नहीं
बांध लेना
चाहता हूं
किसी को। मैं
चाहता हूं कि
प्रत्येक
व्यक्ति किसी
से बंधा हुआ न
रह जाये। एक
ऐसी चित्त की
दशा हमारी हो
कि हम किसी से
बंधे हुए न
हों। उसी हालत
में क्रांति
तत्काल होनी शुरू
हो जाती है।
एक
एक्सप्लोजन, एक विस्फोट
हो जाता है।
जो आदमी किसी
से भी बंधा
हुआ नहीं है, उसकी आला
पहली दफा अपने
पंख खोल लेती
है, और
खुले आकाश में
उड़ने के लिए
तैयार हो जाती
है।
हमारे
पैर गड़े हैं
जमीन में, और
इस पर हम
पूछते हैं कि
चित्त दुखी है,
अशांत है, परेशान है!
आनंद कैसे
मिले? परमात्मा
कैसे मिले? सत्य कैसे
मिले? मोक्ष
कैसे मिले? निर्वाण
कैसे मिले?
कहीं
आकाश में नहीं
है निर्वाण।
कहीं दूर सात
आसमानों के
पार नहीं है
मोक्ष। यहीं
है,
और अभी है।
और उस आदमी को
उपलब्ध हो
जाता है, जो
कहीं भी बंधा
हुआ नहीं है।
जिसकी कोई
क्लिंगिंग
नहीं है।
जिसके हाथ, किसी दूसरे
के हाथ को नहीं
पक्के हुए है।
वह अकेला है, और अकेला
खड़ा है। और
जिसने इतना
साहस और इतनी
हिम्मत जुटा
ली है कि अब वह
किसी का
अनुयायी नहीं
है, किसी
के पीछे
चलनेवाला
नहीं है, किसी
का अनुकरण
करनेवाला
नहीं है। अब:
वह किसी का
मानसिक गुलाम
नहीं है, किसी
का मेंटल स्लेव
नहीं है।
….. लेकिन
हम कहेंगे कि
हम जैन हैं और
कभी नहीं सोचेंगे
कि हम महावीर
के मानसिक
गुलाम हो गये!
हम कहेंगे कि
हम कमुनिस्ट
हैं और कभी
नहीं सोचेंगे
कि हम मार्क्स
और लेनिन के
मानसिक गुलाम
हो गये! हम
कहेंगे कि हम गांधीवादी
हैं और कभी
नहीं सोचेंगे कि
हम गांधी के गुलाम
हो गये!
दुनिया
में गुलामों
की कतारें
लगी हैं।
गुलामियों के
नाम अलग-अलग
हैं,
लेकिन
गुलामियां
कायम हैं। मैं
आपकी गुलामी
नहीं बदलना
चाहता कि एक
आदमी से आपकी
गुलामी छुड़ाकर
दूसरे की
गुलामी आपको
पकड़ा दी जाये।
उससे कोई-
फर्क नहीं
पड़ता। वह वैसे
ही है, जैसे
लोग मरघट लाश
को ले जाते
हैं कंधे पर
रखकर तो जब एक
आदमी का कंधा दुखने
लगता है, तो
दूसरा आदमी
अपने कंधे पर
रख लेता है।
थोड़ी देर में
दूसरे का कंधा
दुखने
लगता है, तो
तीसरा अपने
कंधे पर रख
लेता है।
आदमी
गुलामियों के
कंधे बदल रहा
है। अगर गांधी
से छूटता है तो
मार्क्स को
पकड़ लेता है; महावीर
से छूटता है
तो मुहम्मद को
पकड़ लेता है; एक वाद से
छूटता तो फौरन
दूसरे वाद को
पकड़ने का
इंतजाम कर
लेता है।
.... लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं कि मैं
कहता हूं यह
गलत है, वह
गलत है। वे
पूछते है, आप
हमें यह बताइये
कि सही क्या
है? वे असल
में यह पूछना
चाहते हैं कि
फिर हम पकड़े क्या,
वह हमें बताइये।
जब तक हमारे
पास पकड़ने को
कुछ न हो, तब
तक हम कुछ
छोड़ेंगे नहीं!
और मैं
आपसे कह रहा
हूं पकड़ना गलत
है। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि आप
क्या पकड़े, मैं
आपसे कह रहा
हूं कि पकड़ना
ही गलत है।
क्लिंगिंग एज
सच। चाहे वह
पकड़ गांधी से
हो, या
बुद्ध से हो, या मुझसे हो।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
पकड़ने वाले
चित्त का
स्वरूप एक ही
है कि पकड़ने
वाला चित्त
खाली नहीं
रहना चाहता।
वह चाहता है
कहीं न कहीं
उसकी मुट्ठी
बंधी रहे। उसे
कोई सहारा
होना चाहिए।
और जब तक कोई
आदमी किसी का
सहारा खोजता
है, तब तक
उसकी आला के
पंख खुलने की
स्थिति में नहीं
आते। जब आदमी
बेसहारा हो
जाता है, सारे
सहारे छोड़
देता है, हैल्पलेस होकर खड़ा हो
जाता है, और
जानता है कि
मैं बिलकुल
अकेला हूं
कहीं किसी के
कोई चरण-चिन्ह
नहीं हैं...।
…... कहा
हैं महावीर के
चरण-चिन्ह, जिन पर आप चल
रहे हैं? कहां
हैं कृष्ण के
चरण-चिन्ह, जिन पर आप चल
रहे हैं? जीवन
खुले आकाश की
भांति है, जिस
पर किसी के
चरण-चिन्ह
नहीं बनते।
किसको पकड़े
हैं आप? कहां
हैं कृष्ण के
हाथ? कहां
हैं गांधी के
चरण, जिनको
आप पकड़े है?
सिर्फ आंख
बंद
करके सपना
देखू रहे हैं।
सपने देखने से
कोई आदमी
मुक्त नहीं
होता। न गांधी
के चरण आपके
हाथ में हैं, न
कृष्ण के, न
राम के। किसी
के चरण आपके
हाथ में नहीं
है। आप अकेले
खड़े हैं। आंख बंद
करके कल्पना
कर रहे हैं कि
मैं किसी को
पकड़े हुए हूं।
जितनी देर तक
आप यह कल्पना
किये हुए हैं,
उतनी देर तक
आपकी आत्मा के
जागरण का अवसर
पैदा नहीं
होता। और तब
तक आपके जीवन
में वह
क्रांति नहीं
हो सकती, जो
आपको सत्य के
निकट ले आये।
न जीवन में वह
क्रांति हो
सकती है कि
जीवन के सारे
पर्दे खुल
जायें; उसका
सारा रहस्य
खुल जाये, उसकी
मिस्ट्री
खुल जाये और
आप जीवन को
जान सकें, और
देख सकें।
बंधा
हुआ आदमी आंखों
पर चश्मा
लगाये हुए
जीता है। वह खिड़कियों
में से, छेदों
में से देखता
है दुनिया को।
जैसे कोई एक
छेद कर ले
दीवाल में और
उसमें से देखे
आकाश को, तो
उसे जो भी
दिखायी पड़ेगा,
वह उस छेद
की सीमा से
बंधा होगा, वह आकाश
नहीं होगा।
जिसे आकाश
देखना है, उसे
दीवालों के
बाहर आ जाना
चाहिये। और कई
बार कितनी
छोटी चीजें
बांध लेती हैं,
हमें पता भी
नहीं चलता!
रवींद्रनाथ
एक रात अपने
बजरे में एक
छोटी-सी मोमबत्ती
जला कर कोई
किताब पढ़ते थे।
आधी रात को जब
पढ़ते-पढ़ते वे
थक गये, तो
मोमबत्ती को
फूंक मार कर
उन्होंने
बुझा दिया और
किताब बंद कर
दी। उस रात
आकाश में
पूर्णिमा का
चांद खिला था।
जैसे ही
मोमबत्ती
बुझी कि
रवींद्रनाथ
हैरान हो गये
यह देखकर कि
बजरे की
रंध-रंध से, छिद्र-छिद्र
से, खिड़की
से, द्वार
से चंद्रमा के
प्रकाश की
किरणें भीतर आ
गई हैं, और
चारों ओर
अदभुत प्रकाश
फैल गया है।
वे खड़े होकर
नाचने लगे। उस
छोटी-सी
मोमबत्ती के
कारण उन्हें
पता ही नहीं
चला कि बाहर
पूर्णिमा का
चांद खिला है
और उसका
प्रकाश भीतर आ
रहा है। तब
उन्हें खयाल
आया कि
छोटी-सी
मोमबत्ती का प्रकाश
किस भांति चांद
के प्रकाश को
रोक सकता है।
उस रात
उन्होंने एक
गीत लिखा। उस
गीत में
उन्होंने
लिखा कि मैं
भी कैसा पागल
था : छोटी-सी
मोमबत्ती के
मद्धिम, धीमे
प्रकाश में
बैठा रहा और
बाहर चांद का
प्रकाश बरसता
था, उसका
मुझे कुछ पता
ही न चला! मैं
अपनी मोमबत्ती
से ही बंधा
रहा।
मोमबत्ती
बुझी, तो
मुझे पता चला
कि बाहर, द्वार
पर आलोक मेरी
प्रतीक्षा कर
रहा है।
जो
आदमी भी मत की, सिद्धांत
की, शास्त्र
की
मोमबत्तियों
को जलाये बैठे
रहते हैं, वे
परमात्मा के
अनंत प्रकाश
से वंचित हो
जाते हैं। मत
बुझ जाये, तो
सत्य प्रवेश
कर जाता है।
और जो आदमी सब
पकड़ छोड़ देता
है, उस पर
परमात्मा की
पकड़ शुरू हो
जाती है। जो
आदमी सब सहारे
छोड़ देता है, उसे
परमात्मा का
सहारा उपलब्ध
हो जाता है।
बेसहारा हो
जाना
परमात्मा का
सहारा पा लेने
का रास्ता है।
सब रास्ते छोड़
देना, उसके
रास्ते पर खड़े
हो जाने की
विधि है। सभी
शब्दों, सभी
सिद्धांतों
से मुक्त हो
जाना, उसकी
वनी को सुनने
का अवसर
निर्मित करना
है।
मैंने
एक छोटी-सी
कहानी सुनी है।
मैंने सुना है, कृष्ण
भोजन करने
बैठे हैं और रुक्मणि
उन्हें पंखा
झल रही है।
अचानक वे थाली
छोड्कर उठ
खड़े हुए और
द्वार की तरफ
भागे। रुक्मणि
ने पूछा ''क्या
हुआ है? कहां
भागे जा रहे
हैं?'' लेकिन,
शायद
उन्हें इतनी
जल्दी थी कि
वे उत्तर देने
को भी नहीं
रुके, द्वार
तक गये भागते
हुए। फिर
द्वार पर जाकर
रुक गये। थोड़ी
देर में लौट
आये और भोजन करनें
वापस बैठ गये।
रुक्मणि
ने कहा, 'मुझे बहुत
हैरानी में डाल
दिया आपने। एक
तो पलल की
भांति उठकर
भागे बीच भोजन
में और मैंने
पूछा तो उत्तर
भी नहीं दिया।
फिर द्वार तक
जाकर वापस भी
लौट आये! क्या
था प्रयोजन?
कृष्ण
ने कहा, 'बहुत जरूरत
आ गयी थी।
मेरा एक
प्यारा एक
राजधानी से
गुजर रहा था।
राजधानी के
लोग उसे पत्थर
मार रहे थे।
उसके माथे से
खून बह रहा था।
उसका सारा
शरीर लहू-लुहान
हो गया था।
उसके कपड़े
उन्होंने फाड़
डाले थे। भीड़
उसे घेरकर
पत्थरों से
मारे डाल रही
थी और वह खड़ा
हुआ गीत गा
रहा था। न वह
गालियों के
उत्तर दे रहा
था, न वह
पत्थरों के
उत्तर दे रहा
था। जरूरत पड़
गयी थी कि मैं
जाऊं, क्योंकि
वह कुछ भी
नहीं कर रहा
था। वह बिलकुल
बेसहारा खड़ा
था। मेरी एकदम
जरूरत पड़ गयी।'
रुक्यणि
ने पूछा, ''लेकिन
आप द्वार तक
जाकर वापस लौट
आये?'
'कृष्ण
ने कहा कि ''जब
तक मैं द्वार
तक पहुंचा, तब सब गड़बड़
हो गयी। वह आदमी
बेसहारा न रहा।
उसने पत्थर
अपने हाथ में
उठा लिये। अब
वह खुद ही
पत्थर का
उत्तर दे रहा
है। अब मेरी
कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिये मैं
वापस लौट आया
हूं। अब उस
आदमी ने खुद
ही अपना सहारा
खोज लिया है।
अब वह बेसहारा
नहीं है।
''यह
कहानी सच हो
कि झूठ। इस
कहानी के सच
और झूठ होने
से मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है। लेकिन एक
बात मैं अपने
अनुभव से कहता
हूं कि जिस
दिन आदमी
बेसहारा हो
जाता है, उसी
दिन परमात्मा
के सारे सहारे
उसे उपलब्ध हो
जाते हैं।
लेकिन हम इतने
कमजोर हैं, हम इतने डरे
हुए लोग हैं
कि हम कोई न
कोई सहारा
पकड़े रहते हैं।
और जब तक हम
सहारा पकड़े
रहते हैं, तब
तक परमात्मा
का सहारा
उपलब्ध नहीं
हो सकता है।
स्वतंत्र
हुए बिना सत्य
की उपलब्धि
नहीं है। और
सारी जंजीरों
को तोड़े बिना
कोई परमात्मा
के द्वार पर
अंगीकार नहीं
होता है।
लेकिन हम
कहेंगे-महापुरुषों
को कैसे छोड़
दें?
गांधी इतने
प्यारे हैं,उनको कैसे
छोड़ दें.....।
'कौन
कहता है, गांधी
प्यारे नहीं
हैं? कौन
कहता है, महावीर
प्यारे नहीं
हैं? कौन
कहता है, कृष्ण
प्यारे नहीं
हैं? प्यारे
हैं, यही
तो मुश्किल है।
इसलिए छोड़ना
मुश्किल हो
जाता है।
लेकिन
प्यारों को भी
छोड़ देना पडता
है, तभी वह
जो परम प्यारा
है, वह
उपलब्ध होता
है।
महात्मा, परमात्मा
और मनुष्य की
आत्मा के बीच
में खड़े हैं।
और ये महात्मा
अपनी इच्छा से
नहीं खड़े हूए
हैं। हमने
जिनको
महात्मा समझ
लिया है, उनको
खड़ा कर लिया
है, और वे
हमारे लिये
दीवाल बन गये
हैं।
व्यक्तियों
से मुक्त होने
की जरूरत है, ताकि वह जो
अव्यक्ति है,
वह जो महाव्यक्ति
है, उसके
और हमारे बीच
कोई बाधा न रह
जाए। शब्दों
और
सिद्धांतों
से मुक्त होने
की जरूरत है, ताकि सत्य
जैसा है, वैसा
उसे हम देख
सकें। अभी हम
सत्य को वैसा
ही देखते हैं,
जैसा हम
देखना चाहते
हैं, जैसी
हमारी इच्छा
काम करती है, जैसी हमारी
मान्यता काम
करती है, जैसे
हमारे चश्मे
काम करते हैं।
अभी हम जो
देखना चाहते
हैं, वही
देख लेते तै; जो है वह
हमें दिखायी
नहीं पड़ता और
जो है, वही
सत्य है।
कौन
देख पायेगा
उसे,
जो है। उसे
वही देख पाता
है, जिसका
अपना देखने का
कोई आग्रह
नहीं, कोई
मत नहीं, कोई
पंथ नहीं।
जिसकी आंखों
पर कोई चश्मा
नहीं। जो सीधा
नग्र, शून्य,
निर्वस्र-बिना
सिद्धातों के
खड़ा है। उसे
वही दिखायी
पड़ता है, जो
है।
और, वह
जो है, मुक्तिदायी है। वह जो है,
उसी का नाम जीवन
है। वह जो है, उसी का नाम
परमात्मा है।
यह
पहला सूत्र
ध्यान में
रखना जरूरी है
: अपने को
बांधें मत, और
जहां-जहां
बंधें हों, कृपा करें, वहां से छूट
जाएं। और यह
मत पूछें कि
छूटने के लिये
क्या करना पड़ेगा।
छूटने के लिये
कुछ भी नहीं
करना पड़ेगा।
क्योंकि
महापुरुष
आपको नहीं
बांधे हुए हैं
कि आपको कुछ
करना पड़े। आप
ही उनको पकड़े
हुए हैं। छोड़
दिया और वह
गये। और कुछ
भी नहीं करना
है। अगर कोई
दूसरा आपको
बांधे हो, तो
कुछ करना
पड़ेगा। आप ही
अगर पकड़ हों, तो जान लेना
पर्याप्त है-
और छूटना शुरू
हो जाता है।
कोई
गांधी गांधी
वादियों को
नहीं बांधे
हुए हैं।
गांधी तो
जिंदगी भर
कोशिश करते
रहे कि गांधीवाद
जैसी कोई चीज
खड़ी न हो जाये।
लेकिन गांधी वादी
बिना
गांधीवाद खड़ा
किये कैसे रह
सकते हैं! वाद
चाहिये, जिससे
बना जा सके।
अब वे उससे
बंध गये हैं।
अब उनसे पूछो,
तो वे
कहेंगे-कैसे छूटें? अगर
आप पूछते हैं
कि कैसे छूटें,
तो फिर आप
समझे नहीं।
कोई दूसरा
आपको बांधे
हुए नहीं है।
कृष्ण
हिंदुओं को
नहीं बांधे
हुए हैं-और न
मुहम्मद
मुसलमानों को-
और न महावीर
जैनों को।
कोई
किसी को बांधे
हुए नहीं है।
ये सारे तो
ऐसे लोग हैं, जो
छुटकारा
चाहते हैं कि
हर आदमी छूट
जाये। लेकिन
हम उनकी
छायाओं को
पकड़े हैं और
बंधे हैं।
हमें कोई
बांधे हुए
नहीं है, हम
बंधे हुए हैं।
और अगर हा।
बंधे हुए हैं,
तो बात साफ
है : कि हम
छूटना चाहें,
तो एक क्षण
भी छोड़ने में
नहीं लगता। तो
एक क्षण भी
गया। की जरूरत
नहीं है। आप
इस भवन के
भीतर बंधे हुए
आये थे। इस
भवन के बाहर
मुक्त होकर जा
सकते है।
मैं
अभी ग्वालियर
में था।
एक-डेढ वर्ष
पहले, ग्वालियर
के एक मित्र
ने मुझे फोन
किया कि मैं
अपनी बूढ़ी मां
को भी अपनी
सभा में लाना
चाहता हूं
लेकिन मैं
डरता हूं।
क्योंकि उनकी
उम्र कोई नब्बे
वर्ष है।
चालीस वर्षों
से वह दिन-रात
माला फेरती
रहती हैं।
सोती हैं, तो
भी रात उनके
हाथ में माला 'होती है। और
आपकी बातें
कुछ ऐसी है कि
कहीं उनको चोट
न लग जाये।
मेरी समझ में
नहीं आता कि
इस उम्र में
उनको लाना
उचित है या
नहीं….?
मैंने
उन मित्र को
खबर दी कि आप
जरूर ले आयें।
क्योंकि इस
उम्र में अगर
न लाये, तो हो
सकता है, जब
दुबारा मैं
आऊं तो आपकी
मां से मेरा
मिलना भी न हो
पाये। इसलिये
जरूर ले आयें।
आप चाहे आयें
या न आयें, मां
को जरूर ले
आयें…..।
वे मां
को लेकर आये।
दूसरे दिन
मुझे
उन्होंने खबर
की कि बड़ी चमत्कार
की बात हो गयी।
जब मैं आया, तो
आप माला के
खिलाफ ही
बोलने लगे। तो
मुझे लगा कि
यह आपको खबर
करना तो ठीक
नहीं हुआ।
मैंने आपसे
कहा कि मेरी
मां माला
फेरती है, तो
मुझे लगा कि
आप माला के
खिलाफ ही
बोलने लगे! तो
मुझे लगा कि
आप मेरी मां
को ही ध्यान
में रखकर बोल रहे
हैं। उसको
नाहक चोट
लगेगी, नाहक
दुख होगा। मैं
डरा, पूरे
रास्ते गाड़ी
में मैंने मां
से पूछा भी नहीं
कि तेरे मन पर
क्या असर हुआ?
घर
जाकर मैंने
पूछा कि कैसा
लगा,
तो मेरी मां
ने कहा, ''कैसा
लगा? मैं
माला वहीं
मीटिंग में ही
छोड़ आयी।
चालीस साल का
मेरा भी अनुभव
कहता है कि
माला से मुझे
कुछ भी नहीं
मिला। लेकिन
इतनी हिम्मत
नहीं जुटा पा
रही थी कि उसे
छोड़ दूं। वह
बात मुझे खयाल
आ गई, माला
तो मुझे पकड़े
हुए नहीं थी, मैं ही उसे
पकड़े हुए थी।
मैंने उसे छोड़
दिया तो वह
छूट गयी! ''
तो आप
यह मत पूछना
कि कैसे हम
छोड़ दें। कोई
आपको पकड़े
हुए नहीं है, आप
ही मुट्ठी
बांधे हुए हैं।
छोड़ दें और वह
छूट जाता है।
और छूटते ही
आप पायेंगे कि
चित्त हल्का
हो गया, निर्भार
हो गया-तैयार
हो गया-एक
यात्रा के लिये।
इन
चार दिनों में
उस यात्रा के
और सूत्रों पर
हम बात करेंगे, लेकिन
पहला सूत्र
है-नो क्लिंगिंग,
कोई पकड़
नहीं। सब पकड़
छोड़ देनी है।
पकड़ छोड़ते ही
मन तैयार हो
जाता है। पकड़
छोड़ते ही मन
पंख फैला देता
है। पकड़
छोड़ते ही मन
सत्य की
यात्रा के
लिये
आकांक्षा
करने लगता है।
और जो
मत से बंधे
हैं,
वे डरते हैं
सत्य को जानने
से। मतवादी
हमेशा सत्य को
जानने से डरता
है। क्योंकि
जरूरी नहीं है
कि सत्य उसके
मत के पक्ष
में हो। सत्य
विपरीत भी पड़
सकता है। मतवादी
अपने मत को
नहीं छोडना
चाहता, इसलिये
सत्य को जानने
से वह वंचित
रह जाता है।
मैं
निरंतर कहता
हूं दो तरह के
लोग हैं
दुनिया में।
एक वे लोग हैं, जो
चाहते हैं, सत्य हमारे
पीछे चले और
दूसरे वे हैं,
जो सत्य के
पीछे खड़े हो
जाते हैं। मतवादी
सत्य को अपने
पीछे चलाना
चाहता है। वह
कहता है कि
मेरा मत सही
है। और
सत्यवादी
कहता है, मैं
सत्य के पीछे
खड़ा हो जाऊंगा।
मेरे मत का
कोई मूल्य
नहीं है।
मूल्य है सत्य
का।
जिसको
सत्य के पीछे
खड़ा होना है, उसे
मत छोड़ देना
पड़ेगा, क्योंकि
सत्य को जानने
में मत बाधा
देगा, रोकेगा
और अड़चन
डालेगा।
अगर आप
हिंदू हैं, तो
आप धार्मिक
नहीं हो सकते
हैं। अगर आप
ईसाई हैं, तो
आप धार्मिक
नहीं हो सकते
है।
अगर
धार्मिक होना
है,
तो ईसाई, हिंदू और
मुसलमान होने
से मुक्ति
आवश्यक है।
अगर
जीवन के सत्य
को जानना है, तो
जीवन के संबंध
में जो भी मत
पकड़ा है, उससे
मुक्ति
आवश्यक है।
.. वह
बूढ़ी औरत
अदभुत थी। छोड़
गयी माला।
माला की कीमत
चार आना तो
रही ही होगी।
आप जो सिद्धांत
पकड़े हैं, उसकी
कीमत चार आना
भी नहीं है।
उसको ऐसे ही
छोड़ा जा सकता
है, आंख मूंद कर।
'शो छोड़ कर
आप नुकसान में
नहीं पड़
जायेंगे।
छोड़ते ही आप
पायेंगे कि जो
छूट गया है, वह सत्य की
तरफ जाने में
बाधा था। और
पहली बार आंख खुलेगी
कि मैं जीवन
को वैसा देख
सकूं,जैसा
वह है।
यह
पहला सूत्र है।
इस संबंध में
जो भी प्रश्न
हों,
वह आप लिखकर
दे देंगे, तथा
अन्य प्रश्न
भी लिखकर दे
देंगे, ताकि
सुबह की
चर्चाओं में
आपके
प्रश्नों की बात
हो सके-और
सांझ को मैं
और सूत्रों की
बात करूंगा।
मेरी
बातों को इतने
प्रेम और
शांति से सुना।
उसके लिये
बहुत अनुगृहीत
हूं और अंत
में सबके भीतर
बैठे परमात्मा
को प्रणाम
करता हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
'जीवन
क्रांति के
सूत्र'
बड़ौदा
13
फरवरी 1966, प्रात
:
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