नारी और क्रांति—प्रवचन तैरहवां
मेरे
प्रिय आत्मन
व्यक्तियों
में ही, मनुष्य
में ही सी और
पुरुष नहीं
होते हैं—पशुओं
में भी
पक्षियों में
भी। लेकिन एक
और भी नयी बात
आपसे कहना
चाहता हू :
देशों में भी
सी और पुरुष
देश होते हैं।
भारत
एक सी देश है
और सी देश रहा
है। भारत की
पूरी मनःस्थ्ति
स्त्रैण है।
ठीक उसके उलटे
जर्मनी और
अमेरिका जैसे
देशों को
पुरुष देश कहा
जाता है। भारत
की पूरी आत्मा
नारी है।
इसलिए ही भारत
कभी?
आक्रामक
नहीं हो पाया।
पूरे इतिहास
में आक्रामक
नहीं हो पाया!
इसलिए भारत
में हिंसा का
कोई प्रभाव
पैदा नहीं हो
सका। भारत की
पूरे विचार की
कथा अहिंसा की
कथा है। भारत
के पूरे
इतिहास को
देखने से एक? आश्रर्यजनक
घटना मालूम
पड़ती है।
दुनिया का कोई
भी देश उस
अर्थों में स्त्रैण
नहीं है, जिस
अर्थों में
भारत। यही
भारत का
दुर्भाग्य भी
सिद्ध हुआ।
सारा जगत
पुरुषों का, सारा जगत
पुरुष—वृत्तियों
का, सारा आक्रामक,
सारा जगत
हिंसात्मक भारत
अकेला
आक्रामक नहीं,
हिंसात्मक
नहीं!
भारत
के पिछले तीन
हजार वर्ष का
इतिहास दुख, परेशानी
और कष्ट ०
इतिहास रहा
है। लेकिन यही
तथ्य आने वाले
भविष्य में
सौभाग्य का
कारण भी बन
सकता है।
क्योंकि जिन
देशों ने
पुरुष के प्रभाव
में विकास
किया, अपनी
मरण घड़ी के
निकट पहुँच
गये।
पुरुष
का चित्त
आक्रमण का
चित्त है, एग्रेशन
का। पुरुष का
चित्त हिंसा का
चित्त है, वायलेंस
का। पश्चिम
के जिन देशों
ने उस चित्त
के अनुकूल
विकास किया, वे सारे देश
धीरे— धीरे
युद्धों से
गुजरकर अंतिम
युद्ध, टोटल
वार के करीब
पहुंच गये। अब
कोई परिणति
नहीं मालूम
होती—सिवाय कि
ये टकराये और
टूट जायें, नष्ट हो
जायें। उनके
साथ पुरुषों
ने जो सभ्यता
खड़ी की है आज
तक, वह
सारी की सारी
नष्ट हो जाये।
या
दूसरा उपाय यह
है कि इतिहास
का चक्र घूमे
और पुरुष की
सभ्यता की कथा
बंद हो, और एक
नया अध्याय
शुरू हो, जो
अध्याय सी
चित्त की
सभ्यता का
अध्याय होगा।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है। इसे
हम समझें तो हम
मनुष्य चेतना
के भीतर चलने
वाले सबसे बड़े
ऊहापोह से
परिचित हो
सकेंगे।
नीत्शे
जैसा व्यक्ति
भारत में हम
लाख कोशिश करें
तो पैदा नहीं
हो सकता।
नीत्शे
जर्मनी में ही
पैदा हो सकता
है! और जर्मनी
लाख उपाय करे
तो भी गांधी और
बुद्ध जैसे
आदमी को पैदा
करना जर्मनी
के लिए असंभव
है। गांधी और
बुद्ध जैसे
व्यक्ति भारत
में ही पैदा
हो सकते हैं।
यह पैदा हो
जाना आकस्मिक
नहीं है, यह
एक्सीडेन्टल
नहीं है। कोई
व्यक्ति पैदा
होता है, कोई
विचारधारा
पैदा होती है,
यह पूरे देश
के प्राणों के
हजारों
वर्षों के मंथन
का परिणाम
होता है।
यह
आश्रर्यजनक
है कि भारत का
आज तक का पूरा
इतिहास भूलकर
भी पुरुष का
इतिहास नहीं
रहा है। और
इसीलिए भारत
में विज्ञान
का जन्म भी
नहीं हो सका।
विज्ञान एक
पुरुष कर्म
है। विज्ञान का
अर्थ है :
प्रकृति पर
विजय।
विज्ञान का
अर्थ है, जो
चारों तरफ
फैला हुआ जगत
है, उसको
जीतना। पुरुष
का मन जीतने
में बहुत आतुर
है।
भारत
ने प्रकृति को
जीतने की कोई
कोशिश नहीं की।
असल में भारत
ने कभी भी
किसी को जीतने
की कोई कोशिश
नहीं की।
जीतने की
धारणा ही भारत
के चित्त में
बहुत गहरे
नहीं जा सकी।
कभी किन्हीं
ने छोटे—छोटे
प्रयास किये
तो भारत की
आत्मा उनके
साथ खड़ी नहीं
हो सकी।
स्वभावत:
इस दुनिया में
सारे लोग
जीतने में आतुर
हों,
उसमें भारत
पिछड़ता चला
गया। यह भी
दिखाई पड़ेगा
कि इस पिछड़
जाने में अब
तक तो
दुर्भाग्य रहा।
लेकिन आगे
सौभाग्य हो
सकता है।
क्योंकि वे जो
जीत की दौड़
में आगे गये
थे, वे
अपनी जीत के
ही अंतिम
परिणाम में
वहां पहुंच
गये हैं, जहां
आत्मघात के
सिवा और कुछ
भी नहीं हो
सकता।
बुद्ध
ने कहा था, बैर
को बैर से
नहीं जीता जा
सकता, हिंसा
से हिंसा भी
नहीं जीती जा सकती।
लेकिन यह किसी
ने भी सुना
नहीं। सुना भी
नहीं जा सकता
था, समय भी
नहीं था
परिपक्व
सुनने के लिए।
आज यह बात
सुनी जा सकती
है। आज यह समझ
में आना शुरू
हो गया कि आज
तो हिंसा का
अर्थ है :
सार्वजनिक
विनाश। पिछले
महायुद्ध में
हिरोशिमा और
नागासाकी पर
जो एटम गिराया
गया था, उस
समय विचारशील
लोगों ने सोचा
था, इससे
खतरनाक
अस्त्र अब
पैदा नहीं हो
सकेगा। लेकिन
20 ही वर्षों
में
विचारशीलों
को पता चला कि
आज हिरोशिमा
और नागासाकी
पर गिराये गये
एटम बम बच्चों
के खिलौने
मालूम पड़ते
हैं। इतने 20 वर्षों
में हमने बड़े
अस्त्र पैदा
कर लिए!
एक
उदजन बम चालीस
हजार वर्गमील
में किसी तरह
के जीवन को
नहीं बचने
देगा। और
पृथ्वी पर
पचास हजार
उदजन बम तैयार
हैं। ये पचास
हजार उदजन बम
जरूरत से
ज्यादा हैं, सरप्लस
हैं। अगर हम
पूरी पृथ्वी
को नष्ट करना चाहें
तो थोड़े से बम
से काम हो
जायेगा। इतने
की कोई जरूरत
नहीं पड़ेगी।
लेकिन
राजनैतिक
बहुत होशियार
हैं। वे सोचते
हैं कि
भूल—चूक न हो
जाये, इसलिए
पूरा— और
जरूरत से
ज्यादा—इंतजाम
करना उचित है।
पचास हजार
उदजन बम इस
तरह की सात
पृथ्वियों को
नष्ट करने के
लिप्त काफी
हैं। यह पृथ्वी
बहुत छोटी है।
या हम ऐसा समझ
सकते हैं कि
अब
मनुष्य—जाति
की कुल संख्या
साढ़े तीन अरब
है, पच्चीस
अरब लोगों को
मारने के लिए
हमने इंतजाम
कर लिया। या
हम ऐसा भी समझ
सकते हैं कि
एक आदमी को
सात—सात बार
मरना पड़े तो
हमारे पास
सुविधा और
व्यवस्था है।
हालांकि आदमी
एक ही बार में
मा जाता है।
दुबारा मारने की
जरूरत नहीं
पड़ती। लेकिन
भूल—चूक न हो
जाये, इसलिए
इंतजाम कर
लेना ठीक से
उचित और जरूरी
है।
एक—एक
आदमी को
सात—सात बार
मारने के
इंतजाम का अर्थ
क्या है? प्रयोजन
क्या है? यह
क्या है? पागल
दौड़ है! क्या
मनुष्य जाति
का मन
विक्षिप्त हो
गया है? मनुष्य
जाति का मन निश्चित
विक्षिप्त हो
गया है।
क्योंकि
मनुष्य जाति
का पूरा का
पूरा अब तक का
विकास अकेले
पुरुष का
विकास है।
पुरुष आधा
है—पुरूष जाति
का। आधी सी
जाति का उस
विकास में कोई
भी हाथ नहीं!
इसलिए संतुलन
खो गया।
बैलेंस खो
गया।
यह
दुनिया
करीब—करीब ऐसी
है,
जैसे एक देश
में स्रियां
बिलकुल न हों।
सिर्फ पुरुष
ही पुरुष रह
जाये, तो
वह देश पागल
हो जाएगा। ठीक
इससे उलटा भी
हो जायेगा।
अगर किसी देश
में स्त्रियां
ही स्त्रियां
हों और पुरूष
न हों तो वह
देश पागल हो
जायेगा। स्त्री
और पुरुष
परिपूरक हैं।
वे दोनों साथ
हैं, तभी
पूरे हैं।
लेकिन सभ्यता
के मामले में
जो सभ्यता आज
तक निर्मित
हुई है, वह
अकेले पुरुष
की सभ्यता है,
उसमें स्त्री
का कोई योगदान
नहीं है! स्त्री
से कोई मांग
भी नहीं की
गई। स्त्री
ने आगे बढ़कर
कोई योगदान
किया भी नहीं।
यह पुरुष की
सभ्यता पागल
होने के करीब
आ गई।
एक छोटी—सी
कहानी से मैं
समझाने की
कोशिश करूं, जो
मुझे बहुत
प्रीतिकर रही
है।
एक
झूठी कहानी
है। मैंने
सुनार है कि
ईश्वर दूसरे
महायुद्ध के
बाद बहुत
परेशान हो
गया। ईश्वर तो
तभी से परेशान
है,
जब से उसने
आदमी को
बनाया। जब तक
आदमी नहीं था,
बड़ी शांति
थी दुनिया
में। जब से
आदमी को बनाया,
तब से ईश्वर
बहुत परेशान
है। सुना तो
मैंने यह है
कि तबसे वह
ठीक से सो
नहीं सका बिना
नींद की दवा
लिए। सो भी
नहीं सकता।
आदमी सोने दे
तब न! आदमी खुद
न सोता है, न
किसी और को
सोने देता दे।
और इतने आदमी
है कि ईश्वर
को सोने कैसे
देंगे! इसलिए
आदमी को बनाने
के बाद ईश्वर
ने फिर और कुछ
नहीं बनाया।
बनाने का काम
ही बंद कर
दिया। इतना
घबड़ा गया
होगा कि बस अब
क्षमा चाहते
हैं, अब
आगे बनाना भी
ठीक नहीं।
दूसरे
महायुद्ध के
बाद वह घबड़ा
गया होगा।
ऐसे तो
इतने युद्ध
हुए कि ईश्वर
की छाती पर कितने
घाव पड़े होंगे
कि कहना
मुश्किल है।
सबसे मजा तो
यह है कि हर
घाव पहुंचाने
वाला ईश्वर की
प्रार्थना
करके ही घाव
पहुंचाता है।
और मजा तो यह
है कि हर
युद्ध करने
वाला ईश्वर से
प्रार्थना
करता है कि
हमें विजेता
बनाना।
चर्चों में
घंटियां बजाई
जाती हैं, मंदिरों
में
प्रार्थनायें
की जाती हैं, युद्धों में
जीतने के लिए!
पोप आशीर्वाद
देते हैं, युद्धों
में जीतने, के लिए!
ईश्वर की छाती
पर जो घाव
लगते होंगे, उन घावों का
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
तीन
हजार साल के
इतिहास में
पंद्रह हजार
युद्ध और आगे
का पीछे का
इतिहास तो पता
नहीं है। हम यह
मान नहीं सकते
कि उसके पहले
आदमी नहीं
लड़ता रहा
होगा। लड़ता ही
रहा होगा। जब
तीन हजार
वर्षों में पंद्रह
हजार युद्ध
करता है आदमी, प्रति
वर्ष पांच
युद्ध करता है
तो ऐसा मानना
बहुत मुश्किल
है कि वह शांत
रहा होगा।
इतना ही है कि
उसके पहले का
इतिहास हमें
शात नहीं। दूसरे
महायुद्ध के
बाद ईश्वर
घबड़ा गया।
क्योंकि पहले महायुद्ध
में साढ़े तीन
करोड़ लोगों की
हत्या हुई!
दूसरे
महायुद्ध में
हत्या की
संख्या साढ़े सात
करोड़ पहुंच
गई। क्या हो
गया आदमी को?
उसने
दूनिया के तीन
बड़े
प्रतिनिधियों
को अपने पास
बुलाया। रूस
को,
अमेरिका को,
ब्रिटेन को
और उनसे पूछा
कि मैं
तुम्हें
वरदान देना
चाहता हूं!
तुम एक—एक
वरदान मांग लो,
ताकि यह
दुनिया की
पागल होड़ बंद
हो जाये। युद्ध
बंद हो जायें।
आदमी बच सके।
और फिर तो यह
ठीक भी है।
अगर आदमी यह
तय करता हो कि
हमको मरना है तो
मर जाये, लेकिन
अपने साथ सारे
जीवन को नष्ट
करने का तो
कोई हक मनुष्य
को नहीं। मैं
तुमसे
प्रार्थना
करता हूं!
ईश्वर
से हमेशा
प्रार्थना की
गई थी, लेकिन
समय बदल गया!
कभी नाव नदी
पर होती है, कभी नदी नाव
पर हो जाती है!
ईश्वर
ने हाथ जोड़कर
घुटने टेक
दिये, उन
तीनों के
सामने! हम
प्रार्थना
करते हैं कि एक—एक
वरदान मांग
लो। तुम जो भी
चाहते हो, मैं
पूरा कर दूं।
अमेरिका के
प्रतिनिधि ने
कहा, 'हे
महाप्रभु, एक
ही इच्छा है
हमारी, वह
पूरी हो जाये
फिर तो दूनिया
में कभी युद्ध
नहीं होगा।
रूस जमीन पर न
बचे। इसका कोई
निशान न रह
जाये। इतना हम
चाहते हैं और
हमारी कोई आकांक्षा
नहीं। '
ईश्वर
ने घबराकर रूस
की तरफ देखा।
जब अमेरिका यह
कहता हो—
धार्मिक देश!
तो रूस क्या
कहेगा? रूस
ने कहा महाशय!
यह हो सकता है,
कहा हो
कामरेड! क्षमा
करें। पहले तो
मैं विश्वास
नहीं करता कि
आप हैं।
कैपिटल पढ़ी है
कार्ल मार्क्स
की? कम्यूनिस्ट
मैनिफेस्टो
पढ़ा है—एंजल्स
और कार्ल
मार्क्स का? कितने जमाना
पहले
उन्होंने खबर
कर दी कि भगवान
नहीं है। और 1917 से रूस के
ग़रिजों से
आपको निकाल
बाहर किया। आप
अब नहीं हैं।
मुझे शक होता
है, मैं
वोडका शराब
ज्यादा पी गया
हूं। इसलिए आप
दिखाई पड़ रहे
हैं। और या यह
भी हो सकता है
कि मैं कोई
सपना देख रहा
हूं। लेकिन
बड़ा आश्रर्यजनक
है कि सोवियत
भूमि पर ऐसा
धार्मिक सपना
कैसे संभव हो
पाता? अगर
सरकार को पता
लग गया कि ऐसे
धार्मिक सपने आदमी
देखते हैं, तो सपने
देखने पर भी
पाबंदी हो
जायेगी। सपने
देखने की
स्वतंत्रता
नहीं दी जा
सकती आदमी को।
गलत सपने
देखने की
स्वतंत्रता
दी जाये? रूस
में नहीं दी
जा सकती। चीन
में नहीं दी
जा सकती।
फिर भी
मैं आपसे यह
कहता हूं कि
हो सकता है कि
आप हों। एक
सबूत दें होने
का तो हम आपकी
पूजा फिर से शुरू
कर दें। दीये
जलेंगे, धूप
जलेगी, मंदिरों
में पूजा होगी,
घंटियां
बजेगी—एक
इच्छा पूरी कर
दें। एक ही
इच्छा है
हमारी—दूनिया
का नक्शा हो,
लेकिन
अमेरिका के
लिए कोई
रंगरेखा उस
नक्शे पर हम
नहीं चाहते।
और
घबरायें मत!
क्योंकि
ईश्वर घबड़ा
गया होगा। घबड़ाये
मत,
अगर आप न कर
सकें तो फिकर
मत करें, अगर खुद
यह काम करने
का पूरा इंतजाम
कर लिया है।
हम खुद भी कर
लेंगे। हम
आपके भरोसे पर
नहीं कर यह
इंतजाम। यह
इंतजाम अपने
पैरों पर किया
है और हमें
इसकी भी कोई
चिन्ता नहीं
है कि अमेरिका
को मिटाने में
हम मिट
जायेंगे। हम
मिट जायें, उसकी फिकर
नहीं, लेकिन
अमेरिका नहीं
रहना चाहिए।
यह हमारा कष्ट
है।
ईश्वर
ने बहुत
घबड़ाकर
ब्रिटेन की
तरफ देखा। ब्रिटेन
ने जो कहा, वह
ध्यान से सुन
लेना।
ब्रिटेन ने
कहा, हे
परम पिता, चरणों
पर सिर रख
दिया, अब
हमारी कोई
आकांक्षा
नहीं, 'इन
दोनों की
आकांक्षाएं
एक साथ पूरी
कर दी जायें, हमारी
आकांक्षा
पूरी हो
जायेगी।'
यह
हमें हंसने
जैसा मालूम
होता है, लेकिन
किस पर हंसते
हैं आप? ब्रिटेन
पर, अमेरिका
पर, रूस पर,
भगवान
पर—किस पर
हंसते हैं आप?
या तो अपने
पर, या कि
मनुष्य पर, या कि
मनुष्यता पर?
मनुष्य को
क्या हुआ है? कौन—सा रोग
है उसके मन
में? उसके
प्राणों को
कौन—सी चीज खा
रही है कि
मिटाना, मिटाना,
यही इसके
प्राणों की
पुकार बन गई
है—मृत्यु और
मृत्यु! पुरुष
जीतना चाहता
है और जीत
उसको एक ही
तरह सूझती है।
मारने से, मृत्यु
से, मिटाने
से। पुरुष को
सूझता ही नहीं
कि मिटाने के
अलावा कोई जीत
होती है? उसे
यह पता ही
नहीं है कि यह
मिटाकर कभी
कोई जीता ही
नहीं है।
एक और
जीत भी होती
है,
जो मिटाने
से नहीं आती।
उसे यह पता भी
नहीं है, एक
और जीत भी
होती है, जो
हार जाने से
आती है। यह
पुरुष को पता
ही नहीं!
एक ऐसी
जीत भी हो
सकती है, जो
उसको मिलती है
जो हार जाता
है, जो
लड़ता ही नहीं।
इसका पुरुष को
कोई भी पता
नहीं।
उसे
पता हो भी
नहीं सकता।
उसके चित्त की
पूरी की पूरी
प्रकृति
एग्रेसिव, आक्रामक
है। उसका एक
ही खयाल है :
दबो या दबाओ, हारो या
जीतो। और
जीतने की दौड़
में चाहे कुछ
भी हो जाये, खुद मिटो
चाहे कोई मिट
जाये, लेकिन
जीतना जरूरी
है। लेकिन
जीतना किसलिए
जरूरी है? जीतना
जीने के लिए
जरूरी है। और
जीतने में मौत
लानी पड़ती है
और जीना
मुश्किल हो
जाता है। अजीब
चक्र है।
जीतना जीने के
लिए जरूरी
मालूम पड़ता है,
और जीतने
में मौत आती
है और जीना
मुश्किल हो जाता
है।
लेकिन
इसी विशियस
सर्किल में, दुष्चक्र
में, पिछले
3—4 हजार वर्ष का
इतिहास आदमी
का, घूमते—घूमते
आखिरी इसी जगह,
क्लाइमैक्स
पर आ गया है, जहां कि
विश्वयुद्ध
की पूरी
संभावना खड़ी
हो गयी है। या
तो
विश्वयुद्ध
होगा और सारी
मनुष्यता
समाप्त होगी।
और या फिर अब
तक
मनुष्य—जाति के
दूसरे हिस्से
ने कोई भी
कंट्रीब्यूशन
मनुष्य की सभ्यता
का निर्माण
करने में, मनुष्य
को जीने में, सहयोग देने
में, जो
आधी दुनिया अब
तक चुपचाप खड़ी
रही है, उसे
कुछ करना
पड़ेगा। और एक
नयी सभ्यता को,
जो पुरुष
प्रधान न हो, नयी सभ्यता
को, जो ही
के हृदय और स्त्री
के गुणों पर
खड़ी होती हो, उसको जन्म
देना पड़ेगा।
नीत्शे
ने बहुत क्रोध
से यह बात
लिखी है कि
मैं बुद्ध को
और क्राइस्ट
को स्त्रैण
मानता हूं बूमिनिस्ट
मानता हूं। यह
उसने गाली दी
है बुद्ध को
और क्राइस्ट
को। अगर वह
गांधी को
जानता होता तो
गांधी के' बाबत
भी यही कहता
कि तीनों के
तीनों आदमी
ठीक अर्थों
में पुरुष
नहीं है। उसने
यह सोचा होगा
कि किसी पुरुष
को स्त्री कह
देने से और
कोई बड़ी गाली
क्या हो सकती है?
लेकिन
पुरुष होना ही
आज—वह जो
पुरुष की आज
तक की प्रगति
रही है, उसमें
होना आज— संकट,
क्राइसिस
पैदा कर दिया
है। आज खोजबीन
करनी जरूरी है
कि स्त्री के
चित्त से क्या
सभ्यता का
आधार, मूल
आधार रखा जा
सकता है? क्या
यह हो सकता है?
क्या हम
दूसरी तरफ भी
देखें? और
ध्यान करें कि
क्या उस तरफ
से भी जीवन की
नयी दिशा में
विकास के नये
स्रोत, मनुष्यता
का एक नया
इतिहास रखा जा
सकता है?
मुझे
लगता है कि
रखा जा सकता
है। और अगर
नहीं रखा जा
सकता है तो
फिर पुरुष के
हाथ में अब
आगे कोई भविष्य
नहीं है, वह
अपने अंतिम
क्षण पर आ गया
है।
लेकिन
स्रियों को
कोई खयाल नहीं
है! या तो स्त्रियां
गुलाम हैं
पुरुष की या
स्त्रियां
नंबर 2 के
पुरुष बनने की
कोशिश में
संलगन हैं!
दोनों ही
हालतें बुरी
हैं। गुलामी
की,
स्लेवरी की
हैं। भारत
जैसे मुल्कों
में स्त्रियों
की कोई आवाज
नहीं। अपनी
कोई आत्मा भी
नहीं। भारत
में स्त्री
का अपना कोई
व्यक्तित्व
नहीं। उसकी
कोई पुकार
नहीं। उसका
कोई होना
नहीं। वह न
होने के बराबर
है।
हालांकि
पूरे देश का
विचार कभी भी
पुरुष चित्त
के अनुकूल
नहीं रहा, क्योंकि
भारत को जिन
लोगों ने
प्रभावित
किया, उन्होंने
जीवन के बहुत
कोमल गुणों—पर
जोर दिया।
बुद्ध ने
करुणा पर, महावीर
ने अहिंसा पर।
उन्होंने जोर
दिया जीवन के
प्रेम तत्व
पर। लेकिन
उनकी आवाज गज
कर खोती रही।
यह किसी को
खयाल नहीं आया
कि यह आवाज अगर
स्रियां पकड़
लेंगी तो ही
सफल हो सकती
हैं, अन्यथा
यह आवाज सफल
नहीं हो सकती।
अगर पुरुष प्रेम
की बात भी
करेगा तो
अहिंसा से आगे
नहीं जा सकता।
और इसे थोड़ा
समझ लेना।
अहिंसा का
मतलब होता है,
हम हिंसा
नही करेंगे।
यह निगेटिव
बात है। हम किसी
को चोट नहीं
पहुचायेंगे।
अहिंसा से आगे
पुरुष का जाना
मुश्किल है।
वह या तो
हिंसा कर सकता
है या अहिंसा
कर सकता है।
लेकिन प्रेम
का उसे सूझता
ही नहीं! प्रेम
पाजिटिव बात
है। अहिंसा का
मतलब है, हम
दूसरे को दुख
नहीं
पहुचायेंगे।
एक बात है कि
हम दूसरे को
दुख नहीं
पहुचायेंगे, यही हमारे
जीवन का सूत्र
होगा। चाहे एक
दूसरे को
कितना ही दुख पहुंचे,
हम अपना सुख
पायेंगे। यही
जीवन की
आधार—शिला होगी।
एक सूत्र तो
यह है पुरुष
का।
फिर
पुरुष अगर
बहुत ही
सोच—समझ और
विचार का उपयोग
करता है, तो
इससे उलट
सूत्र पर
पहुंचता है।
वह कहता है, हम दूसरे को
दुख नहीं पहुंचायेंगे।
लेकिन
स्त्री का
चित्त अहिंसा
से राजी नहीं
हो सकता। स्त्री
का चित्त कहता
है प्रेम।
प्रेम का अर्थ
है : हम दूसरे
को सुख
पहुंचायेंगे।
इसलिए
अहिंसा ठीक
अर्थों में
हिंसा का
विरोध नहीं
है। सिर्फ
हिंसा का अभाव
है। हिंसा का
ठीक विरोध
प्रेम है।
क्योंकि हिंसा
कहती है, हम
दूसरे को दुख
पहुंचायेंगे,
यही हमारे
सुख का मार्ग
है। प्रेम
कहता है, हम
दूसरे को सुख
पहुचायेंगे, यही हमारे
सुख का मार्ग
है।
अहिंसा
बीच में है, और
अहिंसा कहती
है, हम
दूसरे को दुख
नहीं
पहुचायेंगे।
अहिंसा बहुत
इम्पोटेंट
हैं। अहिंसा
बीच में अटक
जाती है, बहुत
आगे नहीं जाती,
वह पुरुष को
हिंसा करने से
रोक लेती है।
लेकिन प्रेम
करने तक नहीं
पहुंचाती।
हिन्दुस्तान ने
अहिंसा की तो
बात की।
लेकिन...
क्योंकि पुरुषों
ने बात की थी, वह भी बहुत
ठीक। वे
अहिंसा तक की
बात कर सके। पश्चिम
के पुरुषों से
उन्होंने एक
कदम बहुत आगे
उठाया। स्त्री
के हृदय की
तरफ एक कदम
आगे बढ़ाया।
लेकिन आखिर
पुरुष कितने
दूर जा सकते
हैं? वह
बात अहिंसा पर
आकर अटक गयी।
और
मैंने ऐसा
अनुभव किया है, अगर
पुरुष अहिंसा
की भी बात करे
तो बहुत जल्दी
उसकी अहिंसा
में भी हिंसा
शुरू हो जाती
है। अगर पुरुष
सत्याग्रह भी
करेगा, अगर
पुरुष अनशन भी
करेगा तो वह
अनशन भी दूसरे
की गर्दन
दबाने के उपाय
की तरह करेगा।
वह भी प्रेशर,
वह भी दबाव
होगा। वह भी
जबर्दस्ती
होगी। अगर दस
आदमी अनशन
करेंगे किसी
काम के लिए, तो वे धमकी
दे रहे हैं कि
हम मर जायेंगे,
हमारी बात
मानो। यह धमकी
बहुत
हिंसापूर्ण
है। यह धमकी
अहिंसक नहीं
है। यह बहुत
हिंसापूर्ण
है। अहिंसा का
भी हिंसक
उपयोग है यह।
मैंने
सुना है, एक
युवक, एक
युवती को
प्रेम करता
था। उसने जाकर
उसके घर के
सामने अहिंसक
अनशन कर दिया,
कहा कि
मुझसे विवाह
करो, अन्यथा
मैं भूखा मर
जाऊंगा। घर के
लोग घबड़ा गये।
क्योंकि अगर
वह छुरा लेकर
आता तो पुलिस
में खबर कर
देते। वह छुरा
लेकर नहीं
आया। वह धमकी
लेकर आया था
कि मैं मर जाऊंगा।
वह
बोरिया—बिस्तर
लगाकर द्वार
के सामने बैठ
गया। गांव में
उसका प्रचार
करने वाले लोग
मिल गये।
बेवकूफों
का प्रचार
करने वालों की
कोई कमी नहीं
है। उन्होंने
जाकर गांव भर
में खबर कर दी, कि
एक अहिंसक
आंदोलन हो रहा
है। एक युवक
ने अपने प्राण
बाजी पर लगा
दिये है। सारे
गांव की सहानुभूति
उस युवक के
साथ होने लगी।
जो भी मरता हो,
उसके साथ
सहानुभूति
स्वाभाविक
है। घर के लोग बहुत
घबड़ा गये
उन्होंने कहा
हम क्या करें?
बड़ी मुसीबत
हो गई?
घर के
लोगों को किसी
परिचित ने
सलाह दी कि
गांव में एक
और भी अहिंसक
सत्याग्रह
करने वाला अनुभवी
व्यक्ति है।
तुम उससे जाकर
पूछो। उन्होंने
जाकर सलाह ली।
उसने कहा
घबराओ मत हर
चीज का उपाय
है।
अहिंसात्मक
धमकी का उपाय अहिंसात्मक
ढंग से दिया
जा सकता है।
मैं रात आ
जाऊंगा।
घबराओ मत।
वह रात
एक बूढ़ी औरत
को लेकर पहुंच
गया। उस बूढ़ी
औरत ने जाकर
अपना बिस्तर
लगा दिया और
उस युवक से
कहा कि मेरे
हृदय में तेरे
लिए भारी प्रेम
का उदय हुआ
है। मैं मर
जाऊंगी, अगर
तुमने मुझ से
विवाद नहीं
किया। मैं
अनशन शुरू
करती हूं। यह
आमरण अनशन है।
उस युवक ने
सुना और अपना
पेटी—बिस्तर
लेकर वह रात
में भण गया!
स्वाभाविक
है।
इस देश
में यह हो रहा
है। अहिंसा के
नाम यही हो रहा
है। हर आदमी
अहिंसा के नाम
पर हिंसा की
धमकी देता है!
आध को अलग करो
नहीं तो आमरण
अनशन करके मर
जायेंगे।
पंजाब को अलग
करो नहीं तो यत
हो जायेगा।
कोई भी आदमी
धमकी दे रहा
है।
यह बड़ी
हैरानी की बात
है कि गांधी
ने अहिंसा की
बात की और
अहिंसा का कुल
उपयोग
हिंसात्मक ढंग
रो कर रहे हैं!
किसी
की कल्पना भी
नहीं हो सकती
कि पुरुष का मन
ऐसा है कि
उसके हाथ में
जो भी हथियार
आ जायेगा—चाहे
तलवार और चाहे
सत्याग्रह—दोनों
का उपयोग
हिंसात्मक
ढंग से करना।
पुरुष
के चित्त की
बनावट
आक्रामक है, हिंसात्मक
है। और अब तक
चूंकि सारी
संस्कृति उसके
आधार पर निर्मित
हुई है। इसलिए
सारी
संस्कृति
हिंसात्मक
है।
क्या
यह नहीं हो सकता
कि सी के हृदय
की आवाज को भी
इस संस्कृति के
निर्माण में
पत्थर बनाया
जाये?
लेकिन
स्त्री तो
चुप! या तो वह
गुलाम है, जैसा
मैंने कहा या
वह पुरुष होने
की दौड़ में है।
पूरब
की स्त्री
गुलाम है।
उसने कभी यह
घोषणा ही नहीं
की कि मेरे
पास भी आत्मा
है। वह चुपचाप
पुरूष के पीछे
चल पड़ती है।
अगर
राम को सीता
को फेंक देना
है तो सीता की
कोई आवाज
नहीं। अगर राम
कहते हैं कि
मुझे शक है तेरे
चरित्र पर तो
उसे अण में
डाला जा सकता
है। यह बडे
मजे की बात
है। यह किसी
के खयाल में
कभी नहीं आती
कि सीता लंका
में बंद थी, अकेली,
तो राम को
उसके चरित्र
पर शक होता
है। लेकिन
सीता को राम
के चरित्र पर
शक नहीं होता!
उतने दिन वह अकेले
रहे! अग्रि से
गुजरना ही है
तो राम को आगे और
सीता को पीछे
गुजरना
चाहिए। जैसा
कि हमेशा शादी
विवाह में राम
आगे रहे, सीता
पीछे रही, चक्कर
लगाती रही।
फिर आग में
घुसते वक्त
सीता आगे
अकेली आगे
चली। राम बाहर
खड़े निरीक्षण
करते रहे! बड़ी
धोखे की बात
मालूम पड़ती
हैं!
तीन—चार
हजार वर्ष हो
गए रामायण को
लिखे गए और मैं
यह बात पहली
दफे कह रहा
हूं। यह बात
कभी नहीं उठाई
गई कि राम की
अग्रि
परीक्षा
क्यों नहीं
होती? नहीं, पुरुष का तो सवाल
ही नहीं! यह सब
सवाल स्त्री
के लिए है!
स्त्री
की कोई आत्मा
नहीं, उसकी
कोई आवाज
नहीं। फिर यह
अग्नि
परीक्षा से
गुजरी हुई स्त्री
एक दिन मक्खी
की तरह फेंक
दी गई तो भी
कोई आवाज
नहीं! कोई
आवाज नहीं है!
और
हिन्दुस्तान भर
को स्रियां
राम को
मर्यादा
पुरुषोत्तम
कहे चली
जायेंगी!
मंदिर में
जाकर दीया घुमाती
रहेंगी और
पूजा—प्रार्थना
करती रहेंगी! राम
की पूजा
स्रियां करती
रहेंगी!
स्त्री
के पास कोई
आत्मा नहीं।
कोई सोच—विचार
नहीं। सारे
हिन्दुस्तान
की स्त्रियों
को कहना था कि
बहिष्कार हो
जाये राम का, कितने
ही अच्छे आदमी
रहे हणै।
लेकिन बात
खत्म हो गई।
स्रियों के
साथ भारी
अपमान हो गया।
भारी असम्मान
हो गया।
लेकिन
राम को
स्रियां ही
जिन्दा रखे
हैं। राम बहुत
प्यारे आदमी
हैं। बहुत
अदभुत आदमी
हैं। लेकिन
राम को यह
खयाल पैदा
नहीं होता कि
वह स्त्री के
साथ क्या कर
रहे हैं! वह हमारा
कल्पना नहीं
है,
वह हमारे
खयाल में नहीं
है।
युधिष्ठिर
जैसा अदभुत
आदमी द्रौपदी
को जुए में
दांव पर लगा
देता है! फिर
भी कोई यह
नहीं कहता कि
हम कभी
युधिष्ठिर को
धर्मराज नहीं
कहेंगे। नहीं, कोई
यह नहीं कहता!
बल्कि कोई
कहेगा तो हम
कहेंगे कि
अधार्मिक
आदमी है।
नास्तिक आदमी
है, इसक़ी
बात मत सुनो!
स्त्री
को जुए पर, दांव
पर लगाया जा
सकता है, क्योंकि
भारत में स्त्री
सम्पदा है, सम्पत्ति
है। हम हमेशा
से कहते रहें
हैं, स्त्री
सम्पत्ति है
और इसीलिए तो
पति को स्वामी
कहते हैं।
स्वामी का
मतलब आप समझते
हैं, क्या
होता है?
अगर
हिन्दुस्तान
की स्त्री
में थोड़ी भी
अक्ल होती तो
एक—एक शब्द से
उसे 'स्वामी' निकाल
बाहर कर देना
चाहिए। कोई
पुरुष कोई स्त्री
का स्वामी
नहीं हो सकता।
स्वामी का
क्या मतलब
होता है?
स्त्री
दस्तखत कर
देती है अपनी
चिट्ठी में '' आपकी
दासी' ' और
पति देव बहुत
प्रसन्न होकर
पढ़ते हैं। बड़े
आनन्दित होते हैं
कि बड़ी प्रेम
की बात लिखी
है।
लेकिन
इसका पता है
कि स्वामी और
दास में कभी प्रेम
नहीं हो सकता।
प्रेम की
संभावना समान
तल पर हो सकती
है। स्वामी और
दास में क्या
प्रेम हो सकता
है?
इसलिए
हिंदुस्तान
में प्रेम की संभावना
ही समाप्त हो
गई।
हिंदुस्तान
में स्त्री—पुरुष
साथ रह रहे
हैं और साथ
रहने को प्रेम
समझ रहे हैं!
वह प्रेम नहीं
है।
हिंदुस्तान
में प्रेम का
सरासर धोखा
है। साथ रहना
भर प्रेम नहीं
है। किसी तरह
कलह करके 24 घंटे
गुजार देना, प्रेम
नहीं है।
जिंदगी गुजार
देनी प्रेम
नहीं है।
प्रेम
की पुलक और
है। प्रेम की
प्रार्थना और
है। प्रेम की
सुगंध और है।
प्रेम का
संगीत और है।
लेकिन
वह कहीं भी
नहीं! असल में
गुलाम और दास
में,
मालिक में
और स्वामी में,
कोई प्रेम
नहीं हो सकता।
लेकिन हमारे
खयाल में नहीं
है यह बात कि
पूरब की स्त्री
नेहु विशेषकर
भारत की स्त्री
ने अपनी आत्मा
का अधिकार ही
स्वीकार नहीं
किया है।
आत्मा की आवाज
भी नहीं दी
है। उसने हिम्मत
भी नहीं जुटाई
कि वह कह सके
कि 'मैं भी
हूं!
आज स्त्री
को शादी करके
ले जाते हैं
एक सज्जन। अगर
उनका नाम
कृष्णचन्द्र
मेहता है तो
उनकी पत्नी
मिसेज
कृष्णचन्द्र
मेहता हो जाती
है। लेकिन कभी
उससे उलटा
देखा कि
इन्दुमती मेहता
को एक सज्जन
प्रेम करके, ब्याह
कर लाये हों
और उनका नाम
मि. इन्दुमती
मेहता हो जाये?
वह नहीं हो
सकता है।
लेकिन क्यों
नहीं हो सकता?
नहीं, वह
नहीं हो सकता,
क्योंकि
हमारी यह सिर्फ
व्यवहार की
बात नहीं है, उसके पीछे
पूरा हमारे
जीवन को देखने
का ढंग छिपा
हुआ है।
स्त्री
पुरुष के पीछे
आकर पुरुष का
अंग हो जाती है।
वह मिसेज हो
जाती है।
लेकिन पुरुष
स्त्री का
अंग नहीं
होता! स्त्री
पुरुष का आधा
अंग है। लेकिन
पुरुष स्त्री
का अंग नहीं
है! इसलिए
पुरुष मरता है
तो स्त्री को
सती होना
चाहिए। आग में
जल जाना चाहिए।
वह उसका अंग
है। उसको बचने
का हक कहां है?
हिंदुस्तान
में हजारों
वर्षों में
कितनी लाखों
स्रियों को आग
में जलाया, उसका
हिसाब लगाना
बहुत मुश्किल
है। बहुत मुश्किल
है। और किस
पीड़ा से उन
स्रियों को
गुजरना पड़ा है,
इसका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
फिर भी बड़ी
कृपा थी, जो
आग में जल गईं
उन स्त्रियों
के लिए।
लेकिन
जब से आग में
जलना बंद हो
गया है तो
करोड़ों
विधवाओं को हम
रोके हुए हैं।
उनका जीवन आग में
जलने से बदतर
है। सती की
प्रथा विधवा
की प्रथा से
ज्यादा बेहतर
थी। आदमी एक
बार में मर
जाता है। खत्म
हो जाता है।
आखिर एक बार
में मरना, फिर
भी बहुत
दयापूर्ण है।
बजाय 40—50 साल
धीरे—धीरे
मरने के, अपमानित
होने के।
जिंदगी
में जहां
प्रेम की कोई
संभावना न रह
जाये, उस जीवन
को जीवित कहने
का क्या अर्थ
है?
और यह
ध्यान रहे कि
पुरुष के लिए
प्रेम 24 घंटे
में आधी घड़ी, घड़ी
भर की बात है।
उसके लिए और
बहुत काम हैं।
प्रेम भी एक
काम है। प्रेम
से भी निपटकर
दूसरे कामों
में वह लग
जाता है। स्त्री
के लिए प्रेम
ही एकमात्र
काम है। और
सारे काम उसी
प्रेम से
निकलते हैं और
पैदा होते
हैं।
तो
अगर पुरुष को
विधुर रखा
जाये तो उतना
टार्चर नहीं
है,
जितना स्त्री
को विधवा रखना
अत्याचार है।
उसे 24 घंटे प्रेम
की जंजीर है।
प्रेम गया—उस
जंजीर के सिवाय
कुछ नहीं रह
गया। और दूसरे
प्रेम की
संभावना समाज
छोड़ता नहीं।
लेकिन हजारों
साल तक हम उसे
जलाते रहे और
कभी किसी ने न
सोचा!
अगर
कोई पूछता था
कि स्रियों को
क्यों जलना चाहिए
आग में? तो
पुरुष कहते, उसका प्रेम
है, वही जी
नहीं सकती
पुरुष के
बिना। लेकिन
किसी पुरुष को
प्रेम नहीं था
इस मुल्क में
कि वह किसी स्त्री
के लिए सती हो
जाते? वह
सवाल ही नहीं
है। वह सवाल
ही नहीं उठाना
चाहिए।
क्योंकि सारे
धर्म—ग्रंथ
पुरुष लिखते
हैं, अपने
हिसाब से
लिखते हैं, अपने
स्वार्थ से
लिखते हैं।
स्त्रियों का
लिखा हुआ न
ग्रंथ है, न
स्त्रियों का
मनु है, न
स्रियों का
याज्ञवल्ल है!
स्त्रियों का
कोई स्मृतिकार
नहीं, स्रियों
का कोई धर्म—ग्रंथ
नहीं! स्रियों
का कोई सूत्र
नहीं! उनकी कोई
आवाज नहीं!
पूरब की स्त्री
तो एक गुलाम
छाया है, जो
पति के आगे
पीछे घूमती
रहती है।
पश्चिम
की स्त्री ने
विद्रोह किया
है। और मैं
कहता हूं कि अगर
छाया की तरह
रहना है तो
उससे बेहतर है
वह विद्रोह।
लेकिन वह
विद्रोह
बिलकुल गलत
रास्ते पर चला
गया। वह गलत
रास्ता यह है
कि पश्चिम की
स्त्री ने
विद्रोह का
मतलब यह लिया
है कि ठीक पुरुष
जैसी वह भी
खड़ी हो जाये!
पुरुष जैसी वह
हो जाये!
पश्चिम
की स्त्री
पुरुष होने की
दौड़ में पड़
गयी। वह पुरुष
जैसे वस्त्र
पहनेगी, पुरुष
जैसा बाल
कटायेगी, पुरुष
जैसा सिगरेट
पीना चाहेगी,
पुरुष जैसा
सड्कों पर
चलना चाहेगी,
पुरुष जैसा
अभद्र शब्दों
का उपयोग करना
चाहेगी। वह
पुरुष के
मुकाबले खड़ा
हो जाना चाहती
है।
एक
लिहाज से फिर
भी अच्छी बात
है। कम से कम
बगावत तो है।
कम से कम
हजारों साल की
गुलामी को तोड़ने
का तो खयाल
है। लेकिन
गुलामी ही
नहीं तोड़नी
है। क्योंकि
गुलामी तोड़कर
भी कोई कुएं
में से खाई
में गिर सकता
है।
पश्चिम
की स्त्री
इसी हालत में
खड़ी हो गई। वह
जितना अपने को
पुरुष जैसा
बनाती जा रही
है,
उतना ही
उसका
व्यक्तित्व
फिर खोता चला
जा रहा है।
भारत में वह
छाया बनकर खतम
हो गई। पश्चिम
में वह नंबर 2 का
पुरुष बनकर
खतम होती जा
रही है। उनका
अपना व्यक्तित्व
वहां भी नहीं
रह जायेगा!
यह
ध्यान रहे, स्त्री
के पास एक
अपने तरह का
एक
व्यक्तित्व
है। जो पुरुष
से बहुत भिन्न
है, बहुत
विरोधी, बहुत
अलग, बहुत
दूसरा है। उसका
सारा आकर्षण,
उसकी जीवन
की सारी सुगंध,
उसके अपने
होने में है, उसके निज
होने में है।
अगर वह अपनी
निजता के बिंदु
से छूत होती
है और पुरुष
जैसे होने की
दौड़ में लग
जाती है तो यह
बात इतनी
बेहूदी होगी,
जैसे कोई
पुरुष
स्रियों के
कपड़े पहनकर
दाढ़ी मूंछ
घुटाकर
स्त्रियों
जैसा बनकर
घूमने लगता है
तो वह बेहूदा
हो जाता है।
यह बात इतनी
ही बेहूदी है।
लेकिन
पुरुष इसकी
निंदा नहीं
करेगा।
क्योंकि
स्रियां
पुरुष जैसी हो
रही हैं, पुरुष
को क्या चिंता
है? आपने
हमेशा सुना
होगा, अगर
कोई पुरुष
स्रियों जैसे
ढंग से रहे तो
हम लोग कहेंगे
नामर्द। उसकी
निंदा होगी।
लेकिन अगर कोई
स्त्री
पुरुषों जैसी
रहे तो कहेंगे,
'खूब लड़ी
मर्दानी वह तो
झांसी वाली
रानी थी। ' इज्जत
देंगे उसको।
स्रियां अगर
पुरुषों जैसे
ढंग अख्तियार
करें तो उनको
इज्जत मिलेगी
और पुरुष अगर
स्रियों जैसे
ढंग अख्तियार
करें तो उनका
अपमान होगा!
पुरुष को भी
उससे मजा आता
है कि स्त्रीयां
पुरुष जैसे
होने की कोशिश
कर रही है। इसका
अर्थ है कि
उसने हमारी
श्रेष्ठता
फिर स्वीकार
कर ली।
कल तक
वह पति के रूप
में
श्रेष्ठता
स्वीकार करती
थी,
तब भी हम
सुपीरियर, मालिक
थे। अब भी हम
सुपीरियर
हैं। क्योंकि
हमारे जैसे
होने की कोशिश
कर रही है। और
ध्यान रहे, स्त्री
कितने ही
पुरुष जैसी हो
जाये, कार्बन
कापी से
ज्यादा नहीं
हो सकती। कैसे
हो सकती है!
कैसे हो सकती
है स्त्री
पुरुष जैसी? और कार्बन
कापी फिर छाया
रह जायेगी।
यह बड़े
मजे की बात है
कि
हिंदुस्तान
में पुरुष ने
जबर्दस्ती स्त्री
को छाया बना
दिया। पश्चिम
की स्त्री
अपने हाथ से
मेहनत करके
छाया बनी जा
रही है! क्या
कोई तीसरा
रास्ता नहीं
है?
ये दोनों
बातें स्त्री
जाति के लिए
खतरनाक हैं।
ये दोनों
बातें
प्रतिक्रियावादी
हैं, रिएक्शनरी
हैं। स्त्री
की जिंदगी में
क्रांति
चाहिए। पश्चिम
में क्रांति
भटक गई उगे' विद्रोह हो
गई है।
विद्रोह
क्रांति नहीं
है। बगावत
क्रांति नहीं
है।
क्रांति
का मतलब है एक
नये
व्यक्तित्व
का उदघाटन।
बगावत
का मतलब है.
पुराने
व्यक्तित्व
को तोड़ देना
है,
इसकी बिना
फिक्र किए कि
नया
व्यक्तित्व
कुछ बनता है
कि नहीं बनता
है।
बगावत
क्रोध है, क्रांति
विचार है।
बगावत
कर देना बहुत
आसान है।
क्रांति करना
बहुत
सोच—विचार और
चिंतन की बात
है।
भारत
की स्त्री को
भी पश्चिम की
स्त्री की
दौड़ पक्केगी, क्योंकि
भारत के पुरुष
को पश्चिम के
पुरुष की दौड़
पकड़ेगी। उसी
के पीछे स्त्री
भी जायेगी, आज नहीं कल।
वह उसने होना
शुरू कर दिया
है। वह पुरुष
के साथ पुरुष
जैसा होने की
दौड़ में शामिल
हो गयी है! आज
नहीं कल भारत
में भी वही
होगा, जो
पश्चिम में
हो रहा है।
पश्चिम में
जो हो गया है, वह इतना
दुखद है कि अब
भारत में उसको
फिर दोहरा
लेना, एक
बहुत बढ़िया
मौका खो देना
है। एक
परिवर्तन का,
एक
ट्रांजिशन का
मौका खो देना
है। एक बदलाहट
का वक्त आया
है और फिर
बदलाहट में हम
वही गलती कर
ले रहे हैं।
वही गलती, जिसमें
कुछ फर्क नहीं
पडेगा। वही
भूल फिर हो जायेगी।
सी. एम.
जोड ने कहीं
लिखा है, जब मैं
पैदा हुआ था, होम्स थे, मेरे देश
में। घर थे।
अब सिर्फ
हाउसेज हैं।
अब सिर्फ मकान
हैं। स्वभावत:
अगर स्त्री
पुरुष जैसी हो
जाती है, तब
होम जैसी चीज
समाप्त हो
जायेगी। घर
जैसी चीज
समाप्त हो
जायेगी। मकान
रह जायेंगे।
मकान रह
जायेंगे, क्योंकि
मकान घर बनता
था, एक
व्यक्तित्व
से स्त्री
के। वह खो
गया। अब ठीक
वह पुरुष जैसी
कलह करती है!
पुरुष जैसी
झगड़ती है!
पुरुष जैसी बा
त करती है!
विवाद करती
है! वह सब ठीक
पुरुष जैसा कर
रही है!
लेकिन
उसे पता नहीं
है कि उसकी
आत्मा कभी भी
यह करके तृप्त
नहीं हो सकती।
क्योंकि
आत्मा तृप्त
होती है वही
होकर, जो होने
को आदमी पैदा
हुआ है। एक
गुलाब, गुलाब
बन जाता है तो
तृप्ति आती
है। एक चमेली,
चमेली बन
जाती है तो
तृप्ति आती
है। वह तृप्ति
फ्लॉवरिंग की
है। हमारे
भीतर छिपा
है—वह खिल जाये,
पूरा खिल
जाये तो आनंद
उपलब्ध होता
है।
स्त्री
आज तक कभी आनंदित
नहीं रही, न
पूरब के
मुल्कों में,
न पश्चिम
के मुल्कों
में। पूरब के
मुल्कों में
वप्र गुलाम थी,
इसलिए
आनंदित नहीं
हो सकी; क्योंकि
आनंद बिना
स्वतंत्रता
के कभी उपलब्ध
नहीं होता है।
सारे
आनंद के फूल
स्वतंत्रता
के आकाश में
खिलते हैं।
ध्यान
रहे,
अगर स्त्री
आनंदित नहीं
है तो पुरुष
कभी आनंदित
नहीं हो सकता
है। वह लाख
सिर पटके।
क्योंकि समाज का
आधा हिस्सा
दुखी है। घर
का केंद्र
दुखी है। वह
दुखी केंद्र
अपने चारों
तरफ दुख की
किरणें
फेंकता रहता
है। और दुख के
केंद्र की
किरणों में
सारा
व्यक्तित्व
समाज का, दुखी
हो जाता है।
और मैं
आपसे कहना
चाहता हूं
जितना दुख
होता है, उतनी
चिंता शुरू हो
जाती है।
क्यों? क्योंकि
दुखी आदमी
दूसरे को दुखी
करने में आतुर
होता है।
क्योंकि दुखी
आदमी फिर किसी
को सुखी देखना
नहीं चाहता।
दुखी आदमी
चाहता है, दूसरे
को दुख हो
दुखी आदमी का
एक ही सुख
होता है, दूसरे
को दुख दे
देने का सुख।
स्त्री
के दुख ने
सारे समाज के
जीवन को दुख
की छाया से भर
दिया है। स्त्री
आनंदित हो
सकती है मुक्त
होकर, लेकिन
पुरुष होकर
नहीं। मुक्त
हो जाये और
फिर पुरुष
जैसे होने लगे,
फिर दुखी हो
जायेगी। आज
पश्चिम की स्त्री
कोई सुखी नहीं
है। वह फिर
उसने नये दुख
खोज लिए हैं।
फिर नये दुखों
से अपने
व्यक्तित्व
को कस लिया
है। फिर समाज
वहां एक नये
तनाव में भरता
चला जायेगा।
क्या किया जा
सकता है? कौन—सी
क्रांति?
मैं एक
तीसरा सुझाव
देना चाहता
हूं। और वह यह.. वक्त
है,
इस वक्त
मुल्क के सामने
बदलाहट होगी।
बदलाहट का समय
है। अभी स्त्री
की गुलामी
ज्यादा दिन
नहीं चलेगी।
हालांकि स्त्री
की अभी भी कोई
इच्छा नहीं है
बहुत, कि
गुलामी टूट
जाये। वह
पुरुष तो
चाहेगा। लेकिन
सारी दुनिया
की हवायें
धक्के दे रही
हैं और गुलामी
टूट रही है।
भारत की
स्रियां यह न
सोचें कि उनके
कुछ करने से
गुलामी टूट
रही है।
भारत
बहुत अजीब देश
है। सारी
दूनिया की
हवायें
बदलीं। 1947 में
हम आजाद हो
गये। हमने
समझा कि हमने
आजादी ले ली!
वह हमने आजादी
ली नहीं। वह
दुनिया की
हवाएं बदलीं, दुनिया
का पूरा मौसम
बदला। दुनिया
में परिवर्तन
का एक वक्त
आया। आजादी
हमें मिली।
हिन्दुस्तान
के किसी नेता
को पता भी
नहीं था कि
आजादी सन 1947 में
मिल सकती है।
कल्पना भी
नहीं की।
आंदोलन तो हमारा
सन 1942 में खत्म
हो गया था! और
बड़ा भारी
आंदोलन था!
सात दिन में
खत्म हो गया
था! ऐसी महान
क्रांति
दुनिया में
कभी नहीं हुई!
वह सात दिन
में खल हो गई
थी! उसके बाद
हम ठंडे पड़
चुके थे।
अब 20 साल
तक कोई दुबारा
जाने को जेल
में राजी भी नहीं
हो सकता था।
अचानक आजादी आ
गयी,
तो हमने कहा,
हमने आजादी
ले ली। ठीक
वैसी ही भारत
की स्त्री की
आजादी भी आ
रही है। यह
भूल में मत
पड़ना कि वह आजादी
ले रही है।
और
ध्यान रहे जो
आजादी आती है, उस
आजादी में और
जो आजादी ली
जाती है, उस
आजादी में, जमीन आसमान
का फर्क होता
है। जो आजादी
मिलती है, वह
मुर्दा होती
है। वह कभी
जिंदा नहीं हो
सकती। भीख
होती है। और
आजादी भी भीख
में मिल सकती
है। इसलिए इस
मुल्क में जो
आजादी मिली, वह मुर्दा
आजादी, बिलकुल
डैड—उसमें कोई
जिंदगी नहीं।
पड़ी हुई लाशों
वाली आजादी।
इसलिए 20
साल से हम सड़
रहे हैं। उस
आजादी से कोई
पुलक नहीं आयी
जीवन में। न
कोई नृत्य आया, न
कोई खुशी आयी,
न कोई
उत्साह आया, न कुछ ऐसा
हुआ कि हम बदल
दें जिंदगी
को। हजारों
साल के
सिलसिले को
तोड़ दें। नया
मुल्क बनायें।
नया आदमी पैदा
करें। कुछ भी
पैदा नहीं हुआ!
बस, इतना
बस हुआ कि
हमने झंडा बदल
दिया। दूसरा
झंडा फहरा
दिया और नेता
बदल दिये।
हालांकि शरीर
बदला नेताओं
का। उनकी
बुद्धि वही
रही, जो
पिछले नेताओं
की थी, जो
पिछले हुकूमत
करने वालों की
थी। बुद्धि
वही की वही
रही! कपड़े बदल
गये। वह
शेरवानी
पहनकर खड़े हो
गये। उनको लगा
कि हम सब
भारतीय हो
गये।
ठीक
वैसी ही आजादी
स्रियों के
मामले में
घटित हो रही
है। नहीं, यह
ठीक नहीं हो
रहा है।
हिन्दुस्तान
की नारी को, हिन्दुस्तान
की स्त्री को
आजादी लेनी
है। क्योंकि
मूल्य आजादी
मिलने का नहीं
है। वह जो
लेने की
प्रक्रिया है,
उसी में आला
पैदा होती है।
इसको ठीक से
समझ लेना
चाहिए। वह जो
लेने की
प्रक्रिया है,
वह जो
जद्दोजहद है।
वह जो संघर्ष
है, वह जो
स्ट्रगल है, उस स्ट्रगल
में, लेने
की प्रक्रिया
में आत्मा
पैदा होती है।
आजादी
मिलने से आत्मा
पैदा नहीं
होती। आजादी
लेने की
प्रक्रिया में
से गुजरना ही
आजाद आत्मा
का पैदा हो
जाना है।
आजादी उसका
परिणाम है।
आजादी आती है।
लेकिन
भारतीय स्त्री
के साथ वही हो
रहा है। आजादी
उस पर आ रही है।
थोपी जा रही
है। वह बेमन
से उसको
स्वीकार करती
चली जा रही
है। और धीरे— धीरे
पश्चिम की
हवायें उसको
पछिम की तरफ
ले जायेंगी और
एक मौका चूक
जायेगा। इस
मौके को मैं
बहुत क्रांति
का अवसर कहता
हूं।
भारत
की स्त्री को
करना यह है कि
पहले तो उसे
स्पष्ट रूप से
यह समझ लेना
है कि पुरुष
के व्यक्तित्व
की शोध और खोज
खत्म हो गई।
पुरुष ने जो
मार्ग पकड़ा था
पांच—छ: हजार
वर्षों में, वह
डैड एण्ड पर
आ गया, अब
उसके आगे कोई
रास्ता नहीं
है।
स्त्री
को पहली दफा
यह सोचना है, क्या
स्त्री भी एक
नई संस्कृति
को जन्म देने
के आधार रख
सकती है? कोई
संस्कृति
जहां युद्ध और
हिंसा न हो।
कोई संस्कृति
जहां प्रेम, सहानुभूइत
और दया हो।
कोई संस्कृति
जो विजय के
लिए बहुत आतुर
न हो। जीने के
लिए आतुर हो।
जीने की
आतुरता हो।
जीवन को जीने
की कला और
जीवन को शांति
से जीने की
आस्था और
निष्ठा पर खडी
किसी
संस्कृति को
स्त्री जन्म
दे सकती है? स्त्री
जरूर जन्म दे
सकती है।
आज तक
चाहे युद्ध
में कोई कितना
ही मरा हो, स्त्री
का मन
निरंतर—प्राण
उसके दुख से
भरे रहे। उसका
भाई मरता है, उसका बेटा
मरता है, उसका
बाप मरता है, पति मरता है,
प्रेमी
मरता है। स्त्री
का कोई न कोई
युद्ध में
जाकर मरता है।
अगर
सारी दुनिया
की स्रियां एक
बार तय कर लें कि
भाड़ में जाने
दें रूस को, अमरीका
को। सारी
दुनिया की
स्रियां एक
बार तय कर लें
युद्ध नहीं
होगा। दूनिया
का कोई राजनैतिक
युद्ध में कभी
किसी को नहीं
घसीट सकता। सिर्फ
स्रियां तय कर
लें, युद्ध
अभी नहीं होगा,
तो नहीं हो
सकता है।
क्योंकि कौन
जायेगा युद्ध
पर? कोई
बेटा जाता है,
कोई पति
जाता है, कोई
बाप जाता है।
स्रियां एक
बार तय कर
लें।
लेकिन
स्त्रियां
पागल हैं।
युद्ध होता है
तो टीका करती
हैं कि जाओ
युद्ध पर!
पाकिस्तानी
मां
पाकिस्तानी
बेटे के माथे
पर टीका करती
है कि जाओ
युद्ध पर!
हिंदुस्तानी
मां
हिंदुस्तानी
बेटे के माथे
पर टीका करती
है कि जाओ
बेटे युद्ध पर
जाओ।
पता
चलता है कि स्त्री
को कुछ पता
नहीं कि क्या
हो रहा है। वह
पुरुष के पूरे
जाल में सिर्फ
एक खिलौना, हर
जगह एक खिलौना
बन जाती है।
चाहे
पाकिस्तानी
बेटा मरता हो
और चाहे
हिंदुस्तानी
किसी मां का
बेटा मरता है।
यह स्त्री को
समझना होगा।
और चाहे रूस
का पति मरता हो
चाहे अमेरिका
का। स्त्री
को समझना होगा
उसका पति मरता
है।
और अगर
सारी दुनिया
की स्रियों को
एक खयाल पैदा
हो जाये कि अब
हमें अपने पति
को,
अपने बेटे
को, अपने
बाप को युद्ध
पर नहीं भेजना
है, तो फिर
पुरुष की लाख
कोशिश और
राजनैतिकों
की हर चेष्टा
व्यर्थ हो
सकती है।
युद्ध नहीं हो
सकता है।
यह स्त्री
की इतनी बड़ी
शक्ति है, लेकिन
उसने उसका कोई
उपयोग नहीं
किया। उसने कभी
कोई आवाज नहीं
की, उसने
कोई फिक्र
नहीं की। वह
आदमी ने, पुरुष
ने जो रेखायें
खींचीं हैं
राष्ट्रों की,
उनको वह भी
मान लेती है!
प्रेम कोई
रेखायें नहीं
मान सकता, हिंसा
रेखायें
मानती है।
हम
कहते हैं भारत
माता! भारत माता
जैसी कोई चीज
दूनिया में
नहीं है। अगर
है भी कोई तो
पृथ्वी माता
जैसी कोई चीज
हो सकती है? भारत
माता पुरुष की
ईजाद है। अपने
हाथ से उसने
कीलें ठोंक कर
झंडे गाड़ दिये
हैं! और कहा कि
यह भारत अलग!
लेकिन
मुझे ऐसा लगता
है कि स्त्री
के मन में आज
भी और हमेशा
से कभी भी
सीमा नहीं रही
है,
उन अर्थों
में जिन
अर्थों में
पुरुष के मन
में सीमा है।
क्योंकि जहां
भी प्रेम है, वहां सीमा
नहीं होती।
सारी दूनिया
की स्रियों को
एक तो
बुनियादी यह
खयाल जाग जाना
चाहिए कि हम
एक नई
संस्कृति को,
एक नये समाज
को, एक नई
सभ्यता को
जन्म दे सकती
हैं—जो पुरुष
का आधार है, उसके ठीक
विपरीत आधार
रखकर।
भारत
में यह बहुत
सुविधा से हो
सकता है। भारत
में यह
रूपांतरण
बहुत आसानी से
हो सकता है।
तो पहली तो
बात यह है कि
दूनिया की
स्रियों की एक
शक्ति और एक
आवाज, एक
आत्मा
निर्मित होनी
चाहिए। और वह
दो तरह की
बगावत करे।
पुरुष की सारी
संस्कृति को
कहे कि गलत
है। और वह गलत
है। अधूरी है
और खतरनाक है।
दूसरी
बात,
स्त्री के
मन में जो
प्रेम है, उस
प्रेम का भी
पूरा विकास
नहीं हो सका
है। पुरुष ने
उस पर भी
दीवालें
बांधी हैं। उस
पर भी उसने
कारागृह खड़ा
किया है कि
प्रेम की इतनी
सीमा है कि
इससे आगे मत
जाने देना।
प्रेम से पुरुष
बहुत भयभीत
है। वह प्रेम
पर पच्चीस
रुकावटें
डालता है।
कारागृह
बनाता है। उस
कारागृह ने
दूनिया में स्त्री
के प्रेम को
विकसित नहीं
होने दिया।
फैलने नहीं
दिया। उस
सुगंध से
दूनिया को
भरने नहीं
दिया। स्त्री
को इस तरफ भी
बगावत करनी
जरूरी है कि
वह कहे कि
प्रेम पर
सीमाएं हम
तोड़ेंगे।
प्रेम
की कोई सीमा
नहीं है और
प्रेम की अपनी
पवित्रता है।
सारी
सीमाएं उस
पवित्रता को
नष्ट करती हैं
और गंदा करती
हैं। उस सीमा
को फैलाना है।
उसकी सीमा
बढ़नी चाहिए, फैलनी
चाहिए। अगर वह
फैलती है तो
जैसे पॉजेसिव
पुरुष की एक
प्रवृत्ति
है—पॉजेस करने
की.?.। कभी
आपने खयाल
किया, पुरुष
की सारी प्रवृत्ति
है, इकट्ठा
करो। मालिक बन
जाओ। स्त्री
की सारी
प्रवृत्ति है,
दे दो।
मालकियत छोड़
दो। किसी को
दे दो। स्त्री
का सारा आनंद
दे देने में
है और पुरुष
का सारा आनंद
कब्जा कर लेने
में है। यह
कब्जा करने
वाला पुरुष ही
दूनिया में
युद्ध का कारण
बना है।
अगर
दुनिया में
कभी भी हमें
गैर—युद्ध
वाली दूनिया
बनानी हो तो
ध्यान रखना
पड़ेगा, इकट्ठा
कर लेना, पॉजेस
कर लेना, मालिक
बन जाना, इस
प्रवृत्ति को
जगह न दे देने
की हिम्मत
जुटानी
पड़ेगी। नहीं
तो.?
मैंने
सुना है एक
छोटा—सा गीत, रवीन्द्रनाथ
ने लिखा है।
और मुझे बहुत प्रीतिकर
लगी वह कहानी,
जो गीत में
उन्होंने
गायी है। गाया
है कि एक भिखारी
एक दिन सुबह
अपने घर के
बाहर निकला।
त्यौहार का
दिन है। आज
गांव में बहुत
भिक्षा मिलने
की संभावना
है। वह अपनी
झोली में थोड़े
से दाने डालकर
चावल के, बाहर
आया। चावल के
दाने उसने डाल
दिये हैं अपने
झोली में।
क्योंकि झोली
अगर भरी दिखाई
पड़े तो देने
वाले को आसानी
होती है। उसे
लगता है किसी
और ने भी दिया
है। सब भिखारी
अपने हाथ में
पैसे लेकर
अपने घर से
निकलते हैं, ताकि देने
वाले को संकोच
मालूम पड़े कि
नहीं दिया तो
अपमानित हो
जाऊंगा— और
लोग दे चुके हैं।
आपकी
दया— आपकी दया
काम नहीं करती
भिखारी को देने
में। आपका
अहंकार काम
करता है— और
लते दे चुके
हैं,
और मैं कैसे
न दूं।
वह
डालकर निकला
है थोडे से
दाने। थोड़े से
दाने उसने डाल
रखे हैं चावल
के। बाहर
निकला है। सुरज
निकलने के
करीब है।
रास्ता सोया
है। अभी लोग
जाग रहे हैं।
देखा है उसने, राजा
का रथ आ रहा
है। स्वर्ण
रथ—सूरज की
रोशनी में
चमकता हुआ।
उसने
कहा,
धन्य भाग्य
मेरे! भगवान
को धन्यवाद।
आज तक कभी
राजा से
भिक्षा नहीं
मांग पाया, क्योंकि
द्वारपाल
बाहर से ही
लौटा देते। आज
तो रास्ता
रोककर खड़ा हो
जाऊंगा! आज तो
झोली फैला
दूंगा। और
कहूंगा, महाराज!
पहली दफा
भिक्षा
मांगता हूं।
फिर सम्राट तो
भिक्षा
देंगे। तो कोई
ऐसी भिक्षा तो
न होगी।
जन्म—जन्म के
लिए मेरे दुख
पूएर हो जायेंगे।
वह कल्पनाओं
में खोकर खड़ा
हो गया।
रथ आ
गया। वह
भिखारी अपनी
झोली खोले, इससे
पहले ही राजा
नीचे उतर आया।
राजा को देखकर
भिखारी तो
घबड़ा गया और राजा
ने अपनी झोली
अपना वस्त्र
भिखारी के सामने
कर दिया। तब
तो वह बहुत
घबड़ा गया।
उसने कहा आप!
और झोली
फैलाते हैं?
राजा
ने कहा, ज्योतिषियों
ने कहा है कि
देश पर हमले
का डर है। और
अगर मैं जाकर
आज राह पर भीख
मांग लूं तो
देश बच सकता
है। वह पहला
आदमी जो मुझे
मिले, उसी
से भीख मांगनी
है। तुम्हीं
पहले आदमी हो।
कृपा करो। कुछ
दान दो।
राष्ट्र बच
जाये।
उस
भिखारी के तो
प्राण निकल
गए। उसने
हमेशा मांगा
था। दिया तो
कभी भी नहीं
था। देने की
उसे कहीं
कल्पना ही
नहीं थी। कैसे
दिया जाता है, इसका
कोई अनुभव
नहीं था। सब
मांगता था। बस
मांगता था। और
देने की बात आ
गई, तो
उसके प्राण तो
रुक ही गये!
मिलने का तो
सपना गिर ही
गया। और देने
की उलटी बात!
उसने झोली में
हाथ डाला।
मुट्ठी भर
दाने हैं
वहां। भरता है
मुट्ठी, छोड़
देता है।
हिम्मत नहीं
होती कि दे
दें। राजा ने
कहा, कुछ
तो दे दो। देश
का खयाल करो।
ऐसा मत करना
कि मना कर दो।
अन्यथा बहुत
हेरान हो
जायेगी। बहुत
मुश्किल से
बहुत कठिनाई
से एक दाना भर
उसने निकाला
और राजा के
वस्त्र में
डाल दिया!
राजा रथ पर
बैठा। रथ चला
गया। धूल उड़ती
रह गई।
और साथ
में दुख रह गया
कि एक दाना
अपने हाथ से
आज देना पडा।
भिखारी का मन
देने का नहीं
होता। दिन भर
भीख मांगी।
बहुत भीख
मिली। लेकिन
चित्त में दुख
बना रहा एक
दाने का, जो
दिया था।
कितना
ही मिल जाये
आदमी को, जो
मिल जाता है, उसका
धन्यवाद नहीं
होता; जो
नहीं मिल पाया,
जो छूट गया,
जो नहीं है
पास, उसकी
पीड़ा होती है।
लौटा
सांझ दुखी, इतना
कभी नहीं मिला
था! झोला लाकर
पटका। पत्नी
नाचने लगी।
कहा, इतनी
मिल गयी भीख!
नाच मत पागल!
तुझे पता नहीं,
एक दाना कम
है, जो
अपने पास हो
सकता था।
फिर
झोली खोली।
सारे दाने गिर
पड़े। फिर वह
भिखारी छाती
पीटकर रोने
लगा,
अब तक तो
सिर्फ उदास
था। रोने लगा।
देखता कि दानों
की उस कतार
में, उस
भीड़ में एक
दाना सोने का
हो गया! तो वह
चिल्ला—चिल्लाकर
रोने लगा कि
मैं अवसर चूक
गया। बड़ी भूल
हो गयी। मैं
सब दाने दे
देता, सब
सोने के हो
जाते। लेकिन
कहां खोजूं उस
राजा को? कहां
जाऊं? कहा
वह रथ मिलेगा?
कहां राजा
द्वार पर हाथ फैलायेगा?
बडी
मुश्किल हो
गयी। क्या
होगा? अब
क्या होगा? वह तड़पने
लगा।
उसकी
पत्नी ने कहा, तुझे
पता नहीं, शायद
जो हम देते
हैं, वह
स्वर्ण का हो
जाता है। जो
हम कब्जा कर
लेते हैं, वह
सदा मिट्टी का
हो जाता है।
जो जानते
हैं,
वे गवाही
देंगे इस बात
की; जो
दिया है, वही
स्वर्ण का हो
गया।
मृत्यु
के क्षण में
आदमी को पता
चलता है, जो
रोक लिया था, वह पत्थर की
तरह छाती पर
बैठ गया है।
जो दिया था, जो बांट
दिया था, वह
हलका कर गया।
वह पंख बन
गया। वह
स्वर्ण हो गया।
वह दूर की
यात्रा पर
मार्ग बन गया।
लेकिन
स्त्री का
पूरा
व्यक्तित्व, देने
वाला
व्यक्तित्व
है।
और अब
तक हमने जो
दुनिया बनायी
है,
वह लेने
वाले
व्यक्तित्व
की है। लेने
वाले व्यक्तित्व
के कारण
पूंजीवाद है।
लेने वाले व्यक्तित्व
के कारण
साम्राज्यशाही
है। लेने वाले
व्यक्तित्व
के कारण युद्ध
है, हिंसा
है।
क्या
हम देने वाले
व्यक्तित्व
के आधार पर
कोई समाज का
निर्माण कर
सकते हैं? यह
हो सकता है।
लेकिन यह
पुरुष नहीं कर
सकेगा। यह स्त्री
कर सकती है।
और स्त्री
सजग हो, कांशस
हो, जागे
तो कोई भी
कठिनाई नहीं।
एक क्रांति, बडी से बड़ी
क्रांति दुनिया
में स्त्री
को लानी है।
वह यह, एक
प्रेम पर
आधारित—देने
वाली
संस्कृति; जो
मलती नहीं, इकट्ठा नहीं
करती, देती
है। ऐसी एक
संस्कृति
निर्मित करनी
है। ऐसी
संस्कृति के
निर्माण के
लिए जो भी
किया जा सके, वह सब.? उस
सबसे बड़ा धर्म
स्त्री के
सामने आज कोई
और नहीं।
यह
थोड़ी—सी बात
मैंने कही।
पुरुष के
संसार को बदल
देना है आमूल।
स्त्री के
हृदय में जो
छिपा है, उसकी
छाया को
फैलाना है। उस
वृक्ष को बड़ा
करना है, तो
शायद एक अच्छी
मनुष्यता का
जन्म हो सकता
है। स्त्री
के जीवन में
चेतना की
क्रांति सारी
मनुष्यता के
लिए क्रांति
बन सकती है।
कौन
करेगा लेकिन
यह?
स्रियां न
सोचतीं, न
विचारती।
स्रियां न
इकट्ठा हैं, न कोई
सामूहिक आवाज
है, न उसकी
कोई आका है!
शायद पुरानी
पीढी नहीं कर
सकेगी। लेकिन
नई पीढ़ी की
लड़कियां कुछ
अगर हिम्मत
जुटायेगी और
फिर पुरुष
होने की नकल
और बेवकूफी
में नहीं
पड़ेगी तो यह
क्रांति निश्चित
हो सकती है।
उनकी तरफ बहुत
आशा से भरकर
देखा जा सकता
है।
मेरी
ये सब बातें
इतने प्रेम और
शांति से सुनीं, इससे
बहुत
अनुगृहीत
हूँ।
और
अंत में सबके
भीतर बैठे हुए
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
'नारी
और क्रांति'
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