अस्तित्व की विरलतम घटना: सदगुरु--(प्रवचन--दूसरा)
पहला
प्रश्न—
बुद्ध
कहते है, वासना दुष्पूर है। उपनिषद कहते हैं, जिन्होंने
भोगा उन्होंने ही त्यागा। आप कहते हैं, न भोगो न त्यागो वरन
जागो। कृपया इन तीनों का अंतर्संबंध स्पष्ट करें।
अंतर्संबंध
बिलकुल स्पष्ट है।
बुद्ध
कहते हैं, वासना दुष्पूर है। बुद्ध वासना का स्वभाव कह रहे हैं। कोई कितना ही भरना
चाहे, भर न पाएगा। इसलिए नहीं कि भरने की सामर्थ्य कम थी। भरने
की सामर्थ्य कितनी ही हो, तो भी न भर पाएगा। ऐसे ही जैसे
पेंदी टूटे हुए बर्तन में कोई पानी भरता हो। इससे कोई सामर्थ्य का सवाल नहीं है,
पेंदी ही नहीं है तो बर्तन दुष्पूर है। न सामर्थ्य का सवाल है,
न सुविधा का, न संपन्नता का। गरीब की इच्छाएं
भी अधूरी रह जाती हैं,
अमीर की भी। दरिद्र की इच्छाएं भी अधूरी रह जाती हैं, सम्राटों की भी। सिकंदर भी उतना ही खाली हाथ मरता है जितना राह का भिखारी। दोनों के हाथ खाली होते हैं। क्योंकि, वासना दुष्पूर है। बुद्ध सिर्फ वासना का स्वभाव कह रहे हैं।
अमीर की भी। दरिद्र की इच्छाएं भी अधूरी रह जाती हैं, सम्राटों की भी। सिकंदर भी उतना ही खाली हाथ मरता है जितना राह का भिखारी। दोनों के हाथ खाली होते हैं। क्योंकि, वासना दुष्पूर है। बुद्ध सिर्फ वासना का स्वभाव कह रहे हैं।
उपनिषद
कहते हैं, जिन्होंने भोगा उन्होंने ही त्यागा। अब जो भोगेंगे, वही
वासना
का स्वभाव समझ पाएंगे। दूसरे तो समझेंगे भी कैसे? वासना से दूर-दूर खड़े रहे,
डरे रहे, भयभीत रहे, वासना
में कभी उतरे ही नहीं, कभी वासना के उस पात्र को गौर से देखा
नहीं, हाथ में न लिया जिसमें पेंदी नहीं है, तो वासना का स्वभाव कैसे समझोगे? वासना के स्वभाव के
लिए वासना में उतरने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। जो उतरेगा, वही जानेगा। जो दूर खड़ा रहेगा, वंचित रह जाएगा। जो
दूर खड़ा रहेगा, ललचाएगा। उसे पात्र तो दिखायी पड़ेगा, वह जो पेंदी नहीं है, वह दिखायी न पड़ेगी। और दूसरे
के पात्रों में उसे यह भ्रांति रहेगी कि कौन जाने भर ही गए हों।
सिकंदर
को बाहर से तुम देखोंगे तो क्या तुम सोच पाओगे कि इसका पात्र भी खाली है? बड़े महल
हैं। बड़ा साम्राज्य है। बड़ा धन-वैभव है। बडी शक्ति-संपदा है। कैसे तुम समझोगे?
पात्र पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं पर पेंदी नहीं है। और हीरे-जवाहरातों
से थोड़े ही पानी रुकेगा पात्र में। गरीब का पात्र टूटा-फूटा है, दो कौड़ी का है, एल्युमिनियम का है। सिकंदर का पात्र
स्वर्ण का हैं?ऐ हीरे-जवाहरात जड़े हैं, पर दोनों का स्वभाव एक सा है। दोनों में पेंदी नहीं है। दूर से तो पात्र
दिखायी पड़ेगा। पास से ही देखना पड़ेगा। निरीक्षण भर-आख करना पड़ेगा। उतरना पड़ेगा। जीना
पड़ेगा। इसलिए उपनिषद कहते हैं तेन त्यक्तेन भुजीथा:। जिन्होंने भोगा, उन्होंने ही त्यागा।
बुद्ध
कहते हैं वासना का स्वभाव। उपनिषद कहते हैं वासना को भोगने का परिणाम-जिन्होंने
भोगा उन्होंने ही त्यागा। मैं कहता हूं न भोगो न त्यागो, वरन जागो।
क्योंकि भोगा तो बहुत ने, लेकिन उपनिषद का कोई इक्का-दुक्का
ऋषि जान पाया-तेन त्यक्तेन भुजीथा:। भोगा बहुत ने, लेकिन
सोए-सोए भोगा। सोए-सोए भोगोगे तो भी नहीं जान पाओगे। आख बंद हों तो पात्र को भरते
रहोगे, पेंदी का पता ही न चलेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन के जीवन में बड़ी प्राचीन घटना है। एक युवक उसके पास आया और उस युवक ने
कहा, बड़ी दूर से आया हूं सुनकर खबर। सुगंध की चर्चा सुनकर आया हूं। बहुत गुरुओं
के पास रहा, कुछ पा न सका। हताश होने के करीब था कि किसी ने
तुम्हारी खबर दी है। और पक्का भरोसा लेकर आया हूं कि अब हाथ खाली न जाएंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
उस संबंध में पीछे बात कर लेंगे, श्रद्धा है?
क्योंकि श्रद्धा हो तब ही तुम सत्य को सम्हाल सकोगे। मेरे पास सत्य
है, पर तुम्हारे पास श्रद्धा है? उस
खोजी ने कहा, परिपूर्ण श्रद्धा लेकर आया हूं। जो कहेंगे
स्वीकार करूंगा। नसरुद्दीन ने कहा, अभी तो मैं कुएं पर पानी
भरने जाता हूं मेरे पीछे आओ। और एक ही बात की श्रद्धा रखना कि मैं जो भी करूं शाति
से निरीक्षण करना, प्रश्न मत उठाना। इतना होश रखना। उस युवा
ने कहा, यह भी कोई परीक्षा हुई! गया पीछे-पीछे। यह कौन सी
कठिनाई थी इसमें।
नसरुद्दीन
ने एक पात्र रखा घाट पर कुएं के। युवक थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि
उसमें पेंदी न थी। नसरुद्दीन ने दूसरा पात्र कुएं में डाला, पानी
भरा और पेंदी-शुन्य पात्र में उंडेला। युवक ने कहा यह आदमी पागल है। सारा पानी बह
गया और नसरुद्दीन ने तो देखा ही नहीं। उसने तो फिर कुएं में पात्र डाल दिया। फिर
भरा। दो बार, तीन बार, चौथी बार युवक
भूल गया कि यहां चुप रहना है। उसने कहा, रुकिए! यह तो ताजिंदगी
न भरेगा। यह तो हम मर जाएंगे भर-भरकर तो भी न भरेगा, क्योंकि
इसमें पेंदी नहीं है।
नसरुद्दीन
ने कहा, बस खतम हो गया संबंध। कहा था, श्रद्धा रखना, चुप रहना। और पेंदी से हमें क्या लेना-देना? मुझे
पात्र में पानी भरना है, पेंदी से क्या प्रयोजन? फिर मुझे जब पात्र में पानी भरना है तो मैं उसके ऊपर ध्यान रख रहा हूं कि
जब सतह पर पानी आ जाएगा। पेंदी से क्या प्रयोजन? उस युवक ने
कहा, या तो आप पागल हो, और या मैंने
अपनी बुद्धि गंवा दी।
नसरुद्दीन
ने कहा, जाओ। दुबारा इस तरफ मत आना। क्योंकि असफल हो गए, चुप
न रह सके। अभी तो और बड़े इम्तहान आने को थे।
वह
युवक लौट तो गया लेकिन बड़ा परेशान हुआ। रातभर सो न सका। क्योंकि उसने सोचा कि इतनी
सी बात तो किसी मूढ़ को भी दिखायी पड़ जाएगी। जरूर इस आदमी का कोई दूसरा ही प्रयोजन
होगा, कोई परीक्षा थी। मुझे चुप खड़े रहना चाहिए था। मैं चूक गया। यह गुरु मिला
तो अपने हाथ से चूक गया। मेरा क्या बिगड़ता था। अगर पानी न भरता था, तो उसका पात्र था। अगर श्रम व्यर्थ जाता था, तो उसका
जाता था। मैं तो चुपचाप खड़ा रहता। आखिर कितनी देर यह चलता? मैंने
जल्दी की। मैं चूक गया।
वह
दूसरे दिन वापस आया। बहुत क्षमा मांगने लगा। नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, जितनी
समझदारी तूने मुझे बतायी अगर इतनी ही समझदारी तू अपनी जिंदगी के प्रति बताए,
तो मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं। जिस पात्र को तू भर रहा है,
उसमें पेंदी है? उसने कहा, कौन सा पात्र? नसरुद्दीन ने कहा, फिर तू चूक गया, उतना ही इशारा था। तुझे दिखायी पड़
गया कि पात्र में पेंदी न हो तो भरा नहीं जा सकता। तूने इतने दिन से वासनाएं भरी
हैं, कामनाएं भरी हैं--भरी? अब तक नहीं
भर पायी। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनमें पेंदी नहीं?
लेकिन
फुरसत कहां है हमें?
कौन चिंता करता है पेंदी की? जब भरना है तो हम
भरने का विचार करते हैं। नहीं भर पाते तो सोचते हैं, दूसरे
बाधा डाल रहे हैं। नहीं भर पाते तो सोचते हैं, श्रम जितना
करना था उतना नहीं किया। भाग्य ने साथ न दिया। हजार कारण खोज लेते हैं। पर एक बात
नहीं देखते, कहीं ऐसा तो नहीं कि वासना दुष्पूर है।
तो
मैं कहता हूं, न भोगो न त्यागो, जागो। क्योंकि अगर भोगने में डूब
गए, भूल गए, तो कौन जानेगा ' कौन पहचानेगा वासना के स्वभाव को कि वासना दुष्पूर है ' तुम भोगने में खो सकते हो बड़ी आसानी से। और फिर घबड़ाकर भाग भी सकते हो। बहुत
दिन भरा और न भर पाया, फिर तुम भाग भी सकते हो त्याग की तरफ।
लेकिन मूर्च्छित भोग, मूर्च्छित त्याग समानधर्मा हैं। उनमें
कुछ भी भेद नहीं। मंदिर में बैठो कि मकान में, दुकान में
बैठो कि हिमालय पर, कुछ अंतर नहीं है। अगर तुम मूर्च्छित हो,
तो तुम वही हो। अंतर तो केवल एक है, क्रांति
तो केवल एक है-मूर्च्छा से जागरण की।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं वासना का स्वभाव। उपनिषद कहते हैं वासना का अनुभव। और मैं तुम्हें
दे रहा हूं सूत्र वासना को अनुभव करने का। ये तीनों जुड़े हैं। इनमें से तुम एक भी
चूके तो भूल हो जाएगी। अगर तुमने इन तीन में से एक भी सूत्र को विस्मरण किया तो
भटक जाओगे। फिर अगर विस्मरण ही करना हो, तीन सूत्र अगर ज्यादा मालूम पड़ते
हों, तो मेरे अंतिम सूत्र को ही याद 'रखना।
क्योंकि अगर अंतिम सूत्र याद रहा तो बाकी दो अपने से याद रह जाएंगे।
वासना
दुष्पूर है,
ऐसा बुद्ध कहते हैं। ऐसा तुमने अभी जाना नहीं। भोग अंतत: त्याग में
ले जाता है, ऐसा उपनिषद कहते हैं। तुम्हें अभी ले नहीं गया। वासना
में तुम इतने दिन जीए हो, बुद्ध से थोड़े ज्यादा ही जीए
हो-बुद्ध को तो पच्चीस सौ साल हो गए छुटकारा पाए-तुम पच्चीस सौ साल ज्यादा अनुभवी
हो, फिर भी तुम्हें वासना दुष्पूर न दिखी। उपनिषद को तो
लिखे पांच हजार साल हो गए। जिन्होंने भोगा उन्होंने त्याग दिया। और तुमने इतना
भोगा और अभी तक न त्यागा। जरूर कोई चूक हो रही है। जागकर भोगो। भागने में मत पड़ना;
अन्यथा मैं देखता हूं तुम्हारे त्यागी, तुम्हारे
महात्मा तुमसे जरा भी भिन्न नहीं। तुम अगर पैर के बल खड़े हो, वे सिर के बल खड़े हैं। मगर बिलकुल तुम जैसे हैं। उलटे खड़े होने से कहीं
कुछ होता है!
जिंदगी
एक परीक्षण है। और जिंदगी एक निरीक्षण है। और जिंदगी प्रतिपल एक जागरण है। परीक्षा
घट रही है प्रतिपल। न जागोगे, चूकते चले जाओगे। और न जागने की आदत बन जाए,
तो अनंत काल तक चूकते चले जाओगे। और बहुत से रास्ते में स्थान
मिलेंगे, जहां लगेगा कि मिल गयी मंजिल, और बहुत बार विश्राम करने का मन हो जाएगा, लेकिन जब
तक परमात्मा ही न मिल जाए, या जिसको बुद्ध निर्वाण कहते हैं
वही न- मिल जाए, तब तक रुकना मत। ठहर भले जाना, लेकिन ध्यान रखना कि कहीं घर मत बना लेना।
ता ब
मंजिल रास्ते में मंजिलें थीं सैकड़ों
हर
कदम पर एक मंजिल थी मगर मंजिल न थी
ता
ब मंजिल-उस सत्य की यात्रा के मार्ग पर…।
ता ब
मंजिल रास्ते में मंजिलें थीं सैकड़ों
उस
असली मंजिल के मार्ग पर बहुत सी मंजिलें मिलेंगी रास्ते में, कभी धन की,
कभी पद की, कभी प्रतिष्ठा की, यश की, अहंकार बहुत से खेल रचेगा।
हर
कदम पर एक मंजिल थी मगर मंजिल न थी
और
हर कदम पर मंजिल मिलेगी। लेकिन मंजिल इतनी सस्ती नहीं है। अगर बहुत होश रखा तो ही
तुम इन मंजिलों से बचकर मंजिल तक पहुंच पाओगे। कठिन यात्रा है, दूभर
मार्ग है? बड़ी चढ़ायी है। उतुंग शिखरों पर जाना है। घाटियों
में रहने की आदत है। मूर्च्छित होना जीवन का स्वभाव हो गया है। होश कितना ही साधो,
सधता नहीं। बेहोशी इतनी प्राचीन हो गयी है कि तुम होश का भी सपना
देखने लगते हो बेहोशी में जैसे कोई रात नींद में सपना देखे कि जाग गया हूं। सपना
देखता है कि जाग गया। मगर यह जागना भी सपने में ही देखता है। ऐसे ही बहुत बार
तुम्हें लगेगा, होश आ गया। लेकिन होश रखना-
ता ब
मंजिल रास्ते में मंजिलें थीं सैकड़ों
हर
कदम पर एक मंजिल थी मगर मंजिल न थी
कैसे
पहचानोगे कि मंजिल आ गयी?
कैसे पहचानोगे कि यह मंजिल-मंजिल नहीं है?
एक
कसौटी खयाल रखना। अगर ऐसा लगे कि जो सामने अनुभव में आ रहा है, वह तुमसे
अलग है, तो समझना कि अभी असली मंजिल नहीं आयी। प्रकाश दिखायी
पड़े, अभी मंजिल नहीं आयी। कुंडलिनी जाग जाए अभी मंजिल नहीं
आयी। ये भी अनुभव हैं। ये भी शरीर के ही अनुभव हैं, मन के
अनुभव हैं। परमात्मा सामने दिखायी पड़ने लगे, याद रखना मंजिल
नहीं आयी। क्योंकि परमात्मा तो देखने वाले में छिपा है, कभी
दिखायी नहीं पड़ेगा। जो दिखायी पड़ेगा वह तुम्हारा सपना है।
इसको
तुम सूत्र समझो : जो दिखायी पड़े, अनुभव में आए, वह सपना। जिस
दिन कुछ दिखायी न पड़े, कुछ अनुभव में न आए; केवल तुम्हारा चैतन्य रह जाए, देखने वाला बचे;
दृश्य खो जाएं, द्रष्टा बचे; दृश्य खो जाएं, कुछ दिखायी न पड़े, बस तुम रह जाओ; ना-कुछ तुम्हारे चारों तरफ हो-इसको
बुद्ध ने निर्वाण कहा है-शुद्ध चैतन्य रह जाए; दर्पण रह जाए,
प्रतिबिंब कोई न बने; तब तुम भोग के बाहर गए। अन्यथा
सभी अनुभव भोग हैं। कोई किसी पत्नी को भोग रहा है; कोई क्या
बांसुरी बजा रहे हैं, उनके दृश्य को भोग रहा है। सब भोग है। जहां
तक दूसरा है, वहां तक भोग है। जब तुम बिलकुल ही अकेले बचो,
शुद्धतम कैवल्य रह जाए, होश मात्र बचे-किसका
होश, ऐसा नहीं; चैतन्य मात्र बचे-किसकी
चेतना, ऐसा नहीं; कुछ जानने को न हो,
कुछ देखने को न हो, कुछ अनुभव करने को न हो-उस
घड़ी आ गयी मंजिल।
और
ये तीन सूत्र बहुमूल्य हैं। बुद्ध कहते हैं, वासना दुष्पूर है-स्वभाव की ओर
इंगित करते। उपनिषद कहते, जिन्होंने भोगा उन्होंने
त्यागा-परिणाम की ओर इंगित करते। मैं कहता हूं न भोगो न त्यागो, जागो-मैं विधि देता हूं कि कैसे तुम जानोगे कि बुद्ध ने जो कहा, सही है, कैसे तुम जानोगे कि उपनिषद ने जो कहा,
सत्य है। तुम जानोगे तभी उपनिषद सच होंगे। तुम जानोगे तभी बुद्ध सच
होंगे। तुम्हारे जानने के अतिरिक्त न तो बुद्ध सच हैं, न
उपनिषद सच हैं। तुम्हारा बोध ही प्रमाण होगा बुद्ध की सचाई का।
इसलिए
बुद्ध ने कहा है-किसी ने पूछा कि हम कैसे तुम्हारा सम्मान करें, हम कैसे कृतज्ञता-ज्ञापन
करें, इतना दिया है-बुद्ध ने कहा है, मैंने
जो कहा है तुम उसके प्रमाण हो जाओ, मैंने जो कहा है तुम उसके
गवाह हो जाओ, बस मेरा सम्मान हो गया। और कुछ धन्यवाद की
जरूरत नहीं है।
तुम
जिस दिन भी बुद्ध के गवाह हो जाओगे, जिस दिन तुम प्रमाण हो जाओगे कि
उपनिषद जो कहते हैं सही है, उसी दिन तुमने उपनिषद को जाना,
उसी दिन तुमने बुद्ध को पहचाना। फर्क बहुत ज्यादा नहीं है बुद्ध में
और तुममें। उपनिषद में और तुममें फर्क बहुत ज्यादा नहीं है। ऐसे बहुत ज्यादा मालूम
होता है। ऐसे जरा भी ज्यादा नहीं है। फर्क बड़ा थोड़ा है। तुम सोए हो, बुद्ध जागे हैं। तुम आख बंद किए हो, बुद्ध ने आंखें
खोल ली हैं।
एक
गीत कल मैं पढ़ रहा था-
लो
हम बताएं गुंचा और गुल में है फर्क क्या
कला
और फूल में फर्क क्या है?
लो
हम बताएं गुंचा और गुल में है फर्क क्या
एक
बात है कही हुई एक बेकही हुई
बस
इतना ही फर्क है।
एक
बात है कही हुई एक बेकही हुई
बुद्ध
फूल हैं, तुम कली हो। उपनिषद खिल गए, तुम खिलने को हो। जरा सा
फर्क है। ऐसे बहुत बड़ा फर्क भी है। क्योंकि उतने ही फर्क पर तो सारा जीवन
रूपांतरित हो जाता है। कली बस कली है। सिकुड़ी और बंद। मुर्झा भी सकती है। जरूरी
नहीं है कि फूल बने। बन भी सकती है, चूक भी सकती है। और कली
में कोई गंध थोड़े ही है। गंध तो तभी आती है फूल में, जब
खिलता है। जब गंध बिखरती है, हवाएं ले जाती हैं उसके संदेश
को दूर-दूर। अभी तुम बंद कली हो। गंध को सम्हाले हो अभी।
और
जब तक बटेगी न गंध तब तक तुम आनंदित न हो सकोगे। जब तक तुम लुटा न दोगे दोनों
हाथों से, उलीच न दोगे अपनी गंध को जिसे तुम लिए चल रहे हो...।
मेरे
देखे मनुष्य की पीड़ा यही है। पीड़ा तुम जिसे कहते हो, वह पीड़ा नहीं है। कभी तुम
कहते हो, पैर में कांटा लग गया, सिर
में दर्द है, नौकरी नहीं मिली, पत्नी
मर गयी-ये असली पीड़ाएं नहीं हैं। पत्नी न मरे, पैर में काटा
न लगे, सिर में दर्द न हो, तो भी पीड़ा
रहेगी। पीड़ा एक है, और वह पीड़ा यह है कि जो तुम लेकर आए हो
वह लुटा नहीं पाए अब तक। जो तुम सम्हाले चल रहे हो उसे बाट नहीं पाए। तुम एक ऐसे
मेघ हो जो बरसना चाहता है और बरस नहीं पाता है। तुम एक फूल हो जो खिलना चाहता है
और खिल नहीं पाता। तुम एक ज्योति हो जो जलना चाहती है और जल नहीं पाती। यही पीड़ा
है। कांटे का लग जाना, सिर का दर्द, पत्नी
का मर जाना, पति का न होना, बहाने हैं।
इन बहानों की खूंटियों पर तुम असली पीड़ा को ढांककर अपने को धोखा दे लेते हो।
थोड़ा
सोचो, कोई पीड़ा न रहे जिसको तुम पीड़ा कहते हो, क्या तुम
आनंदित हो जाओगे? इतना क्या काफी होगा कि सिर में दर्द न हो?
आनंदित होने के लिए क्या इतना काफी होगा कि काटा न लगे? क्या इतना काफी होगा कि कोई बीमारी न आए? क्या इतना
काफी होगा कि भोजन, वस्त्र, रहने की
सुविधा हो जाए? क्या इतना काफी होगा कि प्रियजन मरें न?
विज्ञान इसी चेष्टा में लगा है। क्योंकि विज्ञान ने सामान्य आदमी की
पीड़ा को ही असली पीड़ा समझ लिया है।
इससे
कोई भेद न पड़ेगा। वस्तुत: स्थिति उलटी है। जब तुम्हारी सामान्य पीड़ाएं सब मिटा दी
जाएंगी, तब ही तुम्हें पहली दफा पता चलेगा उस महत पीड़ा का, असली
पीड़ा का। क्योंकि तब बहाने भी न रह जाएंगे। तुम कहोगे सिर में दर्द भी नहीं,
पैर में काटा भी नहीं, पत्नी भी जिंदा है,
मकान भी है, वस्त्र भी है, भोजन भी है, सब है। सब है, और
कुछ खोया है। सब है, और कहीं कुछ रिक्त और खाली है।
इसलिए
अमीर आदमी पहली दफा पीड़ित होता है। गरीब की पीड़ा तो हजार बहानों में छिप जाती है। वह
कहता है, मकान होता तो सब ठीक हो जाता, मकान नहीं है। वर्षा
में छप्पर में छेद हैं, पानी गिर रहा है, छप्पर ठीक होता तो सब ठीक हो जाता। उसे पता नहीं कि ठीक छप्पर बहुतों के
हैं, कुछ भी ठीक नहीं हुआ है। उसके पास कम से कम एक बहाना तो
है। अमीर के पास वह बहाना भी न रहा। उस हालत में अमीर और गरीब हो जाता है। उसके
पास बहाना तक करने को नहीं है, कि वह किसी चीज पर अपनी पीड़ा
को टल दे और कह दे कि इसके कारण पीड़ा है। अकारण पीड़ा है।
उस
अकारण पीड़ा से ही धर्म का जन्म है।
पीड़ा
क्या है? पीड़ा ऐसी ही है जैसे कोई स्त्री गर्भवती हो, नौ
महीने पूरे हो गए हों, और बच्चा पैदा न होता हो। बोझ हो गया।
बच्चा पैदा होना चाहिए। कितने जन्मों से तुम परमात्मा को गर्भ में लिए चल रहे हो।
वह पैदा नहीं हो रहा है, यही पीड़ा है। ठीक पीड़ा को पहचान
लेना रास्ते पर अनिवार्य कदम है। जब तक तुम गलत चीजों को पीड़ा समझते रहोगे और उनको
ठीक करने में लगे रहोगे, तभी तक तुम संसारी हो। जिस दिन
तुम्हें ठीक पीड़ा समझ में आ जाएगी कि यह रही पीड़ा, हाथ पड़
जाएगा पीड़ा पर, तब तुम पाओगे कि पीड़ा यही है-
लो
हम बताएं गुंचा और गुल में है फर्क क्या
एक
बात है कही हुई एक बेकही हुई
जब
तक तुम जिस गीत को अपने भीतर लिए चल रहे हो सदियों-सदियों से, जन्मों-जन्मों
से, वह गीत गाया न जा सके, जिस नाच को
तुम अपने पैरों में सम्हाले चल रहे हो, जब तक वह नाच अर
बांधकर नाच न उठे; तब तक तुम पीड़ित रहोगे। उस नाच को हमने परमात्मा
कहा है। उस गीत के फूट जाने को हमने निर्वाण कहा है। उस फूल के खिल जाने को हमने
कैवल्य कहा है।
तुम्हारी
कली फूल बन जाए-मुक्ति,
मोक्ष, मंजिल आ गयी।
दूसरा
प्रश्न :
बुद्ध
विचार, विश्लेषण और बुद्धि को अपने धर्म का प्रारंभ-बिंदु बनाते हैं; तथा श्रद्धा, आस्था और विश्वास की मांग नहीं करते। फिर
दीक्षा क्यों देते हैं? शिष्य क्यों बनाते हैं? बुद्ध, धम्म और संघ के शरणागत से साधना की शुरूआत
क्यों करवाते हैं?
बुद्ध
श्रद्धा के विरोधी नहीं हैं। बुद्ध से बड़ा श्रद्धा का कोई पक्षपाती नहीं हुआ। लेकिन
बुद्ध श्रद्धा को थोपते नहीं, जन्माते हैं। दूसरों ने श्रद्धा थोपी है। दूसरे
कहते हैं, श्रद्धा करो। अगर न किया तो पाप है। बुद्ध कहते
हैं, विचार करो। अगर ठीक विचार किया, श्रद्धा
आएगी। अपने से आएगी। बुद्ध तुम्हें चलाते हैं श्रद्धा की तरफ, दूसरे तुम्हें धकाते हैं। चलाने और धकाने में बड़ा फर्क है। बुद्ध तुम्हें
फुसलाते हैं श्रद्धा की तरफ, दूसरे तुम्हें धमकाते हैं। वे
कहते हैं, श्रद्धा न की, तो नर्क में
सडोगे। श्रद्धा की, तो स्वर्ग में फल पाओगे। दूसरे तुम्हें
लुभाते हैं या भयभीत करते हैं।
शब्द
है हमारे पास ईश्वर- भीरु,
गॉड फियरिंग। दूसरे धर्म डरवाते रहे हैं। वे कहते हैं, डरो ईश्वर से। छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दें, महात्मा
गांधी जैसे व्यक्ति भी कहते हैं, मैं किसी और से नहीं डरता
सिवाय ईश्वर को छोड़कर। पर डरते तो हो ही। इससे क्या फर्क पड़ता है कि ईश्वर से
डरते हो? और बड़े मजे की बात है, संसार
से डरते तो ठीक भी था; ईश्वर से डरते हो? ईश्वर से डरने का तो
अर्थ
हुआ कि आचरण जबर्दस्ती होगा। ईश्वर से डरने का तो कोई भी कारण नहीं है। संसार से
भला डरो, क्योंकि यहां उपद्रवी हैं, सब तरह के दुष्ट हैं। शैतान
से डरो, एक दफा समझ में आ जाए; परमात्मा
से डरते हो? परमात्मा यानी प्रेम। प्रेम से कहीं डर का कोई
संबंध बन सकता है? जहां प्रेम है वहां डर कैसा? और जहां डर है वहां प्रेम कैसा? भय के पास प्रेम की
गंध नहीं उठ सकती। और प्रेम के पास भय की दुर्गंध नहीं आती।
लेकिन
धर्मों ने लोगों को डरना सिखाया है कि डरो। लोगों को कंपा दिया है। बुद्ध ने लोगों
को फुसलाया; धमकाया नहीं। बुद्ध ने कहा, सोचो। बुद्ध ने कहा,
विचार करो। बुद्ध ने कहा, जीवन को अनुभव करो,
विश्लेषण करो। बुद्ध ने विज्ञान दिया, अंधविश्वास
नहीं।
लेकिन
इसका यह अर्थ नहीं कि बुद्ध ने श्रद्धा नहीं दी। बुद्ध ने ही श्रद्धा दी। ऐसे
सोच-विचार जब तुम करने लगोगे, अचानक एक दिन तुम पाओगे श्रद्धा का पड़ाव आ गया।
सोच-विचार की यात्रा से ही कोई श्रद्धा तक पहुंचता है।
इसे
थोड़ा समझो, यह विरोधाभासी लगेगा।
बिना
सोचे-विचारे तो कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचता; एक बात। दूसरी बात, सिर्फ सोच-विचार से भी कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचता। और तीसरी बात,
सोच-विचार करते-करते एक घड़ी आती है, आदमी
सोच-विचार के आगे चला जाता है। सोच-विचार के पहले श्रद्धा नहीं है। सोच-विचार के
मध्य श्रद्धा नहीं है। लेकिन सोच-विचार के आगे चला जाता है। कब तक सोचोगे? सोचने की सीमा है। तुम्हारी सीमा नहीं है। जल्दी ही तुम पाओगे, सोचने का तो अंत आ गया, तुम अब भी हो। सोचना तो
पिछड़ने लगा, तुम्हारे पैर आगे बढ़े जाते हैं।
बुद्ध
वहीं ले जा रहे हैं। बुद्ध कहते हैं, घबड़ाओ मत, बुद्धि
की तो सीमा है। डरो मत, तुम असीम हो। अगर तुम चले, तो जल्दी ही बुद्धि का चुकतारा आ जाएगा। जगह आ जाएगी जहां तख्ती लगी है कि
यहां बुद्धि समाप्त होती है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
श्रद्धा दो तरह की हो सकती है। एक : बिना विचारे। विचार में गए बिना
पहले ही स्वीकार कर ली। वह झूठी है। वह मिथ्या है। उसको ही हम अंध-श्रद्धा कहें। वह
आख वाले की नहीं है। और ऐसी श्रद्धा सदा कमजोर रहेगी। और ऐसी श्रद्धा कभी भी तोड़ी
जा सकती है। कोई भी हिला देगा। कोई भी जीवन का तथ्य मिटा देगा ऐसी श्रद्धा को। दो
कौड़ी की है, इसको कोई मूल्य मत देना। और इस श्रद्धा से तुम
मुक्त न होओगे। इस श्रद्धा से तुम बंध जाओगे। यह जंजीर की तरह तुम्हें घेर लेगी। जिसको
तुमने अपने अनुभव से नहीं पाया, उसे तुम अपनी संपदा मत समझना।
यह अविचार की श्रद्धा है।
फिर
विचार में चलो। तो तुम डरते हो विचार में चलने से, क्योंकि अक्सर लोग विचार
में अटक जाते हैं। काफी नहीं चलते, दूर तक नहीं चलते,
दो कदम चलते हैं
और
रुक जाते हैं। राह के किनारे झोपड़ा बना लेते हैं, वहीं ठहर जाते हैं, मंजिल तक नहीं पहुंचते। ये सब नास्तिक हो जाते हैं। इन नास्तिकों के कारण
कुछ डर कर चलते ही नहीं।
बुद्ध
कहते हैं, जिनको तुम आस्तिक कहते हो वे झूठे आस्तिक हैं, और
जिनको तुम नास्तिक कहते हो वे झूठे नास्तिक हैं। क्योंकि नास्तिकता का निर्णय तभी
लेना उचित है जब बुद्धि की सीमा तक पहुंच गए हो। उसके पहले निर्णय नहीं लिया जा
सकता। जब तक पूरा जाना ही नहीं, पूरा सोचा ही नहीं, तो कैसे निर्णय लोगे? और जो भी बुद्धि की सीमा पर
पहुंच जाता है, उसे एक अनुभव आता है-बुद्धि की तो सीमा आ गयी,
अस्तित्व आगे भी फैला है। तब उसे पता चलता है कि बुद्धि के पार भी
अस्तित्व है। बहुत है जो बुद्धि के पार भी डै। और जो बुद्धि के पार है, उसे बुद्धि से कैसे पाओगे ई सुनो-
तेरी
मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था
सरहदे-अक्ल
से गुजरे तो यहां तक पहुंचे
सरहदे-अक्ल
से गुजरे तो यहां तक पहुंचे
बुद्धि
की सीमा के पार जब गए तब तुझ तक पहुंचे, परमात्मा तक पहुंचे।
तेरी
मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था
जो
चले ही नहीं और जिन्होंने श्रद्धा कर ली, वे तो कभी नहीं पहुंचे। उनका ईश्वर
तो बस मान्यता का खिलौना है। उनका ईश्वर तो बस धारणा की बात है। वे तो भटका रहे
हैं, भरमा रहे हैं अपने को। तुम्हारे मंदिर-मस्जिद तुम्हारी
भ्रांतियां हैं, असली मंजिलें नहीं। पहुंचे तो वही, जो सरहदे-अक्ल से गुजरे।
तो
बुद्ध ने कहा,
आओ। डरकर मत आस्तिक बनो। और नास्तिकता से भयभीत मत होओ। नास्तिकता
आस्तिकता की तरफ पहुंचने की अनिवार्य प्रक्रिया है। बुद्ध के पहले तक लोग सोचते थे,
आस्तिक-नास्तिक विरोधी हैं। बुद्ध ने नास्तिकता को आस्तिकता की
प्रक्रिया बना दिया। इससे बड़ी कोई क्रांति घटित नहीं हुई है। बुद्ध ने कहा,
नास्तिकता सीढ़ी है आस्तिकता की।
हां, सीढ़ी पर
बैठ जाओ तो तुम्हारी भूल है। सीढ़ी का कोई कसूर नहीं। मैं तुमसे कहूं कि चढ़ो ऊपर,
छत पर जाने की यह रही सीढ़ी; तुम सीढ़ी पर ही बैठ
जाओ, तो तुम कहो यह सीढ़ी तो छत की दुश्मन है। लेकिन सीढ़ी ने
तुम्हें नहीं पकड़ा है। सीढ़ी तो चढ़ाने को तैयार थी। सीढ़ी तो चढ़ाने को ही थी। सीढ़ी
का और कोई प्रयोजन न था। लेकिन सीढ़ी को तुमने अवरोध बना लिया। तुम उसी को पकड़ कर
बैठ गए।
नास्तिकता
सीढ़ी है। और जो ठीक से नास्तिक नहीं हुआ, वह कभी ठीक से आस्तिक न हो सकेगा। इसे
तुम सम्हालकर मन में रख लेना।
मेरे
पास तो रोज लोग आते हैं। उनमें जो आदमी नास्तिकता से गुजरा है, उसकी ज्ञान
और! उनमें जिस आदमी ने नास्तिकता की पीड़ा झेली है, संदेह को
भोगा है, संदेह के कीटों में गुजरा है, इनकार जिसने किया है, उसके स्वीकार का मजा और! गरिमा
और! जिसको ना कहने में डर लगता है, उसके ही की कितनी कीमत हो
सकती है? उसकी ही नपुंसक है। जिसने कभी नहीं-नहीं कहा,
उसकी हा का भरोसा मत करना। वह ही कमजोर की ही है; बलशाली की नहीं।
बुद्ध
ने लोगों को बलशाली की ही सिखायी। बुद्ध ने कहा ना कहो; डरो मत। क्योंकि
ना कहना न सीखोगे तो ही कैसे कहोगे? हा आगे की मंजिल है। ना
के पहले नहीं, ना के बाद है। कहो दिल खोलकर ना।
बुद्ध
ने मनुष्य को पहली दफा धर्म की सबलता दी। उसके पहले धर्म निर्बल का था। लोग कहते
हैं, निर्बल के बल राम। बुद्ध ने लोगों को सबलता दी, बल
दिया; और कहा, डर है ही नहीं; क्योंकि राम तो है ही। इसलिए भय मत करो। तुम्हारे ना कहने से राम-राम नहीं
हो जाता। और तुम्हारे ही कहने से राम हो नहीं जाता। लेकिन तुम्हारे ना कहने से तुम
होना शुरू होते हो। और जब तुम हो, तभी तो तुम हां कह सकोगे। थोड़ा
सोचो।
अगर
तुम ना कहना जानते ही नहीं;
या इतने डर गए हो, इतने पंगु हो गए हो कि
तुमसे इनकार निकलता ही नहीं, तो तुमसे स्वीकार क्या निकलेगा?
स्वीकार तो इनकार से बड़ी घटना है। इनकार तक नहीं निकलता। तुम
रेगिस्तान भी नहीं हो अभी नास्तिकता के, तो तुम आस्तिकता के
मरूद्यान कैसे हो सकोगे? तुम अभी रूखी- सूखी नास्तिकता भी
नहीं अपने में ला पाए, तो हरी- भरी, फूलों
से सजी आस्तिकता कैसे ला पाओगे? आस्तिकता नास्तिकता के
विपरीत नहीं है। आस्तिकता नास्तिकता के आगे है। आस्तिकता मंजिल है। नास्तिकता साधन
है।
इसलिए
बुद्ध ने एक नयी कीमिया दी है मनुष्य-जाति को, जिसमें नास्तिकता का भी उपयोग हो
सकता है। और इसे मैं कहता हूं बहुत अनूठी घटना। जब तुम नहीं का भी उपयोग कर पाओ,
जब तुम अपने अंधकार का भी उपयोग कर पाओ, अपने
अस्वीकार का भी उपयोग कर पाओ, तभी तुम पूरे विकसित हो सकोगे।
जब तुम्हारा अंधकार भी प्रकाश की तरफ जाने का साधन हो जाए; जब
तुम अपने अंधकार को भी रूपातरित कर लो, वह भी प्रकाश का ईंधन
बन जाए; जब तुम अपने इनकार को भी अपनी स्वीकार की सेवा में
रत कर दो, वह दास हो जाए; तुम्हारी
नास्तिकता आस्तिकता के पैर दबाए, तभी।
बुद्ध
ने विचार दिया,
विश्लेषण दिया, बुद्धि को अपने धर्म का
प्रारंभ-बिंदु कहा, अंत नहीं। इसलिए तुम घबड़ाओ मत, कि बुद्ध दीक्षा क्यों देते हैं? घबड़ाओ मत, कि बुद्ध शिष्य क्यों बनाते हैं? घबड़ाओ मत, कि बुद्ध धर्म, संघ और बुद्ध की शरण आने का निमंत्रण
क्यों देते हैं?
लेकिन यह निमंत्रण वह उन्हीं को देते हैं जो नास्तिकता से पार हो गए हैं।
यह हर किसी को नहीं देते। हर किसी को तो वह विचार देते हैं, विश्लेषण
देते हैं। फिर जो विचार और विश्लेषण करते हैं, और जो अपने
अनुभव से भी बुद्ध के गवाह हो जाते हैं और कहते हैं, ठीक
कहते हो तुम। सोचकर भी हमने यही पाया कि सोचना व्यर्थ है। शास्त्रों में झांककर
देखा कि शास्त्र बेकार हैं। ठीक कहते हो तुम कि धर्म परंपरा नहीं, विद्रोह है। हमने भी सोचकर देख लिया। लेकिन अब सोचना भी समाप्त होता है।
अब आगे? अब तुम हमें आगे भी ले चलो। तब बुद्ध शिष्यत्व देते
हैं। तब दीक्षा देते हैं। जो विचार से गुजर आया, जो विचार से
निकल आया, जो विचार के जाल के बाहर उठ आया, उसे बुद्ध दीक्षा देते हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं कि अगर श्रद्धा से ही उसे पाना है, तो आप लोगों को इतना समझाते क्यों हैं?
समझाता हूं इसलिए कि पहले श्रद्धा को पाना है। श्रद्धा से उसको पाना है,
जरूर, स्वीकार। लेकिन पहले श्रद्धा को पाना है।
और श्रद्धा को तुम कैसे पाओगे? दो उपाय हैं। एक तो तुम्हें
भयभीत कर दूं कि नर्क में, अग्नि में जलोगे, जलते कड़ाहों में, आग के उबलते कड़ाहों में डाले
जाओगे। या तो तुम्हें भयभीत कर दूं। या प्रलोभित कर दूं कि स्वर्ग में अप्सराएं
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं। अगर श्रद्धा की तो स्वर्ग अश्रद्धा की तो नर्क। या
तो तुम्हें इस तरह से जबर्दस्ती धकाऊं, जो कि गलत है। क्योंकि
जिसने भय के कारण राम को जपा उसने जपा ही नहीं, भय को ही
जपा। जो डर के कारण नैतिक बना, वह नैतिक बना ही नहीं। पुलिस
वाले के डर से तुमने चोरी न की, यह भी कोई अचोर होना हुआ!
नर्क के भय से तुमने बेईमानी न की, यह भी कोई ईमानदारी हुई!
नर्क के कड़ाहों में जलाए जाओगे, इस भय से तुमने ब्रह्मचर्य
धारण कर लिया, यह भी कोई कामवासना से मुक्ति हुई! यह तो
कंडीशनिंग है। ये तो संस्कारित करने की तरकीबें हैं।
रूस
में एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ, पावलफ। उसने तो?. अब रूस
तो नास्तिक मुल्क है, लेकिन पावलफ की बातें रूस के लोगों को
भी जमीं। किसी ने यह बात खोजबीन नहीं की कि पावलफ जो कह रहा है वह तथाकथित
धार्मिकों से भिन्न बात नहीं है। पावलफ ने कहा कि किसी को भी बदलना हो, तो समझाने-बुझाने की जरूरत नहीं है।
समझो
कि एक आदमी सिगरेट पीता है। तो इसको समझाने की जरूरत नहीं है; और न
सिगरेट के पैकिट पर लिखने की जरूरत है कि सिगरेट पीना हानिकारक है। इससे कुछ भी न
होगा। इससे सिगरेट न छूटेगी, सिर्फ हानि के प्रति वह अंधा हो
जाएगा। रोज-रोज पैकिट पर पढ़ता रहेगा, तो हानि शब्द का जो
परिणाम होना था वह भी न होगा। अगर इसको बदलना है, तो पावलफ
ने कहा कि जब यह सिगरेट पीए इसको बिजली का शॉक दो। शॉक इतना तेजी से लगे कि सिगरेट
के पीने में जो रस आता है, उससे ज्यादा पीड़ा शॉक की हो। रस
कुछ आता भी नहीं। सिर्फ धुआ बाहर-भीतर लाने ले जाने में रस आ भी कैसे सकता है!
भ्रांति है। असली बिजली का शॉक भ्रांति को तोड़ देगा। और ऐसा रोज करते रहो; एक-दो सप्ताह तक। और तब यह आदमी हाथ में सिगरेट उठाएगा और हाथ कंपने लगेगा।
क्योंकि जैसे ही सिगरेट की याद आएगी, भीतर याद शॉक की भी
आएगी। कंडीशनिंग हो गयी। अब इसकी सिगरेट हाथ से छूट जाएगी। समझाने की जरूरत नहीं
है कि सिगरेट बुरी है। कितने दिन से समझा रहे हैं लोग! कोई नहीं सुनता।
लेकिन
पावलफ ने जो कहा,
यह बहुत भिन्न नहीं है। यही तो पुराने धर्मगुरु करते रहे। बचपन से
ही समझाया जाए कि नर्क में कड़ाहा जल रहा है-मंदिरों में चित्र लटकाए जाएं, लपटों का विवरण किया जाए-कड़ाहों में फेंककर जलाए जाओगे, सड़ाए जाओगे, कीड़े-मकोड़े छेद करेंगे तुम्हारे शरीर
में और भागेंगे, दौड़ लगाएंगे, और मरोगे
भी नहीं। सामने पानी होगा, कंठ प्यास से भरा होगा, पी न सकोगे। और अंनतकालीन यातना झेलनी पड़ेगी। और पाप क्या हैं तुम्हारे?
छोटे-मोटे, कि सिगरेट अगर पी। सिगरेट पीने के
लिए इतना भारी उपाय! घबड़ा जाए आदमी! छोटे बचपन से अगर यह बात मन पर डाली जाए तो
स्वभावत: भय पकड़ लेगा। यह सिगरेट न पीएगा। लेकिन यह कोई चरित्र हुआ? तुमने चरित्र तो इसका नष्ट कर दिया सदा के लिए। चरित्र तो बल पर खड़ा होता
है। चरित्र तो समझ पर खड़ा होता है। तुमने भय का जहर भर दिया। तुमने तो इसको मार
डाला। अब यह जीएगा कभी भी नहीं।
और
इसी तरह स्वर्ग का प्रलोभन दिया हुआ है। वहां बड़े सुख। तुम कर रहे हो दो कौड़ी के
काम, लेकिन बड़े सुख की आशा कर रहे हो। एक भिखमंगे को एक पैसा दे आए, अब तुम हिसाब लगा रहे हो कि स्वर्ग जाओगे। कि कहीं धर्मशाला बनवा दी,
कि कहीं मंदिर बनवा दिया, अब तुम सोच रहे हो
कि बस भगवान पर तुमने बहुत एहसान किया; अब तुम स्वर्ग जाने
वाले हो।
मैंने
सुना है कि एक धर्मगुरु स्वर्ग जाने की टिकटें बेचता था-सभी धर्मगुरु बेचते हैं। स्वभावत:, कुछ अमीर
खरीदते तो प्रथम श्रेणी की देता। गरीब खरीदते, द्वितीय
श्रेणी के। तृतीय श्रेणी भी थी, और जनता-चौथी श्रेणी भी थी। सभी
लोगों के लिए इंतजाम स्वर्ग में होना भी चाहिए। तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह की सुविधाएं होनी चाहिए। काफी धन उसने इकट्ठा कर लिया था लोगों को
डरा-डराकर नर्क के भय से। लोग खाना न खाते, पैसा इकट्ठा करते
कि टिकट खरीदनी है। यही कर रहे हैं लोग। खाना नहीं खाते, मैं
देखता हूं तीर्थयात्रा को जाते हैं। कपड़ा नहीं पहनते, मंदिर
में दान दे आते हैं। खुद भूखों मरते हैं, ब्राह्मण को भोजन
कराते हैं। सदियों से डरवाया है ब्राह्मण ने कि हम ब्रह्म के सगे-रिश्तेदार हैं।
भाई-
भतीजावाद। अपना नाता करीब का है, करवा देंगे तुम्हारा इंतजाम भी। खुद खाओगे,
कोई पुण्य न होगा। ब्राह्मण को खिलाओगे, पुण्य
होगा। लोग भूखों मरते हैं, पंडे-पुरोहितों को देते हैं।
उस
धर्मगुरु ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया। एक रात एक आदमी उसकी छाती पर चढ़ गया जाकर, छुरा लेकर।
और उसने कहा, निकाल, सब रख दे! उसने
गौर से देखा, वह उसकी ही जाति का आदमी था। उसने कहा, अरे! तुझे पता है, नर्क में सड़ेगा। उसने कहा,
छोड़ फिकर, पहली श्रेणी का टिकट पहले ही खरीद
लिया है, सब निकाल पैसा। तुमसे ही खरीदा है टिकट। वह हम पहले
ही खरीद लिए हैं, उसकी तो फिकर ही छोड़ो। अब नर्क से तुम हमें
न डरवा सकोगे। वे कोई और होंगे जिनको तुम डरवाओगे। हम टिकट पहले ही ले लिए हैं;
अब तुम सब पैसा जो तुम्हारे पास इकट्ठा किया है तिजोड़ी में, दे दो।
लोग
यही कर रहे हैं। इसको तुम चरित्र कहते हो! भय पर खड़े, लोभ पर
खड़े व्यक्तित्व को तुम चरित्र कहते हो! यह चरित्र का धोखा है।
बुद्ध
ने यह धोखा नहीं दिया। बुद्ध ने कहा, समझ, सोच-विचार,
चिंतन, मनन। और धीरे-धीरे तुम्हें उस जगह ले
आना है, जहां से पार दिखायी पड़ना शुरू होता है। जहां
अतिक्रमण होता है। जहां तुम आ जाते हो किनारे अपने सोचने के और देखते हो उसे जो
सोचा नहीं जा सकता। जहां रहस्य तुम्हें आच्छादित कर लेता है और विचार अपने से गिर
जाते हैं। जहां विराट तुम्हारे करीब आता है और तुम्हारी छोटी खोपड़ी चक्कर खाकर ठहर
जाती है। अवाक।
बुद्ध
ने कहा, श्रद्धा थोपेंगे नहीं। श्रद्धा तक तुम्हारी यात्रा करवाएंगे। इसलिए दीक्षा
बुद्ध ने दी और श्रद्धा की बात भी नहीं की। यही तो उनकी कला है। और जितनी दीक्षा
उन्होंने दी, किसने दी? जितने लोगों को
उन्होंने संन्यास के अमृत का स्वाद चखाया, किसने चखाया?
जितनी श्रद्धा बुद्ध इस पृथ्वी पर उतारकर लाए, कभी कोई नहीं ला सका था। और आदमी ने बात भी न की श्रद्धा की। यही उनकी कला
है। यही उनकी खूबी है। यही उनकी विशिष्टता है। दूसरे सिर पीट-पीटकर मर गए, श्रद्धा करो, विश्वास करो, और
कूड़ा-करकट दे गए लोगों को। बुद्ध ने व्यर्थ की बातें न कीं। बुद्ध ने, जीवन में जो भी था, सभी का सीढी की तरह उपयोग कर
लिया। तर्क है, तो उपयोग करना है। छोड़कर कहां जाओगे?
सीढ़ी बना लो। संदेह है, घबड़ाओ मत। इसकी भी
सीढ़ी बना लेंगे, डर क्या है? इस पर भी
चढ़ जाएंगे। तर्क के कंधे पर खड़े होंगे, संदेह के सिर पर खड़े
होंगे, और पार देखेंगे।
और
जब पार का दिखायी पड़ता है,
तो श्रद्धा उतरती है।
श्रद्धा
उस पार के अनुभव का अनुसंग है। उसकी छाया है। जैसे गाड़ी के बैलों के पीछे चाक चले
आते हैं। जैसे तुम भागते हो, तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया भागती चली आती है।
जिसको दिखायी पड़ गया विराट, एक झलक भी मिल गयी उसकी;
जरा
सी देर को हटे बादल और सूरज दिखायी पड़ गया, एक झलक ही सही; अंधेरी रात में चमकी बिजली, एक झलक दिखायी पड़ गयी कि
राह है, और दूर खड़े मंजिल के कलश झलक गए-बस, श्रद्धा उत्पन्न हुई। इस श्रद्धा की महिमा और! इस श्रद्धा को तुम अपनी श्रद्धा
मत समझना। इस श्रद्धा को तुम अपनी कमजोर नपुंसक धारणाएं मत समझना। यह श्रद्धा
अर्जित करनी होती है।
बुद्ध
ने कहा, कोई व्यक्ति पैदा होते से श्रद्धा लेकर नहीं आता। संदेह ही लेकर आता है। हर
बच्चा संदेह लेकर आता है। इसलिए तो बच्चे इतने प्रश्न पूछते हैं, जितने के भी नहीं पूछते। बच्चा हर चीज से प्रश्न बना लेता है। स्वाभाविक
है। पूछना ही पड़ेगा। क्योंकि पूछ-पूछकर ही तो वहां पहुंचेंगे जहां अनुभव होगा और
सब पूछना गिर जाता है, सब जिज्ञासा गिर जाती है।
मुझसे
लोग कहते हैं,
आप क्यों इतना समझाते हैं जब श्रद्धा से पहुंचना है? समझाता हूं ताकि श्रद्धा तक पहुंचना हो जाए। फिर तो तुम खुद ही चल लोगे। श्रद्धा
काफी है। फिर मेरी जरूरत न होगी। श्रद्धा तक तुम्हें फुसलाकर ले आऊं, फिर तो मार्ग सुगम है। फिर तो तुम खुद ही चल लोगे, फिर
तो तुम्हारी श्रद्धा ही खींच लेगी। फिर तो श्रद्धा का चुंबक काफी है।
तीसरा
प्रश्न:
बुद्ध
सब गुरूओं से हताश ही हुए। क्या उन्हें कोई सिद्ध सदगुरु न मिला?
सिद्ध सदगुरु इतने आसान नहीं। रोज-रोज नहीं होते। जगह-जगह नहीं मिलते। हजारों
वर्ष बीत जाते हैं, तब कभी कोई एक सिद्ध सदगुरु होता है।
तो
यह सवाल तुम्हारे मन में इसलिए उठता है कि तुम सोचते हो, सिद्ध
सदगुरु तो गांव-गांव बैठे हुए हैं। सदगुरु बनकर बैठ जाना एक बात है। बाजार में
दुकान खोलकर बैठ जाना एक बात है। और यह मामला कुछ ऐसा है परमात्मा का, अदृश्य का मामला है! इसलिए पकड़ना भी बहुत मुश्किल है।
मैंने
सुना है कि अमरीका में एक दुकान पर अदृश्य हेअर पिन बिकते थे। अदृश्य! तो स्त्रियां
तो ऐसी चीजों में बड़ी उत्सुक होती हैं। अदृश्य हेअर पिन! दिखायी भी न पड़े, और बालों
में लगा भी रहे। बड़ी भीड़ लगती थी, क्यू लगता था। एक दिन एक
औरत पहुंची। उसने डब्बा खोलकर देखा, उसमें कुछ था तो है नहीं।
क्योंकि अदृश्य तो कुछ दिखायी पड़ता ही नहीं। उसने कहा, इसमें
हैं भी? उसने कहा, यह तो अदृश्य हेअर
पिन हैं। ये दिखायी थोड़े ही पड़ते हैं। थोड़ा संदेह उसे उठा। उसने कहा कि अदृश्य!
माना कि अदृश्य हैं, उनको ही लेने आयी हूं लेकिन पक्का इसमें
हैं g और ये किसी को दिखायी भी नहीं पड़ते। उस दुकानदार ने
कहा कि तू मान न मान, आज महीने भर से तो स्टॉक में ही नहीं
हैं, फिर भी बिक रहे हैं। अब ये अदृश्य हेअर पिन की कोई
स्टॉक में होने की जरूरत थोड़े ही है। और महीने के पहले भी बिकते रहे, स्टॉक में होने की जरूरत कहां है?
यह
धंधा कुछ अदृश्य का है। इसमें जरा कठिनाई है। क्योंकि तुम पकड़ नहीं सकते कि कौन
बेच रहा है, कौन नहीं बेच रहा है। किसके पास है, किसके पास नहीं
है। बड़ा कठिन है। यह खेल बहुत उलझा हुआ है। और इसलिए इसमें आसानी से गुरु बनकर बैठ
जाना जरा भी अड़चन नहीं है। कोई और तरह की दुकान खोलो तो सामान बेचना पड़ता है। कोई
और तरह का धंधा करो तो पकड़े जाने की कोई न कोई सुविधा है। कहीं न कहीं से कोई न
कोई झंझट आ जाएगी। कितना ही धोखा दो, कितना ही कुशलता से दो,
पकड़ जाओगे। लेकिन परमात्मा बेचो, कौन पकड़ेगा?
कैसे पकड़ेगा' सदियां बीत जाती हैं बिना स्टॉक के
बिकता है।
तो
तुम इससे परेशान मत होओ कि बुद्ध इतने गुरुओं के पास गए और सदगुरु न मिले। यह
स्वामी योग चिन्मय का प्रश्न है। चिन्मय को यही खयाल है कि ऐसे सदगुरु हर कहीं
बैठे हैं। जहां गए वहीं सदगुरु मिल जाएंगे। बहुत कठिन है। सौभाग्य है कि कभी कोई
सदगुरु के पास पहुंच जाए। कैसे पहचानोगे? एक ही उपाय है पहचानने का, और वह यह है कि जो गुरु कहता हो-वह सदगुरु है या नहीं, इसकी फिक्र छोड़ो-जो वह कहता हो उसे करना। अगर सदगुरु है, तो जो उसने कहा है उसे करने से तुम्हारे भीतर कुछ होना शुरू हो जाएगा। अगर
सदगुरु नहीं है, तो उसके भीतर ही नहीं हुआ है, तुम्हारे भीतर कैसे हो जाएगा?
लेकिन
सदगुरु तो कभी-कभी होते हैं। पर सदगुरु की तलाश तो सदा होती है। इसलिए झूठों को
बैठने का अवसर मिल जाता है। और चूंकि तुम कभी करते ही नहीं कुछ, तुम सिर्फ
सुनते हो, इसलिए तुम्हें धोखा दिया जा सकता है। तुम कुछ
करोगे, तो ही तुम्हें धोखा नहीं दिया जा सकता। मेरी ऐसी समझ
है कि चूंकि तुम धोखा देना चाहते हो, इसलिए तुम्हें धोखा
दिया जा सकता है। तुम कुछ करना तो चाहते नहीं। तुम चाहते हो कि कोई कृपा से हो जाए
किसी की।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं कि जब आपके पास आ गए तो अब क्या ध्यान करना? आपकी कृपा से! वे मुझ ही को धोखा दे रहे हैं। वे मुझ ही को तरकीब बता रहे
हैं, कि अब आपके पास आ गए तो अब क्या ध्यान करना? यह और करें, हम तो श्रद्धा करते हैं। इतनी भी
श्रद्धा नहीं है कि मैं जो कहूं वह करें, और श्रद्धा करते
हैं! क्योंकि मुझ पर तुम्हारी श्रद्धा और कैसे प्रकट होगी? जो
मैं कहता हूं? वह करो।
तो
तुम करते नहीं हो,
इसलिए झूठे गुरु भी चलते जाते हैं। तुम करो, तो
तुम्हारा
करना
ही प्रमाण हो जाएगा। उस आदमी को बार-बार दिखायी पड़ने लगेगा कि कुछ भी नहीं हो रहा
है, किसी को कुछ भी नहीं हो रहा है। और लोग जाने लगे हैं। अपने आप बाजार उजड़
जाएगा।
बुद्ध
ने यही किया। वह गए तो,
लेकिन जिसके पास भी गए, जो भी उसने कहा,
वही किया। कुछ ने तो ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें कहीं उनसे-वह भी उन्होंने
कीं-कि कहने वालों को भी दया आने लगी कि यह हम क्या करवा रहे हैं! किसी ने कहा कि
बस एक चावल का दाना रोज। इतना ही भोजन लेना। अब मूढ़तापूर्ण बातें हैं। लेकिन बुद्ध
ने वह भी किया। कहते हैं, उनकी हड्डिया-हड्डिया निकल आयीं। उनका
पेट पीठ से लग गया। चमड़ी ऐसी हो गयी कि छुओ तो उखड़ जाए शरीर से। तब उस गुरु को भी
दया आने लगी। कितना ही धोखेबाज रहा हो, अब यह जरा अतिशय हो
गयी। उसने हाथ जोड़े, और उसने कहा कि तुम कहीं और जाओ। जो मैं
जानता था मैंने बता दिया। इससे ज्यादा मुझे कुछ पता नहीं है।
ऐसे
बुद्ध की निष्ठा ने ही-उनकी अपनी निष्ठा ने ही-कसौटी का काम किया। भटकते रहे, सबको जांच
लिया, कहीं कुछ पाया नहीं। तब अकेले की यात्रा पर गए। और यह
भी सोच लेने जैसा है कि तुम अक्सर चूंकि करना नहीं चाहते, इसलिए
जल्दी मानना चाहते हो। तुम्हारी मानने की जल्दी भी करने से बचने की तरकीब है।
जीवन
में प्रत्येक चीज अर्जित करनी होती है। श्रद्धा भी इतनी आसान नहीं है, कि तुमने
कर ली और हो गयी। संघर्ष करना होगा। तपाना पड़ेगा। स्वयं को जलाना पड़ेगा। धीरे-
धीरे निखरेगा तुम्हारा कुंदन। गुजरेगा आग से स्वर्ण, शुद्ध
होगा। तभी तुम्हारे भीतर श्रद्धा का आविर्भाव होगा। और सदगुरु गली-कूचे नहीं बैठे
हुए हैं। कभी हजारों वर्ष में एक सिद्ध सदगुरु होता है। सदियां बीत जाती हैं
खोजियों को खोजते-खोजते।
इसलिए
अगर कभी तुम्हें किसी सदगुरु की भनक पड़ जाए तो सौभाग्य समझना! अहोभाग्य समझना!!
चौथा
प्रश्न :
भगवान
बुद्ध ने अवैर के स्थान पर प्रेम शब्द का व्यवहार क्यों नहीं किया?
जान कर। अवैर नकारात्मक है, अहिंसा जैसा। बुद्ध कहते
हैं, वैर छोड़ दो, तो जो शेष रह जाता है
वही प्रेम है। बुद्ध प्रेम करने को नहीं कहते। क्योंकि जो प्रेम किया जाता है,
वह प्रेम नहीं।
तुम
चिकित्सक के पास जाते हो। वह निदान करता है बीमारी का, वह औषधि
देता है बीमारी मिटा देने को। जब बीमारी हट जाती है, तो जो
शेष रह जाता है वही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य की अलग से चर्चा करनी फिजूल है। और
खतरा भी है। क्योंकि तुमसे अगर यह कहा जाए कि प्रेम करो, तो
तुम वैर तो न छोड़ोगे, प्रेम करना शुरू करोगे। क्योंकि करना
तुम्हें सदा आसान मालूम पड़ता है, क्योंकि करना अहंकार को
तृप्ति देता है। तुम प्रेम करना शुरू करोगे। वैर तो न छोड़ोगे, प्रेम करोगे। तो ऐसा हो सकता है कि तुम वैर को प्रेम में ढांक दो। वैर तो
बना रहे और प्रेम के आवरण में ढांक दो। तब तुम्हारा प्रेम भी झूठा होगा। क्योंकि
वैर के ऊपर प्रेम कैसे खड़ा हो सकता है?
तुमने
बहुत बार प्रेम किया है। तुम जानते हो भलीभांति, तुम्हारे प्रेम से घृणा
मिटती नहीं। दब जाती हो भला। राख में दब जाता हो अंगारा, मिटता
नहीं। तुम प्रेम भी करते हो उसी को, घृणा भी करते हो उसी को।
सांझ उसके गीत गाते हो, सुबह गालियां देते हो उसी को। अभी
उसके लिए मरने को तैयार थे, क्षणभर बाद उसी को मारने को
तैयार हो जाते हो। यह तुम्हारा प्रेम बुद्ध भलीभांति जानते हैं। यह प्रेम घृणा को
मिटाता नहीं, घृणा को सजा भला देता हो। आभूषण पहना देता हो,
घृणा को सुंदर बना देता हो, जहर पर अमृत का
लेबल लगा देता हो, लेकिन मिटाता नहीं।
इसलिए
बुद्ध ने प्रेम की बात ही नहीं की। बुद्ध ने कहा, अवैर। तुम वैर छोड़ दो। तुम
घृणा छोड़ दो। फिर जो शेष रह जाएगा, वही प्रेम है। और इस
प्रेम का गुण-धर्म अलग है। तुम जो प्रेम करते हो, वह भी
कृत्य है। बुद्ध जिस प्रेम की बात कर रहे हैं, वह कृत्य नहीं
है। ना ही कोई संबंध है। वह तुम्हारा स्वभाव है।
अभी
तुम कहते हो,
मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। तुम्हारे हाथ में है। चाहो तो करो,
चाहो तो अलग कर लो। कल कह दो कि नहीं करता।
लेकिन
जिसके जीवन से वैर चला गया,
वह ऐसा नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और अलग कर लेता
हूं। वह तो ऐसे ही कहेगा, मैं प्रेम हूं। तुम चाहे भला करो,
चाहे बुरा करो, मैं प्रेम हूं। यह प्रेम मेरा
स्वभाव है। तुम मुझे मारो तो, तुम मेरी सेवा करो तो। तुम आदर
करो, अनादर करो। तुम्हारा कृत्य अब अर्थ नहीं रखता। मेरे
प्रेम में कोई अंतर न पड़ेगा।
एक
आदमी ने बुद्ध के मुंह पर यूक दिया। उन्होंने अपनी चादर से थूक पोंछ लिया। और उस
आदमी से कहा,
कुछ और कहना है? क्योंकि बुद्ध ने कहा,
यह भी तेरा कुछ कहना है, वह मैं समझ गया;
कुछ और कहना है? आनंद तो बहुत क्रोधित हो गया,
उनका शिष्य। वह कहने लगा, यह सीमा के बाहर बात
हो गयी। आप पर, और कोई थूक दे, और हम
बैठे देखते रहें? जान लेने-देने का सवाल हो गया। आप आज्ञा
दें, मैं इस आदमी को ठीक करूं। क्षत्रिय था आनंद। बुद्ध का चचेरा
भाई था। योद्धा रह चुका था। उसकी भुजाएं फड़क उठीं। उसने कहा कि हो गया बहुत। वह
भूल ही गया कि हम भिक्षु हैं, संन्यासी हैं।
बुद्ध
ने कहा कि उसने जो किया वह क्षम्य है। तू जो कर रहा है वह और भी खतरनाक है। उसने
कुछ किया नहीं है,
सिर्फ कहा है। तुझे समझ नहीं आता है आनंद, कभी
ऐसी घड़ियां होती हैं जब तुम कुछ कहना चाहते हो, लेकिन कह
नहीं सकते, शब्द छोटे पड़ जाते हैं। किसी को हम गले लगा लेते
हैं। कहना चाहते थे, लेकिन इतना ही कहने से कुछ काम न चलता
कि मुझे बहुत प्रेम है-बहुत साधारण मालूम होता है-गले लगा लेते हैं। गले लगाकर
कहते हैं। इस आदमी को क्रोध था, यह गाली देना चाहता था,
लेकिन गाली इसको कोई मजबूत न मिली। इसने थूककर कहा। बात समझ में आ
गयी। हम समझ गए इसने क्या कहा। अब इसमें झगड़े की क्या बात है? इससे हम पूछते हैं, आगे और क्या कहना है?
वह
आदमी शर्मिंदा हुआ। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे
क्षमा कर दें। मैं बड़ा अपराधी हूं। और आज तक तो आपका प्रेम मुझ पर था, अब मैंने अपने हाथ से प्रेम गंवा दिया।
बुद्ध
ने कहा, तू उसकी फिकर मत कर, क्योंकि मैं तुझे इसलिए थोड़े ही
प्रेम करता था कि तू मेरे ऊपर अता नहीं था।
बुद्ध
का वचन सुनने जैसा है : मैं इसलिए थोड़े ही तुझे प्रेम करता था कि तू मेरे ऊपर
चूकता नहीं था। अगर इसीलिए प्रेम करता था, तो थूकनें से टूट जाएगा। मैं तुझे
प्रेम करता था क्योंकि और कुछ मैं कर ही नहीं सकता हूं। वह मेरा स्वभाव है। तू थूकता
है कि नहीं थूकता है, यह तेरी तू जान। तू मेरे प्रेम को लेता
है या नहीं लेता है, यह भी तेरी तू जान। लेकिन मुझसे प्रेम
वैसा ही है जैसे कि फूल खिलता है और गंध बिखर जाती है। अब दुश्मन पास से गुजरता है,
तो उसके नासापुटों को भी भर देती है। वह खुद की रूमाल लगा ले,
बात अलग। मित्र निकलता है, उसके नासापुटों को
भी भर देती है। मित्र थोड़ी देर ठहर जाए फूल के पास और उसके आनंद में भागीदार हो
जाए, बात अलग। कोई न निकले रास्ते से तो भी गंध गिरती रहती
है, सूने एकांत में। तो बुद्ध ने कहा, मेरा
प्रेम स्वभाव है।
इसको
समझ लो।
जिसे
तुम प्रेम कहते हो,
वह स्वभाव नहीं है। वह तुम्हारा कृत्य है। वह तुम्हारी एक चित्तदशा
है। स्वभाव नहीं है। तो इसलिए जिसे तुम सुबह प्रेम करते हो, शाम
को उसे घृणा कर सकते हो। कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि चित्त बदल जाता है। मूड बदल
जाता है। भाव बदल जाता है।
बुद्ध
ने नहीं कहा कि प्रेम करो। क्योंकि तुम प्रेम शब्द से गलत समझते। तुम जिसे प्रेम
कहते हो वही समझते। बुद्ध ने कहा, अवैर। कृपा करो इतना ही, वैर
मत करो। फिर जो रहेगा, वह प्रेम है। और उस प्रेम की गंध और!
उस प्रेम का गीत और!
और
जो भी बुद्ध ने कहा है,
स्मरण रखना, वह एक गहन अनुभव से कह रहे हैं।
ऐसे प्रेम को जानकर कह रहे हैं। वह कोई प्रेम के कवि नहीं हैं, न प्रेम के दार्शनिक हैं। उन्होंने प्रेम का अनुभव किया है। इस नए ढंग के
प्रेम को जाना है, जो स्वभाव बन जाता है। तुमने जो भी प्रेम
के संबंध में जाना है, उसमें से जानना तो बहुत कम है। या तो
कवियों ने तुमसे कुछ कह दिया है, उसे तुम दोहरा रहे हो। क्योंकि
फ्रायड ने अपने एक पत्र में एक मित्र को लिखा है कि अगर दुनिया में कवि न होते,
तो शायद प्रेम को कोई जानता ही नहीं।
बात
समझ में आती है। कवि गाते रहे प्रेम की बात। हालांकि कवियों को भी कोई प्रेम बहुत
पता होता है,
ऐसा नहीं। अक्सर तो बात उलटी है। जिनके जीवन में प्रेम नहीं होता,
वे प्रेम की कविता करके अपने मन को बहलाते हैं। जिसके जीवन में
प्रेम है, वह कविता किसलिए करेगा? उसका
जीवन ही कविता होता है। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम नहीं होता, वे बैठकर प्रेम की कविता कर-कर के अपने मन को बहलाते हैं। जो प्रेम वे
प्रगट नहीं कर पाए किसी और तरह से, उसे कविता में उड़ेलते
हैं। अक्सर प्रेम की सौ में से निन्यानबे कविताएं उन लोगों ने लिखी हैं जिन्हें
प्रेम का कोई अनुभव नहीं है।
यह
बड़ी कठिन बात है। अक्सर बहादुरी की बातें वे ही लोग करते हैं जो कायर हैं। वे
अक्सर बहादुरी के किस्से गढ़कर बताते रहते हैं। बहादुर को क्या बहादुरी की बात
करनी! बहादुरी काफी है।
बुद्ध
ने जो कहा है वह किसी कवि की बात नहीं है। न किसी शास्त्रकार की बात है। उन्होंने
प्रेम जाना। और उन्होंने प्रेम एक ही तरह से जाना। और एक ही तरह से जाना है किसी
ने जब भी जाना। उन्होंने वैर छोड़कर जाना है।
तुम
जिसे प्रेम कहते हो,
उसे वे भी जानते थे। उनकी पत्नी थी, बच्चा था,
मां थी, पिता थे-सब थे। उनको उन्होंने खूब
प्रेम किया था। और एक दिन पाया कि उस प्रेम में कुछ भी नहीं है। वह केवल मन का
सपना है। उस प्रेम की व्यर्थता को देखकर वह हट आए। उन्होंने फिर नए ढंग का प्रेम
खोजना चाहा। उस प्रेम में तो घृणा दबी थी, मिटी न थी। उन्होंने
एक ऐसा प्रेम जानना चाहा जो इतना शुद्ध हो कि घृणा उसे विकृत न करे। जिसमें घृणा
की एक बूंद भी न हो। और मजा ऐसा है कि दूध की भरी प्याली में जहर की एक बूंद काफी
है उसे नष्ट करने को। यद्यपि जहर की भरी प्याली में दूध की एक बूंद उसे शुद्ध न
करेगी। विकृत बड़ा समर्थ है। अशुद्ध बड़ा समर्थ है। शुद्ध बड़ा कोमल है, नाजुक है। फूल की तरफ एक पत्थर मार दो तो फूल बिखर जाता है। और हजार फूल
पत्थर को मारो तो भी कुछ नहीं होता।
बुद्ध
खोज में निकले उस प्रेम की जो अविकृत है, अनकरप्टेड, कुंवारा
है। और उस प्रेम को उन्होंने इस ढंग से पाया कि उन्होंने वैर छोड़ा। वैर रहते तुम
प्रेम को साधोगे, तुम्हारा वैर उस प्रेम को विकृत कर देगा,
जहरीला कर देगा। पहले वैर को हटा दो। और मजा यह है कि वैर के हटाते
ही प्रेम साधना नहीं पड़ता; तुम अचानक पाते हो कि अरे! यह वैर
के कारण ही प्रेम दिखायी नहीं पड़ता था, यह तो सतत बह रहा है
भीतर। यह तो स्वभाव है। प्रेम आत्मा है। लेकिन किताबों से सावधान होना जरूरी है। किताबों
से पढ़-पढ़ कर मत प्रेम को समझने की कोशिश करना।
मैंने
सुना है, एक पियक्कड़ को एक धर्मगुरु समझा रहा था कि देख, बंद
कर यह पीना, नहीं तो परमात्मा से चूक जाएगा। तो उस पियक्कड़
ने कहा कि हमने तो पी-पीकर और बेहोश ' हो-होकर ही उसे पहचाना
है। तो परीक्षा हो जाए। उसने कहा-
किधर
से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज
मैं
अपना जाम उठाता हूं तू किताब उठा
और
बिजली किस तरफ चमकती है देखेंगे। तू अपनी किताब उठा!
मैं
अपना जाम उठाता हूं तू किताब उठा
किधर
से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज
और
फिर देखेंगे कि कहा से बिजली चमकती है? तेरी किताब से, या मेरे जाम से?
एक
किताबों की दुनिया है और एक जाम की दुनिया है। एक पीने वालों की दुनिया है, जिन्होंने
जाना स्वाद। और एक केवल शब्दों के गुणतारा बिठाने वालों की दुनिया है। इसमें थोड़ा
खयाल रखना। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा अवैर। और
जिन्होंने नहीं जाना, उन्होंने कहा प्रेम। और जो प्रेम की
कहते हैं, उनके कहने से कभी प्रेम नहीं आया। और जिन्होंने
अवैर समझाया, उनके कहने से प्रेम आया। यह विरोधाभास है।
मैं
अपना जाम उठाता हूं तू किताब उठा
किताबें
मुर्दा हैं। वेद,
कुरान, पुराण, सब मुर्दा
हैं। जब तक जीवन का जाम खुद न पीया जाए तब तक तुम जो कहते हो, कितनी ही कुशलता से कहो, झूठ-झूठ ही रहेगा, सच नहीं हो पाता है।
हमने
दो शब्द इस देश में उपयोग किए हैं-एक कवि और एक ऋषि। ऋषि हम उसको कहते हैं जिसका
काव्य अनुभव से आया। और कवि हम उसे कहते हैं जिसका काव्य कल्पना से आया। दोनों कवि
हैं। लेकिन ऋषि वह है,
जिसने जीया। जिसने अपने काव्य में अपने कलेजे को रखा। जिसने पीया। और
जिसके ओठों पर स्वाद है। वह भी शब्दों का उपयोग करता है। लेकिन फर्क हो जाता है।
महावीर
ने कहा, अहिंसा। प्रेम नहीं। बुद्ध ने कहा, अवैर। प्रेम नहीं।
क्योंकि दोनों ने यह बात समझ ली कि असली सवाल प्रेम को लाने का नहीं है, असली सवाल हिंसा को हटाने का है। वैर को हटाने का है। घृणा को हटाने का है।
घृणा है रोग, हटते ही प्रेम का स्वास्थ्य अपने आप उपलब्ध हो
जाता है। बदलिया घिर गयी हैं, आकाश थोड़े ही लाना है, सिर्फ बदलिया हटा देनी हैं। आकाश तो मौजूद ही है। आकाश तो तुम हो। इसलिए
अब और प्रेम क्या लाना है, तुम प्रेम हो! थोड़े घृणा के बादल
हट जाए, बस।
थोड़े
से छोटे-छोटे प्रश्न:
बुद्ध
ने कहा कि अकेले ही है सत्य की यात्रा। फिर विराटतम संघ क्यों बनाया?
ताकि
बहुत से लोग एक साथ अकेले-अकेले की यात्रा पर जा सकें। साथ जाने के लिए संघ नहीं
बनाया। साथ तो कोई जा ही नहीं सकता समाधि में। अकेले-अकेले ही जाना होता है। यात्रा
का अंत तो सदा अकेले पर होता है। लेकिन प्रारंभ में अगर साथ हो, तो बड़ा
ढाढ़स, बड़ा साहस मिल जाता है।
तुम
अकेले ध्यान करो,
तो भरोसा नहीं आता कि कुछ होगा। तुम्हें अपने पर भरोसा खो गया है। तुम
दस हजार आदमियों के साथ ध्यान करो, तुम्हें अपने पर तो भरोसा
नहीं है, यह नौ हजार नौ सौ निन्यानबे लोगों की भीड़ पर
तुम्हें भरोसा आ जाता है।
इनमें
से भी प्रत्येक की यही हालत है। इनको अपने पर भरोसा नहीं है। हो भी क्या अपने पर
भरोसा! जिंदगी भर की कुल कमाई कूड़ा-करकट है। कुछ अनुभव तो आया नहीं। इनकी आस्था ही
खो गयी है कि हमें,
और शांति मिल सकती है। असंभव! इन्हें अगर आनंद मिल भी जाए, तो ये सोचेंगे कि यह कोई कल्पना हुई, या किसी ने कोई
जादू कर दिया। मुझे, और आनंद! नहीं, यह
हो नहीं सकता। सभी की यही हालत है।
लेकिन
दस हजार लोग जब साथ खड़े होते हैं, तो नौ हजार नौ सौ निन्यानबे तुम्हें बल देते
हैं कि जिस तरफ इतने लोग जा रहे हैं, वहा कुछ होगा। यह बल
प्राथमिक धक्का बन जाता है। इससे गति शुरू हो जाती है। एक बार गति शुरू हो गयी,
फिर तो तुम्हें अपने ही अनुभव से भरोसा आने लगता है। धीरे-धीरे साथ
की कोई जरूरत नहीं रह जाती। तुम अकेले हो जाते हो। अकेले होने के लिए भी साथ की
जरूरत है। तुम इतने कमजोर हो गए हो, तुमने इतना अपने स्वभाव
को भुला दिया है कि तुम्हें अपने पर ही भरोसा लाने के लिए भीड़ की जरूरत हो जाती है।
बुद्ध ने संघ बनाया ताकि लोग अकेले की अंतर्यात्रा पर एक-दूसरे के सहारे प्राथमिक
चरण उठा सकें। अंतिम चरण तो सदा अकेला है। फिर तो वहां कोई भी नहीं रह जाता है। और
बुद्ध के हिसाब में तो आखिरी चरण पर तुम भी नहीं रह जाते-अनत्ता, अनात्मा। आत्मा तक खो जाती है। दूसरे की तो फिक्र छोड़े, बुद्ध कहते हैं, तुम भी नहीं बचते। कुछ बचता है,
जिसको शब्द देने का उपाय नहीं। अनिर्वचनीय है।। शून्य जैसा कुछ। लेकिन
न तुम होते, न कोई दूसरा होता। पर प्राथमिक चरण पर इसका
उपयोग है।
मेरा
भी अनुभव यही है कि मैंने लोगों को अकेले-अकेले भी ध्यान करवा कर देखा, गति नहीं
होती। लेकिन साथ अगर वे ध्यान करते हैं, एक दफा गति हो जाती
है, फिर तो वे खुद ही कहते हैं कि अब हम अकेले करना चाहते
हैं। साथ से शुरुआत सुगमता से हो जाती है। तुम साहस भी जुटा पाते हो। तुम थोड़े
पागल होने की हिम्मत भी जुटा पाते हो। तुम थोड़े आनंदित होने की हिम्मत भी जुटा
पाते हो। जब हजार लोग नाचते हैं, तो तुम्हारे पैर में भी कोई
नाचने लगता -है। तब रोके नहीं रुकता। और जब हजार लोग आह्लादित होते हैं, तो उनका आह्लाद संक्रामक हो जाता है। बीमारी ही संक्रामक नहीं होती,
स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। और जब दस लोग उदास बैठे हों,
तो उनके बीच तुम भी उदास हो जाते हो। और जब दस लोग हंसते हैं,
तो उनके बीच तुम भी हंसने लगते हो।
बुद्ध
को यह समझ में आ गया। बुद्ध ने पहला संघ बनाया, क्योंकि उन्हें यह बात समझ में आ
गयी कि आदमी इतना कमजोर हो गया है कि अकेला जा न सकेगा। यात्रा अकेले की है पर
अकेला जा न सकेगा। संग-साथ हिम्मत बढ़ जाएगी।
आखिरी
प्रश्न.
हमें
आपके शब्दों में कोई श्रद्धा नहीं बैठती और आपके सारे शब्द झूठ प्रतीत होते हैं। फिर
भी यहां से चले जाने का मन क्यों नहीं होता है?
पूछा
है आनंद सरस्वती ने।
शब्द
ही मेरे ऐसे हैं कि श्रद्धा बैठ न सकेगी। क्योंकि मैं उस दुनिया की बात नहीं कर
रहा हूं जिस पर तुम्हें श्रद्धा है, और जिस पर श्रद्धा तुम्हें आसानी
से बैठ जाए। मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल जाता है। तुम्हें
जरा अपने सिर को ऊंचा करना पड़ेगा।
दो
ही उपाय हैं। या तो मैं जो कह रहा हूं उसे नीचा करूं; तब मैं
व्यर्थ हो जाऊंगा, उसका कोई सार न रहेगा। दूसरा उपाय है कि
तुम जरा अपना सिर ऊपर करो। तुम जरा ऊपर उठो। हर आदमी ऐसा सोचता है मन में कि जैसे
श्रद्धा तो उसके पास है ही, बिठाना भर है। श्रद्धा तुम्हारे
पास है नहीं अभी। होती तो बैठ जाती। जिनके पास है, बैठ गयी
है। जिनके पास श्रद्धा ही नहीं है, बैठेगी कैसे?
तुम्हारी
हालत ऐसी है कि मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन आख के डाक्टर के पास गया। और उसने
कहा कि आख बड़ी कमजोर है। तो डाक्टर ने कहा कि कोई फिकर न करो। पढ़ो सामने तख्ती पर
यह बारहखड़ी लिखी है। उसने कहा, कुछ दिखायी नहीं पड़ता। कुछ नहीं? उसने कहा, कुछ दिखायी नहीं पड़ता। तो उसने कहा कि आख
बहुत कमजोर है, चश्मा लग जाएगा, सब ठीक
हो जाएगा। नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर मैं पढ़ सकूंगा? उसने कहा, बिलकुल गढ़ सकोगे। नसरुद्दीन ने कहा,
धन्यभाग! क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं।
अब
चश्मा लगाने से थोड़े ही तुम पढ़े-लिखे हो जाओगे। मुझे सुन-सुनकर थोड़े ही श्रद्धा
बैठ जाएगी। श्रद्धा होनी भी तो चाहिए! तो पहले तो तुममें मैं श्रद्धा पैदा करने की
कोशिश कर रहा हूं।
श्रद्धा
पैदा नहीं होती,
घबड़ाओ मत। जल्दी भी कोई नहीं है। झूठी श्रद्धा मत करना, पहली बात। जब तक न हो, करना मत। प्रतीक्षा करना। जल्दबाजी
मत करना। क्योंकि जिसने झूठी कर ली, वह सच्ची श्रद्धा से सदा
के लिए वंचित रह जाएगा। संदेह करो, हर्ज क्या है? अभी संदेह है तो संदेह ही करो। कुछ तो करो। श्रद्धा नहीं सही, संदेह सही। संदेह से ही धीरे-धीरे श्रद्धा की तरफ उठोगे। संदेह करते-करते
जब तुम पाओगे कि संदेह थकता है और गिरता है। मैं जो कह रहा हूं तुम उसे संदेह से
काट न सकोगे। मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हारे संदेह को काट देगा। होने दो संघर्ष। जल्दी
कुछ नहीं है।
और
तुम कहते हो कि 'आपके सारे शब्द झूठ प्रतीत होते हैं।’
ठीक
ही है बात। होंगे ही। क्योंकि तुम जहां खड़े हो वहां तुमने झूठ को सच मान रखा है। इसलिए
जब तुम सच को पहली बार सुनोगे, वह झूठ मालूम होगा। और थोड़ा सोचो। अंधी श्रद्धा
मत करना। सच्ची अश्रद्धा भी बेहतर है झूठी श्रद्धा से। ईमानदार रहना। प्रामाणिक
रहना।
और
तुम पूछते हो कि 'फिर भी यहां से चले जाने का मन क्यों नहीं होता?'
शायद
तुम्हें पता न हो,
तुम्हारे भीतर कहीं श्रद्धा का अंकुरण शुरू हो गया होगा। खुद भी खबर
लगने में देर लगती है। जो हृदय में शुरू होता है, बुद्धि तक
खबर पहुंचने में कई दफे वर्षों लग जाते हैं। इसलिए भाग भी नहीं सकते। फंस गए। अब
जाने का उपाय भी नहीं है। और अ१गई श्रद्धा भी नहीं हुई है और भागना मुश्किल हो गया
है, तो थोड़ा सोचो, जब श्रद्धा हो जाएगी
तब कैसी गति होगी?
सौभाग्यशाली
हो कि श्रद्धा भी नहीं हुई है, शब्द झूठ भी लगते हैं, फिर
भी हृदय जाने नहीं देता। हृदय तुम्हारे पास कीमती है। तुम्हारी बुद्धि और खोपड़ी से
ज्यादा मूल्यवान है। तुमसे ज्यादा बड़ी चीज' तुम्हारे भीतर
छिपी है, वह तुम्हें जाने नहीं देती, भागने
नहीं देती। तुमसे बड़ा कोई तुम्हारे भीतर बैठा है, उसे मेरे
शब्द समझ में आ रहे हैं, उसकी मुझ पर श्रद्धा हो है।
आज
इतना ही।
THANKYOU GURUJI
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