न भोग, न दमन—वरण जागरण—अठहरवां प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन,
तीन
सूत्रों पर
हमने बात की
है।
जीवन
क्रांति की
दिशा में पहला
सूत्र था- 'सिद्धांतों
से, शास्त्रों
से मुक्ति।'
जो
व्यक्ति किसी
भी तरह के
मानसिक
कारागृह में
बंद है, वह
जीवन ' की
सत्य की, खोज
नहीं कर सकता
है। और वे लोग,
जिनके
हाथों में
जंजीरें है
उतने बड़े
गुलाम नहीं हैं,
जितने वे
लोग, जिनकी
आस्था पर
विचारों की
जंजीरें हैं;
वादों, सिद्धांतों,
संप्रदायों
की जंजीरें
हैं। आदमी की
गुलामी मानसिक
है।
दूसरा
सूत्र था: ' भीड़
से मुक्ति। '
भीड़ की
आंखों में
अपने
प्रतिबिंब से बचिये, पब्लिक
ओपीनियन
से बचिये।
वह दूसरी
जंजीर है।
आदमी
जीवन भर यही
देखता रहता है
कि दूसरे मेरे
संबंध में
क्या सोच रहे
हैं! और, दूसरे
मेरे संबंध
में ठीक सोचें,
इस भांति का
अभिनय करता राहता है!
ऐसा व्यक्ति
अभिनेता ही रह
जाता है। ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में
चरित्र जैसी
कोई बात नहीं
होती। ऐसा
व्यक्ति बाहर
से अभिमानी हो
जाता है,
भीतर की आत्मा
से उसका कभी
संबंध नहीं
होता।
और, तीसरा
सूत्र था, 'दमन
से मुक्ति। '
वे, जो
अपने चित्त को
दबाते हैं, वे अपने ही
जीवन को नष्ट
कर ले तै हैं।
जिस बात को
दबाते हैं, उसी बात से
बंधे रह जाते
हैं।
अगर धन
से छूटने की
कोशिश करते
हैं,
लोभ को
दबाते हैं, तो वे फौरन
लोभी हो जाते
हैं। अगर काम
को, सेक्स
को दबाते हैं,
तो कामुक हो
जाते हैं।
आदमी जिसको
दबाता है, वही
हो जाता है; यह कल के
सूत्र पर बात
हुई थी। आज
चौथे सूत्र पर
बात करनी है।
इसके पहले कि
हम चौथे सूत्र
को समझें, दमन
के संबंध में
कुछ और बातें
समझ लेनी
आवश्यक हैं।
मनुष्य को पता
ही नहीं चलता,
कि जन्म के
साथ ही दमन
शुरू हो जाता
है!
हमारी
सारी शिक्षा, सारी
संस्कृति, सारी
सभ्यता दमन
लाती है।
जगह-जगह
मनुष्य पर रोक
है! समझाया
जाता है, क्रोध
मत करो! ' लेकिन, अगर
क्रोध नहीं
किया तो क्रोध
भीतर सरक
जायेगा। तब
उसका क्या
होगा? अगर
क्रोध को पी
गये, तो वह
खून में मिल
जायेगा, हड्डी
तक में चिपक
जायेगा; तब
उस क्रोध का
क्या होगा.,.? क्रोध को
दबा लेने से
क्रोध का अंत
नहीं होता।
दबा हुआ क्रोध
भीतर प्राणों में
लिप्त हो जाता
है। निकला हुआ
क्रोध तो थोड़ी
देर का साथी
होता है, लेकिन
दबा हुआ क्रोध
जीवन भर के
लिए साथी हो जाता
है। क्रोध को
दबाया कि पूरा
व्यक्तित्व क्रोध
से भर जाता
है। लेकिन, बच्चों को
सिखाया जा रहा
है- 'क्रोध
मत करना! 'ऐसी
ही सारी बातें
सिखायी जाती हैं,
लेकिन कोई
भी क्रोध से
मुक्त नहीं हो
पाता।
एक
पूर्णिमा की
रात में एक
छोटे-से गांव
में,
एक बड़ी
अदभुत घटना घट
गई। कुछ जवान
लड़कों ने शराबखाने
में जाकर शराब
पी ली और जब वे
शराब के नशे
में मदमस्त हो
गये और
शराब-घर से
बाहर निकले तो
चांद की बरसती
चांदनी में उन्हें
यह खयाल आया
कि नदी पर
जायें और
नौका-विहार
करें।
रात
बड़ी सुन्दर और
नशे से भरी
हुई थी। वे
गीत गाते हुए
नदी के किनारे
पहुंच गये।
नाव वहां बंधी
थी। मछुए नाव
बांधकर घर जा
चुके थे। रात
आधी हो गयी
थी।
वे एक
नाव में सवार
हो गये।
उन्होंने
पतवार उठा ली
और नाव खेना
शुरू किया।
फिर वे रात
देर तक नाव
खेते रहे।
सुबह की ठण्ड़ी
हवाओं ने
उन्हें सचेत
किया। जब उनका
नशा कुछ कम
हुआ तो उनमें
से किसी ने
पूछा, ‘‘कहां आ
गये होंगे अब
तक हम। आधी
रात तक हमने
यात्रा की, न-मालूम
कितनी दूर तक
निकल आये
होंगे। नीचे
उतर कर कोई
देख ले कि किस
दिशा में हम
चल रहे हैं, कहां पहुंच
रहे हैं?''
जो
नीचे उतरा था, वह
नीचे उतर कर
हंसने लगा।
उसने कहा, ‘‘दोस्तो! तुम भी उतर
आओ। हम कहीं
भी नहीं
पहुंचे हैं। हम
वहीं खड़े हैं,
जहां रात
नाव खडी
थी। ''
वे
बहुत हैरान
हुए। रात भर
उन्होंने
पतवार चलायी
थी और पहुंचे
कहीं भी नहीं
थे! नीचे उतर
कर उन्होंने
देखा तो पता
चला,
नाव की
जंजीरें
किनारे से
बंधी रह गयी
थीं, उन्हें
वे खोलना भूल
गये थे!
जीवन
भी,
पूरे जीवन
नाव खेने पर, पूरे जीवन
पतवार खेने पर
कहीं पहुंचता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता।
मरते समय आदमी
वहीं पाता है
स्वयं को, जहां
वह जन्मा था!
ठीक उसी
किनारे पर, जहां आंख खोली थी-
आंख बंद करते
समय आदमी पाता
है कि वहीं
खड़ा है। और तब
बड़ी हैरानी
होती है कि
इतनी जो दौड़-
धूप की, उसका
०क़ हुआ? वह
जो प्रण किया
था कहीं
पहुंचने का, वह जो
यात्रा की थी
कहीं पहुंचने
के लिए, वह
सब निष्फल गयी!
मृत्यु के
क्षण में आदमी
वहीं पाता है
अपने को, जहां
वह जन्म के
क्षण में था!
तब सारा जीवन
एक सपना मालुम
पड़ने लगता
है। नाव कहीं
बंधी रह गयी
किसी किनारे
से।
हां, कुछ
लोग-कुछ
सौभाग्यशाली
लोग, मरते
क्षण वहां
पहुंच जाते
हैं, जहां
जीवन का आकाश
है, जहां जीवन
का प्रवास है,
जहां सत्य
है, जहां
परमात्मा का
मंदिर है।
लेकिन, वहां
वे ही लोग
पहुंचते हैं,
जो किनारे
से, खूंटे से जंजीर
खोलने की याद
रखते हैं।
इन चार
दिनों में कुछ
जंजीरों की
मैंने बात की
है। पहले दिन
मैंने कहा, शास्त्रों
और
सिद्धांतों
की जंजीरें
बड़ी गहरी हैं।
और जो
शास्त्रों और
सिद्धान्तों
से बंधा रह
जाता है, वह
कभी जीवन के
सागर में
यात्रा नहीं
कर पाता है।
जीवन
का सागर
है-अज्ञात; और,
सिद्धांत
और शाख सब
हैं-शांत।
ज्ञात
से अज्ञात की
तरफ जाने का
कोई भी मार्ग
नहीं है, सिवाय
ज्ञात को
छोड़ने के। जो
भी हम जानते
हैं, वह
शात है और जो
जीवन है, वह
अनजान है, अननोन
है; वह
परिचित नहीं
है। तो जो हम
जानते हैं, उसके द्वारा
उसको नहीं
पहचाना जा
सकता है, जो
हम नहीं जानते
हैं। जो शात
है, जो नोन
है, उससे
अज्ञात को, अननोन को
जानने का कोई
द्वार नहीं है;
सिवाय इसके
कि शात को छोड़
दिया जाये। और
ज्ञात को
छोड़ते ही
अज्ञात के
द्वार खुल
जाते है?
पहले
दिन,
पहले सूत्र
में मैंने यही
कहा : छोड़े
शास्त्र को, छोडे शब्द को, क्योंकि
सब शब्द उधार
हैं; बारोड हैं; बासे
हैं; मरे
हुए हैं। और
सब शाख पराये
हैं। कोई
कृष्ण का है, कोई राम का, कोई बुद्ध
का, कोई
जीसस का, और
कोई मुहम्मद
का! जो
उन्होंने कहा
है, वह
उनके लिए सत्य
रहा होगा।
निश्चित ही, जो उन्होंने
कहा है, उसे
उन्होंने
जाना होगा।
लेकिन, उनका
जान किसी और
दूसरे का शान
नहीं बनता है,
और नहीं बन
सकता है।
कृष्ण जो
जानते हैं, जानते हो।
हमारे पास कृष्ण
का शब्द ही
आता है, कृष्ण
का सत्य नहीं।
मैंने
सुना है, एक
कवि समुद्र की
यात्रा पर गया
है। जब वह सुबह
समुद्र तट पर
पहुंचा, तो
बहुत सुंदर
सुबह थी; बहुत
सुंदर प्रभात
था। पक्षी गीत
गाते थे वृक्षों
पर। सूरज की
किरणें नाचती
थीं लहरों पर।
लहरें उछलती
थीं सागर की
छाती पर।
हवाएं ठंडी
थीं और फूलों
से सुवास आती
थी। वह नाचने
लगा उस सुन्दर
प्रभात में और
फिर उसे याद
आया कि उसकी
प्रेयसी तो एक
अस्पताल में
बीमार पड़ी है।
काश, वह भी
आज यहां होती।
वह तो बिस्तर
से बंधी है। उसके
तो उठने की
कोई संभावना
नहीं है।
तो उस
कवि को खयाल
आया कि 'क्यों
न मैं ऐसा
करूं कि
समुद्र की इन
ताजी हवाओं को,
सूरज की इन
नाचती हुई
किरणों को, लहरों के इस
संगीत को, फूलों
की इस सुवास
को अपनी
प्रेयसी के
लिए एक पेटी
में बंद करके
ले जाऊं। और
जाकर उसे कहूं
कि देख, कितनी
सुंदर सुबह का
एक टुकड़ा मैं
तेरे लिए लाया
हूं। '
वह
गांव गया और
एक पेटी खरीद
लाया। बहुत
सुन्दर पेटी
थी। उस पेटी
को खोलकर उसने
उसमें समुद्र
की ठंडी हवाएं
भर लीं, सूरज
की नाचती
किरणें भर लीं,
फूलों की
सुगंध भर ली।
उस पेटी में
सुबह का एक
टुकड़ा बंद
करके, उसे
ताला लगा दिया
कि कहीं से वह
सुबह बाहर न
निकल जाये। और
उस पेटी को
अपने एक पत्र के
साथ उसने अपनी
प्रेयसी के
पास भेज दिया
कि सुबह का एक
सुंदर टुकड़ा,
सागर के
किनारे का एक
जिंदा टुकड़ा
तेरे पास भेजता
हूं। नाच
उठेगी तू, आनंद
से भर जायेगी।
ऐसी सुबह
मैंने कभी
नहीं देखी।
उस
प्रेयसी के
पास पत्र भी पहुंच
गया और पेटी
भी पहुंच गयी।
पेटी उसने खोली, लेकिन
पेटी के भीतर
तो कुछ भी
नहीं था। न
सूरज की
किरणें थी, न सागर की
ठंडी हवाएं
थीं; न कोई
फूलों की
सुवास थी। वह
पेटी ते। बिलकुल
खाली थी। उसके
भीतर तो कुछ
भी नहीं था।
पेटी पहुंचायी
जा सकती है, लेकिन जिस
सौंदर्य को
सागर किनारे
जाना है, उसे
नहीं
पहुंचाया जा
सकता।
जो लोग
सत्य के जीवन
में सागर के
तट पर पहुंच जाते
हैं,
वे वहां
क्या जानते
हैं-कहना
मुश्किल है; क्योंकि
सूरज का
प्रकाश, जिस
प्रकाश को वे
जानते हैं, उसके सामने
अंधकार है।
जिस सुवास को
वे जानते हैं,
किसी फूल
में वह सुवास
नहीं है। वे
जिस आनंद को
जानते हैं, हमारे सुखों
में उस आनंद
की एक किरण
नहीं है। वे
जिस जीवन को
जानते हैं, उस जीवन का
हमें कुछ भी
पता नहीं हैं।
बस पेटियों
में भर कर वे
जो हैं-गीता
में, कुरान
में, बाइबिल
में-वह हमारे
पास आ जाता
है। शब्द आ जाते
हैं; लेकिन
जो उन्होंने
था, वह
पीछे छूट जाता
है। वह हमारे
पास नहीं आता।
फिर हम उन
पेटियों को
सिर पर ढोये
हुए घूमते रहते।
कोई गीता को
लेकर घूमता है,
कोई कुरान
को, कोई
बाइबिल को। और
चिल्लाता
रहता है कि
सत्य मेरे पास
सत्य मेरी
किताब में है।
सत्य
किसी भी किताब
में न है, न हो
सकता है। सत्य
किसी शब्द में
न है, न हो
सकता है। सत्य
तो वहां है, 'सब शब्द
क्षीण हो जाते
हैं, और
गिर जाते हैं।
जहां चित्त
मौन हो जाता
है, निर्विचार
हो जाता है, वहां है
सत्य।
न जहां
कोई शाख जाता
है,
न कोई
सिद्धांत।
इसलिए जो
सिद्धांत और शाखों
की खूंटियों
से बंधे हैं, वे कभी के
सागर के तट पर
नहीं जा
सकेंगे। यह मैंने
पहले सूत्र
में कहा।
दूसरे
सूत्र में
मैंने कहा कि
जो लोग भीड़ से
बंधे हैं और
भीड़ की आंखों
में देखते
रहते हैं- 'कि
लोग क्या हैं?'
वे लोग
असत्य हो जाते
हैं, क्योंकि
भीड़ असत्य
है। भीड़ से ज्यादा
असत्य इस
पृथ्वी पर और
कुछ नहीं है।
सत्य
जब भी अवतरित
होता है, तब
व्यक्ति के
प्राण पर
अवतरित होता
है। सत्य भीड़
के ऊपर अवतरित
नहीं होता।
सत्य
को पकड़ने के
लिए व्यक्ति
का प्राण ही
वीणा बनता है।
सत्य वहीं से
झंकृत होता
है। भीड़ के
पास कोई 'नहीं
है। भीड़ के
पास उधार
बातें हैं जो
कि असत्य हो
गयी हैं। भीड़
के पास
किताबें हैं
जो कि मर चुकी
हैं। के पास
महात्माओं, तीर्थंकरों और अवतारों
के नाम हैं-जो
सिर्फ नाम
हैं। उनके
पीछे कुछ भी
नहीं बचा, राख
हो गया है।
भीड़ के
पास परंपराएं
हैं;
भीड़ के पास
याददाश्तें
हैं; भीड़
के पास
हजार-हजार साल
की आदतें हैं;
लेकिन भीड़
पास वह चित्त
नहीं, जो
मुक्त होकर
सत्य को जान
लेता है। जब
भी कोई उस
चित्त को
उपलब्ध करता
है तो , व्यक्ति की
तरह, उस
चित्त को
उपलब्ध करना
पड़ता है।
इसलिए, जहां-जहां
भीड़ है, जहां-जहां
भीड़ का आग्रह
है-हिन्दुओं
की भीड़, मुसलमानों
की भीड़, ईसाइयों
भीड़, जैनियों
की भीड़, बौद्धों
की भीड़-वहां
सब असत्य है।
हिन्दू भी, मुसलमान भी;
ईसाई भी, जैन- और कोई
भी नाम हो- भीड़
का कोई भी
संबंध सत्य से
नहीं है।
लेकिन, हम
भीड़ को देखकर
ही जीते हैं।
हम देखते हैं- 'भीड़ क्या कह
रही है, भीड़
क्या मान रही
है?'
जो
आदमी भीड़ को
देखकर जीता है, वह
अपने बाहर ही
भटकता रह जाता
है; क्योंकि
भीड़ बाहर है।
जिस 'को
भीतर जाना
होता है, उसे
भीड़ से आंखें
हटा लेनी पड़ती
हैं। और अपनी
तरफ, जहां
वह अकेला है
तरफ, आंखें ले जानी
पड़ती हैं।
लेकिन हम सब? हम सब भीड़ से
बंधे हैं; भीड़
की खूंटी से
बंधे हैं।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट था। उस
सम्राट के
दरबार में एक
आदमी आया और
उस आदमी ने
आकर कहा कि ‘‘महाराज, आपने
सारी पृथ्वी
जीत ली, लेकिन
एक चीज की कमी
है आपके पास।''
उस
सम्राट ने कहा, ‘‘कमी?
कौन सी है
कमी? जल्दी
बताओ; क्योंकि
मैं तो बेचैन
हुआ जाता हूं।
मैं तो सोचता
था, सब
मैंने जीत
लिया। ''
उस
आदमी ने कहा, ''आपके
पास देवताओं
के वस्त्र
नहीं हैं। मैं
देवताओं के
वस्त्र आपके
लिए ला सकता
हूं।
सम्राट
ने कहा, ‘‘देवताओं
के वस्त्र तो
न कभी देखे, न सुने! कैसे
लाओगे?''
उस
आदमी ने कहा, ‘‘लाना
ऐसे तो बहुत
मुश्किल है, क्योंकि
देवता आजकल
पहले की तरह
सरल नहीं रहे।
जब से
हिंदुस्तान
के सब
राजनीतिज्ञ
मरकर स्वर्गीय
होने लगे हैं,
तब से वहां
बड़ी बेईमानी
और करप्शन
सब तरह की
शुरू हो गयी
है।
हिंदुस्तान
के राजनीतिज्ञ
सब मर कर
स्वर्गीय हो
जाते हैं!
नर्क तो उनमें
कोई जाता ही
नहीं। हालांकि
कोई भी
राजनीतिज्ञ
स्वर्ग में
नहीं जा सकता;
क्योंकि
राजनीतिज्ञ
जिस दिन
स्वर्ग में
जाने लगेंगे,
उस दिन स्वर्ग
भले आदमियों
के रहने योग्य
जगह न रह
जायेगी।
लेकिन वैसे तो
सभी स्वर्ग में
हैं।
.. तो
उसने कहा, ‘‘जब
से वे सब
पहुंचने लगे
हैं वहां, बड़ी
मुश्किल हो
गयी है। बहुत
रिश्वत चल पड़ी
है वहां। लाने
भी हों अगर
दो-चार वस्त्र
तो करोड़ों
रुपये खर्च हो
जायेंगे। ''
सम्राट
ने कहा, ‘‘करोड़ों
रुपये!''
उस
आदमी ने कहा, ‘‘दिल्ली
में सिर्फ
जाना हो, तो
लाखों खर्च हो
जाते हैं। वह
तो स्वर्ग है,
वहां
करोड़ों रुपये
खर्च होना
स्वाभाविक
है। चपरासी भी
वहां करोड़ों
से नीचे की
बात नहीं करते।
''
राजा
ने कहा, '' धोखा
देने की कोशिश
तो नहीं कर
रहे हो?''
उस
आदमी ने कहा, ‘‘सम्राट
को धोखा देना
मुश्किल है, क्योंकि
उनसे बड़े
धोखेबाज जमीन
पर दूसरे नहीं
हो सकते; उनको
क्या धोखा
दिया जा सकता
है? डाकुओं
को क्या लूटा
जा सकता है? हत्यारों की
क्या हत्या का
जा सकती है? मैं मामूली
आदमी, आपको
क्या धोखा
दूंगा? चाहें
तो आप पहरा
बैठा लें, मुझे
भीतर बंद कर
लें। मैं महल
के भीतर ही
रहूंगा, क्योंकि
देवताओं के
यहां जाने का
रास्ता आंतरिक
है। इसलिए
बाहर की कोई
यात्रा नहीं
करनी है।
लेकिन करोड़ों
रुपये खर्च
होंगे और छह
महीने लग
जायेंगे। ''
राजा
ने कहा ‘‘छ:
महीने! मैं तो
सोचता था, तू
दिन भर में ले
आयेगा। '' उसने
कहा कि ‘‘दिन
दो-दिन '।
तो दिल्ली में
फाइल नहीं
सरकती, तो
स्वर्ग में
क्या इतना
आसान है मामला?
कोशिश मैं
अपनी करूंगा
कि जन्य;।
ले आऊं।
राजा
ने कहा, ‘‘ठीक
है। ''
दरबारियों
ने कहा, ‘‘यह
आदमी धोखेबाज
मालूम पड़ता
है। देवताओं
के वस्त्र कभी
सुने हैं आपने?''
''राजा
ने कहा,‘‘लेकिन धोखा
देकर यह
जायेगा कहां?''
नंगी
तलवारों का
पहरा लगा दिया
है और उस आदमी को
महल में बंद
कर दिया है।
वह रोज कभी
करोड़ कभी दो
करोड़ रुपये
मांगने लगा।
छह महीने में
उसने अरबों
रुपये मता
लिए। राजा ने
भी सोचा, ‘‘कोई
फिक्र नहीं
है। जायेगा
कहां?''
ठीक छह
महीने पूरे
हुए। वह आदमी
एक पेटी लेकर महल
के बाहर आ
गया। उसने
सैनिकों से
कहा,
‘‘मैं कपड़े
ले आया हूं
चलें सम्राट
के पास।''
तब तो
शक की कोई बात
न रही। सारी
राजधानी महल के
द्वार पर
इकट्ठी हो
गयी। दूर-दूर
से लोग देखने
गये थे।
दूर-दूर से
राजे-महाराजे
बुलाये गये थे, सेनापति
बुलाये गये थे,
बड़े लोग बुलाये
गये थे, धनपति 'गये
थे। दरबार ऐसा
सजा था, जैसा
कभी न सजा
होगा। वह आदमी
पेटी लेकर जब
उपस्थित हुआ,
तब की
हिम्मत में
हिम्मत आयी।
अभी तक तो वह
डरा ही हुआ था
कि अगर बेईमान
न हुआ और पागल
हुआ, भी हम
क्या कर
सकेंगे! उसने
आकर कह दिया
कि नहीं मिले,
तो भी हम क्या
कर लेंगे? लेकिन
वह पेटी लेकर
गया तो सम्राट
को विश्वास
हुआ।
उस
आदमी ने आकर
पेटी रखी और
कहा कि, ‘‘महाराज,
वस्त्र ले
आया हूं। यहां
आ जायें आप, पहने हुए
वस्त्र छोड़
दें, और
मैं आपको
देवताओं के
वस्त्र देता
हूं उन्हें
पहन लें।''
पगड़ी
लेकर राजा की
उसने अपनी
पेटी के भीतर
डाल दी और पेटी
के भीतर अपना
हाथ डालकर
बाहर निकाला।
हाथ बिलकुल ही
खाली था। उसने
कहा,
‘‘यह संभालिए
देवताओं की पगड़ी।
दिखायी तो
पड़ती है आपको?
क्योंकि
देवताओं ने
चलते वक्त कहा
था कि ये कपड़े
उन्हीं को
दिखायी
पड़ेंगे, जो
अपने बाप से
पैदा हों।
''पगड़ी तो
थी नहीं, दिखायी
कहां से पड़ती? लेकिन
एकदम से
दिखायी पड़ने
लगी!
सम्राट
ने कहा, 'क्यों
नहीं दिखायी
पड़ती, दिखायी
पड़ती है! ''मन में सोचा
सम्राट ने, ‘‘लेकिन मेरा
बाप धोखा दे
गया है। पगड़ी
दिखायी तो
नहीं पड़ती
है! लेकिन,
यह भीतर की
बात अब भीतर
ही रखनी है।''
दरबारियों
ने भी देखा, गर्दनें
बहुत ऊपर उठायीं,
आंखें तो उनकी
भी साथ थीं, लेकिन पगड़ी
दिखायी नहीं
देती थी।
लेकिन सबको
दिखायी पड़ने
लगी! कोई यह न
समझ ले कि उसे
पगडी दिखायी
नहीं पड़ती है,
इसलिए सब
दरबारी
एक-दूसरे के
आगे आ-आकर
कहने लगे, जोर-जोर
से कहने लगे।
कहीं धीरे से
कहा और किसी
को शक हो गया
कि यह आदमी
धीरे बोल रहा
है, कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि इसको पगड़ी
दिखायी नहीं
पड़ती है।
इसलिए सब
दरबारी आगे
बढ़कर कहने लगे,
‘‘महाराज, ऐसी पगड़ी
तो कभी देखी
नहीं थी! ''
सम्राट
ने सोचा कि सब
दरबारियों को
दिखायी पड़ती
है,
लेकिन मुझे
क्यों नहीं
दिखायी पड़ती?
‘‘क्या मैं
अपने....? फिर
हरेक ने यही
सोचा कि सबको
दिखायी पड़ती
है, लेकिन
मुझे क्यों..
क्या मैं अपने
बाप..?''
सम्राट
ने पगडी पहन
ली,
कोट पहन
लिया, जो
नहीं था। कमीज
पहन ली, जो
नहीं थी। फिर
धोती भी निकल
गयी। फिर
आखिरी वस्त्र
निकलने की
नौबत आ गयी।
तब राजा
घबड़ाया कि कहीं
कुछ धोखा तो
नहीं है? सम्राट
डरने लगा।
तब उस
आदमी ने कहा, ‘‘डरिये
मत महाराज, नहीं तो
लोगों को शक
हो जायेगा।
जल्दी से आखिरी
वस्त्र निकाल दीजिये...! ''
भीड़ की
यात्रा बड़ी
खतरनाक है।
पहले कदम पर
कोई रुक जाये
तो रुक जाये, बाद
में रुकना
बहुत मुश्किल हो
जाता है।
…… अब
सम्राट ने भी
सोचा ‘‘इतनी
दूर चले ही
आये, आधे
नंगे हो ही
गये, अब जो
होगा, होगा।
'' सम्राट
ने हिम्मत
करके आखिरी
कपड़ा भी निकाल
दिया। लेकिन
सारा दरबार कह
रहा था, ‘‘महाराज
धन्य हैं, अद्भुत
वस्त्र हैं, दिव्य वस्त्र
हैं। इसलिए
सम्राट को
हिम्मत भी थी
कि कोई फिक्र
नहीं, नंगापन
तो सिर्फ मुझे
ही पता चल रहा
है। तो अपना
नंगापन अपने
को पता रहता
ही है। उसमें
तो कोई हर्जा
भी नहीं है
ज्यादा।
लेकिन उस
बेईमान आदमी
ने, जो यह
वस्त्र लाया
था देवताओं
के..।
और
देवताओं से वस्त्र
लाने वाले... और
देवताओं की
खबर लाने
वाले. देवताओं
तक पहुंचाने
वाले लोग-सब
बेईमान होते
हैं।.. सब। इधर
आदमी तक
पहुंचना मुश्किल
है,
देवताओं तक
पहुंचना आसान
है। आदमी को
समझना मुश्किल
है, और
स्वर्ग के नक्शे
बनाये हुए
बैठे हैं! बडौदा
की ज्योगरफी
का जिनको पता
नहीं, वे
स्वर्ग और
नर्क के लिए
बनाये बैठें
हैं!
.. उस
आदमी ने कहा, ‘‘महाराज, देवताओं
ने चलते वक्त
कहा था, पहली
दफे पृथ्वी पर
जा रहे हैं ये
वस्त्र, इनकी
शोभा-यात्रा
नगर में
निकलनी बहुत
जरूरी है। रथ
तैयार है। अब
आप आकर रथ पर
सवार हो जाइए।
लाखों-लाखों
जन भीड़ लगाये
हुए हैं। उनकी
आंखें तरस रही
हैं इन
वस्त्रों को
देखने के लिए।''
राजा
ने कहा, ‘‘क्या
कहा?' अब तक
तो महल के
भीतर थे, जहां
अपने ही लोग
थे। अब, महल
के बाहर, सड्कों
पर भी जाना
होगा?''
लेकिन, उस
आदमी ने धीरे
से कहा, ‘‘घबडाइए
मत, जिस
तरकीब से यहां
सबको वस्त्र
दिखायी पड़ रहे
है, उसी
तरकीब से वहां
भी सबको
दिखायी
पड़ेंगे। आपके
रथ के आगे यह
डुगडुगी पीटी
जायेगी सारे
नगर में कि यह
वस्त्र उसी को
दिखायी पडेंगे,
जो अपने बाप
से पैदा हुआ
है। आप घबडाइए
मत। अब जो हो
गया, हो
गया। अब चलिये।''
राजा
समझ तो गया कि
वह नंगा है और
किसी को
वस्त्र
दिखायी नहीं
पड़ रहे हैं, लेकिन
अब कोई भी
अर्थ न था।
जाकर बैठ गया
वह सिंहासन पर,
रथ पर।
स्वर्ण-सिंहासन
रथ पर लगा था।
नंगा राजा, बैठा न।
स्वर्ण-सिंहासन
पर....।
स्वर्ण-सिंहासनों
पर नंगे लोग
ही बैठते हैं।
…. शोभा-यात्रा
निकली। लाखों
लोगों की भीड़
थी। और नगर के
लाखों लोगों
को एकदम से
वस्त्र
दिखायी पड़ने
लगे थे…..!
वही
लोग जो महल के
भीतर थे, वही
महल के बाहर
भी हैं। वही
आदमी, वही
भीड़ वाला
आदमी।
.. सब
वस्त्रों की
प्रशंसा करने
लगे। कौन झंझट
में पड़े। जब
सारी भीड़ को
दिखायी पड़ता
हो तो एक व्यक्ति
अपने को कैसे
इंकार करे; कैसे कहे कि
मुझे दिखायी
नहीं पड़ता।
इतना बल
जुटाने के लिए
बड़ी आत्मा
चाहिए। इतना
बल जुटाने के
लिए बड़ा
धार्मिक
व्यक्ति चाहिए।
इतना बल जुटाने
के लिए
परमात्मा की
आवाज चाहिए।
कौन इतना बल जुटाये? इतनी बड़ी
भीड़! फिर मन में
यह प्रश्र आता
है कि जब इतने
लोग कहते हैं,
तो ठीक ही
कहते होंगे।
इतने लोग गलत
क्यों कहेंगे?
लेकिन, कोई
भी यह नहीं
सोचता कि ये
इतने लोग भी
इकट्ठे नहीं
हैं, ये भी
एक-एक आदमी
हैं, अपने
लिए- 'मेरे-ही-जैसा
'। जैसा
मैं कमजोर हूं
वैसा ही यह भी
कमजोर है। यह
भी भीड़ से डर
रहा है, मैं
भी भीड़ से
डरता हूं..।
जिससे
हम डर रहे हैं, वह
कहीं है ही
नहीं। एक-एक
आदमी का समूह
खड़ा हुआ है, और सब भीड़ से
डर रहे है?
…..लोग
अपने बच्चों
को घर ही छोड़
आये थे; लाये
नहीं थे भीड़
में। क्योंकि
बच्चे का क्या
भरोसा, कोई
बच्चा दे कि
राजा नंगा है.....तो?
बच्चों
का क्या
विश्वास? बच्चों
को बिगाड़ने
में वक्त लग
जाता है। स्कूल,
कॉलेज, युनिवर्सिटी
सब जुटे हुए
फिर भी
मुश्किल से
बिगाड़ पाते
हैं। एकदम
आसान नहीं
बिगाड़ देना।
….. छोटे-छोटे
बच्चों को
अपने साथ कोई
नहीं लाया था।
लेकिन कुछ
बच्चे जिद्दी
होते हैं। और
कुछ बच्चे ऐसे
हैं, जिनकी
माताओं की वजह
से पिताओं को
उनसे डरना पडता
है। उनको लाना
पड़ा। वे कंधे
पर सवार होकर गये।
एक बच्चे ने
जोर से कहा, '' अरे! राजा
नंगा है! ''
उसके
बाप ने कहा, ‘‘चुप
नादान! अभी
तुझे अनुभव
नहीं है, इसलिए
तुझे नंगा
दिखायी पड़ता है।
ये बातें गहरे
अनुभव की हैं।
अनुभवियों
को दिखायी
पड़ती हैं। जब
उम्र तेरी
बढ़ेगी, तो
तुझको भी
दिखायी पड़ने लगेंगा।
यह उम्र से
आता है जान।
उम्र के बिना
दुनिया में
कोई ज्ञान कभी
नहीं आता...। ''
उम्र
के भरोसे मत
बैठे रहना।
उम्र से
बेईमानी आती
है,
चालाकी आती
है, कनिगनेस आती है; उम्र
से ज्ञान नहीं
होता। लेकिन,
सभी चालाक
लोग यही कहते
हैं कि उम्र
से ज्ञान होता
है।
.. उस
बच्चे ने पूछा,
'आपको
दिखायी पड़ रहे
हैं वस्त्र?''
‘‘हां, मुझे दिखायी
पड़ रहे है’‘, उसके
पिता ने कहा। ‘‘बिलकुल
दिखायी पड़ रहे
हैं। हम अपने
ही बाप से हुए
हैं। ऐसा कैसे
हो सकता है कि
हमको दिखायी न
पड़े। और, तुम
अभी बच्चे हो
-नासमझ हो, भोले
अभी तुम्हें
समझ कहां है! ''
जिस
बच्चे को सत्य
दिखायी पड़ा था, उसे
भीड़ के भय का
कोई पता नहीं
था; इसीलिए
दिखायी पड़ा
था। भी बड़ा
होगा, तो
भीड़ से भयभीत
हो जायेगा। तब
उसे भी वस्त्र
दिखायी पड़ने
लग जायेंगे।
यह भीड़ डराये
है चारों तरफ
से एक-एक आदमी
को।
इसलिए
जीसस ने कहा
है:
.. एक
बाजार में वे
खड़े थे। कुछ
लोग उनसे
पूछने लगे कि
तुम्हारे
स्वर्ग के
राज्य में, तुम्हारे
परमात्मा के
दर्शन (
कौन उपलब्ध हो
सकता है? तो
जीसस ने चारों
तरफ नजर दौड़ायी,
और एक
छोटे-से बच्चे
को उठाकर ऊपर
लिया, और
कहा कि 'जो
इस बच्चे की
तरह है। '
क्या
मतलब रहा
होगा...? क्या कद
छोटा होने से
ईश्वर के
राज्य में चले
जाइयेगा..,?
कि उम्र कम
होगी तो के
राज्य में चले
जाइएगा...! या
बच्चे बन
जायेंगे, तब
ईश्वर के
राज्य में चले
जायेंगे...?
जो
बच्चों की तरह
है,
इसका मतलब
है, जो भीड़
से भयभीत नहीं
हैं। जो शुद्ध
हैं और साफ
हैं। जो दिखता
वही कहते हैं
कि दिखता है।
जो नहीं दिखता,
कहते हैं कि
नहीं दिखता।
जो झूठ को मान
लेने को राजी
नहीं। जो
बच्चों कि तरह
हो गये हैं।
बच्चे
नहीं हो गये
हैं,
बच्चों की
तरह हो गये
हैं।
बच्चों
की तरह होने
का क्या मतलब
है...?
बच्चे
अकेले हैं, बच्चे
इंडिविजुअल
हैं। बच्चों
को भीड़ से
कोई मतलब नहीं
है। अभी भीड़
की उन्हें
फिक्र नहीं
है। अभी भीड़
का उन्हें पता
भी नहीं है कि
भीड़ भी है।
भीड़
बड़ी अदभुत चीज
है। एक अनजानी
ताकत जकड़े
हुए है आदमी
को चारों तरफ
से।
इसलिए
दूसरा सूत्र
मैंने कहा, अगर
तुम्हें जीवन
के सत्य की
तरफ जाना हो, तो भीड़ की
खूंटी से
मुक्त हो
जाना। इसका यह
मतलब नहीं कि
आप भीड़ से भाग
जायें।
भागेंगे कहां,
भीड़ सब जगह
है। कहां
भागेंगे? जहां
जायेंगे, वहीं
भीड़ है। और
अभी तो थोड़ी
बहुत पहाड़ियां
बच भी गयी
हैं। जहां
भागकर जा भी
सकते हैं, लेकिन
कुछ ही दिनों
में पहाड़ियां
भी नहीं बचेंगी।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सौ वर्षों में
अगर भारत जैसे
देश बच्चों को
पैदा करने के
अपने महान
कार्य में संलग्र
रहे,
तो दुनिया
में कुहनी
हिलाने की जगह
भी नहीं रह
जाने वाली है।
तब हमें सभा
करने की जरूरत
नहीं रहेगी।
कहीं भी खड़े
हो जाइये और
सभा हो जायेगी।
कहां भागियेगा
भीड़ से….? जंगलों
में, पहाडों
में कोई खटपट
नहीं है.?? भीड़
वहां भी बहुत
सूक्ष्म रूप
में पीछा करती
है।
एक
आदमी साधु हो
जाता है, भाग
जाता है जंगल
में। जंगल में
बैठा है, उससे
पूछिये, ' आप
कौन हैं?' वत्र
कहता है, 'मैं
हिंदू हूं! '
भीड़
पीछा कर रही
है। अभी भी
तुम अपने को
हिंदू कहते
हो! अभी तुम
आदमी नहीं हुए?
आदमी
होना बहुत
मुश्किल है, हिंदू
होना बहुत
आसान है।
एक
आदमी साधु हो
जाता है, वह
कहता है, 'मैं
जैन हूं! 'अब तुमने
समाज को छोड़
दिया है, तो
अब तुम जैन
कैसे हो? यह
जैन-वैन होना
तो समाज ने
सिखाया था।
साधु
भी-हिंदू, जैन
और मुसलमान
हैं, तो
फिर असाधुओं
का क्या हिसाब
रखना। गांधी
जैसे अच्छे
आदमी भी इस
भ्रम से मुक्त
नहीं हो सके
कि मैं हिंदू
हूं।
चिल्लाये चले
जाते हैं कि
मैं हिंदू
हूं। तो
साधारण लोगों
की क्या
हैसियत है।
गांधी जैसा
अच्छा आदमी भी
हिम्मत नहीं
जुटा पाता कि
कहे कि मैं
आदमी हूं बस; और कोई
विशेषण नहीं
लगाऊंगा। अगर
अकेले गांधी
ने भी हिम्मत जुटा
ली होती, और
यह कहा होता
कि मैं सिर्फ
आदमी हूं तो
जिन्ना की जान
निकल गयी
होती। लेकिन
गांधी के हिंदू
होने ने
जिन्ना की जान
न निकलने दी।
हिंदुस्तान
का बंटवारा
हुआ गांधी के
हिंदू होने की
वजह से; अन्यथा
हिंदुस्तान
कभी नहीं
बंटता। लेकिन
खयाल में नहीं
आता हमें यह, कि इतनी
छोटी-सी बात
कितने बड़े
परिणाम ला
सकती है।
गांधी का:
हिंदू होना
संदिग्ध करता
रहा मुसलमान
के मन को।
गांधी का
आश्रम, गांधी
के हिंदू ढंग,
गांधी की
प्रार्थना, पूजा, पत्र-सब
यह वहम पैदा
करते रहे कि
वे हिंदू
महात्मा हैं।
और
हिंदू महात्मा
से,
हिंदू भीड़
से सावधान
होना जरूरी है
मुसलमान को।
दूसरी भीड़ सदा
सावधान होती
है; क्योंकि
एक भीड़ से
दूसरी भीड़ को
डर है; एक
दुकान को
दूसरी दुकान
से डर है।
जिन्ना
का मुसलमान
होना खत्म हो
जाता, पर
गांधी का
हिंदू होना ही
खत्म नहीं हो
सका। और
जिन्ना से हम
आशा नहीं करते
हैं कि उसका
खत्म हो, वह
आदमी साधारण
है; गांधी
से हम आशा कर
सकते हैं।
लेकिन गाढ़ा।
का ही खत्म
नहीं हुआ, तो
जिन्ना का
कैसे खत्म
होगा!
भीड़
पीछा करती है; भीड़
बहुत सचेत, बहुत
सूक्ष्म
रास्ते से
पीछा करती है.?.?
बर्ट्रेड़
रसेल ने कहीं
कहा है कि
मैंने बहुत
पढ़-लिखकर, बहुत
सोच समझकर
पाया कि बुद्ध
से ज्यादा
अदभुत आदमी दूसरा
नहीं हुआ
पृथ्वी पर।
लेकिन जब भी
मैं यह सोचता
हूं कि बुद्ध
सबसे महान हैं,
तभी मेरे
भीतर एक होने
लगती है और
कोई कहता है कि
नहीं, बुद्ध
क्राइस्ट से
ज्यादा महान
नहीं हो सकते!
….. भीड़
पीछा करती है।
वह भीतर बैठी
है। वह बचपन
से जो सिखा
देती है, जो
कंडीशनिंग कर
देती है, जैसा
को संस्कारित
करती है, फिर
वह जीवन भर
पीछा करता है;
मरते दम तक
पीछा करता है।
एक
सज्जन हैं।
बहुत
विचारशील
हैं। उनका नाम
नहीं लूंगा; क्योंकि
किसी का नाम
लेना इस युग
में ऐसा
खतरनाक हैं, जिसका कोई
हिसाब नहीं।
किसी का नाम
नहीं लिया जा
सकता। अंधेरे
में बात करनी
पड़ती है।
वे
बड़े विचारक
हैं। वे मुझसे
कहते थे, ‘‘मेरा
सब छूट गया; जप, तप, पूजा-पाठ-मैंने
सब छोड़ दिया
है। मैं सबसे
मुक्त हो गया
हूं। ''
मैंने
कहा,
‘‘इतना आसान
नहीं है
मामला। यह
मुक्त हो पाना
इतना आसान
नहीं है।
क्योंकि जब आप
कहते है मैं
मुक्त हो गया
हूं तभी मैं
आपकी आंख में
झांकता हूं और
मुझे लगता है
कि आप मुक्त नहीं
हुए। अगर हो
गये होते तो- 'मुक्त हो
गया हूं यह
खयाल भी छूट
गया होता। ''
उन्होंने
कहा,
‘‘नहीं, नहीं,
मैं मुक्त
हो गया हूं। '' मैंने कहा, ‘‘जितने जोर
से आप कहेंगे
मुझे, मेरा
शक उतना बढ़ता
जायेगा। वक्त
आने दीजिये,
पता चल
जायेगा। ''
फिर जब
उनको हार्टअटैक
हुआ तो मैं
उन्हें देखने
गया। आंख बंद
किये वे कुछ बेहोशसे पडे थे और -राम, राम-राम
का जाप चल रहा
था। मैंने
उनको हिलाया
और कहा, ‘‘ये
क्या कर रहे
है?''
उन्होंने
कहा,
‘‘मैं बड़ी
हैरानी में पड़
गया हूं। जिस
क्षण हार्ट अटैक हुआ, ऐसा लगा कि
मर जाऊंगा और
जिस -पाठ को
सदा के लिए
छोड़ दिया था, वह एक दम से
चलना शुरू हो
गया! अब मैं
रोकना भी
चाहता हूं तो '
रुकता है; भीतर चले ही
जा रहा है जोर
से-राम-राम, राम-राम।
मैं सोचता था
सब छूट गया
है। लेकिन, 'आप ठीक कहते
थे, 'छोड़ना
बहुत मुश्किल
है। '
बहुत
गहरे में जड़ें
रहती हैं भीड़
की। वह जो सिखा
देती है, वह
भीतर बैठा
रहता है। वह
राम-राम का
जाप गहरे से
गहरे चला गया
था।
अब
गांधी जी
कितना कहते
थे- 'अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम। ' लेकिन
जब गोली लगी, तब अल्लाह
का नाम नहीं
आया। तब 'हे
राम'! ही
याद आया, अल्लाह
का नाम याद
नहीं आया!
गोली लगी तो
याद '- 'हे
राम! '
वह
हिंदू भीतर
बैठा है। वह
राम आत्मा में
भीतर गहरे से
गहरा घुस गया
है। वह जब
गोली लगी, सब
भूल है ' अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम। ' निकला,
'हे राम!’‘हे
अल्लाह!' निकलता,
तो शायद
गांधी.. लेकिन
बड़ा मुश्किल
था नहीं हो
सका। वह असंभव
था, वह हो
नहीं सका।
गहरे
में भीड़ घुस
जाती है आदमी
के। भीड़ से
बचने का मतलब
यह नहीं है कि
जंगल चले जाना।
भीड़ से का
मतलब है- अपने
भीतर खोजना।
और जहां-जहां
भीड़ के चिन्ह
मिलें, उन्हें
अलग करते जाना
और कोशिश जारी
रखना कि
व्यक्ति का अविर्भाव
हो जाये। भीड़
से मुक्त होकर
व्यक्ति ऊपर
उठ जाये; भीड़
छूट जाये, भीतर,
अंतस में, चित्त में।
जो
आदमी अपने
चित्त की
वृत्तियों को
दबाता है, वह
जिन
वृत्तियों को
दबाता है, उन्हीं
से बंध जाता
है। जिससे
बंधना हो, उसी
से लड़ना शुरू
कर देना।
दोस्त से उतना
गहरा बंधन नहीं
होता है, जितना
दुश्मन से
होता है, दोस्त
की तो कभी-कभी
याद आती है; सच तो यह है, याद कभी आती
ही नहीं। जब
मिलता है, तभी
कहते हैं कि
बड़ी याद आती
है। लेकिन, दुश्मन की
चौबीस घंटे
याद बनी रहती
है। रात सो
जाओ, तब भी
वह साथ सोता
है। सुबह उठो,
तो उठने के
साथ उठता है।
जितनी गहरी
दुश्मनी हो, उतना गहरा
साथ हो जाता
है।
इसलिए
दोस्त कोई भी
चुन लेना, दुश्मन
थोड़ा
सोच-विचार से
चुनना चाहिए।
क्योंकि उसके
चौबीस घंटे
साथ रहना पडेगा।
दोस्त कोई भी
चल जाता है; ऐरा-गैरा-क, ख, ग-कोई
भी चल जाता है;
लेकिन, दुश्मन?
दुश्मन के
साथ हमेशा
रहना पड़ता है।
और
तीसरे सूत्र
में मैंने कहा
कि दमन भूल कर
भी मत करना।
क्योंकि दमन
अच्छी चीजों
का तो कोई
करता नहीं है, दमन
करता है बुरी
चीजों का। और
जिनका दमन
करता है, जिनसे
लड़ता है, उन्हीं
के साथ उसका
गठबंधन हो
जाता है, उन्हीं
के साथ फेरा
पड़ जाता है।
जिस चीज को हम दबाते
हैं, उसी
से जकड़ जाते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
होटल में एक
रात के लिए एक
आदमी ठहरने के
लिए आया।
लेकिन होटल के
मैनेजर नें
उसे कहा, ‘‘यहां
जगह नहीं है, आप कहीं और
चले जायें। एक
ही कमरा खाली
है और वह हम
देना नहीं
चाहते। ऊपर का
कमरा खाली है
और नीचे के
कमरे में एक
सज्जन ठहरे
हुए हैं। अगर जरा
भी खड़बड़
हो जाये, आवाज
हो जाये, या
कोई जोर से चल
दे तो झगड़ा हो
जाता है। पहले
भी ऐसा हो
चुका है। तो
जब से पिछले
मेहमान ने
कमरा खाली
किया है, हमने
तय किया है, कि अब ऊपर का
कमरा खाली ही
रखेंगे, जब
तक कि नीचे के
सजा विदा नहीं
हो जाते...। ''
कुछ
सज्जन ऐसे
होते हैं, जिनके
आने की राह
देखनी पड़ती है
और कुछ ऐसे होते
हैं, जिनके
जाने की भी रा;!
देखनी होती
है। और दूसरी
तरह के ही
सज्जन ज्यादा
होते हैं; पहली
तरह के सज्जन
तो बहुत कम ही
होते हैं, जिनके
आने की राह
देखनी पड़ती
है।
.. उस
मैनेजर ने कहा,
'' क्षमा
करिये, हम
उनके जाने की
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। जब
वे चले जायें,
तब 'राग
आइए। ''
उस
आदमी ने कहा, '' आप
हैरान न हों, घबडाएं न, मैं सिर्फ
दो-चार घंटे
रात सोऊंगा।
दिन भर बाजार
में काम
करूंगा, रात
दो बजे
लौटूंगा, और
सो जाऊंगा।
सुबह छ: बजे
उठकर मुझे
गाड़ी पकड़नी
है। नींद में
उन सज्जन से
कोई झगड़ा होगा,
इसकी आशा
नहीं है। नींद
में चलने की
मेरी आदत भी
नहीं है। कोई
गड़बड़ नहीं
होगी, मैं आराम
से सो जाऊंगा,
आप फिक्र न
करें।''
मैनेजर
मान गया। वह
आदमी दो बजे
रात लौटा, थका-मादा-दिन
भर के काम के
बाद। बिस्तर
पर बैठकर उसने
जूता खोलकर
नीचे पटका। तब
उसे खयाल आया,
'कहीं नीचे के
मेहमान की
जूते की आवाज
से नींद न खुल
जाये?' दूसरा
जूता धीरे से
निकालकर रखकर
वह सो गया। घंटे
भर बाद नीचे
के सज्जन ने
दस्तक दी; ‘‘महाशय,
दरवाजा खोलिये!
''वह बहुत
हैरान हुआ कि घंटे
भर तो मेरी
नींद भी हो
चुकी, अब
क्या गलती हो
गयी होगी?' दरवाजा
उसने खोला
डरते हुये।
उस
सज्जन ने पूछा
कि ‘‘दूसरा जूता
कहां है? मुझे
बहुत मुश्किल
में डाल दिया
है। जब पहला
जूता गिरा, मैं समझा कि
ऊपर के महाशय
आ गये हैं।
फिर दूसरा
जूता गिरा ही
नहीं! तब से
मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं कि
जूता अब गिरा,
अब गिरा।
फिर मैने अपने
मन को समझाया
कि मुझे किसी
के जूते से
क्या
लेना-देना? ओ, कुछ भी
हो, मुझे
क्या मतलब? लेकिन, जितना
मैंने हटाने
की कोशिश की, उतना ही
दूसरा जूता
मेरी छ' में
घूमने लगा।
आंख
बंद करता हूं
तो जूता दिखाई
पडता है, आंख खोलता
हूं तो जूता
दिखाई पड़ता
है!
…… बेचैनी
हो गयी है।
नींद बड़ी
मुश्किल हो
गयी है। जूता
भीतर धक्के
देने लगा है।
बहुत समझाया
मन को कि भी
कैसा पागल है!
किसी के जूते
से अपने को
क्या मतलब है;
चाहे एक
जूता पहनकर
सोया हो, चाहे
एक न पहनकर
सोया हो।
लेकिन, जितना
मैंने मन को
समझाया, दबाया,
लड़ा-उतना ही
वह जूता बड़ा
होता , और तेजी से
मन में घूमने
लगा...!''
अपनी-अपनी
खोपड़ी की तलाश
अगर आदमी करे, तो
पायेगा कि
दूसरे के जूते
वहां घूम रहे
हैं, जिनसे
कुछ -देना
नहीं है।
….उन
सज्जन ने कहा,
'' क्षमा कीजिये!
इसलिए मैं
पूछने आया हूं
ताकि पता चल
जाये तो मैं
सो जाऊं शांति
और झगड़ा बंद
हो जाये। ''
जो उस
आदमी के साथ
हुआ,
वही सबके
साथ होता है।
सप्रेसिव
माइंड, दमन
करने वाला
चित्त हमेशा
व्यर्थ की
बातों में उलझ
जाता है।
सेक्स
को दबाओ-और
चौबीस घंटे
सेक्स का जूता
सिर पर घूमने
लगेगा। क्रोध
को दबाओं-और
चौबीस क्रोध
प्राणों में
घुसकर चक्कर
काटने लगेगा।
और एक तरफ से
दबाओ, तो
दूसरी तरफ से निकलने
की चेष्टा हो
जायेगी, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति में
ऊर्जा है, एनर्जी
है। आप दबाओगे
एनर्जी को तो
वह कहीं से
निकलेगी? झरने
को आप इधर से
रोक दो, तो
वह दूसरी तरफ
से फूट कर
बहने लगेगा।
उधर से दबाओ, तो तीसरी
तरफ बहने
लगेगा।
एक
आदमी एक दफ्तर
में नौकरी
करता था। एक
दिन उसके
मालिक ने उसे
कुछ बेहूदी
बातें कह
दीं...।
और
मालिक तो
बेहूदी बातें
कहते हैं; नहीं
तो मालिक होने
का मजा ही खतम
हो जाये। मजा
क्या है मालिक
में...? किसी
से बेहूदी
बातें कह सकते
हो, यही
मजा है। और
नौकर यह भी
नहीं कह सकता
कि आप बेहूदी
बात कर रहे
हैं। और फिर
मालिक बेहूदी
बातें कहे या
न कहे, नौकर
को मालिक की
सब बातें
बेहूदी मालूम
पड़ती। नौकर
होना भी
बेहूदगी है; क्योंकि
मालिक जो भी
कहे,नौकर
को बेहूदगी ही
मालूम पड़ती
है। मालिक जब
से बोलता है, क्रोध की
बातें कहता है,
तो भी नौकर
को खड़े होकर
मुस्कुराना
पड़ता है। भीतर
आग लगी होती
कि गर्दन दबा
दें...।
ऐसा
कौन नौकर होगा, जिसको
मालिक की
गर्दन दबाने
का खयाल न आता
हो? आता है,
जरूर आता
है। भी चाहिए,
नहीं तो दुनिया
बदलेगी भी
नहीं!
.. मगर
ऊपर से ओठों
पर मुस्कुराहट
फैला लेगा, धन्यवाद
देने लगेगा, कहेगा- ‘‘बड़ी
अच्छी बातें
कर रहे। बड़े
वेद वचन बोल
रहे हैं। बड़ी
वाणी आपकी
मधुर है।
उपनिषद के ऋषि
भी क्या बोलते
होंगे, ऐसी
बातें! 'भाग मेरे
कि आपके
अमृत-वचन मेरे
ऊपर गिरे!
''
भीतर
क्रोध की आग
जल रही है।
दबा लेना अपने
क्रोध को।
लेकिन क्रोध
को दबाकर
कितनी देर चल
सकते हैं। साइकिल
चलायेगा तो
पैडल जोर से
मारने लगेगा। कार
ड्राइव करेगा
तो'
एकदम से
स्पीड छोड़
देगा। वह जो
क्रोध दबाया
है, वह सब
तरफ से निकलने
की कोशिश
करेगा।
अमेरिका
के
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर आदमी को
क्रोध की कोई
समझ पैदा हो
सके,
तो अमेरिका एक्सिडेंट
पचास प्रतिशत
कम हो
जायेंगे। वह
जो एक्सिडेंट
हो रहे हैं, वे सड़क की
वजह से कम हो
रहे हैं, दिमाग
की वजह से
ज्यादा हो रहे
हैं।
आपको
पता है, जब आप
क्रोध में
साइकिल चलाते
हैं, तो
किस तरह से
चलाते हैं? एकदम से
जैसे आपको पर
लग जाते हैं!
फिर कोई नहीं
दिखता सामने।
ऐसा मालूम
होता
है-रास्ता
खाली है, एकदम।
और सामने कोई
आ जाये तो ऐसा
मन होता है कि
टकरा दूं जोर
से; क्योंकि
भीतर टकराहट
चल रही होती
है।
क्रोध
से भरा हुआ
आदमी तेजी से
साइकिल चलाता
हुआ घर
पहुंचेगा। रास्ते
में दो-चार
बार बचेगा
टकराने से।
क्रोध और भारी
हो जायेगा। और
जाकर घर वह
प्रतीक्षा
करेगा कि कोई
मौका मिल जाये
और पत्नी की
गर्दन दबा
दे...।
पत्नी
बडी सरल चीज
है। वह है ही
इसलिए कि आप
घर आइए और उसकी
गर्दन दबाइए।
उसका मतलब
क्या है और? उसका
उपभोग क्या है
और? उसका
असली उपयोग
यही है कि
जिंदगी भर जो
व्यथा आपके
ऊपर गुजरे, वह जाकर
पत्नी पर
रिलीज कीजिये।
.. घर
पहुंचते ही सब
गड़बड़ दिखायी
पड़ने लगेगी।
पली, जिसको
कल रात ही
आपने कहा था
कि तू बढ़ी
सुंदर है, एकदम
से मालूम
पड़ेगी कि यह सूर्पणखा
कहां से आ रही
है? सब
प्रेम खतम हो
जायेगा।
फिल्म की अभिनेत्रियां
याद आयेंगी
कि सौंदर्य
इसको कहते हैं,
और यह औरत...?
.. रोटी
जली हुई मालूम
पड़ेगी। सब्जी
में नमक नहीं
मालूम पड़ेगा।
सब
अस्त-व्यस्त
मालूम पड़ेगा। घर
अस्त-व्यस्त
घूमता हुआ
मालूम पडेगा।
पिल पड़ेंगे उस
पर। कल भी
रोटी ऐसी ही
थी; क्योंकि
कल भी पली वही
थी। कल भी
पत्नी वही थी,
जो आज है; लेकिन आज सब
बदला हुआ
मालूम पड़ेगा।
वह जो भीतर दबाया
दे, वह
निकलने के लिए
मार्ग खोज रहा
है।
और, ध्यान
रहे! जैसे
पानी ऊपर की
तरफ नहीं चढ़ता,
ऐसे क्रोध
भी ऊपर की तरफ
नहीं चढ़ता।
पानी भी नीचे
की तरफ उतरता
है, क्रोध
भी नीचे की
तरफ उतरता है।
कमजोर की तरफ उतरता
है, ताकतवर
की तरफ नहीं
उतरता। मालिक
की तरफ नहीं चढ़
सकता है
क्रोध। चढ़ाना
हो तो बड़ा पंप
लगाना जरूरी
है। कम्युनिज्म
वगैरह के पम्प
लगाओ, तब
चढ़ सकता है
मालिक की तरफ;
नहीं तो
नहीं।
पत्नियों
की तरफ एकदम
उतर जाता है
और पत्नी कुछ
भी नहीं कर
सकती, क्योंकि
पति परमात्मा
है। ये पति यह
भी समझा रहे
हैं पत्नियों
को कि हम
परमात्मा है।
बड़े
मजे की बातें
दुनिया में चल
रही हैं! कोई स्त्री
यह नहीं कह
रही है कि
महाशय, आप और
परमात्मा! आप
ही परमात्मा
हैं तो
परमात्मा पर
भी शक पैदा हो
रहा है। और आप
भी परमात्मा
हैं! आपकी
इज्जत नहीं बढ़ती
है परमात्मा
होने से, परमात्मा
की इज्जत घटती
है आपके होने
से। कृपा करके,
परमात्मा
को बाइज्जत
जीने दो, ला।'र परमात्मा
मत बनो; लेकिन
कोई स्त्री
नहीं कहेगी!
स्त्री
के पास व्यर्थ
की बकवास करने
के लिए बहुत
ताकत है, लेकिन
बुद्धिमत्ता
की एक बात स्त्री
को नहीं करनी स्त्री,
पति-परमात्मा
पर क्रोध नहीं
करेगी। उसको
भी राह देखनी
पड़ेगी। आग जो
लगी है उसके
भीतर, वह
देखेगी। उसे
बच्चे का
रास्ता देखना
पड़ेगा। कि आओ
बेटा, आज
तुम्हारा सुधार
किया जाये।
बेटे बेचारे
को कुछ पता भी
नहीं है। वह
अपना नाचता
हुआ, अपना
बस्ता लिए हुए
स्कूल से चला
आ रहा हैं।
उसको पता ही
नहीं है कि
क्या होने जा
रहा है। उधर
मां तैयार बैठी
है।
प्रतीक्षा कर
रही है, सुधार
करने की...।
जितने
लोग सुधार
करने की
प्रतीक्षा
करते हैं- ध्यान
रखना, उनके
भीतर कोई
क्रोध है, जिसकी
वजह से उनके
भीतर सुधार की
आयोजना चलती
है। जिनके
अपने बेटे
नहीं होते हैं,
वे अनाथालय
खोल लेते हैं;
जिनका घर
नहीं होता है,
वे आश्रम
बना लेते हैं;
लेकिन
सुधार करते
हैं! जिनको
कोई नहीं
मिलता, वे
कोई भी तरकीब निकाल
कर समाज-सुधार
करने में लग
जाते हैं।
भीतर
क्रोध है, भीतर
आग है; किसी
को तोड़ने, मरोड़ने, बदलने की
इच्छा है।
……यह
बच्चा आते ही
थक जायेगा। कल
भी वह ऐसे ही
आया था नाचता
हुआ, लेकिन
आज उसका नाच, उपद्रव
मालूम
पड़ेगा...।
हमें
वही दिखाई
पड़ता है, जो
हमारे भीतर
है। हमारा सब
देखना प्रोजेक्शन
है।
... आज
उसके कपड़े
गंदे मालूम
पड़ेंगे। वह
रोज ऐसे ही
आता है। बच्चे
कपडे गंदे
नहीं करेंगे
तो क्या बूढ़े…..गंदे करेंगे? बच्चे
तो कपडे गंदे
करेंगे ही।
क्योंकि, बच्चों
को कपड़ों का
पता भी नहीं
हैं। कपडों
का पता रखने के
लिए भी आदमी
को बहुत चालाक
होने की जरूरत
है। बच्चों को
कहां होश?
…..कपड़े
फट गये हैं?.. किताब
फट गयी है?. स्लेट
फूट गयी है?. इसलिए, आज
बच्चे का
सुधार किया है।
लेकिन मां को
पता भी नहीं
चलेगा कि वह
बच्चे की शक्ल
में पति को चांटे
मार रही है; कि ये चांटे
पति पड़ रहे
हैं।
और
बच्चे भली-भांति
जानते हैं कि
उनकी पिटायी
कब होती है! जब
मां-बाप का
आपस में झगड़ा
चलता तब। जब
मां-बाप लड़ते
हैं,
तब बच्चे
पिटते हैं।
इसलिए, जिनके
बच्चे नहीं
होते हैं, उनके
घर में बड़ी
मुश्किल जाती
है; क्योंकि
पिटने के
लिए कोई कामन
मेन नहीं होता;
कि किसको पीटो! अगर
ऐसा न हो तो प्लेटे
टूट हैं, रेडियो
गिर जाता है; दूसरे उपाय
खोजने पड़ते
हैं। आपको
मालूम होगा, प्लेट कब
टूटती है? और
पत्नियों भी
मालूम रहता है
कि अब एकदम
हाथ से प्लेटे
छूटने लगती
हैं।
.. लेकिन,
बच्चा पिटेगा।
बच्चा क्या कर
सकता है? वह
मां के प्रति
क्रोध कैसे
करे? अगर
मां के प्रति
क्रोध है तो
जरा
प्रतीक्षा करनी
पडेगी।
पन्द्रह-बीस
साल बहुत लंबी
प्रतीक्षा
है। जब एक औरत
और आ जाये।
ताकत देने को;
क्योंकि
किसी भी औरत
से लड़ना हो तो
एक औरत का साथ
जरूरी है।
नहीं तो हार
निश्चित है।
औरत से
औरत ही लड़
सकती है, आदमी
नहीं लड़ सकता।
राह
देखनी पड़ेगी।
बहुत लंबा
वक्त है। वक्त
देखना पड़ेगा
कि कब मां
बूढ़ी हो जाये; क्योंकि
तब पांसा बदल
जायेगा। अभी
मां ताकतवर है,
बच्चा
कमजोर है। जब
बच्चा ताकतवर
होगा, मां
कमजोर हो
जायेगी, तब...।
वह जो बूढ़े
मां-बाप को
बच्चे सताते
है; और जब
तक मां-बाप
बच्चों को
सताते रहेंगे,
तब तक बूढ़े
मां-बापों
को
सावधान रहना
चाहिए, कि
उनके बच्चे
उनको सतायेंगे।
……यह तो
बहुत लंबी बात
है। इतनी देर
तक प्रतीक्षा
नहीं की जा
सकती। क्रोध
इतनी देर
रुकने के लिए
राजी नहीं हो
सकता। तो
बच्चा क्या
करेगा?.. जायेगा, अपनी
गुड़िया की
टांग तोड़
देगा! किताब फाड़ देगा!..
कुछ करेगा। जो
भी वह कर सकता
है, वह
करेगा!
दबाया
हुआ क्रोध
किसी भी
रास्ते ले
जायेगा; तकलीफों
में डालेगा; मुश्किलों
में डालेगा।
दबाया हुआ अहंकार
नये-नये
रास्ते पर ले
जायेगा।
दबाया हुआ लोभ
नये-नये
रास्ते
खोजेगा।
मैं एक
संन्यासी के
पास था। उनसे
मेरी बात होती
थी। वे
संन्यासी
मुझसे बार-बार
कहते..।
और
संन्यासी
बेचारे के पास
और कुछ कहने
को तो होता
नहीं..। धनपति
के पास जाइए, वह
अपने धन का
हिसाब बताता
है : कि इतने
करोड़ थे, इतने
करोड हो गये; मकान छ:
मंजिला था सात
मंजिल हो गया।
पंडितों के
पास जाइए तो
वे अपना बताते
हैं : कि अभी एम.
ए. भी हो गये, पी. एच. डी. भी
हो गये, अब
डी. लिट भी
हो गये; अब
यह हो गये, वह
हो गये! पांच
किताबें छपी
थीं, अब
पंद्रह छप
गयीं! वह अपना
बतायेंगे।
साधु संन्यासी
क्या बतायें?
वह भी अपना
हिसाब रखता है,
त्याग का!
……वे
मुझसे बार-बार
कहते, ‘‘मैंने
लाखों रुपयों
पर लात मार
दी। '' सत्य
ही कहते
होंगे।
चलते
वक्त मैंने
पूछा- ‘‘महाराज,
यह लात मारी
कब?'' कहने
लगे, ‘‘कोई
बीस-पच्चीस
साल हो गये। '' मैंने कहा ‘‘लात ठीक से
लग नहीं पायी,
नहीं तो
पच्चीस साल तक
याद रखने की
क्या जरूरत है?
पच्चीस साल
बहुत लंबा
वक्त है। अब
लात मार ही दी
तो खत्म करो
बात। पच्चीस साल
याद रखने की
क्या जरूरत
है।
''लेकिन
वे अखबार की
कटिंग रखे हुए
थे अपनी फाइल
में, जिसमें
छपी थी पच्चीस
साल पहले यह
खबर। कागज पुराने
पड़ गये थे, पीले
पड़ गये थे, लेकिन
मन को बड़ी
राहत देते
होंगे। दिखाते-दिखाते
गंदे हो गये
ने। अक्षर भी
समझ में नहीं
आते थे। लेकिन
उनको बड़ी
तृप्ति मिलती होगी।
दस-बीस
साल पहले
उन्होंने
लाखों रुपये
पर लात मारी।
मैंने उनसे
कहा,
‘‘लात ठीक से
लग जाती तो
रुपये भूल
जाते। लात ठीक
से लगी नहीं।
लात लौटकर
वापस आ गयी....। ''
पहले
अकड़ रही होगी
कि मेरे पास
लाखों रुपये
हैं। अहंकार
रहा होगा। सड़क
पर चलते होंगे
तो भोजन को
कोई जरूरत न
रही होगी।
बिना भोजन के
भी चले जाते होंगे।
ताकत गयी नहीं, रही
होगी। भीतर
ख्याल रहा
होगा कि लाखों
रुपये मेरे
पास हैं। फिर
रुपयों को छोड़
दिया, त्याग
कर दिया। जबसे
त्याग किया, तबसे अकड़
दूसरी आ गयी :
कि मैंने
रुपयों को लात
मार दी! मैं
कोई साधारण
आदमी हूं?
और
पहली अकड़ से
दूसरी अकड़
ज्यादा
खतरनाक है। पहले
अहंकार से
दूसरा अहंकार
ज्यादा
सूक्ष्म है।
….. दबाया
हुआ अहंकार
वापस लौट आया।
अब वह और बारीक
होकर आया है, कि जिसकी
पहचान भी न हो
सके।
जो भी
आदमी चित्त के
साथ दमन करता
है,
वह सूक्ष्म
से सूक्ष्म
उलझनों में
उलझता चला जाता
है; यह
मैंने तीसरे
सूत्र में
कहा।
दमन से
सावधान होना।
दमन करने वाला
आदमी रुग्ण हो
जाता है, अस्वस्थ
हो जाता है, बीमार हो
जाता ओ'।
और दमन का अन्तिम
परिणाम
विक्षिप्तता
है, मैडनेस है।
तीन
सूत्रों पर
मैंने आपसे
कुछ बातें
कहीं। अब चौथे
और अंतिम
सूत्र के
संबंध में
आपसे थोड़ी-सी
बात कहना हूं।
चौथा
सूत्र, छोटा-सा
सूत्र है।
सूत्र
छोटा है, लेकिन
बड़ी विस्फोटक
शक्ति है
उसमें। जैसे
एक छोटे से
अणु में इतनी
ताकत रहती है
कि सारी पृथ्वी
को वह नष्ट कर
सकता है, वैसा
ही, इस
छोटे-से सूत्र
में शक्ति है।
इन
तीनों
जंजीरों से
मुक्त होने के
लिए एक ही सूत्र
है,
और वह सूत्र
है-जागरण, जागना,
अवेयरनेस, ध्यान, अमूर्छा, होश, माइंड-
फुलनेस
या कोई भी नाम
दें। एक ही
सूत्र है, छोटा-सा-
'जागो।'
जागो
उन सिद्धातों
के प्रति, जिनको
पकड़े हुए हो।
और जागते ही
उन सिद्धांतों
से छुटकारा
शुरू हो
जायेगा; क्योंकि
सिद्धांत
आपको नहीं
पकड़े हैं, आप
ही उन्हें
पक्के हुए
हैं। और जैसे
ही आप जागेंगे,
आपको लगेगा
अजीब बात है
कि मैं अपने
ही हाथों से
गुलाम बना हुआ
हूं और मेरी
गुलामी की
जंजीर मेरे
अपने ही हाथ
है! और एक बार
यह दिखाई पड़
जाये, तो
फिर छूटने में
देर नहीं
लगती।
पहला
जागरण
सिद्धांतों, वादों,
संप्रदायों,
धर्मों
गुरुओं, महात्माओं
के प्रति, जिनको
हम जोर से पकड़े
हुए हैं। कुछ
भी नहीं है
हाथ में, कोरी
राख है शब्दों
की, लेकिन
जोर से पकड़े
हुए हैं। कभी
हाथ खोलकर भी नहीं
देखते। डर लगता
है कि कहीं
देखा तो बहुत
मुश्किल हो
जायेगी।
लेकिन गौर से
देखना जरूरी
है कि मैं
किन-किन चीजों
से जकड़ा
हुआ हूं; मेरी
जंजीरें
कहां-कहां हैं?
मेरी स्लेवरी,
मेरी
गुलामी कहां
है; मेरी
आध्यात्मिक
दासता कहां टिकी
है?
एक-एक
चीज के प्रति
जागना जरूरी
है। जागने के अतिरिक्त, गुलामी
को तोड़ने के
लिए और कुछ भी
नहीं पड़ता है।
और जागते ही
गुलामी छूटनी
शुरू हो जाती
है। क्योंकि,
यह गुलामी
कोई लोहे की
जंजीरों की
नहीं है, जिसे
तोड़ने के लिये
हथोड़े की
चोट करनी पड़े।
ये गुलामी
हमारे सोये
हुए होने के
कारण है। हमने
कभी होश से
देखा ही नहीं
है कि हमारे
भीतर की
मनोदशा क्या
है। बस, हम
चलते रहे
अंधेरे में।
जाग जायेंगे
तो पता कि यह
तो हमने अपने
ही हाथों में
पागलपन का इंतजाम
कर रखा है।
और, इसके
लिए कोई दूसरा
जिम्मेवार
नहीं है, हम
खुद ही
जिम्मेवार
हैं। इसे हम
तोड़ देसकते
हैं, जागरण
से।
जागरण-सिद्धांतों,
शाखों, संप्रदायों
के प्रति।
जागरण-हिंदू
होने के प्रति, मुसलमान
होने के प्रति,
हिंदुस्तानी
होने के प्रति,
चीनी होने
के प्रति।
जागरण-सारी
सीमाओं के
प्रति, सारे
बंधनों के
प्रति, समस्त
मोह के प्रति।
यह जो
कंडीशनिंग है
भीतर माइंड की, उसके
प्रति जले, देखें कि यह
क्या है? यह
मैं क्यों
बंधा हूं? किसने
उसे हिंदू बना
दिया है? किसने
मुझे
सिद्धांत से
अटका दिया है?
मन में
भीड़ घुस जाती
है। चीजें
बाहर से आती
हैं और हम
उन्हें पकड़
लेते हैं।
उन्हें छोड़
देना है।
उन्हें छोड़ते
चित्त को एक
फ्रीडम, एक व्यक्ति
की अवस्था
उपलब्ध हो
जाती है।
भीड़ के
प्रति जागना
है कि मैं जो
भी कर रहा हूं वह
भीड़ को देखकर
तो नहीं कर
रहा हूं?
आप
मंदिर चले जा
रहे हैं-सुबह
ही उठकर, भागते
हुए, राम-राम
जपते हुए-सुबह
की सर्दी में!
सान लिया है
और भागते चले
जा रहे हैं।
सोचते हैं कि
मंदिर जा रहा
हूं। जरा
जागकर
देखना-कहीं
इसलिए तो सब
मंदिर नहीं जा
रहे हैं कि
लोग आप को देख
लें : कि मैं
आदमी धार्मिक
हूं!
कौन
मंदिर जाता
है...?
भीड़ देख ले
कि यह आदमी
मंदिर जाता है,
इसलिए आप
मंदिर जाते
हैं। किसको
प्रयोजन है दान
देने से...? लोग
देख लें, कि
ये आदमी दानी
है, इसलिए
आप देते हैं।
अगर एक
आदमी भीख
मांगता है सडक
पर,
तो आपको पता
होगा कि
भिखारी अकेले
में किसी से
भीख मांगने
में झिझकता
है। चार-छह
आदमी हों, तो
जल्दी से हाथ
फैलाकर खड़ा हो
जाता है, क्योंकि
उसे पता है कि
पांच आदमियों
के सामने यह छठवां
आदमी भीख देने
से इंकार नहीं
कर सकेगा। यह
ख्याल रखेगा
कि पांच आदमी
क्या सोचेंगे?
कि इतना बड़ा
आदमी है, दस
पैसे नहीं छोड़
सकता!
तो
भिखमंगा भीड़
में जल्दी से
पीछा करता है।
और दस आदमी को
देखकर आपको दस
पैसे देने
पड़ते हैं। वह
दस पैसे आप
भिखारी को
नहीं दे रहे
हैं,
वह दस पैसे
से आप इंश्योरंस
कर रहे हैं
अपनी इज्जत का,
दस आदमियों
में। उन दस
पैसों का आप
क्रैडिट बना
रहे है, इज्जत
बना रहे है, बाजार में।
और
आपको खयाल भी
नहीं होगा, आप
घर लौटकर
कहेंगे-बड़ा
दान किया, आज
एक आदमी को दस
पैसे दिये!
लेकिन, भीतर
पूरे जागकर
देखना कि
किसको दिये? क्या
भिखमंगे को
दिये? उसके
लिए तो भीतर
से गाली निकल
रही थी कि यह
दुष्ट कहां से
आ गया! दिये
उनको, जो
साथ थे। भीड़
सब तरफ से
पकड़े हुए है।
एक
गांव में मैंने
देखा, एक नया
मंदिर बन रहा
था; भगवान
का मंदिर बन
रहा था...।
कितने भगवान
के मंदिर बनते
चले जाते हैं।
.. नया
मंदिर बन रहा
था। उस गांव
में वैसे ही
बहुत मंदिर
थे...!
आदमियों
के रहने के
लिये जगह नहीं
है और भगवान
के लिये मंदिर
बनते चले जाते
हैं! और भगवान
का कोई पता
नहीं है कि वे
मंदिर में
रहने को कब
आयेंगे, आयेंगे
कि नहीं
आयेंगे, इसका
कुछ पता नहीं
है।
.. नया
मंदिर बन रहा
था तो मैंने
उस मंदिर को
बनाने वाले एक
कारीगर से
पूछा, ‘‘बात
क्या है? बहुत
मंदिर है गांव
में, भगवान
का कहीं पता
नहीं चलता! ये
एक और मंदिर किसलिए
बना रहे हो?''
बूढ़ा
था कारीगर।
अस्सी साल की
उम्र रही
होगी। बामुश्किल
मिट्टी खोद
रहा था। उसने
कहा,
''आपको शायद
पता नहीं, मंदिर
भगवान के लिए
नहीं बनाए
जाते हैं। ''
मैंने
कहा,
‘‘बड़े
नास्तिक
मालूम होते
हो। मंदिर
भगवान के लिए
नहीं बनाये
जाते तो किसके
लिए बनाये
जाते है। ''
उस
बूढ़े ने कहा, ‘‘पहले
मैं भी यही
सोचता था, लेकिन
जिंदगी भर
मंदिर बनाने
के बाद इस
नतीजे पर
पहुंचा हूं कि
भगवान के लिए
इस जमीन पर
मंदिर कभी
नहीं बनाया
गया। ''
मैंने
पूछा, ‘‘मतलब
क्या है
तुम्हारा? उस
बूढ़े ने मेरा
हाथ पकड़ा और
कहा कि भीतर
आओ...।
... और
बहुत कारीगर
वहां काम कर
रहे थे। लाखों
रुपये का काम
था। वह कोई
साधारण आदमी
मंदिर नहीं
बनवा रहा था।
सबसे पीछे, जहां कारीगर
पत्थरों को
खोदते थे, उस
बूढ़े ने ले
जाकर मुझे
वहां खड़ा कर दिया,
एक पत्थर के
सामने, कहा,
‘‘इसलिए
मंदिर बन रहा
है। ''
उस पत्थर
पर मंदिर के
बनाने वाले का
नाम स्वर्ण-अक्षरों
में खोदा जा
रहा था...!
उस
बूढ़े ने कहा, सब
मंदिर इस
पत्थर के लिए
बनते हैं।
असली चीज यह
पत्थर है, जिस
पर नाम लिखा
रहता है किसने
बनवाया।
मंदिर
तो बहाने हैं, पत्थर
को लगाने के।
वह पत्थर असली
चीज है। उसकी
वजह से मंदिर
भी बनाना
पड़ता। मंदिर
बहुत महंगा पड़ता
है, लेकिन
उस पत्थर को
लगाना हो तो
कोई क्या
करेगा, इसलिये
बनाना पड़ता
है। पत्थर
लगाने के लिए
बनते हैं, जिस
पर खुदा रहता
है कि किसने
यह मंदिर
बनाया।
लेकिन, मंदिर
बनाने वाले को
शायद यह होश
नहीं होता कि
यह मंदिर भीड़
के चरणों में
बनाया जा रहा
है, भगवान
के चरणों में
नहीं। इसलिए
तो मंदिर हिदू
का होता है, मुसलमान का
होता है, जैन
का होता है; मंदिर भगवान
का कहां होता
है?
भीड़ से
सावधान होने
का मतलब यह है
कि भीतर जागकर
देखना अपने
चित्त की
वृत्तियों को
: कि कहीं भीड़
मेरा निर्माण
नहीं करती है; चौबीस
घण्टे भीड़ तो
मुझे मोल्ड
नहीं करती है,
कहीं भीड़ के
सांचे में तो
मुझे नहीं जा
रहा है?
और
ध्यान रहे, भीड़
के सांचे में
कभी किसी
आत्मा का
निर्माण नहीं
होता, भीड़
के सांचे में
मुर्दे आदमी ढाले हैं; और पत्थर हो
जाते हैं।
जिन्हें
आत्मा को पाना
होता है, वे
भीड़ के सांचे
को छोड्कर ऊपर
उठने की कोशिश
करते हैं।
लेकिन, कुछ
करने की जरूरत
नहीं है, सिर्फ
जागने की
जरूरत है।
चित्त की
वृतियों को
जागकर देखते
रहें कि मुझे
पकड नहीं रही
हैं?
और बड़े
मजे की बात है, अगर
कोई जागकर
देखता है तो
भीड़ की पकड़ उस
पर बंद हो
जाती है। बहुत
हल्कापन, बहुत
वेटलेसनेस
मालूम होती है,
क्योंकि
वजन भीड़ का है
हमारे सिरों
पर।
हम
दिखायी पड़ रहे
हैं कि अकेले
खड़े हैं, हमारे
सिर पर कुछ भी
नहीं है।
लेकिन जरा गौर
से देखना किसी
सिर पर गांधी
बैठे हैं, किसी
के सिर पर
मुहम्मद बैठे
हैं, किसी
के सिर पर
महावीर बैठे
हैं और अकेले
नहीं बैठे
अपने चेले चांटियों
के साथ बैठे
हुए हैं! और
एक-दों दिन से
नहीं बैठे हुए
हैं, हजारों,
लाखों साल
से बैठे हुए है।
सिर
भारी हो गया
है,
कतार लग गयी
है, कतार
आकाश को छू
रही है; इतने
लोग ऊपर बैठे
हुए हैं। इन सबको
उतार देने की
जरूरत है।
अगर
अपने को पाना
है,
तो अपने सिर
से सबको उतार
देने की जरूरत
है, कोई हक
नहीं है किसी
को कि किसी
आत्मा पर पत्थर
होकर बैठ
जाये।
लेकिन
वे बेचारे
नहीं बैठे है, आप
ही उन्हें
बिठाये हुए
हैं। उनका कोई
कसूर नहीं है।
वह तो घबराये
हुए हैं यह आदमी
कब तक ढोता
रहेगा! हमारे
प्राण निकले
जा रहे है, कितने
दिन से बिठाए
हुए है यह
आदमी, हमें
छोड़ता ही
नहीं!
आप ही
उन्हें
बिठाये हुए
है। जागते ही
टूट जायेगा यह
मोह। फिर सिर
हल्का हो
जायेगा; मन
हलका हो जाएगा।
उड़ने की
तैयारी शुरू
हो जायेगी।
पंख खुल जायेंगे।
और, तीसरी
बात : जागना है,
दमन के
प्रति।
लोग
सोचते हैं-दमन
छोड़ देंगे तो
भोग शुरू हो जायेगा।
लोग सोचते
हैं- अगर
क्रोध नहीं
दबाया तो
क्रोध हो
जायेगा, और
झंझट हो
जायेगी।
अगर
मलिक की गर्दन
पकड लेंगे, तो
और दिक्कत की
बात हो
जायेगी।
पत्नी की गर्दन
पकड़ना ज्यादा कन्वीनियएंट,
ज्यादा सुविधापूर्ण
है। यह झंझट की
बात हो
जायेगी। इसके
आर्थिक दुषपरिणाम
हो जायेंगे-
अगर मालिक की
गर्दन
पकड़ेंगे। और
मालिक की
गर्दन पकड़ने
के लिये पत्नी
भी कहेगी, 'उसकी
गर्दन मत
पकड़ना; मेरी
ही पकड़ना, क्योंकि
मालिक की
गर्दन पकड़ी तो
बच्चों का क्या
होगा? पत्नी
का क्या होगा?
बहुत
दिक्कत में पड़
जायेंगे। तुम
तो मेरी ही गर्दन
पकड़ लेना। 'पत्नी भी
यही कहेगी। 'यही ज्यादा
सुविधापूर्ण,
ज्यादा
समझदारी का
काम है कि
मालिक को
छोड्कर, आकर
मुझ पर टूट
पड़ना। '
नहीं, मैं
आपसे कहना
चाहता
हूं-क्रोध को
दबाने की जरूरत
नहीं है, क्रोध
को भी देखने, और जानने की
जरूरत है। जब
किसी के प्रति
मन में क्रोध
पकड़े, तो
जागकर देखना
कि क्रोध पकड़
रहा है; होश
से भर जाना कि
क्रोध आ रहा
है; देखना
अपने भीतर कि
क्रोध का धुआ
उठ रहा है। क्रोध
क्या-क्या कर
रहा है
भीतर-देखना।
और एक अदभुत
अनुभव होगा
जीवन में पहली
बार : कि देखते
ही क्रोध विलीन
हो जाता है; न दबाना
पड़ता है, न
करना पड़ता है।
आज तक
दुनिया में
कोई आदमी
जागकर क्रोध
नहीं कर पाया
है।
बुद्ध
एक गांव से
गुजरते थे।
कुछ लोगों ने
भीड़ लगा ली और
बहुत गालियां
दीं बुद्ध
को..।
अच्छे
लोगों को हमने
सिवाय
गालियां देने
के और कुछ भी
नहीं दिया। जब
वे मर जाते
हैं तो पूजा
वगैरह भी करते
हैं,
लेकिन वह
मरने के बाद
की बात है।
जिंदा बुद्ध को
तो गाली देनी
ही पड़ेगी।
लेकिन, ऐसे
लोग थोड़े डिसटर्बिंग
होते हैं; थोड़ी
गड़बड़ कर देते
हैं; नींद
तोड़ देते है।
इसलिये
गुस्सा आ जाता
है। तो आदमी
गाली देने
लगता है। कसूर
भी क्या है।
.. गांव
के लोगों ने
घेरकर बुद्ध
को बहुत
गालियां दीं।
बुद्ध ने उनसे
कहा, ‘‘मित्रों,
तुम्हारी
बात अगर पूरी
हो गयी हो तो
अब मैं जाऊं, मुझे दूसरे
गांव जल्दी
पहुंचना है। ''
वे लोग
कहने लगे, ‘‘बात?
हम गालियां
दे रहे हैं, सीधी-सीधी।
समझ में नहीं
आती आपको? क्या
बुद्धि बिलकुल
खो दी है? हम
सीधी-सीधी
गालियां दे
रहे हैं, बात
नहीं कर रहे
हैं। ''
बुद्ध
ने कहा, ‘‘तुम
गालियां दे
रहे हो, वह
मैं समझ गया।
लेकिन मैंने
तो गालियां
लेना बंद कर
दिया है; तुम्हारे
देने से क्या होगा,
जब तक मैं
ले न सकूं? और
मैं ले नहीं
सकता।
क्योंकि जब से
जाग गया हूं
तब रो गाली
लेना असंभव हो
गया है। जागकर
कोई गलत चीज
कैसे ले सकता
है?
आप
बेहोशी में
चलते हैं, इसलिए
पैर में कांटा
गड़ जाता है; अगर देखकर
चलते हों, तो
कैसे काटा गप
सकता है! गलती
से आदमी दीवाल
से टकरा सकता
है; जब
आंखें खुली
हों तो दरवाजे
से निकलता है।
''बुद्ध
ने कहा, ‘‘मैं
आंखें खोलकर,
जागकर, जब
से जीने लगा
हूं तब से
गालियां लेने
का मन ही नहीं
करता। अब मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया हूं।
कोई दस साल
पहले तुम्हें
आना चाहिए था।
तुम जरा देर
करके आये दो।
दस साल पहले
आते, तो
मजा आ जाता।
तुमको मजा आ
जाता, लेकिन
हमको तो बहुत
तकलीफ होती।
हमन।। तो मजा आ
रहा है। लेकिन
तब तुम्हें
बहुत मजा आ
जाता; क्योंकि
मै भी दुगने
वजन की गाली
तुम्हें
देता। क्योंकि
अब बडी
मुश्किल है।
होश से भरा
हुआ आदमी गाली
नहीं दे सकता
है।.. तो मैं
जाऊं?''
वे लोग
बड़े हैरान हो
गये। बुद्ध ने
कहा,
‘‘जाते वक्त
एक बात और
तुमसे कह दूं
पिछले गांव
में कुछ लोग
मिठाईया लेकर
आ रहे थे।
मैंने कहा कि
मेरा पेट भरा
है। वह भी
जोगा हुआ था, इसलिए कह
सका; क्योंकि
हुआ आदमी
मिठाइयां
देखकर भूल
जाता है कि
पेट भरा है।
बेहोश आदमी
भूख देखकर
नहीं खाता; बेहोश आदमी चीजें
देखकर खाता
है। होश से
भरा आदमी पेट
की भूख देखकर
खाता है।
‘‘मेरा
पेट भरा हुआ
था। वह भी होश
की वजह से। दस
साल पहले अगर
वे भी आये
होते, तो
उनकी थालियां
उन्हें वापस न
ले जानी पड़ती।
मैं उन्हें
जरूर खा लेता।
लेकिन, जब
से होश आ गया
है, जागकर
देखता हूं।
इसलिए गलती
करनी बहुत
मुश्किल हो गई
है। वे बेचारे
थालियां
वापस ले गये।
तो मैं तुमसे
पूछता
उन्होंने उन मिठाइयों
का क्या किया
होगा ''?
उस
गाली देने
वाली भीड़ में
से एक आदमी ने
कहा,
‘‘क्या किया
होगा? घर
में जाकर
मिठाइयां
बांट दी बुद्ध
ने कहा, ‘‘यही
मुझे चिंता हो
रही है कि तुम
क्या करोगे? तुम गालियों
की थालियां
लेकर आये
हो-और लेता
नहीं; अब
तुम उन
गालियों का
क्या करोगे; किसको बाटोगे?
बुद्ध
कहने लगे, ‘‘मुझे
बड़ी दया: आती
है तुम पर। अब
तुम करोगे क्या?
इन गालियों
का क्या करोगे?
मैं लेता नहीं;
मैं ले सकता
नहीं। चाहूं
भी तो नहीं ले
सकता। मुश्किल
में पड़ गया है
जाग जो गया
हूं।''
कोई
आदमी जाग कर
क्रोध नहीं कर
सकता।
दमन
निद्रा में
चलता है और
जागृत आदमी को
दमन की जरूरत
नहीं रहती।
एक
आदमी मेरे पास
आता था, कुछ
समय हुआ। उसने
कहा, मुझे
बहुत क्रोध
आता है। आप
कहते हैं, जागो,। मुझसे
नहीं होता है
यह जागना। जब
वह आता है, तब
आ ही जाता है।
तो
मैंने एक कागज
पर उसको लिखकर
बड़े-बड़े अक्षरों
में दे दिया, ''अब
मुझे क्रोध आ
रहा है’‘ और
कहा, कि
इसे खीसे में
रख लो। और जब
भी क्रोध आये
तो निकाल कर
एक दफा पढ़ कर
इसी खीसे में
वापिस रख लेना
जो तुम्हें
समझ में आये
करना।
वह
आदमी पंद्रह
दिन बाद आया
और कहने लगा, बड़ी
हैरानी की बात
है। इस कागज
में न-जाने
कैसा मंत्र !
जब भी क्रोध
आता है, हाथ
ले जाता हूं
खीसे की तरफ
कि क्रोध की
जान निकल जाती
है! क्रोध आ
रहा जैसे ही
यह खयाल आया
कि हाथ भीतर खीसे
की तरफ बढ़ने
लगते हैं और
क्रोध वापिस
लौट जाता है!
बस, थोड़ी-सी
समझ की जरूरत
है जीवन के
प्रति। जीवन छोटे-छोटे
राजों पर
निर्भर है।
और, बड़े
से बड़ा राज यह
है कि सोया
हुआ आदमी
भटकता चला
जाता है चक्कर
में, और
जागा हुआ आदमी
चक्कर के
बाहर हो जाता
है।
जागने
की कोशिश ही
धर्म की
प्रक्रिया
है। जागने का
मार्ग ही योग
है।
जागने
की विधि का
नाम ध्यान है।
जागना
ही एकमात्र
प्रार्थना
है।
जागना
ही एकमात्र
उपासना है।
जो
जागते हैं, वे
प्रभु के
मन्दिर को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
जागते
ही वृत्तियां, व्यर्थताएं कचरा, कूड़ा-करकट
चित्त से
गिरना शुरू हो
जाता है।
धीरे- धीरे
चित्त निर्मल
होता चला जाता
है जागे हुए आदमी
का। और जब
चित्त निर्मल
हो जाता है, तो चित्त
दर्पण बन जाता
है।
जैसे, झील
निर्मल हो, तो उसमें
चांद-तारों की
प्रतिछवि
बनती है, और
आकाश में भी
चांद-तारे
उतने सुंदर
नहीं मालूम
पड़ते, जितने
की निर्मल झील
की छाती पर
चमक कर मालूम पड़ते
हैं-वैसे ही, जब चित्त
निर्मल हो
जाता है जागे
हुए आदमी का, तो चित्त की
निर्मलता में
परमात्मा की
छवि दिखाई
पड़नी शुरू हो
जाती है। फिर
वह
निर्मल-चित्त
आदमी कहीं भी
जाये-फूल में
भी उसे
परमात्मा
मिलता है, पत्थर
में भी, मनुष्यों
में भी; पक्षियों
में भी; पदार्थों
में भी। फिर
उसके लिए पूरा
जीवन ही
परमात्मा हो
जाता है।
जीवन
की क्रांति का
अर्थ है, 'जागरण
की क्रांति'।
इन तीन
दिनों में इस
जागरण के
बिन्दु को
समझाने के लिए
मैंने ये सारी
बातें कहीं।
लेकिन, इससे
जागरण समझ में
नहीं आ सकता
है। वह तो आप जागेंगे
तो ही समझ में
आ सकता है।
और, कोई
दूसरा आपको
नहीं जगा सकता,
आप ही-बस, सिर्फ आप ही
अपने को जगा
सकते हैं।
तो
देखें अपने
भीतर और एक-एक
चीज के प्रति
जागना शुरू
करें। जैसे-जैसे
जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे
जीवन
बढ़ेगा-मृत्यु
कम होगी। जिस
दिन जागरण
पूर्ण होगा, उस दिन
मृत्यु विलीन
हो जायेगी; जैसे थी ही
नहीं। जैसे
कोई अंधेरे
कमरे में एक
आदमी दिया
लेकर पहुंचता
है कि अंधेरा
खो जाता है।
जैसे था ही
नहीं। ऐसे ही
जो आदमी जागरण
का दिया लेकर
भीतर जाता है,
उसकी
मृत्यु खो
जाती है, दुख
खो जाता है, अशांति खो
जाती है और
उसे अमृत
उपलब्ध होता
है। और, वह-जिसका
कोई अन्त नहीं;
वह-जिसका
कोई प्रारम्भ
नहीं; वह-जों
असीम है; वह-जों
प्रभु है, उसके
मन्दिर में
प्रवेश हो
जाता है।
अंत
में यही
प्रार्थना
करता हूं कि
उस मंदिर में
सबका प्रवेश
हो जाये। लेकिन, किसी
की कृपा से
नहीं होगा यह;
किसी के
प्रसाद से, आर्शीवाद से
नहीं होगा।
अपने ही श्रम,
अपने ही
संयम, अपनी
ही साधना से
होगा।
जो
जागते हैं, वे
पा लेते हैं।
जो सोये रह
जाते हैं, वे
खो देते हैं।
मेरी
बातों को इन चार
दिनों में
प्रेम और
शांति से सुना, उससे
बहुत अनुग्रहीत
हूं और अंत
में सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को प्रणाम
करता हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
'जीवन
क्रांति के
सूत्र'
बड़ौदा
15
फरवरी 1969
संभोग
से समाधि की
ओरसमाप्त
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