येयं
प्रेते
विचिकित्सा
मनुष्येपुस्तीत्येके
नायमस्तीति
चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्लयाहं
वराणामेष वरस्तृतीय:।।20।।
देवैरत्रापि
विचिकित्सित
पुरा न हि सुविज्ञेयभणुरेष
धर्म:।
अन्यं वरं
नचिकेतो
वृणीध्व मा
मोपरोत्सीरति
मा सृजैनम्।।21।।
देवैरत्रापि
विचिकित्सितं
किल त्वं च
मृत्यो यन्न
सुविज्ञेयमात्थ।
वक्ता
चास्य
त्वादृगन्यो
न लभ्यो
नान्यो वरस्तुल्य
एतस्य
करश्चित्।।22।।
शतायुषः
पुत्रपौत्रान्
वृणीप्य बल—पद्य—हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं
वृणीध्व
स्वयं च जीव
शरदो यावदिच्छसि।।23।।
एतजुल्यं
यदि मन्यसे
वरं वृणीष्य
वित्त चिरजीविका
च।
महाभूमौ
नचिकेतस्लमेधि
कामाना त्वा
कामभाजं
करोमि।।24।।
ये ये कामा
दुर्लभा
मर्त्यलोके
सर्वान् कामांश्छन्दत:
प्रार्थयस्व।
इमा रामा:
सरथा: सतूर्या
न हीदृशा
लम्मनीया
मनुष्यै:।
आभिर्मत्यत्ताभि:
परिचारयस्व
नचिकेतो मरणं
मानुप्राक्षी:।।25।।
श्वोभावा
मर्त्यस्य
यदन्तकैतप्लवेंन्द्रियाणां
जरयन्ति तेज:।
अपि सर्व
जीवितमल्पमेव
तवैव
वाहास्तव
नृत्यगीते।।26।।
न वित्तेन
तर्पणीयो
मनुष्यो
लक्यामहे
वित्तमद्राक्ष्म
चेत—त्वा।
जीविष्यामो
यावदीशिष्यसि
त्वं वरस्तु
मे वरणीय: स एव।।27।।
अजीर्यताममृतानामुपेत्य
जीर्यन्
मर्त्य: क्यधःस्थ:
प्रजानन्।
अभिध्यायन्
वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे
जीविते को
रमेत।।28।।
यस्मिन्निदं
विचिकित्सन्ति
मृत्यो
यत्साम्पराये
महति बूहि
नस्तत्।
योध्यं वरो
गूढमनुप्रविष्टो
नान्यं तस्मान्नचिकेता
वृणीते।।29।।
नचिकेता
तीसरा वर
मांगते हुए
कहता है : मरे
हुए मनुष्य के
विषय में यह
संशय है— कोई
तो यों कहते
हैं कि मरने
के बाद आत्मा
रहता है और
कोई ऐसा कहते
हैं कि नहीं
रहता। आपके
द्वारा उपदेश
पाया हुआ मैं
इसका निर्णय भलीभांति
समझ लूं यही
तीनों वरों
में से तीसरा
वर है।। 20।।
यमराज ने
सोचा कि
अनधिकारी के
प्रति
आत्मतत्व का
उपदेश करना
हानिकर होता
है अतएव पहले
पात्र—
परीक्षा की
आवश्यकता है
ऐसा विचारकर
यमराज ने इस
तत्व की
कठिनता का
वर्णन करके
नचिकेता को
टालना चाहा और
कहा— हे
नचिकेता। इस
विषय में पहले
देवताओं ने भी
संदेह किया था
परंतु उनकी भी
समझ में नहीं
आया। क्योंकि
यह विषय बड़ा
सूक्ष्म है
सहज ही समझ
में आने वाला
नहीं है।
इसलिए तुम
दूसरा वर मांग
लो, मुझ
पर दबाव मत
डालो इस
आत्मज्ञान
संबंधी वर को
मुझे लौटा दो।।
21।।
नचिकेता
आत्मतत्व की
कठिनता की बात
सुनकर घबराया
नहीं न उसका
उत्साह मंद
हुआ वरन् उसने
और भी दृढ़ता
के साथ कहा हे
यमराज। आपने
कहा कि इस
विषय पर
देवताओं ने भी
विचार किया था
परंतु वे
निर्णय नहीं
कर पाए और यह
सरलता से
जानने योग्य
भी नहीं है; इतना ही
नहीं इस विषय
का कहने वाला
भी आपके जैसा
दूसरा नहीं
मिल सकता।
इसलिए मेरी
समझ में इसके
समान दूसरा
कोई वर नहीं
है।। 22।।
विषय की
कठिनता से
नचिकेता नहीं
घबड़ाया वह अपने
निश्चय पर
ज्यों का
त्यों दृढ़ रहा।
इस एक परीक्षा
में वह
उत्तीर्ण हो
गया। अब यमराज
दूसरी
परीक्षा के
रूप में उसके
सामने
विभिन्न
प्रकार के
प्रलोभन रखने
की बात सोचकर
उससे कहने लगे—
सैकड़ों
वर्षों की आयु
वाले बेटे और
पोतो को तथा
बहुत से गौ
आदि पशुओं को
एवं हाथी स्वर्ण
और घोड़ों को
मांग लो भूमि
के बड़े
विस्तार वाले
साम्राज्य को
मांग लो। तुम
स्वयं भी
जितने वर्षों
तक चाहो जीते
रहो।। 23।।
हे
नचिकेता। धन, संपत्ति
और अनंतकाल तक
जीने के
साधनों को यदि
तुम इस
आत्मज्ञानविषयक
वरदान के समान
वर मानते हो
तो मांग लो और
तुम इस
पृथ्वीलोक
में बड़े भारी
सम्राट बन जाओ।
मैं तुम्हें
संपूर्ण
भोगों में से
अति उत्तम भोगों
को भोगने वाला
बना देता हूं।।24।।
इतने पर भी
नचिकेता अपने
निश्चय पर अटल
रहा तब स्वर्ग
के दैवी भोगों
का प्रलोभन
देते हुए यमराज
ने कहा—जो—जो
भोग
मनुष्यलोक
में दुर्लभ
हैं उन
संपूर्ण भोगों
को
इच्छानुसार
मांग लो। रथ
और नाना
प्रकार के
वाद्यों के
सहित इन स्वर्ग
की अप्सराओं
को अपने साथ
ले जाओ।
मनुष्यों को
ऐसी
स्त्रियां
निःसंदेह
अलभ्य हैं।
मेरे द्वारा
दी हुई इन
स्त्रियों से
तुम अपनी सेवा
कराओ। पर हे
नचिकेता।
मरने के बाद
आत्मा का क्या
होता है इस
बात को मत पूछो।।25।।
परंतु? नचिकेता
तो
दृढ़निश्चयी
और सच्चा
अधिकारी था।
वह जानता था
कि इस लोक और
परलोक के बड़े
से बड़े भोग—
सुख की
आत्मज्ञान के
सुख के किसी
क्षुद्रतम अंश
के साथ भी
तुलना नहीं की
जा सकती। अतएव
उसने अपने
निश्चय का
युक्तिपूर्वक
समर्थन करते
हुए पूर्ण
वैराग्ययुक्त
वचनों में
यमराज से कहा—
हे यमराज!
जिनका आपने वर्णन
किया, वे
क्षणभंगुर
भोग (और उनसे
प्राप्त होने
वाले सुख)
मनुष्य के
अंतःकरण सहित
संपूर्ण
इंद्रियों का
जो तेज है
उसको क्षीण कर
डालते हैं।
इसके सिवा
समस्त आयु
चाहे वह कितनी
भी बड़ी क्यों
न हो अल्प ही
है। इसलिए ये
आपके रथ आदि
वाहन और ये
अप्सराओं के
नाच— गान आपके
ही पास रहे
(मुझे नहीं
चाहिए)।। 26।।
मनुष्य धन
से कभी भी
तृप्त नहीं
किया जा सकता है।
जबकि हमने
आपके दर्शन पा
लिए हैं तब धन
को तो हम पा ही
लेने और आप जब
तक शासन करते
रहेंगे तब तक
तो हम जीते भी
रहेंगे। इन
सबको भी क्या
मांगना है।
अत: मेरे
मांगने लायक
वर तो वह
आत्मज्ञान ही
है।। 27।।
इस प्रकार
भोगों की
क्षणभंगुरता
का वर्णन करके
अब नचिकेता
अपने वर का
महत्व बतलाता
हुआ उसी को
प्रदान करने
के लिए
दृढ़तापूर्वक
निवेदन करता
है—यह मनुष्य
जीर्ण होने
वाला और
मरणधर्मा है
इस तत्व को
भलीभांति
समझने वाला
मनुष्यलोक का
निवासी कौन
ऐसा मनुष्य है
जो कि बुढ़ापे
से रहित न
मरने वाले आप
सदृश
महात्माओं का
संग पाकर भी
स्त्रियों के
सौदर्य—क्रीड़ा
और आमोद—प्रमोद
का बार—बार
चिंतन करता
हुआ बहुत काल
तक जीवित रहने
में उत्सुकता
रखेगा?।। 28।।
हे यमराज!
जिस महान
आश्चर्यमय
परलोक संबंधी
आत्मज्ञान के
विषय में लोग
यह शंका करते
हैं कि यह
आत्मा मरने के
बाद रहता है
या नहीं उसमें
जो निर्णय है
वह आप मुझे
बतलाए। जो यह
अत्यंत गूढ़ता
को प्राप्त
हुआ वर है इससे
दूसरा वर
नचिकेता नहीं
मांगता।। 29।।
छोटे
से नचिकेता के
संबंध में एक
बात ध्यान
मेले लेनी चाहिए,तो ही
मृत्यु के साथ
उसका यह अन्वेषण
हमारी समझ आ
सकता है।
नचिकेता
कितना ही छोटा
हो, कितना
ही उसकी शरीर
की उम्र कम हो, उसकी आत्मा
की उम्र अनंत
है। कोई भी
बच्चा-बच्चा
नहीं है। और
कोई भी बच्चा
सिर्फ कोरी स्लेट
की भांति नहीं
है। इसलिए
बच्चे के साथ
भी अत्यंत
सम्मानपूर्वक
व्यवहार
चाहिए।
यह
शरीर नया हो, लेकिन
इसके भीतर
छिपी चेतना नई
नहीं है।
जितनी इस
संसार की उम्र
है, उतनी
ही उम्र इस
चेतना की भी
है। यह चेतना
हजारों बार
शरीरों में
जन्मी है और विदा
हुई है। सुख
और दुख, जीवन
की उलझनें और
सुविधाएं, जीवन
के रहस्य और
रस, जीवन
के भ्रम और
सत्य, सब
इस चेतना ने
भी अनुभव किए
हैं।
इसलिए
नचिकेता की
अति गुरु—गंभीर
खोज भारतीय मन
के लिए चिंता
का विषय नहीं
है। पश्चिम के
विचारक जरूर
चिंतित होंगे
कि इतना छोटा—सा
बच्चा ऐसे प्रश्न
कैसे उठा सकता
है? क्योंकि
ईसाइयत और
इस्लाम और
यहूदी धर्म, तीनों धर्म
जो भारत के
बाहर पैदा हुए
हैं—शेष सारे
महत्वपूर्ण
धर्म भारत में
पैदा हुए है—ये
तीनों धर्म
मानते हैं एक
ही जन्म है, एक ही
मृत्यु है, उसके बाद
कोई पुनर्आगमन
नहीं है।
इसलिए उनकी
धारणा में
बच्चे तो ऐसे
प्रश्न उठा ही
नहीं सकते। और
बच्चा इतनी
गहन चिंतन। भी
नहीं कर सकता।
उनकी समझ में
तो ऐसे
चिंतनपूर्ण
विचार वृद्धावस्था
में ही संभव
हैं।
लेकिन
नचिकेता
सिर्फ कथा
नहीं है। और
भी हजारों
बच्चों ने ऐसे
प्रमाण दिए
हैं। पश्चिम
में भी ऐसे
बहुत से प्रमाण
हैं।
पश्चिम
का बहुत बड़ा
संगीतज्ञ
मोजर्ट सात
वर्ष की उम्र
में वैसे
संगीत में
कुशल हो गया, जैसा
व्यक्ति
सत्तर वर्ष की
उम्र में भी
नहीं हो पाता।
चौंकाने वाली
बात है।
क्योंकि जिस
संगीत के
अभ्यास के लिए
सत्तर वर्ष
चाहिए, वह
संगीत का
अभ्यास सात
वर्ष में हो कैसे
सकता है? और
मोजर्ट तीन
साल की उम्र
में महान
संगीतज्ञ होने
की संभावना
प्रगट करने
लगा। निश्चित
ही पीछे
यात्रा होनी
चाहिए। पीछे
के अनुभव चाहे
स्मरण न हों, पीछे की
संपदा चाहे
उसका बोध न हो,
मोजर्ट के
साथ है।
दो
वर्ष की उम्र
तक में बच्चों
ने ऐसे प्रमाण
दिए हैं
हजारों, जो सिवाय
पिछले जन्म की
धारणा के
अतिरिक्त और किसी
तरह से समझाए
ही नहीं जा
सकते।
नचिकेता
अनूठा नहीं है।
नचिकेता ने जो
पूछा है वह इस
बात की खबर है
कि यह खोज
बहुत पुरानी
है और यह
बच्चा बहुत
बूढ़ा है।
लाओत्से
के संबंध में
कथा है कि
लाओत्से बूढ़ा ही
पैदा हुआ था।
यह नचिकेता भी
ऐसा ही बूढ़ा
है। इसकी खोज
पीछे से जुड़ी
है। यह जो पूछ
रहा है, इसे खुद भी
पता नहीं है
कि क्या पूछ
रहा है। लेकिन
इसने बहुत बार,
बहुत—बहुत
जन्मों में यह
पूछा है, बहुत—बहुत
द्वार इसने
खटखटाए हैं।
बहुत—बहुत
गुरुओं के
चरणों
में यह बैठा
है। यह धारा
जो आज प्रगट
होकर दिखाई पड़
रही है, भू—गर्भ में
बहती रही है।
इस
बात को खयाल
में ले लें, तो ही
नचिकेता के
प्रश्न समझने
योग्य लगेंगे,
अन्यथा
अस्वाभाविक
मालूम पड़ते
हैं। अन्यथा
ऐसा लगता है
कि नचिकेता के
नाम पर ऋषि वे
सारी बातें
थोप रहा है जो
कि वृद्ध भी
नहीं पूछते।
लेकिन और
बच्चों ने भी
ऐसा ही पूछा
है।
शंकराचार्य
तैंतीस वर्ष
की उम्र में
तो चल ही बसे।
तैंतीस वर्ष
की उम्र में
उन्होंने
ब्रह्म—सूत्र, उपनिषद
और गीता पर
अपनी महान
व्याख्याएं
पूरी कर लीं।
तीन सौ वर्ष
की उम्र भी
किसी आदमी को
मिले, तो
भी शंकर का कोई
मुकाबला नहीं
है। शंकर ने
जो तैंतीस
वर्ष की उम्र
में लिखा है, वह तीन सौ
वर्ष की उम्र
भी साधारणत:
मिले तो भी लिखने
की कोई
संभावना नहीं
है।
शंकर
ने अपनी
व्याख्या का
सिलसिला
सत्रह साल की
उम्र में शुरू
किया। और शंकर
ने नौ वर्ष की
उम्र में
संन्यस्त होने
की कामना
प्रगट की।
यह
जो नौ वर्ष की
उम्र में... नौ
वर्ष की उम्र
ही क्या है! हम
तो नब्बे वर्ष
की उम्र में
भी बचकाने बने
रहते हैं।
हमारे चित्त
की कोई
प्रौढ़ता नहीं
हो पाती।
वृद्धावस्था
में भी हमारा
चित्त वैसा ही
होता है जैसा
नासमझ
अज्ञानी का
होना चाहिए।
शंकर
के नौ वर्ष की
उम्र में
संन्यस्त
होने की धारणा
का उदय, जब अभी जीवन
देखा नहीं! तो
जिस जीवन को
अभी देखा नहीं
है, उससे
मुक्त होने का
सवाल भी कहौ
उठता है! अभी दुख
जाना नहीं, तो दुख से
छुटकारे की
बात ही क्या
अर्थ रखती है!
अभी भोग देखे
नहीं, तो
त्याग में
क्या अर्थ हो
सकता है!
निश्चित
ही भोग बहुत
बार देखे गए
हैं। बहुत बार
देखे गए भोगों
का ही यह सार
निष्कर्ष है
कि नौ वर्ष का
बच्चा
संन्यस्त हो
जाना चाहता है।
मुझसे
कई बार लोग
आकर पूछते हैं
कि आप कभी—कभी
छोटे बच्चे को
भी संन्यास दे
देते हैं! कोई
छोटा बच्चा
नहीं है। शरीर
की उम्र
वास्तविक
उम्र नहीं है।
पश्चिम
में एक धारणा
मानसिक—उम्र
की पैदा हुई
है, मेंटल
एज की। इस
संदर्भ में
खयाल ले लेना
चाहिए। फ्रांस
में एक बहुत
कीमती विचारक
हुआ बिनेट। और
बिनेट ने पहली
दफा मनुष्य की
मानसिक—उम्र
की धारणा
विकसित की।
उसने कहा किं
एक उम्र तो
शरीर की होती
है और एक उम्र
मन की होती है।
शरीर की उम्र
के साथ मन की
उम्र का कोई
संबंध नहीं है।
आप सत्तर साल
के हो सकते
हैं और मन की
उम्र हो सकता
है सात साल की
हो। और उससे
उलटा भी हो
सकता है कि मन
की उम्र सत्तर
साल की हो और
शरीर की उम्र
सात साल की हो।
पिछले
महायुद्ध में
अमरीका ने
अपने सैनिकों की
मानसिक—उम्र
का पता लगाना
चाहा, तो
बड़ी हैरानी का
निष्कर्ष
मिला। औसत
उम्र सैनिकों
की तेरह वर्ष
थी मन की, शरीर
की तो बहुत थी।
मन वहा रुक
गया जहां तेरह
साल पूरे हुए।
अधिक
लोगों की उम्र
तेरह, चौदह
साल से आगे
नहीं जाती।
जैसे ही
व्यक्ति
कामुक रूप से
प्रौढ़ होता है,
सेक्यूअली
मेच्योर होता
है, वहीं
उसकी मानसिक—उम्र
रुक जाती है।
स्त्रियों की
मानसिक—उम्र
पुरुषों से भी
पहले रुक जाती
है। क्योंकि
पुरुषों से
कोई एक, डेढ़,
दो वर्ष
पहले कामुक
रूप से प्रौढ़
हो जाती हैं।
फिर वह उम्र
वहीं रुकी
रहती है, शरीर
की उम्र बढ़ती
चली जाती है
लेकिन मन वहीं
ठहरा रह जाता
है।
बिनेट
ने मन की उम्र
खोजी, लेकिन
पूरब के
मनीषियों के
पास तीन
उम्रों का हिसाब
है। एक उम्र
शरीर की, एक
उम्र मन की और
एक उम्र आत्मा
की। उस आत्मा
की उम्र का
कोई हिसाब
नहीं है। वह
एक दिन के
बच्चे के पास
भी उतनी ही
पुरानी है, जितनी किसी
वृद्ध के पास
है। आत्मा की
उम्र की
दृष्टि से हम
सब समवयस्क हैं।
हम सब की उम्र
समान है।
तो
नचिकेता पूछ
रहा है, आत्मा की
उम्र से। उसकी
मानसिक—उम्र
भी बड़ी प्रगाढ़
रही होगी।
क्योंकि वह जो
सवाल उठा रहा
है, वे खबर
देते हैं इस
बात की कि
उसके सवाल गहन
अनुभव से
निकले हुए हैं।
बूढ़ों
को देखें, बच्चों
को देखें।
बच्चों में
जरूर कभी कोई
बूढ़ा मिल
जाएगा। और को
में तो अक्सर
बहुत से बच्चे
मिलेंगे।
फर्क हो जाते
हैं उम्र के
साथ, पर
फर्क ऊपरी हैं।
छोटे बच्चे, छोटे लड़के
और लड़कियां
अपने गुड्डे—गुड्डियों
का विवाह कर
रहे हैं; बड़े—बूढ़े
रामलीला कर
रहे हैं!
रामचंद्र जी
बनाए हैं, सीताजी
बनाई हैं, विवाह
हो रहा है, जुलूस
निकल रहा है।
मन की उम्र
नहीं बढ़ी। मन
की उम्र वही
की वही है।
गुड्डे—गुड्डी
थोड़े बड़े हो
गए हैं, उनका
नाम राम—सीता
रख लिया है।
लेकिन विवाह
करने का
गुड्डे—गुड्डियों
का मजा वही है।
जुलूस निकल
रहा है।
शोभायात्राए
हो रही हैं।
अभी तो सारे
मुल्क में हो
रही हैं। अभी
तो दिन हैं
बूढ़े बच्चों
के! शादी का
मजा ले रहे
हैं! शादी
करवाने का मजा
ले रहे हैं!
बारात में
सम्मिलित हो
रहे हैं!
निश्चित
ही के जब
बच्चों जैसा
काम करते हैं
तो उसको
रेशनलाइज
करते हैं, उसके
आसपास तर्क
बिठाते हैं।
नहीं तो उनको
अपने बूढेपन
पर शर्म मालूम
होगी। उनको
बेचैनी लगेगी।
छोटे
बच्चे छोटी—छोटी
चीजों पर लड़ते
हैं। बड़े—बूढ़े
भी कुछ बड़ी
चीजों पर लड़ते
हुए मालूम
नहीं पड़ते।
छोटी ही उनकी
लड़ाइयां हैं।
लेकिन उम्र
बड़ी होने के
कारण अपनी
छोटी बातो को
वे बड़ा करके
दिखलाते हैं।
अभी
एक दिन मैं
निकला, चौपाटी के
पास से गुजर
रहा था, मैंने
देखा कि वहा
स्कूल के
बच्चे भी
इकट्ठे हैं
चौपाटी पर, बड़े नेता भी
मौजूद हैं, और सब मिलकर
गीत गा रहे
हैं—झंडा ऊंचा
रहे हमारा।
बचकानी
बुद्धि की बात
है। और झंडा
क्या है! एक
डंडे पर कपड़ा
बाधा हुआ है; धारणा जोड़ी
हुई है। उस
झंडे के पीछे
जानें चली
जाएंगी। वह
झंडा नीचा हो
जाए तो सैकड़ों
गर्दनें कट जाएंगी!
और दूसरे का
झंडा ऊंचा न
होने पाए, और
अपना झंडा
ऊंचा रहे।
छोटे
बच्चे अपने
बाप के पास
खड़े हो जाते
हैँ कुर्सी पर, और कहते
हैं कि मैं
तुमसे बड़ा हूं—यह
झंडा ऊंचा रहे
हमारा..। बाप
मुस्कुराता
है, अगर
समझदार है।
नहीं तो वह भी
चोट खाता है।
वह भी खड़ा हो
सकता है कि
नहीं, मैं
तुमसे बड़ा हूं।
यह
मैं बड़ा हूं
यह खोज ही
बचकानी है।
मगर बड़े इस
बचकानी खोज के
लिए तर्क देते
हैं। वे ढंग
से बताते हैं।
वे ऐसा नहीं
कहते कि मैं
बड़ा हूं। ऐसा
कहना बहुत छोटापन
मालूम पड़ेगा।
वे कहते हैं, मेरा
राष्ट्र महान
है। लेकिन
मेरा राष्ट्र
महान क्यों है?
क्योंकि
मैं इस
राष्ट्र में
पैदा हुआ हूं।
मेरी वजह से।
मैं अगर
पाकिस्तान
में पैदा होता,
तो
पाकिस्तान
महान होता। और
मैं अगर
अफगानिस्तान
में पैदा होता,
तो
अफगानिस्तान
महान होता।
जहां मैं हूं
वही राष्ट्र
महान होता है।
मेरा धर्म
महान है। मेरा
शास्त्र, मेरी
गीता, मेरे
पुराण, मेरे
तीर्थंकर, मेरे
भगवान, मेरे
अवतार, वे
बड़े हैं। उनके
पीछे आड़ में
हम बड़े हो
जाते हैं। और
यह पागलपन
सारी दुनिया
में सभी के
ऊपर है।
ऐसा
लगता है, मनुष्यता
अभी तक प्रौढ़
नहीं हुई।
पूरी
मनुष्यता की
औसत उम्र दस
साल के करीब
है। इसलिए
इतने युद्ध
होते हैं, इतनी
मूढ़ताएं होती
हैं। निपट
अज्ञान से भरा
हुआ सारा
व्यवहार है।
अगर
बूढ़े बचकाना
व्यवहार करते
हैं, तो
कभी—कभी कोई
बच्चा
वृद्धों जैसा
गौरवपूर्ण
व्यवहार भी
करता है। वह
दूसरी
संभावना ही
नचिकेता का
सार है। अब हम
सूत्र में
प्रवेश करें—
नचिकेता
तीसरा वर
मांगते हुए
कहता है : मरे
हुए मनुष्य के
विषय में यह
संशय है— कोई
तो यों कहते
हैं कि मरने
के बाद आत्मा
रहता है। और
कोई ऐसा कहते
हैं कि नहीं
रहता है। आपके
द्वारा उपदेश
पाया हुआ मैं
इसका निर्णय
भलीभांति समझ
लूं यही तीनों
वरों में
तीसरा वर है।
सारे
धर्म की खोज
यही है। इस एक
बिंदु पर ही
सारे धर्मों
का अंतस्तल टिका
हुआ है कि
क्या शरीर की
मृत्यु
मनुष्य की मृत्यु
है? क्या
मर जाने के
बाद सभी कुछ
मर जाता है, या कुछ शेष
रहता है? और
यह इतना
केंद्रीय
सवाल है कि इस
पर सभी कुछ
निर्भर है।
जीवन के सारे
मूल्य, जीवन
का सारा अर्थ,
प्रयोजन, अभिप्राय, जीवन की
सारी गरिमा, गीत, गौरव,
सभी कुछ इस
एक बात पर
निर्भर है कि
क्या शरीर के
साथ सब कुछ
समाप्त हो
जाता है?
अगर
शरीर के साथ
सभी कुछ
समाप्त हो
जाता है तो न
नीति में कोई
अर्थ है, न धर्म में
कोई अर्थ है।
न अच्छाई है
फिर कुछ, न
बुराई है फिर
कुछ। क्योंकि
अच्छे भी
मिट्टी में
मिल जाते हैं,
बुरे भी
मिट्टी में
मिल जाते हैं।
अच्छे आदमी की
मिट्टी में और
बुरे आदमी की
मिट्टी में
कोई गुणात्मक
फर्क नहीं
होता। एक चोर
और एक साधु के
मरे हुए शरीर
में कोई भी तो
भेद नहीं है।
और अगर चोर भी
वहीं पहुंच
जाता है और
साधु भी वहीं
पहुंच जाता है,
मिट्टी में,
और दोनों
समान हो जाते
हैं, तो
दोनों के जीवन
में जो भेद था
वह काल्पनिक था।
क्योंकि
मृत्यु ने
प्रगट कर दिया
कि सब भेद काल्पनिक
थे। तुम अच्छे
थे कि बुरे, दो कौड़ी की
बात है। अगर
मृत्यु के साथ
सब कुछ समाप्त
हो जाता है, तो इस जगत
में कोई नैतिक,
कोई
धार्मिक, किसी
मूल्य का, किसी
वैज्यू का कोई
अर्थ नहीं है।
फिर बेईमानी
और ईमानदारी
समान हैं। फिर
हत्या और
जीवनदान
बराबर हैं।
फिर हिंसा और
अहिंसा में
कोई भी फर्क
नहीं है। फिर
सत्य और असत्य
में क्या भेद
है? फिर
मैं अच्छा
रहूं या बुरा
रहूं जब अंत
में सब समान
ही हो जाता है,
और अच्छे और
बुरे दोनों ही
मिट्टी में
मिलकर खो जाते
हैं, तो
अच्छे होने की
सारी
आधारशिला गिर
जाती है।
सारी
साधुता एक ही धारणा
पर टिकी है कि
शरीर के साथ
सब समाप्त नहीं
होता। और जीवन
का अर्थ इसी
बात पर निर्भर
है कि शरीर जब
गिरता है तो
कुछ बिना गिरा
भी शेष रह
जाता है। शरीर
जब मिटता है
मिट्टी में, तो सभी
कुछ मिट्टी
में नहीं
गिरता। कुछ
मेरे भीतर, कोई ज्योति,
किसी और
यात्रा पर निकल
जाती है। मैं
बचता हूं किसी
अर्थों में।
अगर
मैं बचता हूं
तो ही मेरे
जीवन का भेद
बचता है। अगर
मैं ही नहीं
बचता, तो
क्या भेद है? फिर तो शायद
जिन्हें हम
बुरा कहते हैं
वे ही ज्यादा
समझदार हैं।
जिन्हें हम
भला कहते हैं
वे नासमझ हैं।
अगर
आत्मा भी
मरणधर्मा है, तो साधु
मूढ़ हैं, ध्यानी
अज्ञानी हैं।
मंदिरों में
पागलों की
जमात है।
मस्जिदों में
नमाज पढ़ते हुए
लोग
विक्षिप्त हैं।
क्योंकि वे जो
भी कर रहे हैं,
वह किसी
अर्थ का नहीं
है। फिर आप
प्रार्थना
करें या जुआ
खेलें, बराबर
है।
आत्मा
अगर बचती है
शरीर के बाद, तो ही
मंदिर और
मस्जिद और
गुरुद्वारा; कुरान और
बाइबिल और वेद
कुछ अर्थ रखते
हैं। महावीर,
बुद्ध, कृष्ण
और क्राइस्ट
और मुहम्मद
में कुछ भेद
है, कुछ
राज है उनके
पास। वे किसी
महान जीवन की
कुंजी की खोज
कर रहे हैं।
लेकिन
अगर शरीर के
साथ सब समाप्त
हो जाता है, तो कैसी
कुंजी और किसकी
खोज! तब जीवन
एक व्यर्थ
दौड़धूप है।
शेक्सपियर
का वचन बड़ा
महत्वपूर्ण
है—ए टेल
टोल्ड बाइ एन
ईडिएट, फुल आफ
क्यूरी एंड
न्वाइज, सिग्नीफाइंग
नथिंग—एक मूढ़
द्वारा कही
हुई कथा जैसा
है जीवन; जिसमें
शोरगुल तो
बहुत है, मतलब
बिलकुल भी
नहीं।
आत्मा
की अमरता, आत्मा का
शेष रहना
शरीरे के पार,
आत्मा का
अतिक्रमण
करना शरीर को;
दीया मिट
जाए लेकिन
ज्योति बचती
है; यह
सवाल नचिकेता
उठाता है।
नचिकेता कहता
है, बड़ा
संशय है। कोई
कहता है कि
आत्मा बचती है
और कोई कहता
है कि आत्मा
नहीं बचती।
मृत्यु के बाद
क्या होता है?
यही मेरा
तीसरा वर है, यही मैं जान
लेना चाहता
हूं।
यही
प्रत्येक जान
लेना चाहता है।
अगर मृत्यु के
बाद कुछ बचता
है, तो
अभी भी आपके
भीतर कुछ है।
और अगर मृत्यु
के बाद कुछ भी
नहीं बचता, तो अभी ची
आपके भीतर कुछ
भी नहीं है।
अभी भी आप
खाली, कोरे,
एक यंत्रवत।
एक यंत्र से
ज्यादा नहीं
हैं। आप अभी
भी नहीं हैं—अगर
मृत्यु के बाद
आप नहीं
बचेंगे। तो
धोखा है, आपको
सिर्फ खयाल है
कि आप हैं—अगर
आप पदार्थ का
एक जोड़ हैं, और एक
रासायनिक
व्यवस्था हैं,
और एक यंत्र
की भाति चल
रहे हैं।
एक
कार चल रही है, एक घड़ी चल
रही है, एक
मशीन चल रही
है, लेकिन
हम यह नहीं कह
सकते कि मशीन
है। मशीन
सिर्फ एक जोड़
है। कल—पुर्जे
अलग कर लेंगे,
कुछ भी पीछे
बचेगा नहीं।
आदमी
भी क्या एक
जोड़ है, कि सारे कल—पुर्जे
अलग कर लें तो
भीतर कुछ भी न
बचे? क्योंकि
मृत्यु कल—पुर्जे
अलग करेगी। और
अगर भीतर कुछ
भी नहीं बचता,
आप सिर्फ एक
जोड़ है—तो आप
थे ही नहीं।
आपका होना ही
नहीं है। आप
सिर्फ खयाल
में हैं। एक
वहम है होने
का।
न
तो आपकी
बुद्धि से पता
चलता है कि
आपके भीतर आत्मा
है। क्योंकि
आप जितनी
बुद्धिमानी
का काम करते
हैं, उससे
ज्यादा
बुद्धिमानी
का काम करने
वाले यंत्र, कंप्यूटर
खोज लिए गए
हैं। आप जितनी
कुशलता से काम
करते हैं, उससे
कुछ आत्मा का
पता नहीं चलता,
क्योंकि
यंत्र की
कुशलता आप
नहीं पा सकते।
यंत्र ज्यादा
कुशल है। और
इसलिए जहा भी
ज्यादा
कुशलता की
जरूरत होती है,
वहां आदमी
का भरोसा नहीं
किया जा सकता।
वहा यंत्र का
भरोसा करना
होता है।
आपकी
खूबी क्या है? कि आप
गणित कर लेते
हैं? कि आप
भाषा बोल लेते
हैं? ये सब
काम यंत्र कर
सकते हैं।
उन्होंने
करीब—करीब
करना शुरू कर
दिया है। आदमी
की विशिष्टता,
यंत्रों से,
इसमें नहीं
है कि वह
बुद्धिमान है '
आइंस्टीन
भी जो काम कर
रहा है, वह
काम भी उससे
ज्यादा
कुशलता से एक
कंप्यूटर कर
सकता है। तो
फिर आपका
मस्तिष्क एक
यंत्र, कंप्यूटर
से ज्यादा
नहीं है। आप
भी एक यंत्र
हैं।
आदमी
बच्चे पैदा
करता है।
लेकिन अभी
वैज्ञानिकों
ने ऐसे यंत्र
विकसित किए
हैं, जो
अपने बच्चे
पैदा कर सकते
हैं। यंत्र
खुद ही अपने
जैसा यंत्र
अपने भीतर से
पैदा कर सकता
है, निर्मित
कर सकता है।
तब फिर वह भी
कोई बड़ी बात
नहीं रह गई।
यंत्र अपने
जैसा यंत्र
स्वयं ही
निर्मित कर सकता
है, आटोमैटिक।
और ऐसी भी
व्यवस्था की
गई है कि वह
आने वाले यंत्र
में, जो
उससे पैदा
होगा, अपने
से श्रेष्ठता
लाए। और इस
तरह हर यंत्र
जो उससे पैदा
होगा, और
आगे पैदा होगा,
वह पिछले से
श्रेष्ठ होता
चला जाएगा।
आपका बेटा
जरूरी नहीं है
कि आपसे
श्रेष्ठ हो।
अक्सर तो ऐसा
नहीं होता।
अच्छे बाप
अक्सर बुरे
बेटों को जन्म
देते हैं।
यंत्र में ऐसी
आंतरिक
व्यवस्था की
जा सकी है कि
वह जो यंत्र
पैदा करे, उससे
श्रेष्ठ हो।
जो —जो उसमें
भूल—चूक थीं, वह उसमें न
हों। फिर उसके
बाद वह जो
यंत्र पैदा
करेगा, वह
और भी श्रेष्ठ
होगा। और एक
ऐसी जगह आ
सकती है कि
यंत्र पैदा
करते—करते
श्रेष्ठतम
यंत्र को पैदा
कर दे, जो
कि आदमी अभी
तक सफल नहीं
हुआ है।
और
आप जिनको सुख—दुख
कहते हैं, वे भी
सारी
यांत्रिक
घटनाएं हैं।
स्किनर
एक बहुत बड़ा
मनसविद है।
स्किनर ने
बहुत से
प्रयोग किए
हैं जिनमें
आपके सुख—दुख
यांत्रिक हैं, इसकी खोज
की है। मनुष्य
जिस सुख को
गहरा से गहरा
जानता है, वह
संभोग का सुख
है। लेकिन
स्किनर, देलगादो
और दूसरे
मनोवैज्ञानिकों
की खोज बड़ी
हैरान करने
वाली है।
चूहों
पर स्किनर और
उसके मित्र
काम कर रहे थे।
उन्होंने
मस्तिष्क में
वे बिंदु खोज
लिए हैं जहां
सुख का अनुभव
होता है—प्लेजर
प्याइंट्स, और वे भी
बिंदु खोज लिए
हैं जहां दुख
का अनुभव होता
है। तो बिजली
का तार जोड़
देते हैं जहां
सुख का अनुभव
होता है। और
उस बिंदु को
अगर बिजली से
छेड़ा जाए, तो
बड़ा सुख मालूम
होता है। दुख
का बिंदु जोड़
दिया जाए
इलेक्ट्रोड
से, तो बड़ा
दुख मालूम
होता है। एक
चूहे पर
स्किनर
प्रयोग कर रहा
था। और संभोग
के क्षण में
चूहे को जो रस
और आनंद मालूम
होता है, वह
मस्तिष्क के
किस हिस्से
में मालूम
होता है उस
हिस्से का
उसने अध्ययन
किया, और
उस हिस्से में
उसने बिजली से
तार जोड़ दिया।
और चूहे को
बटन बता दी, बटन दबाकर।
और जैसे ही
बटन दबाई, चूहा
बड़ा आनंदित
हुआ। फिर तो
चूहे ने खुद
बटन दबाना सीख
लिया। आप चकित
होंगे कि एक
घंटे में चूहे
ने पांच हजार
बार बटन दबाई।
पांच हजार!
रुका ही नहीं,
जब तक कि
बेहोश होकर
नहीं गिर पड़ा।
स्किनर का
कहना है कि
आने वाली सदी
में हम हर आदमी
के खीसे में
रखने वाला
छोटा यंत्र दे
देंगे। पुरुष
को स्त्री की
जरूरत नहीं है,
स्त्री को
पुरुष की
जरूरत नहीं है।
जब भी वह
कामसुख पाना
चाहे, जरा—सा
बटन को दबाए
उसके
मस्तिष्क का
सुख—केंद्र
संचालित हो
जाएगा।
रास्ते पर
चलते हुए आप
संभोग करते
चले जाएंगे।
किसी को पता
भी नहीं चलेगा।
और संभोग के
लिए जो उपद्रव
झेलने पड़ते
हैं—घर—गृहस्थी
बसाओ; एक
स्त्री की
परेशानी भोगो;
एक पति का
उपद्रव झेलो—वह
कुछ भी नहीं।
आप पूरी तरह
मालिक हो जाते
हैं।
ठीक
ऐसे ही दुख के
केंद्र भी
मस्तिष्क में
हैं। स्किनर
कहता है कि वे
काटकर अलग किए
जा सकते हैं।
कोई दुख अनुभव
ही नहीं होगा।
आप सोचते हैं
कि दुख इसलिए
अनुभव होता है
कि दुख है, तो आप गलती
में हैं।
सिर्फ आपके
पास दुख का
केंद्र है, वह अलग कर
दिया जाए, आपको
दुख अनुभव
नहीं होता। जब
आपको मारफिया
दिया जाता है,
या
क्लोरोफार्म
दिया जाता है,
तो दुख का
केंद्र
आच्छादित हो
जाता है।
इसीलिए फिर
आपका हाथ—पैर
भी काटा जाए
तो आपको पता
नहीं चलता।
आपको कोई मार
भी डाले तो
पता नहीं चलता।
ये
सारे केंद्र
यांत्रिक हैं।
और आप जानकर
हैरान होंगे
कि ये नई
खोजें आदमी को
बड़ी खतरनाक
स्थिति में ले
जाएंगी।
देलगादो
ने रेडियो के
द्वारा दूर से
लोगों के मन
को संचालित
करने के
प्रयोग किए
हैं। तो उसने
एक सांड को, उसके
मस्तिष्क में
इलेक्ट्रोड
डाल दिए... और आप
जानकर चकित होंगे
कि आपके
मस्तिष्क के
भीतर अगर कोई
चीज डाल दी
जाए तो आपको
पता नहीं
चलेगा। वहां
कोई संवेदना
नहीं है। अगर
आपके ब्रेन की
सर्जरी की जाए
और वहा कोई चीज
छोड़ दी जाए—लोहे
का एक टुकड़ा—तो
आपको कभी पता
नहीं चलेगा कि
वहा लोहे का
टुकड़ा पड़ा है।
क्योंकि आपके
मस्तिष्क में
संवेदन अनुभव
करने वाले कोई
स्नायु नहीं
हैं।
यह
बड़ी हैरानी की
बात है कि
मस्तिष्क सब
कुछ अनुभव
करता है, लेकिन भीतर
उसके पास कोई
स्नायु नहीं
हैं। इसलिए तो
आपको
मस्तिष्क के
भीतर क्या चल
रहा है, उसका
पता नहीं चलता।
बहुत बड़ा
काम
चल रहा है।
बड़ी फैक्ट्री
है। कोई सात
करोड़ स्नायु
हैं। चौबीस
घंटे वहां
विद्युत की
तरह भाग—दौड़
चल रही है।
आपको पता नहीं
चलता है।
एक
सांड के
मस्तिष्क में
देलगादो ने एक
इलेक्ट्रोड
रख दिया और उस
इलेक्ट्रोड
का संबंध उसके
रेडियो से है।
और वह उस रेडियो
के द्वारा उस
सांड को
संचालित करने
लगा। जब वह
रेडियो में उस
बटन को दबाएगा
जिससे सांड को
क्रोध आना
चाहिए, तो सांड
एकदम फुफकार
मारकर क्रोध
से भर जाएगा।
बीच में तार
भी नहीं जुड़ा
है, वायरलेस
से संबंधित है।
हजारों मील
दूर भी बैठा
हो देलगादो तो
वहां से वह सांड
कों—सांड
माउंट आबू में
हो और देलगादो
अमरीका में—तो
वहां से वह
उसको क्रोधित
कर सकता है।
सिर्फ बटन
दबाने की बात
है कि वह
क्रोध में आ जाएगा;
फुफकार
मारेगा और जो
भी आसपास होगा,
हमला कर
देगा।
उसने
जब अपने
प्रयोग का
प्रदर्शन
किया यूरोप में—स्पेन
में—तो लोग चकित
हो गए। लाखों
लोग देखने
इकट्ठे हुए थे।
सांड फुफकार
मारकर भागा, क्योंकि
देलगादो भी था
वहां मैदान
में। वह हाथ
में अपना
रेडियो लिए
खड़ा हुआ है।
वह ठीक उसके
पास आ गया, एकदम
घबड़ाहट का
क्षण था, कि
वह अपने सींग
घुसेड़ देगा
उसके पेट में,
तभी उसने
बटन दबाई। साड
वहीं शांत हो
गया, एक
फीट दूरी पर।
खड़ा हो गया, जैसे एकदम
ध्यान में चला
गया!
यह
इतनी खतरनाक
स्थिति है कि
इसका आज नहीं
कल राजनीतिज्ञ
उपयोग करेंगे।
बच्चों को
अस्पताल में
पैदा होने के
साथ ही इलेक्ट्रोड
डाले जा सकते
हैं, जिनका
उनको कभी पता
नहीं चलेगा।
सिर्फ दिल्ली
से बटन दबाने
की जरूरत है
कि सब लोग कहेंगे—झंडा
ऊंचा रहे
हमारा!
जरूर
तानाशाही
हुकूमतें
इसका उपयोग
करेंगी। कि
मुल्क भूखा मर
रहा हो तो भी
कोई फिक्र
नहीं। लेकिन
मुल्क के अगर
सुख के संवेदन
को संचालित
किया जा सके, तो भूखे
लोग भी आनंद
से भर जाएंगे।
कितने ही आप
सुखी हों, अगर
आपके दुख के
केंद्र को
संचालित किया
जा सके, आप
तज्क्षण
दुखी हो
जाएंगे। तो
सुख—दुख भी
आपकी आत्मा की
खबर नहीं देते।
सिर्फ आपके
यांत्रिक
मस्तिष्क की
खबर देते हैं।
सिर्फ एक ही
संभावना है
जिससे आदमी
यंत्रवत नहीं
है, और सभी
स्थितियों
में हम यंत्रवत
हैं। शरीर है
भी यंत्र, लेकिन
उसके भीतर जो
छिपा है, वह
यंत्र नहीं है।
शरीर है भी एक
बहुत
काप्लिकेटेड,
बहुत
सूक्ष्म
नाजुक यंत्र।
मालिक भीतर
छिपा है।
नचिकेता
पूछता है कि
यह मेरा तीसरा
वरदान है कि
मैं जानना
चाहता हूं कि
जब यह सारा
यंत्र—शरीर
गिर जाएगा, तब भी मैं
बचता हूं या
नहीं? संशय
है बहुत, क्योंकि
कुछ कहते हैं
कि कोई बचता
है पीछे; और
कुछ कहते हैं,
कोई भी नहीं
बचता।
यमराज
को विचार हुआ
कि अनधिकारी
के प्रति आत्मतत्व
का उपदेश करना
हानिकर होता
है
यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है।
अनधिकारी के
प्रति, अपात्र के प्रति
आत्मतत्व का
उपदेश हानिकर
होता है। असल
में जो
अनधिकारी है,
वह सत्य का
उपयोग भी हानि
के लिए ही
करेगा। जो
अधिकारी है वह
असत्य का
उपयोग भी
कल्याण के लिए
करेगा।
आपको
जो शिक्षा दी
जाती है वह
शिक्षा
मूल्यवान
नहीं है, आपका
अधिकारी और
अनधिकारी
होना
मूल्यवान है।
उदाहरण के लिए,
अनधिकारियों
ने सभी
शिक्षाओं का
दुरुपयोग किया
है। इस देश
में हमने
पुनर्जन्म की
शिक्षा दी।
उनका प्रयोजन
था कि तुम जिस
सुख की तलाश
कर रहे हो, वह
व्यर्थ है।
तुम बहुत बार
उसकी तलाश कर
चुके हो, और
बहुत बार
तुम्हें वह
सुख मिल भी
चुका है, फिर
भी तुमने कुछ
नहीं पाया।
न—मालूम कितनी
बार तुम
स्त्रियों से
प्रेम जुटा
चुके हो, पुरुषों से
प्रेम बांध
चुके हो। न—मालूम
कितने महल
तुमने बनाए, न—मालूम
कितनी धन—संपत्तियां
इकट्ठी की हैं,
और हर बार
तुम दुखी मरे
हो। और वही
तुम फिर कर
रहे हो!
यह
स्मरण आ जाए
कि यही मैं
बहुत बार कर
चुका और कुछ
भी न पाया, और यही
मैं फिर कर
रहा हूं? तो
हाथ रुक
जाएंगे।
लेकिन
अनधिकारियो
ने क्या क्लि।? उन्होंने
कहा कि जब
बहुत जन्म हैं,
तो जल्दी
क्या है? आत्मतत्व
को खोज लेंगे
कभी भी। भोग
तो क्षणभंगुर
हैं, अगर न
खोज पाए अभी, तो खो
जाएंगे। यह
आत्मतत्व तो
शाश्वत है, मिटता नहीं,
बार—बार
जन्म लेता है।
इस जन्म में न
मिली समाधि तो
अगले जन्म में
मिल जाएगी।
जल्दी जरा भी
नहीं है।
अनधिकारी ने
जो अर्थ
निकाला...।
अधिकारी ने
कहा था कि तुम
ऊब जाना, अनधिकारी
ने सोचा कि
जल्दी नहीं
है!
इसलिए
आप हैरान
होंगे कि पूरब
के मुल्कों
में टाइम काशसनेस
नहीं है; समय की कोई
प्रतीति नहीं
है। एक आदमी
आपसे कहता है
कि मैं पांच
बजे आऊंगा। वह
दस बजे रात तक
न आए! समय का
कोई बोध नहीं
है, क्योंकि
समय अनंत है।
बोध तो तब
होता है, जब
चीजें कम होती
हैं। गरीब को
धन का बोध होता
है। एक पैसा
खो जाए तो पता
चलता है, क्योंकि
इतना कम है।
कुबेर को क्या
बोध होगा, एक
पैसा खो जाए
तो कुछ भी
नहीं खोता।
करोड़ भी खो
जाएं तो भी
कुछ नहीं खोता,
क्योंकि
अनंत धनराशि
है। पूरब के
मुल्कों में
समय की धारणा
नहीं है।
इसलिए पूरब के
मुल्क घड़ी की
ईजाद न कर सके।
वह पश्चिम को
करनी पड़ी।
पश्चिम में
समय का बोध है।
समय भाग। जा
रहा है। और
समय थोड़ा है।
क्योंकि जीसस
और मुहम्मद ने
जो शिक्षा दी,
और मोजेज ने,
वह यह थी कि
एक ही जन्म है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है।
उन्होंने भी
शिक्षा
इन्हीं
अनधिकारियो
को देखकर दी, क्योंकि
पूरब में गलती
हो चुकी थी।
पूरब भूल कर
चुका था। अनंत
जन्मों की बात
करके नासमझ
बड़े मजे में हो
गए थे। तो
पश्चिम में..
पश्चिम के
धर्म बाद में
पैदा हुए पूरब
के धर्मों से,
इसलिए पूरब
में जो भूल हो
गई थी उससे
उन्होंने
बचना चाहा।
लेकिन उन्हें
पता नहीं कि
अनधिकारी बड़ा
कुशल है। आप
उसे बचा ही
नहीं सकते।
अगर खाई से
बचाएंगे, वह
कुएं में कूद
पड़ेगा।
तो
जीसस, मुहम्मद
और मोजेज ने
कहा कि एक ही
जन्म है, यह
पुनर्जन्म
व्यर्थ है, गलत है यह
बात। यह बात
गलत नहीं है।
लेकिन पूरब के
अनधिकारी ने
जो किया था
उसका परिणाम
यह था, कि
यह खतरा
पश्चिम में न
हो जाए। जीसस
ने जोर दिया :
एक ही जन्म है।
इसलिए
तुम्हें जो भी
करना है—ध्यान,
प्रार्थना,
पूजा, जीवन
का रूपांतरण—अभी
कर लो, आगे
समय नहीं है।
इसे तुम
पोस्टपोन मत
करो। इसे तुम
स्थगित मत करो।
एक—एक क्षण
कीमती है।
क्योंकि
दुबारा नहीं
मिलेगा। समय की
संपदा सीमित
है।
अनधिकारी
ने सुना, उसने कहा, अगर समय की
संपदा इतनी
सीमित है तो
जिस आत्मा का
हमें कोई पता
नहीं, और
जिस परमात्मा
की सिर्फ
बातचीत सुनते
हैं, जिसका
हमें कोई
अनुभव नहीं, उस खाली
कल्पना की बात
के लिए हम इस
वास्तविक जगत
को छोड़ दें! और
एक ही जन्म है!
और एक दफा
छूटा तो सदा
के लिए छूटा!
तो
पश्चिम ने कहा
कि हाथ की आधी
रोटी सपनों की
पूरी रोटी से
बेहतर है। वे
दूर के सपने
पता नहीं हों
या न हों, और जीवन
दुबारा नहीं
है। इसलिए भोग
लो। इसलिए
सारा पश्चिम
जीसस, मोजेज,
और मुहम्मद
की शिक्षाओं
का जो फायदा
उठाया, वह
यह है कि भोगो,
क्योंकि
समय बहुत कम
है। जितने
जल्दी
भोग
लो, जितने
ज्यादा भोग लो।
और मृत्यु के
बाद का किसको
पता है! इसलिए
उस अंधेरे की
बात के लिए, जो रोशनी
में मिल रहा
है उसे छोड़ना
उचित नहीं है।
इसलिए
पश्चिम में—बुद्ध, कृष्ण, महावीर की
शिक्षाओं से
जो भूल भारत
में हुई थी—ठीक
वही भूल, ठीक
उलटी शिक्षा
जीसस ने और
मुहम्मद ने और
मोजेज ने दी, पश्चिम में
हुई। पूरब
भोगता है
इसलिए कि बहुत
जन्म हैं, जल्दी
क्या है!
पश्चिम भोगता
है इसलिए कि
इतना कम समय
है कि भोग
छोड़ा नहीं जा
सकता! और बाकी
बातें इतनी
अंधेरे में
हैं कि उनका
कोई भरोसा नहीं
है।
बड़े
मजे की बात है—शिक्षा
कोई भी हो, अनधिकारी
हमेशा हानि ही
उठाता है।
यम
सोचने लगा कि
नचिकेता अभी
इतना छोटा है, उम्र
इसकी कम है, नासमझ है—निर्दोष
है, शुद्ध
है, लेकिन
अनुभव नहीं है।
इस अनधिकारी
को मैं
आत्मतत्व की
बात कहूं तो कहीं
कोई खतरा न हो,
कहीं यह कोई
अपने मतलब न
निकाल ले।
बहुत
से ज्ञानी चुप
रह गए हैं, आपके डर से!
इसलिए नहीं कि
वे जो कहना
चाहते थे वह
बिलकुल कहा
नहीं जा सकता।
कहना कठिन है,
लेकिन कहा
जा सकता है।
लेकिन आपके डर
से! क्योंकि
आपसे कुछ भी
कहो, आप
उससे वही
निकाल लेंगे
जो नर्क की
तरफ ले जाता
है। बहुत
ज्ञानी चुप रह
गए। लेकिन
उनकी चुप्पी
से कोई फर्क
नहीं पड़ता, आप उनकी
चुप्पी से भी
वह मतलब निकाल
लेते हैं, जो
उनका कभी नहीं
था। इसलिए
बहुत ज्ञानी
बोले कि कहीं
चुप्पी से आप
कुछ मतलब न
निकाल लो, जो
और भी खतरनाक
होगा। बुद्ध
चुप रह गए, बहुत
से सवालों के
जवाब नहीं दिए।
सिर्फ इसलिए
कि उन सवालों
के जवाब
अनधिकारियो
को बड़े उपद्रव
में ले जाएंगे।
बुद्ध के मरते
ही बुद्ध के
संप्रदाय
पच्चीस हो गए।
क्योंकि अलग—अलग
अनधिकारियो
ने चुप्पी का
अलग—अलग मतलब
निकाला। अगर
बुद्ध कुछ
बोले होते तो
भी ठीक था। अब
तो कुछ था ही
नहीं, बुद्ध
चुप क्यों रहे,
इसका चिंतन
करना शुरू
किया। किसी ने
कहा कि बुद्ध
इसलिए चुप रहे
कि आत्मा के
संबंध में कुछ
कहा नहीं जा
सकता। किसी ने
कहा, बुद्ध
इसलिए चुप रहे
कि आत्मा है
ही नहीं, बोलना
क्या है!
आप
मौन के भी तो
अर्थ
निकालेंगे ही।
तो कुछ ज्ञानी
इस डर से कि आप
मौन से कुछ
गलत अर्थ न
निकालें, बोलते रहे।
आप बोलने से
भी गलत अर्थ
निकाल लेते
हैं। ज्ञानी
की बड़ी मौत है।
वह जो भी
कहेगा..!
यम
सोचने लगा कि
इस नचिकेता को
मैं कहूं या न
कहूं! पहले
उसने टालने की
कोशिश की।
कोई
भी गुरु यही
कोशिश करेगा।
और जो गुरु
टाले न, समझना कि
अभी गुरु के
योग्य नहीं है।
टालने की कोशिश
करेगा, क्योंकि
अगर तुम राजी
हो जाओ छोटी
चीजों से तो
वह खबर देती
है कि तुम
अपात्र थे।
तुमने मांगा
हीरा, तुम
मांगते थे
कोहनूर, और
एक कंकड़ उठाकर
दे दे गुरु, और तुम उससे
राजी हो जाओ, समझ लो कि यह
कोहनूर है, तो इसका
अर्थ यह हुआ
कि कोहनूर के
तुम पात्र न थे
और देना भूल
हो जाती।
जो
कंकड़ को
कोहनूर समझ ले, वह किसी
भी दिन कोहनूर
को कंकड़ समझ
सकता है।
उसमें जरा भी
भेद नहीं है।
उसके पास बोध
भी नहीं है, परख भी नहीं
है, कसौटी
भी नहीं है।
कशिश... न, उसके
पास कुछ भी
नहीं है।
तो
यम नचिकेता से
कहने लगा— हे
नचिकेता! इस
विषय में पहले
देवताओं ने भी
संदेह किया था
परंतु उनकी भी
समझ में नहीं
आया। क्योंकि
यह विषय बड़ा
सूक्ष्म है और
सहज ही समझ
में आने वाला नहीं
है, इसलिए
तू दूसरा वर
मांग ले मुझ
पर दबाव मत
डाल। इस
आत्मज्ञान
संबंधी वर को
तू छोड़ दे।
बहुत
बातें
महत्वपूर्ण
कही हैं। एक, कि
देवताओं तक को
इसमें संदेह
है। जो स्वर्ग
में बसे हैं, जो सुख में
जी रहे हैं
प्रतिपल, वे
तक संदिग्ध
हैं। तो तू तो
पृथ्वी पर
रहने वाला है,
तू इस उलझन
में मत पड़। जो
सब तरह शुभ हो
गए हैं, जिन्होंने
सब शुभ कर्मों
का संचय कर
लिया है, वे
भी संदिग्ध
हैं—देवता भी
संदिग्ध हैं,
उन्हें भी
पक्का पता
नहीं है—तो तू
इस चिंता में
मत पड़।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ, तो कहते
हैं, खुद
ब्रह्मा
बुद्ध के
चरणों में आया,
और उसने कहा
कि मुझे भी
बताएं। माना
कि मैंने
दुनिया को
बनाया है, लेकिन
मुझे भी यह
पता नहीं कि
जब सब समाप्त
हो जाता है, तो क्या
बचता है? तो
ब्रह्मा भी एक
बड़ा इंजीनियर
है, बड़ा
शक्तिशाली है
संसार को
बनाता है, लेकिन
वह भी पूछता
है कि प्रलय
के बाद कुछ
बचता है या
नहीं? और
मेरे भीतर जो
छिपा है वह
अमरत्व है या
मरणधर्मा है?
महावीर
के जीवन में
कथाएं है—कि
महावीर को
सुनने वाले
बहुत तरह के
लोग थे। उनमें
मनुष्य थे, उनमें
देवता थे, उनमें
पशु—पक्षी थे।
देवता महावीर
को सुनने
किसलिए आते
होंगे? देवता
को तो कम से कम
पता होना
चाहिए। लेकिन
देवता की
हमारी धारणा
समझ लें।
नर्क
है उन लोगों
का जिन्होंने
जीवन में मूर्च्छा
से ही सब कुछ
किया।
जिन्होंने
जीवन में पाप
ही पाप किया, जिन्होंने
दूसरे को दुख
पहुंचाने में
ही अपना सुख
माना, नर्क
है उनका।
स्वर्ग है
उनका, जिन्होंने
दूसरे को सुख
पहुंचाने में
ही अपना सुख
समझा। जो
पुण्य में जीए।
लेकिन
ध्यान रहे, नर्क और
स्वर्ग में एक
बात समान है.
दोनों का ध्यान
दूसरे पर है।
दूसरे को दुख
पहुंचाने में
जिसने अपना
सुख समझा, उसका
है नर्क।
दूसरे को सुख
पहुंचाने में
जिसने अपना
सुख समझा, उसका
है स्वर्ग।
लेकिन दोनों
का ध्यान
दूसरे पर है।
देवता भी उतने
ही भ्रमित हैं,
जितने
नारकीय
व्यक्ति।
दूसरे पर ही
नजर है।
ज्ञानी
का अर्थ है, वह जिसकी
नजर 'दूसरे
से हट गई। न जो
दूसरे को दुख
पहुंचाने में
उत्सुक है और न
दूसरे को सुख
पहुंचाने में
उत्सुक है। जो
अपने को जगाने
में उत्सुक है।
इसलिए
हमारे पास तीन
शब्द हैं—नर्क, स्वर्ग
और मोक्ष।
मोक्ष
स्वर्ग का नाम
नहीं है।
मोक्ष वह है
जहां व्यक्ति
दूसरे से पूरी
तरह मुक्त हो
गया, जहां
व्यक्ति
स्वयं में
पूरी तरह ठहर
गया, स्वयं
सिद्ध हो गया।
जहा व्यक्ति
ने स्वयं के
होने की
पूर्णता पा ली
और जान ली, वहां
व्यक्ति
मुक्त है।
देवता
भी मुक्त नहीं
हैं। नर्क में
जो बंधे हैं, वे दुख से
बंधे हैं, उनकी
जंजीरें लोहे
की हैं।
स्वर्ग में जो
बंधे' हैं,
वे पुण्य से
बंधे हैं, उनकी
जंजीरें सोने
की हैं। पर
जंजीरें
दोनों की हैं।
देवता
भी इस संबंध
में संदिग्ध
हैं यम ने
नचिकेता को
कहा और यह
विषय बड़ा
सूक्ष्म है
सहज ही समझ
में आने वाला
नहीं है
सच
तो यह है कि
समझ में आने
वाला ही नहीं
है। और जब तक
समझ रहती है
तब तक समझ में
नहीं आता। समझ
जब छूटती है, सोच—विचार
जब छूटता है, जब बुद्धि
का भरोसा चला
जाता है, तब
समझ में आता
है। यही उलझन
है। और यही
पात्रता—अपात्रता
३ बीच भेद—रेखा
है। जब तक आप
सोचते हैं, जब तक आप विचारते
हैं, जब तक
आप तर्क से
चलते हैं, जब
तक आप बुद्धि
को परम मानते
हैं, तब तक
मृत्यु के पार
क्या है वह
समझ में न आ
सकेगा।
बुद्धि
की सीमा—रेखा
पदार्थ है।
बुद्धि जान
सकती है
आब्जेक्ट को, विषय को।
बुद्धि नहीं
जान सकती
सब्जेक्ट को,
विषयी को।
बुद्धि देखती
है बाहर, भीतर
नहीं देख सकती।
आप चश्मा
लगाते हैं तो
बाहर देखने के
काम आता है, सपने में
कोई चश्मा
लगाने की
जरूरत नहीं
पड़ती। भीतर
देखने के लिए
चश्मा काम
नहीं आता।
बुद्धि
ठीक बाहर
देखने की
व्यवस्था है।
मुझे आपको
देखना है, तो मैं
बुद्धि से
देखूंगा।
मुझे संसार की
खोज करनी है, तो बुद्धि
से करनी पड़ेगी।
इसलिए
विज्ञान
बुद्धि—निर्भर
है। लेकिन
मुझे स्वयं को
देखना है तो
बुद्धि की कोई
भी जरूरत नहीं
है। इसलिए
धर्म
बुद्धिमुक्त
है।
धर्म
है बुद्धि के
पार जाना, विज्ञान
है बुद्धि के
साथ बुद्धि
में जाना।
इसलिए धर्म और
विज्ञान एक—दूसरे
की तरफ विपरीत
खड़े हुए हैं।
विज्ञान धर्म
की बात नहीं
समझ पाता और
धर्म विज्ञान
की बात नहीं
समझ पाता। यह
स्वाभाविक है।
क्योंकि धर्म
का जो साधन है,
वह है
बुद्धि—अतिक्रमण।
और विज्ञान का
जो साधन है, वह है
बुद्धि की
प्रक्रिया।
उनकी
मेथडॉलॉजी, उनकी जो
पद्धति है, वह इतनी
विपरीत है कि
दोनों की
भाषाएं बेबूझ
हो जाती हैं।
यम
कहता है कि
बहुत कठिन है
यह बात, अति सूक्ष्म
है। सहज समझ
में आने वाली
नहीं है। असहज
हो सकें, तो
समझ में आ
सकती है।
बुद्धि की
प्रक्रिया
सहज है।
बुद्धि की
प्रक्रिया को
छोड्कर ध्यान
में लीन हो
जाना बड़ा असहज
है —बुद्धि को
जो लोग जी रहे
हैं उनके लिए।
एक बार जो
ध्यान में
प्रवेश कर
जाता है, उसके
लिए तो ध्यान
सहज हो जाता
है; उसके
लिए बुद्धि
असहज हो जाती
है। लेकिन जब
तक हम बुद्धि
में जीते_ हैं,
तब तक बड़ी
कठिन बात है
ध्यान में
प्रवेश।
यम
कहता है कि
सूक्ष्म है
सहज समझ में
आने वाली बात
नहीं इसलिए तू
दूसरा वर मांग
ले। मुझ पर
दबाव मत डाल।
इस आत्मज्ञान
संबंधी वर को
छोड़ दे
लेकिन
नचिकेता इस
कठिनाई को
सुनकर घबड़ाया
नहीं। न उसका
उत्साह मंद
हुआ वरन उसने
और भी दृढ़ता से
कहा कि हे
यमराज! आपने
जो यह कहा कि
सचमुच इस विषय
पर देवताओं ने
भी विचार किया
परंतु वे भी निर्णय
नहीं कर पाए
और यह सरलता
से जानने योग्य
भी नहीं है।
इतना ही नहीं
इसके सिवाय इस
विषय का कहने
वाला भी आपके
जैसा दूसरा
नहीं मिल
सकेगा। इसलिए
मेरी समझ में
तो इसके समान
दूसरा कोई वर
नहीं है।
निश्चित
ही मृत्यु के
अतिरिक्त और
कौन बता सकेगा
कि मृत्यु के
पार कुछ बचता
है या नहीं? मृत्यु
ही पूछने
योग्य है।
क्योंकि वह
राज उसी को
पता है। और जो
मृत्यु से पूछ
लेता है, उसको
ही पता चलता
है। इसलिए
मैंने कहा, जब तक आप
मरने की कला न
सीख जाएं, तब
तक आपको पता
नहीं चल सकता
कि मृत्यु के
पार कुछ बचता
है या नहीं।
मरने की कला
का अर्थ है. यम
के सामने खड़ा
हो जाना। सीधा
उसी से पूछ
लेना, जो
दरवाजे पर खड़ा
है, जिसके
पास से होकर
सभी को गुजरना
पडा है, बहुत—बहुत
बार। लेकिन
मूर्च्छित, लोग गुजर
जाते हैं। होश
से आप गुजर
जाएं तो
मृत्यु से
प्रश्न पूछा
जा सकता है।
नचिकेता और भी
दृढ़ता से
पूछता है कि
जिसे देवता भी
नहीं जान सके
और जो इतना
कठिन है, तब
तो मैं
छोडूंगा ही
नहीं।
क्योंकि आप
जैसा फिर
बताने वाला
मैं कहां पाऊंगा?
फिर मुझे
कौन बता सकेगा?
देवता बता
नहीं सकते—खुद
संदिग्ध हैं।
बुद्धि से समझ
में आने वाला
नहीं है—बुद्धि
मेरे पास है, लेकिन उससे
समझ में आने
वाला नहीं है,
इसलिए वह
खोज व्यर्थ है।
और आप जैसा
कोई बताने
वाला दुबारा
मैं न पा
सकूंगा, इसलिए
यह वर मैं छोड़
नहीं सकता।
नचिकेता
घबड़ाया नहीं।
निश्चय पर
ज्यों का
त्यों दृढ़ रहा, और एक
परीक्षा में
उत्तीर्ण हो
गया। यम ने
देखा कि
व्यक्ति
संकल्प का है।
सिर्फ कठिनाई
से भाग जाने
वाला नहीं है।
टिक सकता है।
आग में उतरने
की तैयारी है।
तो उसने दूसरी
परीक्षा का
आयोजन किया।
उसने विभिन्न
प्रकार के
प्रलोभन रखे।
उसने
कहा सैकड़ों
वर्षों की आयु
वाले बेटे और
पोतो को तथा
बहुत से गौ
आदि पशुओं को
एवं हाथी स्वर्ण
और घोड़ों को
मांग ले भूमि
के बड़े
विस्तार वाले
साम्राज्य को
ले ले। तू
स्वयं भी
जितने वर्ष तक
जीना चाहे जी।
हे
नचिकेता। धन
संपत्ति और
अनंतकाल तक
जीने के
साधनों को यदि
तू इस
आत्मज्ञान
विषयक वरदान
के समान वर मांग
ले तो तू
पृथ्वीलोक
में बड़े भारी
सम्राट की
स्थिति को
उपलब्ध हो
जाएगा। मैं
तुझे संपूर्ण
भोगों से अति
उत्तम भोगों को
भोगने वाला
बना देता हूं।
यह
समझने जैसा है।
जो व्यक्ति भी
ध्यान में
प्रवेश करते
हैं, वह
क्षण आता है
जब उनकी भोगने
की क्षमता इस
संसार में
सर्वाधिक
तीव्र हो जाती
है। यह कथा ही
नहीं है।
ध्यानी अगर
संभोग करे, तो जैसा रस
पा सकता है
वैसा गैर—
ध्यानी कभी
नहीं पा सकता।
क्योंकि
ध्यानी की
सेसिटीविटी, उसकी
संवेदनशीलता
बड़ी प्रगाढ़ हो
जाती है।
ध्यानी
अगर एक फूल को
सूंघे तो जैसी
सुगंध पा सकता
है, वैसा
गैर— ध्यानी
कभी नहीं पा
सकता है।
क्योंकि गैर—
ध्यानी, फूल
तो सामने होता
है, लेकिन
खुद न—मालूम
कहां होता है।
तो नाक तो गंध
ले लेती है, लेकिन मन उस
गंध को नहीं
ग्रहण कर पाता।
मन तो भटकता
रहता है।
ध्यानी तो
पूरा का पूरा
फूल के पास हो
जाता है। तो
फूल की जैसी
सुगंध ध्यानी
को मिलती है, वैसी गैर—
ध्यानी को
नहीं मिल सकती।
जैसे—जैसे
ध्यान गहरा
होता है, भोग
प्रगाढ़ हो
जाता है। और
ध्यानी चाहे,
आखिरी क्षण
में, जहां
से आत्मा में
छलांग लगती है,
वहां से
शरीर में
छलांग लगा
सकता है।
क्योंकि वहां
भोग इतने गहन
हो जाते हैं
कि यह सवाल
सोचने जैसा हो
जाता है, निर्णय
लेने जैसा, कि अब मैं
आगे बढूं या
रुक जाऊं?
इसलिए
ध्यान की
आखिरी सीढ़ी से
भी लोग गिरते
हैं। और वहां
गिरने का बड़ा
प्रलोभन होता
है, जैसा
प्रलोभन आपको
कभी भी नहीं
है। आप जहां
खड़े हैं वहां
से गिरने का
कोई उपाय नहीं
है, क्योंकि
आप आखिरी जगह
खड़े हैं, उससे
नीचे कोई
गिरने की जगह
नहीं है। वहां
से गिरेंगे भी
तो कहां
जाएंगे! आपको
गिराया नहीं
जा सकता। आप
अपनी संवेदना
की निम्नतम
स्थिति में
खड़े हैं।
जैसे—जैसे
ध्यान बढ़ता है, वैसे—वैसे
इंद्रिया
शुद्ध होने
लगती हैं।
शुद्ध
इंद्रियों के
साथ भोग की
शुद्धता होने लगती
है। वैसे—वैसे
भोग बड़ा सुखद
होने लगता है।
इसलिए मोक्ष
के पहले
स्वर्ग
प्रलोभन बन
जाता है।
मोक्ष की उपलब्धि
के एक क्षण
पहले स्वर्ग
बन जाता है
पूरा जगत। अगर
गिर जाते हैं,
तो उसी गिरे
हुए आदमी को
हम देवता कहते
हैं। अगर उस
वक्त भी
हिम्मत रख
पाते हैं, जो
कि अति कठिन
है, क्योंकि
सारा जीवन एक
संगीत से भर
जाता है। जीवन
से सारे दुख
तिरोहित हो
जाते हैं।
जीवन में कोई पीड़ा
नहीं रह जाती।
रोआं—रोआं
आनंद से थिरक
उठता है। उस
क्षण में
संसार में
वापिस लौट आना
प्रगाढ़ आकर्षण
है। जैसे सारे
जगत का
ग्रेविटेशन, कशिश आपको
खींचती है।
यह
कथा नहीं है।
यह यमराज जो
कह रहा है, यह
प्रतीक है।
यमराज कहता है,
तुझे
सम्राट बना
दूंगा। तूर
जितने जीवन, लंबे जीवन
को चाहता हो, ले ले। तू
जितनी धन—संपत्ति
चाहता हो, मांग
ले। पर इस
वरदान को छोड़
दे।
लेकिन
नचिकेता अपने
निश्चय पर अटल
रहा। प्रलोभन
को और भी
बढ़ाया यमराज
ने। उसने कहा
जो—जो
भोग
मनुष्यलोक
में दुर्लभ
हैं उन
संपूर्ण भोगों
को
इच्छानुसार मांग
ले। रथ और
नाना प्रकार
के वाद्यों
सहित स्वर्ग
की अप्सराओं
को अपने साथ
ले जा।
मनुष्यों को
ऐसी
स्त्रियां
अलभ्य हैं
मेरे द्वारा
दी हुई इन
स्त्रियों को
तू भोग! इनसे
सेवा ले। पर
हे नचिकेता!
मरने के बाद
आत्मा का क्या
होता है इस
बात को मत पूछ।
यह स्वर्ग का
प्रलोभन है
मोक्ष के पहले।
परंतु
नचिकेता दृढ़
रहा, जरा
भी हिला नहीं,
जरा भी डोला
नहीं। वह
जानता है इस
लोक और परलोक
के बड़े से बड़े
भोग—सुख की
आत्मज्ञान के
सुख के
क्षुद्रतम
अंश से भी कोई
तुलना नहीं हो
सकती है।
क्योंकि यहां
जो भी मिलता
है वह छीन
लिया जाता है।
वह एक वर्ष
में छीना जाए
कि करोड़ वर्ष
में, लेकिन
छिनना
निश्चित है।
इस जगत में
कुछ भी शाश्वत
नहीं है। लंबा
हो सकता है, अनंत नहीं
हो सकता। अंत
में वह सब छिन
ही जाएगा।
यम
यह नहीं कह
रहा है कि मैं
तुझे अमृत बना
देता हूं र यम
कह रहा है कि
तेरी मृत्यु
को दूर हटा देता
हूं—तू आज
नहीं मरेगा, कल नहीं
मरेगा, परसों
नहीं मरेगा, लेकिन मरेगा—और
तुझे सारे सुख
दिए देता हूं।
लेकिन
नचिकेता को यह
भी समझ में आ
गया कि जिस वरदान
को बचाने के
लिए इतने सारे
सुख दिए जा रहे
हैं, निश्चित
ही वह वरदान
इन सबसे
श्रेष्ठ होगा।
यह प्रलोभन
उसके मुकाबले
नहीं है जो
मैंने मांगा
है।
और
जैसे—जैसे यम
प्रलोभन देता
गया, वैसे—वैसे
नचिकेता दृढ़
होता गया।
जब
आप ध्यान में
गहरे बढ़ने
लगें, और
भोग प्रगाढ़
आकर्षण देने
लगें, तब
समझना कि अब
वह घड़ी करीब आ
रही है, जब
महान सुख पैदा
हो सकता है।
ये प्रकृति के
आखिरी
प्रलोभन हैं।
वह आखिरी जाल
फेंक रही है।
अगर आप उससे
बच सके, तो
दुख से सदा के
लिए छुटकारा
हो जाएगा, दुख
का निरोध हो
जाएगा। और अगर
प्रलोभन में
गिर गए तो सुख
होंगे, लेकिन
इस जगत में
सभी सुख
समाप्त हो
जाते हैं। इस
जगत में कुछ
भी ऐसा नहीं
है जो सदा हो
सकता हो, जो
शाश्वत हो।
नचिकेता
ने कहा— हे
यमराज! जिनका
आपने वर्णन
किया वे
क्षणभंगुर
भोग और उनसे
प्राप्त होने
वाले सुख
मनुष्य के
अंतःकरण सहित
संपूर्ण
इंद्रियों का
जो तेज है
उसको क्षीण
करते हैं।
उन
सुखों से
चेतना जगती
नहीं है, सो जाती है।
उन सुखों से
ज्योति
प्रगाढ़ नहीं
होती, अंधकार
हो जाता है।
ध्यान
रहे, सभी
सुख
इंद्रियों को
बोथला बना
देते हैं। जो
भी सुख आप
भोगते हैं, उसके भोगने
के साथ आपकी
संवेदना कम
होती है, बढ़ती
नहीं। यह बड़े
मजे की बात है।
ध्यान के साथ
संवेदना बढ़ती
है, भोग के
साथ कम होती
है।
आज
आपने कुछ
स्वादिष्ट
भोजन किया, कल वही
भोजन आप करें,
वह कम
स्वादिष्ट हो
जाएगा। परसों
करें, और
कम हो जाएगा।
चौथे दिन भी
करना पड़े, तो
आप बड़े दुखी
होने लगेंगे।
और पांचवें
दिन भी करना पड़े,
तो आप थाली
फेंक देंगे।
पहले दिन आपको
स्वर्ग का सुख
प्रतीत हुआ था
उस भोजन से।
पांचवें दिन
वह नर्क हो गया।
और अगर जीवनभर
वही करना पड़े,
तो आप
आत्महत्या कर
लेंगे।
एक
संगीत को आज
आप सुनते हैं।
फिर सुनते हैं
कल, फिर
परसों सुनते
हैं, बोथला
हो जाता है।
इंद्रियां
उसको ग्रहण
करना बंद कर
देती हैं।
इंद्रियों की
संवेदना कम हो
जाती है।
नचिकेता
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात कहता है।
वह कहता है, ये सारे
भोग मेरे होश
को, मेरी
संवेदना को कम
कर देंगे। मैं
जड़ हो जाऊंगा।
इसलिए भोगी
धीरे— धीरे जड़
हो जाता है।
योगी धीरे—
धीरे सतेज
होता चला जाता
है, भोगी
जड़ होता चला
जाता है।
और
फिर आयु कितनी
ही बड़ी हो
अल्प ही है
कभी न कभी
समाप्त हो
जाएगी। इसलिए
ये आपके रथ ये
वाहन ये
अप्सराएं ये
नाच— गान अपने
ही पास रखिए; ये मुझे
नहीं चाहिए।
मनुष्य
धन से कभी भी
तृप्त नहीं
किया जा सकता है
जबकि हमने
आपके दर्शन पा
लिए...।
नचिकेता
ने कहा कि जब
हमने मृत्यु
को ही देख लिया, तो अब हम
धन से तृप्त
नहीं हो सकते।
जिस व्यक्ति
को मृत्यु का
बोध नहीं है, वह शायद धन
से तृप्त होने
का वहम बना ले।
लेकिन जिसको
भी पता है कि
मुझे मरना है,
वह धन से
तृप्त नहीं हो
सकता। और जिसे
भी पता है कि
मुझे मरना है,
वह प्रेम से
तृप्त नहीं हो
सकता। जिसे भी
पता है कि
मुझे मरना है,
इस जगत में
कोई चीज उसे
तृप्त नहीं कर
सकती।
क्योंकि मौत
खड़ी है।
आपको
अगर कोई कह दे
कि घड़ीभर बाद
आपको मरना है, आपके सब
सुख तिरोहित
हो जाएंगे।
यहां बैठे हैं
आप और यह खबर आ
जाए कि घड़ीभर
बाद एटम बम
यहां माउंट
आबू पर गिरेगा;
आपके सब सुख
समाप्त हो
जाएंगे।
सुंदरतम
स्त्री आपको
अचानक दिखाई
पड़नी बंद हो
जाएगी। भोजन
सामने रखा
होगा, भूख
तिरोहित हो
जाएगी। कोई उस
वक्त आपको कहे
कि सारे जगत
का सम्राट तुम्हें
बना देता हूं।
आप कहेंगे, अपने ही पास
रखो। घड़ीभर
बाद एटम गिरने
को है!
लेकिन
वह घड़ी ज्यादा
दूर है भी
नहीं। कभी भी
दूर नहीं है।
एटम गिरे, न गिरे, मौत वहां
पीछे खड़ी है।
वह घड़ीभर बाद,
कि वर्षभर
बाद, कि
सत्तर वर्ष
बाद, समय
के फर्क से
क्या फर्क
पड़ता है!
सिर्फ इतना ही
फर्क पड़ता है
कि आपके पास
अगर बुद्धि
दूरगामी न हो,
तो आपको
लगता है, वह
नहीं है।
घड़ीभर बाद तो
आपको भी दिखाई
पड़ जाता है कि
मौत है, क्योंकि
बुद्धि इतना
प्रवेश कर
पात्री है; सत्तर साल
में प्रवेश
नहीं कर पाती,
सघन हो जाता
है समय। लेकिन
जिनकी बुद्धि
प्रवेश कर
पाती है, वह
सात हजार साल
बाद भी..।
नचिकेता
कहने लगा कि
कितनी ही लंबी
हो उम्र, अल्प है। जो
समाप्त हो
जाएगी, वह
लंबी कैसी? यह सब सम्हालकर
अपने पास ही
रखें। और जो
आप इतनी
उत्सुकता से
देने को राजी
हैं, उनका
कोई मूल्य
नहीं, जब
आपको देख लिया।
नचिकेता
कहता है, जब मृत्यु
का पता चल गया
तो अब किसी
चीज का कोई भी
मूल्य नहीं है।
अब एक ही चीज
का मूल्य है, जो मृत्यु
से ऊपर जाती
हो। अन्यथा सब
व्यर्थ हो गया।
अत:
इन सबको क्या
मांगना मेरे
मांगने लायक
वर तो
आत्मज्ञान ही
है।
यह
मनुष्य जीर्ण
होने वाला और
मरणधर्मा है।
इस तत्व को
भलीभांति
समझने वाला
मनुष्यलोक का
निवासी कौन
ऐसा मनुष्य है
जो कि बुढ़ापे
से रहित न
मरने वाले आप
सदृश
महात्माओं का
संग पाकर भी
स्त्रियों के
सौदर्य—
क्रीड़ा आमोद—
प्रमोद का बार—
बार चिंतन
करता हुआ बहुत
काल तक जीवित
रहने की आशा
करेगा।
आपको
देखकर! बड़ी
बढ़िया बात कह
रहा है।
नचिकेता
कह रहा है, आप जैसे
महात्मा को
देखकर, मृत्यु
को देखकर, अब
कौन है जो
आमोद—प्रमोद
में, रति —क्रीड़ा
में, स्त्रियों
के साथ राग—रंग
में समय को
व्यतीत करने
का खयाल करेगा।
आपको देखकर!
आप
जैसे महात्मा
को देखकर! अब
यह संभव नहीं
है। अब सिर्फ
एक ही चीज की
आकांक्षा
गाती है कि
आपके पार भी
कुछ है या
नहीं? आपको
देखकर संसार
तो मिट्टी हो
गया। सब भोग
व्यर्थ हो गए।
जिसे
भी मौत का
स्मरण आ जाता
है, सब
व्यर्थ हो
जाता है।
बुद्ध
की कथा आपने
जानी है। कि
बुद्ध ने एक
मरे हुए आदमी
को देखकर अपने
सारथी को पूछा
कि यह क्या हो
गया है? सारथी ने
कहा कि यह
आदमी मर गया
है। बुद्ध ने
वह पहला शव
देखा था। तो
बुद्ध ने
तत्क्षण पूछा
कि क्या मैं
भी मर जाऊंगा?
तब तो बुद्ध
जवान थे, तब
तो पूरे उभार
में थे जीवन
के। सारथी ने
कहा कि कहना
उचित नहीं है।
पर झूठ भी मैं
बोल नहीं सकता।
जो भी पैदा
हुआ है वह
मरेगा। आप भी
मरेंगे।
बुद्ध उस समय
एक महोत्सव
में, युवक—महोत्सव
में, एक
यूथ—फेस्टिवल
में भाग लेने
जा रहे थे।
उन्होंने
सारथी को कहा
कि रथ को वापस
लौटा लो।
क्योंकि जब
मैं मरूंगा ही,
तो मर ही
गया। अब कोई
रस न रहा युवक—महोत्सव
में जाने का।
मैं का हो गया।
यह
बोध—कि मौत है।
बात खत्म हो
गई। अब क्या
राग—रंग! उसी
रात उन्होंने
घर छोड़ दिया।
मृत्यु
को देखने के
साथ ही अमृत
की तलाश शुरू हो
जाती है।
मृत्यु
महात्मा है।
जो उसे देख
लेता है, वह आत्मा की
खोज में लग
जाता है।
हम
सब मृत्यु को
छिपाते हैं।
देखने से बचते
हैं। कहीं
मृत्यु दिखाई
पड़ जाए, तो मन को और
कहीं लगा देते
हैं। अगर कोई
मर जाए, तो
कहते हैं, बेचारा!
जैसे कि वह मर
गया है और आप
बने रहेंगे।
आप दया कर रहे
हैं कि बेचारा
मर गया! असमय
में मर गया।
झुठला रहे हैं
एक इंगित को, एक इशारे को,
जिससे खबर आ
रही थी कि आप
भी मरेंगे।
हर
मौत आपकी मौत
की खबर है। और
जब भी कोई
मरता है, तो अगर आप
में जरा भी
होश हो तो
आपको लगेगा कि
आप भी मरे।
लेकिन आदमी इस
वहम में जीता
है कि और सब
मरेंगे, मैं
अपवाद हूं।
मुझे नहीं
मरना है। किसी
को भी यह खयाल
कभी नहीं आता
कि मुझे मरना है।
कितने ही लोग
मरते जाएं, आदमी अपनी
अमरता में
भरोसा किए चला
जाता है। यह
अमरता का
भरोसा खतरनाक
है। इससे तो
मौत के
महात्मा के
दर्शन उचित
हैं। उससे खोज
शुरू होगी।
हे
यमराज! जिस
महान
आश्चर्यमय
परलोक संबंधी
आत्मज्ञान के
विषय में लोग
यह शंका करते
हैं कि यह आत्मा
मरने के बाद
रहता है या
नहीं उसमें जो
निर्णय है वह
आप मुझे बतलाए।
जो यह अत्यंत
गंभीरता को
प्राप्त हुआ
वर है इससे
दूसरा वर
नचिकेता नहीं
मांगता।
मृत्यु
के सामने खड़े
होकर अमृत की
खोज, यही
समाधि की
स्थिति है। इस
ओर ही हम
यात्रा
करेंगे। सुबह
के ध्यान के
संबंध में
थोड़ी—सी बात
समझ लें। इस
ध्यान के चार
चरण हैं। पहले
चरण में दस
मिनट तक जितने
जोर से आप
श्वास को भीतर
ले सकें और
बाहर उलीच
सकें, बिलकुल
विक्षिप्तता
से, अराजकता
से, जैसे
सारा शरीर एक
धौंकनी बन जाए
लोहार की, सब
भूल जाए, सिर्फ
एक ही खयाल रह
जाए—श्वास
भीतर और बाहर,
श्वास भीतर
और बाहर। सारी
शक्ति श्वास
को लेने और
छोड़ने में लग
जाए; कि
सारा शरीर एक
तूफान, एक
आधी में
ग्रस्त हो जाए;
तो आपके
भीतर जो
नाचिकेत
अग्नि है, उस
पर चोट पड़ेगी।
इस तूफान में
ही आपके भीतर
छिपी हुई अग्नि
जोगी।
दूसरे
दस मिनट में, आपके
भीतर जो भी
छिपा है—विक्षिप्तताए,
दमित वेग, रोग—वे सब
बाहर फेंक
देने हैं।
चीखना हो
चीखें; रोना
हो रोएं, नाचना
हो नाचे, जो
भी करने जैसा
हो जाए, उसे
रोकें मत।
अपनी
सारी
बुद्धिमानी
एक तरफ रख दें
और मन जो भी
करना चाहे, उसे करने
दें। हर आदमी
ने बहुत—सा
पागलपन
इकट्ठा कर रखा
है। और जब तक
वह फेंक न
दिया जाए, तब
तक उससे कोई
मुक्ति नहीं
है। दूसरा चरण
है रेचन।
तीसरे
दस मिनट में, एक
महामंत्र का
उपयोग करना है।
वह महामंत्र
है—हू। जोर से
हू हू नाचते, चिल्लाते, घूमते हुए
इस आवाज को
करना है। यह
हू आपके भीतर
की अग्नि को
धू— धू करके
जला देगा। अगर
ठीक से प्रयोग
हो तो इन तीन
चरणों में आप
मिट जाएंगे। '
चौथे
चरण में आपकी
मौजूदगी नहीं
है। चौथा चरण
मौन, न हो
जाने का चरण
है। आप पड़े
रहेंगे, खड़े
रहेंगे, बैठे
रहेंगे, जैसे
भी हों वैसे
ही रुक जाएं।
जब मैं तीसरे
चरण के बाद
कहूं र ठहर
जाएं, तो
आपको वहीं रुक
जाना है। फिर
आपको अपनी
सुविधा नहीं
बनानी है—कि
आप जल्दी से
लेट जाएं आराम
से। उस सुविधा
बनाने में
आपका अहंकार
वापस लौट आएगा।
इन तीन चरणों
में जो काम
हुआ है, उसके
बाद जब मैं
कहूं र स्टाप!
तो आप वहीं रुक
जाएं, जैसे
मर गए। अगर
हाथ ऊंचा था, तो ऊंचा रह
जाए; एक
पैर उठा था, तो उठा रह
जाए। आप
सोचेंगे कि
कहीं गिर
पडूं! गिर पड़े
तो हर्जा नहीं,
लेकिन अपनी
तरफ से आप फिर
कोई इंतजाम न
करें। जब मैं
कहूं रुक
जाएं! तो रुक
गए; यहां
फिर कोई भी
नहीं बचा।
सिर्फ लाशें
रह गईं। यह
चौथा दस मिनट
का चरण है।
और
इस चौथे चरण
के बाद, पांच—दस
मिनट
अभिव्यक्ति, आनंद के लिए
होंगे। इस बीच
जो शाति और
आनंद आपके
भीतर घना हुआ
हो, उसको
आप आनंद से
प्रगट करें।
जैसे छोटे
बच्चे हो गए
वापस। नाचे, हंसें, कूदे।
अब
ध्यान के लिए
तैयार हों।
ध्यान
यो शिविर,
माउंट
आबू।
thank you guruji
जवाब देंहटाएंआपने इस ब्लॉग में ओशो के प्रवचनों को संकलित करके बहुत महान कार्य किया है . इसके लिए आपको कोटि कोटि नमन और आभार।
जवाब देंहटाएं