आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र: अवैर--(प्रवचन-पहला)
मनो मृब्बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा,
ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं' व बहतो पदं।।1।।
मनो पुब्बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।
मनसा वे पसन्नेन भासति वा करोति बा,
ततो नं. मुनमन्वेति छाया' व अनपायिनी ।।2।।
अक्कोचि मै अवधि मै अजिनि मं अहसि से।
अक्कोचि मं अवधि मै अजिनि मं अहासि में।
ये तं न उपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ।।4।।
नहि वेरेन वेरामि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन व सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।5।।
परे च न विजानत्ति मयमेत्था यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।।6।।
गौतम
बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित
पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं
है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति
के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की
वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के
माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।
गौतम
बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें जो सोच-विचार, चिंतन-मनन,
विमर्श के आदी हैं।
हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की
तरफ चले जाते हैं। लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहां हैं न और हृदय से भरने का कोई
उपाय भी तो नहीं है। हो तो हो, न हो तो न हो। ऐसी आकस्मिक, नैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बुद्ध ने उनको चेताया जिनको
चेताना सर्वाधिक कठिन है-विचार से भरे लोग, बुद्धिवादी,
चिंतन-मननशील।
प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ
सरलता से झुक जाते हैं;
उन्हें झुकाना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहे, तो
भी वे पहुंच जाते हैं; उन्हें पहुंचाना नहीं पड़ता। लेकिन वे
तो बहुत थोड़े हैं और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गयी है। उंगलियों पर गिने जा सकें,
ऐसे लोग हैं।
मनुष्य
का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहां जीसस हार
जाएं, जहां कृष्ण की पकड़ न बैठे, वहां भी बुद्ध नहीं हारते
हैं; वहां भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुंच जाते हैं।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है।
बुद्धि पर उसका आदि तो है,
अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है। प्रारंभ बुद्धि से है। क्योंकि
मनुष्य वहा खड़ा है। लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं है।
अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं, सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है; जहां केवल
साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव
उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है जो सोच-विचार में कुशल हैं।
बुद्ध के साथ मनुष्य-जाति का एक नया अध्याय
शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक' मालूम
पड़ेगा, और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने
विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण
उन्होंने किया, कभी किसी ने न किया था, और फिर दुबारा कोई न कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र
से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए।
बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ
श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने
को राजी हो, तो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगी, तो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है।
बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूं, भरोसा कर लो। बुद्ध
कहते हैं, सोचो, विचारों, विश्लेषण करो, खोजो, पाओ अपने
अनुभव से, तो भरोसा कर लेना।
दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा
है, सिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है,
फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव
प्राथमिक है, श्रद्धा आनुसांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, आस्था की
कोई जरूरत नहीं है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो
सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे
तुम्हारे संदेह।
तुम
आरोपित भी कर लोगे विश्वास को, तो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम
कितनी ही दृढता से भरोसा करना चाहो, लेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती
रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा है, उसे तुम चाहो भी तो भी कैसे मान सकते हो? मान भी लो,
तो भी कैसे मान सकते हो? तुम्हारा ईश्वर कोरा
शब्दजाल होगा, जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे
मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगी, जब तक मुक्ति का थोड़ा
स्वाद तुम्हें न लगा हो।
बुद्ध
ने कहा : मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं
कहता हूं। सोचना,
विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर
सही हो जाए, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा!
बुद्ध के अंतिम वचन हैं : अप्प दीपो भव। अपने
दीए खुद बनना। और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखायी पड़ेगा, फिर तुम
करोगे भी क्या-आस्था न करोगे तो करोगे क्या? आस्था सहज होगी।
उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।
बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन
विश्लेषण से शुरू होता है,
समाप्त नहीं होता वहा। समाप्त तो परम संश्लेषण पर होता है। बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म हैं। लेकिन संदेह
से यात्रा शुरू होती है, समाप्त नहीं होती। समाप्त तो परम
श्रद्धा पर होती है।
इसलिए बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई। क्योंकि
बुद्ध संदेह की भाषा बोलते
हैं।
तो लोगों ने समझा,
यह संदेहवादी है। हिंदू तक न समझ पाए, जो जमीन
पर सबसे ज्यादा पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगे, तभी तो हिंदू तक समझने से चूक गए। हिंदुओं तक को यह आदमी खतरनाक लगा,
घबड़ाने वाला लगा।
हिंदुओं
को भी लगा कि यह तो सारे आधार गिरा देगा धर्म के। और यही आदमी है, जिसने
धर्म के आधार पहली दफा ढंग से रखे।
श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है!
अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है।
श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के
पास आख न हों,
उससे तुम सत्य तक पहुंच पाओगे?
बुद्ध ने बड़ा दुस्साहस किया। बुद्ध जैसे
व्यक्ति पर भरोसा करना एकदम सुगम होता है। उसके उठने-बैठने में प्रामाणिकता होती
है। उसके शब्द-शब्द में वजन होता है। उसके होने का पूरा ढंग स्वयंसिद्ध होता है।
उस पर श्रद्धा आसान हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत
बनाना। तुम अगर लंगड़े हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल
लिए-कितनी दूर चलोगे? मंजिल तक न पहुंच पाओगे। आज मैं साथ
हूं कल मैं साथ न रहूंगा, फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना
है। मेरी रोशनी से मत चलना, क्योंकि थोड़ी देर को संग-साथ हो
गया है अंधेरे जंगल में। तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे, फिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव!
यह बुद्ध का धम्मपद, कैसे वह
रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव की, उसका विश्लेषण है। श्रद्धा
की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए बुद्ध को लोगों
ने नास्तिक कहा। क्योंकि बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि तुम परमात्मा पर श्रद्धा करो।
तुम कैसे करोगे श्रद्धा? तुम्हें
पता होता तो तुम श्रद्धा करते ही। तुम्हें पता नहीं है। इस अज्ञान में तुम कैसे
श्रद्धा करोगे? और अज्ञान में तुम जो श्रद्धा बांध भी लोगे,
वह तुम्हारी अज्ञान की ईंटों से बना हुआ भवन होगा; उसे तुम परमात्मा का मंदिर कैसे कहोगे? वह तुमने भय
में बना लिया होगा। मौत डराती होगी, इसलिए सहारा पकड़ लिया
होगा। यहां जिंदगी हाथ से जाती मालूम होती होगी, इसलिए
स्वर्ग की कल्पनाएं कर ली होंगी। लेकिन इन कल्पनाओं से, भय
पर खड़ी हुई इन धारणाओं से, कहीं कोई मुका हुआ है! इससे ही तो
आदमी पंगु है। इससे ही तो आदमी पक्षाघात में दबा है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर की बात
नहीं की।
एच जी वेल्स ने बुद्ध के संबंध में कहा है
कि पृथ्वी पर इस जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और इस जैसा ईश्वर-विरोधी व्यक्ति एक साथ
पाना कठिन है-सो गॉड लाइक एंड सो गॉडलेस! अगर तुम ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने
निकलो तो तुम बुद्ध से ज्यादा ईश्वरीय प्रतिभा कहां पाओगे? सो
गॉडलेस! और फिर भी इतना ईश्वर-शुन्य! ईश्वर की बात ही नहीं की। इस शब्द को ही गंदा
माना। इस शब्द का उच्चार नहीं किया। इससे यह मत समझ लेना कि ईश्वर-विरोधी थे
बुद्ध। उच्चार नहीं किया, क्योंकि उस परम शब्द का उच्चार
किया नहीं जा सकता।
उपनिषद कहते हैं, ईश्वर के
संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तो कह ही देते हैं। बुद्ध ने इतना भी न
कहा। वे परम उपनिषद हैं। उनके पार उपनिषद नहीं जाता। जहां उपनिषद समाप्त होते हैं,
वहां बुद्ध शुरू होते हैं। आखिर इतना तो कह ही दिया, रोक न सके अपने को, कि ईश्वर निर्गुण है। तो निर्गुण
उसका गुण बना दिया। कहा कि ईश्वर निराकार है, तो निराकार
उसका आकार हो गया। लेकिन बिना कहे न रह सके। उपनिषद के ऋषि भी बोल गए! मौन में ही
सम्हालना था उस संपदा को, बोलकर गंवा दी। बंधी मुट्ठी लाख की
थी, खुली दो कौड़ी की हो गयी। वह बात ऐसी थी कि कहनी नहीं थी।
क्योंकि तुम जो कुछ भी कहोगे, वह गलत होगा। यह कहना भी कि
परमात्मा निराकार है, गलत है, क्योंकि
निराकार भी एक धारणा है। वह भी आकार से ही जुड़ी है। आकार के विपरीत होगी, तो भी आकार से संबंधित है।
निराकार का क्या अर्थ होता है? जब भी
अर्थ खोजने जाओगे, आकार का उपयोग करना पड़ेगा। निर्गुण का
क्या अर्थ :होता है? जब भी कोई परिभाषा पूछेगा, गुण को परिभाषा में लाना पड़ेगा। ऐसी निर्गुणता भी बड़ी नपुंसक है, जिसकी परिभाषा में गुण लाना पड़ता है! और ऐसे निराकार में क्या निराकार
होगा, जिसको समझाने के लिए आकार लाना पड़ता है!
बुद्ध
'से ज्यादा कोई भी नहीं बोला; और बुद्ध से ज्यादा चुप
भी कोई नहीं है। कितना बुद्ध 'बोले हैं! अन्वेषक खोज करते
हैं तो वे कहते हैँ, एक आदमी इतना बोला, यह संभव कैसे है! उन्हें डर लगता है कि इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त है,
दूसरों ने डाल दिया है। कुछ भी प्रक्षिप्त नहीं है। जितना बुद्ध
बोले, पूरा संगृहीत ही नहीं हुआ है। खूब बोले। और फिर भी
उनसे ज्यादा चुप -कोई भी नहीं है। क्योंकि जहाँ-जहां नहीं बोलना था, वहां नहीं बोले। ईश्वर के संबंध में एक शब्द न कहा। इस खतरे को भी मोल
लिया कि लोग नास्तिक समझेंगे। और आज तक लोग नास्तिक समझे जा रहे हैं। और इससे बड़ा
कोई आस्तिक कभी हुआ नहीं।
बुद्ध महा आस्तिक हैं। अगर परमात्मा के
संबंध में कुछ कहना संभव नहीं है, तो फिर बुद्ध ने ही कुछ कहा-चुप रह कर; इशारा किया।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक विटगेंस्टीन
ने अपनी बड़ी अनूठी किताब ट्रैक्टेटस में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा
सके, उस संबंध में बिलकुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड,
मस्ट नॉट बी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, कहना
ही मत, कहना ही नहीं चाहिए।
अगर
विट्गिस्टीन बुद्ध को देखता तो समझता। अगर विट्गिस्टीन के वचन को बुद्ध ने समझा
होता तो वे मुस्कुराते और उन्होंने स्वीकृति दी होती। विट्गिस्टीन को भी पश्चिम
में लोग नास्तिक समझे। नास्तिक नहीं है। पर जो कही नहीं जा सकती बात, अच्छा है
न ही कही जाए। कहने से बिगड़ जाती है। कहने से गलत हो जाती है।
लाओत्से तक, कहता तो है प्रथम वचन में
अपने ताओ -तेह-किंग में कि सत्य कहा नहीं जा सकता, और जो भी
कहा जाए वह असत्य हो जाता है; लेकिन फिर भी सत्य के संबंध
में बहुत सी बातें कही हैं। बुद्ध ने नहीं कहीं। तुम कहोगे, फिर
बुद्ध कहते क्या रहे? बुद्ध ने स्वास्थ्य के संबंध में एक
शब्द भी नहीं कहा, केवल बीमारी का विश्लेषण किया और निदान
किया, औषधि की व्यवस्था की। बुद्ध ने कहा, मैं एक वैद्य हूं; मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं
तुम्हारी बीमारी का विश्लेषण करूंगा, निदान करूंगा, औषधि सुझा दूंगा; और जब तुम ठीक हो जाओगे, तभी तुम जानोगे कि स्वास्थ्य क्या है। मैं उस संबंध में कुछ भी न कहूंगा।
स्वास्थ्य जाना जाता है, कहा नहीं
जा सकता। बीमारी मिटायी जा सकती है, बीमारी समझायी जा सकती
है, बीमारी बनायी जा सकती है, बीमारी
का इलाज हो सकता है-सही हो सकता है, गलत हो सकता है-बीमारी
के साथ बहुत कुछ हो सकता है। स्वास्थ्य? जब बीमारी नहीं होती
तब जो शेष रह जाता है, वही। उस तरफ केवल इशारे हो सकते हैं,
मौन। इंगित हो सकते हैं-वे भी प्रत्यक्ष नहीं, बड़े परोक्ष।
बुद्ध के धर्म को शून्यवादी कहा गया है। शून्यवादी उनका धर्म है। लेकिन
इससे यह मत समझ लेना कि शून्य पर उनकी बात पूरी हो जाती है। नहीं, बस शुरू होती है।
बुद्ध एक ऐसे उतुंग शिखर हैं, जिसका
आखिरी शिखर हमें दिखायी नहीं पड़ता। बस थोड़ी दूर तक हमारी आंखें जाती हैं, हमारी आंखों की सीमा है। थोड़ी दूर तक हमारी गर्दन उठती है, हमारी गर्दन के झुकने की सामर्थ्य है। और बुद्ध खोते चले जाते हैं-दूर..
हिमाच्छादित शिखर हैं। बादलों के पार! उनका प्रारंभ तो दिखायी पड़ता है, उनका अंत दिखायी नहीं पड़ता। यही उनकी महिमा है। और प्रारंभ को जिन्होंने
अंत समझ लिया, वे भूल में पड़ गए। प्रारंभ से शुरू करना;
लेकिन जैसे-जैसे तुम शिखर पर उठने लगोगे, और
आगे, और आगे दिखायी पड़ने लगा, और आगे
दिखायी पड़ने लगेगा।
बहुत लोग बोले हैं। बहुत लोगों ने मनुष्य के
रोग का विश्लेषण किया है;
लेकिन ऐसा सचोट नहीं। बड़े सुंदर ढंग से लोगों ने बातें कही हैं,
बड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्ध, बुद्ध
के कहने का ढंग ही और है। अंदाजे-बया और! जिसने एक बार सुना, पकड़ा गया। जिसने एक बार आख से आख मिला ली, फिर भटक न
पाया। जिसको बुद्ध की थोड़ी सी भी झलक मिल गयी, उसका
जीवनरूपांतरित हुआ।
आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, जिस दिन
बुद्ध का जन्म हुआ, घर में उत्सव मनाया जाता था। सम्राट के
घर बेटा पैदा हुआ था, पूरी राजधानी सजी थी। रातभर लोगों ने
दीए जलाए, नाचे। उत्सव का क्षण था! बूढ़े सम्राट के घर बेटा
पैदा हुआ था। बड़े दिन की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य
की। मालिक बूढ़ा होता जाता था और नए मालिक की कोई खबर न थी। इसलिए बुद्ध को
सिद्धार्थ नाम दिया। सिद्धार्थ का अर्थ होता है, अभिलाषा का
पूरा हो जाना।
पहले
ही दिन, जब द्वार पर बैंड-बाजे बजते थे, शहनाई बजती थी,
फूल बरसाए थे महल में, चारों तरफ प्रसाद बंटता
था, हिमालय से भागा हुआ एक वृद्ध तपस्वी द्वार पर खड़ा हुआ
आकर। उसका नाम था असिता। सम्राट भी उसे सम्मान करता था। और कभी असिता राजधानी नहीं
आया था। जब कभी जाना था तो शुद्धोदन को, सम्राट को, स्वयं उसके दर्शन करने जाना होता था। ऐसे बचपन के साथी थे। फिर शुद्धोदन
सम्राट हो गया, बाजार की दुनिया में उलझ गया। असिता
महातपस्वी हो गया। उसकी ख्याति दूर-दिगंत तक फैल गयी। असिता को द्वार पर आए देखकर
शुद्धोदन ने कहा, आप, और यहां! क्या
हुआ? कैसे आना हुआ? कोई मुसीबत है?
कोई अड़चन है? कहे। असिता ने कहा, नहीं, कोई मुसीबत नहीं, कोई
अड़चन नहीं। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ, उसके दर्शन को आया
हूं।
शुद्धोदन तो समझ न पाया। सौभाग्य की घड़ी थी
यह कि असिता जैसा तपस्वी और बेटे के दर्शन को आया। भागा गया अंतगृह में। नवजात
शिशु को लेकर बाहर आ गया। असिता झुका, और उसने शिशु के चरणों में सिर रख
दिया। और कहते हैं, शिशु ने अपने पैर उसकी जटाओं में उलझा
दिए। फिर तब से आदमी की जटाओं में बुद्ध के पैर उलझे हैं। फिर आदमी छुटकारा नहीं
पा सका। और असिता हंसने लगा, और रोने भी लगा। और शुद्धोदन ने
पूछा कि इस शुभ घड़ी में आप रोते क्यों हैं?
असिता ने कहा, यह तुम्हारे घर जो बेटा
पैदा हुआ है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है; असाधारण है। कई सदियां बीत जाती हैं। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं
है; यह अनंत-अनंत लोगों के लिए सिद्धार्थ है। अनेकों की
अभिलाषाएं इससे पूरी होंगी। हंसता हूं, कि इसके दर्शन मिल गए।
हंसता हूं प्रसन्न हूं? कि इसने मुझ के की जटाओं में अपने
पैर उलझा दिए। यह सौभाग्य का क्षण है! रोता इसलिए हूं कि जब यह कली खिलेगी,
फूल बनेगी, जब दिग-दिगंत में इसकी सुवास उठेगी,
और इसकी सुवास की छाया में करोड़ों लोग राहत लेंगे, तब मैं न रहूंगा। यह मेरा शरीर छूटने के करीब आ गया।
और एक बड़ी अनूठी बात असिता ने कही है, वह यह कि
अब तक आवागमन से छूटने की आकांक्षा थी, वह पूरी भी हो गयी;
आज पछतावा होता है। एक जन्म अगर और मिलता तो इस बुद्धपुरुष के चरणों
में बैठने की, इसकी वाणी सुनने की, इसकी
सुगंध को पीने की, इसके नशे में डूबने की सुविधा हो जाती। आज
पछताता हूं लेकिन मैं मुक्त हो चुका हूं। यह मेरा आखिरी अवतरण है; अब इसके बाद देह न धर सकूंगा। अब तक सदा ही चेष्टा की थी कि कब छुटकारा हो
इस शरीर से, कब आवागमन से आज पछताता हूं कि अगर थोड़ी देर और
रुक गया होता.। इसे तुम थोड़ा समझो।
बुद्ध के फूल के खिलने के समय, असिता
चाहता है, कि अगर मोक्ष भी दांव पर लगता हो तो कोई हर्जा
नहीं। तब से पच्चीस सौ साल बीत गए। बहुत प्रज्ञा-पुरुष हुए। लेकिन बुद्ध अतुलनीय
हैं। और उनकी अतुलनीयता इसमें है कि उन्होंने इस सदी के लिए धर्म दिया, और आने वाले भविष्य के लिए धर्म दिया। कृष्ण की बात कितनी ही समझाकर कही
जाए, इस सदी के लिए मौजूं नहीं बैठती। फासला बड़ा हो गया है। बड़ा
अंतराल पड़ गया है। कृष्ण ने जिनसे कहा था उनके मनों में, और
जिनके मन आज उसे सुनेंगे, बड़ा अंतर है। बुद्ध की कुछ बात ऐसी
है, कि ऐसा लगता है अभी-अभी उन्होंने कही। बुद्ध की बात को
समसामयिक बनाने की जरूरत नहीं है; वह समसामयिक है, वह कंटेम्प्रेरी है। कृष्ण पर
बोलो, तो कृष्ण को खींचकर लाना पड़ता है बीसवीं सदी में;
बुद्ध को नहीं लाना पड़ता। बुद्ध जैसे खड़े ही हैं, बीसवीं सदी में ही खड़े हैं। और ऐसा अनेक सदियों तक रहेगा। क्योंकि मनुष्य
ने जो होने का ढंग अंगीकार कर लिया है, बुद्धि का, वह अब ठहरने को है; वह अब जाने को नहीं है। और उसके
साथ ही बुद्ध का मार्ग ठहरने को है।
धम्मपद उनका विश्लेषण है। उन्होंने जो जीवन
की समस्याओं की गहरी छानबीन की है, उसका विश्लेषण है। एक-एक शब्द को
गौर से समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये कोई सिद्धात नहीं हैं जिन पर तुम श्रद्धा
कर लो। ये तो निष्पत्तियां हैं, प्रयोग की। अगर तुम भी इनके
साथ विचार करोगे तो ही इन्हें पकड़ पाओगे। यह आख बंद करके स्वीकार कर लेने का सवाल
नहीं है; यह तो बड़े सोच-विचार, मनन का
सवाल है।
साधारणत: आदमी की जिंदगी क्या है? कुछ सपने!
कुछ टूटे-फूटे सपने! कुछ अभी भी साबित, भविष्य की आशा में
अटके! आदमी की जिंदगी क्या है? अतीत के खंडहर, भविष्य की कल्पनाएं! आदमी का पूरा होना क्या है? चले
जाते हैं, उठते हैं, बैठते हैं,
काम करते हैं-कुछ पक्का पता नहीं, क्यों?
कुछ साफ जाहिर नहीं, कहा जा रहे हैं? बहुत जल्दी में भी जा रहे हैं। बड़ी पहुंचने की तीव्र उत्कंठा है, लेकिन कुछ पक्का नहीं, कहां पहुंचना चाहते हैं?
किस तरफ जाते हो?
कल मैं एक गीत पढ़ता था साहिर का :
न कोई जादा न कोई मंजिल न रोशनी का सुराग
भटक
रही है खलाओं में जिंदगी मेरी
न
कोई रास्ता, न कोई मंजिल,
रोशनी
का सुराग भी नहीं;
कोई
एक किरण भी नहीं।
और
पूरी जिंदगी अंधेरी घाटियों में,
शून्य
में भटक रही है।
भटक
रही है खलाओं में जिंदगी मेरी
ऐसी
ही मनुष्य की दशा है सदा से। बहुत सी झूठी मंजिलें भी तुम बना लेते हो। राहत के
लिए कुछ तो चाहिए! सत्य बहुत कडुवा है। और अगर सत्य के साथ तुम खड़े हो जाओ, तो खड़े
होना भी मुश्किल मालूम होगा।
सिगमंड
फ्रायड ने कहा है कि आदमी बिना झूठ के जी नहीं सकता। झूठ सहारा है। तो हम झूठी
मंजिलें बना लेते हैं। असली मंजिल का तो कोई पता नहीं। बिना मंजिल के जीना असंभव। कैसे
जीओगे बिना मंजिल के?
अगर यह पक्का ही हो जाए कि पता ही नहीं कहो जा रहे हैं, तो पैर कैसे उठेंगे? यात्रा कैसे होगी? तो हम कल्पित मंजिल बना लेते हैं, एक झूठी मंजिल
बना लेते हैं। उससे राहत मिल जाती है, लगता है कहीं जा रहे
हैं। कोई रास्ता नहीं है क्योंकि झूठी मंजिलों के कहीं कोई रास्ते होते हैं! जब
मंजिल ही झूठी है, तो रास्ता कैसे हो सकता है? तो फिर हम रास्ता भी बना लेते हैं। रास्ता बना लेते हैं, मंजिल बना लेते हैं-सब कल्पित, सब मन के जाल,
सब सपने! और ऐसे अपने को भर लेते हैं। और लगता है शून्य भर गया,
जिंदगी बड़ी भरी-पूरी है।
कोई
कुछ दिन हुए चल बसा। एक मित्र ने आकर कहा कि आपको पता चला, फलां-फलां
व्यक्ति चल बसे? बड़ी भरी-पूरी जिंदगी थी! मैंने पूछा,
रुको। चल बसे, ठीक; उसमें
तो कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन भरी-पूरी जिंदगी थी, यह
तुमसे किसने कहा? शायद उन्होंने सोचकर कहा भी नहीं था। थोड़े
झिझके; कहा, मैं तो ऐसे ही कह रहा था। कहने
की बात थी। पर मैंने कहा, कहा तब तुम भी सोचते होओगे कि बड़ी
भरी-पूरी जिंदगी थी। मैं उनको जानता हू। और अगर तुम मुझसे पूछो तो कुछ भी नहीं हुआ,
क्योंकि वे मरे हुए ही थे। अब मरा हुआ मर जाए इसमें कौन सी बड़ी घटना
हो गयी। जिंदा वे कभी थे नहीं। क्योंकि जिंदगी तो सत्य के साथ ही उपलब्ध होती है,
और कोई जिंदगी नहीं है। लेकिन जो झूठ के साथ जी रहा है, वह भी सोचता है, जिंदगी भरी-पूरी है।
कितने
झूठ तुमने बना रखे हैं! लड़का बड़ा होगा, शादी होगी, बच्चे
होंगे, धन कमाएगा, यश पाएगा, और तुम मर रहे हो! और तुम्हारे बाप भी ऐसे ही मरे, किं
तुम बड़े होओगे, कि शादी होगी, कि धन
कमाओगे। और तुम्हारा लड़का थी ऐसे ही मरेगा। जिंदगी बड़ी भरी-पूरी जा रही है!
बाप
बेटे के लिए मर जाता है। बेटा अपने बेटे के लिए मर जाता है। ऐसा एक-दूसरे पर मरते
चले जाते हैं। कोई जीता नहीं। मरना इतना आसान, जीना इतना कठिन!
लोग
सोचते हैं, मौत बड़ी दुस्तर है। गलत सोचते हैं। मौत में क्या दुस्तरता है? क्षण में मर जाते हो। जिंदगी दुस्तर है। सत्तर साल जीना होता है। और बिना
झूठ के तुम जीना नहीं जानते हो, तो तुम हजार तरह के झूठ खड़े
कर लेते हो-यश, पद, प्रतिष्ठा, सफलता, धन। जब इनसे चुक जाते हो तो धर्म, मोक्ष, स्वर्ग, परमात्मा,
आत्मा, ध्यान, समाधि। पर
तुम कुछ न कुछ ताकि अपने को भरे रखो। और ध्यान रखना, बुद्ध
का सारा जोर झूठ से खाली हो जाने पर है। सत्य से भरना थोड़े ही पड़ता है। झूठ से
खाली हुए तो जो शेष रह जाता है, वही सत्य है। गयी बीमारी,
जो बचा वही स्वास्थ्य है।
लेकिन
कितने ही लोगों ने जगाने की कोशिश की है, तुम जागते नहीं। आदमी का झूठ को
पैदा करने का अभ्यास इतना गहरा है कि वह बुद्ध के आसपास भी-बुद्ध भी मौजूद हों
जगाने को तो उनके आसपास भी-अपनी नींद की सुविधा जुटा लेता है। बुद्ध जगाते हैं;
तुम उनके जगाने की चेष्टा को भी नशा बना लेते हो। तुम हर चीज में से
शराब निकाल लेते हो। ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें से तुम शराब न निकाल लो। इसलिए तो
बुद्ध आते हैं, चले जाते हैं; बुद्धपुरुष
पैदा होते हैं, विदा हो जाते हैं; तुम
अपनी जगह अडिग खड़े रहते हो, तुम अपने झूठ से हटते नहीं। शायद,
बुद्धपुरुषों ने जो कहा उसको भी तुम अपने झूठ में सम्मिलित कर लेते
हो।
क्या
है तुम्हारे झूठ का राज?
अहंकार। अहंकार सरासर झूठ है। ऐसी कोई चीज कहीं है नहीं। तुम हो
नहीं, सिर्फ एक भ्रांति हो; है तो
पूर्ण। सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यह भ्रांति है कि तुम अलग हो।
कल
ही एक मित्र से मैंने कहा कि अब जागो। तो उन्होंने कहा कि कोशिश बहुत करता हूं मन
निंदा से भी भर जाता है अपने प्रति, अपराधी भी मालूम होता हूं; बेईमान भी मालूम पड़ता हूं-क्योंकि जो करना चाहिए मालूम है, समझ में आता है, और नहीं कर रहा हूं। तो मैंने उनसे
कहा, तुम एक ही कृपा करो, यह करने का
खयाल छोड़ दो। क्योंकि उसने पैदा किया, वही श्वास ले रहा है,
तुम करना भी उसी पर छोड़ दो। उन्होंने कहा कि जन्म उसने दिया,
इतना तक तो मैं मान सकता हूं; लेकिन बाकी और
काम वही कर रहा है, यह नहीं मान सकता। यह तो मैं मान ही नहीं
सकता कि बेईमानी भी वही कर रहा है।
अब
यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमें भी लगेगा कि बेचारा, धार्मिक बात तो कह रहा है
यह व्यक्ति, कि बेईमानी कैसे परमात्मा पर छोड़ दूं? लेकिन नहीं, सवाल यह नहीं है। अहंकार...! यह कोई
परमात्मा को बचाने की चेष्टा नहीं है कि परमात्मा पर बेईमानी कैसे सौंप दूं;
यह भी अहंकार को बचाने की चेष्टा है। ध्यान रखना कि जब बेईमानी तुम
करोगे, तो ईमानदारी भी तुम ही करोगे। लेकिन जब जन्म भी
तुम्हारा अपना नहीं है और मौत भी तुम्हारी अपनी नहीं है, तो
दोनों के बीच में तुम्हारा अपना कुछ कैसे हो सकता है? जब
दोनों छोर पराए हैं, जब जन्म के पहले कोई और के हाथ में तुम
हो, मौत के बाद किसी और के हाथ में, तो
यह बीच की थोड़ी सी जो घड़ियां हैं, इनमें तुम अपने को सोच
लेते हो अपने हाथ में, वहीं भ्रांति हो जाती है। वही अहंकार
तुम्हें जगने नहीं देता। वही अहंकार सोने की नयी तरकीबें, व्यवस्थाएं
खोज लेता है।
इसलिए
बुद्धपुरुष आते हैं। उनके तीर ठीक तरकस से तुम्हारे हृदय की तरफ निकलते हैं। पर
तुम बचा जाते हो।
हजारों
खिज़ पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की
आदमी
ने कितने बुद्धपुरुष पैदा किए!
हजारों
खिज़-पैगंबर, तीर्थंकर!
हजारों
खिज़ पैदा पर चुकी है
नस्ल
आदम की ये सब तस्लीम
लेकिन
आदमी अब तक भटकता है
यह
सब तस्लीम, यह सब स्वीकार कि हजारों बुद्धपुरुष हुए हैं। पर इससे क्या फर्क पड़ता है?
आदमी अब तक भटकता है। आदमी भटकना चाहता है। कहता तो आदमी यही है कि
भटकना नहीं चाहता। कहते तो तुम मेरे पास यही हो, शात होना
चाहते हैं, सत्य होना चाहते हैं, सरल
होना चाहते हैं। लेकिन सच में तुम होना चाहते हो? या कि
सरलता के नाम पर तुम नयी जटिलता खोज रहे हो? या सत्य के नाम
पर तुमने नए झूठों की तलाश शुरू की है? या शाति के नाम पर अब
तुमने एक नया रोग पाला? अब तुम शाति के नाम पर अशात होने को
उत्सुक हुए हो? साधारण आदमी अशात होता है सिर्फ, शाति की तो कम से कम चिंता नहीं होती। अब तुम शाति के लिए भी चिंतित हुए। पुरानी
अशांति तो बरकरार, अब तुम और धन करोगे उसमें, गुणनफल करोगे। अब तुम कहोगे कि शाति भी चाहिए। अब एक नयी अशांति जुड़ी,
कि शाति नहीं है। झूठ तो तुम थे; अब तुम कहते
हो, सत्य खोजेंगे। अब तुम सत्य के नाम पर कुछ नए झूठ ईजाद
करोगे-स्वर्ग के, मोक्ष के, नर्क के,
परमात्मा के, आकाश के।
मंदिरों
में जाओ, स्वर्गों के नक्शे टंगे हैं-पहला स्वर्ग, दूसरा
स्वर्ग; पहला खंड, दूसरा खंड, तीसरा खंड, सच खंड तक; नक्शे
टंगे हुए हैं। आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा है, कोई अंत है!
अपने घर का नक्शा भी तुमसे बनेगा नहीं। अपना भी नक्शा तुम बना न सकोगे कि तुम क्या
हो, कहो हो, कौन हो; तुमने स्वर्ग के नक्शे बना लिए!
एक
दुकान पर एक शिकारी कुछ सामान खरीद रहा था। अफ्रीका जा रहा था शिकार करने। कहीं
जंगल में भटक न जाए,
इसलिए उसने एक यंत्र खरीदा : दिशासूचक यंत्र, कॅम्पास।
और तो सब ठीक था, उसने खोलकर देखा, लेकिन
कॅम्पास में पीछे एक आईना भी लगा था। यह उसकी समझ में न आया। क्योंकि यह कोई कॅम्पास
है या किसी स्त्री का साज-श्रृंगार का सामान? इसमें आईना
किसलिए लगा है? यह दिशासूचक यंत्र है, इसमें
आईने की क्या जरूरत? उसने दुकानदार से पूछा कि और सब तो ठीक
है, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें आईना क्यों लगा
है? दुकानदार ने कहा, यह इसलिए कि जब
तुम भटक जाओ, तो कॅम्पास तो बताएगा स्थान, आईने में तुम देख लेना ताकि पता चल जाए-कौन भटक गया है? कहा भटक गए हो यह तो कॅम्पास से पता चल जाएगा; लेकिन
कौन भटक गया है!
अपना
पता नहीं है,
स्वर्ग के नक्शा बना दिए हैं! विवाद चल रहे हैं लोगों के-कितने नर्क
होते हैं? हिंदू कहते हैं, तीन। जैन
कहते हैं, सात। बुद्ध ने बड़ी मजाक की है, उन्होंने कहा, सात सौ। यह मजाक की है, क्योंकि बुद्ध को जरा भी उत्सुकता नहीं है इस तरह की मूढ़ताओं में। लेकिन
मजाक भी -नहीं समझ पाते लोग। बुद्ध के मानने वाले हैं जो कहते हैं कि नहीं,
सात सौ ही होते हैं, इसीलिए कहे। मैं तुमसे
कहता हूं सात हजार।
आदमी
सत्य से भी झूठ खोज लेता है। इसलिए आदमी भटकता है।
बुद्ध
बड़े शुद्ध खोजी हैं। उनकी खोज बड़ी निर्दोष। घर छोड़ा तो जितने गुरु उपलब्ध थे, सबके पास
गए। गुरु उनसे थक गए; क्योंकि असली शिष्य आ जाए तभी पता चलता
है कि गुरु-गुरु है या नहीं। झूठे शिष्य हों साथ, तो पता ही
नहीं चलता।
लोग
मुझसे पूछते हैं आकर,
कि असली गुरु का कैसे पता चले? मैं उनको कहता
हूं तुम फिक्र न करो। अगर तुम असली शिष्य हो, पता चल जाएगा। नकली
गुरु तुमसे बचेगा, भागेगा, कि यह चला आ
रहा है असली शिष्य, यह झंझट खड़ी करेगा। तुम गुरु की फिक्र ही
छोड़ दो। असली शिष्य अगर तुम हो, तो नकली गुरु तुम्हारे पास
टिकेगा ही नहीं। तुम टिके रहना, वही भाग जाएगा।
जिब्रान
की कहानी है कि एक आदमी गांव-गाव कहता फिरता था कि मुझे स्वर्ग का पता है, जिनको आना
हो मेरे साथ आ जाओ। कोई आता नहीं था, क्योंकि लोगों को हजार
दूसरे काम हैं, कोई स्वर्ग जाने की इतनी जल्दी वैसे भी किसी
को नहीं है। लोग स्वर्गीय तो मजबूरी में होते हैं। जब हाथ-पैर ही नहीं चलते और लोग
मरघट पर पहुंचा आते हैं, तब स्वर्गीय होते हैं। कोई स्वर्गीय
होने को राजी नहीं था। लोग कहते, आपकी बात सुनते हैं,
जंचती है; जब जरूरत होगी तब उपयोग करेंगे,
मगर अभी कृपा करें, अभी…अभी हमें जाना नहीं।
एक
गांव में ऐसा हुआ.. उस आदमी का खूब धंधा चलता था। क्योंकि जिनको स्वर्ग नहीं जाना, उनको बचने
के लिए भी गुरु को कुछ गुरु-दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह आ जाए गांव में और समझाए,
तो उसकी कुछ सेवा भी करनी पड़ती, पैर भी पड़ने
पड़ते। वे कहते, तुम बिलकुल ठीक हो, मगर
अभी हम साधारणजन, अभी संसार में उलझे हैं; जब कभी सुलझेंगे, जरूर आपकी बात का खयाल करेंगे। रख
लेते हैं सम्हालकर हृदय में। तो गुरु का धंधा भी चलता था। न कभी कोई झंझट आयी थी,
न कुछ!
एक
गांव में उपद्रव हो गया। एक असली शिष्य मिल गया। उसने कहा, अच्छा,
तुम्हें पता है! पक्का पता है? बिलकुल पक्का
पता है। क्योंकि अभी तक कोई झंझट आयी नहीं थी। उसने कहा, अच्छा,
मैं चलता हूं। कितने दिन लगेंगे पहुंचने में? तब
जरा गुरु घबड़ाया कि यह जरा उपद्रवी मालूम पड़ता है। पैर छुओ, बात
ठीक है। साथ चलने की बात! मगर अब सबके सामने मना भी नहीं कर सका। उसने कहा,
देखेंगे, भटकाके साल दो साल, भाग जाएगा अपने आप। छह साल बीत' गए। वह उनके पीछे ही
पड़ा है। वह कहता है कि कब आएगा? अभी तक आया नहीं। एक दिन उस
गुरु ने कहा, तेरे हाथ जोड़ता हूं भैया! तू जब तक न मिला था
हमको भी पता था, अब तेरे कारण हमारा भी! असली शिष्य मिल जाए,
तो फिर गुरु अपने आप।
दुनिया
में नकली गुरु हैं,
क्योंकि नकली शिष्यों की बड़ी संख्या है। नकली गुरु तो बाइप्राडक्ट
हैं। वे सीधे पैदा नहीं होते। नकली शिष्य उन्हें पैदा कर लेता है।
बुद्ध
सभी गुरुओं के पास गए। गुरु घबड़ा गए। क्योंकि यह व्यक्ति निश्चित प्रामाणिक था। जो
उन्होंने कहा,
वह इसने इतनी पूर्णता से किया कि उनको भी दया आने लगी, कि यह तो हमने भी नहीं किया है! कोई करता ही नहीं था, तब तक बात ठीक थी 1 इस पर दया आने लगी। इससे यह भी न कह सकते थे कि तुमने
पूरा नहीं किया, इसलिए उपलब्ध नहीं हो रहा है। इसने
पूरा-पूरा किया। उसमें तो रत्ती भर कमी नहीं रखी। गुरुओं ने हाथ जोड़कर कहा कि बस,
हम यहां तक तुम्हें बता सकते थे, इसके आगे
हमें खुद भी पता नहीं है।
सारे
गुरुओं को बुद्ध ने चुका डाला। एक गुरु साबित न हुआ। तब सिवाय इसके कोई रास्ता न
रहा कि खुद खोजें। और इसीलिए बुद्ध की बातों में बड़ी ताजगी है, क्योंकि
उन्होंने खुद खोजा। किसी गुरु से नहीं पाया था। किसी से सुनकर नहीं दोहराया था। फिर
खुद खोज पर निकले-नितांत अकेले, बिना किसी सहारे के। शास्त्र
धोखा दे गए गुरु धोखा दे गए, सब पीछे हट गए, अकेला रह गया खोजी। ऐसा ही होता है। जब तुम्हारी खोज असली होगी, तुम पाओगे शास्त्र काम नहीं देते। शास्त्र तभी तक काम देते हैं जब तक तुम
उनका भजन-पाठ करते हो। बस तभी तक। अगर तुमने यात्रा शुरू की, तुम तत्क्षण पाओगे शास्त्र में हजार गलतियां हैं। होनी ही चाहिए। क्योंकि
हजारों साल तक हजारों लोग उसे दोहराते रहे हैं, बनाते रहे
हैं। उसमें बहुत कुछ छूट गया है, बहुत कुछ जुड़ गया है। लेकिन
यह तो पता तुम्हें तभी चलेगा जब तुम यात्रा करोगे।
एक
तुम नकशा लिए घर में बैठे हो, उसकी तुम पूजा करते हो-तो कैसे पता चलेगा?
यात्रा पर निकलो तब तुम्हें पता चलेगा-अरे, इस
नक्शो में नदी बतायी है, यहां कोई नदी नहीं है! इस नक्शो में
पहाड़ बताया है, यहां कोई पहाड़ नहीं है!
एस
धम्मो सनंतनो इस नक्शो में कहा है बाएं मुड़ना, बाएं मुड़ो तो गड्डा है। यात्रा
होती नहीं। दाएं मुड़ो तो ही हो सकती है।
जब
तुम यात्रा पर निकलोगे तभी परीक्षा होती है तुम्हारे नक्शो की। उसके बिना कोई
परीक्षा नहीं। जो भी यात्रा पर गए, उन्होंने शास्त्र को सदा कम पाया। जो
भी यात्रा पर गए, उन्होंने गुरुओं को कम पाया। जो भी यात्रा
पर गए, उन्हें एक बात अनिवायरूपेण पता चली कि प्रत्येक को
अपना मार्ग स्वयं ही खोजना पड़ता है। दूसरे से सहारा मिल जाए, बहुत। पर कोई दूसरा तुम्हें मार्ग नहीं दे सकता। क्योंकि दूसरा जिस मार्ग
पर चला था, तुम उस पर कभी भी न चलोगे। वह उसके लिए था। वह
उसका था। वह उसके स्वभाव में अनुकूल बैठता था।
और
प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है।
बुद्ध
ने यह घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। इसलिए एक ही राजपथ पर सभी नहीं
जा सकते, सबकी अपनी पगडंडी होगी। इसीलिए सदगुरु तुम्हें रास्ता नहीं देता, केवल रास्ते को समझने की परख देता है। सदगुरु तुम्हें विस्तार के नक्शो
नहीं देता, केवल रोशनी देता है, ताकि
तुम खुद विस्तार देख सको, नक्शो तय कर सको। क्योंकि नक्शो
रोज बदल रहे हैं।
जिंदगी
कोई घिर बात नहीं है,
जड़ नहीं है। जिंदगी प्रवाह है। जो कल था वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं होगा।
सदगुरु
तुम्हें प्रकाश देता है,
रोशनी देता है, दीया देता है हाथ में कि यह
दीया ले लो, अब तुम खुद खोजो और निकल जाओ। और ध्यान रखना,
खुद खोजने से जो मिलता है, वही मिलता है। जो
दूसरा दे-दे, वह मिला हुआ है ही नहीं। दूसरे का दिया छीना जा
सकता है। खुद का खोजा भर नहीं छीना जा सकता। और जो छिन जाए वह कोई अध्यात्म है?
जो छीना न जा सके, वही।
पहली
गाथा :
'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है; मन उनका प्रधान
है, वे मनोमय हैं। यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है या कर्म
करता है, तो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी का
चक्का खींचने वाले बैलों के पैर का।'
छोटा
सूत्र, पर बड़ा दूरगामी। ध्यान रखना, बुद्ध किसी शास्त्र को
नहीं दोहरा रहे हैं। बुद्ध से शास्त्र पैदा हो रहा है।
'मन सभी
प्रवृत्तियों का पुरोगामी है।’
कोई
भी वृत्ति उठती है राह पर तुम खड़े हो, एक सुंदर कार निकली। क्या हुआ
तुम्हारे मन में? एक छाप पड़ी। एक काली कार निकली, एक प्रतिबिंब गंजा। कार के निकलने से वासना पैदा नहीं होती-अगर तुम देखते
रहो और तुम्हारा देखना ऐसा ही तटस्थ हो जैसे कैमरे की आख होती है। कैमरे के सामने
से भी कार निकल जाए, वह फोटो भी उतार देगा, तो भी कार खरीदने नहीं जाएगा। और न सोचेगा कि कार खरीदनी है। अगर तुम वहां
खड़े हो और कैमरे जैसी तुम्हारी आख है--तुमने सिर्फ देखा, काली
कार गुजर गयी। चित्र बना, गया। एक छाया आयी, गयी-कुछ भी कठिनाई नहीं है।
लेकिन
जब यह काली छाया कार की तुम्हारे भीतर से निकल रही है, तब
तुम्हारे मन में एक कामना जगी-ऐसी कार मेरे पास हो! मन में एक विकार उठा। एक लहर
उठी-जैसे पानी में किसी ने कंकड़ फेंका और लहर उठी। कार तो जा चुकी, अब लहर तुम्हारे साथ है। अब यह लहर तुम्हें चलाएगी।
तुम
धन कमाने में लगोगे,
या तुम चोरी करने में लगोगे, या किसी की जेब
काटोगे। अब तुम कुछ करोगे। अब वृत्ति ने तुम्हें पकड़ा। अब वृत्ति तुम्हारी कभी
क्रोध करवाएगी, अगर कोई बाधा डालेगा। अगर कोई मार्ग में आएगा
तो तुम हिंसा करने को उतारू हो जाओगे, मरने-मारने को उतारू
हो जाओगे। अगर कोई सहारा देगा तो तुम मित्र हो जाओगे, कोई
बाधा देगा तो शत्रु हो जाओगे। अब तुम्हारी रातें इसी सपने से भर जाएंगी। बस यह कार
तुम्हारे आसपास घूमने लगेगी। जब तक यह न हो जाए, तुम्हें चैन
न मिलेगा।
और
मजा यह है कि वर्षों की मेहनत के बाद जिस दिन यह तुम्हारी हो जाएगी, तुम अचानक
पाओगे, कार तो अपनी हो गयी, लेकिन अब?
इन वर्षों की बेचैनी का अभ्यास हो गया। अब बेचैनी नहीं छोड़ती। कार
तो अपनी हो गयी, लेकिन बेचैनी नहीं जाती, क्योंकि बेचैनी का अभ्यास हो गया।
अब
तुम इस बेचैनी के लिए नया कोई यात्रा-पथ खोजोगे। बड़ा मकान बनाना है! हीरे-जवाहरात
खरीदने हैं! अब तुम कुछ और करोगे, क्योंकि अब बेचैनी तुम्हारी आदत हो गयी। और अब
इस बेचैनी का तुम क्या करोगे? सालों तक बेचैनी को सम्हाला,
कार तो मिल गयी; लेकिन अब कार का मिलना न
मिलना बराबर है। अब यह बेचैनी पकड़ गयी।
इसीलिए
तो धनी बहुत लोग हो जाते हैं और धनी नही हो पाते। क्योंकि जब वे धनी होते हैं, तब तक
बेचैनी का अभ्यास हो गया उनका। जब तक धनी हुए तब तक चैन से न रह सके, सोचा कि जब धनी हो जाएंगे तब चैन से रह लेंगे। लेकिन चैन कोई इतनी आसान
बात है। अगर बेचैनी का अभ्यास घना हो गया, तो धनी तो तुम हो
जाओगे, बेचैनी कहां जाएगी? तब और धनी
होने की दौड़ लगती है। और मन कहता है और धनी हो जाएं, फिर..?। लेकिन सारा जाल मन का है।
बुद्ध
ने अपनी एक-एक वृत्ति को जांचा और पाया कि वृत्ति मन के सरोवर में उठी लहर है। वृत्ति
का मतलब ही लहर होता है। वह मन का कैप जाना है। अगर मन निष्कंप रह पाए तो कोई
वृत्ति पैदा नहीं होती। अगर मन कंप गया, तो वृत्ति पैदा हो जाती है। फिर
कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस चीज से कंपता है।
आज
से ढाई हजार साल पहले बुद्ध के समय में कार तो नहीं थी, तो कई
नासमझ
सोचते हैं कि तब बड़ी शाति थी; क्योंकि कार नहीं थी, तो
कार की तो चिंता पैदा नहीं हो सकती थी। हवाई जहाज नहीं था, तो
हवाई जहाज खरीदना है इसकी चिंता तो पैदा नहीं हो सकती थी। लेकिन तुम गलती में हो। चिंताएं
इतनी ही थीं। क्योंकि किसी के पास शानदार बैलगाड़ी थी, बग्घी
थी, वह चिंता पैदा करवाती थी। किसी के पास शानदार घोड़ा था,
वह चिंता पैदा करवाता था।
चिंता
के लिए विषय से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम लहर सरोवर में उठाने के लिए एक कंकड़ फेंको
या कोहिनूर हीरा फेंको,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोहिनूर हीरा भी वृत्ति उठाता है, साधारण कंकड़ भी उतनी ही वृत्ति उठाता है, उतनी ही
लहर उठाता है। पानी फिकर नहीं करता कि तुमने कोहिनूर फेंका कि कंकड़ फेंका। कुछ
फेंका, बस इतना काफी है। मन ने कुछ भी फेंका और उपद्रव शुरू
हुआ।
'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है, मन उनका प्रधान
है; वे मनोमय हैं। यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है या कर्म
करता है, तो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी का
चक्का खींचने वाले बैलों के पैर का।’
बुद्ध
ने एक सूत्र पाया : जीवन में दुख. है। हम भी जीवन में दुखी हैं। और जब हमें दुख
पकड़ता है तो हम पूछते हैं,
किसने दुख पैदा किया? कौन मेरा दुख पैदा कर
रहा है-पत्नी, पति, बेटा, बाप, मित्र, समाज? कौन मेरा दुख पैदा कर रहा है-आर्थिक-व्यवस्था, सामाजिक-ढांचा?
कौन मेरा दुख पैदा कर रहा है?
मार्क्स
से पूछो तो वह कहता है,
दुख पैदा हो रहा है क्योंकि समाज का आर्थिक ढांचा गलत है। गरीबी है,
अमीरी है, इसलिए दुख पैदा हो रहा है।
फ्रायड
से पूछो तो वह कहता है,
दुख इसलिए पैदा हो रहा है कि मनुष्य को अगर उसकी वृत्तियों के प्रति
पूरा खुला छोड़ दिया जाए, तो वह जंगली जानवर जैसा हो जाता है।
दुख पैदा होगा उससे। सभ्यता नष्ट हो जाएगी। अगर उसे समझाया- बुझाया जाए, तैयार किया जाए, परिष्कृत किया जाए, तो दमन हो जाता है। दमन होने से दुख पैदा होता है।
इसलिए
फ्रायड ने कहा,
दुख कभी भी न मिटेगा। अगर आदमी को बिलकुल खुला छोड़ दो, तो मार-काट हो जाएगी; क्योंकि आदमी के भीतर हजार तरह
की जानवरी वृत्तियां हैं। अगर दबाओं, ढंग का बनाओ, सज्जन बनाओ, तो दमन हो जाता है। दमन होता है,
तो दुख होता रहता है, वृत्तियां पूरी नहीं हो
पातीं। पूरी करो तो मुसीबत, न पूरी करो तो मुसीबत।
तो
फ्रायड ने तो अंत में कहा कि आदमी जैसा है, कभी सुखी हो ही नहीं सकता। सुख
असंभव है।
फ्रायड
और मार्क्स, इनका विश्लेषण ही अगर अकेला विश्लेषण होता तो पक्का है कि आदमी कभी सुखी
नहीं हो सकता। क्योंकि रूस में गरीब-अमीर मिट गए लेकिन दुख नहीं मिटा। गरीब-अमीर
मिट गए, तो दूसरे वर्ग खड़े हो गए। कोई पद पर है, कोई पद पर नहीं है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी में है, कोई
कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं है। जो पद पर है, वह इतना
शक्तिशाली हो गया है जितना धनी पुराने दिनों में कभी भी न था। और जो पद पर नहीं है,
वह इतना निर्बल हो गया है जितना भूखा, भिखमंगा,
गरीब कभी नहीं था। धनी के हाथ में इतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी रूस
में पदाधिकारी के हाथ में है। संघर्ष वहीं का वहीं खड़ा है। भेद वहीं का वहीं खड़ा
है। वर्ग नए बन गए, पुराने मिटे तो। कुछ ऐसा लगता है,
आदमी बीमारी बदलता जाता है। क्रांतियों के नाम से केवल बीमारी बदलती
है, कुछ भी बदलता नहीं। ऊपर के ढंग बदलते हैं, भीतर का रोग जारी रहता है।
सब
क्रांतियां व्यर्थ हो गयी हैं; सिर्फ बुद्ध की एक क्रांति अभी भी सार्थकता
रखती है। बुद्ध कहते हैं, तुम्हारे मन में ही कारण है। बाहर
खोजने गए, पहला कदम ही गलत पड़ गया। अब तुम ठीक कभी न हो
पाओगे। तुम्हारे मन में ही दुख का कारण है। जब भी तुम किसी को दुख देना चाहते हो,
तुम दुख पाओगे। जब भी तुम दुख देने की आकांक्षा से भरे किसी विचार
के पीछे जाते हो, तम दुख के बीज बो रहे हो। दूसरे को दुख
मिलेगा या नहीं मिलेगा, तुम्हें दुख जरूर मिलेगा। तुम अगर आज
दुख पा रहे हो, तो बुद्ध कहते हैं, कल
बोए बीजों का फल है। और अगर कल तुम चाहते हो दुख न पाओ, तो
आज कृपा करना, आज बीज मत बोना।
'यदि कोई
दोषयुक्त मन से बोलता है, सोचता है, व्यवहार
करता है, या वैसे कर्म करता है, तो दुख
उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी जाती है तो बैलों के पीछे चाक चले आते हैं।'
तुम्हारे
मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव है, तो तुम
अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुख देने का बीज है, वह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगा, किसी दूसरे
के मन की भूमि मैं नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष
भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे।
अगर
बहुत गौर से देखा जाए,
तो जब तुम दूसरे को दुख देना चाहते हो, तब
तुमने अपने को दुख देना शुरू कर ही दिया। तुम दुखी होने शुरू हो ही गए। तुम क्रोधित
हो, किसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते हो; उसे तुम करोगे या नहीं, यह दूसरी बात है, लेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू करे दिया।
बुद्ध
कहते थे, क्रोध से बड़ी कोई मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए तुम अपने को दंड
देते हो। एक आदमी ने तुम्हें गाली दी, कसूर उसका होगा,
अब क्रोधित तुम हो रहे हों-दंड तुम अपने को दे रहे हो, कसूर उसका था। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उसने गाली दी, उसकी समस्या है; तुम क्यों बीच में आते हो? तुम गाली मत लो। लेने पर
निर्भर है। लेना आवश्यक नहीं है। आप मुझे गाली दे सकते हैं, लेकिन
लेने पर थोड़े ही मजबूर कर सकते हैं। देना आपके बस में है, लेना
मेरे बस में है। उस मालकियत को मुझसे कोई कभी नहीं छीन सकता। मैं कह सकता हूं कि
नहीं लेता, फिर तुम क्या करोगे? तुम्हारी
गाली तुम्हीं पर लौट जाएगी। तुमने गाली देने के लिए जो तैयारी में दुख भोगा,
वह भोगा, अब गाली लौटेगी तब तुम जो दुख भोगोगे,
वह भोगोगे।
जब
हम किसी चीज को अपने मन के भीतर ले लेते हैं, तभी वह सक्रिय हो जाती है। और दूसरे
से लेने की कोई जरूरत नहीं है; तुम अपने भीतर ही इतने दुख के
बीज पैदा करते रहते हो। अकारण!
मैं
कलकत्ते में एक मित्र के घर मेहमान होता था। उनके पास सबसे बढ़िया कोठी है कलकत्ते
में। थी कहना चाहिए,
अब नहीं है। अब एक दूसरी कोठी खड़ी हो गयी, पड़ोस
में ही खड़ी हो गयी। जब मैं उनके घर मेहमान होता था, तो वे
हमेशा अपने मकान में मुझे ले जाते। कई बार दिखा चुके थे, मगर
फिर-फिर दिखाते। उनका रस खतम नहीं होता था। स्विमिंग-पूल, बगीचा-सब
दिखाते। उनकी आदत थी, यह मानकर मैं जब भी वे दिखाते फिर इस
तरह उत्सुकता लेता जैसे कभी नहीं देखा है। मगर आखिरी बार जब उनके घर गया, तो उन्होंने मकान न दिखाया। मैं थोड़ा हैरान हुआ, क्या
यह आदमी बदल गया! मैंने पूछा कि क्या मामला है, मकान नहीं
दिखलाइएगा? कहने लगे, क्या खाक दिखलाए!
क्या
हुआ?
देखते
नहीं कि बगल में एक बड़ा मकान खड़ा हो गया? जब तक इससे बड़ी कोठी न कर लूं तब
तक अब चैन नहीं! अब क्या दिखाना है!
इनका
मकान वैसे का वैसा ही है,
क्योंकि बगल के मकान ने इनके मकान में कुछ फर्क नहीं किया है। इनका
मकान ठीक उतना ही सुंदर है जैसा था। लेकिन बगल में एक मकान खड़ा हो गया! बड़ी लकीर
किसी ने खींच दी, इनकी लकीर छोटी हो गयी, बिना छुए। किसी ने छुआ नहीं, हाथ नहीं लगाया,
मगर बगल में एक लकीर खड़ी हो गयी।
उनकी
पत्नी ने मुझसे कहा कि कुछ समझाइए इनको; न सोते हैं, न
चैन! इनकी छाती पर बोझ हो गया है वह बगल का मकान। बगल के मकान वाले को शायद पता भी
न हो कि कोई जला- भुजा जा रहा है, कि कोई मरा जा रहा है। मगर
इस आदमी ने अपने भीतर एक बीज बो लिया। यह उस मकान से नहीं आया है, क्योंकि इसकी पत्नी को कोई तकलीफ नहीं है। इसकी पत्नी भी वहीं है, उसे कोई तकलीफ नहीं है। मकान से नहीं आया है; इसके
अपने भीतर के मन का रोग है। एक ईर्ष्या जगी है। अहंकार को चोट लगी है।
मैंने
उनसे कहा कि मैं सदा जानता था, कभी न कभी यह झंझट होगी। आप अपने मन में अपने
मकान का इतना रस लेते हैं कि कोई भी मकान अगर खड़ा हो गया, तो
आप जी न सकोगे। क्योंकि सदा आपको देखकर मुझे ऐसा लगा है, यह
मकान
आपके लिए नहीं है,
आप मकान के लिए हो। आप मालिक नहीं हो, यह मकान
मालिक है। आप वस्तु को अपना सब सम्हाल दिए हैं, दे दिए हैं
वस्तुओं को। आप गुलाम हो गए हैं। मुझे डर था कि कभी न कभी यह होगा, कोई मकान बड़ा बगल में खड़ा हो जाएगा, तो तुम न झेल
पाओगे।
वे
रुग्ण रहने लगे जब से वह मकान बन गया। मन में सारा खेल है।
यही
जिंदगी मुसीबत यही जिंदगी मसर्रत
यही
जिंदगी हकीकत यही जिंदगी फसाना
कैसी
मन की व्याख्या है,
कैसे तुम देखते हो, कैसे तुम सोचते हो,
कैसी तुम व्याख्या करते हो जीवन की-सब उस पर निर्भर है।
'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है, मन उनका प्रधान
है। यदि कोई प्रसन्न मन से बोलता है या कर्म करता है, तो सुख
उसका अनुसरण करता है-वैसे ही जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया।
अगर
तुम दुखी हो तो अपने को कारण जानना, अगर सुखी हो तो अपने को कारण जानना।
अपने से बाहर कारण को मत ले जाना। वही धोखा है। इसको ही मैं धार्मिक क्रांति कहता
हूं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के सारे कारणों को अपने भीतर देख लिया, वह व्यक्ति धार्मिक हो गया। क्योंकि अब उसके हाथ में है बात। अब दुखी होना
हो, तो तुम जानते हो कौन से बीज बोने। सुखी होना हो, तो जानते हो कौन से बीज बोने। अब कोई मजबूरी न रही। फिर अगर दुख में ही
मजा लेना हो, तो मजे से बीज बोओ; कोई
बाधा नहीं डाल सकता। लेकिन एक बात फिर तुम न कर सकोगे कि दुख के तो बीज बोओ और
रोना भी रोओ कि मैं दुखी क्यों हूं! अपने ही हाथ से जहर पीओ, और फिर रोओ कि मैं मर क्यों रहा हूं! मरना हो, मजे
से जहर पीओ। जीना हो, मत पीओ। तुम्हारे हाथ हैं, तुम्हारी प्याली है, तुम्हारा जहर है-और तुम्हीं को
जीना या मरना है।
'उसने मुझे
डांटा, मुझे मारा, मुझे जीत लिया,
मेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में बनाए रखते हैं, उनका वैर शात नहीं होता।’
उसने!
दूसरे पर जिनका सारा जोर है-उसने मुझे डाटा, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, मेरा लूट लिया-जो दूसरे पर नजर
रखते हैं...।
बुद्ध
का एक शिष्य हुआ पूर्ण काश्यप। वह निश्चित ही पूर्ण हो गया था, इसलिए उसे
बुद्ध पूर्ण कहते हैं। फिर एक दिन बुद्ध ने उससे कहा कि पूर्ण, अब तू पूर्ण सच में ही हो गया। अब मेरे साथ-साथ डोलने की कोई जरूरत न रही।
अब तू जा। अब तू गांव-गाव, नगर-नगर घूम और डोल। मेरी खबर ले
जा। मेरे पास तूने जो पाया है, उसे लुटा।
पूर्ण
ने कहा : भगवान,
किस दिशा में जाऊं? आप इशारा कर दें।
बुद्ध
ने कहा : तू खुद ही चुन ले। अब तू खुद ही समर्थ है। अब मेरे इशारे की
भी
कोई जरूरत न रही।
तो
पूर्ण ने कहा कि जाऊंगा--'सूखा' नाम का एक इलाका था बिहार में-वहां जाऊंगा। बुद्ध
ने कहा, तू खतरा मोल ले रहा है। वह जगह भली नहीं। लोग सज्जन
नहीं। लोग बड़े दुष्ट हैं और लोग सताने में रस लेते हैं। लोग तुझे परेशान करेंगे। इन
पीत-वस्त्रों में उन्होंने भिक्षु कभी देखा नहीं। वे बड़े जंगली हैं। तू वहा मत जा।
पर
पूर्ण ने कहा,
इसीलिए तो उनको मेरी जरूरत है। किसी को तो जाना ही होगा। कब तक वे
जंगली रहें? कब तक उनको पशुओं की तरह रहने दिया जाए? मुझे जाना होगा। आशा दें।
बुद्ध
ने कहा, जा; मगर मेरे दो-तीन सवालों के जवाब दे दे। पहला -
अगर वे तुझे गालियां दें, अपमान करें, तो
तुझे क्या होगा ' तो पूर्ण ने कहा, यह
भी आप मुझसे पूछते हैं, क्या होगा? आप
भलीभांति जानते हैं कि मैं प्रसन्न होऊंगा। क्योंकि मेरे मन में यह भाव उठेगा,
कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं,
मारते नहीं। मार भी सकते थे।
बुद्ध
ने कहा, ठीक। मगर अगर मारे न, मारने ही लगें, तो तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा, आप पूछते हैं? आप भलीभांति जानते हैं कि पूर्ण
प्रसन्न होगा, कि धन्यभाग कि मारते हैं, मार ही नहीं डालते। मार भी डाल सकते थे।
बुद्ध
ने कहा, आखिरी सवाल, पूर्ण। अगर मार ही डालें, तो मरते वक्त तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा,
आप, और पूछते हैं? आपको
भलीभांति मालूम है कि जब मैं मर रहा होऊंगा तो मेरे मन में होगा, धन्यभाग, उस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई
भूल-चूक हो सकती थी।
बुद्ध
ने कहा, अब तू जा। अब तुझे जहां जाना है, तू जा। अब तुझे कोई
गाली नहीं दे सकता। अब तुझे कोई मार नहीं सकता। अब तुझे कोई मार डाल नहीं सकता। ऐसा
नहीं कि वे तुझे गाली न देंगे; गाली तो वे देंगे, लेकिन तुझे अब कोई गाली नहीं दे सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे मारेंगे नहीं;
मारेंगे, लेकिन तुझे अब कोई मार नहीं सकता। और
कौन जाने, कोई तुझे मार भी डाले; लेकिन
अब तू अमृत है। अब तेरी मृत्यु संभव नहीं।
सारा
खेल मन का है,
कैसे हम देखते हैं!
'उसने मुझे
डांटा, उसने मुझे मारा, मुझे जीत लिया,
मेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में नहीं बनाए रखते हैं, उनका वैर शात हो जाता है।’
और
वैर नर्क है। कहीं और कोई नर्क नहीं; शत्रुता में जीना नर्क है। तुम
जितनी शत्रुता अपने चारों तरफ बनाते हो, उतना तुम्हारा नर्क
बड़ा हो जाता है। तुम जितनी मित्रता अपने चारों तरफ बनाते हो, उतना स्वर्ग खड़ा हो जाता है। स्वर्ग मित्रों के बीच जीने का नाम है। नर्क
शत्रुओं के बीच जीने का नाम है। और सब तुम पर निर्भर है। नर्क कोई भौगोलिक जगह
नहीं है, और न स्वर्ग कोई भौगोलिक जगह है। नक्शो
में
मत पड़ना। मनोदशाएं हैं। स्टेट्स आफ माइंड।
जब
तुम सारे जगत को मित्र की तरह देखते हो-ऐसा नहीं कि सारा जगत मित्र हो जाएगा, इस भूल
में मत पड़ना--लेकिन तुम जब सारे जगत को मित्र की भांति देखते हो, तुम्हारे लिए जगत मित्र हो गया, तुम्हारे शत्रु
समाप्त हो गए। और अगर कोई तुम्हारी शत्रुता करेगा, तो वह
शत्रुता उसके मन में होगी, वह उसकी पीड़ा पाएगा। लेकिन
तुम्हें कोई पीड़ा नहीं दे सकता।
'इस संसार
में वैर से वैर कभी शात नहीं होता। अवैर से ही वैर शात होता है। यही सनातन धर्म है,
यही नियम है।
नहि
वेरेन वेरामि सम्मन्तीध कुदाचनं
अवेरेन
व सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।
यही
सनातन धर्म है। शत्रुता से शत्रुता समाप्त नही होती। क्रोध से क्रोध समाप्त नहीं
होता। वैर से वैर नहीं मिटता। और जितना वैर बढ़ता जाता है, उतना तुम
अपने चारों तरफ अपने हाथों नर्क निर्मित करते चले जाते हो।
यह
जगत तुम्हारी कृति है। तुम चारों तरफ अपना परिवेश बनाते हो। यह बात तुम्हें दिखायी
पड़ जाए, यह इशारा तुम्हें समझ आ जाए, तो तुम्हें फिर कोई दुख
नहीं दे सकता। तुम्हारा स्वभाव तब सुख हो जाएगा।
फैलाओ
मैत्री!
महावीर
ने कहा है : मित्ति मे सव्व भूए सू वैरं मज्झ न केवई। मेरी मित्रता सबसे है, सारे
विश्व से है। --सव्व भूए सू। और वैर मेरा किसी से भी नहीं।
महावीर
के कानों में भी कीलें ठोकने वाले मिल गए, पत्थर मारने वाले मिल गए। महावीर
को गाव-गांव से खदेड़ कर बाहर निकालने वाले मिल गए। लेकिन महावीर यही कहते रहे,
वैर मज्झ न केवई--मेरी किसी से कोई शत्रुता नहीं। उनकी होगी,
उनका हिसाब वे जानें।
अभी
कुछ दिन पहले मैं एक कहानी कह रहा था कि दो मनोवैज्ञानिक, एक ही
मकान में उनका दफ्तर था, रोज सुबह आते, लिफ्ट में सवार होते, अक्सर साथ-साथ सवार होते। वह
जो लिफ्ट को चलाने वाला सेवक था, वह बड़ा हैरान था। जब भी वे
दोनों साथ-साथ जाते तो पहले एक मनोवैज्ञानिक उतरता, दसवीं-बारहवीं
मंजिल पर कहीं। जब भी वह उतरता, दरवाजे से लौटकर दूसरे
मनोवैज्ञानिक के ऊपर थूकता, चला जाता अपनी तरफ; और दूसरा चुपचाप अपना रूमाल निकालकर अपना मुंह पोंछ लेता, टाई पोंछ लेता, या कोट पर पड़ गया होता यूक, पोंछ लेता, रख लेता और अपना बस तैयारी करने लगता,
क्योंकि पंद्रहवीं या बीसवीं मंजिल पर उसको उतरना था। आखिर उस
लिफ्टमैन को और सम्हालना मुश्किल हो गया।
एक
दिन उसने कहा कि यह बात बहुत हुई जा रही है, यह मामला क्या है? यह आदमी क्यों आपके ऊपर थूकता है?
तो
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा,
यह उसकी समस्या है, उसी से पूछो। मेरा इसमें
कोई हाथ ही नहीं है। यह समस्या उसकी है, उसी से पूछो। बेचारा!
जरूर कोई न कोई पागलपन उसे सवार है। मेरा तो कुछ भी नहीं बिगड़ता। पोंछ लेता हूं। उसकी
सोचो! असली तकलीफ वही पा रहा है। थूकने के पहले तकलीफ पाता होगा, थूकते वक्त तकलीफ पाता है, पीछे तकलीफ पाता होगा। क्योंकि
समस्या उसकी है, वही कुछ कर रहा है। हम तो केवल दर्शक हैं।
अगर
जीवन को ऐसे देखने की कला आ जाए तो फिर तुम्हें कोई दुख नहीं दे सकता। दूसरा देना
भी चाहे तो यह उसकी समस्या है। और तुम इस भ्रांति में कभी मत पड़ना कि वैर से तुम
दूसरों के वैर को मिटा दोगे। कभी कोई नहीं मिटा पाया। प्रेम से ही मिटता है वैर। करुणा
से ही मिटता है क्रोध।
'इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होते, अवैर से
ही होते हैं। यही सनातन नियम है।
यह
बुद्ध के धर्म की आधारशिला है।
और
थोड़ा सोचो भी कि कौन तुम्हें सुख दे पाता है, कौन तुम्हें दुख दे पाता है! सब
तुम्हारे मन का ही हिसाब है। अभी घडी भर पहले जो बात सुख देती थी, घड़ी भर बाद दुख देने लगती है। अभी जो बात दुख दे रही है, घड़ी भर बाद सुख दे सकती है। तुम्हारी व्याख्या! तुम कैसे उस बात को पकड़ते
हो! क्या उस बात को रंग देते हो! क्या रूप देते हो! और अगर तुम्हें यह दिखायी पड़
जाए कि कोई दूसरा सुख नहीं दे सकता, तो दुख कैसे देगा?
किसने तुम्हें कभी कोई सुख दिया, याद है कुछ?
किसने तुम्हें कभी कोई आनंद दिया, याद है कुछ?
और जब किसी ने कोई सुख नहीं दिया, तो दुख कोई
क्या देगा!
मैं
एक गीत कल पढ़ता था। बात मूल्यवान लगी-
डरूं
मैं किसलिए गुस्से से,
प्यार में क्या था
मैं
अब खिजां को जो रोऊं,
बहार में क्या था
डरूं
मैं किसलिए गुस्से से,
प्यार में क्या था
जब
दूसरे के प्यार से कुछ न मिला, तब उसके गुस्से से क्या परेशान होना है! जब
प्यार ही कुछ न दे सका, तो गुस्सा क्या छीन लेगा?
मैं
अब खिजां को जो रोऊं,
बहार में क्या था
और
अब पतझड़ आ गयी,
सब वीरान हुआ जाता है-इसको रोऊं? लेकिन बहार में
क्या था? जब बहार थी तब भी जब कुछ पास न था; जब बहार में भी कोई सुख
न
मिला, तो अब पतझड़ में दुख का क्या प्रयोजन है?
लेकिन
आदमी बड़ा अजीब है! जिनसे तुम्हें सुख नहीं मिला, उनसे भी तुम दुख
ले
लेते हो। जिनके जीते-जी तुम्हें कभी कोई शाति नहीं मिली, उनके मरने
पर तुम रोते हो।
मैं
एक युगल को जानता हूं। जब तक पति जिंदा रहा, पति और पत्नी निरंतर कलह करते रहे।
कभी-कभी मेरे पास आते थे। लेकिन सुलझाव कोई आसान न था। सब उलझाव सुलझ जाएं,
पति-पत्नी के बड़े मुश्किल से सुलझते हैं, क्योंकि
सुलझाना ही नहीं चाहते। शायद वही उनकी जिंदगी है, वही
व्यस्तता है, वही कुल भराव है। वह भी चला जाए, तो फिर बड़ा खाली हो जाता है। कई बार तलाक देने की बात भी उठी, लेकिन उस पर भी राजी न हो पाते थे। फिर पति शराब पीने लगा। और शराब
पीते-पीते मरा। जवान ही था, अभी कोई छत्तीस साल उम्र थी,
ज्यादा नहीं थी। जब मर गया तो पत्नी मेरे पास आयी, छाती पीट-पीटकर रोने लगी।
मैंने
उससे कहा, अब तू रोना बंद कर। क्योंकि जिस आदमी के कारण तू कभी हंसी नहीं, उसके लिए रोना क्या? और मैं जानता हूं कि हजार बार
तेरे मन में यह सवाल उठता रहा होगा कि यह आदमी मर ही जाए तो अच्छा! बोल, झूठ कहता हूं या सच? वह थोड़ी चौंकी। उसने कहा,
आपको कैसे पता चला?
पता
चलने की क्या बात है?
कितनी बार तूने नहीं सोचा है कि यह आदमी मर ही जाए तो झंझट मिटे। अब
मर गया। आकांक्षा पूरी हो गयी। अब क्यों रोती है? जिससे तुझे
सुख नहीं मिला, उससे दुखी होने का क्या प्रयोजन है?
लेकिन
यही बड़े मजे की बात है। सुख लेने में तो तुम बड़े कंजूस हो, दुख लेने
में तुम बड़े कुशल हो। सुख तो तुम बामुश्किल स्वीकार करते हो। दुख, तुम द्वार सजाकर खड़े हो सदा। स्वागतम! हाथ फैलाए खड़े हो सदा। तुम दुखी
होना चाहते हो! दुखवादी हो! अन्यथा कोई कारण नहीं तुम्हारे दुखी होने का।
जीवन
को जो जानते हैं,
वे पहचान लेते हैं कि न तो दूसरे से सुख मिलता है, न दुख मिलता है। न तो किसी के जीवन से तुम्हें जीवन मिलता है, न किसी की मौत से तुम्हें मौत मिलती है।
डरूं
मैं किसलिए गुस्से से,
प्यार में क्या था
मैं
अब खिजां को जो रोऊं,
बहार में क्या था
और
जब तुम्हें दोनों बातें साफ दिखायी पड़ जाती हैं, तब जैसे एक उदघाटन हो जाता
है भीतर, एक बिजली कौंध जाती है कि यह मैं ही हूं अपनी ही
शकल देखता हूं दूसरे तो केवल दर्पण हैं। अपने ही प्रतिबिंब, अपनी
ही प्रतिध्वनि, अपनी ही परछाईं पकड़ता हूं दूसरे तो केवल
दर्पण हैं; घाटियां हैं, जिनमें अपनी
ही आवाज गुंजकर लौट आती है।
इसे
बुद्ध एस धम्मो सनंतनो कहते हैं, यही धर्म का सनातन सूत्र है। न परमात्मा,
न मोक्ष, न वेद, न
आत्मा-कोई भी धर्म के मूल आधार नहीं हैं। बुद्ध कहते हैं, एस
धम्मो सनंतनो-यह छोटा सा सूत्र कि तुम्हारे दुख के कारण तुम हो, तुम्हारे सुख के कारण तुम हो और दूसरे को दुख देने से तुम कभी सुख न पा
सकोगे, दूसरे को सतानें से कभी तुम उत्सव न मना सकोगे।
वैर
से वैर शांत नहीं होता,
अवैर से शात हो जाता है। अवैर बरस जाए, वैर की
अग्नि शांत हो जाती है। फिर हो या न हो शात, यह कोई सवाल
नहीं है; तुम्हारे लिए समाप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति को यह
सूत्र समझ में आ गया, उसके लिए नर्क नहीं है, वह यहीं इसी क्षण स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाता है। उसका स्वर्ग कल नहीं है,
उसका स्वर्ग अभी है।
'हम इस
संसार में नहीं रहेंगे, सामान्यजन यह नहीं जानते। और जो इसे
जानते हैं, उनके सारे कलह शात हो जाते हैं।
बड़ी
थोड़ी देर का बसेरा है,
रैन बसेरा! सुबह हुई और चल पड़ेंगे यात्री। यह कारवां यहीं ठहरा न
रहेगा। ये तंबू हैं, जिनको तुमने घर समझा है। ये अभी-अभी
लगाए हैं, अभी-अभी उखाड़ने का वक्त आ जाएगा। और कितने कारवां
तुमसे पहले निकल चुके हैं! उनके पदचिह्न भी नहीं रह गए। खों गए हैं बिलकुल। दूर
उनके पैरों की, घुड़सवारों की उड़ती धूल भी दिखायी नहीं पड़ती। सिकंदर
की फौजों की उड़ती धूल भी अब दिखायी नहीं पड़ती।
यहां
क्षण भर हम हैं। हम जैसे बहुत लोग पहले थे। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक-एक आदमी के
नीचे कम से कम दस-दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। तुम जहां बैठे हो वहां दस आदमी मर
चुके हैं। हर आदमी मरघट पर बैठा है, लाशों के ढेर पर बैठा है। कितनी
देर तुम जिंदा रहोगे? थोड़ी देर, जल्दी
तुम भी ग्यारहवीं लाश बन जाओगे और बारहवां आदमी तुम्हारे ऊपर बैठा होगा। कारवां की
उड़ती धूल भी दिखायी नहीं पड़ती, कारवां खुद ही धूल हो गए।
इस
संसार में सदा नहीं रहेंगे,
ऐसा जिसको समझ में आ गया, उसी को इस संसार में
रहने का ढंग आ गया। जिसको समझ में आ गया कि ओस की बूंद है, अब
गिरी, तब गिरी; भोर की तरैया है,
अब डूबी, तब डूबी। क्षणभर का खेल है। फिर क्या
चिंता है? फिर किसको दुख देना है, किसको
पीड़ा देनी है, किससे शत्रुता लेनी है? शत्रुता
हम ले पाते हैं इसी आधार पर कि जैसे सदा रहना है।
तुम
थोड़ा सोचो, अगर इसी वक्त खबर आ जाए कि आज सांझ तुम्हारी मौत हो जाएगी-पक्की खबर आ
जाए-क्या तुम अपने दुश्मनों से क्षमा नहीं मांग आओगे? क्या
तुम उनसे जिनको मिटाने को तत्पर थे, क्षमायाचना नहीं कर लोगे?
क्या वैर समाप्त नहीं हो जाएगा? जाते आदमी का
क्या, कौन सा वैर! किसकी शत्रुता! कैसी शत्रुता! जब विदा
होने का क्षण आ जाएगा, तुम सभी से क्षमा मांग लोगे। लेकिन
पक्का नहीं कि वह क्षण कब आएगा। अभी आ सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि कभी न
कभी आएगा। ज्यादा देर नहीं है। जो कली खिल गयी, अब फूल के
कुम्हलाने में ज्यादा समय नहीं है। सुबह हो गयी, सूरज चढ़ आया-सांझ
को कितनी देर है? प्रतिपल सांझ हुई जाती है। सुबह के साथ ही
सांझ हो गयी।
जिसको
ऐसा दिखायी पड़ जाता है,
वह फिर इस जगत में वैर के बीज नहीं बोता। फिर वह कल्याणमित्र हो
जाता है। फिर वह मैत्री बोता है। वह अपने चारों तरफ स्वर्ग की फसल काटता है।
'हम इस
संसार में नहीं रहेंगे, सामान्यजन यह नहीं जानते हैं।
ऐसे
जीते हैं जैसे सदा यहां रहना है। उसी से सारी भूल हो जाती है।
और
जो इसे जानते हैं,
उनके सारे कलह शात हो जाते हैं।’
क्षणभंगुर
है जीवन। आंख झपकी,
क्षणभर का सपना है जीवन। इस पर बहुत भरोसा मत कर लेना। इस पर तुमने
जितना ज्यादा भरोसा किया, उतने ही भटक जाओगे। इसमें सो मत
जाना। इसमें खो मत जाना। जागे रहना।
नींद
स्वाभाविक लगती है,
क्योंकि नींद सनातन की आदत हो गयी है। जागना कठिन मालूम पड़ता है,
क्योंकि कभी जागे नहीं। लेकिन एक बार तुम जाग जाओगे, तो यह जीवन तो क्षणभंगुर हो जाएगा, महाजीवन के द्वार
खुलेंगे। एक बार तुम जागकर देख लोगे तो तुम हंसोगे-क्या सपने देखते थे, जब कि सत्य के खजाने उपलब्ध थे!
लेकिन
बुद्ध उन खजानों के संबंध में कुछ भी नहीं कहते। वे कहते हैं, डर है। खजाने
की बात भी तुम सुन लेते हो सपने में, तो तुम उसका भी सपना
बना लेते हो, और नींद तुम अपनी गहरी कर लेते हो। इसलिए बुद्ध
कहते हैं, वे उस संबंध में कुछ भी न कहेंगे। इतना ही कहेंगे
कि तुम जहां हो, गलत हो।
इसलिए
बुद्ध निषेधात्मक हैं,
निगेटिव हैं। उनका धर्म नकार का है। वे ब्रह्म की बात नहीं करते,
क्योंकि वह तो उसकी बात हो जाएगी जो खुली आख से दिखायी पड़ता है। वे
मोक्ष की बात नहीं करते, क्योंकि तुमसे क्या मोक्ष की बात
करनी! तुम इतनी गहरी नींद में पड़े हो; तुमने संसार की ऐसी
शराब पी ली है कि तुमसे क्या मोक्ष की बात करनी! शराब के नशे में तुम मोक्ष को
सुनोगे भी, तो भी कुछ और समझोगे। अनर्थ हो जाएगा। वे कहते
हैं, इतना ही समझो कि तुम नाली में पड़े हो, बेहोश पड़े हो, जागो!
बुद्ध
मेटाफिजिक्स,
दर्शनशास्त्र की बात नहीं करते। बुद्ध चिकित्सक हैं। वे सिर्फ
तुम्हारी बीमारी की बात करते हैं। और निदान उनका दुरुस्त है, शत-प्रतिशत सही है। इस निदान पर सोचना।
बुद्ध
का धर्म भरोसे का नहीं है;
गहन सोच-विचार, चिंतन-मनन, और उसी चिंतन-मनन और सोच-विचार से उठे हुए ध्यान का धर्म है। परमात्मा,
आत्मा, मोक्ष-ये शब्द बुद्ध के लिए पराए हैं। बुद्ध
तो तुम्हारे मन का खंड-खंड करेंगे। क्योंकि तुम्हारा मन ही एकमात्र सवाल है। अगर
तुम उस मन से जाग गए, तो वह शेष सब तुम पा लोगे जो उपनिषदों
ने कहा है, वेदों ने कहा है, कुरान ने
कहा है, बाइबिल ने कहा है।
लेकिन
बुद्ध उसको कहते नहीं,
इस बात को स्मरण रखना। जो पाना है, वह पाकर ही
जाना जाएगा। उसकी चर्चा व्यर्थ है। और उसकी चर्चा खतरनाक है।
झेन
फकीर हैं जापान में-बुद्ध को प्रेम करते हैं, सुबह-सांझ पूजा करते हैं-लेकिन वे
कहते हैं, अगर बुद्ध का भी बहुत ज्यादा विचार मन में आने लगे
और बुद्ध के प्रति भी बहुत ज्यादा लगाव बनने लगे, तो सावधान!
कहीं नींद में नया सपना तो नहीं आ रहा है! झेन फकीर कहते हैं, अगर बुद्ध रास्ते पर मिल जाएं, उठाकर तलवार काट देना।
बोकोजू
अपने गुरु के पास था। उसके गुरु ने कहा कि देख, अब वह खतरा करीब आ रहा है जब बुद्ध
तुझे रास्ते पर मिलेंगे। डरना मत। लगाव भी मत करना। राग मत लगाना। उठाकर तलवार काट
देना; दो टुकड़े, खंड-खंड कर देना बुद्ध
के। चाहे तोड़कर नमस्कार कर लेना, लेकिन पहले तोड़ देना।
बोकोजू
ने कहा, लेकिन तलवार? कहां से तलवार लाऊंगा वहां? गुरु ने कहा, घबड़ा मत, जहां से
बुद्ध को लाया-कल्पना का सब जाल है-वहीं से तलवार भी ले आना। उठाकर तलवार काट ही
देना। कहीं ऐसा न हो कि बुद्ध का सपना आने लगे।
बुद्ध
ने सपने को कोई सहारा नहीं दिया। बुद्ध से बड़ा मूर्तिभंजक जगत में नहीं हुआ है। और
बड़े विडंबना की बात है,
बुद्ध से ज्यादा मूर्तियां किसी की नहीं हैं। और उनसे बड़ा
मूर्तिभंजक कोई नहीं है!
उर्दू
में शब्द है बुद्ध के लिए,
बुत। बुत जो है, जिसका मतलब अब मूर्ति होता है,
बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं बुद्ध की कि
बुद्ध शब्द बुत होकर मूर्ति का ही पर्यायवाची हो गया। और इतना बड़ा मूर्तिभंजक कोई
भी नहीं!
बुद्ध
की तलवार तुम्हें काटेगी,
तुम्हें खंड-खंड करेगी। तुम्हारी श्रद्धाओं, विश्वासों
को, तुम्हारी मान्यताओं को तोड़ेगी, ताकि
तुम ही बचो तुम्हारी शुद्धता में, तुम्हारी परिपूर्ण
निर्दोषता में, तुम्हारे कवांरेपन में। वही बच जाए जो काटा
नहीं जा सकता; नैनं छिदंति शस्त्राणि-जिसे छेदा नहीं जा सकता,
जिसे जलाया नहीं जा सकता।
बुद्ध
छेदेंगे और जलाएंगे,
ताकि जो छेदा जा सकता है वह छिद जाए, जो जलाया
जा सकता है वह जल जाए और फिर तुम बच जाओ तुम्हारी परिशुद्ध अवस्था में। वही वेदों
का ब्रह्म है; महावीर का कैवल्य है; कपिल
और कणाद का मोक्ष है; बुद्ध का वही निर्वाण है।
निर्वाण
शब्द नकारात्मक है। निर्वाण का अर्थ होता है, दीए को फूंककर बुझा देना। एक दीया
जल रहा है, अंधेरी रात है; तुमने फूंक
मारी और दीया बुझ गया;
फिर
तुम यह नहीं पूछते कि यह ज्योति कहां गयी? बुद्ध कहते हैं, ऐसा ही निर्वाण है। मैं चाहूंगा कि तुम फूंक मारो और अपने को बुझा दो। और
फिर मत पूछो कि कहां गए। खो गयी अनंत में, हो गयी एक 'एक' के साथ! मगर पूछो मत कहां गयी! निराकार के साथ
एक हो गयी। मगर पूछो मत! कहने में बात बिगड़ जाएगी। चुप्पी और चुप्पी में समझ लो।
ऐसे, बड़े गहन
बुद्ध के विश्लेषण और निषेध में हम उतरेंगे। अगर तुम हिम्मत पूर्वक बुद्ध के
विश्लेषण में उतर जाओ, तो बुद्ध तुम्हें परम स्वास्थ्य की
दशा में ला सकते हैं।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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