सन्यास वैराग्य
में हेतु रूपा
: मृत्यु—तीसरा
प्रवचन
द्वितीय
बल्ली :
अन्यत्छेूयोध्न्यदुतैव
प्रेयस्ते
उभे नानाथें
पुरुषं सिनीत:।
तयो: श्रेय
आददानस्य
साधु भवति
हीयतेsर्थाद्य उ
प्रेयो
वृणीते।। 1।।
श्रेयश्च
प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ
सम्परीत्य
विविनक्ति
धीर:।
श्रेयो हि
धीरोऽभि
प्रेयसो
वृणीते
प्रेयो मन्दो
योगक्षेमाद्
वृणीते।। 2।।
स त्वं
प्रियान्
प्रियरूपाक्य
कामानभिध्यायन्नचिकेतोइत्यस्राक्षी:।
नैतान् सृंकां
वित्तमयीमवाप्तो
यस्यां
मंजन्ति बहवो मनुष्य।:।।
3।।
दूरमेते
विपरीते
विषूची
अविद्या या च
विद्येति
ज्ञाता।
विद्याभीप्सिन
नचिकेतसं
मन्ये न त्वा
कामा बहवोऽलोलुपन्त।।4।।
अविद्यायामन्तरे
वर्तमाना:
स्वयं धीरा:
यण्डितम्मन्यमाना:।
इस प्रकार
परीक्षा करके
जब यम ने समझ
लिया कि
नचिकेता
दृढ़निश्चयी
परम
वैराग्यवान
एवं निर्भीक.
है अत: ब्रह्मविद्या
का उत्तम
अधिकारी है तब
ब्रह्मविद्या
का उपदेश आरंभ
करने के पहले
उसका महत्व
प्रकट करते
हुए यम ने कहा—श्रेय
अर्थात
कल्याण का
साधन अलग है
और प्रेय अर्थात
प्रिय लगने
वाले भोगों का
साधन अलग है।
वे भिन्न—
भिन्न फल देने
वाले दोनों
साधन मनुष्य
को बांधते हैं
अपनी—अपनी ओर
आकर्षित करते
हैं। उन दोनों
में से श्रेय अर्थात
कल्याण के
साधन को ग्रहण
करने वाले का कल्याण
होता है।
परंतु जो
प्रेय अर्थात
सांसारिक
भोगों के साधन
को स्वीकार
करता है वह
यथार्थ लाभ से
वंचित रह जाता
है।। 1।।
श्रेय और
प्रेय दोनों
ही मनुष्य के
सामने आते हैं।
बुद्धिमान
मनुष्य उन
दोनों के
स्वरूप पर भलीभांति
विचार करके उनको
पृथक—पृथक
करके समझ लेता
है। और वह
श्रेष्ठबुद्धि
मनुष्य परम
कल्याण के साधन
को ही भोग—साधन
की अपेक्षा
श्रेष्ठ समझकर
ग्रहण करता है।
परंतु
मंदबुद्धि
वाला लौकिक
योगक्षेम की
इच्छा से
भोगों के
साधनरूप
प्रेय को
अपनाता
है।।2।।
हे नचिकेता!
तुम ऐसे
निस्पृह हो कि
प्रिय लगने
वाले और
अत्यंत सुंदर
रूप वाले इस
लोक और परलोक
के समस्त
भोगों को
भलीभांति सोच—
समझकर तुमने
छोड़ दिया। इस संपत्तिरूप
श्रृंखला को
बेड़ियों को
तुम नहीं
प्राप्त हुए
इसके बंधन में
तुम नहीं फंसे
जिसमें बहुत से
मनुष्य फंस
जाते हैं।। 4।।
जो कि
अविद्या और
विद्या नाम से
विख्यात हैं ये
दोनों परस्पर
अत्यंत
विपरीत और
भिन्न— भिन्न
फल देने वाली
हैं तुम
नचिकेता को
मैं विद्या का
अभिलाषी
मानता हूं।
क्योंकि
तुमको बहुत से
भोग किसी
प्रकार भी
नहीं लुभा सके।।
४।।
अविद्या के
भीतर रहते हुए
भी अपने आपको
बुद्धिमान और
विद्वान
मानने वाले
मूड लोग नाना
योनियों में
चारों ओर
भटकते हुए ठीक
वैसे ही ठोकरें
खाते रहते हैं
जैसे अंधे
मनुष्य के द्वारा
चलाए जाने
वाले अंधे
अपने लक्ष्य
तक न पहुंचकर
इधर—उधर भटकते
और कष्ट भोगते
हैं।।5।।
मनुष्य
दो भांति से
विकसित होता
है। एक तो
उसके पास साधन, सुविधाएं,
संपत्ति, परिग्रह
बढ़ता चला जाए,
लेकिन
आत्मा न बढ़े।
और दूसरा, उसकी
अंतस—चेतना
बढ़े। संसार
में जो भी हम
पा सकते हैं, उससे हम
विकसित नहीं
होते। हमारी
शक्ति भला
विकसित होती
हो, हमारे
महल बड़े हो
जाते हों, हमारी
धन की राशि
बड़ी हो जाती
हो, हमारा
ज्ञान बड़ा
संग्रह बन
जाता हो, स्मृति
भरपूर हो जाती
हो; उपाधियां,
सम्मान, सत्कार
मिल जाते हों,
लेकिन भीतर
की चेतना, भीतर
की आत्मा, बीइंग,
वैसा ही
अविकसित रह
जाता है जैसा
जन्म के साथ था।
बाहर
की यह दौड़ सभी
को पकड़ लेती
है। भीतर की
दौड़ बड़ी
मुश्किल से
कभी किसी को
पकड़ती है।
उसके भी कारण
हैं।
बाहर
की दौड़ इसलिए
आसानी से पकड़
लेती है कि बाहर
का हमें
इंद्रियों के
द्वारा अनुभव
होता है। आंखों
से दिखाई पड़ती
हैं वस्तुएं, कानों से
ध्वनियां
सुनाई पड़ती
हैं, नाक
गंध की खबर
देती है, स्वाद
मिलता है।
शरीर के सारे
उपकरण बाहर की
खबर देते हैं,
भीतर की कोई
खबर नहीं देते।
शरीर विकसित
ही इसलिए हुआ
है कि उससे
बाहर की खबर
मिल सके। शरीर
आत्मा और बाहर
के बीच सेतु
है, इसलिए
शरीर बाहर की
खबर देता है।
इस खबर के
मिलते ही
चेतना बाहर की
तरफ दौड़नी शुरू
हो जाती है।
आंखे
बाहर देखती
हैं, भीतर
तो देखती नहीं।
और जहां हमें
दिखाई पड़ता है,
वहीं मार्ग
भी मालूम होता
है। समस्त
इंद्रिया
बहिर्गामी
हैं। होंगी ही।
क्योंकि
अंतर्गामी
इंद्रियों की
कोई जरूरत नहीं
है। जो भीतर
है मेरे, उसे
तो मैं बिना
इंद्रियों के
भी जान ले
सकता हूं। जो
बाहर है, उसे
बिना
इंद्रियों के
जानने का कोई
उपाय नहीं है।
मनुष्य
की सारी
इंद्रियों का
विकास बाहर के
जगत को जानने
की आकांक्षा से हुआ
है। मेरे हाथ
आपको छू सकते
हैं। मेरे हाथ
से मैं सब कुछ
पकड़ सकता हूं
सिर्फ अपने
हाथ को छोड्कर।
मेरी आंखे सब
कुछ देख सकती
हैं, सिर्फ
मेरी आंखे खुद
को नहीं देख
सकतीं। आँख-आंख
को ही नहीं
देख सकती।
स्वभावत:
इस कारण चेतना
बाहर की तरफ
बहती है। और
हम बाहर के संग्रह
में, बाहर
के संसार में,
बाहर की
वस्तुओं में,
उनके बढ़ाने
में, उनके
विकास में
संलग्न हो
जाते हैं। ऐसे
एक आदमी
संपत्तिशाली
हो जाता है और
भीतर दरिद्र
रह जाता है।
ऐसे एक आदमी
महाशक्तिशाली
हो जाता है—बाहर
की दुनिया में,
लेकिन भीतर
दीन रह जाता
है। और जब तक
भीतर दीनता है,
तब तक बाहर
की कोई शक्ति
और सामर्थ्य
किसी काम में
आने वाली नहीं।
दूसरी
बात, हमारे
चारों तरफ
बाहर दौड़ते
हुए लोग हैं, और आदमी का
मन बड़ा नकलची
है। हम सीखते
ही सारी बातें
नकल से हैं।
भाषा घर में
जो बोली जाती
है, बच्चा
सीख लेगा।
स्वभावत: और
किसी भाषा को
सीखने का उपाय
भी नहीं है।
घर के मां—बाप
जिस धर्म को
मानते हैं, बच्चा भी
मानने लगेगा।
जिस
मंदिर में
प्रार्थना—पूजा
करते हैं ?ई वह भी
वहां जाने
लगेगा। घर, परिवार, गांव,
समाज, देश
के लोग जिस
तरफ दौड़ रहे
हैं, बच्चा
भी उसी दौड़
में सम्मिलित
हो जाएगा।
हम
भीड़ के साथ
बहते हैं। सभी
लोग बाहर की
तरफ दौड़ रहे
हैं। उन सबके
साथ हम भी
दौड़ते चले
जाते हैं।
सारा शिक्षण
बाहर की
यात्रा का है, अंतर—यात्रा
का कोई शिक्षण
नहीं है।
इस
देश ने कुछ
कोशिश की थी।
जब ये उपनिषद
रचे गए, तब वह कोशिश
अपनी चरम
अवस्था में थी।
इसके पहले की
कोई बच्चा
बाहर के संसार
से जुड़े, हम
उसे भेज देते
थे गुरुकुल, उन लोगों के
पास जो भीतर
की तरफ दौड़
रहे हैं। इसके
पहले कि कोई
बाहर की तरफ
जाए, हम
उसे भीतर का
स्वाद दे देना
चाहते थे।
एक
बार भी वह
स्वाद आ जाए, तो फिर
बाहर का कोई
भी स्वाद उससे
कीमती कभी भी
नहीं हो पाता।
और एक बार इस
बात का रस आ
जाए कि भीतर
भी एक जगत है, तो बाहर की
सब दौड़ फीकी
और उदास मालूम
होने लगती है।
फिर कोई बाहर
चले भी तो भी
कर्तव्यवश
चलता है, वासनावश
नहीं। फिर कोई
बाहर के जीवन
में संलग्न भी
रहे, तो
साक्षी की तरह
संलग्न होता
है, भोक्ता
की तरह नहीं।
सिर्फ
भारत ने एक
अनूठा प्रयोग
किया था कि
इसके पहले कि
भीड़ पकड़ ले और
आदमी बाहर की
तरफ बहने लगे, हम उसे
गुरुकुल भेज
देते थे, ताकि
वह उन लोगों
के सान्निध्य
में बैठ जाए
जो भीतर की
तरफ बह रहे
हैं। उस हवा
में वह भी
भीतर की तरफ
बह पाए। और
थोड़ा—सा उसे
बोध हो जाए, थोड़ा संगीत
सुनाई पड़ने
लगे, थोड़ो
भीतर की वीणा
बज उठे, फिर
हम उसे संसार
में भेज देते
थे, निर्भीक।
हमने
इस देश में
जीवन के चार
चरण किए थे।
पहले चरण को
हमने
ब्रह्मचर्य
कहा था। यह
शब्द बड़ा
अनूठा है। इस
शब्द का अर्थ
है—ईश्वर जैसी
चर्या।
ब्रह्म जैसी
चर्या।
ब्रह्म जैसा
आचरण। यह शब्द
उतना छोटा
नहीं है जैसा
कि लोगों ने इसे
मान रखा है।
लोग तो समझते
हैं कि शायद
वीर्य का
निरोध ब्रह्मचर्य
है। यह बड़ी
क्षुद्र
व्याख्या है।
वीर्य का
निरोध तो सहज
हो जाता है।
लेकिन ईश्वर
जैसी चर्या
अगर हो, तो वीर्य का
निरोध तो छाया
की भांति पीछे
चला आता है।
वह कोई मौलिक,
वह कोई
आधारभूत बात
नहीं है। वह
तो जो बाहर की
तरफ दौड़ रहा
है, उसका
ही वीर्य भी
बाहर की तरफ
दौडता है। जो
भीतर की तरफ
चलने लगा, उसके
वीर्य की गति
भी अंतर्मुखी
हो जाती है।
ईश्वर
जैसी चर्या का
अर्थ है—जिसकी
जीवन—चेतना
भीतर, और
भीतर, और
भीतर की तरफ
जा रही है।
केंद्र की तरफ
जाती हुई
चेतना का नाम
ब्रह्मचर्य
है। अपने से
बाहर जाती
चेतना का नाम
अब्रह्मचर्य है।
दूसरे की तरफ
जाती हुई
चेतना का नाम
कामवासना है।
अपनी तरफ जाती
हुई चेतना का
नाम
ब्रह्मचर्य है।
पच्चीस वर्ष
के लिए हम
युवकों को भेज
देते थे
गुरुकुल में,
ताकि वे
भीतर की तरफ
बहना सीखें।
इसके पहले कि
संसार का
स्वाद उन्हें
आए वे परमात्मा
का थोड़ा—सा
स्वाद ले लें।
फिर कोई डर
नहीं है। फिर
संसार उन्हें
कभी भी भुला न
सकेगा। फिर वह
याद बनी ही
रहेगी। फिर वह
भीतर की पुकार
जारी ही रहेगी।
फिर भीतर कोई
धुन बजती ही
रहेगी। और धन
फिर कितनी ही
आवाज करे, उस
भीतर की आवाज
को दबाना
मुश्किल होगा।
स्त्रियां
पुरुषों को
कितना ही
आकर्षित करें, या पुरुष
स्त्रियों को
कितना ही
आकर्षित करें,
वह आकर्षण
फीका ही रहेगा।
जिसने एक बार
भी भीतर के
पुरुष या भीतर
की स्त्री का
दर्शन कर लिया,
उसके लिए
बाहर फिर
छायाएं हैं, फिर बाहर
तस्वीरें हैं,
फिर बाहर
कुछ भी
वास्तविक
नहीं है। फिर
कोई आकर्षण
बाहर नहीं है।
फिर कोई खींच
नहीं सकता। तब
हम मानते थे
व्यक्ति को इस
योग्य कि वह
अब संसार में
जाए।
बड़ी
अजीब बात है।
संसार के बाहर
का अनुभव ले-ले, फिर
संसार में जाए।
प्रयोजन
कीमती था। फिर
कोई संसार में
जाता था तो भी
संसार उसके भीतर
नहीं पहुंच
पाता था।
जिसने भीतर की
थोड़ी—सी भी
समझ पैदा कर
ली, वह
संसार से फिर
अछूता निकल
जाता था। वह
चलता था इस नदी
में, लेकिन
उसके पैरों
में पानी नहीं
छूता था। फिर
वह गुजरता था
इन्हीं सब
जगहों से, जहां
से आप गुजरते
हैं, लेकिन
वह गुजर जाता
था एक मेहमान
की तरह। यह घर
उसके लिए
धर्मशाला ही
होता था। यह
परिवार उसके
लिए एक नाटक
से ज्यादा
मूल्य नहीं
रखता था। जो
भी जरूरी था, वह करता था।
लेकिन कोई भी
ऐसी वासना
नहीं थी जो
विक्षिप्तता
बन जाए।
तो
हम दूसरे चरण
में उसे
गृहस्थ बनाते
थे। ऐसा अनूठा
प्रयोग
पृथ्वी पर फिर
कभी दुबारा नहीं
हुआ। और जब तक
यह प्रयोग
दुबारा नहीं
होता, पृथ्वी
अत्यंत दुख और
पीड़ा से भरी
रहेगी।
बाहर
जाने के पहले भीतर
पैर मजबूती से
जम जाने चाहिए।
धन पर हाथ पड़े
इसके पहले
स्वयं की
संपदा का अनुभव
हो जाना चाहिए।
फिर धन साधन
होगा। फिर हम
उसका उपयोग कर
लेंगे, लेकिन धन
फिर हमारा
मालिक न हो
पाएगा।
तो
ब्रह्मचर्य
के बाद हम
भेजते थे उसे
गृहस्थ में, कि जाए घर
में, विवाह
करे, संतति
हो उसकी।
संसार को देखे,
संसार को
जीए। लेकिन यह
व्यक्ति और
ढंग से जीता
था। इसके जीने
का गुण ही अलग
था। क्योंकि
यह व्यक्ति
साक्षी हो
पाता था। हम
साक्षी नहीं
हो पाते, हम
भोक्ता हो
जाते हैं।
भोक्ता
होना पीड़ा है।
साक्षी होना
परम आनंद है।
और साक्षी को
अगर हम नर्क
में भी डाल
दें, तो
भी दुख में
नहीं डाल सकते।
और भोक्ता को
हम स्वर्ग में
भी रख दें, तो
भी हम दुख के
बाहर नहीं ले
जा सकते। भोगी
मन दुखी होगा
ही। क्योंकि
भोगी मन के
लक्षण हैं कुछ।
भोगी मन का
पहला लक्षण तो
यह है कि जो भी
मिल जाए वह कम
मालूम होता है।
भोगी मन का
दूसरा लक्षण
यह है कि उसे
जो भी मिल जाए वह
व्यर्थ मालूम
होता है; जो
नहीं मिलता
वही सार्थक
मालूम होता है।
भोगी मन का
तीसरा लक्षण
यह है कि उसकी
वासना अनंत
होती है और
वासना की
पूर्ति के
साधन सदा सीमित
हैं।
इसलिए
भोगी मन को
कभी भी किसी
तरह के सुख
में प्रविष्ट
कराना असंभव
है। वह हर जगह
दुखी होगा।
दुख उसके भीतर
पैदा होता है।
हर चीज उसके
दुख में रंग
जाती है।
साक्षी
को दुखी करना
असंभव है।
क्योंकि
साक्षी के भी
वैसे ही लक्षण
हैं। साक्षी
का पहला लक्षण
तो यह है कि जो
भी घटना घटती
हो, वह
उससे अपने को
पृथक मानता है।
जो भी घट रहा
हो, वह
उससे. अपने को
फासले पर
देखता है। वह
जानता है कि
मैं सिर्फ
देखने वाला
हूं। तो अगर
दुख घट रहा है
तो वह दुख का
भी देखने वाला
है। वह दुख के
साथ एक नहीं
हो पाता। और
जब तक आप दुख
के साथ एक न
हों, तब तक
दुखी नहीं हो
सकते।
साक्षी
मन का दूसरा
लक्षण है कि
जो भी मिल जाए
वह उसके लिए
अनुगृहीत
होता है। जो
भी मिल जाए, वह उसे
परमात्मा की
अनुकंपा
मानता है। जो
भी मिल जाए, वह उसे अपने
कर्तृत्व का
फल नहीं मानता,
उसकी
अनुकंपा
मानता है।
क्योंकि
साक्षी कर्ता
तो बनता ही
नहीं, इसलिए
वह यह तो कह ही
नहीं सकता कि
मैंने किया
इसलिए मुझे
मिला! वह सदा
यही कहता है
कि मैंने तो
कुछ भी नहीं
किया और यह सब
मुझे मिला, इसलिए मैं
अनुगृहीत हूं।
उसके अनुग्रह
की कोई सीमा
नहीं है। उसके
धन्यवाद का, आभार का
अहोभाव अनंत
है। इसे समझ
लें।
साक्षी
का मतलब ही यह
है कि वह
जानता है, मैंने
कभी कुछ नहीं
किया। मैं
सिर्फ देखने
वाला हूं। तो
जो कुछ भी हुआ
है, वह
मेरे द्वारा
नहीं हुआ है, उसमें मैं
कर्ता नहीं
हूं। इसलिए जो
भी हो जाए, वह
प्रभु की
अनुकंपा है।
साक्षी
से सुख को
छीनना असंभव
है। साक्षी उस
कला को जानता
है, जिससे
उसके चारों
तरफ सुख फैलता
है। जैसे मकड़ी
अपने भीतर से
जाले को
निकालकर निर्मित
करती है, वैसा
ही भोक्ता
अपने चारों
तरफ दुख का
जाल निर्मित
करता है और
साक्षी अपने
चारों तरफ सुख
का जाल
निर्मित करता
है।
फिर
साक्षी की कोई
वासना नहीं है।
क्योंकि जब
मैं कर्ता हो
ही नहीं सकता, तो करने
की कोई कामना
व्यर्थ है। और
जिसकी कोई
वासना नहीं है,
जिसकी कोई
अपेक्षा नहीं
है, उसे आप
कभी भी दुखी
नहीं कर सकते।
दुख आता है
अपेक्षा के
टूटने से।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी बहुत
उदास और दुखी
बैठा है। उसकी
एक बड़ी होटल
है। बहुत चलती
हुई होटल है।
और एक मित्र
उससे पूछता है
कि तुम इतने
दुखी और उदास
क्यों दिखाई
पड़ते हो कुछ
दिनों से? कुछ धंधे
में कठिनाई, अड़चन है? उसने
कहा, बहुत
अड़चन है। बहुत
घाटे में धंधा
चल रहा है।
मित्र ने कहा,
समझ में
नहीं आता, क्योंकि
इतने मेहमान
आते—जाते
दिखाई पड़ते
हैं! और रोज
शाम को जब मैं
निकलता हूं तो
तुम्हारे
दरवाजे पर
होटल के तख्ती
लगी रहती है
नो वेकेंसी को,
कि अब और
जगह नहीं है, तो धंधा तो
बहुत जोर से
चल रहा है! उस
आदमी ने कहा, तुम्हें कुछ
पता नहीं। आज
से पंद्रह दिन
पहले जब सांझ
को हम नो
वेकेंसी की
तख्ती लटकाते
थे, तो
उसके बाद कम
से कम पचास
आदमी और द्वार
खटखटाते थे।
अब सिर्फ दस—पंद्रह
ही आते हैं।
पचास आदमी
लौटते थे
पंद्रह दिन
पहले; जगह
नहीं मिलती थी।
अब सिर्फ दस—पंद्रह
ही लौटते हैं।
धंधा बड़ा घाटे
में चल रहा है।
अपेक्षा
से भरा हुआ
चित्त
निश्चित ही
दुखी होगा।
मैं
एक घर में
मेहमान था।
गृहिणी ने
मुझे कहा कि
आप मेरे पति
को समझाइए कि
इनको हो क्या
गया है। बस, निरंतर
एक ही चिंता
में लगे रहते
हैं कि पाच लाख
का नुकसान हो
गया। पत्नी ने
मुझे कहा कि
मेरी समझू में
नहीं आता कि
नुकसान हुआ
कैसे! नुकसान
नहीं हुआ है।
मैंने पति को
पूछा।
उन्होंने कहा,
हुआ है
नुकसान, दस
लाख का लाभ
होने की आशा
थी, पांच
का ही लाभ हुआ
है। नुकसान
निश्चित हुआ
है। पांच लाख
बिलकुल हाथ से
गए।
अपेक्षा
से भरा हुआ
चित्त, लाभ हो तो भी
हानि अनुभव
करता है।
साक्षीभाव से
भरा हुआ चित्त,
हानि हो तो
भी लाभ अनुभव
करता है।
क्योंकि
मैंने कुछ भी
नहीं किया, और जितना भी
मिल गया, वह
भी परमकृपा है,
वह भी
अस्तित्व का
अनुदान है।
तो
गृहस्थ हम
बनाते थे
व्यक्ति को, जब वह
भीतर के
साक्षी की
थोड़ी—सी झलक
पा लेता था।
फिर पत्नी
होती थी, लेकिन
वह कभी पति
नहीं हो पाता
था। फिर बच्चे
होते थे, वह
उनका पालन
करता था, लेकिन
कभी पिता नहीं
हो पाता था।
मकान बनाता था,
दुकान
चलाता था, लेकिन
सब ऐसे जैसे
किसी नाटक के
मंच पर अभिनय कर
रहा हो। और
प्रतीक्षा
करता था उस
दिन की, कि
वह जो भीतर की
यात्रा
पच्चीस वर्ष
की उम्र में
अधूरी छूट गई
थी, जल्दी
से उसे पूरा
करने का कब
अवसर मिले। तो
पचास वर्ष की
उम्र में वह
वानप्रस्थ हो
जाता था।
वानप्रस्थ
का अर्थ था कि
अब उसकी नजर
फिर जंगल की
तरफ। जंगल से
ही शुरू हुई
थी उसकी
यात्रा, अब वह फिर
जंगल की तरफ
देखने लगा।
लेकिन अभी
जंगल चला नहीं
जाता था, क्योंकि
उसके बच्चे
पच्चीस वर्ष
के होकर गुरुकुल
से वापस लौट
रहे होंगे। और
अभी बाप एकदम
छोड्कर चला
जाए, तो
बच्चे बिलकुल
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
उन्हें भीतर
का तो थोड़ा—सा
अनुभव हुआ है,
लेकिन बाहर
के उपद्रव के
जाल की शिक्षा
भी चाहिए।
तो
बाप घर रुकता
था, पच्चीस
वर्ष।
पचहत्तर वर्ष
की उम्र तक वह
घर रुकता।
उसका मुख जंगल
की तरफ होता; वह घर से
अपना डेरा
उखाड़ने लगता।
लेकिन बच्चे
लौटते हैं
आश्रम से, उनको
इस संसार की
जो व्यवस्था
है, इसका
जो उसका अपना
अनुभव है, वह
उसे दे देना
है। और जब वह
पचहत्तर साल
का होता, तो
वह संन्यस्त
हो जाता। वह
वापस जंगल में
लौट जाता।
क्योंकि जब वह
पचहत्तर साल
का होता, तब
उसके बच्चे
पचास साल के
करीब पहुंचने
लगते। उनके
वानप्रस्थ
होने का वक्त
आ जाता।
यह
जो पचहत्तर
साल की अवस्था
में संन्यस्त
होकर चले जाते
लोग, ये
गुरु हो जाते।
छोटे बच्चे
इनके पास
पहुंचते। ऐसा
हमारा वर्तुल
था। जो सारे
जीवन की सब
अवस्थाओं को
देखकर लौट आया
है जंगल में, उसके पास हम
अपने छोटे
बच्चों को भेज
देते थे कि
उससे वे जीवन
का सार और
जीवन की कुंजी
लेकर आ जाएं।
शिक्षक
और
विद्यार्थी
के बीच इतना
फासला तो होना
ही चाहिए। आज
जगत में बड़ी
असुविधा है, क्योंकि
शिक्षक और
विद्यार्थी
के बीच कोई सम्मान
का भाव नहीं है।
हो भी नहीं
सकता, क्योंकि
फासला बिलकुल
नहीं है। कई
बार तो ऐसा है
कि हो सकता है
विद्यार्थी
ज्यादा
अनुभवी हो
शिक्षक से। और
अगर थोड़ा बहुत
फासला भी है
तो वह इतना
इंच दो इंच का
है कि उसमें
कोई आदरभाव
पैदा नहीं होता।
लेकिन
एक पचहत्तर
साल का बूढ़ा, जिसने
जीवन के
ब्रह्मचर्य
का, गार्हस्थ
का, वानप्रस्थ
होने का और
संन्यस्त
होने का सारा अनुभव
संजो लिया है,
जब छोटे
बच्चे उसके
पास जाते तो
उन्हें लगता कि
वे किसी
हिमाच्छादित
शिखर के पास आ
गए हैं। उसकी
चोटी बड़ी ऊंची
होती, आकाश
छूती! वहा
सम्मान सहज
होता।
लोग
कहते हैं, गुरु का
आदर करना
चाहिए। और मैं
कहता हूं
जिसका आदर
करना ही पड़े, वही गुरु है।
करना चाहिए का
कोई सवाल नहीं
उठता। और जहां
करना चाहिए का
सवाल उठता है,
वहां कोई
आदर हो नहीं
सकता। आदर कोई
थोपा नहीं जा
सकता, उसकी
कोई मांग नहीं
हो सकती।
जीवन
में दो
यात्राएं हैं—एक
भीतर की तरफ, एक बाहर
की तरफ। इस
सूत्र में अब
हम प्रवेश
करें।
इस
प्रकार
परीक्षा करके
जब यम ने समझ
लिया कि नचिकेता
दृढ़निश्चयी
परम
वैराग्यवान
एवं निर्भीक
है अत:
ब्रह्मविद्या
का उत्तम
अधिकारी है तब
ब्रह्मविद्या
का उपदेश आरंभ
करने के पहले
उसका महत्व
प्रकट करते
हुए यम ने कहा.।
उसने
कई बातें जांच
लीं। उसने एक
तो समझ लिया
कि यह नचिकेता
वैराग्य— भाव
से भरा है। जो
वैराग्य— भाव
से भरा है, वही भीतर
जा सकता है।
जो राग— भाव से
भरा है, वह
बाहर जाएगा।
क्योंकि हम
वहीं जाते हैं,
जहा हमारी
तृप्ति हो।
राग की तृप्ति
है बाहर, वासना
की तृप्ति है
बाहर, काम
की तृप्ति है
बाहर, इच्छाएं
तो पूरी होंगी
बाहर, तृष्णाएं
तो पूरी होंगी
बाहर। होंगी
या नहीं होंगी,
लेकिन आभास,
पूरे होने
का, बाहर
है।
यम
को जब पक्का
हो गया कि
नचिकेता
वैराग्य को उपलब्ध
हो गया है, तब उसे
लगा कि अब
ब्रह्मविद्या
की बात कही जा
सकती है।
क्योंकि
ब्रह्मविद्या
का अर्थ है—आत्यंतिक
रूप से भीतर
जाना; उस बिंदु
पर पहुंच जाना,
जहां सिर्फ
भीतर का ही
अस्तित्व रह
जाता है, और
बाहर खो जाता
है। बाहर होता
ही नहीं। बाहर
जैसी कोई घटना
ही नहीं बचती।
सब कुछ भीतर
ही हो जाता है।
सारा
अस्तित्व भीतर
समा जाता है, समाविष्ट हो
जाता है।
केंद्र पर ही
प्राणों की
सारी धारा आ
जाती है।
लेकिन यह तो
तभी होगा, जब
प्राण बंट—बंटकर
वासनाओं में
बाहर न जा रहे
हों।
वैराग्य
का अर्थ है—बाहर
जाने की
वृत्ति खो गई
हो। और तभी
कोई
ब्रह्मविद्या
में प्रवेश पा
सकता है। यम
ने देखा कि
नचिकेता
वैराग्यवान
है, दृढ़—निश्चयी
है। इसे
हिलाया—डुलाया
नहीं जा सकता।
ब्रह्मविद्या
के खोजी को
निश्चय, डिसीसिवनेस
तो होनी ही
चाहिए।
लेकिन
हमारा मन तो
बड़ा कंपता हुआ
है। जरा—सी
बात कोई कह दे, हमारे सब
निश्चय खो
जाते हैं। जरा—सा
कोई संदेह
पैदा करना
चाहे, तत्काल
हममें संदेह
पैदा हो जाते
हैं। लोग डरते
हैं; आस्तिक
डरते हैं, नास्तिक
की बात सुनने
से! बड़े कमजोर
आस्तिक हैं!
डर किस बात का
है? कहीं
नास्तिकता की
बात आस्तिकता
को हिला न दे।
और
जो आस्तिकता
नास्तिकता की
बात से हिल
जाती हो, वह दो कौड़ी
की है। उसका
क्या मूल्य है?
वह
नास्तिकता से
भी गई—बीती है।
कम से कम
नास्तिक
आस्तिकों से
डरते तो नहीं!
मैंने ऐसा कभी
नहीं देखा कि
नास्तिक
आस्तिक से डरता
हो कि यह हमको
डिगा देगा। एक
नास्तिक नहीं
डरता।
नास्तिक तलाश
करता है कि
आस्तिक कहां
है कि उसको
डिगाएं। यह
बड़ी हैरानी की
बात है।
नास्तिकों
ने अपने किसी
भी शास्त्र
में नहीं लिखा
है कि
आस्तिकों की
बातें मत
सुनना, क्योंकि
उससे मन में
शंका पैदा
होगी।
आस्तिकों ने
लिखा है.
नास्तिकों की
बातें मत सुनना,
उनके
शास्त्र मत
पढ़ना, क्योंकि
उससे मन डिगता
है।
लेकिन
ध्यान रहे, मन डिगता
तभी है जब मन
डिगने की हालत
में होता है।
जब आप हिलना
चाहते हैं तभी
कोई हिला सकता
है।
तो
मैं तो कहता
हूं कि अगर आप
आस्तिक हैं तो
नास्तिकों को
अपने आसपास
बसा लेना। वे
आपको हिला—हिलाकर
मौका देते
रहेंगे कि आप
हिल सकते हैं
कि नहीं हिल
सकते। और अगर
नास्तिक हिला
देता हो तो
समझना कि अभी
आस्तिकता पैदा
नहीं हुई। तो
झूठी
आस्तिकता
अपने ऊपर थोपे
मत रहना।
लेकिन
मुझे ऐसा लगता
है.. इसीलिए
दुनिया में इतने
आस्तिक मालूम
होते हैं, झूठे ही
होंगे, नहीं
तो जमीन बदल
जाए। जमीन पर
कितने आदमी
आस्तिक हैं!
सौ में कभी एकाध
नास्तिक होता
है।
निन्यानबे तो
आस्तिक ही
होते हैं। ये
निन्यानबे
आस्तिक इस
जमीन को
धार्मिक नहीं
बना पाते और
एक नास्तिक इस
जमीन को
अधार्मिक
बनाए हुए है।
आश्चर्य है!
ये निन्यानबे
आस्तिक झूठे
हैं। इनके
भीतर कोई
आस्था नहीं है।
ऊपर—ऊपर से
थोपकर
इन्होंने
अपने को सम्हाल
रखा है। और ये
भयभीत हैं।
भय
तभी होता है
जब स्वयं के
भीतर संदेह हो।
कोई आपको
संदिग्ध नहीं
कर सकता।
लेकिन आप
संदिग्ध हैं
ही। सिर्फ ऊपर
से आपने एक
आवरण बना लिया
है दृढ़ निश्चय
का। इसलिए जब
भी कोई संदेह
की बात करता
है, तो
आपके भीतर के
संदेह तरंगें
लेने लगते हैं।
वे भीतर छिपे
हैं।
जो
भीतर छिपा है, वही
आपमें पैदा
किया जा सकता
है। इसे आप एक
परम सिद्धात
समझ लें। जो
आपके भीतर
नहीं है, उसे
कोई भी पैदा
नहीं कर सकता।
अगर आपके भीतर
संदेह है, तो
कोई भी संदेह
पैदा कर सकता
है। अगर आपके
भीतर श्रद्धा
है, तो ही
कोई आपके भीतर
श्रद्धा पैदा
कर सकता है।
जो आपके भीतर
नहीं है, उसे
भीतर जन्माने
का कोई उपाय
नहीं है।
यम
ने बड़ी कोशिश
की हिलाने की।
इस छोटे—से
बच्चे के साथ
यम थोड़ा
ज्यादती करता
हुआ मालूम
पड़ता है। यह
निर्दोष
बच्चे को वह
प्रलोभन दे
रहा है! अगर
सोचें तो थोड़ा
हमें लगेगा कि
यम थोड़ी
ज्यादती कर
रहा है। इस
निर्दोष
बच्चे की
जिसकी उम्र
पांच साल, सात साल,
इतनी कुछ
रही होगी, उससे
यह कहना कि
तुझे हम
स्वर्ग की
अप्सरए देते
हैं! थोड़ा
ज्यादा मालूम
पड़ता है। इस
भोले बच्चे को
विकृत करने की
पूरी कोशिश कर
रहा है यम। इस
छोटे—से बच्चे
को कहना कि
तुझे हम
सम्राट बना
देते हैं सारे
संसार का, कि
तुझे जो चाहिए
ले। तू जो
मांगे, हम
देते हैं।
छोटे बच्चे तो
खिलौनों के
प्रलोभन में आ
जाते हैं।
सारे संसार का
साम्राज्य
देने का जहां
प्रलोभन दिया
जा रहा हो, वहां
कहना चाहिए कि
यम थोड़ा कठोर
परीक्षा ले रहा
है। बूढ़े—बूढ़े
भी खिलौनों
में उलझ जाते
हैं।
एक
युवक मेरे पास
आया। ऐसे ही
मैंने उससे
पूछा कि
तुम्हारे
पिता भी कभी
यहां आते हैं? उसने कहा
कि नहीं, मेरे
पिता को
फुर्सत ही
नहीं है। वे
अपनी कार ही
साफ करते रहते
हैं! चलाते भी
नहीं, कि
खराब न हो जाए!
सुधार करवाते
रहते हैं। कभी
यह बदलेंगे, कभी वह
बदलेंगे! कभी
नया कुछ साज—सामान
डालेंगे; सज़ा
के। और दिनभर
वे कार में ही
लगे हुए हैं।
उनको फुर्सत
नहीं। मेरी
मां आना चाहती
है, उस
युवक ने कहा, लेकिन
पिताजी घर में
रहते हैं
चौबीस घंटे तो
वह भी नहीं आ
सकती।
कार
खिलौना हो गई।
साधन न रही, कि उससे
कहीं पहुंचना
है। पहुंचने
का तो कोई
सवाल ही नहीं
है। निकालते
तो हैं नहीं, कि खराब न हो
जाए। लेकिन
रखे. रखे भी
चीजें खराब तो
होती ही हैं, तो फिर उसको
लीपापोती
करके ठीक करते
रहते हैं।
छोटे
बच्चे अपने
खिलौनों से
खेल रहे हों, यह समझ
में आता है।
लेकिन बड़े
बच्चे भी
खिलौनों से ही
खेलते रहते
हैं। आप भी
सोचें कि आप
अपनी चीजों की
कितनी चिंता करते
हैं? सारा
जीवन चीजों की
चिंता में
व्यतीत हो
जाता है।
इस
छोटे —से
बच्चे को यह
कहना कि तुझे
सारे संसार का
साम्राज्य
दिए देता हूं।
इस छोटे—से
बच्चे को यह कहना
कि तुझे जितना
जीना हो तू जी!
जितनी लंबी उम्र
चाहिए! तेरे
बेटे हजारों
वर्ष के हों, तेरे
पोते हजारों
वर्ष के हों, ऐसी लंबी
तेरी जीवन—यात्रा
हो! ध्यान रहे,
बच्चे को
मृत्यु का कोई
बोध नहीं होता।
मृत्यु का बोध
तो को तक को
मुश्किल से हो
पाता है।
क्योंकि जिसको
मृत्यु का बोध
हो जाए, वह
संन्यस्त हो
जाएगा।
मृत्यु
संन्यास लाती
है, वैराग्य
लाती है। मरते
दम तक आदमी
जीना चाहता है।
अगर मरती हुई
आखिरी श्वास
टूट रही हो, तब भी आप
किसी को कह
दें कि अब बस
तुम मरने वाले
हो, तो वह
आपको दुश्मन
की तरह देखता
है।
मैंने
सुना है, एक युवक
ज्योतिष का
अध्ययन करके
लौटा। उसका
पिता पुराना
अनुभवी
ज्योतिषी था।
उसने अपने
बेटे से कहा
कि जल्दी मत
करना।
क्योंकि यह
ज्योतिष बडी
गहरी कला है।
इसमें सत्य
कहना आवश्यक
नहीं है।
इसमें सत्य
कहने से बचना
पड़ता है। और
इसमें सत्य भी
कहना हो तो
ऐसे ढंग से कहना
होता है कि
उसका पता न चल
पाए। इसमें
असत्य भी
बोलने पड़ते
हैं। यह बड़ी
मीठी कला है।
इसमें सिर्फ
शास्त्र के
शान से कुछ न
होगा। तू ठहर।
हर किसी को
ज्योतिष का
ज्ञान मत
दिखाने लगना।
लेकिन
उस युवक ने
कहा, कि
मैं काशी से
लौटा हूं और
सब शान पूरा
पा लिया हूं
और अब रुकना
मुझसे नहीं हो
सकता। मैं
जाता हूं
सम्राट के पास।
और जितना मैं
जानता हूं
उससे मैं
घोषणा कर सकता
हूं कि क्या
होने वाला है।
उसने कहा, तेरी
मर्जी। मैं भी
पीछे आता हूं।
बाप
ने कहा कि
पहले मैं
सम्राट को कुछ
कहूं उसका हाथ
देखूं फिर तू
देखना। बाप ने
हाथ देखा, और उसने
कहा कि
साम्राज्य और
बढ़ेगा; तेरे
जीवन में
सूर्योदय
होने के करीब
है। युवक थोड़ा
हैरान हुआ, क्योंकि
रेखाए कुछ और
कहती हैं, यह
आदमी मरने के
करीब है।
बाप
को सम्राट ने
सम्मानित
किया, धन
दिया, कीमती
वस्तुएं भेंट
कीं। बेटे ने
हाथ देखकर कहा
कि एक बात भर निश्चित
है कि तुम सात
दिन से ज्यादा
नहीं जीओगे।
सम्राट ने उसे
पकड़वाकर कोड़े
लगवाए। बाप
खड़ा देखता
हंसता रहा।
पिटे हुए लड़के
को लेकर घर
लौटा'।
उससे कहा कि
देख, शास्त्र
में जो लिखा
है वह
समझदारों के
लिए है।
समझदार कहां
हैं लेकिन! वह
मुझे भी दिख
रहा था कि सात
दिन में मरेगा,
लेकिन उसके
पहले अपने को
मरना हो तो
इसकी घोषणा
करनी है। सत्य
कहना काफी
नहीं है। वह
क्या चाहता है?
उसकी वासना
क्या है? उसकी
हाथ की रेखा
से ज्यादा
उसकी इच्छाओं
की रेखाओं को
पहचानना
जरूरी है।
इसलिए
जब आप
ज्योतिषी के
पास जाते हैं, तो वह
आपकी इच्छाओं
की रेखाएं
पहचानता है।
वह कोशिश करता
है, वासनाएं
कहां दौड़ रही
हैं, उनमें
जितनी दूर तक
सहयोग दे सके,
देता है।
मरते
दम तक भी आदमी
यह सुनना नहीं
चाहता है कि वह
मर रहा है, या मरने
वाला है।
यह
छोटा—सा बच्चा
जो अभी जीवन
को जाना भी
नहीं, इसे
लंबे जीवन का
प्रलोभन देना,
थोड़ा
ज्यादा है!
लेकिन यम ने
अतिशयोक्ति
की है, ताकि
अगर यह बच्चा
हिल सकता हो
तो हिल ही जाए।
और ध्यान रहे,
मृत्यु के
सामने हम सब
छोटे बच्चे ही
हैं। और जीवन
के अंत तक
प्रलोभन हमें
हिलाता है।
संशय हमें
डांवाडोल
करते हैं। कोई
भी हमें
दिक्कत में
डाल सकता है।
कोई भी! कोई
मृत्यु जैसे
सबल महात्मा
का होना जरूरी
नहीं है; कोई
भी!
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
हम ध्यान करते
हैं, और
बड़ा आनंद आना
शुरू हुआ था
कि एक आदमी ने
कहा कि यह तुम
क्या कर रहे
हो? यह कोई
ध्यान है! बस
संशय पैदा हो
गया। तुम्हें
आनंद आ रहा था,
इतनी जल्दी
संशय कैसे
पैदा हो गया!
कम से कम इतना
तो देखो कि इस
संशय से कुछ
आनंद आ रहा है?
तो जिससे
आनंद आ रहा था,
उस दिशा में
चलो। क्योंकि
अंततः अगर कोई
व्यक्ति आनंद
को ही खोजता
चला जाए तो
परमात्मा तक
पहुंच जाता है।
इसलिए
हमने
परमात्मा की
व्याख्या में
सच्चिदानंद, उसे आनंद
की आखिरी
अवस्था कहा है।
अगर कोई इतनी
ही जांच—परख
करता रहे अपने
यंत्र की कि
जहां मुझे
आनंद आ रहा है
वहीं मैं चलता
चला जाऊं, तो
भी आदमी कितना
ही भटके, सदा
के लिए भटका
हुआ नहीं
रहेगा।
लेकिन
आनंद आ रहा हो, तो भी कोई
भी आपको
डांवाडोल कर
सकता है। भीतर
संदेह बैठा ही
हुआ है, बाहर
के लोग सिर्फ
उसे इशारा
करके निकाल
देते हैं, प्रगट
कर देते हैं।
आप खुद ही डरे
हुए हैं, कि
पता नहीं मैं
क्या कर रहा
हूं! पता नहीं
यह पागलपन तो
नहीं है! आपका
भय ही आपका
संदेह बन जाता
है; दूसरे
तो केवल
निमित्त हैं।
यम
ने पूरी कोशिश
की, लेकिन
पाया कि इस
नचिकेता को
हिलाने—डुलाने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
दृढ़निश्चयी
है। परम
वैराग्यवान
है। निर्भीक
है। अत:
ब्रह्मविद्या
का उत्तम
अधिकारी है।
तो
ये तीन बातें
अधिकारी
बनाती है—कि
वैराग्य हो, कि चेतना
भीतर की तरफ
चलने को राजी
हो, कि
निश्चय हो, कि जो हम
करना चाहें
उसे पूरे
प्राणों से कर
सकें; कि
अभय हो, कि
भय हमें
डावाडोल न करे।
ध्यान
रहे, जब
तक भय होता है,
तब तक
प्रलोभन भी
होता है। भय
और लोभ एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जो
आदमी भयभीत है,
उसे फौरन
लोभ में डाला
जा सकता है।
जो आदमी लोभी
है, उसे
भयभीत किया जा
सकता है।
ध्यान रहे, दोनों साथ
जुड़े हैं।
अक्सर लोग
कोशिश करते
हैं निर्भय
होने की, लेकिन
उन्हें पता
नहीं, जब
तक लोभ है, तब
तक वे निर्भय
नहीं हो सकते।
क्योंकि लोभ
भय का मूल है।
जब तक आप कुछ
मांगते हैं, तब तक आप
डरेंगे।
मैंने
सुना है कि च्चाग्त्से, चीन का एक
बहुत
रहस्यवादी
संत, एक
सम्राट का
वजीर था। फिर
उसने वजीर के
पद को छोड़
दिया और
संन्यस्त हो
गया। फिर वह
जंगल में एक
वृक्ष के नीचे
निवास करने लगा।
सम्राट शिकार
को आया था, तो
उसके मित्रों
ने कहा कि
आपका पुराना
वजीर च्चाग्त्से
यहां पास में ही
एक वृक्ष के
नीचे रहता है।
अगर आपकी
जिज्ञासा हो
तो हम देखते
चलें। सम्राट
ने कहा, जरूर!
देखने जैसा
होगा। क्या
हुआ
च्चाग्त्से
का? संन्यस्त
होकर वह कैसा
हो गया है? वजीर
था सम्राट का
पुराना।
सम्राट
परिचित भी था
भलीभाँति। और
वजीर बड़ा
सुसंस्कृत था।
सम्राट
आया, उतरकर
खड़ा हुआ।
च्चांग्त्से
पैर फैलाए
बैठा था, अपनी
खंजड़ी बजा रहा
था। पैर फैलाए
ही रहा। यह
बड़ी अशोभन बात
थी। सम्राट
सामने खड़ा हो
और आप पैर
फैलाए बैठे हों!
तो सम्राट ने
कहा कि
च्चाग्त्से, संन्यास ठीक
है, लेकिन
संस्कार तो मत
छोड़ो। ये पैर
क्यों फैले
हुए हैं?
तो
च्चाग्त्से
ने कहा, जिस दिन लोभ
छूट गया, उस
दिन भय भी छूट
गया। न तुमसे
कुछ चाहना है,
न तुमसे कुछ
डर है।
संस्कार के
कारण पैर नहीं
मुड़ते थे, लोभ
के कारण मुड़ते
थे। डरता था।
तुम कुछ छीन
सकते थे। तुम
जो छीन सकते
थे, मैं
खुद ही छोड़
आया। अब
तुम्हारा कोई
भय नहीं। अब
तुम समझ रहे
हो कि तुम
सम्राट हो, मेरे लिए
जैसे और लोग
इस राह से
गुजरते हैं, वैसे ही तुम
हो। तुम
सम्राट थे कभी;
वह मेरे लोभ
के कारण थे।
क्योंकि
तुमसे कुछ
ज्यादा मिल
सकता था, जो
किसी और से
नहीं मिल सकता
था। अब? अब
तुम वैसे ही
राह से गुजरने
वाले एक राहगीर
हो, जैसे
और हैं। और
पैर अब क्या
मोडे, अब
कोई भय न रहा।
जैसे
ही लोभ जाता
है, वैसे
ही भय चला
जाता है।
तो
जब यम ने देखा
कि इतने लोभ
भी इस नचिकेता
को प्रलोभित
नहीं करते, स्वभावत:
यह निर्भीक है।
इसके पास कोई
भय नहीं है।
यह अभय को
उपलब्ध हुआ है।
यह
ब्रह्मविद्या
का अधिकारी है।
तो
यम ने कहा—श्रेय
अर्थात
कल्याण का
साधन अलग है
और प्रेय अर्थात
प्रिय लगने
वाले भोगों का
साधन अलग है।
वे भिन्न—भिन्न
फल देने वाले
दोनों साधन
मनुष्य को बांधते
हैं अपनी—
अपनी ओर
आकर्षित करते
हैं। उन दोनों
में से श्रेय
अर्थात कल्याण
के साधन को
ग्रहण करने
वाले का
कल्याण होता
है। परंतु जो
प्रेय अर्थात
सांसारिक
भोगों के साधन
को स्वीकार
करता है वह
यथार्थ लाभ से
वंचित रह जाता
है।
श्रेय
और प्रेय
दोनों ही
मनुष्य के
सामने आते हैं।
बुद्धिमान
मनुष्य उन
दोनों के
स्वरूप पर भलीभांति
विचार करके
उनको पृथक—
पृथक करके समझ
लेता है। और
वह
श्रेष्ठबुद्धि
मनुष्य परम
कल्याण के साधन
को ही भोग—
साधन की
अपेक्षा
श्रेष्ठ
समझकर ग्रहण
करता है परंतु
मंदबुद्धि
वाला लौकिक
योगक्षेम की इच्छा
से भोगों के
साधनरूप
प्रेय को
अपनाता है
ये
दो शब्द बड़े
कीमती हैं—श्रेय
और प्रेय।
श्रेय से अर्थ
है—वह जो
श्रेष्ठ है, वह जो
सत्य है, वह
जो परम
आत्यंतिक है,
शुभ है, शिव
है। और प्रेय
से अर्थ है—वह
जो प्यारा है,
प्रिय है; चित्त को
प्रसन्न करता
है, चित्त
को रंजित करता
है; जो
किसी काम को
किसी वासना को
तृप्त करने का
आश्वासन देता
है। प्रेय का
अर्थ है—वासना
जिससे
प्रफुल्लित
होती है। और
श्रेय का अर्थ
है—आत्मा
जिससे
प्रफुल्लित होती
है। प्रेय का
अर्थ है, मन
को लगता है कि
इससे आनंद
आएगा। लेकिन
आता कभी भी
नहीं।
क्योंकि लगने
से कुछ संबंध
नहीं है।
आपको
भला लगता हो
कि रेत से तेल
निकल आएगा, लेकिन लगने
से कुछ अर्थ
नहीं है।
रेगिस्तान
में आपको भला
लगता हो कि वह
दूर जो दिखाई
पड़ता है
मरूद्यान वह
वास्तविक है,
लेकिन आपके
दिखाई पड़ने से
कुछ
वास्तविकता
का संबंध नहीं
है। आप जब पास
जाते हैं तो
पाते हैं : सब
किरणों का खेल
था। वहां कोई
मरूद्यान
नहीं है। वह
केवल मृग—मरीचिका
थी। जो आपको
दिखाई पड़ता है,
वह जरूरी
रूप से हो, ऐसा
नहीं है।
प्रेय
से अर्थ है—जो
आपको दिखाई
पड़ता है कि
तृप्ति देगा, लेकिन जब
आप पाते हैं
तो तृप्ति
देता नहीं। एक
आदमी सोचता है
कि यह स्त्री
मिल जाए; या
यह पुरुष मिल
जाए। जब तक
नहीं मिलता, तब तक लगता
है कि सारे
स्वप्न उसी के
इर्द—गिर्द
घूमते हैं।
लेकिन मिल
जाने पर मृग—मरीचिका
हाथ लगती है।
कोई भी प्रेम
सफल नहीं होता।
और अगर प्रेमी
रहना हो, सदा
प्रेमी बने
रहना हो, तो
प्रेयसी की
निकटता न मिले
यह जरूरी है।
रवींद्रनाथ
ने एक उपन्यास
लिखा—और
रवींद्रनाथ
ने बड़े अनुभव
से यह बात कही
है—उस उपन्यास
में जो पात्र
है, वह
एक युवती के
प्रेम में है।
और वह युवती
से कहता है कि
विवाह हम न
करें।
क्योंकि
विवाह सदा ही
प्रेम को तोड़
देता है।
युवती की समझ
में बात नहीं
आती। आ भी
नहीं सकती।
क्योंकि
प्रेम है, इसलिए
विवाह करें—यह
समझ में आता
है। वह युवक
कहता है, विवाह
भी हम कर लें, तो तू झील के
उस पार रहना
और मैं इस पार।
कभी—कभी हम
मिल लिया
करेंगे—आकस्मिक,
अनायास। या
कभी निमंत्रण
देकर मैं तेरे
घर आऊंगा, या
तू मेरे घर आ
जाना। लेकिन
हम साथ—साथ न
रहें। वह
युवती कहती है,
तुम पागल
हो! विवाह हम
करते ही इसलिए
हैं कि साथ—साथ
रहें। चौबीस
घंटे साथ रहें।
वह युवक कहता
है, तो
प्रेम मर
जाएगा।
रवींद्रनाथ
ने बड़े अनुभव
से यह कथा
लिखी है।
हजारों—हजारों
प्रेम की कथा
यही है। मजनूं
अब भी लैला को
प्रेम करता
होगा, कहीं
भी हो, क्योंकि
लैला उसको
मिली नहीं। मिल
जाती तो उसका
सदा के लिए
छुटकारा हो
जाता।
एक
मृग—मरीचिका
है। प्रेय से
अर्थ है—वे
वस्तुएं, वे व्यक्ति,
वे संबंध, दूर से पता
चलता है कि
बड़ा आनंद होगा,
जैसे—जैसे
पास आते हैं, आनंद खो
जाता है और
दुख घना हो
जाता है।
ठीक
इससे उलटी
स्थिति श्रेय
की है। प्रेय
में प्रारंभ
में तो लगता
है सुख और पीछे
आता है दुख।
श्रेय में
पहले तो लगता
है दुख और
पीछे आता है सुख।
इसलिए श्रेय
शुरू में
तपश्चर्या है।
वह कष्ट का
अपने हाथ से, स्वेच्छा
से वरण है।
इसलिए श्रेय
का साधक
तपश्चर्या
में लगेगा ही।
यह
बड़े मजे की
बात है कि जहां
पहले सुख
दिखाई पड़ता है, वहां
पीछे दुख हाथ
आता है। यह हम
सबका अनुभव है।
हम सबको थोड़े—बहुत
अनुभव हैं कि
जहां—जहां सुख
दिखाई पड़ा, वहां—वहां
दुख पाया।
लेकिन उससे
हमने कुछ सीखा
नहीं। उससे
हमने यह जीवन
का नियम न
सीखा कि सुख
का पहले दिखाई
पड़ना खतरनाक
है। वह असल
में प्रलोभन
है।
वह
सुख का पहले
दिखाई पड़ना
वैसे ही है
जैसे हम कड्वी
दवा पिलानी हो
किसी को तो
ऊपर से शक्कर चढ़ा
देते हैं। हर
कड्वी गोली के
ऊपर शक्कर चढ़ी
होती है। मछली
को पकड़ना हो
तो काटे में
आटा लगा देते
हैं। कौन आटा
डालकर बैठता
है नदी के
किनारे
मछलियों को
खिलाने! काटा
डालकर बैठते हैं
लोग। लेकिन
मछली काटे को
पकड़ेगी नहीं।
मछली आटे को
पकड़ना चाहती
है। तो सीधी
बात है, सीधा गणित
है, कि आटे
को ऊपर और
कांटे को भीतर
कर लो।
हम
सब पूरे जीवन
यही कर रहे
हैं। इसे थोड़ा
समझें।
क्योंकि जीवन
के गहरे मनस—शास्त्र
से संबंधित यह
बात है। अभी
पश्चिम में
बहुत खोजबीन
चलती है, क्योंकि
पश्चिम ने एक
बड़ी भूल कर ली।
वह भूल यह कर
ली कि उसने
प्रेम के ऊपर
विवाह को आधारित
कर लिया। इसके
पहले विवाह
आयोजित होते
थे, अरेंज्ड
होते थे। लड़के
और लड़की का
कोई संबंध ही
नहीं था, जैसे
उनका विवाह ही
नहीं हो रहा
है। यह मां—बाप
का मामला था।
पंडित—पुरोहित
कुंडली
मिलाते, हिसाब
बिठाते। माता—पिता
कुल की जांच—पड़ताल
करते और विवाह
करते। लड़के और
लड़की का कोई
लेना—देना
नहीं था।
विवाह दो
परिवार करते
थे। प्रेम का
कोई सवाल नहीं
था।
पश्चिम
ने एक नया
प्रयोग करने
की कोशिश की
पिछले दो—तीन
सौ सालों में।
और उसने कहा
कि आयोजित
विवाह भी कोई
विवाह है! प्रेम
से विवाह होना
चाहिए। बात
बड़ी कीमती थी।
लेकिन प्रेम
का विवाह टूट
रहा है। तलाक
रोज बढ़ते चले
जाते हैं।
अमरीका में सौ
विवाह में से
पचास के तलाक
हो जाते हैं।
और जो पचास के
नहीं होते, वह आप यह
मत समझना कि
वे बड़े सुख
में रह रहे
हैं। वे सिर्फ
तलाक की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते।
कुछ अड़चनें
हैं।
सिर्फ
कहानियों में
या फिल्मों
में, खासकर
भारतीय
फिल्मों में,
विवाह पर सब
खत्म हो जाता
है, उसके
बाद दोनों सुख
से रहने लगे!
कोई कभी नहीं
रहता। कि राजा—रानी
का विवाह हो
गया और उसके
बाद वे दोनों
सुख से रहने
लगे, इस पर
कहानी खत्म हो
जाती है। असल
में कहानी
यहीं से शुरू
होती है। सारा
उपद्रव यहां
से शुरू होता
है। इसके पहले
तो प्राथमिक
भूमिका थी, आटा था।
काटा तो यहां
से शुरू होता
है, जहां
से दो व्यक्ति
साथ होते हैं।
पश्चिम
में विवाह टूट
रहा है।
क्योंकि
विवाह को
प्रेम के आधार
पर खड़ा किया जा
रहा है। प्रेम
के आधार पर
विवाह खड़ा
होगा, तो
टूटेगा। कारण
हैं उसके।
क्योंकि जब भी
दो व्यक्ति एक—दूसरे
के प्रेम में
पड़ते हैं, तो
दोनों ही अपने
भीतर जो श्रेष्ठ
है वह दिखलाते
हैं और जो
निकृष्ट है
उसको छिपाते
हैं।
अगर
आप किसी के
प्रेम में पड़
जाएं—आप पुरुष
हैं या स्त्री
हैं—तो जिससे
आप प्रेम में
पड़ जाते हैं, उसको आप
अपना सुंदरतम
चेहरा
दिखलाते हैं।
वह आपकी
वास्तविकता
नहीं है। वह
आपका पूरा
होना नहीं है,
एक पहलू हो
सकता है। और
यह भी हो सकता
है कि पहलू भी
न हो, वह
सिर्फ दिखावा
हो। लेकिन कभी—कभी
बीच पर मिले, कभी बगीचे
में मिले, कभी
चांद—तारों के
नीचे मिले, तो यह चेहरा
दिखाया जा
सकता है।
लेकिन जब
चौबीस घंटे
साथ रहेंगे, तो वह जो
असली आदमी है,
वह प्रगट
होना शुरू
होगा। वह असली
आदमी नरक है।
तो वे जो
बातें चांद—तारों
के नीचे हुई
थीं, वे सब
टूट जाती हैं।
जब
दो व्यक्ति
करीब आते हैं, उनकी
असलियत जाहिर
होती है।
दोनों के नरक
प्रगट हो जाते
हैं। और दोनों
ने जो चेहरे
दिखाए थे वे
हट जाते हैं, क्योंकि
उनको चौबीस
घंटे ओढ़े रहना
आसान नहीं है।
मैं
यह कह रहा हूं
कि दो प्रेमी
भी आटा दिखलाते
हैं और काटे
को छिपा लेते
हैं। इसलिए सब
विवाह जो
प्रेम पर खड़े
होते हैं. टूट
जाते हैं। तब
तक प्रेम पर
विवाह खड़े
नहीं हो सकते, जब तक हम
काटे को
दिखलाने की
हिम्मत न
जुटाएं। दो
प्रेमियों को
चाहिए कि
विवाह के पहले
अपने नर्क को
पूरा प्रगट कर
दें। अगर
दोनों एक—दूसरे
के नर्क से
राजी हों, तो
विवाह होना
चाहिए। फिर
तलाक नहीं
होगा।
क्योंकि तलाक
का सारा कारण
पहले ही
समाप्त हो गया।
लेकिन
दोनों अपना
स्वर्ग
दिखलाते हैं।
दोनों
दिखलाते हैं
अपने
स्वप्नों का
जाल। जितने—जितने
करीब आते हैं, स्वप्न
खो जाते हैं।
जैसे
इंद्रधनुष के
पास जाएंगे, इंद्रधनुष
खो जाएगा। वह
सिर्फ दूर से
ही दिखाई पड़ता
है, पास
जाने की भूल
मत करना।
जीवन
में सब तरफ
ऐसा है। न
केवल ऐसा पति—पत्नी
के बीच है, मित्रों
के बीच, गुरु—शिष्यों
के बीच, नेताओं—
अनुयायिओं के
बीच, सब
तरफ जहां भी
संबंध हैं, वहा आटा है।
थोड़ी ही देर
में आटे की
पर्त को तोड़कर
काटा निकल आता
है, क्योंकि
कांटा
वास्तविक है
और आटा ऊपर—ऊपर
है, वह
केवल पर्त है।
प्रेय हम उसे
कहते रहे हैं,
जिसमें
पहले तो झलक
मिले कि सुख
मिलेगा और पीछे
दुख मिले।
प्रेय का हमें
अनुभव है।
श्रेय ठीक
इससे उलटा है।
और अगर यह हो
सकता है कि
पहले सुख की
झलक और पीछे
दुख हाथ आता
हो, तो
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
पहले दुख और
पीछे सुख हाथ
आता हो।
हमने
इस आधार पर एक
अलग जीवन
निर्मित करने
की कोशिश की
थी। इस देश
में हम बच्चों
के जीवन का
प्रारंभ अत्यंत
कठोर दुख और
तप से शुरू
करवाते थे।
जंगल में भेज
देना गुरुकुल
में बच्चों को, कष्टपूर्ण
था। न वहा
सुविधाएं थीं
सभ्यता की, न साधन थे।
वहां ठीक जंगल
में सारी
कठिनाइयों और
कठोरताओं के
बीच बच्चे को
बड़ा होना पड़ता
था। कठोर गुरु
वहा थे। श्रम
भी करना होता,
लकड़ी काटनी
होती, गाएं
चरानी होतीं,
घास काटना
पड़ता। छोटे
बच्चे सारी
मेहनत करते, तब कहीं
छोटी—मोटी
शिक्षा
उन्हें मिलती।
पच्चीस साल इस
तपश्चर्या के
बाद जब वे
जीवन में आते,
तो अगर
उन्हें रूखी
रोटी भी मिल
जाती तो सुखद मालूम
होती थी।
भारत
सुखी था बहुत
दिनों तक, उसका
कारण यह नहीं
था कि भारत के
पास सब कुछ था।
उसका कारण था
कि भारत की
शिक्षा दुख से
शुरू होती थी।
आज शिक्षा सुख
से शुरू होती
है; पूरा
मुल्क दुखी है,
पूरी जमीन
दुखी है।
विद्यार्थी
को जो सुविधा
यूनिवर्सिटी
में और हास्टल
में मिलती है,
वह उसका बाप
घर पर नहीं दे
सकता। और जब
यूनिवर्सिटी
की सारी सुख—सुविधाओं
को लेकर बच्चा
वापस लौटेगा,
विवाह
करेगा, और
एक सौ रुपये
की नौकरी पर
लगेगा, और
सारे तरह के
कष्ट आने शुरू
होंगे, जीवन
एक महादुख हो
जाएगा।
असल
में जो चीजें
भी सुख से
शुरू होती हैं, वे दुख पर
समाप्त होती
हैं। और जो
चीजें भी दुख
से शुरू होती
हैं, वे
सुख पर समाप्त
हो सकती हैं।
दुख की शिक्षा
प्राथमिक चरण
होना चाहिए, तो जीवन के
अंत में संतोष
संभव है।
लेकिन सभी मा—बाप
सोचते हैं कि
बच्चों को सुख
दो। बेचारे
बच्चे! इन्हें
तो कम से कम
सुख दो। वे
इनके जीवनभर
के दुख का
आयोजन कर रहे
हैं।
तपश्चर्या
का अर्थ है—दुख
को स्वेच्छा
से वरण करना।
श्रेय का
प्रयोजन है
प्रेय से उलटा
दुख को पहले
वरण (नो। दुख
से भागो मत, छिपाओ मत।
दुख से डरो मत,
बल्कि दुख
को जीओ। ताकि
दुख का दंश
निकल जाए। और
तुम इतने
अभ्यस्त हो
जाओ दुख के कि
दुख तुम्हें
दुख न दे सके।
उसके बाद जीवन
में महासुख का
अवतरण है।
इसलिए
कर्तव्य दुख
देता है, नैतिकता दुख
देती है। शुभ
करने में दुख
होता है, अशुभ
करने में बड़ा
प्रलोभन
मिलता है। अगर
लाख रुपये पड़े
हैं, तो सामने
दोनों सवाल उठ
जाते हैं। एक
मन कहता है, उठा लो।
क्योंकि लाख
के पीछे बड़े
सुख की
संभावना है।
बहुत महल खड़े
होने का उपाय
है। और एक मन
कहता है, छोड़
दो। लेकिन
छोड़ने में दुख
है। अगर आप
उठा लेते हैं
और चोरी को
चुन लेते हैं,
तो आपने
प्रेय को तो
चुन लिया, लेकिन
साथ ही आपका
पूरा जीवन दुख
से भर जाएगा।
लेकिन
अगर आप छोड़
देते हैं, हिम्मत
से, साहस
से हट जाते
हैं उन लाख
रुपयों पर लात
मारकर, तो
आपने दुख को
चुना।
क्योंकि लाख
के सुख की जो
आशा थी, वह
समाप्त हो गई।
लेकिन इस दुख
के चुनाव में
आप श्रेय को
चुन रहे हैं, अचौर्य को
चुन रहे हैं।
और यह अचौर्य
आपको महासुख
की तरफ ले
जाएगा। चोरी
ने कभी किसी
को सुखी नहीं
बनाया है। चोर
कितना ही
इकट्ठा कर ले,
चोर ही होगा,
दुखी ही
होगा। उसकी
आत्मा दबी ही
होगी। उसकी
आत्मा का फूल
खिल नहीं सकता
है।
श्रेय
का अर्थ है, दुख को
चुनना, शुभ
के लिए। चाहे
स्पष्ट रूप से
पीड़ा में
गुजरना पड़े, संताप भोगना
पड़े, असुविधा
झेलनी पड़े, कष्ट भाग्य
बन जाए लेकिन
श्रेय के लिए,
शुभ के लिए,
शिव के लिए
उस कष्ट को जो
स्वीकार कर
लेता है, उसकी
आत्मा विकसित
होती है। उसकी
आत्मा
इंटीग्रेटेड,
अखंड हो
जाती है। उसकी
आत्मा एक हो
जाती है। यह
कष्टों का
स्वेच्छा से
वरण अग्नि बन
जाता है। और
उसकी आत्मा इस
अग्नि में
निखरकर शुद्ध
हो जाती है।
लेकिन
जो छोटे —छोटे
क्षुद्र
सुखों को चुन
लेता है, धीरे — धीरे
पाता है कि
सारी आत्मा
खंडित हो गई।
वासनाएं, उनकी
दौड़, उनकी
साधन—सामग्री
इकट्ठी होती
चली जाती है, भीतर का
आदमी खोता चला
जाता है।
नचिकेता
के सामने
दोनों ही सवाल
हैं। यम ने
उसे कहा कि
श्रेय और
प्रेय दो
मार्ग हैं।
हे
नचिकेता! तुम
ऐसे निस्पृह
हो कि प्रिय
लगने वाले और
अत्यंत सुंदर
रूप वाले इस
लोक और परलोक
के समस्त
भोगों को
भलीभांति सोच—
समझकर तुमने
छोड़ दिया। इस
संपत्तिरूप
श्रृंखला को
बेड़ियों को
तुम नहीं
प्राप्त हुए।
इसके बंधन में
तुम नहीं फंसे
जिसमें बहुत
से मनुष्य फंस
जाते हैं।
जो
कि अविद्या और
विद्या के नाम
से विख्यात हैं।
ये
दो शब्द और भी
समझने जैसे
हैं।
अविद्या
का अर्थ
अज्ञान नहीं
होता, जैसा
कि शब्दकोशों
में लिखा है।
विद्या का
अर्थ भी सिर्फ
शान नहीं होता,
जैसा कि
शब्दकोशों
में अंकित है।
अविद्या का
अर्थ होता है,
ऐसा ज्ञान
जिससे प्रेय
मिले। और
विद्या का
अर्थ होता है,
ऐसा शान
जिससे श्रेय
मिले।
अविद्या भी
जान है, विद्या
भी ज्ञान है।
अविद्या उस
शान का नाम है
जिससे प्रेय
मिलता है।
चोर
का भी कुछ
ज्ञान है। कोई
योगी का ही
शान है ऐसा
नहीं है, भोगी का भी
कुछ ज्ञान है।
बुरे आदमी की
भी कुछ
व्यवस्था है,
कुशलता है,
कारीगरी है।
बुरे आदमी की
भी कला है।
जिससे
प्रेय मिलता
है, उस
ज्ञान का नाम
अविद्या है।
इसे अगर समझें
तो बड़ी
मुश्किल होगी।
इसका मतलब
होगा कि सारा
विज्ञान
अविद्या है—पूरी
साइंटिफिक
नॉलेज।
क्योंकि उससे
प्रेय मिलता
है, श्रेय
नहीं मिलता।
ज्यादा से
ज्यादा प्रिय
वस्तुएं
मिलती हैं, लेकिन आत्मा
तो नहीं मिलती।
विज्ञान
अविद्या का
हिस्सा है।
विद्या हम उसे
कहते हैं
जिससे आत्मा
मिलती है।
विद्या हम उसे
कहते हैं
जिससे
व्यक्ति
प्रिय का मोह
छोड़ देता है; शुभ की
खोज करता है, सत्य की खोज
करता है। वह
जो प्रिय की
मिठास है, उसका
त्याग करता है,
और चाहे
कडुवा जहर ही
क्यों न हो
सत्य, उसको
पीने की
तैयारी करता
है। उस तैयारी
से ही नवजीवन
उपलब्ध होता
है।
यम
ने कहा कि ये
दो हैं। और
नचिकेता! तूने
बड़ी हिम्मत की।
तू बड़ा
वैराग्यवान
साबित हुआ। तू
इस श्रृंखला
में न फंसा, इस बेड़ी
में न उलझा, जो कि अधिक
लोगों को बांध
लेती है—प्रिय
की, प्रेय
की। अविद्या
और विद्या
दोनों परस्पर
अत्यंत
विपरीत और
भिन्न— भिन्न
फल देने वाली
हैं। तुम
नचिकेता को
मैं
विद्या का
अभिलाषी
मानता हूं।
क्योंकि तुमको
बहुत से भोग
किसी प्रकार
भी लुभा न सके।
तुम
उस तत्व की
खोज में हो, उस ज्ञान
की, उस बोध
की, उस
ध्यान की, उस
योग की, उस
कीमिया की खोज
में हो, जिससे
व्यक्ति परम
श्रेय को, परम
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाता है। तुम
प्रिय की तलाश
नहीं कर रहे।
क्योंकि
मैंने
तुम्हें सब
प्रलोभन दिए,
तुम उनसे
अछूते बाहर आ
गए, उग्स्पर्शित।
कोई भी
तुम्हारे मन
को डांवाडोल न
कर पाया।
अविद्या
के भीतर रहते
हुए भी अपने
आपको बुद्धिमान
और विद्वान
मानने वाले
मूड लोग नाना
योनियों में
चारों ओर
भटकते हुए ठीक
वैसे ही
ठोकरें खाते
रहते हैं जैसे
अंधे मनुष्य
के द्वारा
चलाए जाने
वाले अंधे
अपने लक्ष्य
तक न पहुंचकर
इधर—उधर भटकते
और कष्ट भोगते
हैं।
बड़ी
अदभुत बात यम
ने कही। यम ने
कहा कि बहुत हैं
जो बुद्धिमान
हैं, पंडित
हैं, जो
अपने को
ज्ञानी मानते
हैं, लेकिन
उनका सारा
ज्ञान
अविद्या का है।
हमारे
विद्यालय, विश्वविद्यालय
अभी तक भी
विद्यालय
नहीं हैं इस
अर्थों में, अविद्यालय
हैं। क्योंकि
वहां जो भी
सिखाया जा रहा
है, उससे
प्रेय की
उपलब्धि होती
है—वह भी नहीं
हो पा रही है!
उसका भी सिर्फ
आश्वासन मिलता
है। वे
आश्वासन भी
पूरे नहीं हो
पाते। अगर हम
उपनिषद के
ऋषियों से
पूछें, तो
हमारे
विद्यालय को
वे कहेंगे कि
गलत नाम दिया
तुमने, अविद्यालय
कहो।
विद्यालय तो
वह है जहा
व्यक्ति को
स्वयं को पाने
की, सत्य
को पाने की—आजीविका
पाने की नहीं,
जीवन को
पाने की कला
सिखाई जाती है।
कहता है यम, तुम अभिलाषी
हो विद्या के।
क्योंकि तुम
वैराग्यवान, दृढ़निश्चयी,
निर्भीक; तुम
डांवाडोल
नहीं होते; वासना के
झोंके, आंधिया
तुम्हारे
चित्त की लौ
को कंपा नहीं
पातीं। तुम
तैयार हो, तुम
पात्र हो, मैं
तुमसे विद्या
कहूंगा।
आप
भी जानते हैं
बहुत कुछ। वह
विद्या नहीं
है। एक
इंजीनियर है, एक
डाँक्टर है, एक प्रोफेसर
है, एक
दुकानदार है,
एक बढ़ई है, एक कारीगर
है, एक
कलाकार है, चित्रकार है,
मूर्तिकार
है; वे जो
भी जानते हैं,
विद्या
नहीं है। वे
जो भी जानते
हैं, उससे
प्रेय को पाया
जा सकता है, उससे श्रेय
को पाने का
कोई उपाय नहीं
है।
तो
जब तक कोई
व्यक्ति
श्रेय को पाने
की कला न जान
ले, तब
तक विद्यावान
नहीं है। और
श्रेय की कला
को बिना जाने
जो अपने को
बुद्धिमान
मानता हो, यम
कह रहा है
नचिकेता से कि
वे बुद्धिमान
छू हैं। और वे
बुद्धिमान
अपने को ही
नहीं भटकाते,
वे बहुतो को
अपने साथ
भटकाते हैं।
जैसे अंधा
दूसरे अंधों
को ले चले और
कहे कि मैं
तुम्हें
रास्ता
दिखाऊगा। वह
खुद भी भटकेगा
अनंत जन्मों
तक, और बहुतो
को भटकाएगा भी।
लेकिन
यह मजे की बात
है, और थोड़ी
समझ लेने जैसी
है। अंधे का
भी मन दूसरों
को मार्ग
दिखाने का तो
होता है।
क्योंकि
मार्ग दिखाने
में अहंकार की
बड़ी तृप्ति है।
मार्ग पता न
भी हो, तो
भी।
जिब्रान
ने एक छोटी—सी
कहानी लिखी है।
लिखा है कि एक
गुरु था और वह
गाव—गाव जाता
और लोगों से
कहता कि मुझे
परमात्मा के
घर का पता है।
जिन्हें भी
पहुंचना हो उस
परम स्थान तक, आएं मेरे
पीछे। लेकिन
ध्यान रहे, फिर मेरे
पीछे ही चलना
होगा
संकल्पपूर्वक।
फिर बीच से
लौटना मत, डावाडोल
मत होना।
रास्ता कठिन
है, यात्रा
लंबी है।
प्रलोभन भी
देता और फिर
काफी भय भी
बता देता कि
दुर्गम मार्ग
है। और जाना
बहुत मुश्किल
है। कभी लाखों
में कोई एक
पहुंच पाता है।
लेकिन अगर कोई
हो सच्चा
पहुंचने वाला,
आ जाए मेरे
पीछे, मैं
उसे ले चलूंगा।
लोग
कहते कि अभी
तो सुविधा
नहीं है, लेकिन आकांक्षा
है।
कभी जब समय
होगा, सुविधा
होगी, संसार
की उलझन से
जरा छूटेंगे,
तो आपके
चरणों में
आएंगे। उसकी
हिम्मत बढ़ती
चली गई, क्योंकि
कोई कभी पीछे
चलने को राजी
न होता था। तो
वह और दावे
करने लगा कि
अभी पहुंचा
सकता हूं कोई
चलने भर को
राजी हो; लेकिन
मार्ग बहुत
दुर्गम है।
लेकिन
एक गांव में
एक पागल आदमी
मिल गया। उसने
कहा, अब
देर नहीं करनी
है। मैं तैयार
हूं। गुरु
थोड़ा डरा। उसे
पहली दफे खयाल
आया कि कहा ले
जाऊंगा! यह तो मूल
ही गया था वह।
क्योंकि कहीं ले
जाने का कभी
कोई सवाल न
उठा था। फिर
भी उसने सोचा—उसने
डरवाने की
कोशिश की कि
मार्ग बहुत
दुर्गम है।
यात्रा लंबी
है ' उस
आदमी ने कहा, बातचीत बंद,
समय खोना
व्यर्थ है, हम चलें।
इतना समय
क्यों गंवाएं?
जब चलना ही
है तो चलना ही
है। गुरु ने
कहा, बीच
से छोड्कर मत
जाना। उस खोजी
ने कहा, मैं
नहीं जाने
वाला। आप भर
बीच में मत
छोड़ देना। मैं
अब जाने ही
वाला नहीं हूं
कहीं। जहां आप
होंगे, मैं
आपकी छाया हूं।
गुरु बहुत
घबड़ाया।
लेकिन सोचा कि
इतनी हिम्मत
कितने दिन तक!
एक वर्ष बीता,
वह आदमी
उसके पीछे ही
लगा रहा। गुरु
की हालत खराब
होने लगी! वह
अब दूसरे गांव
में भी जाता
तो इतनी
हिम्मत से न
कह पाता, क्योंकि
वह आदमी पीछे
खड़ा है! वह
कहता, एक
साल से तो मैं
पीछे चल रहा
हूं। अभी कहीं
पहुंचे नहीं।
यहीं गांव—गाव
घूमते हैं! तो
उसकी हिम्मत
टूटने लगी।
उसने बड़ी
कोशिश की कि
किसी तरह से
इस आदमी को भगा
दे, हटा दे,
इससे छूट
जाए। मगर वह
बड़ा पक्का
खोजी था। वह
नचिकेता जैसा
रहा होगा। वह
बिलकुल पीछे
ही लग गया। छ:
साल बीत गए।
उस आदमी ने यह
भी नहीं पूछा
कि अभी तक
नहीं पहुंचे!
उसने कहा, मार्ग
दुर्गम है, कभी तो
पहुंचेंगे, लेकिन मैं
पीछे रहूंगा।
एक
दिन गुरु ने
उसके हाथ जोड़े
और कहा कि देख, तेरे
कारण मैं भी
मार्ग भूल
गया! मुझे पता
था। तू कृपा
कर, और
मुझे छोड़।
अंधों
को भी
मार्गदर्शन
करने का खयाल
तो आता है। और
उसके कारण हैं।
अंधा अगर दो
आदमी पा जाए—अंधे
ही सही—जो
उसके पीछे
चलते हों, तो अंधे
को लगने लगता
है कि मेरे
पास आंखे हैं।
दो आदमी मेरे
पीछे चलते हैं,
तो अंधे तो
नहीं हो सकते!
तो जितनी भीड़
बढती जाती है
गुरुओं के
पीछे, उतना
गुरु को पक्का
भरोसा होने
लगता है कि
जरूर मैं कहीं
जा रहा हूं।
अनुयायी
की बड़ी जरूरत
है गुरु को।
उसकी वजह से
ही उसे पक्का
भरोसा होता है
कि मैं भी हूं।
और मेरे पास आंखे
हैं।
सौ
में
निन्यानबे
गुरु इस
भांति... खुद
अंधे अंधों को
लिए चलते हैं।
लेकिन बड़ी
कठिनाई है।
अंधे आदमी की
बड़ी मुसीबत है।
वह तौले भी तो
कैसे तौले कि
जो मुझे ले' जा रहा है,
वह अंधा है
या नहीं? अंधा
आदमी कैसे पता
लगाए कि जो
मुझे ले जा
रहा है, वह
अंधा है या
नहीं? अगर
खुद आंखे
होतीं, तो
देख लेता। आंखे
तो नहीं हैं।
इसलिए
शिष्य की बड़ी
मजबूरी है। वह
टटोलता फिरता
है—एक गुरु से
दूसरे गुरु, तीसरे
गुरु के पास।
कैसे वह पक्का
पता लगाए?
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं कि जिस
आदमी की मैंने
यह कहानी कही, अगर गुरु
को आप इतने
जोर से पकड़
लें, तो
अगर वह अंधा
है तो खुद ही
हाथ जोड़कर
कहेगा कि मेरे
पास आंखे नहीं
हैं, अब आप
कहीं और जाएं।
और
एक बात ध्यान
रहे कि भटकना
तो पड़ेगा।
सीधा—सीधा
आपको गुरु मिल
जाए, यह
असंभव है।
करीब—करीब
असंभव है।
भटकना पड़ेगा।
लेकिन अगर आप
साहस से, निर्भीकता
से, और
आखिरी शब्द
खयाल रखें—वैराग्य
के भाव से
चलते रहें, तो अंधा
गुरु आपको
ज्यादा देर तक
धोखा नहीं दे
पाएगा।
क्योंकि अंधा
गुरु आपको
लुभा पाता है,
क्योंकि
आपके भीतर
वासना है, वैराग्य
नहीं है।
तो
कोई ताबीज
देता है, कोई राख
गिराता है, कोई चमत्कार
दिखाता है, उससे आप
प्रभावित
होते हैं।
आपकी वासना, आपका लोभ—आपको
लगता है कि
जिस आदमी के
हाथ में आकाश
से ताबीज आ
जाता है, तो
यह क्या नहीं
कर सकता। तो
मेरी इच्छाएं
भी पूरी करवा
सकता है। जो
चमत्कारी है
उससे मेरी
बीमारी दूर
होगी, बेटा
पैदा हो जाएगा,
कि धन
मिलेगा, कि
अदालत में
मुकदमा जीत
जाऊंगा।
वासनाओं को
प्रलोभन
मिलता है।
जो
गुरु भी आपकी
वासनाओं को
किसी तरह
तृप्त कर रहा
है, जान
लेना कि वह
अंधा है, और
अंधों को
प्रलोभित
करने की कला
उसे पता है।
जो गुरु आपकी
वासनाओं को
प्रलोभित
नहीं कर रहा
है, बल्कि
आपको उस तरफ
ले जा रहा है जहां
परम वैराग्य
है, जहां
परम मृत्यु है;
जहा जीवन का
सारा उपद्रव
छूट जाता है, बाहर की दौड़
खो जाती है, और भीतर का
शून्य प्रगट
होता है; अगर
कोई गुरु आपको
शून्यता की
तरफ ले जा रहा
है, जहां
आपको कोई
दूसरा
आश्वासन नहीं
है कि आपको धन
मिलेगा, पद
मिलेगा, प्रतिष्ठा
मिलेगी, यश
मिलेगा, कि
आप चुनाव जीत
जाओगे..?।
दिल्ली
में एक ऐसा
नेता नहीं है
जिसका कोई गुरु
न हो। क्योंकि
वे गुरु चुनाव
ही जितवाते
हैं! और जैसे
ही कोई नेता
हारता है
चुनाव में, अगर इसके
पहले गुरुओं
के पास न गया
हो, तो
फौरन पहुंच
जाता है। जो
लोग दिल्ली
में पदों से
हटते हैं, तो
तत्क्षण आप
उनको कहीं न
कहीं ऋषियों
के आश्रम में
पाएंगे। बैठे
हैं सत्संग
में! पर वे
सत्संग में
तभी तक रहते
हैं, जब तक
चुनाव फिर
नहीं जीत जाते।
गुरु—कृपा
की तलाश चल
रही है! और
प्रलोभन देने
वाले लोग हैं, जो कह रहे
हैं, सब
कुछ हो जाएगा;
सब कुछ
मिलेगा, बस
तुम समर्पण
करो। गुरु—चरणों
में आ जाओ, सब
मिलेगा।
वासना
से भरे हुए
लोग अंधों के
द्वारा
आकर्षित कर
लिए जाते हैं।
फिर जैसा यम
कहता है—अंधों
के पीछे चलते
हुए लोग! जैसे
नेता खुद गड्डे
में गिरता है
और बाकी अंधे
भी गड्डे में
गिरते हैं।
नानक ने कहा
है—अंधा अधम
ठेलिया। वे
अंधे अंधों को
लिए जा रहे
हैं।
लेकिन
यम ने कहा, नचिकेता!
तुझे कोई अंधा
नहीं ले जा
सकता। तेरा
गुरु होने के
लिए, गुरु
ही कोई हो, तो
ही उपाय है।
क्योंकि तुझे
प्रलोभित
नहीं किया जा
सकता। जहां
लोभ मर गया, वहां आपको
कोई भी भटका
नहीं सकता।
सिर्फ लोभ
भटकाता है।
इसलिए आप गुरु
की तलाश उतनी
न करें, जितना
लोभ को छोड़ने
की तलाश करें।
जिस दिन लोभ
नहीं होगा, उस दिन गुरु
से मिलन हो
जाएगा। जिस
दिन आपके भीतर
लोभ न होगा, उस दिन कोई
भी गलत आदमी
आपको मार्ग—दिशा
नहीं दे सकता।
तब जो ठीक है, उससे सत्संग
हो जाता है।
रात्रि
के ध्यान के
संबंध में दो
बातें समझ लें।
रात्रि
का ध्यान त्राटक
का प्रयोग है।
लेकिन बहुत
अनूठा और बहुत
शक्तिशाली।
पहले चरण में
पंद्रह मिनट
तक आप एकटक
मेरी ओर देखेंगे।
(... बैठे रहें, पहले समझ
लें।... ) एकटक
मेरी ओर
देखेंगे। आंख
झपकनी नहीं है।
पलक गिरने
नहीं देना है,
चाहे आंसू बहने
लगें। पूरी
तरह आंख मेरी
तरफ लगाए रखें।
दोनों हाथ
ध्यान करते
वक्त ऊंचे उठा
लेने हैं और
खड़े होकर
ध्यान करना है।
मैं अपने हाथ
से आपको इशारा
करूंगा। जब
मैं हाथ से
आपको इशारा
करूं तो आपको
अपनी पूरी
शक्ति से
कूदना है, ताकि
आपके भीतर जो
छिपी हुई
ऊर्जा है, वह
सक्रिय हो जाए।
आंख मेरी तरफ
लगाए रखनी है,
ताकि मुझसे
जोड़ बन जाए
ताकि मुझसे
संबंध और सेतु
निर्मित हो
जाए। और उछलते
रहना है, और
दोनों हाथ
आकाश की तरफ
ऊपर उठाए रखने
हैं। और हू... हू...
हू... का
महामंत्र
बोलना है।
यह
हू का
महामंत्र
आपके भीतर चोट
करेगा। मेरा
हाथ का इशारा
आपको गति देगा।
और मेरी तरफ
आपकी आंख का
जुड़ा होना एक
गहन संबंध
निर्मित
करेगा। अगर यह
प्रयोग ठीक से
किया, तो
पंद्रह मिनट
में आप किसी
और लोक में छलांग
लगा रहे होंगे।
पंद्रह मिनट
के बाद मैं
रुक जाने को
कहूंगा। जो
जैसा हो, उसे
वहीं आंख बंद
करके रुक जाना
है, मुर्दे
की भांति।
पंद्रह मिनट
इम मौन, शून्य,
शाति में
खड़े रहना, या
गिर गए हों तो
गिरे रहना।
बाद
में
अभिव्यक्ति
का पंद्रह
मिनट का समय
होगा। तब पूरे
दिनभर के आनंद
को, प्रभु
के प्रति
अनुकंपा को, अनुग्रह को
नाचकर, गाकर
प्रगट कर देना
है। और ध्यान
रहे, आनंद
को जितना
प्रगट किया
जाए, उतना
ही बढ़ता चला
जाता है। तो
कंजूसी न करें।
और डरें न कि
कोई क्या
कहेगा! छोटे
बच्चों की तरह
आनंद को प्रगट
करें।
ध्यान योग
शिविर,
माउंट आबू, राजस्थान।
thank you guruji
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