निर्धूम—ज्योति की खोज—दसवां प्रवचन
मनसैवेदमाप्तव्यं
नेह नानास्ति
किंचन।
मृत्यो: स
मृत्युं
गच्छति य इह
नानेव पश्यति।।
11।।
अंगुष्ठमात्र:
परुषो मध्य
आत्मनि
तिष्ठति।
ईशानो भतभव्यस्य
न ततो विजगुप्सते।।
एतद्वै तत्।।
12।।
अंगुष्ठमात्र:
परुषो
ज्योतिरिवाधअमक:।
ईशानो भतभव्यस्य
स एवाद्य स उ
श्व:।। एतद्वै
तत्।। 13।।
यथोदकं
दुगें वृष्टै
पर्वतेषु विधावति।
एवं
धर्मान्
पृथक्
पश्यंस्तानेवानविधावति।।
14।।
यथोदकं शुद्धे
शुद्धमासिक्तं
तादृगेव भवति।
एवं
मनेर्विजानतं
आत्मा भवति
गौतम।। 15।।
(शुद्ध) मन से
ही यह परमात्मतत्व
प्राप्त किए
जाने योग्य है।
इस जगत में ( एक
परमात्मा के
अतिरिक्त )
अन्य कुछ भी
नहीं है।
(इसलिए) जो इस
जगत को अनेक
की भांति
देखता है? वह
मनुष्य
मृत्यु से
मृत्यु को
प्राप्त होता है
अर्थात बार—बार
जन्मता—मरता
रहता है। 11।।
अंगुष्ठमात्र
(परिमाण वाला)
परमपुरुष
(परमात्मा)
शरीर के
मध्यभाग हृदयाकाश
में स्थित है? जो कि भूत, वर्तमान और
भविष्य का
शासन करने
वाला है। उसे
जान लेने के
बाद व्यक्ति
किसी की निंदा
नहीं करता, यही है वह (परमात्म,
जिसके विषय
में तुमने
पूछा था)।। 12।।
अंगुष्ठमात्र
परिमाण वाला
परमपुरुष
परमात्मा
धूम्ररहित
ज्योति की
भांति है। भूत, (वर्तमान)
और भविष्य पर शासन
करने वाला वह
परमात्मा ही
आज है और वही कल
भी है (अर्थात
वह नित्य
सनातन है )।
यही है वह
परमात्म जिसके
विषय में
तुमने पूछा
था),। 13 ।।
जिस प्रकार
ऊंचे शिखर पर
बरसा हुआ जल
पहाड़ के नाना
स्थलों में
चारों ओर चला
जाता है? उसी
प्रकार भिन्न—
भिन्न
धर्मों से
युक्त देव? असुर? मनुष्य
आदि को
परमात्मा से
पृथक देखकर
(उनका सेवन
करने वाला
मनुष्य ) उन्ही
के पीछो दौड़ता
रहता है
(अर्थात
उन्हीं के
शुभाशुभ लोकों
में और नाना
ऊंच—नीच
योनियों में
भटकता रहता
है) ।।14।।
हे गौतमवंशी
नचिकेता।
जैसे वर्षा का
शुद्ध जल अन्य
निर्मल जलों
में मिलकर
वैसा ही हो
जाता है उसी प्रकार
परमेश्वर को
जानने वाले
संतजन की
आत्मा
परमेश्वरमय
हो जाती। 15।।
निर्धूम—ज्योति की
खोज
शुद्ध
मन से ही यह
परमात्मतत्व
प्राप्त किए
जाने योग्य है।
इस जगत में एक
परमात्मा के
अतिरिक्त
अन्य कुछ भी
नहीं है।
इसलिए जो इस
जगत को अनेक
की भांति देखाता
है, वह
मनुष्य मृत्यु
से मृत्यु को
प्राप्त
होता है
अर्थात
बार-बार जन्मत-मरता
रहता है।
शुद्ध
मन को समझना
होगा। साधारणत:
शुद्ध मन के
संबंध में जो
धारणा है वह
बड़ी भ्रांत
है। शुद्ध मन
से लोग समझते
हैं—सात्विक
विचारों वाला
मन। शुद्ध मन
से लोग समझते
हैं—नैतिक रूप
से
प्रतिष्ठित
मन। शुद्ध मन
से लोग समझते
हैं—जिसे हम
बुरा कहते हैं, अनैतिक
कहते हैं, अनाचार
कहते हैं, उस
सबसे मुक्त
हुआ मन।
लेकिन
उपनिषद इस मन को
भी अशुद्ध ही
कहेंगे।
उपनिषद की
भाषा में
शुद्ध मन वह
है, जहां
न तो बुरा रह
जाता है और न
भला, जहां
न नीति रह
जाती है, न
अनीति; जहां
न शुभ बचता है,
न अशुभ, जहां
विचार की सारी
तरंगें ही
समाप्त हो
जाती हैं। जब
तक विचार शेष
है, तब तक
मन अशुद्ध है।
साधु
का मन भी
अशुद्ध है, असाधु का
मन भी अशुद्ध
है। असाधु के
मन की अशुद्धि
हैं—बुरे
विचार। साधु
के मन की
अशुद्धि हैं—भले
विचार। संत
शुद्ध मन वाला
है। न वहा
अच्छे विचार
बचे हैं, न
बुरे विचार
बचे हैं। यह
थोड़ा जटिल है,
क्योंकि हम
अच्छे विचार
को ही शुद्धता
मान लेते हैं।
अच्छा
विचार भी
विजातीय है।
अच्छा विचार
भी मन में
तरंगें ही
पैदा करता है।
अच्छा विचार
भी मन में अशांति
लाता है।
अच्छा विचार
भी मन की सीमा
बनाता है।
शुद्ध मन तो
तब है, जब
वहां कोई भी
विजातीय तत्व
न रहा। ऐसा
समझें, एक
दर्पण है।
दर्पण के
सामने एक चोर खड़ा
है, तो भी
दर्पण अशुद्ध
है, क्योंकि
चोर का
प्रतिबिंब बन
रहा है। दर्पण
के सामने एक
साधु खड़ा है, तो भी दर्पण
अशुद्ध है, दर्पण में
साधु का
प्रतिबिंब बन
रहा है। जब
दर्पण के
सामने कोई भी
नहीं खड़ा है, तभी दर्पण
शुद्ध है।
इसलिए
संत साधु नहीं
है, संत
असाधु भी नहीं
है। संत दोनों
से भिन्न है।
संतत्व.
की उपनिषद की
धारणा बड़ी गहन
है। शुद्धता
की उपनिषद की
धारणा बड़ी
सूक्ष्म है।
मन में जब तक
कोई भी तरंग
उठती है, तब तक मन
अशुद्ध है। जब
मन निस्तरंग
हो जाता है, शून्य की
भांति हो जाता
है, दर्पण
प्रतिबिंबों
से खाली हो
जाता है। न
बुरा करने की
वासना रह जाती
है, न भला
करने की वासना
रह जाती है, न पाप मन को
घेरता है, न
पुण्य मन को
घेरता है, न
स्वार्थ मन को
घेरता है, न
परार्थ मन को
घेरता है, जब
मन को कुछ
घेरता ही नहीं,
तब मन असीम
हो जाता है।
तब मन की होने
की क्षमता
मात्र शेष रह
जाती है। तब
मनन करने को
कुछ भी नहीं
बचता, सिर्फ
कोरा दर्पण
होता है, जस्ट
मिरर। मन जब
कोरा दर्पण रह
जाता है, जिसमें
कोई
प्रतिबिंब, कोई प्रतिमा,
कोई चित्र,
कोई छबि, कोई छाया
नहीं पड़ती—उपनषिद
कहते हैं—ऐसे
मन से ही कोई
परमेश्वर को
जानने में
समर्थ होता है।
धर्म
और नीति का
यही भेद है।
नीति शुभ मन
को शुद्ध
समझती है, और धर्म
शून्य मन को शुद्ध
समझता है।
नैतिक होने के
लिए धार्मिक
होना जरूरी
नहीं है।
नास्तिक भी
नैतिक हो सकता
है, होता
है। अक्सर तो
यह होता है, आस्तिक से
ज्यादा नैतिक
होता है। रूस
में जितनी
नैतिकता है
उतनी भारत में
नहीं। और रूस
नास्तिक है!
इतनी चोरी
वहां नहीं है,। इतनी
बेईमानी वहां
नहीं है।
वस्तुओं में
इतनी मिलावट
वहां नहीं है।
इतनी धोखाधड़ी,
इतना ओछापन
नहीं।
नास्तिक
नैतिक हो सकता
है। सच तो यह
है कि नास्तिक
को नैतिक होने
के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
धार्मिक तो वह
हो नहीं सकता।
नास्तिक के
लिए बुरे का
छोड़ना और चले
का पकड़ना, यह
अंतिम बात है।
आस्तिक
इतने से राजी
नहीं है।
आस्तिक की
यात्रा और
लंबी है।
आस्तिक कहता
है—बुरे को
छोड़ दिया, भले को
पकड़ लिया, लेकिन
पकड़ तो न छूटी।
कल बुरा था
हाथ में, अब
भला है हाथ
में। कल जंजीरें
लोहे की थीं, अब सोने की
हैं, लेकिन
जंजीरें
मौजूद हैं।
कुछ भी बांधे
नहीं, कुछ
भी पकड़े नहीं,
कोई पकड़ न
रह जाए मन
बिलकुल पकड़ से
शून्य हो जाए।
धर्म
अनीति के तो
पार जाता ही
है, नीति
के भी पार
जाता है।
धार्मिक
व्यक्ति का
आचरण सिर्फ
नैतिक नहीं होता।
धार्मिक
व्यक्ति का
आचरण वस्तुत:
नीति—अनीति
शून्य हो जाता
है। इसलिए
धार्मिक
व्यक्ति के
आचरण को समझना
बहुत कठिन है।
नैतिक
व्यक्ति का
आचरण हमें समझ
में आता है।
हमें पता है, क्या
बुरा है और
क्या भला है।
जो भला करता
है, वह
हमें समझ में
आता है। जो
बुरा करता है,
वह भी समझ
में आता है।
लेकिन संत भले
और बुरे करने
के दोनों के
पार हो जाता
है। उसका आचरण
स्पाटेनियस, सहज हो जाता
है। उसके भीतर
से जो उठता है
वह करता है। न
वह भले का
चिंतन करता है,
न बुरे का
चिंतन करता है।
तो
कई बार ऐसा भी
हो सकता है कि
जिसे हम भला
कहते थे, वह संत न करे।
कई बार ऐसा भी
हो सकता है कि
जो समाज की
धारणा में
बुरा था, वह
संत करे। जैसे
जीसस, या
कबीर, या
बुद्ध, या
महावीर समाज
की धारणाओं से
बहुत
अतिक्रमण कर
जाते हैं।
महावीर
नग्न खड़े हो
गए! समाज की
धारणा में
नग्न खड़े हो
जाना अशिष्टता
है, अनैतिकता
है। समाज नग्न
लोगों को
बर्दाश्त
नहीं करेगा।
उसके कारण हैं।
क्योंकि समाज
ने शरीर को ही
नहीं ढाका है,
शरीर के साथ
उसने
कामवासना को
भी ढाका है।
कामवासना से
इतना भय है कि
उसे छिपाकर
रखना पड़ता है।
नग्न आदमी की
कामवासना
प्रगट हो जाती
है। नग्न आदमी
का शरीर
कामवासना की
दृष्टि से
ढंका हुआ नहीं
है। तो समाज
नग्नता को
पसंद नहीं
करेगा। वह
मानेगा कि
उसमें अनीति
है।
महावीर
नग्न खड़े हो
गए। बड़ी अड़चन
हो गई। गांव—गांव
से महावीर को
हटाया गया।
जगह—जगह उन पर
पत्थर फेंके
गए। जगह—जगह
उनकी निंदा की
गई। और महावीर
मौन भी थे।
नग्न भी थे, मौन भी थे,
बोलते भी
नहीं थे। जवाब
भी नहीं देते
थे कि क्यों
नग्न हैं न:
क्यों खड़े हैं
यहां? क्या
प्रयोजन है? तो और भी बेक
हो गए थे।
लेकिन
महावीर की
नग्नता
अनैतिक नहीं
है। महावीर की
नग्नता को
नैतिक कहना भी
मुश्किल है।
महावीर की
नग्नता बड़ी
साहजिक है, छोटे बच्चे
की भांति
निर्दोष है।
वहां नीति और
अनीति दोनों
नहीं हैं।
महावीर वैसे
सरल हो गए हैं,
जहां
ढांकने को कुछ
भी नहीं बचा
है। जिसके पास
ढांकने को कुछ
बचा है, वह
जटिल है। जो
चाहता है कुछ
छिपाए उसमें
थोड़ी—सी
जटिलता है।
महावीर सरल हो
गए हैं। उस
सरलता में
इतनी सीमा आ
गई है, जहां
वस्त्रों को
ढोने का
उन्हें कोई
आकर्षण नहीं
रहा है। लेकिन
महावीर की
नग्नता को
सामान्य समाज
अनैतिक
समझेगा।
महावीर के
संतत्व को
समझने में बड़ी
जटिलता है।
जीसस
एक गांव से
गुजरे और एक
वेश्या ने आकर
उनके पैरों पर
सिर रख दिया
और उसके आम
बहने लगे।
उसने अपने
आसुओ से उनके
पैर भिगो दिए।
गांव के जो
नैतिक पुरुष
थे, उन्होंने
कहा कि वेश्या
ठे द्वारा
अपने को छूने
देना उचित
नहीं है।
उन्होंने
जीसस से कहा
कि इस वेश्या
को कहो कि तुम्हें
न छुए। संत को
तो साधारण
स्त्री का
स्पर्श भी
वर्जित है, तो यह तो
वेश्या है।
जीसस ने कहा
कि मेरे चरण
अब तक।rजंतने
लोगों ने छुए
हैं, इतनी
पवित्रता से
किसी ने कभी
नहीं छुए।
लोगों ने जल
से मेरे पैर
धोए हैं, इस
स्त्री ने
मेरे पैरों को
अपने प्राणों
के आसुओ से
धोया है।
जीसस
पर जो जुर्म
थे, जिनकी
वजह से उन्हें
सूली लगी, उसमें
एक जुर्म यह
भी था। साधारण
उनके समाज की
जो नीति की
धारणा थी, उसके
विपरीत थी यह
बात।
एक
स्त्री को
जीसस के पास
लोग लाए, क्योंकि वह
व्यभिचारिणी
थी, और
यहूदी कानून
था कि जो
स्त्री
व्यभिचार करे,
उसे
पत्थरों से
मारकर मार
डालना
न्यायसंगत है।
तो जीसस गांव
के बाहर ठहरे
थे। लोगों ने
उनसे आकर कहा
कि यह स्त्री
व्यभिचारिणी है।
और इसके पक्के
प्रमाण मिल गए
हैं। न केवल
प्रमाण, बल्कि
इस स्त्री ने
भी स्वीकार कर
लिया है।
इसलिए अब कोई
सवाल नहीं है।
और पुरानी
किताब कहती है
कि इस स्त्री
को पत्थरों से
मारकर मार
डालना उचित है,
न्यायसंगत
है। आप क्या
कहते है?
जीसस
ने कहा, पुरानी
किताब ठीक
कहती है।
लेकिन वे ही
लोग पत्थर
मारने के
अधिकारी हैं,
जिन्होंने
व्यभिचार न तो
किया हो और न
सोचा हो। तुम
पत्थर उठाओ।
तो व्यभिचार,
कौन है
जिसने नहीं
किया, या
नहीं सोचा 2: वे
जो समाज के
बड़े पंडित और
मुखिया थे, पंच थे, वे
चुपचाप भीड़
में पीछे हटने
लगे। धीरे—धीरे
लोग जो पत्थर
लेकर आए थे, वे पत्थर
छोड्कर गांव
की तरफ भाग गए।
जीसस पर यह भी
एक जुर्म था
कि उन्होंने
एक व्यभिचारिणी
स्त्री को बचा
लिया।
जीसस
का व्यवहार
नीति के
सामान्य
दायरे में नहीं
बंधता है।
साहजिक है। जो
सहज उनकी
चेतना में उठ
रहा है, वह कर रहे
हैं। वे न तो
सोचेंगे कि
समाज की धारणा
से मेल खाता है
कि नहीं मेल
खाता। वह
विचार नैतिक
व्यक्ति करता
है।
धार्मिक
व्यक्ति बड़ी
अनूठी घटना है।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
धार्मिक
व्यक्ति अनिवार्य
रूप से अनैतिक
हो जाता है।
उसका आचरण
नीति और अनीति
से मुक्त होता
है। कभी नीति
से मेल भी खा
जाता है, कभी मेल
नहीं भी खाता।
लेकिन यह उसके
मन में
अभिप्राय
नहीं है कि मेल
खाए या मेल न
खाए। क्योंकि
जब तक हम
सोचते हैं :
किसी धारणा से
मेरा आचरण मेल
खाए तब तक
हमारा आचरण
असत्य होगा; तब तक हमारा
आचरण पाखंड
होगा; तब
तक आचरण भीतर
से नहीं आ रहा
है, बाहर
के मापदंडों
से तौला जा
रहा है। तब तक
आचरण आत्मा की
अभिव्यक्ति
नहीं है। तब
तक आचरण समाज
का अनुसरण है।
नैतिक
व्यक्ति समाज
का अनुसरण
करता है।
इसलिए जिनको
आप साधु कहते
हैं, आमतौर
से नैतिक होते
हैं, धार्मिक
नहीं। और जब
भी कोई
व्यक्ति
धार्मिक हो
जाता है, तब
आपको अड़चन
शुरू हो जाती
है। क्योंकि तत्क्षण
उसके आचरण को
आप अपने
ढांचों में
नहीं बिठा पाते।
आपके जो
पैटर्न हैं, सोचने के जो
ढाचे हैं, वह
उनसे ज्यादा
बड़ा है। सब
ढांचे टूट
जाते हैं।
शुद्ध
मन उपनिषद
कहता है उस मन
को, जहां
नीति और अनीति
की सारी
तरंगें खो गई
हैं; जहां
मन बिलकुल
सूना हो गया, शून्य हो
गया; जहा
कोई विजातीय
तत्व न रहा।
विचार
विजातीय तत्व
है।
पानी
में कोई दूध
मिला देता है, तो हम
कहते हैं, दूध
शुद्ध नहीं है।
लेकिन बड़े मजे
की बात है, अगर
शुद्ध पानी
मिलाया हो तो?
तो दूध
शुद्ध है या
नहीं? तो
भी दूध अशुद्ध
है। बिलकुल
शुद्ध दूध और
शुद्ध पानी
मिलाया हो, तो दो
शुद्धताएं
मिलकर भी दूध
अशुद्ध होगा।
अशुद्धि
का संबंध इससे
नहीं है कि जो
मिलाया आपने
वह शुद्ध था
या नहीं।
अशुद्धि का
संबंध इससे है
कि जो मिलाया
वह विजातीय है, फारेन
एलीमेंट है।
वह दूध नहीं
है, जो
मिलाया आपने;
वह पानी है।
वह शुद्ध होगा।
विजातीय तत्व
का प्रवेश
अशुद्धि है।
मन
में मन के
बाहर से कुछ
भी आ जाए तो
अशुद्धि है।
वह शुद्ध
विचार आया, अशुद्ध
विचार आया, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। बाहर से
कुछ भी मन में
आया, अशुद्धि
हो गई। मन में
बाहर से कुछ
भी न आए, मन
अकेला हो, अपने
में हो, तो
शुद्ध है।
शुद्धि की यह
बात ठीक से
खयाल में ले
लेनी जरूरी है।
और
इसीलिए
पश्चिम में जब
पहली दफा
उपनिषदों पर
टीकाएं लिखी
गईं और उपनिषद
के अनुवाद हुए, तो
पश्चिम के
विचारकों ने
कहा कि उपनिषद
जो हैं, वे
मारल, नैतिक
नहीं मालूम
होते। डघूसन
ने अपने
प्रसिद्ध
अनुवाद में यह
शंका जाहिर की
है कि
उपनिषदों में
कोई नैतिक
शिक्षा नहीं
है। जैसा
बाइबिल में है
कि चोरी मत
करो, बेईमानी
मत करो, पर —स्त्रीगमन
मत करो, ऐसी
साफ—साफ कोई
नैतिक शिक्षा
उपनिषद में
नहीं है।
डघूसन की शंका
ठीक है, लेकिन
डघूसन की
व्याख्या ठीक
नहीं है।
डघूसन बिलकुल
ठीक कह रहा है
कि जैसा
पुराने बाइबिल
में सीधे
उपदेश हैं, टेन
कमांडमेंट्स
हैं, दस
आशाएं हैं—ऐसा
करो, ऐसा
मत करो—ऐसा
उपनिषद में
कुछ भी नहीं
है।
उपनिषद
असल में करने
की बात ही
नहीं करता।
उपनिषद कहता
है, ऐसे
हो जाओ। करना
गौण है, कृत्य
गौण है, होना
वास्तविक है।
उपनिषद यह
नहीं कहता कि
तुम अच्छा करो,
बुरा मत करो।
उपनिषद कहता
है तुम
परमेश्वरमय
हो जाओ फिर तुमसे
अच्छा होगा।
लेकिन वह
तुम्हारी
चिंता नहीं
होगी। फिर
तुमसे बुरा
नहीं होगा।
लेकिन वह
तुम्हें
रोकना नहीं
पड़ेगा।
उपनिषद
की धारणा यह
है—जब तक बुरे
को मुझे रोकना
पड़े, तब
तक वह मुझमें
है। जब तक
अच्छे को मुझे
चेष्टा से
करना पड़े, तब
तक वह मेरी
वास्तविक
संपदा नहीं है।
तब तक सब झूठ
है, पाखंड
है; ऊपर—ऊपर
है, तब तक
मेरे भीतर कोई
ज्योति नहीं
जगी है।
इसलिए
उपनिषद कहता
है तुम्हारा
बीइंग, तुम्हारा
अस्तित्व, तुम्हारी
आत्मा
रूपांतरित हो
जाए, तो
तुम्हारा
आचरण उसके
पीछे आ ही
जाएगा। उसकी
तुम चिंता मत
करो। जैसे
व्यक्ति के
पीछे उसकी
छाया आती है
और हमें लौट—लौटकर
नहीं देखना
पड़ता कि छाया
आ रही है या नहीं
आ रही है, और
हमें छाया को
सम्हालना भी
नहीं पड़ता, और छाया के
लिए कोई
इंतजाम भी
नहीं करना
पड़ता। छाया
पीछे आती है, ठीक वैसे ही
आचरण भी पीछे
आता है।
तुम्हारी
आत्मा जैसी
होती है, वैसा ही
आचरण
तुम्हारे
पीछे आता है।
इसलिए आचरण को
बदलो या आत्मा
को? साधारण
धर्मग्रंथ
कहते हैं, आचरण
को बदलो।
असाधारण
धर्मग्रंथ
कहते हैं, आत्मा
को बदलो।
साधारण
धर्मग्रंथ
साधारण आदमी
की पकड़ के खयाल
से लिखे गए
हैं। असाधारण
धर्मग्रंथ
मनुष्य की
आत्यंतिक संभावना
की दृष्टि से
लिखे गए हैं।
उपनिषद
असाधारण
धर्मग्रंथ
हैं। आखिरी
बात है, जिसके
ऊपर और कोई
बात नहीं हो
सकती।
शुद्ध
मन से ही यह
परमात्मतत्व
प्राप्त किए जाने
योग्य है। इस
जगत में एक
परमात्मा के
अतिरिक्त
अन्य कुछ भी
नहीं है।
जैसे
ही मन शुद्ध
होगा, वैसे
ही जगत में एक
दिखाई पड़ने
लगेगा। मन की
अशुद्धि के
कारण जगत अनेक
में टूटा हुआ दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
जितना मन
अशुद्ध होता
है; उतना
मन खंड—खंड
होता है। ऐसा
समझें, एक
दर्पण है, उसको
हम पचास
टुकड़ों में
तोड़ दें। तो
जहां एक
प्रतिबिंब
बनता था पहले,
अब पचास
प्रतिबिंब
बनेंगे। जो
दर्पण पहले एक
की खबर देता
था, वह अब
पचास की देगा।
पांच सौ
दून्कड़ों मे
तोड़ दें, तो
पांच सौ
प्रतिबिंब
बनेंगे।
क्योंकि हर
टुकड़ा एक
दर्पण हो गया।
आप
शायद कभी किसी
ऐसे भवन में
गए हों, जहा बहुत से
दर्पण के
टुकड़े दीवार
पर लगे हों, तो आप अगर
बीच में खड़े
हो जाएं, तो
लाखों
प्रतिबिंब
दिखाई पड़ेंगे।
अगर दर्पण एक
होता, तो
एक प्रतिबिंब
बनता। अगर
लाखों टुकड़े
लगे हैं, तो
लाखों
प्रतिबिंब
बनेंगे।
मन
जितना अशुद्ध
होगा, उतने
टुकड़ों में
बंट जाता है।
अशुद्ध मन
खंडित होता है।
उस खंडित मन।।
जगत अनेक की
तरह दिखाई
पड़ता है। जब
मन शुद्ध होता
है और एक
दर्पण रह जाता
है, तो जगत
भी एक अस्तित्व
की तरह दिखाई
पड़ता है।
एक
परमात्मा कोई
विचार नहीं है।
एक
प्ररमात्मा
एक हो गए मन की
अनुभूति है।
इसलिए सवाल।।
रमात्मा को
खोजने का
बिलकुल नहीं
है। और जो लोग
भी परमात्मा
को खोजते हैं, वे गलत
यात्रा करते है।
असली सवाल मन
की एकता को
खोजने का है।
लोग कहते हैं,
परमात्मा
कहां है? यह
बात ही फिजूल
है। यह पूछनी
ही नहीं चाहिए।
इतना ही पूछना
चाहिए कि मेरा
टूटा हुआ
खंडित मन अखंड
कैसे हो जाए? एक कैसे हो
जाए? क्योंकि
जब भी मन एक हो
जाता है, उस
एक की झलक
बननी शुरू हो
जाती है। जैसा
होगा मन—टूटा
हुआ खंडित, या अखंड और
एक—वैसी ही
प्रतीति अस्तित्व
की होगी।
मन
एक दर्पण है, जिसमें
हम देखते हैं
अस्तित्व को।
अगर अस्तित्व
टुकड़े—टुकड़े
में दिखाई
पड़ता है, तो
जानना कि आपका
मन टूटा हुआ
है—डिसइंटिग्रेटेड।
और जब तक यह मन
इंटिग्रेटेड
न हो जाए, इकट्ठा
न हो जाए, तब
तक यह जगत
टूटा ही रहेगा।
इसलिए
असली सवाल
परमात्मा की
खोज का नहीं
है। असली सवाल
एक शुद्ध मन
की खोज का है।
शुद्ध मन से
यह
परमात्मतत्व
प्राप्त किए
जाने योग्य है।
इस जगत में एक
परमात्मा के
अतिरिक्त
अन्य कुछ भी
नहीं है।
एक
ही है केवल और
यह एक की
प्रतीति
सिर्फ धार्मिक
अनुभूति की ही
प्रतीति नहीं
है, विज्ञान
की भी आत्यंतिक
प्रतीति यही
है। क्योंकि
विज्ञान की
अगर हम पांच
हजार वर्ष की
यात्रा देखें,
तो पांच
हजार साल पुराने
वैज्ञानिकों
ने कहा था, पांच
तत्व हैं। अभी
भी हम पुराने
उस पांच हजार
वर्ष की धारणा
को, भारत
में तो हमारी
भाषा में
प्रविष्ट हो
गई है—पंच तत्व,
यह देह पंच
तत्व से बनी
है, यह जगत
पंच तत्वों से
बना। यह कोई
पांच हजार साल
के वैज्ञानिक
की खोज थी, पहले
की, कि पांच
तत्व हैं। फिर
जैसे — जैसे विज्ञानिक
विश्लेषण की
विधियां
सूक्ष्म और
तीक्ष्ण हुईं,
वैसे—वैसे
और तत्वों की
खोज हुई।
जिनको
हमने तत्व कहा
था, आज
का विज्ञान
उनको तत्व
मानता ही नहीं।
जल कोई तत्व
नहीं है, क्योंकि
कि जल आक्सीजन
और हाइड्रोजन
से मिलकर बना
है, वह
संयोग है।
आक्सीजन और
हाइड्रोजन
तत्व है। (से
विज्ञान
खोजते—खोजते
अट्ठानबे
तत्वों पर
पहुंचा।
अट्ठानबे
तत्व हैं, उनमें
आपके पांच
तत्व कोई भी नहीं
न तो पृथ्वी
कोई तत्व है, न जल कोई
तत्व है, न
वायु कोई तत्व
है, न
अग्नि कोई
तत्व है। ये
कोई भी तत्व
नहीं हैं। ये
सभी संयोग
सिद्ध हुए।
त्नेकिन
पाच हजार साल
पहले हुमारे
पास जांचने का
कोई उपाय नहीं
था। तो जल
तत्व था, क्योंकि जल
को तोड़ने की
हमारे पास कोई
विधि नहीं थी
कि हम तोड़कर
देख लें कि जल
कंपाउंड है या
एलिमेंट है।
का मतलब होता
है, जो
किसी से जुड़कर
नहीं बना, जो
स्वयं है। तो
जल एक तत्व
सिद्ध नहीं हुआ।
फिर अट्ठानबे
तत्व हो गए, फिर बढ़ते—बढ़ते
एक सौ बारह
तत्व हो गए।
और ऐसा लगा कि
विज्ञान के
तत्वों की
संख्या तो
बढ़ती चली जा
रही है।
लेकिन
फिर अचानक इन
पिछले बीस
वर्षों में, एक सौ
बारह तत्व खो
गए और एक तत्व
रह गया।
क्योंकि हर
तत्व के पीछे
और भी खोज की
गई। पहले जल
तोड़ा गया तो
आक्सीजन और
हाइड्रोजन हाथ
में लगे। फिर
आक्सीजन भी
तोड़ ली गई तो इलेक्ट्रिसिटी
हाथ में लगी।
हाइड्रोजन भी
तोड़ ली गई तो
इलेक्ट्रिसिटी
हाथ में लगी।
फिर सब चीजें
तोड़कर देख ली
गईं तो अंत
में विद्युत
हाथ में लगी।
और अब विज्ञान
कहता है, सारा
जगत एक
इलेक्ट्रिसिटी,
एक विद्युत
का जाल है। सब
उसका ही खेल, सब उसका ही
रूप है।
विज्ञान
पदार्थ के
माध्यम से एक
पर पहुंच गया; धर्म
चैतन्य के
माध्यम से एक
पर पहुंचा।
इसलिए
विज्ञान
कहेगा, विद्युत।
और धर्म कहेगा,
परमात्मा।
दोनों की
यात्राएं अलग—अलग
हैं, लेकिन
निष्पत्ति' बड़ी करीब आ
गई। एक बात पर
दोनों राजी
हैं कि सब एक
का ही विस्तार
है।
लेकिन
विज्ञान की
प्रतीति में
कोई जीवन का
रूपांतरण
नहीं है। तत्व
एक सौ बारह
हों, पांच
हों, कि एक
हो, विज्ञान
के माध्यम से
आप में कोई
फर्क नहीं पड़ता।
एक सौ बारह
हों, तो आप
जैसे हैं वैसे
ही रहेंगे।
पांच हों, तो
जैसे हैं वैसे
रहेंगे। एक हो,
तो जैसे हैं
वैसे रहेंगे।
लेकिन
धर्म की जो
प्रक्रिया है
उस एक को
जानने की, उसमें आप
पूरी तरह
रूपांतरित हो
जाते हैं। उस
एक की तरफ
पहुंचने में
आपको अपना मन
बदलना पड़ता है।
वैज्ञानिक को
कुछ भी नहीं
बदलना पड़ता, वह सिर्फ
साधनों के
द्वारा
प्रयोग करता
रहता है; खुद
अछूता रह जाता
है। धार्मिक
व्यक्ति की
प्रयोगशाला
वह स्वयं है; उसे कुछ और
नहीं बदलना
पड़ता, खुद
को ही बदलना
पड़ता है। और
जैसे—जैसे वह
बदलता है, वैसे—वैसे
एक के करीब
आता है। जब वह
पूरी तरह
शुद्ध हो जाता
है, तो एक
का फैलाव रह
जाता है।
इसलिए
विज्ञान किसी
आनंद पर नहीं
पहुंचाता।
बड़े से बड़ा
वैज्ञानिक
उतना ही दुखी
होता है, जितना कोई
गांव का गंवार।
शायद गांव का
गंवार कम दुखी
हो, क्योंकि
दुख के लिए भी
थोड़ी समझदारी
चाहिए। दुखी
होने के लिए
भी जरा
बुद्धिमत्ता
चाहिए। लेकिन
वैज्ञानिक
स्वयं के भीतर
कोई रूपांतरण
नहीं कर पाता।
धार्मिक
रूपांतरण न
करे, तो एक
को उपलब्ध ही
नहीं होता।
विज्ञान
है पदार्थ के
साथ श्रम, और धर्म
है स्वयं के
साथ श्रम।
जैसे ही मन
शुद्ध होता है,
एक के
अतिरिक्त कुछ
भी शेष नहीं
रह जाता। और
जो इस जगत को
अनेक की भांति
देखता है, वह
फिर—फिर
जन्मता है, फिर—फिर
मरता है।
हमारे
जन्म और मरण
का एक ही कारण
है और वह कारण
यह है कि हम उस
महासागर को
नहीं देख पाते, जो हम हैं।
हम अपने को
छोटे—छोटे
झरनों की तरह
देखते रहते
हैं। झरने
बनेंगे, मिटेंगे;
फिर बनेंगे,
फिर
मिटेंगे।
सागर सदा है।
आपने
अपने को जैसा
जाना है, वैसी ही
आपकी परिणति
हो जाएगी। अगर
आप समझते हैं
कि एक छोटा
झरना हैं, तो
गरमी आएगी, सूखेंगे, भाप बनेंगे,
उड़ेंगे।
फिर वर्षा
आएगी, फिर
बरसेंगे, फिर
झरना बनेगा, फिर फूटेंगे,
फिर बहेंगे,
फिर गर्मी।
बस बनते और
मिटते रहेंगे।
जन्म—मरण का
इतना ही अर्थ
है।
लेकिन
अगर आप अपने
को महासागर की
तरह देख लें, तो वह सदा
है। न मिटता
है, न बनता।
न छोटा होता, न बड़ा होता।
न उसमें कभी
कोई पूर आता
और न कभी कोई
कमी पड़ती। वह
जैसा है, वैसा
है। फिर भी
हमारे सागर तो
बहुत छोटे हैं।
चेतना का सागर
तो अनंत है।
उसमें कुछ कम
नहीं होता, कुछ ज्यादा
नहीं होता।
इसलिए
उपनिषदों ने
कहा है, उस पूर्ण
में से पूर्ण
को भी निकाल
लो तो भी पीछे
पूर्ण ही शेष
रहता है।
उसमें से हम
कितना ही
निकाल लें तो
भी रत्तीभर कम
नहीं होता। और
उसमें हम
पूर्ण भी जोड़
दें तो भी कुछ
जड़ता नहीं।
क्योंकि अनंत
का अर्थ ही
होता है :
जिसमें से कुछ
घटाओ, कुछ
जोड़ो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।। कुछ
जोड़ा जा सकता
है, न कुछ
घटाया जा सकता
है।
जिस
व्यक्ति ने उस
महासागर की
तरह अपने को
देख लिया..।
तो
दो कदम हुए।
एक कदम है : मन
का शुद्ध हो
जाना। मन के
शुद्ध होते ही
उस एक का
दर्शन होता हे।
लेकिन अभी
खयाल रखें, उस एक के
दर्शन में अभी
दो की मौजूदगी
है। एक तो वह
जिसका दर्शन
हो रहा है, और
एक आप जिसको
दर्शन हो रहा
है। पहला कदम
यह है कि मन
शुद्ध हो जाए।
मन के शुद्ध
होने पर एक का
दर्शन होगा।
लेकिन एक के
दर्शन का मतलब
ही यह है कि
अभी दूसरा
मौजूद है।
देखने गला
मौजूद है, दर्शन
करने वाला
मौजूद है। दो हैं।
दूसरा
कदम यह है कि
वह जो शुद्ध
मन था, वह
भी खो जाए।
उसकी भी कोई
जरूरत नहीं है।
दर्पण गि टूट
जाए, नष्ट
ही हो जाए, बचे
ही नहीं, तो
दर्पण जो
फासला कर रहा
था दो का, वह
भी विदा हो
जाए। तब एक ही
रह जाएगा।
लेकिन उस एक
का तो पता भी
नहीं चलेगा कि
एक है। इसलिए
उस एक को हमने
दृ स देश में
अद्वैत कहा है।
क्योंकि एक
कहने से ठीक
नहीं मालूम
होगा। बस इतना
ही कहा है कि
वह दो नहीं है।
क्योंकि एक
कहने से शक
पैदा होता है
कि जानने वाला
कोई होगा। एक
हमने कहा कि
दो हो जाता है।
एक का मतलब ही
यह है कि
गिनती आ गई।
अद्वैत
का मतलब है, हम गिनती
का इनकार कर
रहे हैं। हम
कह रहे हैं, उसकी कोई
गिनती नहीं।
वह दो नहीं है।
बस इतना साफ
है। वह क्या
है, यह हम
नहीं कह रहे
हैं। वह क्या
नहीं है, यह
हम कह रहे हैं।
और यह समझ
लेने जैसा है
कि परमात्मा
के संबंध में
कोई पाजिटिव
स्टेटमेंट, कोई विधायक वक्तव्य
सही नहीं हो
सकता। उसके
संबंध में
सिर्फ
निगेटिव
स्टेटमेंट, सिर्फ
नकारात्मक
वक्तव्य, नेति—नेति
सत्य हो सकता
है। हम इतना
ही कह सकते
हैं कि वह
क्या नहीं है।
हम यह नहीं कह
सकते कि वह
क्या है, क्योंकि
वह इतना बड़ा
है कि उसे कोई
शब्द प्रगट न
कर पाएगा। पर
यह हम जरूर कह
सकते हैं कि
वह मग नहीं है।
क्या नहीं है,
यह कहा जा
सकता है। तो
हम कहते हैं, वह दो नहीं
है। हम कहते
हैं, वह
दुख न
हीं है।
बृद्ध
से कोई पूछता
था कि
तुम्हारे उस
महापरिनिर्वाण
में आनंद होगा? तो बुद्ध
कहते थे, यह
मैं नहीं जानता।
इतना ही मैं
कह सकता हूं
वहां दुख नहीं
है, दुख—निरोध
है। हम निषेध
कर सकते हैं।
हम यह नहीं कह
सकते कि वह
प्रकाश है। हम
इतना ही कह
सकते हैं, वहां
कोई अंधकार
नहीं है।
यह
जो निषेध की
बात है, यह बहुत
मौलिक है, बहुत
आधारभूत है।
विराट को जब
भी बताना हो
तो भाप रोसा
नहीं बता सकते
कि यह रहा।
क्योंकि अगर
विराट को आप
ऐसा इशारा
करके बताएंगे,
वह क्षुद्र
हो जाएगा।
जिसके प्रति
इशारा किया जा
सकता है, वह
क्षुद्र हो
जाएगा।
अगर
मैं कहूं कि
यह रहा
परमात्मा, अंगुली
का इशारा करूं,
तो सीमा हो
जाएगी। जिसको
मेरी अंगुली
बता सकती है, वह विराट
नहीं हो सकता।
परमात्मा को
बताना हो तो मुट्ठी
बांधकर बताना
पड़ेगा कि यह
रहा। कोई
इशारा नहीं
किया जा सकता।
सब
इशारे सिर्फ
समझ के लिए
थोड़ा—सा सहारा
हैं। वे सहारे
वैसे ही हैं
जैसे लंगड़ा
आदमी बैसाखी का
सहारा लेकर
चलता है।
बैसाखी कोई
पैर नहीं है।
और लंगड़ा
सिर्फ
प्रतीक्षा कर
रहा है कि जब
पैर ठीक हो
जाएंगे तो
बैसाखी को
फेंक देगा।
सारे
शब्द जो
परमात्मा के
संबंध में कहे
जा सकते हैं—बैसाखिया
हैं, सत्य
नहीं हैं। और
जैसे ही आपको
अनुभव होगा, इन शब्दों
को फेंक देना
होगा, जैसे
लंगड़ा
बैसाखियों को
फेंक देता है।
फिर उनका कोई
प्रयोजन नहीं;
उनको ढोना
फिर नासमझी है।
अंगुष्ठमात्र
परिमाण वाला
परमपुरुष
परमात्मा
शरीर के
मध्यभाग
हृदयाकाश में
स्थित है जो कि
भूत वर्तमान
और भविष्य का
शासन करने
वाला है उसे
जान लेने के
बाद व्यक्ति
किसी की भी निंदा
नहीं करता।
यही है वह
परमात्मा
जिसके विषय
में तुमने पूछा
था।
यह
थोड़ा
विवादग्रस्त
सिद्धात है।
लंबा विवाद
रहा है कि
आत्मा का आकार
क्या है? शरीर में
उसका स्थान
कहा है? उपनिषद
मानते हैं कि
अंगूठे के
बराबर, अंगुष्ठमात्र,
उसका आकार
है। और शरीर
के मध्यभाग
में हृदयाकाश
में वह स्थित
है।
जैनों
की धारणा है
कि यह बात
अजीब है, अंगुष्ठमात्र!
आत्मा, और
अंगूठे के
बराबर! जैनों
की धारणा है
कि आत्मा पूरे
शरीर में
व्याप्त है और
शरीर के आकार की
है।
लेकिन
उसमें भी बड़ी
झंझटें हैं।
क्योंकि
चींटी मरकर
हाथी हो सकती
है। तो जब
चींटी मरकर
हाथी होगी, तो चींटी
के शरीर में
आत्मा चींटी
के बराबर थी, फिर हाथी के
शरीर में हाथी
के बराबर हो
गई! तो जैनों
को एक धारणा
विकसित करनी
पड़ी है कि
आत्मा
लोचपूर्ण है;
फैलती—सिकुड़ती
है। जितने बड़े
शरीर में होती
है, उतनी
ही हो जाती है।
जब हाथी के
शरीर में होती
है तो हाथी के
बराबर हो जाती
है, फैल
जाती है। और
जब चींटी के
शरीर में होती
है तो सिकुड़
जाती है।
लेकिन
उपनिषद पूछते
हैं कि आत्मा
क्या कोई वस्तु
है जो सिकुड़
सकती, फैल
सकती है? कोई
पदार्थ है? लेकिन जैन
दार्शनिक भी
पूछते हैं कि
अगर फैलने—सिकुड़ने
की संभावना नहीं
है, तो तुम
अंगुष्ठमात्र
कहते हो, तो
आत्मा क्या
कोई पदार्थ है,
जो अंगूठे
के बराबर हो
सकती है? फिर
चींटी का क्या
होगा? अगुष्ठमात्र
आत्मा चींटी
में कैसे
प्रवेश करेगी?
बड़ा
मुश्किल हो
जाएगा। चींटी
आत्मा के भीतर
होगी, आत्मा
चींटी के भीतर
नहीं होगी।
इस
पर कोई हजारों
वर्ष से विवाद
है। और उस
विवाद में कोई
अंत नहीं आ
सका, क्योंकि
विवाद की मूल—भित्तियां
ही गलत हैं।
इसे विज्ञान
की भाषा से
थोड़ा समझें तो
आसानी हो
जाएगी।
एक
दीया जल रहा
है। दीए की लौ
छोटी—सी है, लेकिन
प्रकाश पूरे
कमरे को भर
देता है। कमरा
जितना बड़ा हो,
छोटा हो, दीवालें
जितनी हों, प्रकाश उतना
ही हो जाता है।
दीया छोटा—सा
कमरे में जल
रहा है, लेकिन
प्रकाश की
सीमा कमरे से
तय होती है।
दीया तो जल
रहा है।
उपनिषदों की
यह धारणा कि अंगुष्ठमात्र
है, असल
में दीए की
ज्योति की
धारणा है। दीए
की ज्योति की
भांति, अंगूठे
के बराबर दीए
की ज्योति।
प्रकाश पूरे
शरीर में भर
जाता है। शरीर
जितना बड़ा हो,
छोटा हो, इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता।
दीए
की ज्योति की
भांति। दीए की
ज्योति छोटी
भी हो सकती है, बड़ी भी हो
सकती है। यह
जो अंगुष्ठमात्र
आत्मा कही है,
यह मनुष्य
के लिए कही है।
चींटी का दीया
छोटा है। उसकी
ज्योति भी
छोटी होगी।
हाथी का दीया
बड़ा है, उसकी
ज्योति भी बड़ी
होगी। लेकिन
प्रकाश का गुण
एक है—वह छोटी
ज्योति हो, कि बड़ी
ज्योति हो, कि महासूर्य
हो—प्रकाश के
गुण में कोई
भेद नहीं पड़ता।
और शरीर की
दीवालें
कितनी हैं, कक्ष कितना
बड़ा है, उतने
को प्रकाश से
भर देगी।
दीए
की ज्योति के
आधार पर
अंगूठे के
बराबर आत्मा
की धारणा है।
आपके
पूरे शरीर को
प्रकाश से भरा
हुआ है। आपकी
अंगुलियों तक
आत्मा नहीं आई
है, सिर्फ
आत्मा का
प्रकाश आया है।
उतना प्रकाश
भी आपके शरीर
को जीवित करने
के लिए काफी
है। उतनी ही
ऊर्जा से आप
जीवित हैं।
मरते हुए आदमी
का प्रकाश
धीमा पड़ने
लगता है। शरीर
शिथिल होने
लगता है। दीए
की ज्योति इस
घर को छोड़ने
के लिए तैयार
होने लगती है।
दूसरी
बात, यह
जो हृदयाकाश
में अंगुष्ठमात्र
आत्मा की बात
उपनिषदों ने
कही है, इसको
शाब्दिक
अर्थों में
लेना उचित
नहीं है। और
इसके साथ
शाब्दिक—व्यवहार
करना भी उचित
नहीं। ये केवल
इशारे हैं।
इसका ठीक मतलब
अंगूठे के
बराबर नहीं
होता। केवल
इशारा है।
इस
शरीर में ठीक
हृदय के मध्य
में आत्मा का
संस्पर्श है।
उपनिषद की
धारणा यह है
कि आत्मा तो
सब जगह व्याप्त
है, परमात्मा
सबको घेरे हुए
है। लेकिन
परमात्मा
सबको घेरे हुए
है, पर
आपके भीतर
परमात्मा का
जो काटैक्ट, संपर्क—स्थल
है, वह
हृदय के मध्य
में छोटी—सी
जगह है। वहा
से परमात्मा
से आप जुड़े
हैं। वहां से
प्लग्ड हैं।
आपने
बल्व लगाया है, एक छोटी—सी
जगह में बल्व
लग गया है।
बिजली की बड़ी
धारा पीछे है।
आप पाच कैंडल
का बल्व लगाए
हैं तो पांच
कैंडल का
प्रकाश मिल
रहा है। पचास
कैंडल का लगाए
हैं तो पचास
कैंडल का, पांच
हजार कैंडल का
लगाए हैं तो
पांच हजार कैंडल
का प्रकाश मिल
रहा है। पीछे
अनंत धारा है।
लेकिन आपके
बल्व की जितनी
क्षमता है, उतना प्रकाश
आपका बल्व ले
रहा है।
हम
सब की आत्माएं
तो समान हैं, क्योंकि
हम सब
परमात्मा से
जुड़े हुए हैं।
हमारे भीतर
परमात्मा का
जो जोड है, उसका
नाम आत्मा है।
फिर जितनी
हमारी क्षमता
है, जितनी
हमारी कैंडल
की क्षमता है,
उतना
ज्यादा
प्रकाश हम उस
परमात्मा के
स्रोत से ले
लेते हैं। कोई
पांच कैंडल का
है। बुद्ध
जैसा कोई पांच
हजार कैंडल का
है, तो वह
पाच हजार
कैंडल का
प्रकाश अपने
चारों तरफ
फेंक पाता है।
लेकिन.
हम जुड़े हैं
महास्रोत से।
चींटी बहुत
थोड़ा—सा कैंडल
ले रही है, आदमी
थोड़ा ज्यादा
ले रहा है, बुद्ध
बहुत ज्यादा
ले रहे हैं।
लेकिन महास्रोत
समान है।
आपके
भीतर उस
महास्रोत का
जो संपर्क—स्थल
है, उपनिषद
उसकी बात कर
रहे हैं, कि
वह अंगूठे की
तरह छोटी—सी
जगह है भीतर, जहां से आप
परमात्मा से
जुड़े हैं। और
आप जितने
शुद्ध होते
चले जाएंगे, उतने ही उस
महास्रोत से
ज्यादा शक्ति
आपको उपलब्ध
होती चली जाएगी।
आपकी शुद्धता
पर निर्भर
होगा। अगर आप
पूर्ण शुद्ध
हो जाएं तो
परमात्मा का महास्रोत
आपसे प्रगट
होने लगेगा।
हमने
जिन पुरुषों
को अवतार कहा
है, तीर्थंकर
कहा है, बुद्ध
कहा है, वे
वैसे लोग हैं,
जिन्होंने
अपने को इतना
शुद्ध कर लिया
कि खुद बचे ही
नहीं, तो
उनके भीतर से
महास्रोत
प्रगट हो गया।
तो फिर हमने
उन्हें
मनुष्य कहना
उचित नहीं समझा,
फिर हमने
ठीक समझा कि
वे जिस
महास्रोत के
साथ एक हो गए
हैं, हम
उन्हें उसी
महास्रोत के
नाम से स्मरण
करें।
अंगुष्ठमात्र
परिमाण वाला
परमपुरुष
शरीर के मध्यभाग
हृदयाकाश में
स्थित है जो
कि भूत
वर्तमान और
भविष्य का
शासन करने
वाला है। उसे
जान लेने के
बाद व्यक्ति
किसी की निंदा
नहीं करता।
यही है वह
परमात्मा
जिसके विषय
में तुमने पूछा
था
अंगुष्ठमात्र
परिमाण वाला
परमपुरुष
परमात्मा
धूम्ररहित
ज्योति की
भांति है। भूत
वर्तमान और
भविष्य पर
शासन करने
वाला वह परमात्मा
आज है और वही
कल भी है
अर्थात वह नित्य
सनातन है। यही
है वह
परमात्मा
जिसके विषय
में तुमने पूछा
था।
धुम्ररहित
ज्योति! समझने
जैसा है। आप
जो भी ज्योति
जलाते हैं, वह कसहित
होती है, उसमें
धुआ होता है।
धुआ क्यों
होता है
ज्योति में? धुआ किस
कारण होता है?
ज्योति का
हाथ है धुएं
में? ज्योति
के स्वभाव में
कुछ बात है
जिससे धुआ हो?
नहीं।
धुआ होता है
ईंधन के कारण।
ज्योति के
स्वभाव से
धुएं का कोई
संबंध नहीं है।
और जितना ईंधन
गीला हो उतना
ज्यादा धुआ
होता है। ईंधन
सूखा हो, धुआ कम होता
है। गीली लकड़ी
जलाएं, धुआ
ही धुआ होता
है, ज्योति
पता नहीं चलती।
सूखी लकड़ी
जलाएं, धुआ
कम रह जाता है,
ज्योति पता
चलती है।
बिलकुल सूखी
लकड़ी हो, तो
धुआ करीब—करीब
न के बराबर हो
जाता है। इससे
एक बात साफ है
कि धुएं का
संबंध ईधन से
है, ज्योति
से नहीं।
इसका
मतलब यह हुआ
कि करहित
ज्योति तो वही
हो सकती है जो
बिना ईंधन के
हो। नहीं तो
कोई भी ईंधन
होगा तो किसी
न किसी तरह का
धुआ पैदा होगा।
शुद्धतम ईंधन, स्तिट भी
जलाएंगे, तो
भी थोड़ा—सा
धुआ पैदा होगा,
चाहे दिखाई
भी न पड़े आंख
से। क्योंकि
जब कोई चीज
जलेगी, तो
वहां दो चीजें
हो गईं—अग्नि
और जलने वाली
चीज। वह जो
जलने वाली चीज
है, वह धुआ
पैदा करेगी।
धुआ
है कार्बन डाई
आक्साइड। और
जब भी कोई चीज
जलेगी तो
कार्बन पैदा
होगा। अगर हम
कोई ऐसी
ज्योति खोज
लें जो
ईधनरहित हो...।
पर
बड़े मजे हैं।
पिछले तीन सौ
वर्षों में, विज्ञान
की जो बड़ी—बड़ी
समितियां हैं—रायल
सोसाइटी है, या फास की
एकेडमी है, या अमेरिका
का विज्ञान—मंडल
है, या
सोवियत रूस की
साइंस एकेडमी
है—इनके पास
हर वर्ष
सैकड़ों लोग
दावा करते हैं
कि हमने वह
अग्नि खोज ली,
जो
ईंधनरहित है।
मगर वे सब
दावे गलत होते
हैं।
यह
खोज बड़ी
पुरानी है। और
कुछ मुल्कों
ने, जैसे
फ्रास ने और
इंग्लैंड ने
तो अब एक नियम
बना दिया कि
कोई भी आदमी
इस तरह की खबर
न दे, क्योंकि
उससे व्यर्थ
समय खराब होता
है। सैकड़ों
लोग पेटेंट के
लिए एप्लाई
करते हैं सारी
दुनिया में, कि हमने
ईंधनरहित
शक्ति खोज ली।
यह खोज बड़ी
पुरानी है।
क्योंकि जिस
दिन हम
ईंधनरहित
शक्ति खोज
लेंगे, उस
दिन हम महान
शक्ति खोज
लेंगे।
क्योंकि सब
ईंधन चुक जाने
वाले हैं। अगर
हम जिस भांति
पेट्रोल जला
रहे हैं इसी
भाति जलाते
रहे, तो
वैज्ञानिक
कहते हैं, पांच
हजार साल बाद
पेट्रोल की एक
बूंद भी नहीं
होगी। और सब
कुछ पेट्रोल
पर निर्भर
मालूम हो रहा
है। पेट्रोल
की एक सीमा है।
जिस
भांति हमने
जला—जलाकर
लकड़ी, जंगल
नष्ट कर दिए, अब हम रो रहे
हैं, क्योंकि
वर्षा नहीं
होती। कहीं
कुछ दूसरा
उपद्रव है, सॉइलइरोजन
है। जमीन नष्ट
हो रही है।
पाकिस्तान
में प्रति
घंटे पांच
हजार बच्चे
पैदा हो रहे
हैं और एक एकड़
जमीन नष्ट हो रही
है, प्रति
घंटे। बच्चे
एक इंच जमीन
तो साथ लेकर
आते नहीं, और
हर घंटे एक
एकड़ जमीन
सॉइलइरोजन
में नष्ट होती
जा रही है, क्योंकि
जंगल कट गए
हैं। वृक्ष
अपनी जड़ों से
जमीन को रोके
रखते हैं। जब
वृक्ष नहीं रह
जाते, तो जमीन
पर पकड़ खो
जाती है, तो
जमीन बिखरने
लगती है। अगर
आप सब जंगल
काट दें, तो
जमीन सब
बिखरकर नष्ट
हो जाएगी।
वृक्ष
जमीन को पकड़े
हुए हैं।
वृक्ष ही जमीन
से भोजन नहीं
ले रहे हैं, जमीन भी
वृक्ष का
सहारा ले रही
है। और वृक्ष
पूरे वक्त
आकाश से
तत्वों को
खींचकर जमीन को
दे रहे हैं।
वृक्ष हट जाते
हैं, जमीन
बंजर हो जाती
है, बांझ
हो जाती है।
तो
बड़ी खोज है कि
कोई ऐसा तत्व
मिल जाए।
क्योंकि जंगल
कट गए, अब
लकड़ी नहीं बची।
कोयला जमीन से
निकाल—निकालकर
हम खतम किए ले
रहे हैं।
पेट्रोल
निकाल—निकालकर
खतम किए ले
रहे हैं।
हमारे सब ईंधन
किसी दिन खतम
हो जाएंगे, उस दिन आदमी
को मरना पड़ेगा।
क्योंकि आप
सोच भी नहीं
सकते कि जिस
दिन पेट्रोल
नहीं होगा, दुनिया की
क्या हालत
होगी। न हवाई
जहाज चल सकते,
न कार चल
सकती! और
हमारे मुल्क
में तो अभी
इतनी दिक्कत
नहीं है, लेकिन
रूस में या
अमेरिका में
कोई सोच ही
नहीं सकता कि
बिना कार के
जीवन कैसे हो
सकता है।
असंभव है।
बिना पेट्रोल
के जीवन का
कोई उपाय नहीं
दिखता।
इसलिए
कई झक्की लोग
झूठे दावे कर
देते हैं कि उन्होंने
खोज लिया ईंधन।
बहुत विचार
करने के बाद
कई सरकारों ने
तय कर लिया कि
अब इस तरह की
कोई एप्लीकेशन
स्वीकार नहीं
की जाएगी। यह
बात हो नहीं
सकती कि
ईंधनरहित
अग्नि खोजी जा
सके।
लेकिन
उपनिषद कहते
हैं कि आदमी
के भीतर वह
शक्ति चल रही
है, जो
ईधनरहित है।
परमात्मा
ईधनरहित
अग्नि है, इसलिए
निर्धूम है।
धुआ उसमें
पैदा नहीं
होता।
आप
कहेंगे, जरा मुश्किल
है यह बात
समझना! और अगर
मेडिकल साइंस
से पूछें, तो
वह भी राजी
नहीं होगी।
क्योंकि वह
कहेगी, आप
भोजन से ईंधन
ले रहे हैं, इसलिए आप
जीवित हैं।
अगर भोजन बंद
कर दें, तो
जीवन बंद हो
जाएगा। श्वास
से ईंधन ले
रहे हैं, आक्सीजन
भीतर जा रही
है। अगर
आक्सीजन भीतर
न जाए आप मर जाएंगे।
सब तरह से आप
ईंधन भीतर ले
रहे हैं। तो
यह जो भीतर की
आत्मा है, इसको
आप ईधनरहित
ज्योति क्यों
कहते हैं?
इस
बात के लिए
बड़ी खोज करनी
जरूरी है। और
कुछ ऐसे
उदाहरण
उपस्थित हुए
इस सदी में, पिछली
सदियों में तो
ऐसे बहुत
उदाहरण थे
ईंधनरहित
लोगों के।
लेकिन इस सदी
में जरा
मुश्किल हो
गया, लेकिन
फिर भी कुछ
आदमी इस तरह
के रहे।
यूरोप
में एक महिला
थी न्यूमन, जो तीस
साल तक बिना
भोजन के रही, और सारे
चिकित्साशास्त्र
को मुश्किल
में डाल दिया।
और उसका एक
रत्तीभर वजन
नहीं गिरा!
स्त्री
बंगाल में थी, जो
उन्नीस सौ पचास
में मरी, जो
चालीस साल तक
बिना भोजन के
रही।
परिपूर्ण स्वस्थ।
आम आदमी से
ज्यादा
स्वस्थ। कभी
बीमार नहीं
पड़ी। मरते दम
तक युवकों
जैसी शक्ति
उसमें रही। और
वजन उसका गिरा
नहीं।
आकस्मिक
घटना हुई, उसका पति
मरा और वह
इतना दुखी हुई
पति के प्रेम
में कि उसने
भोजन छोड़ दिया।
लेकिन भोजन
छोड़ने से वह
मरी नहीं, बल्कि
इसके पहले वह
बीमार रहती थी,
भोजन छोडने
के बाद उसकी
बीमारियां भी
खो गयीं। और
एक चमत्कार
घटित हुआ कि
वह चालीस साल
तक बिना भोजन
के रही।
अभी
पश्चिम में एक
नया शास्त्र
विकसित हो रहा
है, जो
सोचता है कि
भोजन आदमी की आदत
है, अवश्यकता
नहीं। और भोजन
के द्वारा
आदमी को ईंधन
नहीं मिलता, सिर्फ एक
आदत है, एक
व्यसन। जैसा
हम कहते हैं
कि शराब पीना
एक व्यसन है, सिगरेट पीना
एक व्यसन है।
ऐसा कुछ
विचारक इस खोज
में लगे हैं, वे कहते हैं,
भोजन भी
सिर्फ एक
व्यसन है, जरूरत
नहीं है उसकी।
उसके बिना
आदमी हो —सकता
है।
जैन—शास्त्रों
में यह कहा
गया है कि
उनके पहले तीर्थंकर
ऋषभदेव के
पैदा होने के
पहले लोग बिना
भोजन के जीते
थे। यह कथा सच
हो सकती है।
और ऋषभदेव ने
पहली दफे अन्न
की ईजाद की।
तो हमारे भोजन
की आदत के वे
शुरुआत, पहले
वैज्ञानिक हो
सकते हैं।
शायद लोग उस
कला को मूलने
लगे होंगे और
भोजन खोजना
पड़ा होगा।
श्वास की कला
पर निर्भर
करता है कि आप
क्या बिना
भोजन के रह
सकते हैं!
लेकिन
तब भी एक बात
बच रहती है कि
ये दोनों महिलाएं
श्वास तो लेती
ही थीं। तो
श्वास से भोजन
मिल सकता है।
वृक्ष को
श्वास से ही भोजन
मिल रहा है।
कोई वजह नहीं, आदमी को
क्यों न मिले।
आप चकित होंगे,
आप सोचते
होंगे कि
वृक्ष में जो
लकड़ी बन रही है,
पत्ते बन
रहे हैं, फल
आ रहे हैं, ये
जमीन से खींचे
जा रहे हैं, तो आप
बिलकुल गलती
में हैं। ये
सब आकाश से
खींचे जा रहे
हैं।
तो
वनस्पतिशास्त्रियों
ने पिछली सदी
में बहुत
प्रयोग किए और
बड़े चकित हो
गए, क्योंकि
सदा से यही
माना जाता था
कि वृक्ष जमीन
को खींच रहे
हैं। लेकिन एक
वैशानिक ने एक
पौधा लगाया
गमले में।
गमले की
मिट्टी का
पूरा माप रखा।
फिर पौधा बड़ा
होने लगा। और
पौधा बहुत बड़ा
वृक्ष हो गया,
तब पौधे को बिलकुल
अलग कर लिया।
पौधे को तौला।
टनों उसका वजन
था। लेकिन
मिट्टी गमले
में उतनी की
उतनी थी, उसमें
रत्तीभर कमी
नहीं हुई थी।
यह वजन कहां
से आया? यह
सब हवा से
खींचा गया, मिट्टी से
नहीं खींचा
गया। नहीं तो
जमीन पर इतने
वृक्ष हैं, अभी तक जमीन
खाली हो गई
होती, गड्डे
ही गड्डे हो
गए होते! जमीन
उतनी की उतनी
है। वृक्ष
आकाश से खींच
रहे हैं।
सूर्य की
किरणों से और
वायु से सारा
तत्व खींचा जा
रहा है ' तो
आदमी क्यों
नहीं जी सकता?
और
फिर आदमी
वृक्षों के ही
माध्यम से तो
जीता है। उनके
फल खाता है, अनाज
खाता है। और
वृक्ष आकाश से
खींचकर फल
बनाते हैं, तो आदमी
सीधा बिना
वृक्ष के
माध्यम के जी
सकता है।
महावीर
को जरूर ऐसी
कोई कला आती
होगी।
क्योंकि बारह
वर्ष में
उन्होंने
केवल तीन सौ साठ
दिन भोजन लिया।
कभी तीन महीने, कभी चार
महीने, कभी
पांच महीने.।
और उनके शरीर
को, उनकी
प्रतिमाओं को
देखकर ऐसा
नहीं लगता कि
वे भूखे मर
रहे होंगे।
उनका शरीर
बलिष्ठ है।
बलिष्ठ से
बलिष्ठ शरीर
उनके पास है।
जैन—मुनि चार
महीने उपवास
करते हैं, तो
हड्डी—हड्डी
हो जाते हैं, उन्हें
महावीर की कला
का कुछ पता
नहीं है।
महावीर जरूर
कोई सूत्र
जानते हैं, जिससे वे
श्वास से सीधा
ईंधन ले रहे
हैं।
ये
दोनों
महिलाएं इतना
तो सिद्ध करती
हैं कि बिना
भोजन के आदमी
जी सकता।
लेकिन बिना
श्वास के? बिना
श्वास के जीने
के प्रमाण भी
हैं। और अभी—अभी
कुछ प्रमाण
बहुत अदभुत
हुए।
अठारह
सौ अस्सी में
एक सूफी फकीर
इजिप्त में
समाधिस्थ हुआ, और उसने
कहा, चालीस
साल बाद
उन्नीस सौ बीस
में मेरी
समाधि को
खोलना। जिन
लोगों ने उसे
समाधिस्थ
किया था, वे
सब मर गए। सच
तो यह है कि
लोग करीब—करीब
मूल चुके थे।
चालीस साल!
उन्नीस सौ बीस
में अचानक
किसी आदमी के
हाथ में चालीस
साल पुराना
अखबार लग गया।
और उसमें उसने
खबर देखी कि एक
आदमी आज
समाधिस्थ हो
रहा है और
चालीस साल बाद
खोदा जाने
वाला है। तो
उस आदमी ने
फिक्र की, सरकार
को लिखा—पढ़ी
की, उस
आदमी की कब
खोदी गई, जहां
वह चालीस साल
से गड़ा था। और
उसे खोदा गया,
वह आदमी
जिंदा वापस
निकला। चालीस
साल बिना
श्वास के जीया,
और निकलने
के बाद वह एक
साल जिंदा रहा।
भारत
के बहुत से
योगी तीन
महीने, तीन सप्ताह
इत्यादि के
प्रयोग करते
हैं। लेकिन
तीन सप्ताह का
प्रयोग बहुत
सिद्ध नहीं करता।
क्योंकि जिस
गड्डे में
उनको दबाया
जाता है, उस
गड्डे में
इतनी आक्सीजन
रहता है, जो
तीन सप्ताह तक
चल सकती है।
मगर चालीस साल
तक चलने वाली
आक्सीजन छोटे
से गद्वे में
असंभव है।
बहुत
से पशु हैं, साइबेरिया
में रीछ होता
है, भालू
होता है, जब
छह महीने
साइबेरिया
में रात होती
है —क्योंकि
छह महीने दिन,
और छह महीने
रात होती है—तो
जब छह महीने
रात होती है
और सब बर्फ जम
जाती है, तो
भालू सो जाता
है, श्वास
बंद कर लेता
है। छह महीने
तक वह श्वास
बंद किए पड़ा
रहता है। छह
महीने बाद जब
सुबह का सूरज
उगता है, फिर
दिन होता है, गर्मी बढ़ती
है, बर्फ
पिघलती है, भाल फिर से
श्वास लेता है।
छह महीने तक
अगर भालू बिना
श्वास के रह
सकता है जीवित,
तो आदमी
क्यों नहीं रह
सकता?
हमारे
मुल्क में भी
मेंढक बिना
श्वास के जमीन
में दब जाता
है। वर्षा बंद
हो जाती है, मेंढक
जमीन में सो
जाता है, श्वास
बंद हो जाती
है, सब
प्रक्रियाएं
बंद हो जाती
हैं, लेकिन
वह मरता नहीं।
वर्षा आती है,
फिर से
मेंढक जाग
उठता है। यह
लंबी नींद है,
यह बिना
श्वासं के हो
सकती है।
आदमी
के भीतर, वस्तुत:
समस्त जीवन के
भीतर एक तत्व
है, जो
बिना ईंधन के
चल रहा है। इस
बिना ईंधन की
ज्योति को
उपनिषद कहते
हैं—धूम्ररहित
ज्योति।
अंगुष्ठमात्र
परिमाण वाला
परमपुरुष
परमात्मा
धूम्ररहित
ज्योति की
भांति है। भूत
वर्तमान और
भविष्य पर
शासन करने
वाला वह
परमात्मा ही
आज है वही कल
भी है। वह
नित्य सनातन
है।
उसके
मिटने का कोई
उपाय नहीं।
क्योंकि
जिसके जीवन का
कोई कारण नहीं, उसकी
मृत्यु का कोई
कारण नहीं
होता। जिसके
लिए ईंधन की, भोजन की कोई
जरूरत नहीं, जो अपने में
पर्याप्त है,
उसके मिटने का
कोई उपाय नहीं।
अगर आप किसी
चीज पर निर्भर
हैं, तो
मिटेंगे।
क्योंकि जिस
चीज पर निर्भर
हैं, अगर
वह मिट जाए, तो आपके
बचने की
संभावना नहीं।
परमात्मा
स्वयंभू
स्वयं
परिपूर्ण, स्वयं
आप्तशक्ति है,
किसी पर
निर्भर नहीं
है। इसलिए जगत
चलता चला जाता
है। अस्तित्व
बहता चला जाता
है। यह न कभी
नष्ट होता है,
न कभी पैदा
होता है।
यही
है वह
परमात्मा
जिसके विषय
में तुमने पूछा
था।
जिस
प्रकार ऊंचे
शिखर पर बरसा
हुआ जल पहाड़
के नाना
स्थलों में
चारों ओर चला
जाता है उसी
प्रकार भिन्न—
भिन्न धर्मों
से युक्त देव
असुर मनुष्य
आदि को
परमात्मा से
पृथक देखकर
उनका सेवन करने
वाला मनुष्य
उन्हीं के
पीछे दौड़ता
रहता है।
अर्थात
उन्हीं के
शुभाशुभ
लोकों में और
नाना ऊंच— नीच
योनियों में
भटकता रहता है।
हे
गौतमवशी
नचिकेता! जैसे
वर्षा का
शुद्ध जल अन्य
जलों में
मिलकर वैसा ही
हो जाता है
उसी प्रकार
परमेश्वर को
जानने वाले
संतजन की
आत्मा परमेश्वरमय
हो जाती है
अनेक
और एक, ये
दो दृष्टिया
हैं। जिसको
अनेक दिखाई
पड़ते हैं, वह
अंधा है; उसके
पास अंधे की
दृष्टि है।
जिसको एक
दिखाई पड़ता है,
वह आंख वाला
है, उसकी आंख
खुल गई। वह
क्षुद्र
दीवारों को
नहीं देखता, वह सब के
भीतर व्याप्त
एक तत्व को
देखने लगता है।
यम
कहता है, नचिकेता!
ऐसा एक को
जानने वाला
व्यक्ति, जैसे
वर्षा का जल
बह—बहकर सागर
में एक हो
जाता है, सागर
जैसा ही हो
जाता है। ऐसा
एक को देखने
वाला व्यक्ति
बह—बहकर
परमात्मा के
सागर में एक
हो जाता है।
हमारी
पीड़ा यही है
कि हमारा बहाव
रुक गया है।
हम जम गए हैं, फ्रोजन, अकडु गए हैं।
जैसे कोई झरना
बर्फ हो गया
हो, वह बह
नहीं सकता, वह सागर तक
जा नहीं सकता।
गर्मी चाहिए
कि वह पिघले।
धूप चाहिए कि
वह पिघले। एक
मेल्टिंग, एक
पिघलने की
जरूरत है, ताकि
वह बह सके, सागर
की तरफ जा सके।
हम सब अपने—अपने
शरीरों में जम
गए हैं, बर्फ
की तरह हो गए
हैं।
तपश्चर्या, साधना
पिघलाने के
उपाय हैं।
यहां
हम जो प्रयोग
कर रहे हैं, उनकी
सारी चेष्टा
इतनी है कि आप
थोड़े से पिघल जाएं,
तरल हो जाएं,
बहने लगें,
फ्लो आ जाए,
प्रवाह
पैदा हो जाए।
सागर बहुत दूर
नहीं है।
लेकिन आप जमे
रहें, तो
बिलकुल सागर
के किनारे पर
भी पड़ी रहे
बर्फ की
चट्टान तो भी
सागर से मिल
नहीं सकती।
पिघले, थोड़ा
बहे। और यह
अहंकार हमारा
बहुत पथरीला
है। यह पिघलने
नहीं देता। यह
रोकता है। यह
कहता है, क्या
कर रहे हो? मिटने
जा रहे हो? सम्हालो
अपने को। वह
जो सम्हालेगा,
वह जड़, जमा
हुआ रह जाएगा।
ध्यान
के प्रयोगों
में अपने को
पिघलाए।
इसलिए मेरा
इतना जोर है—नाचे, कूदे, छोटे
बच्चे की तरह
तरल हो जाएं।
अहंकार को
मार्ग से हटा
दें और शरीर
को तरल हो जाने
दें। शरीर की
ऊर्जा बहने
लगे, जमी न
रह जाए।
उत्तप्त हो
जाएं। गहरी
श्वास लें, ताकि
आक्सीजन जोर
से चोट करे।
जोर से हुंकार
करें, ताकि
कुंडलिनी पर
आघात पड़े। और
भीतर उत्तप्त
हो जाएं।
अग्नि जग जाए,
अरणि टकरा
जाए। और छिपी
हुई अग्नि की
लौ आपके भीतर
जलने लगे।
इस
लौ के जलते ही—जब
तक आप रहेंगे, थोड़ा धुआ रहेगा,
क्योंकि आप
ईंधन हैं—जैसे
ही आप खो
जाएंगे, धूम
खो जाएगा।
निर्धूम—ज्योति...।
और निर्धूम—ज्योति
का जिसे अनुभव
हो जाता है, उसके लिए
फिर कुछ और
अनुभव करने को
शेष नहीं रहता
है।
अब
ध्यान के लिए
तैयार हों।
ध्यान योग
शिविर,
माउंट आबू, राजस्थान।
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