अग्निर्यथैको
भवन
प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो
बभव।
एकस्तथा
सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो
बहिश्च।। 9।।
वायर्यथैको
भवन
प्रविष्टो
रूपं रूपं
प्रतिरूपो
बभव।
एकस्तथा
सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं स्वयं प्रतिरूपो
बहिश्च।। 10।।
सूर्यो यथा
सर्वलोकस्य
चभुर्न
लिध्यते चाखुषैर्बाह्यदोषै:।
एकस्तथा
सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन
बाह्य:।। 11।।
एको वशी
सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं
बहुधा यः
करोति।
तमात्मस्थ
येऽनुपश्यन्ति
धीरास्तेषां
सुखं शाश्वतं
नेतरेषाम्।।
12।।
नित्यो
नित्याना
चेतनश्चेतनानामेको
बला यो विदधाति
कामान्।
तदेतदिति
मन्यन्तेऽनिदेंश्यं
परमं सुखम्।
कथं नु
तद्विजानीया
किमु भाति
विभाति वा।। 14।।
न तत्र सयों
भाति न
चन्द्रतारक
नेमा विद्यतो भान्ति
कतोष्यमग्नि:।
तमेव
भान्तमनुभाति
सर्वं तस्य
भासा सर्वमिदं
विभाति।। 15।।
समस्त
प्राणियों के
अंतरात्मारूप
परमेश्वर एक
होते हुए भी
विभिन्न
देहधारियों
में प्रविष्ट
होकर उन्हीं
के रूप वाला
बना हुआ है।
वह भीतर रहने
वाला ईश्वर
बाहर भी है
जैसे संपूर्ण
विश्व में
प्रविष्ट एक
ही अग्नि
विभिन्न रूप
वाली हो जाती
है।। 9।।
जिस प्रकार
समस्त
ब्रह्मांड
में प्रविष्ट
वायु एक होते
हुए भी
विभिन्न रूप
वाला हो रहा है
वैसे ही सब
प्राणियों 'मैं
निवास करने
वाला
परमेश्वर एक होते
हुए भी
देहधारियों
के अनुरूप रूप
वाला रहता है।
वही उनके बाहर
भी स्थित है।।
१०।।
जिस प्रकार
समस्त
ब्रह्मांड का
प्रकाशक सूर्यदेवता
(लोगों की) आंखों
से होने वाले
बाहर के दोषों
से लिप्त नहीं
होता उसी
प्रकार सब
प्राणियों का
अंतरात्मा एक परब्रह्म
परमात्मा लोगों
के दुखों से
लिप्त नहीं
होता क्योकि
सबमें रहता
हुआ भी वह
सबसे अलग है। 11।।
जो सब
प्राणियों का
अंतर्यामी
अद्वितीय एवं सबको
वश में रखने
वाला (
परमात्मा
अपने ) एक ही रूप
को बहुत
प्रकार से बना
लेता है उस
अपने अंदर
रहने वाले
परमात्मा को
जो ज्ञानी
निरंतर देखते
रहते हैं
उन्हीं को सदा
अटल रहने वाला
परमानंदस्वरूप
वास्तविक सुख
(मिलता है), दूसरों
को नहीं। 12।।
जो नित्यों
का ( भी) नित्य (
है), चेतनों
का ( भी) चेतन है
(और) अकेला ही
इन अनेक ( जीवों।
के कर्मफल—
भोगों का
विधान करता है
उस अपने अंदर
रहने वाले
(पुरुषोत्तम)
को ये जो
ज्ञानी
निरंतर देखते
रहते हैं
उन्हीं को सदा
अटल रहने वाली
शांति ( प्राप्त
होती है), दूसरों
को नहीं।। 13।।
( जिज्ञासु
नचिकेता इस
प्रकार उस
ब्रह्मप्राप्ति
के आनंद और
शांति की
महिमा सुनकर
मन ही मन
विचार करने
लगा। वह
अनिर्वचनीय
परम सुख यह (
परमात्मा ही
है), ऐसा
(ज्ञानीजन)
मानते हैं
उसको किस
प्रकार से मै
भलीभांति
समझूं! क्या (
वह) प्रकाशित
होता है या
अनुभव में आता
है?।। 14।।
( नचिकेता के
इस आंतरिक भाव
को समझकर
यमराज ने कहा : )
वहां न ( तो) सूर्य
प्रकाशित
होता है न
चंद्रमा और
तारों का समुदाय
( ही प्रकाशित
होता है)। (और) न
ये बिजलियां
ही ( वहां)
प्रकाशित
होती हैं। फिर
यह ( लौकिक )
अग्नि—इनसे वह
कैसे (
प्रकाशित हो
सकता है
क्योकि) उसी
के प्रकाश से
(ऊपर बतलाए
हुए सूर्यादि)
सब प्रकाशित
होते हैं उसी
के प्रकाश से
यह संपूर्ण
जगत प्रकाशित
होता है।। 15।।
परमात्मा
एक माध्यमरहित
अनुभव
जीवन
के परम रहस्य
के संबंध में
तीन
दृष्टियां हैं।
एक
दृष्टि है
हिंदू
उपनिषदों, वेदों, गीता की। उस
दृष्टि के
अनुसार वह परम
तत्व एक ही है,
शेष सब उसी
की
अभिव्यक्तियां
हैं। आत्माएं
नहीं हैं, परमात्मा
है। व्यक्ति
नहीं है, समष्टि
है। दूसरी
दृष्टि है
जैनों की। वह
परम तत्व एक
नहीं है, असंख्य
है, अनेक
है। परमात्मा
नहीं है, आत्माएं
हैं। समष्टि
नहीं है, व्यक्ति
है। तीसरी
दृष्टि है
बौद्धों की।
बौद्धों के
अनुसार न तो
परमात्मा है
और न आत्मा है।
न तो समष्टि
है और न
व्यक्ति है।
परम शून्य है।
ये
तीनों बड़ी
विपरीत
दृष्टियां
हैं। और
हजारों वर्ष
तक इन तीनों
दृष्टियों के
बीच विवाद
चलता रहा है।
कोई
निष्पत्ति, कोई
निष्कर्ष भी
नहीं निकलता।
इन तीनों
दृष्टियों को
प्रस्तावित
करने वाले लोग
परमज्ञानी हैं।
इन तीनों
दृष्टियों का
समर्थन
अनुभवियो के द्वारा
हुआ है, जिन्होंने
जाना है।
इसलिए बड़ी
कठिनाई है कि
इतना बड़ा भेद
क्यों? पंडितो
में विवाद हो,
समझ में आ
जाता है।
क्योंकि
अनुभव तो वहा
नहीं है, शब्दों
का जाल है, सिद्धातो
की तार्किक
व्याख्या और
व्यवस्था है,
भीतर का कोई
अनुभव नहीं है।
लेकिन
महावीर, बुद्ध या
शकर—वे पंडित
नहीं हैं। वे
जो कह रहे हैं,
वह किसी
विचार का
प्रतिपादन
नहीं है। वह
कोई फलसफा
नहीं है। वे
अपने अनुभव को
ही कह रहे हैं।
उन्होंने जो
जाना है, वही
कह रहे हैं।
और उनके जानने
में रत्तीभर
भूल नहीं है।
फिर इतना बड़ा
विवाद क्यों?
इस
कारण भारत की
पूरी जीवन—धारा
तीन हिस्सों
में बंट गई।
हिंदुओं की, जैनों की,
बौद्धों की—तीन
चितनाएं भारत
के मन पर हावी
रही हैं। और
निर्णय न हो
सकने से भारत
का मन भी
दुविधाग्रस्त
हो गया है।
इसे थोड़े गहन
और सूक्ष्म से
समझना जरूरी
है।
मेरे
देखे इन तीनों
में रत्तीभर
भी भेद नहीं है।
वक्तव्य
बिलकुल भिन्न
है, सार
जरा भी भिन्न
नहीं है। और
वक्तव्य केवल
भिन्न नहीं
हैं, बिलकुल
स्पष्ट रूप से
विपरीत हैं—लेकिन
प्रयोजन और
अभिप्राय एक
है। जो उस एक
अभिप्राय को
नहीं देख पाता,
वह समस्त
धर्मों के बीच
एकता को भी
कभी नहीं देख
पाएगा। फिर भी
इन तीन जीवन—
धाराओं ने अलग—
अलग
प्रतिपादन
किए, उसके
कारण हैं।
वेद, उपनिषद, ब्रह्म—सूत्र,
गीताए
घोषणा करती
रही हैं कि वह
एक है। इस एक
का
अज्ञानियों
ने जो अर्थ
लिया, वह
भयंकर हो गया।
इस एक का यह
अर्थ हुआ कि
तब करने योग्य
कुछ भी नहीं
है। सभी रूप
उसके हैं—पाप
में भी वही है,
पुण्य में
भी वही है।
साधु में भी
वही है, चोर
में भी वही है।
संसार में भी
वही है, मोक्ष
में भी वही है।
यहां भी वही
है, वहां
भी वही है। सब
जगह वही है।
बुरे में भी वही
है। तो करने
योग्य क्या है?
कर्तव्य
जैसी कोई चीज
बचती नहीं।
अगर
एक ही तत्व का
सारा विस्तार
है, तो
जीवन में करने
का कोई उपाय
नहीं बचता। तब
शुभ और उरशभ
में भेद क्या
है? तब
धर्म और अधर्म
में भेद क्या
है? तब
माया और
ब्रह्म में
भेद क्या है? अगर एक ही है,
सच में अगर
एक ही है-तो
कुछ करने को
शेष नहीं रह
जाता। क्या
पाना है! क्या
छोड़ना है! इस
एक ब्रह्म की
अनूठी धारणा
का परिणाम एक
गहन आलस्य
हुआ। एक गहरा
प्रमाद छा
गया।
तो
लोग वेद पढ़ते
रहे, उपनिषद
पढ़ते रहे, गीताएं
कंठस्थ करते
रहे, और
करने योग्य
कुछ भी शेष न
बचा। जीवन
रूपांतरित
नहीं हुआ।
जिन्होंने यह
प्रतिपादन
किया था, उनका
इरादा यह नहीं
था। लेकिन
ज्ञानियों के
इरादे और
अज्ञानियों
के मंतव्य
कहीं मेल नहीं
खाते। खा भी
नहीं सकते।
जिन्होंने
कहा था, एक
है, उनका
प्रयोजन यह था
कि तुम अपने
को छोड़ दो। तुम
नहीं हो, वही
है। तुम्हारी
अस्मिता, तुम्हारा
अहंकार झूठा
है। तुम यह
समझते हो कि मैं
हूं, यही
तुम्हारी
भ्रांति और
यही तुम्हारे
जीवन की बाधा
है। यही
तुम्हारा दुख,
यही
तुम्हारा
बंधन है।
उस
विराट में तुम
अपनी सरिता को
खो दो। तुम अपने
को अलग बचाने
की कोशिश मत
करो। जीवन की
सारी चिंता-मैं
अलग हूं, इससे ही
पैदा होती है।
अगर मैं अलग
हूं तो मुझे
मेरी सुरक्षा
करनी पड़ेगी।
अगर मैं अलग
हूं तो सबसे
मैं लड़ रहा
हूं। जीवन के
संघर्ष में कोई
मेरा साथी
नहीं है, सब
वस्तुत: मेरे
प्रतियोगी
हैं। तो जीवन
एक कलह हो
जाती है। उस
कलह में चिंता
का जन्म होता
है।
और
अगर मैं अलग
हूं, तो
मृत्यु का भय
समा जाता है।
क्योंकि फिर
मुझे मरना
पड़ेगा।
व्यक्ति को तो
हम रोज मरते
देखते हैं, समष्टि कभी
नहीं मरती।
व्यक्ति तो
मरते जाते हैं,
विराट सदा
जीता है। जीवन
नष्ट नहीं
होता, लेकिन
जीवन अलग- अलग
घेरों में बंद
तो हमें रोज
नष्ट होते
दिखता है। दीए
तो रोज बुझते
हैं, अग्नि
सदा है। तो
फिर मृत्यु का
भय समाता है। अगर
मैं अलग हूं र
तो मौत होगी, और अगर मैं
इस विराट से
जुड़ा हूं और
एक हूं तो मृत्यु
का कोई आधार
नहीं है, फिर
जीवन अमृत है।
जिन्होंने
चाहा था कि उस
एक की धारणा
व्यापक हो जाए, उनका
प्रयोजन था कि
आपका अहंकार
बिखर जाए टूट जाए,
गिर जाए। वह
अहंकार तो
नहीं बिखरा।
यह तो ज्ञानी
का प्रयोजन
था। अज्ञानी
ने जो अर्थ
लिए उसने परम
ब्रह्म की, एक की धारणा
से अहंकार को
तो तोड़ा ही
नहीं, अहंकार
को और बढ़ाया।
ब्रह्मज्ञानियों
ने कहा था-अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं। उनका
प्रयोजन था कि
मैं नहीं हूं
ब्रह्म है।
अज्ञानी ने
समझा कि मैं
हूं और मैं ही
ब्रह्म हूं।
अहं
ब्रह्मास्मि
जिन्होंने
कहा था, उनका
इरादा था कि
बूंद नहीं है,
सागर है।
लेकिन बूंद ने
समझा कि मैं
सागर हूं।
इससे बूंद
मिटी नहीं, बल्कि बूंद
और अहंकार से
भर गई।
ज्ञानियों
ने चाहा था कि
जिस दिन ऐसा
साफ अनुभव हो
जाएगा कि एक
ही है, उस
दिन पाप गिर
जाएगा।
क्योंकि पाप
दूसरे के विरोध
में है। हम
पाप करते कब
हैं? हम
पाप तभी करते
हैं, जब हम
अपने सुख के
लिए दूसरे को
बलिदान करते हैं,
वही पाप है।
और अगर मैं ही
हूं सबमें, अकेला मैं
ही हूं सबमें
फैला हुआ, और
एक ही है, दूसरा
कोई है नहीं, तो पाप का
कोई उपाय नहीं
रह जाता।
पाप
के लिए दूसरा
चाहिए। और पाप
के लिए दूसरे को
बलिदान करना
चाहिए अपने
हित के लिए
दूसरे के हित
को नष्ट करना
चाहिए। अगर एक
ही है, तो
कोई दूसरा
नहीं है। और
जहा कोई दूसरा
नहीं है, वहा
स्वार्थ और
पाप का कोई
उपाय नहीं है।
तब मैं दूसरे
को हानि
पहुंचाता हूं
तो अपने को ही हानि
पहुंचाता
हूं।
ज्ञानियों का
अभिप्राय था
कि जिस दिन आप
न होंगे, उस
दिन पाप का
कोई उपाय न रह
जाएगा।
अज्ञानी ने
समझा कि जब एक
ही है, तो न
कुछ पाप है, न कुछ पुण्य
है, जो भी
करो सभी ठीक
है। क्योंकि
सभी में वही
एक व्याप्त
है।
महावीर
को जिस दिन
ब्रह्मज्ञान
की यह पतन की अवस्था
दिखाई पड़ी, तो
महावीर ने
सारी की सारी
बात जहां मूल
जड़ से उठ रही
थी, उसे
तोड़ने की
कोशिश की।
महावीर ने कहा
कि कोई एक
ब्रह्म नहीं
है, प्रत्येक
व्यक्ति
स्वयं
परमात्मा है।
और बूंद को
किसी सागर में
नहीं खोना है,
वरन बूंद को
शुद्ध होते जा
ना है, परम
शुद्ध होना
है।
खोना-बात
ही गलत है।
क्योंकि खोने
का जो अज्ञानियों
ने अर्थ लिया
था, उससे
यह पूरा का पूरा
देश गहन
प्रमाद और
आलस्य से भर गया
था। ब्रह्म
अज्ञान का
आधार बन गया
था, अज्ञान
को मिटाने का
कारण नहीं।
तो
महावीर ने
ब्रह्म को
बिलकुल ही छोड़
दिया। महावीर
ने कहा कि
ब्रह्म जैसी
कोई चीज है ही
नहीं। बस
व्यक्ति, आत्मा है।
और तुम्हें
शुद्ध होना है,
परिशुद्ध
होना है। और
पाप पाप है, पुण्य पुण्य
है। और सभी
में एक ही
नहीं छाया हुआ
है। बुरा बुरा
है और भला भला
है, और
दोनों के बीच
की भेद-रेखा
साफ रखनी है, उस भेद-रेखा
को खो नहीं
देना है।
इसलिए
महावीर ने
अपने विचार को
भेद-विज्ञान कहा
है। उपनिषद
कहते
हैं-अभेद। और
महावीर ने अपनी
पूरी पद्धति
को कहा है- भेद
का स्पष्ट
बोध। गलत कहौ
है, सही
कहा है? शुभ
कहा है, अशुभ
कहा है? साधुता
कहा शुरू होती
है, असाधुता
कहां शुरू
होती है? संसार
कहां समाप्त
होता है और
मोक्ष कहा
शुरू होता है?
इसका
ठीक-ठीक विवेक
और भेद ही
अध्यात्म का
महावीर ने
आधार बनाया, कि प्रत्येक
व्यक्ति अलग
है, उसे
कहीं खोना
नहीं है। और
जब प्रत्येक
व्यक्ति अलग
है, तो
सारी
जिम्मेवारी
अपने ऊपर है।
अगर
आप दुख में
पड़ते हैं तो
आप जिम्मेवार
हैं-कोई
परमात्मा
नहीं। और अगर
आप आनंद को
उपलब्ध होते
हैं तो आप ही
जिम्मेवार
हैं-किसी
परमात्मा का
प्रसाद नहीं।
प्रार्थना
महावीर ने
विदा कर दी, सिर्फ
ध्यान रह गया।
और ध्यान का
अर्थ था, अपने
को इतना शुद्ध
करते जाना कि
एक दिन परमशुद्ध
चेतना बचे। उस
परमशुद्ध
चेतना को
महावीर ने
परमात्मा
कहा।
परमात्मा
परमेश्वर के
अर्थों में
नहीं है, परम
आत्मा के
अर्थों में है,
शुद्धतम
आत्मा के
अर्थों में
है।
महावीर
का प्रयोजन था
कि व्यक्ति का
आलस्य टूटे, प्रमाद
टूटे। यह जो
धोखे का जाल
उसने अपने चारों
तरफ सिद्धात
का खड़ा कर
लिया है, जिसके
आधार से वह
केवल
मूर्च्छा में
पड़ा है और पाप
करने के लिए
सुविधा पाता
है, वह
सारा आधार
टूटे।
व्यक्ति सजग
हो, विवेकशील
हो, जाग्रत
हो और अपने ही
पैरों पर खड़ा
हो। किसी परमात्मा
की प्रतीक्षा
न करे, न
प्रसाद की, न आशीर्वाद
की, न
परमात्मा के
सहारे की, अपने
ही पैरों पर
खड़ा हो। यह
बड़ी कीमती बात
थी और व्यक्ति
की परिशुद्धि
के लिए बहुत
बड़ा अभियान
था। लेकिन
जैसा सदा होगा,
सदा हुआ है,
वही हुआ।
महावीर
का प्रयोजन था
कि व्यक्ति
शुद्ध हो और स्वयं
परमात्मा हो
जाए। अशानी ने
समझा कि मैं हूं, और कोई
परमात्मा
नहीं है
जिसमें मुझे
लीन होना है; मेरा होना
वास्तविक है।
महावीर की
आत्मा का सिद्धात
अज्ञानी के
लिए अहंकार की
जड़ता बना। वह
आत्मा नहीं
बना, परमात्मा
की तरफ
परिशुद्ध भी
नहीं हुआ, बल्कि
गहन अहंकार से
भर गया कि कोई
परमात्मा नहीं
है; मैं
हूं।
यह
अहंकार कि मैं
हूं जितना सघन
होता चला जाए, उतना ही
जीवन में
मूर्च्छा गहन
होगी। क्योंकि
मैं शराब है।
और जितना
अहंकार होता
है, उतना
मद बढ़ जाता
है। और उतना
आदमी होश से
नहीं जीता, बेहोशी से
जीता है। और
जहा कोई
परमात्मा
नहीं है, वहा
झुकने की कोई
वजह न रही।
तो
जिन्हें भी
अकड़कर खड़े
रहना था, उनके लिए
बड़ा सहारा
मिला। झुकने
का कोई सवाल नही।
समर्पण की कोई
बात नहीं।
विनम्रता
साधुता का
लक्षण नहीं
रही। दंभ, अकड़े
हुए खड़े रहना।
अपने
ही पैर पर
महावीर ने कहा
था, ताकि
तुम
प्रार्थना के
नाम पर प्रमाद
न करो। अपने
ही पैर पर
अज्ञानी ने
समझा कि मैं
ही हूं सब कुछ,
और अपने ही
पैर का भरोसा
है। बस अपना
ही भरोसा है।
यह अहंकार सघन
हुआ। इस
अहंकार ने जैन—विचार
को डुबाया।
जैसे ब्रह्म
के विचार ने
हिंदू को
आलस्य से भर
दिया, वैसे
आत्मा के
विचार ने जैन
को अहंकार से
भर दिया।
और
जब बुद्ध ने
देखा कि
ब्रह्म भी
गर्त में ले गया
और आत्मा भी
गर्त में ले
गई, तो
बुद्ध ने कहा
कि न कोई
ब्रह्म है और
न कोई आत्मा
है, एक
विराट शून्य
है। बड़ा अदभुत
प्रयोजन था। न
कोई ब्रह्म है—क्योंकि
जो भूल हिंदू—चितना
में हुई थी, उसकी जड़
काटनी जरूरी
थी। और जो भूल
जैन—चिंतना
में हुई थी, उसकी जड़ को
भी काट देना
जरूरी था—न
कोई आत्मा है।
तुम हो ही
नहीं, भीतर
कोई भी नहीं
है।
इस
ना—कुछ को पा
लेना ही
परमज्ञान है, बुद्ध ने
कहा। इसलिए
बुद्ध ने
ब्रह्मलोक
शब्द का उपयोग
नहीं किया, मोक्ष शब्द
का उपयोग नहीं
किया, बुद्ध
ने निर्वाण
शब्द का उपयोग
किया।
निर्वाण का
अर्थ है—दीए
का बुझ जाना।
जैसे दीया बुझ
जाता है, फिर
हम नहीं कहते
कि उसकी
ज्योति कहां
है? कहां
गई? नहीं
हो गई। बुद्ध
कहते हैं :
ज्ञानी का
दीया जलता
नहीं, बल्कि
अस्मिता की, होने की
ज्योति
बिलकुल बुझ
जाती है। भीतर
परम शून्य और
सन्नाटा हो
जाता है। उस
शून्यता को पा
लेना ही
निर्वाण है।
बड़ी
गहरी बात थी, क्योंकि
इसमें न तो
आलस्य को खड़े
होने का उपाय
था, न
अहंकार के खड़े
होने का उपाय
था। लेकिन
अशानी ने सुना
कि न कोई
परमात्मा है,
न कोई आत्मा
है, तो उसे
लगा, अब
पाने योग्य
कुछ भी नहीं
है। जब कुछ है
ही नहीं, तो
पाना क्या है?
और जब भीतर
शून्य है ही, तो उपाय
क्या करना है?
साधना क्या
करनी है?
बुद्ध
का महान खयाल
अज्ञानी के
लिए नास्तिकता
जैसा लगा, कि जब कुछ
भी नहीं है तो
फिर जो भी भोग
की छोटी—मोटी
दुनिया है, उसको ही भोग
लेना उचित है।
शाश्वत तो कुछ
है नहीं, तो
क्षणभंगुर को
छोड़ना क्यों?
जो मिल रहा
है, उसे ले
लेना उचित है।
क्योंकि आगे
तो कुछ मिलने
को नहीं है, आगे तो
सिर्फ शून्य
है।
बौद्ध—विचार
शून्यता के
कारण नष्ट हुआ।
यह बड़ी हैरानी
की बात है कि
जिस विचार में
जो चीज सबसे
श्रेष्ठ थी, उसके
कारण ही वह
नष्ट हुआ।
अज्ञानी
अदभुत है।
अज्ञानियों
से ज्ञानी सदा
हारे हैं। वे
हर जगह से
लूपहोल, वे हर जगह से
भूल और छिद्र
खोज लेते हैं,
जिनसे वे
अपने को बचा
लें। फिर
विवाद में
पड़ते हैं
अशानी। वे
कहते हैं, हमारा
सिद्धात सही
है; तुम्हारा
गलत है।
सिद्धातो
का कोई मूल्य
नहीं है धर्म
के लिए
अभिप्राय का
मूल्य है। इसे
आप ठीक से समझ
लें। सिद्धातो
का मूल्य
सिर्फ दो कौड़ी
के पंडितो के
लिए है। धर्म
का मूल्य, संतो के
लिए, सिर्फ
अभिप्राय का
मूल्य है।
क्या चाहते
हैं शंकर? क्या
चाहते हैं
महावीर? क्या
चाहते हैं
बुद्ध? वे
जो कह रहे हैं,
वह इतना
मूल्यवान
नहीं है।
किसलिए कह रहे
हैं? वे जो
कह रहे है, वह
तो निमित्त है,
वह तो सिर्फ
इशारा है। किस
तरफ इशारा है?
लेकिन
पंडित शब्दों
को पकड़कर फिर
सदियों तक
लडते रहे हैं।
अभी
जैन—पंडित
सिद्ध ही किए
चले जाते हैं
कि परमात्मा नहीं
है, आत्मा
है। हिंदू —पंडित
सिद्ध किए चला
जाता है कि
आत्मा नहीं परमात्मा
है। बौद्ध—पंडित
सिद्ध किए चला
जाता है कि
दोनों नहीं हैं;
शून्य है।
किसी के सामने
कुछ सिद्ध
करने का सवाल
ही नहीं है।
अभिप्राय
समझने की बात
है, इशारे
समझ लेने की
बात है।
महावीर, बुद्ध और
शंकर, तीनों
का एक ही
अभिप्राय है
कि तुम बदल
जाओ, तुम
नए हो जाओ, तुम्हारी
धूल झड़ जाए, तुम्हारा
दर्पण शुद्ध
हो जाए, तुम
वह देख पाओ जो
वस्तुत: है, दैट व्हिच
इज, जो है।
उसको ब्रह्म
कहो, निर्वाण
कहो, शून्य
कहो, आत्मा
कहो, सब
शब्द हैं। सब
कोरे शब्द हैं।
कोई भी शब्द
का उपयोग किया
जा सकता है।
लेकिन जो है, वह अनाम है।
उसको तुम जान
पाओ, इतना
अभिप्राय है।
लेकिन
वे जो कहते
हैं, हम
उस पर विवाद
करते हैं। वे
जो कहते हैं, हम उस पर
चलते नहीं। वे
जो कहते हैं, हम उस पर
चिंतन—मनन
करते हैं। वे
जो कहते हैं, उस पर हम
ध्यान नहीं
करते। वे जो
कहते हैं, उससे
हम बुद्धि को
भर लेते है।
लेकिन उससे
हमारे
प्राणों का
कोई रूपांतरण,
कोई क्राति
घटित नहीं
होती। तो सब
हार गए हैं।
और
हर बार जब भी
कोई परम शान
को उपलब्ध
होता है, तो उसे बड़ी
कठिनाई होती
है कि आपसे
क्या कहे? कैसे
कहे? क्योंकि
हजार उपाय
खोजे गए हैं, लेकिन आप हर
उपाय से अपने
को बचा लेते
हैं। नए—नए
उपाय खोजे
जाते हैं।
थोड़े—बहुत लोग,
जो बहुत
चालाक नहीं
हैं, सरल
हैं, वे उन उपायों
से लाभ उठा
लेते हैं। जो
चालाक हैं, वे फिर
तरकीब निकाल
लेते हैं।
इन
चालाक लोगों
ने संप्रदाय
निर्मित किए
हैं। ज्ञानी
धर्म की बात
कहता है, चालाक
संप्रदाय
निर्मित करते
हैं। उसमें जो
सीधे—सरल लोग
हैं, उपनिषद
की भाषा में
जिनके पास सच
में ही सूक्ष्म
बुद्धि है, वे अपने को
बदलते हैं, संप्रदाय
निर्मित नहीं
करते। इसकी
फिक्र नहीं
करते कि जो
कहा गया है, वही सत्य है।
वे इसकी फिक्र
करते हैं, जो
कहा गया है, वह उस तरफ
इशारा है जहा
सत्य है।
कही
गई बातें सब
इशारे हैं। और
इशारे का
मूल्य इतना ही
है कि वह आपको
आगे ले जाए, कहीं और
आगे ले जाए।
पर हम उन जैसे
लोग हैं—जैसे
रास्ते के
किनारे मील के
पत्थर होते
हैं, उन पर
तीर लगा होता
है आगे की तरफ।
अगर आप दिल्ली
जा रहे हैं, तो तीर लगा
होता है—दिल्ली
आगे है। हम उस
तरह के लोग
हैं कि जहां
दिल्ली लगा
हुआ पत्थर
देखा, उसको
छाती से लगाकर
बैठ गए कि
दिल्ली पहुंच
गए। वह जो तीर
लगा है, उस
पर हमारा खयाल
नहीं है। वह
कोई पत्थर
दिल्ली नहीं
है, जिस पर
दिल्ली लिखा
हुआ है। सब
पत्थर यही खबर
दे रहे हैं कि
दिल्ली दूर है।
जिस दिन
दिल्ली का
पत्थर आएगा
वहां शून्य
बना होगा, जीरो।
जिस दिन जीरो
आ जाए उस दिन आप
समझना कि
दिल्ली आई।
वहा कोई शब्द
नहीं होगा; वहां कोई
तीर नहीं होगा
आगे—पीछे, सिर्फ
शून्य होगा।
बाकी जहा तक
तीर हैं, जहां
तक इशारे हैं,
वहां तक आप
समझना कि अभी
दूर है।
कोई
शास्त्र सत्य
नहीं है, सभी शास्त्र
मील के पत्थर
हैं और कहते
हैं—आगे जाओ!
मगर हम मील के
पत्थरों को
सिर पर रखकर
बैठ जाते हैं।
और अलग—अलग
लोग अलग—अलग
मील के
पत्थरों को
सिर पर रखे
बैठे हैं। और
उन सबमें बड़ा
विवाद है कि
किसकी दिल्ली
सच है।
कोई
शास्त्र सत्य
नहीं है; सभी शास्त्र
सत्य की ओर
इंगित हैं। और
जो भी शास्त्र
को पकड़ लेता
है, वह
शास्त्र को भी
गलत कर देता
है और अपने को
भी गलत कर
देता है।
सब
शास्त्र कहते
हैं आगे जाना
है, और
उस समय तक
चलते जाना है
जब तक कि शब्द
शून्य न हो
जाए; जीरो
न आ जाए। और
जिस दिन शून्य
आता है, उस
दिन पता चलता
है कि सब
विभिन्न
इशारे हैं।
ज्ञानियों की
अलग— अलग
चेष्टाएं, उपाय,
डिवाइसेस
इस शून्य तक
पहुंचाने के
लिए थे। इस
अनाम, निःशब्द
मौन तक
पहुंचाने के
लिए थे। अब हम
इस सूत्र में
प्रवेश करें।
समस्त
प्राणियों के
अंतरात्मारूप
परमेश्वर एक
होते हुए भी
विभिन्न
देहधारियों
में प्रविष्ट
होकर उन्हीं
के रूप वाला
बना हुआ है।
वह भीतर रहने
वाला ईश्वर
बाहर भी है।
जैसे संपूर्ण
विश्व में
प्रविष्ट एक
ही अग्नि
विभिन्न रूप
वाली हो जाती
है।
ऐसे
ही उस
परमात्मा की
एक ही ऊर्जा
अलग—अलग रूप
वाली हो गई है।
रूप भिन्न हैं, उनके
भीतर जो छिपा
हुआ अरूप, शक्ति
है—वह एक है।
जिस
प्रकार समस्त
ब्रह्मांड
में प्रविष्ट
वायु एक होते
हुए भी
विभित्र रूप
वाला हो रहा
है वैसे ही सब
प्राणियों
में निवास करने
वाला
परमेश्वर एक
होते हुए भी
देहधारियों के
अनुरूप रूप
वाला रहता है।
वही उनके बाहर
भी स्थित है।
जिस
प्रकार ममस्त
ब्रह्मांड का
प्रकाशक सूर्यदेवता
लोगों की आंखों
से होने वाले
बाहर के दोषों
से लिप्त नहीं
होता उसी प्रकार
सब प्राणियों
का अंतरात्मा
एक परब्रह्म
परमात्मा
लोगों के
दुखों से
लिप्त नहीं होता
क्योकि सबमें
रहता हुआ भी
वह सबसे अलग
है
यह
समझने जैसी है।
साधक के लिए
उसके मार्ग पर
उपयोगी होने
वाली बात है।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है एक
संस्मरण, कि एक दिन
सुबह—सुबह
उठकर मैं सागर
की तरफ चला।
वर्षा के दिन
थे। और सब
डबरे, पोखर,
तालाब पानी
से भरे थे।
कोई डबरा गंदा
भी था, कोई
डबरा स्वच्छ
भी था। फिर
सागर के पास
भी पहुंचा।
सूरज उगा, गंदे
डबरे में भी
उसका
प्रतिबिंब
बना, शुद्ध
स्वच्छ जल में
भी उसका
प्रतिबिंब
बना, सागर
में भी उसका
प्रतिबिंब
बना, एक
छोटे से सड़क
के किनारे बने
हुए गड्डे में
भी उसका
प्रतिबिंब
बना।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
मुझे आश्चर्य
से भर गई यह
घटना। एकदम
मुझे खयाल आया
कि चाहे गंदे
डबरे में प्रतिबिंब
बनता हो और
चाहे स्वच्छ
डबरे में, प्रतिबिंब
न तो गंदा
होता है और न
स्वच्छ।
प्रतिबिंब
कैसे गंदा हो
सकता है? गंदे
डबरे में सूरज
की जो छाया बन
रही है, वह
कैसे गंदी हो
सकती है? प्रतिबिंब
को कोई गंदगी
गंदा नहीं कर
सकती। सागर
में जो
प्रतिबिंब बन
रहा था, वह
भी उसी सूरज
का था, छोटे
डबरे में जो
प्रतिबिंब बन
रहा था, वह
भी उसी सूरज
का था। और
दोनों
प्रतिबिंब
बिलकुल एक थे,
उनमें जरा
भी भेद न था।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
उस दिन मुझे
लगा कि उपनिषदों
के जो वचन हैं, उनका
क्या अर्थ है—कि
वह परमात्मा
सभी के भीतर
प्रगट हो रहा
है। रूप भिन्न
हैं, लेकिन
वह जो प्रगट
हो रहा है वह
एक है। और
दूसरी बात यह
सूत्र कह रहा
है कि आपकी
अशुद्धि उसे
अशुद्ध नहीं
कर सकती। कोई
डबरे की
अशुद्धि
प्रतिबिंब को
अशुद्ध नहीं
कर सकती।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं कि
चोर के भीतर
भी वह ब्रह्म
चोर नहीं हो
गया है, और
साधु के भीतर
वह ब्रह्म साधु
नहीं हो गया
है। क्योंकि
वह कभी असाधु
हुआ ही नहीं
है कि साधु हो
सके।
उपनिषद
कहते हैं, वह
ब्रह्म शुद्ध
चैतन्य है।
रूप कितना ही
गंदा हो जाए, आकृति कितनी
ही विकृत हो
जाए, सारी
अशुद्धियां
रूप तक हैं; वह जो भीतर
छिपा है, उस
तक कोई
अशुद्धि न कभी
पहुंची है और
न पहुंच सकती
है।
यह
बड़ी
क्रातिकारी
बात है, बड़ी खतरनाक
है। क्योंकि
पापी सुनकर यह
सोच सकता है
कि तब ठीक है।
जब वह अशुद्ध
होता ही नहीं,
तो फिर पाप
करना क्यों
छोड़ना? और
जब पुण्य से
वह शुद्ध नहीं
होने वाला है —
क्योंकि वह
अशुद्ध कभी
हुआ नहीं—तो
पुण्य करने का
सार क्या?
यही
अज्ञानी मन की
व्याख्या
उपद्रव खड़ा कर
रही है।
उपनिषद
कह रहे हैं कि
वह कभी अशुद्ध
नहीं हुआ, अगर इसे
कोई
समझपूर्वक
समझ ले, तो
अतीत का सारा
बोझ एक क्षण
में नष्ट हो
जाएगा। अगर यह
खयाल आ जाए कि
मेरे भीतर जो
था वह कभी अशुद्ध
नहीं हुआ, तो
हमारे मन में
जो अपराध की
पीड़ा है, पाप
का जो बोझ है, वह क्षण में
नष्ट हो जाए।
मनसविद
कहते हैं कि
मनुष्य के
जीवन में सबसे
बड़ा
दुर्भाग्य है
गिल्ट, अपराध का
भाव। और
मनसविद कहते
हैं कि ईसाइयत
ने पश्चिम में
अपराध का भाव
पैदा करके
मनुष्य को
भारी नुकसान
पहुंचाया।
लेकिन
इस मुल्क में
हमने मनुष्य
को अपराध के
भाव से मुक्त
करके बहुत
नुकसान
पहुंचाया।
ईसाइयत ने भी
कुछ लोगों को
साथ दिया और
लाभ किया और
हमने भी कुछ
लोगों को साथ
दिया और लाभ
किया।
कुछ
ऐसा दिखता है
जो लोग लाभ ले
सकते हैं, वे हर जगह
से लाभ ले
लेते हैं; और
कुछ लोग जो
हानि करने को
उतारू हैं, वे हर जगह से
हानि कर लेते
हैं। कुछ ऐसे
लोग हैं कि
जहर से भी
जीवन को
सम्हाल लेते
हैं, और
कुछ ऐसे लोग
हैं कि अमृत
से भी
आत्महत्या कर
लेते हैं! यह
लोगों पर
निर्भर है।
अमृत बिलकुल
बेकार है। जहर
का कोई मतलब
नहीं है। यह
आदमी पर
निर्भर है कि
वह क्या करेगा।
ईसाइयत
ने पश्चिम में
जोर दिया कि
आदमी पाप में
जन्मा है। मूल
आदमी का पाप
में जन्म है।
और ईश्वर ने
आदमी को
निकाला है
बहिश्त से, क्योंकि
उसने पाप किया,
उसने ईश्वर
की आशा का
उल्लंघन किया।
और जब तक आदमी
पाप से अपने
को मुक्त नहीं
कर लेता, बहिश्त
के द्वार उसके
लिए बंद
रहेंगे। अदम
ने जो भूल की
थी, वह हर
आदमी उसी पाप
में सड़ रहा है।
और उस पाप से
उठने के लिए
उसे बड़ा श्रम
करना पड़ेगा।
ईसाइयत
ने जोर दिया
कि आदमी पापी
है, पाप
में ही उसका
जन्म है। इससे
निश्चित ही एक
गहन अपराध का
भाव पैदा हुआ।
जो समझदार थे,
उन्होंने
जीवन को बदलने
की कोशिश की, इस पाप से
ऊपर उठने के
लिए।
लेकिन
जो नासमझ थे, उन्होंने
कहा, जब
आदमी पाप में
ही पैदा हुआ
है, तो पाप
से कोई
छुटकारा नहीं
है। और जब अदम,
मूल— आदमी
भी पापी हुआ
है, तो हम.!
और जब अदम
ईश्वर के
सामने भी पाप
कर सका, बहिश्त
में रहकर भी
पाप कर सका, तो हम
संसारीजन हैं,
हम उसी की
संतान हैं, उसी के
जीवाणु हमारे
भीतर चल रहे
हैं—इसीलिए
हमारा नाम
आदमी है, क्योंकि
हम अदम की
औलाद है—तो
हमसे क्या
होगा! हजारों
सदियों का पाप
हमारे ऊपर है,
इतना बोझ है,
इसे फेंकना
असंभव है।
हमारी आत्मा
ही पापी हो गई
है, इसलिए
पाप को
स्वीकार करने
के अतिरिक्त
कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए
पश्चिम
भौतिकवादी हो
गया। पश्चिम
के भौतिकवादी
होने का कारण
था कि पाप को
पश्चिम ने
स्वीकार कर
लिया, उससे
छुटकारे का
कोई उपाय नहीं
दिखाई पड़ता।
आदमी पापी ही
रहेगा। हा, प्रभु की
कृपा होगी, अनुकंपा
होगी, तो
वह पाप से उठा
लेगा।
लेकिन
अगर प्रभु की
अनुकंपा ही
होती तो वह
अदम को ही पाप
से हटा लेता—पहले
ही आदमी को, जिसने
पाप किया था।
फिर इतनी बड़ी
पाप की
श्रृंखला को
पैदा करने की
कोई जरूरत न
थी।
पश्चिम
भौतिकवादी हो
गया, क्योंकि
पाप करने के
सिवाय कोई उपाय
नहीं। सवाल
यही है कि ढंग
से पाप करो, कुशलता से
पाप करो, जितना
ज्यादा कर सको
उतना करो।
क्योंकि जीवन
में कोई और
रास्ता नहीं
है। पाप में
ही हमारा रोआ—रोआ
पैदा हुआ है, इसलिए पाप
हम करेगे।
ठीक
इससे उलटा
प्रयोग हमने
किया था कि वह
शुद्ध
परमात्मा कभी
पापी होता ही
नहीं। वह
अशुद्ध नहीं
होता, वह
परम शुद्ध है।
उसकी शुद्धि
में आप कितने
ही पाप करें
तो कोई अंतर
नहीं डाल सकते।
जो समझते थे, उन्होंने इस
सत्य को समझकर
पाप करने की
धारणा ही छोड़
दी, क्योंकि
पाप करने से
कुछ भी नहीं
होने वाला है।
और वह जो परम
शुद्ध का
जिन्हें बोध आ
गया, उस
बोध के साथ ही
पाप की धारणा
टूट गई, पाप
की वासना टूट
गई; गलत
करने का सवाल
न रहा।
लेकिन
अधिक लोगों ने
कहा कि जब
उसमें कोई
अंतर ही नहीं
पड़ता, तो
पाप करने में
हर्ज क्या है!
जब उसमें कोई
भेद ही नहीं
पड़ता, जब
वह सदा शुद्ध
ही है, तो
पाप किए चले
जाओ।
अक्सर
ब्रह्मज्ञानी
लोगों को
समझाते हैं कि
वह आत्मा परम
शुद्ध है।
पापी सिर
हिलाते हैं, वे कहते
हैं, बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं। उनके पाप
का बोध कम
होता है।
उन्हें लगता
है कि बिलकुल
ठीक, हम
शुद्ध ही हैं।
तो फिर कोई
फर्क नहीं
हममें और
बुद्ध में, और महावीर
में और हममें।
भेद ऊपरी है, भीतर तो सब
एक ही हैं।
पर
यह बात अपने
आप में बड़ी
कीमत की है कि
उसे अशुद्ध
नहीं किया जा
सकता। आप
जन्मों—जन्मों
तक भी कोशिश
करते रहें, तो भी
चेतना को
अशुद्ध करने
का कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि
चेतना का
स्वभाव
शुद्धि है।
सिर्फ आप ऊपर
कचरा इकट्ठा
कर सकते हैं, लेकिन भीतर
वह जो हीरा है,
वह जो
जगमगाता हुआ
प्रकाश है, उसको आप
सिर्फ ढाक
सकते हैं, उसको
मिटा नहीं
सकते। जिनको
यह स्मरण आ
जाए, वे
मिटाने की
कोशिश छोड़
देंगे और वे
उस हीरे की
तलाश में लग
जाएंगे, जिसको
पाप नहीं छू
सकता।
और
यह बात थोड़े—से
ही अनुभव से
साफ हो सकती
है, क्योंकि
भीतर जो आपके
है वह कर्ता
नहीं है, वह
साक्षी है। जब
आप चोरी करते
हैं, तब भी
भीतर कोई
देखता रहता है
कि आप चोरी
करने जा रहे
हैं। वह जो
देखता है, उसे
चोरी का कोई
पाप नहीं लग
सकता। वह
सिर्फ विटनेस
है, वह
सिर्फ गवाह है।
उसने सिर्फ देखा
है आपको चोरी
करते। और जब
आप मंदिर
प्रार्थना
करने जाते हैं,
तब भी वह
द्रष्टा है।
वह देख रहा है
कि आप मंदिर
प्रार्थना
करने जा रहे
हैं। कोई
पुण्य उसे पकड़
नहीं सकता।
आप
क्या करते हैं, वह बाहर—बाहर
है। कर्म बाहर
है, होश
भीतर है। और
होश कभी भी
कर्म नहीं
बनता, और
कर्म कभी होश
नहीं बन सकता।
तो
आपके भीतर दो
पृथक धाराएं
हैं। एक कर्म
की धारा है।
यह कर्म की
धारा आपके
शरीर से
जन्मती है।
अभी
बड़े प्रयोग
हुए हैं कि
मनुष्य की
वासना वस्तुत:
कहौ पैदा होती
है? क्योंकि
वासना ही कर्म
में ले जाती
है। वैशानिक
जो प्रयोग कर
रहे हैं, वे
बड़े हैरान
करने वाले हैं,
क्योंकि
सारी वासना
शरीर में पैदा
होती है।
पुरुष का
हार्मोन होता
है, स्त्री
का हार्मोन
होता है, रासायनिक—तत्व
होते हैं। अगर
एक स्त्री में
पुरुष के
हार्मोन के
इंजेक्यान दे
दिए जाएं, तो
उसका सारा
व्यवहार बदल
जाता है। उसकी
आवाज पुरुष
जैसी कर्कश हो
जाती है; स्त्री
का माधुर्य खो
जाता है। उसका
ढंग आक्रामक
हो जाता है।
स्त्री
आक्रामक नहीं
है। प्रेम में
भी स्त्री
आक्रमण नहीं
करती, वह
प्रतीक्षा
करती है।
प्रेम में भी
इनीसिएटिव
नहीं लेती।
कोई स्त्री
कभी किसी पुरुष
से शुरू में
नहीं कहती कि
मैं तुम्हें
प्रेम करती
हूं कि मैं
तुम्हारे
बिना मर
जाऊंगी। अगर
कोई स्त्री
ऐसा कहे, तो
पुरुष को वहा
से भाग खड़े
होना चाहिए।
क्योंकि वह
स्त्री
स्त्री नहीं
है। हमेशा
पुरुष ही
कहेगा कि मैं
प्रेम करता
हूं और
तुम्हारे
बिना मर
जाऊंगा।
स्त्री सिर्फ
राजी भरेगी, हौ भरेगी।
वह हं। भी बड़ी
मौन होगी—पैसिव,
निक्तिय
होगी। उसमें
कोई सक्रियता
नहीं है। उसका
कारण है उसके
पूरे शरीर की
व्यवस्था।
स्त्री
पुरुष को अपने
भीतर स्वीकार
करती है।
पुरुष स्त्री
के ऊपर आक्रमण
करता है।
पुरुष का
स्वभाव आक्रमण
है, एग्रेसन
है। लेकिन अगर
पुरुष के
हार्मोन का
इंजेक्यान स्त्री
को दे दिया
जाए, तो
स्त्री
आक्रामक हो
जाती है। अगर
स्त्री के
हार्मोन का
इंजेक्यान
पुरुष को दे
दिया जाए, तो
वह निक्तिय हो
जाता है। वह
बैठा
प्रतीक्षा
करेगा कि कोई
स्त्री आए और
आक्रमण करे।
एक
बंदरों के समूह
में एक
वैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था। उसने एक
स्त्रैण, अति स्त्रैण
मादा को, जो
कि अति विनम्र
थी, और उस
समूह में
बंदरों के
जिसका कोई पद
नहीं था—क्योंकि
बंदरों में पद
होते हैं। ठीक
जैसे
राजनीतिज्ञों
में सीढ़ियां
होती हैं, ऐसे
बंदरों में
होती हैं। कोई
राष्ट्रपति
है, कोई
प्रधानमंत्री
है, कोई
केबिनेट के
मेंबर्स हैं!
ऐसा सिलसिला
होता है।
वैज्ञानिक तो
कहते हैं कि
बंदरों की ये
आदतें
राजनीति में
चल रही हैं।
उनमें जरा भी
भेद नहीं है।
वह
स्त्री मादा
बंदर जो कि
बिलकुल ही
किसी पद पर
नहीं थी, सर्वहारा थी,
बिलकुल
आखिरी में थी,
उसको बड़ी
मात्रा के
इंजेक्यान
दिए नर हार्मोन्स
के। जैसे ही
उन
इंजेक्यान्स
का प्रभाव
चौबीस घंटे
में होना शुरू
हुआ, वह
स्त्री इतनी
आक्रामक हो गई
कि उसने सारे
पदों पर जितने
नर बंदर बैठे
हुए थे, सबको
ठिकाने लगा
दिया। वह करीब—करीब
इंदिरा गाधी
की तरह ऊपर हो
गई। वह जो
समूह में
कामराज, निजलिंगप्पा
सब थे, वे
सब बिलकुल
उतार दिए गए।
इस
वैज्ञानिक ने
लिखा है कि
बड़े पुराने
लड़ाके, उनको उसने
सबको ठीक कर
दिया! वे सब
उदास होकर बैठ
गए। उसने उन
पर ऐसा कब्जा
कर दिया कि वह
उनको जरा उत्पात
और ऊधम भी न
करने दे, जो
कि बंदर का
स्वभाव है। और
सारा फर्क इस
बात से हुआ कि
हार्मोन.।
आप
जो भी कर रहे
हैं, उसमें
शरीर का हाथ
है। आपके
व्यवहार में,
आपके उठने—बैठने
में, चलने
में, आपकी
वासनाओं में,
आपकी
इच्छाओं में,
आपकी दौड़, महत्वाकांक्षा
में, संघर्ष
में, सबमें
हार्मोन का
हाथ है। थोड़े—से
रासायनिक—तत्व
बड़ा फर्क पैदा
करते हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कोई—पुराने
समय में, सस्ते समय
में—पांच
रुपये के
रासायनिक—तत्व
एक आदमी के
शरीर में होते
हैं। अब कोई
पंद्रह रुपये
के होते हैं!
स्त्री के शरीर
में कोई सोलह
रुपये के होते
हैं।
तो
इसका ध्यान
रखना कि रासायनिक
रूप से स्त्री
ज्यादा कीमती
है। बस वह एक
रुपए के
रासायनिक—तत्वों
का स्त्री—पुरुष
में फर्क है।
और इसलिए अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
स्त्री शरीर
को बाद में भी
इंजेक्यान
देकर पुरुष
बनाया जा सकता
है, पुरुष
के शरीर को
स्त्री बनाया
जा सकता है।
और इस सदी के पूरे
होते—होते आप
निर्णय भर कर
लें कि आपको
स्त्री होना
है कि पुरुष
होना है, वह
हो सकेगा.।
उसमें कोई
कठिनाई अब
प्रयोग के रूप
में नहीं रह
गई है।
फिर
एक आदमी चोरी
कर रहा है, और एक
आदमी हत्या कर
रहा है, हिंसा
कर रहा है, वैशानिक
कहते हैं :
इनका भी कारण
शारीरिक है।
इसलिए हम जो
दंड देते हैं,
वह नासमझी
है। वह ऐसे ही
है जैसे कोई
आदमी टी. बी. का
बीमार है, आप
उसको सजा कर
दें कि तुमको
टी बी. क्यों
हुई? अब वह
आदमी क्या कर
सकता है?
एक
आदमी हत्यारा
सिद्ध होता है, वैशानिक
कहते हैं कि
हम सजा उसको
देते रहे, क्योंकि
हत्या का विज्ञान
हम अब तक नहीं
समझ पाए कि
कौन—से तत्व
उसके शरीर में
उसे हत्या के
लिए प्रेरित
कर रहे हैं।
बजाय उसको
हत्या करने की
सजा देने के, उसको फासी
लगाने के, जिंदगीभर
जेल में रखने
के, बेहतर
होगा उसके
हार्मोन बदल
देना। वह काम
एक इंजेक्यान
से भी हो
सकेगा।
यह
खोज कीमती है, लेकिन
खतरनाक भी। हर
कीमती खोज
खतरनाक होती
है, क्योंकि
अज्ञानियों
के हाथ में
लगती है। इसका
मतलब यह हुआ
कि अगर हम
हत्यारे को
गैर—हत्यारा
बना सकते हैं
सिर्फ
इंजेक्यान
देकर, तो
हम गैर—हत्यारों
को हत्यारा
बना सकते हैं
इंजेक्यान
देकर। मुल्क
युद्ध में हो
तो आप अपने
सारे
मिलिट्री के
जवानों को
इंजेक्यान दे
सकते हैं, वे
बिलकुल पागल
होकर हत्या
में लग जाएं।
उनसे फिर कोई
मुल्क जीत
नहीं सकेगा
दूसरा, जिसको
वह कला पता
नहीं। मुल्क
में बगावत हो
रही हो, लोग
विद्रोही हों,
आदोलन कर
रहे हों, सिर्फ
इंजेक्यान
देने की जरूरत
है। वे बिलकुल
जी—हजूर हो
जाएंगे। वे
बिलकुल बैठकर
पूंछ हिलाने
लगेंगे आपकी
प्रशंसा में।
खतरनाक है खोज,
लेकिन
अर्थपूर्ण भी।
और
भारतीय मनीषा
बहुत दिन से
यह कह रही है
कि वह भीतर जो
छिपा है, वह सिर्फ
साक्षी है, वह कर्ता
नहीं है।
कर्ता तो बाहर
है। कर्म का
जो जाल है, वह
शरीर है और मन
से जुड़ा है।
भीतर की शुद्ध
चेतना साक्षी
है, वह
सिर्फ देखती
है। उसने कभी
कोई कर्म नहीं
किया है।
अगर
आप धीरे— धीरे
अपने कर्मों
के साक्षी
होने लगें, तो आपके
भीतर की
साक्षी चेतना
जगने लगेगी।
वह सोई पड़ी है,
उसका आपने
कभी उपयोग
नहीं किया।
इसलिए ध्यान
के सब प्रयोग
मूलत: भीतर
सोए हुए साक्षी
को जगाने की
चेष्टाएं हैं
कि वह देखने वाला
जग जाए, वह
होश से भर जाए।
जैसे ही वह
होश से भर
जाता है, वैसे
ही जो गलत है
आपकी जिंदगी
में, अपने
आप गिरने
लगेगा। जो सही
है, वह
अपने आप बढ़ने
लगेगा। क्यों?
क्योंकि
आपके सहयोग के
बिना शरीर भी
कर्म नहीं कर
सकता है। आपका
सहयोग तो
चाहिए ही। आप
कर्म नहीं
करते हैं, लेकिन
आपका आंतरिक
सहयोग, कोआपरेशन
तो शरीर को भी
चाहिए।
अगर
कोई व्यक्ति
पूरी तरह
साक्षी है, तो आप
उसको कितने ही
इंजेक्यान दे
दें आक्रमण के,
वह आक्रामक
नहीं होगा।
इसे
थोड़ा समझने
जैसा है।
जैनियों
के चौबीस
तीर्थंकर ही
क्षत्रिय हैं, आक्रामक
घरों में पैदा
हुए। और अगर
कभी इनके
हार्मोन की
कोई व्याख्या
हो सकती—अब तो
मुश्किल है—तो
इन सबके भीतर
आक्रमण के
भयंकर
हार्मोन रहे होंगे।
क्योंकि
क्षत्रिय
घरों में पैदा
हुए थे, राजाओं
के बेटे थे।
इनकी सारी
परंपरा, इनके
मां—बाप का
सारा ढंग
आक्रमण का था।
हार्मोन तो
वसीयत में
मिलते हैं, हिरेडिटरि
होते हैं। ये
चौबीस जैनों
के तीर्थंकर,
बुद्ध, ये
सब क्षत्रिय
हैं—और इन
सबने अहिंसा
का उपदेश
दिया! ये सब
हिंसक घरों
में पैदा हुए
और हिंसा इनकी
बपौती थी, और
इन्होंने
अहिंसा का
उपदेश दिया!
निश्चित ही ये
इतने गहन रूप
से साक्षी हो
गए होंगे कि
इनके आक्रमण
के हार्मोन इन
पर कोई प्रभाव
नहीं कर सके।
यह
बड़े मजे की
बात है कि अब
तक कोई भी, एक
ब्राह्मण भी—एक
भी ब्राह्मण—अहिंसा
का उपदेष्टा
नहीं हुआ है।
और खतरनाक से
खतरनाक जिस
ब्राह्मण को
हम जानते हैं
वह परशुराम है,
जिसने
क्षत्रियों
को पृथ्वी से
कई दफे समाप्त
कर दिया। और
ये पच्चीस—एक
बुद्ध और
चौबीस जैनों
के तीर्थकर—ये
सब क्षत्रिय
हैं, जिनके
खून में लड़ाई
थी, लेकिन
ये अहिंसा के
उपदेष्टा बन
सके।
परशुराम
और इनके बीच
एक ही बात घट
रही है।
परशुराम भी
साक्षी हैं।
और साक्षी
होकर परशुराम
ने जाना—उसके
ब्राह्मण के
हार्मोन सारे
के सारे अहिंसा
के हैं—लेकिन
साक्षी होकर
परशुराम को
दिखाई पड़ा कि
क्षत्रियों
ने भयंकर
उत्पात कर रखा
है। सारे जीवन
को उपद्रव से
भर दिया है।
इनके कारण ही
हिंसा है।
हिंसा को
मिटाने के लिए
परशुराम ने
सारे क्षत्रियों
का सफाया शुरू
कर दिया।
एक
ब्राह्मण
इतनी हिंसा कर
सकता है, अगर साक्षी
जगे। तो कर्म
से अपने को
अलग कर लेता
है, फिर
सोच पाता है
कि क्या करना
उचित है और
क्या करना
उचित नहीँ। ये
पच्चीस—तीर्थंकर
और एक बुद्ध—ये
सब क्षत्रिय
हैं, इनके
पास लडाई का
तत्व है, इनके
खून में लड़ाई
है, लेकिन
साक्षी— भाव
ने दिखाया कि
लड़ाई व्यर्थ
है, और
उससे कुछ
परिणाम नहीं
निकलते। वे
शांत हो गए और
उनके जीवन से
हिंसा बिलकुल
गिर गई।
साक्षी—भाव
हो तो हार्मोन
का प्रभाव नष्ट
हो जाता है, यह मैं कह
रहा हूं। फिर
चाहे परशुराम
की तरह नष्ट
हो, चाहे
महावीर की तरह
नष्ट हो।
लेकिन साक्षी—चेतना
अपना निर्णय
करती है, शरीर
उसका मालिक
नहीं रह जाता।
शरीर उसको
नहीं खींच
सकता। साक्षी—चेतना
अपने ही जीवन
को अपनी ही
सहजता से जीने
लगती है, साक्षी—चेतना
की अपनी ही
गति है। वह
गति परम
स्वतंत्र है।
और
दूसरी बात, साक्षी—चेतना
कुछ भी करे, करते हुए भी
जानती है कि
मैं करने वाली
नहीं हूं मैं
सिर्फ साक्षी
हूं। इसलिए
मैं मानता हूं
कि परशुराम को
कोई पाप लगा
नहीं होगा, लग नहीं
सकता।
परशुराम भी
समझने जैसे व्यक्तित्व
हैं। कोई पाप
लगा नहीं होगा,
क्योंकि
बड़े साक्षी—भाव
से ये हत्याएं
की गई थीं।
कृष्ण इसी
हत्या की सलाह
अर्जुन को भी
गीता में दे
रहे हैं कि तू
साक्षी—भाव
से.। इसकी
फिक्र छोड्कर
कि तू कर्ता
है; मात्र
निमित्त, मात्र
साक्षी तू इस
युद्ध में उतर
जा। अर्जुन की
तकलीफ यह है
कि वह साक्षी
नहीं हो पा
रहा है। उसे
बार—बार ऐसा
लग रहा है कि
मैं कर रहा
हूं। मैं
हत्या करूंगा
अपने
प्रियजनों की!
वह आइडेंटिफाइड
है। वह अपने
कर्म से अपने
को जोड़ रहा है।
कृष्ण की पूरी
चेष्टा
अर्जुन में
साक्षी—भाव
लाने की है कि
युद्ध करते
वक्त भी जान
कि तू करने
वाला नहीं है।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति भीतर
होश से भर
जाता है, वैसे ही
करने वाला
नहीं रह जाता।
यह
सूत्र कह रहा
है
जिस
प्रकार समस्त
ब्रह्मांड का
प्रकाशक सूर्यदेवता
लोगों की आंखों
से होने वाले
बाहर के दोषों
से लिप्त नहीं
होता उसी
प्रकार सब
प्राणियों का
अंतरात्मा एक
परब्रह्म
परमात्मा लोगों
के दुखों से
लिप्त नहीं
होता क्योकि
सबमें रहता
हुआ भी वह
सबसे अलग है।
वह
अलगपन का बोध
ही साक्षी—
भाव है।
जो
सब प्राणियों
का अंतर्यामी
अद्वितीय एवं सबको
वश में रखने
वाला
परमात्मा
अपने एक ही रूप
को बहुत
प्रकार से बना
लेता है उस
अपने अंदर
रहने वाले
परमात्मा को
जो ज्ञानी
पुरुष निरंतर
देखते रहते
हैं उन्हीं को
सदा अटल रहने
वाला परमानंद
स्वरूप वास्तविक
सुख मिलता है
दूसरों को
नहीं।
केवल
वे ही लोग सुख
की थोड़ी—सी
अनुभूति
उपलब्ध कर
पाते हैं, जो कर्ता
से अपने
साक्षी को अलग
तोड़ लेते हैं।
जैसे—जैसे यह
अनुभूति गहरी
होने लगती है,
वैसे—वैसे
आनंद भी बढ़ने
लगता है।
आखिरी क्षण
में जब साक्षी
बिलकुल ही
पृथक हो जाता
है, देखने
वाला करने
वाले से
बिलकुल अलग हो
जाता है, तो
परम आनंद की
अनुभूति होती
है।
जो
नित्यों का भी
नित्य है
चेतनों का भी चेतन
है और अकेला
ही इन अनेक
जीवों के
कर्मफल— भोगों
का विधान करता
है उस अपने 'अंदर
रहने वाले
पुरुषोत्तम
को ये जो
ज्ञानी निरंतर
देखते रहते
हैं उन्हीं को
सदा अटल रहने वाली
शांति
प्राप्त होती
है दूसरों को
नहीं।
भीतर
के इस स्वभाव
की, साक्षीपन
की, जागरूकता
की जिन्हें
सदा प्रतीति
बनी रहती है, वे ही केवल
अटल शाति को
प्राप्त होते
हैं।
जिज्ञासु
नचिकेता इस
प्रकार उस बल—प्राप्ति
के आनंद और
शांति को
महिमा सुनकर
मन ही मन
विचार करने
लगा—वह
अनिर्वचनीय
परमसुख यह
परमात्मा ही
है ऐसा ज्ञानीजन
मानते हैं
उसको किस
प्रकार से मैं
भलीभांति समह।
क्या वह
प्रकाशित
होता है या
अनुभव में आता
है?
बड़ा
गहन सवाल
नचिकेता के मन
में उठा कि
जिससे परम
शाति मिलती है
और जिससे परम
आनंद मिलता है, वह
परमात्मा
प्रकाशित
होता है या
अनुभव में आता
है? यह भेद
समझने जैसा है।
आपको
मैं देख रहा
हूं र आप मेरे
अनुभव में
नहीं आ रहे, आप
प्रकाशित हो
रहे हैं। अगर
यहां अंधेरा
हो जाए, तो
मैं आपको नहीं
देख सकूंगा।
प्रकाश चाहिए।
दूसरे को
देखने के लिए
प्रकाश चाहिए।
दूसरा
प्रकाशित हो
तो ही दिखाई
पड़ता है, लेकिन
स्वयं को
देखने के लिए
प्रकाश नहीं
चाहिए। स्वयं
को देखने के
लिए अनुभव
काफी है।
अंधेरे में भी
हो जाता है।
नचिकेता
के मन में
सवाल उठा कि
यह परमात्मा
बाहर की एक
वस्तु की तरह
प्रगट होगा—कि
मैं प्रकाश
में उसको
देखूंगा कि
खड़ा है महिमामंडित
परमपुरुष—या
मेरे भीतर के
अनुभव में
आएगा, जहां
बाहर के किसी
प्रकाश की कोई
भी जरूरत नहीं
है? परमात्मा
पदार्थ की तरह
प्रगट होगा, अन्य की तरह
प्रगट होगा या
स्वयं की तरह
प्रगट होगा, चैतन्य की
तरह प्रगट
होगा? परमात्मा
मेरे भीतर
प्रगट होगा या
मेरे बाहर प्रगट
होगा? यह
परमात्मा
बाहर है या
भीतर?
क्योंकि
बाहर जो भी
चीजें हैं, उनके लिए
कोई माध्यम
चाहिए प्रकाशित
होने का, तभी
वे दिखाई पड़ती
हैं। सिर्फ
भीतर बिना
माध्यम के, बिना प्रकाश
के, मात्र
अनुभव से घटना
घटती है।
तो
नचिकेता के मन
में सवाल उठा
है कि यह
परमात्मा
प्रकाशित
होता है या
अनुभव में आता
है? क्योंकि
अगर प्रकाशित
होता है, तो
फिर मुझसे
कहीं दूर है—उसे
खोजना पड़ेगा।
उसका मंदिर, उसका महल, उसका स्थान,
उसका परमपद
मुझे खोजना
पड़ेगा। और अगर
प्रकाशित
होता है, तो
मुझे वह
प्रकाश खोजना
पड़ेगा, जिसमें
मैं उस
परमात्मा को
देख सकूं।
प्रक्रिया
बिलकुल बदल
जाएगी। और अगर
वह अनुभव में
आता है, तो
फिर मुझे कहीं
जाने की जरूरत
नहीं। अगर वह
अनुभव में आता
है, तो फिर
किसी प्रकाश
की भी जरूरत
नहीं। फिर मैं
अपने भीतर ही
डूब जाऊं, तो
मैं उसे पा
लूंगा। ये दो
मार्ग हैं।
साधारणत:
लोग परमात्मा
की प्रार्थना
करते हैं।
प्रार्थना का
मतलब है, वह बाहर है।
प्रार्थना
प्रकाश का काम
करेगी, फोकस
का, और हम
उसको देखेंगे।
पूजा करते हैं,
पूजा
प्रकाश है।
पूजा के
प्रकाश में वह
प्रगट होगा; हम उसे
देखेंगे। एक
मार्ग पूजा और
प्रार्थना का
है, उपासना
का है। उपासना
की धारणा है
कि वह बाहर है;
वह
परमपुरुष
कहीं छिपा है
बाहर, आकाश
में—वह प्रगट
होगा। अगर हम
तैयार हो गए, तो वह प्रगट
होगा।
दूसरा
मार्ग ध्यान
का है, साधना
का है। वह
परमपुरुष
बाहर नहीं
छिपा है, भीतर
मौजूद है।
इसलिए किसी
पूजा—पाठ का
सवाल नहीं है;
मेरे ही
निखार का सवाल
है। मैं ही
भीतर शुद्ध
होता चला जाऊं,
जागता चला
जाऊं—वह प्रगट
होगा। उसके
लिए किसी
बाह्य—साधन, अनुष्ठान, रिचुअल की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
पहला
मार्ग बिलकुल
गलत है, लेकिन बहुत
लोगों को अपील
करता है।
दूसरा मार्ग
बिलकुल सही है,
लेकिन बहुत
कम लोगों को
आकर्षित करता
है। क्यों? क्योंकि
पहला मार्ग
सुगम मालूम
होता है। हम
सत्य से कम, सुगम से
ज्यादा
आकर्षित होते
हैं। फिर पहले
मार्ग में
हमें खुद को
नहीं बदलना होता
है। पूजा की
सामग्री
इकट्ठी करने
में क्या अड़चन
है! दीया
जलाने में, धूप—दीप
बालने में, घंटा बजाने
में क्या अड़चन
है! हम तो वही
के वही रहते
हैं।
आदमी
मंदिर चला आता
है, वही
का वही आदमी
जो दुकान पर
बैठा था, उसमें
रत्तीभर फर्क
नहीं होता। वह
जैसे दुकान पर
दुकान का काम
करता था, ऐसे
मंदिर में आकर
मंदिर का, पूजा
का क्रियाकाड
पूरा कर देता
है। मंदिर से
वापस चला जाता
है वैसा का
वैसा, जैसा
आया था। दुकान
पर उसमें
रत्तीभर फर्क
नहीं पाएंगे।
वह वही आदमी
होगा। शायद और
भी ज्यादा
खतरनाक हो
सकता है।
क्योंकि
घटाभर जो पूजा
में खराब हुआ,
इसका बदला
भी उसको दुकान
में ही
निकालना पड़ेगा।
वह ग्राहक को
ज्यादा
प्लेग।, क्योंकि
घटाभर जो खराब
हुआ, वह जो
परमात्मा को
दे आया है, ग्राहक
की जेब से
निकालेगा।
इसलिए
धार्मिक
दुकानदार
अक्सर खतरनाक दुकानदार
होते हैं। तो
धार्मिक आदमी
से जरा सावधान
रहना चाहिए, क्योंकि
कुछ समय वह
परमात्मा को
दे रहा है, जो
उसे लग रहा कि
व्यर्थ जा रहा
है। उसको कहीं
से वह निकालना
चाहेगा। उसकी
जिंदगी में
कोई फर्क नहीं
दिखाई पड़ता।
जिंदगीभर
मंदिर जाकर, वह वही का
वही बना रहता है।
लेकिन
सुगम है मंदिर
जाना; मन
में जाना कठिन
है। इसलिए
सुगम को लोग
चुन लेते हैं।
पर सुगमता से
कोई सत्य का
संबंध नहीं है।
सुविधा से
सत्य का कोई
संबंध नहीं है।
इसलिए अधिक
लोग पूजा करते
हैं, प्रार्थना
करते हैं।
बहुत थोड़े लोग
ध्यान करते
हैं। पर जो
ध्यान करते
हैं, वे ही
पहुंचते हैं।
यही
नचिकेता के मन
में सवाल उठा
है कि मैं प्रार्थना
करूं? कि
ध्यान करूं? मैं उसे
बाहर खोजूं
किसी
क्रियाकाड से,
या भीतर
खोजूं स्वयं
जागकर? वह
अनुभव में आता
है, या
प्रकाशित
होता है?
नचिकेता
के इस आंतरिक—भाव
को समझकर
यमराज ने कहा—
वहां न तो
सूर्य
प्रकाशित
होता है न
चंद्रमा और तारों
का समुदाय ही
प्रकाशित
होता है और न
ये बिजलियां
ही वहां
प्रकाशित
होती हैं। फिर
यह लौकिक
अग्नि— ये दीए
तुम जो जलाते
हो—इनसे वह
कैसे
प्रकाशित हो
सकता है
क्योकि उसी के
प्रकाश से ऊपर
बतलाए हुए
सूर्यादि सब
प्रकाशित
होते हैं। उसी
के प्रकाश से
यह संपूर्ण
जगत प्रकाशित
होता है।
सूरज
निकला हो तो
हम उसे कैसे
जानते हैं?
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन सुबह अपने
नौकर से कह
रहा था, तू जरा बाहर
जाकर देख, सर्दी
बहुत है, सूरज
निकला कि नहीं?
उस आदमी ने
लौटकर कहा कि
बाहर तो घुप्प
अंधेरा है! तो
नसरुद्दीन ने
कहा, दीया
जलाकर देख, सूरज निकला
कि नहीं?
सूरज
को देखने के
लिए किसी दीए
की कोई जरूरत
तो है नहीं।
सूरज स्वयं
प्रकाशित है।
असल में दूसरी
चीजों को हम
सूरज के
प्रकाश से देखते
हैं। सूरज को
किसी प्रकाश
से नहीं देखते।
यम
कह रहा है कि
सूर्य का
प्रकाश भी
उसके ही
प्रकाश से
प्रकाशित है।
सूरज के पीछे
भी उसी की
ऊर्जा छिपी है।
सारी अग्नि
में वही जल
रहा है, सारी किरणें
उसी की हैं।
इसलिए तुम उसे
किसके प्रकाश
में देखोगे? उसे देखने
के लिए किसी
प्रकाश की कोई
जरूरत नहीं, क्योंकि वह
स्वयं ही
प्रकाश का मूल
स्रोत और आधार
है।
वह
अनुभव से देखा
जाएगा, प्रकाश से
नहीं। मूल
स्रोत में
सरककर देखा
जाएगा। उसके
लिए कोई दीया
लेकर खोजने की
आवश्यकता नहीं
है। उसे खोजने
के लिए कहीं
भी नहीं जाना
है। अपने ही
भीतर, अपने
जीवन के मूल
स्रोत में सरक
जाना है। वह
वहा मौजूद है।
उससे ही सब
प्रकाशित है। आंखे
उसी से देख
रही हैं। चांद—तारे
उसी से
ज्योतिर्मय
हैं। सारा
अस्तित्व
उसकी ही धड़कन
है। उसे जानने
के लिए किसी
माध्यम की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
उसे
हम इमीजिएट, इसी क्षण
जान सकते हैं,
क्योंकि
कोई माध्यम
आवश्यक नहीं
है। उसका
ज्ञान सीधा हो
सकता है। उसका
ज्ञान परोक्ष
नहीं है।
ध्यान
के लिए तैयार
हों।
ध्यान योग
शिविर
माऊंट आबू, राजस्थान।
thank you guruji
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