विद्रोह क्या है—प्रवचन दसवां
हिप्पी
वाद मैं कुछ
कहूं ऐसा
छात्रों ने
अनुरोध किया
है।
इस
संबंध में
पहली बात,
बर्नार्ड शॉ
ने एक किताब
लिखी है: मैक्सिम्प
फॉर ए रेव्होल्यूशनरी,
क्रांतिकारी
के लिए कुछ स्वर्ण-सूत्र।
और उसमें पहला
स्वर्ण बहुत
अद्भुत लिखा
है। और एक ढंग
से पहले स्वर्ण
सूत्र लिखा
है: ‘दि
फार्स्ट
गोल्डन रूल
इज़ दैट देयर
आर नौ गोल्डन
रूल्स’
पहला स्वर्ण
नियम यही है
कि कोई भी स्वर्ण-नियम
नहीं है।
हिप्पी
वाद के संबंध
में जो पहली
बात कहना
चाहूंगा, वह
यह कि हिप्पी
वाद कोई वाद
नहीं है,
समस्त वादों
का विरोध है।
पहली पहले इस ‘वाद’ को
ठीक से समझ
ले।
पाँच
हजार वर्षों
से मनुष्य को
जिस चीज ने
सर्वाधिक
पीड़ित किया
है वह है वाद—वह
चाहे इस्लाम
हो, चाहे
ईसाइयत हो,
चाहे हिन्दू
हो, चाहे
कम्यूनिज़म
हो,
सोशलिज्म हो, फासिस्ट, या
गांधी-इज्म
हो। वादों ने
मनुष्य को
बहुत ज्यादा
पीड़ित किया
है।
मनुष्य
इतिहास के
जितने युद्ध
है, जितना
हिंसा पात है, वह सब वादों
के आसपास धटित
हुआ है। वाद
बदलते चले गये
है, लेकिन
नये वाद पुरानी
बीमारियों को
जगह ले लेते
है और आदमी फिर
वही का वहीं
खड़ा हो जाता
है।
1917
में रूस में
पुराने वाद
समाप्त हुए,
पुराने
देवी-देवता
विदा हुए तो
नये देवी-देवता
पैदा हो गये।
नया धर्म पैदा
हो गया।
क्रेमलिन अब
मक्का और
मदीना से कम
नहीं है। वह
नयी काशी है, जहां पूजा
के फूल चढ़ाने
सारी दूनिया
के कम्युनिस्ट
इकट्ठे होते
है।
मूर्तियां हट
गई, जीसस
क्राइस्ट के
चर्च मिट गये।
लेकिन लेनिन
की मृत देह क्रेमलिन
के चौराहे पर
रख दी गयी है।
उसकी भी पूजा
चलती है।
वाद
बदल जाता है,लेकिन
नया वाद उसकी
जगह ले लेता
है।
हिप्पी
समस्त बादों
से विरोध है।
हिप्पी के
नाम से जिन
युवकों को आज
जाना जाता है,
उनकी धारणा यह
है कि मनुष्य
बिना वाद के
जी सकता है। न
किसी धर्म की
जरूरत है,
न किसी शास्त्र, न किसी
सिद्धांत की, न किसी
विचार सम्प्रदाय, आइडियालॉजी
की। क्योंकि
उनकी समझ यह है
जितना ज्यादा
विचार की पकड़
जोती है,
जीवन उतना ही
कम हो जाता
है। हिप्पियों
की इस बात से
मैं अपनी
सहमति जाहिर
करना चाहता
हूं। इन
अर्थों में वे
बहुत
सांकेतिक है, सिम्बालिक
है और आने
वाले भविष्य
की एक सूचना
देते है।
आज
से 100 वर्ष बाद
दुनिया में जो
मनुष्य होगा,
वह मनुष्य
वादों के बाहर
तो निश्चित
ही चला
जायेगा। वाद
का इतना विरोध
होने का कारण
क्यो है?
हिप्पियों
के मन में उन
युवकों के मन
में जो समस्त
वादों के
विरोध में चले
गए है। समस्त
मंदिरों,
समस्त
चर्चों के
विरोध में चले
गये है। जाने
का कारण है।
और कारण है
इतने दिनों का
निरंतर का
अनुभव। वह
अनुभव यह है
कि जितना ही
हम मनुष्य के
ऊपर वाद थोपते
है। उतनी ही
मनुष्य की
आत्मा मर
जाती है।
जितना
बड़ा ढांचा
होगा वाद का,
उतनी ही भीतर
की स्वतंत्रता
समाप्त हो
जाती है।
इसलिए
यह कहा जा
सकता है कि हममें
से बहुत से
लोग मर तो
बहुत पहले
जाते है दफनाए
बहुत बाद में
जाते है। कोई 30
साल में मर जाता
है और 70 साल में
दफनाया जाता
है। हम उसी
दिन अपनी स्वतंत्रता,
अपना व्यक्तित्व
अपनी आत्मा
खो देते है, जिस दिन कोई
विचार का कोई
ढांचा हमें सब
तरफ से पकड़
लेता है।
सींकचे
तो दिखाई
पड़ते है लोहे
के, कारागृह
दिखाई पड़ते
है लोहे के, लेकिन
विचार के
कारागृह
दिखाई नहीं
पड़ते और जो
कारागृह
जितना कम
दिखाई पड़ता
है उतना ही खतरनाक
है।
अभी
में एक नगर से
विदा हुआ।
बहुत से मित्र
छोड़ने आए थे
जिस कम्पार्टमेंट
में मैं था उसमें
एक साथी थे।
उन्होंने
देखा कि बहुत
मित्र मुझे
छोड़ने आये है।
तो जैसे ही
मैं अंदर
प्रविष्ट
हुआ, गाड़ी चली, उन्होंने
जल्दी से
मेरे पैर छुए
और कहा कि
महात्मा जी, नमस्कार
करता हूं।
बड़ा आनंद हुआ
कि आप मेरे
साथ होंगे।
मैंने उनसे
कहा कि ठीक से
पता लगा लेना
कि महात्मा
हू या नहीं।
आपने तो जल्दी
पैर छू लिये।
अब अगर मैं
महात्मा
सिद्ध न हुआ
तो पैर छूने
को वापस कैसे
लेंगे?
उन्होंने
कहा, नहीं-नहीं
ऐसा कैसे हो
सकता है,
आपके कपड़े
कहते है।
मैंने कहा,
अगर कपड़ों से
कोई महात्मा
होता तो तब तो
पृथ्वी सारी
की सारी कभी
की महात्मा
हो गई होती।
उन्होंने
कहा कि नहीं
इतने लोग
छोड़ने आये थे? तो मैंने
कहा कि किराये
के आदमी इतने
ज्यादा
लोगों को
छोड़ने आते है
कि उसका कोई
मतलब नहीं रहा
है। वे कहने
लगे, कम से
कम आप हिन्दू
तो है?
उन्होंने
सोचा कि न सही
कोई महात्मा
हों, हिन्दू
होंगे तो भी
चलेगा। कोई ज्यादा
गुनाह नहीं
हुआ, पैर
छू लिए। तो
मैंने कहा,
नहीं, हिन्दू
भी नहीं हूं।
तो उन्होंने
कहा,आप
आदमी कैसे है? कुछ तो
होंगे,
मुसलमान
होंगे,
ईसाई होंगे? मैंने उनसे
पूछा कि क्या
मेरे सिर्फ
आदमी होने से
आपको कोई
एतराज है?
क्या सिर्फ
आदमी होकर मैं
नहीं हो सकता
हूं, मुझे
कुछ और होना
ही पड़ेगा?
उनकी बेचैनी
देखने जैसी
थी। कंडक्टर
को बुलाकर वे
दूसरे
कंपार्टमेंट
में अपना सामान
ले गये।
मैं
थोड़ी देर बाद
उनके पास गया
और मैंने उनको
कहा आप तो
कहते थे सत्संग
होगा, बड़ा
आनंद होगा। आप
तो चले गये।
क्या एक
आदमी
के साथ सफर
कना उचित नहीं
मालूम पड़ा? हिन्दू के
साथ सफर हो
सकता था। आदमी
के साथ बहुत
मुश्किल है।
आज
पश्चिम में
जिन युवकों ने
हिप्पियों
का नाम ले रखा
है, उनकी पहली
बगावत यह है
कि वे कहते है
कि हम सीधे
आदमी की तरह
जीयेंगे। न हम
हिन्दू
होंगे, न
हम कम्युनिस्ट
होंगे। न हम
सोशलिस्ट
होंगे, न
ईसाई होंगे; हम सीधे
निपट आदमी की
तरह जीने की
कोशिश करेंगे।
निपट आदमी की
तरह जीने की
जो भी कोशिश
है, वह
मुझे तो बहुत
प्रीतिकर हे।
हिप्पी
नाम तो नया
है। लेकिन
घटना बहुत
पुरानी है। मनुष्य
के इतिहास में
आदमी ने कई
बाद निपट आदमी
की तरह जीने
की कोशिश की
है। निपट आदमी
की तरह जीने
में बहुत से
सवाल है।
धर्म
नहीं, चर्च
नहीं, समाज
नहीं—अंतत:
देश भी नहीं; क्योंकि
देश, राष्ट्र
सब उपद्रव है।
सब बीमारियां
है।
कल
तक पाकिस्तान
की भूमि हमारी
मातृभूमि हुआ
करती थी। अब
वह हमारे शत्रु
की मातृभूमि
है। जमीन वहीं
की वही है।
कहीं टूटी
नहीं, कहीं
दरार नहीं
पड़ी।
मैंने
सुना है, एक
पागल खाना था
हिन्दुस्तान
के बंट वारे
के समय। हिन्दुस्तान
पाकिस्तान
की सीमा पर।
अब वह भी सवाल
उठा कि इस
पागल खाने को
कहां जाने दे—हिन्दुस्तान
में कि पाकिस्तान
में। कोई
राजनैतिक उत्सुक
न था कि वह
पागलखाना
कहीं भी ला
जाये। तो पागलों
से ही पूछा
अधिकारियों
ने कि तुम
कहां जाना
चाहते हो।
हिन्दुस्तान
में या पाकिस्तान
में? तो उन
पागलों ने कहा
हम तो जहां है, वहां बड़े
आनंद में है।
हमें कहीं
जाने की कोई
इच्छा नहीं
है। पर उन्होंने
कहा कि जाना
तो पड़ेगा ही, यह
इच्छा का
सवाल नही है।
और तुम घबराओ
मत। तुम हिन्दुस्तान
में चाहो तो
हिन्दुस्तान
में चले जाओ,पाकिस्तान
में चाहो तो
पाकिस्तान
में चले जाओ।
तुम जहां हो
वहीं रहोगे।
यहां से हटना
न पड़ेगा।
तब
तो वे पागल
बहुत हंसने
लगे। उन्होंने
कहा,हम तो सोचते
थे कि हम ही
पागल है।
लेकिन ये अधिकारी
और भी पागल
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
ये कहता है कि
जाना कहीं न
पड़ेगा और पूछते
है जाना कहां
चाहते हो। उन
पागलों ने कहा, कि जब जाना ही
नहीं
पड़ेगा तो
जाना चाहते हो
का सवाल क्या
है? उन
पागलों को
समझाना बहुत
मुश्किल
हुआ। आखिर आधा
पागलखाना बीच
से दीवार उठाकर
पाकिस्तान
में चला गया, आधा हिन्दुस्तान
में चला गया।
मैंने
सुना है कि
अभी वे पागल
एक दूसरे की
दीवार पर चढ़
जाते है और
आपस में सोचते
है कि बड़ी
अजीब बात है,
हम वहीं के
वहीं है,
लेकिन तुम
पाकिस्तान
में चले गये
हो और हम हिन्दुस्तान
में चले गये
है।
ये
पागल हमसे कम
पागल मालूम
होत है। हमने
जमीन को बांटा
है, आदमी को
बांटा है।
हिप्पी
कह रहा है,
हम बांटेंगे
नहीं; हम
निपट बिना बटे
हुए आदमी की
तरह जीना
चाहते है। और
बाद बांटते
है। बांटने की
सबसे
सुविधापूर्ण
तरकीब बाद है
इज्म है।
इसलिए
हिप्पी कहते
है कि हम किसी
इज्म में
नहीं है। ऊब
चुके तुम्हारे
बादों से,
तुम्हारे
धर्मों से।
हमें निपट
आदमी की तरह
छोड़ दो—हम
जैसे है,
वैसे जीना चाहते
है।
यह
तो पहला सूत्र
है। इसलिए
मैंने कहा,
यह बात पहले
समझ लेना
जरूरी है।
हिप्पी इज्म जैसी
चीज नहीं है, हिप्पीज
है। हिप्पी
वाद नहीं है।
हिप्पी जरूर
है।
दूसरी
बात ध्यान
में लेने जैसी
है और वह यह कि
हिप्पियों
की ऐसी धारण
है कह न केवल
आदमी की तरह
जीयें बल्कि
सहज आदमी की
तरह जीयें।
हजारों साल से
सभ्यता ने
आदमी को असहज
बनाया है,
जैसा वह नहीं
है वैसा बनाया
है। हजारों
साल की सभ्यता
संस्कार,
व्यवस्था
ने आदमी को
कृत्रिम को
झूठा बनाने की
कोशिश की है।
उसके हजार
चेहरे बना
दिये है।
मैने
सुना है कह अगर
एक कमरे में
मैं और आप दो
जन मिलें तो
वहां दो जन
नहीं होंगे,
वहां कम से कम 6
जन होंगे। एक
मैं—जैसा मैं
हूं, एक
मैं—जैसा की
मैं सोचता
हूं। और एक
मैं—जैसाकि आप
मुझे समझते है
कि मैं हूं।
और तीन आप और
तीन मैं। उस
कमरे में जहां
दो आदमी मिलते
है कम से कम 6 आदमी
मिलते है।
हजार मिल सकते
है, क्योंकि
हमारे हजार
चेहरे है,
मुखौटे है।
हर
आदमी कुछ है
ओर, कुछ दिखला
रहा है। कुछ
है, कुछ बन
रहा है। और
कुछ दिखला रहा
है। और फिर न मालुम
कितने चेहरे
है—जैसे दर्पण
के आगे दर्पण, और दर्पण के
आगे दर्पण और
एक दूसरे के
प्रतिबिम्ब
हजार-हजार
प्रतिबिम्ब
हो गये है। इन
प्रतिबिम्बों
की भीड़ में
पता लगाना ही
मुश्किल है
कि कौन है आप।
तय करना ही
मुश्किल है
कि कौन सा
चेहरा है आपका
अपना?
पत्नी
के सामने आपका
चेहरा दूसरा
होता है। बेटे
के सामने
दूसरा हो जाता
है। नौकर के
सामने एक होता
है। मालिक के
सामने एक हो
जाता है। जब
आप मालिक के
सामने खड़े
होते है तो जो
पूंछ आपके पास
नहीं है, वह
हिलती रहती
है। और जब आप
नौकर के पास
खड़े होते है
तब जो पूंछ
उसके पास नहीं
है, आप गौर
से देखते रहते
है कि वह हिला
रहा है या नहीं
हिला रहा है।
हिप्पियों
की धारण मुझे
प्रीतिकर
मालूम पड़ती
है। वे कहते
है कि हम सहज
आदमियों की
तरह जीयेंगे।
जैसे हम है।
धोखा न देंगे।
प्रवंचना,
पाखंड,
डिसेप्शन
खड़ा न
करेंगे। ठीक
है, तकलीफ
होगी तो तकलीफ
झेलेंगे।
लेकिन हम जैसे
हम है,
वैसे ही
रहेंगे।
अगर
हिप्पी को
लगता है कि वह
किसी से कहे
कि मुझे आप पर
क्रोध आ रहा
है और गाली
देने का मन
होता है तो वह
आपसे आकर
कहेगा पास में
बैठकर कि मुझे
आप पर बहुत
क्रोध आ रहा
है और मैं आपको
दो गाली देना
चाहता हूं।
मैं
समझता हूं कि
वह बड़ा
मानवीय गुण
है। और वह
क्षमा मांगने
नहीं आयेगा
पीछे, जब तक उसे
लगे न, क्योंकि
वह कहेगा गाली
देने का मेरा
मन था,
मैंने गाली दी
और अब जो भी फल
हो उसे लेने
के लिए मैं
तैयार हूं।
लेकिन गाली
भीतर ऊपर मुस्कराहट
इस बात को
इंकार कर रहा
हूं। लेकिन
हमारी स्थिति
यह है कि भीतर
कुछ है,
बहार कुछ।
भीतर एक नर्क
छिपाये हुए है
हम, बाहर
हम कुछ और हो
गये है। एक
आदमी एक
जीता-जागता
झूठ है।
हिप्पी
का दूसरा
सूत्र यह है
कि हम जैसे है,
वैसे है। हम
कुछ भी रूकावट
न करेंगे,
छिपा वट न
करेंगे।
मेरे
एक मित्र हिप्पियों
के एक छोटे से
गांव में जाकर
कुछ दिन तक रहे
तो मुझसे बोले
कि बहुत बेचैनी
होती है वहां।
क्योंकि
वहां सारे
मुखौटे उखड
जाते है। वहां
बजाय एक युवक
एक युवती के
पास आकर
कविताएं कहे,
प्रेम की और
बातें करे
हजार तरह की, वह उससे
सीधा ही आकर
निवेदन कर
देगा कि मैं
आपको भोगना
चाहता हूं। वह
कहेगा कि इतने
सारे जाल के
पीछे इरादा तो
वही है। उस
इरादे के लिए
इतने जाल
बनाने की कोई
जरूरत नहीं
है। वह कह
सकता है एक
लड़की को जाकर
कि मैं तुम्हारे
साथ बिस्तर
पर सोना चाहता
हूं।
बहुत
घबरानें वाली
बात लगेगी।
लेकिन सारी
बातचीत और
सारी कविता और
सारे संगीत और
सारे प्रेम
चर्चा के बाद
यही घटना अगर
घटने वाली है।
तो हिप्पी
कहता है कि
इसे सीधा ही
निवेदन कर
देना उचित है।
किसी को धोखा
तो न हो, वह
लड़की अगर न
चाहती है सोना, तो कह तो
सकती है कि
क्षमा करो।
एक
जाल सभ्यता
ने खड़ा किया
है, जिसने आदमी
को बिलकुल ही
झूठी इकाई बना
दिया है।
अब
एक पति है,
वह अपनी पत्नी
से रोज कहे जा
रहा है कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता हूं।
और भीतर जानता
है कि यह मैं
क्यों कहा
रहा हूं। एक
पत्नी है,
वह अपने पति
से रोज कहे जा
रही है कि मैं
तुम्हारे
बिना एक क्षण
नहीं जी सकती
और उसी पति के साथ
एक क्षण जीना
मुश्किल हुआ
जा रहा है।
बाप
बेटे से कुछ
कह रहा है। कि
बाप बेटे से
कहा रह है कि
मैं तुम्हें
इसलिए पढ़ा
रहा हूं कि
मैं तुझे बहुत
प्रेम करता
हूं। और वह
पढ़ा इसलिए
रहा है कि बाप
अपढ़ रह गया
है। और उसके
अहंकार की चोट
घाव बन गयी
है। वह अपने
बेटे को पढ़ा
कर अपने
अहंकार की पूर्ति
करना चाहता
है। बाप नहीं
पहुंच पाया
मिनिस्टरी
तक, वह बेटे को
पहुंचाना
चाहता है। पर
वह कहता है बेटे
को मैं बहुत
प्रेम करता
हूं
इसलिए.....लेकिन
उसे पता नहीं
है कि बेटे को
मिनिस्टरी
तक पहुंचाना
बेटे को नर्क
तक पहुंचा
देना है। अगर
प्रेम है तो
कम से कम बाप
एक बात तो न
चाहेगा कि
बेटा
राजनीतिज्ञ
हो जाए।
सारी
दूनिया प्रेम
कर रही है।
लेकिन प्रेम
का कोई विस्फोट
कभी नहीं होता
है। सारी
दूनिया प्रेम
कर रही है और
जब भी विस्फोट
होता है तो
घृणा का होता
है। हिप्पी
कहता है जरूर
हमारा प्रेम
कहीं धोखे का
है। कर रहे है
घृणा कह रहे
है प्रेम।
मैं
एक स्त्री को
कहता
हूं कि मैं
तुझे प्रेम करता
हूं और मेरी
स्त्री जरा
पड़ोस के आदमी
की तरफ गौर से
देख ले तो
सारा प्रेम
विदा हो गया
और तलवार खिंच
गयी। कैसा
प्रेम है। अगर
मैं इस स्त्री
को प्रेम करता
हूं तो ईर्ष्यालु
नहीं हो सकता।
प्रेम में
ईर्ष्या की
कहां जगह है?
लेकिन जिस को
हम प्रेम कहते
है वे सिर्फ
एक दूसरे के
पहरेदार बन
जाते है और
कुछ भी नहीं,और एक दूसरे
के लिए ईर्ष्या
का आधार खोज
लेते है। जलते
है,जलाते
है परेशान
करते है।
हिप्पी
यह कह रहा है
कि बहुत हो
चुकी यह
बेईमानी। अब
हम तो जैसे है,
वैसे है। अगर
प्रेम है तो
कह देंगे कि
प्रेम है और
जिस चुक
जायेगा उस दिन
निवेदन कर
देंगे कि
प्रेम चुक
गया। अब झूठी
बातों में
पड़ने की कोई
जरूरत नहीं है, मैं जाता
हूं।
लेकिन
पुराने प्रेम
की धारणा कहती
है कि प्रेम
होता है तो
फिर कभी नहीं
मिटता, शाश्वत
होता है। हिप्पी
कहता है होता
होगा। अगर
होगा तो कह
दूँगा कि शाश्वत
है, टिका
है। नहीं होगा
तो कह दूँ की
नहीं है।
एक
जाल है जो सभ्यता
ने विकसित
किया है। उस
जाल में आदमी
की गर्दन ऐसे
फंस गई है,
जैसे फांसी लग
गई हो उस जाल
से बगावत है
हिप्पी की।
सहज
जीवन—जैसे
हैं, है।
लेकिन
सहज होना बहुत
कठिन है। सहज
होना सच में
ही बहुत कठिन
बात है। क्योंकि
हम इतने असहज
हो गए है कि
हमने इतनी यात्रा
कर ली है।
अभिनय की कि
वहां लौट
जाना, जहां हमारी
सच्चाई
प्रकट हो
जाये, बहुत
मुश्किल है।
डॉक्टर
पर्ल्स एक मनोवैज्ञानिक
है, जो
हिप्पियों का
गुरु कहा जा
सकता है। एक
महिला गई थी
वहां। मैंने
उससे कहा था
कि जरूर उस
पहाड़ी पर हो
आना, 2-4दिन रूक
जाना। तो जब
वह पर्ल्स के
पास गयी और
वहां का सारा
हिसाब देखा,
वह तो घबरा
गई। बहुत घबरा
गयी, क्योंकि
वहां सहज जीवन
सूत्र है।
सारे लोग बैठे
है और एक आदमी
नंगा चला
आयेगा हाल में
और आकर बैठ
जायेगा। अगर
उसको नंगा होना
ठीक लग रहा है
तो यह उसकी
मरजी है।
इसमें किसी को
कुछ लेना देना
नहीं है। न
कोई हाल में
चीखेगी, न कोई
चिल्लायेगा,
न कोई गौर से
देखेगा, उसे
जैसा ठीक लग रहा
है, उसे वैसा
करने देना है।
और
जो लोग पर्ल्स
के पास महीने
भर रह आते है।
उनकी जिंदगी
में कुछ
नये फूल खिल
जाते है। क्योंकि
पहली दफा वे
हल्के,
पक्षियों की
तरह जी पाते
है। पौधों की
तरह, या जैसे
आकाश में कभी
चील को उड़ते
देखा हो—पंख
भी नहीं
चलाती। पंख भी
बंद हो जाते है।
बस हवा पर
तैरती रहती
है। उसे
पहाड़ी पर पर्ल्स
के पास भी व्यक्ति
हवा में तैर
रहे है। एक
आदमी बहार नाच
रहा है। कोई
गीत गा रहा
है। तो गीत गा
रहा है। कोई
रो रहा है तो
रो रहा है।
कोई रूकावट
नहीं है।
लेकिन
हमने तो आदमी
को सब तरह से
रोक रखा है। बच्चे
को निर्देश
देने से शुरू
हो जाती
है कहानी।
हमारी सारी
शिक्षा–‘डू
नाट’ से शुरू
हो जाती है।
और हर बच्चे
के दिमाग में
हम ज्यादा से
ज्यादा ‘मत
करो’ थोपते
चले जाते है।
अंतत: करने की सारी
क्षमता, सृजन
की सारी
क्षमता,
‘न-करने’ के इस
जाल में लुप्त
हो जाती है।
या तो वह आदमी
चोरी से शुरू
कर देता है,
जो-जो हमने रोका
था, कि यह मत
करो। और या
फिर भीतर
परेशानी में
पड़ जाता है।
दो
ही रास्ते
है, या पाखंडी
हो जाये, या
पागल हो जाये।
अगर
भीतर लड़ा और
अगर सिंसियर
होगा, ईमानदार
होगा तो पागल
हो जायेगा।
अगर होशियार
हुआ, चालाक
हुआ, कौनिंग
हुआ ता पाखंडी
हो जायेगा। एक
दरवाजा मकान
के पीछे से
बना लेगा।
जहां से करने
की दुनिया रहेगी।
एक दरवाजा
बाहर से रहेगा
जहां ‘न करने’
के सारे ‘टेन
कमांडमैंट्स’
लिखे हुए है।
वहां वह सदा
ऐसा
खड़ा होगा कि
यह में नहीं
करता हूं। और
करने की अलग
दुनिया बना
लेगा।
मनुष्य
को खंडित, स्किजोफ्रेनिक
बनाने में,
मनुष्य के मन
को खंड-खंड
करने में सभ्यता
की ‘न करने’ की
शिक्षा ने
बड़ा काम किया
है।
हिप्पी
कह रहा है कि
जो हमें करना
है, वह हम
करेंगे। और
उसके लिए जो
भी हमें भोगना
है, हम भोग
लेंगे। लेकिन
एक बात हम न
करेंगे कि
करें कुछ, और
दिखायें कुछ।
यही बड़ी
बगावत है।
हालांकि
सदा से
साधु-संतों ने
कहा था कि
बाहर और भीतर
एक होना
चाहिए। हिप्पी
भी यही कहते
है। लेकिन एक
बुनियादी
फर्क है।
साधु-संत कहते
है। कि बाहर
और भीतर एक
होना चाहिए।
तब उनका मतलब
है: बाहर जैसे हो
वैसे ही भीतर
होना चाहिए।
हिप्पी जब
कहता है कि
बाहर भीतर एक
होना चाहिए:
तो वह कहता है
कि भीतर जैसे
हो वैसे ही
बाहर भी होना
चाहिए। इन
दोनो में फर्क
है।
साधु
संत जब कहते
है कि बहार
भीतर एक जैसा
होना चाहिए।
तो वह कहते है
कि भीतर का
दरवाजा बंद
करो। हिप्पी
कहता है बहार
भीतर एक होना
चाहिए। तो वह
कहता है: बाहर
जो दस निषेध
आज्ञाओं, टेन
कमांडमैंट्स
की तख्ती लगी
है उसको
उखाड़कर फेंक
दो। और जैसे
भी हो, वैसे हो
जाओ। अगर चोर
हो तो चोर अगर
बेईमान हो तो
बेईमान,
क्रोधी हो तो
क्रोधी। बड़ा
खतरा तो यह है
कि क्रोधी अभिनय
कर रहा अक्रोध
का, हिंसक
अभिनय कर रहा
है अहिंसक का,
कामी अभिनय कर
रहा है
ब्रह्मचर्य
का। और पुरानी
सारी संस्कृतियां
अभिनय को बड़ी
कीमत देती है।
और कुशल अभिनेता
की बड़ी पूजा
हाथी है।
हिप्पी
कह रहा है हम
अभिनय की पूजा
नहीं करते। हम
जीवन के पूजक
है। हिप्पी
यह कह रहा है
कि झूठे
ब्रह्मचर्य
से सच्चा यौन
भी अर्थपूर्ण
है। झूठे
ब्रह्मचर्य
में भी वह
सुगंध नहीं
है, जो सच्चे
यौन में हो
सकती है। सच्चे
ब्रह्मचर्य
की तो बात ही
दूसरी है।
उसकी सुगंध का
हमे क्या पता?
लेकिन सच्चा
यौन न हो तो
सच्चे
ब्रह्मचर्य
की कोई
संभावना ही
नहीं है। अभी
हिप्पी यह
नहीं कह रहे
है, लेकिन
शीध्र ही
जानेंगे तो
कहेंगे। हम
अगर पशु है तो
स्वीकृत है
कि हम पशु है
और हम पशु की
भांति ही जीयेंगे।
तीसरी
बात, जब मैं
सोचता हूं तो
मुझे लगता है
कि अगर खोज की
जाये तो
ईसाईयों की
कहानी के अदम और
ईव हिप्पियों
के आदि पुरूष
कहे जाने
चाहिए। क्योंकि
अदम और ईव को
ईश्वर ने कहा
था कि तुम
ज्ञान के
वृक्ष का फल
मत चखना। उन्होंने
बगावत कर दी
और जिस वृक्ष
का फल नहीं चखने
को कहा था, उसी
का फल चख लिया
और ईड़न के
बग़ीचे से
बहिष्कृत कर
दिये गये।
तीसरा
सूत्र है हिप्पी
का: विद्रोह,
इनकार का
साहस। एक तो
कन्फरमिस्ट
की जिन्दगी
है, ‘हां-हुजूर
की’ ‘यस सर’ की।
वह जो भी कह
रहा है, ‘हां’ कह
रहा है। वह
सदा ‘हां
हुजूर’ कहने
के लिए तैयार
है। उसने चाहे
बात भी ठीक से
नहीं सुनी है,
लेकिन ‘हां
हुजूर’ कहे जा
रहा है। उसे
पता भी नहीं
कि वह किस चीज
में हां भर
रहा है। लेकिन
वह हां भरे
चला जा रहा
है। एक गुरु
एक सीक्रेट
उसे पता है।
जिन्दगी में
जीना हो तो सब
चीज में ‘हां’
कहे चले जाओ।
हिप्पी
कह रहा है जब
तक हम समाज की
हर चीज में
‘हां’ कह रहे है,
तब तक व्यक्ति
का जन्म नहीं
होता। व्यक्ति
का जन्म होता
है ‘नौ से इंग’
से, न कहना
शुरू करने से।
असल
में मनुष्य
की आत्मा ही
तब पैदा होती
है, जब कोई
आदमी ‘नो’ नहीं
कहने की हिम्मत
जुटा लेता है।
जब
कोई कह सकता
है, नहीं, चाहे
दांव पर पूरी
जिंदगी लग
जाती हो। और
जब एक बार
आदमी नहीं,
कहना शुरू कर
दे, ‘नहीं’ कहना
सीख ले, तब
पहली दफा उसके
भीतर इस ‘नहीं’
कहने के कारण,
‘डिनायल’ के कारण
व्यक्ति का
जन्म शुरू
होता है। यह ‘न’
की जो रेखा है,
उसको व्यक्ति
बनाती है।
‘हां’ की रेखा
उसको समूह का
अंग बना देती
है। इसलिए
समूह सदा
आज्ञाकारिता
पर जोर देता
है।
बाप
अपने ‘गोबर
गणेश’ बेटे को
कहेगा कि
आज्ञाकारी
है। क्योंकि
गोबर गणेश
बेटे से न
निकलती ही
नहीं। असल में
‘न’ निकलने के
लिए थोड़ी
बुद्धि
चाहिए। हां
निकलने के लिए
बुद्धि की कोई
जरूरत नहीं है।
हां तो
कम्प्युटराइज्ड
है, वह तो
बुद्धि जितनी
कम होगी, उतनी
जल्दी
निकलता है। न
तो सोच विचार
मांगता है। न
तो तर्क
आर्गुमेंट
मांगता है। न
जब कहेंगे तो
पच्चीस बार
सोचना पड़ता
है। क्योंकि
न कहने पर बात
खत्म नहीं
होती। शुरू
होती है। हां
कहने पर बात खत्म
हो जाती है।
शुरू नहीं
होती।
बुद्धिमान
बेटा होगा तो
बाप को ठीक
नहीं लगेगा,
क्योंकि
बुद्धिमान
बेटा बहुत बार
बाप को निर्बुद्धि
सिद्ध कर
देगा। बहुत
क्षणों में
बाप को ठीक
नहीं लगेगा,
क्योंकि
अपने आप को भी
वह
निर्बुद्धि
मालूम पड़ रहा
है। बड़ी चोट
है, अहंकार
को। वह कठिनाई
में डाल देगा।
इसलिए
हजारों साल से
बाप, पीढ़ी,
समाज ‘हां’
कहने की आदत
डलवा रहा है।
उसको वह
अनुशासन कहे,
आज्ञाकारिता
कहे और कुछ
नाम दे
लेकिन
प्रयोजन एक
है। और वह यह
है कहे
विद्रोह नहीं
होना चाहिए।
बगावती चित
नहीं होना
चाहिए।
हिप्पियों
का तीसरा
सूत्र है कि
अगर चित ही
चाहिए हो तो
सिर्फ बगावती ही
हो सकता है।
अगर आत्मा
चाहिए हो तो
वह ‘रिबैलियस’
ही हो सकती
है। अगर आत्मा
ही न चाहिए तो
बात दूसरी।
कन्फरमिस्ट
के पास कोई
आत्मा नहीं
होती।
यह
ऐसा ही है,
जैसे एक पत्थर
पडा है, सड़क
के किनारे।
सड़क के
किनारे पडा
हुआ पत्थर
मूर्ति नहीं
बनता। मूर्ति
तो तब बनता
है। जब छैनी
और हथौड़ी उस
पर चोट करती
और काटती है।
जब कोई आदमी ‘न’
कहता है। और
बगावत करता
है। तो सारे
प्राणों पर
छैनी और हथौड़ियां
पड़ने लगती
है। सब तरफ से
मूर्ति
निखरना शुरू
होती है।
लेकिन जब कोई पत्थर
कह देता है
‘’हां’’ तो छैनी
हथौड़ी नहीं होती
वहां पैदा। वह
फिर पत्थर ही
रह जाता है।
सड़क के
किनारे पडा
हुआ।
लेकिन
समस्त
सत्ताधिकारी
यों को चाहे
वे पिता हो,
चाहे मां,
चाहे शिक्षक
हो। चाहे बड़ा
भाई हो, चाहे
राजनेता हो,
समस्त
सत्ताधिकारी
यों को
‘’हां-हुजूर’’ की
जमात चाहिए।
हिप्पी
कहते है कि
इससे हम इंकार
करते है। हमें
जो ठीक लगेगा।
वैसा हम
जीयेंगे।
निश्चित ही
तकलीफ है और
इसलिए हिप्पी
भी एक तरह का
संन्यासी
है। असल में
संन्यासी
कभी एक दिन एक
तरह का हिप्पी
ही था, उसने भी
इंकार किया
था, अ-नागरिक
था, समाज छोड़
दिया, चला गया
स्वछंद जीने
की राह पर।
जैसे
महावीर नग्न
खड़े हो गए,
महावीर जिस
दिन बिहार में
नग्न हुए
होंगे। उस दिन
मैं नहीं
समझता कि
पुरानी जमात
ने स्वीकार
किया होगा।
यहां तक बात
चली कि अब
महावीर को
मानने वालों
के दो हिस्से
है। एक तो
कहता है कि
वस्त्र
पहनते थे।
लेकिन वे
अदृश्य वस्त्र
थे, दिखाई
नहीं देते थे।
यह पुराना कन्फरमिस्ट
जो होगा, उसने
आखिर महावीर
को भी वस्त्र
पहना दिये,
लेकिन ऐसे वस्त्र
जो दिखाई नहीं
पड़ रहे है।
इस लिए कुछ
लोगों को भूल
हुई कि वे
नंगे थे। वे
नंगे नहीं थे।
वस्त्र पहने
थे।
जीसस,
बुद्ध, महावीर
जैसे लोग सभी
बगावती है।
असल में मनुष्य
जाति के
इतिहास में
जिनके नाम भी
गौरव से लिये
जा सकें वे सब
बगावती है।.............
दूसरा
सूत्र है—सहज जीवन—जैसे हैं, है।
लेकिन
सहज होना बहुत
कठिन है। सहज
होना सच में
ही बहुत कठिन
बात है। क्योंकि
हम इतने असहज
हो गए है कि
हमने इतनी
यात्रा कर ली
है। अभिनय की कि
वहां लौट जाना, जहां
हमारी सच्चाई
प्रकट हो जाये,
बहुत मुश्किल
है।
डॉक्टर
पर्ल्स एक
मनोवैज्ञानिक
है, जो
हिप्पियों का
गुरु कहा जा सकता
है। एक महिला
गई थी वहां।
मैंने उससे
कहा था कि
जरूर उस
पहाड़ी पर हो आना,
2-4दिन रूक
जाना। तो जब
वह पर्ल्स के
पास गयी और
वहां का सारा
हिसाब देखा, वह तो घबरा
गई। बहुत घबरा
गयी, क्योंकि
वहां सहज जीवन
सूत्र है। सारे
लोग बैठे है
और एक आदमी
नंगा चला
आयेगा हाल में
और आकर बैठ
जायेगा। अगर
उसको नंगा
होना ठीक लग
रहा है तो यह
उसकी मरजी है।
इसमें किसी को
कुछ लेना देना
नहीं है। न
कोई हाल में
चीखेगी, न
कोई चिल्लायेगा,
न कोई गौर
से देखेगा, उसे जैसा
ठीक लग रहा है,
उसे वैसा
करने देना है।
और
जो लोग पर्ल्स
के पास महीने
भर रह आते है।
उनकी जिंदगी
में कुछ नये
फूल खिल जाते
है। क्योंकि
पहली दफा वे
हल्के, पक्षियों की
तरह जी पाते
है। पौधों की
तरह, या
जैसे आकाश में
कभी चील को
उड़ते देखा हो—पंख भी नहीं
चलाती। पंख भी
बंद हो जाते
है। बस हवा पर तैरती
रहती है। उसे
पहाड़ी पर
पर्ल्स के
पास भी व्यक्ति
हवा में तैर
रहे है। एक
आदमी बहार नाच
रहा है। कोई
गीत गा रहा
है। तो गीत गा
रहा है। कोई
रो रहा है तो
रो रहा है।
कोई रूकावट
नहीं है।
लेकिन
हमने तो आदमी
को सब तरह से
रोक रखा है। बच्चे
को निर्देश देने
से शुरू हो
जाती है
कहानी। हमारी
सारी शिक्षा–‘डू नाट’ से शुरू हो जाती
है। और हर बच्चे
के दिमाग में
हम ज्यादा से
ज्यादा ‘मत
करो’ थोपते
चले जाते है।
अंतत: करने की
सारी क्षमता,
सृजन की
सारी क्षमता,
‘न-करने’ के
इस जाल में
लुप्त हो
जाती है। या
तो वह आदमी
चोरी से शुरू
कर देता है, जो-जो हमने
रोका था, कि
यह मत करो। और
या फिर भीतर
परेशानी में
पड़ जाता है।
दो
ही रास्ते है, या
पाखंडी हो
जाये, या
पागल हो जाये।
अगर
भीतर लड़ा और
अगर सिंसियर
होगा, ईमानदार
होगा तो पागल
हो जायेगा।
अगर होशियार
हुआ, चालाक
हुआ, कौनिंग
हुआ ता पाखंडी
हो जायेगा। एक
दरवाजा मकान
के पीछे से
बना लेगा।
जहां से करने
की दुनिया
रहेगी। एक
दरवाजा बाहर
से रहेगा जहां
‘न करने’ के सारे ‘टेन
कमांडमैंट्स’
लिखे हुए
है। वहां वह
सदा ऐसा खड़ा
होगा कि यह
में नहीं करता
हूं। और करने
की अलग दुनिया
बना लेगा।
मनुष्य
को खंडित, स्किजोफ्रेनिक
बनाने में, मनुष्य के
मन को खंड-खंड
करने में सभ्यता
की ‘न करने’
की शिक्षा
ने बड़ा काम
किया है।
हिप्पी
कह रहा है कि
जो हमें करना
है, वह
हम करेंगे। और
उसके लिए जो
भी हमें भोगना
है, हम भोग
लेंगे। लेकिन
एक बात हम न
करेंगे कि करें
कुछ, और
दिखायें कुछ।
यही बड़ी
बगावत है।
हालांकि
सदा से साधु-संतों
ने कहा था कि
बाहर और भीतर
एक होना चाहिए।
हिप्पी भी
यही कहते है।
लेकिन एक
बुनियादी
फर्क है।
साधु-संत कहते
है। कि बाहर
और भीतर एक
होना चाहिए।
तब उनका मतलब
है: बाहर जैसे
हो वैसे ही भीतर
होना चाहिए।
हिप्पी जब
कहता है कि
बाहर भीतर एक
होना चाहिए:
तो वह कहता है
कि भीतर जैसे
हो वैसे ही
बाहर भी होना चाहिए।
इन दोनो में
फर्क है।
साधु
संत जब कहते
है कि बहार
भीतर एक जैसा
होना चाहिए।
तो वह कहते है
कि भीतर का
दरवाजा बंद
करो। हिप्पी
कहता है बहार
भीतर एक होना
चाहिए। तो वह
कहता है: बाहर
जो दस निषेध
आज्ञाओं, टेन
कमांडमैंट्स
की तख्ती लगी
है उसको
उखाड़कर फेंक
दो। और जैसे
भी हो, वैसे
हो जाओ। अगर
चोर हो तो चोर अगर
बेईमान हो तो
बेईमान, क्रोधी
हो तो क्रोधी।
बड़ा खतरा तो
यह है कि क्रोधी
अभिनय कर रहा
अक्रोध का, हिंसक अभिनय
कर रहा है
अहिंसक का, कामी अभिनय
कर रहा है ब्रह्मचर्य
का। और पुरानी
सारी संस्कृतियां
अभिनय को बड़ी
कीमत देती है।
और कुशल
अभिनेता की
बड़ी पूजा हाथी
है।
हिप्पी
कह रहा है हम
अभिनय की पूजा
नहीं करते। हम
जीवन के पूजक
है। हिप्पी
यह कह रहा है
कि झूठे
ब्रह्मचर्य
से सच्चा यौन
भी अर्थपूर्ण
है। झूठे
ब्रह्मचर्य
में भी वह
सुगंध नहीं है, जो सच्चे
यौन में हो
सकती है। सच्चे
ब्रह्मचर्य
की तो बात ही
दूसरी है।
उसकी सुगंध का
हमे क्या पता?
लेकिन सच्चा
यौन न हो तो
सच्चे
ब्रह्मचर्य
की कोई
संभावना ही
नहीं है। अभी
हिप्पी यह
नहीं कह रहे
है, लेकिन
शीध्र ही
जानेंगे तो
कहेंगे। हम
अगर पशु है तो
स्वीकृत है
कि हम पशु है
और हम पशु की
भांति ही जीयेंगे।
तीसरी
बात, जब
मैं सोचता हूं
तो मुझे लगता
है कि अगर खोज
की जाये तो ईसाईयों
की कहानी के
अदम और ईव
हिप्पियों
के आदि पुरूष
कहे जाने
चाहिए। क्योंकि
अदम और ईव को
ईश्वर ने कहा
था कि तुम
ज्ञान के
वृक्ष का फल
मत चखना। उन्होंने
बगावत कर दी
और जिस वृक्ष
का फल नहीं चखने
को कहा था, उसी
का फल चख लिया
और ईड़न के
बग़ीचे से
बहिष्कृत कर
दिये गये।
तीसरा
सूत्र है हिप्पी
का: विद्रोह, इनकार का
साहस। एक तो कन्फरमिस्ट
की जिन्दगी
है, ‘हां-हुजूर
की’ ‘यस सर’ की। वह जो भी
कह रहा है, ‘हां’
कह रहा है।
वह सदा ‘हां
हुजूर’ कहने
के लिए तैयार
है। उसने चाहे
बात भी ठीक से
नहीं सुनी है,
लेकिन ‘हां
हुजूर’ कहे
जा रहा है।
उसे पता भी नहीं
कि वह किस चीज
में हां भर
रहा है। लेकिन
वह हां भरे
चला जा रहा
है। एक गुरु
एक सीक्रेट
उसे पता है।
जिन्दगी में
जीना हो तो सब
चीज में ‘हां’
कहे चले
जाओ।
हिप्पी
कह रहा है जब
तक हम समाज की
हर चीज में ‘हां’ कह
रहे है, तब तक
व्यक्ति का
जन्म नहीं
होता। व्यक्ति
का जन्म होता
है ‘नौ से
इंग’ से, न कहना शुरू
करने से।
असल में
मनुष्य की
आत्मा ही तब
पैदा होती है, जब कोई
आदमी ‘नो’ नहीं कहने
की हिम्मत
जुटा लेता है।
जब
कोई कह सकता
है, नहीं,
चाहे दांव
पर पूरी
जिंदगी लग
जाती हो। और जब
एक बार आदमी
नहीं, कहना
शुरू कर दे, ‘नहीं’ कहना
सीख ले, तब
पहली दफा उसके
भीतर इस ‘नहीं’
कहने के
कारण, ‘डिनायल’
के कारण व्यक्ति
का जन्म शुरू
होता है। यह ‘न’ की जो
रेखा है, उसको
व्यक्ति
बनाती है। ‘हां’ की रेखा
उसको समूह का
अंग बना देती
है। इसलिए समूह
सदा
आज्ञाकारिता
पर जोर देता
है।
बाप
अपने ‘गोबर
गणेश’ बेटे
को कहेगा कि
आज्ञाकारी
है। क्योंकि
गोबर गणेश
बेटे से न
निकलती ही
नहीं। असल में
‘न’ निकलने
के लिए थोड़ी
बुद्धि चाहिए।
हां निकलने के
लिए बुद्धि की
कोई जरूरत
नहीं है। हां
तो कम्प्युटराइज्ड
है, वह तो
बुद्धि जितनी
कम होगी, उतनी
जल्दी
निकलता है। न तो
सोच विचार
मांगता है। न
तो तर्क
आर्गुमेंट मांगता
है। न जब
कहेंगे तो पच्चीस
बार सोचना
पड़ता है। क्योंकि
न कहने पर बात
खत्म नहीं
होती। शुरू होती
है। हां कहने
पर बात खत्म
हो जाती है।
शुरू नहीं
होती।
बुद्धिमान
बेटा होगा तो
बाप को ठीक
नहीं लगेगा, क्योंकि
बुद्धिमान बेटा
बहुत बार बाप
को
निर्बुद्धि
सिद्ध कर
देगा। बहुत
क्षणों में
बाप को ठीक
नहीं लगेगा, क्योंकि
अपने आप को भी
वह
निर्बुद्धि
मालूम पड़ रहा
है। बड़ी चोट
है, अहंकार
को। वह कठिनाई
में डाल देगा।
इसलिए
हजारों साल से
बाप, पीढ़ी,
समाज ‘हां’
कहने की आदत
डलवा रहा है।
उसको वह
अनुशासन कहे,
आज्ञाकारिता
कहे और कुछ
नाम दे लेकिन
प्रयोजन एक है।
और वह यह है
कहे विद्रोह
नहीं होना
चाहिए।
बगावती चित
नहीं होना
चाहिए।
हिप्पियों
का तीसरा
सूत्र है कि
अगर चित ही
चाहिए हो तो
सिर्फ बगावती
ही हो सकता
है। अगर आत्मा
चाहिए हो तो
वह ‘रिबैलियस’
ही हो सकती है।
अगर आत्मा ही
न चाहिए तो
बात दूसरी।
कन्फरमिस्ट
के पास कोई
आत्मा नहीं
होती।
यह ऐसा
ही है, जैसे
एक पत्थर पडा
है, सड़क
के किनारे।
सड़क के किनारे
पडा हुआ पत्थर
मूर्ति नहीं
बनता। मूर्ति
तो तब बनता
है। जब छैनी
और हथौड़ी उस
पर चोट करती
और काटती है।
जब कोई आदमी ‘न’ कहता
है। और बगावत करता
है। तो सारे
प्राणों पर
छैनी और
हथौड़ियां
पड़ने लगती
है। सब तरफ से मूर्ति
निखरना शुरू
होती है।
लेकिन जब कोई
पत्थर कह
देता है ‘’हां’’
तो छैनी
हथौड़ी नहीं
होती वहां
पैदा। वह फिर
पत्थर ही रह
जाता है। सड़क
के किनारे पडा
हुआ।
लेकिन
समस्त
सत्ताधिकारी
यों को चाहे
वे पिता हो, चाहे मां,
चाहे शिक्षक
हो। चाहे बड़ा
भाई हो, चाहे
राजनेता हो, समस्त
सत्ताधिकारी
यों को ‘’हां-हुजूर’’
की जमात
चाहिए।
हिप्पी
कहते है कि
इससे हम इंकार
करते है। हमें
जो ठीक लगेगा।
वैसा हम
जीयेंगे।
निश्चित ही
तकलीफ है और इसलिए
हिप्पी भी एक
तरह का संन्यासी
है। असल में
संन्यासी
कभी एक दिन एक
तरह का हिप्पी
ही था, उसने
भी इंकार किया
था, अ-नागरिक
था, समाज
छोड़ दिया, चला गया स्वछंद
जीने की राह
पर।
जैसे
महावीर नग्न
खड़े हो गए, महावीर
जिस दिन बिहार
में नग्न हुए
होंगे। उस दिन
मैं नहीं
समझता कि
पुरानी जमात
ने स्वीकार
किया होगा।
यहां तक बात
चली कि अब
महावीर को
मानने वालों
के दो हिस्से
है। एक तो
कहता है कि
वस्त्र
पहनते थे।
लेकिन वे
अदृश्य वस्त्र
थे, दिखाई
नहीं देते थे।
यह पुराना कन्फरमिस्ट
जो होगा, उसने
आखिर महावीर
को भी वस्त्र
पहना दिये, लेकिन ऐसे
वस्त्र जो
दिखाई नहीं
पड़ रहे है।
इस लिए कुछ
लोगों को भूल
हुई कि वे
नंगे थे। वे
नंगे नहीं थे।
वस्त्र पहने
थे।
जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे
लोग सभी
बगावती है।
असल में मनुष्य
जाति के
इतिहास में
जिनके नाम भी
गौरव से लिये
जा सकें वे सब
बगावती है।
और कृष्ण
से बड़ा-महा
हिप्पी
खोजना तो
असंभव ही है।
इसलिए कृष्ण
को मानने वाल
कृष्ण को
काट-काटकर स्वीकार
करता है। अगर
सूरदास के पास
जायें तो वे
कृष्ण को बच्चे
से ऊपर बढ़ने
ही नहीं देते।
क्योंकि बच्चे
के ऊपर बढ़कर
वह जो उपद्रव
करेगा, वह सूरदास
की पकड़ के
बाहर है। तो
बालकृष्ण को
ही वे स्वीकार
कर सकते है, छोटे बच्चे
को। तब उसकी
चोरी भी
निर्दोष हो
जाती है। लेकिन
सूरदास सोच ही
नहीं सकते कि
उनका कृष्ण
रास रचा सकता
है। गोपियों
से प्रेम कर
सकता है।
नहाती हुई स्त्रियों
के कपड़े लेकर
वृक्ष पर चढ़
कर कहता है।
हाथ उठाओं।
फिर पूराना
कन्फरमिस्ट
जब आयेगा व्याख्या
करने तो वह
कहेगा वे
गोपियां नही
है। गोपी का
मतलब होता है
इंद्रियां।
तो इंद्रियों
को निवारण
करने वे वृक्ष
पर चढ़ गये
है। किसी स्त्री
को निवारण
करके नहीं।
कन्फरमिस्ट
बार-बार लौटकर
विद्रोहो को
भी अपने कैंप
में खड़ा कर लेता
है। इसलिए
जीसस को सूली
देनी पड़ती
है। लेकिन दो
चार सौ वर्ष
बाद जीसस भी
उसी कतार में
सम्मिलित हो
जाते है। अब
कभी हमने नहीं
सोचा कि जीसस
को सूली देने
का कारण क्या
था?
जीसस
को सूली देने
का कारण बड़ा
अजीब था। बड़े
से बड़े
कारणों में एक
तो यह था कि गैर-पारंपरिक, नान-कन्फरमिस्ट
थे। वे अंध-स्वीकारी
नहीं थे। वे
इंकार करने
वाल व्यक्ति
थे। लोगों ने
कहां वह मेग्दलीन
वेश्या के, उसके घर में
मत ठहरो। तो
जीसस ने कहा, मैं भी अगर
वैश्या के घर
में नहीं
ठहरूंगा तो
फिर कौन
ठहरेगा?
इसलिए
जानकर हैरानी
होगी कि जिस
दिन जीसस को सूली
हुई, उस
सूली के पास
ने तो जीसस को
कोई अनुयायी
था, न कोई
शिष्य था।
उसकी सूली के
पास जीसस के
बुद्धिमान
शिष्यों में
से कोई भी न
था। जीसस के
पास सिर्फ दो
औरते थी। एक
तो वह वेश्या
थी, जो
उनकी फांसी का
कारण थी। सूली
से जिसने लाश को
उतारा वह मेग्दलीन
थी।
तो
जीसस को स्वीकार
करना उस समाज
के लिए असंभव
रहा होगा। इसलिए
जीसस को जब
सूली दी तो दो
चोरों के बीच
में सूली दी।
दो तरफ दो चोर
लटकाये, बीच में
जीसस को
लटकाया। और
जनता में से
लोगों ने यह
भी चील्लाकर
कहा कि इन
चोरों को क्यों
मार रहे हो।
लेकिन किसी ने
यह न कहा कि
जीसस का क्यों
मार रहे हो।
फिर हम सब
साफ-सुथरा कर
लेते है।
बग़ावत
आत्मा का जन्म
है।
हिप्पी
विद्रोह को जी
रहा है।
इस
संबंध में एक
बात और मुझे
कह लेने जैसी
है कि हिप्पी
क्रांतिकारी, रिव्योल्यूशनरी
नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस
है।
क्रांतिकारी
नहीं है—बगावती
है। विद्रोहो
है।
और
क्रांति और
बगावत के फर्क
को थोड़ा समझ
लेना उपयोगी
है। असल में
हजारों साल
में कितनी ही क्रांतियां
हो चुकीं, लेकिन सब
क्रांतियां
असफल हो गयीं।
हिप्पी का
कहना है, सब
क्रांतियां
असफल हो गयीं,
क्योंकि
क्रांति सफल
हो ही नहीं
सकती है। सफल
हो सकता है, केवल
अनियोजित
विद्रोह। 1917 की
क्रांति असफल
हो गयी, क्योंकि
एक जार को
मारा और दूसरा
जार उसकी जगह
बैठ गया।
सिर्फ नाम बदल
गया है।
स्टैलिन हो
गया उसका नाम।
वह दूसरा जार
है। किसी जार
ने इतने आदमी
न मारे थे।
स्टेलिन
ने अपनी
जिंदगी में एक
करोड़ लोगों की
हत्या की, किसी जार
ने अथवा सब
जारों ने
मिलकर भी इतने
आदमी नहीं
मारे थे! तो
बड़ी कठिन बात
है कि क्रांति
भी होती है तो
फिर उसके ऊपर
एक जार बैठ
जाता है। नाम
बदल जाता है, झंडा बदल
जाता है, बैठने
वाले नहीं
बदलते। वही
चंगेज, वही
तैमूर, फिर
वापिस बैठ
जाता है।
हिटलर
सोशलिस्ट था।
उनकी पार्टी
का नाम था 'नेशनलिस्ट
सोशलिस्ट
पार्टी',राष्ट्रीयवादी
समाजवादी दल!
किसने सोचा था
कि हिटलर यह
करेगा, जो
उसने किया।
क्रांतियां
जब सफल होती
हैं, तब
पता चलता है
कि सब व्यर्थ
हो गया। जब तक
सफल नहीं
होतीं, तब
तक तो लगता है
बहुत कुछ हो
रहा है। फिर
एकदम व्यर्थ
हो जाती हैं।
हमारे
ही देश में
क्रांति हुई
और 1947 के बाद
हमने सोचा, आजादी आ
जायेगी। फिर 1947
के बाद भी हम
सोच ही रहे
हैं कि 22 साल हो
गये, अभी
तक आई नहीं? कब आयेगी? हां, फर्क
हो गया है।
सफेद चमड़ी के
मालिक बदल गये,
उनकी जगह
काली चमड़ी के
लोग बैठ गये।
काली चमड़ी
वालों को भी
लगा कि सफेद
चमड़ी होनी चाहिए।
चमड़ी तो सफेद
करना बहुत
मुश्किल थी, कपड़े उसने
सफेद कर लिए।
बस इतना फर्क
हो गया। अंग्रेजों
ने जितनी
गोलियां नहीं
चलायी इस देश
में, इन्हें
जिनको हम अपने
ही आदमी कहें,
उन्होंने
चलायी। कभी
अगर इतिहास
पूछेगा तो वह
पूछ सकेगा कि
गुलाम कौम पर
इतनी गोलियां
नहीं चलानी
पड़ी, आजाद
होने के बाद
इतनी गोलियां
अपने ही लोगों
पर चलानी पड़ीं,
यह बात क्या
है? हो
क्या गया है!
कोई
क्रांति सफल
नहीं हो पायी, न होने का
कारण है। एक
तो यह कि
क्रांति के
उपकरण बड़े गैर-क्रांतिकारी
होते हैं, बड़े
दकियानूसी
होते हैं।
दूसरा
यह कि क्रांति
वस्तुत:
प्रतिक्रियाअक, रिक्ष्मानरी
होती है। उनके
प्राण उसी में
होते हैं, जिससे
कि वह लड़ती है।
फिर इसलिए
शत्रु के मरते
ही उसके होने
का भी कोई
कारण नहीं रह
जाता है।
क्रांति की
सफलता ही
मृत्यु बन
जाती है।
हिप्पी
का खयाल यह है
कि क्रांति
इसलिए भी सफल
नहीं होती कि
क्रांति पुन:
समाज को ही
केंद्र मानकर
चलती है। वह
कहती है, समाज बदले।
विद्रोह
व्यक्ति को
केंद्र मानता
है, क्रांति
समाज को
केंद्र मानती
है।
क्रांति
कहती है, समाज बदले।
हिप्पी
कहता है भाड़
में जाये
तुम्हारा
पूरा समाज, मैं
बदलता हूं।
मैं तुम्हारे
समाज के लिए
नहीं रुला।
मैं अकेला बदल
जाता हूं।
इसलिए हिप्पी
व्यक्तिगत
विद्रोही है।
और
मेरी समझ में
यह बात भी बड़ी
कीमती है, क्योंकि
सब
क्रांतियां
सफल हो गयीं, फिर भी हम
नयी
क्रांतियों
की बात सोचते
चले जाते हैं।
असल में
क्रांति करने
में जो इलजाम
करना पडता है,
वह क्रांति
की ही हत्या
कर देता है।
पहले तो
क्रांति करने
के लिए संगठन
बनाना पडता है
और जैसे ही
संगठन बनता है
तो संगठन के
अपने नियम हैं।
वह संगठन किसी
का भी हो-जब
संगठन बनता है
और कोई विचार
इंस्टीट्यूशन
बनता है, तब
सब रोग वापस
लौट आते हैं।
जो रोग पुराने
संगठन में थे,
वे पुराने
संगठन की वजह
न थे। संगठन
के कारण कुछ
रोग अनिवार्य
हैं।
संगठन
होगा तो कोई
पद पर होगा, मालिक
होगा, कोई
अधिनायक, डिक्टेटर
होगा। कोई आशा
चलायेगा।
संगठन होगा तो
कुछ थोड़े से
लोग
शक्तिशाली हो
जायेंगे।
संगठन होगा तो
धन इकट्ठा
होगा। संगठन
होगा तो भीड़
इकट्ठी होगी।
और ध्यान रहे
भीड़ सदा
परम्परानुगत,
कन्फरमिस्ट
है। भीड़ सदा 'हां-हुजूर'
है।
हिप्पी
यह कहता है कि
अब क्रांति से
नहीं होगा, अब तो
विद्रोह करना
पड़ेगा।
विद्रोह
का मतलब है कि
जिसे लगता है
गलत है, वह तत्काल
गलत से विदा
हो जाये।
उनका
एक शब्द है 'ड्रापिंग
आउट'। वे
कहते हैं
रास्ते पर भीड़
चली जा रही है,
हम कोई
आग्रह नहीं करते
कि सारी भीड़
को बदलेंगे।
हमें लगता है
कि गलत है यह
भीड़, गलत
है यह रास्ता,
'वी जस्ट
ड्राप आउट', हम रास्ता छोड़कर
नीचे उतर जाते
हैं। हम कहते
हैं, 'नमस्कार,
तुम जाओ। '
यह
धारणा बड़ी नयी
है, व्यक्तिगत
विद्रोह की।
बड़ी सबल भी है,
क्योंकि
शायद किसी
क्रांतिकारी
ने इतना दांव
नहीं लगाया।
वे कहते हैं, सब बदलेंगे।
तो एक
कम्युनिस्ट
भी करोड़पति हो
सकता है। कोई
कठिनाई नहीं
है। वह कहता
है जब समाज
बदलेगा, जब
सबकी संपत्ति
बटेगी तो मेरी
भी बंट जायेगी।
लेकिन जब तक.
सबकी नहीं
बंटी, तब
तक मुझे क्यों
बांटने की
फिकर करना है।
लेकिन हिप्पी
कहता है, सम्पत्ति
अगर रोग है तो
मैं तो बाहर
हुआ जाता हूं।
फिर जब समाज
बदलेगा, बदलेगा।
लेकिन फिर तुम
मुझे
जिम्मेदार न
ठहरा सकोगे।
अगर
वियतनाम में
गलत युद्ध हो
रहा है तो
क्रांतिकारी
कहेगा कि
आन्दोलन चलाओ, हड़ताल
करो, घेराव
करो। हिप्पी
कहता है सब घेराव
करो, सब
हड़ताल करो, सब आंदोलन
चलाओ। लेकिन
चलाने में
हिंसा चाहिए,
घेराव करने
में हिंसा
चाहिए। और अगर
जीत गये तुम
किसी दिन तो
जीतते-जीतते इतने
हिंसक हो
जाओगे कि
वियतनाम की
जगह दूसरा वियतनाम
तुम चला दोगे।
हिप्पी कहता
है कि हमको
लगता है कि
गलत है वियतनाम,
हम युद्ध पर
जाने से
इन्कार करते
हैं। तुम हमें
गोली मार दो, हम ये बैठे
हैं, हम
नहीं जायेंगे।
व्यक्तिगत
विद्रोह-पहली
दफा निपट एक
व्यक्ति साहस
कर रहा है कि
सारा समाज गलत
लगता है तो हम
बाहर हो जायें।
वह यह नहीं कह
रहा कि समाज
के विवाह के
नियम बदलेंगे, तब हम सुधरेंगे।
वह यह कह रहा
है, हमने
बदल दिये हैं
नियम अपने लिए।
अब जो तकलीफ
होगी, वह
हम सह लेंगे।
अब
हिप्पी ऐसी
लड़कियों के
साथ रह रहा है
जिससे वह
विवाहित नहीं
है। हिप्पी
लड़कियां ऐसे
युवकों के साथ
रह रही हैं, जिनसे
उनका कोई
विवाह नहीं
हुआ।
क्योंकि
हिप्पी कहता है
कि विवाह जो
है, वह 'लीगलाइब्द
प्रॉस्टीट्यूशन'
है। समाज के
द्वारा
आदेशित, लाइसेस्ट
वेश्यागिरी
है।
समाज
लाइसेंस देता
है दो आदमियों
के लिए कि अब
हम तुम्हारे
बीच में बाधा
नहीं बनेंगे।
लाइसेंस देने
की कई तरकीबें
है। कहीं सात
चक्कर लगा कर
लाइसेंस देता
है, कहीं
माला पहनवा कर
देता है, कहीं
दफ्तर में
रजिस्टर पर
दस्तखत
करवाकर देता
है। वे
विधियां तो
गैर-महत्वपूर्ण,
नॉन-एसेन्यिायल
हैं।
महत्वपूर्ण
यह है कि समाज
एक लाइसेंस
देता है कि अब
इन दो आदमियों
के बीच जो यौन
संबंध होंगे,
उनमें हम
बाधा न देंगे।
हिप्पी
यह कहता है कि
मेरा प्रेम
मेरी निजी बात
है। और जिससे
मेरा प्रेम है, यह दो
व्यक्तियों
की बात है, इसमें
हमें समाज से
स्वीकृति का
सवाल कहां है।
इसमें पूरे
समाज का संबंध
कहां है? यह
पूरा समाज
हमारे प्रेम
तक पर भी काबू
रखने की कोशिश
क्यों करता है?
यह हमें
स्वतंत्र व्यक्ति
बिल्कुल
नहीं रहने
देना चाहता।
प्रेम पर भी
इसका काबू
होना चहिए।
लेकिन
वह तकलीफें
झेल रहा हैं।
क्योंकि
बच्चा हो
जायेगा
हिप्पी लड़की
को, स्कूल
में भरती करने
जायेगी तो
वहां शिक्षक
पूछता है, इसके
बाप का नाम? तो हिप्पी
लड़की
लिखवाती है कि
नहीं, इसका
कोई बाप नहीं है?
मां ही है।
बड़ी तकलीफ है,
जिस गांव
में एक लड़की
यह कह सकती हो
कि इसका बाप
नहीं है, सिर्फ
मां दे। आप
अगर बिना बाप
के नाम लिख
सकते हों तो
ठीक।
मुझे
उपनिषद की एक
कहानी याद आती
है, सत्यकाम
जाबाल की।
वक्त बदल जाता
है इसलिए हम
कहानी 'तो
बढ़िया रूप दे
देते हैं।
सत्यकाम गुरु
के आश्रम गया
तो पूछा, तेरे
पिता का नाम
क्या है? तो
वह वापिस लौटा।
उसने अपनी मां
को कहा कि
मेरे पिता का
नाम क्या है? तो उसकी मां
ने कहा, जब
मैं युवा थी
और तेरा जन्म हुआ
तो बहुत लोगों
की मैं सेवा
करती थी। कौन
तेरा पिता है,
मुझे पता
नहीं। तो तू
जा वापस। अपने
गुरु को कह
देना सत्यकाम
मेरा नाम है, जाबाल मेरी
मां का नाम है,
इसलिए
सत्यकाम
जाबाल आप मुझे
कह सकते हैं।
और मेरी मां
ने कहा है कि
जब वह युवा थी
तो बहुत लोगों
के सम्पर्क
में आयी। पता
नहीं पिता कौन
है।
सत्यकाम
वापस गया उसने
गुरु से कहा कि
मेरी मां ने
कहा है कि जब
मैं युवा थी, तब बहुत
लोगों के
सम्पर्क में
आयी, पता
नहीं कि तेरा
पिता कौन है।
इतना ही उसने
कहा कि मेरा
नाम सत्यकाम
है और मां का
नाम जाबाल है
इसलिए आप मुझे
सत्यकाम जाबाल
कह सकते हैं।
मैंने
तो सुना है, कोई कह
रहा था कि
जबलपुर जाबाल
के नाम पर ही
निर्मित है।
पता नहीं मुझे,
मुझे कोई कह
रहा था, हो
सकता है।
लेकिन
गुरु ने कहा
कि तब तुझे
मैं ले लेता
हूं क्योंकि
मैं मान लेता
हूं कि तू
निश्रित ही ब्राह्मण
है, क्योंकि
इतना सत्य
सिर्फ
ब्राह्मण ही
बोल सकता है।
इतना सत्य
तेरी मां ने
बोला कि मुझे
पता नहीं बहुत
लोगों के
सम्पर्क में
आयी, पता
नहीं कौन पिता
था। इतना सत्य
सिर्फ
ब्राह्मण ही
बोल सकता है।
हिप्पी
एक अर्थ में
ब्राह्मण है।
इस अर्थ में
ब्राह्मण है
कि जीवन का जो
सत्य है, जैसा है, वह
वैसा बोल रहा
है, कह रहा
है। ये तीन
बातें।
और
चौथी अन्तिम बात।
फिर मेरी
दृष्टि क्या
है हिप्पी के
बाबत, वह
मैं आपको कहूं।
चौथी बात।
मनुष्य
ने इतनी
सम्पत्ति, इतनी
सुविधा, इतनी
सामग्री पैदा
की है, लेकिन
किसी गहरे
अर्थ में
मनुष्य भीतर
दरिद्र हो गया
है, चेतना
संकुचित हो
गयी है।
तो
हिप्पी का
चौथा सूत्र है, चेतना का विस्तार,
एक्सपान्शन
ऑफ कान्शसनेस।
वह यह कह रहा
है कि हम अपनी
चेतना को कैसे
फैलायें। तो
चेतना फैलाने
के लिए वह सब
तरह के प्रयोग
कर रहा है।
गांजा, अफीम,
भांग, हशीश,
एल एस डी, मेस्केलिन,
मारीजुआना,योग-ध्यान, वह यह सब कर
रहा है कि
चेतना कैसे
फैले, संकुचित
चेतना का
विस्तार कैसे
उपलब्ध हो
जाये। तो
केमिकल
ड्रग्स का भी
उपयोग कर रहा
है। एल एस डी, मेस्केलीन,
जिनके
द्वारा थोड़ी
देर के लिए
चित्त नये लोक
में प्रवेश कर
जाता है।
कानून
विरोध में है, क्योंकि
कानून तो हर
नई चीज के
विरोध में है।
क्योंकि
कानून तो बनता
है कभी और युग
बदल जाता है।
कानून तो
विरोध में है।
कानून तो एल
एस डी को पाप
मानता है। मैं
नहीं समझ पा
रहा हूं। एल
एस डी और
मेस्केलीन
में बड़ी
संभावनाएं
हैं। इस बात
की बहुत
संभावनाएं
हैं कि ये
दोनों चीजें
मनुष्य की
चेतना को नये
दर्शन कराने
में सफल रूप
से प्रयुक्त की
जा सकती हैं।
ऐसा मैं नहीं
मानता हूं कि
इनके द्वारा
कोई समाधि को
उपलब्ध हो
जायेगा, लेकिन
समाधि की एक
झलक मिल सकती
है। और झलक ?? जाये तो
समाधि की
प्यास पैदा हो
जाती है। आज
तो पश्चिम
में योग और
ध्यान के लिए
इतना आकर्षण
है, उसके
बहुत गहरे में
एल एस डी है।
लाखों लोग एल
एस डी लेकर
देख रहे हैं।
जब
कोई आदमी एल
एस डी की एक
टिकिया लेता
है तो कई
घंटों के लिए
उसकी सारी
दुनिया बदल
जाती है। जैसे
'ब्लेक'
की कविता हम
पढ़ें तो ऐसा
लगता है कि
ब्लेक कुछ ऐसे
रंग जानता है,
जो हम नहीं
जानते। उसे
फूल कुछ ऐसा
दिखायी देता
पड़ता है, जैसा
हमें दिखाई
नहीं पडता।
लेकिन
एल एस डी लेकर
हम भी वही जान
पाते हैं।
पत्ते-पत्ते
रंगीन हो जाते
हैं फूल-फूल
अदभुत हो जाता
है। एक आदमी
की आख में
इतनी गहराई
दिखाई पड़ने
लगती है, जितनी कभी
नहीं दिखाई
पड़ी। एक
साधारण-सी
कुर्सी भी एक
जीवंत अर्थ ले
लेती हैं।
थोड़ी देर के
लिए जगत और
ढंग का दिखाई
पड़ने लगता है।
जैसे कि बिजली
चमक जाये
अंधेरी रात
में, और एक
सेकेंड को
वृक्ष दिखाई
पड़े, फूल
दिखाई पड़े, रास्ता
दिखाई पड़े।
बिजली तो गयी
तो फिर अंधेरा
भर गया, लेकिन
अब हम वही
आदमी नहीं हो
सकते, जो
बिजली के पहले
है।
इन
साइकेडेलिक
ड्रग्स का, इन
रासायनिक
तत्वों का
हिप्पी बड़े
पैमाने पर प्रयोग
कर रहे हैं।
मेरी समझ में
सोमरस इससे
भिन्न बात न
थी। अस्तुअस
हक्सले ने तो
एक किताब लिखी
है। तो उसमें
सन 2000 वर्ष के
बाद जो विकसित
साइकेडेलिक
ड्रग, रासायनिक
द्रव्य होगा
उसका नाम ही
सीमा दिया है,
सोमरस के
आधार पर ही।
और एल
एस डी और
मेस्केलीन
जिन्होंने
लिया है तो
पहली दफा उनको
खयाल आया कि
वैदिक ऋषियों
को देवी-देवता
एकदम जमीन पर
चलते-चलते नजर
क्यों आते थे।
वे हमको भी आ
सकते हैं।
भांग में कुछ
थोड़ी-सी बात
है, बहुत
ज्यादा नहीं,
बहुत थोड़ी।
लेकिन भांग के
पीछे थोड़ा-सा 'हैंग ओवर' होता है। एल
एस डी का कोई 'हैंग ओवर' नहीं है।
गांजे में कुछ
थोडी बात है, लेकिन बहुत
ज्यादा नहीं।
हजारों साल से
साधु, भांग,
गांजा, अफीम
का उपयोग करते
रहे हैं। वह
अकारण नहीं है।
और इधर जितनी
खोज होती है, उससे कुछ
हैरानी के
तथ्य सामने
आते हैं।
अगर
एक आदमी बहुत
देर तक उपवास
करे तो भी
शरीर में जो
फर्क होते हैं, वे
केमिकल हैं।
अब ऊपर से
देखने में लगता
है कि महावीर
तो गांजे के
बिल्कुल
खिलाफ हैं।
लेकिन उपवास
के बहुत पक्ष
में हैं।
हालांकि
उपवास से भी 30
दिन भूखा रहने
से शरीर में
जो फर्क होंगे,
वे केमिकल
हैं। कोई फर्क
नहीं है।
प्राणायम
से भी जो फर्क
होते हैं, वे
केमिकल हैं।
अगर एक आदमी
विशेष विधि से
श्वास लेता है
तो आक्सीजन की
मात्रा के
अन्तर पड़ने
शुरू हो जाते हैं।
ज्यादा
ऑक्सीजन कुछ
तत्वों को जला
देती है, कुछ
तत्वों ही बचा
लेती है। भीतर
जो फर्क होते
हैं, वे
केमिकल हैं।
हिप्पी
यह कह रहा है
कि अब तक की
जितनी साधना पद्धतियां
हैं, वे
किसी न किसी
रूप में
केमिकल फर्क
ही ला रही हैं।
तो केमिकल
फर्क एक गोली
से भी लाया जा
सकता है। चौथा जो
हिप्पी का जोर
है, जिसकी
वजह से वह
परेशानी में पड़ा
हुआ है, वह
इन ड्रग्स के
कारण है।
कानून इनके
खिलाफ है।
कानून
उन्होंने
बनाया था, जिनको
एल एस डी का
कुछ भी पता
नहीं था।
डा.
लियरी एक
अदभुत आदमी
हैं इस दिशा
में, जिस
आदमी ने इधर
बहुत काम किया
कि ड्रग्स
कैसे मनुष्य
को समाधि तक
पहुंचा सकते
हैं।
और
जिन लोगों ने
एक बार इस तरह
का प्रयोग
किया है, वे आदमी और
ही तरह के हो
गये, उनकी
जिन्दगी और ही
तरह की हो
जाती है। जैसे
हम जीते हैं
एक तनाव में, जैसे ही कोई
इस तरह के
ड्रग्स लेता
है तो सारा मन
रलेक्स्ड, विश्रामपूर्ण
हो जाता है।
जीते हैं फिर
आप तनाव में
नहीं, अभी
और यहां।
हिप्पीज का जो
शब्द है उसके
लिए, वह है,
'टर्निंग आन'
-कोई एक
टर्न है, मोड़
है, दरवाजा
है, जो एक
गोली देने से
आपके लिए खुल
जाता है। जैसे
'ड्रापिंग
आफ', रास्ते
के किनारे उतर
जाना; ऐसे
ही 'टर्निंग
आन ' जहां
हम हैं, वहां
से कहीं और
मुड़ जाना-उस दुनिया
में, उस
आयाम, डायमेशन
में जिसका
हमें कोई पता
नहीं है।
रासायनिक
प्रयोग के
द्वारा
मनुष्य की
चेतना विस्तीर्ण
हो सकती है और
सौंदर्यबोध, एस्थेटिक से
भर सकती है।
इस
दिशा में डा.
लियरी बड़े
गहरे प्रयोग
कर रहे हैं।
छोटी-छोटी
उनकी जमातें
बनी हुई
हैं-जंगलों में, पहाड़ों में,
गांवों के
बाहर। पुलिस
उनका पीछा कर
रही है।
उन्हें उखाड़
रही है।
केवल
अमेरिका में
दो लाख हिप्पी
हैं। और यह तो
ठीक गणना की
संख्या है।
लेकिन बहुत-से
लोग जो
पीरियाडिकल, सावधिक
हिप्पी हो
जाते हैं-कोई
दो चार महीने
के लिए; फिर
वापिस दुनिया
में लौट आते
हैं, उनकी
संख्या भी बड़ी
है। बहुत से
सेंटर्स हैं,
जहां बैठकर
इन सबका
प्रयोग चल रहा
है। जहां बिल्कुल
ही ठीक
सायंटीफिक
निरीक्षण में
लोग एल एस डी और
ये सारी चीजें
ले रहे हैं।
एल्डुअस
हक्सले ने एक
किताब लिखी है, 'डोर्स ऑफ
परसेपान्स'। उस किताब
में उसने कहा
है कि कबीर और
नानक को जो
हुआ, मैं
अब जानता हूं
कि क्या हुआ।
एल एस डी लेने
के बाद हक्सले
को लगता है कि
क्या दुआ!
क्योंकि जिस
तरह की बातें
वे कह रहे हैं कि
अनहद नाद बज
रहा है और
अमृत की वर्षा
हो रही है और
आकाश में बादल
ही बादल घिरे
हैं और अमृत
ही अमृत बरस
रहा है और
कबीर नाच रहे
हैं। अब यह जो
हम कविता में
पढ़कर समझने की
कोशिश करते
हैं, लेकिन
न तो कभी कोई
बादल दिखाई पड़ते
हैं, जिनमें
अमृत भरा हो।
न कभी अमृत
बरसता दिखाई
पड़ता है, न
कोई अनहद नाद
सुनाई पड़ता है।
लेकिन
एल एस डी लेने
पर ऐसी ध्वनियां
सुनाई पड़नी
शुरू होती हैं, जो कभी
नहीं सुनी
गयीं। और ऐसी
बरखा शुरू हो
जाती है, जो
कभी नहीं हुई।
और इतना मन
हल्का और नया
हो जाता है, जैसा कभी न
था।
चौथी
बात, हिप्पीज
को जो नवीनतम
है वह है, 'एक्सपांशन
आफ
कान्दासनेस
भू ड्रग्स', रासायनिक
द्रव्यों
द्वारा चेतना
का विस्तार।
ये चार सूत्र
मैं मौलिक
मानता हूं।
मेरी
क्या
प्रतिक्रिया
है, वह
मैं संक्षेप
में कहूं।
हिप्पियों
ने छोटी-छोटी
कयून बना रखी
हैं। वे कयून
वैकल्पिक
समाज, आलरनेट
सोसायटी हैं।
वे कहते हैं, एक समाज
तुम्हारा है 'हां-हुजूरों'
का, वियतनाम
में लड़ने वालों
का, कश्मीर
किसका है यह
दावा करने
वालों का। और
एक हमारा है, जिनका कोई
दावा नहीं है।
जिनका
वियतनाम में
किसी से कोई
संघर्ष नहीं,
कश्मीर में
जिनका कोई
झगड़ा नहीं
राजधानियों में
जाने की जिनकी
कोई इच्छा
नहीं।
एक
समाज
तुम्हारा है, जिसमें
तुम कहते हो
कि भविष्य में
सब कुछ होगा।
एक हमारा है
जो कहते हैं, अभी और यहीं,
जो होना है
वह हो। एक
आलरनेट
सोसायटी, एक
वैकल्पिक
समाज है
हिप्पियों का।
तो इस समाज से
जो ऊब गये, घबड़ा
गये, परेशान
हो गये, वे
उस समाज में
प्रवेश कर
जाते हैं।
हिप्पी
अभी और
यहीं-सदा
आनन्द में है।
जो कहता है
इसी वक्त आनंद
में हूं और कल
की चिन्ता नहीं
करता।
हिप्पियों
के विद्रोह के
संबंध में
मेरी पहली
दृष्टि तो यह
है-पीछे से
शुरू करूं, साइकेडेलिक
ड्रग्स
से-निश्रय ही
रासायनिक तत्वों
के द्वारा झलक
पायी जा सकती
है, लेकिन
सिर्फ झलक, अवस्था नहीं।
महावीर
या कबीर या
बुद्ध के पास
जो है, वह
अवस्था है, झलक नहीं।
लेकिन
झलक भी कीमती
चीज है। झलक
को अवस्था समझ
लेना भूल है।
तो हिप्पियों
से यहां मेरा
फर्क है। वे
झलक को अवस्था
समझ रहे हैं!
झलक सिर्फ झलक
है। और झलक
किसी गोली पर
निर्भर है, वह
व्यक्ति को
रूपांतरित, ट्रांसफार्म
नहीं कर पाती।
गोली के असर
के बाद आदमी
वहीं का वहीं
होता है।
लेकिन
बुद्ध दूसरे
आदमी हैं। उस
अनुभव के बाद
वे दूसरे आदमी
हैं। सत्य की, ब्रह्म
की, आत्मा
की, मोक्ष
की, निर्वाण
की प्रतीति के
बाद आदमी
दूसरा आदमी है,
पहला आदमी
मर गया। यह
दूसरा जन्म हुआ
उसका, वह
द्विज हुआ। यह
दूसरा ही आदमी
है। यह वही
आदमी नहीं है।
लेकिन
ड्रग्स के
द्वारा जो झलक
मिलती है, वह झलक ही
है अवस्था
नहीं है।
हिप्पी इतना
तो ठीक कहते
हैं कि यह झलक
कीमती है। और
जिन्हें नहीं
मिली उन्हें
मिल जाए तो
शायद वह अनुभव,
अवस्था की
भी तलाश करें।
जैसे यहां मैं
बैठा हूं।
लंदन मैं नहीं
गया हूं
न्यूयार्क
मैं नहीं गया
हूं; लेकिन
एक फिल्म यहां
बनाई जा सकती
है, जिसमें
मैं लंदन को
देख लूं।
लेकिन यह मेरा
लंदन में होना
नहीं है।
हालांकि
फिल्म को
देखकर -लंदन
में होने का
खयाल पैदा हो
सकता है। एक
यात्रा शुरू
हो सकती है।
ड्रग्स
यात्रा के
पहले बिन्दु
पर उपयोगी हो
सकते हैं।
इससे मैं
हिप्पियों से
राजी हूं। और
हिप्पी
विरोधियों के
विरोध में हूं
जो कहते हैं
ड्रग्स का कोई
उपयोग नहीं, कोई अर्थ
नहीं। दूसरी
बात में मैं
हिप्पी
विरोधियों से
राजी हूं
क्योंकि यह
अवस्था नहीं
है। और
हिप्पियों के
विरोध में हूं
क्योंकि उन्होंने
अगर झलक को
अवस्था समझा
और बाहर से
आरोपित, फोर्स्ट
केमिकल
प्रभाव को
उन्होंने
समझा कि मेरी
आत्मा नयी हो
गयी तो वे
निश्रित ही
भूल में पड़े
जा रहे हैं
शराबी
सदा से इसी
भूल में है।
इस भूल के मैं
विरोध में हूं।
लेकिन यह मुझे
लगता है कि
आने वाले
मनुष्य के लिए
साइक्खैलिक
ड्रग्स का
बहुत कीमती
उपयोग किया जा
सकता है।
दूसरी
बात। हिप्पी
क्रांति के
विरोध में हैं, विद्रोह
के पक्ष में।
लेकिन मजा यह
है कि जितने
हिप्पी गये छोड़कर
समाज को उनका
भी पैटर्न, ढांचा बन
गया है। अगर
आप बाल काटकर
हिप्पियों
में पहुंच
जायें तो
हिप्पी आपको
ऐसे गुस्से से
देखेंगे, जैसे
गुस्से से बाल
बड़े आदमी कौ
समाज देखता है!
अगर आप हिप्पी
समाज में कहें
कि संभोग से
समाधि की ओरा मैं
रोज स्नान
करूंगा तो आप
उसी क्रोध से
देखे जायेंगे,
जिस तरह से
किसी
ब्राह्मण के
घर में ठहरा
हूं और कहूं
कि आज खान न
करूंगा। ऐसा
यह जो विद्रोह
है, वह
विद्रोह
रिएक्शनरी, प्रतिक्रियाअक
है।
हिप्पी
स्नान नहीं
करता। महावीर
को मानने वाले
मनुष्यों को
बड़ा प्रसन्न
हो जाना चाहिए।
वे भी स्नान
नहीं करते।
हिप्पी गंदगी
को ओढ़ता है।
क्योंकि वह
कहता है, जैसा मैं
हूं हूं। अगर
मेरे पसीने में
बदबू आती है
तो मैं सुगंध
परफ्यूम न
डालूंगा। आने
दो पसीने में
बदबू। पसीने
में बदबू है।
यह बिल्कुल
ठीक है। लेकिन
यह
प्रतिक्रिया
अगर है तो
खतरनाक है।
माना कि पसीने
में बदबू है, लेकिन
परफ्यूम से
बदबू मिटाई जा
सकती है। और
दूसरे आदमी को
बदबू झेलने के
लिए मजबूर
करना, दूसरे
की सीमाओं का
अनधिकृत
अतिक्रमण, ट्रेसपास
दै। मेरे
पसीने में
बदबू है, मैं
मजे से अपने
पसीने में
रहूं। लेकिन
जब भी दूसरा
आदमी मेरे
पड़ोस में है, तो उसको 'भी
मेरी बदबू
झेलने के लिए
मजबूर करना, तो हिंसा
शुरू हो गयी।
यानी उसकी
स्वतंत्रता
में बाधा
डालना शुरू हो
गया।
एक्
घटना मैंने
कहीं सुनी है
कि
रवीन्द्रनाथ के
पास गांधीजी
मेहमान थे।
सांझ को जा
रहे थे दोनों
घूमने तो
रवीन्द्रनाथ
ने कहा, मैं जरा
तैयार हो लूं।
पर उन्हें
तैयार होने
में बहुत देर
लगी। गांधीजी
को तैयार होने
की बात में ही
हैरानी थी।
फिर देर होते
देख उन्होंने
झांककर भीतर
देखा तो पाया
कि
रवीन्द्रनाथ
आदम कद आइने
के सामने खड़े
स्वयं को
सजाने में लीन
हैं! गांधीजी
ने कहा, यह
क्या कर रहे
हैं, और इस
उम्र में! तो
कवि ने कहा, 'जब उम्र कम
थी, तब तो
बिना सजे भी
चला जाता था, अब नहीं
चलता है। और
मैं किसी को
कुरूप दिलू तो
लगता है कि
उसके साथ
हिंसा कर रहा
हूं। '
मैं
मानता हूं कि
रिक्ष्मानरी
कभी भी ठीक
अर्थों में
रिबेलियस
नहीं हो पाता
है। प्रतिक्रियावादी
जो सिर्फ
प्रतिक्रिया
कर रहा है, वह समाज
से उलटा हो
जाता है। तुम
ऐसे कपड़े
पहनते हो, हम
ऐसे पहनेंगे।
तुम स्वच्छता
से रहते हो, हम गंदगी से
रहेंगे। तुम
ऐसे हो, हम
उलटे चले
जायेंगे।
लेकिन उलटा
जाना विद्रोह
नहीं है, प्रतिक्रिया
है। मैं मानता
हूं, विद्रोह
की बड़ी कीमत
है। लेकिन
हिप्पी
प्रतिक्रिया
में पड़ गया है।
प्रतिक्रिया
की कोई कीमत
नहीं है।
विद्रोह तो एक
मूल्य है, लेकिन
प्रतिक्रिया
एक रोग है।
और
ध्यान रहे
प्रतिक्रियावादी
हमेशा उससे बंधा
रहता है, जिसकी वह
प्रतिक्रिया
कर रहा है। अब
ऐसा जरूरी
नहीं है, कि
एक आदमी नंगा
आकर इस कमरे
में बैठे तो
वह सहज ही हो।
यह भी हो सकता
है कि वह
सिर्फ कपड़े
पहनने वाले लोगों
की
प्रतिक्रिया
में इधर नंगा
आकर बैठ गया
हो, सहज बिल्कुल
न हो। सहजता
का तो मूल्य
है, लेकिन
असहजता कपड़े
पहनने में हो
ही नहीं सकती,
ऐसा कौन कह
सकता है।
प्रतिक्रिया
पकड़ रही है।
प्रतिक्रिया
के परिणाम
खतरनाक हैं और
प्रतिक्रिया
ज्यादा
स्थायी नहीं
होती, सिर्फ
संक्रमण की
बात होती है।
इसलिए धीरे-
धीरे
प्रतिक्रिया
भी सेटल, व्यवस्थित
होती जा रही
है।
हिप्पियों का
भी एक समाज बन
गया, उसके
भी नियम और
कानून बन गये।
उनकी भी
आर्थोडाक्सी
बन गयी है!
उनका भी पुरोहित,
पंडित, नेता
सब हो गया है!
वहां भी आप
जायें तो आप
जैसे हैं, वे
आपको बेचैनी
देना शुरू कर
देंगे।
अभी
मैं एक घटना
पढ़ रहा था। एक
अमेरिकन
पत्रकार
महिला
हिप्पियों का
अध्ययन करने
बहुत से समाजों
मैं गई। वह एक
समाज में गई
है, वहां
भोजन चल रहा
है हिप्पियों
का, तो
उन्होंने
चम्मचें नहीं
ली है।
हिन्दुस्तान में
क्या करेंगे?
अगर हिप्पी
आयें तो बडा
मुश्किल
पड़ेगा।
अमेरिका में
तो हाथ से
खाना बगावत है।
हिन्दुस्तान
में चम्मच से
खाना भी बगावत
हो सकता है।
हाथ
से ही भोजन खा
रहे हैं वे!
हाथ से खाने
की आदत भी
नहीं है तो सब
गंदे हाथ हो
गये हैं। और
इकट्ठा भोजन
रखा हुआ है, वह सब
गंदा हो गया
है! और इस तरह
भोजन खा रहे
हैं! अब यह जो
महिला
पत्रकार है यह
अपनी चम्मच
उठाती है तो
किसी ने उसकी
चम्मच छीन ली।
और उसका हाथ
भोजन में डाल
दिया है। अब
वह बहुत घबड़ा
गयी तै। लेकिन
वहां यही नियम
है! अगर वह
महिला हां भरती
है तो मैं
कहता हूं अब
वह महिला फिर
कन्फरमिस्ट
हो गयी है।
उसे इंकार
करना चाहिए।
लेकिन वहां
इंकार करना
मुश्किल है।
वहां
एक हिप्पी ने
एक स्त्री का
ब्लाऊज फाड़
डाला है। उसके
ऊपर उसने सब
खाना डाल दिया
और उसके शरीर से
चाट रहा है।
अब यह सब
प्रतिक्रियाएं
हो गयीं। यह
पागलपन हो गया।
हां, किसी
प्रेम के क्षण
में किसी सी
के शरीर का स्वाद
भी अर्थपूर्ण
हो सकता है।
वह अनिवार्यत:
अनर्थ नहीं है।
लेकिन बस किसी
क्षण में।
लेकिन किसी स्त्री
के शरीर पर
शोरवा डालकर,
उसे चाटकर
तो वे सिर्फ
मुंह दिखा रहे
हैं तुम्हारे
समाज को; वे
यह कह रहे हैं
कि क्या तुम
समझते हो हमें।
गिन्सबर्ग
हिप्पी कवि है।
एक छोटी-सी 'पोयट्स
गेदरिग', कवि
सम्मेलन में
बोल रहा है।
साहस पर कोई
कविता बोल रहा
है। और उसमें
अश्लील
शब्दों का
प्रयोग कर रहा
है। एक आदमी
ने खड़े होकर
कहा कि इसमें
कौन सा साहस है-इस
गाली-गलौज का
उपयोग करने
में। तो
गिन्सबर्ग ने
उत्तर में कहा,
फिर साहस
देखोगे? असली
साहस दिखलाये?
उस आदमी ने
कहा, दिखलाओ।
तो उसने पैंट
खोल दिया और
वह नंगा खडा
हो गया! और
उसने उस आदमी
से कहा कि तुम
भी नंगे खड़े
हो जाओ, अगर
साहसी हो तो।
लेकिन नंगे
खड़े होने में
कौन सा साहस
है? नंगे
खड़े होने में
साहस है, ऐसा
कहने वाला
आदमी नंगा खड़ा
होने से डरा
हुआ होना
चाहिए।
अन्यथा साहस
दिखाना न पड़े!
मेरे
एक शिक्षक थे
हाईस्कूल में।
उनको जब भी
मौका मिल जाये, वे अपनी
बहादुरी की
बात कहे बिना
नहीं रहते थे
कि मैं अकेला
ही मरघट चला
जाता हूं।
अंधेरी रात
में, और बिल्कुल
अकेले। मैंने
एक दिन उनसे
कहा कि आप ऐसी
बातें न किया करें।
लड़कों को शक
होता है कि आप
कुछ डरपोक
आदमी हैं। इन
बातों का क्या
बहादुर आदमी
भी कहेगा? मैं
अकेला ही
अंधेरी रात
में चला जाता
हूं यह तो
सिर्फ भयभीत
आदमी ही कह
सकता है।
जिसको भय नहीं
है, उसको
पता ही नहीं
चलता कि कब
अंधेरी रात है
और कब सूरज
निकला। वह बस
चला जाता है
और हिसाब नहीं
रखता!
पीछे
गिन्सबर्ग
मुझे कभी मिले
तो उससे मैं
कहना चाहूंगा
कि तुमने
बहादुरी नहीं बताई, तुमने
सिर्फ मुंह
बिचकाया। वह
आदमी कपड़े
पहने हुए है, तुमने कपड़े
निकाल दिए, कुछ बहादुरी
न हो गई। और
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
कल पांच सौ
आदमी नंगे
बैठे हों और
मैं कपड़े पहने
पहुंच जाऊँ।
और मैं कहूं
कि मैं बहादुर
हूं। क्योंकि
मैं कपड़े पहने
हूं। तब भी
कोई कठिनाई
नहीं है।
मैंने
एक घटना सुनी
है-नैतिक साहस, मॉरल
करेज की।
मैंने सुना है
एक स्कूल में
एक पादरी
नैतिक साहस, मॉरल करेज
क्या है, यह
समझा रहा है।
उसने कहा कि 30
बच्चे पिकनिक
पर गए हैं। वे
दिन भर में थक
गए, फिर
सांझ को आकर
उन्होंने
भोजन किया। 29
बच्चे तो
तत्काल अपने
बिस्तर में
चले गए, एक
बच्चा ठंडी
रात थका—मादा, उसके
बाद भी घुटने
टेक कर उसने
प्रार्थना
की। उस पादरी
ने कहा इस
बच्चे में 'मॉरल करेज' है, इसमें
नैतिक साहस
है। रात कह
रही है सो जाओ,
ठंड कह रही
है सो जाओ, थकान
कह रही है सो
जाओ। 29 लड़के
कंबलों के
भीतर हो गए
हैं और एक
लडका बैठकर
रात की आखिरी
प्रार्थना कर
रहा है।
महीने
भर बाद वह
वापस लौटा।
उसने कहा, नैतिक
साहस पर मैंने
तुम्हें कुछ
सिखाया था। तुम्हें
कुछ याद हो तो
मुझे तुम कुछ
घटना बताओ। एक
लड़के ने कहा, मैं भी आपको
एक काल्पनिक
घटना बताता
हूं। आप जैसे 30
पादरी पिकनिक
पर गए। दिन भर
थके, भूखे—प्यासे
वापस लौटे। २९
पादरी
प्रार्थना करने
लगे, एक
पादरी कंबल
ओढ़कर सो गया।
तो हम उसको
नैतिक साहस
कहते हैं।
जहां 29 पादरी
प्रार्थना कर
रहे हों और
एक—एक की
आंखें कह रही
हों कि नर्क
जाओगे, अगर
प्रार्थना न
की; वहां
एक पादरी कंबल
ओढ़कर सो जाता
है।
लेकिन
नैतिक साहस का
क्या मतलब
इतना ही है कि जो
सब कर रहे हों, उससे
विपरीत करना
नैतिक साहस हो
जायेगा? सिर्फ
विपरीत होना
साहस हो
जायेगा? नहीं,
विपरीत
होने से साहस
नहीं हो जाता।
विपरीत होना
जरूरी रूप से
सही होना नहीं
है।
और
अक्सर तो यह
होता है कि
गलत के विपरीत
जब कोई होता
है,
तब दूसरी
गलती करता है
और कुछ भी
नहीं करता। अक्सर
दो गलतियों के
बीच में वह
जगह होती है, जहां सही
होता है। एक
गलती से आदमी
पेंडुलम की
तरह दूसरी
गलती पर चला
जाता है। बीच
में ठहरना बड़ा
मुश्किल होता
है।
मुझे
लगता है, हिप्पी
जिसे विद्रोह
कह रहे हैं वह
विद्रोह तो
है—होना चाहिए
वैसा विद्रोह,
लेकिन वह
प्रतिक्रिगा
ज्यादा है। और
प्रतिक्रिया
से मेरा विरोध
है।
एक
रिबेलियस, विद्रोही
आदमी बहुत और
तरह का आदमी
है। एक विद्रोही
आदमी इसलिए 'नहीं' नहीं
कहता कि नहीं
कहना चाहिए.।
अगर नहीं कहना
चाहिए, इसलिए
कोई नहीं कहता
है तो यह 'हां—हुजूरी'
है। इसमें
कोई फर्क न
हुआ। वह 'नहीं'
इसलिए कहता
है कि उसे
लगता है कि
नहीं कहना उचित
है। और अगर
उसे लगता है
कि 'हां' कहना उचित
है तो दस हजार 'नहीं' कहने
वालों के बीच
में भी वह 'हां'
कहेगा, यानी
वह सोचेगा।
मेरा
कहना यह है कि
विद्रोह
अनिवार्य रूप
से विवेक है
और
प्रतिक्रिया
अविवेक है।
तो
हिप्पी
विद्रोह की
बात करके
प्रतिक्रिया की
तरफ चला जाता
है। वहां सब
बातें व्यर्थ
हो जाती हैं।
दूसरी
बात मैंने कही
कि हिप्पी कह
रहा है. सहज
जीवन। लेकिन
सहज जीवन क्या
है?
जो मेरे
लिये सहज है, वह जरूरी
नहीं है कि
आपके लिए भी
सहज हो। जो आपके
लिए सहज है, वह मेरे लिए
जरूरी नहीं है
कि सहज हो। जो
एक के लिए जहर
हो, वह
दूसरे के लिए
अमृत हो सकता
है। असल में
एक—एक व्यक्ति
का अपना— अपना
होने का यही
अर्थ है।
लेकिन हिप्पी
कह रहा है कि
सहज जीवन, और
सहज जीवन के
भी नियम बनाये
ले रहा है! वह
कह रहा है सहज
जीवन यही है, जहां पाखाना
किया है, उसी
के बगल में
बैठकर खाना खा
लो!
हमारे
मुल्क ने भी
परमहंस पैदा
किये हैं। उनका
भी सहज जीवन
यही था कि
पाखाना पड़ा है, वहीं
बैठकर खाना खा
लेते। लेकिन
एक के लिए यह सहज
हो सकता है।
और दूसरे के
लिए यह बहुत
असहज हो सकता
है कि पाखाना
पडा हो वहां
और वह खाना खाये।
सहज जीवन का
कोई नियम नहीं
हो सकता।
लेकिन
हिप्पियों ने
भी नियम बना
लिए हैं—कितना
लम्बा बाल
होना चाहिए, किस
कट का कोट
होना चाहिए!
किस छींट की
कमीज होनी
चाहिए, पैंट
की मोरी कितनी
संकरी होनी
चाहिए! जूते
कैसे होने
चाहिए, चाल
कैसी होनी
चाहिए! गले
में
हिन्दुस्तान
की एक
रुद्राक्ष की
एक माला भी
होनी चाहिए!
उसके भी नियम,
उसकी भी
सारी
व्यवस्था हो
गयी है! असल
में आदमी कुछ
ऐसा है कि वह
व्यवस्था के
बाहर हो ही
नहीं पाता।
इधर से
व्यवस्था
तोड़ता है, उधर
से व्यवस्था
बना लेता है।
यहां मैं
हिप्पियों से
राजी नहीं
हूं।
मैं
मानता हूं कि
एक सहज दूनिया
सब तरह के लोग को
स्वीकार
करेगी। यानी
वह इस आदमी को
भी स्वीकार
करेगी, जिसको
हम समझते हों
कि सहज नहीं
है। लेकिन
उसके लिए वह
सहज होना हो
सकता है। सबका
स्वीकार ही
सहजता का आधार
बन सकता है।
लेकिन
हिप्पी के लिए
सब स्वीकार
नहीं है। वह दूसरों
को ऐसे ही
देखता है, जैसे
कि दूसरे उसको
देखते हैं।
कंडेमनेशन से,
निन्दा की
नजर से। दूसरे
लोगों को वह कहता
है 'स्कवॉयर',
चौखटे लोग।
वह स्वयं भर
स्कवॉयर नहीं
है। बाकी
जितने लोग हैं,
वे चौखटे
हैं—जों दफ्तर
जा रहे हैं, स्कूल में
पढ़ा रहे हैं, दुकान कर
रहे हैं, पति
हैं, पिता
हैं। लेकिन
किसी के लिए
पति होना उतना
ही सहज हो
सकता है, जितना
किसी के लिए
प्रेमी होना।
और किसी के
लिए एक ही सी
जीवन भर के
लिए सहज हो सकती
है, जितना
किसी अन्य का
स्त्री को
बदल लेना।
लेकिन हिप्पी
यदि कहे कि सी
का बदलना ही
सहज है, तब
फिर दूसरी अति
पर वही भूल
शुरू हो गयी।
इसलिए मैं इस
सूत्र में भी
उनसे राजी
नहीं हूं। मैं
राजी हूं कि
प्रत्येक व्यक्ति
का अंगीकार
होना जरूरी
है।
और
अंतिम बात। जब
कोई वादों को
भी जानकर और
चेष्टा से
विरोध करता है, तब
चाहे वह कितना
ही कहे कि वाद
नहीं है, वाद
बनना शुरू हो
जाता है।
जिसको हम
अ—कविता कहते
हैं, वह भी
कविता ही बन
जाती है।
जिसको जापान
में अ—नाटक, 'नो ड्रामा' कहा जाता है,
वह भी
ड्रामा है। और
जिसको हम
अ—वाद कहते
हैं, वह भी
नये तरह का
वाद हो जाता
है। असल में
मनुष्य जब तक
वाद का विरोध
भी करेगा तो
भी वाद निर्मित
हो जायेगा।
अगर अ—वादी
किसी को होना
है तो उसे तो
मौन ही होना
पड़ेगा। उसे
वाद के विरोध
का भी उपाय
है। इसलिए अ—वादी
तो दूनिया में
सिर्फ वे ही
लोग थे, जो
चुप ही रह
गये। क्योंकि
बोले तो वाद
बन जाये।
अब
नागार्जुन है, वह
सारे वादों का
खंडन करता है।
कोई उससे पूछे
कि तुम्हारा
वाद क्या है
तो वह कहता है,
मेरा कोई
वाद नहीं है।
वह सबका खण्डन
करता है और
उसका अपना कोई
वाद नहीं है।
लेकिन तब सबका
खंडन करना भी
वाद बन सकता
है।
असल
में
एंटी—फिलासफी
भी फिलासफी ही
है। नान—फिलासफिक
होना बहुत
मुश्किल है।
एंटी—फिलासफिक
होना बहुत
आसान है।
दर्शन के
विरोध में होने
में कठिनाई
नहीं है।
क्योंकि एक
दर्शन विकसित
हो जायेगा, जो
दर्शन का विरोध
करेगा। लेकिन
नान—फिलासफिक
होना—दर्शन के
ऊपर चले जाना,
बियांड—पार
चले जाना तो
सिर्फ
मिस्टिक के
लिए संभव है, रहस्यवादी
के लिए संभव
है, संत के
लिए सं० है।
जो कहता है, सत्य के, सिद्धान्त
के, वाद के
पार। इतना ही
नहीं, वह
कहता है
बुद्धि के पार,
विचार के
पार, मन के
पार, जहां
मैं ही नहीं
हूं वहां। जब
सबके पार जो
शेष रह जाता
है, वही
है। लेकिन उसे
तो कैसे कहें।
अ हिप्पी वहां
नहीं पहुंचा,
लेकिन कभी
पहुंच सकता
है।
फिर
हिप्पी बड़ी
जमात है।
उसमें वर्ग भी
हैं। अगर हमें
रास्ते में एक
पीत
वस्त्रधारी
भिक्षु मिल
जाये तो उसे देखकर
बुद्ध को नहीं
तौलना चाहिए।
काशी में जो
हिप्पी भीख
मांग रहा है
सड़क पर, उसे
देखकर डा.
तिमोती लियरी
को या डा.
पर्ल्स को
नहीं तौलना
चाहिये। वे
बड़े अद्भुत
लोग हैं।
लेकिन सभी
वर्ग के लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं।
हिप्पियों
का एक श्रेष्ठ
वर्ग निश्चित
ही पार जा रहा
है। और इस बात
की संभावना है
कि पश्चिम
में
मिस्टिसिज्य
का जन्म
हिप्पियों का
जो श्रेष्ठतम
वर्ग है, उससे
पैदा होगा। एक
नये
वैज्ञानिक
युग में भी, बुद्धि को
आग्रह करने
वाले युग में
भी, बुद्धि—अतीत
की ओर इशारा
करने वाला एक
वर्ग पैदा
होगा।
लेकिन
ये दो चार
हिप्पियों की
बात है। बाकी
जो बड़ा समूह
है,
वह भीड़— भाड़
है। वह सिर्फ
घर से भागे
हुए छोकरों का
समूह है। कोई
पढ़ना नहीं
चाहता है, कोई
बाप से क्रोध
में है। कोई
किसी लड़की से
विवाह करना
चाहता है। कोई
गांजा पीना
चाहता है। कोई
कैसे भी रहना
चाहता है। कोई
सुबह दस बजे
तक सोना चाहता
है। इन सारे
लोगों का समूह
है। इसलिए मैं
दो बातें अंत
में कह दूं।
एक यह
कि हिप्पी में
जो श्रेष्ठतम
फूल हैं, उनसे
तो मुझे आशा
बंधती है कि
उनसे एक नये
तरह के
मिस्टिसिज्य,
एक नये तरह
के रहस्य का
जन्म होगा।
लेकिन
हिप्पियों
में जो नीचे
का वर्ग है, उनसे
कोई आशा नहीं
बंधती। वे
सिर्फ
घर—भगोड़े हैं।
हिप्पी शब्द
भी 'हिप'
से ही बनता
है, अर्थात
पीठ दिखाकर
भाग जाने
वाले। ऐसे
भगोड़े थोड़े
दिन में वापिस
भी लौट जाते
हैं। वे घर लौट
जायेंगे ही।
इसलिए
आपको 35 साल से
ऊपर का हिप्पी
मुश्किल से
मिलेगा,नीचे
का ही मिलेगा।
अधिकतर तो टीन
एजर्स, उन्नीस
वर्ष के भीतर
के हैं।
क्योंकि जैसे
ही उनको एक
बच्चा हुआ और
प्रेम हो गया
एक सी से कि घर
बनाने का सवाल
शुरू हो जाता
है। फिर
उन्हें नौकरी
चाहिए। फिर वे
वापस लौट आते
हैं। स्कवॉयर
लोगों की
दुनिया में, चौखटे लोगों
की दूनिया में
वे फिर वापस आ
जाते हैं। फिर
किसी दफ्तर
में नौकरी।
फिर घर है, फिर
गृहस्थी है, फिर सब चलने
लगता है।
लेकिन
ऐसा मैं जरूर
सोचता हूं कि
हिप्पियों ने
एक सवाल खड़ा
किया है सारी
मनुष्य
संस्कृति पर
और उस सवाल के
उत्तर में
भविष्य के लिए
बड़े संकेत हो
सकते हैं।
इसलिए सोचने
योग्य है
हमारे लिए
बहुत।
हिन्दुस्तान
तो अभी हिप्पी
नहीं पैदा कर
सकता।
गरीब
कौम हिप्पी
पैदा नहीं
करती।
समृद्धि ही हिप्पी
पैदा करती है।
गौतम
बुद्ध राजा के
बेटे है।
महावीर राजा
के बेटे हैं।
जैनियों के सब
तीर्थंकर
राजाओं के बेटे
हैं। राम, कृष्ण,
सब राजाओं
के बेटे हैं।
जहां सब मिल
जाता है, वहां
से बगावती और
आगे जाने वाला
आदमी पैदा होता
है।
हिप्पी
का अभी यहां
भारत में सवाल
नहीं है। अभी
हम हिप्पी भी
पैदा करेंगे
तो वह सिर्फ
बाल बढ़ाने
वाला आदमी
होगा और कुछ
भी नहीं। उसको
कहो कि एक
आदमी दस हजार
रुपये दे रहा है, लड़की
की शादी के
लिए तो वह
कहेगा, फिर
घोड़ा कहां है!
गरीब
कौम हिप्पी
पैदा नहीं कर
सकती, समृद्ध
कौम ही कर
सकती है। असल
में इसका मतलब
यह हुआ कि 'वी
केन नाट अफर्ड'—यह हमारे
लिए महंगा
सौदा है। यह
दुखद है। यह सुखद
नहीं है। हम
अभी हिप्पी
पैदा नहीं कर
सकते, यह
बड़े दुख की
बात है। हम
गरीब हैं
बहुत। अभी हम
उस जगह नहीं
हैं, जहां
कि हमारे लड़के
कुछ भी न करें,
तो जी सकें।
अगर दो
लाख आदमी बिना
कुछ किये जी
रहे हैं, तो
उसका मतलब है
कि समाज
समृद्ध, एस्थूअंट
है, समाज
में बहुत पैसा
है। एक हिप्पी
है, वह दो
दिन काम कर
आता है गांव
में, और
महीने भर के
लिए कमा है।
वह 28 दिन पड़ा
रहता है, एक
वृक्ष के नीचे
ढोल बजाता
रहता है। हरि
भजन करता रहता
है। हरि
कीर्तन करता
रहता है।
गरीब
कौम ऐसा
विद्रोह नहीं
पैदा कर सकती।
लेकिन सदा के
लिए तो हम
गरीब नहीं
रहेंगे।
इसलिए छात्रों
ने आकर कहा कि हिप्पियों
पर कुछ कहें
तो मैंने कहा
अच्छा है, आज
नहीं कल
हिप्पी हम भी
तो पैदा
करेंगे ही। तो
उसके पहले साफ
हो जाना
चाहिये कि
हिप्पी याने
क्या?
वैसे
इस देश ने
अपनी समृद्धि
के दिनों में
बहुत तरह के
हिप्पी पैदा
किए। जिनका
पश्चिम को
कुछ पता भी
नहीं
गिन्सबर्ग जब
काशी आया तो
एक संन्यासी
से उसको
मिलाने ले गए।
उस संन्यासी
से जब कहा गया
कि '?
हिप्पी है
तो वह
संन्यासी खूब
हंसा और उसने
कहा, तुम
तो सिर्फ
हिप्पी हो, हम
महाहिप्पी
हैं। हम
काशीवासी हैं
और काशी है
नामी
महाहिप्पी
भगवान शंकर की
भूमि। शंकर जैसे
परम
स्वतन्त्र व्यक्तित्व
भारत ने कभी
पैदा किए थे।
लेकिन वह समृद्ध
दिनों की
पुरानी
याददाश्त है।
भविष्य में हम
फिर कभी
हिप्पी पैदा
कर सकते हैं।
लेकिन
सोचना तो बहुत
जरूरी है। और
सोचकर यह देखना
जरूरी है कि
हिप्पियों की
इस घटना में
क्या मूल्यवान
घटित हो रहा
है मनुष्य की
चेतना के लिए।
मनुष्य—चेतना
क्रांति के एक
कगार पर खड़ी
है और एक
निर्णायक
छलांग अति
निकट है।
बाह्य
विस्तार अब
सार्थक नहीं
है। अंतस विस्तार
की खोज बेचैनी
से चल रही है
अनेक आयामों में।
स्वयं
की भावी चेतना
को खोज रहा
है। सुबह होने
के पहले
अंधेरा भी
निश्चित ही
गहन हो गया है, लेकिन
'स्वर्ण—प्रभात
की योजना भी
मिल रही है।
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