ओम् साध्य है, साधन नहीं—(प्रवचन—सौहलवां)
(दसवीं प्रश्नोत्तर चर्चा)
प्रश्न: ओशो कल सातवें शरीर के संदर्भ में ओम् पर कुछ आपने बातें की। इसी संबंध में एक छोटा सा प्रश्न यह है कि अर ऊ और म के कंपन किन चक्रों को प्रभावित करते हैं और उनका साधक के लिए उपयोग क्या हो सकता है? इन चक्रों के प्रभाव से सातवें चक्र का क्या संबंध है?
ओम् के
संबंध में
थोड़ी सी बातें
कल मैंने आपसे
कहीं। उस
संबंध में
थोड़ी सी और
बातें जानने
जैसी हैं। एक
तो यह कि ओम्
सातवीं
अवस्था का
प्रतीक है, सूचक
है, वह
उसकी खबर
देनेवाला है।
ओम् प्रतीक है
सातवीं
अवस्था का।
सातवीं
अवस्था किसी
भी शब्द से
नहीं कही जा सकती।
कोई सार्थक
शब्द उस संबंध
में उपयोग
नहीं किया जा
सकता। इसलिए
एक निरर्थक
शब्द खोजा गया,
जिसमें कोई
अर्थ नहीं है।
यह मैंने कल
आपसे कहा। इस
शब्द की खोज
भी चौथे शरीर
के अनुभव पर
हुई है। यह
शब्द भी
साधारण खोज
नहीं है।
असल
में,
जब चित्त सब
भांति शून्य
हो जाता है—कोई
विचार नहीं
होते, कोई
शब्द नहीं
होते—तब भी
शून्य की
ध्वनि शेष
होती है।
शून्य भी
बोलता है, शून्य
का भी अपना
सन्नाटा है।
अगर कभी
बिलकुल सूनी
जगह में आप
खड़े हो गए हों—जहां
कोई आवाज नहीं,
कोई ध्वनि
नहीं—तों वहा
शून्य की भी
एक ध्वनि है, वहां शून्य
का भी एक
सन्नाटा है।
उस सन्नाटे में, जो मूल ध्वनियां हैं, वे ही केवल शेष रह जाती हैं। अ, ऊ, म—ए, यू एम मूल ध्वनियां हैं। हमारा सारा ध्वनि का विस्तार उन तीन ध्वनियों के ही नये—नये संबंधों और जोड़ों से हुआ है। जब सारे शब्द खो जाते हैं, तब ध्वनि शेष रह जाती है।
उस सन्नाटे में, जो मूल ध्वनियां हैं, वे ही केवल शेष रह जाती हैं। अ, ऊ, म—ए, यू एम मूल ध्वनियां हैं। हमारा सारा ध्वनि का विस्तार उन तीन ध्वनियों के ही नये—नये संबंधों और जोड़ों से हुआ है। जब सारे शब्द खो जाते हैं, तब ध्वनि शेष रह जाती है।
ओम् के
जप से स्वप्न
लोक में खोने
की संभावना:
तो
ओम् शब्द तो
प्रतीक है
सातवीं
अवस्था का, सातवें
शरीर का, लेकिन
ओम् शब्द को
पकड़ा गया है
चौथे शरीर में।
चौथे शरीर की,
मनस शरीर की
शून्यता में—
शून्यता में
जो ध्वनि होती
है, शून्य
की जो ध्वनि
है, वहां
ओम् पकड़ा गया
है। तो इस ओम्
का यदि साधक
प्रयोग करे, तो दो
परिणाम हो
सकते हैं।
जैसा कि आपको
याद होगा, मैंने
कहा कि चौथे
शरीर की दो संभावनाएं
हैं, सभी
शरीरों की दो
संभावनाएं
हैं। यदि साधक
ओम् का ऐसा
प्रयोग करे कि
उस ओम् के द्वारा
तंद्रा पैदा
हो जाए, निद्रा
पैदा हो जाए—किसी
भी शब्द की
पुनरुक्ति से
पैदा हो जाती
है; किसी
भी शब्द को
अगर बार—बार
दोहराया जाए,
तो उसका एक
सा संघात, एक
सी चोट, लयबद्ध,
जैसे कि सिर
पर कोई ताली
थपक रहा हो, ऐसा ही
परिणाम करती
है और तंद्रा
पैदा कर देती है।
तो
चौथे मनस शरीर
की जो पहली
प्राकृतिक
स्थिति है—कल्पना, स्वप्न।
अगर ओम् का इस
भांति प्रयोग
किया जाए कि
उससे तंद्रा आ
जाए तो आप एक
स्वप्न में खो
जाएंगे। वह
स्वप्न
सम्मोहन
तंद्रा जैसा
होगा, हिम्मोटिक
स्लीप जैसा
होगा। उस
स्वप्न में जो
भी आप देखना
चाहें, देख
सकेंगे।
भगवान के
दर्शन कर सकते
हैं, स्वर्ग—नरकों
की यात्रा कर
सकते हैं।
लेकिन होगा वह
सब स्वप्न; सत्य उसमें
कुछ भी नहीं
होगा। आनंद का
अनुभव कर सकते
हैं, शांति
का अनुभव कर
सकते हैं।
लेकिन होगी सब
कल्पना; यथार्थ
कुछ भी नहीं
होगा।
तो
एक तो ओम् का
इस तरह का
प्रयोग है जो
अधिकतर चलता
है। यह सरल
बात है; इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं है। ओम्
की ध्वनि को
जोर से पैदा
करके उसमें
लीन हो जाना
बहुत ही सरल
है, उसकी
लीनता बड़ी
रसपूर्ण है।
जैसे सुखद
स्वप्न होता
है, ऐसी
रसपूर्ण है; मनचाहा
स्वप्न, ऐसी
रसपूर्ण है।
और मनस शरीर
के दो ही रूप
हैं—कल्पना का,
स्वप्न का;
और दूसरा
रूप है संकल्प
का और दिव्य—दृष्टि
का, विजन
का।
तो
अगर ओम् का
सिर्फ
पुनरुक्ति से
व्यवहार किया
जाए मन के ऊपर, तो
उसके संघात से
तंद्रा पैदा
होती है। जिसे
योग— तंद्रा
कहते हैं, वह
ओम् के संघात
से पैदा हो
जाती है।
लेकिन यदि ओम्
का उच्चारण
किया जाए, और
पीछे साक्षी
को भी कायम
रखा जाए—दोहरे
काम किए जाएं
ओम् की ध्वनि
पैदा की जाए और
पीछे जागकर इस
ध्वनि को सुना
भी जाए—इसमें
लीन न हुआ जाए,
इसमें डूबा
न जाए— यह
ध्वनि एक तल
पर चलती रहे और
हम दूसरे तल
पर खड़े होकर
इसको
सुननेवाले, साक्षी, द्रष्टा,
श्रोता हो
जाएं; लीन
न हों, बल्कि
जाग जाएं इस
ध्वनि में; तो चौथे
शरीर की दूसरी
संभावना पर
काम शुरू हो
जाता है। तब
स्वप्न में
नहीं जाएंगे
आप, योग—तंद्रा
में नहीं
जाएंगे, योग—जागृति
में चले
जाएंगे।
मैं
निरंतर कोशिश
करता हूं कि
आपको शब्द के
प्रयोग न करने
को कहूं —
निरंतर कहता
हूं कि किसी
मंत्र, किसी
शब्द का आप
उपयोग न करें,
क्योंकि सौ
में
निन्यानबे
मौके आपके
तंद्रा में
चले जाने के
हैं। उसके
कारण हैं।
हमारा वह जो
चौथा शरीर है,
निद्रा का
आदी है; वह
सोना ही जानता
है। वह जो
हमारा चौथा
शरीर है, ड्रीम
ट्रैक उसका
बना ही हुआ है।
वह रोज सपने
देखता ही है।
तो ऐसे ही, जैसे
इस कमरे में
हम पानी को
बहा दें, फिर
पानी सूख जाए,
पानी चला
जाए, सूखी
रेखा रह जाए।
फिर हम दूसरा
पानी ढालें, तो वह
पुरानी रेखा
को पकड़कर ही
बह जाएगा।
ओम् और 'मैं
कौन हूं' में
मौलिक
भिन्नता:
तो
शब्द, मंत्र
के उपयोग से
बहुत संभावना
यही है कि आपका
वह जो स्वप्न
देखने का आदी
मन है, वह
अपनी
यांत्रिक
प्रक्रिया से
तत्काल स्वप्न
में चला जाएगा।
लेकिन यदि
साक्षी को
जगाया जा सके
और पीछे तुम
खड़े होकर
देखते भी रहो
कि यह ओम् की
ध्वनि हो रही
है— इसमें लीन
न होओ, इसमें
डूबो मत—तो
ओम् से भी वही
काम हो जाएगा
जो मैं ' मैं
कौन हूं ' के
प्रयोग से
तुम्हें करने
को कह रहा हूं।
और अगर ' मैं
कौन हूं ' को
भी तुम निद्रा
की भांति
पूछने लगो और
पीछे साक्षी न
रह जाओ, तो
जो भूल ओम् से
स्वप्न पैदा
होने की होती
है, वह ' मैं
कौन हूं ' से
भी पैदा हो
जाएगी।
लेकिन
‘मैं कौन हूं?
से पैदा
होने की
संभावना थोड़ी
कम है ओम् की
बजाय। उसका
कारण है कि
ओम् में कोई
प्रश्न नहीं
है, सिर्फ
थपकी है; ' मैं
कौन हूं' में
प्रश्न है, सिर्फ थपकी
नहीं है। और ' मैं कौन हूं?
के पीछे
क्रेश्चन
मार्क खड़ा है
जो आपको जगाए
रखेगा।
यह
बड़े मजे की
बात है कि अगर
चित्त में
प्रश्न हो तो
सोना मुश्किल
हो जाता है।
अगर दिन में
भी आपके चित्त
में कोई बहुत
गहरा प्रश्न
घूम रहा है, तो
रात आपकी नींद
खराब हो जाएगी—प्रश्न
आपको सोने न
देगा। वह जो
क्वेश्चन
मार्क है
अनिद्रा का
बड़ा सहयोगी है।
अगर चित्त में
कोई प्रश्न
खड़ा है, चिंता
खड़ी है, कोई
सवाल खड़ा है, कोई
जिज्ञासा खड़ी
है, तो
नींद मुश्किल
हो जाएगी।
'मैं
कौन हूं में
एक चोट है:
तो
मैं ओम् की
जगह '
मैं कौन हूं'
के प्रयोग
के लिए इसलिए
कह रहा हूं कि
उसमें मौलिक
रूप से एक
प्रश्न है। और
चूंकि प्रश्न
है, इसलिए
उत्तर की बहुत
गहरी खोज है; और उत्तर के
लिए तुम्हें
जागा ही रहना
होगा। वह ओम्
में कोई
प्रश्न नहीं
है; उसकी
चोट नुकीली
नहीं है, वह
बिलकुल गोल है।
उसमें कहीं
चोट नहीं है, उसमें कहीं
कोई प्रश्न नहीं
है। और उसका
निरंतर संघात,
उसकी चोट, निद्रा ले
आएगी।
फिर
' मैं कौन हूं'
में संगीत
नहीं है। ओम्
में बहुत
संगीत है, वह
बहुत
संगीतपूर्ण
है। और जितना
ज्यादा संगीत
है उतना
स्वप्न में ले
जाने में
समर्थ है। ' मैं कौन हूं '
आड़ा—टेढ़ा है,
पुरुष शरीर
जैसा है। ओम्
जो है, बहुत
सुडौल, स्त्री
शरीर जैसा है;
उसकी थपकी
जल्दी सुला
देगी।
शब्दों
के भी आकार
हैं। शब्दों
की भी चोट का
भेद है। उनका
भी संगीत है। ' मैं
कौन हूं' में
कोई संगीत
नहीं है। वह
सुलाना जरा
मुश्किल है।
अगर सोया आदमी
भी पड़ा हो, और
उसके पास हम
बैठकर कहने
लगें— ' मैं
कौन हूं ', ' मैं
कौन हूं', तो
सोया हुआ आदमी
भी जग सकता है।
लेकिन सोए हुए
आदमी के पास
अगर हम बैठकर
ओम्, और
ओम्, और
ओम् की बात
दोहराने लगें,
तो उसकी
नींद और गहरी
हो जाएगी।
संघात
के फर्क हैं।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि ओम् से
नहीं किया जा
सकता। संभावना
तो है ही। अगर
कोई ओम् के
पीछे जागकर
खड़ा हो सके तो
उससे भी यही
काम हो जाएगा।
ओम् :
शब्द और
निःशब्द का
सीमांत:
लेकिन
मैं ओम् को
साधना के बतौर
प्रयोग नहीं करवाना
चाहता। उसके
और भी बहुत
कारण हैं।
क्योंकि ओम्
की अगर साधना
करेंगे तो
चौथे शरीर से
ओम् का अनिवार्य
एसोसिएशन हो
जाएगा। ओम्
प्रतीक तो है
सातवें शरीर
का,
लेकिन उसका
अनुभव होता है
चौथे शरीर में—
ध्वनि का। अगर
एक बार ओम् से
साधना शुरू की
तो ओम् और चौथे
शरीर में एक
एसोसिएशन, अनिवार्य
संबंध हो
जाएगा; और
वह रोकनेवाला
सिद्ध होगा; वह आगे ले
जाने में बाधा
डाल सकता है।
तो
इस शब्द के
साथ कठिनाई है।
इसकी प्रतीति
तो होती है
चौथे शरीर में, लेकिन
इसको प्रयोग
किया गया है
सातवें शरीर के
लिए। और
सातवें शरीर
के लिए कोई
शब्द नहीं है
हमारे पास। और
हम जहां तक
शब्दों का
अनुभव करते
हैं—चौथे शरीर
के बाद फिर
शब्दों का
अनुभव बंद हो
जाता है—तो
चौथे शरीर का
जो आखिरी शब्द
है, उसको
हम अंतिम
अवस्था के लिए
प्रयोग कर रहे
हैं। और कोई
उपाय भी नहीं
है। क्योंकि
पांचवां शरीर
फिर निःशब्द
है; छठवां
बिलकुल
निःशब्द है; सातवां तो
बिलकुल ही
शून्य है।
चौथे शरीर की
जो आखिरी शब्द
की सीमा है, जहां से हम
शब्दों को
छोड़ेंगे, वहां
आखिरी क्षण
में, सीमांत
पर ओम् सुनाई
पड़ता है।
तो
भाषा की
दुनिया का वह
आखिरी शब्द है, और
अभाषा की
दुनिया का वह
पहला; वह
दोनों की
बाउंड्री पर
है। है तो वह
चौथे शरीर का,
लेकिन
हमारे पास
उससे ज्यादा
सातवें शरीर
के कोई निकट
शब्द नहीं है।
फिर और शब्द
और दूर पड़
जाते हैं।
इसलिए उसको
सातवें के लिए
प्रयोग किया
है।
तो
मैं पसंद करता
हूं कि उसको
चौथे के साथ
बांधें न। वह
अनुभव तो चौथे
में होगा, लेकिन
उसको सिंबल
सातवें का ही
रहने देना उचित
है। इसलिए
उसका साधना के
लिए उपयोग
करने की जरूरत
नहीं। उसके
लिए किसी ऐसी
चीज का उपयोग
करना चाहिए जो
चौथे पर ही
छूट भी जाए।
जैसे, 'मैं
कौन हूं?' यह
चौथे में
प्रयोग भी
होगा, छूट
भी जाएगा।
ओम्
साध्य है, साधन
नहीं:
और
ओम् का
सिबालिक अर्थ
ही रहना चाहिए।
साधन की तरह
उसका उपयोग और
भी एक कारण से
उचित नहीं है।
क्योंकि जिसे
हम अंतिम का
प्रतीक बना
रहे हैं, उसे
हमें अपना
साधन नहीं
बनाना चाहिए;
जिसको हम
परम, एब्लोल्युट
का प्रतीक बना
रहे हैं, उसका
साधन नहीं
बनाना चाहिए;
वह साध्य ही
रहना चाहिए।
ओम् वह है
जिसे हमें
पाना है!
इसलिए ओम् को
किसी भी तरह
के मीन्स की
तरह, साधन
की तरह प्रयोग
करने के मैं
पक्ष में नहीं
हूं।
और
उसका प्रयोग
हुआ है, उससे
बहुत नुकसान
हुए हैं। उसका
प्रयोग
करनेवाला
साधक बहुत बार
चौथे शरीर को
सातवां समझ
बैठा; क्योंकि
ओम् सातवें का
प्रतीक था और
चौथे में अनुभव
होता है। और
जब चौथे में
अनुभव होता है
तो साधक को लगता
है कि ठीक है, अब हम ओम् को
उपलब्ध हो गए;
अब और
यात्रा न रही,
अब यात्रा
खत्म हो गई।
इसलिए साइकिक
बॉडी पर बड़ा
नुकसान होता
है; वह
वहीं रुक जाता
है। बहुत से
साधक हैं, जो
विजन्स को, दृश्यों को,
रंगों को, ध्वनियों को,
नाद को, इसको
उपलब्धि मान
लेते हैं।
स्वभावत:, क्योंकि
जिसको अंतिम
प्रतीक कहा है,
वह इस सीमा—रेखा
पर पता चलने
लगता है। फिर
हमें लगता है,
आ गई सीमा।
इसलिए
भी मैं चौथे
शरीर में इसके
प्रयोग के पक्ष
में नहीं हूं।
और इसका अगर
प्रयोग
करेंगे तो
पहले, दूसरे, तीसरे शरीर
पर इसका कोई
परिणाम नहीं
होगा; इसका
परिणाम चौथे
शरीर पर होगा।
इसलिए पहले, दूसरे, तीसरे
शरीर के लिए
दूसरे शब्द
खोजे गए हैं, जो उन चोट कर
सकते हैं।
जगत और
ब्रह्म के बीच
ओम् का अनाहत
नाद:
ये
जो मूल
ध्वनियां हैं—
अ, ऊ और म की, इस
संबंध में एक
बात और खयाल
में ले लेनी
उचित है। जैसे
बाइबिल है, बाइबिल यह
नहीं कहती कि
परमात्मा ने
जगत बनाया, बनाने का
कोई काम किया,
ऐसा नहीं
कहती। कहती
ऐसा है कि
परमात्मा ने
कहा—प्रकाश
हो! और प्रकाश
हो गया। बनाने
का कोई काम
नहीं किया, बोलने का
कोई काम किया।
जैसे बाइबिल
कहती है कि
सबसे पहले
शब्द था—दि
वर्ड। सबसे
पहले शब्द था,
फिर सब हुआ।
पुराने और
बहुत से
शास्त्र इस
बात की खबर
देते हैं कि
सबसे पहले
शब्द था। जैसे
कि भारत में
कहते हैं शब्द
ब्रह्म है।
हालांकि इससे
बड़ी भ्रांति
होती है, इससे
कई लोग समझ
लेते हैं कि
शब्द से ही
ब्रह्म मिल
जाएगा।
ब्रह्म तो
मिलेगा
निःशब्द से, लेकिन ' शब्द
ब्रह्म है ' इसका मतलब
केवल इतना ही
है कि हम अपने
अनुभव में
जितनी
ध्वनियों को
जानते हैं, उसमें सबसे
सूक्ष्मतम
ध्वनि शब्द की
है।
अगर
हम जगत को
पीछे लौटाएं, पीछे
लौटाएं, पीछे
लौट जाएं, तो
अंततः जब हम
शून्य की
कल्पना करें,
जहां से जगत
शुरू हुआ होगा,
तो वहां भी
ओम् की ध्वनि
हो रही होगी—उस
शून्य में।
क्योंकि जब हम
चौथे शरीर पर
शून्य के करीब
पहुंचते हैं
तो ओम् की
ध्वनि सुनाई
पड़ती है, और
वहां से हम
डूबने लगते
हैं उस दुनिया
में जहां कि
प्रारंभ में
दुनिया रही
होगी। चौथे के
बाद हम जाते
हैं आत्म शरीर
में, आत्म
शरीर के बाद
जाते हैं
ब्रह्म शरीर
में, ब्रह्म
शरीर के बाद
जाते हैं
निर्वाण शरीर
में, और
आखिरी ध्वनि
जो उन दोनों
के बीच में है,
वह ओम् की
है।
इस
तरफ हमारा
व्यक्तित्व
है चार शरीरों
वाला, जिसको
हम कह सकते
हैं— जगत; और
उस तरफ हमारा
अव्यक्तित्व
है, जिसको
हम कह सकते
हैं—ब्रह्म।
ब्रह्म और जगत
के बीच में जो
ध्वनि सीमा—रेखा
पर गूंजती है,
वह ओम् की
है। इस अनुभव से
यह खयाल में
आना शुरू हुआ
कि जब जगत बना
होगा, तो
उस ब्रह्म के
शून्य से इस
पदार्थ के
साकार तक आने
में बीच में
ओम् की ध्वनि
गूंजती रही होगी।
और इसलिए ' शब्द
था', ' वर्ड
था ', ' उस
शब्द से ही सब
हुआ', यह
खयाल है। और
इस शब्द को
अगर हम उसके
मूल तत्वों
में तोड़ दें
तो वह ए, यू
एम पर रह जाता
है; बस तीन
ध्वनियां
मौलिक रह जाती
हैं। उन तीनों
का जोड़ ओम् है।
तो इसलिए ऐसा
कहा जा सकता
है ओम् ही
पहले था, ओम्
ही अंत में
होगा।
क्योंकि अंत
जो है वह पहले
में ही वापस
लौट जाना है; वह जो अंत है
वह सदा पहले
में वापस लौट
जाना है—सर्किल
पूरा होता है।
लेकिन
फिर भी मेरा
यह निरंतर
खयाल रहा है
कि ओम् को
प्रतीक की तरह
ही प्रयोग
करना है, साधन
की तरह नहीं।
साधन के लिए
और चीजें खोजी
जा सकती हैं।
ओम् जैसे
पवित्रतम
शब्द को साधन
की तरह उपयोग
करके अपवित्र
नहीं करना है।
इसलिए मुझे
समझने में कई
लोगों को भूल
हो जाती है।
मेरे पास
कितने लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, आप
ओम्.. अगर हम
ओम् जपते हैं
तो आप मना
क्यों करते
हैं? शायद
उन्हें लगे कि
मैं ओम् का
दुश्मन हूं।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
वे ही दुश्मन
हैं क्योंकि
इतने
पवित्रतम
शब्द का साधन
की तरह उपयोग
नहीं होना
चाहिए।
असल
में,
यह हमारी
जीभ से बोलने
योग्य नहीं।
असल में, यह
हमारे शरीर से
उच्चारण
योग्य नहीं।
यह तो उस जगह
शुरू होता है
जहां जीभ अर्थ
खो देती है, शरीर व्यर्थ
हो जाता है; वहां इसकी
गूंज है। और
वह गंज हम
नहीं करते, वह गूंज
होती है, वह
जानी जाती है,
वह की नहीं
जाती।
इसलिए
ओम् को जानना
ही है, करना
नहीं है।
ओम् की
साधना से उसकी
अनुभूति में
बाधा:
और
भी एक खतरा है
कि अगर आपने
ओम् का प्रयोग
किया, तो जो
उसका मूल
उच्चार है, जो अस्तित्व
से होता है
उसका आपको कभी
पता नहीं चल
पाएगा कि वह
कैसा है, आपका
अपना उच्चारण
उस पर आरोपित
हो जाएगा। तो
उसकी शुद्धतम
जो अनुभूति है,
वह आपको
नहीं हो सकेगी।
तो जो लोग भी
ओम् शब्द का
साधना में
प्रयोग करते
हैं, उनको
वस्तुत: ओम्
का कभी अनुभव
नहीं हो पाता।
क्योंकि वे जो
प्रयोग कर रहे
हैं, उसका
ही अभ्यास
होने से, जब
वह मूल ध्वनि
आनी शुरू होती
है, तो
उनको अपनी ही
ध्वनि सुनाई
पड़ती है। वे
ओम् को नहीं
सुन पाते; शून्य
का सीधा गुंजन
उनके ऊपर नहीं
हो पाता अपना
ही शब्द वे
तत्काल पकड़
लेते हैं।
स्वभावत:, क्योंकि
जिससे हम
परिचित हैं, वह आरोपित
हो जाता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
ओम् से परिचित
न होना ही अच्छा, उसका
उपयोग न करना
ही अच्छा। वह
किसी दिन
प्रकट होगा, चौथे शरीर
पर प्रकट होगा।
और तब वह कई
अर्थ रखेगा।
एक तो यह अर्थ
रखेगा कि चौथे
शरीर की सीमा
आ गई; और अब
आप मनस के
बाहर जाते हैं,
शब्द के
बाहर जाते हैं।
आखिरी शब्द आ
गया; जहां
से शब्द शुरू
हुए थे, वहीं
आप खड़े हो गए; जहां पूरा
जगत सृष्टि के
पहले क्षण में
खड़ा होगा, वहां
आप खड़े हो गए
हैं, उस
सीमांत पर खड़े
हैं। और फिर
जब उसकी अपनी
मूल ध्वनि
पैदा होती है
तो उसका रस ही
और है। उसको
कुछ कहने का
उपाय नहीं।
हमारा
श्रेष्ठतम
संगीत भी उसकी
दूरतम ध्वनि नहीं
है। हम कितने
ही उपाय करें,
उस शून्य के
संगीत को हम
कभी भी न सुन
पाएंगे; वह
म्यूजिक ऑफ
साइलेंस को हम
कभी भी न सुन
पाएंगे। और
इसलिए अच्छा
हो कि हम उसको
कुछ मानकर न
चलें, कोई
रूप—रंग देकर
न चलें। नहीं
तो वही रूप—रंग
उसमें अंततः
पकड़ जाएगा, और वह हमें
बाधा दे सकता
है।
स्त्री—पुरुष
शरीरों के
मौलिक भेद:
प्रश्न :
ओशो चौथे शरीर
तक स्त्री और
पुरुष का विद्युतीय
भेद रहता है।
अत: चौथे शरीर
वाले स्त्री
कंडक्टर या
पुरुष कंडक्टर
द्वारा महिला
साधक को और
पुरुष साधक को
होनेवाले
शक्तिपात का
प्रभाव क्या
भित्र— मित्र
होता है? और
क्यों?
इसमें
भी बहुत सी
बातें समझनी
पड़ेगी। जैसा
मैंने कहा, चौथे
शरीर तक
स्त्री और
पुरुष का भेद
है, चौथे
शरीर के बाद
कोई भेद नहीं
है। पांचवां
शरीर लिंग—
भेद के बाहर
है। लेकिन
चौथे शरीर तक
बहुत
बुनियादी भेद
है। और वह
बुनियादी भेद
बहुत तरह के
परिणाम लाएगा।
तो पहले पुरुष
शरीर को हम
समझें, फिर
स्त्री शरीर
को हम समझें।
पुरुष
शरीर का पहला
शरीर पुरुष है, दूसरा
शरीर स्त्रैण
है; तीसरा
शरीर फिर
पुरुष है, चौथा
शरीर फिर
स्त्रैण है।
इससे उलटा
स्त्री का है
उसका पहला
शरीर स्त्री
का, दूसरा
पुरुष का, तीसरा
स्त्री का, चौथा पुरुष
का। इसकी वजह
से बड़े मौलिक
भेद पड़ते हैं।
और जिन्होंने
मनुष्य—जाति
के पूरे
इतिहास और
धर्मों को बड़ी
गहराई से
प्रभावित
किया, और
मनुष्य की
पूरी
संस्कृति को
एक तरह की
व्यवस्था दी।
अर्धनारीश्वर
का वैज्ञानिक
रहस्य:
पुरुष
शरीर की कुछ
खूबियां हैं; स्त्री
शरीर की कुछ
खूबियां और
विशेषताएं हैं।
और वे दोनों
खूबियां और
विशेषताएं एक—दूसरे
की
काप्लीमेंटरी,
परिपूरक
हैं। असल में,
स्त्री
शरीर भी अधूरा
शरीर है और
पुरुष शरीर भी
अधूरा शरीर है;
इसलिए सृजन
के क्रम में
उन दोनों को
संयुक्त होना
पड़ता है। यह
संयुक्त होना
दो प्रकार का
है। अ नाम के
पुरुष का शरीर
अगर ब नाम की
स्त्री से बाहर
से संयुक्त हो,
तो प्रकृति
का सृजन होता
है। अ नाम के
पुरुष का शरीर
अपने ही पीछे
छिपे ब नाम के
स्त्री शरीर
से संयुक्त हो,
तो ब्रह्म
की तरफ का
जन्म शुरू
होता है। वह
परमात्मा की
तरफ यात्रा
शुरू होती है,
यह प्रकृति
की तरफ यात्रा
शुरू होती है।
दोनों ही
स्थितियों
में संभोग
घटित होता है।
पुरुष
का शरीर बाहर
की स्त्री से
संबंधित हो तो
भी संभोग घटित
होता है, और पुरुष
का अपना ही
शरीर अपने ही
पीछे छिपे
स्त्री शरीर
से संयुक्त हो
तो भी संभोग
घटित होता है।
पहले संभोग
में ऊर्जा
बाहर विकीर्ण
होती है, दूसरे
संभोग में
ऊर्जा भीतर की
तरफ प्रवेश करना
शुरू कर देती
है। जिसको
वीर्य का
ऊर्ध्वगमन
कहा है, उसका
यात्रा—पथ यही
है— भीतर की
स्त्री से
संबंधित होना,
और भीतर की
स्त्री से
संबंधित होना।
जो
ऊर्जा है, वह
सदा पुरुष से
स्त्री की तरफ
बहती है—चाहे
वह बाहर की
तरफ बहे और
चाहे वह भीतर
की तरफ बहे।
अगर पुरुष के
भौतिक शरीर की
ऊर्जा भीतर के
ईथरिक स्त्री
शरीर के प्रति
बहे, तो
फिर ऊर्जा
बाहर विकीर्ण
नहीं होती—ब्रह्मचर्य
की साधना का
यही अर्थ है—तब
वह निरंतर ऊपर
चढ़ती जाती है।
चौथे शरीर तक
उस ऊर्जा की
यात्रा हो
सकती है। चौथे
शरीर पर
ब्रह्मचर्य
पूरा हो जाता
है। चौथे शरीर
के बाद
ब्रह्मचर्य
का कोई अर्थ
नहीं है। चौथे
शरीर के बाद
ब्रह्मचर्य
जैसी कोई चीज
नहीं है; क्योंकि
चौथे शरीर के
बाद स्त्री और
पुरुष जैसी
कोई चीज नहीं
है। इसलिए
चौथे शरीर को
पार करने के
बाद साधक न पुरुष
है और न
स्त्री है।
अब
यह जो एक नंबर
का शरीर और दो
नंबर का शरीर
है,
इसी को
ध्यान में
रखकर
अर्धनारीश्वर
की कल्पना कभी
हम ने चित्रित
की थी। बाकी
वह प्रतीक
बनकर रह गई और
हम उसे कभी
समझ नहीं पाए।
शंकर अधूरे
हैं, पार्वती
अधूरी है—वे
दोनों मिलकर
एक हैं। और तब
हमने उन दोनों
का आधा—आधा
चित्र भी
बनाया—
अर्धनारीश्वर
का—कि आधा अंग
पुरुष का है, आधा स्त्री
का है। यह जो
आधा दूसरा अंग
है, यह
बाहर प्रकट
नहीं है, यह
प्रत्येक के
भीतर छिपा है।
तुम्हारा एक
पहलू पुरुष का
है, तुम्हारा
दूसरा पहलू
स्त्री का है।
इसलिए
एक बहुत
मजेदार घटना
घटती है कितना
ही दबंग पुरुष
हो,
कितना ही
बलशाली पुरुष
हो—जो बाहर की
दुनिया में
बड़ा प्रभावी
हो—सिकंदर हो
चाहे, और
चाहे
नेपोलियन हो,
और चाहे
हिटलर हो, वह
दिन भर दफ्तर
में, दुकान
में, बाजार
में, पद पर,
पुरुष की
अकड़ से जीता
है। लेकिन एक
साधारण सी
स्त्री घर में
बैठी है, उसके
सामने जाकर
उसकी अकड़ खत्म
हो जाती है! यह अजीब
सी बात है। वह
नेपोलियन की
भी हो जाती है।
वह क्या कारण
है?
असल
में,
जब वह बारह
घंटे, दस
घंटे पुरुष का
उपयोग कर लेता
है, तो
उसका पहला
शरीर थक जाता
है। घर लौटते—
लौटते वह पहला
शरीर विश्राम
चाहता है।
भीतर का
स्त्री शरीर
प्रमुख हो
जाता है, पुरुष
शरीर गौण हो
जाता है।
स्त्री दिन भर
स्त्री रहते—रहते
उसका पहला
शरीर थक जाता
है, उसका
दूसरा शरीर
प्रमुख हो
जाता है। और
इसलिए स्त्री
पुरुष का
व्यवहार करने
लगती है और
पुरुष स्त्री
का व्यवहार
करने लगता है—रिवर्सन
हो जाता है।
एक
तो यह खयाल
में ले लेना
कि ऊर्जा का आंतरिक
प्रवाह का, ऊर्ध्वगमन
का यह पथ है—कि
भीतर की
स्त्री से
संभोग। अब
उसके सारे के
सारे अलग
मार्ग हैं।
उसकी तो कोई
अभी बात नहीं
करनी है।
दूसरी
बात,
सदा ही
शक्ति पुरुष
शरीर से
स्त्री शरीर
की तरफ बहती
है। पुरुष
शरीर के जो
विशेष गुण हैं,
वह पहला गुण
यह है कि वह
ग्राहक नहीं
है, रिसेप्टिव
नहीं है; आक्रामक
है; दे
सकता है, ले
नहीं सकता।
स्त्री की तरफ
से कोई प्रवाह
पुरुष की तरफ
नहीं बह सकता।
सब प्रवाह
पुरुष से
स्त्री की तरफ
ही बहते हैं।
स्त्री
ग्राहक है, रिसेप्टिव
है; दाता
नहीं है; दे
नहीं सकती, ले सकती है।
स्त्री
की शक्तिपात
देने में
कठिनाई, लेने
में सरलता:
इसके
दो परिणाम
होते हैं, और
दोनों परिणाम
समझने जैसे
हैं। पहला
परिणाम तो यह
होता है कि
चूंकि स्त्री
ग्राहक है, इसलिए कभी
भी शक्तिपात
देनेवाली
नहीं हो सकती,
उसके
द्वारा
शक्तिपात
नहीं हो सकता।
यही कारण है
कि स्त्री
शिक्षक जगत
में बड़ी तादाद
में पैदा नहीं
हो सके, बुद्ध
या महावीर या
कृष्ण के
मुकाबले
स्त्री गुरु
पैदा नहीं हो
सके। उसका
कारण यह है कि
उसके माध्यम
से किसी को कोई
शक्ति मिल
नहीं सकती।
हां, स्त्रियां
बहुत बड़े
पैमाने पर
महावीर, बुद्ध
और कृष्ण के
आसपास इकट्ठी
हुईं। लेकिन
ऐसी कृष्ण की
हैसियत की एक
स्त्री पैदा
नहीं हो सकी
जिसके आसपास
लाखों पुरुष
इकट्ठे हो
जाएं। उसके
कारण हैं।
उसके कारण इसी
बात में निहित
हैं. स्त्री
ग्राहक हो
पाती है।
पुरुष
हैं धर्म
प्रसारक और
स्त्रियां
धर्म संग्राहक:
और
यह भी बड़े मजे
की बात है
कृष्ण जैसा
आदमी पैदा हो, तो
उसके पास
पुरुष कम इकट्ठे
होंगे, स्त्रियां
ज्यादा
इकट्ठी होंगी।
महावीर के पास
भी वही होगा।
महावीर के
भिक्षुओं में
दस हजार तो
पुरुष हैं और
चालीस हजार
स्त्रियां
हैं। यह
अनुपात
चौगुना है सदा।
अगर एक पुरुष
इकट्ठा होगा,
तो चार
स्त्रियां
इकट्ठी हो
जाएंगी। और
स्त्रियां
जितनी
प्रभावित
होंगी महावीर
से, उतने
पुरुष
प्रभावित
नहीं होंगे; क्योंकि
दोनों पुरुष
हैं। महावीर
से जो निकल
रहा है, स्त्रियां
उसे अपशोषित
कर जाती हैं।
लेकिन पुरुष
अपशोषक नहीं
है, वह
ग्रहण नहीं कर
पाता; उसकी
ग्रहण करने की
क्षमता बहुत
कम है। इसलिए
पुरुषों ने
धर्म को जन्म
तो दिया, लेकिन
पुरुष धर्म के
संग्राहक
नहीं हैं।
धर्मों को
पृथ्वी पर
बचाती हैं
स्त्रियां, चलाते हैं
पुरुष। यह बड़े
मजे की बात है!
चलाते हैं
पुरुष, जन्म
देते हैं
पुरुष, बचाती
हैं
स्त्रियां, रक्षा करती
हैं
स्त्रियां।
स्त्री
संग्राहक है।
उसके शरीर का
संग्रह गुण है, बायोलॉजिकल
वजह से उसके
शरीर में
संग्राहक का
तत्व है।
बच्चे को उसे
नौ महीने पेट
में रखना है, बच्चे को
बड़ा करना है।
उसे ग्रहणशील
होना चाहिए।
पुरुष को ऐसा
कुछ भी
प्रकृति की
तरफ से काम नहीं
है। वह एक
क्षण में पिता
बनकर बाहर हो
जाता है, पिता
के बाहर हो
जाता है; उसका
इसके बाद कोई
संबध नहीं है;
वह देता है
और बाहर हो
जाता है।
स्त्री लेती
है और फिर
भीतर रह जाती
है, वह
बाहर नहीं हो
पाती।
यह
तत्व
शक्तिपात में
भी काम करता
है। इसलिए
शक्तिपात में
स्त्री की तरफ
से पुरुष को
शक्तिपात
नहीं मिल सकता।
साधारणत: कह
रहा हूं कभी
रेयर केसेस हो
सकते हैं, उनकी
मैं बात
करूंगा। कभी
ऐसी घटनाएं घट
सकती हैं, पर
उसके और कारण
होंगे।
पुरुष
के लिए
शक्तिपात
देना सरल, लेना
कठिन:
साधारणतया
स्त्री शरीर
से शक्तिपात
नहीं हो सकता; इसे
उसकी कमजोरी
कह सकते हैं।
लेकिन इसको
पूरा
करनेवाली
काप्लीमेंटरी
उसकी एक ताकत
है कि वह
शक्तिपात को
बहुत तीव्रता
से ले लेती है।
पुरुष
शक्तिपात कर
सकता है, लेकिन
ग्रहण नहीं कर
पाता। तो
इसलिए एक
पुरुष से
दूसरे पुरुष
पर भी शक्तिपात
बहुत कठिन हो
जाता है, बहुत
कठिन मामला हो
जाता है।
क्योंकि वह
ग्राहक है ही
नहीं उसका
व्यक्तित्व, जहां से
शुरू होना है,
उसका नंबर
एक पुरुष खड़ा
हुआ है दरवाजे
पर जो ग्राहक
नहीं है। इसको
ग्राहक बनाने
के भी उपाय
किए गए हैं।
ऐसे पंथ रहे
हैं, जिनमें
पुरुष भी अपने
को स्त्री
मानकर ही साधना
करेंगे। वह
पुरुष को
ग्राहक बनाने
का उपाय किया
जा रहा है।
मगर फिर भी
पुरुष ग्राहक
बन नहीं पाता।
स्त्री बिना
कठिनाई के
ग्राहक बन
जाती है। है
ही वह ग्राहक।
तो
शक्तिपात में
स्त्री को सदा
ही माध्यम की
जरूरत होगी, प्रसाद
उसको सीधा
मिलना बहुत
कठिन है—दो
तरह से। सीधा
प्रसाद उसे
इसलिए नहीं
मिल सकता.. अब
इसको समझ लेना
ठीक से!
शक्तिपात
होता है पहले
शरीर से। अगर
मैं शक्तिपात
करूं तो
तुम्हारे
नंबर एक के
शरीर पर
करूंगा। और
मेरे नंबर एक
से जाएगी बात
और तुम्हारे
नंबर एक पर
चोट करेगी।
इसलिए अगर तुम
स्त्री हो तो
यह शीघ्रता से
हो जाएगा, अगर
तुम पुरुष हो
तो इसमें
जद्दोजहद और
संघर्ष होगा।
इसमें कठिनाई
होगी। इसमें
किसी तरह
तुम्हें बहुत
गहरे समर्पण
की स्थिति में
आना पड़ेगा तो
यह हो सकता है,
नहीं तो यह
नहीं हो सकेगा।
और
पुरुष समर्पक
नहीं है। वह
समर्पण नहीं
कर पाता, वह
कितनी ही
कोशिश करे।
अगर वह कहे भी
कि मैं समर्पण
करता हूं तो
भी उसका यह
समर्पण करना
आक्रमण जैसा
होता है। यानी
यह समर्पण की
भी घोषणा उसका
अहंकार करता
है कि अच्छा
मैंने किया
समर्पण! लेकिन
समर्पण.. .वह
मैं जो है, पीछे
खड़ा है; वह
छूटता नहीं
उससे।
स्त्री
को समर्पण
करना नहीं
पड़ता, वह
समर्पित है, समर्पण उसका
स्वभाव है, उसके पहले
शरीर का गुण
है; वह
रिसेप्टिव है।
इसलिए
शक्तिपात
पुरुष से बहुत
आसानी से स्त्री
पर हो जाता है,
पुरुष से
पुरुष पर बहुत
मुश्किल है; और स्त्री
से पुरुष पर
तो बहुत ही
मुश्किल है।
पुरुष से
पुरुष पर
मुश्किल है, हो सकता है; अगर कोई
बहुत बलशाली
पुरुष हो, तो
वह दूसरे को
करीब—करीब
स्त्री की
हालत में खड़ा
कर सकता है।
मुश्किल है, लेकिन हो
सकता है।
लेकिन स्त्री
के द्वारा तो
बहुत ही
मुश्किल है।
क्योंकि वह
शक्तिपात
करने के क्षण
में भी उसकी
शक्ति पी
जाएगी, अपशोषित
कर लेगी, उसका
जो पहला शरीर
है, वह
स्पंज की
भांति है, वह
चीजों को खींच
रहा है।
पुरुष
के चौथे शरीर
से प्रसाद
ग्रहण करना
सरल:
यह
तो शक्तिपात
के संबंध में
बात हुई; प्रसाद
के मामले में
भी ऐसी ही
हालत है।
प्रसाद जो है
वह चौथे शरीर
से मिलता है।
और पुरुष का
चौथा शरीर
स्त्री का है,
इसलिए उसे
प्रसाद तो बड़ी
सरलता से मिल
जाता है। और
स्त्री का
चौथा शरीर
पुरुष का है, वह प्रसाद
में भी
मुश्किल में
पड़ जाती है; उसको ग्रेस
सीधी नहीं मिल
पाती।
पुरुष
का जो चौथा
शरीर है, स्त्रैण
है। इसलिए
मोहम्मद हों,
कि मूसा हों,
कि जीसस हों,
वे तत्काल
परमात्मा से
सीधे संबंधित
हो जाते हैं।
उनके पास चौथा
शरीर स्त्री
का है, जहां
से वे रिसीवर
हैं। और
प्रसाद उनके
ऊपर उतरे तो
वे उसको पी
जाएंगे।
स्त्री के पास
चौथा शरीर
पुरुष का है, वह उस छोर पर
पुरुष शरीर
खड़ा है उसका; इसलिए वहां
से वह कभी
रिसीव नहीं कर
पाती। इसलिए
स्त्री के पास
सीधी कोई भी
मैसेज नहीं है।
यानी एक
स्त्री इस तरह
का दावा नहीं
कर सकी है कि
मैंने ब्रह्म
को जाना! ऐसा
दावा नहीं है
उसका। उसके
पास चौथे शरीर
पर पुरुष खड़ा
है जो कि वहां
अड़चन डाल देता
है, उसको
वहां से
प्रसाद नहीं
मिल सकता।
प्रसाद
पुरुष को मिल
सकता है, शक्तिपात
में उसे बहुत
कठिनाई है
किसी से लेने
में; उसमें
वह बाधक है।
लेकिन स्त्री
के लिए
शक्तिपात
बहुत सरल है, किसी भी
माध्यम से उसे
शक्तिपात मिल
सकता है। बहुत
कमजोर माध्यम
से भी स्त्री
को शक्तिपात मिल
सकता है।
इसलिए बड़े
साधारण
हैसियत के
लोगों से भी
उसे शक्तिपात
मिल सकता है।
शक्तिपात
देनेवाले पर
कम, उसकी
अपशोषक शक्ति
पर बहुत
निर्भर हो
जाता है।
लेकिन सदा उसे
एक माध्यम
चाहिए। वह
माध्यम के
बिना उसकी बड़ी
कठिनाई है।
बिना माध्यम
के उसको कोई
घटना नहीं घट
सकती।
यह
साधारण
स्थिति की बात
मैंने कही।
इसमें विशेष
स्थितियां की
जा सकती हैं।
इसी साधारण
स्थिति की वजह
से स्त्री
साधिकाए कम
हुई हैं।
लेकिन इसका
मतलब यह नहीं
है कि
स्त्रियों ने परमात्मा
को अनुभव नहीं
किया।
उन्होंने
अनुभव किया।
लेकिन वह कभी
इमीजिएट नहीं
था,
उसमें कोई
बीच में
माध्यम था—
थोड़ा ही सही, लेकिन कोई
माध्यम था; माध्यम से
हुआ उनको।
बुढापे
में विपरीत
लिंगी
व्यक्तित्व
का प्रकटीकरण:
दूसरी
बात,
असाधारण
स्थितियों
में भेद पड़
सकता है। अब
जैसे, एक
जवान स्त्री
पर ज्यादा
कठिनाई है
प्रसाद की, एक वृद्ध
स्त्री पर
सरलता थोड़ी बढ़
जाती है। क्योंकि
बड़े मजे की
बात है कि हम......पूरी
जिंदगी में
हमारा सेक्स
भी
फ्लेक्सिबिलिटी
में रहता है।
हम पूरी
जिंदगी, एक
ही अनुपात में,
एक ही सेक्स
के हिस्से
नहीं होते—इसमें
अंतर होता
रहता है पूरे
वक्त, अनुपात
बदलता रहता है।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होगा कि बूढ़ी
होती स्त्री
को मूंछ के
बाल निकलने
लगें या दाढ़ी
पर बाल आ जाएं; के
होते—होते
पैंतालीस और
पचास साल के
बाद उसकी आवाज
पुरुषों जैसी
होने लगे, स्त्रैण
आवाज खो जाए।
उसका अनुपात
बदल रहा है; उसमें पुरुष
तत्व ऊपर आ
रहे हैं, स्त्री
तत्व पीछे जा
रहे हैं। असल
में, स्त्री
का काम पूरा
हो चुका। वह
पैंतालीस
वर्ष तक बायोलाजिकल
एक बाइंडिंग
थी, वह
खत्म हो गई है।
अब वह
बाइंडिंग के
बाहर हो रही
है।
तो
की स्त्री पर
प्रसाद की
संभावना बढ़
सकती है; क्योंकि
जैसे ही उसके
नंबर एक के
शरीर में पुरुष
तत्व बढ़ते हैं,
उसके नंबर
दो के शरीर
में स्त्रैण
तत्व बढ़ जाते
हैं; और
नंबर चार के
पुरुष शरीर के
तत्व कम हो
जाते हैं, नंबर
तीन में बढ़
जाते हैं। तो
की स्त्री पर
प्रसाद की
संभावना हो
सकती है।
अति
वृद्ध स्त्री, किसी
स्थिति में, किसी जवान
स्त्री को
माध्यम भी बन
सकती है। और
भी अति वृद्ध
स्त्री, जो
कि सौ को पार
कर गई हो, जहां
कि उसके मन
में अब सेक्स
का खयाल ही न
रह गया हो कि
वह स्त्री है,
उससे पुरुष
के ऊपर भी
शक्तिपात के
लिए वह माध्यम
बन सकती है।
लेकिन यह फर्क
पड़ेगा।
पुरुष
में भी ऐसे ही
फर्क पड़ता है।
जैसे—जैसे
पुरुष का होता
जाता है, उसमें
स्त्रैण तत्व
बढ़ते चले जाते
हैं। के पुरुष
अक्सर
स्त्रियों
जैसा व्यवहार
करने लगते हैं।
उनके
व्यक्तित्व
की बहुत सी
पुरुष बसा
वृत्तियां
क्षीण हो जाती
हैं और स्त्री
जैसी वृत्तियां
प्रकट होने
लगती हैं।
चौथे
शरीर से
प्रसाद ग्रहण
करने के कारण
व्यक्तित्व
में
स्त्रैणता:
इस
संबंध में यह
भी समझ लेना
जरूरी है कि
जो लोग भी
चौथे शरीर से
प्रसाद को
ग्रहण करते
हैं,
उनके
व्यक्तित्व
में भी
स्त्रैणता आ
जाती है। जैसे
अगर हम बुद्ध
या महावीर के
शरीर और व्यक्तित्व
को देखें, तो
वह पुरुष का
कम और स्त्री
का ज्यादा
मालूम होगा।
स्त्री की
कोमलता, स्त्री
की नमनीयता, स्त्री की
ग्राहकता
उनमें बढ़ जाएगी।
आक्रमण उनसे
चला जाएगा, इसलिए
अहिंसा बढ़
जाएगी, करुणा
बढ़ जाएगी, प्रेम
बढ़ जाएगा; हिंसा
और क्रोध
विलीन हो
जाएंगे।
नीत्शे
ने तो बुद्ध
पर यह आरोप ही
लगाया है कि बुद्ध
और जीसस, ये
दोनों
फेमिनिन थे, ये दोनों
स्त्रैण थे; इनको
पुरुषों की
गिनती में
नहीं गिनना
चाहिए, क्योंकि
इनमें पुरुष
का कोई भी गुण
नहीं है, और
उन्होंने
सारी दुनिया
को स्त्रैण
बना दिया है।
उसकी इस
शिकायत में
अर्थ है।
यह
तुम जानकर
हैरान होओगे
कि हमने बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, राम,
इनकी किसी
की दाढ़ी—मूंछ
नहीं बनाई, ये सब दाढ़ी— मूंछ
से हीन हैं।
ऐसा नहीं कि
इनको दाढ़ी—मूंछ
न रही हो, लेकिन
जब हमने इनके
चित्र बनाए, तब तक यह
करीब—करीब
इनका सारा
व्यक्तित्व
स्त्रैण— भाव
से भर गया था।
उसमें दाढ़ी—मूंछ
बेहूदी थी, वह हमने अलग
कर दी; उसको
हमने चित्रित
नहीं किया।
उसको चित्रित
करना उचित
नहीं मालूम
पड़ा, क्योंकि
उनके
व्यक्तित्व
का सारा ढंग
जो था, वह
स्त्रैण हो
गया था।
रामकृष्ण
परमहंस के
शरीर का
रूपांतरण:
रामकृष्ण
के साथ ऐसी
घटना घटी।
रामकृष्ण की
हालत तो इतनी
अजीब हो गई थी
कि जो कि बड़ी, मेडिकल
साइंस के लिए
एक खोज की बात
है। बड़ी अदभुत
घटना घटी। पीछे
उसको छिपा—छुपो
कर बदलने की
कोशिश की, क्योंकि
उसकी कैसे बात
करें! उनके
स्तन बढ़ गए और
उनको मासिक
धर्म शुरू हो
गया! यह तो
इतनी अजीब
घटना थी कि एक
मिरेकल था!
इतना
व्यक्तित्व स्त्रैण
हो गया था। वे
चलते भी थे तो
स्त्रियों
जैसे चलने लगे
थे; वे
बोलते भी थे
तो स्त्रियों
जैसे बोलने
लगे थे।
तो
ऐसी विशेष
स्थितियों
में तो बहुत
फर्क पड़ सकता
है। जैसे
रामकृष्ण की
इस हालत में
वे शक्तिपात
दे नहीं सकते
किसी को, उनको
लेना पड़ेगा; इस हालत में
कोई दे नहीं
सकते वे किसी
को शक्तिपात।
उनका
व्यक्तित्व
बाहर से
स्त्रैण हो
गया।
हिंदुस्तान
के
व्यक्तित्व
में
स्त्रैणता:
बुद्ध
और महावीर ने
जिस साधना और
जिस प्रक्रिया
का उपयोग किया, उससे
इस मुल्क में
उस जमाने में
लाखों लोग चौथे
शरीर में
पहुंच गए।
चौथे शरीर में
पहुंचते ही
उनका
व्यक्तित्व स्त्रैण
हो गया।
स्त्रैण
व्यक्तित्व
का मतलब यह है
कि उनमें जो
स्त्रैण गुण
हैं, कोमल,
वे बढ़ गए; हिंसा—क्रोध
खत्म हो गया, आक्रमण विदा
हो गया, ममता
और प्रेम और
करुणा और
अहिंसा बढ़ गए।
पूरे
हिंदुस्तान
के
व्यक्तित्व
के गहरे में
स्त्रैणता आ
गई। मेरी अपनी
जानकारी यही
है कि
हिंदुस्तान
पर बाद के
सारे
आक्रमणों का
कारण वही था।
क्योंकि
हिंदुस्तान
के आसपास के
सारे पुरुष हिंदुस्तान
के स्त्रैण
व्यक्तित्व
को दबाने में
सफल हो गए।
एक
अर्थ में बड़ी
कीमती घटना
घटी कि चौथे
शरीर पर हमने
बहुत अदभुत
अनुभव किए, लेकिन
पहले शरीर की
दुनिया में
हमको मुश्किल हो
गई। मैंने कहा
कि सब चीजें
कंपनसेट होती
हैं। जो लोग
चौथे शरीर का
धन छोड़ने को
राजी थे, उनको
पहले शरीर का
धन और राज्य
और साम्राज्य
मिल सका। और
जो लोग चौथे
शरीर का रस
छोड़ने को राजी
नहीं थे, उनको
यहां से बहुत
कुछ छोड़ देना
पड़ा।
बुद्ध
और महावीर के
बाद
हिंदुस्तान
की आक्रामक
वृत्ति खो गई
और वह रिसेप्टिव
हो गया। तो जो
भी आया उसको
हम आत्मसात
करने की फिक्र
में लग गए; उसे
अलग करने का
भी सवाल नहीं
उठा हमारे मन
में कि उसको
अलग कर दें।
और दूसरे पर
जाकर हम हमला
कर दें और
दूसरे को हम
जीत लें, वह
तो सवाल ही खो
गया। स्त्रैण
व्यक्तित्व
हो गया। भारत
जो है एक क्यूं
बन गया, एक
गर्भ बन गया—पूरा
का पूरा भारत,
और जो भी
आया उसको हम
आत्मसात करते
चले गए। हमने
उसको कभी
इनकार नहीं
किया, हटाने
की हमने कोई
फिक्र नहीं की।
और लड़ भी नहीं
सके, क्योंकि
लड़ने के लिए
जो बात चाहिए
थी, वह खो
गई थी; श्रेष्ठतम
बुद्धि जो थी
मुल्क की, उससे
वह बात खो गई
थी। और जो
साधारणजन है,
वह श्रेष्ठ
के पीछे चलता
है; वह
बेचारा दबकर
खड़ा था। वह यह
कह रहा था कि
करुणा—अहिंसा
की बातें सुन
रहा था और उसे
लग रही थीं कि
ये बातें ठीक
हैं। और
श्रेष्ठतम
आदमी उनमें जी
रहा था, वह
छोटा साधारण
आदमी उनके
पीछे खड़ा था।
वह लड़ सकता था,
लेकिन उसके
पास नेता नहीं
था जो उसको
लड़ा सकता।
आध्यात्मिक
मुल्क में
स्त्रैण
व्यक्तित्व
की अधिकता:
यह
कभी जब दुनिया
का इतिहास
आध्यात्मिक
ढंग से लिखा
जाएगा, और जब
हम सिर्फ
भौतिक घटनाओं
को इतिहास
नहीं समझेंगे,
बल्कि चेतना
में घटी
घटनाओं को
इतिहास
समझेंगे— असली
इतिहास वही है—तब
हम इस बात को
समझ पाएंगे कि
जब भी कोई
मुल्क आध्यात्मिक
होगा, तो
स्त्रैण हो
जाएगा; और
जब भी स्त्रैण
होगा, तब
अपने से बहुत
साधारण
सभ्यताएं
उसको हरा देंगी।
अब यह बड़े मजे
की बात है कि
हिंदुस्तान
को जिन लोगों
ने हराया, वे
हिंदुस्तान
से बहुत पिछड़ी
हुई सभ्यताएं
थीं, एक
अर्थ में
बिलकुल ही
जंगली और
बर्बर सभ्यताएं
थीं। चाहे
तुर्क हों, चाहे मुगल
हों और चाहे
मंगोल हों—कोई
भी हों; उनके
पास कोई
सभ्यता ही न
थी। लेकिन एक
अर्थ में वे
पुरुष थे, जंगली
पुरुष थे
बिलकुल; और
हम रिसेप्टिव
हो गए थे, हम
उनको आत्मसात
ही कर सके, लड़ने
का कोई उपाय न
था।
तो
स्त्री शरीर
आत्मसात कर
सकता है, माध्यम
चाहिए; पुरुष
शरीर दे सकता
है और सीधे
प्रसाद भी
ग्रहण कर सकता
है। इसी वजह
से महावीर
जैसे व्यक्ति
को तो यह भी कहना
पड़ा कि स्त्री
को परम उपलब्धि
के लिए पहले
एक दफे पुरुष
शरीर लेना पड़ेगा,
पुरुष
पर्याय में
आना पड़ेगा। और
बहुत कारणों
में एक कारण
यह भी था कि वह
सीधा प्रसाद
ग्रहण नहीं कर
सकती। जरूरी
नहीं है कि वह
मरकर पुरुष हो।
ऐसी
प्रक्रियाएं
हैं कि इसी
हालत में
व्यक्तित्व
का रूपांतरण
किया जा सकता
है—जो
तुम्हारा
नंबर दो का
शरीर है, वह
तुम्हारे
नंबर एक का
शरीर हो सकता
है; और जो
तुम्हारे
नंबर एक का
शरीर है, वह
तुम्हारे
नंबर दो का
शरीर हो सकता
है। इसके लिए
प्रगाढ़
संकल्प की
साधनाएं हैं,
जिनसे
तुम्हारा इसी
जीवन में भी
शरीर रूपांतरित
हो सकता है।
गहन साधना
से शारीरिक
परिवर्तन:
अब
जैनों के एक
तीर्थंकर के
बाबत ऐसी ही
मजेदार घटना
घट गई है।
जैनों के एक
तीर्थंकर
स्त्री हैं—मल्लीबाई।
श्वेतांबर
उनको
मल्लीबाई ही
कहते हैं, लेकिन
दिगंबर उनको
मल्लीनाथ
कहते हैं; वे
उनको पुरुष ही
मानते हैं।
क्योंकि
दिगंबर जैनों
का खयाल है कि
स्त्री को तो
मोक्ष हो नहीं
सकता; तो
स्त्री
तीर्थंकर तो
हो ही नहीं
सकती। इसलिए
वे मल्लीनाथ
हैं; वे
उनको पुरुष ही
मानते हैं। और
श्वेतांबर
उनको स्त्री
ही माने जाते
हैं।
अब
एक आदमी के
बाबत इस तरह
का विवाद
मनुष्य—जाति
के पूरे
इतिहास में
दूसरी जगह
नहीं है। यानी
और सब चीजों
के बाबत विवाद
हो सकता है कि भई, उसकी
ऊंचाई पांच
फुट छह इंच थी
कि पांच इंच
थी; कि वह
आदमी कब पैदा
हुआ। लेकिन इस
बाबत में
विवाद कि वह
स्त्री था कि
पुरुष! बड़ा
अदभुत विवाद
है। और एक
वर्ग मानता है
कि वह पुरुष
था; एक
वर्ग मानता है,
वह स्त्री
था।
मेरी
अपनी समझ यह
है कि
मल्लीबाई ने
जब साधना शुरू
की होगी तो वे
स्त्री ही
होंगी। लेकिन
ऐसी
प्रक्रियाएं
हैं जिनसे
पुरुष नंबर एक
का शरीर बन
सकता है। वह
बन जाने के
बाद ही वे
तीर्थंकर हुए।
और जो दूसरा
वर्ग उनको
पुरुष मानता
है,
वह उनकी
अंतिम स्थिति
को ही मान रहा
है; और जो
पहला वर्ग
उनको स्त्री
मानता है, वह
उनकी पहली
स्थिति को मान
रहा है। दोनों
बातें मानी जा
सकती हैं, कोई
कठिनाई नहीं
है। वे स्त्री
थे, लेकिन
वे पुरुष हो
गए होंगे। और
महावीर की
साधना ऐसी है
कि उसमें कोई
भी स्त्री
गुजरेगी तो
पुरुष हो
जाएगी। क्योंकि
पूरी की पूरी
साधना जो है, वह भक्ति की
नहीं है; पूरी
की पूरी साधना
जो है वह
ज्ञान की है; पूरी की
पूरी साधना जो
है, वह
आक्रामक है, एग्रेसिव है—साधना
जो है; वह
रिसेप्टिव
नहीं है साधना।
अगर
कोई पुरुष भी
मीरा की तरह
भजन करे और
नाचे, और
नाचता रहे
वर्षों, और
जब रात सोए तो
बिस्तर पर
कृष्ण की
मूर्ति अपनी
छाती से लगाकर
सोए, और
कृष्ण की अपने
को सखी माने—
अगर यह वर्षों
तक चले, तो
नाम मात्र को
ही वह पुरुष
रह जाएगा; आमूल
रूपांतरण हो
जाएगा। उसकी
चेतना में जो
नंबर एक शरीर
था, वह
नंबर दो हो जाएगा;
नंबर दो जो
था, वह
नंबर एक हो
जाएगा। अगर यह
बहुत गहरा
परिवर्तन हो,
तो उससे
शरीर पर
लैंगिक अंतर
भी पड़ जाएगा।
अगर यह बहुत
गहरा न हो, तो
शरीर पुराना
रहा आएगा, लेकिन
मनस पुराना
नहीं रह जाएगा;
चित्त
स्त्रैण हो
जाएगा।
तो
इन विशेष
स्थितियों
में तो बात हो
सकती है, विशेष
स्थिति में यह
घटना घट सकती
है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
लेकिन
सामान्य नियम
नहीं यह हो
सकता।
स्त्री
और पुरुष एक—दूसरे
के परिपूरक:
पुरुष
से शक्तिपात
हो सकता है, पुरुष
को प्रसाद मिल
सकता है, स्त्री
को प्रसाद
सीधा मिलना
मुश्किल है, उसे
शक्तिपात से
ही प्रसाद का
द्वार खुल
सकता है। और
यह तथ्य की
बात है, इसमें
कोई
मूल्यांकन
नहीं है; इसमें
कोई आगे—पीछे,
नीचा—ऊंचा
नहीं है। ऐसा
तथ्य है। यह
वैसे ही तथ्य
है, जैसा
कि पुरुष
वीर्य की
ऊर्जा देगा और
स्त्री उसको
संगृहीत
करेगी। और अगर
कोई पूछे कि
क्या स्त्री
भी वीर्य की
ऊर्जा पुरुष
को दे सकती है?
तो हम
कहेंगे कि
नहीं, नहीं
दे सकती। वह
तथ्य नहीं है।
इसमें वह नीचे
है या ऊपर है, यह सवाल
नहीं है।
लेकिन
इस वजह से ही
वैल्युएशन
पैदा हुआ, और
स्त्री नीचे
मालूम होने
लगी लोगों को,
क्योंकि वह
ग्राहक है; और दाता बड़ा
हो गया। सारी
दुनिया में
स्त्री—पुरुष
की जो नीचाई—ऊंचाई
की धारणा पैदा
हुई, वह इस
वजह से पैदा
हुई कि पुरुष
को लगता है—मैं
देनेवाला हूं
और स्त्री को
लगता है—मैं
लेनेवाली हूं।
लेकिन
लेनेवाला
अनिवार्य रूप
से नीचा है, यह किसने
कहा? और
अगर लेनेवाला
न मिले तो
देनेवाला
क्या अर्थ
रखता है? या
देनेवाला न
मिले तो
लेनेवाले का
क्या अर्थ है?
असल में, ये
काप्लीमेंटरी
हैं, ये
नीचे—ऊंचे
नहीं हैं। असल
में, ये एक—दूसरे
के परिपूरक
हैं; और
दोनों
परस्परतंत्रता
में बंधे हैं,
इंडिपेंडेंट
नहीं हैं। ये
दो इकाइयां
नहीं हैं, ये
एक ही इकाई के
दो पहलू हैं।
उसमें एक
ग्राहक है और
एक दाता है।
लेकिन
स्वभावत:, हमारे
मन में अगर हम
दाता शब्दका
भी प्रयोग करें,
तो भी खयाल
आता है कि जो
देनेवाला है
वह बड़ा होना
चाहिए। कोई
वजह नहीं है।
जो लेनेवाला
है वह छोटा
होना चाहिए।
कोई वजह नहीं
है। कोई कारण
नहीं है।
लेकिन इससे
बहुत सी चीजें
जुड़ी और
स्त्री का
व्यक्तित्व
नंबर दो का
व्यक्तित्व
स्वीकृत हो
गया। स्त्री
ने भी मान
लिया कि उसका
नंबर दो का
व्यक्तित्व
है, पुरुष
ने भी मान
लिया कि उसका
नंबर दो का
व्यक्तित्व
है।
उन
दोनों का ही
नंबर एक का
व्यक्तित्व
है;
उसका नंबर
एक का स्त्री
की तरह है, इसका
नंबर एक का
पुरुष की तरह
है; नंबर
दो इसमें कोई
भी नहीं है, और दोनों
परिपूरक हैं।
सभ्यता
स्त्री के
कारण पैदा हुई:
अब
इसके कितने
व्यापक, छोटी
से छोटी, बड़ी
से बड़ी चीज
में परिणाम
हुए। सारी
चीजों में
इसके—पूरी
संस्कृति और
पूरी सभ्यता
में यह बात
प्रवेश कर गई।
इसलिए पुरुष
शिकार करने
गया, क्योंकि
वह आक्रामक था;
स्त्री घर
में बैठी
प्रतीक्षा
करती रही।
स्वभावत: उसने
शिकार किया, वह खेत पर
काम करने गया,
उसने गेहूं
बोया, उसने
फसल काटी, वह
दुकान करने
गया, वह
दुनिया में
उड़ा, वह
चांद तक
पहुंचा, वह
सब काम करने
गया—वह
आक्रामक है
इसलिए जा सका;
स्त्री घर
बैठकर
प्रतीक्षा
करती है। घर
में उसने भी
बहुत कुछ किया,
लेकिन वह
आक्रामक नहीं
था, वह
ग्रहण
करनेवाला था।
उसने घर बसाया,
संग्रह
किया, चीजों
को जगह पर रखा।
सारी
सभ्यता का जो
स्थिर तत्व है, वह
स्त्री ने
बनाया। अगर
स्त्री न हो
तो पुरुष
आवारा ही होगा,
घुमक्कड़ ही
होगा घर नहीं
बसा सकता।
यहां से वहां
जाता रहेगा।
अभी वह स्त्री
एक खूंटी की
तरह उस पर काम
करती है; वह
घूम—घामकर उस
खूंटी पर वापस
लौटना पड़ता है
उसे। अन्यथा
वह चला जाए
एकदम। नगर न
पैदा होते।
नगर जो हैं, वे स्त्री
की वजह से
पैदा हुए। नगर
की सभ्यता
स्त्री की वजह
से पैदा हुई।
क्योंकि
स्त्री एक जगह
रुकना चाहती
है, ठहरना
चाहती है। वह
आग्रह करती है,
बस यहीं रुक
जाओ, यहीं
ठहर जाओ; थोड़ी
मुसीबत में
गुजार लेंगे,
लेकिन यहीं;
कहीं और
नहीं जाना। वह
जमीन को पकड़ती
है, वह
जमीन में जड़ें
गड़ा देती है, वह जमीन पर
रुककर खड़ी हो
जाती है।
पुरुष को उसके
आसपास फिर
दुनिया बसानी
पड़ती है।
इसलिए
नगर बसे, इसलिए
गांव बसे, इसलिए
सभ्यता बसी, घर बना। और
घर को उसने
सजाया, बनाया;
पुरुष ने जो
बाहर की
दुनिया में
कमाया, इकट्ठा
किया, उसको
बचाया। नहीं
तो पुरुष को
बचाने में
उत्सुकता
नहीं है; वह
कमाकर एक बार
ले आया और
बेकार हो गया।
उसकी
उत्सुकता तभी
तक थी जब तक वह
कमा रहा था, लड़ रहा था, जीत रहा था।
अब उसकी इच्छा
और दूसरी जगह
जीतने पर चली
गई। अब वह
वहां जीतने
चला गया है।
लेकिन वह जो
जीत लाया था, उसको कोई
बचा रहा है, सम्हाल रहा
है। उसका अपना
मूल्य है, अपनी
जगह है, वह
परिपूरक है
सारी स्थिति।
लेकिन
स्वभावत:, इसकी
वजह से— चूंकि
वह लाती नहीं,
जाती नहीं,
कमाती नहीं,
इकट्ठा
नहीं करती, निर्माण
नहीं करती—उसको
लगा कि वह
पिछड़ गई है।
छोटी—छोटी चीज
तक में वह बात
प्रवेश कर गई;
और वह सब
जगह उसको एक
हीनता का बोध
पकड़ गया। कोई
हीनता का सवाल
नहीं है।
अच्छा, अब
उस हीनता से
एक दूसरा
दुष्परिणाम
होना शुरू हुआ
कि जब तक
स्त्री
सुशिक्षित
नहीं थी, तब
तक उसने हीनता
को बरदाश्त
किया, अब
हीनता तो उसको
बरदाश्त नहीं
होती, तो
वह हीनता को
तोड्ने की
दृष्टि से, पुरुष जो कर
रहा है वही
करने में लगी
है। उससे और
घातक परिणाम
होनेवाले हैं,
क्योंकि वह
अपने मूल
व्यक्तित्व
को तोड़ ले सकती
है। और उसको
बहुत संघातक,
उसके चित्त
की गहराइयों
तक नुकसान
पहुंच सकते
हैं। अब वह
बराबर होने की
कोशिश में लगी
है। और बराबर
वह पुरुष की
तरह होकर
बराबर हो ही
नहीं सकती। तब
तो वह नंबर दो
की ही पुरुष
होगी, नंबर
एक की नहीं हो
सकती। हां, नंबर एक की
वह स्त्री की
तरह ही हो
सकती है।
तो
यहां मेरा कोई
वैल्युएशन
नहीं है; बाकी
तथ्य ऐसा है, इन चार
शरीरों का, वह मैं आपसे
कहता हूं।
स्त्री
और पुरुष की
चित्त—दशा में
फर्क
प्रश्न:
ओशो तब तो
स्त्री और
पुरुष की
साधना में भी
फर्क होगा?
फर्क
होगा। फर्क
साधना में कम, चित्त
की दशा में
ज्यादा होगा।
जैसे पुरुष की
वही साधना, एक ही साधना
पद्धति हो तो
भी पुरुष उस
पर आक्रामक की
तरह जाएगा, और स्त्री
उस पर ग्राहक
की तरह जाएगी;
पुरुष उस पर
हमला करेगा, स्त्री उस
पर समर्पण
करेगी। एक ही
साधना होगी, तो भी उनके
ढंग, उनका
एटिटयूड अलग—अलग
होगा। पुरुष
जब जाएगा तो
वह साधना की
गर्दन पकड़ लेगा;
और स्त्री
जब जाएगी, उसके
चरणों पर सिर
रख देगी— साधना
के। वह उन
दोनों के ढंग
में एटिटयूड
में फर्क होगा।
और उतना फर्क
स्वाभाविक है।
इससे ज्यादा
फर्क का कोई
सवाल नहीं है।
बस समर्पण
उसका भाव होगा।
और जब अंतिम
उपलब्धि उसे
होगी, तो
उसे ऐसा नहीं
लगेगा कि
ईश्वर मुझे
मिल गया, उसे
ऐसा ही लगेगा
कि मैं ईश्वर
को मिल गई। और
जब अंतिम
उपलब्धि
पुरुष को होगी,
तो उसे ऐसा
नहीं लगेगा कि
मैं ईश्वर को
मिल गया, उसको
ऐसा ही लगेगा
कि ईश्वर मुझे
मिल गया। वह
उनकी पकड़ के
भेद होंगे। वह
तो फर्क रहेगा।
प्रश्न: यह
चौथी भूमिका
तक ही न!
बस चौथे
तक ही। इसके
बाद तो कोई
प्रश्न नहीं
उठता, इसके
बाद तो कोई
स्त्री—पुरुष
का प्रश्न
नहीं है। चौथे
तक की ही बात
कर रहा हूं बस
चौथे शरीर तक
ये फासले
होंगे।
सूक्ष्म
अनुभवों के
साथ साक्षी की
सूक्ष्मता
प्रश्न :
ओशो आपने कहा
कि ओम् की
साधना से नाद
उपस्थित होते
हैं। क्या
आटोमेटिक भी नाद
उपस्थित होते
हैं?
आटोमेटिक
उपस्थित हों, वे
ज्यादा कीमती
हैं; अपने
आप उपस्थित
हों, वे
ज्यादा कीमती
हैं। ओम् के
प्रयोग से
उपस्थित हों
तो वे कल्पित
भी हो सकते
हैं। अपने आप
ही होने चाहिए।
वही कीमती हैं,
वही सच्चे
हैं।
प्रश्न:
आटोमेटिक
होने पर उनके
साक्षी बनना
चाहिए और
साधना
कंटिन्यू
रखनी चाहिए?
हां, उनके
साक्षी बनना
चाहिए।
साक्षी बनना
चाहिए, लीन
नहीं होना
चाहिए।
क्योंकि लीन
होने की
अवस्था तो
सातवां ही शरीर
है, उसके
पहले लीन नहीं
होना है। उसके
पहले जहां लीन
हो जाएंगे, वहीं रुक
जाएंगे; वह
ब्रेक हो
जाएगा।
प्रश्न.
वे सूक्ष्म से
सूक्ष्म होते
चले जाते हैं।
हां, वे
सूक्ष्म हो
रहे हैं, उसका
मतलब यह है कि
वे खो रहे हैं।
तो हमको भी
उतनी
सूक्ष्मता
में साक्षी
होना पड़ेगा।
जितने वे
सूक्ष्म होते
जाएंगे, उतने
हमको भी
सूक्ष्म
साक्षी बनना
पडेगा। हमें
उन्हें आखिरी
तक देखना है, जब तक कि वे
खो ही न जाएं।
प्रथम
तीन शरीर की
तैयारी
शक्तिपात के
लिए सहयोगी:
प्रश्न:
ओशो साधक के
किस शरीर में
शक्तिपात की
घटना और किस
शरीर में
ग्रेस की घटना
घटित होती है? यदि
साधक का पहला
दूसरा और
तीसरा शरीर
पूरा विकसित न
हुआ हो तो उस
पर कुंडलिनी
जागरण और
शक्तिपात का
क्या प्रभाव
पड़ेगा?
पहली
बात तो मैंने
कह दी है कि
शक्तिपात
पहले शरीर पर
होता है और
ग्रेस, प्रसाद
चौथे शरीर पर
होता है।
अगर
पहले शरीर पर
शक्तिपात हो
और कुंडलिनी
जाग्रत न हुई
हो,
तो
कुंडलिनी
जाग्रत होगी।
और बड़ी
तीव्रता से
होगी, और
बड़ी सम्हालने
की जरूरत पड़
जाएगी।
क्योंकि
शक्तिपात में,
वह जो काम
महीनों में
होता है, वह
क्षणों में हो
जाएगा।
इसलिए
शक्तिपात
करने के पहले
उस साधक के कम
से कम तीन
शरीरों की
थोड़ी सी
तैयारी की
जरूरत है।
एकदम गैर—
तैयार साधक पर, सड़क
चलते आदमी पर
पकड़कर अगर
शक्तिपात हो,
तो उसे लाभ
की जगह नुकसान
ही ज्यादा
होंगे। इसलिए
पहले उसकी
थोड़ी सी
तैयारी जरूरी
है। ही, बहुत
ज्यादा
तैयारी की
जरूरत नहीं है।
थोडी सी
तैयारी जरूरी
है कि उसके
तीनों शरीर एक
फोकस में आ
जाएं, पहली
बात। तीनों
शरीरों के बीच
एक
सूत्रबद्धता
आ जाए, कि
जब शक्तिपात
हो तो वह एक पर
न अटक जाए
शक्तिपात। एक
पर अटक गया तो
नुकसान होगा।
वह तीनों पर
फैल जाए तो
कोई नुकसान
नहीं होगा।
अगर एक पर रुक
गया तो बहुत
नुकसान होगा।
वह
नुकसान उसी
तरह का है, जैसे
कि आप खड़े हैं
और बिजली का
शॉक लग जाए।
अगर बिजली का
शॉक लग जाए
आपको, और
नीचे जमीन हो,
और जमीन शॉक
को पी जाए
पूरा, तो
नुकसान
पहुंचेगा।
लेकिन अगर आप
लकड़ी के चौखटे
पर खड़े हैं और
बिजली का शॉक
लगे, तो
नुकसान नहीं
होगा, क्योंकि
शॉक आपके पूरे
शरीर में
घूमकर वर्तुल
बन जाएगा, सर्किल
बन जाएगा।
सर्किल बन गया,
फिर कोई
नुकसान नहीं
होता; सर्किल
टूट जाए कहीं
से तो नुकसान
होता है।
समस्त ऊर्जा
का नियम यही
है कि वह
सर्किल में चलती
है। और अगर
कहीं से भी
बीच से सर्किट
टूट जाए, तो
ही धक्का और
शॉक लग सकता
है। इसलिए अगर
लकड़ी की टेबल
पर खड़े हों, तो शॉक नहीं
लगेगा।
देह—विद्युत
के संरक्षण के
उपाय:
यह
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि लकड़ी के
तख्त पर बैठकर
ध्यान करने का
और कोई
प्रयोजन नहीं
था। और यह भी
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि मृग—चर्म
पर और शेर की
चमड़ी पर बैठकर
ध्यान करने का
भी—वे सब नॉन—कंडक्टर
हैं;
सब। मृग—चर्म
बहुत नॉन—कंडक्टर
है। अगर उस
वक्त शरीर में
ऊर्जा पैदा हो
तो वह नीचे
जमीन में नहीं
जुड़ जाएगी।
नहीं तो शॉक
लग जाएगा; आदमी
मर भी सकता है।
या लकड़ी पर।
इसलिए खड़ाऊं
साधक पहनता
रहा; लकड़ी
के तख्त पर
सोता रहा। भले
उसे पता न हो
कि वह किसलिए
सो रहा है, क्या
कर रहा है।
लिखा है
शास्त्र में,
वह सो रहा
है लकड़ी के
तख्त पर। शायद
सोच रहा है कि
कष्ट देने के
लिए सो रहे हैं;
शरीर को
आराम न दें, इसलिए सो
रहे हैं। वह
कारण नहीं है,
खतरे दूसरे
हैं। साधक पर
किसी भी क्षण
घटना घट सकती
है, किसी
भी अनजान
स्रोत से।
उसको तैयार
होना चाहिए।
तो
अगर उसके तीन
शरीर की
तैयारी पूरी
है— पहले, दूसरे,
तीसरे की—
तो वह जो
शक्ति उसको
मिलेगी, वह
चौथे तक जाकर
सर्किट बना
लेगी, वर्तुल
बना लेगी। अगर
यह तैयारी
नहीं हो और
पहले ही शरीर
पर उसकी शक्ति
का अवधान हो
गया, रुक
गई, अवरुद्ध
हो गई, तो
बहुत नुकसान
पहुंच जाएंगे,
बहुत तरह के
नुकसान पहुंच
सकते हैं।
इसलिए थोड़ी सी,
इतनी भर
तैयारी जरूरी
है कि वह
शक्ति को
वर्तुल बनाने
में समर्थ हो
गया हो। यह
बहुत बड़ी
तैयारी नहीं
है, यह
बहुत आसानी से,
सरलता से हो
जाती है।
इसमें कोई
बहुत कठिनाई
नहीं है।
मुक्त
में कुछ भी
नहीं मिलता:
कुंडलिनी
जागेगी इस
शक्तिपात से, वह
तीव्रता से
जागेगी।
लेकिन बस चौथे
केंद्र तक ही
जा सकेगी, उसके
बाद की यात्रा
फिर निजी है।
मगर उतने तक
पहुंच जाने की
झलक भी बहुत
अदभुत है। और
उतना रास्ता
भी दिख जाए
अंधकार में, अमावस में—मुझे
दो मील का
रास्ता भी दिख
जाए, बिजली
चमक जाए—तो भी
कुछ कम नहीं
है। एक दफा
रास्ता भी दिख
जाए थोड़ा सा, तो भी सब कुछ
बदल गया। मैं
वही आदमी नहीं
रह जाऊंगा जो
कल तक था।
इसलिए
शक्तिपात का
थोड़ी दूर तक
दर्शन के लिए
उपयोग किया जा
सकता है, पर
उसकी
प्राथमिक
तैयारी हो
जानी चाहिए।
सीधे
सामान्यजन पर
नुकसानदायक
है ही।
और
मजा यह है कि
सामान्यजन ही
ज्यादा
शक्तिपात इत्यादि
पाने के लिए
उत्सुक रहता
है;
वह चाहता है,
मुफ्त में
कुछ मिल जाए।
लेकिन मुफ्त
में कुछ भी
नहीं मिलता।
और कई दफे
मुफ्त की चीज
बहुत महंगी
पड़ती है, बाद
में पता चलता
है। मुफ्त की
चीज से बचने
की कोशिश करनी
चाहिए। असल
में, हमें
सदा कीमत
चुकाने को
तैयार होना
चाहिए। जितनी
हम कीमत
चुकाने की
तैयारी
दिखलाते हैं,
उतना ही हम
पात्र होते
चले जाते हैं।
और बड़ी कीमत
हम अपनी साधना
से ही चुकाते
हैं।
अब
बहुत कठिन है
न! अभी एक
महिला आई दो
दिन पहले।
उसने कहा, अब
तो मैं मरने
के करीब हूं
उम्र हो गई; अब मुझे कब
होगा, अब
जल्दी करवा
दें! जल्दी
करवा दें, नहीं
तो मर जाऊंगी,
मिट जाऊंगी,
समाप्त हो
जाऊंगी। तो
मुझे जल्दी करवा
दें! तो मैंने
उससे कहा कि
तुम ध्यान के
लिए आ जाओ, दो—चार
दिन ध्यान करो।
फिर देखेंगे
ध्यान में तुम्हारी
क्या गति होती
है, फिर
आगे की बात
सोचेंगे।
उसने कहा कि
नहीं, ध्यान—व्यान
में मुझे मत
उलझाइए, मुझे
तो जल्दी हो
जाए।
अब
यह हमें.....
.बिलकुल बिना
कीमत चुकाए
कुछ चीज की
खोज चलती है।
ऐसी खोज
खतरनाक सिद्ध
होती है। इससे
कुछ मिलता तो
नहीं, कुछ टूट
सकता है। ऐसी
आकांक्षा भी
साधक में नहीं
होनी चाहिए।
जितनी हमारी
तैयारी है
उतना हमें सदा
मिल जाएगा, इसका भरोसा
होना चाहिए।
यह मिल ही
जाता है। असल
में, जो
आदमी जितनी
चीज का पात्र
है उससे कम
उसे कभी नहीं
मिलता; वह
जगत का न्याय
है, वह जगत
का धर्म है।
हम जितनी दूर
तक तैयार होते
हैं उतनी दूर
तक हमें मिल
जाता है। और
अगर न मिलता
हो तो हमें
सदा जानना
चाहिए कि कोई
अन्याय नहीं
हो रहा, हमारी
तैयारी कम
होगी। लेकिन
हमारा मन सदा
यह कहता है कि
कोई अन्याय हो
रहा है; मैं
योग्य तो इतना
हूं लेकिन
मुझे यह नहीं
मिल रहा।
ऐसा
होता ही नहीं, हम
जितने योग्य
होते हैं उतना
हमें सदा ही
मिलता है।
योग्यता और
मिलना एक ही
चीज के दो नाम
हैं। लेकिन मन
हमारा
आकांक्षा
बहुत की करता
है और श्रम
बहुत कम के
लिए करता है; हमारी
आकांक्षा और
हमारे श्रम
में बड़ा फासला
होता है। वह
फासला बहुत
आत्मघाती है।
वह कभी नुकसान
पहुंचा सकता
है। उसकी वजह
से हम दीवाने
की तरह घूमते
हैं कि कहीं
कुछ मिल जाए, कहीं कुछ
मिल जाए। और
फिर जब बहुत
लोग इस तरह
मुफ्त में
खोजने घूमते
हैं, तब
निश्चित ही
कुछ लोग इनका
शोषण कर सकते
हैं जो इनको
मुफ्त में
देने की
तैयारी
दिखलाए। इनके
पास बहुत कुछ
नहीं हो सकता,
लेकिन अगर
इन्हें कुछ
सूत्र भी कहीं
से पता चल गए
हों जिनसे ये
थोड़ा—बहुत कुछ
कर सकते हों, जो बहुत
गहरा नहीं
होगा, लेकिन
उतना नुकसान
तो ये पहुंचा
ही देंगे।
उतना नुकसान
पहुंचा सकते
हैं।
शक्तिपात
का भुलावा:
जैसे
एक आदमी, जिसको
कि शक्तिपात
का कोई भी पता नहीं
है, वह भी
अगर चाहे तो
सिर्फ बॉडी
मैग्नेटिज्य
से थोड़ा— बहुत
शक्तिपात कर
सकता है—जिसे
और भीतरी
शरीरों का, छह शरीरों
का कोई भी पता
नहीं। शरीर के
पास अपनी
मैग्नेटिक
फोर्स है, शरीर
के पास अपना
चुंबकीय तत्व
है। अगर उसकी
थोड़ी
व्यवस्था से
इंतजाम किया
जाए तो तुम्हें
शॉक पहुंचाए
जा सकते हैं, उसी से।
इसलिए
पुराना साधक
जो है, वह दिशा
देखकर सोएगा—इस
दिशा में सिर
नहीं करेगा, उस दिशा में
पैर नहीं
करेगा
क्योंकि जमीन
का एक मैग्नेट
है, और वह
सदा उस
मैग्नेट की
सीध में रहना
चाहता है। उस
मैग्नेट से वह
मैग्नेटाइज
होता रहता है।
अगर तुम उससे
आड़े सोते हो
तो तुम्हारे
बॉडी का
मैग्नेटिज्म
कम होता चला
जाता है। अगर
तुम उस
मैग्नेट की
धारा में सोते
हो, तो वह
मैग्नेट जो
जमीन का
मैग्नेट है, जिस पर कि
जमीन पूरी की
पूरी धुरी
बनाए हुए है, वह मैग्नेट
तुम्हारे
मैग्नेट को
मैग्नेटाइज
करता है, वह
तुम्हारे
शरीर को भर
देता है। जैसे
कि एक मैग्नेट
के पास तुम
लोहा रख दो, तो वह लोहा
भी थोड़ा सा
मैग्नेटाइज
हो जाएगा और
छोटी—मोटी सुई
को वह भी खींच
सकेगा। थोड़ी—बहुत
देर तक तो
खींच ही सकेगा।
चुंबकीय
शक्ति के
विभिन्न
प्रयोग:
तो
बॉडी की अपनी
चुंबकीय
शक्ति है, उसको
अगर पृथ्वी की
चुंबकीय
शक्ति के साथ
रखा जा सके......।
फिर तारों की
चुंबकीय
शक्तियां हैं।
विशेष तारे, विशेष
मुहूर्त में,
विशेष रूप
से चुंबकीय
होते हैं। अगर
उसका किसी को
पता है— और
उसका पता होने
में कोई
कठिनाई नहीं
है, वह
सारी की सारी
व्यवस्था है—तो
उन विशेष
तारों से, विशेष
घड़ी में, विशेष
स्थिति में, विशेष आसन
में खड़े होने
से तुम्हारा
शरीर बहुत
चुंबकीय हो
जाता है। और
तब तुम किसी
भी आदमी को
चुंबकीय शॉक
दे सकते हो, जो उसे
शक्तिपात
मालूम पड़ेगा,
जो कि
शक्तिपात
नहीं है।
शरीर
की अपनी
विद्युत है, शरीर
की अपनी
इलेक्ट्रिसिटी
है। उस
इलेक्ट्रिसिटी
को अगर ठीक से
पैदा किया जाए
तो छोटा—मोटा
पांच—दस कैंडल
का बल्व तो
हाथ में रखकर
जलाया जा सकता
है। उसके
प्रयोग हुए
हैं और सफल
हुए हैं। कुछ
लोगों ने वह
बल्व जलाकर
हाथ से...... .सीधा
हाथ में बल्व
लेकर जला दिया।
पांच—दस कैंडल
का बल्व तो
हाथ से ही जल
सकता है।
शक्ति तो उससे
भी बहुत
ज्यादा है।
शक्ति तो उससे
भी बहुत
ज्यादा है।
एक
स्त्री
बेल्वियम में, कोई
बीस वर्ष पहले,
आकस्मिक
रूप से
इलेक्ट्रिफाइड
हो गई। उसको
कोई छू नहीं
सकता था, क्योंकि
जो भी छुए उसे
शॉक लग जाए।
उसके पति ने
उसे तलाक दिया।
उसका कारण
तलाक का यह था
कि उसको शॉक
लगता उसको
छूकर। तलाक की
वजह से वह
सारी दुनिया
में पता चला, और तब उसके
शरीर की जांच—पड़ताल
हुई तो पता
चला कि उसका
शरीर विद्युत
पैदा कर रहा
है बहुत जोर
से।
शरीर
के पास बड़ी
बैटरीज हैं।
अगर वे
व्यवस्थित
काम कर रही
हों तो हमें
पता नहीं चलता, अगर
वे
अव्यवस्थित
हो जाएं तो
उनसे बहुत
शक्ति पैदा
होती है। तुम
पूरे वक्त
कैलोरीज ले
जाकर भीतर उन
सब बैटरीज को
पूरा कर रहे
हो। इसलिए कई
दफे तुमको ही
लगता है कि
जैसे चार्ज खो
गया, रि—चार्ज
होने की जरूरत
है। थका हुआ
आदमी, डिप्रेस्ट
आदमी, सांझ
को थका—मादा, टूटा आदमी, ऐसा लगता है
जैसे उसकी
बैटरी धीमी पड़
गई, उसने
चार्ज खो दिया,
अब वह रि—चार्ज
होना चाहता है।
रात सोकर वह
रि—चार्ज होता
है। उसे पता
नहीं कि सोने
में कौन सी
बात है जिससे वह
सुबह रि—चार्ज्ड
होकर उठता है।
उसकी बैटरी
वापस चाज्र्ड
हो गई है।
नींद में कुछ
प्रभाव उस पर
काम कर रहे
हैं। उनका सब
पता चल चुका
है कि वे कौन
से प्रभाव काम
करते हैं। कोई
आदमी चाहे तो
उन प्रभावों
का जागते हुए
अपने शरीर में
फायदा ले सकता
है। और तब वह
तुम्हारे
शरीर को शॉक
दे सकता है, जो मैग्नेटिक
के भी नहीं
हैं, इलेक्ट्रिक
के हैं— बॉडी
इलेक्ट्रिक
के हैं। लेकिन
उससे तुमको
शक्तिपात का
भ्रम हो सकता
है।
इसके
अलावा भी और
रास्ते हैं जो
सब फाल्स हैं, जिनसे
कोई संबंध
नहीं है असली
बात का। अगर
उस आदमी को
अपने शरीर के
मैग्नेट का भी
कोई पता नहीं
है, अपने
शरीर की
विद्युत का भी
कोई पता नहीं
है, लेकिन
तुम्हारे
शरीर के
विद्युत के
सर्किट को
तोड्ने का उसे
कोई रास्ता
पता है, तो
भी तुम्हें
शॉक लग जाएगा।
अब इसको कई
तरह से किया
जा सकता है और
कई तरह के इंतजाम
किए जा सकते
हैं कि
तुम्हारा ही
जो वर्तुल है
तुम्हारे
भीतर विद्युत
का, वह अगर
तोड़ दिया जाए
तो तुमको शॉक
लगेगा। उसमें
दूसरे आदमी का
कुछ भी नहीं आ
रहा है तुम्हारी
तरफ, लेकिन
तुमको ही शॉक
लग रहा है। वह
तोड़ा जा सकता
है। उसको
तोड्ने की भी
व्यवस्थाएं
हैं, उसको
तोड्ने के भी
उपाय हैं।
मात्र
कुतूहल से
साधना में
खतरे:
ये
सारी की सारी
बातें
तुम्हें मैं
पूरी न बता सकूं, क्योंकि
वे पूरी बतानी
कभी भी उचित
नहीं। और
जितनी बातें
मैं कह रहा
हूं उनमें से
कुछ भी पूरी
बात नहीं है।
यह जो फाल्स
मेथड्स की जो
मैं बात कर
रहा हूं इसमें
कोई भी बात
पूरी नहीं है;
क्योंकि
इसमें पूरी
कहना सदा खतरनाक
है। क्योंकि
उसको कोई भी
करने का मन
होता है।
हमारी
क्यूरिआसिटी
ऐसी है कि एक
बहुत अदभुत फकीर
ने तो
क्यूरिआसिटी
को ही सिर्फ
सिन कहा है।
पाप एक ही है
आदमी में, वह
है उसका
कुतूहल; और
बाकी कोई पाप
नहीं है।
क्योंकि वह
कुतूहलवश
कितने पाप कर
लेता है, हमें
पता नहीं चलता।
कुतूहल ही
उसको न मालूम
कितने पाप करा
देता है।
बाइबिल
की कथा कि अदम
को ईश्वर ने
कहा है कि तू इस
वृक्ष का फल
मत चखना। बस
यह कुतूहल
दिक्कत में
डाल दिया उसे।
ओरिजिनल सिन
जो है, वह
क्यूइरआसिटी
का था। उसको
यह दिक्कत पड़
गई। उसने कहा
कि यह मामला
बड़ा गड़बड़ है!
इतने बड़े जंगल
में और इतने
सुंदर फलों में
यह एक साधारण
सा वृक्ष, इसका
फल खाने की
मनाही है! बात
क्या है?
सारे
वृक्ष बेकार
हो गए, वह एक ही
वृक्ष सार्थक
हो गया। चित्त
वहीं डोलने
लगा उसका। वह
बिना फल चखे
नहीं रह सका, वह फल उसे चखना
पड़ा। कुतूहल
उसे उस वृक्ष
के पास ले गया,
जिसे
ईसाइयत कहती
है कि ओरिजिनल
सिन, मूल
पाप हो गया।
अब
मूल पाप फल के
चखने में क्या
हो सकता है? नहीं
लेकिन, मूल
पाप उसके
कुतूहल का हो
गया। और हमारे
मन में बड़ा
कुतूहल होता
है। शायद ही
कभी हमारे मन
में जिज्ञासा
हो। जिज्ञासा
सिर्फ उसी में
होती है
जिसमें कुतूहल
नहीं होता। और
ध्यान रखना, क्यूरिआसिटी
और इंकायरी
में बड़ा
बुनियादी फर्क
है। क्यूरिअस
आदमी
इंकायरिग
नहीं होता। वह
जो आदमी
कुतूहल से भरा
रहता है कि यह
भी देख लें, यह भी देख
लें, वह
किसी चीज को
कभी पूरी नहीं
देखता; क्योंकि
जब तक वह इसको
देख नहीं पाता
कि पच्चीस और
चीजें उसे
बुलाने लगती
हैं कि यह भी
जान लें, यह
भी देख लें।
और तब वह कभी
भी अन्वेषण
नहीं कर पाता
है।
तो
ये फाल्स
मेथड्स की जो
मैं बात कह
रहा हूं यह
पूरी नहीं है।
इसमें कुछ खास
बातें छोड़ दी
गई हैं। उनका
छोड़ देना
जरूरी है, क्योंकि
हमारा मन होता
है कि हम इनको
करके देखें।
लेकिन यह सब
हो जाता है, इसमें जरा
भी कठिनाई
नहीं है।
और
इस सबकी वजह
से जो झूठे
आकांक्षी
खोजते फिरते
हैं कि हमें
शक्ति मिल जाए, परमात्मा
मिल जाए, कोई
दे दे, इनको
कोई देनेवाला
भी मिल जाता
है। और तब
अंधे अंधों का
मार्गदर्शन
करते हैं। और
फिर अंधे तो
गिरते ही हैं,
उनके पीछे
अंधों की बड़ी
कतार गिरती है।
और यह नुकसान
साधारण नहीं
होता, कई
बार जन्मों के
लिए हो जाता
है; क्योंकि
किसी चीज को
तोड़ लेना बहुत
आसान है, फिर
से बनाना बहुत
मुश्किल है।
इसलिए
कुतूहलवश कभी
इस संबंध में
कुछ खोजबीन
करना ही नहीं।
इस संबंध में
अपनी तैयारी
पहले करना, फिर
जो जरूरी है
वह अपने आप
तुम्हारे पास
आ जाएगा— आ
जाता है।
आज
इतना ही।
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