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शनिवार, 20 जून 2015

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--202

सदगुरू की खोज—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—18
सूत्र—

न द्वेञ्चकुशलं कर्म कुशले नानुषज्‍जते।
त्यागी सत्‍वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:।। 10।।
न हि देहभृता शाक्‍यं त्यक्तुं कर्माण्यझेश्त:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्‍यभिधीक्ते।। 11।।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्।
भवत्‍यत्‍यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां क्वचित्।। 12।।  

और हे अर्जुन, जो पुरुष अकल्‍याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म में आस्क्‍त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्‍त हुआ पुरुष संशयरहित मेधावी अर्थात ज्ञानवान और त्यागी है।
क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा संपूर्णता से सब कर्म त्यागे जाना शक्य नहीं है। इससे जो पुरूष कर्मो के फल का त्यागी है, क ही त्यागी है, ऐसा कहा जाता है।
तथा सकामी पुरूषों के कर्म का ही अच्‍छा बुरा और मिश्रित, ऐसे तीन प्रकार का कल मरने के पश्‍चात भी होता है और त्यागी पुरुषों के क्रमों का फल किसी काल में भी नहीं होता है।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आपने कहा कि ज्ञानियों ने जो कहा, वह शास्त्र है और अज्ञानियों को उन्हें मानना ही चाहिए। लेकिन प्रश्न है कि शास्त्र अनेक हैं और उनके वचन अनंत, और अज्ञानी तो अज्ञानी ही ठहरा, फिर वह कैसे तय करे कि क्या उसके मानने योग्य है?

 हली बात, न तो शास्त्र अनेक हैं और न उनके वचन अनंत। एक ही बात को अनेक—अनेक रूपों से जरूर कहा गया है। लेकिन बात एक ही है।
एकं सद् विप्रा: बहुधा वदंति।
उस एक को ही जानने वालों ने बहुत—बहुत भाति से कहा है। कुरान का एक ढंग है, गीता का दूसरा ढंग है, बाइबिल का तीसरा। पर बात वही है। और अगर तुम वस्तुत: अज्ञानी हो, तो कठिनाई न होगी यह बात समझने में कि तीनों शास्त्रों ने एक ही बात कही है। कठिनाई तो तब होती है, जब तुम झूठे ज्ञानी होते हो; जब पांडित्य तुम्हारे सिर पर सवार होता है, तब कठिनाई होती है।
अज्ञानी तो सरल होता है। अज्ञानी के पास शब्दों का कोई बोझ नहीं होता, न आख अंधी होती है, निर्मल होती है। ज्ञानी, तथाकथित ज्ञानी उपद्रव खड़ा करता है। वह तथाकथित ज्ञानी कहता है, जो गीता में कहा है, वह कुरान में नहीं है। क्योंकि इस तथाकथित ज्ञानी की पकड़ शब्दों पर है, सार पर नहीं; भाषा पर है, भाव पर नहीं। इसे शास्त्र की लकीरें घेर लेती हैं; शास्त्र के शून्य रिक्त स्थान इसे दिखाई नहीं पड़ते।
दुनिया में जो कलह है, वह पंडितों के कारण है, अज्ञानियों के कारण नहीं। मौलवी लड़ता है, लडवाता है; पंडित लड़ता है, लडवाता है। अज्ञानी का क्या झगड़ा है!
थोड़ी देर को सोचो, अगर दुनिया में पंडित न हों, तो दुनिया में हिंदू मुसलमान, ईसाई होंगे? अगर होंगे भी, तो बड़े सरल होंगे। चर्च पड़ जाएगा, तो तुम वहा भी नमस्कार कर लोगे, और मस्जिद आ जाएगी पास, तो कभी वहा भी प्रार्थना कर लोगे, क्योंकि कोई तुम्हें समझाने वाला न होगा कि मंदिर अलग है, मस्जिद अलग है। यह तो समझाने वालों ने उपद्रव खड़ा किया है।
सरल आदमी का कोई भी झगड़ा नहीं है। और अज्ञान में बड़ी सरलता है।
तो तुम जब पूछते हो कि अज्ञानी कैसे तय करे कि कौन—सा शास्त्र ठीक है, तुम काफी ज्ञानी हो गए; अज्ञानी तुम हो नहीं। यह काफी ज्ञान की बात हो गई; यह तो बड़ी समझदारी आ गई। अन्यथा तुम पहचान लोगे। तुम पहचान लोगे कि फर्क शब्दों का हो सकता है, लेकिन फर्क सत्य का नहीं है।
कोई एक ढंग से प्रार्थना करता है, कोई दूसरे ढंग से प्रार्थना करता है। कोई पूरब की तरफ सिर करके प्रार्थना करता है, कोई पश्चिम की तरफ सिर करके प्रार्थना करता है। लेकिन प्रार्थना का भाव, वह समर्पण, उस अनंत के चरणों में सिर रखने की वह धारणा, वह तो एक ही है।
अगर पंडित—मौलवी न हों, तो कोई झगड़ा नहीं है। तुम सभी जगह उस एक ही ध्वनि को सुनते हुए पाओगे, सभी जगह वही सार तुम्हें समझ में आ जाएगा।
इसलिए पहली तो बात, शास्त्र अनेक नहीं हैं, दिखाई पड़ते हैं। हो नहीं सकते अनेक। सत्य अनेक नहीं है, तो शास्त्र कैसे अनेक हो सकते हैं? भाषाएं तो अनेक होंगी, क्योंकि जमीन पर कोई तीन सौ भाषाएं हैं। तो जो आदमी अरबी जानता है, जब सत्य को उपलब्ध होगा, तो संस्कृत नहीं बोलेगा, अरबी ही बोलेगा। उसमें जो गीत पैदा होगा, वह अरबी भाषा को ही पकड़कर तरंगित होगा, तुम तक आएगा। कुरान ऐसा ही गीत है।
गीत को देखो, शब्द को छोड़ो, छंद को पकड़ो। तो उपनिषद में जो छंद है, वही कुरान में है। उपनिषद में जो गीत है, वही कुरान में है। धुन को पकड़ो, मस्ती को पकड़ो, तो उपनिषद जिन्होंने गाया है, तुम उन्हें उसी मस्ती में, उसी नशे में डोलते पाओगे, जिस नशे। में मोहम्मद को डोलते हुए पाया गया है।
क्या तुम समझते हो कि फर्क दिखाई पड़ेगा मस्ती में? नहीं, मस्ती में कोई फर्क न दिखाई पड़ेगा। ही, चोटी न बढ़ी होगी मोहम्मद की। चोटी कोई शास्त्र है? जनेऊ न पड़ा होगा गले में। जनेऊ कोई शास्त्र है?
तुमने अगर व्यर्थ को देखा, तो फर्क पाओगे, अगर सार्थक को देखा, तो जरा भी फर्क न पाओगे।
और दूसरी बात कि उपद्रव तुम्हारे ज्ञान के कारण है, अज्ञान के कारण नहीं। अज्ञान की बड़ी मधुरिमा है। काश, तुम अज्ञानी हो सको, तो तुम्हारे ज्ञानी होने का द्वार खुल जाए।
लेकिन तुम ज्ञानी होने के पहले ज्ञान से भर जाते हो। वे शब्द तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठे हो जाते हैं। फिर वे शब्द द्वार नहीं खुलने देते, फिर तुम शब्दों में जीते हो। तुम्हारे असली प्रश्न भी खो जाते हैं, वे भी नकली हो जाते हैं। तुम जीवन के साक्षात्कार की आकांक्षा नहीं करते, तुम सिद्धांतों को समझने की आकांक्षा करने लगते हो। मेरे पास कोई आता है, दुखी है, अशांत है। और पूछता है, संसार परमात्मा ने बनाया या नहीं?
तुम अपनी गृहस्थी से ही काफी परेशान हो रहे हो, इतनी बड़ी गृहस्थी का बोझ मत लो। संसार किसने बनाया या नहीं बनाया, यह तुम्हारे प्राणों का प्रश्न भी कहा है! इससे तुम्हें लेना—देना क्या है? और बनाया हो किसी ने, यह जान लेने से तुम्हारे जीवन के। प्रश्न कहां हल होंगे? न बनाया हो किसी ने, तो भी क्या फर्क पड़ेगा; तुम तो तुम ही रहोगे।
ये व्यर्थ के प्रश्न हैं। सार्थक प्रश्न हमेशा वास्तविक होता है। तुम पूछते हो कि मैं अशांत क्यों हूं? तुम पूछते हो कि शांत होने का उपाय क्या है? तुम पूछते हो कि मैं दुख से भरा हूं आनंद की एक किरण नहीं जानी, कैसे जानूं? कैसे खोलूं वातायन? कैसे आख खुले? कैसे अंधेरे के बाहर आऊं? टटोलता हूं. दीए को, पाता हूं लेकिन कैसे जलाऊ? ज्योति कैसे जले?
और तुम्हारी ज्योति जले आनंद की, और शांति की बरखा होने लगे तुम्हारे आस—पास, तो तुम जानोगे। वे सब प्रश्नों के उत्तर भी जान लोगे, जो तुमने इसके पहले पूछे होते, तो व्यर्थ ही पूछे होते। और उन प्रश्नों के उत्तर जानने तुम्हें किसी के पास न जाना होगा। जो शांत हुआ, उसे परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। असली सवाल परमात्मा नहीं है, असली सवाल शांति है।
शास्त्रों से तुम परमात्मा को मत पूछो, शास्त्रों से तुम शांति सीखो। और सभी शास्त्र शाति सिखाते हैं। सभी शास्त्र ध्यान की विधियां बताते हैं। सभी शास्त्र इशारे करते हैं कि कैसे तुम आनंदित हो जाओगे। फिक्र छोड़ो, कुरान से सीखते हो कि गीता से सीखते हो! किस घाट से पीते हो पानी; सारा पानी गंगा का है। कहीं से भी पी लो; घाटों के नाम पर बहुत ध्यान मत दो; उनका कोई भी मूल्य नहीं है।
उपद्रव लेकिन ज्ञान के कारण हो रहा है। तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, यह अड़चन है। अज्ञानी हो, यह अड़चन नहीं है। अज्ञानी हो, तब तो बिलकुल भले हो; कोई अड़चन नहीं है। सरल हो, सीधे हो; मन की पट्टी खाली है, उस पर कुछ लिखा जा सकता है। भरे नहीं हो, जगह है तुम्हारे भीतर; सत्य को निमंत्रण दिया जा सकता है।
मैं तो अज्ञान की महिमा के गीत गाता हूं। अगर तुम अज्ञानी ही हो सको, तो तुम पाओगे, ज्ञान तुम पर बरसने लगा। अज्ञान को जान लेना ज्ञान का पहला कदम है।
लेकिन अड़चन कहा से आ रही है? अड़चन यहां से आ रही है, अज्ञान तो मिटा नहीं और तुमने कूड़ा—कचरा इकट्ठा कर लिया। शास्त्र से तुमने साधना नहीं सीखी, शास्त्र से तुमने सिद्धांत सीखे।
शास्त्र से अनुशासन सीखो! शास्त्र का मतलब ही यही होता है कि जिससे अनुशासन मिले, वह शास्त्र। जो तुम्हें जीवन की विधि दे, वह शास्त्र। लेकिन वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ती।
और तुम अपने शब्दों से इतने भरे हो कि मैं भी तुमसे जब बोल रहा हूं तब पक्का नहीं है कि तुम वही सुनते हो, जो मैं तुमसे कहता हूं। तुम्हारे शब्द उसमें बाधा डालते होंगे, रंग बदल देते होंगे, धुन बदल देते होंगे, अर्थ बदल देते होंगे।
आदमी वही सुनता है, जो सुनना चाहता है। आदमी वही सुनता है, जो वह पहले ही सुन चुका है। आदमी उसको छोड़ देता है, जो उसके भीतर न पच सकेगा। उसको पचा लेता है, जो पहले से पचा हुआ है।
तम मेरे पास आकर, अगर हिंदू हो, तो वही सुन लोगे जो हिंदू एन सकता है। अगर मुसलमान हो, तो वही सुन लोगे जो मुसलमान सुन सकता है। मुसलमान और मुसलमान होकर चला जग़ागा; हिंदू और हिंदू होकर चला जाएगा। और मैं चाहता था कि हिंदु, मुसलमान मिट जाएं।
मैं एक वैद्यजी के घर में ठहरा हुआ था। पंडित आदमी हैं। वे स्नान कर रहे थे सुबह—सुबह। मैं अखबार पढ़ रहा था बाहर बैठकर। उनका लड़का एक कोने में बैठकर अपने स्कूल का काम कर रहा था। वह जोर—जोर से कुछ रट रहा था। वह रट रहा था, अलंकार के भेद चार होते हैं, लाटानुप्रास, वृत्यानुप्रास, छेकानुप्रास, अंत्यानुप्रास...।
वह रट रहा था। मैंने उस पर कोई ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था। ध्यान तो तब दिया जब वैद्यजी, जो स्नान कर रहे थे अंदर स्नानगृह में, वहीं से चिल्लाए, अरे नालायक, कहां की दवाइयों के नाम रट रहा है! अपना च्यवनप्राश! उसकी तो विदेशों तक में मांग है। रख नंबर एक पर, च्यवनप्राश। यह कहां का छेकानुप्रास, अंत्यानुप्रास......।
लड़का भी चौंका, मैं भी चौंका। लेकिन तभी पत्नी, जो चौके में काम कर रही थी, जोर से भन्नाई। उसनै कहा, तुम अपना स्नान करो और दूसरों को अपना काम करने दो। यह तुम्हारे च्यवनप्राश की वजह से इस घर में कोई बीमार तक नहीं पड़ सकता। च्यवनप्राश! च्यवनप्राश! कोई बीमारी आ जाए, तो डर लगता है बताने में कि तुम फिर वह च्यवनप्राश ले आओगे!
कोई किसी की सुनता हुआ मालूम नहीं पड़ता। पत्नी शांत हो गई। मैं अपना अखबार पढ़ने लगा। लडका फिर देखकर कि उपद्रव जा चुका, फिर याद करने लगा, अलंकार चार प्रकार के होते हैं......। ऐसा वर्तुल है। कोई किसी की सुन नहीं रहा है। अपनी— अपनी सुन रहे हैं लोग।
शास्त्र की तुम कहां सुनते हो! शास्त्र के पास भी अगर तुम अज्ञानी होकर जाओ—अज्ञानी होकर जाओ मतलब, बालक की तरह होकर जाओ—तों शास्त्र भी तुम्हें जगा देगा। लेकिन तुम तो जीवित शास्त्रों के पास भी, गुरुओं के पास भी ज्ञानी होकर आते हो। वे भी तुम्हें नहीं जगा पाते।। शास्त्र तो मुरदा है, कागज पर खींची आड़ी—तिरछी लकीरें हैं। लेकिन वह भी जगा देगा, अगर तुम पंडित की तरह न गए, प्यासे की तरह गए, तो शास्त्र भी जगा देगा। और अगर पंडित की तरह तुम आए सदगुरु के पास भी, तो सदगुरु भी तुम्हें जगा नहीं पाएगा। तुम सदगुरु से भी अपनी नींद के बहाने खोजकर वापस लौट जाओगे।
इस बात को तय करने की जरूरत ही नहीं कि क्या मानने योग्य है, क्या मानने योग्य नहीं है। तुम कैसे तय करते हो, क्या खाने योग्य है, क्या खाने योग्य नहीं है? जो पच जाता है, जो स्वस्थ करता है, शक्तिवर्धक है, उसे तुम खाने योग्य समझ लेते हो। पत्थर—कंकड नहीं खाते। अज्ञानी से अज्ञानी नहीं खाता पत्थर—कंकड़। क्यों? जानता है, वे पचेंगे नहीं; दुख देंगे, पीड़ा देंगे।
जीवन जिससे रसपूर्ण हो जाए, वही चुनने योग्य है। जीवन में जिससे स्वास्थ्य बढ़े, सौरभ बढ़े, वही चुनने योग्य है। जीवन जिससे उत्सव बने, वही चुनने योग्य है। जिससे उदास हो जाए; टूट जाए, खंडहर हो जाए, वही छोड़ देने योग्य है।
मैं तुम्हें सिद्धांत चुनने की बात ही नहीं कर रहा; जीवन तुम्हारे पास है, वही कसौटी है। तुम उस पर ही कसे चलो।
जब तुम झूठ बोलते हो, तो जीवन में आनंद बढ़ता है? बस, इसको ही देखो। अगर बढ़ता हो, तो मैं कहता हूं झूठ ही बोलो। मैं तुमसे कभी न कहूंगा कि सच बोलो। अगर धोखा देने से, बेईमानी करने से, दूसरों को कष्ट देने से तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा होती हो, तो वही धर्म है। तुम वही करो। किसी की मत सुनो। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं। ऐसा हो नहीं सकता। वह जीवन का विधान नहीं है।
शास्त्र केवल इतना ही कहते हैं, वह जो अनंत— अनंत बार जाना गया है, उसी को दोहराते हैं, हर जानने वाले ने जो अनुभव किया ' है, उसी को दोहराते हैं। वे इतना ही कहते हैं, कंकड़—पत्थर मत खाओ। झूठ दुख देगा; सुख का कितना ही आश्वासन दे ,, दुख देगा। दूसरे को दुख दोगे, दुख लौटेगा। दूसरे को सताओगे, सताए जाओगे। अशांति पैदा करोगे लोगों के जीवन में, तुम्हारे जीवन में अशांति की प्रतिध्वनि होगी। और कुछ भी न होगा। क्योंकि संसार तो दर्पण है। तुम्हें अपना ही चेहरा सब तरफ दिखाई पड़ने लगेगा। तुम अपने ही चेहरों से घिर जाओगे।
बस, शास्त्र इतना ही कहते हैं। शास्त्र सीधे—साफ हैं। उलझाया है तो पंडितों ने। वे एक एक शब्द की इतनी बाल की खाल निकालते रहते हैं कि यह भूल ही जाता है कि शास्त्र भोजन की तरह है। वह चर्चा करने के लिए नहीं है बैठकर वह पचाने के लिए है। वह तुम्हारा खून बने, हड्डी—मांस—मज्जा बने।
बोधिधर्म चीन गया। जब वह वापस लौटने लगा नौ वर्ष के बाद, तो उसने अपने चार शिष्य, जो कि श्रेष्ठतम थे, जो अर्जुन जैसे होंगे, जो पुरुषश्रेष्ठ थे, जिन्होंने उसको पूरी तरह पचाया था, उनको बुलाया। और उसने पहले से पूछा कि मैं जाता हूं; परीक्षा की घड़ी आ गई। सार की बात जो तूने मुझसे सीखी हो, कह दे। उस व्यक्ति ने कहा, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, यही धर्म है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरा शरीर है।
दूसरे से पूछा। उसने कहा, योग, साधना, विधियां, अभ्यास, यही सार है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरा मांस है।
तीसरे से पूछा। उसने कहा, ध्यान, शाति, शून्यता, यही सारा राज है, कुंजी है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।
चौथे की तरफ आख फेरी। चौथा उसके चरणों पर गिर पड़ा; बोला कुछ भी नहीं। बोधिधर्म ने उठाया, उसकी आंखों में झांका। वह बोला कुछ भी नहीं। उसने कहा, तेरे पास मेरा सब कुछ है, मेरी आत्मा है।
क्या मामला था? एक ने इतना ही पचाया की चमड़ी बनी। बस, ऊपर—ऊपर रही। पचाया उसने भी, क्योंकि चमड़ी भी बिना पचाए नहीं बनती। लेकिन परिधि पर ही छुआ। दूसरा थोड़ा भीतर गया, वह मांस बना। उसने गुरु को थोड़ा गहरा पचाया। तीसरा और भीतर गया। उसने गुरु को और आत्मसात किया, वह हड्डियां बन गया। चौथा इतना गहरा गया कि कह भी न सका कि कितना गहरा गया हूं। क्योंकि जो शब्द में आ जाए, वह कोई गहराई है? जो कही जा सके, वह भी कोई समझ है? समझ तो अतीत है सब वचनों के। इसलिए वह चुप ही रह गया। उसने सिर्फ अपनी आंखें गुरु के सामने कर दीं कि अगर कुछ हुआ हो, तो तुम देख लो। मैं क्या कहूं! कहने को कुछ भी नहीं है। धर्म क्या कहा जा सकता है! कितना तुम पचाते हो? इसकी फिक्र छोड़ो कि शास्त्र अनेक हैं, कौन से चुनें। कोई भी चुन लो। जो हाथ आ जाए, वही काम दे देगा। इसकी बहुत बिगचना में मत पड़ो, क्योंकि समय व्यतीत होगा, जीवन खोएगा।
इसलिए पुराने दिनों में एक सहज व्यवस्था थी, और वह यह थी कि तुम जिस परंपरा में पैदा हुए हो, चुपचाप उसके शास्त्र को मानकर चलते चले जाओ। ताकि व्यर्थ की उलझन न खड़ी हो, कहां चुनो, क्या करो। जिस परंपरा में पैदा हुए हो, चुपचाप उस शास्त्र में डूबते चले जाओ। उसी शास्त्र में डूबकर तुम एक दिन पाओगे, सब परंपराओं के पार निकल गए।
कोई परंपरा तोड्ने की भी जरूरत नहीं है। उसमें से भी ऊपर जाने का उपाय है। गहरे गए कि ऊपर चले जाओगे। उथले रहे कि भीतर रह जाओगे। परंपरा बांधती है उनको, जो डुबकी लगाते ही नहीं। जो डुबकी लगाना जानते हैं, वे तो परंपरा में से भी परम स्वतंत्रता को उपलब्ध हो जाते हैं।
मगर अब यह न हो सकेगा। बात बिगड़ गई। वह बात गई, वह समय न रहा। अब तो सारी दुनिया छोटा—सा गांव बन गई है। अब तो यह असंभव है कि हिंदू मुसलमान से अपरिचित रह जाए। यह संभव नहीं है कि ईसाई हिंदू से अपरिचित रह जाए। और बुरा भी नहीं है, एकदम शुभ है।
सारे शास्त्र सब के लिए खुल गए हैं। हिंदू के लिए मंदिर था, मुसलमान के लिए मस्जिद थी, ईसाई के लिए चर्च था, अब सब मिश्रित हो गए। एक महासंगम घटित हुआ है पृथ्वी पर। इस महासंगम में जो नासमझ अपने को समझदार समझ बैठे हैं, वे बहुत कुछ गंवा देंगे। जो नासमझ अपने को नासमझ समझते हैं, वे बहुत कुछ बचा लेंगे।
अगर तुम अज्ञानी हो, तो इस महासंगम से बहुत लाभ होगा; क्योंकि तुम देख पाओगे। शब्दों से खाली आंखें कुरान में गीता को खोज लेंगी, गीता में कुरान को देख लेंगी। और तुम्हारा अहोभाव बढ़ेगा, तुम्हारी श्रद्धा और भरपूर होगी। क्योंकि सभी शास्त्र यही कहते हैं। सदियों—सदियों में, अलग—अलग देशों में, अलग—अलग हवाओं, परंपराओं में जो भी कहा गया है, वह सब एक ही तरफ इशारा करता है। अंगुलियां कितनी ही हों, चांद एक है।
तुम्हारी श्रद्धा बढ़ेगी, अगर तुममें थोड़ी—सी भी सरलता है। अगर नहीं है, तो तुम बड़े डांवाडोल हो जाओगे। तुम हिंदू थे अब तक, विश्वास था; वह विश्वास भी डगमगा जाएगा। क्योंकि कुरान कुछ और कहती मालूम पड़ेगी, बाइबिल कुछ' और कहती मालूम पड़ेगी। तुम उस हालत में हो जाओगे, जैसे धोबी का गधा, न घर का न घाट का। मस्जिद जाओगे, तो मंदिर बुलाएगा। मंदिर जाओगे, तो मस्जिद पुकारेगी। कुरान पढ़ोगे, तो गीता याद आएगी। गीता पढ़ोगे, तो कुरान याद आएगा। और तालमेल कुछ बैठेगा नहीं। क्योंकि ये सभी संगीत बड़े अलग— अलग हैं। ये वाद्य अलग—अलग हैं। इनका स्वर संयोजन अलग—अलग है।
तो तुम बिलकुल पगला जाओगे, विक्षिप्त होने लगोगे। तुम्हारा विश्वास भी खो जाएगा, अगर तुमने समझदार और पंडित की तरह इस महासंगम को देखा। लेकिन अगर तुमने सरल निर्दोष बालक की तरह देखा, तो तुम्हारी श्रद्धा अनंत गुनी हो जाएगी।
विश्‍वास झूठा है; उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। तुम्हें पता ही न चले कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, तभी विश्वास बचता है। श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा को तो खुला आकाश चाहिए, तभी बचती है। अगर घर में बंद कर दो, सड़ जाती है, मर जाती है।
तो अभी तक दुनिया विश्वास में जीयी है। हिंदू घर में तुम पैदा हुए थे, हिंदू पर विश्वास किया था। जैन घर में पैदा हुए थे, जैन पर विश्वास किया था। न केवल इतना कि जैन पर विश्वास किया था, हिंदू पर अविश्वास भी किया था। क्योंकि ये दोनों साथ—साथ रहेंगे, विश्वास अपने पर, दूसरे पर अविश्वास। ऐसे बाहर और भीतर से अपने को सम्हाले रखा था।
लेकिन अब इस तरह का विश्वास नहीं टिक सकता। अब तो ऐसी परम श्रद्धा टिकेगी, जिसके लिए न तो अपने पर विश्वास की कोई जरूरत है, न दूसरे पर अविश्वास की कोई जरूरत है। अब तो ऐसी परम श्रद्धा जगत में बचेगी, जिसको खुला आकाश घबड़ाता नहीं, जिसके लिए बंद घरों की दीवारों की जरूरत नहीं है। तो विश्वास तो गिरेगा। इसलिए जो लोग विश्वास से ही अब तक धार्मिक रहे थे, अब उनके धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है। वे तो अधार्मिक हो जाएंगे। अब तो उन थोड़े से लोगों के जीवन में धर्म की हवा होगी, जिनके जीवन में श्रद्धा है।
लेकिन बस वही धर्म सच्चा है, जो खुले आकाश में बचता है। वही धर्म सच्चा है, जो विपरीत धारणाओं को भी सुनकर बच रहता है। वही धर्म सच्चा है, जो सभी तर्क के पार भी बच रहता है। विरोधी विरोध करता रहे, फिर भी तुम्हारी श्रद्धा डगमगाए न।
ऐसा नहीं कि तुम विरोधी को सुनते नहीं, कान में कंकड़ डाल लेते हो, कान बंद कर लेते हो। वह भी कोई श्रद्धा हुई, जो विरोधी को सुनने से डरती है! वह तो गहरे में संदेह है, इसीलिए भय है। संदेह के साथ भय है, श्रद्धा के साथ अभय है।
इसलिए तो मैं सभी शास्त्रों की तुम से बात कर रहा हूं। मेरे पास केवल वे ही लोग टिक सकेंगे, जिनके भीतर श्रद्धा का जन्म हो रहा है। विश्वासी तो भाग जाएंगे घबड़ाकर कि यह आदमी तो हमारा विश्वास छीन लेगा! वे तो दूसरों को भी कहेंगे, वहा मत जाना, वहां नास्तिक हो जाओगे।
उनका कहना भी ठीक है। कमजोर आएगा, नास्तिक हो जाएगा; शक्तिशाली आएगा, आस्तिक हो जाएगा।
मुझे जीसस का एक वचन बहुत प्रिय है। जीसस ने कहा है, जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
तुम्हारे भीतर अगर श्रद्धा है, तो मैं उसे बढ़ा दूंगा। और अगर नहीं है, तो और घटा दूंगा। कम से कम बात तो साफ हो जाए। यह बीच में आधी लटकी त्रिशंकु की स्थिति तो न रहे। या नास्तिक, या आस्तिक। यह बीच में अटका होना उचित नहीं है।

 दूसरा प्रश्न : कल आपने कहा कि परमात्मा अनंत सूर्यों से भी अधिक ज्योतिपूर्ण है, इसलिए उसकी ज्योति को झेलना असंभव र्ह। लेकिन यह भी आप रोज कहते हैं कि मनुष्य परमात्मा का ही अंश है, फिर अंश अंशी को कैसे नहीं झेल पाता है?

 जैसे कि बूंद पर सागर टूट पड़े, तो अगर बूंद मिटने को राजी हो, तभी झेल सकती है। अगर बचने की चेष्टा करे, तो फिर न झेल पाएगी। इस गणित को ठीक से समझ लो।
अगर तुम मिटने को राजी हो, तब तो तुम झेल लोगे परमात्मा को, फिर तो कोई डर ही न रहा। लेकिन अगर तुम बचना चाहते हो, तो फिर तुम परमात्मा को न झेल सकोगे। तब तुम मात्रा में झेलो।
गुरु मात्रा में है। धीरे—धीरे झेलो। गुरु तुम्हें धीरे— धीरे राजी करेगा। गुरु भी तुम्हें मिटाएगा, पर वह तुम्हारे पूरे भवन को एक साथ आया नहीं लगा देता। वह धीरे—धीरे एक—एक सहारा खींचता है। तुम्हारे बाकी सहारे बने रहते हैं। तुम कहते हो, कोई हर्जा नहीं, यह एक डंडा अलग कर रहा है, कर लेने दो, इतने में क्या बिगड़ेगा! पूरा मकान तो खड़ा है। पर एक—एक डंडा करके वह सब खींच लेता है। एक दिन तुम अचानक पाते हो, सारा भवन गिर गया। एक—एक ईंट खींचता है गुरु, इसलिए तुम सोचते हो, एक ईंट से क्या बिगड़ता है! ले जाने दो। तुम्हारी कृपणता में भी तुम सोचते हो, एक ईंट से क्या बिगड़ेगा। इतने कृपण तुम भी नहीं हो, एक ईंट तुम भी छोड़ देते हो। मगर तुम्हें पता नहीं कि सारा भवन एक—एक ईंट से बना है। एक ईंट खिंच गई कि गुरु आश्वस्त हो गया कि अब दूसरी भी खींच लेंगे। जब भी खींचेगा, एक ही खींचेगा। इसलिए अब पक्का है कि एक तो तुम खिंचने देते हो, इतने से काम चलेगा, थोड़ी देर लगेगी। और एक—एक ईंट खिंचते—खिंचते एक दिन तुम अचानक पाओगे, तुम्हारा भवन गिर गया।
परमात्मा मात्रा से नहीं खींचता। परमात्मा को आदमी होने का पता नहीं है, गुरु को पता है। परमात्मा अपने ढंग से चलता है; उसका ढंग बड़ा विराट है। उसे आदमी के छोटे—छोटे आंगनों का पता नहीं है, उसे तो बड़े आकाश का पता है। वह बाढ़ की तरह आता है। तुम अभी बूंद को झेलने को तैयार न थे, वह सागर की तरह आ जाता है; तुम घबड़ा उठते हो। वह भयंकर सागर की गर्जना और तुम भाग खड़े होते हो।
गुरु तुम्हें आहिस्ता—आहिस्ता थपकी दे—देकर मारता है। मारता वह भी है। क्योंकि तुम जब तक न मिटो, तब तक परमात्मा हो ही नहीं सकता। मिटना तो तुम्हें होगा। तुम्हारा होना ही बाधा है, इसलिए मिटना तो पड़ेगा। मिटने की तैयारी तो सीखनी ही पड़ेगी। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम परमात्मा हो। लेकिन जब तक तुम नहीं मिटे हो, इसका तुम्हें पता न चलेगा। जब तक तुम्हारी सीमा है, तब तक तुम परमात्मा हो, इसका तुम्हें पता न चलेगा। जब तुम्हारी सीमा खो जाएगी और तुम पाओगे कि तुम हो, पहले से भी ज्यादा, पहले से भी पूर्ण, तभी तुम पाओगे कि पहले तो तुम थे ही नहीं, अब पहली दफा हो। लेकिन वह तो मिटोगे तभी होगा।
वह तो बीज जब तक मिटेगा नहीं, तब तक अंकुर न हो पाएगा। और बीज कहता है, पहले भरोसा दिला दो। बीज कहता है, मैं बिना भरोसे के, जो हूं वह मिट जाऊं; फिर पता क्या कि मिटने के बाद जीवन की कोई नई श्रृंखला फूटेगी या नहीं!
अंडा टूटेगा, तब पक्षी बाहर आएगा। लेकिन पक्षी भीतर से ही कहता है, पहले मुझे भरोसा दिला दो। मेरी सुरक्षा है यह अंडा, इसके भीतर सुख—चैन है, यह टूट जाएगा, इसके टूटने पर मैं बचूंगा? मेरे घर के मिट जाने पर मैं बर्न?
तुम भी वही पूछते हो। यह अहंकार तुम्हारा खोल है, सुरक्षा है। इसके भीतर तुम बचे मालूम पड़ते हो। यह तुम्हारा अस्त्र—शस्त्र है, कवच है। और सारा धर्म कहता है, तोड़ो इस अहंकार को। तुम कहते हो, तोड़ तो दें, लेकिन फिर हम बचेंगे? इसके बिना तुम सोच भी नहीं सकते कि तुम कैसे बचोगे।
और कठिनाई यह है कि जब तक न टूटो, तब तक पता कैसे चले। और जब तक पता न चले, तब तक तुम टूटने को राजी कैसे होओ!
इसलिए परमात्मा तुम्हें न फुसला सकेगा। वह वृक्ष है, तुम बीज हो। गुरु बीज भी था, अब वृक्ष हुआ है। तुमने उसे बीज की तरह भी जाना; अभी भी तुम बीज की खोल उसके चारों तरफ टूट गई है, लेकिन लिपटी हुई पाओगे। अभी भी बीज की खोल पड़ी है, टूट गई है; अंकुर हो गया है....।
गुरु तुम्हें पहले कदम से मिलता है, परमात्मा तुम्हें अंतिम कदम पर मिलेगा। अंतिम कदम बड़ा दूर है। पहला कदम पास मालूम पड़ता है। गुरु में एक सातत्य बन सकता है। परमात्मा में कोई सातत्य नहीं बनता।
इसलिए मैं कहता हूं कि गुरु के द्वार से तुम्हारा परमात्मा से मिलन होगा। और कोई उपाय नहीं है। गुरु के द्वार से ही सदा मिलन हुआ है।
इसलिए नानक ने तो अपने मंदिर को गुरुद्वारा नाम दे दिया। गुरुद्वारा है, वह सिर्फ द्वार है, वह एक खुला द्वार है, जिससे प्रवेश होना है। जिससे बस प्रवेश होना है और जिसे भूल जाना है। गुरु को सदा याद नहीं रखना है। द्वार को कोई याद रखता है? प्रविष्ट हो जाता है, भूल जाता है। मगर जब तक प्रविष्ट नहीं हुए हो, तब तक द्वार की तलाश रहती है। गुरु खाली जगह है।
लेकिन बड़ी कठिनाई है गुरु के साथ भी। कठिनाइयां ऐसी हैं, तीन तरह के गुरु होते हैं। एक तो गुरु होता है, जिसको शास्त्रों ने सदगुरु कहा है। उसे तो पहचानना जरा कठिन होता है। उसे समझना भी थोड़ा कठिन होता है। वह थोड़ा बेबूझ होता है, अतर्क्य होता है। उसके पास, उसको समझने को तो बड़ा धीरज चाहिए। उसका व्यवहार भी, उसका बोलना, उसका कहना, उसकी जीवन—विधि, सभी तुम्हारे गणित से थोड़ी अलग होती है। होगी ही। क्योंकि तुमने जो गणित सोचा हुआ है, वह पुराने गुरुओं के आधार पर सोचा है। और कोई एक गुरु दूसरे गुरु जैसा नहीं होता। अगर तुमने महावीर से गणित सीखा है गुरु का, तो तुम मेरे पास आकर देखोगे कि यह आदमी तो नग्न नहीं है, इसलिए ज्ञानी नहीं हो सकता। और ऐसा आज हो रहा है, ऐसा नहीं। महावीर के समय में भी महावीर से जिसने गणित सीखा गुरु होने का कि गुरु क्या है, वह बुद्ध के पास गया, तो उसने कहा, बुद्ध गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि यह तो कपड़ा पहने हुए है। गुरु तो नग्न होता है।
बुद्ध के पास जिन्होंने गुरु होने का अर्थ सीखा, वे महावीर को देखकर समझे कि यह जरा जरूरत से ज्यादा है। यह दिखावा है। नग्न होने की क्या जरूरत है? नग्न रहने की जरूरत है, होने की थोडे ही जरूरत है।
उनका कहना भी ठीक है। अब यह बताने की क्या बात है! नग्न हो, यह पहचान लिया। अब कपड़े उतारकर बाजार में खड़े होना, यह तो जरा प्रदर्शन मालूम पड़ता है! गुरु प्रदर्शन थोड़े ही करता है। उनका कहना भी ठीक है। उनको महावीर गुरु न जंचे।
हिंदुओं को दोनों गुरु न जंचे। न महावीर, न बुद्ध। महावीर की तो हिंदुओं ने बात ही न की। महावीर की चर्चा ही न उठाई। चर्चा न उठाने का कारण था कि महावीर बिलकुल समझ में ही न आए। चर्चा भी उठाओ तभी, विरोध भी करो तभी, जब कुछ समझ में आता हो।
यह आदमी बिलकुल अतर्क्य मालूम पड़ा। बारह साल तो मौन रहा; नग्न घूमने लगा, महीनों उपवास करने लगा। इसका ढंग, शैली कुछ समझ में न आई। महावीर उकडूं बैठे थे, जब उनको समाधि हुई। उकडूं! जैसे कोई गौ को दोहता है, तब बैठता है, गौदोहासन में। कभी किसी को हुई थी ऐसी समाधि! लोग पालथी लगाकर समाधि के वक्त बैठते हैं। ये उकडूं काहे के लिए बैठे थे? कोई गौ का दूध लगा रहे थे? वह भी नहीं था। उकडूं बैठे थे। बडी हैरानी की बात है।
लेकिन अगर मनसविद से पूछो, शरीरशास्त्री से पूछो, तो इसमें थोड़ा राज मालूम पड़ता है। क्योंकि बच्चा मां के पेट में उकडूं होता है, उसके घुटने उसकी छाती से लगे होते हैं। वह गर्भ की अवस्था है। महावीर इतने सरल हो गए नग्न होकर, ऐसे निर्दोष हो गए, बचपन तो दूर छूट गया, गर्भ की अवस्था आ गई। जैसे छोटा बच्चा सिकुड़ा हुआ पड़ा हो, ऐसे वे उकडूं बैठे थे; जैसे यह सारा अस्तित्व गर्भ बन गया और महावीर उसमें लीन हो गए।
महावीर की सारी व्यवस्था पकड़ में न आ सकी। महावीर, को उपेक्षा कर दिया हिंदुओं ने, बात ही उठानी ठीक नहीं है। बात में से बात निकलेगी और यह आदमी कहीं भी पकड़ में नहीं आता।
बुद्ध की बात उठाई, क्योंकि बुद्ध की बात में उपनिषद के स्वर बिलकुल साफ थे। बुद्ध आधे हिंदू थे। महावीर बिलकुल हिंदू नहीं थे, ढंग में, जीवन—व्यवस्था में।
बुद्ध की बात उठाई; लेकिन बुद्ध को भी स्वीकार तो करना मुश्किल था, और अस्वीकार भी करना मुश्किल था। इसलिए आधा हिंदुओं ने स्वीकार किया, आधा अस्वीकार किया। दसवां अवतार स्वीकार किया बुद्ध को कि वे भी परमात्मा के अवतार हैं। लेकिन एक शर्त के साथ, कि वे गलत अवतार हैं; ठीक अवतार नहीं हैं। हैं तो अवतार परमात्मा के, लेकिन ठीक नहीं।
और एक कथा हिंदुओं ने गढ़ी, कि बनाया परमात्मा ने नरक और स्वर्ग। नरक कोई जाए ही न, क्योंकि कोई पाप ही न करे। लोग सरल थे, सभी स्वर्ग चले जाएं। तो जिनको नरक में बिठाया था प्रधान बनाकर, वे सब हाथ जोड़कर एक दिन खड़े हुए कि यह तो हम बेकार ही बैठे हैं। रजिस्टर खोले बैठे रहते हैं, कोई आता ही नहीं, खाली पड़ा है। यह काहे के लिए खोला है यह दफ्तर, बंद करो, या किसी को भेजो। उन पर दया करके परमात्मा ने बुद्ध अवतार लिया कि लोगों को भ्रष्ट करो, ताकि लोग नरक जा सकें। ऐसी हिंदुओं ने कहानी गढ़ी।
तो बुद्ध ने लोगों को भड्का दिया, भरमा दिया। हैं तो वे परमात्मा के अवतार, लेकिन नरक की जगह जो खाली पड़ी है, उसकी भरने के लिए पैदा हुए।
जैन कृष्ण को नहीं समझ सकते। कृष्ण को नरक में डाला हुआ है। जैन बुद्ध को नहीं समझ सकते। बुद्ध को जैनों ने भगवान कभी नहीं कहा; महात्मा कहते हैं ज्यादा से ज्यादा, अच्छी आत्मा है। लेकिन अभी बहुत दूर, भगवत्ता से बहुत दूर। बुद्ध को वे कभी भगवान नहीं कह सकते, महात्मा कहते हैं। और महात्मा से तुम आदर मत समझना; वह अनादर का शब्द है। क्योंकि महावीर को। भगवान कहते हैं, उनको वे महात्मा नहीं कहते।
तो बुद्ध को नीचे रखते हैं। बड़े होशियार लोग हैं; दुकानदार हैं। महात्मा कहने से कोई झगड़ा भी खड़ा नहीं होता, कोई कह भी नहीं सकता कि तुम कोई अनादर कर रहे हो, लेकिन वे अनादर कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सिर्फ महात्मा ही हो; कोई भगवत्ता को उपलब्ध नहीं हो गए! अभी भगवान होना बड़ा दूर है।
लोग सीखते हैं एक गुरु से पाठ, फिर उस गुरु की शैली उनके मन में रम जाती है। फिर उसी शैली के आधार पर वे दूसरे गुरुओं की जांच करते फिरते हैं, अटकन हो जाती है। प्रत्येक गुरु अनूठा है, अद्वितीय है। उस जैसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। इसलिए सदगुरु को पहचानना बहुत कठिन है। उसको तो वही पहचान सकता है, जो सभी नक्‍शे, सभी मापदंड नीचे गिरा दे और सीधा आख खोलकर देखे।
जैसे शास्त्र को वही पहचान सकता है, जो अज्ञानी की तरह। निर्दोष हो, वैसे ही सदगुरु को भी वही पहचान सकता है, जो निर्मल अज्ञानी है, सरल, खाली। सीधा देखता है, बीच में किसी को नहीं लेता, कि महावीर से सोचेंगे कि बुद्ध से कि कृष्ण से। किसी को बीच में नहीं लेता; आख में आख डालता है, सीधा हाथ में हाथ लेता है, साक्षात्कार करता है, तो सदगुरु की पहचान होती है।
मगर यह कठिन प्रक्रिया है। इसमें हिम्मत चाहिए, क्योंकि तुम्हें किसी दूसरे का सहारा नहीं मिलेगा। अकेले तुम ही जाओगे; अपनी किताब और गाइड और कुंजियां साथ न ले जा सकोगे। सब मापदंड छोड्कर जाओगे, भयभीत होने लगोगे; कई बार संदेह पकड़ेगा, संशय पकड़ेगा। सदगुरु के पास यह यात्रा तो करनी ही पड़ेगी।
सदगुरु की उपलब्धि कठिन है; मिल भी जाए, पहचान कठिन है। पहचान भी हो जाए, बहुत दफा छोड़ने का भाव पैदा होगा; बहुत दफा भाग जाना चाहोगे। लेकिन अगर टिके ही रहे, अगर हिम्मतवर रहे, अगर साहसी रहे, तो एक दिन उपलब्ध हो जाओगे। तब सदगुरु द्वार बन जाता है।
फिर दूसरे हैं, असदगुरु। असदगुरु से इतना ही मतलब है, जो द्वार हैं नहीं, लेकिन द्वार दिखाई पड़ते हैं। ये तुम्हें जल्दी से मिल जाएंगे। इनको तुम पहचान लोगे। क्योंकि ये बिलकुल तुम्हारी भाषा के भीतर आते हैं, ये तुम्हारे तर्क के नीचे पड़ते हैं; अतर्क्य नहीं हैं। ये तुम्हारे हिसाब से चलते हैं। तुम जैसा इनको चाहते हो, वैसा ही ये व्यवहार करते हैं। वस्तुत: ये तुम्हें अपना अनुयायी नहीं बनाएंगे, क्या बनाएंगे! ये तुम्हारे अनुयायी हैं।
तुम कहते हो, सिर घुटाए हुए होना चाहिए गुरु, तो वे सिर घुटाए बैठे हैं। तुम कहते हो, दाढ़ी बढ़ाए होना चाहिए, वे दाढ़ी बढ़ाए बैठे हैं। तुम कहते हो, नग्न होना चाहिए, वे नग्न बैठे हैं। तुम जो कहो, वे तुम्हारी आज्ञा पर हाजिर हैं। बस, तुम्हें ख्वाइश प्रकट करनी है। असदगुरु जड़ होता है, इस अर्थ में कि वह तुम्हारी आकांक्षा से अपने को ढालता है। वह तुम्हारी तरफ देखता है कि तुम कैसा चाहते हो। उसकी एकमात्र आकांक्षा यह है कि वह गुरु की भांति पूजा जाए, बस। तुम्हारी जो मांग हो, वह पूरी कर देगा। वह रेडीमेड गुरु है। वह तुम्हारी मांग के अनुसार तैयार हो जाता है।
सदगुरु तुम्हारी कोई मांग पूरी नहीं करेगा। वह सिर्फ अपने होने की मांग पूरी कर रहा है। तुम्हें जंचे, ठीक, तुम्हें न जंचे, ठीक। तुम प्रसन्न होओ, अच्छा; तुम अप्रसन्न होओ, अच्छा। तुम आओ तो ठीक, तुम चले जाओ तो ठीक। तुम्हारी भीड़ इकट्ठी हो जाए तो ठीक, सन्नाटा छा जाए, कोई भी न रहे, तो भी ठीक।
सदगुरु को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारा होना न होना अर्थ नहीं रखता। शिष्य की भीड़ का कोई भी मूल्य नहीं है। लाखों की भीड़ हो, तो भी ठीक है, इने—गिने लोग रह जाएं, तो भी ठीक है, सभी लोग चले जाएं, तो भी ठीक है। वह तुम्हारे आधार से नहीं



 चलता, वह अपनी आत्मा की आवाज से चलता है। उसके साथ जिनकी चलने की हिम्मत हो, वे थोडे—से लोग चल पाएंगे। सदगुरु के साथ तो चुने हुए लोग होंगे।
जीसस के साथ मुश्किल से बारह आदमी चल सके। अब चल रहे हैं करोडों लोग, लेकिन अब उन्होंने अपनी कल्पना का जीसस पैदा कर लिया है, जो था ही नहीं। अब उन्होंने जो जीसस की धारणा बनाई है, वह झूठी है। जिंदा जीसस तो तोड़ देता उनकी धारणा, मरा जीसस क्या करे!
इसलिए सभी सदगुरु मरने के बाद धीरे— धीरे असदगुरु में परिणत हो जाते हैं—तुम्हारे कारण। अपने कारण नहीं, क्योंकि वे तो हैं ही नहीं। जिंदा में तो वे लडते रहते हैं तुमसे, तुम्हारी आकांक्षाओं को पूरा नहीं होने देते। लेकिन जब मर जाते हैं, तब तो कुछ भी नहीं कर सकते। तुम उनके संबंध में किताबें लिखते हो, चित्र बनाते हो; तुम जैसा चाहते हो, उनको बना देते हो। फिर तो वे परवश हैं।
इसलिए मरे हुए गुरुओं की बड़ी पूजा चलती है, सदियों तक चलती है। जिंदा गुरु के साथ बडा भय लगता है। जीसस को जिन्होंने सूली दी, उन्होंने ही मर जाने के बाद पूजा शुरू कर दी। कृष्ण को सामने देखकर जो डर जाते, वे हजारों साल से उनकी गीता पढ़ रहे हैं और सिर झुका रहे हैं! अभी भी तुम्हें कृष्ण मिल जाएं रास्ते पर, तो तुम भयभीत होओगे। तुम कहोगे, गीता भली है। आप कैसे चले आए? गीता के साथ बिलकुल ठीक चल रहा है। जो अर्थ निकालना है निकाल लेते हैं, जो नहीं निकालना है नहीं निकालते हैं। तुम्हारी सुनता कौन है! हम अपने को गीता में खोज लेते हैं। आपकी कोई जरूरत नहीं है, गीता काफी है। आप विश्राम करें वैकुंठ में, हम गीता पढें यहां संसार में, बिलकुल सब ठीक चल रहा है। आप यहां न आएं।
तुम थोड़ा सोचो, कृष्ण को घर में ठहरा सकोगे? भरोसे का आदमी नहीं है; पत्नी को भगाकर ले जाए!
अभी कल ही मैं अखबार में पढ रहा था कि यू .पी. में एक मुकदमा था अदालत में। एक जमीन का टुकड़ा है, छ: एकड़ जमीन का टुकड़ा है, वह राधा—कृष्ण के नाम है। अब एक झंझट खड़ी हो गई कि इतनी जमीन, छ: एकड़ बस्ती के भीतर, एक आदमी के नाम रह सकती है कि नहीं। छ: एकड़ बस्ती के भीतर, एक आदमी के नाम नहीं रह सकती।
तो वकीलों ने तरकीब निकाली और तरकीब सफल हो गई।
वकीलों ने कहा कि राधा कभी उनकी पत्नी तो थी नहीं, प्रेयसी थी। इसलिए दो व्‍यक्ति हैं ये। यह कोई परिवार नहीं है राधा—कृष्ण। इसलिए तीन — तीन एकड़ एक—एक के नाम है। तीन—तीन एकड़ रह सकती है। एक व्यक्ति के नाम पर पांच एकड़ तक रह सकती है; छ: में झंझट थी।
बात हल हो गई। अदालत ने फैसला दे दिया कि यह बात बिलकुल ठीक है। यह स्त्री राधा कभी इनकी पत्नी तो थी नहीं; पत्नी तो रुक्मिणी थी। यह तो परकीया थी, किसी और की पत्नी रही होगी। कतई गई थी।
तुम कृष्ण को घर में सुविधा से न ठहरा सकोगे। और अगर कहीं राधा—कृष्ण दोनों ही आ गए, तब तो बिलकुल न ठहरा सकोगे। कि यह तो जरा ज्यादा हो जाएगा। घर में बच्चों को भी देखना है, बिगड़ जाएं। आप कहीं और ठहर जाएं।
मर जाते हैं सदगुरु, तो लोग अपने अनुकूल उनको बना लेते हैं, साज—संवार लेते हैं, हाथ—पैर काट देते हैं, छांटकर उनकी ठीक मूर्ति बना देते हैं, फिर पूजा सुविधा से चलती है।
फिर तुम्हारा संबंध ही नहीं है गुरु से। जब तक तुम सदगुरु को भी असदगुरु की स्थिति में न ले आओ, तब तक तुम पूजा नहीं कर सकते। क्योंकि सदगुरु की स्थिति में जाने के लिए तो बड़ी कठिनाई से तुम्हें गुजरना पड़ेगा, यह ज्यादा आसान है कि सदगुरु को ही अपनी स्थिति में ले आओ। उन्हीं को उतार लेना आसान है, खुद का चढ़ना मुश्किल है। जिंदा गुरु तो लड़ता रहेगा, तुम्हें चढ़ाने की कोशिश करता रहेगा।
ये दो तरह के गुरु तो ठीक समझ में आते हैं। एक तीसरे तरह के गुरु हैं, जो गोबर—गणेश हैं; जैसे गणेशपुरी के मुक्तानंद। जिनको न तुम सदगुरु कह सकते, न असदगुरु कह सकते। असदगुरु तो बिलकुल नहीं हैं; कुछ बुराई नहीं है। सदगुरु भी बिलकुल नहीं हैं; कुछ पाया भी नहीं है। पर गोबर—गणेशों की पूजा सबसे आसान है। क्योंकि तुमसे कोई किसी तरह के रूपांतरण की अपेक्षा ही नहीं है। ऐसा हुआ कि मैं नारगोल शिविर को जाता था। गणेशपुरी आश्रम के एक भक्त ने निमंत्रण दिया कि मैं एक आधा घड़ी वहां रुक जाऊं। मैंने भी सोचा कि चलो, मुक्तानंद को देखते चलें। वह देखना बड़ा महंगा पड़ गया। रुका आधा घडी को, मेरे साथ मेरी एक शिष्या थी। महंगा इसलिए पड़ गया कि निर्मला श्रीवास्तव मेरे साथ थी। मुक्तानंद से तो ज्यादा समझदार है। क्योंकि मुक्तानंद को देखकर उसने जो बात मुझे कही, वह यह कि यह आदमी तो बिलकुल गोबर—गणेश है। आप यहां उतरे ही क्यों?
लेकिन उसी दिन मैंने देखा कि उसके मन में एक बीज आ गया, कि जब मुक्तानंद गुरु हो सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं हो सकती! यह आदमी तो बिलकुल गोबर—गणेश है। उसे उस दिन पता नहीं चला। लेकिन उस दिन मैं साफ—साफ देख सका कि उसके अंतर्भाव में एक नए अहंकार का जन्म हो गया कि जब मुक्तानंद जैसा आदमी, कुछ भी नहीं है जहां, यह जब गुरु हो सकता है, और सैकड़ों लोग इसकी पूजा कर सकते हैं, तो फिर मैं क्यों गुरु नहीं हो सकती! और यह तो मैं भी स्वीकार करता हूं कि अगर मुक्तानंद और निर्मला श्रीवास्तव में चुनना हो, तो निर्मला ज्यादा होशियार है। पर उसकी यात्रा अभी अधूरी थी। अभी शिष्यत्व के कदम ही उसने रखने शुरू किए थे और गुरु का भाव पैदा हो गया, जो कि होता है पैदा। इसलिए मैं कहता हूं वह मुक्तानंद के आश्रम में उस दिन घडीभर के लिए जाना महंगा पड़ गया, निर्मला की जिंदगी बिगड़ गई। उसे उस दिन पता भी नहीं चला, उसे आज भी शायद साफ नहीं होगा कि क्या हुआ। लेकिन यह बात देखकर कि जिस आदमी में कुछ भी नहीं है.।
मैंने उसे कहा भी नहीं कुछ कि कुछ भी नहीं है मुक्तानंद में। यह तो मैं आज कहता हूं। मैंने तो उसकी बात सुन ली। क्योंकि मैंने कहा, अगर मैं कुछ कहूंगा, तब तो और भी पक्का हो जाएगा इसको। मैंने कहा कि सब ठीक है; सब चलता है; लोगों को सब तरह के गुरुओं की जरूरत है। कुछ हैं, जिनको गोबर—गणेशों की जरूरत है, तो उनकी भी तो जरूरत पूरी होनी चाहिए। परमात्मा सभी का खयाल रखता है!
लेकिन उसका जीवन भ्रष्ट हो गया। जो उसने थोड़ा—सा पाया था, वह भी खो गया अहंकार में।
यह तीसरे गुरु से बचना बहुत जरूरी है। क्योंकि यह तुम्हें कहीं न ले जाएगा। सदगुरु कहीं पहुंचाता है, असदगुरु भटकाता है। और गोबर—गणेश केवल भरमाते हैं। भटकाते भी नहीं, भटकाएं तो भी चलो कुछ हुआ, कहीं तो ले गए! नरक भी ले गए, तो कुछ तो अनुभव होगा; पाप में उतारा, तो भी कुछ तो अनुभव होगा; गलत में ले गए, तो भी सही की तरफ आने के लिए कुछ तो रास्ता बनेगा। क्योंकि गलत का अनुभव भी सही की तरफ लाने के लिए कारण बन जाता है।
एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक एडीसन एक प्रयोग कर रहा था। वह ग्यारह सौ दफा असफल हो गया; तीन साल व्यतीत हो गए। उसके शिष्य सब घबड़ा गए। जो उसके कार्यकर्ता थे साथी, वे सब थक गए। लेकिन वह रोज सुबह चला आता है प्रसन्नचित्त, फिर प्रयोगशाला में लग जाता है, फिर आधी रात तक लगा रहता है। आखिर एक दिन उसके सहयोगी ने पूछा कि आप थकते ही नहीं! और आप उदास भी नहीं होते! और आप यह भी नहीं देखते कि ग्‍यारह सौ बार आप असफल हो चुके!
एडीसन ने कहा कि इससे तो मैं प्रसन्न हूं। कम से कम ग्यारह सौ गलतियां अब मैं न दोहराऊंगा। सत्य करीब आ रहा है। ग्‍यारह सौ रास्ते गलत सिद्ध हो गए; अब चुनने को बहुत थोडे ही बचे होंगे, किसी भी दिन ठीक रास्ता आ ही जाएगा हाथ में। मैंने खोया नहीं है इन ग्यारह सौ में कुछ, पाया ही है।
अगर मान लो दस रास्ते हैं, और नौ गलत हैं और एक सही है। तो नौ पर तुम भटके और लौट आए, तो दसवां करीब आ रहा है। हाथ में कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि क्या पाया, लेकिन तुम कुछ पा रहे हो।
तो असदगुरु भी सदगुरु तक पहुंचाने का कारण हो जाए, लेकिन गोबर—गणेश भरमाते हैं। वे न तो भटकाते हैं, न पहुंचाते। तुम कोल्हू के बैल के चक्कर में पड जाते हो, घूमते रहते हो। उनमें इतना बुरा भी नहीं है कि उससे भी कुछ अनुभव ले लो; उनमें इतना कुछ अच्छा भी नहीं है कि जो तुम्हें उड़ा शिखरों पर ले जाए। उनमें कुछ भी नहीं है। वस्तुत: उनमें तुम जो भी देख रहे हो, वह तुम्हारा प्रोजेक्यान है।
सदगुरु में कुछ है, असदगुरु में भी कुछ है। कृष्णमूर्ति में भी कुछ है और रासपुतिन में भी कुछ है; ताकत है, शक्ति है। रासपुतिन भटकाएगा। अगर उसके चक्कर में पड़ गए, तो बुरे नरक में डाल देगा। लेकिन वह भी अनुभव होगा; वह भी शायद जरूरी था जीवन की प्रौढ़ता के लिए। शायद तुम अंधेरे में न गिरो, तो प्रकाश की अभीप्सा ही पैदा न हो। शायद आवश्यक था, अनिवार्य था।
लेकिन फिर गोबर—गणेश हैं, वे कुछ भी नहीं करते। उन पर तुम प्रोजेक्ट करते हो। तुम जो भी सोचते हो वे हैं, वह तुम्हारी धारणा है, वह तुम्हारी परिकल्पना है।
ऐसा हुआ, मेरे एक परिचित हैं, सीधे—सादे आदमी हैं। उनसे मैंने एक दिन कहा कि तुम्हें अगर गोबर—गणेश गुरु बनना हो, तो तुम बन सकते हो। तुम बिलकुल सीधे—सादे हो, जीवन में कुछ बुराई भी नहीं है, कुछ भलाई भी नहीं है। इधर—उधर का कुछ भी नहीं है, कोई अति नहीं है। न मांस खाते, न शराब पीते, न सिगरेट पीते। कुछ भी नहीं। न कोई चोरी की। उतनी भी हिम्मत नहीं है। न झूठ बोले कभी। सच को भी नहीं पा लिया है। झूठ भी नहीं बोले हो। तुम बिलकुल सज्जन आदमी हो, तुम गोबर—गणेश गुरु बन सकते हो।
उन्होंने कहा, क्या मतलब?
मेरे साथ यात्रा पर कलकत्ता जा रहे थे। तो मैंने कहा, तुम ऐसा करो, तुम सिर्फ चुप रहना; तुम बोलना भर नहीं कलकत्ते में। क्योंकि तुम बोले, तो पकड़े जाओगे। तुम बोलना भर नहीं। तुम चुप रहना। लोग मुझसे पूछेंगे, आप कौन हैं? मैं कहूंगा, आप बड़े गुरु हैं। बड़े पहुंचे ज्ञानी हैं। बोलते नहीं। मौन रहते हैं।
तीन दिन मेरे साथ रहे। हालत ऐसी आ गई कि लोग मेरे पैर पीछे छुए, पहले उनके छुए। तीन महीने रह जाते, तो लोग मुझे भूल ही जाते! लौटकर रास्ते में मुझसे कहने लगे, आपने ठीक कहा। और लोगों की कुंडलिनी जगने लगी उनके स्पर्श से। उनकी खुद नहीं जगी! मगर लोग मुझसे पूछने लगे कि ये बाबा तो बड़े चमत्कारी हैं। इन्होंने सिर पर हाथ रखा, हमारी कुंडलिनी जग गई। कल्पना, प्रक्षेपण, प्रोजेक्यान, तुम जो चाहते हो, वह होने लगा। किसी को रोशनी दिखने लगी। आदमी की कल्पना बड़ी प्रगाढ़ है!
तो पहले तो गोबर—गणेशों से बचना सर्वाधिक। अपने प्रक्षेपण, अपनी कल्पना, अपने सपनों को आरोपित करने से बचना।
सदगुरु कोई अनुभव नहीं देता, सदगुरु तो अनुभव छीनता है। वह तो तुम्हें उस जगह ले आता है, जहां सब अनुभव गिर जाते हैं। केवल तुम ही रह जाते हो, अत्यंत निर्दोष, अत्यंत निर्विकार।
अनुभव भी विकार है। कुंडलिनी जग रही है, प्रकाश दिखाई पड़ रहा है, कमल खिल रहे हैं, चक्र खुल रहे हैं—सब विकार हैं, सब रोग हैं। इनको तुम गुण मत समझ लेना, इन्हीं की वजह से गोबर—गणेश पुज रहे हैं। तुम पूज रहे हो, तुम ही प्रक्षेपण कर रहे हो। अनुभव भी तुम्हारा है, धारणा भी तुम्हारी है, घटना भी तुम्हें घट रही है, वहां कोई है ही नहीं। और जब एक दफा पता चल जाता है कि ऐसा हो रहा है..।
निर्मला को पता चल गया मुक्तानंद के आश्रम में कि ऐसा हो रहा है; फिर अब उसके द्वारा लोगों की कुंडलिनी जग रही है। वह समझ गई तरकीब कि यह तो गुरु होना बिलकुल आसान है। हाथ रख दो किसी के सर पर, कुंडलिनी जग गई, किसी को प्रकाश दिखाई पड़ गया। सौ पर रखो, पच्चीस को कुछ न कुछ हरकत होगी। वह जो हरकत हो रही है, वह उसके मन की है। उससे
रंग — देने का कोई संबंध नहीं है गुरु का।
सदगुरु दृष्टे सारे अनुभवों से मुका करता है। असदगुरु तुम्हें विकृत अनुभवों में ले जाता है। गोबर—गणेश तुम्हें काल्पनिक अनुभवों में ले जाते हैं।
अगर तुम निर्दोष चित्त हो, तो तुम सदगुरु को खोज लोगे। लेकिन अगर तुम कल्पनाशील हो और तुम मुफ्त कुछ चाहते हो, तो तुम गोबर—गणेशों के चक्कर में फंस जाओगे, क्योंकि वहां मुफ्त मिलता है। छूते वे हैं, कुंडलिनी तुम्हारी जगती है! मुफ्त मिलता है।
और अगर तुम कुछ विकृत आकांक्षाएं रखते हो, कि हाथ से राख आ जाए, कि ताबीज निकल आए, कि गडी संपत्ति दिखाई पड़ने लगे, तो फिर तुम किसी असदगुरु के चक्कर में पड़ जाओगे। जब मैं ये तीन विभाजन कर रहा हूं तो किसी गुरु के विरोध में या पक्ष में कुछ नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं कि ये तीन तुम्हारे भीतर की संभावनाएं हैं।
अगर तुम गलत मांग चाहते हो, कि गड़ा हुआ खजाना दिख जाए, छूने से लोहा सोना हो जाए, तो तुम असदगुरु के चक्कर में पड़ जाओगे। अगर तुम मुफ्त अनुभव चाहते हो, बिना कुछ किए कुछ मिल जाए, किसी के आशीर्वाद से, किसी के प्रसाद से, तो तुम गोबर—गणेशों के चक्कर में पड़ जाओगे। अगर तुम कुछ भी नहीं चाहते हो सिवाय सत्य के, कुछ भी नहीं चाहते हो सिवाय परमात्मा के, कुछ भी नहीं चाहते हो केवल स्वयं की आत्मा के, स्वयं को जानना चाहते हो, तो ही तुम सदगुरु को खोज पा सकते हो।

 तीसरा प्रश्न : अर्जन गीता का ज्ञान सनते—सनते परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया या उसके बाद से उसकी भक्ति—साधना या शिष्य—साधना का प्रारंभ हुआ? उसे भगवद्याप्ति कब और कैसे हुई?

 र्जुन सुनते—सुनते ही परम भाव को प्राप्त हो गया, उसे कुछ करना नहीं पड़ा। करना भी एक भांति है। कुछ करना पड़ेगा परमात्मा को पाने के लिए, यह भी अहंकार की ही अवधारणा है। परमात्मा मौजूद है, तुम्हें जागना है, कुछ करना नहीं है। कुछ करना है तो बस जागना ही करना है, और कुछ भी नहीं करना है।
आख खोलनी है; सामने खड़ा है परमात्मा। भीतर देखना है, भीतर मौजूद है। वृक्ष को छूना है; वही तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। पशुओं की आंखों में झांकना है। हवाओं के गुंजन को सुनना है वृक्षों से निकलते हुए। उसकी ही गंज तुम्हें सुनाई पड़ जाएगी। असली सवाल उसे खोजना नहीं है, वह तो है। खो गए हो तुम। परमात्मा नहीं खो गया है।
मछली पूछती है, सागर कहां है! सागर में ही पैदा हुई है, सागर में ही लीन होगी। पूछती है, सागर कहां है! मछली सो गई है, होश से रिक्त हो गई है।
करने का सवाल नहीं है। अगर तुम सदगुरु को सुन लो, जो कि सबसे कठिन करना है। क्योंकि उस सुनने में ही तुम्हें अपने मन की सारी धारणाएं हटाकर रख देनी होंगी, उस सुनने में ही तुम्हें अपने मन के ऊपर छाए सारे विचारों के पत्ते अलग कर देने होंगे, ताकि नीचे की जल— धार प्रकट हो जाए। अगर तुम सदगुरु को सुन सको, तो सुनना ही ध्यान हो जाएगा। अगर तुम अपने को बीच में डालकर, सदगुरु जो तुमसे कहे, उसे विकृत न करो, तो उसकी हर चोट तुम्हें जगाने का कारण हो जाएगी।
अर्जुन जाग गया कृष्ण को सुनते —सुनते। इसलिए तो भारत में गीता के पाठ का इतना माहात्म्य हो गया। वह माहात्म्य इसलिए नहीं हो गया कि गीता में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जो उपनिषदों में नहीं कही हैं; या गीता में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जो वेद में नहीं हैं। नहीं, गीता में कुछ भी नया नहीं कहा है, वह सभी उपनिषदों का निचोड़ है। लेकिन यह खबर फैल गई भारत के चित्त में कि अर्जुन सुनते—सुनते ज्ञान को उपलब्ध हो गया। ऐसा दावा किसी उपनिषद का नहीं है कि किसी उपनिषद को सुनते—सुनते कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया हो।
लेकिन अर्जुन कृष्ण को सुनते—सुनते ज्ञान को उपलब्ध हो गया, यह बात फैल गई चेतना में। और तब से गीता का पाठ शुरू हुआ। लोग पाठ कर रहे हैं रोज कि शायद पाठ करते—करते ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं।
हो सकते हैं, अगर पाठ हो। लेकिन पाठ कहां होता है! अगर तुम्हारा मन हट जाए और सिर्फ गीता ही गूंजती रह जाए, तुम्हारे अर्थ विलीन हो जाएं, सिर्फ गीता की ध्वनि ही तुम्हारे अंतर्तम में बजने लगे, तो घटना घट जाएगी।
सुनते—सुनते ज्ञान घटा है।
महावीर ने कहा है कि मेरे चार घाट हैं, श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी। इन चार घाटों से मेरा तीर्थ है। इन चारों से लोग मोक्ष को जा सकते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि वे कहते हैं, श्रावक—श्राविका भी मेरे घाट हैं! श्रावक वह जो सुनने में समर्थ हो गया है, श्रवण में कुशल हो गया है। श्राविका वह स्त्री जो सुनने में योग्य हो गई है, जो हृदय से सुनने लगी है, जिसका मन बाधा नहीं देता।
मेरे देखे, जो श्रावक हो सकता है, उसे साधु होने की जरूरत ही नहीं, वह तो जो श्रावक नहीं हो सकता, उसकी मजबूरी है कि वह साधु हो। साधु का मतलब है, कुछ करना पड़ेगा। साधना पडेगा, साधु का मतलब है। श्रावक का मतलब है, सुनना काफी है, सत्य का वचन सुनना काफी है, करने को कुछ भी नहीं है फिर। सब होना वैसे ही हो जाता है, सुनते ही हो जाता है।
कृष्णमूर्ति निरंतर इस पर जोर दे रहे हैं। वे यही कह रहे हैं कि न ध्यान की जरूरत, न साधना की जरूरत। मैं क्या कह रहा हूं? इसे सुन लो। राइट लिसनिंग, ठीक—ठीक सुन लो। सम्यक श्रवण पर वे बहुत ज्यादा आग्रह कर रहे हैं। उनके सुनने वाले भी, जो चालीस—चालीस साल से सुनते हैं, वे भी उनसे पूछते हैं कि वह तो हम समझ गए; करें क्या?
कृष्णमूर्ति खीझने तक लगे हैं, चिड़चिड़ा जाते हैं। चालीस साल काफी होता है, पूरी जिंदगी गवाई इन्हीं नासमझों के साथ समझा—समझांकर कि सिर्फ सुन लो। और वे फिर भी कहते हैं, करें क्या? कृष्णमूर्ति कहते हैं, कुछ न करो! वे पूछते हैं, कैसे करें? यह कुछ न करो, कैसे करें? यही तो नहीं हो रहा है!
कृष्णमूर्ति सिर्फ श्रावक के ही घाट से लोगों का तीर्थ बनाना चाहते हैं। महावीर ज्यादा समझदार हैं। उन्होंने कहा, तीर्थ मैं चार बनाता हूं श्रावक— श्राविका के दो, साधु—साध्वी के दो। जानकर उन्होंने, क्योंकि कुछ लोग हैं, जो बिना किए मानेंगे ही नहीं। हालाकि करने में कोई मतलब नहीं है। जब जागेंगे, तब पाएंगे कि न भी किया होता तो भी हो जाता, लेकिन दौड— धूप करनी बदी थी, उछलकूद करनी जरूरी थी; वह बिना किए उनसे नहीं हो सकता था।
वह ऐसा है कि तुम्हारे सारे संसार का अनुभव करने का अनुभव है। तुमने सब किया है। जब भी किया है, तभी कुछ पाया है। जब नहीं किया है, तो खोया है। कर—करके भी खो देते हो, तो बिना किए तो पाने का सवाल ही नहीं है। संसार का पूरा सार अनुभव यह है कि करके मिल जाए, तो भी बहुत है। न करके तो कैसे मिलेगा!
इसी अनुभव को लेकर तुम मुझे भी सुनने आए हो, कृष्णमूर्ति को सुनने जाओगे, महावीर को सुनोगे, कृष्ण को सुनोगे, तो गडबड़ होगी।
अर्जुन की भाव—दशा बडी अलग थी। अर्जुन ने करके देख लिया। और करने की आखिरी घड़ी आ गई इस कुरुक्षेत्र के मैदान में, युद्ध आ गया। करने का आखिरी परिणाम यह महाहिंसा आ गई। सब करके देख लिया, अब यह महामृत्यु हाथ में आ रही है। यह बड़ी प्रतीकात्मक बात है।
तुम कर—करके एक दिन पाओगे, मृत्यु हाथ में आती है, कुछ हाथ में नहीं आता। न करने से मिलता है जीवन, करने से मिलती है मृत्यु। न करने से मिलती है शांति, करने से मिलता है युद्ध।
यह अर्जुन कर—करके युद्ध की घड़ी में आ गया। सारा परिवार युद्ध में फंस गया। मित्र, प्रियजन सब खड़े हैं। मौत सब की गर्दन पर बंधी है। यह अर्जुन यह देखकर निष्पत्ति अपने सारे उपायों की अब तक, भयभीत हो गया। उसने कृष्ण को कहा कि मेरे हाथ ढीले हुए जाते हैं, गांडीव शिथिल हो गया है। मैं लड़ न सकूंगा। इसका सार क्या है? इनको मारकर अगर मैंने राज्य भी पा लिया, तो क्या पा लूंगा? जीवनभर रोऊंगा, पीड़ित होऊंगा। इतनो को मिटाकर सिंहासन पाया, तो वह सिंहासन ऐसा रक्त—रंजित हो जाएगा, उससे ऐसी दुर्गंध आएगी, कि मैं उस पर बैठ भी न सकूंगा। वह सोने का सिंहासन मरघट मालूम पड़ेगा। नहीं, मुझे इससे बचाओ। यह कर—करके मैं यहां आ गया। और अब यह करने की आखिरी निष्पत्ति है कि ये गर्दनें, ये जीते हुए लोग, ये सब मेरे प्रियजन हैं, उस तरफ, इस तरफ।
यह गृहयुद्ध था, इसमें सब बंट गए थे। एक भाई इस तरफ था, दूसरा भाई उस तरफ था। गुरु उस तरफ खड़े थे, जिनके चरणों में बैठकर अर्जुन ने सब सीखा। उन्हीं की गर्दन को काटना पड़ेगा! उन्हीं से सीखा सब, यह धनुर्विद्या उन्हीं का दान है। और आज उन्हीं की छाती बेधनी पड़ेगी! या जिस शिष्य को उन्होंने बड़ा किया और जिस शिष्य को इतना चाहा, इतना चाहा कि जिस पर सब उंडेल दिया, उसी शिष्य को आज इस बुढ़ापे में गुरु को मारना पडेगा! कि अपने बेटे की तरह जिसे बड़ा किया, सब दिया, आज उसकी गर्दन अपने हाथ से काटनी पडेगी! यह सब बडी बेहूदी बात हो गई है।
भीष्म उस तरफ खडे हैं। जिनके प्रति अर्जुन के मन में बड़ी अगाध, प्रगाढ श्रद्धा है, जो उस कुल का गौरव हैं। इस भीष्म पितामह को, इस के को मारना पड़ेगा? नहीं, यह बात जंचती नहीं।
यह तो करने की बड़ी दुर्गति हो गई। यह कृत्य तो महाविभीषक हैं। गया।
यह करने की निष्पत्ति है। इसे थोड़ा समझो। करने के पीछे सदा ;'।हंकार है। अहंकार सदा युद्ध में ले आता है। अहंकार यानी कलह; अहंकार संघर्ष है। और सभी अहंकार अंततः कुरुक्षेत्र में पहुंच जाते हैं। इसलिए अर्जुन के मन में बड़ी बिगचना है, बड़ी विडंबना है, बड़ी चिंता, ऊहापोह है। उसके हाथ निश्चित कैप गए होंगे। वह श्रेष्ठतम व्यक्ति था वहां। किसी और के न कंपे।
अब यह थोड़ा समझने जैसा है, क्योंकि महाभारत की कथा बड़ी अनूठी है। वहां युधिष्ठिर थे, जिन्हें धर्मराज कहा जाता है। उनके कंपने थे हाथ! उनके नहीं कंपे। कोई पूछता नहीं कि यह कैसा अन्याय हो रहा है! युधिष्ठिर धर्मराज थे, उनके हाथ कंपने थे, उनका गांडीव गिरना था, उनके गात शिथिल हो जाते। वे कृष्ण के पैर पकड़ लेते और कहते कि मैं छोड़ता हूं; संन्यास लेता हूं। लेकिन नहीं, यह नहीं हुआ। कारण है।
महाभारत सूचक है। वह यह कह रहा है, युधिष्ठिर धर्मराज थे, एक महापंडित की तरह। धर्म उनके जीवन की जिज्ञासा न थी, ऊपर का आचरण था। शास्त्र अनुकूल चलने की परंपरा थी, इसलिए चले थे। लेकिन कोई जीवन की क्रांति न थी। धर्मराज थे, फिर भी जुआ खेल सकते थे, पत्नी को दांव पर लगा सकते थे। पंडित थे, ज्ञानी नहीं थे। धर्म क्या कहता है, यह सब जानते थे, लेकिन यह धर्म की उदभावना अपने ही प्राणों से न हुई थी। सज्जन थे, धार्मिक न थे। इसलिए उनको कोई अड़चन न हुई।
पंडित लड़ सकता है। उसको कोई अड़चन नहीं है। पंडित कभी धर्म को जीवन का हिस्सा नहीं मानता, बुद्धि का हिस्सा मानता है। अगर किसी को शास्त्र के संबंध में कोई अड़चन होती, तो युधिष्ठिर हल कर देते। लेकिन जीवन की अड़चन तो वे खुद ही हल नहीं कर सकते थे। वह प्रश्न भी उन्हें न उठा।
प्रश्न उठा अर्जुन को, जिसको धार्मिक कहने का कोई भी कारण नहीं है। न तो वह कोई धर्मज्ञाता था, न कोई धर्मराज था। जीवनभर युद्ध ही किया था, एक शुद्ध क्षत्रिय था, अहंकारी था, अहंकार को प्रखर त्वरा में जाना था, वही उसकी जीवन—सिद्धि थी। इसको कठिनाई आ गई!
अहंकार को जिसने जीया है, एक न एक दिन कठिनाई उसे आ जाएगी। एक दिन वह पाएगा कि अहंकार तो बड़ी दुर्गति में ले आया।
तो इसके हाथ शिथिल हो गए हैं। यह कहता है, अब मैं यह करना छोड्कर भाग जाना चाहता हूं। इसका करना असफल हो गया है। इसलिए न करने की बात इसको समझ में आ सकी। यह कर—करके देख लिया, फल कुछ पाया नहीं, फल यह है कि युद्ध हो रहा है। बोए थे बीज आशा में कि मधुर फल लगेंगे। हिंसा लगी, जहरीले फल आ गए। अगर ये ही फल हैं कृत्य के, तो अर्जुन कहता है, छोड़ता हूं सब, मैं संन्यस्त हो जाता हूं। मैं जाता हूं? मैं भाग जाता हूं। इसी से उसकी गढ़ जिज्ञासा उठी।
इसलिए मैं निरंतर कहता हुं, जिनके अहंकार परिपक्व नहीं हैं, वे समर्पण नहीं कर सकते। अहंकार चाहिए पहले पका हुआ, तभी समर्पण हो सकता है। कच्चा, अनपका, अधूरा अहंकार है, कैसे समर्पण करोगे! कर भी दोगे, तो हो न पाएगा; अधूरा रहेगा। अनुभव ही न हुआ था।
यह अर्जुन पक गया था। क्षत्रिय यानी अहंकार। और फिर क्षत्रियों में अर्जुन, अहंकार का गौरीशंकर। वह कहता है, मुझे जाने दो। कृष्ण ने इसलिए उसे जो संदेश दिया, वह बडा अनूठा है। वह कह रहा है कि मुझे जाने दो, मैं छोड़ दूं सब। लेकिन कृष्ण जानते हैं, वह इतना गहरा क्षत्रिय है अर्जुन कि यह छोड़ना भी कृत्य ही है, यह भी कर्म है, त्याग भी कर्म है। वह कहता है, मैं छोड़ दूं। मैं अभी भी बचा है। लडूंगा तो मैं, छोडूंगा तो मैं। युद्ध बेकार हुआ, इसलिए मैं त्याग करता हूं। लेकिन मैं त्याग के भीतर भी बचेगा। कृष्ण जानते हैं, यह जंगल भागकर संन्यासी हो जाएगा, तो भी अहंकार से बैठा रहेगा अड़ा हुआ। यह संन्यासी हो नहीं सकता। यह इतना आसान नहीं है।
संन्यास बड़ी गढ़ घटना है, आसान नहीं है, बड़ी नाजुक है, तलवार की धार पर चलना है। इतना सरल होता कि भाग गए, संन्यासी हो गए, 'तब तो संन्यास में और संसार में बस जरा—सी दौड़ का ही नाता है, कि छोड़ दी दुकान, भाग गए; मंदिर में बैठ गए, संन्यासी हो गए। तो यह तो ऐसा हुआ कि जैसे संसार बाहर है, भीतर नहीं है।
संसार भीतर है और अर्जुन की दृष्टि में है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि ऐसे छोड़ने से कुछ न होगा, असली छोड़ना तो वह है कि तू कर भी और जान कि नहीं करता है। ऐसे कर कि कर्ता का भाव पैदा न हो, वही संन्यास है। तू परमात्मा को करने दे, तू बीच से हट जा। अगर तू सच में ही समझ गया है कि करने का फल दुखद है, कर्ता का भाव पीड़ा लाता है, हिंसा लाता है, अगर तू ठीक से समझ गया, तो अब यह संन्यास की बात मत उठा। क्योंकि तब संन्यास भी तेरे लिए करना ही होगा, तब तू संन्यासी हो जा, कर मत। यही फर्क है। कोशिश मत कर, हो जा। चेष्टा मत कर, बस हो जा।
अर्जुन यही पूछता है कि यह कैसे होगा! यह कैसे होगा! संदेह उठाता है। और कृष्ण समझाए चले जाते हैं। इस समझाने में ही अर्जुन की पर्त—पर्त टूटती चली जाती है। एक—एक पाया कृष्ण खींचते जाते हैं। आखिरी घड़ी आती है, जहां अर्जुन कहता है, मेरे सारे संदेह गिर गए; मैं नि:संशय हुआ हूं; तुमने मुझे जगा दिया। फिर वह युद्ध करता है; फिर वह भागता नहीं। फिर भागना कहां!
फिर भागना किससे! फिर वह परमात्मा के चरणों में अपने को छोड़ देता है, वह निमित्त हो जाता है। वह कहता है, अब तुम जो करवाओ। लडवाओ, लडूंगा। भगाओ, भाग्ता। अपनी तरफ से कुछ न करूंगा। अपने को हटा लेता है।
यह जो अकर्ता भाव से किया हुआ कर्म है, यही मुक्ति है। ऐसे कर्म की रेखा किसी पर छूटती नहीं, कोई बंधन नहीं बनता। करते हुए मुक्त हो जाता है व्यक्ति। गुजरी नदी से, और पैर पानी को नहीं छूते। बाजार में खड़े रहो, और बाजार का धुआ तुम्हें स्पर्श भी नहीं करता।
अब सूत्र:

और हे अर्जुन, जो पुरुष अकल्याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म से आसक्त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त हुआ पुरुष संशयरहित मेधावी अर्थात ज्ञानवान और त्यागी है।
जो अकल्याणकारक कर्म से द्वेष नहीं करता और कल्याणकारक कर्म की कामना नहीं करता है......।
क्योंकि जब तक तुम कहोगे, यह न हो और यह हो, ऐसा न हो और ऐसा हो; रात न हो, दिन हो, दुख न हो, सुख हो; मृत्यु न हो, जीवन हो, जब तक तुम चुनोगे, तब तक अहंकार बना रहेगा। चुनाव अहंकार है। चुनावरहित हो जाना, च्चाइसलेस हो जाना, निरहंकारिता है।
तो कृष्ण कहते हैं, इसकी तू फिक्र ही मत कर कि क्या अकल्याणकारक है। छोड़ उसी पर। वही जानता होगा। जो पूरे को जानता है, वही जानता होगा। तू छोड़ दे उसी पर। और न तू कल्याण की कामना कर, कि जो ठीक है, वह मैं करूं। तू बिलकुल छोड़ दे। तू बीच से हट जा। तू अपने हाथ उसके हाथ बन जाने दे। अपनी आंखें उसकी आंखें बन जाने दे। तेरे हृदय में तू मत धड़क, उसे धड़कने दे।
और यह महाभाव घटता है। ऐसा महाभाव जब घटता है, तभी हम कहते हैं, कोई व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया। तब वह कोई चुनाव नहीं करता, तब उसका होना सरल है। जैसे नदी बहती है सागर की तरफ, ऐसा ही वह भी बहता है। उसके होने में फिर कोई कृत्य नहीं रह जाता। कर्म तो बहुत होते हैं, कर्ता नहीं रह जाता, करने का भाव नहीं रह जाता।
जो कल्याणकारक कर्म में आसक्त नहीं, अकल्याणकारक कर्म से द्वेष नहीं करता, वही संशयरहित होकर मेधा को, त्याग को उपलब्ध होता है।
त्याग, कर्ता का त्याग है, त्याग, अहंकार का त्याग है। तुमने अगर त्याग भी किया और अहंकार बच गया, तो त्याग झूठा हो गया, व्यर्थ हो गया। इस ढंग से करना त्याग कि अहंकार न बच पाए। बस, यही कला है, सारे धर्म की कला इतनी है। इस भांति छोड़ना कि छोडने वाला निर्मित न हो जाए। छोड़ना जरूर, छोड़ने वाले को मत बनने देना।
यह कैसे करोगे? इसका एक ही उपाय है कि तुम अपने को परमात्मा के हाथ में छोड़ दो। वह बुरा कराए तो बुरा, भला कराए तो भला। वह नाटक में तुम्हें रावण बना दे, तो रावण; वह राम बना दे, तो राम। तुम यह मत कहना कि हम रावण का पार्ट न करेंगे। तुम तो कहना कि तुम डायरेक्टर हो, तुम जो पात्र दे दोगे, हम वही करेंगे। हमारा कुल काम इतना है, जो तुम दे दोगे, हम उसे पूरी तरह करेंगे। वह रावण बना दे, तो रावण, वह राम बना दे, तो राम। वह राजा बना दे, तो राजा, वह रंक बना दे, तो रंक। जो उसकी मर्जी।
उसकी मर्जी से भिन्न जरा भी न सोचने का नाम संन्यास है।
क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा संपूर्णता से सब कर्म त्यागे जाना शक्य भी नहीं है, इससे जो पुरुष कर्मों के फल का त्यागी है, वह ही त्यागी है, ऐसा कहा जाता है।
तुम सारे कर्म तो छोड़ ही नहीं सकते। छोड़ना भी कर्म है। आख बंद करोगे, वह भी कर्म है। भोजन करोगे, वह भी कर्म है। श्वास लोगे, वह भी कर्म है। जंगल जाओगे, वह भी कर्म है। सोओगे, सुबह उठोगे, भूख लगेगी, भिक्षा मांगोगे, वह भी कर्म है।
कर्म से भागोगे कैसे? राजा का कर्म अलग है, भिखारी का कर्म अलग है, लेकिन दोनों कर्म हैं। अलग कितने ही हों, उनका कर्म होना तो समान ही है।
तो कृष्ण कहते हैं, यह शक्य भी नहीं है कि कोई सारे कर्मों को छोड़ दे।
फिर शक्य क्या है? शक्य इतना ही है कि फलाकांक्षा छोड़ दे; आकांक्षा न रखे। जब तुमने सारे कर्म उस पर छोड़ दिए, तो फल की आकांक्षा अपने आप छूट जाती है। इस कीमिया को ठीक से समझ लेना।
जब तक तुमने अपने हाथ में कर्मों का चुनाव रखा है, तब तक फल की आकांक्षा नहीं छूटेगी। तब तुम सफल होना चाहोगे, असफल न हो जाओ, यह भय पकड़ेगा। लेकिन जब तुमने सभी उस पर छोड़ दिया, तो वही असफल होता है, वही सफल होता है। उसको असफल होने का मजा लेना हो, ले, उसको सफल होने का मजा लेना हो, ले। तुम सिर्फ निमित्त हो जाते हो।
निमित्त शब्द बड़ा प्यारा है। इसे तुम कुंजी की तरह याद रखो, निमित्त। जैसे खूंटी है, तुम आए, कोट टांग दिया, तो खूंटी यह नहीं कहती कि कोट न टैगने देंगे। तुम आए, कमीज टांग दी, तो खूंटी यह नहीं कहती कि कमीज नहीं टैगने देंगे। कल कोट टांगा था आज भी कोट टांगो। तुमने कोट टांगा, आज रुपए हैं, कल रुपए नहीं हैं। खूंटी यह नहीं कहती कि देखो, बिना रुपए के कोट मत टांगो, इससे मन में बड़ा विषाद होता है। और इससे चित्त में बड़ी ग्लानि और पराजय का भाव पैदा होता है। और एक दिन तुम खूंटी पर कुछ भी नहीं टांगते, तो खूंटी यह नहीं कहती कि बिलकुल नंगा, भिखमंगा छोड़ दिया, कुछ तो टांगो।
खूंटी निमित्त मात्र है, जो भी टांगो, टंग जाता है। ऐसे तुम खूंटी की तरह हो जाओ। परमात्मा जो टांगे, टैग जाने दो, तब फिर फल की कोई आकांक्षा नहीं है। किसी दिन न भी टांगे, तो भी मौज है। तथा सकामी पुरुषों के कर्म का ही अच्छा, बुरा और मिश्रित, ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात भी होता है।
और वह जो व्यक्ति आकांक्षा नहीं छोड़ता फल की, वह जो भी करता है, इतनी कामना से भरकर करता है, इतने द्वेष और लोभ से भरकर करता है कि लोभ और द्वेष की लकीरें उसके चित्त पर छूटती हैं, गहरी होती हैं, बनती हैं, सघन होती हैं। और इस जीवन के बाद भी उसके साथ जाती हैं।
जो व्यक्ति कामना से भरकर कर्म करता है, अहंकार से भरकर कृत्य करता है, कर्ता को बचाता है, उसके ऊपर लकीरें ऐसे खिंच जाती हैं कर्म की, जैसे किसी ने पत्थर पर खींच दी हों। वह फिर उसका जीवन उन लकीरों से घिरा हुआ चलता है। इसको ही हमने कर्म का सिद्धांत कहा है।

 जो व्यक्ति सब कुछ उस पर छोड़ देता है, सब कुछ अस्तित्व पर छोड देता है, उस पर भी लकीरें खिंचती हैं, लेकिन वे ऐसे खिंचती हैं, जैसे पानी पर खिंची लकीरें, खिंच भी नहीं पाती कि मिट जाती हैं। करता बहुत है वह, लेकिन कुछ पीछे लकीर नहीं छूटती। वह निर्मल विदा होता है।
कबीर ने कहा है, ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया, खूब जतन से ओढी कबीरा।
जतन से ओढी कबीरा! बड़ी जतन से, बड़े होशपूर्वक ओढी कि कोई दाग न लग जाए। और जैसी की तैसी उसे वापस लौटा दी। ऐसा व्यक्ति जो फल की आकांक्षा छोड़ देता है, कर्ता का भाव छोड़ देता है.....।
बस, यही जतन है।
और मैं तो तुमसे कहता हूं कि फिर तो जतन की भी जरूरत नहीं है; फिर तो दिल खोलकर ओढो। और जैसी भी तुम लौटाओगे, वह चांदर निर्मल ही होगी।
मैं फिर से दोहरा दूर शायद तुम्हें समझ में न आए। क्योंकि खूब जतन से ओढने में भी थोड़ी साधना आ जाती है। जतन क्या! अगर तुम सब उस पर छोड़ दो, तो जतन की भी जरूरत नहीं, फिर दिल खोलकर ओढ़ो। और जितनी करवटें लेनी हों चदरिया में, लो। जब तुम लौटाओगे, चदरिया निर्मल ही होगी। क्योंकि चदरिया कृत्यों से मैली नहीं होती, कर्ता से मैली होती है। इसलिए जतन एक ही रखना कि कर्ता न बने। चदरिया दिल खोलकर ओढो।
संसार में जीयो, जैसे जीना हो। संसार एक बड़ा अभिनय का मंच है। उसको तुम सच मत समझो, सपना समझो। एक अभिनय है, पूरा करो। बस, अभिनेता की तरह दूर—दूर रहो, पार—पार रहो, अतिक्रमण करते रहो। करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई अकर्ता बना रहे। चलते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई चले न। भोजन करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई उपवासा रहे। भोग करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई संन्यस्त रहे।
इसलिए कृष्ण ने जगत को जो संन्यास दिया है, वह सबसे ज्यादा बारीक और महीन है।
ऐसे पुरुष को किसी भी काल में कर्मों का कोई भी बंधन नहीं होता।
फिर परमात्मा ही बंधे और वही मुक्त हो। तुम तो हट ही गए। इससे ज्यादा सरल कोई साधना नहीं है। इससे ज्यादा कठिन भी कोई साधना नहीं है। सरल इसलिए नहीं है कि इसमें कुछ भी करना नहीं है, सिर्फ करने का भाव छोड़ देना है। कठिन इसलिए कि इसमें कुछ भी करने को नहीं है; तुम्हारा मन बड़ी मुश्किल पाएगा। कुछ करने को होता, तो कर लेते। अब इसमें कुछ करने को ही नहीं है, तो तुम एकदम अधर में पाओगे; शून्य में भटके पाओगे। लेकिन अगर सुनो, गौर से सुनो, तो सुनने से ही सत्य उपलब्ध हो जाता है। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम मुझे सुन रहे हो, ठीक से सुन रहे हो, सम्यकरूपेण सुन रहे हो, तो तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत न रह जाएगी। अगर करने की जरूरत रह जाए, तो समझना कि ठीक से सुना नहीं, सुनना चूक गया। फिर से गौर से सुनना। इसलिए मैं रोज बोले चला जाता हूं। कभी तो सुनोगे!

आज इतना ही।




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