अध्याय—18
सूत्र—
बुद्धेभेंदं
धृतेश्चैव
गुणतीस्त्रीवधं
श्रृणु।
प्रौच्यमानमशेषेण
पृथक्त्वेन
धनंजय।। 29।।
प्रवृत्तिं
च निवृत्तिं च
कार्यास्कीयें
भयाभये।
बन्धं
मोक्षं च या
वेत्ति
बुद्धि: सा
पार्थ
सात्त्विकी।।
30।।
यया
धर्ममधर्मं च
कार्यं
चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति
बुद्धि: सा
पार्थ राजसी।।
31।।
अधर्म
धर्ममिति या
मन्यते
तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च
बुद्धि: सा
पार्थ
तामसी।। 32।।
तथा हे
अर्जुन,
तू बुद्धि का
और धारणा—
शक्ति का भी
गुणों के कारण
तीन प्रकार का
भेद संपूर्णता
से
विभागपूर्वक
मेरे से कहा
हुआ सुन।
हे पार्थ,
प्रवृत्ति—
मार्ग और
निवृत्ति—
मार्ग को तथा
कर्तव्य और अकर्तव्य
को एवं भय और
अभय को तथा
बंधन और मोक्ष
को जो बुद्धि
तत्व से जानती
है, वह
बुद्धि तो
सात्विक है।
और है पार्थ, जिस बुद्धि
के द्वारा
मनुष्य धर्म
और अधर्म की
तथा कर्तव्य
और अकर्तव्य
को भी यथार्थ
नहीं जानता
ह्रै वह
बुद्धि राजसी
है।
और है
अर्जुन,
जो तमोगुण से
आवृत हुई बुद्धि
अधर्म को धर्म
ऐसा मानती है
तथा और भी संपूर्ण
अर्थों को
विपरीत ही
मानती है,
वह बुद्धि
तामसी है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आप
निरंतर एक हाथ
से ताली बजा
रहे हैं और हम
नहीं सुन रहे
हैं, यह हम
समझे। लेकिन
हमारी ताली एक
हाथ से कैसे
बजेगी?
समझे
नहीं।
क्योंकि मेरी
एक हाथ की
ताली समझ में
आ जाए, तो एक
हाथ से ताली
बजाने की कला
भी समझ में आ
गई। उसे फिर
अलग से समझना
न होगा। अगर
उसे भी अलग से
समझने की
गुंजाइश बाकी
रही, तो
यही समझना कि
अभी समझे ही
नहीं।
आदमी
का अहंकार
मानने की
जल्दी में
होता है कि हम
समझ गए। और
वहीं सारी
भूलें हो जाती
हैं।
समझने
के मामले में
जल्दी करना ही
मत। समझ को तो
जितना कस सको, कसना।
सौ में से
निन्यानबे
मौके पर तो
तुम अपनी समझ को
कच्ची पाओगे।
वह ऐसे ही
होगी, जैसे
कुम्हार ने
कच्चा घड़ा
बनाया हो। वह
घड़े जैसा
दिखाई पड़ता है,
अभी पका
नहीं, अभी
घड़ा नहीं। इस
कच्चे घड़े में
पानी मत भर
लेना, अन्यथा
मिट्टी बिखर
जाएगी। इसे
अग्नि से
गुजारना होगा,
तब यह पकेगा।
तब तुम मजे से
पानी भरना। तब
यह घड़ा
बिखरेगा नहीं,
टूटेगा
नहीं। सुनकर
ऐसा लगता है, समझ गए। काश,
इतना आसान
होता। मैं
बोलता, तुम
समझते और समझ
घट जाती।
बौद्धिक
समझ,
समझ है ही
नहीं, समझ
का धोखा है।
मेरे शब्द
तुम्हारी समझ
में आ जाते
हैं। मेरी
भाषा
तुम्हारी समझ
में आ जाती है।
मेरा तर्क
तुम्हारी समझ
में आ जाता है।
इससे समझ थोड़े
ही पैदा हो
जाती है। इससे
तो समझ की
पूर्व— भूमिका
भी बन जाए, तो
धन्यभागी हो।
इससे तो कच्चा
घड़ा भी बन जाए,
तो भी
धन्यभागी हो,
क्योंकि
फिर कच्चे घड़े
को पकाया जा
सकता है अग्नि
में। लेकिन
कच्चे घड़े का
आकार पक्के
घड़े जैसा ही होता
है। धोखे में
मत पड़ जाना।
उससे तुम जीवन
के अमृत को न
भर पाओगे। वह
समझ व्यर्थ
सिद्ध होगी।
और
इसलिए एक बड़े
मजे की घटना
घटेगी।
तुम्हें
लगेगा भी कि
तुम समझे, और
फिर जो तुम
सवाल उठाओगे,
उनसे पता
चलेगा कि तुम
कुछ भी नहीं
समझे। पहली
पंक्ति में
कहोगे, समझ
गए, दूसरी
पंक्ति में
खंडन करोगे।
तुम्हारे
वक्तव्य
सूचना दे
देंगे। समझ का
धोखा तुम्हें
हो भला, तुम्हारी
समझ के धोखे
से तुम मुझे
धोखे में नहीं
डाल सकते। अगर
समझ हो, तो
प्रश्न शांत
हो जाए। अगर
तुम्हें यह
समझ में आ गया
कि मेरी एक
हाथ की ताली
बज रही है, तो
उसी में तो
सारी बात समझ
में आ गई। फिर
तुम्हें यह भी
समझ में आ गया
कि कैसे एक हाथ
की ताली बजती
है। फिर क्या
तुम पूछोगे, कैसे?
मेरी
एक हाथ की
ताली के बजने
में और
तुम्हारी एक
हाथ की ताली
के बजने में
क्या कोई
वैज्ञानिक
भेद होगा? कोई
विधि का भेद
होगा? हाथ
तो हाथ हैं।
अगर समझ में आ
गया, तो आ
गया, ताली
बजने ही लगी।
फिर कुछ करने
को बाकी न रहा।
अगर जरा—सा भी
करने को बाकी
रह जाए, तो
समझना कि समझ
पूरी नहीं है।
उस समझ की कमी
को तुम कुछ
करके पूरा
करना चाहते हो।
इसलिए तत्क्षण,
कैसे करें,
यह सवाल
उठता है।
कैसे
करें, हमेशा
नासमझी का
सवाल है।
समझदार ने यह
कभी पूछा ही
नहीं है।
क्योंकि समझ
सब कर देती है,
कुछ और करने
को बाकी नहीं
रह जाता।
आध्यात्मिक
जीवन में समझ
लेना, हो जाना
है। वहां समझ
सिद्धि है; वहां समझ और
सिद्धि के बीच
कोई रास्ता
नहीं है, जिसको
पार करना है।
कोई विधि नहीं
है, जिससे
जोड़ना है, कोई
सेतु नहीं
बनाना है, कहीं
जाना नहीं है।
समझ के क्षण
में तुम पाते
हो कि तुम
वहीं हो, जहां
तुम जाना चाहते
थे। कुछ होना
नहीं है। समझ
के क्षण में
आविष्कार
होता है कि
तुम वही हो, जो तुम होना
चाहते थे। कोई
मंजिल नहीं है।
तुम जहां खड़े
हो, वहीं
मंजिल है। और
तुममें कोई
कमी नहीं है, तुम अपूर्ण
नहीं हो।
समझ
के क्षण में
अहं
ब्रह्मास्मि
का उदघोष तुम्हारे
भीतर गंजने लगता
है। तुम्हारा रोआं—रोआं
कहने लगता है, अनलहक!
मैं वही हूं।
मैं सत्य हूं।
और इस उदघोष
में मैं नहीं
होता; इस
उदघोष में
सत्य ही होता
है। फिर कहा
जाना? क्या
खोजना? क्या
पाना? वह
सब नासमझी की
ही दौड़ थी।
होश आ गया, दौड़
मिट गई।
समझ
लेना ठीक से।
मंजिल दौडने
से नहीं मिलती, दौड़
के मिटने से
मिलती है।
मंजिल पूछने
से नहीं मिलती,
पूछने के
गिरने से
मिलती है।
उत्तर
तुम्हारे पास
है,
तुम उत्तर
हो। तो जब तुम
पूछते हो कि
आप निरंतर एक
हाथ से ताली
बजा रहे हैं
और हम नहीं
सुन रहे हैं, यह हम समझे।
यह तुम समझे
नहीं। अगर समझ
गए, तो
सुनो। फिर
पूछने को कुछ
रह न जाएगा।
सुनने में ही
घट जाएगी घटना।
इधर
मैं बोलूंगा, उधर
तुम सुनोगे।
इधर बोलने
वाला कोई भी
नहीं है, उधर
सुनने वाला
कोई न होगा, घटना घट
जाएगी।
सुनने
के क्षण में
तुम थोड़े ही
रहोगे। अगर
तुम रहे, तो
कैसे सुनोगे!
तुम बिलकुल
मिट जाओगे, तुम होओगे
ही नहीं। तुम
एक खाली, रिक्त
मंदिर रह
जाओगे, जिसमें
मेरी आवाज
गूंजेगी। उस
सुनने में ही
एक हाथ की
ताली बजने
लगेगी। उस
सुनने में ही
तुम पाओगे, जिसे हम
बाहर टटोलते
थे, वह
भीतर मौजूद है।
लेकिन
तुम्हारा हर
प्रश्न बताता
है कि तुम कुछ
कच्ची समझ को
असली समझ समझ
लेते हो। मैं
तुम्हारी
मजबूरी भी
समझता हूं।
तुम बौद्धिक
रूप से समझ
लेते हो।
इस
संसार में सभी
चीजें
बौद्धिक रूप
से समझी जा
सकती हैं, सिर्फ
स्वयं को नहीं
समझा जा सकता।
स्वयं को
बौद्धिक रूप
से समझना तो
ऐसा है, जैसे
अपनी ही आख से
उसी आख को
देखने की कोशिश,
अपने ही हाथ
से उसी हाथ को
पकड़ने की
कोशिश। इस
मेरे हाथ से
मैं सब कुछ
पकड़ लेता हूं
दुनिया की हर
चीज पकड़ सकता
हूं। दूर के
चांद—तारे भी
दूर नहीं हैं,
वे भी पकड़े
जा सकते हैं।
लेकिन इस हाथ
से मैं एक चीज
कभी नहीं पकड़
सकता, वह
यही हाथ है।
जो इतने निकट
है, जो इसमें
ही छिपा है, उसे नहीं
पकड़ सकता।
तुम्हारी
समझ सब समझ
सकती है, स्वयं
के होने को
नहीं समझ सकती।
उसे समझने को
तो समझ के भी
पार जाना पड़ता
है। तभी असली
समझ, पक्की
समझ पैदा होती
है।
तुम्हारे
प्रश्न तत्क्षण
बता देते हैं
कि तुम्हारी
अड़चन, उलझन
क्या है। तुम
शब्द को समझ
लेते हो। शब्द
को समझकर लगता
है, बात
समाप्त हो गई।
अब और क्या
समझने को बचा!
अब कुछ करने
को बचा। अब
बताएं कि हम
क्या करें, विधि बताएं।
विधि
कोई भी नहीं
है। और विधि
से जो पाया जा
सके,
वह
तुम्हारा
स्वभाव न होगा।
मार्ग से जहां
तुम पहुंचोगे,
वह
तुम्हारी
आत्मा न होगी।
वह तुमसे बाहर
होगी कोई चीज।
तुम्हारी
खोज तो
तुम्हारे
भीतर छिपी है।
जिसे तुम
खोजते हो, वह
तुम्हीं हो।
वह खोजने वाला
ही है। इसी
हाथ से इसी
हाथ को कैसे
पकड़ोगे, अगर
यह समझ में आ
गया, तो
क्या तुम
रोओगे, पूछोगे
कि अब इस हाथ
को कैसे पकड़े?
तब तुम जानोगे
कि यह हाथ
पकड़ा ही हुआ
है, इसीलिए
पकड़ में नहीं
आता। यह हाथ
मेरा ही है, इसे पकड़ने
की जरूरत ही
नहीं है। यह
बिना पकड़े ही
मेरे साथ चलता
है। इसे मैं
भूल भी जाऊं, तो भी यह छूट
नहीं जाता
कहीं। यह कोई
छाता थोड़े ही
है कि कहीं
भूल आए। यह
कोई जूता थोड़े
ही है कि कहीं
भूल आए, तो
याद रखना पड़े।
याद रखो, न
रखो, यह
तुम्हारे साथ
है। यह पकड़ा
ही हुआ है।
और
हाथ भी कहीं
छूट जाए, क्योंकि
वह बाहर का
हिस्सा है, तुम्हारी
आत्मा कहां
छूटेगी? तुम
भटको संसारों
में अनंत काल
तक, तुम
अपनी आत्मा को
कहीं भूल थोड़े
ही आओगे। यह
कैसे घट सकता
है! आत्मा ही
भूल जाएगी, तो तुम कहां
बचोगे! आत्मा
का सिर्फ
विस्मरण हो
सकता है। उसे
तुम खो नहीं
सकते।
मुझसे
जब लोग पूछते
हैं कि हम
आत्मा को
खोजना चाहते
हैं,
तो मैं उनसे
पूछता हूं? पहले तुम
मुझे यह बता
दो, ताकि
बात पहले से
ही उलझे न, तुमने
आत्मा खोई कहा?
खोया हो, तो खोजा जा
सकता है। खोया
ही न हो, तो
यह सारा
प्रयास ऐसा है,
उस आदमी को
जगाना, जो
सोया ही न हो।
लाख उपाय करो,
तुम जगा न
पाओगे। सोए को
जगाया जा सकता
है। जागे को
कैसे जगाओगे?
खोया हो, तो खोजा जा
सकता है।
लेकिन तुमने
खोया कहां है?
स्वभाव
का अर्थ होता
है,
जो खोया न
जा सके। सारे
पाप, सारे
कर्म, तुम्हारे
ऊपर से गिरते
हैं और गुजर
जाते हैं। तुम
अछूते, निष्कलुष,
निर्दोष
पीछे शेष रह
जाते हो। वहां
कोई रेखा भी
नहीं खिंचती।
आकाश में बादल
आते हैं, बिजलियां
कौंधती हैं, तूफान उठते
हैं, चले
जाते हैं।
आकाश निर्दोष,
निर्विकार,
जैसा था
पहले, वैसा
ही रह जाता है।
कोई काले बादल
काली रेखाएं
नहीं छोड़ जाते,
न आकाश को
गंदा कर जाते
हैं।
ऐसे
ही तुम हो।
तुम्हें गंदा
करने का उपाय
नहीं।
तुम्हें
विकृत करने का
उपाय नहीं।
तुम पर कोई
रेखा नहीं
खींची जा सकती।
तुम लाख—लाख
उपाय कर लिए
हो,
फिर भी
तुम्हारा
ब्रह्म वैसा
का वैसा है।
पाने
को कुछ भी
नहीं है, सिर्फ
थोड़ा जागना है;
आख खोलनी है।
यह तो पूछो ही
मत कि कैसे
हमारी एक हाथ
की ताली बजेगी,
वह बज ही
रही है। तुम
जरा कान बंद
किए बैठे हो, कानों को
खोलो।
तुम्हारे
भीतर अनाहत का
नाद हो ही रहा
है। कोई उस
नाद को करना
थोड़े ही पड़ेगा।
और जो नाद
किया जा सके, वह अनाहत न
होगा। अनाहत
का अर्थ ही यह
है कि जो अपने
आप हो रहा है, जिसे करने
की जरूरत नही।
क्योंकि जिसे
तुम करोगे, वह फिर सदा
नहीं हो सकता।
थकोगे, बंद
भी करना पड़ेगा।
अगर
श्वास तुम ले
रहे होते, तो
तुम कभी के मर
गए होते। भूल
जाते, दुकानदारी
में उलझ गए और
श्वास लेना
भूल गए। लाटरी
जीत गए और
घडीभर को होश
खो गया; श्वास
लेना भूल गए।
रात सो गए और
श्वास लेना
भूल गए। शराब
पी ली और
श्वास लेना
भूल गए। कभी
के मर चुके
होते। सच तो
यह है कि तुम
जिंदा ही नहीं
रह सकते थे।
लेकिन श्वास
लेना तुम पर
निर्भर ही
नहीं है। बस, तुम ले रहे
हो। तुम कुछ
भी करते रहो, श्वास चली
जा रही है, अपने
आप चली जा रही
है।
पर
श्वास भी बाहर
है। उससे भी
भीतर जो है, वह
तुम्हारा
स्वभाव है।
उसको तो तुम
छोड़ ही नहीं
सकते, वह
तुम ही हो। वह
तुम्हारा
सारभूत है। वह
तुम्हारा
तात्विक अर्थ
है, वह
तुम्हारा
तात्विक
अस्तित्व है,
वह
तुम्हारी
सत्ता है। वह
बज रहा है।
तुम जरा बाहर
के शोरगुल से
हटा लो अपने
को, आख बंद
करो, भीतर
के शोरगुल को
भी थोड़ा शांत
हो जाने दो।
अचानक तुम
पाओगे, अहर्निश
बज रही थी जो
धुन, अब तक
न सुनी।
कबीर
कहते हैं, अनहद
बाजत बांसुरी!
सदा से बज रही
थी, बिना
हद के बज रही
थी, बिना
किसी सीमा के
बज रही थी और
सुनी न। सुनने
में कमी हो
रही है, बजने
में जरा भी
कमी नहीं है।
इसलिए सत्संग
को इतना मूल्य
दिया है कि
शायद गुरु को
सुनते—सुनते—सुनते
लौ लग जाए।
क्योंकि गुरु
वहीं से बोल
रहा है, जहां
अनहद बांसुरी
बज रही है।
वहीं से बोल
रहा है, जहां
शाश्वत का
स्वर गज रहा
है। उसके शब्द
वहीं से नहाए
हुए आ रहे हैं,
उसी शून्य
से भरे आ रहे
हैं, उसी
सुगंध के लोक
से आ रहे हैं।
थोड़ी—सी गंध
उनमें भी
चिपटी चली आती
है। जैसे
बगीचे से
गुजरो, तो
घर जाकर
वस्त्रों में
भी थोड़ी गंध
मालूम पड़ती है।
थोड़ी लग गई।
शब्द
ला नहीं सकता
सत्य को, लेकिन
अगर सत्य के
पास से निकल
भी जाए तो
सत्य की थोड़ी—सी
सुवास ले आता
है। अगर उस
सुवास में
तुम्हारा मन
लग गया, अगर
तुमने मुझे
सुना और समझा,
अगर उस
समझने में तुम
शांत और चुप
हो गए, मौन
हो गए, धुन
बंध गई; जिसको
कबीर कहते हैं,
तारी लग गई;
तो तुम मुझे
सुनते—सुनते
अचानक एक क्रांति
घटित होती
पाओगे। मुझे
सुनते—सुनते—सुनते
किसी क्षण
अचानक
तुम्हें भीतर
की बांसुरी, जो सदा से बज
रही है, सुनाई
पड़ने लगेगी।
उसके लिए कुछ
और करना नहीं
है।
यह
तो पूछो ही मत
कि वह एक हाथ
से कैसे बजेगी।
और इस भ्रांति
में मत पड़ो कि
मैंने जो
तुम्हें कहा
है,
तुम समझ गए।
समझ लेते, बज
ही जाती। बज
ही रही थी, तुम
सुन लेते।
समझे नहीं, तो पूछते हो,
कैसे।
सारी
विधियां
अज्ञान से
पैदा होती हैं।
ज्ञान की कोई
भी विधि नहीं
है। ज्ञानी
पुरुषों ने
विधियां बताई
हैं,
तुम पर दया
करके। समझौता
किया है।
अन्यथा कोई
विधि नहीं है,
कोई मार्ग
नहीं है।
दूसरा
प्रश्न : आपने
कहा है कि ऐसा
हो ही नहीं सकता
कि अभीप्सा हो
और सदगुरु न
हों, कृष्ण न
हों। फिर ये
शास्त्र, यह
गीता किनके
लिए है?
जिनके
भीतर अभीप्सा
है,
उनके लिए तो
शास्त्र का
कोई भी मूल्य
नहीं है, वे
तो सदगुरु को
खोज लेंगे।
उनके लिए तो
शास्त्र
तृप्त न कर
पाएगा।
जिनके
पास गहरी
प्यास है, जल
के ऊपर लिखी
गई किताब
उन्हें तृप्त
न कर पाएगी; उन्हें
सरोवर चाहिए।
कोई कितना ही
समझाए कि एच
टू ओ, इसमें
सारे पानी का
शास्त्र लिखा
है। बस, पानी
कुछ और नहीं
है। उदजन दो
भाग, आक्सीजन
एक भाग, बस
इन दो के मिलन
से जल पैदा हो
जाता है।
तो
कागज पर कोई
लिखकर भी दे
दे,
एच टू ओ, इसमें
जल की सारी
परिभाषा, सारा
शास्त्र आ
जाता है। तो
भी तुम कहोगे,
ठीक होगा; लेकिन इसको
अगर मैं गले
में ले जाऊंगा,
तो प्यास न
बुझेगी। और हो
सकता है, गला
रुंध जाए, प्राणों
की आ बने, उलझन
हो जाए। वैसे
ही गला सूख
रहा है और यह
कागज और अटक
जाए गले में।
जिसकी
प्यास सच्ची
है,
शास्त्र
उसे तृप्त न
करेगा, वह
सदगुरु की खोज
में निकल
जाएगा। अगर
शास्त्र में
से गुजरेगा भी,
तो शास्त्र
उसे सदगुरु की
खोज की तरफ ही
भेजेगा। सभी
शास्त्र
भेजते हैं।
इसलिए
शास्त्र
सदगुरु की
प्रशसाओं के
गीतों से भरे
हैं।
अगर
वह शास्त्र को
पड़ेगा भी, तो
शास्त्र
स्वयं उसे
अपने से पार
जाने का इशारा
करता है। सभी
शास्त्रों के
ऊपर वैसे ही निशान
लगे हैं, जैसे
मील के पत्थर
पर लगे होते
हैं। तीर बना
होता है, और
आगे। मील का
पत्थर तो
सिर्फ आगे
भेजता है।
शास्त्र
सदगुरु की तरफ
भेजते हैं।
शास्त्र
पुराने
सदगुरुओं के
वचन हैं। और
पुराने
सदगुरुओं ने
उन वचनों में
वे सारे सूत्र
रख दिए हैं, जिनसे
तुम पुन: —पुन:
सदगुरु को खोज
लो। शास्त्र
तो नक्यो हैं।
उनकी खोज
सदगुरु की ही
खोज है। कृष्ण
की गीता का
इतना ही मूल्य
है कि तुम फिर—फिर
कृष्ण को खोज
लो। लेकिन
जिनकी प्यास
अधूरी है, वे
अटक सकते हैं
शास्त्र में।
या जिनकी
प्यास झूठी है,
वे अटक सकते
हैं शास्त्र
में। उन्हें
सिद्धात ही
तृप्त करता
मालूम हो सकता
है। इसलिए
शास्त्र
खतरनाक भी हैं।
शास्त्र
सार्थक भी हैं, खतरनाक
भी हैं।
सार्थक उनके
लिए हैं, जिनकी
प्यास प्रगाढ़
हो। मील का
पत्थर उन्हें
इशारा देगा, उनके पैरों
को बल देगा।
कहेगा, घबड़ाओ
मत, इतनी
या_त्रा तो
हो गई, थोड़ी
और बाकी है; थोड़ा और
चलना है, मंजिल
पास है। हर
मील का पत्थर
करीब ला रहा
है मंजिल के, भरोसा देगा,
आश्वासन
देगा, बल
देगा, चलने
की हिम्मत
देगा, चुनौती
देगा। इतने चल
लिए, इतने
पहुंच गए, मंजिल
और करीब हुई
जा रही है।
इससे तुम
थकोगे न, हताशा
से न भरोगे।
लेकिन
मील का पत्थर
नासमझों के
लिए खतरनाक भी
हो सकता है।
मील के पत्थर
पर लिखा देखकर
कि दिल्ली
लिखा है, उसको
छाती से लगाकर
बैठ जाएं कि आ
गई दिल्ली। उस
तीर को देखें
ही न, जो
आगे की तरफ जा
रहा है। तो
शास्त्र छाती
पर रखे पत्थर
हो जाएंगे।
तो
सदगुरु की खोज
अगर शास्त्र
दे दे, तो
तुमने उसका
उपयोग कर लिया।
और अगर
शास्त्र ही
सदगुरु बन जाए,
तो तुम
पत्थर के नीचे
दब गए।
तुम
पर निर्भर है।
समझदार विष को
भी अमृत बना
लेता है; नासमझ
अमृत का भी
विष कर लेता
है। समझदार
जहर में से भी
औषधि खोज लेता
है। नासमझ
औषधियों से भी
आत्महत्या कर
लेता है।
दोनों तरह के
लोग हैं।
शास्त्र
का कोई कसूर
नहीं है।
शास्त्र तो
तलवार है। तुम
चाहो तो किसी
की हत्या कर
दो,
चाहो अपनी
हत्या कर लो, चाहे किसी
की होती हत्या
को रोक दो, बचा
लो, किसी
की सुरक्षा कर
लो। तलवार तो
तटस्थ शक्ति
है। शास्त्र
एक शक्ति है।
शास्त्र
शब्द बड़ा
अच्छा है, वह
शस्त्र के
बहुत करीब है,
शस्त्र की
भांति है।
चाहे सुरक्षा
कर लो; चाहे
आत्मघात कर लो।
चाहे किसी पर
जबरदस्ती कर
दो और चाहे
किसी पर होती
जबरदस्ती को
बचा दो, रोक
लो।
शस्त्र
स्वतंत्रता
भी बन सकता है
और शस्त्र किसी
की परतंत्रता
भी बन सकता है।
अगर नासमझ हो, तो
अपने ही हाथ
का शस्त्र
अपने को ही
चोट पहुंचा
देगा। अगर
समझदार हो, तो वही
शस्त्र
तुम्हारा कवच
बन जाएगा।
दुनिया का कोई
शस्त्र
तुम्हें चोट न
पहुंचा पाएगा।
अंततः
तुम्हारी ही
समझ काम आती
है।
ऐसा
निश्चित ही
नहीं हो सकता
कि अभीप्सा हो
और सदगुरु न
हों। ऐसा होता
ही नहीं। जीवन
का गणित ऐसा
नहीं है।
प्यास है, तो
पानी होगा।
भूख है, तो
भोजन होगा।
अन्यथा हो ही
नहीं सकता।
यह
जगत एक बहुत
संयोजित
व्यवस्था है, एक
संगीतपूर्ण
लयबद्ध
व्यवस्था है।
इसमें ऐसा
नहीं होता कि
एक चीज हो और
अधर में लटकी
हो। तब तो जगत
एक अराजकता हो
जाएगा। अगर
तुम्हारे
हृदय में
प्रेम है, तो
तुम्हें कोई न
कोई प्रेम—पात्र
मिल जाएगा।
अगर प्रेम—पात्र
होते ही न
होते, तो
प्रेम की आकांक्षा
भी न उठती।
वस्तुत:
जो जानते हैं, वे
कहते हैं, इसके
पहले
परमात्मा
प्रेम की आकांक्षा
उठाए, उसने
प्रेम—पात्र
बना दिए हैं।
इसके पहले कि
प्यास उठे, सरोवर तैयार
है। इसके पहले
कि भूख लगे, वृक्षों में
फल लगे हैं।
अराजकता
नहीं है
अस्तित्व।
अस्तित्व एक
लयबद्ध काव्य
है। उसमें कोई
भी चीज अधर
में नहीं लटकी
है। प्रत्येक
चीज की पूर्ति
का उपाय है।
जरा खोजने की
बात है; जरा
गतिमान होने
की बात है, और
तुम जो भी
चाहते हो, वह
तुम पा लोगे।
अगर
तुम्हारी
सौंदर्य की
खोज है, तो
जगत में
सौंदर्य के
खजाने हैं।
अगर तुम्हारी
सत्य की खोज
है, तो हर
पत्थर के नीचे
सत्य दबा है।
अगर तुम
सदगुरु की खोज
में निकले हो,
तो ज्यादा
देर न लगेगी
कि तुम उस
द्वार पर पहुंच
जाओगे, पहुंचा
दिए जाओगे।
वस्तुत: इसके
पहले कि
तुम्हारे
भीतर सदगुरु की
प्यास उठे, सदगुरु
मौजूद होता है।
नहीं तो जगत
एक बेबूझ उलझन
होती। लोग
चिल्लाते और
चीखते और
प्यासे होते
और पानी न
होता।
तो
एक बात ध्यान
रखना कि जगत
में कमी नहीं
है। और अगर
तुम्हें कमी
लग रही है, तो
तुमने खोजा
नहीं, तुम
उठे नहीं, तुमने
आख नहीं खोली
है। तुम जिस
क्षण तैयार
होओगे, जिस
क्षण
तुम्हारी
प्यास पक
जाएगी और ठीक
मौसम आ जाएगा,
घड़ी आ जाएगी,
उसी क्षण
तुम पाओगे कि
सदगुरु का हाथ
तुम्हारे सिर
पर है।
और
शास्त्रों का
एक ही उपयोग
है। वे पुराने
सदगुरुओं के
छोड़े हुए
चिह्न हैं। वे
पुराने
सदगुरुओं के
द्वारा छोड़े
गए इशारे हैं, ताकि
तुम सदा नए
सदगुरुओं को
खोज लो।
क्योंकि
सदगुरु तो एक
ही है, कृष्ण
हों कि
क्राइस्ट, मोहम्मद
हों कि महावीर,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
सदगुरु की
घटना तो एक ही
है। वह जो
भीतर का जलता
हुआ दीया है, वह महावीर
में जले कि
मोहम्मद में,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वह दीया
एक है, वह
उसी परमात्मा
का है। हजार
हों दीए, रोशनी
एक ही है।
तो
सभी पुराने
सदगुरु आने
वाले शिष्यों
की खोज के लिए
शास्त्र छोड़
गए हैं।
तुम
अगर मुझे
प्रेम करते हो, तो
मैं हटते ही
तुम्हारे लिए
वह व्यवस्था
छोड़ जाऊंगा, कि तुममें
अगर थोड़ी—सी
भी समझ हो, तो
तुम उसके आधार
पर नए
सदगुरुओं को,
जीवित
सदगुरुओं को
खोज लोगे। अगर
तुम मूढ़ हुए, तो मुझसे
बंधे रह जाओगे।
अगर समझदार
हुए, तो
तुम नए सदगुरु
को खोज लोगे।
और तुम उस
सदगुरु में
मुझको ही पाओगे।
अगर तुम मुझसे
बंधे रहे, तो
तुम मुझसे चूक
जाओगे।
इसलिए
जो आज महावीर
से बंधा है, वह
महावीर से चूक
रहा है। जो आज
कृष्ण से बंधा
है, वह
कृष्ण से चूक
रहा है। यह
बड़ी अजीब—सी
अवस्था है।
बंधे हुए चूक
जाते हैं।
अगर
तुमने सच में
ही कृष्ण को
प्रेम किया है, तो
तुम फिर कृष्ण
को खोज लोगे।
तुम किताब से
कैसे राजी
होओगे! जीवन
चाहोगे, जीवंतता
चाहोगे। फिर
तुम्हारे लिए
कृष्ण
आविर्भूत हो
जाएंगे किसी
व्यक्ति में।
नाम अलग होगा,
रूप अलग
होगा, लेकिन
अगर तुम्हारे
पास आंखें हैं,
तो तुम भीतर
उस अरूप को, अनाम को खोज
ही लोगे।
शास्त्र
तुम्हारे लिए
इशारे हैं कि
तुम नए गुरु
को खोज लो। और
शास्त्र इस
बात के भी
इशारे हैं कि
तुम पुराने
गुरु से कैसे
मुक्त हो जाओ।
शास्त्र का भी
अपना शास्त्र
है,
अपनी
व्यवस्था है।
वे पद—चिह्न
हैं। उनकी
दिशाओं का अगर
तुम ठीक उपयोग
कर लो, तो
तुम बहुत कुछ
पा सकते हो।
नए को खोज
लोगे, पुराने
से मुक्त हो
जाओगे।
और
यही मार्ग है
पुराने के साथ
बने रहने का।
यही मार्ग है, सदा—सदा
नए में उतर
जाने का, ताकि
कृष्ण से
तुम्हारा
संबंध न छूट
जाए। अन्यथा
लाश से संबंध
रह जाएगा, जीवन
से संबंध छूट
जाएगा। तुम
दीए की पूजा
करते रहोगे, जिसकी
ज्योति जा
चुकी; और
ज्योति दूसरे
दीयों में
जलेगी और तुम
वहा पीठ किए
रहोगे। दीए की
पूजा थोड़े ही
होती है, पूजा
तो ज्योति की
है। जब
तुम्हारा
दीया बुझ जाए,
तब तुम यह
आग्रह मत करना
कि मैं तो इसी
दीए की पूजा
करूंगा।
तब
तुम भूल ही गए
कि तुम ज्योति
की पूजा करने
आए थे, दीए की
पूजा करने
नहीं। दीए की
भी पूजा हो गई
थी ज्योति के
सहारे, लेकिन
जब ज्योति ही
जा चुकी, तो
अब दीया कितना
ही बहुमूल्य
हो, हीरे —जवाहरात
जड़े हों, सोने
का हो, क्या
करोगे!
और
अगर दीया
होशियार था—होना
ही चाहिए, अन्यथा
उसमें ज्योति
न होती—तो वह
तुम्हारे लिए
इशारे छोड़ गया
है, ताकि
तुम पुन: —पुन:
फिर ज्योति का
आविष्कार कर
लो। कहीं भी
जले, कैसे
भी दीए में
जले, उसका
रूप—रंग अलग
होगा, मिट्टी
अलग होगी, सोने
का होगा, धातु
का होगा, कैसा
बना होगा, कहा
नहीं जा सकता,
लेकिन
ज्योति तो वही
होगी।
शास्त्र
ज्योति को
पहचानने की
तरकीबें हैं।
बहुमूल्य हैं।
लेकिन अगर
प्यास हो, तो
ही तुम उनका
उपयोग कर
पाओगे। और अगर
प्यास न हो, तो छाती के
पत्थर हो
जाएंगे। अनेक
तो शास्त्रों
में दबकर मर
जाते हैं।
बहुत कम
शास्त्रों का
उपयोग कर पाते
हैं।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि आप
क्यों गीता की
व्याख्या कर
रहे हैं?
इसीलिए
कर रहा हूं
ताकि तुम
कृष्ण से
मुक्त हो जाओ, ताकि
तुम नए कृष्ण
को खोज लो।
अब
यह बड़ी उलटी
बात है। पर
अगर तुम
समझोगे, तो
बात बिलकुल
साफ—साफ है, जरा भी कुछ
उलझन नहीं है।
तुम्हें
गीता समझा रहा
हूं, ताकि गीता
में कृष्ण जो
छोड़ गए हैं
सूत्र, वे
तुम्हारे
खयाल में आ
जाएं। और तुम
गीता को छाती
पर न ढोते रहो।
उसका तीर
तुम्हें दिख
जाए कि आगे
जाना है, जीवंत
को खोजना है।
जीवंत
की ही पूजा
करना, मृत को
मत पूजना।
क्योंकि
जीवंत में ही
तुम पुन: —पुन:
उसे खोज लोगे,
जिसे तुम
मृत में पूजते
थे और कभी न पा
सकते थे।
तीसरा
प्रश्न : आपने
कहा कि सफल
होकर त्याग करना
ही त्याग है।
लेकिन संसार
में सफल होने
के लिए पाप और
बेईमानी से
गुजरना जरूरी
है। तो क्या
पाप और
बेईमानी से
गुजरना त्याग
के लिए
अनिवार्य है?
अंधेरे
से गुजरे बिना
तुम्हारे मन
में प्यास ही पैदा
न होगी प्रकाश
की। और पाप से
गुजरे बिना
तुम पुण्य की आकांक्षा
न करोगे।
महादु:ख से
गुजरकर ही
आनंद की
अभीप्सा जगती
है। संसार के
रास्तों पर, कंटकाकीर्ण
रास्तों पर, खाई—खड्डों
में गिर—गिरकर,
लहूलुहान
होकर ही
तुम्हारे मन
में उस मंजिल
की आकांक्षा
का सूत्रपात
होता है, जहां
पहुंचकर सभी
यात्रा
समाप्त हो
जाएगी। जिसने
नरक नहीं जाना
है, वह
स्वर्ग को
पाने के लिए
पात्र नहीं हो
सकता।
इसलिए
मैं तो तुमसे
यही कहता हूं
कि संसार से अधूरे
मत भागना, नहीं
तो तुम
परमात्मा तक
कभी भी न
पहुंच पाओगे।
अगर तुम संसार
से अधूरे—अधूरे
भाग गए, बिना
जाने भाग गए, बिना पाप को
जाने तुमने
पुण्य की आकांक्षा
की, तुम्हारी
पुण्य की आकांक्षा
नपुंसक होगी।
तुम्हारे
पुण्य का अर्थ
ही क्या होगा?
शायद
भय के कारण, शायद
दूसरों के
अनुकरण के
कारण, शायद
शिक्षा—दीक्षा
के कारण, लेकिन
उसमें बल न
होगा, भीतरी
प्राण न होंगे।
तुम्हारी
जीवन— धारा
उसमें न बहेगी।
उधार होगी बात।
और भीतर— भीतर,
चुपके—चुपके,
छिपे —छिपे
तुम संसार की
कामना करोगे,
पाप में रस
लोगे। ऊपर—ऊपर
एक
व्यक्तित्व
होगा, भीतर—
भीतर बिलकुल
विपरीत होओगे।
पाखंड का जन्म
होगा, पुण्य
का नहीं।
ऐसा
ही तो हुआ है।
जिसने झूठ
बोलना नहीं
जाना, उसे
हमने सच बोलने
की शिक्षा दे
दी। उसे सत्य
की परिभाषा भी
समझ में नहीं
आती, क्योंकि
झूठ ही
परिभाषा
बनेगा। जो
काटो से चुभा
नहीं, वह
फूल के
सौंदर्य को, माधुर्य को
नहीं समझ
पाएगा।
दुख
अनिवार्य है।
दुख से गुजरना
अनिवार्य है।
दुख मांजता है, निखारता
है, प्रौढ़
करता है। दुख
से भागने वाले
भयभीत लोग हैं।
इन कायरों के
लिए कोई पुण्य
नहीं हो सकता।
भगोड़ों के लिए
परमात्मा
नहीं है। जीओ।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
उसी—उसी में
बने रहो। मैं
यह कह रहा हूं
कि उसे इतनी
पूर्णता से जी
लो कि तुम
उसके पार ही
हो जाओ।
ध्यान
रखो एक सूत्र, जो
बात भी
पूर्णता से जी
ली जाए, हम
उससे मुक्त हो
जाते हैं। अगर
पाप अब भी मन
को बुलाता है,
तो उसका
अर्थ है, तुम
कच्चे—कच्चे
लौट आए। अभी
पाप का अनुभव
भी न हुआ था।
अभी पाप का
दंश पैदा भी न
हुआ था। अभी
तुमने पीड़ा
भोगी न थी।
तुमने खुद न जाना
था कि जीवन
दुख है; तुमने
बुद्ध का वचन
सुन लिया था
कि जीवन दुख है।
यह
बुद्ध का वचन
बुद्ध के लिए
अनुभव है, तुम्हारे
लिए उधार है।
तुम्हें तो
अभी भी कामना
थी कि भोग लें।
बुद्ध ने
तुम्हें भटका
दिया। बुद्ध
के वचन से तुम
भटके।
तुम
बुद्ध
पुरुषों से
कहना कि रुको।
जो तुमने जाना
है,
वह मुझे भी
जान लेने दो।
अभी मेरा ऐसा
अनुभव नहीं है।
तुम कहते हो, जीवन दुख है।
ठीक ही कहते
होओगे, जानकर
ही कहते होओगे,
अनुभव से
कहते होओगे।
और यह भी मैं
देखता हूं कि
तुम्हें महाआंनद
हुआ है। उसकी
मेरे हृदय में
भी आकांक्षा
है।
लेकिन
अभी मेरा
अनुभव नहीं
कहता कि जीवन
दुख है। अभी
मुझे उसमें
सुख की आशा है।
मुझे थोड़ा भटक
लेने दो। मुझे
थोड़ा गिरने दो।
मुझे मेरे
अनुभव से ही
जानने दो, क्योंकि
दूसरा कोई
जानने का उपाय
नहीं है।
काश, तुम
इतनी हिम्मत
जुटा सको, जल्दी
ही जो बुद्ध
ने कहा है, वह
तुम्हारा भी
अनुभव बन
जाएगा।
क्योंकि
बुद्ध का
अनुभव
सार्वलौकिक
है। जिसने भी
जीवन को जाना
है, उसने
यही जाना है
कि वहां सिवाय
दुख के कुछ भी नहीं
है। अंधेरी
रात है। एक
गहरा सपना है।
उससे जागकर
पता चलता है, सब झूठ था; सब मन का खेल
था, माया
थी।
लेकिन
यह तो जागकर
पता चलता है।
सोए—सोए तो
माया बड़ी
लुभावनी है; बड़ी
मधुर है।
कबीर
कहते हैं,
माया महाठगनी
हम जानी।
मगर
यह कबीर ने
जानी है। अभी
तुमने नहीं
जानी। अभी
ठगनी का
प्रभाव तुम पर
है। अभी ठगनी
तुम्हें
सम्मोहित
करती है।
अभी
अगर तुम
छोड़ोगे, तो
ऐसा होगा, जैसे
कि वृक्ष से
कच्चे फल को
कोई तोड़ ले।
तुमने खयाल
किया, अगर
तुम कच्चा ही
फल तोड़ लो
वृक्ष से, तो
उसके बीज
व्यर्थ हो
जाते हैं। जब
तक कि फल पक न
जाए तब तक
उसके भीतर के
बीज भी नहीं
पकते। और जब
तक बीज पक न
जाएं, तब
तक उनसे नए
अंकुर नहीं
निकलते। पके
से ही नया
अंकुरण होता
है।
जो
व्यक्ति किन्हीं
और कारणों से, बिना
जीवन को जाने,
भाग गया, वह कच्चा
भाग गया। उसके
जीवन से
परमात्मा के
अंकुर न
निकलेंगे। वह
वापस भेजा
जाएगा। बार—बार
वापस भेजा
जाएगा। ऐसे ही
तो तुम बार—बार
वापस आए हो।
ऐसा
थोड़े ही है कि
तुमने
महापुरुषों
के वचन नहीं
सुने। ऐसा
थोड़े ही है कि
शास्त्र
तुम्हारे
मार्ग में
नहीं आया। ऐसा
थोड़े ही है कि
कभी—कभी बुद्ध
पुरुष
तुम्हें
रास्ते पर
नहीं मिल गए।
मिले हैं।
उनकी वाणी
तुममें गज गई
है। उनका आनंद
भी तुम्हारे
भीतर लोभ को
जगाया है कि
ऐसा हमारे
जीवन में भी
हो जाए। कभी—कभी
तुम उनके पीछे
भी चले हो। थोड़ी
दूर साथ भी
दिया है।
पर
तुम्हारे
जीवन में
सिर्फ पाखंड
आया। जो बुद्ध
के लिए
महासत्य है, वह
तुम्हारे लिए
पाखंड हो गई, प्रवंचना हो
गई। क्योंकि
तुमने थोपा
अपने ऊपर।
तुम
अपने ही शान
पर भरोसा करो।
बुद्ध
पुरुषों से
सीखो, मगर
संसार से भागो
मत। बुद्ध
पुरुषों से
इशारे लो, संसार
से अनुभव लो।
और जिस दिन
संसार का
अनुभव और
बुद्ध
पुरुषों के
इशारे दोनों
एक ही तरफ
दिखाने लगें,
दोनों की
सुइयां एक ही
तरफ दिखाने
लगें, उस
दिन जानना, घड़ी आ गई। अब
तुम पक गए। और
तब जिसको तुम
पाप कहते हो, उसे छोड़ना न
पड़ेगा। वह गिर
जाता है।
मेरे
लेखे, जब तक
पाप छोड़ना पड़े,
तब तक छोड़ना
मत। छोड़ना पड़े,
छोड़ना मत।
जिस दिन गिर
जाए, उस
दिन पकड़ना मत;
उस दिन गिर
जाने देना।
अपने से गिर
जाने देना।
पका
पत्ता गिर
जाता है। न
वृक्ष को खबर
होती, न पके
पत्ते को खबर
होती। चुपचाप
जमीन पर बैठ
जाता है, सो
जाता है, खो
जाता है। कहीं
कोई कानों—कान
खबर नहीं पड़ती।
ऐसा ही
महासंन्यास
है।
ऐसा ही
महात्याग है।
उपनिषद
कहते हैं कि
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
ही त्यागा—तेन
त्यक्तेन भुंजीथा।
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
ही त्यागा।
महासूत्र
है। दुनिया के
किसी शास्त्र
में ऐसा वचन
नहीं है। हिम्मतवर
हैं उपनिषद के
ऋषि। वे कहते
हैं,
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
ही त्यागा। वे
यह कह रहे हैं,
जल्दी मत
करना। अधूरे—अधूरे
अधपके मत भाग
खड़े होना।
अन्यथा लौट—लौटकर
आना पड़ेगा
संसार की
भट्टी में, क्योंकि
बिना पके यहां
से किसी को भी
जाने की आज्ञा
नहीं है।
पके
हुए को नहीं
लौटना पड़ता, कच्चे
को वापस लौटना
पड़ेगा। उसका
सब भागना
व्यर्थ है। वह
ऐसे ही है, जैसे
कोई स्कूल से
भाग रहा है और
वापस भेजा जा रहा
है, शिक्षा
पूरी करके
लौटो। तो न तो
पाप से डरो, न बेईमानी
से डरो। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
बेईमानी करो।
मैं कहता हूं
डरो मत। संसार
तो बेईमानी है,
हजार—हजार
तरह की
बेईमानी है, पाखंड है, प्रवंचना है।
गुजरो! और
जल्दी करो।
अनुभव को पूरी
प्रगाढ़ता से
ले लो।
अगर
तुम समझदार हो, तो
बेईमानी का एक
ही अनुभव
तुम्हें
बेईमानी से
मुक्त कर
जाएगा। अगर
तुम्हें जरा
भी होश है, तो
एक ही झूठ का अनुभव
तुम्हें सदा
के लिए झूठ के
बाहर कर देगा।
क्योंकि बार—बार
क्या दोहराना!
भूल तो वही है।
बार—बार तो
नासमझ
दोहराते हैं।
समझदार तो भूल
करता है, लेकिन
एक बार।
समझदार बहुत
भूलें करता है,
लेकिन हर
बार नई करता
है। पुरानी
क्या करनी!
उसको अगर ठीक
से जी लिया, तो बात खतम
हो गई। एक दफे
झूठ बोलकर देख
लिया, उसकी
पीड़ा भोग ली, फिर कितने
ही बार करो, वही होगा, पुनरुक्ति
होगी।
पुनरुक्ति से
कुछ ज्ञान
नहीं मिलने
वाला है, जो
मिलना था वह
पहले में ही
मिल गया।
पूरी
प्रगाढ़ता से
संसार को भोग
लो। परमात्मा
तुम्हें
संसार में यों
ही नहीं भेज
दिया है। कोई
पीछे गणित है।
वह गणित यही
है कि संसार
से तुम पको, ताकि
तुम स्वर्ग के
योग्य हो सको।
परतंत्रता से
पकी, ताकि
स्वतंत्रता
का तुम अनुभव
कर सको।
जिन्होंने
कारागृह ही
नहीं जाने, वे
मुक्ति का
आकाश कैसे जान
सकेंगे! वे
पहचान भी न
सकेंगे। वह
पहचान विपरीत
के अनुभव से
आती है।
चौथा
प्रश्न: गीता
में इतनी
पुनरुक्ति
क्यों है?
निश्चित
ही बहुत
पुनरुक्ति है।
क्या दोहराए
ही चले जाते
हैं;
वही बात फिर,
वही बात फिर।
अगर तुम बुद्ध
के वचन पढ़ो, तो तुम और भी
हैरान हो
जाओगे।
उन्होंने
कृष्ण को भी
मात कर दिया
दोहराने में।
वे दोहराए ही
चले जाते हैं—वही
बात, वही
बात, वही
बात।
कृष्ण
और बुद्ध जैसे
लोग जब बात को
दोहराते हैं, तो
कुछ राज होगा।
कुछ राज है।
पुराने
दिनों में
अलार्म की
घड़ियां जो
होती थीं, वे
एक ही बार
अलार्म बजाती
थीं। अब नई
घड़ियां रुक—रुककर
बजाती हैं।
क्योंकि मनोवैज्ञानिक
इस नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
अगर नींद लगी
हो और घड़ी एक
ही बार अलार्म
बजाए, चाहे
पूरा एक मिनट
तक बजाए, दो
मिनट तक बजाए,
तो भी नींद
के टूटने की
संभावना कम है।
लेकिन अगर दो
मिनट ही बजाए
और बार—बार
रुक—रुककर फिर
वही बजाए, फिर
वही बजाए, चोट!
अगर
सतत बजता रहे
अलार्म, तो
उसके सातत्य
के कारण चोट
नहीं पड़ती।
उसके सातत्य
के कारण तुम
उसके सुनने के
भी आदी हो
जाते हो। चोट
पड़ती है रुक—रुककर
फिर; एक
क्षणभर को रुक
गया, फिर; फिर क्षणभर
को रुका, फिर।
हथौड़ी की तरह
चोट पड़ती है।
तो
अब नई घड़ियों
में अलार्म
रुक—रुककर बजता
है। ज्यादा
संभावना है कि
रुकने वाली
घड़ी तुम्हें
जल्दी जगा
देगी।
कृष्ण, बुद्ध,
महावीर
दोहराते हैं।
वह दोहराना
रुक—रुककर चोट
करना है। कहना
वही है, चोट
वही है, अलार्म
वही है। आदमी
सोया हुआ है।
उसके सिर पर
चोट करनी है।
चीन
में एक पुरानी
दंड देने की
विधि है कि
सख्त जघन्य
अपराधियों को
वे एक कोठरी
में खड़ा कर
देते हैं और
एक—एक बूंद
पानी ऊपर से
टपकाते हैं।
उसके सिर पर
एक—एक बूंद
पानी टपकता
रहता है। तुम
कहोगे, यह भी
कोई दंड हुआ!
तुम्हें
अंदाज नहीं है।
चौबीस घंटे
में आदमी पागल
होने की हालत
में हो जाता
है। नींद लग
नहीं सकती, कुछ
सोच नहीं सकता।
बस, वह टप!
टप! टप!
उन्होंने यह
भी करके देखा
कि अगर धार
गिराई जाए, तो कोई
हर्जा नहीं
होता। अगर सतत
धार गिरे पानी
की, तो
आदमी बल्कि
आनंदित होता
है, स्नान
कर लेता है।
उसमें कोई
हर्जा नहीं
होता। लेकिन
वह जो टप—टप है,
एक—एक बूंद
गिरता है, वह
हथौड़ी की तरह
पड़ता है।
बुद्ध
पुरुषों ने
अपनी बातों को
बहुत दोहराया
है। बातें वही
हैं।कृष्ण की
पूरी गीता एक
पोस्टकार्ड
पर लिखी जा सकती
है,
जो भी सार
की बातें हैं,
जिनको
उन्होंने फिर—फिर
दोहराया है।
कारण है।
अर्जुन सोया
है। कारण
कृष्ण में
नहीं है। कारण
अर्जुन में है।
और सभी बुद्ध
पुरुष अलार्म
के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
हैं। जगा रहे
हैं, उठा
रहे हैं। चोट
करनी जरूरी है।
पहली बात।
दूसरी
बात,
तुम्हारे
जीवन में तुम
खुद भी देख
सकते हो कि चौबीस
घंटे एक—सी
मनोदशा नहीं
होती। सुबह
उठे हो, तब
तुम कुछ जागरण
के ज्यादा
करीब होते हो।
सांझ थके हो, तब तुम नींद
के ज्यादा
करीब होते हो।
सुबह उठे हो, तब एक तरह की
शुचिता, एक
तरह की
पवित्रता, तुम्हें
घेरे होती है।
सांझ थके—मांदे,
संसार से
ऊबे, धूल—
भरे लौटते हो,
तब एक तरह
की कठोरता, क्रोध
तुम्हें घेरे
होता है
भिखमंगे
भी सुबह भीख मांगने
इसीलिए आते
हैं,
कि उस वक्त
तुमसे
धार्मिक होने
की जरा ज्यादा
आशा है। शाम
तुमसे
धार्मिक होने
की ज्यादा आशा
नहीं है। शाम
तुमसे हां
निकलेगा, इसकी
संभावना कम है;
न निकलेगा,
इसकी
संभावना
ज्यादा है। और
चौबीस घंटे
में बहुत बार
तुम्हारे
चित्त का मौसम
बदलता है, चित्त
की भाषा बदलती
है।
मुसलमानों
में जो उनका
महावाक्य है—उनकी
गायत्री कहो, उनका
नमोकार कहो, जिसे वे सतत
दोहराते है—वह
है, और कोई
परमात्मा
नहीं, सिवाय
परमात्मा के।
बड़ा
प्यारा वचन है, और
कोई परमात्मा
नहीं, सिवाय
परमात्मा के।
इसको मुसलमान
निरंतर
दोहराते हैं।
लेकिन सूफी
फकीर इसको
नहीं दोहराते।
वे कहते हैं, यह बहुत बड़ा
है। समझो।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि हम मर रहे
हैं,
सास टूट रही
है और हमने
कहा और कोई
परमात्मा नहीं,
और मर गए तो
हम नास्तिक की
तरह मर गए।
कोई परमात्मा
नहीं, यह
कहते हुए मर
गए। कोई
परमात्मा
नहीं, सिवाय
परमात्मा के।
अब वह सिवाय
परमात्मा के
अगर न कह पाए
तो आखिरी घड़ी
जबान नास्तिक
की हो गई, आखिरी
क्षण प्राण
नास्तिक के हो
गए। यह तो बड़ा
दुर्भाग्य हो
जाएगा।
इसलिए
वे कहते हैं, इतना
बड़ा सूत्र हम
नहीं दोहराते।
हम तो सिर्फ
परमात्मा, परमात्मा,
अल्लाह, अल्लाह;
कौन जाने
किस घड़ी मरना
हो जाए!
और
वे यह भी कहते
हैं कि कौन
जाने किस घड़ी
तार मिल जाएं।
तो हम इतनी
लंबी लकीर
नहीं दोहराते।
क्योंकि कहीं
तार मिलने का
वक्त हो और हम
दोहरा रहे हैं
कि नहीं कोई
परमात्मा, और
तभी वह घड़ी चूक
जाए जब कि
संयोग होने के
करीब था, और
जब हम आएं इस
शब्द पर, सिवाय
परमात्मा के,
तब घडी ही न
हो।
सुफी
दिन —रात
दोहराते हैं
अल्लाह, अल्लाह,
अल्लाह। —क्योंाrक कौन जाने
किस घड़ी मन
शुचिता में हो,
किस घडी मन
पवित्र हो, किस घड़ी मन
नाचता हो, मिलन
हो जाए, कौन
जानता है।
मिलन पहले कभी
हुआ नहीं, इसलिए
हमें उसका कुछ
हिसाब भी नहीं
है। अंधेरे
में टटोलते
हैं। कब द्वार
पर हाथ पड़
जाएगा, कौन
जानता है।
चौबीस घंटे
टटोलते हैं।
कृष्ण
और बुद्ध और
महावीर और
मोहम्मद अपने
शिष्यों के
सामने दोहराए
चले जाते हैं
एक ही बात
हजार बार। कौन
जाने, कब
सुनाई पड़ जाए।
क्षण होते हैं।
एक बार कहकर
चुप हो सकते
थे, लेकिन
उससे कुछ सार
होता न होता।
एक
झेन फकीर हुआ।
उससे किसी ने
जाकर पूछा कि
मैं जरा जल्दी
में हूं। तुम
सार की बात
मुझे कह दो, फिर
मिलना हो न हो।
तो वह चुप ही
रहा। उसने कहा
कि तुम चुप मत
रहो, मैं
जल्दी में हूं
जा रहा हूं
फिर दुबारा
तुमसे मिलना
हो या न हो।
कुछ कह दो! उस
फकीर ने कहा, मैंने कहा।
सार की बात तो
कह दी, चुप
हो जाना। अब
तुम जो भी मुझ
पर जोर डालोगे,
वह
पुनरुक्ति
होगी। उस आदमी
ने कहा कि तुम
कुछ कहे ही
नहीं, पुनरुक्ति
कैसे होगी!
कुछ तो कहो, शब्द में
कहो। तो उसने
कहा, मौन।
पर यह पुनरुक्ति
है। तुम नाहक
जबरदस्ती कर
रहे हो। जो
मुझे कहना था,
वह मैंने कह
दिया।
उस
आदमी ने कहा
कि थोड़ा और
स्पष्ट करो, अकेले
मौन से कुछ
स्पष्ट नहीं
होता। तो उस
फकीर ने कहा, मौन, मौन,
मौन। अब ऐसे
लोग सदगुरु
नहीं बन सकते।
यह झेन फकीर
बिलकुल ठीक कर
रहा है। इसमें
कोई अड़चन नहीं
है। यह जो कर
रहा है बिलकुल
ठीक है। लेकिन
इससे किसी को
कोई सहारा
नहीं मिल सकता।
यह कहता है
बिना बोले कि
अब पुनरुक्ति
हो जाएगी, अगर
मैंने कुछ कहा।
कहने पर आग्रह
करने पर भी
मजबूरी में
मौन कहता है।
फिर मौन ही
दोहराए जाता
है। इससे तुम
कुछ सीख न
पाओगे।
दुनिया में
सदज्ञान को तो
बहुत लोग
उपलब्ध होते
हैं, सदगुरु
बहुत नहीं
होते। सदगुरु
वह है, जो
करुणावश
तुम्हारे लिए
बहुत बार
दोहराने को
राजी है।
सदज्ञान को तो
बहुत लोग
उपलब्ध होते
हैं, लेकिन
वे दोहराने को
राजी नहीं
होते। कौन सिर
पचाए!
कृष्ण
दोहराए जाते
हैं। उनका
प्रेम अनूठा
है। उनकी
करुणा महान है।
वे अर्जुन पर
बरसते ही चले
जाते हैं।
अर्जुन बचता
है एक तरफ से, तो
दूसरी तरफ से
बरसते हैं।
मेघ तो वही है,
जल भी वही
है। कृष्ण का
मेघ है, कृष्ण
का ही जल है, उसका स्वाद
भी वही है।
शब्द बदल देते
हैं, थोड़ी
विधि बदल देते
हैं, फिर
बरसते हैं।
अर्जुन वहां
से भी बच जाता
है बिना नहाया,
फिर बरसते
हैं। ऐसा
अठारह
अध्यायों में
अठारह हजार
बार वही—वही
बात दोहराए
चले जाते हैं।
पुनरुक्ति
का कारण है।
कब तुम सुनोगे, कुछ
पता नहीं। किस
क्षण घट जाएगी
बात, वह
क्षण
अनप्रेडिक्टेबल
है। उसकी कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
कब ऐसी घड़ी
तालमेल पा
जाएगी, कब
सब ग्रह—नक्षत्र
तुम्हारे ठीक
होंगे, कब
तुम द्वार दे
दोगे। तो
कृष्ण दोहराए
जा रहे हैं।
जो दोहराने
योग्य है, उसे
दोहराए जा रहे
हैं।
दोहराने
का भी अपना
कारण है। उसको
तुम
पुनरुक्ति मत
समझना। उसे
तुम महाकरुणा
समझना। वह एक
बार कहकर भी
चुप हो सकते
थे। पर अर्जुन
समझ न पाता।
अर्जुन के
संशय न गिर
पाते। फिर
अर्जुन उस जगह
न पहुंच पाता, जहां
उसने कहा कि
क्षीण हुए
मेरे संशय।
मैं बोध को
उपलब्ध हुआ।
तुम ने मुझे
जगा दिया। वे
बजाए ही गए
अलार्म को। वे
दोहराए ही गए
अलार्म को।
अर्जुन ने
बहुत करवटें
लीं और बहुत
बार दुलाई
ओढ़कर सो—सो
गया। लेकिन
कृष्ण का
अलार्म बजता
ही रहा। वह जब
तक उठा नहीं, जब तक उसने
कहा नहीं कि
जाग गया हूं, जब तक हाथ—मुंह
ही न धो लिया, चाय का एक कप
न पी लिया, जब
तक पूरे होश
से न भर गया, तब तक वे
जगाए ही गए।
अगर
अर्जुन न
जागता, तो
मैं जानता हूं
कि अगर अठारह
हजार अध्याय
भी कृष्ण को
कहने पड़ते, तो वे कहते।
मुझ
से लोग पूछते
हैं कि कृष्ण
की गीता तो
थोड़े में
समाप्त हो गई, आप
पांच साल से
बोले चले जा
रहे हैं!
क्योंकि
आधुनिक
अर्जुन और भी
गहरी नींद में
हैं। क्योंकि
तुम और भी
बुरी तरह सोए
हो। तुम्हें
उस घड़ी तक ले
आऊं,
जहां तुम
कहो कि संशय
क्षीण हुए, मैं जाग गया;
और भी मेहनत
करनी पड़ेगी।
कृष्ण
हुए पांच हजार
साल पहले। तब
उन्होंने
अठारह अध्याय
में गीता कह
दी। बात
उन्होंने
पूरी कर दी।
फिर बुद्ध हुए
ढाई हजार साल
पहले।
उन्होंने
चालीस साल तक
वही—वही
दोहराया।
अब
तो बौद्धों ने
जो बुद्ध के
वचन छापे हैं, उन
में वे छापते
भी नहीं पूरे
वचन।
उन्होंने
सिर्फ निशान
बना लिया है, डिट्टो।
निशान लगाए
चले जाते हैं।
फिर वही, फिर
वही, फिर
वही। एक बार
छाप देते हैं
कि ऐसा कहा, फिर नीचे
कहते जाते हैं,
फिर वही, फिर वही, फिर
वही। फिर जब
कोई नया वचन
वे बोलते हैं,
तब छाप देते
हैं, फिर
लिखे जाते हैं,
फिर वही, फिर वही, फिर
वही। कोई
छापने तक को
राजी नहीं है
बुद्ध के पूरे
वचन। क्योंकि
चालीस साल वे
पुनरुक्ति कर
रहे हैं।
लेकिन
वह भी वक्त
गया,
ढाई हजार
साल बीत गए।
तुम्हें मेरी
तकलीफ, तुम्हें
मेरी अड़चन समझ
में आ नहीं
सकती। मैं भी
दोहराए चला जा
रहा हूं। तुम
सोचते हो, मैं
कुछ नई बातें
रोज कह रहा
हूं।
परमात्मा के
संबंध में नया
कहने को हो भी
क्या सकता है!
वही कहता हूं।
थोड़ा रंग—रूप
बदल देता हूं।
बाएं से बोलता,
दाएं से
बोलता, ऊपर
से बोलता, नीचे
से बोलता, दिशाएं
थोड़ी बदलता
हूं। कभी
कथाओं से
बोलता हूं
प्रतीकों से,
संकेतों से,
कभी सीधा—सीधा
बोलता हूं।
कभी पतंजलि की
भाषा में, कभी
कृष्ण की भाषा
में, कभी
बुद्ध, कभी
लाओत्से की
भाषा में। पर
बोलता तो वही
हूं।
बोलता
तो उतना ही हूं,
जितना झेन
फकीर बोला चुप
रहकर।
और फिर
कहने लगा, पुनरुक्ति
हो जाएगी।
पुनरुक्ति ही
है। फिर भी
तुम नहीं
जागते हो।
और
जब तक तुम न
जागो, तब तक नए—नए
उपाय खोजने
पड़ेंगे, पुनरुक्ति
को दोहराना
पड़ेगा। और इस
भांति
दोहराना
पड़ेगा कि
तुम्हें
पुनरुक्ति भी
न मालूम पड़े।
क्योंकि अगर
तुम्हें
पुनरुक्ति भी
मालूम पड़ने
लगे, तो भी
तुम नींद में
सो जाओगे।
क्योंकि
पुनरुक्ति भी
नींद लाती है।
पांचवां
प्रश्न :
अभीप्सा है कि
मिट जाऊं, निमित्त—मात्र
हो जाऊं और
उसकी मर्जी के
अनुसार ही मेरा
जीवन बहे। कुछ
छोटी—मोटी
झलकें भी इसकी
मिली हैं।
लेकिन अनेक
अवसरों पर मैं
द्वंद्व और
दुविधा में पड़
जाता हूं कि
यह उसकी मर्जी
है या मेरी मर्जी
है!
इस वचन
को थोड़ा ठीक
से समझो।
अभीप्सा
है कि मिट
जाऊं.।
जोर
मैं पर ही है, जोर
उस पर नहीं है।
यह भी
तुम्हारी
अभीप्सा है कि
मिट जाऊं। यह
अभीप्सा भी
मैं ही है।
निमित्त—मात्र
हो जाऊं........।
गौर
से सुनो, तो
भीतर तुम्हें
मैं सुनाई
पड़ेगा, मैं
निमित्त—मात्र
हो जाऊं।
और
उसकी मर्जी के
अनुसार मेरा
जीवन बहे।
जीवन
मेरा होगा, बहे
उसकी मर्जी के
अनुसार, लेकिन
मेरा जीवन।
कुछ
छोटी—मोटी
इसकी झलकें भी
मिली हैं..।
वह
मैं पीछे खड़ा
है। वह कह रहा
है कि कुछ
नहीं मिला है, ऐसा
भी नहीं है।
काफी मिला भी
है, कुछ
झलकें भी मिली
हैं।
लेकिन
अनेक अवसरों
पर मैं
द्वंद्व और
दुविधा में पड़
जाता हूं।
वह
मैं खडा ही है
द्वंद्व और
दुविधा में
पड़ने को।
और
यह समझ में
नहीं आता कि
यह उसकी मर्जी
है या मेरी मर्जी
है।
मैं
के खेल को
थोड़ा समझो।
अगर अभीप्सा
सच में ही
मिटने की है
और यह भी मैं
का ही एक खेल
नहीं है, तो
कौन रोक रहा
है? कोई
परमात्मा तो
रुकावट डाल
नहीं रहा है
कि मत मिटो।
लेकिन मुझे
ऐसा लगता है
कि अभीप्सा सब
ऐसी ही है, जैसा
एक दिन मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मेरे
पास आई और
उसने कहा, अब
चलना होगा
आपको। बहुत
अड़चन हो गई है,
मुल्ला
आत्महत्या कर
रहा है। मैंने
कहा, तुम
घबड़ाओ मत।
जिसने कभी कुछ
नहीं किया, वह
आत्महत्या भी
क्या करेगा!
पर वह बोली कि
नहीं, यह
मामला ही और
है। आप मजाक—हंसी
मत समझें। वह
गंभीर है। सब
इंतजाम कर
लिया है और
दरवाजा बंद
किए है। कहीं
कुछ हो न जाए।
आप चलो।
मैं
गया। दरवाजा
खटखटाया।
मैंने पूछा कि
सुना है
नसरुद्दीन, आत्महत्या
कर रहे हो? ऐसा
शुभ अवसर हमें
भी देख लेने
दो। खोलो।
रोकेंगे नहीं,
क्योंकि
रोकने का हम
कोई कारण ही
नहीं पाते, कि रोकने की
कोई जरूरत
पड़ेगी। कोई
बाधा न
डालेंगे।
सिर्फ देखना
है कि कैसे
करते हो।
दरवाजा
खोला। स्कूल
पर खडे थे।
छप्पर से
रस्सी बांध
रखी थी और कमर
में बांध रहे
थे। मैंने कहा, कमर
में रस्सी
बांध रहे हो।
आत्महत्या
करनी है, तो
गले में बांधो।
बोला कि पहले
गले में बांधी,
लेकिन बड़ी
रुकावट मालूम
पड़ती है, गला
रुंधता मालूम
पड़ता है, तकलीफ
मालूम पड़ती है।
इसलिए कमर में
बांध रहे हैं।
तो कमर में
बांधकर तुम
झूलते रहो सदा—सदा
के लिए, इससे
मरोगे नहीं।
इस तरह की
धारणा के पीछे
उसी तरह की
आत्महत्या है।
करना भी चाहते
हो, लेकिन
गले में
बांधने पर गला
रुंधता है, तकलीफ मालूम
पड़ती है, आख
में आंसू आते
हैं। तो फिर
कमर में बांध
लेते हो और यह
खयाल रखते हो
कि हम मरने की
तैयारी कर रहे
हैं।
अभीप्सा
है कि मिट
जाऊं.......।
जोर
बड़ा मालूम
पड़ता है
अभीप्सा का।
मिटने की
अभीप्सा में
ऐसा जोर होना
ही नहीं चाहिए।
वह तो एक
निवेदन होगा।
और
फिर रोक कौन
रहा है? सिवाय
तुम्हारे
तुम्हें कोई
मिटने से रोक
नहीं सकता।
कोई दुनिया की
शक्ति
तुम्हें रोक
नहीं सकती मिटने
से, सिवाय
तुम्हारे।
वस्तुत: सारी
दुनिया चाहती
है कि तुम मिट
ही जाओ। एक
तुम ही अड़े हो
कि नहीं
मिटेंगे। सब
तुम्हें
सहयोग देना
चाहते हैं कि
चलो एक
प्रतियोगी कम
हुआ है, यही
कुछ कम है! एक
से उपद्रव
मिटा।
दुनिया
तुम्हें
रोकना नहीं
चाहती, तुम्हीं
रुके हो। और
रुकने का कारण
यह है कि
तुम्हारी
मिटने की अभीप्सा
के पीछे भी
तुम्हीं खड़े
हो। तुम घोषणा
करना चाहते हो
दुनिया के
सामने कि देखो,
मैं मिट गया।
तुम्हारे
जैसा नहीं हूं;
मिट गया।
निमित्त—मात्र
हो गया।
अहंकार बड़े
सूक्ष्म
रूपों से चलता
है, कि
परमात्मा के
हाथ का उपकरण
हो गया।
परमात्मा
मेरा उपयोग कर
रहा है।
मैंने
सुना है कि दो
ईसाई पादरी एक
रास्ते पर मिले, एक
कैथोलिक, एक
प्रोटेस्टेंट।
उनमें कुछ
विवाद हो गया।
आखिर कैथोलिक
पादरी ने कहा
कि भाई, हम
दोनों एक ही
के भक्त, एक
ही भगवान के
मानने वाले, विवाद उचित
नहीं है। और
हम दोनों ही
उसी परमात्मा
के काम में
लगे हैं, तुम
अपनी मर्जी के
हिसाब से, मैं
उसकी मर्जी के
हिसाब से। हम
दोनों उसी के
काम में लगे
हैं, तुम
अपनी मर्जी के
हिसाब से, मैं
उसकी मर्जी के
हिसाब से।
वहां भी विवाद।
वह हल करता
दिखाई पड़ रहा
है कि समझौता
करने की तैयारी
है, कि हम
उसी का काम कर
रहे हैं, क्या
झगड़ा करना!
लेकिन झगड़ा तो
कायम है। झगड़े
में बारीक भेद
उसने पीछे कर
ही लिया कि मैं
उसकी मर्जी के
हिसाब से कर
रहा हूं और
तुम अपनी मर्जी
के हिसाब से।
तो जो
परमात्मा के
हाथ का उपकरण
हो गया, उसकी
तो ऊंचाई कहनी
ही क्या!
ऊंचाई
पाने के लिए
उपकरण तो नहीं
बनना चाहते हो? श्रेष्ठता
पाने के लिए
तो निमित्त
बनने की चेष्टा
नहीं है?
इस
पर जरा भीतर
हिसाब लगाना।
और अगर होगी, तो
साफ देख लोगे।
क्योंकि तुम
अपने को कैसे
धोखा दे सकते
हो!
और
उसकी मर्जी के
अनुसार ही
मेरा जीवन
बहे......।
अब
जब उसकी ही
मर्जी है, तो
तुम्हारा
क्या खाक जीवन
है! उसको ही
बहने दो। उसकी
ही मर्जी, उसका
ही जीवन, तुम
बीच में क्यों
आते हो? लेकिन
नहीं, तब
तो मजा ही चला
गया। अगर उसकी
ही मर्जी और
उसका ही जीवन
है, और तुम
बीच में
बिलकुल न आए, तब तो
अहंकार का
सारा रस चला
गया।
कुछ
छोटी—मोटी
झलकें भी मिली
हैं.।
अहंकार
के रहते हुए
झलकें भी
कल्पना ही
होंगी। और अगर
झलक मिल जाए
उसकी, तो फिर
भी तुम अहंकार
को पकड़े रहोगे?
हीरे—जवाहरात
दिखाई पड़ जाएं,
फिर तुम
कंकड़—पत्थर
हाथ में लिए
रहोगे? फिर
तुम मुझसे
पूछने आओगे, कैसे छोड़े
कंकड़—पत्थर? कैसे झोली
खाली करें, ताकि हीरे
भर लें? तुम
भर ही लोगे, तुम पूछने
भी न आओगे, तुम
बताने भी न
आओगे। तुम
हीरे भरकर
अपने हीरों के
भोग में लग
जाओगे।
कबीर
ने कहा है, हीरा
पाया गांठ
गठियाया, फिर
बाको बार—बार
क्यों खोले।
अब
मिल गया हीरा, उसको
जल्दी से आदमी
गांठ में लपेट
लेता है। फिर
खोलकर भी नहीं
देखता कि कोई
और न देख ले।
फिर भागता है
वहां से कि
किसी को पता न
चल जाए। हीरा
पाकर तुम
चिल्लाते
थोड़े ही हो कि
मिल गया। और
जब हीरा मिल
जाता है, तो
तुम हाथ में
जगह हमेशा बना
ही लेते हो।
कुछ
छोटी—मोटी
झलकें मिली
हैं.।
वे
कल्पना रही
होंगी। अगर वे
कल्पना न थीं, तो
अनेक अवसरों
पर फिर मैं
द्वंद्व और
दुविधा में पड़
जाता हूं कि
यह उसकी मर्जी
है या मेरी मर्जी
है! जब भी
द्वंद्व और
दुविधा हो, तब समझना कि
यह तुम्हारी
ही मर्जी है।
क्योंकि
द्वंद्व और
दुविधा का
उसकी मर्जी से
कोई संबंध ही
नहीं है।
उसकी
मर्जी
निर्द्वंद्व
है। उसका
इशारा
दुविधामुक्त
है। उसके
सामने कोई
विकल्प ही
नहीं है। उसका
भाव
निर्विकल्प
है। उसके
सामने यह या
वह,
ऐसे कोई
विकल्प नहीं
हैं। नहीं तो
वह इस प्रकृति
को बना ही न
पाता।
तुम
थोड़ा सोचो, यह
इतना विराट जो
चलता है, अगर
इसके पीछे भी
कोई
दुविधापूर्ण
चित्त हो, जो
सोचे कि आज
सूरज को उगाना
कि नहीं, कि
आज तारों को
चलाना कि नहीं,
कि आज लोगों
को सांस
लिवाना कि
नहीं, कि
आज फूल खिले
या नहीं, कि
इस बार आम में
आम ही लगे कि
नीम चल जाए।
तुम थोड़ा सोचो,
अगर कोई
दुविधापूर्ण
चित्त इस
अस्तित्व के पीछे
हो, तो खूब
भयंकर मजाक हो
जाए। फिर तो
कुछ भरोसा ही
करना संभव न
हो; फिर तो
इस जीवन में
रत्तीभर खड़े
होने की जगह न रह
जाए। यह तो एक महाभयंकर
नरक हो जाए।
नहीं, उसके
पीछे कोई
दुविधा नहीं
है। वहां कोई
विकल्प नहीं
है। चीजें सहज
हो रही हैं, जैसी हो रही
हैं।
अगर
तुम्हें
द्वंद्व और
दुविधा मालूम
पड़े,
तो पहचान
लेना, यह
तुम्हारी ही
मर्जी है।
इसको मैं
कसौटी कहता
हूं। जिस दिन
उसकी मर्जी
होगी, उस दिन
न कोई द्वंद्व
है, न कोई
दुविधा है। जब
तक तुम्हारी
मर्जी है, तब
तक द्वंद्व और
दुविधा है।
निर्द्वंद्व, दुविधामुक्त,
निर्विकल्प,
कोई विकल्प
ही न रह जाए, ऐसा भी न हो
कि बाएं जाऊं
कि दाएं जाऊं।
बस, तुम
पाओ कि कोई
उपाय ही नहीं
है, तुम
दाएं चले जा
रहे हो, बाएं
है ही नहीं।
बाएं जैसी कोई
चीज ही नहीं
है, बस तुम
चले जा रहे हो,
बहे जा रहे
हो। इससे
अन्यथा हो ही
नहीं सकता, जिस दिन ऐसी
प्रतीति होने
लगे, समझना
कि उसकी मर्जी
है।
लेकिन
ध्यान रखना, इस
अभीप्सा में
भी अहंकार न
बच जाए। यह भी
कहीं अहंकार
का ही मजा न हो
कि हम उसकी
मर्जी से चल
रहे हैं। उसने
हमें इस योग्य
माना है कि
उसके उपकरण हो
जाएं। अहंकार
बड़ा सूक्ष्म
है। बड़े बारीक
उसके रास्ते
हैं। उससे
थोड़े सावधान
रहना। अन्यथा
साधक के लिए
सब से बड़ी
कठिनाई
अहंकार से आती
है, संसार
से नहीं।
संसार
भी क्या
कठिनाई पैदा
करेगा? असली
कठिनाई
अहंकार से है।
और साधना के
जगत में बड़े
सूक्ष्म
अहंकार की तृप्ति
हो सकती है।
जो जागकर न
चलेगा, वह
बुरी तरह भटक
जाएगा। लेकिन
सूत्र साफ है।
अगर तुम अपने
को भटकाना ही
चाहो, तो
बात अलग, अन्यथा
सूत्र बिलकुल
साफ है। अगर
तुम ठीक से
खोजोगे, तो
तुम्हें
हमेशा चीजें
साफ दिखाई पड़
जाएंगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन एक मित्र
के घर आया।
मैं भी बैठा
था। मित्र
शराब ढाल रहे
थे। पुराने
पियक्कड़ हैं।
नसरुद्दीन भी
पुराना पीने
वाला है, यह
मैं भी
भलीभांति
जानता था।
लेकिन मेरे
सामने पता न
चले। मित्र को
तो कुछ खयाल न
रहा।
उन्होंने कहा
कि अच्छे आए
बड़े मियां, अकेला था और
अकेले पीने
में कुछ मजा
आता नहीं। ठीक
मौके पर आ गए।
नसरुद्दीन
ने मेरी तरफ
देखा और कहा, क्या?
मैंने कभी
जीवन में शराब
छुई भी नहीं।
मैं पीने से
इनकार करता
हूं। तीन कारण
हैं न पीने के।
पहला, मैंने
कभी शराब पी
ही नहीं। दूसरा,
मैं एक सभा
में बोलने जा
रहा हूं शराब
के खिलाफ। सो
पीकर जाना
उचित न होगा।
और तीसरा, मैं
घर से ही पीकर
चला हूं।
जरा
ही तुम भीतर
झांकोगे, तुम
खुद ही पकड़
लोगे। पर्त—पर्त
तुम्हारा
अहंकार है।
कोई दूसरा
तुम्हें
बताएगा, तो
अड़चन भी होगी।
इसलिए मैं कभी—कभी
ऐसे प्रश्न
छोड़ भी देता, नहीं लेता।
क्योंकि अगर
मैं बताऊंगा,
तो वह भी
अड़चन होगी।
उससे भी चोट
लगेगी। उससे
तुम अपने
अहंकार की
रक्षा में लग
सकते हो कि
नहीं, मैं
गलत कह रहा
हूं। इसलिए
मैं ऐसे
प्रश्न छोड़ भी
देता हूं कि
इनको न उठाऊं,
क्योंकि
सीधे तुम्हें
समझना कहीं इसी
कारण मुश्किल
न हो जाए।
लेकिन अगर तुम
सच में ही खोज
में निकले हो,
तो तुम्हें
समझ में बात आ
जाएगी।
बात
बड़ी सीधी है।
अगर तुम
छिपाना ही न
चाहो, तो
छिपने की कोई
जगह नहीं है।
और छिपाओगे, तो तुम्हारी
हानि है, किसी
और की हानि
नहीं है। धोखा
अंततः अपने को
ही दिया गया
सिद्ध होता है,
किसी और को
दिया गया
सिद्ध नहीं
होता।
अब
सूत्र:
तथा हे
अर्जुन, तू
बुद्धि का और
धारणा का भी
गुणों के कारण
तीन प्रकार का
भेद
संपूर्णता से
विभागपूर्वक
मेरे से कहा
हुआ सुन। हे
पार्थ 1
प्रवृत्ति—मार्ग
और निवृत्ति—मार्ग
को तथा
कर्तव्य और
अकर्तव्य को
एवं भय और अभय
को तथा बंधन
और मोक्ष को जो
बुद्धि तत्व
से जानती है, वह बुद्धि
तो सात्विकी
है।
और हे
पार्थ, जिस
बुद्धि के
द्वारा
मनुष्य धर्म
और अधर्म को
तथा कर्तव्य
और अकर्तव्य
को भी यथार्थ
नहीं जानता है,
वह बुद्धि
राजसी है।
और हे
अर्जुन, जो
तमोगुण से आवृत
हुई बुद्धि
अधर्म को धर्म
ऐसा मानती है
तथा और भी
संपूर्ण
अर्थों को
विपरीत ही
मानती है, वह
बुद्धि तामसी
है।
कृष्ण
हर वचन के
पहले कहते हैं, हे
पार्थ, मुझसे
कहा हुआ सुन।
सुनने पर बड़ा
जोर है।
अर्जुन चूकता
जाता है, सुन
नहीं पाता।
कृष्ण कहे
जाते हैं और
अर्जुन नहीं
सुन पाता।
कृष्ण कुछ
कहते हैं, अर्जुन
कुछ सुनता है।
वह सुनने से
चूकता जा रहा
है। सुई बैठती
ही नहीं कृष्ण
के हृदय पर
उसकी। वह वही
नहीं सुन पाता
जो कृष्ण कहना
चाहते हैं, कह रहे हैं।
इसलिए संवाद
लंबा हुआ जाता
है। इसलिए हर
वचन के पहले
वे कहते हैं, हे पार्थ, मेरे से कहा
हुआ सुन।
ये
जो तीन गुण
हैं सांख्य के, बड़े
अनूठे हैं।
जीवन के हर
पहलू पर लागू
हैं। यह कोई
दर्शनशास्त्र
नहीं है। यह
जीवन का सीधा —
सीधा
विश्लेषण है।
ऐसा है; प्रकृति
त्रिगुणमयी
है। इसलिए
स्वभावत:
प्रत्येक
चीजों के तीन
गुण होंगे। और
उन तीन के विभाजन
से समझ के लिए
बड़ी सुविधा
मिलती है। उन
कोटियों से
चीजें साफ
दिखाई पड़ने
लगती हैं। और
जिनके मन
अंधेरे में
दबे हैं, धुएं
से घिरे हैं, उलझे—उलझे
हैं, उनके
लिए काफी
सहारा हो जाता
है।
तमोगुण
से आवृत हुई
बुद्धि अधर्म
को धर्म ऐसा मानती
है। वह जो तमस
से दबा हुआ
व्यक्ति है, उसका
लक्षण, वह
अधर्म को धर्म
जैसा मानता है।
उसकी बुद्धि
विपरीत होती
है। वह प्रकाश
को अंधेरा
मानता है; अंधेरे
को प्रकाश
मानता है। वह
जीवन को
मृत्यु की तरह
जानता है; वह
मृत्यु को
जीवन की तरह
जानता है।
उसका सब कुछ
विपरीत है। वह
शीर्षासन कर
रहा है। उसे
सब उलटा दिखाई
पड़ता है। उसकी
खोपड़ी उलटी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
संबंध में
कहानी है कि जब
वह लड़का था, छोटा
था, तो
उसका नाम उलटी
खोपड़ी था।
क्योंकि अगर
तुम्हें
चाहिए हो कि
वह चुप बैठे, तो तुम्हें
कहना चाहिए कि
नसरुद्दीन
शोरगुल कर। तब
वह चुप बैठता
था। अगर तुम
चाहते हो कि
वह शोरगुल करे,
तो तुम्हें
कहना चाहिए, नसरुद्दीन
चुप बैठ। तब
वह शोरगुल
करेगा। तुम जो
कहोगे, वह
उससे विपरीत
करेगा।
अहंकार
विपरीत करने
में जीता है।
तमस गहन
अहंकार है।
एक
दिन बाप
नसरुद्दीन के
साथ नदी से
लौट रहा है।
गधे पर
नसरुद्दीन के
रेत के बोरे
लादे हुए हैं।
पुल पर से
दोनों गुजर
रहे हैं। बोझ
भारी है और
गधे की बाईं
तरफ बोरा
ज्यादा झुका
हुआ है। बाप
डरा। उसने दूर
से अपने गधे
को सम्हालते
हुए नसरुद्दीन
को कहा कि देख, बाईं
तरफ बोझा
ज्यादा झुक
रहा है। तो
कहना चाहिए था
बाप को, अगर
कोई साधारण
लड़का होता, कि दाईं तरफ
जरा बोझ को
झुका। लेकिन
यह उलटी खोपड़ी
है। अगर इसे
कहो, दाईं
तरफ झुका, तो
यह बाईं तरफ
झुका देगा और
बोरा गिर ही
जाएगा।
तो
बाप ने कहा कि
देख बेटा, बाईं
तरफ बोरे को
जरा झुका, दाईं
तरफ ज्यादा
झुक रहा है।
और नसरुद्दीन
ने पहली दफे
जीवन में बाईं
तरफ ही झुका
दिया। बोरा भी
गिरा, गधा
भी गिर गया।
बाप
ने कहा, नसरुद्दीन,
आज तूने यह
अपने आचरण से
विपरीत
व्यवहार कैसे किया!
नसरुद्दीन ने
कहा, मैं
अठारह साल का
हो गया। अब
मैं कोई बच्चा
नहीं हूँ। अब
मैं भी प्रौढ़
हो गया।
अब
जरा सोचकर
बातें कहा
करें।
तमस
विपरीत बुद्धि
का नाम है। जो
करवाना हो, उसे
तमस करने को
राजी नहीं
होता; वह
उससे विपरीत
करने को राजी
होता है। और
इसलिए कई बार
तामसी
व्यक्ति के
साथ तुम्हें
बहुत समझकर
व्यवहार करना
चाहिए। हो
सकता है, तुम्हारे
उसे सुधारने
के सारे उपाय
ही उसे बिगाड़ने
के कारण हो
जाएं।
एक
महिला मेरे
पास आती है।
पति शराब पीते
हैं। वह सुधार
रही है
जिंदगीभर से
उनको। वे
सुधरते नहीं, और
बिगड़ते जाते
हैं। आमतौर से
शराबी तामसी
प्रवृत्ति के
होते हैं।
मैं
उनकी पत्नी को
कह—कहकर थक
गया कि तू कम
से कम सुधारना
बंद कर दे।
बीस साल तू
सुधार भी चुकी।
बीस साल काफी
लंबा वक्त
होता है। कुछ
परिणाम नहीं
हुआ;
सिर्फ जीवन
बर्बाद हो गया।
कलह और कलह।
या तो तू
उन्हें सुधार
रही है या वे
शराब पीकर घर
में उपद्रव कर
रहे हैं। बस, दो ही
घटनाएं घटती
रही हैं बीस
साल से। दोनों
ही असुखद हैं,
दोनों ही
दुखपूर्ण हैं।
पति नहीं
छोड़ते, कृपा
करके तू उनको
सुधारना ही
छोड़ दे।
वह
सुधारना नहीं
छोड़ सकती।
मैंने उससे
कहा कि तीन
दिन तू कृपा
कर,
तीन दिन कुछ
भी मत कह।
उसने दूसरे
दिन मुझे आकर
कहा कि यह
नहीं हो सकता।
मुझसे भी नहीं
रहा जाता। वह
भी तामसी
प्रवृत्ति है।
तो
मैंने कहा कि
मैं ही कम से
कम तेरे से
कहना बंद करूं, कि
तू सुधारना
बंद कर, क्योंकि
यह तो झंझट
बड़ी है। मैं
सोचता था, पति
ही तामसी
प्रवृत्ति है;
तू भी वही
है। अब तू यह
भी नहीं समझ
सकती कि पति
के लिए तो शराब
पीना बीस साल
की लंबी आदत
है, बड़ी
मुश्किल होगी।
तुझे तो कुछ
नशा नहीं
छोड़ना है, सिर्फ
कहना छोड़ना है।
अगर कहने में
इतना नशा है, तो शराब में
कितना होगा, तू थोड़ा
हिसाब तो लगा,
बीस साल!
वह
कहती है कि जो
भी हो, मगर यह
मुझसे भी रहा
नहीं जाता कि
मैं कुछ न कहूं।
देखती हूं तो
बस आग लग जाती
है। तो मैं
कहे बिना नहीं
रुक सकती।
और
मैं जानता हूं
कि जब तक वह
कहे बिना नहीं
रह सकती, तब तक
पति शराब छोड़
नहीं सकता। वह
अहंकार की
जिद्द हो गई
है। उस पर
सारा अटका है
अहंकार, कौन
जीतता है?
अहंकार
को जीत की
चिंता है। न
सुख की चिंता
है,
न शांति की
चिंता है, न
मुक्ति की
चिंता है, जीत
की चिंता है।
और जीतना भी
किससे है? इस
गरीब पत्नी से
जीतने के लिए
वह अपना जीवन
गंवा
रहा है। और यह
गरीब पत्नी भी
उस गरीब पति
से जीतने के लिए
अपना जीवन
गंवा रही है।
इन बीस साल
में मोक्ष मिल
सकता था। इस
बीस साल में
सिर्फ नरक बढ़ा
है।
लेकिन
तामसी
प्रवृत्ति के
व्यक्ति की वह
आदत है। उसे
बदलना भी बड़ा
कठिन मामला है।
उससे थोड़ा
सोचकर बोलना
चाहिए। उससे
जो करवाना हो, वही
करने को नहीं
कहना चाहिए।
क्योंकि
हे अर्जुन, जो
तमोगुण से
आवृत हुई
बुद्धि है, वह अधर्म को
धर्म ऐसा
मानती है, संपूर्ण
अर्थों को
विपरीत मानती
है, वह
बुद्धि तामसी
है।
और
हे पार्थ, जिस
बुद्धि के द्वारा
मनुष्य धर्म
और अधर्म को
तथा कर्तव्य और
अकर्तव्य को
भी यथार्थ
नहीं जानता, वह बुद्धि
राजसी है।
तामसी
बुद्धि उलटा
करके देखती है, सात्विक
बुद्धि सीधा—सीधा
देखती है। वह
शुद्ध
प्रत्यक्षीकरण
है। जैसा है, वैसा देखती
है। पत्थर को
पत्थर, फूल
को फूल; धर्म
को धर्म, अधर्म
को अधर्म।
जैसा है, वैसे
को वैसा ही
देखना
सात्विक
बुद्धि है।
जैसा नहीं है,
वैसा देखना,
उलटा देखना
तामसी बुद्धि
है। दोनों के
मध्य में
राजसी बुद्धि
है।
राजसी
बुद्धि, जिस
बुद्धि के
द्वारा धर्म
और अधर्म को
तथा कर्तव्य—
अकर्तव्य को
भी यथार्थ
नहीं जानता है।
ठीक—ठीक
समझ में नहीं
आता कि क्या
क्या है, वह
मध्य में उलझा
हुआ है, बिगचन
में पड़ा हुआ
है। कुछ—कुछ
समझ में भी
आता है, कुछ—कुछ
समझ में नहीं
भी आता। धर्म
भी कुछ धर्म
मालूम पड़ता है,
अधर्म भी
कुछ धर्म
मालूम पड़ता है।
अधर्म भी
अधर्म जैसा
दिखाई पड़ता है
और धर्म में
भी कुछ अधर्म
दिखाई पड़ता है।
राजसी
व्यक्ति मध्य
में खड़ा है।
वह आधा—आधा
बंटा है, वह
त्रिशंकु है।
इसलिए
तुम तामसी
व्यक्ति को भी
राजसी व्यक्ति
से ज्यादा शांत
और स्वस्थ
पाओगे। यह बड़ी
अनूठी घटना है।
तामसी
वृत्ति के
व्यक्ति
आमतौर से
ज्यादा सरलता
से जीते हुए मिलेंगे, क्योंकि
कोई दुविधा
नहीं है। साफ
ही है उन्हें।
जो साफ है, वह
बिलकुल गलत है,
लेकिन उनकी
तरफ से उन्हें
साफ है। खाओ—पीओ,
मौज करो; यह उनकी परम
गति है। इसके
पार कुछ है
नहीं।
चार्वाक
ने कहा है, ऋण
कृत्वा घृतं
पिवेत। अगर ऋण
लेकर भी घी
पीना पड़े, पीओ!
क्योंकि मरकर
कोई लौटता है?
चुकाना किसको
है? उधारी
कहीं होती है
इस संसार में?
जिसने ले
लिया, ले
लिया। जिसने न
लिया, वह
नासमझ है। लूट—खसोट
भी करनी पड़े, तो कर लो।
क्योंकि चार
दिन की जिंदगी
है, गई तो
गई। भोगना मत
छोड़ देना।
क्योंकि मरकर
फिर कोई वापस
नहीं लौटता।
अब
यह चार्वाक का
जो पूरा जीवन—दर्शन
है,
वह तमस पर
आधारित है। वह
जो तामसी
वृत्ति का
व्यक्ति है, उसका ही
जीवन—दर्शन है।
यह
चार्वाक शब्द
भी बड़ा अच्छा
है। चार्वाक
का अर्थ है, जिसके
वचन बड़े मधुर
हैं, चारु—वाक,
मधुर वचनों
वाला। अब यह
बात बड़ी मधुर
लगती है कि
खाओ—पीओ, मौज
करो; उधार
भी लेकर करना
पड़े, करो।
चुकाना किसको
है? ये
कानून, अदालत,
ये सब आदमी
के ढोंग—
धतूरे हैं।
कोई फिक्र
नहीं। न कोई
पाप है, न
कोई पुण्य है;
न कोई
स्वर्ग है, न कोई परलोक
है। यह सब
पंडितों, ब्राह्मणों,
पुरोहितों
की ईजाद है।
इनके धोखे में
मत पड़ो।
चार्वाक
ने कहा है, यह
धूर्तों की
खोज है।
स्वर्ग, मोक्ष,
धर्म, पुण्य,
यह सब बकवास
है। सार इतना
है कि भोग लो, पी लो जितना
पीना हो, फिर
दुबारा आना न
होगा। न कोई
आत्मा है, न
कोई अमरत्व है।
क्षणभंगुर
जीवन है, पर
बस यही जीवन
है।
चार्वाक—दर्शन
को चारु—वाक
नाम मिल गया।
करोड़ों लोगों
को उसके वचन
बड़े प्रीतिकर
लगे होंगे।
दूसरा नाम है
चार्वाक का, लोकायत।
लोकायत का
अर्थ है, जिसे
लोक में
स्वीकृति है,
जिसे अनेक
लोग मानते हैं,
बहुसंख्या
मानती है।
तुम
हैरान होओगे, क्योंकि
तुम्हें
चार्वाकवादी
कहीं भी नहीं मिलेगा।
लेकिन अगर तुम
खोजोगे, तो
तुम्हें सौ
में से
निन्यानबे
चार्वाकवादी
मिलेंगे। कोई
हिंदू बनकर
बैठा है, कोई
मुसलमान बनकर
बैठा है, कोई
ईसाई बनकर
बैठा है, लेकिन
जरा कपड़े
उतारकर भीतर
खोजो, तुम
पाओगे
चार्वाक।
लोकायत
नाम बिलकुल
अच्छा है।
अधिक लोग
चार्वाक को ही
मानते हैं। वे
भला पूजा
महावीर की
करते हों, नाम
मोहम्मद का
लेते हों, अंततः
चरण चार्वाक
के पकड़े हुए
हैं। उनका
जीवन बताएगा।
क्योंकि कहते
वे कुछ हों, जो वे करते
हैं, उससे
ही प्रमाण
मिलेगा। मगर
फिर भी तुम
पाओगे कि ये
लोग एक तरह से शांत
होंगे। इनके
जीवन में बहुत
दुविधा नहीं
है। अज्ञानी
आदमी में भी
एक तरह की
शांति होती है।
जैसा ज्ञानी
आदमी के जीवन
में एक
महाशांति होती
है। उसकी थोड़ी—सी
झलक अज्ञानी
में भी मिलती
है। कारण हैं।
ज्ञानी
भी सुनिश्चित
है कि सत्य
सत्य है, असत्य
असत्य है।
अज्ञानी भी
सुनिश्चित है
कि उसे, जिसे
वह सत्य समझता
है, वह
सत्य है; और
जिसे असत्य
समझता है, वह
असत्य है।
दोनों
कम से कम
सुनिश्चित
हैं। मध्य में
दोनों के
राजसी
व्यक्ति है, वह
डांवाडोल है।
वह ऐसे है, जैसे
रस्सी पर चल
रहा हो, कभी
बाएं झुकता, कभी दाएं
झुकता। उसे
दोनों बातें
ठीक भी लगती
हैं और इतनी
ठीक भी नहीं
लगती कि चुन
ले। वह हमेशा
दुविधा में है।
राजसी
व्यक्ति
हमेशा उलझन
में है। वह
निर्णय नहीं
कर पाता; आधा—आधा
जीता है।
इसलिए राजसी
व्यक्ति सब से
ज्यादा
तनावग्रस्त
होगा। उसके
जीवन में सब
से ज्यादा
तनाव, अशांति,
बेचैनी, उत्तेजना
होगी।
और
हे पार्थ, जिस
बुद्धि के
द्वारा धर्म
और अधर्म को
तथा कर्तव्य
और अकर्तव्य
को भी यथार्थ
नहीं जानता है,
वह बुद्धि
राजसी है।
प्रवृत्ति—मार्ग
और निवृत्ति—मार्ग
को तथा
कर्तव्य और
अकर्तव्य को, भय
और अभय को, बंधन
और मोक्ष को
जो बुद्धि
तत्व से जानती
है, जैसा
है वैसा जानती
है, वह बुद्धि
सात्विकी है।
अपने
भीतर खोजना कि
कौन—सी बुद्धि
तुम्हारे
भीतर सक्रिय
है। और जब तक
सात्विक
बुद्धि तक
पहुंचना न हो
जाए,
तब तक समझना
कि धर्म से
संबंध न हो
सकेगा।
अगर
तामसी
व्यक्ति
मंदिर भी
जाएगा, तो
गलत कारणों से
जाएगा। राजसी
व्यक्ति
मंदिर जाएगा,
तो पूरा न
जा सकेगा, अधूरा
जाएगा, आधा
बाजार में छूट
जाएगा।
सात्विक
व्यक्ति को
मंदिर जाने की
जरूरत नहीं, वह जहां
होता है, वहीं
मंदिर आ जाता
है। अपने भीतर
ठीक से
विश्लेषण कर
लेना जरूरी है।
यह
अर्जुन तामसी
तो नहीं है; दुर्योधन
तामसी है।
इसलिए गीता
दुर्योधन से
नहीं कही जा
सकी। कहने का
कोई उपाय ही न
था। प्रश्न ही
नहीं है।
दुर्योधन तो
चार्वाकवादी
है; तो खाओ—पीओ,
मौज करो, यही सब कुछ
है। इसके पार
कुछ भी नहीं
है। जाना कहां,
पाना क्या,
आत्मा क्या,
परमात्मा
क्या—सब
व्यर्थ बकवास
है। भोग ही
एकमात्र
मोक्ष है।
दुर्योधन
के लिए कोई
सवाल ही नहीं
उठा। कोई सवाल
है ही नहीं।
दुर्योधन एक
अर्थ 'में
सीधा—सादा है।
उसकी बुद्धि
कितनी ही गलत
हो, मगर वह
सीधा—सादा
आदमी है। उसके
जीवन में
प्रश्न भी
नहीं है। वह
अंधेरे से
तृप्त है।
उसकी
जिज्ञासा भी
अभी उठी नहीं।
अभी बीज टूटा
ही नहीं, अंकुर
फूटा ही नहीं।
कृष्ण से
पूछने का सवाल
ही नहीं है।
सात्विक
बुद्धि का
वहां कोई
व्यक्ति नहीं
है,
नहीं तो वह
भी नहीं पूछता।
इसलिए मैं
कहता हूं अगर
महावीर वहां
होते, तो
वे चुपचाप
उतरकर रथ से
चले गए होते।
वे कृष्ण से
पूछते भी नहीं
कि हे महाबाहो,
मेरे हाथ
शिथिल हुए
जाते हैं, मेरा
गांडीव गिरा
जाता है; कि
मैं कंप रहा
हूं मैं भयभीत
हूं। मैं
जानता नहीं, क्या करने
योग्य है, क्या
करने योग्य
नहीं है। मुझे
बोध दें।
महावीर
यह बात ही
नहीं करते, बुद्ध
यह बात ही
नहीं करते। वे
भी क्षत्रिय
थे। वे भी
धनुष—बाण ऐसा
ही चलाना
जानते थे जैसा
अर्जुन जानता
था। उनके भी
अपने गांडीव
थे। अगर युद्ध
के स्थल पर वे
होते, वे
चुपचाप उतरकर
चल दिए होते।
कृष्ण छते
उनके पीछे भी
दौड़ते, तो
भी वे कहते, नाहक.. हमें
कुछ पूछना
नहीं है। न
दुर्योधन को
कुछ पूछना है,
न बुद्ध को
कुछ पूछना है।
पूछना अर्जुन
को है, अर्जुन
राजसी है। वह
मध्य में है।
जो मध्य में
है, उसे
पूछना है।
क्योंकि उसे
निश्चय करना
है। उसे डर है,
अगर कृष्ण
सहारा न देंगे,
तो वह गिर
जाएगा, जहां
दुर्योधन है
वहां। वह नहीं
चाहता, दुर्योधन
की तरह युद्ध
में उतरना
नहीं चाहता।
वह तो बिलकुल
व्यर्थ मालूम
पड़ रहा है। वह
तो साफ है कि
उसमें सिर्फ
हिंसा होगी, हत्या होगी,
लाखों लोग
मरेंगे, पाप
फैलेगा।
वीभत्स है।
उसमें कुछ रस
नहीं मालूम
होता।
वह
महावीर की
अवस्था में भी
नहीं है कि
साफ हो जाए
दृष्टि खुल
जाए,
रख दे
गांडीव और
जंगल की तरफ
चला जाए। वह
सात्विक
स्थिति भी
नहीं है। वह
राजस है, वह
मध्य में खड़ा
है—अनिर्णीत,
बेचैन, डांवाडोल,
कंपता हुआ।
इसलिए कृष्ण
से मेल है।
तामसिक
व्यक्ति
शिष्य बनता ही
नहीं।
सात्विक को
बनने की जरूरत
नहीं। राजसिक
को! अर्जुन को!
सभी शिष्य
अर्जुन हैं।
अर्जुन तो
शिष्यों का
सार प्रतीक है।
अपने
भीतर खोजना।
लेकिन ध्यान
रखना, कई और
खतरे भी हैं।
जैसे मैंने
कहा, यह
महाभारत का
युद्ध और यह
महाभारत की
कथा बड़ी अनूठी
है। वहा
युधिष्ठिर भी
है। वह भी
प्रश्न नहीं
पूछता। वह
धर्मराज है, लेकिन वह
महावीर की तरह
युद्ध छोड्कर
भी नहीं चला
जाता। वह
सिर्फ पंडित
है। वह
सात्विक है नहीं।
सात्विक का
खयाल है, धारणा
है, शब्द
हैं। वह पंडित
है, उसे
प्रज्ञा नहीं
हुई है। उसे
कोई बोध नहीं
हुआ है; वह
कोई जाग नहीं
गया है। वह
वहीं है, जहां
अर्जुन है, लेकिन
पांडित्य में
दबा है।
अर्जुन सीधा—सादा
है। वह
पांडित्य में
दबा नहीं है।
इसलिए प्रश्न
पूछ सकता है।
युधिष्ठिर
प्रश्न नहीं
पूछ सकता, उत्तर
उसे खुद ही
मालूम है।
उत्तर, जो
उसने खुद जीवन
से खोजे नहीं
हैं, उधार
हैं। तुम
महाभारत में
सभी को पा
लोगे; वह
सारी दुनिया
का संक्षिप्त
चित्र है। अगर
एक—एक पात्र
को महाभारत के
तुम खोजने जाओगे,
तो तुम
पाओगे कि वह
प्रतीक है। और
उस पात्र के
पीछे उस तरह
के लोग सारी
दुनिया में
हैं, वह
टाइप है।
लेकिन
अगर तुम्हारे
मन में
जिज्ञासा उठी
है,
तो तुम
जानना कि तुम
मध्य में खड़े
हो। अगर
जिज्ञासा के
सूत्र को
पकड़कर आगे न
बढ़े, तो
पीछे गिर जाने
का डर है। अगर
ऊपर न उठे, तो
दुर्योधन हो
जाने का डर है।
और
कृष्ण की पूरी
चेष्टा यही है
कि वे अर्जुन को
दुर्योधन
होने से बचा
लें और अर्जुन
को अर्जुन
होने से भी
बचा लें। और
अगर अर्जुन
युद्ध में
उतरे, तो ऐसे
उतरे, जैसे
बुद्ध अगर
युद्ध में
उतरते तो
उतरते—इतनी
पवित्रता से,
इतनी
निर्दोषता से,
इतने
निर्विकार
होकर, एक
उपकरण—मात्र,
निमित्त—मात्र।
आज
इतना ही।
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