(ग्यारहवीं
प्रश्नोत्तर
चर्चा)
कुंडलिनी
जागरण के लिए
प्रथम तीन
शरीरों में
सामंजस्य आवश्यक:
प्रश्न
ओशो कल की
चर्चा में
आपने अविकसित
प्रथम तीन
शरीरों के ऊपर
होनेवाले
शक्तिपात या
कुंडलिनी
जागरण के
प्रभाव की बात
की। दूसरे और
तीसरे शरीर के
अविकसित होने
पर कैसा
प्रभाव होगा
इस पर कुछ और
प्रकाश डालने
की कृपा करें
भ्यसाथ हत्ती
यह भी बताएं
कि प्रथम तीन
शरीर— फिजिकल
ईथरिक और
एस्ट्रल बॉडी
को विकसित
करने के लिए
साधक इस संबंध
में पहली बात
तो यह समझने
की है कि पहले, दूसरे
और तीसरे
शरीरों में
सामंजस्य, हार्मनी
होनी जरूरी है।
ये तीनों शरीर
अगर आपस में
एक
मैत्रीपूर्ण
संबंध में
नहीं हैं, तो
कुंडलिनी
जागरण हानिकर
हो सकता है।
और इन तीनों
के सामंजस्य
में, संगीत
में होने के
लिए दो—तीन
बातें आवश्यक
हैं।
प्रथम
शरीर के प्रति
बोधपूर्ण
होना:
पहली
बात तो यह कि
हमारा पहला
शरीर, जब तक हम
इस शरीर के
प्रति
मूर्च्छित
हैं, तब तक
यह शरीर हमारे
दूसरे शरीरों
के साथ सामंजस्य
स्थापित नहीं
कर पाता, हामोंनियस
नहीं हो पाता।
मूर्च्छित का
मेरा मतलब यह
है कि हम अपने
शरीर के प्रति
बोधपूर्ण
नहीं हैं।
चलते हैं तो
हमें पता नहीं
होता कि हम चल
रहे हैं, उठते
हैं तो हमें
पता नहीं होता
कि हम उठ रहे हैं,
खाना खाते
हैं तो हमें
पता नहीं होता
कि हम खाना खा
रहे हैं। शरीर
से हम जो काम
लेते हैं वह
अत्यंत
मूर्च्छा और
निद्रा में
लेते हैं।
अगर
इस शरीर के
प्रति
मूर्च्छा है, तो
दूसरे शरीरों
के प्रति तो
और भी
मूर्च्छा होगी,
क्योंकि वे
तो बहुत
सूक्ष्म हैं।
अगर इस स्थूल
दिखाई
पड़नेवाले
शरीर के प्रति
भी हमारा कोई
होश और अवेयरनेस
नहीं है, तो
जो शरीर नहीं
दिखाई पड़ते, अदृश्य हैं
उनका तो कोई
सवाल नहीं
उठता, उनके
प्रति तो हमें
कभी होश नहीं
हो सकता। और
बिना होश के
सामंजस्य
नहीं है। सब
सामंजस्य होश
में होता है।
नींद में सब
सामंजस्य टूट
जाता है।
तो
पहली बात तो
इस शरीर के
प्रति अवेयरनेस
जगानी जरूरी
है। यह शरीर
छोटा सा भी
काम करे तो
उसमें एक
रिमेंबरिग, उसमें
एक स्मरण होना
आवश्यक है।
जैसा बुद्ध
कहते थे कि
तुम राह पर
चलो तो तुम जानो
कि चल रहे हो।
और जब
तुम्हारा
बायां पैर उठे,
तो
तुम्हारे
चित्त को पता
हो कि बायां
पैर उठा; और
जब तुम रात करवट
लो तो तुम
जानो कि तुमने
करवट ली है।
एक
गांव से वे
निकल रहे हैं—यह
उनकी साधक
अवस्था की
घटना है— और एक
साधक उनके साथ
है। वे दोनों
बात कर रहे
हैं और एक
मक्खी उनके
गले पर आकर
बैठ गई है। तो
वे बात करते
रहे और हाथ से
उन्होंने
मक्खी को उड़ा
दिया। मक्खी
उड़ गई, तब
अचानक वे
रुककर खड़े हो
गए और
उन्होंने उस साधक
से कहा कि बड़ी
भूल हो गई, और
उन्होंने फिर
से मक्खी उड़ाई
जो कि अब थी ही नहीं;
फिर उस जगह
हाथ ले गए
जहां मक्खी थी
तब ले गए थे।
उस साधक ने
कहा, साथी
ने कहा, अब
आप क्या कर
रहे हैं? अब
तो मक्खी नहीं
है! बुद्ध ने कहा,
अब मैं वैसे
उड़ा रहा हूं
जैसे मुझे
उड़ानी चाहिए
थी। अब मैं
होशपूर्वक
उड़ा रहा हूं
अब यह हाथ
मेरा उठ रहा
है तो मेरी
चेतना में मैं
जान रहा हूं कि
यह हाथ जा रहा
है मक्खी को
उड़ाने। उस
वक्त मैं
तुमसे बात
करता रहा और
यंत्रवत मैंने
मक्खी उड़ा दी।
मेरे शरीर के
प्रति एक पाप
हो गया।
प्रथम
स्थूल शरीर के
प्रति जागने
पर भाव शरीर का
बोध प्रारंभ:
यदि
हम अपने शरीर
के प्रत्येक
काम को होश से
करने लगें, तो
हमारा यह शरीर
पारदर्शी हो
जाएगा, ट्रांसपैरेंट
हो जाएगा। कभी
इस हाथ को
नीचे से ऊपर
तक होशपूर्वक
उठाएं। और तब
आप एहसास करेंगे
कि आप हाथ से
अलग हैं, क्योंकि
उठानेवाला
बहुत भिन्न है।
वह जो भिन्नता
का बोध होगा, वह आपकी
ईथरिक बॉडी का
बोध शुरू हो
गया।
फिर
जैसे मैंने
कहा कि इस
शरीर के प्रति
बोध है— अब
जैसे समझ लें
कि यहां एक
आर्केस्ट्रा
बजता हो, बहुत
तरह के वाद्य
बजते हों। जिस
आदमी ने संगीत
कभी नहीं सुना
है उसे भी हम
यहां ले आएं।
तो जो स्वर
सबसे ज्यादा
बजते होंगे, जो ढोल सबसे
ज्यादा पीटा
जा रहा होगा, उसे वही
सुनाई पड़ेगा;
बहुत धीमे
स्वरोंवाले, मैदे
स्वरवाले, पीछे
से, पृष्ठभूमि
से बजनेवाले
वाद्य स्वर
उसे सुनाई
नहीं पड़ेंगे।
लेकिन उसका
होश बढ़ता जाए
तो फिर उसे
पीछेवाले
स्वर भी सुनाई
पड़ने शुरू
होंगे। उसका
होश और बढ़ता
चला जाए, तो
उसे और
पीछेवाले
स्वर सुनाई
पड़ने शुरू होंगे।
और जिस दिन
उसका होश पूरा
होगा, उस
दिन वह बहुत
ही बारीक और
नाजुक जो स्वर
हैं, वे भी
वह पकड़ने
लगेगा। और जिस
दिन उसका होश
और भी बढ़
जाएगा, उस
दिन वह केवल
स्वर ही नहीं
पकड़ेगा, दो
स्वरों के बीच
में जो अंतराल
है, जो गैप
है, जो
साइलेंस है, वह भी
पकड़ेगा। तभी
वह संगीत को
पूरा पकड़ पाया।
अंतिम
तो उसको गैप
पकड़ना है, तब
समझेंगे कि
उसकी संगीत की
पकड़ पूरी हो
पाई। जब दो
स्वरों के बीच
में जगह खाली
छूट जाती है
और कोई स्वर
नहीं होता, सन्नाटा
होता है; उस
सन्नाटे का भी
अपना अर्थ है।
असल में, संगीत
के सब स्वर
उसी सन्नाटे
को उभारने के
लिए हैं। वह
कितना उभरता
है और प्रकट
होता है, यही
असली बात है।
अगर
आपने कभी कोई
जापानी या
चाइनीज
पेंटिंग देखी
है,
तो बहुत
हैरान होंगे
यह बात देखकर
कि पेंटिंग एक
कोने पर होगी
छोटी सी, और
कैनवस बहुत
बड़ा खाली ही
होगा। ऐसा
दुनिया में
कहीं नहीं
होता, क्योंकि
दुनिया में
कहीं भी
चित्रकार ने
ध्यान के साथ
चित्र नहीं
बनाए। असल में,
ध्यानी ने
दुनिया में
कहीं भी
पेंटिंग नहीं
की है सिवाय
चीन और जापान
को छोड्कर।
अगर आप इस
चित्रकार से
पूछेंगे कि यह
क्या मामला है?
इतना बड़ा
कैनवस लिया है,
उसमें इतना
सा छोटा सा
कोने में
चित्र बनाया है!
यह तो कैनवस
के आठवें
हिस्से में भी
बन सकता था, बाकी कैनवस
की क्या जरूरत
थी? तो वह
कहेगा कि वह
जो बाकी पृष्ठ
पर जो खाली
आकाश है, उसको
उभारने के लिए
ही यह नीचे
कोने पर थोड़ी
सी मेहनत की
है, ताकि
वह खाली आकाश
तुम्हें
दिखाई पड़ सके।
क्योंकि
अनुपात यही है,
खाली आकाश
अनंत है।
अब
एक वृक्ष खड़ा
है खाली आकाश
में। जब हम
चित्र बनाते
हैं तो पूरे
कैनवस पर वृक्ष
हो जाता है।
वस्तुत: तो
आकाश होना
चाहिए पूरे
कैनवस पर, वृक्ष
तो एक कहां
कोने में, उसका
पता नहीं चलता,
उतना छोटा
है। अनुपात
वास्तविक यही
है। और वृक्ष
अपने पूरे
अनुपात में
आकाश की
पृष्ठभुमि
में जब खड़ा
होगा, तभी
जीवंत होगा।
इसलिए हमारी
सारी पेंटिंग
अनुपातहीन है।
अगर
ध्यानी कभी
संगीत पैदा
करेगा तो
उसमें स्वर कम
होंगे, शून्यता
ज्यादा होगी,
क्योंकि
स्वर तो बड़ी
छोटी बात है
शून्य बहुत बड़ी
बात है। और
स्वर की एक ही
सार्थकता है
कि वह शून्य
को इंगित कर
जाए और विदा
हो जाए। लेकिन
जितना बोध
बढ़ेगा स्वर का,
उतना!
तो
हमारा यह जो
स्थूल शरीर है, इसकी
सार्थकता ही
यही है कि यह
हमें और
सूक्ष्म
शरीरों का बोध
करा जाए।
लेकिन हम इसी
को पकड़कर बैठ
जाते हैं। और
पकड़कर बैठने
की जो तरकीब
है, वह यह
है कि हम इस
शरीर के प्रति
मूर्च्छित तादात्म्य
कर लेते हैं, एक स्लीपिंग
आइडेंटिटी है,
हम सो गए
हैं और शरीर
को हम बिलकुल
मूर्च्छा की
तरह जी रहे
हैं। इस शरीर
की एक—एक
क्रिया के
प्रति जागोगे
तो तुम्हें
फौरन दूसरे
शरीर का बोध
शुरू हो जाएगा।
फिर
दूसरे शरीर की
भी अपनी
क्रियाएं हैं।
लेकिन उनमें
तुम तब तक
नहीं जाग
सकोगे जब तक इस
शरीर की
क्रियाओं के
प्रति नहीं
जागे, क्योंकि
वे सूक्ष्म
हैं। अगर तुम
इस शरीर की
क्रियाओं के
प्रति जाग गए तो
तुम्हें
दूसरे शरीर की
क्रियाओं का
भी हलन—चलन
पता पड़ने
लगेगा। अब
दूसरे शरीर की
हलन—चलन पर
जिस दिन तुम
जागोगे, तुम
बहुत हैरान हो
जाओगे कि यह
तो हमें पता
ही नहीं था कि
हमारे भीतर
ईथरिक वेल्स
भी हैं, और
वे पूरे वक्त
काम कर रही
हैं।
भाव
शरीर में
उठनेवाले
भावों के प्रति
होश:
एक
आदमी ने क्रोध
किया। क्रोध
का जन्म दूसरे
शरीर में होता
है,
अभिव्यक्ति
पहले शरीर में
होती है।
क्रोध मूलत:
दूसरे शरीर की
किया है; पहले
शरीर का तो
साधन की तरह
उपयोग होता है।
इसलिए तुम
चाहो तो पहले
शरीर तक क्रोध
को आने से रोक
सकते हो। दमन
में यही करते
हो। मेरा मन
हुआ है, क्रोध
से भर गया हूं
और तुम्हें
उठाकर लकड़ी मार
दूं। लकड़ी
मारने से मैं
रोक सकता हूं
क्योंकि यह पहले
शरीर की
क्रिया है। यह
मूलत: क्रोध
नहीं है, यह
क्रोध की अभिव्यक्ति
भर है। लकड़ी
मारने से रोक
सकता हूं
चाहूं तो
तुम्हें
देखकर
मुस्कुराता
भी रह सकता
हूं लेकिन
भीतर मेरे
दूसरे शरीर पर
क्रोध फैल
जाएगा। तो दमन
में इतना ही
होता है कि हम
अभिव्यक्ति के
तल पर उसको
प्रकट नहीं
होने देते, लेकिन मूल
स्रोत के तल
पर तो वह
प्रकट हो जाता
है।
जब
तुम्हें पहले
शरीर की
क्रियाओं का
पता चलना शुरू
होगा, तब तुम
अपने भीतर
उठनेवाले
प्रेम, अपने
भीतर
उठनेवाले
क्रोध, अपने
भीतर
उठनेवाली
घृणा, अपने
भीतर
उठनेवाले भय
के मूवमेंट्स
को भी समझने
लगोगे। वे भी
तुम्हें पता
चलने लगेंगे
कि उनकी गतियां
हैं। और जब तक
तुम दूसरे
शरीर पर
उठनेवाले इन
सब भावों की
गति को नहीं
पकड़ पाते हो, तब तक
ज्यादा से
ज्यादा दमन ही
कर सकते हो, मुक्त नहीं
हो सकते।
क्योंकि
तुमको पता ही
तब चलता है जब
वह इस शरीर तक
आ जाता है, तुमको
खुद भी तभी
पता चलता है।
कई बार तो तब
भी पता नहीं
चलता, पता
चलता है जब तक
दूसरे के शरीर
तक न पहुंच जाए।
हम इतने
मूर्च्छित
होते हैं कि
जब तक मेरा चांटा
तुम्हारे ऊपर
न पड़ जाए, तब
तक भी मुझे
पता नहीं चलता
कि मैं चांटा
मारने वाला था।
जब चांटा लग
ही जाता है, तब मुझे पता
चलता है कि
कोई घटना घट
गई।
लेकिन
यह उठता है
ईथरिक बॉडी
में,
वहां से
पैदा होता है—
समस्त भाव।
इसलिए मैंने
दूसरे शरीर को
भाव शरीर कहा।
ईथरिक बॉडी जो
है, वह भाव
शरीर है। उसकी
अपनी गतियां
हैं। क्रोध
में, प्रेम
में, घृणा
में, अशांति
में, भय
में उसके अपने
मूवमेंट हो
रहे हैं। उसकी
गतियों को तुम
पहचानने लगोगे।
भय
के ईथरिक कंपन
का बाह्य
व्यक्तित्व
पर प्रभाव:
जब
तुम भयभीत
होओगे तब
तुम्हारी
ईथरिक बॉडी एकदम
सिकुड़ जाती है।
तो भय में जो
संकोच मालूम
पड़ता है, वह
पहले शरीर का
नहीं है; क्योंकि
पहला शरीर तो
उतना ही रहता
है, उसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता। पहले
शरीर के आयतन
में कोई फर्क
नहीं पड़ता, लेकिन ईथरिक
बॉडी सिकुड़
जाती है भय
में।
इसलिए
जो आदमी भयभीत
रहता है, उसके
पहले शरीर पर
भी संकोच के
प्रभाव दिखाई
पड़ने लगते हैं।
उसके चलने में,
उसके बैठने
में वह पूरे
वक्त दबा—दबा
मालूम पड़ता है,
जैसे चारों
तरफ से कोई
उसे दबाए हुए
है। वह खड़ा
होगा तो सीधा
खड़ा न होगा, झुककर खड़ा
होगा; वह
बोलेगा तो
लड़खडाएगा; चलेगा
तो उसके पैर
में कंपन
होंगे; दस्तखत
करेगा तो उसके
अक्षर कंपे
हुए और हिले हुए
होंगे।
अब
स्त्री और
पुरुष के
हस्ताक्षर, बिना
किसी कठिनाई
के कोई भी
पहचान सकता है
कि ये पुरुष
के हस्ताक्षर
हैं कि स्त्री
के। स्त्री
सीधे अक्षर
बना ही नहीं
पाती। कितने
ही सुडौल बनाए
तब भी उसके
अक्षरों में एक
कंपन होता है
जो स्त्रैण
होता है। वह
उसके ईथरिक
शरीर से आता
है। वह पूरे
वक्त भयभीत है।
उसका
व्यक्तित्व
ही भयग्रस्त
हो गया है।
इसलिए बिलकुल
बिना फिकर के
देखकर कहा जा
सकता है कि यह
स्त्री का
लिखा हुआ अक्षर
है कि पुरुष
का लिखा हुआ
अक्षर है।
फिर
पुरुष में भी
कौन आदमी
कितना भयभीत
है,
वह अक्षर से
देखकर जाना जा
सकता है।
हमारी
अंगुलियों
में और स्त्री
की अंगुलियों
में कोई फर्क
नहीं है।
हमारे कलम के
पकड़ने में, उसके कलम के
पकड़ने में
फर्क नहीं है।
जहां तक पहले
शरीर का
वास्ता है, लिखने में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
जहां तक दूसरे
शरीर का
वास्ता है, स्त्री
भयभीत है। आज
तक भी वह भीतर
से अभय की
स्थिति नहीं
हो पाई— न समाज
की, न
संस्कृति की,
न हमारे
चित्त की—कि
स्त्री को हम
अभय दे पाएं।
वह भयभीत है
पूरे वक्त। और
उसके भय का
कंपन उसके
सारे
व्यक्तित्व
में उतरेगा।
पुरुषों में
भी जांचा जा
सकता है कि
कौन भयभीत है,
कौन निर्भय
है। वह उनके
हस्ताक्षर
बता सकेंगे।
लेकिन भय की
जो स्थिति है,
वह ईथरिक है।
भाव
शरीर का भय
में सिकुड़ना
और प्रेम में
फैलना:
यह
मैं तुम्हें
पहचानने के
लिए कह रहा
हूं कि भीतर
तुम जब इस
शरीर की
क्रियाओं को
पहचान जाओ तो
तुम्हें
ईथरिक शरीर की
क्रियाओं को
भी पहचानना
पड़ेगा कि वहां
क्या हो रहा
है। जब तुम
प्रेम में
होते हो तो
तुम्हें लगता
है तुम फैल गए।
असल में, प्रेम
में इतनी
मुक्ति
इसीलिए मालूम
होती है कि हम
एकदम फैल जाते
हैं—कोई है
जिससे अब भय
की कोई जरूरत
नहीं है। जिस
व्यक्ति को
मैं प्रेम
करता हूं उसके
पास मुझे भय
का कोई कारण
नहीं है। असल
में, प्रेम
का मतलब ही यह
है कि जिससे
मुझे भय नहीं है;
जिसके
सामने, मैं
जैसा हूं उतना
पूरा खिल सकता
हूं; जितना
हूं उतना फैल
सकता हूं।
इसलिए प्रेम
के क्षण में
एक्सपैंशन का
बोध होता है।
तुम्हारा यह
शरीर इतना ही
रहता है, इसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता, लेकिन
तुम्हारे
भीतर का शरीर
खिल जाता है
और फूल जाता
है, फैल
जाता है।
ध्यान
में निरंतर
लोगों को अनुभव
होता है.......किसी
को अनुभव होता
है कि उसका
शरीर बहुत बड़ा
हो गया! यह
शरीर इतना ही
रहता है। यह
शरीर इतना ही
रहता है।
ध्यान में उसे
लगता है कि यह
क्या हो रहा
है! मेरा शरीर
फैलता जा रहा
है,
पूरे कमरे
को भर लिया! आंख
जब वह खोलता
है तो हैरान
होता है कि शरीर
तो उतना ही है,
लेकिन वह
फीलिंग भी
उसकी पीछा
करती है कि वह
भी झूठ नहीं
था जो मैंने
जाना; अनुभव
इतना साफ हुआ
था कि मैं
पूरे कमरे में
भर गया हूं।
वह
ईथरिक शरीर है।
उसके आयतन का
कोई अंत नहीं
है। वह भाव से
फैलता और
सिकुड़ता है।
वह इतना फैल
सकता है कि
सारे जगत में
भर जाए; वह
इतना सिकुड़
सकता है कि एक
छोटे अणु में
भी उसके लिए
जगह मिल जाए।
वह भाव शरीर
है।
फैला
हुआ होना भाव
शरीर की
स्वस्थता:
तो
उसकी
क्रियाएं
तुम्हें
दिखाई पड़नी
शुरू होंगी—
उसका फैलना, उसका
सिकुड़ना; वह
किन
स्थितियों
में फैलता है,
किन में
सिकुड़ता है।
जिनमें वह
फैलता है, अगर
साधक उन
क्रियाओं में
जीने लगे तो
सामंजस्य
पैदा होगा; जिनमें वह
सिकुड़ता है
अगर उनमें
जीने लगे तो इस
शरीर में और
दूसरे शरीर
में सामंजस्य
टूट जाएगा।
क्योंकि उसका
फैलाव ही उसकी
सहजता है। जब
वह पूरा फैला
होता है, पूरा
प्रफुल्लित
होता है, तब
वह इस शरीर के
साथ एक सेतु
में बंध जाता
है, और जब
वह भयभीत होता
है, सिकुड़ा
हुआ होता है, तो इस शरीर
से उसके संबंध
छिन्न—भिन्न
हो जाते हैं; वह अलग एक
कोने में पड़
जाता है।
तीव्र
भावनात्मक
आघात से भाव
शरीर का
स्पष्ट बोध:
उस
शरीर की और भी
तरह की
क्रियाएं हैं
जिनको कि और
तरह से जाना
जा सकता है।
जैसे कि...... अगर
एक आदमी अभी
दिखाई पड़ रहा
था बिलकुल
स्वस्थ, सब
तरह से ठीक, और किसी ने
आकर उसको खबर
दी कि उसको
फांसी की सजा
हो गई है; तो
उसके चेहरे का
रंग फौरन उड़
जाएगा। उसके
इस शरीर में
कोई फर्क नहीं
पड़ रहा है, क्योंकि
इस शरीर में
जितना खून है
उतना है।
लेकिन उसकी
ईथरिक बॉडी
में एकदम फर्क
पड़ गया। उसकी
ईथरिक बॉडी इस
शरीर को छोड़ने
को तैयार हो
गई। उसकी
ईथरिक बॉडी, उसका भाव
शरीर इस शरीर
को छोड़ने को
तैयार हो गया।
और हालत वैसी
ही हो गई, जैसे
कि इस घर के
मालिक को
अचानक पता चले
कि अब यह मकान
खाली कर देना
है, तो सब
रौनक चली जाए,
सब
अस्तव्यस्त
हो जाए। उस
दूसरे शरीर ने
इससे संबंध एक
अर्थ में तोड़ ही
दिया। फांसी
तो थोड़ी देर
बाद होगी, नहीं
भी होगी, लेकिन
उसका इस शरीर
से संबंध टूट
गया।
एक
आदमी
तुम्हारी
छाती पर बंदूक
लेकर खड़ा हो गया, एक
शेर ने
तुम्हारे ऊपर
हमला कर दिया,
तो
तुम्हारे इस
शरीर पर अभी
कुछ भी नहीं
हुआ है, किसी
ने छुआ भी
नहीं है, लेकिन
तुम्हारा
ईथरिक शरीर
तैयारी कर
लिया है छोड़ने
की। उसके बीच,
इसके बीच
फासला बड़ा हो
गया।
तो
उसकी गतियों
को फिर
तुम्हें
सूक्ष्मता से देखना
पड़ेगा। वे भी
देखी जा सकती
हैं,
उनमें कोई
कठिनाई नहीं
है। कठिनाई है
तो यही कि हम
इसी शरीर की
गतियों को नहीं
देख पाते। इस
शरीर की
गतियों को हम
देखें तो हमें
उसकी गतियां
भी दिखाई पड़ने
लगेंगी। और
जैसे ही दोनों
की गतियों का
बोध तुम्हें स्पष्ट
होगा, तुम्हारा
बोध ही दोनों
के बीच
सामंजस्य बन
जाएगा।
भाव
शरीर में
जागने पर
सूक्ष्म शरीर
का बोध:
फिर
तीसरा शरीर है, जिसे
सूक्ष्म शरीर
मैंने कहा, एस्ट्रल
बॉडी कहा।
उसकी गति
निश्चित ही और
भी सूक्ष्म है।
और तुम्हारे
भय और क्रोध
और प्रेम और
घृणा, इनसे
भी ज्यादा
सूक्ष्म है।
उसकी गति को
पकड़ने के लिए
तो दूसरे शरीर
में जब तक
पूरी सफलता न
मिल जाए तब तक
बहुत कठिनाई
है। समझना भी
थोड़ी कठिनाई
है, क्योंकि
अब गैप बहुत
बड़ा हो गया।
हम पहले शरीर
पर मूर्च्छित
हैं। इसलिए
पहले शरीर से
दूसरा शरीर
निकट है, थोड़ी—बहुत
बात समझ में
आती है। तीसरे
शरीर के साथ
बहुत गैप हो
गया। यानी ऐसा
फर्क पड़ गया
कि दूसरा शरीर
तो हमारे बगल
का नेबर था, पड़ोसी था, कभी—कभी
उसकी आवाज, उसके चौके
में बर्तन के
गिरने की आवाज,
कभी उसके
बच्चे के रोने
की आवाज सुनाई
पड़ जाती थी।
लेकिन तीसरा
शरीर पड़ोसी के
बाद का पड़ोसी
है। उसके चौके
की भी आवाज
कभी नहीं आती,
उसके बच्चे
के रोने का भी
कभी पता नहीं
चलता।
तीसरे
शरीर की
यात्रा और भी
सूक्ष्म है।
और उसे तभी
पकड़ा जा सकता
है जब हम
दूसरे में भाव
को पकड़ने लगें, तब
तीसरे में हम
तरंगों को पकड़
सकते हैं।
तरंगें भाव के
भी पूर्व हैं।
तरंगों का ही
सघन रूप भाव है।
और भाव का सघन
रूप क्रिया है।
तो मुझे तो
पता नहीं
चलेगा कि तुम
क्रोध में हो,
जब तक तुम
मेरे ऊपर
क्रोध प्रकट न
करो, क्योंकि
जब वह क्रिया
बन जाए, तब
मैं देख
पाऊंगा।
लेकिन तुम
क्रिया के
पहले ही उसको
देख सकते हो—
भाव शरीर में,
कि क्रोध उठ
आया। लेकिन जो
क्रोध उठा है,
उसके भी अणु
हैं जो
सूक्ष्म शरीर
से आते हैं।
और वे अणु अगर
न आएं तो भाव
शरीर में
क्रोध नहीं उठ
सकता। अब वह
जो सूक्ष्म
शरीर है, एस्ट्रल
जो बॉडी है, वह कहना
चाहिए, सिर्फ
तरंगों का
समूह है। और
हमारी सब
स्थितियां.......
एक
उदाहरण से हम
समझने की
कोशिश करें।
कभी पानी अलग
दिखाई पड़ता है, हाइड्रोजन
अलग दिखाई
पड़ती है, आक्सीजन
अलग दिखाई
पड़ती है।
आक्सीजन में
पानी का कोई
पता नहीं चलता,
पानी में
आक्सीजन कहीं
दिखाई नहीं
पड़ती। पानी का
कोई गुण
आक्सीजन में
नहीं है, कोई
गुण
हाइड्रोजन
में नहीं है, लेकिन दोनों
के मिलने से
पानी बन जाता
है, दोनों
में कुछ छिपे
हुए गुण हैं
जो मिलकर प्रकट
हो जाते हैं।
एस्ट्रल
बॉडी में कभी
क्रोध नहीं
दिखाई पड़ता, कभी
प्रेम नहीं
दिखाई पड़ता, कभी घृणा
नहीं दिखाई
पड़ती, कभी
भय नहीं दिखाई
पड़ता। लेकिन
तरंगें उसके
पास हैं, जो
दूसरे शरीर, भाव शरीर से
जुड़कर तत्काल
कुछ बन जाती
हैं।
तो
जब तुम दूसरे
शरीर में पूरी
तरह जागोगे, और
जब तुम क्रोध
के प्रति पूरी
तरह जागोगे, तब तुम
पाओगे कि
क्रोध के पहले
भी कोई घटना
घट रही है।
यानी क्रोध जो
है वह शुरुआत
नहीं है, वह
भी कहीं पहुंच
गई बात है।
ऐसा
समझो कि पानी
से एक बबूला
उठ रहा है, रेत
से एक बबूला
उठा है और
पानी में चल
पड़ा है। जब वह
रेत से छूटता
है तब तो
दिखाई नहीं
पड़ता, आधे
पानी तक आ
जाता है तब भी
दिखाई नहीं
पड़ता, जब
बिलकुल पानी
से बीता, दो
बीता नीचे रह
जाता है, जहां
तक हमारी आंख
जाती है, तब
हमें दिखाई
पड़ता है।
लेकिन तब भी
बहुत छोटा
दिखाई पड़ता है।
फिर वह पानी
की सतह के पास
आने लगता है।
जैसे पास आने
लगता है, वैसे
बड़ा होने लगता
है। क्योंकि
हमें दिखाई
पड़ने लगता है—एक;
ज्यादा साफ
दिखाई पड़ने
लगता है—दो, और पानी का
जो दबाव और
वजन है, वह
उस पर कम होने
लगता है, इसलिए
वह बड़ा होने
लगता है।
जितना नीचे था
उतना पानी की
सतह का ज्यादा
दबाव था, वह
उसको दबाए हुए
थी। जैसे—जैसे
सतह का दबाव
कम होने लगा, वह ऊपर आने
लगा, वह
बड़ा होने लगा।
और जब वह सतह
पर आता है तो
वह पूरा बड़ा
हो जाता है।
लेकिन जहां वह
पूरा बड़ा होता
है, वहीं
वह फूट भी
जाता है।
तो
उसने बड़ी
यात्रा की।
उसने बड़ी
यात्रा की।
कुछ हिस्से थे
जहां वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता था।
लेकिन वहां भी
वह था; वह रेत
में दबा था।
फिर वह वहां
से निकला, तब
भी हमें दिखाई
नहीं पड़ता था,
वह पानी में
दबा था। फिर
वह पानी की
सतह के पास
आया तब हमें
दिखाई पड़ा, लेकिन बहुत
छोटा मालूम पड़
रहा था। फिर
वह पानी की
सतह पर आया और
तब वह पूरा
हुआ, और तब
वह फूटा।
क्रोध
की तरंग की
यात्रा:
तो
हमारे शरीर तक
आते—आते क्रोध
का बबूला पूरी
तरह फूटता है; वह
सतह पर आकर
प्रकट होता है।
चाहो तो तुम
इस शरीर पर
आने के पहले
उसको भाव शरीर
में रोक सकते
हो; वह दमन
होगा। लेकिन
अगर तुम भाव
शरीर में उसको
गौर से देखो तो
तुम बहुत
हैरान होओगे
कि उसकी
यात्रा भाव शरीर
के और भी पहले
से हो रही है—लेकिन
वहां वह क्रोध
नहीं है, वहां
वह सिर्फ
तरंगें है।
जैसे
मैंने कहा कि.......जगत
में,
असल में, अलग—अलग
पदार्थ नहीं
हैं, अलग—अलग
तरंगों के
संघात हैं।
कोयला भी वही
है, हीरा
भी वही है; सिर्फ
तरंगों के
संघात में
फर्क पड़ गया
है। और अगर हम
किसी भी
पदार्थ को
तोड़ते चले
जाएं तो नीचे
जाकर विद्युत
ही रह जाती है,
और उसके अलग—अलग
संघात और अलग—अलग
संघट अलग—अलग
तत्वों को बना
देते हैं। ऊपर
वे सब भिन्न
हैं, लेकिन
बहुत गहरे में
जाकर एक हैं।
तो
अगर तुम भाव
शरीर के प्रति
जागकर उसका
पीछा करोगे, तो
तुम अचानक
सूक्ष्म शरीर
में प्रवेश कर
जाओगे। और
वहां तुम
पाओगे—क्रोध
क्रोध नहीं है,
क्षमा
क्षमा नहीं है,
बल्कि
दोनों की
तरंगें एक ही
हैं; प्रेम
और घृणा की
तरंगें एक ही
हैं, सिर्फ
संघात का भेद
है। और इसलिए
तुम्हें बड़ी
हैरानी होती
है कि तुम्हारा
प्रेम कभी
घृणा में बदल
जाता है, कभी
घृणा प्रेम
में बदल जाती
है! जिनको हम
बिलकुल
विपरीत चीजें
समझते हैं, ये बदल कैसे
जाती हैं!
जिसको मैं कल
मित्र कहता था,
वह आज शत्रु
हो गया। तो
मैं कहता हूं
कि शायद मैं
धोखा खा गया, वह मित्र था
ही नहीं।
क्योंकि हम
मानते हैं कि
मित्र शत्रु
कैसे हो सकता
है!
मित्रता
और शत्रुता की
तरंगें एक ही
हैं—संघात का
फर्क है, सघनता
का फर्क है, चोट का फर्क
है— तरंगों
में कोई फर्क
नहीं है। जिसे
हम प्रेम कहते
हैं—सुबह
प्रेम है, दोपहर
को घृणा हो
जाता है; दोपहर
को घृणा है, सांझ को
प्रेम हो जाता
है। बड़ी
कठिनाई होती
है कि हम एक ही
व्यक्ति को प्रेम
करते हैं, उसी
को घृणा भी
करते हैं क्या?
घृणा और
प्रेम का
संबंध:
फ्रायड
को यही खयाल
था कि जिसको
हम घृणा करते हैं
उसी को हम
प्रेम भी करते
हैं,
जिसको हम
प्रेम करते
हैं उसको घृणा
भी करते हैं।
उसने जो कारण
खोजा वह थोड़ी
दूर तक सही था।
लेकिन चूंकि
उसे मनुष्य के
और शरीरों का
कोई बोध नहीं
है, इसलिए
वह बहुत दूर
तक खोज नहीं
सका; उसने
जो कारण खोजा
वह बहुत सतह
पर था। उसने
कारण यह खोजा
कि बच्चा जब
मां के पास
बड़ा होता है
तो एक ही
आब्जेक्ट को—
मां को—वह कभी
प्रेम भी करता
है, जब मां
उसको प्रेम
देती है; और
जब मां उसको
डाटती—डपटती,
क्रोध करती
है, मौके
होते हैं जब
वह नाराज होती
है, तब वह
उसको घृणा
करने लगता है।
तो एक ही
आब्जेक्ट के
प्रति, एक
ही मां के
प्रति दोनों
बातें एक साथ
उसके मन में
भर जाती हैं—घृणा
भी करता है, प्रेम भी
करता है। कभी
सोचता है मार
डालूं कभी
सोचता है इसके
बिना कैसे जी
सकता हूं यही
मेरा प्राण है—वह
दोनों बातें
सोचने लगता है।
इन दोनों
बातों को
सोचने की वजह
से, मां
उसके प्रेम का
पहला
आब्जेक्ट है,
इसलिए सदा
के लिए सब
प्रेम के
आब्जेक्ट, जब
भी कोई प्रेम
किसी से वह
करेगा, तो
वह एसोसिएशन
के कारण उसको
घृणा भी करेगा
और प्रेम भी
करेगा।
लेकिन
यह बहुत सतह
पर पकड़ी गई
बात है। यह
बबूला वहां
पकड़ा गया है
जहां फूटने के
करीब है। यह
बहुत गहरे में
नहीं पकड़ी गई
है बात। गहरे
में,
अगर एक मां
को भी बच्चा
अगर घृणा और
प्रेम दोनों
कर पाता है, तो इसका
मतलब यह है कि
घृणा और प्रेम
में जो अंतर
होगा वह बहुत
गहरे में
काटिटी का
होगा, कालिटी
का नहीं हो
सकता। वह जो
अंतर होगा वह
परिमाण का
होगा, वह
गुण का नहीं
हो सकता।
क्योंकि
प्रेम और घृणा
एक ही चित्त
में एक साथ
अस्तित्व में
नहीं हो सकते।
अगर हो सकते
हैं, तो एक
ही आधार पर हो
सकते हैं कि
वे कनवर्टिबल हों,
उनकी
तरंगें यहां
से वहां डोल
जाती हों।
चित्त
के समस्त
द्वंद्वों की
जडें सूक्ष्म
शरीर में:
तो
यह तीसरे शरीर
में ही साधक
को पता चलता
है जाकर कि
हमारे सारे
चित्त में
द्वंद्व
क्यों है। एक
आदमी जो सुबह
मेरे पैर छू
गया और कह गया
कि आप भगवान
हो,
वह शाम को
जाकर गाली
देता है और
कहता है, वह
आदमी शैतान है।
वह कल सुबह
आकर फिर पैर
छूता है और
कहता है, आप
भगवान हो। कोई
आकर मुझे कहता
है कि उस आदमी
की बात पर भरोसा
मत करना, वह
कभी आपको
भगवान कहता है,
कभी शैतान
कहता है।
मैं
कहता हूं उसी
पर भरोसा करने
योग्य है; क्योंकि
वह जो आदमी कह
रहा है, उसका
कोई कसूर नहीं
है, वह कोई
एक—दूसरे के
विपरीत बातें
नहीं कह रहा
है। ये एक ही
स्पेक्ट्रम
की बातें हैं;
ये एक ही
सीढी की बातें
हैं। और इन
सीढ़ियों में
परिमाण का
अंतर है।
असल
में,
जैसे ही वह
भगवान कहता है,
वैसे ही वह
एक बात को पकड़
लेता है। और
चित्त जो है, वह द्वंद्व
है। दूसरा
पहलू कहां
जाएगा? वह
उसके नीचे दबा
बैठा रहता है;
और
प्रतीक्षा
करता है कि जब
तुम्हारा
पहला भाव थक
जाए तो मुझे
मौका देना। थक
जाता है थोड़ी
देर में.....
.कितनी देर तक
भगवान कहता
रहेगा! थोड़ी
देर में थक
जाता है, तो
फिर कहता है—शैतान
है पक्का वह
आदमी। और ये
दोनों दो
चीजें नहीं
हैं, ये
दोनों बिलकुल
एक चीजें हैं।
और
जब तक मनुष्य—जाति
यह न समझ
पाएगी ठीक से
कि हमारे
तीसरे शरीर मे
हमारे सारे
द्वंद्व एक ही
तरंगों के रूप
हैं,
तब तक हम
मनुष्य की
समस्याओं को
हल न कर पाएंगे।
क्योंकि सबसे
बड़ी समस्या
यही है कि
जिसे हम प्रेम
करते हैं, उसे
हम घृणा भी
करते हैं; जिसके
बिना हम नहीं
जी सकते, उसकी
हम हत्या भी
कर सकते हैं; जो हमारा
मित्र है, वह
गहरे में
हमारा शत्रु
भी है। यह बड़ी
से बड़ी समस्या
है; क्योंकि
जीवन के लिए
जहां संबंध
हैं हमारे, वहां यही
सबसे बड़ा
मामला है।
लेकिन अगर एक
बार समझ में आ
जाए कि इनके
संघात एक जैसे
हैं, इनमें
कोई फर्क नहीं
है...
आमतौर
से हम अंधेरे
और प्रकाश को
दो विरोधी चीजें
मानते हैं। जो
गलत है।
वैज्ञानिक
अर्थों में तो
अंधेरा जो है
वह प्रकाश की
कम से कम, कम से
कम, न्यूनतम
अवस्था है। और
अगर हम खोज
सकें तो अंधेरे
में भी प्रकाश
मिल जाएगा।
ऐसा अंधेरा
नहीं खोजा जा
सकता जहां
प्रकाश अनुपस्थित
हो। यह दूसरी
बात है कि
हमारे खोज के
साधन थक जाएं,
हमारी आंख न
देख पाती हो, हमारे यंत्र
न देख पाते
हों, लेकिन
प्रकाश जो है—
वह, और
अंधकार जो है,
वे एक ही
यात्रा—पथ पर,
एक ही चीज
के तरंगों के
विभिन्न आघात
हैं।
जैसे
इसको और दूसरी
तरह से समझें
तो ज्यादा आसान
होगा, क्योंकि
प्रकाश और
अंधकार में
हमने ज्यादा बड़ा,
एब्सोल्युट
विरोध मान रखा
है। लेकिन ठंड
और गर्मी को
हम समझें तो
आसानी हो जाएगी;
उसमें हमने
इतना
एब्सोल्युट
विरोध नहीं
मान रखा है।
और कभी एक
छोटा सा
प्रयोग करने
जैसा मजेदार होता
है—कि एक हाथ
को थोड़ा सिगड़ी
पर तपा लें और
एक हाथ को
बर्फ पर रखकर
ठंडा कर लें, और फिर
दोनों हाथों
को एक ही
तापमान के
पानी में डाल
दें। और तब आप
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएंगे
कि उस पानी को
ठंडा कहें कि
गर्म कहें!
क्योंकि एक
हाथ खबर देगा
कि वह गर्म है
और एक हाथ खबर
देगा कि वह
ठंडा है। तब
आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे कि
इस पानी को हम
क्या कहें—ठंडा
कहें कि गर्म
कहें! क्योंकि
आपके दो हाथ दो
खबरें दे रहे
हैं।
असल
में,
ठंड और गर्म
दो चीजें नहीं
हैं, एक
सापेक्ष
अनुभव है। जिस
चीज को हम
ठंडा कह रहे
हैं, उसका
मतलब केवल
इतना है कि हम
उससे ज्यादा
गर्म हैं; जिस
चीज को हम
गर्म कह रहे
हैं, उसका
कुल मतलब इतना
है कि हम उससे
ज्यादा ठंडे
हैं। हमारे और
उसके बीच हम
परिमाण का
अंतर बता रहे हैं,
और कुछ भी
नहीं कह रहे
हैं। कोई चीज
ठंडी नहीं है,
कोई चीज
गर्म नहीं है।
या जो भी चीज
ठंडी है वह
साथ ही गर्म
है। असल में, गर्मी और
ठंडक बड़े
बेमानी शब्द
हैं। कहना
चाहिए. तापमान;
वह ठीक शब्द
है।
इसलिए
वैज्ञानिक
ठंडे और गर्म
का प्रयोग
नहीं करता; वह
कहता है, कितने
डिग्री का
तापमान है।
क्योंकि ठंडे
और गर्म काव्य
के शब्द हैं, कविता के
शब्द हैं; खतरनाक
हैं विज्ञान
में, उससे
कुछ पता नहीं
चलता। एक आदमी
कहे कि यह
कमरा ठंडा है,
उससे कुछ
पता नहीं चलता
कि मतलब क्या
है उसका। हो
सकता है उस
आदमी को बुखार
चढ़ा हो और
कमरा ठंडा
मालूम पड़ रहा
हो, और
कमरा ठंडा
बिलकुल न हो।
इसलिए जब तक
इस आदमी का
पता न चल जाए
कि इस आदमी की
बुखार की क्या
स्थिति है, तब तक कमरे
के बाबत इसके
वक्तव्य का
कोई मतलब नहीं
है। तो इसलिए
इससे हम पूछते
हैं. तुम यह मत
बताओ कि कमरा
ठंडा है या
गर्म, तुम
यह बताओ
डिग्री कितनी
है? तो
डिग्री जो है
वह ठंडक और गर्मी
का पता नहीं
देती, डिग्री
सिर्फ इस बात
का पता देती
है कि तापमान
इतना है। अगर
उससे आपकी
डिग्री
ज्यादा है तो
वह ठंडा मालूम
पड़ेगा, अगर
आपकी डिग्री
कम है तो वह
गर्म मालूम
पड़ेगा।
ठीक
ऐसा ही प्रकाश
और अंधकार के
बाबत सच है— कि
हमारे देखने
की क्षमता
कितनी है। रात
हमें अंधेरी
मालूम पड़ती है, उल्लू
को नहीं मालूम
पड़ती होगी; उल्लू को
दिन बहुत
अंधकारपूर्ण
है। और उल्लू
जरूर समझता
होगा कि ये
आदमी जो हैं, बड़े अजीब
लोग हैं, रात
में जागते
हैं!
स्वभावत:, आदमी
उल्लू को बड़ा उल्लू
इसीलिए समझता
है न, उसको
नाम ही इसीलिए
दिया हुआ है।
लेकिन उल्लू
क्या सोचते
हैं आदमियों
के बाबत, यह
हमें कुछ पता
नहीं है।
निश्चित ही, उसके लिए तो
दिन जो है वह
रात है और रात
जो है वह दिन
है। और वह
सोचता होगा, आदमी भी
कैसा नासमझ
है! अब इसमें
इतने—इतने बड़े
ज्ञानी होते
हैं, लेकिन
फिर भी ये
जागते हैं रात
में ही! और जब
दिन होता है
तब सो जाते
हैं! जब असली
वक्त आता है
जागने का, तब
ये बेचारे सो
जाते हैं।
उल्लू
को रात में
दिखाई पड़ता है; उसकी
आंख सक्षम है
तो उसके लिए
रात अंधकार
नहीं है।
अंधकार और
प्रकाश, ऐसे
ही प्रेम और
घृणा की
तरंगें हैं
जिनमें
अनुपात है।
सूक्ष्म
शरीर में
जागने से
द्वंद्व—मुक्ति:
तो
तीसरे तल पर
जब तुम जागना
शुरू होओगे, तो
तुम एक बहुत
अजीब स्थिति
में पहुंचोगे।
और वह अजीब
स्थिति यह
होगी कि
तुम्हारे पास
चुनाव न रह
जाएगा कि हम
प्रेम को
चुनें कि घृणा
को। क्योंकि
तब तुम जानते
हो ये दोनों
एक ही चीज के
नाम हैं; और
तुमने एक को
भी चुना तो
दूसरा भी चुन
लिया गया, दूसरे
से तुम बच
नहीं सकते।
इसलिए
तीसरे शरीर पर
खड़े हुए आदमी
से अगर तुम कहोगे
कि हमें प्रेम
करो,
तो वह
पूछेगा कि
घृणा की भी
तैयारी है? घृणा सह
सकोगे? नहीं,
तुम कहोगे,
हम तो प्रेम
चाहते हैं, आप हमें
प्रेम दें। तो
वह कहेगा, यह
बहुत मुश्किल
है कि मैं
तुम्हें
प्रेम दे सकूं,
क्योंकि
प्रेम जो है
वह घृणा के
संघातों का ही
एक रूप है— असल
में, ऐसा
रूप जो
तुम्हारे
प्रीतिकर
लगता है। और
घृणा ऐसा रूप
है, उन्हीं
किरणों का, उन्हीं
तरंगों का, जो तुम्हें
अप्रीतिकर
लगता है।
तो
तीसरे तल पर
खड़ा हुआ
व्यक्ति
द्वंद्व से मुक्त
होने लगेगा; क्योंकि
पहली दफा उसे
पता चलेगा कि
द्वंद्व, जिन
दो चीजों को
उसने दो माना
था, वे दो
नहीं थीं, वे
एक ही थीं; जो
दो शाखाएं
दिखाई पड़ती
थीं, वे
पीड़ पर आकर एक
ही वृक्ष की शाखाएं
थीं। और बडा
पागल था वह कि
वह एक को
बचाने के लिए
दूसरे को
काटता रहा था।
लेकिन उससे
कुछ कटना नहीं
हो सकता था, क्योंकि
वृक्ष गहरे
में एक ही था।
पर दूसरे पर
जागकर ही
तुम्हें
तीसरे का बोध
हो सकता है, क्योंकि
तीसरे की बड़ी
सूक्ष्म
तरंगें हैं; वहां भाव भी
नहीं बनता, सीधी तरंग
होती है।
सूक्ष्म
शरीर में
जागने पर
आभामंडल का
दर्शन:
और
अगर तीसरे की
तरंग का
तुम्हें पता
चलने लगा तो
तुम्हें एक
अनूठा अनुभव
होना शुरू
होगा. तब तुम
किसी व्यक्ति
को देखकर ही
कह सकोगे कि वह
किन तरंगों से
तरंगायित है।
क्योंकि
तुम्हें अपनी तरंगों
का पता नहीं
है,
इसलिए तुम
दूसरे को नहीं
पहचान पा रहे
हो। नहीं तो
प्रत्येक
व्यक्ति के
चेहरे के पास
उसके तीसरे
शरीर से
निकलनेवाली
तरंगों का
पुंज होता है।
जो हम बुद्ध
और महावीर, राम और
कृष्ण के
आसपास जो ऑरा
बनाते रहे हैं,
एक प्रतिभा—मंडल
बनाते रहे हैं
सिर के आसपास
वह देखा गया
मंडल है। उसके
रंग पकड़े गए
हैं; और
उसके विशेष
रंग हैं।
तीसरे शरीर का
ठीक अनुभव हो
तो वे रंग
तुम्हें
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। और वे
रंग जब
तुम्हें
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं तो अपने
ही नहीं दिखाई
पड़ते, दूसरे
के भी दिखाई
पड़ने शुरू हो
जाते हैं।
असल
में,
जितने दूर
तक हम अपने
गहरे शरीर को
देखते हैं, उतने ही दूर
तक हम दूसरे
के शरीर को भी
देखने लगते
हैं। चूंकि हम
अपनी फिजिकल
बॉडी को ही
जानते हैं, इसलिए हम
दूसरे की भी
फिजिकल बॉडी
को ही जानते
हैं। जिस दिन
हम अपने ईथरिक
शरीर को
जानेंगे, उसी
दिन हमें
दूसरे के
ईथरिक शरीर का
पता चलना शुरू
हो जाएगा।
इसके पहले कि
तुम क्रोध करो,
जाना जा
सकता है कि अब
तुम क्रोध
करोगे, इसके
पहले कि तुम
प्रेम प्रकट
करो, कहा
जा सकता है कि
तुम अब प्रेम
प्रकट करने की
तैयारी कर रहे
हो।
तो
जिसको हम
दूसरे के भाव
को समझ लेना
कहते हैं, उसमें
कुछ और बड़ी
बात नहीं है, अपने ही भाव
शरीर के प्रति
जागने से
दूसरे के भाव
को पकड़ना एकदम
आसान हो जाता
है; क्योंकि
उसकी सारी
स्थितियां
दिखाई पड़ने लगती
हैं। और तीसरे
शरीर पर जागने
पर तो चीजें
बड़ी साफ हो
जाती हैं, क्योंकि
फिर तो रंग भी
दिखाई पड़ने
लगते हैं उसके
व्यक्तित्व
के।
विभिन्न
शरीरों के
आभामंडल:
संन्यासियों
के,
साधु के
कपड़ों का
चुनाव, उनके
रंग का चुनाव
तीसरे शरीर के
रंगों को देखकर
किया गया।
चुनाव अलग—अलग
हुए, क्योंकि
अलग—अलग
शरीरों पर जोर
था। जैसे
बुद्ध ने पीला
रंग चुना, क्योंकि
सातवें शरीर
पर जोर था
उनका। सातवें
शरीर को
उपलब्ध
व्यक्ति के
आसपास जो ऑरा
बनता है, वह
पीला है।
इसलिए बुद्ध
ने पीत वस्त्र
चुने अपने
भिक्षुओं के
लिए।
लेकिन
पीत वस्त्र
चुने तो जरूर, लेकिन
पीत वस्त्र के
कारण ही बौद्ध
भिक्षु को हिंदुस्तान
में टिकना
मुश्किल हुआ।
क्योंकि पीला
रंग जो है, वह
हमारे मन में
मृत्यु से
संबंधित है।
वह है भी, क्योंकि
सातवां शरीर
जो है, वह
मृत्यु—महामृत्यु
है। तो पीला
रंग जो है, वह
हमारे मन में
बहुत गहरे में
मृत्यु का बोध
देता है।
लाल
रंग जीवन का
बोध देता है।
इसलिए गेरुए
वस्त्र वाला
संन्यासी
ज्यादा
आकर्षक सिद्ध
हुआ बजाय पीत
वस्त्र
संन्यासियों
के। वह जीवंत
मालूम पड़ा। वह
खून का रंग है, और
छठवें शरीर का
रंग है—ब्रह्म
का, कास्मिक
बॉडी का रंग
है। तो जैसा
सूर्योदय
होता है सुबह,
वैसा रंग है।
छठवें शरीर पर
वैसे रंग का
ऑरा बनना शुरू
होता है।
जैनों
ने सफेद
वस्त्र चुने, वह
पांचवें शरीर
का रंग है; वह
आत्म शरीर से
संबंधित है।
जैनों का
आग्रह ईश्वर
की फिकर छोड़
देने का है, निर्वाण की
फिकर छोड़ देने
का है; क्योंकि
आत्मा तक ही
वैज्ञानिक
चर्चा हो सकती
है। और महावीर
बहुत ही
वैज्ञानिक
बुद्धि के
आदमी हैं; वे
उतनी ही दूर
तक बात करेंगे
जितनी दूर तक
गणित जाता है।
उससे आगे वे
कहेंगे, अब
हम बात नहीं
करेंगे, अब
तुम जाकर
देखना, वह
दूसरी बात है,
हम बात नहीं
करेंगे।
क्योंकि कोई
भूल—चूक की
बात नहीं करना
चाहते वे। कुछ
मिस्टिक बात
नहीं करना
चाहते। तो
जिसको
मिस्टिसिज्म
से बचना है, वह पांचवें
शरीर के आगे
इंच भर नहीं
बात करेगा। तो
महावीर ने
सफेद रंग चुन
लिया, वह
पांचवें शरीर
का रंग था।
और
भी मजे की बात
है तीसरे शरीर
से यह बोध
होना शुरू हो
जाएगा; तीसरे
शरीर से
तुम्हें रंग
दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे। ये
रंग भी तुम्हारे
भीतर
होनेवाले
सूक्ष्म
तरंगों के स्पंदन
का प्रभाव हैं।
आज नहीं कल, इनके चित्र
लिए जा सकेंगे।
क्योंकि जब आंख
से इन्हें
देखा जा सकता
है तो बहुत
दिन तक कैमरे
की आंख नहीं
देखेगी, ऐसा
कहना मुश्किल
है। इनके
चित्र आज नहीं
कल लिए जा
सकेंगे। और तब
हम व्यक्तित्व
को पहचानने के
लिए एक बड़ी
अदभुत क्षमता
को उपलब्ध हो
जाएंगे।
रंगों
का मनुष्य के
व्यक्तित्व
से गहरा संबंध:
वह
तुम ब्लूशर का
टेस्ट देखे? एक
जर्मन विचारक
है, जिसने
लाखों लोगों
पर रंगों का
अध्ययन किया है।
और अब तो
यूरोप और
अमेरिका में
बहुत से अस्पताल
भी उसका प्रयोग
कर रहे हैं।
क्योंकि आप
कौन सा रंग
पसंद करते हैं,
यह आपके
बहुत गहरे
व्यक्तित्व
की खबर देता
है। एक खास
बीमारी का
मरीज एक खास
तरह के रंग को
पसंद करता है,
स्वस्थ
आदमी दूसरे
तरह के रंग को
पसंद करता है।
शांत आदमी
दूसरे तरह के
रंग को पसंद
करता है, महत्वाकांक्षी
आदमी दूसरे
तरह के रंग
को
पसंद करता है, महत्वाकांक्षाहीन
आदमी बिलकुल
दूसरे तरह के
रंग को पसंद
करता है। और
इन रंगों की
पसंद से तुम
अपने तीसरे
शरीर पर
तुम्हारे
क्या प्रकट हो
रहा है, उसकी
खबर देते हो।
अब यह बडे मजे
की बात है कि तुम्हारे
तीसरे शरीर पर
जो रंग प्रकट
हो रहे हैं
तुम्हारे
चारों तरफ, अगर उनको
पकड़ा जाए, और
तुमसे रंगों
की जांच करवाई
जाए, तो यह
बड़े मजे की
बात है कि वे
रंग दोनों
बराबर एक से
होते हैं— जो
रंग तुम्हारे
चारों तरफ
फैलता है, वही
रंग तुम पसंद
करते हो।
रंगों
का मनोविज्ञान:
रंग
का अदभुत अर्थ
और उपयोग है।
अब जैसे, कभी
यह खयाल में
नहीं था कि
रंग इतना
अर्थपूर्ण हो
सकता है और
व्यक्तित्व
की बाहर तक
खबर दे सकता
है। और बाहर
से भी रंग के
प्रभाव भीतर
के व्यक्तित्व
तक छूते हैं, उनसे बचा
नहीं जा सकता।
जैसे किसी रंग
को देखकर तुम
क्रोधित हो
जाओगे। जैसे
लाल रंग है, वह सदा से
क्रांति का
रंग इसीलिए
समझा गया।
इसलिए क्रांतिवादी
जो है वह लाल
झंडा बना लेगा।
इसमें बचाव
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
वह क्रोध का
रंग है। और
क्रोधी चित्त
के आसपास गहरे
लाल रंग का वर्तुल
बनता है—खून
का रंग है वह, हत्या का
रंग है, क्रोध
का रंग है, मिटाने
का रंग है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि अगर
इस कमरे की
सारी चीजों को
लाल रंग दिया
जाए,
तो आपका
ब्लड—प्रेशर
बढ़ जाएगा; जितने
लोग यहां बैठे
हैं, सभी
का रक्तचाप बढ़
जाएगा। और अगर
कोई व्यक्ति
निरंतर लाल
रंग में रहे, तो कोई भी हालत
में उसका
रक्तचाप
स्वस्थ नहीं
रह सकता, वह
अस्वस्थ हो
जाएगा। नीला
रंग रक्तचाप
को नीचे गिरा
देता है, वह
आकाश का रंग
है और परम
शांति का रंग
है। अगर सब
तरफ नीला कर
दिया जाए तो
तुम्हारे रक्तचाप
में कमी पड़ती
है
रंग
चिकित्सा:
आदमी
की बात हम छोड़
दें,
अगर एक नीली
बोतल में पानी
भरकर हम उसे
सूरज की
किरणों में रख
दें, तो वह
जो पानी है वह
रक्तचाप को कम
करता है। उस
पानी का
केमिकल कंपोजीशन
बदल जाता है।
वह नीले रंग
को पीकर उसकी आंतरिक
व्यवस्था बदल
जाती है। अगर
उसको हम पीले
रंग की बोतल
में रख दें, तो उसका
व्यक्तित्व
दूसरा हो जाता
है। अगर तुम
पीले रंग की
बोतल में वही
पानी रखो और नीले
रंग की बोतल
में वही पानी
रखो, और
दोनों को धूप
में रख दो, तो
नीले रंग का
पानी सड़ने में
असमर्थ हो
जाएगा और पीले
रंग का पानी
तत्काल सड़
जाएगा। नीली
बोतल का पानी
बहुत दिन तक
शुद्ध बना रहेगा,
सडेगा नहीं;
पीले रंग का
पानी एकदम सड़
जाएगा। वह
पीला रंग जो
है मृत्यु का
रंग है, और
चीजों को एकदम
बिखरा देता है।
इस
सबके वर्तुल
तुम्हारे
व्यक्तित्व
के आसपास
तुम्हें खुद
भी दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे। यह
तीसरे शरीर पर
होगा। और जब
इन तीनों
शरीरों पर तुम
जागकर देख
पाओगे, तो
तुम्हारा वह
जागकर जो
देखना है, वह
हार्मनी होगी।
और तब
तुम्हारे ऊपर
किसी भी तरह
के शक्तिपात से
कोई संघातक
परिणाम नहीं
हो सकता; क्योंकि
यही तुम्हारा
जो बोधपथ है, शक्तिपात की
ऊर्जा इसी
बोधपथ से
तुम्हारे चौथे
शरीर में
प्रवेश कर
जाएगी; यह
रास्ता बन
जाएगा। अगर यह
रास्ता नहीं
है तो खतरा
पूरा है।
इसलिए मैंने
कहा कि हमारे
तीन शरीर
सक्षम होने
चाहिए तभी गति
हो सकती है।
जैविक
विकास में
प्रथम तीन
शरीरों की क्रमिक
सक्रियता:
प्रश्न.
ओशो चौथे
पांचवें
छठवें या
सातवें चक्रों
में स्थित
व्यक्ति
मृत्यु के बाद
पुनर्जन्म ले
तो उसकी
क्रमश: चक्रीय
स्थिति क्या
होगी? अशरीरी
उच्च योनियां
किन शरीर वाले
व्यक्तियों
को मिलती हैं?
अंतिम
उपलब्धि के
लिए क्या
अशरीरी योनि
के प्राणी को
पुन: मनुष्य
शरीर लेना
पड़ता है?
अब
इसमें कुछ और
बातें दूर से
समझनी शुरू
करना पड़ेगी।
सात शरीर की
मैंने बात कही।
सात शरीरों को
ध्यान में
रखकर हम पूरे
अस्तित्व को
भी सात
विभागों में
बांट दें। सभी
अस्तित्व में
सातों शरीर
सदा मौजूद हैं—जागे
हुए या सोए
हुए;
सक्रिय या
निष्क्रिय, विकृत या
स्वरूप स्थित—लेकिन
मौजूद हैं।
एक
धातु का टुकड़ा
पड़ा है, एक
लोहे का टुकड़ा
पड़ा है, इसमें
भी सातों शरीर
मौजूद हैं; लेकिन सातों
ही सोए हुए
हैं; सातों
ही निष्क्रिय
हैं। इसलिए
लोहे का टुकड़ा
मरा हुआ मालूम
पड़ता है। एक
पौधा है। उसका
पहला शरीर
सक्रिय हो गया
है; उसका
भौतिक शरीर
सक्रिय हो गया
है। इसलिए
पौधे में जीवन
की पहली झलक
हमें मिलनी
शुरू हो जाती है
कि वह जीवित
है। एक पशु है,
उसका दूसरा
शरीर सक्रिय
हो गया है।
इसलिए पशु में
मूवमेंट्स
शुरू हो जाते
हैं, जो
पौधे में नहीं
हैं। पौधा एक
जगह जड़ जमाकर
खड़ा है, गतिमान
नहीं है; क्योंकि
गति के लिए
दूसरा शरीर
जगना जरूरी है,
ईथरिक बॉडी
जगना जरूरी है।
सारी गति उससे
आती है। अगर
सिर्फ एक शरीर
जगा हुआ है तो
अगति में होगा,
ठहरा हुआ
होगा, खड़ा
हुआ होगा।
पौधा
खड़ा हुआ पशु
है। कुछ पौधे
हैं जो थोड़ी
गति करते हैं।
वे पशु और
पौधे के बीच
की अवस्था में
हैं;
उन्होंने
यात्रा की है
थोड़ी। जैसे
अफ्रीका के
दलदलों में
कुछ पौधे हैं,
जिनकी जड़ों
से वे पकड़ने—छोड़ने
का काम करते
हैं, थोड़ा
हटते हैं इधर—
उधर। वह पशु
और पौधे के
बीच की
संक्रमण कड़ी
है।
पशु
में दूसरा
शरीर भी
सक्रिय हो गया
है। सक्रिय का
मतलब सजग नहीं, सक्रिय
का मतलब
क्रियाशील हो
गया है; पशु
को कोई पता
नहीं है। उसके
दूसरे ईथरिक
शरीर के
सक्रिय हो
जाने की वजह
से उसमें
क्रोध भी आता
है, भय भी
आता है, प्रेम
भी प्रकट करता
है, भागता
भी है, बचता
भी है, डरता
भी है, छिपता
भी है, हमला
भी करता है— और
गतिमान है।
आदमी
में तीसरा
शरीर सक्रिय
हो गया है—एस्ट्रल
बॉडी। इसलिए न
केवल वह शरीर
से गति करता
है,
बल्कि
चित्त से भी
गति करता है, मन से भी
यात्रा करता
है— भविष्य की
भी यात्रा
करता है, अतीत
की भी यात्रा
करता है।
पशुओं के लिए
कोई भविष्य
नहीं है।
इसलिए पशु कभी
चिंतित और
तनावग्रस्त
नहीं दिखाई
पड़ते; क्योंकि
सब चिंता
भविष्य की
चिंता है—कल
क्या होगा, वही गहरी
चिंता है।
लेकिन पशु के
लिए कल नहीं
है, आज ही
सब कुछ है। आज
भी नहीं है—उसके
अर्थों में तो;
क्योंकि
जिसको कल नहीं
है, उसको
आज का क्या
मतलब है? जो
है, वह है।
मनुष्य
में और भी
सूक्ष्म गति
आई है। वह गति
उसके मन की
गति है। वह
तीसरे
एस्ट्रल बॉडी
से आई है। वह
अब मन से
भविष्य की भी
कल्पना करता
है। मृत्यु के
बाद भी क्या
होगा, इसकी भी
चिंता करता है;
मरने के बाद
कहां जाऊंगा,
नहीं
जाऊंगा, उसकी
भी चिंता करता
है; जन्म
के पहले कहां
था, नहीं
था, उसकी
भी फिकर करता
है।
अशरीरी
उच्च योनियां:
चौथा
शरीर थोड़े से
मनुष्यों में
सक्रिय होता है, सभी
मनुष्यों में
नहीं। और जिन
मनुष्यों में
चौथा शरीर
सक्रिय हो जाता
है—मनस शरीर—
अगर वे मरे, तो वे
देवयोनि, जिसको
हम कोई भी नाम
दे दें, उस
तरह की योनि
में प्रवेश कर
जाते हैं, जहां
चौथे शरीर की
सक्रियता की
बहुत सुविधा
है। तीन
शरीरों तक
आदमी आदमी
रहता है, सक्रिय
रहे तो। चौथे
शरीर से आदमी
के ऊपर की
योनियां शुरू
होती हैं।
लेकिन चौथे
शरीर से एक
फर्क समझ लेना
जरूरी होगा।
अगर
चौथा शरीर
सक्रिय हो जाए, तो
आदमी को शरीर
लेने की
संभावना कम और
अशरीरी
अस्तित्व की संभावना
बढ़ जाती है।
लेकिन जैसा
मैंने कहा कि
सक्रिय और
सचेतन का फर्क
याद रखना। अगर
सिर्फ सक्रिय
हो और सचेतन न
हो, तो उसे
हम प्रेतयोनि
कहेंगे; और
अगर सक्रिय हो
और सचेतन भी
हो, तो
देवयोनि
कहेंगे।
प्रेत में और
देव में उतना
ही फर्क है।
उन दोनों का
चौथा शरीर
सक्रिय हो गया
है; लेकिन
प्रेत के चौथे
शरीर की
सक्रियता का
उसे कोई बोध
नहीं, वह
अवेयर नहीं है
उसके प्रति; और देव को उस
चौथे शरीर की
सक्रियता का
बोध है, वह
अवेयर है।
इसलिए प्रेत
अपने चौथे
शरीर की
सक्रियता से हजार
तरह के नुकसान
करता रहेगा—खुद
को भी, दूसरों
को भी; क्योंकि
मूर्च्छा
सिर्फ नुकसान
ही कर सकती है।
और देव बहुत
तरह के लाभ
पहुंचाता
रहेगा— अपने
को भी और
दूसरों को भी,
क्योंकि
सजगता सिर्फ
लाभ ही पहुंचा
सकती है।
पांचवां
शरीर जिसका
सक्रिय हो गया, वह
देवयोनि के भी
पार चला जाता
है। पांचवां
शरीर आत्म
शरीर है। और
पांचवें शरीर
पर सक्रियता
और सजगता एक
ही अर्थ रखती
हैं; क्योंकि
पांचवें शरीर
पर बिना सजगता
के कोई भी
नहीं जा सकता।
इसलिए वहां
सक्रियता और
सजगता
साइमल्टेनियस,
युगपत घटित
होती हैं।
चौथे
शरीर तक
यात्रा हो
सकती है किसी
की सोए—सोए भी।
अगर जाग जाए
तो यात्रा बदल
जाएगी, देवयोनि
की तरफ हो
जाएगी; और
अगर सोया रहे
तो यात्रा
प्रेतयोनि की
तरफ हो जाएगी।
पांचवें शरीर
के साथ
सक्रियता और
सजगता का एक
ही अर्थ है, क्योंकि वह
आत्म शरीर है;
वहां बेहोश
होकर आत्मा का
तो कुछ अर्थ
ही नहीं होता।
आत्मा का मतलब
ही होश है।
इसलिए आत्मा
का दूसरा नाम
चेतना है, दूसरा
नाम कांशसनेस
है। वहा
बेहोशी का कोई
मतलब नहीं
होता। तो
पांचवें शरीर
से तो दोनों
एक ही बात हैं,
लेकिन
पांचवें शरीर
के पहले दोनों
रास्ते अलग
हैं।
चौथे
शरीर तक ही
स्त्री—पुरुष
का फासला है, और
चौथे शरीर तक
ही निद्रा और
जागरण का
फासला है। असल
में, चौथे
शरीर तक ही सब
तरह के द्वैत
और द्वंद्व का
फासला है।
पांचवें शरीर
से सब तरह का
अद्वैत और
अद्वंद्व
शुरू होता है।
पांचवें शरीर
से यूनिटी
शुरू होती है।
उसके पहले एक
डाइवर्सिटी
थी, एक भेद
था।
मनुष्य
योनि एक
चौराहा है:
पांचवें
शरीर की जो
संभावना है, वह
देवयोनि से
नहीं है, न
प्रेतयोनि से
है। यह थोड़ी
बात खयाल ले
लेने जैसी है।
पांचवें शरीर
की संभावना
प्रेतयोनि से
इसलिए नहीं है
कि प्रेतयोनि मूर्च्छित
योनि है; और
सजगता के लिए
जो शरीर
अनिवार्य है,
वह उसके पास
नहीं है; पहला
शरीर उसके पास
नहीं है, फिजिकल
बॉडी उसके पास
नहीं है, जिससे
सजगता शुरू
होती है; पहली
सीढ़ी उसके पास
नहीं है, जिससे
सजगता शुरू
होती है। वह
सीढ़ी न होने
की वजह से
प्रेत को वापस
लौटना पड़े
मनुष्य योनि
में। इसलिए
मनुष्य योनि
एक तरह के
क्रास रोड पर
है।
देवयोनि
ऊपर है, लेकिन
आगे नहीं। इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना!
मनुष्य योनि
से देवयोनि
ऊपर है, लेकिन
आगे नहीं, क्योंकि
आगे जाने के
लिए तो मनुष्य
योनि पर वापस
लौट आना पड़ता
है। प्रेत को
इसलिए लौटना
पड़ता है कि वह
मूर्च्छित है
और मूर्च्छा
तोड्ने के लिए
भौतिक शरीर एकदम
जरूरी है; देव
को इसलिए
लौटना पड़ता है
कि देवयोनि
में किसी तरह
का दुख नहीं
है। असल में, जाग्रत योनि
है, जागृति
में दुख नहीं
हो सकता। और
जहां दुख नहीं
है वहां साधना
की कोई तडुफ नहीं
पैदा होती; जहां दुख
नहीं है वहां
मिटाने का कोई
खयाल नहीं है;
जहां दुख
नहीं है वहां
पाने का कोई
खयाल नहीं है।
तो
देवयोनि एक
स्टैटिक योनि
है,
जिसमें गति
नहीं है आगे।
और सुख की एक
खूबी है कि
अगर सुख
तुम्हें मिल जाए
तो आगे कोई
गति नहीं रह
जाती। दुख हो
तो सदा गति
होती है; क्योंकि
दुख से हटने
को, दुख से
मुक्त होने को
तुम कुछ खोजते
हो। सुख मिल
जाए तो खोज
बंद हो जाती
है। इसलिए एक
बड़ी अजीब बात
है जो कि समझ
में नहीं आती
लोगों को।
महावीर
और बुद्ध के
जीवन में इस
उल्लेख का बडा
मूल्य है कि
देवता उनसे
शिक्षा लेने
आते हैं। और
जब कोई बुद्ध
को,
महावीर को
पूछता है कि
क्या मजा है
कि मनुष्य के
पास और देवता
आएं! देवयोनि
तो ऊपर है, तो
मनुष्य के पास
वे आएं, यह
अजीब मामला
मालूम होता है।
लेकिन
यह अजीब नहीं
है। योनि तो
ऊपर है, लेकिन
स्टैटिक योनि
है; मूवमेंट
खत्म हो गया
वहां; वहां
से आगे कोई
गति नहीं है।
और अगर आगे
गति करनी हो
तो जैसे लंबी
छलांग लगाने
के लिए थोड़ा
पीछे लौटना
पड़ता है, फिर
छलांग लगानी
पड़ती है, ऐसा
देवयोनि से
वापस लौटकर
मनुष्य योनि
पर खड़े होकर
ही छलांग लगती
है।
सुखों
से ऊबकर ही
देवयोनि से
लौटना संभव:
सुख
की एक खूबी यह
है कि उसमें
आगे गति नहीं
है और दूसरी
खूबी यह है कि
सुख
उबानेवाला है, बोलि
है। सुख से
ज्यादा
उबानेवाला
तत्व दुनिया
में दूसरा
नहीं है। दुख
भी इतना नहीं
उबाता; दुख
में बोर्डम
बहुत कम है—है
ही नहीं; सुख
में बहुत
बोर्डम है।
दुखी चित्त
कभी नहीं ऊबता।
इसलिए
दुखी समाज
असंतुष्ट
समाज नहीं
होता और दुखी
आदमी
असंतुष्ट
आदमी नहीं
होता; सिर्फ सुखी
आदमी
असंतुष्ट
होता है और
सुखी आदमी का
समाज
असंतुष्ट
समाज होता है।
अमेरिका
जितना
असंतुष्ट है,
उतना भारत
नहीं है। उसका
कारण कुल इतना
है कि हम दुखी
हैं और वे सुखी
हैं; आगे
गति नहीं रह
गई, और दुख
नहीं है जो
गति देता था, और सुख की
पुनरुक्ति है—वही
सुख, वही
सुख रोज—रोज, रोज—रोज
दोहरकर
बेमानी हो
जाता है।
तो
देवयोनि जो है
वह एक..... बोर्डम
की चरम शिखर
है वह; उससे
ज्यादा
ऊबनेवाला कोई
स्थान नहीं
जगत में। वहां
जाकर जैसी ऊब
पैदा होती है......।
लेकिन
वक्त लगता है
ऊब पैदा होने
में। और फिर
संवेदना के
ऊपर निर्भर
करता है. जितना
संवेदनशील
व्यक्ति होगा
उतनी जल्दी ऊब
जाएगा; जितना
संवेदनहीन
व्यक्ति होगा
उतनी देर तक ऊबेगा।
नहीं भी ऊबे!
भैंस एक ही
घास को रोज
चरती रहती है
और जिंदगी भर
में नहीं ऊबती।
संवेदना जैसी
चीज बहुत कम
है। जितनी
संवेदना होगी,
जितनी
सेंसिटिविटी
होगी, उतनी
ऊब जल्दी पैदा
हो जाएगी।
क्योंकि
संवेदनशीलता
जो है वह नये
की तलाश करती
है— और नया
चाहिए।
संवेदना एक
तरह की चंचलता
है, और
चंचलता एक तरह
का जीवन है।
तो
देवयोनि एक
अर्थ में डेड
योनि है।
प्रेतयोनि भी
मरी योनि है, लेकिन
फिर भी
देवयोनि
प्रेतों से भी
ज्यादा मरी
योनि है, क्योंकि
प्रेतों की
दुनिया में एक
अर्थ में ऊब
बिलकुल नहीं
है। क्योंकि
दुख काफी है
और दुख देने
की सुविधा काफी
है, दूसरे
को सताने का
भी रस बहुत है,
और खुद भी
सताए जाने की
बहुत सुविधा
है। उपद्रव की
बहुत गुंजाइश
है। देवयोनि
बिलकुल शांत
योनि है जहां
उपद्रव बिलकुल
नहीं है।
तो
देवयोनि से जो
लौटना होता है, वह
लौटना होता है
ऊब के कारण।
अंतत: जो
लौटना है वहां
से, वह
बोर्डम की वजह
से। और ध्यान
रहे, इस
लिहाज से वह
मनुष्य योनि
से ऊपर है कि
वहां संवेदनशीलता
बहुत बढ़ जाती
है; और हम
जिन सुखों से
वर्षों में
नहीं ऊबते, उन सुखों से
उस योनि में
एक बार भी
भोगने से ऊब
पैदा हो जाती
है।
इसलिए
तुमने पढ़ा
होगा पुराणों
में कि देवता
पृथ्वी पर
जन्म लेने को
तरसते हैं। अब
यह हैरानी की
बात है, उनके
तरसने का कोई
कारण नहीं है।
क्योंकि यहां
पृथ्वी पर सब
देवयोनि में
जाने को तरस
रहे हैं। और
ऐसी भी कथाएं
हैं कि कोई
देवता उतरेगा
और पृथ्वी पर
किसी स्त्री
को प्रेम करने
आएगा। ये
कथाएं सूचक
हैं। कोई
अप्सरा
उतरेगी
पृथ्वी पर और
किसी पुरुष से
प्रेम करेगी।
ये कथाएं सूचक
हैं; ये
चित्त की सूचक
हैं। ये यह कह
रही हैं कि उस
योनि में सुख
तो बहुत है, लेकिन सुख
नीरस हो जाता
है—सुख, सुख,
सुख! उसके
बीच में अगर
दुख के क्षण न
हों, तो
उबानेवाला हो
जाता है। और
अगर कभी हमारे
सामने दोनों
विकल्प रखे
जाएं कि अनंत
सुख चुन लो—
सुख ही सुख
रहेगा, कभी
ऐसा क्षण न
आएगा कि
तुम्हें लगे
कि दुख है; और
अनंत दुख चुन
लो, दुख ही
दुख रहेगा; तो
बुद्धिमान
आदमी दुख को
चुन लेगा।
तो
यह जो देवयोनि
है,
वहां से
वापस लौटना
पड़े; प्रेतयोनि
है, वहां
से वापस लौटना
पडे।
पांचवें
शरीर में मृत
व्यक्ति
अयोनिज:
मनुष्य
योनि चौराहे
पर है, वहां से
सब यात्राएं
संभव हैं।
मनुष्य योनि
पर जो आदमी
पांचवें शरीर
को उपलब्ध हो
जाए, उसको
फिर कही भी
नहीं जाना
पड़ता, फिर
वह अयोनि में
प्रवेश करता
है, वह
योनि—मुक्त
होता है।
योनि
का मतलब खयाल
में है न?
किसी
मां की योनि
में प्रवेश से
मतलब है योनि का।
वह किसी वर्ग
की मां हो!
गर्भ—प्रवेश
से मतलब है
योनि का। तो
वह कोई गर्भ—प्रवेश
नहीं करता। जो
अपने को
उपलब्ध हो गया, उसकी
यात्रा एक
अर्थ में
समाप्त हो गई।
यह जो पांचवें
शरीर का
व्यक्ति है, इसी को हम
कहते हैं—
मुक्ति, मोक्ष।
लेकिन
अगर यह अपने
पर तृप्त हो
जाए,
रुक जाए, तो रुक सकता
है— अनंतकाल
तक रुक सकता
है; क्योंकि
यहां न दुख है,
न सुख है; न बंधन है, न पीड़ा है; यहां कुछ भी
नहीं है।
लेकिन सिर्फ
स्वयं का होना
है यहा, सर्व
का होना नहीं
है। तो अनंत
समय तक भी कोई
व्यक्ति इस
स्थिति में पड़ा
रह सकता है, जब तक कि
उसमें सर्व को
जानने की
जिशासा न उठ जाए।
है वह जिशासा
का बीज हमारे
भीतर, इसलिए
वह उठ आती है।
जिज्ञासा
परम होनी
चाहिए:
और
इसलिए साधक
अगर पहले से
ही सर्व को
जानने की
जिज्ञासा रखे, तो
पांचवी योनि
में रुकने की
असुविधा से बच
जाता है।
इसलिए अगर
पूरी की पूरी
साइंस को तुम
समझोगे, तो
पहले से ही
जिज्ञासा परम
होनी चाहिए।
कहीं बीच के
किसी ठहराव को
अगर तुम मंजिल
समझकर चले, तो जब वह
तुम्हें मिल
जाएगी मंजिल
तो तुम्हारा
मन होगा कि
बात खत्म हो
गई।
पांचवें
शरीर में
अहंकार से
मुक्ति, अस्मिता
से बंधन:
तो
पांचवें शरीर
के व्यक्ति को
कोई योनि नहीं
लेनी पड़ती।
लेकिन वह
स्वयं में
बंधा रह जाता
है— सबसे छूट
जाता है, स्वयं
में बंधा रह
जाता है, अस्मिता
से नहीं छूटता,
अहंकार से
छूट जाता है।
क्योंकि
अहंकार जो था,
वह सदा
दूसरे के
खिलाफ दावा था।
इसको ठीक से
समझ लेना! जब
मैं कहता हूं— '
मैं ', तो
मैं किसी ' तू'
को दबाने के
लिए कहता हूं।
इसलिए जब मैं किसी
' तू ' को
दबा लेता हूं
तो मेरा ' मैं
' बहुत
अकड़कर प्रकट
होता है और जब
कोई ' तू ' मुझे दबा
देता है तो
मेरा ' मैं '
बहुत
रिरियाता, रोता
हुआ प्रकट
होता है। वह ' मैं' जो
है, वह ' तू'
को दबाने का
प्रयास है।
तो
अहंकार जो है
वह सदा दूसरे
की अपेक्षा
में है। दूसरा
तो खत्म हो
गया,
दूसरे से अब
कोई लेना—देना
नहीं है, उससे
कोई अपेक्षा न
रही। अस्मिता
जो है वह अपनी
अपेक्षा में
है। अहंकार और
अस्मिता में
इतना ही फर्क
है—तू से कोई
मतलब नहीं है
मुझे, लेकिन
फिर भी मैं तो
हूं। यह दावा
नहीं है मैं
का अब, लेकिन
मेरा होना तो है
ही। अब मैं
किसी तू के
खिलाफ नहीं कह
रहा हूं ' मैं
', लेकिन
मैं हूं बिना
किसी तू की
अपेक्षा के।
इसलिए
मैंने कहा—
अहंकार कहेगा ' मैं',
और अस्मिता
कहेगी ' हूं
'। उतना
फर्क होगा। ' मैं हूं ' में
दोनों बातें
हैं। ' मैं '
अहंकार है
और ' हूं? अस्मिता है—
दि फीलिंग ऑफ
आईनेस! तू के
खिलाफ नहीं, अपने पक्ष
में— ' मैं
हूं!'
दुनिया
में कोई भी
आदमी न रह जाए—तीसरा
महायुद्ध हो
और सब लोग मर
जाएं, और मैं
रह जाऊं। तो
मेरे भीतर
अहंकार नहीं
रह जाएगा, लेकिन
अस्मिता होगी।
मैं जानूंगा
कि मैं हूं।
हालांकि मैं
किसी से न कह
सकूंगा कि ' मैं ', क्योंकि
कोई ' तू ' नहीं बचा
जिससे मैं कह
सकूं। तो जब
बिलकुल तुम
अकेले हो और
कोई भी दूसरा
नहीं है, तब
भी तुम हो—
होने के अर्थ
में।
तो
पांचवें शरीर
पर अहंकार तो
विदा हो जाता
है,
इसलिए सबसे
बड़ी कड़ी जो
बंधन की है वह
गिर जाती है, लेकिन
अस्मिता रह जाती
है, हूं का
भाव रह जाता
है—मुक्त, स्वतंत्र,
कोई बंधन
नहीं, कोई
सीमा नहीं।
लेकिन
अस्मिता की
अपनी सीमा है—अरे
की कोई सीमा
नहीं रही, लेकिन
अस्मिता की
अपनी सीमा है।
छठवें
शरीर पर
अस्मिता
टूटती है, या
छोड़ी जाती है।
और छठवां शरीर
जो है वह
कास्मिक बॉडी
है।
द्विज
अर्थात
ब्रह्मज्ञानी:
पांचवें
शरीर के बाद
योनि का सवाल
समाप्त हो गया, लेकिन
जन्म अभी बाकी
हैं। इस फर्क
को भी खयाल
में ले लेना!
एक जन्म तो
योनि से होता
है, किसी
के गर्भ से
होता है, और
एक जन्म अपने
ही गर्भ से
होता है।
इसलिए इस
मुल्क में हम
ब्राह्मण को
द्विज कहते
हैं। असल में,
ब्रह्मज्ञानी
को कहते थे
कभी; ब्राह्मण
को कहने की
कोई जरूरत
नहीं है; ब्रह्मज्ञानी
को द्विज कहते
थे। उसमें एक
और तरह का
जन्म है—ट्वाइस
बॉर्न।
एक
जन्म तो वह है
जो गर्भ से
मिलता है, वह
दूसरे से
मिलता है; और
एक ऐसा जन्म
भी है, जो
फिर अपने से
ही! क्योंकि
जब आत्म शरीर
उपलब्ध हो गया,
अब तुम्हें
दूसरे से जन्म
कभी नहीं
मिलेगा; अब
तो तुम्हें
अपने ही आत्म
शरीर को
जन्माना होगा
कास्मिक बॉडी
में। और यह
तुम्हारी
अंतर्यात्रा
है अब
तुम्हारा अंतर्गर्भ
है और अंतर—योनि
है। अब इसका
बाह्य योनि से
और बाह्य गर्भ
से कोई संबंध
नहीं है। अब
तुम्हारे कोई
माता—पिता न
होंगे, अब
तुम्हीं पिता
और तुम्हीं
माता और
तुम्हीं पुत्र
बनोगे। अब यह
बिलकुल निपट
अकेली यात्रा
है।
तो
इस स्थिति को, पांचवें
शरीर से छठवें
शरीर में जब
प्रवेश हो, तब कहना
चाहिए कोई
व्यक्ति
द्विज हुआ, उसके पहले
नहीं। उसका
दूसरा जन्म
हुआ जो अयोनिज
है, जिसमें
योनि नहीं है,
और जिसमें
पर—गर्भ नहीं
है, जो
आत्मगर्भ है।
उपनिषद
का ऋषि कहता
है कि उस गर्भ
के ढक्कन को खोल, वह
जो तूने
स्वर्ण—पात्रों
से ढंक रखा है!
उस गर्भ के
ढक्कन को खोल,
वह जो तूने स्वर्ण
के पर्दों से
ढंक रखा है!
पर्दे
जरूर वहां
स्वर्ण के हैं।
यानी पर्दे
ऐसे हैं कि
उन्हें
तोड्ने का मन
न होगा; पर्दे
ऐसे हैं कि
बचाने की
तबीयत होगी।
अस्मिता सबसे
ज्यादा कीमती
पर्दा है जो
हमारे ऊपर है,
उसे हम ही न
छोड़ना
चाहेंगे। कोई
दूसरा बाधा
देनेवाला नहीं
होगा, कोई
कहेगा नहीं कि
रोको, कोई
रोकनेवाला
नहीं होगा।
लेकिन पर्दा
ही इतना
प्रीतिकर है
अपने होने का
कि उसे छोड़ न
पाओगे।
इसलिए
ऋषि कहता है, स्वर्ण
के पर्दों को
हटा और उस
गर्भ को खोल, जिससे
व्यक्ति
द्विज हो सके।
तो
ब्रह्मज्ञानी
को द्विज...
ब्रह्मज्ञानी
का मतलब छठवें
शरीर
पानेवाले को.......
पांचवें शरीर
से छठवें शरीर
की यात्रा
ट्वाइस बॉर्न, द्विज
होने की
यात्रा है। और
गर्भ बदला, योनि बदली, अब सब
अयोनिज हुआ, और गर्भ
अपना हुआ
आत्मगर्भा
हुए हम।
पांचवें
से छठवें में
जन्म है, और
छठवें से
सातवें में
मृत्यु है।
इसलिए उसको
द्विज नहीं
कहा; उसको
द्विज कहने का
कोई मतलब नहीं
है; क्योंकि
अब..... .मेरा मतलब
समझे तुम? अब
समझना आसान हो
जाएगा।
पांचवें
से छठवें को
हम कहते हैं—जन्म
अपने से।
छठवें से
सातवें को हम
कहते हैं—
मृत्यु अपने
से। दूसरों से
जन्म लिए थे—दूसरों
की योनियों से, दूसरों
के शरीरों से;
वह मृत्यु
भी दूसरों की
थी।
पर—योनि
से जन्मे
व्यक्ति की
मृत्यु भी
परायी:
इसे
थोड़ा समझना
पड़ेगा। जब
जन्म दूसरे से
था,
तो मृत्यु
तुम्हारी
कैसे हो सकती
है? जन्म
तो मैं लूंगा
अपने माता—पिता
से, और
मरूंगा मैं? यह कैसे हो
सकता है? ये
दोनों छोर असंगत
हो जाएंगे। ये
दोनों छोर
असंगत हो
जाएंगे। जब
जन्म पराया है,
तो मृत्यु
मेरी नहीं हो
सकती; जब
जन्म दूसरे से
मिला है, तो
मृत्यु भी
दूसरे की है।
फर्क इसलिए है
कि उस बार मैं
एक योनि से
प्रकट हुआ था,
इस बार
दूसरी योनि
में प्रवेश
करूंगा, इसलिए
पता नहीं चल
रहा। उस वक्त
आया था तो
दिखाई पड गया
था अब जा रहा
हूं तो दिखाई
नहीं पड़ रहा।
समझ
रहे हो न तुम? जन्म
जो है उसके
पहले मृत्यु
है। कहीं तुम
मरे थे, कहीं
तुम जन्मे हो।
जन्म दिखाई
पड़ता है, तुम्हारी
मृत्यु का
हमें पता नहीं।
अब
तुम्हें एक
जन्म मिला एक
मां—बाप से—एक
शरीर मिला, एक
देह मिली, एक
सत्तर साल, सौ साल
दौड़नेवाला एक
यंत्र मिला।
यह यंत्र सौ
साल बाद
गिरेगा। इसका
गिरना उसी दिन
से सुनिश्चित
हो गया, जिस
दिन तुम जन्मे—गिरना!
कब गिरेगा, नहीं उतना
महत्वपूर्ण
है— गिरना!
जन्म के साथ
ही तय हो गया
है कि तुम
मरोगे। जिस
योनि से तुम
जन्म लाए, उसी
योनि से तुम
मृत्यु भी ले
आए—साथ ही ले
आए।
असल
में,
जन्म
देनेवाली
योनि में
मृत्यु छिपी
ही है, सिर्फ
फासला पड़ेगा
सौ साल का। इस
सौ साल में
तुम एक छोर से
दूसरे छोर की
यात्रा पूरी
करोगे। और जिस
जगह से तुम आए
थे, ठीक उसी
जगह वापस लौट
जाओगे। तो जो
जन्म दूसरे की
योनि से हुआ
है, वह
मृत्यु भी
दूसरे की ही
योनि से जन्मे
शरीर की है, वह मृत्यु
भी परायी है।
तो न तो तुम
जन्मे हो अभी,
और न तुम
अभी मरे हो
कभी; जन्म
में भी दूसरा
माध्यम था, मृत्यु में
भी दूसरा ही
माध्यम होने
को है।
पांचवें
शरीर से जब
तुम छठवें
शरीर में, ब्रह्म
शरीर में
प्रवेश करोगे
आत्म शरीर से,
तो तुम पहली
दफा जन्मोगे
आत्मगर्भा
बनोगे, अयोनिज
तुम्हारा
जन्म होगा।
लेकिन तब एक
अयोनिज मौत भी
आगे
प्रतीक्षा
करेगी। और यह
जन्म जहां
तुम्हें ले
जाएगा, मृत्यु
तुम्हें वहां
से भी आगे ले
जाएगी; क्योंकि
जन्म तुम्हें
ब्रह्म में ले
जाएगा, मृत्यु
तुम्हें
निर्वाण में
ले जाएगी।
छठवें
शरीर की
चेतनाएं
अवतार, ईश्वर—पुत्र
व तीर्थंकर
यह
जन्म बहुत
लंबा हो सकता
है,
यह जीवन
अंतहीन हो
सकता है।
जिनको हम
ईश्वर कहें, ऐसा व्यक्ति
अगर टिका
रहेगा तो ईश्वर
बन जाएगा; ऐसी
चेतना अगर
कहीं रुकी रह
जाएगी तो
अरबों लोग उसे
पूजेंगे, उसके
प्रति
प्रार्थनाएं
प्रेषित की
जाएंगी।
जिनको हम
अवतार कहते, ईश्वर कहते,
ईश्वर—पुत्र
कहते, वे
पांचवें शरीर
से छठवें शरीर
में गए हुए
लोग हैं; तीर्थंकर
कहते, वे
सब छठवें शरीर
में गए हुए
लोग हैं।
यदि
ये चाहें तो
इस छठवें शरीर
में ये अनंत
काल तक रुक
सकते हैं। इस
जगह से ये बड़ा
उपकार भी कर
सकते हैं।
हानि का तो अब
कोई उपाय नहीं
है,
कोई सवाल भी
नहीं है। इस
जगह से ये बड़े
गहरे सूचक बन
सकते हैं। और
इस तरह के लोग
हैं, इस
छठवें शरीर
में, जो
निरंतर
प्रयास करते
रहते हैं पीछे
के यात्रियों
के लिए, बहुत
तरह के प्रयास
करते रहते हैं।
इस छठवें शरीर
से चेतनाएं
बहुत तरह के
संदेश भी
भेजती रहती
हैं।
और
इस छठवें शरीर
के लोगों को, जिनको
इनका थोड़ा सा
बोध हो जाएगा,
वे इनको
भगवान से नीचे
तो रखने का
कोई उपाय नहीं
है। भगवान वे
हैं ही। उनके
भगवान होने
में कोई कमी
नहीं रह गई, ब्रह्म शरीर
उन्हें
उपलब्ध है।
जीते
जी भी इसमें
कोई प्रवेश कर
जाता है; जीते
जी भी कोई
पांचवें से
छठवें में
प्रवेश कर
जाता है। यह
शरीर भी मौजूद
है। और जब
जीते जी कोई
पांचवें से
छठवें में
प्रवेश कर जाता
है, तो हम
उसे बुद्ध, महावीर, राम
और कृष्ण और
क्राइस्ट बना
लेते हैं।
जिनको दिखाई
पड़ जाता है, वे ही बना
लेते हैं; जिनको
नहीं दिखाई
पड़ता, उनका
तो कोई सवाल
नहीं है।
बुद्ध
के लिए, गांव
में एक आदमी
को दिखाई पड़ता
है कि वे ईश्वर
हो गए, और
दूसरे आदमी को
दिखाई पड़ता है—कुछ
भी नहीं, साधारण
तो आदमी हैं।
हमारे जैसे
उनको सर्दी—जुकाम
भी होता है; हमारे जैसे
वे बीमार भी पड़ते
हैं; हमारे
जैसे भोजन भी
करते हैं; हमारे
जैसे चलते—सोते
भी हैं; हमारे
जैसे मरते भी
हैं; तो
हममें—उनमें
फर्क क्या है?
फिर जिनको
दिखाई पड़ता है,
जिनको नहीं
दिखाई पड़ता—उनकी
भीड़ सदा बड़ी
है जिनको नहीं
दिखाई पड़ता।
जिनको दिखाई
पड़ता है, वे
पागल मालूम
पड़ते हैं। और
बेचारे पागल
दिखते भी हैं,
क्योंकि
उनके पास कोई
इविडेंस भी तो
नहीं।
असल
में,
दिखाई पड़ने
के लिए कोई
इविडेंस नहीं
होता। अब यह
माइक मुझे
दिखाई पड़ रहा
है, और अगर
आपको यहां
किसी को दिखाई
न पड़े, तो
मैं और क्या
इविडेंस
दूंगा कि यह
दिखाई पड़ रहा
है! मैं
कहूंगा, दिखाई
पड़ रहा है। और
मैं पागल हो
जाऊंगा; क्योंकि
जब सबको नहीं
दिखाई पड़ रहा
है और आपको
दिखाई पड़ रहा
है, तो
आपका दिमाग
खराब है।
तीर्थंकर
को पहचानना
मुश्किल:
ज्ञान
को भी हम बहुत
गहरे अर्थ में
गणना से नापते
हैं। उसका भी
मतदान है, वोटिंग
है उसका भी।
तो
बुद्ध किसी को
दिखाई पड़ते
हैं— भगवान
हैं,
किसी को
दिखाई पड़ते
हैं—नहीं हैं।
जिसको दिखाई
पड़ते हैं—नहीं;
वह कहता है
क्या पागलपन
कर रहे हो! यह
बुद्ध वही है
जो शुद्धोधन
का बेटा है, फलाने का
लड़का है, फलानी
इसकी मां थी; फलानी इसकी
बहू है; वही
तो है, यह
कोई और तो
नहीं है।
बुद्ध के बाप
तक को नहीं
दिखाई पड़ता कि
यह आदमी कुछ
और हो गया है।
वे भी यही
समझते हैं कि
मेरा बेटा है,
और वे भी
कहते हैं कि
तू कहां की नासमझी
में पड़ा है, घर वापस लौट
आ! यह सब तू
क्या कर रहा
है? राज्य
सब बर्बाद हो
रहा है, मैं
बूढ़ा हुआ जा
रहा हूं अब तू
वापस लौट आ, अब सम्हाल
ले सब। उनको
भी नहीं दिखाई
पड़ता कि अब यह
किस राज्य का
मालिक हो गया।
पर
जिसको दिखाई
पड़ता है उसके
लिए यह
तीर्थंकर हो
जाएगा, भगवान
हो जाएगा, ईश्वर
का बेटा हो
जाएगा—कुछ भी
हो जाएगा। वह
कोई नाम
चुनेगा, जो
छठवें शरीर के
आदमी के लिए
इस स्थिति में
भी दिखाई पड़ने
लगेगा।
छठवें
शरीर के
सीमांत पर
निर्वाण की झलक:
सातवां
शरीर जो है, वह
इस शरीर में
कभी उपलब्ध
नहीं होता। इस
शरीर में
सातवां शरीर
कभी उपलब्ध
नहीं होता। इस
शरीर में हम
छठवें शरीर के
सीमांत पर भर
खड़े हो सकते
हैं—ज्यादा से
ज्यादा, जहां
से सातवां
शरीर दिखाई
पड़ने लगता है;
वह छलांग, वह गडु, वह
एबिस, वह
इटरनिटी
दिखाई पड़ने
लगती है, वहां
हम खड़े हो
सकते हैं।
इसलिए
बुद्ध के जीवन
में दो निर्वाण
की बात कही
जाती है जो
बड़ी कीमत की
है। एक
निर्वाण तो वह, जो
उन्हें
बोधिवृक्ष के
नीचे, निरंजना
के तीर पर हुआ—चालीस
साल मरने के
पहले। इसे कहा
जाता है
निर्वाण। इस
दिन वे उस
सीमांत पर खड़े
हो गए। और इस
सीमांत पर वे
चालीस साल खड़े
ही रहे—इसी
सीमांत पर।
दूसरा, जिस
दिन उनकी
मृत्यु हुई, उस दिन कहा
जाता है, वह
हुआ
महापरिनिर्वाण!
उस दिन वे उस
सातवें में
प्रवेश कर गए।
इसलिए
मरने के पहले
उनसे कोई
पूछता है कि
तथागत का
मृत्यु के बाद
क्या होगा? तो
बुद्ध कहते
हैं, तथागत
नहीं होंगे।
लेकिन यह मन
को भरता नहीं
हमारे। फिर—फिर
उनके भक्त
उनसे पूछते
हैं कि जब
महानिर्वाण होता
है बुद्ध का, तो फिर क्या
होता है? तो
बुद्ध कहते
हैं, जहां
सब होना बंद
हो जाता है
उसी का नाम
महापरिनिर्वाण
है। जब तक कुछ
होता रहता है,
तब तक छठवां,
जब तक कुछ
होता रहता है,
तब तक छठवां,
तब तक
अस्तित्व; फिर
अनस्तित्व।
तो
बुद्ध अब नहीं
होंगे। अब कुछ
भी नहीं बचेगा।
अब तुम समझना
कि वे कभी थे
ही नहीं। वे
ऐसे ही विदा
हो जाएंगे
जैसे स्वप्न
विदा हो जाता
है। वे ऐसे ही
विदा हो
जाएंगे, जैसे
रेत पर खिंची
रेखा हवा के
झोंके में साफ
हो जाती है, जैसे पानी
पर लकीर
खींचते हैं, और खींच भी
नहीं पाते और
विदा हो जाती
है; ऐसे ही
वे खो जाएंगे;
अब कुछ भी
नहीं होगा।
मगर
यह मन को भरता
नहीं। हमारा
मन करता है—कहीं, कहीं,
कहीं......किसी
तल पर, कहीं
किसी कोने
में.. दूर, कितने
ही दूर, लेकिन
हों— किसी रूप
में हों, अरूप
हो जाएगा; आकार
में हों, निराकार
हो जाएगा; शब्द
में हों, निःशब्द
हो जाएगा; सत्व
में हों, शून्य
हो जाएगा।
सातवें
शरीर के बाद
की फिर कोई
खबर देने का
उपाय नहीं है।
सीमांत पर खड़े
हुए लोग हैं
जो सातवें
शरीर को देखते
हैं,
उस गेंहु को
देखते हैं, लेकिन उस गेंहु
में जाकर खबर
देने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए सातवें
शरीर के संबंध
में सब खबरें
सीमा के
किनारे खड़े
हुए लोगों की
खबरें हैं; गए हुए की
कोई खबर नहीं
है, क्योंकि
कोई उपाय नहीं।
जैसे कि हम
पाकिस्तान की
सीमा पर खड़े
होकर देखें और
कहें कि वहां
एक मकान है, और एक दुकान
है, और एक
आदमी खड़ा है, और एक वृक्ष
है, और
सूरज निकल रहा
है। लेकिन यह
खड़ा है आदमी
हिंदुस्तान
की सीमा में।
सातवें
शरीर में
महामृत्यु:
छठवें
से सातवें में
महामृत्यु है।
और तुम बड़े
हैरान होओगे
जानकर कि बहुत
प्राचीन समय
में आचार्य का
मतलब यह होता
था कि जो मृत्यु
सिखाए, जो
महामृत्यु
सिखाए। ऐसे
सूत्र हैं, जो कहते हैं—
आचार्य यानी
मृत्यु।
इसलिए
नचिकेता जब
पहुंच गया है
यम के पास, तो
वह ठीक आचार्य
के पास पहुंच
गया है। वह
मृत्यु ही
सिखा सकता है
यम, और कुछ
सिखा सकता
नहीं। जहां
मिटना सिखाया
जाए, जहां
टूटना और
समाप्त होना
सिखाया जाए।
पर
इसके पहले एक
जन्म आवश्यक
है,
क्योंकि
अभी तो तुम हो
ही नहीं। और
जिसे तुमने
समझा है कि
तुम हो, वह
तो बिलकुल
उधार है, वह
बारोड है, वह
तुम्हारा
अस्तित्व
नहीं। इसे तुम
अगर खोओगे भी
तो तुम इसके
मालिक न थे।
यानी मामला
ऐसा है कि
जैसे मैं कोई
चीज चुरा लूं
और फिर मैं
उसका दान कर
दूं। वह चीज
मेरी थी नहीं,
तो दान मेरा
कैसे होगा? तो जो मेरा
नहीं है उसे
तो मैं दे भी
नहीं सकता।
इसलिए
यहां इस जगत
में जिसको हम
त्यागी कहते हैं
वह त्यागी
नहीं है; क्योंकि
वह वह छोड़ रहा
है जो उसका था
नहीं। और जो
था नहीं उसके
छोड़नेवाले
तुम कैसे हो
सकते हो? और
जो तुम्हारा
था नहीं, उसको
तुमने छोड़ा, यह दावा
पागलपन का है।
त्याग
घटित होता है
छठवें शरीर से
सातवें में प्रवेश
से;
रिनन्सिएशन
वहां है, क्योंकि
वहां तुम वही
छोड़ते हो जो
तुम हो। और
कुछ तो
तुम्हारे पास
बचता नहीं, तुम्हीं हो,
उसी को तुम
छोड़ते हो।
इसलिए त्याग
की घटना तो
सिर्फ एक ही
है, वह है
छठवें से
सातवें शरीर
में प्रवेश की।
उसके पहले तो
हम बच्चों की
बातें कर रहे
हैं। जो आदमी
कह रहा है
मेरा है, वह
पागलपन की
बातें कर रहा
है; जो कह
रहा है कि जो
भी मेरा था वह
मैंने छोड़ दिया
है, वह भी
पागलपन की
बातें कर रहा
है। क्योंकि
दावेदार वह अब
भी है कि वह
मेरा था और मैं
मानता था कि
मेरा था; और
अब मैंने किसी
और को दे दिया,
और अब वह
उसका हो गया
है।
हमारे
तो सिर्फ हम
हैं। लेकिन
उसका हमें कोई
पता नहीं है।
इसलिए
पांचवें से
छठवें में
तुम्हें पता
चलेगा कि तुम
कौन हो, और
छठवें से
सातवें में
तुम त्याग कर
सकोगे उसका जो
तुम हो।
और
जिस दिन कोई
उसका त्याग कर
पाता है जो वह
है,
उसके बाद
फिर कुछ पाने
को शेष नहीं
रह जाता, कुछ
खोने को शेष
नहीं रह जाता।
उसके बाद तो
कोई सवाल ही
नहीं है। उसके
बाद अनंत
सन्नाटा और
चुप्पी है।
उसके बाद
हमारे पास यह
भी हम नहीं कह
सकते कि आनंद
है, यह भी
नहीं कह सकते
कि शांति है, यह भी नहीं
कह सकते कि
सत्य है, असत्य
है, प्रकाश
है—कुछ भी
नहीं कह सकते।
यह
सात शरीर की
स्थिति होगी।
पांचवें
शरीर का मिलना
और जागना एक
ही बात:
प्रश्न:
ओशो स्थूल
शरीर के जीवित
रहते अगर
पांचवां शरीर
उपलब्ध हुआ तो
मृत्यु के बाद
वह व्यक्ति
फिर कौन से
शरीर में जन्म
लेगा?
पांचवें
शरीर के बाद, अगर
पांचवां शरीर
मनुष्य शरीर
में उपलब्ध हुआ,
और पांचवां
शरीर बिना
जाग्रत हुए
उपलब्ध नहीं
होता, अगर
तुम जाग गए
पांचवें शरीर
में, जागे
बिना उपलब्ध
नहीं होता, तो पांचवें
शरीर का मिलना
और जागना एक
ही बात है।
फिर तुम्हें
पहले शरीरों
की कोई जरूरत
नहीं, अब
तो तुम
पांचवें शरीर
से ही काम कर
सकते हो। तुम
जागे हुए आदमी
हो अब कोई
कठिनाई नहीं
है। अब
तुम्हें पहले
शरीरों की कोई
जरूरत नहीं है।
यह तो चौथे शरीर
तक सवाल बना
रहेगा सदा।
अगर
चौथे शरीर में
देवता हो गया
एक आदमी—चौथा
शरीर सक्रिय
हो गया और जाग
गया। चौथा
शरीर निष्किय
रहा,
सोया रहा, तो प्रेत हो
गया। यह दोनों
स्थितियों
में तुम्हें
वापस लौटना पड़ेगा,
क्योंकि
तुम्हें अभी
अपने स्वरूप
का कोई पता
नहीं चला, अभी
तो तुम्हें
स्वरूप का पता
लगाने के लिए
भी पर की
जरूरत है। उस
पर के ही आधार
पर तुम अभी
स्व का पता
लगा पाओगे।
अभी तो अपने
को पहचानने के
लिए तुम्हें
दूसरे की
जरूरत है। अभी
दूसरे के बिना
तुम अपने को
भी न पहचान
पाओगे। अभी तो
दूसरा ही
तुम्हारी
सीमा बनाएगा
और तुम्हें
पहचानने का
कारण बनेगा।
तो
इसलिए चौथे
शरीर तक तो
कोई भी स्थिति
में जन्म लेना
पड़ेगा।
पांचवें शरीर
के बाद जन्म
की कोई जरूरत
नहीं है; अर्थ
भी नहीं है।
पांचवें शरीर
के बाद
तुम्हारा
होना इन सब
चार शरीरों के
बिना हो जाएगा।
लेकिन पांचवें
शरीर से भी
अभी एक और नये
तरह के जन्म की
बात शुरू होती
है, वह
छठवें शरीर
में प्रवेश की।
वह दूसरी बात
है, उसके
लिए इन शरीरों
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
प्रश्न:
ओशो पांचवें
शरीर में
जिसका प्रवेश
हो गया वह
अपनी मृत्यु
के बाद स्थूल
शरीर नहीं पा
सकता?
नहीं।
तीर्थंकर
को वासना
बांधनी पडती
है:
प्रश्न:
ओशो तीर्थकंर
यदि जन्म लेना
चाहे तो स्थूल
शरीर में
लेंगे न?
अब यह जो
मामला है, यह
बहुत दूसरी
बात हुई। यह
जो बात है न, यह बिलकुल
दूसरी बात है।
थोडी सी बात
कर लें। अगर
तीर्थंकर को
जन्म लेना हो,
जैसा कि
तीर्थंकर
जन्म लेता है,
तो एक बड़ी
मजे की बात है
और वह यह है कि
मरने के पहले
उसे चौथे शरीर
को छोड़ना नहीं
पड़ता। और न
छोड़ने का एक
उपाय है और
उसकी विधि है।
और वह है
तीर्थंकर
होने की वासना।
तो
चौथा शरीर जब
छूट रहा हो तब
एक वासना बचा
लेनी पड़ती है, ताकि
चौथा न छूटे।
चौथे के छूटने
के बाद तो
जन्म ले नहीं
सकते, फिर
तो तुम्हारा
सेतु टूट गया
जिससे तुम आ
सकते थे। तो
चौथे शरीर के
पहले
तीर्थंकर
होने की वासना
को बचाना पडता
है।
इसलिए
सभी लोग, तीर्थंकर
होने के योग्य
लोग तीर्थंकर
नहीं होते।
बहुत से
तीर्थंकर
होने योग्य
लोग सीधे
यात्रा पर
निकल जाते हैं।
थोड़े से लोग......
और इसलिए उनकी
संख्या भी तय
कर रखी है। वह
संख्या तय
करने का कारण
है कि उतने से
काम चल जाता
है, उतने
से ज्यादा
लोगों को वैसी
वासना रखने की
कोई जरूरत
नहीं। इसलिए
संख्या तय कर
रखी है कि
इतने युग के
लिए इतने
तीर्थंकर
काफी हो
जाएंगे; इतने
आदमी के लिए
इतने
तीर्थंकर
काफी पड़ेंगे।
तो
तीर्थंकर की
वासना बांधनी
पड़ती है। और
उस वासना को
बड़ी तीव्रता
से बांधना
पड़ता है, क्योंकि
वह आखिरी
वासना है, और
जरा छूट जाए
हाथ से तो बात
गई। तो दूसरों
को मैं
सिखाऊंगा, दूसरों
को मैं
बताऊंगा, दूसरों
को मैं
समझाऊंगा, दूसरों
के लिए मुझे
आना है—वह
चौथे शरीर में
उतनी एक वासना
का बीज प्रबल होना
चाहिए। अगर वह
प्रबल है तो
उतरना हो
जाएगा।
पर
उसका मतलब यही
हुआ कि अभी
चौथे शरीर को
छोड़ा नहीं है; पांचवें
शरीर पर पैर
रख लिया है, लेकिन चौथे
शरीर पर एक
खूंटी गाड़ रखी
है। वह इतनी
शीघ्रता से
उखड़ती है कि
अक्सर
मुश्किल
मामला है बहुत।
तीर्थंकर
बनाने की
प्रक्रिया:
इसलिए
तीर्थंकर
बनाने की
प्रोसेस है।
और इसलिए
तीर्थंकर
स्कूल्स में
बनते हैं, वे
इंडिविजुअल्स
नहीं हैं।
जैसे कि एक
स्कूल साधना
कर रहा है, कुछ
साधक लोग साधना
कर रहे हैं।
और उनमें वे
एक आदमी को
पाते हैं
जिसमें कि शिक्षक
होने की पूरी
योग्यता है—जो,
जो जानता है
उसे कह सकता
है, जो, जो
जानता है उसे
बता सकता है; जो, जो
जानता है उसे
दूसरे तक
कम्युनिकेट
कर सकता है—तो
वह स्कूल उसके
चौथे शरीर पर
खूंटियां
गाड़ना शुरू कर
देगा और उसको
कहेगा कि तुम
चौथे शरीर की
फिकर करो, यह
चौथा शरीर
खत्म न हो जाए;
क्योंकि
तुम्हारा यह
चौथा शरीर काम
पड़ेगा, इसको
बचा लो। और
इसको बचाने के
उपाय सिखाए
जाएंगे।
तीर्थंकर
का करुणावश
पुनर्जन्म
लेना:
और
इसको बचाने के
लिए उतनी
मेहनत करनी
पड़ती है, जितनी
छोड़ने के लिए
नहीं करनी
पड़ती।
क्योंकि
छोड़ना तो एकदम
सरलता से हो
जाता है। और
जब सब नावों
की खूंटियां
उखड़ गई हों, और पाल खिंच
गया हो और हवा
भर गई हो, और
दूर का सागर
पुकार रहा हो,
और आनंद ही
आनंद हो, तब
वह जो एक
खूंटी है, उसको
रोकना कितना
कठिन है, उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
इसलिए
तीर्थंकर को
हम कहते हैं—तुम
महा करुणावान
हो। उसका और
कोई कारण नहीं
है,
क्योंकि
उसकी करुणा का
बड़ा हिस्सा तो
यही है कि जब
उसे जाना था, जब जाने की
सब तैयारी
पूरी हो गई थी,
तब उनके लिए
वह रुक गया है
जो तट पर अभी
हैं और जिनकी
नावें अभी तैयार
नहीं हैं।
उसकी नाव
बिलकुल तैयार
थी। अब वह उस
तट के कष्ट
झेल रहा है, उस तट की धूल
भी झेल रहा है,
उस तट की
गालियां भी
झेल रहा है, उस तट के
पत्थर भी झेल
रहा है— और
उसकी नाव
बिलकुल तैयार
थी, और वह
कभी भी जा
सकता था। वह
नाहक रुक गया
है इन सबके
बीच। और ये सब
उसे मार भी
सकते हैं, हत्या
भी कर सकते
हैं। तो उसकी
करुणा का कोई
अंत नहीं।
लेकिन
उस करुणा की
वासना स्कूल
में पैदा होती
है। इसलिए
इंडिविजुअल
साधक तो कभी
तीर्थंकर नहीं
हो पाते। वह
तो बाद में......
.उनको पता ही
नहीं चलता, कब
खूंटी उखड़
जाती है। जब
नाव चल पड़ती
है तब उनको
पता चलता है
कि यह तो गया
मामला; वह
तट दूर छूटा
जा रहा है।
इसलिए खूंटी
के लिए बहुत
और तरह का......
तीर्थंकर
के अवतरण में
अन्य जाग्रत
लोगों का योगदान:
और
इस सबकी
सहायता के लिए, जैसा
मैंने कहा कि
छठवें शरीर को
जो लोग उपलब्ध
हैं—जिनको हम
ईश्वर कहें—छठवें
शरीर को जो
लोग उपलब्ध
हैं, वे भी
कभी इसमें
सहयोगी होते
हैं। किसी
व्यक्ति को इस
योग्य पाकर, कि इसको अभी
इस तट से नहीं
छूटने देना है,
वे हजार तरह
के प्रयास
करते हैं।
इसके लिए
देवता भी
सहयोगी होते
हैं—जैसा
मैंने कहा कि
वे शुभ में
सहयोगी होंगे—वे
हजार प्रयास करते
हैं, इस
आदमी को
प्रेरणा देते
हैं कि यह
खूंटी एक बचा
लेना। यह
खूंटी हमें
दिखाई पड़ती है,
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती, लेकिन
इसको तुम बचा
लेना।
तो
जगत एकदम
अनार्किक
नहीं है, अव्यवस्था
नहीं है; उसमें
बड़ी गहरी
व्यवस्थाएं
हैं; और
व्यवस्थाओं
के भीतर
व्यवस्थाएं हैं।
और कई दफा
बहुत तरह की
कोशिश की जाती
है, फिर भी
गड़बड़ हो जाती
है। जैसे
कृष्णमूर्ति
के संबंध में
खूंटी गाड़ने की
बहुत कोशिश की
गई, वह
नहीं हो सका।
एक पूरा स्कूल
बहुत मेहनत
किया, वह
खूंटी गाड़ने
की कोशिश थी, वह नहीं हो
सका। वह
प्रयास असफल
चला गया।
उसमें पीछे से
भी लोगों का
हाथ था। उसमें
दूरगामी
आत्माओं का
हाथ भी था।
उसमें छठवें
शरीर के लोगों
का हाथ भी था, पांचवें
शरीर के लोगों
का हाथ भी था, उसमें चौथे
शरीर के
जाग्रत लोगों
का भी हाथ था।
और उसमें
हजारों लोगों
का हाथ था। और
यह कोशिश थी......
और
कृष्णमूर्ति
को चुना गया
था, और दो—चार
बच्चे चुने गए
थे जिनसे
संभावना थी कि
जिनको
तीर्थंकर
बनाया जा सके।
चूक गई वह बात,
नहीं हो सकी;
वह खूंटी
नहीं गाड़ी जा
सकी। इसलिए
कृष्णमूर्ति
से तीर्थंकर
का जो फायदा मिल
सकता था जगत
को, वह
नहीं मिल सका।
मगर वह दूसरी
बात है, उससे
कोई, उससे
कोई यहां मतलब
नहीं है।
फिर कल
बात करेंगे।
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