अध्याय—18
सूत्र—
अमक्तबुद्धि:
सर्वत्र
जितात्मा
विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यतिद्धिं
परमां
संन्यासेनाधिगव्छीत।।
49।।
सिद्धिं
प्राप्तो यथा
ब्रह्म
तथाम्नोति
निबोध मे।
समामेनैव
कौन्तेय
निष्ठा
ज्ञानस्य या
पर।।। 50।।
बुद्धया
विशुद्धया
युक्तो
धृत्यात्मानं
नियम्य च।
शब्दादीन्त्रिषयांस्त्यक्त्वा
राग्द्धेशै
व्युदस्य च।।
51।।
विविक्तसेवी
लथ्वाशी
यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगयरो
नित्यं
वैराग्य समुपाश्रित:।।
52।।
अहंकार
बलं दर्पं
कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुव्य
निर्मम:
शान्तो ब्रह्मभूयाय
कल्पते।। 53।।
तथा है
अर्जुन,
सर्वत्र
आसक्तिरहित
बुद्धिवाला, स्पृहारहित
और जीते हुए अंतकरण
वाला पुरुष
संन्यास के
द्वारा भी परम
नैष्कर्म्य
सिद्धि को
प्राप्त होता
है अर्थात
क्रियारहित
हुआ शुद्ध
सच्चिदानंदघन
परमात्मा की
प्राप्ति रूप
परम सिद्धि को
प्राप्त होता
है।
इसलिए हे
कुंतीपुत्र,
अंतःकरण की
शुद्धिरूप
सिद्धि को
प्राप्त हुआ
पुरुष जैसे
सच्चिदानंदधन
ब्रह्म को
प्राप्त होता
है तथा जो
तत्वज्ञान की
परा— निष्ठा है, उसको भी तू
मेरे से संक्षेय
में जान।
हे अर्जुन,
विशुद्ध बुद्धि
से युक्त,
एकांत और
शुद्ध देश का
सेवन करने
वाला तथा
मिताहारी
जीते हुए मन, वाणी व शरीर
वाला और दृढ
वैराग्य को
भली प्रकार प्राप्त
हुआ पुरुष
निरंतर ध्यान—
योग के परायण
हुआ सात्विक
धारणा से अंतःकरण
को वश में
करके तथा
शब्दादिक
विषयों को
त्यागकर और
राग—द्वेष की
नष्ट करके तथा
अहंकार, बल
घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह, को त्यागकर
मम्तारहित
और शांत हुआ सच्चिदानंदघन
ब्रह्म में एकीभाव
होने के लिए
योग्य होता
है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आप
कहते हैं कि
जीवन ऐसे जीओ
कि वह एक
अभिनय हो। उस
हालत में
आध्यात्मिक
साधना, धर्म
और मोक्ष की
खोज भी अभिनय
से ज्यादा
क्या रहेगी?
अभिनय
से ज्यादा कुछ
है ही नहीं।
अभिनय से
ज्यादा की आकांक्षा
ही दुख का
कारण है।
अभिनय से
ज्यादा तुम
चाहते हो कुछ, वही
मृग—मरीचिका
है।
संसार
में जो भी
किया जा सकता
है,
वह चाहे
बाजार में हो
और चाहे मंदिर
में हो, वह
चाहे धन की
दौड़ में हो और
चाहे धर्म की
दौड़ में हो, जो भी किया
जा सकता है, जहां तक
करने की सीमा
है, वहां
तक अभिनय है।
और इसे जो जान
लेता है कि
सभी करना
मात्र अभिनय
है, उसका
कर्ता— भाव
गिर जाता है।
जब
अभिनय ही है, तो
कर्ता— भाव
कैसे बचेगा? कर्ता — भाव न
हो, तो
साक्षी—मात्र
शेष रह जाता
है। करने वाला
तो खो जाता है,
केवल देखने
वाला शेष रह
जाता है। और
वही
ब्रह्मज्ञान
की पराकाष्ठा
है, जहां
तुम सिर्फ
देखने वाले ही
रह गए।
इसलिए
ब्रह्मज्ञानियों
ने सारे संसार
को माया कहा
है। शंकराचार्य
ने ईश्वर को
भी माया का ही
हिस्सा कहा है।
क्योंकि
ईश्वर को पाने
की खोज, ईश्वर
को पाने की आकांक्षा
का अर्थ ही
यही है कि
ईश्वर भी
वासना का विषय
बन सकता है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
है कि तुम
मोक्ष को
चाहना मत, चाहोगे
तो चूक जाओगे।
क्योंकि जो
चाह का विषय
बन जाए, वह
मोक्ष ही नहीं
है, वह
संसार हो गया।
जिसको
भी हम चाह
सकते हैं, हमारी
चाह के कारण
ही वह संसार
हो जाता है।
चाह भ्रांति
का सूत्र है, स्वप्न की
जन्मदात्री
है। तो तुमने
अगर धर्म चाहा
है, तो वह
भी स्वप्न है।
तुमने अगर
संन्यास किया
है, तो वह
भी स्वप्न है।
तुमने अगर
साधना साधी है,
तो वह भी
स्वप्न है।
जहां
तक तुम्हारा
कर्ता बचा है, जहां
तक तुम हो, वहां
तक सत्य नहीं
हो सकता।
अहंकार से तो
संबंध ही
असत्य का
जुड़ता है, सत्य
का नहीं जुड़ता।
अंधेरे से
अंधेरे का ही
मिलन हो सकता
है।
जब
मैं कहता हूं
कि सभी कुछ
अभिनय है, वही
कृष्ण कह रहे
हैं। वे
अर्जुन को
इतना ही समझा
रहे हैं कि तू
कर्ता मत हो।
तू अपने को
करने वाला मत
समझ। तू जैसे
उपकरण है, निमित्त
है। परमात्मा
जो करवाना
चाहे, तू
कर। न करवाना
चाहे, मत
कर। लेकिन तू
बीच में मत आ।
युद्ध करवाना
चाहे, युद्ध
कर। न करवाना
चाहे, उसकी
मर्जी। तू
निर्णायक मत
बन। क्योंकि
जैसे ही तू
निर्णायक बना,
जैसे ही
अहंकार आया, वैसे ही सब
झूठ हो गया।
तू अपने को
दूर रखकर, उसे
जो करना है, करने दे। तू
सिर्फ माध्यम
बन जा, निमित्त—मात्र
हो जा।
तब
तो जीवन अभिनय
हो जाएगा, तुम
कर्ता नहीं रह
जाओगे।
परमात्मा
लिखेगा नाटक,
तुम केवल
उसे दोहराओगे।
अभिनय
और जीवन में
फर्क क्या है? अभिनय
का अर्थ होता
है, जो
पूर्व—निर्धारित
है। राम—कथा
लिखी हुई रखी
है। फिर तुम
राम बने।
तुम्हें कुछ
करना नहीं है,
सब तैयार ही
है; एक—एक
शब्द तैयार है।
तुम्हें वही
कहना है, जो
पूर्व से ही
निर्णीत है।
तुम्हें कुछ
नया जोड़ना
नहीं है।
तुम्हें अपने
को बीच में
लाना नहीं है।
तुम कुशलता से
वही कर सकी, जो करने को
कहा गया है, तो अभिनय है।
जीवन
में भांति
होती है, क्योंकि
तुम सोचते हो,
शायद जीवन
में तुम कर
रहे हो। मंच
बहुत बड़ी है, तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती। नाटक
बहुत अदृश्य
ढंग से लिखा
गया है, तुम
पढ़ नहीं पाते।
जो हाथ
तुम्हारी
कठपुतली को
सम्हाले हैं,
तुम्हारी आंखें
बड़ी छोटी हैं,
उन विराट
हाथों को देख
नहीं पातीं।
जिन धागों से
तुम बंधे हो
और नाच रहे हो,
वे धागे
तुम्हारी पकड़
में नहीं आते।
लेकिन अगर
थोड़ा समझने की
कोशिश करोगे,
तो धागे पकड़
में आने
लगेंगे।
तुमने
कभी भी कुछ
अपने से किया
है?
प्रेम में
पड़ गए किसी के।
तुमने प्रेम
किया था? अचानक
पाया कि प्रेम
हो गया है।
जैसे किसी ने
धागा खींचा, कठपुतली
नाचने लगी।
तुम प्रेम का
गीत गाने लगे।
तुम जीने—मरने
को तैयार हो
गए। तुमने कहा,
यह स्त्री न
मिलेगी तो मैं
बचूंगा नहीं।
एक
क्षण पहले तक
यह स्त्री
नहीं थी, तुम
भली प्रकार
बचे थे। इसके
न होने से कोई
अड़चन न आ रही
थी। एक क्षण
पहले इसे
तुमने न देखा
था; सब ठीक
चल रहा था।
अचानक इस
स्त्री का
दिखाई पड़ जाना,
तुमने कुछ
किया नहीं है,
तुम्हारे
भीतर किसी और
ने कुछ किया।
कोई वासना का
धागा खींचा
गया। अब तुम
कहते हो, इसके
बिना मैं जी न
सकूंगा।
यह
भी तुम कह रहे
हो,
ऐसा नहीं है।
क्योंकि इसके
बिना भी तुम
जीते हुए पाए
जाओगे। यह भी
तुमसे
कहलवाया जा
रहा है। कल यह
स्त्री मर
जाएगी, रोओगे—धोओगे।
तुम रोओगे—
धोओगे, ऐसा
भी मैं नहीं
कहता; वह
भी होगा। वह
भी तुम्हारे
घाव से आंसू
बहेंगे। फिर
घाव भर जाएगा।
फिर तुम किसी
दूसरी स्त्री
के पीछे दौड़ने
लगोगे। तुम
फिर—फिर यही
कहोगे कि तेरे
बिना न जी
सकूंगा। तुम
हर स्त्री से
यही कहोगे कि
तेरे बिना संसार
में कोई अर्थ
ही नहीं है।
तू ही मेरे
जीवन का अर्थ
है। और बिना
जाने कहोगे कि
जैसे यह तुम
कह रहे हो।
समझो, ऐसा
कुछ है, जैसे
किसी ने एक
नाटक लिखा हो
और पात्रों को
तैयार किया हो।
लेकिन
पात्रों को
सम्मोहित
करके तैयार
किया हो; उन्हें
सम्मोहित कर
दिया हो।
जिसको राम
बनना है, उसे
सम्मोहित
करके
मूर्च्छित कर
दिया हो और फिर
सारे राम का
अभिनय उसे
सिखा दिया हो
सम्मोहित
अवस्था में। फिर
वह जागा, होश
में आया। अब
वह राम का
पार्ट करेगा,
लेकिन वह
यही समझेगा कि
मैं राम हूं।
प्रकृति
तुम्हें
सम्मोहित किए
है। उस
सम्मोहन की
शक्ति को हमने
माया कहा है।
माया का अर्थ
है,
प्रकृति का
जादू। तुम
उसमें खिंचे
जी रहे हो।
तुम बहुत कुछ
करते मालूम
पड़ते हो, करते
तुम कुछ नहीं।
तार कोई और
खींचता है।
धागे बड़े
अदृश्य हैं, छिपे हैं।
कठपुतलियां
सामने हैं, धागे पीछे
हैं, पृष्ठभूमि
में हैं।
जिनको
तुम वासनाएं
कहते हो, वे
धागों से
ज्यादा नहीं
हैं। उनके ही
वशीभूत तुम
काम किए चले
जाते हो। न तो
तुम पैदा हुए
हो। किसने
तुम्हें पैदा
किया? न
तुम जी रहे हो
अपनी तरफ से।
क्योंकि आज
अगर श्वास बंद
हो जाए, तो
तुम क्या
करोगे? एक
दिन बंद हो ही
जाएगी। फिर
तुम शिकायत भी
न कर सकोगे, क्योंकि
श्वास बंद हो
गई, शिकायत
कौन करेगा?
जन्म
होता है, जीवन
होता है, प्रेम
घटता है। हजार—हजार
घटनाएं होती
हैं। मौत घट
जाती है। और
सब ऐसे मिट
जाता है, जैसे
पानी पर खींची
गई लकीरें।
कितने
लोग तुमसे
पहले इस
पृथ्वी पर रहे
हैं! जहां तुम
बैठे हो, वहां
कम से कम एक—एक
इंच जमीन पर
तीस—तीस
आदमियों की
लाशें दबी हैं।
अरबो लोग रहे
हैं तुम्हारी
ही तरह।
तुम्हारी ही
तरह उनकी भी
भ्रांति थी कि
वे जी रहे हैं,
कर्ता हैं!
बड़ी अकड़ में
जीए हैं। उस
अकड़ के कारण
बहुत पीड़ा और
दुख भी पाया
है।
उनमें
से कुछ समझदार
भी हुए हैं।
कोई बुद्ध हुआ, कोई
कृष्ण हुआ, जिसने देख
लिया पीछे
मुड़कर, कि
धागे हैं, मैं
कुछ कर नहीं
रहा हूं? हो
रहा है। उसने तत्क्षण
कह दिया कि यह
सब अभिनय है।
इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
भाग जाओ
छोड्कर।
अभिनय को
छोड्कर भी
क्या भागना
है! इसलिए कृष्ण
कहते हैं, डटे
रहो, जिसके
हाथ में धागे
हैं, वही
जाने। तुम
अपने ऊपर सिर
पर बोझ मत लो।
वह लडवाए, तो
लड़ो। इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, जिन्हें
तू अर्जुन
सोचता है कि
मारने वाला है,
वह उसने
पहले ही मार
रखे हैं। बस, तेरे धक्के
की जरूरत है।
उसने उनके
प्राण पहले ही
खींच लिए हैं।
वे मारे जा
चुके हैं, वे
मुरदा ही खड़े
हैं। तू केवल
निमित्त
बनेगा। और तू
निमित्त न
बनेगा, तो
कोई और
निमित्त बन
जाएगा।
इसलिए
तू व्यर्थ
अपने को बीच
में मत ले।
अभिनय
अगर पूरा जीवन
दिखाई पड़ने
लगे,
तो तुम कहां
रहोगे! सिर्फ
साक्षी में
तुम रह जाओगे।
उतना भर अभिनय
नहीं है। वह
देखने वाला भर
अभिनय नहीं है,
वह सच है।
क्योंकि झूठ
को देखने के
लिए भी सच
देखने वाला चाहिए।
इसे तुम थोड़ा
समझो।
रात
तुमने सपना
देखा। सपना
झूठ था। सुबह
उठकर पाया कि
सब व्यर्थ था, कुछ
सार न था।
कहीं कुछ हुआ
न था। बस, मन
की ही कल्पना
थी। मन में ही
लहरें उठीं और
खो गईं; तरंगें
आईं और गईं।
सुबह तुम पाते
हो, कुछ भी
हुआ नहीं है।
सिर्फ खयाल थे।
लेकिन
क्या तुम यह
कह सकते हो कि
जिसने रात
सपना देखा, वह
भी इतना ही
झूठ है जितना
सपना झूठ था? यह तो तुम न
कह सकोगे।
क्योंकि अगर
देखने वाला भी
झूठ हो, तब
तो कुछ देखा
ही नहीं जा
सकता; सपना
भी नहीं देखा
जा सकता।
झूठ
को देखने के
लिए भी कम से
कम सच देखने
वाला चाहिए। झूठ
ही तो झूठ को
नहीं देख सकता, क्योंकि
तब तो दोनों
ही अनस्तित्व
हो जाएंगे।
यह
हो सकता है कि
एक रस्सी पड़ी
है रास्ते पर
और तुमने
भांति से सांप
देखा। भूल हो
गई,
यह बात
पक्की है।
लेकिन अगर
रास्ते पर से
कोई भी न
गुजरे, तो
भी क्या यह
भूल हो सकेगी
कि रस्सी सांप
जैसी देखी जा
सके? कौन
देखेगा? अगर
रास्ते पर से
गुजरने वाले
भी इतने ही
झूठ हों, जितना
रस्सी का सांप
होना झूठ है, तब तो कोई
देखने वाला ही
न होगा।
झूठ
को देखने के
लिए भी कोई सच
चाहिए। इसलिए
जिन्होंने
जीवन को बहुत
गहरे खोजा है, जो
कर्म की सतह
पर ही नहीं
भटके, जो
नीचे गहरे में
डुबकी लिए हैं,
जो
अस्तित्व में
परतों में
उतरे हैं, उन्होंने
पाया, सब
झूठ हो सकता
है, लेकिन
यह जो भीतर
बैठा साक्षी
है, यह झूठ
नहीं हो सकता।
सब
भ्रांतियां
हो सकती हैं, लेकिन
एक अस्तित्व
भीतर जो है, वह भ्रांत
नहीं हो सकता।
भ्रांतियों
के लिए भी
उसका सच होना
जरूरी है। वही
भर अभिनय नहीं
है।
और
अगर तुमने
जीवन को जीवन
समझा, अभिनय न
समझा, तो
साक्षी खो
जाएगा, तुम
उसको भूल
जाओगे। तुम
कर्ता बन
जाओगे, जो
कि सच नहीं है।
अगर तुमने
जीवन को अभिनय
समझा, यथार्थ
नहीं, तो
कर्ता खो
जाएगा और
कर्ता की राख
में छिपा भीतर
साक्षी का
अंगार प्रकट
होने लगेगा।
साक्षी
को जान लेना
ब्रह्मज्ञान
की पराकाष्ठा
है। और जीवन
को अभिनय कहना, केवल
एक विधि है उस
साक्षी को खोज
लेने की।
क्योंकि जहां—जहां
तुम्हें
अभिनय समझ में
आ जाता है, वहीं—वहीं
पकड़ छूट जाती
है। जब तक तुम
सोचते हो यह
सच है, तब
तक तुम मुट्ठी
बांधे रखते हो।
जब तुम देखते
हो, यह सच
है ही नहीं, तो तुम
मुट्ठी नहीं
बांधते।
इसलिए
कृष्ण की जीवन—दृष्टि
में एक बड़ी
अनूठी बात है।
वे भागने के
लिए भी नहीं
कहते हैं। वे
कहते हैं, संसार
इतना झूठा है
कि भागना भी
क्या?
अब
जो रस्सी सांप
जैसी दिखाई पड़
रही है, उसे
मारना तो गलत
है ही, क्योंकि
मारोगे क्या।
वहां कोई सांप
है नहीं मरने
को। तुम लकड़ी
लेकर और बड़ी
मशाल लेकर और
बड़ा शोरगुल
मचाते आ रहे
हो! वहां कुछ
है नहीं। और
कोई आदमी
रास्ते पर खड़ा
तुमसे कहता है,
कहां जा रहे
हो? वहां
कोई सार नहीं
है, वहां सिर्फ
रस्सी पड़ी है,
सांप है
नहीं; मारोगे
किसको? अच्छा
है, भाग
खड़े होओ।
त्याग ही कर
दो इस माया का।
तो वह आदमी भी
भ्रांत है।
क्योंकि जिस
सांप को मारा
नहीं जा सकता,
उसको
छोड़ोगे भी
क्या! जिसको
मारा नहीं जा
सकता, उससे
भागोगे कैसे!
भागते भी हम
उससे हैं, जो
सत है। लड़ते
भी उससे हैं, जो सत है।
इसलिए
कृष्ण का कहना
है,
जहां हो
वहीं जाग जाओ,
भागने से
कुछ भी न होगा।
जागते ही
पाओगे, सब
सपना है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि
तुम्हारे
जानने से कि
यह सपना है, सपना
टूट जाएगा।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम्हारे यह
जानने से कि
सपना है, अर्जुन
के लिए युद्ध
खो जाएगा; नहीं।
रात
तुम फिल्म
देखने बैठते
हो। तुम भूल
जाते हो देखते—देखते।
तुम्हें याद
ही नहीं रहता
कि जो तुम देख
रहे हो, वह
केवल धूप—छाया
का खेल है।
परदे पर कुछ
है नहीं। परदा
बिलकुल खाली
है। जो दिखायी
पड़ रहा है, वह
सरासर झूठ है।
यह तुम जानते
हो, लेकिन
कई बार भूल
जाते हो। जब
कभी कोई फिल्म
में ऐसे क्षण
आते हैं, भावावेश
के, तुम
आविष्ट हो
जाते हो।
कोई
किसी की हत्या
कर रहा है, तुम्हारे
हृदय में भी
पीड़ा होने
लगती है। कोई
किसी स्त्री
को सता रहा है,
परेशान कर
रहा है, तुम
भी रीढ़ ऊंची
करके बैठ जाते
हो। बचाने की
उत्सुकता
पैदा होने
लगती है। दो
कारें भाग रही
हैं एक—दूसरे
के पीछे
पहाड़ों की
कगारों से; खतरा है; तुम
तब कुर्सी पर
टिके नहीं
बैठे रहते; तुम बिलकुल
सीधे बैठ जाते
हो। जैसे तुम
कार में बैठे
हो, जैसे
कि खुद का भी
जीवन खतरे में
है। तुम कंपने
लगते हो, तुम्हारा
हृदय जोर से धड़कने
लगता है। कोई
मर गया है, तुम
रोने लगते हो।
वह
तो अच्छा है
कि सिनेमागृह
में अंधेरा
होता है। लोग
अपने रुमाल
निकालकर, आंसू
पोंछकर, खीसे
में रख लेते
हैं। आंसू भी
आते हैं; तुम
हंसते भी हो; तुम डरते भी
हो; तुम
प्रसन्न भी
होते हो। ये
सब घटनाएं
घटती हैं। और
तुम भली— भाति
जानते हो कि
वहां परदा है।
और परदे पर
कुछ भी नहीं
हो रहा है, धूप—छाया
का खेल है।
लेकिन फिर भी
भूल— भूल जाता
है।
अगर
तुम्हें पूरी
तरह भी याद
रहे,
पूरे तीन
घंटे जब तुम
सिनेमागृह
में बैठे हो, पूरे समय याद
रहे कि वह सब
झूठ है, तो
भी परदे पर
धूप—छाया का
खेल तो जारी
रहेगा, तुम्हारे
जानने से खेल
नहीं मिट
जाएगा।
तुम्हारे
जानने से
तुम्हारे
भावावेश मिट
जाएंगे।
तुम्हारे
जानने से अब
तुम रोओगे
नहीं, हंसोगे
नहीं। या अगर
तुम रोओगे भी,
तो अभिनय
होगा; दूसरों
को दिखाने को
होगा, तुम्हारे
लिए न होगा।
अगर तुम हंसोगे
भी, तो
दूसरों के लिए
होगा, क्योंकि
दूसरे अभी
नहीं जागे हैं।
नाहक उनको
कष्ट क्यों
देना!
किसी
के घर में कोई
मर गया है, तो
तुम जाकर शायद
आंसू भी बहा
आओगे। लेकिन
भीतर तुम
जानते रहोगे,
सब धूप—छाया
का खेल है। न
कोई कभी मरता
है, न कभी
कोई मारा जाता
है। शरीर के
मरने से कभी
कोई मरता है? यह तो परदा
है। जो है, वह
सदा है।
लेकिन
यह तुम्हारी
प्रतीति है।
जिसका पति मर
गया है, जिसकी
पत्नी मर गई
है, जिसका
बेटा मर गया
है, उसको
तो अभी इसका
कोई बोध नहीं
है। वह तो
रस्सी को सांप
ही समझ रहा है।
तुम उसके लिए
रो भी आते हो।
तुम दो आंसू
भी गिरा आते
हो। लेकिन
तुम्हारे
भीतर कुछ भी
घटता नहीं।
तुम
निर्विकार ही
बने रहते हो। आंसू
तुम्हारे
भीतर गिरते
नहीं। उनका
घाव नहीं
छूटता। उनका
धब्बा नहीं
लगता।
कोई
हंसता है, तो
तुम हंस भी
लेते हो।
लेकिन तुम
जानते हो कि न
अब हंसने को
कुछ है, न
अब रोने को
कुछ है। संसार
चलता रहता है।
तुम्हारे लिए
स्वप्न हो गया,
इससे मिट
नहीं जाता।
वृक्षों में
फूल लगेंगे, पक्षी गीत
गाएंगे, लोग
प्रेम में
पड़ेंगे, मृत्युएं
होंगी, जन्म
होंगे, बैंड—बाजे
बजेंगे, विवाह
होगा, शहनाई
बजेगी, कोई
मरेगा, रामनाम
सत्त का पाठ
होगा, यह
सब चलता रहेगा।
तुम्हारे
लिए यह मिट
गया।
तुम्हारे लिए
मिट जाने का
अर्थ यह है कि
अब तुम इसमें
कुछ भी आविष्ट
नहीं होते।
तुम्हारे लिए
सब अभिनय हो
गया। लेकिन सब
जारी रहेगा।
भागकर
भी कहां जाना
है?
भागकर भी
क्या प्रयोजन
है? क्योंकि
भागे भी अगर
तुम, तो
कर्ता हो गए।
इसलिए कृष्ण
का सारा जोर
यह है कि भागों
मत, अन्यथा
भागना भी
कर्तृत्व है।
और भागने का
भी यह अर्थ
हुआ कि तुम
जिससे भागे, उसको तुमने
सच माना।
रस्सी थी, तुमने
सांप माना, तुम भाग खड़े
हुए। कोई
नासमझ लट्ठ
लेकर मारने
चला गया, कोई
नासमझ पीठ
करके भाग खड़ा
हुआ। लेकिन
समझदार न तो
भागता है और न
मारने जाता है,
वह सिर्फ
देखता है।
समझ
का नाम दर्शन
है;
वह सिर्फ
देखता है, वह
सिर्फ साक्षी
हो जाता है।
तब कुछ भी
छूता नहीं; तब तुम नदी
से निकल जाते
हो, पैर
में पानी नहीं
छूता। तब कबीर
ठीक कहते हैं,
तुम चदरिया
वापस लौटा
देते हो जीवन
की, वैसी
की वैसी, जैसी
पाई थी, एक
धब्बा नहीं
लगता।
इसलिए
अभिनय का
सूत्र खयाल
में रखो।
कृष्ण की सारी
गीता उसमें
समाई है। जीवन
अभिनय है, तब
तुम्हारे
साक्षी का
प्रादुर्भाव
होगा। और
निश्चित ही, भेद मत करना
कि हमारा जीवन
तो
आध्यात्मिक
है, इसलिए
यह अभिनय नहीं
है। यह अभिनय
है; आध्यात्मिक
अभिनय है। कोई
नीले, हरे
कपड़े पहने हुए
है; तुमने
गेरुआ पहने
हैं। यह
आध्यात्मिक
अभिनय है, यह
आखिरी अभिनय
है। इसके पार
फिर
पराकाष्ठा है।
इसको भी अभिनय
ही जानना।
संन्यास
को भी बहुत
गंभीरता से मत
लेना, अन्यथा
उलझ गए। जहां
गंभीर हुए
वहीं फंसे।
हलके मन से
लेना, जानते
हुए लेना।
संन्यास केवल
इस बात की
सूचना है कि
अब हमारे लिए
सब अभिनय है।
लेकिन इस सब
में संन्यास
भी समाविष्ट
है। यह इस बात
की खबर है कि
हमने अपनी
दुकान समेट ली।
अब अभिनय में
हमें कोई रस न
रहा।
वह
तुम्हारा
गैरिक रंग इस
बात की खबर है
कि लोग समझें
कि तुम्हें अब
अभिनय में रस
नहीं रहा। अगर
तुम वहां खड़े
भी हो, तो
इसीलिए कि
कहीं और जाने
को नहीं है।
लेकिन तुमने
कर्तृत्व
परमात्मा पर
छोड़ दिया। अब
तुम कर्ता
नहीं हो।
संन्यास
लिया नहीं जा
सकता, अगर
लिया, तो
तुम कर्ता हो
जाओगे।
संन्यास घटित
होता है, वह
समझ का फूल है।
जैसे —जैसे
तुम समझते हो,
वैसे घटित
होता है। एक
दिन घट जाता
है, अचानक
तुम पाते हो, संसार गया, संन्यास आ
गया। यह प्रभु
का प्रसाद है।
वह तुम्हारे
लिए भेंट है
परमात्मा की,
जैसे कि सभी
कुछ भेंट थी।
यह आखिरी भेंट
है। यह
तुम्हारी
जीवन—प्रौढ़ता
की सूचना
है
कि तुम जाग गए
हो।
आध्यात्मिक
खेल भी खेल
हैं। कोई पूजा
कर रहा है
मंदिर में, कोई
राम—राम जप
रहा है, कोई
राम—नाम की
चदरिया ओढ़े
हुए है, कोई
तीर्थयात्रा
को जा रहा है।
अगर इनके भीतर
कहीं भी कर्ता
का भाव है, तो
तुम चूक रहे
हो, तब तुम
गलती में पड़
रहे हो। अगर
कर्ता का कोई
भाव नहीं है, तो सब सुंदर
है।
सार
की बात इतनी
है कि कर्ता
का भाव ही इस
जगत में सब से
कुरूप घटना है।
और अकर्ता का
भाव ही इस जगत
में सौंदर्य
है। कठिन होगा।
क्योंकि
धार्मिक गुरु
तो तुम्हें
समझाते हैं कि
संसार छोड़ो, धर्म
को पकड़ो। वे
तो कहते हैं
कि संसार माया
है, धर्म
थोड़े ही माया
है। वे कहते
हैं, दुकान
माया है, मंदिर
थोड़े ही माया
है! बड़े मजे की
बात है। उसी
बाजार में
मंदिर खड़ा है,
जिस बाजार
में दुकान खड़ी
है।
जिन्होंने
दुकानें चलाई
हैं, उन्होंने
ही मंदिर
बनाया है। जो
दुकान को
चलाते हैं, वे ही मंदिर
के भी ट्रस्टी
हैं। दुकान पर
कमाते हैं, उसी से
मंदिर भी चलता
है। वह मंदिर
का पुजारी
दुकानदारों
का नौकर है।
जो सोना—चांदी
बाजार में
मूल्यवान है,
वही सोना—चांदी
मंदिर में
मूल्यवान है।
जो सिक्के
बाजार में
चलते हैं, उन्हीं
सिक्कों का
चलन मंदिर में
भी है।
मंदिर
बाजार के बाहर
नहीं है। मैं
यह कह भी नहीं
रहा हूं कि
होना चाहिए।
हो भी नहीं
सकता। मगर
जानना चाहिए
मंदिर को भी
कि तुम भी
बाजार के भीतर
हो।
इस
जगत में जो भी
किया जा सकता
है,
वह सभी
संसार है। जो
नहीं किया जा
सकता, वही
किरण जो
तुम्हारे
अकर्ता— भाव
से उठती है, वही किरण
संसार के बाहर
ले जाती है।
कर्तृत्व
संसार है, अहंकार
संसार है।
अकर्ता हो
जाना, निमित्त
हो जाना, अभिनेता
हो जाना मोक्ष
है, मुक्ति
है।
दूसरा
प्रश्न : जीवन
एक कथानक है, जिसमें
प्रत्येक
व्यक्ति का
अभिनय नियत है
और जिसे नियत
ढंग से उसे
अभिनीत भर
करना है, क्या
यही भाग्यवाद
नहीं है?
शब्द
बिगड़ गया; बहुत
चल—चलकर खोटा
हो गया।
अन्यथा बड़ा
प्यारा शब्द
है भाग्य।
भाग्य का अर्थ
है, चीजें
होती हैं, की
नहीं जातीं। भाग्य
का अर्थ है, कथानक तय है,
तुम नाहक
चिंता मत लो।
भाग्य का अर्थ
है, जो
होना है, होगा;
जो होना था,
हुआ है; जो
होना है, होता
रहेगा; तुम
सिर पर बोझ मत
लो। तुम
उत्तरदायी
नहीं हो।
जैसे
समझो, रामलीला
का खेल हो रहा
है; लीला
हो रही है।
राम भली—
भांति जानते
हैं कि सीता
चोरी जाएगी।
अब इसमें कोई
रात—रातभर
जागकर परेशान
होने की जरूरत
नहीं है। यह
सब तय है। यह
कथानक है।
सीता चोरी
जाएगी, राम
भटकेंगे जंगल—जंगल,
वृक्ष—वृक्ष
से पूछेंगे, कहां मेरी
सीता है! और
बड़े भाव से
पूछेंगे। और
फिर परदा
गिरेगा और
पीछे बैठकर वे
हंसेंगे और
गपशप करेंगे।
रावण भी वहीं
बैठे होंगे।
चाय पीएंगे; घर चले
जाएंगे।
इस
जीवन के बड़े
परदे के पीछे
राम—रावण सब
मिल जाते हैं; शत्रु—मित्र
सब मिल जाते
हैं। सब भेद
परदे पर सामने
हैं।
भाग्य
बड़ा प्यारा
शब्द था, लेकिन
खराब हो गया।
आदमी के हाथों
में चलते—चलते
सभी सिक्के
खराब हो जाते
हैं, बासे
हो जाते हैं, घिस जाते
हैं। बहुत दिन
चलने के बाद
शब्दों का
माधुर्य खो जाता
है।
भाग्य
का अर्थ
तुम्हारा निष्क्रिय
होकर बैठ जाना
नहीं है।
लेकिन वही
अर्थ हो गया।
भाग्य का अर्थ
अकर्मण्यता
नहीं है।
भाग्य का अर्थ
अकर्ता— भाव
है। दोनों में
बड़ा फर्क है।
लेकिन
आदमी कुशल है, चालबाज
है, चालाक
है, वह
मतलब की बात
निकाल लेता है।
उसने भाग्य से
अकर्ता— भाव
तो नहीं
निकाला, अकर्मण्यता
निकाली। उसने
कहा, फिर
करना ही क्या
है! जब सब अपने
आप हो ही रहा
है, तो
करना क्या है!
फिर होता
रहेगा। ऐसे वह
बैठ गया काहिल
होकर, सुस्त
होकर।
इस
सुस्ती और
काहिलपन से
तमस तो बढ़ा, सत्व
का कोई
प्रादुर्भाव
न हुआ। इससे
वह आलस्य में ड़बा,
अंधकार में
गिरा, प्रकाश
में न उठा। और
उसे एक बहाना
मिल गया कि सब
भाग्य है।
पूरा भारत ऐसे
ही तमस में
गिरा, कि
भाग्य है, करना
क्या है? जो
होना है, वह
होगा। हमारे
किए क्या हो
सकता है?
लेकिन
जिन्होंने
शब्द गढ़ा था, उनके
प्रयोजन बड़े
दूसरे थे।
उनका प्रयोजन
यह था कि
अकर्ता— भाव
को उपलब्ध
होना। करने
वाले तुम नहीं
हो, परमात्मा
है। वह जो
करवाए, करना।
तुम अकर्मण्य
होकर मत बैठ
जाना। भाग मत
खड़े होना। तुम
जीवन में चलते
रहना; कहना,
तू जो
करवाएगा हम
करेंगे। जो
तेरी मर्जी।
इसलिए अच्छा
होगा, तो
हम सुखी न
होंगे, बुरा
होगा, तो
दुखी न होंगे।
क्योंकि
हमारा कुछ
किया नहीं है,
सब तेरी
मर्जी है। तू
जान। आखिरी
हिसाब तेरे
पास है। बीज
तू बोता है; फसल तू
काटता है; हम
तो बीच के
रखवाले हैं।
हमारा कुछ भी
नहीं है। लेना—देना
हमारा नहीं है।
पसारा तेरा है।
थोड़ी देर को
तूने बिठा
दिया है, तो
दुकान पर बैठ
गए हैं। जब
उठा लेगा, उठ
जाएंगे।
दुकान हमारी
नहीं है। यहीं
पड़ी रह जाएगी।
ऐसी
भाव—दशा हो, तो
अकर्मण्यता
तो न आएगी; कर्म
बड़ा प्रखर हो
जाएगा, शुद्ध
हो जाएगा, तेजस्वी
हो जाएगा। और
कर्म के पीछे
से कर्ता हट
गया, तो
कर्म ही पूजा,
कर्म ही योग,
कर्म ही
साधना हो जाती
है। फिर कर्म
तुम्हें
निखारता है, सडाता नहीं।
फिर कर्म
तुम्हें
अग्नि से
गुजारता है, तुम्हें
कंचन बनाता है।
भाग्य
का अर्थ था, छोड़
दो परमात्मा
पर और जो वह
करवाए, किए
जाओ। हमने
मतलब लिया, जब वही कर
रहा है तो हम
क्यों करें!
छोड़ दिया उसी
पर, हम बैठ
रहे। अब हम न
करेंगे। जब
दुकान तेरी है,
तो तू ही
चला। हम चले।
या
तो दुकान
हमारी हो, तो
हम चलाने को
राजी हैं। या
दुकान तेरी है,
तो तू जान; हम चले।
दुकान हमारी
हो, तो हम
चलाएंगे, तो
चिंता पकड़ेगी।
दुकान हमारी न
हो, हम न
चलाएंगे!
तो
जीवन से अगर
कर्म खो जाए, तो
तेजस्विता खो
जाती है। ऐसे
ही जैसे झरना
बहना बंद कर
दे, तो सड़
जाता है।
वृक्ष बढ़ना
बंद कर दे, सड़
जाता है। जहां—जहां
गतिरोध आ जाता
है, वहीं—वहीं
सड़ाध हो जाती
है।
अगर
जीवन से कर्म
खो जाए, तो
तुम्हारा
झरना बहता
नहीं है।
चेतना बहती
नहीं है, यात्रा
नहीं करती।
तुम सड़ने
लगोगे, तुम
सरोवर बन
जाओगे, डबरे
हो जाओगे।
उसमें कीचड़ ही
कीचड़ होगा।
या
तो हम आलसी हो
जाते हैं। और
या हम कर्ता
हो जाते हैं।
और दोनों के
बीच में होने
की बात है।
आलसी होना
नहीं है, कर्ता
बनना नहीं है।
बस, उसको
जिसने पकड़
लिया, उसने
तलवार की धार
पकड़ ली। उसके
लिए मार्ग मिल
गया।
कर्ता
से बचना है, कर्म
से भागना नहीं
है। फिर तुमने
कृष्ण का सार
समझ लिया। फिर
भाग्य शब्द
बड़ा प्यारा है,
तब उसमें
बड़ी गरिमा है,
बड़ी महिमा
है। तब तुम इस
छोटे शब्द की
नाव पर बैठकर
पूरा भवसागर
तर जाओगे।
लेकिन
अगर तुमने
चालबाजी की, तो
जिस नाव से
आदमी तरल है, उसको ही अगर
उलटा ले, तो
उसी से ड़ब भी
जाता है।
जो
नाव तैराती है, वही
डुबा भी देती
है।
भाग्य
के शब्द को
तुमने उलटाकर
रख लिया है
अपने जीवन में।
उलटी नाव पर
यात्रा करना
चाह रहे हो! वह ड़ब—ड़ब
जाती है।
तीसरा
प्रश्न :
महाभारत को
आपने बहुत—बहुत
महिमा दी है, उसे
जीवन का पूरा
काव्य कहा है।
तब क्या यह
दावा सही है
कि जो महाभारत
में नहीं है, वह कहीं भी
नहीं है? और
क्या यह दावा
विराट जीवन को
सीमित नहीं
करता है?
दो हिस्सों
में समझें।
पहली
बात,
दावा सही है।
जो महाभारत
में नहीं है, वह कहीं भी
नहीं है।
महाभारत का
जन्म हुआ उस आत्यंतिक
शिखर पर, जहां
तक कोई भी
सभ्यता पहुंच
सकती है। जैसे
ऋतुओं में
वसंत है, और
वसंत में जो
सौंदर्य जाना
है, वह आत्यंतिक
है। फिर वर्ष
में बहुत बार
उसकी भनक
मिलेगी, लेकिन
शिखर तो वसंत
में ही छुआ
जाएगा।
हर
सभ्यता के
जीवन में वसंत
आता है। लेकिन
फिर वसंत के
बाद ही तो
उतार शुरू हो
जाते हैं। हर
सभ्यता अपने
ऊंचे शिखर पर
पहुंचती है।
फिर वहीं से
उतार शुरू हो
जाता है।
क्योंकि जहां
पूर्णता होती
है,
वहीं से
मृत्यु घटने
लगती है।
महाभारत
भारत की
सभ्यता का
आत्यंतिक
शिखर था। पर
शिखर से पतन
होता है। जैसे
गाड़ी का चाक
घूमता है, जो
हिस्सा ऊपर
पहुंचता है, ठीक ऊपर
पहुंच जाता है,
बस फिर नीचे
उतरना शुरू हो
जाता है। जैसे
जीवन का चाक
घूमता है, बच्चा
है, जवान
होता है, का
होता है, मरता
है।
तुमने
कभी खयाल किया
कि कब तुम बुढ़े
होने शुरू हो
जाते हो! ठीक
पैंतीस वर्ष
की उम्र में
तुम के होने
शुरू हो जाते
हो। पता
तुम्हें शायद
पचास साल की
उम्र में चलता
है,
वह दूसरी
बात है। लेकिन
के तो तुम
पैंतीस साल के
— अगर तुम
सत्तर साल
जीने वाले हो,
तो वर्तुल
सत्तर साल में
पूरा होगा, तो पैंतीस
साल में आखिरी
ऊंचाई छू लेगा।
तो
पैंतीस साल
में तुम्हारी
प्रतिभा अपने
निखार पर होती
है। शरीर अपनी
स्वास्थ्य की
आखिरी ऊंचाई
पर होता है।
फिर वहां से ऊर्जा
गिरनी शुरू
होती है।
इसलिए कोई
चालीस—पैंतालीस
के बीच हार्ट
अटैक और सब
तरह की बीमारियां
आनी शुरू होती
हैं। ऊर्जा
उतरने लगी।
मौत खबर देने
लगी,
द्वार पर
दस्तक मारने
लगी।
यह
उचित ही है कि
कृष्ण भारत के
परम शिखर हैं।
हमने उनको
पूर्णावतार
कहा है।
पूरब
की सभ्यता ने
अपनी
आत्यंतिक
ऊंचाई गौरीशंकर
को छुआ।
महाभारत में
वह सारा सार—निचोड़
है,
जो पूरब ने
जाना था अपनी
लंबी यात्रा
में जीवन की; हजारों
वर्षों का सार—निचोड़
है। लेकिन फिर
पतन हो गया, होना ही था।
तो
महाभारत
ऊंचाई भी है, और
पतन भी है।
वहीं से वर्तुल
फिर नीचे
उतरना शुरू
हुआ। फिर उस
ऊंचाई को हम
दुबारा नहीं
छू सके हैं अभी
तक। फिर हम
भटक रहे हैं, फिर हम खोज
रहे हैं।
और
भारत का मन
सदा ही पीछे
की तरफ लगा है।
क्योंकि जो
ऊंचाई हमने एक
दफा देख ली थी, जो
स्वर्ण—शिखर
हमने छू लिए
थे, वे
भूलते भी नहीं।
वे हमारे
स्वप्नों में
आ जाते हैं; हमारे काव्य
में उतरते हैं,
छाया की तरह
हमें वे घेरे
रहते हैं, उनका
माधुर्य हमें
बुलाता है।
इसलिए
सारी दुनिया
में भारत शायद
अकेला मुल्क
है,
जो पीछे की
तरफ देखता है।
अमेरिका में
लोग आगे की
तरफ देखते हैं।
उन्होंने अभी
अपना आखिरी
शिखर नहीं छुआ
है। जैसे छोटा
बच्चा भविष्य
की तरफ देखता
है, का
पीछे की तरफ
देखने लगता है।
अमेरिका में
लोग कल की
सोचते हैं।
भारत में हम
गए, बीते
कल की सोचते
हैं।
कारण
है। हमने
ऊंचाई देख ली, अब
उससे और ऊंचे
जाना संभव
नहीं मालूम
होता, असंभव
मालूम होता है।
महाभारत उस
सारी सभ्यता
का सार—निचोड़
है, जो
बिखर गई, खो
गई। और भी
सभ्यताएं
दुनिया में
पैदा हुई हैं,
बिखर गईं, खो गईं।
लेकिन वे अपना
सार—निचोड़ छोड़
नहीं पाईं।
जैसे
कि बेबीलोन की
सभ्यता खो गई।
कुछ थोड़े से
खंडहर रह गए
हैं। कोई ऐसा
महाग्रंथ
नहीं छूटा, जो
उनके पूरे
गौरव की कथा
कहता।
असीरिया
की सभ्यता खो
गई;
इजिप्त की
सभ्यता खो गई।
पिरामिड खड़े
हैं, पत्थर
के शिलालेख।
लेकिन शान—गरिमा
का कोई स्रोत
नहीं छूट गया
है, जिससे
कि हम फिर से
समझ लें कि
इजिप्त ने
क्या छुआ था
अपनी जवानी
में, अपनी
पूर्णता की
अवस्था में!
यौवन की आखिरी
ऊंचाई पर
इजिप्त ने
क्या जाना था, कहना
मुश्किल है।
कल्पना की जा
सकती है।
अकेला
भारत ऐसा
मुल्क है कि
उसने जो जाना
था,
वह महाभारत
में छूट गया
है। वह लिखा
हुआ है। आज उस
पर भरोसा भी
नहीं आ सकता।
बहुत—सी बातें
गैर— भरोसे की
हो. गई हैं।
क्योंकि
उन्हें आज
सिद्ध करना भी
मुश्किल है।
लेकिन जैसे—जैसे
विज्ञान की
खोज आगे बढती
है, वैसे—वैसे
लगता है कि जो
भी महाभारत
में लिखा है, वह सब सही
हुआ होगा।
क्योंकि
विज्ञान उस सब
को फिर से
प्रत्यक्ष किए
ले रहा है।
अब
यह थोड़ा सोचने
जैसा है कि
महाभारत में
जिन अस्त्र—शस्त्रों
की धारणा है, वे
ठीक आणविक
मालूम होते
हैं। उनसे
जैसा विराट
विध्वंस हुआ,
वह केवल अणु
अस्त्रों से
हो सकता है।
पश्चिम
फिर अणु
अस्त्रों के
करीब पहुंच
गया है। और इस
बात की
संभावना है कि
अगर कोई तीसरा
महायुद्ध हुआ, तो
सारी सभ्यता
विनष्ट हो
जाएगी। फिर जो
उल्लेख रह
जाएंगे, हजारों
साल तक उन पर
भरोसा न आएगा
कि यह हो सकता
है, क्योंकि
उनका कोई
प्रमाण न छूट
जाएगा।
और
आश्चर्य की
बात यह है कि
जब भी कोई
सभ्यता नष्ट
होती है, तो
उसके महानगर,
जहां
सभ्यता
केंद्रित
होती है, पहले
नष्ट होते हैं।
छोटे गांव, दूर आदिम
कबीले बच जाते
हैं। जैसे आज
अगर भारत नष्ट
हो जाए और
बस्तर के
आदिवासी बच जाएं,
तो उनकी
कहानियों में
यह बात रह
जाएगी कि रेलगाड़ियां
चलती थीं, हवाई
जहाज उड़ते थे।
लेकिन वे अपने
बच्चों को
समझा न सकेंगे।
और अगर बच्चे
पूछेंगे, कैसे
उड़ते थे? तो
बस्तर का
आदिवासी कैसे
समझाएगा कि
हवाई जहाज कैसे
उड़ता था! उसने
देखा था उड़ते
हुए, बाकी
कैसे उड़ता था,
यह बस्तर का
आदिवासी कैसे
समझाएगा! वह
तो पूरा
शास्त्र है
उसको समझना तो।
अगर
तीसरा
महायुद्ध हुआ, तो
न्यूयार्क, लंदन, बंबई,
दिल्ली, पेरिस
नष्ट हो
जाएंगे; महानगरिया
तो नष्ट हो
जाएंगी।
बचेंगे छोटे—मोटे
गांव, दूर
पहाड़ों में
दबे। उनकी
कहानियों में
याद रह जाएगी।
और हजारों साल
तक वे कहानियां
दोहराएंगे, और बड़े उससे
दोहराएंगे कि
हमने जाना है।
लेकिन बच्चों
को संदेह होगा,
क्योंकि सब कहानियां
मालूम होती
हैं; कोई
प्रमाण उनके
पास न होगा।
जब
भी कोई महा
सभ्यता खोती
है,
तो उसके
सारे प्रमाण
टूट जाते हैं।
यह
जो कहा जाता
है कि महाभारत
में जो है, वह
सब है, और
जो वहां नहीं
है, वह
कहीं भी नहीं
है, वह
बहुत अर्थों
में सही है।
क्योंकि
जब भी कोई एक
सभ्यता अपनी
ऊंचाई को छूती
है,
तो वह उन
सभी बातों को
छू लेती है, जो कोई भी
सभ्यता अपनी
ऊंचाई में
छुएगी। थोड़े—बहुत
फर्क फासले
होंगे, लेकिन
मौलिक बात एक
ही होने वाली
है।
मैं
भी कहता हूं
कि जो महाभारत
में नहीं है, वह
कहीं भी नहीं
है। अगर न
मिले महाभारत
में, तो
जरा गौर से
खोजना। बस, मिल जाएगा।
जो भी तुम्हें
कहीं मिल जाए,
उसको तुम
महाभारत में
गौर से खोजना।
महाभारत
हमारा
इनसाइक्लोपीडिया
ब्रिटानिका
है। जैसे कि
जो तुम्हें
इनसाइक्लोपीडिया
ब्रिटानिका
में न मिले, वह
समझना कि होगा
ही नहीं। वह
उनका सार संचय
है। अगर योरोप
की सभ्यता खो
जाए और
ब्रिटानिका
रह जाए, तो जैसी
हालत होगी, वैसे ही
महाभारत रह
गया, हमारी
सभ्यता खो गई।
वह
हमारा
शब्दकोश, हमारा
भाषाकोश, हमारा
ज्ञानकोश, विश्वकोश,
सब कुछ है।
यद्यपि उन
दिनों चीजों
को कहने के
ढंग अलग थे।
कथाओं में
हमने कहा था।
और वे कहने के
ढंग भी सोचने
जैसे हैं।
कथाओं
को याद रखना
आसान है; हजारों
साल तक याद
रखा जा सकता
है। क्योंकि
कहानी में
याददाश्त में
उतर जाने की एक
क्षमता होती
है। इसलिए
हमने
कहानियों में
लिखा था। और
कहानियों में
हमने सब रख
दिया था। जब
भी किसी के
पास आंख होगी,
खोलने की
समझ होगी, कुंजी
होगी, वह
खोल लेगा।
और
महाभारत के
मध्य में है
गीता।
महाभारत में
सब है। जो
महाभारत में
नहीं है, वह
कहीं भी नहीं।
और जो भी
महाभारत में
है, उसका
नवनीत गीता
में है। और जो
गीता में नहीं
है, वह
महाभारत में
नहीं है। गीता
हमारी सारी
आध्यात्मिक
खोज की नवनीत
श्रृंखला है।
दूसरा
सवाल है, तब तो
इसका अर्थ यह
हुआ कि विराट
जीवन की हमने
सीमा बांध दी
महाभारत से?
नहीं, इससे
केवल इतना ही
साफ होता है
कि विराट भी
क्षुद्र में
समा सकता है, बड़ा वृक्ष
भी बीज में
समा सकता है।
इसका इतना ही
अर्थ हुआ कि
क्षुद्र को
क्षुद्र मत
जानना, उसमें
विराट छिपा हो
सकता है। इससे
विराट की सीमा
नहीं बंधती, इससे
क्षुद्र
विराट होता है।
यह देखने के
ढंग पर निर्भर
है।
ऐसा
भी तुम देख
सकते हो कि यह
तो विराट की
सीमा बंध गई, विराट
जीवन बस
महाभारत में
हो गया।
नहीं; इससे
विराट की सीमा
नहीं बंधती।
इससे केवल
इतना ही पता
चलता है कि
क्षुद्र भी विराट
है, बीज भी
वृक्ष है, अणु
भी ब्रह्मांड
है।
एक
छोटी—सी बूंद
में सागर का
सारा राज
समाया होता है।
—तब तुम नहीं
कहते कि यह तो
सागर की सीमा
बंध गई! एक
सागर की बूंद
को तुम ठीक से
जान लो, पूरा
सागर जान लिया।
कुछ जानने को
बचता नहीं।
अगर एक बूंद
का विश्लेषण
कर लिया और
जान लिया कि
एच टू ओ उसका
सूत्र है, सारा
सागर
विश्लिष्ट हो
गया। अब
तुम्हें पूरे
सागरो को
विश्लिष्ट
करने की जरूरत
नहीं है। एक
बूंद पहचान ली
कि सब महासागर
पहचान लिए।
ये
सारे ग्रंथ
सूत्रों में
हैं,
एक—एक सूत्र
में हजारों—हजारों
लोगों के
अनुभव का सार
समाया हुआ है।
उन्हें बड़ा
मंथन करके, बड़े चिंतन
से, बड़े
ध्यान से
निर्मित किया
गया है। इसलिए
हम उनको सूत्र
कहते हैं। वे
बीजरूप हैं।
एक
छोटा—सा वचन
है। उसको तुम
छोटा मत समझना।
उसके परिणाम
विराट हैं। एक
छोटी—सी
चिनगारी है, उसे
तुम छोटी मत
समझना। उस
छोटी—सी
चिनगारी से
सारा
ब्रह्माड राख
हो सकता है।
नहीं, विराट
की कोई सीमा
नहीं बंधती, केवल
क्षुद्र की
सीमा टूट जाती
है।
असल
में क्षुद्र
और विराट दो
तो हो ही नहीं
सकते। अगर
विराट है, तो
क्षुद्र है ही
नहीं।
क्योंकि
क्षुद्र में
भी विराट ही
होगा। और अगर
क्षुद्र है, तो विराट हो
ही नहीं सकता।
क्यौंकि फिर
क्षुद्र का ही
जोड़ तो विराट
होगा, वह
कैसे विराट हो
सकेगा!
इसे
ठीक से खयाल
में ले लो।
चूंकि सारा
अस्तित्व
असीम है, इसलिए
इसका हर खंड
भी असीम ही
होगा।
क्योंकि
सीमित खंडों
से मिलकर असीम
नहीं बन सकता।
यह गणित की एक
सीधी —सी
धारणा है।
अगर
हम सीमित
खंडों को
जोड़ते जाएं, तो
कितनी हो बड़ी
चीज बन सकती
है, लेकिन
असीम नहीं बन
सकती।
क्योंकि
सीमित टुकड़ों
को जोडकर असीम
कैसे बनेगा? ईंट पर ईंट
रखते जाओ, तुम
बड़ा महल बना
सकते हो, लेकिन
असीम नहीं बना
सकते। ठीक
विपरीत चलो।
अगर यह
अस्तित्व
असीम है, इसका
कोई आदि नहीं,
अंत नहो, तो इसका खंड—खंड
भी असीम होगा।
नहीं तो खंडित
सीमाओं से बने
हुए इस विराट
की भी सीमा हो
जाएगी।
क्षुद्र भी
क्षुद्र नहीं
है, जानने
वालों ने ऐसा
ही जाना है।
छोटा भी छोटा
नहीं है, बूंद
भी बूंद नहीं
है, जानने
वालों ने ऐसा
ही जाना है।
चौथा
प्रश्न : आपने
कहा कि महावीर
हिंसा के भय से
अनेक कर्मो से
बचते रहे। यह
हिंसा का भय
था अथवा
अहिंसा और
करुणा का उद्रेक?
महावीर
के लिए तो
अहिंसा और
करुणा का
उद्रेक ही था, लेकिन
महावीर के
अनुयायियों
के लिए हिंसा
का भय। वहीं
सदगुरु और अनुयायियों
में फर्क पड़
जाता है। कारण
बदल जाते हैं,
कृत्य एक से
मालूम पड़ते
हैं।
अगर
करुणा का
उद्रेक हुआ हो, तो
तुम दूसरा मर
न जाए, इससे
चिंतित नहीं
हो, क्योंकि
तुम जानते ही
हो कि मृत्यु
तो घटती ही
नहीं। तुम
सिर्फ इससे
चिंतित हो कि
मेरे कारण
पीड़ा न
पहुंचे! अकारण
मैं किसी की
पीड़ा के लिए
आधार न बनूं!
तुम्हारी
करुणा के कारण
ही तुम अपने
को हटाते हो उन—उन
जगह से, जहां
किसी कै लिए
पीड़ा बन सकती
थी, दुख हो
सकता था।
महावीर
तो बचते हैं
इसीलिए कि
महाकरुणा का
जन्म हुआ है।
लेकिन महावीर
के पीछे चलने
वाला
महाकरुणा के जन्म
के कारण नहीं
बच रहा है। वह
केवल हिंसा न
हो जाए, हिंसा
होकर कहीं पाप
न लग जाए, पाप
लगकर कहीं
नर्क में न
पड़ना पड़े, कर्मबंध
न हो जाए, वह
हिसाब कर रहा
है। उसे दूसरे
से प्रयोजन
नहीं है। उसे
अपने से ही
प्रयोजन है।
वह हिसाब
स्वार्थ का ही
है।
लेकिन
दोनों के
कृत्य एक जैसे
हैं। पहचानना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
दोनों बचते
हैं। और बाहर
से कोई भेद
करना आसान
नहीं है।
इसलिए
प्रत्येक को
अपने भीतर ही
भेद करने की क्षमता
पैदा करनी
चाहिए कि मैं
किस कारण बच
रहा हूं!
तुम
किसी को दान
देते हो, तुम
दान इसलिए भी
दे सकते हो कि
देने में
तुम्हें आनंद
आता है। तुम
दान इसलिए भी
दे सकते हो कि
दान इनवेस्टमेंट
है। भविष्य
में, मोक्ष
में, स्वर्ग
में कहीं
प्रतिकार, प्रत्युत्तर
मिलेगा। तब
तुम ब्याज
सहित लेने की
तैयारी रखोगे।
तुम
दान इसलिए भी
दे सकते हो कि
यह आदमी सामने
खड़ा है, मोहल्ले
में परेशानी होती
है, बेइज्जती
होती है। यह
मांगे चला जा
रहा है और तुम
दो पैसा नहीं
दे रहे हो।
तुम पड़ोस में
प्रतिष्ठा
बचाने के लिए
दान दे सकते
हो। तुम इससे
छुटकारा पाने
के लिए दान दे
सकते हो।
हर
हालत में
कृत्य एक ही
होगा कि तुमने
कुछ दिया, लेकिन
हर हालत में
कृत्य का गुणधर्म
बदल जाएगा।
अगर तुमने
आनंद— भाव से
दिया है, तो
ही दिया। अगर
तुम इससे
छुटकारा पाना
चाहते हो, तो
तुमने रिश्वत
दी; कि
बाबा, क्षमा
कर; यहां
से हट; कहीं
और जा। ये दो
पैसे ले और
छुटकारा कर।
तुमने रिश्वत
दी।
अगर
तुम पड़ोस के
लोगों को
दिखाना चाहते
हो कि तुम
महादानी हो—दो
पैसे से
महादानी होने
में किसको लोभ
नहीं सताता—तो
तुमने पड़ोस के
लोगों से
अहंकार खरीदा, तुमने
सौदा किया।
अगर तुमने
इसलिए दिया कि
स्वर्ग में
इसका प्रतिफल
पाओगे और अपने
हिसाब की
किताब में लिख
लोगे कि ब्याज
सहित
परमात्मा से
वसूल करना है.।
मैंने
सुना है, एक
मारवाड़ी मरा।
कुछ भूल—चूक
हो गई : वह सीधा
स्वर्ग पहुंच
गया।
द्वारपाल भी
देखकर उसे
घबड़ाया कि
मारवाड़ी और स्वर्ग
आ गया! उसने
कहा, आप
यहां कैसे? उसने कहा कि
यहां क्यों न
आऊंगा; दान
दिया है।
द्वारपाल
भी डरा। खाते—बही
खोले, देखा कि
तीन पैसे उसने
एक बुढ़िया को
दिए हैं। तीन
पैसों के बल
वह स्वर्ग आ
गया है। और
द्वार पर उसने
ऐसे दस्तक दी
है कि जैसे
उसने सब जीवन
लुटा दिया हो
दान में।
द्वारपाल ने
अपने सहयोगी
से पूछा कि अब
क्या करना?
यह छोड़ेगा
नहीं। यह
ब्याज सहित
वसूल करेगा, यह जिस अकड़
से खड़ा है।
करना क्या है?
सहयोगी
ने खीसे में
हाथ डाला, चार
पैसे निकालकर
उसको दे दिए
कि ले, यह
तू चार पैसे
ले और नर्क जा।
और कोई उपाय
नहीं है। तू
अपना दान
ब्याज सहित
वापस ले ले और
नर्क में
निवास कर।
कृत्य तो एक
जैसे हो सकते
हैं। कृत्य का
सवाल ही नहीं
है। वह भाव—दशा,
वह अंत:स्रोत
जिससे कृत्य डुबकर
आता है, जिसमें
से निकलता है,
वही
निर्णायक है।
और उसके लिए
तुम्हारे
सिवाय और कोई
नहीं जांच
सकता कि तुम
कैसे कर रहे
हो।
महावीर
की फिक्र छोड़ो।
महावीर भय के
कारण कर रहे
हैं,
करुणा के
कारण कर रहे
हैं, महावीर
जानें। तुम
अपने जीवन को
जांचकर चलो।
तुम जो भी करो,
वह
नकारात्मक न
हो, विधायक
हो। वह प्रेम
से निकले, करुणा
से निकले, देने
के भाव से
निकले, बांटने
से निकले, तो
तुम्हें
अहोभाव
उपलब्ध होगा।
स्वर्ग में
नहीं, क्योंकि
इतनी देर नहीं
है, यहीं
और अभी। प्रेम
से किए गए
कृत्य में ही
तुम्हें आनंद की
झलक मिल जाएगी।
फल दूर थोड़े
ही है। मैं उन
लोगों में
भरोसा नहीं
करता, जो
कहते हैं, तुम
करोगे अभी, और स्वर्ग
में या नर्क
में फल पाओगे
या अगले जन्म
में फल पाओगे!
हाथ तो तुम आग
में अभी डालोंगे,
अगले जन्म
में जलोगे।
मैं नहीं मानता।
हाथ आग में
अभी डालोंगे,
अभी जलोगे।
फूलों के
बगीचे से अभी
गुजरोगे, अभी
सुगंध लोगे।
जीवन
तो बहुत नगद
है। उधार की
बात ही कुछ
शरारत की
मालूम पड़ती है।
उसमें कुछ
चालबाजी है, कुछ
चालाक लोगों
का हाथ है। वे
तुम्हें भरमा
रहे हैं।
जीवन
बिलकुल नगद है।
होना भी चाहिए।
जीवन कल के
क्षण पर अपने
को छोड़ता ही
नहीं। तुमने
प्रेम किया, तुम
इसी क्षण आनंद
से मगन हुए।
तुमने घृणा की,
तुम इसी
क्षण नर्क की
अग्नि में जले।
तुमने क्रोध
किया, तुमने
विष पीया।
तुमने क्षमा
की, तुमने
अमृत चखा। इसी
क्षण! कृत्य
में ही छिपा
है फल। उससे
दूर जाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
आखिरी
दो छोटे
प्रश्न।
क्या
बुद्धत्व को
उपलब्ध होना
भी नियत है? अगर
ऐसा है, तो
फिर कुछ करने
या न करने से
क्या फर्क
पड़ता है?
कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता; लेकिन
करना जारी
रखना। करना
अभिनय की तरह।
बुद्धत्व
तुम्हारे
द्वार अपने आप
आ जाएगा।
बुद्धत्व का
किसी करने, न करने से
कोई संबंध भी
नहीं है।
बुद्धत्व का
संबंध साक्षी—
भाव से है।
जाग गया जो, उसे हम
बुद्ध कहते
हैं।
अहंकार
सुलाए हुए है।
वह तुम्हारी
नींद है। बस, अहंकार
टूट जाए, करने
का भाव गिर
जाए। करना
जारी रखना।
क्योंकि
तुम्हारी
जल्दी है करना
ही छोड़ने की, करने का भाव
गिराने की
जल्दी नहीं है।
तुम
चाहते हो, जब
कुछ फर्क ही
नहीं पड़ता; बुद्धत्व
नियत ही है; तो बस आंख
बंद करो, चादर
ओढो, सो
जाओ। तो बुद्ध
कोई पागल नहीं
थे, नहीं
तो वे भी चादर
ओढ़कर सो गए
होते!
बुद्धत्व
नियत है, वह
होगा ही, वह
घटेगा ही। देर
कितनी ही कर
सकते हो।
कितने ही भटको,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि
बुद्धत्व
तुम्हारा
स्वभाव है।
लेकिन अगर
चादर ओढ़कर सोए
रहे, तो
बहुत लंबा हो
जाएगा भटकाव।
बुद्धत्व तो
मिलेगा आखिर
में। जब भी
चादर से उठोगे,
आंख खोलोगे;
पाओगे, तुम
बुद्धत्व को उपलब्ध
हो।
आंख
खोलने की कला
है,
साक्षी हो
जाना, कर्ता
न होना। इसलिए
कर्म छोड़ने की
जल्दी मत करना,
कर्ता— भाव
को गिराने की
फिक्र करो।
और
दूसरा प्रश्न
है,
साक्षी— भाव
से अभिनय की
कला तो आती
दिखती है, पर
आनंद— भाव
क्यों कर नहीं
जुड़ पाता?
तब तुम
अभिनय का भी अभिनय
ही कर रहे हो।
वह असली नहीं
है। अभिनय
असली होना
चाहिए। अगर
तुमने अभिनय
का भी अभिनय
किया, कि भीतर
तो तुम जानते
हो कि कर्ता
हो, मगर अब
क्या करें, यह कृष्ण
पीछे पड़े हैं;
चलो, अभिनय
करो! तो आनंद
का भाव उदय
नहीं होगा।
आनंद का भाव
तो कसौटी है
कि तुमने अगर
अभिनय अभिनय
की तरह किया, तो आनंद— भाव
घटता ही है, उसमें कभी
कोई अंतर नहीं
पड़ता। वह होता
ही नहीं उससे
विपरीत।
तो
वह परीक्षा है।
अगर आनंद न
घटे,
तो समझना, अभिनय भी
झूठा है। अगर
आनंद घटे, तो
समझना कि
तुमने अभिनय
का सूत्र पकड़
लिया है। तुम
राह पर हो, ठीक
मार्ग पर हो।
मंदिर दूर भला
हो, बहुत
दूर नहीं है।
कलश उसके
दिखाई पड़ने
लगेंगे, आनंद
थिरकने लगेगा।
सच्चिदानंद
ज्यादा दूर
नहीं है, जब
आनंद थिरकने
लगे।
अब
सूत्र :
तथा
हे अर्जुन, आसक्तिरहित
बुद्धि वाला,
स्पृहारहित
और जीते हुए
अंतःकरण वाला
पुरुष संन्यास
के द्वारा भी
परम
नैष्कर्म्य
सिद्धि को
प्राप्त होता
है अर्थात
क्रियारहित
हुआ शुद्ध
सच्चिदानंदघन
परमात्मा की
प्राप्तिरूप
परम सिद्धि को
प्राप्त होता
है।
कृष्ण
को सभी
स्वीकार है।
उनके स्वीकार
पर कोई शर्त
और सीमा नहीं
है। वे बड़े
बेशर्त आदमी
हैं। वे कहते
हैं,
संन्यास की
कोई जरूरत
नहीं है
अर्जुन। तू
जहां है, वहीं
कर्म को करते
हुए, फलाकांक्षा
के त्याग से
त्याग सिद्ध
हो जाता है।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि जो संन्यास
ले लेते हैं, दूर हिमालय
में खो जाते
हैं, स्वात
में चले जाते
हैं, उन्हें
परमात्मा
नहीं मिलता।
हम
जल्दी ही
धारणाएं खड़ी
कर लेते हैं।
एक तरफ लोग
हैं,
जो कहते हैं,
जब तक
संन्यस्त
होकर सब न छोड़
दोगे, तब
तक मोक्ष न
मिलेगा। इनके
विपरीत दूसरी
तरफ लोग हैं, वे कहते हैं,
संन्यस्त
का सवाल ही
क्या है!
संसार में ही
रहना है। कर्म
करना है, परमात्मा
पर कर्ता — भाव
छोड़ देना है।
बस, मोक्ष
मिल जाएगा।
जो
दूसरी बात
मानते हैं, उनको
संन्यासी गलत
मालूम होता है।
जो पहली बात
मानते हैं, उनको दूसरा
आदमी गलत
मालूम होता है।
कृष्ण का कोई
भी पक्षपात
नहीं है।
कृष्ण कहते
हैं, कुछ
लोग ऐसे भी
होंगे, जिनसे
परमात्मा
संन्यास ही
करवाना चाहता
है। इसे थोडा
समझना, यह
थोड़ा नाजुक है।
क्योंकि कुछ
लोग जरूर ऐसे
होंगे। अब
जैसे कि
अर्जुन समझ
गया, उसके
संदेह क्षीण
हो गए, वह
युद्ध में उतर
गया। क्या तुम
सोचते हो, अर्जुन
की जगह
सिद्धार्थ
गौतम होते, बुद्ध होते
या वर्धमान
महावीर होते,
तो भी ऐसी
ही घटना घटती?
नहीं, महावीर
के होने में
ही कुछ ऐसा है
कि उसमें से संन्यास
का फूल ही
निकलेगा।
महावीर ने
संन्यास अपने
पर थोपा थोड़े
ही है। वह
संन्यास भी
परमात्मा ने
ही करवाया है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
संन्यासी
भी उपलब्ध हो
जाता है। वे
यह नहीं कह
रहे हैं कि तू
ऐसा मत सोच
लेना कि
संन्यासी
उपलब्ध होता
ही नहीं।
उपलब्ध होने
का सूत्र न तो
संन्यास है, न गृहस्थ है।
उपलब्ध होने
का सूत्र फलाकांक्षा
का त्याग है।
फिर चाहे तुम
घर में
फलाकांक्षा
का त्याग कर दो,
अगर
तुम्हें घर
मौजूं आए।
कुछ
लोग हैं, जिन्हें
बेघर होना ही
मौजूं आता है।
वह उनके
स्वभाव में है।
वह उनका
स्वधर्म है।
उनको भी रोकना
उचित नहीं है।
वे जब तक बेघर
न हो जाएं, तब
तक उन्हें ठीक
ही न लगेगा।
वे स्वभाव से
बेघर, स्वभाव
से परिव्राजक,
भटकने वाले
हैं। उनको घर
में बांध दोगे,
तो मौत हो
जाएगी। उनके
लिए घर
कारागृह मालूम
होगा।
जैसे
संसार में
स्त्रियां
हैं और पुरुष
हैं;
दोनों
विपरीत हैं, दोनों भिन्न
हैं, दोनों
के जीवन—कोण
और मनस अलग—अलग
हैं। ऐसे ही
जीवन में हर
पहलू पर
विपरीत लोग
हैं। कुछ हैं,
जो गृहस्थ
हैं। कुछ हैं,
जो
संन्यस्त हैं।
वह उनके
स्वभाव में है।
तो
सारे लोगों को
जबरदस्ती
संन्यासी बना
दो,
तो उपद्रव
होगा, क्योंकि
उसमें कई
गृहस्थ फंस
जाएंगे। अगर
गृहस्थ को
तुमने
संन्यासी बना
दिया, वह
जल्दी ही
संन्यास में
भी गृहस्थ—
धर्म को
उपलब्ध हो
जाएगा। वह
जल्दी ही अपने
संन्यास को भी
घर बना
लेगा।
वहां भी सारी
दुनिया धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे आ जाएगी;
बच न सकेगा।
उसका कोई उपाय
नहीं है। उसके
गृहस्थ का
सूत्र उसके
भीतर है। बचने
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
तुम उसे जहां
बैठा दोगे, वहीं वह
अपना काम शुरू
कर देगा।
मैंने
सुना है, एक जहाज
से कुछ यात्री
यात्रा कर रहे
थे। एक बड़ी
भयंकर मछली ने
हमला किया।
कोई उपाय न था।
जहाज छोटा था,
और मछली
डुबा सकती थी।
तो उन्होंने
मछली के मुंह
में भोजन
फेंका, ताकि
वह भोजन कर ले,
शांत हो जाए।
वह थोड़ी देर शांत
रहे, फिर आ
जाए। फिर
उन्होंने और
सामान भी
फेंकना शुरू
किया। फिर ऐसी
हालत आ गई कि
उससे भी काम न
चला। भोजन
फेंक चुके, फर्नीचर भी
फेंक दिया।
फिर आदमियों
को फेंकने की
नौबत आ गई! तो
नाम डाले, क्योंकि
कोई फिंकने को
राजी नहीं। एक
यहूदी फंस गया।
उसको फेंक
दिया।
फिर
उन्होंने
देखा, उससे भी
कोई हल नहीं।
तो उन्होंने
सोचा, ऐसे
तो सब के
प्राण जाएंगे,
अब इससे
संघर्ष ही कर
लेना चाहिए।
तो भाले लेकर
वे कूद पड़े।
मछली
उन्होंने मार
डाली। जब मछली
का पेट फाड़ा, तो कहानी यह
कहती है कि वह
जो फर्नीचर
उन्होंने।
फेंका था—यहूदी
कुर्सी पर
बैठा था, टेबल
उसने सामने रख
ली थी, और
जो भोजन फेंका
था, उसकी
दुकान लगा ली
थी। और मछली
जिन लोगों को
पहले खा चुकी
थी, उनको
वह आने, दो—दो
आने में सामान
बेच रहा था।
कुछ
आप कर नहीं
सकते। यहूदी
यानी यहूदी!
उसको मारो, कहीं
भी भेजो, क्या
करोगे। वह
जहां जाएगा, वहां दुकान
बना लेगा।
कहानी मुझे
ठीक लगती है।
लोगों का
स्वभाव है!
संसार
में दो तरह के
लोग हैं। एक, जिनको
हम गृहस्थ
कहें; और
एक, जिनको
हम संन्यस्त।
वे स्त्री—पुरुषों
जैसे ही हैं।
उन दोनों का
तालमेल है।
और
संन्यस्त को
भी अगर जीना
हो,
तो उसको भी
कुछ गृहस्थ
चाहिए।
महावीर
बिलकुल
संन्यस्त हैं।
लेकिन जीना तो
पड़ेगा
गृहस्थों पर
ही। हाथ में
लोटा भी नहीं
रखते, भिक्षापात्र
भी नहीं रखते।
पर इससे क्या
फर्क पड़ता
है! दूसरे हैं,
जो उनके लिए
भोजन तैयार कर
रहे हैं।
जैन
मुनि चलते हैं, तो
उनके पीछे
चौका चलता है।
मैं बड़ा हैरान
हुआ कि यह
चौका क्या
मामला है! क्योंकि
जैन मुनि चलता
है, वह हर
गांव में
सिर्फ जैन के
घर ही भोजन ले
सकता है। हर
किसी के घर तो
भोजन ले नहीं
सकता। और उसके
योग्य शुद्ध
आहार मिले, न मिले। तो
भक्त उसके
चौका लेकर
चलते हैं।
और
एक चौका नहीं
चलता। जितना
बड़ा मुनि हो, उतने
ज्यादा चौके
चलते हैं।
मुनि की
प्रतिष्ठा पर
निर्भर है।
साधारण मुनि हुआ,
तो एक महिला
एक पुरुष, ऐसे
दो—तीन लोग
चलते हैं। वे
कहीं भी जंगल
में, गांव
में चौका लगा
देते हैं। वह
आकर अपना भोजन
ग्रहण कर लेता
है।
लेकिन
अगर बड़ा मुनि
हो,
तो मुनि—
धर्म का यह
नियम है कि वह
मांगकर न खाए।
तो मुनि सुबह
ही प्रतिज्ञा
ले लेता है
अपने मन में? कि जिस घर के
सामने दो केले
लटके होंगे, वहीं भोजन
लूंगा। यह
उसके भाग्य पर
छोड़ने का ढंग
है। यह उसने
भाग्य पर छोड़
दिया। न लटके
होंगे केले
किसी के घर के
सामने, बात
खतम हो गई, आज
भोजन नहीं
लूंगा।
यह
जब शुरू हुई
थी बात, तो
बडी
महत्वपूर्ण
थी, बड़ी
गहरी थी। इसका
मतलब था कि अब
इतना भी कर्ता—
भाव उसने अपने
लिए नहीं रखा
है। अगर
परमात्मा को
देना ही है, तो लटकाएगा
दो केले। कभी—कभी
मुनि इस तरह
की धारणा कर
लेते थे कि
महीनों लग
जाते थे, पूरी
न होती थी।
महावीर
कई बार गांव
में आते और
वापस लौटे
जाते। और वे
किसी को बताते
नहीं थे, क्योंकि
बता दिया तो
बात ही खतम हो गई।
वह तो भीतर ही
रखनी है। सुबह
की प्रार्थना
के वक्त, ध्यान
के वक्त तय कर
लेना है कि आज
क्या! एक प्रतीक।
महावीर
ने एक बार ऐसा
कर लिया कि
प्रतीक आ गया कि
जिस घर के
सामने गाय खड़ी
हो,
काले रंग की
गाय हो, सफेद
चिट्टे हों, सींग में
गुड़ लगा हो।
खूब
दूर की सोची
उन्होंने भी।
वे कई दिनों
तक गांव में
गए और नहीं
भोजन मिला, क्योंकि
अब यह कोई
रोजमर्रा की
बात तो नहीं
है कि गाय खड़ी
हो और फिर
उसके सींग
में.!
लेकिन
एक दिन ऐसा
हुआ। बैलगाड़ी
में गुड़ भरा
निकलता था, एक
गाय ने सींग
मार दिया होगा;
उसके सींग
में गुड़ लग
गया। वह घर के
सामने खड़ी थी।
पर
इतने से ही
कुछ हल नहीं
होता। घर के
लोग
प्रार्थना
करें कि आप
भोजन स्वीकार
करें। अगर घर
के लोग
प्रार्थना न
करें, तो गाय
के खड़े होने
से क्या होने
वाला है! क्योंकि
महावीर की
धारणा यह थी
कि अगर मेरे
लिए भोजन
बनाया गया है,
तो ही
स्वीकार करने
योग्य है। मांगकर
क्या लेना!
अगर देना है
परमात्मा को,
तो बनवाकर
रखेगा, और
सब आयोजन कर
देगा। जो भी
मेरी शर्त है, पूरी कर देगा।
तीन
महीने लगे, तब
यह पूरी हुई
घटना।
तो
जो जैन मुनि
थोड़े ज्यादा
प्रसिद्ध हैं, वह
एक ही चौके
मैं जंचता
नहीं, तो
दस—बीस चौके
चलते हैं। दस—बीस
चौके का मतलब
है, सौ—पचास
स्त्री—पुरुष
पीछे उनके
चलेंगे। जहां
वे रूकेगे,
ये दस बीस चौके—लगेगें।
दस बीस तंबुओं
में भोजन बनेगा।
फिर वे आकर
तंबुओं के
सामने खड़े
होंगे और उन्होंने
जो नियम लिया
है सुबह, वह
पूरा होगा।
और
वह अब पूरा
होता है सदा, क्योंकि
अब उनके सब बंधे
हुए नियम हैं।
जैसे केला एक
खास नियम है।
दो केले लटके
हों। अब वह
सबको मालूम है,
तो सभी लटका
लेते हैं।
महिला बच्चे
को लेकर द्वार
पर खडी हो। तो
महिलाएं वैसे
ही खड़ी हैं
बच्चों को लिए
द्वार पर!
उसमें कोई
भारत में तो
कोई अड़चन है
ही नहीं; सभी
जगह खड़ी हैं।
कि हाथ जोड़कर
गृहस्थ
प्रार्थना
करे। तो वह
करता ही है।
इस तरह के दो—चार
सीधे नियम बना
लिए हैं। अब
वह सबको मालूम
है। उनके
भक्तों को
मालूम है। पर
बीस चौके लगते
हैं!
अब
यह बडी हैरानी
की बात है। एक
साधारण
गृहस्थ के लिए
एक ही चौका
लगता है। और
एक मुनि के
लिए बीस चौके लगते
हैं! यह तो
गृहस्थी बीस
गुनी हो गई।
जो काम दो
रोटी से एक ही
चौके में बनने
से चल जाता, अब
वे बीस चौके
लगते हैं। और
वह सब भोजन
फिजूल जाता है।
क्योंकि वे
लेते तो एक
जगह से हैं।
खयाल रखें, जब नियमों
का जन्म होता
है, तब तो
उनमें बात कुछ
और होती है।
जल्दी ही आदमी
की चालें
उनमें
प्रविष्ट हो
जाती हैं। सब
विकृत हो जाता
है।
मेरे
देखे, संसार
में दो तरह के
लोग हैं, संन्यस्त
और गृहस्थ।
अगर तुम
संन्यासी को
घर में भी रख
दो, तो
थोडे दिन में
घर आश्रम जैसा
हो जाएगा।
क्योंकि वह
ज्यादा धन कमा
नहीं सकता; वह दौड़ ही
उसके भीतर
नहीं है, वह
स्पृहा नहीं
है। कुछ मिल
भी जाएगा, तो
बांट आएगा।
बांटने में
ज्यादा रस है,
इकट्ठा
करने में रस
कम। संन्यासी
को घर में रख
दो, तो घर
थोड़े दिनों
में आश्रम और
धर्मशाला की
शक्ल ले लेगा।
गृहस्थ को तुम
मंदिर में
बिठा दो, थोड़े
दिन में पाओगे,
मंदिर
दुकान हो गया।
क्योंकि
हमारे भीतर
बीज हैं।
और
बड़ी कठिनाई यह
है कि अक्सर
विपरीत में
आकर्षण होता
है। जो गृहस्थ
है,
उसको
आकर्षक लगता
है संन्यासी।
जो संन्यस्त
है, उसको
आकर्षक लगता
है गृहस्थ। और
यह विपरीत का आकर्षण
भटका देता है।
अपने को ठीक
से पहचानना
जरूरी है कि
मेरी वृत्ति क्या
है, मेरा
स्वभाव क्या
है, मेरा
गुणधर्म क्या
है।
इसको
ही कृष्ण
स्वधर्म की
पहचान कहते
हैं। वे कहते
हैं,
स्वधर्मे
निधन श्रेय: —अपने
धर्म में मर
जाना बेहतर है।
इसका
यह मतलब मत
समझना कि
हिंदू रहकर मर
जाना बेहतर, कि
मुसलमान रहकर
मर जाना बेहतर।
इससे इन
धर्मों का कोई
संबंध नहीं है।
स्वधर्म का
अर्थ है जो
तुम्हारा
स्वभाव है, जो तुम्हारी
प्रकृति है, उसमें मर
जाना भी बेहतर
है। क्योंकि
प्रकृति को
तृप्त करते
अगर तुम मरे, तो मृत्यु
भी महाशांति
और महासंतोष
और समाधि बन
जाती है।
और
परधर्म बहुत
भयावह है, कृष्ण
कहते हैं, कि
दूसरे धर्म
में चाहे
कितना ही
आकर्षण मालूम
पड़े, वह
तुम्हारा
नहीं है, तुम्हारे
स्वभाव से मेल
नहीं खाता।
उसमें उलझना
मत, अन्यथा
तुम अड़चन में
पड़ जाओगे। तब
तो जीए भी, तो
भी कष्ट ही
रहेगा। पूरा
जीवन नर्क हो
जाएगा।
लेकिन
कृष्ण
पक्षपाती
नहीं हैं। वे
कहते हैं, जहां
तुम हो, जैसा
तुम्हारा भाव
है; अगर
तुम कर्म में
रहना सरल पाते
हो, सुगम
पाते हो, तो
फलाकांक्षा
छोड़ दो, काफी
है। अगर तुम
कर्म का त्याग
ही सुगम पाते
हो, तो
कर्म का त्याग
भी कर दो, लेकिन
ध्यान रखना, कर्म के
त्याग में भी
फलाकांक्षा
पैदा न हो, क्योंकि
मूल बात फलाकांक्षा
है।
कहीं
संसार को
त्यागकर मत
बैठ जाना। कि
अब मोक्ष मिला, अब
मोक्ष मिला, अब मिलना
चाहिए! फल
मिलने में देर
हो रही है! परमात्मा
अभी तक क्यों
द्वार पर नहीं
आया! मैं इतना
सब त्याग करके
चला आया हूं!
सूत्र
है,
फलाकांक्षा
का त्याग।
चाहे घर में, चाहे
संन्यास में,
चाहे कर्म
में, चाहे
अकर्म में; चाहे बाजार
में, चाहे
हिमालय में, एक बात
ध्यान रखना कि
फलाकांक्षा
छूट जाए, कर्ता
का भाव छूट
जाए।
हे
अर्जुन, आसक्तिरहित,
स्पृहारहित,
जीते हुए
अंतःकरण वाला
पुरुष
संन्यास के द्वारा
भी परम
नैष्कर्म्य
सिद्धि को
प्राप्त होता
है।
हे
कुंतीपुत्र, अंतःकरण
की शुद्धिरूप
सिद्धि को
प्राप्त हुआ
पुरुष जैसे
सच्चिदानंदघन
ब्रह्म को
प्राप्त होता
है तथा जो
तत्वज्ञान की
परा—निष्ठा है,
उसको भी तू
मुझसे जान।
विशुद्ध
बुद्धि से
युक्त, एकांत
और शुद्ध देश
का सेवन करने
वाला, मिताहारी,
जीते हुए मन,
वाणी व शरीर
वाला और दृढ़
वैराग्य को
भली प्रकार
प्राप्त हुआ
पुरुष निरंतर
ध्यान—योग के परायण
हुआ सात्विक
धारणा से
अंतःकरण को वश
में करके तथा
शब्दादिक
विषयों को
त्यागकर और राग—द्वेषों
को नष्ट करके,
अहंकार, बल,
घमंड, काम,
क्रोध और
परिग्रह को
त्यागकर
ममतारहित और शांत
हुआ
सच्चिदानंदघन
ब्रह्म में
एकीभाव होने के
योग्य होता है।
बहुत—सी
बातें कृष्ण
इस सूत्र में
कहे हैं। जो
आधारभूत हैं, उन्हें
खयाल ले लें।
स्पृहारहित.......।
जिसकी
दूसरे से कोई
ईर्ष्या नहीं
है। जब तक
तुम्हारी दूसरे
से कोई स्पृहा
है,
प्रतिस्पर्धा
है, तब तक
तुम इसी संसार
की किसी चीज
की खोज कर रहे हो।
क्योंकि इस
संसार मे
चीजें कम हैं,
चाहने वाले
ज्यादा हैं।
इसलिए हर चीज
पर संघर्ष है।
परमात्मा
में संघर्ष की
कोई जरूरत
नहीं है।
चाहने वाले
हैं ही नहीं; और
परमात्मा
बहुत है। और
परमात्मा को
एक चाहे, हजार
चाहें, इससे
परमात्मा
खंडित नहीं
होता। इसलिए
स्पृहा की
वहां कोई भी
जरूरत नहीं है।
जहां
तक स्पृहा है, वहां
तक संसार है।
तुम परमात्मा
को सीधा ही
चाहना। किसी
दूसरे से
प्रतिस्पर्धा
का कोई प्रश्न
मत उठाना।
वहां इतना है
कि सभी चाहें,
तो भी पूरा
न होगा।
उपनिषद
कहते हैं, उस
पूर्ण से हम
पूर्ण को भी
निकाल लें, तो भी पीछे
पूर्ण ही शेष
रह जाता है।
कितना ही
उसमें से लेते
जाओ, चुकेगा
नहीं। इसलिए
घबड़ाना मत और
स्पृहा मत
करना।
विशुद्ध
बुद्धि से
युक्त......।
विचार
से भरी बुद्धि
अशुद्ध
बुद्धि है।
बुद्धि तो है, लेकिन
धुएं से दबी
है। जैसे
ज्योति जलती
हो दीए की, और
धुएं में घिरी
हो। विशुद्ध
बुद्धि का
अर्थ है, जहां
धुआं खो गया, विचार न रहे।
सिर्फ ज्योति
रह गई, सिर्फ
बुद्धि का
शुद्ध स्वरूप
रह गया।
एकांत
और शुद्ध देश
का सेवन करने
वाला.........।
और
जैसे—जैसे व्यक्ति
कर्ता का भाव
छोड़ता है, विचार
छोड़ता है, वैसे—वैसे
उसके भीतर
एकात का उदय
होता है।
अभी
तो तुम सदा
चाहते हो, दूसरा,
भीड़, समाज।
अकेले हुए कि
डरे। अकेले
हुए कि लगता
है, क्या
करें, क्या
न करें! अकेले
में ऊब आती है।
अपने से साथ
होने को तुम
राजी ही नहीं
हो। और जो
अपने साथ होने
को राजी नहीं
है, वह
परमात्मा के
साथ न हो
सकेगा।
क्योंकि
अंततः अपने
साथ होना ही
परमात्मा के साथ
होना है।
क्योंकि वह
तुम्हारे
आत्यंतिक
जीवन का सारभूत
अंग है। वह तुम्हारा
केंद्र है।
एकांत, शुद्ध
देश का सेवन
करने वाला, मिताहारी, जीते हुए मन,
वाणी और
शरीर वाला, दृढ़ वैराग्य
को भली प्रकार
प्राप्त हुआ
पुरुष........।
क्या
है दृढ़
वैराग्य? कच्चा
वैराग्य ऐसा
वैराग्य है कि
अभी तुमने राग
की पीड़ा भी न
पाई थी और छोड़
दिया संसार।
जरा—सी कुछ
अड़चन हुई और
भाग खड़े हुए
संसार से। यह
कच्चा
वैराग्य काम न
आएगा। तुम वापस
लौट आओगे।
संसार
तुम्हें
बुलाता रहेगा।
जीवन को ठीक
से जान लेना, उसकी पीड़ा
को पूरा ही
भोग लेना, उसके
दुख को रोएं—रोएं
में उतर जाने
देना, ताकि
उसकी आकांक्षा
शून्य हो जाए।
जब कोई ठीक से
जल जाता है
संसार में, तभी
परमात्मा के
योग्य होता है।
दृढ़
वैराग्य को
भली प्रकार
प्राप्त हुआ
पुरुष निरंतर
ध्यान—योग के
परायण हुआ......।
और
करो तुम कुछ
भी—उठो, बैठो,
सोओ, चलो,
चुप रहो, बोलो—पर
ध्यान की सतत
धारा भीतर
बहती रहे, होश
बना रहे। भोजन
करो तो
होशपूर्वक, राह पर चलो
तो होशपूर्वक।
ऐसे शराबी की
तरह तुम्हारा
जीवन न हो, मूर्च्छा
न हो, जागा
हुआ हो, जो
भी तुम करो।
तुम्हारे
प्रत्येक
कृत्य के मनके
में ध्यान समा
जाए, ध्यान
का धागा पिरो
जाए। तो ही वह
जो तत्वज्ञान
की परा—निष्ठा
है
सच्चिदानंदघन
ब्रह्म, वह
उपलब्ध होता
है।
अहंकार, बल,
घमंड, काम,
क्रोध और
परिग्रह को
त्यागकर
ममतारहित और शांत
हुआ सच्चिदानंदघन
ब्रह्म में
एकीभाव होने
के योग्य होता
है।
परमात्मा
तो इसी क्षण
मिल सकता है; तुम
तैयार नहीं हो।
लोग
मुझसे पूछते
हैं,
परमात्मा
को कैसे पाएं?
मैं उनसे
कहता हूं यह
पूछो ही मत।
तुम इतना ही
पूछो कि हम
परमात्मा के
योग्य कैसे
बनें। तुम जिस
क्षण योग्य हो
जाओगे, वह
मिला ही हुआ
है। लेकिन यह
कोई पूछता ही
नहीं कि हम
परमात्मा के
कैसे योग्य
बनें। ऐसा तो
हम मानकर ही
चलते हैं कि
हम तो योग्य
ही हैं; परमात्मा
कैसे मिले! और
अगर नहीं
मिलता, तो
हम कहते हैं, परमात्मा है
ही नहीं। होता
तो मिलता।
परमात्मा
के न मिलने से
हमें यह बोध
नहीं होता कि
हो सकता है, हम
पात्र न हों, योग्य न हों।
अंधा कहता है,
प्रकाश
होगा ही नहीं,
इसलिए मुझे
दिखाई नहीं
पड़ता। बहरा
कहता है, शब्द
होते ही न
होंगे, संगीत
है ही नहीं, इसीलिए तो
मुझे सुनाई
नहीं पड़ता।
तुम
भी कहते हो, परमात्मा
होगा ही नहीं,
इसीलिए तो
मुझे मिलता
नहीं। अपने को
तो तुम मान ही
लेते हो कि आंख
वाले हो, कान
वाले हो, पात्र
हो। वहीं भूल
हो जाती है।
अगर
परमात्मा न
मिले, तो
पूछना कि मैं
कैसे पात्र
बनूं। अगर
आनंद न मिले, तो पूछना कि
मैं कैसे
पात्र बनूं।
अगर जीवन में
अमृत का स्वाद
न आए, तो
पूछना कि मैं
कैसे पात्र
बनूं।
यहीं
से फर्क हो
जाता है दर्शन
और धर्म का।
दार्शनिक खोज
में निकल जाता
है,
परमात्मा
है या नहीं।
और धार्मिक
अपनी पात्रता
को निर्मित
करने लगता है
कि मैं पात्र
हूं या नहीं।
और दार्शनिक
खोजता ही रहता
है, कभी
पाता नहीं; धार्मिक पा
लेता है।
तुम्हारी
पात्रता ही
अंततः
परमात्मा का
मिलन बनेगी।
वह तो मौजूद
ही है। शायद
तुम्हारी आंख
के सामने, आंख
के पीछे, आस—पास,
सब तरफ उसने
ही तुम्हें
घेरा हुआ है।
कबीर
ने कहा है कि
मुझे बड़ी हंसी
आती है यह देखकर
कि मछली पानी
में प्यासी है।
चारों तरफ
पानी ने घेरा
हुआ है, फिर
भी मछली
प्यासी है।
तुम्हारे
चारों तरफ वही
है,
जिसको तुम
खोज रहे हो।
तुम हाथ
हिलाते हो, तो उसी में।
तुम बोलते हो,
तो उसी में।
तुम चलते हो, तो उसी में।
तुम सोते हो, तो उसी में।
तुम उसी से आए
हो, उसी
में खो जाओगे।
और पूछते हो, वह कहां है?
निश्चित
ही,
तुम्हारे
पास वह
संवेदनशील
हृदय नहीं है,
जो उसे
पहचान ले, वह
संवेदनशील आंख
नहीं है, जो
उसे देख ले, वह
संवेदनशील
हाथ नहीं है, जो उसे छू ले।
इसलिए
तुम परमात्मा
के संबंध में
प्रश्न ही मत
उठाना, अपनी
पात्रता के
संबंध में ही
प्रश्न उठाना।
और जिसने भी
अपनी पात्रता
के संबंध में
प्रश्न उठाया,
वह एक दिन
परमात्मा को
पाने वाला हो
ही गया। और जो
परमात्मा के
संबंध में
पूछता रहा, एक न एक दिन
उसे यह
स्वीकार करना
ही पड़ेगा कि परमात्मा
नहीं है।
क्योंकि जब
तुम खोजोगे, न पाओगे; खोजोगे,
न पाओगे; हर तरह से
उपाय करोगे, न पाओगे; अंततः
नास्तिकता
हाथ लगेगी।
ईश्वर पर
ध्यान दिया, तो नास्तिक
हो जाओगे।
अपने पर ध्यान
दिया, तो
आस्तिक होना
सुनिश्चित है।
इसलिए
कुछ ऐसे भी
आस्तिक
पृथ्वी पर हुए, जिन्होंने
ईश्वर की बात
ही न की; बुद्ध
और महावीर ने
चर्चा ही नहीं
उठाई। उसकी
कोई बात उठानी
ही बेकार है।
उन्होंने तो
सिर्फ अपनी ही
बात की। अपने
को शुद्ध किया,
निर्विकार
किया, अपने
भीतरी
कुंवारेपन को उपलब्ध
किया। उसी
क्षण सब मिल
गया।
बुद्ध
से जब भी कोई
पूछता है
ईश्वर के
संबंध में, वे
कहते हैं, व्यर्थ
के प्रश्न मत
उठाओ। यह
बकवास छोड़ो।
यह बात करने
की ही नहीं है।
तुम तो अपनी
बात करो।
तुम्हारे
पात्र को कैसे
शुद्ध किया
जाए, यही
काफी है।
यहां
पात्र तैयार
हुआ नहीं, कि
वहां घन घिरे
नहीं, वर्षा
हुई नहीं।
क्षणभर की भी
देरी नहीं
होती।
आज
इतना ही।
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