अध्याय—18
सूत्र—
नियतं
सङ्गरहितमराग्डेषत:
कृतम्।
अफत्नप्रेप्सुना
कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।
23।।
यत्तु
कामेप्सुना
कर्म
साहङ्कारेण
वा पुन:।
क्रियते
बहलायासं
तद्राजममुदह्रतम्।।
24।।
अनुबन्धं
क्षयं
हिंसामनवेक्ष्य
च पौरूषम्।
मोहादारभ्यते
कर्म
यत्तत्तामसमुव्यते।।
25।।
तथा हे
अर्जुन,
जो कर्म
शास्त्र— विधि
से नियत किया
हुआ और कर्तापन
के अभिमान से
रहित, फल
को न चाहने
वाले पुरूष
द्वारा बिना
राग—द्वेष से
किया हुआ ह्रै
वह कर्म तो
सात्विक कहा
जाता है।
और जो कर्म
बहुत परिश्रम
से युक्त है
तथा कल को
चाहने वाले और
अहंकारयुक्त
पुरूष द्वारा
किया जाता है,
वह कर्म राजस
कहा गया है।
तथा जो कर्म
परिणाम,
हानि हिंसा और
सामर्थ्य को न
विचारकर केवल
अज्ञान से
आरंभ किया
जाता है, वह
कर्म तामस कहा
जाता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : गीता
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
व्यक्तिगत
संवाद है।
लेकिन आपके
गीता—प्रवचनों
में आप समूह
को संबोधित कर
रहे हैं। कृपया
समझाएं कि
भगवद्गीता
क्या समूह को
संबोधित की जा
सकती है?
किसने
कहा तुम्हें
कि मैं समूह
को संबोधित कर
रहा हूं! समूह
के पास कोई
प्राण होते
हैं समझने के? या
कि सुनने के
लिए कोई कान
होते हैं? समूह
के पास कोई
हृदय होता है
धड़कने को? कोई
प्रज्ञा होती
है जिसे जगाया
जा सके? समूह
तो मात्र शब्द
है। समूह कोई
व्यक्ति थोड़े
ही है।
जब
भी संवाद घटित
होगा, तब
व्यक्ति—व्यक्ति
के बीच ही
घटित होता है।
समूह और
व्यक्ति का तो
कोई मिलना कभी
होता नहीं।
तुम कभी समूह
से मिले हो? जहां भी
पाओगे, व्यक्ति
को पाओगे।
यहां भी तुम
मौजूद हो, और
भी लोग
तुम्हारे साथ
मौजूद हैं।
लेकिन वह सिर्फ
साथ होना है।
समूह थोड़े ही
मौजूद है। व्यक्तिगत
रूप से तुम
अलग—अलग मौजूद
हो। और अगर
एक—एक व्यक्ति
यहां से विदा
हो जाए, तो
क्या पीछे
समूह छूट
जाएगा? व्यक्तियों
के विदा होते
ही समूह भी
विदा हो जाएगा।
मैं
तुम्हारी भीड़
से नहीं बोल
रहा हुं, मैं
तुम्हारे
व्यक्ति से ही
बोल रहा हूं।
एक—एक से यह
बात हो रही
है। यह बात
सीधी है।
और
यह भी तुम
खयाल रखना कि
तुम जो समझ
रहे हो, वह
तुम्हीं समझ
रहे हो, तुम्हारे
पड़ोस में बैठा
व्यक्ति हो
सकता है बिलकुल
भिन्न समझ रहा
हो। तुमने जो
मेरी बात का
अर्थ किया है,
वह तुमने
किया है।
तुम्हारे
पड़ोस में बैठे
व्यक्ति ने
कुछ और किया
होगा। वह
तुम्हारे पास
बैठा है, इसलिए
यह मत सोचना
कि वह भी
तुम्हारे
जैसा ही सुन
रहा है या तुम
जो सुन रहे हो,
वही सुन रहा
है।
सुनते
हम वही हैं, जो
हम सुन सकते
हैं। अर्थ
हमारे भीतर
वही उदभूत
होता है, जो
हमारे भीतर
छिपा होता है।
अगर मैं ऐसे
फूलों की
चर्चा कर रहा
हूं जो तुमने
नहीं देखे, तो शब्द तो
कानों पर
पड़ेंगे, हृदय
में कोई झंकार
न होगी। लेकिन
जिसने उन फूलों
को देखा है, उसके कानों
में सिर्फ
शब्द नहीं पड़
रहे हैं, उसके
हृदय में अर्थ
का भी
आविर्भाव हो
रहा है। उसने
स्वाद लिया है,
उसने अनुभव
किया है। और
जब मैं फूलों
की चर्चा में
लीन हूं तब वह
भी फूलों के
अनुभव में लीन
हो जाएगा।
उसके और मेरे
बीच संवाद
घटेगा।
तुम
मुझे सुनोगे, शब्द
ही सुनोगे। वह
मुझे सुनेगा,
शब्द के पार
अर्थ की
प्रतीति
होगी।
तो
यह तुमसे कहा
किसने कि मैं
समूह से बोल
रहा हूं!
कृष्ण भी
अर्जुन से
बोले, मैं भी
अर्जुन से ही
बोल रहा हूं।
यह
अर्जुन शब्द
बड़ा मधुर है।
इस शब्द का
अर्थ होता है
कुछ। ऋजु शब्द
तुमने सुना
है। ऋजु का अर्थ
होता है, सीधा।
ऋजुता का अर्थ
होता है, सरलता।
अऋजु का अर्थ
होता है, तिरछा,
आड़ा, उलझा,
सुलझा हुआ
नहीं; सरल
नहीं, जटिल।
कृष्ण
अर्जुन से बोल
रहे हैं, क्योंकि
वहां एक चित्त
है जो उलझा हुआ
है, जटिल
है, सुलझा
हुआ नहीं है, जिसमें
गांठें पड़ी
हैं। बड़ी
समस्याएं हैं,
समाधान
नहीं है। अगर
समाधान ही हो,
तो दोनों
तरफ कृष्ण हो
जाएंगे; अर्जुन
कोई बचेगा
नहीं।
गुरु
शिष्य से
बोलता है, समाधान
समस्या से
बोलता है।
तुम्हारे पास
अगर समस्या है,
तो तुम आ गए
हो। तुम्हारी
समस्या से मैं
बोल रहा हूं
तुम्हारे
अर्जुन से बोल
रहा हूं। मन
अर्जुन है, क्योंकि वह
समस्याएं
पैदा करता है,
उलझाता है।
मन के पार जो
छिपा है
तुम्हारे भीतर
परमात्मा, वही
कृष्ण है।
मेरे
बोलने का या
कृष्ण के
बोलने का
प्रयोजन कुछ
कहना कम है, कुछ
जगाना ज्यादा
है। तुम्हारे
भीतर मन तो जागा
हुआ है, तुम
सोए हुए हो।
सारी चेष्टा
यही है कि तुम
जाग जाओ।
तुम्हारे
जागते ही मन
तिरोहित हो
जाता है। जैसे
सुबह के सूरज
के उगते ही
रात का अंधेरा
विदा हो जाता
है, ऐसे ही
तुम जागे कि
मन गया, कृष्ण
उठा कि अर्जुन
गया।
कृष्ण
कुछ बोल रहे
हैं,
इस भूल में
भी मत पड़ना।
बोलना तो केवल
उपाय है।
बोलने के लिए
नहीं बोला जा
रहा है। बोलने
के द्वारा कुछ
करने का आयोजन
किया जा रहा
है, कोई
कीमिया का
इंतजाम किया
जा रहा है।
कोई एक महाप्रयोग
उसके आस—पास
घटने की
चेष्टा की जा
रही है।
मेरे
पास भी तुम
अगर सुनने ही
चले आए हो, तो
सुनकर ही लौट
जाओगे; हाथ
कुछ भी न
लगेगा। अगर
तुम वस्तुत:
समस्या को लेकर
आए हो, सुनने
का कुतूहल कम,
समस्या को
हल करने का
सवाल है, धर्म
अगर तुम्हारे
जीवन—मरण का
प्रश्न बन गया
है, सिर्फ
एक बौद्धिक
खुजलाहट नहीं;
तो तुम मेरे
पास से कुछ
जागृति लेकर
जाओगे।
लेकिन
बोल मैं
व्यक्तिगत
रहा हूं।
तुममें से एक—एक
से अलग—अलग
बोल रहा हूं। समूह
से तो कुछ
बोला ही नहीं
जा सकता। जहां
तक समूह जाता
है,
वहां तक तो
धर्म का कोई
सवाल ही नहीं
है। धर्म की
यात्रा तो
निजी है, वैयक्तिक
है, अत्यंत
वैयक्तिक है।
प्रेम से भी
ज्यादा वैयक्तिक
है। कम से कम
प्रेम में तो
दूसरा भी रहता
है, धर्म
में वह भी खो
जाता है।
संसार
में तीन
यात्राएं
हैं। एक पद की
यात्रा है, धन
की यात्रा है,
महत्वाकांक्षा
की। उस सब को, संसार की
यात्रा को मैं
पद की यात्रा
कहता हूं।
उसमें समूह के
साथ संबंध है।
उसमें
व्यक्तियों
से कुछ
लेना—देना
नहीं।
एक
राजनेता
तुमसे वोट
मांगने आता
है। वह तुमसे
वोट मांगने
नहीं आता।
तुम्हारी जगह
कोई भी काम
देगा। तुम
सिर्फ एक आंकड़े
हो। तुम्हारी
जगह,
अ की जगह ब
होता, ब की
जगह स होता, कोई फर्क न
पड़ता था।
प्रयोजन वोट
से है। तुम्हारे
होने न होने
का कोई
लेना—देना
नहीं है। तुम
हो ही नहीं।
तुम एक नंबर
हो, एक आंकड़े
हो।
जैसा
कि मिलिटरी
में नंबर होते
हैं। तो
तख्तियों पर लग
जाता है कि आज
दस नंबर गिर
गए,
दस नंबर मर
गए। नंबर भी
कहीं मरते
हैं! लेकिन मिलिटरी
में आदमी तो
होता ही नहीं,
नंबर होते हैं।
बारह नंबर का
सिपाही मर गया,
बारह नंबर
की तख्ती
दूसरे सिपाही
पर लग जाएगी।
बारह नंबर नहीं
मरेगा, वह
जीता रहेगा।
व्यक्तियों
से कुछ
लेना—देना नहीं
है। समूह की
दुनिया में
व्यक्ति का
कोई मूल्य
नहीं है।
राज्य है, वह
समूह से चलता
है, बाजार
है, वह
समूह से चलता
है। पद की
यात्रा समूह
की यात्रा है।
वहां भीड़— भड़क्के
का सवाल है, वहां
तुम्हारे
सत्य होने का
सवाल नहीं है,
कितने लोग
तुम्हारे साथ
हैं, इसका
सवाल है।
तुम
अगर सत्य भी
हो और अकेले
हो,
तो हारोगे।
तुम अगर असत्य
भी हो और भीड़
तुम्हारे साथ
है, तुम
जीतोगे। वहां
जीत संख्या की
है। वहां भीतर
की प्रतिभा
नहीं आंकी
जाती, खोपडिया
गिनी जाती हैं,
हाथ गिने
जाते हैं। वह
दुनिया
व्यक्ति की
नहीं है। वहां
व्यक्ति की
गरिमा और
व्यक्ति के
काव्य का कोई
मूल्य नहीं
है। फिर दूसरी
यात्रा प्रेम
की यात्रा है;
वह दो के
बीच की यात्रा
है। इसलिए तो
प्रेमी अलग हट
जाना चाहते
हैं भीड़ से।
बाजार में खड़े
होकर प्रेम का
वार्तालाप
करना असंगत मालूम
होता है। बीच
सड़क पर खड़े
होकर प्रेयसी
को मिलना
अर्थहीन
मालूम पड़ता
है। प्रेमी एकांत
चाहते हैं, अकेलापन
चाहते हैं।
कोई न हो!
क्योंकि
तीसरा मौजूद
हो जाए, तो
समूह शुरू हो
जाता है। जब
तक दो हैं, तब
तक समूह नहीं
है। जैसे ही
तीसरा आया कि
समूह शुरू
हुआ। दो तक
यात्रा प्रेम
की है, तीन
से यात्रा पद
की हो जाती
है।
फिर
एक और यात्रा
है,
जिसको मैं
परमात्मा की,
प्रार्थना
की यात्रा
कहता हूं।
वहां दूसरा भी
छूट जाता है। वहा
बिलकुल निजता रह
जाती है। अगर प्रेमी
और प्रियसी भी
दोनों अकेले
रह जाएंगे, साथ नहीं रह
जाएंगे। अगर
दोनों समाधि
में प्रवेश
करेंगे, तो
साथ—साथ
प्रवेश न
करेंगे। तुम
हाथ फैलाकर अपनी
प्रेयसी को
अपने साथ न ले
जा सकोगे। वहा
तो अकेले ही
जाना होगा। वह
तो कैवल्य है,
नितांत
अकेलापन है।
वहा दूसरे की
मौजूदगी भी उपद्रव
है। वहा दूसरे
का होना भी
बाधा है।
तो
ये तीन हैं पद, भीड़
का संसार, प्रेम,
दो का संसार;
प्रार्थना,
परमात्मा, एक का
संसार। पद, अनेक। प्रेम,
दो। प्रभु,
एक।
जब
हम परमात्मा
की चर्चा करते
हैं,
तब तक भी
प्रेम की ही
दुनिया रहती
है। क्योंकि
चर्चा करने
वाला है, चर्चा
सुनने वाला
है। जब मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तो बोलना
तो एक ढंग का
प्रेम है। यह
बोलने के द्वारा
मैं तुम्हें
स्पर्श कर रहा
हूं। यह बोलने
के द्वारा मैं
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर रहा हूं।
यह बोलने के
द्वारा मैंने
तुम्हें निकट
बुलाया है। इस
बोलने के
द्वारा मैं
तुम्हारी निजता
में आ रहा हूं
तुम मेरी
निजता में
प्रवेश कर रहे
हो। बोलने का
जगत प्रेम से
आगे नहीं
जाता। इसे
थोड़ा समझो।
भीड़
में तो बोलना
भी नहीं होता।
बात बहुत चलती
है भीड़ में, बोलना
बिलकुल नहीं
होता। लोग
अपनी—अपनी
बोले जाते हैं,
कोई किसी की
सुनता है!
किसी को किसी
से प्रयोजन
है! दूसरे का।
उपयोग करते
हैं लोग, दूसरे
से बोलते
नहीं। संवाद
थोड़े ही होता
है, कम्युनिकेशन
थोड़े ही होता
है, विवाद
चलता है।
अगर
तुम बाजार में
जाओ और लोगों
को गौर से सुनो, तो
तुम पाओगे, अपनी— अपनी
बोले जा रहे
हैं। कोई किसी
की सुन नहीं
रहा है। अपने—
अपने में लीन
हैं।
तुम्हें
भी कई बार, अगर
तुम थोड़ी—सी
समझ के हो, तो
लगेगा कि तुम
जब किसी से
बात कर रहे हो,
तो तुम उसे
सुनते नहीं।
तुम अपनी कहते
हो, वह
अपनी कहता है।
पर तुम पागल
नहीं हो, इसलिए
थोड़ी
व्यवस्था से
चलते हो। जब
वह कहता रहता
है, तब तुम
चुप बैठे रहते
हो। तब भी तुम
सोच रहे हो, तुम्हारा
भीतरी
सिलसिला जारी
है। तब भी तुम
चुप होकर सुन
नहीं रहे हो।
बिना
चुप हुए कोई
सुनेगा कैसे!
सुनने के लिए
तुम्हारा
भीतर का
अंतर—संवाद तो
बंद हो जाना
चाहिए। भीतर
की चर्चा तो
बंद होनी
चाहिए। अन्यथा
तुम सुनोगे
कैसे! बाहर की
चर्चा तो दूर
पड़ जाएगी, भीतर
का वर्तुल
तुम्हारी
चर्चा का
तुम्हें घेरे
रहेगा, वह
दीवाल बन
जाएगा।
जब
तुम दूसरे से
बात कर रहे हो, तब
तुम अपनी सोचे
जा रहे हो।
तुम सिर्फ
प्रतीक्षा कर
रहे हो कि कब
आप रुके और
मैं शुरू।
करूं। यह बात
सच है कि तुम
वहीं से शुरू
करोगे, जहां
दूसरा रुकेगा,
लेकिन वह
सिर्फ बहाना
है। असली
शुरुआत, अगर
तुम गौर करोगे,
तो
तुम्हारे
भीतर से जुड़ी
है। बाहर के
आदमी से असली शुरुआत
नहीं जुड़ी है।
यह
भीड़ की दुनिया
है। वहां कोई
किसी से बोल
नहीं रहा है।
वहा संवाद
नहीं है, विवाद
है।
फिर
प्रेम की
दुनिया है, वहा
संवाद है। एक
बोलता है, दूसरा
सुनता है। एक
शब्द का उपयोग
करता है, तो
दूसरा शून्य
होकर उसे पीता
है। लेकिन दो
मौजूद हैं।
इसलिए
तो हम कहते
हैं,
परमात्मा
तक शब्द भी न
जाएगा। वहां
तो सिर्फ निःशब्द
जाएगा; वहा
तो मौन ले
जाएगा, शून्य
ले जाएगा।
शब्द भी वहां
बाधा हो
जाएगा।
लेकिन
शब्द से कम से
कम हम भीड़ के
बाहर आते हैं।
गुरु के साथ
शिष्य का जुड
जाना, संसार
के साथ टूट
जाना है।
इसलिए
जब भी तुम
गुरु के पास
आओगे, संसार
तुम्हारे
विरोध। में
खडा होने
लगेगा। क्योंकि
अनजाने रूप से
तुम संसार से
टूटने। लगे।
तुमने एक नया
यात्रा—पथ चुन
लिया, जहां
दो काफी हैं, तीसरे की
जरूरत नहीं
है। और तीसरे
के साथ ही संसार
है।
गुरु
को चुनते ही
तुमने संसार
की उपेक्षा
शुरू कर दी।
संसार सब तरह
की बाधा खड़ी
करेगा। खींचेगा, समझाएगा,
कि यह आदमी
गलत है, कहां
पागलपन में
पड़े हो! किस
सम्मोहन में उलझ
गए हो! लौटो; सब
अस्तव्यस्त
हो जाएगा, सब
ठीक चलता था।
काम— धंधा
करते थे, दुकानदार
थे, व्यवस्था
थी। यह सब
क्या कर रहे
हो! यह तुम्हारे
जीवन में
कौन—सी नई
धारा आ रही है!
तुम पछताओगे।
ऐसा लोग
तुम्हें
समझाएंगे।
जैसे
ही तुम्हारा
गुरु से संबंध
हुआ कि तुम
पाओगे, सारा
संसार तुम्हें
खींचने की
कोशिश करेगा।
स्वाभाविक है।
वह अनेक का
जगत, जब
तुम दो को
चुनना शुरू
करते हो, तुम्हें
खींचता है।
यह
बड़े मजे की
बात है कि
संसार प्रेम
के भी पक्ष
में नहीं है। अगर
तुम्हारा
बेटा किसी
युवती के
प्रेम में पड़
गया,
तो तुम्हारी
पूरी चेष्टा
यह होगी कि
उसे रोको। हालांकि
तुम विवाह के
लिए राजी हो, लेकिन प्रेम
के लिए राजी
नहीं हो।
बाप
विवाह करने के
लिए उत्सुक
है। वह कहता
है,
मैं अच्छी
लडकी खोजे
देता हूं। और
बड़े मजे की बात
है कि जिस
लड़की से भी
लड़के का प्रेम
हो जाता है, वह अच्छी लड़की
कभी होती ही
नहीं। और
जिसको भी बाप
खोजता है, वह
सदा अच्छी
लड़की होती है!
अच्छी
लड़की का मतलब
क्या है? अच्छे
लड़के का मतलब
क्या है? अच्छी
लड़की और अच्छे
लड़के का मतलब
है कि हम तुम्हें
अनेक के बाहर
न जाने देंगे।
प्रेम
का मतलब है कि
अब तुम दो
अपने को काफी
समझोगे; तुम
दुनिया छोड़ने
की बात करोगे।
तुम अपने भीतर
अपनी दुनिया
बसा लोगे। तुम
अपने भीतर एक
दुनिया बन
जाना चाहते हो,
तुम
दुनिया
के प्रतियोगी हो
जाओगे।
नहीं, प्रेम
के लिए संसार
विरोध में है।
न बाप पक्ष में
है, न मां
पक्ष में है।
कहते वे सब
हैं कि हम
तुम्हारे हित
के लिए हैं, कि यह लड़की ठीक
नहीं है, यह
लड़का ठीक नहीं
है। हम तुम्हारे
हित का सोचते
हैं। तुम नासमझ
हो; तुम
अनुभवी नही हो,
हम अनुभव से
सोचते हैं।
हर
कोई समझाने
लगेगा प्रेमी
को कि तू पागल
हुआ जा रहा
है। कुछ मामला
है प्रेम में।
समाज विरोध
में है। समाज
कभी भी प्रेम
के पक्ष में नहीं
रहा।
मामला
यह है कि
प्रेमी की
वृत्ति होती
है कि वह दो
में समझता है, पूरा
हो गया, पर्याप्त
हो गया। वह एक
दुनिया बन
जाता है अपने
भीतर। तो फिर
इस दुनिया की
तरफ उपेक्षा
होती है, वह
पीठ कर लेता
है।
अगर
तुम दो प्रेमियों
के घर मिलने
जाओ,
तो वे
उत्सुकता न
लेंगे तुमसे
मिलने में। हा,
पति—पत्नी
के पास जाओ, बड़ा स्वागत
करते हैं।
क्योंकि
प्रतीक्षा ही करते
हैं, कोई
तीसरा आ जाए।
क्योंकि दो के
बीच तो सिर्फ कलह
होती है, कुछ
और होता नहीं।
पति—पत्नी
हमेशा राह
देखते हैं कि
कोई तीसरा बीच
में खड़ा रहे।
तीसरे की वजह
से थोड़ी—सी सुविधा
रहती है।
मेरे
एक मित्र हैं।
बड़े कुशल आदमी
हैं,
खूब पैसा
कमाया। तो मैंने
उनसे कहा कि
तुमने अब इतना
पैसा कमा लिया
है कि अब कोई
जरूरत नहीं
है। अब इस दौड
को बंद करो।
अब तुम पचास
के हो गए। अब
यह तुम छोड़
दो। उन्होंने
कहा, आप
कहते हैं तो
इनकार नहीं
करता। छोड़
दिया!
और
इतना कहते ही
उन्होंने सब
छोड़ दिया उसी
दिन। सब बंद
कर दिया काम—
धंधा, कहा कि
काफी है। अब
शाति से
रहेंगे। पर
उन्होंने कहा,
अब उलझन खडी
है, आप
सुलझा दें। अब
हम, मैं और
मेरी पत्नी ही
बचे। बच्चे सब
बड़े हो गए; वे
गए। लड़कियां
ही थीं। उन
सबका विवाह हो
गया। तीन
लड़कियां थीं।
अब हम दोनों
बचे। अब हमें
तीसरा सतत
चाहिए। आप
रुकेंगे? क्योंकि
अगर तीसरा न
हो, तो बस
सिवाय कलह के
कुछ होता
नहीं। तीसरा
हो, तो
थोड़ा हम
एक—दूसरे की
तरफ
मुस्कुराते
हैं—औपचारिक
ही! सही, तीसरे
को देखकर सही अच्छी—अच्छी
बातें करते
हैं। दोनों रह
जाते हैं, तो
भारी होने
लगता है।
विवाह
में समाज की
जरूरत बनी
रहती है।
प्रेमी कहता
है,
तुम्हारी
अब कोई जरूरत
नहीं, हम
काफी हैं।
इसलिए समाज
कभी प्रेम के
पक्ष में होगा
नहीं। और जिस
दिन होगा, उसी
दिन समाज नष्ट
होने लगेगा।
पश्चिम
में समाज टूट
रहा है। उसका
कारण है कि प्रेम
मुक्त हो गया
है। पश्चिम
में समाज ज्यादा
दिन टिक नहीं
सकता। और अगर
समाज को टिकना
होगा, तो
प्रेम को
मिटाना
पड़ेगा।
क्योंकि वे
यात्रा—पथ अलग
हैं।
और
साधारण प्रेम? एक
स्त्री—पुरुष
का प्रेम तो
बहुत खतरनाक
नहीं है, क्योंकि
वह नशा जल्दी
उतर जाता है।
प्रेयसी भी
कुछ दिनों बाद
बोझिल हो जाती
है। प्रेमी भी
कुछ दिनों बाद
उबाने वाला हो
जाता है।
क्योंकि जब
एक—दूसरे के
भूगोल से ठीक
से परिचित हो !
गए और
एक—दूसरे की
जीवन—दिशा को
ठीक से पहचान
लिया, अजनबीपन
मिट गया, आकर्षण
खो गया।
प्रेमी
जल्दी ही
परिचित हो
जाते हैं और
समाप्त हो
जाते हैं। इसलिए
प्रेम अंततः
विवाह में गिर
ही जाता है। इसलिए
साल,
दो साल भी
अगर समाज
प्रतीक्षा
रखे, तो
प्रेमी खुद
विवाहित हो
जाते हैं, कोई
चिंता की बात
नहीं है। इतनी
ज्यादा परेशान
होने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन
अगर कोई
व्यक्ति किसी
गुरु के प्रेम
में पड़ गया, तो
खतरा भारी है।
क्योंकि यह
यात्रा पूरी
होती नहीं। यह
यात्रा बड़ी
है।। और अगर
सच में ही कोई
गुरु मिल गया,
जो अनंत की
यात्रा पर ले
जा सके, तो
तो फिर कोई
अंत आने वाला
नहीं है। फिर।
इसका
तो
जो पीठ समाज
की तरफ हो गई, वह
हो गई।
अब
यह बड़े मजे की
बात है। समाज
प्रेम के
विपरीत है, प्रेमी
भी गुरुओं के
विपरीत होते
हैं!
इधर
मेरे पास रोज
लोग आते हैं।
अगर पत्नी आ
जाती है, तो।? पति दुश्मनी
में खड़ा है।
अगर पति आ
जाता है, तो
पत्नी
दुश्मनी में
खड़ी है। ऐसा
कभी—कभी घटता
है कि दोनों
साथ आ जाते
हैं। कभी—कभी
घटता है। और
जब ऐसा घटता
है, तब एक
संवाद है।
अन्यथा एक आता
है, तो
दूसरा उसकी टांग
खींच रहा है र
क्योंकि अगर
पति गुरु की
तरफ चला, तो
पत्नी घबडाई,
कि इसका
मतलब यह हुआ
कि हमसे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
कोई आदमी जीवन
में प्रवेश कर
रहा है, जिसके
लिए हमारी भी
उपेक्षा की जा
सकती है! कि मैं
घर में बीमार
पडी हुं,
कि मेरे सिर
में दर्द हो
रहा है और
तुम
शान—चर्चा को
चले! मेरे
सिरदर्द से भी
ज्यादा
मूल्यवान कोई
चीज हो सकती
है!
नहीं, प्रतिस्पर्धा
शुरू हो गई।
पत्नी सोचती
है कि यह गुरु
तो ' भारी
प्रतिस्पर्धी
हो गया। पति
भी यही सोचता है।
एक
महिला मेरे
पास आती हैं।
पूना की हैं।
पति सख्त
खिलाफ हैं। वे
इतने खिलाफ
हैं कि मेरी किताबें
भी घर के बाहर
फेंक देते हैं, चित्र
फाड़ डालते
हैं। मैंने
उनकी पत्नी को
कहा कि आखिर
उनका विरोध
क्या है?
पत्नी
ने कहा कि
विरोध कुछ
नहीं है। वे
यह कहते हैं
कि ऐसा कौन — सा
सवाल है, जो
मैं हल नहीं
कर सकता? तुझे
कहीं जाने की
जरूरत क्या है?
वे यह कहते
हैं। और मैं
उनको जानती
हूं कि इनसे
ज्यादा मूढ़
आदमी दुनिया
में दूसरा नहीं
है। मगर वे
पति हैं और
परमात्मा
समझे बैठे हैं।
अगर मैं उनको
सत्य कहूं कि
तुम अपना तो हल
कर लो, तो
लड़ाई—झगड़ा
बढ़ता है।
झगड़ा
यह है कि
मुझसे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
कोई व्यक्ति
है! इसका मतलब
हुआ कि पति
अपने स्थान से
हटाया जा रहा
है जैसे।
पत्नी उसके
स्थान से हटाई
जा रही है
जैसे।
संसार
प्रेम के
विपरीत में है, प्रेम
धर्म के
विपरीत में
है। तीसरी
यात्रा है
परमात्मा की।
समाज भी बाधा
डालेगा, परिवार
भी बाधा
डालेगा, प्रेम
भी बाधा
डालेगा।
गुरु
जो बोल रहा है, उसकी
शुरुआत तो
प्रेम से होगी,
अंत
परमात्मा पर
होगा। शुरुआत
तो दो से होगी,
अंत एक पर
होगा। सभी
संवाद दो के
बीच है, वैयक्तिक
है।
तो
एक तो विवाद
है,
अनेक के
यात्री का।
फिर संवाद है,
एक
प्रेमपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण,
श्रद्धापूर्ण
भाव—दशा है, जहां दो
व्यक्ति
मिलते हैं और
एक—दूसरे को
समझने के लिए
आतुर होते
हैं। और फिर
एक तीसरी दशा
है, जहां
दो बिलकुल खो
जाते हैं, एक
शून्य होता है,
एक सन्नाटा
होता है।
पहली
अवस्था विवाद
की,
दूसरी
अवस्था संवाद
की, तीसरी
अवस्था सत्य
की, सम्मिलन
की। वहां इतनी
भी दुई नहीं
रह जाती कि
कुछ बोला जाए।
बिना बोले
समझा जाता है।
भारत
के मनीषियों
ने कहा है, नायं
आत्मा
प्रवचनेन
लभ्यो, न
मेधया, न
बहुधा
श्रुतेन। यह
आत्मा न तो
प्रवचन से मिल
सकती है, न
बड़ी मेधा से, बुद्धि से, न बहुत
सुनने से। न
मेधया, न
बहुधा
श्रुतेन।
बहुत सुनो, तो भी नहीं
मिल सकती, बहुत
समझो, तो
भी नहीं मिल
सकती, बहुत
पढ़ो, तो भी
नहीं मिल सकती,
क्योंकि
दुई तो बनी
रहेगी। मिटो,
तो ही मिलती
है। न हो जाओ, तो ही मिलती
है। शब्द खो
जाएं, शून्य
ही रह जाए। उस
शून्य के
मंदिर में ही
परमात्मा से
मिलन है।
गुरु
शुरू करता है
दो से, चेष्टा
है एक पर
पहुंचाने की।
जो
संसार से ऊब
गया,
वही गुरु के
पास आ सकेगा।
जो प्रेम से भी
ऊब गया, वही
गुरु के साथ
जा सकेगा। इसे
ठीक से समझ
लो। जो संसार
से ऊब गया, वह
गुरु के पास आ
सकेगा। लेकिन
अगर प्रेम से
न ऊबा हो, तो
गुरु के पास
ही रुक जाएगा,
आगे न जा
सकेगा। जो
प्रेम से भी
ऊब गया है, वह
फिर गुरु के
साथ आगे जा
सकेगा, जहां
गुरु—शिष्य
दोनों उस
महासागर में
खो जाते हैं, जो परमात्मा
है।
सदा
ही कृष्ण
अर्जुन से ही
बोले हैं, और
कोई बोलने का
उपाय नहीं है।
मैं भी अर्जुन
से ही बोल रहा
हूं। यह तुमसे
कहा किसने कि
मैं समूह से
बोल रहा हूं!
समूह से बोलने
का कोई उपाय
ही नहीं है, मार्ग ही
नहीं है।
दूसरा प्रश्न
: हम अभी जैसे
हैं, उसमें
तो निमित्त—
भाव का मात्र
अभिनय सध सकता
है। क्या
निमित्त— भाव
का अभिनय
करते—करते किसी
दिन कृष्ण के
कहे निमित्त—
भाव को उपलब्ध
हो जाएंगे?
कहीं से
तो शुरू करो, अभिनय
ही सही। लेकिन
यह अभिनय
अनूठा है।
इसे
तुम ऐसा समझो
कि असली राम
संसार में खो
गए और भूल गए
कि राम हैं।
बहुत दिन
संसार में
भटकते— भटकते
भूल गए कि राम
हैं। फिर
संसार में एक
दिन रामलीला
होने लगी और
किसी ने असली
राम को कहा कि
तुम रामलीला
में राम का पार्ट
क्यों नहीं कर
लेते? बिलकुल
रामू जैसे
दिखाई पड़ते
हो! शक्ल—सूरत,
नाक—नक्शा,
शरीर का ढंग,
ये लंबी
भुजाएं, यह
वक्ष। तुम राम
का पार्ट कर
लो।
तो
राम राजी हो
गए,
जो कि भूल
गए कि राम हैं,
राम का
अभिनय करने
को। लेकिन
अभिनय
करते—करते भीतर
की परतें
टूटने लगीं
मूर्च्छा की
और कुछ याद
आने लगी कि जो
हम कह रहे हैं,
जो हम कर
रहे हैं, वह
तो ऐसा लगता
है जैसे किया
हुआ हो, कहा
हुआ हो। वह तो
ऐसे लगता है, जैसे कभी
देखा हुआ हो।
वह तो ऐसे
लगता है, जैसे
अभिनय नहीं कर
रहे हैं, कोई
पुरानी
स्मृति
पुनरुज्जीवित
हो गई है। और
अभिनय
करते—करते राम
को स्मरण आ
गया कि मैं तो
राम हूं। ऐसी
दशा है।
जब
हम तुमसे कहते
हैं,
निमित्त
मात्र हो रहो,
तुम कहते हो,
अभी शुरू
करेंगे, तो
अभिनय ही
होगा। चलो, अभिनय से ही
सही। न शुरू
करने से तो
अभिनय में शुरू
करना भी बेहतर
है। लेकिन
असलियत यही है
कि तुम
निमित्त हो।
परमात्मा
तुम्हें पैदा
करता है, तुम
पैदा नहीं हुए
हो अपने हाथ से।
अस्तित्व
तुम्हें
उपजाता है, अस्तित्व
तुम्हें
बढ़ाता है, बड़ा
करता है।
अस्तित्व की
कामनाएं ही
तुम्हारे
अंतस—हृदय में
जीवित हैं।
अस्तित्व की
वासनाएं ही तुम्हें
धकाती हैं, चलाती हैं।
अस्तित्व ही
तुम्हें
दौड़ाता है, तुम्हारे
भीतर श्वास
लेता है। फिर
एक दिन अस्तित्व
तुम्हें वापस
घर बुला लेता
है। तुम गिर पड़े,
मौत आ गई, वापस
अस्तित्व में
खो गए।
तुम
थे ही नहीं।
तुम
निमित्त—मात्र
थे। तुम्हारे
बहाने कोई
अदृश्य हाथ
काम करते थे, कोई
अदृश्य
तुम्हारे
पैरों से चलता
था।
दादू
ने कहा है, हाथ
नहीं हैं और
धनुष साधा हुआ
है। धनुष नहीं
है और तीर चढ़ा
हुआ है। तीर
नहीं है और
चोट लग रही है
गहरे। निशाना
ठीक बैठ रहा
है।
यह
परमात्मा के
लिए कहा है।
उसके हाथ नहीं
हैं,
वह
तुम्हारे
हाथों से चलता
है। उसके पैर
नहीं हैं, वह
तुम्हारे
पैरों से
रास्ता खोजता
है। उसके पास आंख
नहीं है, वह
तुम्हारी
हजार—हजार
आंखों से
देखता है।
तुम
निमित्त हो, लेकिन
तुम यह भूल गए
हो। चलो, अभिनय
सही। रामलीला
में राम बन
जाओ। कौन जाने,
अभिनय
करते—करते याद
आ जाए! आ ही
जाएगी। क्योंकि
जो अस्तित्व
है तुम्हारा
भीतर, उसे
तुम कितना ही
भूल जाओ, मिटा
थोड़े ही सकोगे?
ऐसा
हुआ। मैंने
सुना, एक आदमी
ने हत्या की।
राज्य उसके
पीछे पड़ गया।
सम्राट के
सिपाही उस पर
घेरा डालने
लगे। वह बहुत
घबड़ा गया। कोई
उपाय न देखा।
एक नदी के किनारे
पहुंचा। नाव
नहीं थी। पुल
नहीं था।
बरसात की बाढ़
थी। उस पार
जाना खतरनाक
था। उससे तो
पुलिस के हाथ
में पड़ जाना
बेहतर था। साल,
दो साल की
सजा, किसी
तरह बचने का
उपाय; वकील
भी हैं ही सदा
मौजूद। कुछ
रास्ता बन
सकता था। यह
नदी तो प्राण
ले ही लेगी।
भयंकर बाढ़ है।
कुछ न सूझा।
अचानक
उसे खयाल आया
कि यह मैं
क्यों न करूं!
देखा कि नदी
के किनारे एक आदमी
भभूत रमाए
साधु बना बैठा
है। उसने भी
जल्दी से
डुबकी मारी, राख
लपेटकर वह भी आंख
बंद करके एक
वृक्ष के नीचे
बैठ गया।
जब
पुलिस के
घुड़सवार
पहुंचे, तो
उन्होंने इस
साधु को बैठे
देखा। यह
बिलकुल बनकर
ही बैठा था।
चोर था, हत्यारा
था, सब तरह
के जुर्म उसके
ऊपर थे। मगर
जब कोई बुद्ध
की मुद्रा में
बैठता है, तो
कोई याद आनी
शुरू हो जाती
है। वह मुद्रा
ऐसी है। वह
तुम्हारे
भीतर की
मुद्रा है। वह
शरीर पर दिखाई
पड़ती है, शरीर
की है नहीं। वह
तुम्हारे
भीतर की शांत
चित्त—दशा का
उसके साथ जोड़
है।
तुमने
कभी कोशिश की
अगर कि तुम
क्रोध का अभिनय
करो,
थोडी ही देर
में पाओगे कि
क्रोध आ गया।
गाली देना
शुरू करो, जोर
से पैर पटको, दीवाल पीटने
लगो। थोडी देर
में तुम पाओगे
कि क्रोध सवार
हो गया। ठीक
ऐसी ही घटना
विपरीत भी घटती
है।
वह
आदमी साधु
होने का धोखा
ही कर रहा था, अभिनय
ही कर रहा था, लेकिन
साधुता तो स्वभाव
है। वह जब
शांत होकर
बैठा, उसे
बडा रस मालूम
होने लगा। ऐसा
रस तो उसने कभी
न जाना था। और
यह भी वह जान
रहा है कि यह
तो बस अभिनय
है। मगर यह रस
कहं। से आ रहा
है!
तभी
घुड़सवार आए; वे
रुके।
उन्होंने इस
दिव्य
प्रतिमा को
बैठे देखा। वे
झुके। इसके
चरणों पर सिर
रख दिए। उनके
सिर चरणों पर
रखे, इस
आदमी के भीतर
कोई जागने
लगा। यह बड़ा
हैरान हुआ कि
सिर्फ धोखे का
साधु हूं। ऐसा
झूठा ही साधु
बनकर बैठा हूं;
अभी घडीभर
पहले ही बना
हूं। किसी ने
बनाया भी नहीं,
अपने हाथ बन
गया हूं। राख
भर लगा ली है, कुछ किया भी
नहीं है। इस
झूठ में इनको
क्या दिखाई पड़
रहा है कि ये
मेरे पैर छू रहे
हैं! और अगर
झूठ इतना
कारगर हो सकता
है, तो
सत्य का क्या
पता, कितना
कारगर हो!
सिपाही
तो पैर छूकर
चले गए, वह
आदमी बदल गया,
वह आदमी
रूपांतरित हो
गया। उसके
जीवन में क्रांति
घट गई।
क्योंकि उसने
देखा कि जब
झूठी साधुता
को इतना
सम्मान मिल
गया, तो
सच्ची साधुता
का क्या अर्थ
होगा! एक झलक आ
गई। बंद द्वार
थे बहुत दिन
से, वातायन
न खुले थे, जरा—सी
संध मिल गई।
बाहर की खुली
हवा आ गई। वह ताजी
हवा प्राणों
को पुलकित कर
गई। आंखें बंद
थीं जन्मों से,
जरा—सी खुल
गईं, झटके
में खुल गईं, सूरज की
रोशनी की किरण
से पहचान हो
गई। बुलावा आ
गया। यात्रा
बदल गई। सब
बदल गया।
तुमसे
मैं कहता हूं
तुम
निमित्त—मात्र
का अभिनय ही
करो। अभी
अभिनय ही कर
सकोगे। एकदम
से सत्य कैसे
होगा? और बहुत
अभिनय किए हैं,
यह भी करो।
यह अभिनय कुछ
विशिष्ट है, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर के सत्य
से इसका
तालमेल है।
और
तुमने जो
अभिनय किए हैं, वे
सिर्फ अभिनय
ही रह जाएंगे,
क्योंकि
उनका
तुम्हारे
भीतर के सत्य
से कोई तालमेल
नहीं है। वे
ऊपर ही ऊपर रह
जाएंगे। वे कभी
तुम्हारा
प्राण न
बनेंगे। उनका
स्पंदन कभी
गहरे न जाएगा।
तुम
जरा निमित्त —
मात्र का
अभिनय करके
देखो। एक
महीने अभिनय ही
सही। एक महीने
ऐसे ही जीयो, जैसे
वह तुम्हारे
भीतर से जी रहा
है। उठो, तो
वह उठाए; बैठो,
तो वह बैठाए;
भूख लगे, तो उसे ही
लगे, भोजन
दो, तो उसे
ही दो। जो भी
जीवन का सामान्य
कृत्य है, उसको
वैसा ही रखना।
सिर्फ भीतर की
एक दृष्टि बदल
जाए, किं
करने वाला वह
है, मैं
केवल उपकरण
हूं। मेरी
रस्सियां
उसके हाथ में
हैं, मैं
केवल पुतली
हूं कठपुतली
हूं नाचती
हूं।
शायद
इस बाहर के
अभिनय का और
भीतर की सचाई
का अगर स्वभाव
एक है, तो
तालमेल किसी
दिन बैठ
जाएगा। किसी
दिन अचानक ही
घटना घटती है।
अचानक ही भीतर
का सुर बजने
लगता है। सब
बदल जाता है।
एक क्षण में
कुछ का कुछ हो
जाता है। अंधेरे
की जगह प्रकाश,
अंधेपन की
जगह आंखें, मूर्च्छा की
जगह होश।
चलो, अभिनय
से ही शुरू
करो।
तीसरा
प्रश्न :
महावीर
अनाग्रही थे, पर
जैन धर्म
आग्रह का धर्म
हो गया। आप भी
अनाग्रही हैं,
क्या आपका
धर्म भी
भविष्य में
आग्रह का धर्म
न हो जाएगा?
भविष्य
की चिंता
क्यों
तुम्हें
पकड़ती है? भविष्य
का, ठेका
तुम्हें
किसने दिया? भविष्य भी
तुम्हारे
अनुकूल हो, इसकी
आकांक्षा
क्यों जन्मती
है? भविष्य
को भविष्य पर
छोड़ो।
मैं
कुछ कह रहा
हूं अगर वह
सार्थक है, तो
तुम उपयोग कर
लो। वह कभी
व्यर्थ हो
जाएगा, इस
डर से क्या
तुम उपयोग न
करोगे! जब तुम
मकान बनाते हो,
तब तुम यह
नहीं पूछते कि
बड़े —बड़े महल
खंडहर हो गए, यह मकान
खंडहर न हो
जाएगा? अगर
खंडहर हो
जाएगा, तो
इसमें कैसे
रहें?
नहीं, तुम
यह नहीं
पूछते।
क्योंकि तुम
जानते हो कि खंडहर
तो होगा ही, लेकिन
तुम्हारे
रहने लायक
काफी है।
तुम्हें कोई
सदा थोड़े ही
रहना है। जो
बना है, वह
मिटेगा।
लेकिन
तुम्हारे
रहने के लिए
तो पर्याप्त
है। तुम्हें
सत्तर— अस्सी
साल रहना है, खंडहर होने
में इसको
हजारों साल
लगेंगे, तुम
क्यों चिंता
करते हो? और
फिर अगर
पुराने महल
खंडहर न हों, तो नए महल
खड़े कहां
होंगे? अगर
पुराने महल सब
बने रहते, तो
दुनिया में
बड़ी मुसीबत हो
जाती।
अगर
पुराने सारे
लोग जिंदा
होते, तो
तुम्हें पता
है, कैसी
हालत हो जाती?
इस समय कोई
चार अरब
संख्या है
दुनिया की।
अगर जितने
आदमी अब तक
पैदा हुए हैं,
वे सब जिंदा
होते, तो
एक सौ बीस अरब
संख्या होती
दुनिया की इस
समय। तब हाथ
हिलाने की भी
जगह न होती।
सोने का तो सवाल
ही नहीं उठता,
बैठना
मुश्किल
होता। बैठे कि
मारे गए! सब
तरफ भीड़!
वे
जो मर गए हैं, उनकी
तुम पर बड़ी
कृपा है। तुम
उन्हें
धन्यवाद दो।
और ध्यान रखना,
तुम न मरोगे,
तो
तुम्हारी
भविष्य पर
कृपा नहीं है।
फिर भविष्य के
बच्चे कैसे
पैदा होंगे? इधर का जाता
है, उधर
बच्चा आता है।
इधर बड़े वृक्ष
गिरते हैं, छोटे अंकुर
फूटते हैं। और
हर अंकुर कल
बड़ा होगा
वृक्ष बनेगा
और गिरेगा। यह
नियति है।
इसमें परेशान
क्या होना!
महावीर
ने जो कहा, जो
समझदार थे, उन्होंने
उपयोग कर
लिया। जो
नासमझ होंगे,
उन्होंने
यही सवाल उनसे
भी पूछा होगा,
कि यह तो आप
जो कह रहे हैं,
होगा ठीक, लेकिन
भविष्य में
क्या होगा? धर्म
संप्रदाय बन
जाएगा, शब्द
शास्त्र हो
जाएंगे, लोग
अंधविश्वासी
हो जाएंगे।
लोग जन्म से
ही अपने को
जैन समझ लेंगे,
बिना किसी आंतरिक
प्रक्रिया और
रूपांतरण के!
तुम जैसे पागल
जरूर रहे
होंगे, उन्होंने
यह भी पूछा
होगा। जो
समझदार थे, उन्होंने
महावीर की
कुंजी से ताले
खोल लिए। जो
नासमझ थे, वे
सोचते रहे, कहीं भविष्य
में जंग तो न
लग जाएगी!
सभी
कुंजियों पर
लग जाती है।
और उचित है कि
लग जाए, क्योंकि
ताले बदल जाते
हैं, तो
कुंजियां भी
बदल जाती हैं।
जैसे
आज पुराने
धर्म
जराजीर्ण हो
गए,
मैं जो कह
रहा हुं,
किसी दिन वह
भी जराजीर्ण
हो जाएगा। लेकिन
जब होगा, तब
होगा। और हो
जाना चाहिए, नहीं तो नए
धर्म कैसे
पैदा होंगे, नई उदभावना
कैसे होगी!
पुराने गीत ही
गूंजते रहें,
तो नए गीत
को गाने की
जगह ही न
बचेगी, अवकाश
न बचेगा।
जैसे
आज कोई आदमी
जैन घर में
पैदा होकर जैन
हो जाता है, बिना
जिन हुए। जिन
होना तो बड़ा
कठिन है। जिन
होने का मतलब
तो परिपूर्ण
विजेता होना
है स्वयं का।
वह तो बड़ा
शिखर है, गौरीशंकर
है। उस तक तो
कोई कभी
पहुंचता है।
लेकिन जैन घर
में पैदा हो
गए, बचपन
से थोड़ा
जिन—वाणी के
शब्द सीख. लिए,
कि जैन हो
गए। हिंदू घर
में पैदा हो
गए, गीता
पढ ली या सुन
ली, हिंदू
हो गए। यह
होना कोई
वास्तविक
होना नहीं है।
पर यह स्वाभाविक
है।
आज
जो मैं कह रहा
हूं कल पुराना
हो जाएगा; हो
ही जाएगा। कहा
हुआ सदा ताजा
कैसे रह सकता
है? और कहा
हुआ सदा मौजूं
भी नहीं रह
सकता। क्योंकि
समय बदलेगा, परिस्थिति बदलेगी,
जो कहा हुआ
है, वह
बेमौजू हो
जाएगा। फिर यह
उचित भी है, अन्यथा नए
बुद्धों के
लिए जगह न रह
जाएगी। नए सदगुरुओं
का अवतरण कैसे
होगा! पुराने
कृष्ण अगर
विदा न होंगे,
तो नए कृष्ण
पैदा कैसे
होंगे!
जो
समझता है, वह
जानता है कि
कहा हुआ धर्म
तो बनेगा, मिटेगा।
अनकहा हुआ
धर्म शाश्वत
है। वह जो
महावीर ने
नहीं कहा, वह
नहीं बदलेगा।
जो महावीर ने
कहा है, वह
तो बदलेगा। उस
पर तो धूल जम
जाएगी। जो मैं
कह रहा हूं उस
पर तो धूल जम
जाएगी; जो
मैं नहीं कह
रहा हूं वह
नहीं बदलेगा।
जो मैं नहीं
कह रहा हूं वह
वही है जो
महावीर ने
नहीं कहा, कृष्ण
ने नहीं कहा, बुद्ध ने
नहीं कहा।
लेकिन
तुम जब न कहने
को सुन पाओगे, तब
तुम्हें
शाश्वत की
पहचान होगी।
जब तक तुम कहने
को ही सुन
पाते हो—वह भी
मुश्किल है, उसको भी ठीक
से नहीं सुन
पाते—जब तक
तुम कहने को
ही सुन पाते
हो, जब तक
तुम कथन को ही
सुन पाते हो, तब तक तो सभी
चीजें बासी हो
जाएंगी।
स्वाभाविक
है। इसमें कुछ
रोने और
परेशान होने
की जरूरत नहीं
है,
और न ही
इसके विपरीत
कोई इंतजाम
करने की जरूरत
है। क्योंकि
कोई इंतजाम
काम न करेगा, सब इंतजाम
व्यर्थ हो
जाएंगे।
प्रकृति किसी
को मानती नहीं
और अपवाद नहीं
स्वीकार करती।
कृष्ण, महावीर,
बुद्ध, जरथुस्त्र,
मोहम्मद, मूसा, सब
बासे पड़ गए।
तो यह कैसे
संभव है कि
मैं जो कह रहा
हूं वह सदा
ताजा रहेगा!
वह भीं बासा
हो जाएगा। हो
ही जाना
चाहिए। उसके
बासे हो जाने
में भी अर्थ
है। क्योंकि
जब वह बासा
होकर गिर जाएगा,
तभी जगह
खाली होगी कि
फिर कोई ताजा
स्वर पैदा हो।
वह
ताजा स्वर
मेरा ही स्वर
है। वह ताजा
स्वर कृष्ण का
ही स्वर है।
लेकिन उस स्वर
का आना होता
है शून्य से।
उससे
तुम्हारी
पहचान नहीं
है।
धर्म
सनातन है, संप्रदाय
सभी सामयिक
हैं, बनते
हैं, मिटते
हैं। धर्म न
कभी बनता है
और न मिटता
है।
इसलिए
हिंदू को धर्म
नहीं कहना
चाहिए, जैन
को धर्म नहीं
कहना चाहिए, मुसलमान को
धर्म नहीं
कहना चाहिए।
ये सब संप्रदाय
हैं। ये धर्म
तक पहुंचने के
ढंग हैं। ये
धर्म तक
पहुंचने के
मार्ग हैं। ये
धर्म नहीं
हैं। धर्म तो
तुम्हारे गहन
निबिड़ शून्य में
छिपा है, गहन
मौन में छिपा
है।
चौथा
प्रश्न : आपके
प्रवचन—प्रवाह
के बीच—बीच
में जो क्षणों
का रूकना या
मौन घटित होता
है,
वह बोलने से
भी अधिक
मार्मिक और
प्रीतिकर लगता
है; ऐसा
क्यों?
है ही; लगना
ही चाहिए।
प्रश्न की
जरूरत ही नहीं
है। पूछो ही
मत। उसका
स्वाद लो, पीओ,
डूबी। क्योंकि
तुमने पूछा कि
तुम फिर वापस
सुनने की दुनिया
में, शब्द
की दुनिया में
उतरने की
चेष्टा में लग
गए।
मौन
ही सार्थक है।
शब्द तो बड़े
छोटे हैं, सत्य
उनमें समाता
नहीं। वे तो
तुम्हारे घर
के आंगन जैसे
हैं। महाआकाश
उसमें कहां
समाएगा! यद्यपि
महाआकाश
उसमें भी है।
छोटा—सा टुकड़ा
समाया है।
अगर
तुम्हें आंगन
से मुक्ति
मिलती है किसी
क्षण और मौन
की प्रतीति
होती है, तो
ऐसा क्यों, यह पूछकर
खराब मत करो।
पूछा, कि
फिर तुम शब्द
की दुनिया में
वापस आए।
पूछने की ऐसी
बीमारी लग गई
है कि तुम
किसी चीज को
चुपचाप, आनंद
तो ले ही नहीं
सकते!
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन की
एक
मनोवैज्ञानिक
चिकित्सा कर
रहा था। उसे
भेजा पहाड़ पर
कि थोड़े दिन हवा—पानी
बदलकर आओ। बड़े
चिंतित, दिन—रात
परेशान, दिन—रात
बेचैन, रोज
नई बीमारियां
लेकर हाजिर।
भेज दिया पहाड़
पर।
तीन
दिन बाद
नसरुद्दीन का
तार आया, फीलिंग
वेरी हैप्पी,
व्हाय? बहुत
प्रसन्न हुं, क्यों? अब
प्रसन्नता भी
बिना क्यों के
नहीं चलती!
यह
क्यों की
बीमारी छोड़ो।
है।,
अगर बीमार
हो, प्रसन्न
नहीं हो, दुखी
हो, तो
पूछो कि
क्यों।
क्योंकि दुख
को मिटाना है,
इसलिए
पूछना है
क्यों। कारण
खोजने हैं
उसके, जिसको
मिटाना है।
जिसको पाना है,
उसके कारण
क्या खोजने।
क्यों क्यों
पूछना? मत
पूछो। और अगर
मेरे बोलने के
प्रवाह में, कहीं ऐसा
क्षण आ जाता
है,
अंतराल
आ जाता है, जीओ
उसे, स्वाद
लो उसका। मैं
बोल ही इसलिए रहा
हूं कि वह
अंतराल
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे। अगर मैं
न बोलूं, तो
तुम्हें
दिखाई न
पड़ेगा।
दो
शब्दों के बीच
में जब कभी
मैं चुप हो
जाता हूं तो
ऐसा ही हो
जाता है, जैसे
दो किनारों के
बीच में नदी
दिखाई पड़ जाए।
दो तरफ शब्द
हैं, बीच
में थोड़ी देर
को अंतराल की
धारा है। मौन
की नदी बह
जाती है। तुम
सुनने को
उत्सुक थे, तुम शब्द की
प्रतीक्षा
करते थे और
मैं चुप हो गया।
एक क्षण को
तुम्हारा मन
समझ नहीं पाता,
अब क्या
करें!
बस, उसी
थोड़े—से क्षण
में तुम्हें
मौन का स्पर्श
होता है।
क्यों मत उठाओ,
अन्यथा मन
उसे भी खराब
कर देगा, दूषित
कर देगा।
क्यों को
उठाया कि तुम्हारा
मौन भी कुंआरा
नहीं रह जाता।
मौन का कुंआरापन
भी नष्ट कर
दिया तुमने।
कुंआरे
मौन को जीओ।
धीरे— धीरे
प्रश्न उसी
चीज के संबंध
में उठाओ, जिसे
मिटाना है।
निदान बीमारी
का किया जाता
है, स्वास्थ्य
का तो नहीं।
डायग्नोसिस
बीमारी की
होती है, स्वास्थ्य
की तो नहीं।
अगर
तुम स्वस्थ हो, तो
डाक्टर कहेगा,
कोई बीमारी
नहीं है। सब
निगेटिव
रिजल्ट आएंगे।
कोई बीमारी
नहीं है, तो
निगेटिव
रिजल्ट आते
हैं।
बीमारी
हो,
तो पता चलना
शुरू होता है,
कौन—सी
बीमारी है।
फिर बीमारी की
खोज शुरू होती
है। पूछो
क्यों, कारण
में जाओ, निदान
करो, चिकित्सा
खोजो, औषधि
खोजो।
स्वास्थ्य तो
बस स्वास्थ्य
है, उसके
संबंध में
प्रश्न नहीं
उठाना है।
इसलिए
तुम समझो
थोड़ा।
ज्ञानियों
ने कहा है, परमात्मा
के संबंध में
प्रश्न मत
उठाओ। इसलिए
नहीं कि उत्तर
नहीं है; इसलिए
कि परमात्मा
यानी परम
स्वास्थ्य, बात ही क्या
उठानी है!
क्यों क्यों
पूछना! भोगो, नाचो, डूबो।
परमात्मा
के संबंध में
जो प्रश्न
उठाता है, उसने
स्वास्थ्य के
संबंध में
प्रश्न
उठाया। वह
मुल्ला
नसरुद्दीन
जैसा है। वह
पूछता है, आनंद
में हूं; क्यों?
जैसे आनंद
में होने पर
भरोसा नहीं
आता। वही दशा
तुम्हारी हो
जाती होगी।
कभी—कभी
मेरे
बोलते—बोलते
मेरे रुक जाने
से तुम्हारी
भी अंतर्धारा
मेरे साथ
चलती—चलती रुक
जाती है, तुम्हारे
बावजूद रुक
जाती है।
तुम्हारा चलता,
तो तुम चलाए
जाते। वह तो
मेरे साथ सुर तुम्हारा
बंध गया बोलने
में, तुम
मुझे सुनने
में तल्लीन हो
गए जब मैं रुक
गया एक क्षण
को, तो एक
क्षण को तुम
पटरी पर नहीं
आ पाते एकदम
से। थोड़ी देर
लग जाती है।
स्टार्ट करो
गाड़ी फिर, गेयर
में डालों, तब कहीं फिर
विचार शुरू हो
पाते हैं। वह
जो एक क्षण का
तुम्हें मौका
मिल जाता है, तुम्हारे
बावजूद, उसको
खोओ मत क्यों
पूछकर। उसमें
कोई नई बेचैनी
और प्रश्न मत
लाओ। उसे बिना
प्रश्न के
स्वीकार कर
लो।
मौन
के साथ
श्रद्धा को
जोड़ो, स्वास्थ्य
के साथ
श्रद्धा को
जोड़ो, परमात्मा
के साथ
श्रद्धा को
जोड़ो, बीमारी
के साथ संदेह
को। क्योंकि
बीमारी को मिटाना
है, स्वास्थ्य
को बढ़ाना है।
पूछने से कोई
स्वास्थ्य
बढ़ता नहीं। पूछने
से ही बीमारी
शुरू हो जाती
है।
अब
जब ऐसा घटे, डुबकी
लगा लो, सिर
डुबा लो नीचे
उस मौन की धार
में। तुम नए
होकर बाहर
आओगे। और तब
धीरे—धीरे ऐसा
भी होगा कि मैं
बोलता भी
रहूंगा और
तुम्हारे
भीतर कई बार सन्नाटा
आ जाएगा। तुम
यहां से उठकर
जाओगे, और
तुम पाओगे, सन्नाटा
तुम्हारे साथ
चल रहा है।
धीरे— धीरे
संगीत बैठने
लगता है। और
मौन सध जाए, तो सब सध
गया। मौन खो
गया, तो सब
खो गया।
क्योंकि उस
मौन में ही
तुम्हें अंतर्जगत
के दर्शन शुरू
होते हैं। उस
मौन में ही
तुम्हें बाहर
भी परमात्मा
की छवि दिखाई
पड्नी शुरू
होती है। मौन
द्वार है। मौन
मंदिर है।
पांचवां
प्रश्न : आपने
बताया है कि
एक अमेरिकी
दर्शक को
सदगुरु से
आंखें चार
होते ही पेट
में दर्द शुरू
हो गया। मेरा
अनुभव भी कुछ
ऐसा ही है।
संन्यास—दीक्षा
के बाद से ही
मेरे सिर में
अक्सर ऊर्जा
इकट्ठी होकर
दर्द बन जाती
है। कभी—कभी
तेज सिरदर्द
भी महसूस होता
है। ध्यान, प्रवचन
और दर्शन के
समय भी यह
प्रक्रिया
तीव्र हो उठती
है। सिर में
तनाव और शरीर
में पसीना भी
आता है। मैं
क्या करूं?
और
छठवां प्रश्न
: कल एक
अमेरिकी साधक
के अनुभव के
प्रसंग में
आपने बताया कि
ध्यान साधना
में ऐसी
शारीरिक बिमारिया
पैदा हो सकती
हैं, जिनका
इलाज सामान्य
चिकित्सा
नहीं कर सकती।
मुझे खुद ऐसा
पेट—दर्द
महीनों से है
और एक डाक्टर
के नाते आपके
अन्य साधकों
में भी मुझे
ऐसे रोग दिखाई
पड़े हैं।
कृपापूर्वक
बताएं कि उनके
निराकरण के
लिए सिर्फ
साक्षी— भाव
रखना है या कि
कुछ और विधि
भी काम में
लाई जा सकती
है?
ऐसा
घटता है। घटने
के कारण समझ
लें।
बच्चा
पैदा होता है, तब
उसकी
जीवन—ऊर्जा
सारे शरीर पर
एक—सी बहती है,
धारा
अखंडित होती
है। इसलिए तो
बच्चे इतने सुंदर
मालूम पड़ते
हैं। तुमने
कोई कुरूप
बच्चा देखा? कुरूप से
कुरूप बच्चा
भी सुंदर मालूम
पड़ता है। और
सुंदर से
सुंदर पुरुष
भी कुछ गहरी
कुरूपता को
लिए हुए चलता
लगता है। सभी
बच्चे सुंदर
पैदा होते हैं,
फिर
मुश्किल से
एकाध प्रतिशत
लोग सुंदर रह
जाते हैं, बाकी
सबका सौंदर्य
खो जाता है।
क्या मामला है?
बच्चे
के सौंदर्य का
कारण है, उसकी
जीवन की
श्रृंखला, उसके
भीतर की
ऊर्जा— धारा, उसकी जीवन—
धारा अभी पूरी
एक—सी बह रही
है। शरीर में
कहीं भी अवरोध
नहीं है।
ऊर्जा कहीं भी
रुकी नहीं है।
झरने पर कहीं
भी पत्थर नहीं
पड़े हैं।
लेकिन
जैसे—जैसे
बच्चा बड़ा
होगा, शिक्षा
होगी, दीक्षा
होगी, संस्कार
डाले जाएंगे,
ऊर्जा में
बंधन आने शुरू
हो जाएंगे।
छोटा
बच्चा है; अपनी
जननेंद्रिय
से खेल रहा
है। सारे
बच्चे सारी
दुनिया में
खेलते हैं।
कहीं कुछ
स्वाभाविक
बात है उसमें।
लेकिन मां ने
देख लिया। मां
चिल्लाई, बंद
करो, अलग
करो हाथ।
बच्चे ने हाथ
तो अलग कर
लिया, लेकिन
ऊर्जा में
खंडन हो गया।
पहली बार
ऊर्जा भयभीत
हुई। डर पैदा
हो गया। अपने
ही शरीर को दो
टुकड़ों में
तोड़ना जरूरी हो
जाएगा। नीचे
का शरीर, लोग
धीरे— धीरे
समझने लगते
हैं, गंदा
है।
अब
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है। शरीर
एक है, उसके
भीतर बहती खून
की धार एक है; उसके भीतर
हड्डी—मांस—मज्जा
का समूह एक है,
उसके भीतर
कहीं भी कोई
कंपार्टमेंट,
कहीं कोई
विभाजन नहीं
है। लेकिन सभी
समाजों ने
कामवासना के
प्रति ऐसी
अपराध— भावना
पैदा कर दी है
कि नीचे का
शरीर गंदा है,
नीचे के
शरीर में कहीं
कुछ पाप है, कहीं कोई
बुराई है।
कामवासना
बुरी है। उसके
साथ ही शरीर
के वे हिस्से.
जो कामवासना
से जुड़े हैं, गंदे
हो गए, त्याज्य
हो गए, उनको
छिपाना है।
उनको स्वीकार
नहीं करना है।
उनका स्पर्श नहीं
करना है।
यह
जो बचपन से
बच्चे के ऊपर
थोपी गई धारणा
है,
तो ठीक पेट
के पास, जहां
से काम—ऊर्जा
शुरू होती है,
नाभि के दो
इंच नीचे, वहां
दरार पड़ जाती
है। शरीर दो
हिस्से में
बंट गया, निम्न
और उच्च।
तुम्हारी
चेतना में भी
दरार पड़ गई।
अब तुम धीरे—
धीरे अपने को
नीचे के शरीर
के साथ
तादात्म नहीं
करते, तुम
ऊपर के शरीर
के साथ ही
तादात्म्य
करते हो।
वस्तुत:
धीरे — धीरे
ऐसी घड़ी आ
जाती है कि
तुम समझते हो कि
तुम खोपड़ी में
ही रहते हो, बाकी
शरीर तो बस
गौण है, खोपड़ी
में रहते हो।
अगर तुम गौर
भी करो, विचार
भी करो, तो
तुमको यही याद
आएगा कि खोपड़ी
के भीतर हो। खोपड़ी
स्वीकृत
मालूम होती
है।
सारे
शरीर को हमने
ढंक दिया है; सिर्फ
चेहरे को खुला
छोड़ दिया है।
अगर तुम्हारा
सिर काट लिया
जाए, तो
तुम्हारी मां,
तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारे
पिता भी
तुम्हारे
बाकी शरीर को
न पहचान
पाएंगे कि तुम
ही हो। तुम
खुद भी न
पहचान पाओगे,
अगर सिर काट
दिया जाए। अगर
ऐसा कोई उपाय
हो कि सिर को
काटकर, और
सिर से पूछा
जा सके कि यह
शरीर
तुम्हारा है?
तुम खुद ही
कहोगे, पता
नहीं, अपना
है या नहीं।
सारा
शरीर
अस्वीकृत है।
अस्वीकार के
कारण ऊर्जा का
प्रवाह खंडित
हो गया है। और
इस प्रवाह के
दों—तीन विशेष
स्थान हैं, जहां
खंडन हुआ है।
पहला खंडन
नाभि के नीचे
है।
तो
जिन लोगों को
ध्यान, ऊर्जा
के प्रवाह को
फिर से शुरू
कर देगा, जिनका
ध्यान गहरा
जाएगा, नाभि
पर चोट पड़ेगी,
ऊर्जा फिर
से उठेगी, जो
प्रवाह रुक
गया बचपन में
दमनकारी
विचारों के
कारण, वह
फिर से
प्रवाहमान
होगा। वर्षों
तक बंद पड़ी हुई
धारा फिर से
बहेगी; दर्द
मालूम होगा; पीडा मालूम
होगी।
जैसे
किसी का हाथ
बहुत दिन तक
बांधकर रखा
गया हो और अब
फिर अचानक उसे
स्वतंत्रता
दी जा रही है, तो
हाथ गति भी न
कर सकेगा।
लकवा लग गया।
बड़ी मुश्किल
होगी। स्नायु
जड़ हो गए, हड्डी
सख्त हो गई।
पीड़ा होगी।
तो
एक तो साधक को
पेट में पीड़ा
शुरू होती है।
कभी—कभी
दीक्षा के समय
ही,
संन्यास के
समय ही शुरू
हो जाती है।
अगर साधक की
भाव—दशा बहुत
गहरी है, तो
वह जैसे ही
मेरे पास
झुकता है, वैसे
ही काम शुरू
हो जाता है।
बहुत पीड़ा हो
सकती है। उस
पीड़ा के लिए
कुछ भी नहीं
करना है। उस पीड़ा
को स्वीकार करना
है। उसे अहोभाव
की तरह स्वीकार
करना है कि यह
अच्छा
हुआ
बंद ऊर्जा का
द्वार खुल रहा
है। उसे
धन्यभाव की
तरह
स्वीकार
करना है और
परमात्मा को
धन्यवाद देना
है कि तूने
मेरी फिर जीवन
— धारा को
प्रवाहित कर
दिया।
जितने
धन्यवाद से
तुम भरे रहोगे, उतने
ही जल्दी काम
हो जाएगा। अगर
तुमने पीड़ा के
विपरीत कुछ भी
चेष्टा की, तो फिर से
तुम द्वार को
बंद कर सकते
हो। इसलिए अच्छा
तो यही है कि
तुम कोई इलाज
मत करना, क्योंकि
कोई भी इलाज
ज्यादा से
ज्यादा पीड़ा को
भुलाने का
इलाज हो सकता
है।
और
यह पीड़ा
शारीरिक नहीं
है। यह पीड़ा
तुम्हारी
अंतर—ऊर्जा की
है,
और इसको मुक्त
करना है, इसको
बाहर लाना है,
इसको फिर
गतिमान करना
है। तुम्हें
फिर छोटे बच्चे
की तरह बनाना
है। तभी तुम
परमात्मा के
राज्य में
स्वीकृत हो
सकोगे।
जीसस
ठीक कहते हैं, जो
छोटे बच्चों
की भांति न
होंगे, वे
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश न कर
सकेंगे।
तुम्हें
फिर से जीवंत
होना है।
तुम्हारे जड़
हो गए अंगों
में फिर धार
बहानी है जीवन
की। फिर से
गतिमान करना
है तुम्हारे
झरने को।
तो
एक तो चोट
लगती है नाभि
के पास। और वह
वर्षों तक भी
रह सकती है, अगर
तुम उससे लड़ते
रहो, अगर
तुम कोशिश करो
कि यह न हो, तो
अभी भी तुम जो
खाई पैदा हो
गई है, उसे
पूरी नहीं
होने दे रहे
हो। तुम शिथिल
हो जाओ; तुम
उसे स्वीकार
कर लो। जब भी
बहुत पीड़ा
होने लगे, लेट
जाओ, आंख
बंद कर लो। और
ऐसा भाव करो
कि वहीं ठीक
नाभि पर, जहां
पीड़ा हो रही
है, ऊर्जा
ऊपर की तरफ उठ
रही है, और
तुम बाधा नहीं
डाल रहे हो।
तुम्हारी कोई
बाधा नहीं है,
तुम
अंगीकार कर
रहे हो, तुम्हारा
स्वागत है, आओ। तुम
बुलाते हो
ऊर्जा को।
एक
दिन अचानक तुम
पाओगे, एक
सरसराहट की
तरह, जैसे
बहुत दिन से
दबा हुआ
स्टिंग, पत्थर
हटा दिया गया
हो और स्टिंग
झटके से उठकर
खड़ा हो गया
हो। बहुत दिन
से दबा हुआ
झरना; और
शिला हटा दी
गई हो और एक
भयंकर तूफान
की तरह झरना
फूट पड़ा हो, ऐसा
तुम्हारे
भीतर से नाभि
के पास से
ऊर्जा फूटेगी।
उस ऊर्जा के
फूटने के साथ
ही तुम्हारे जीवन
में क्रांति
घट जाएगी। तुम
दूसरे ही व्यक्ति
हो जाओगे। तब
तुम समाज के
द्वारा दमित
व्यक्ति नहीं
रहे। योग ने
तुम्हें
मुक्त किया।
एक
तो यहां
कठिनाई होती
है। दूसरा
कठिनाई का क्षेत्र
है,
हृदय। एक तो
काम का दमन
किया है समाज
ने, तो
वहां अड़चन है।
दूसरा प्रेम
का दमन किया
है, वहां
अड़चन है।
प्रेम
को कोई भी
स्वीकार नहीं
करता है।
प्रेम खतरनाक
मालूम होता
है। इसलिए तुम
हृदय की बातें
करते हो, लेकिन
हृदय से
तुम्हारी कोई
पहचान नहीं
है। हृदय के
साथ खतरा है।
हृदय अंधा है,
लोग कहते
हैं। प्रेम
अंधा है, लोग
कहते हैं। जब
कि वस्तुत:
प्रेम ही
एकमात्र आंख
है। और जिसके
पास हृदय
जीवित नहीं है,
उसके पास
कुछ भी जीवित
नहीं। वह केवल
हड्डी—मास—मज्जा
की बनी मुरदा
देह है, लाश
है।
तुम
जिसको हृदय की
धड़कन समझते हो, वह
केवल फुस्फुस
की धड़कन है, हृदय की
नहीं। वह केवल
पंपिंग, खून
का पंप किया
जाना है। उस
हृदय के पीछे
छिपा हुआ एक
और अनुभूति का
बड़ा मार्मिक
स्थल है।
उसे
भी समाज ने
रोक दिया है।
समाज ने
तुम्हें विचार
सिखाया, तर्क
सिखाया, प्रेम
से बचाया है।
क्योंकि
प्रेमी आदमी
को धोखा दिया
जा सकता है, और प्रेम
करने वाला
व्यक्ति न तो
शोषण कर सकता
है, न लूट
सकता है। और
इस समाज में
शोषण और लूट
का ही रास्ता
है। यहां तो
बड़ी मछली छोटी
मछली को खाए, यही नियम
है।
तो
अगर तुम तर्क, संदेह
से न जीए तो
लुट जाओगे, मिट जाओगे
संसार में।
बड़ी दुकान न
बना पाओगे, बड़े नेता न
हो पाओगे, बड़े
पद पर न पहुंच
पाओगे, महत्वाकांक्षा
क्षीण हो
जाएगी। इसलिए
हृदय को दबा
दिया है।
तो
दूसरी पीड़ा
हृदय में होती
है,
वह दूसरा
स्थल है। अगर
प्रेम जगेगा,
तो हृदय में
बड़ी गहन पीड़ा
होगी। ऐसी ही
जैसे कि हार्ट
अटैक हुआ हो, जैसे हृदय
का दौरा पड़
गया हो। लेकिन
वह सौभाग्य है,
उससे
घबड़ाना मत।
उसके इलाज की
कोई भी जरूरत
नहीं। अगर
ध्यान से वह
हो, तो जरा
भी चिंता की
कोई बात नहीं
है। लेट गए, हृदय पर हाथ
रख लिया और
सहारा दिया कि
ठीक है, जागो,
उठो, फैलो,
फिर से
गतिमान हो जाओ,
फिर से
धड़को।
परमात्मा को
धन्यवाद
देना।
जल्दी
ही वह पीड़ा
पार हो जाएगी।
उस पीड़ा के पार
होते ही तुम
पाओगे, नहा
गए प्रेम में।
उस पीड़ा के
जाते ही तुम
पाओगे, तुम्हारी
आंख के देखने
का ढंग बदल
गया, तुम्हारे
अस्तित्व की
गरिमा और गुण
बदल गया। तुम
कुछ और ही हो
गए। जहां सूखा
तर्क चलता था,
वहा प्रेम
के फूल लगने
लगेंगे। जहां
केवल संदेह के
मरुस्थल थे, वहां प्रेम
के मरूद्यान
उठने लगेंगे।
हरियाली
फैलने लगेगी तुम्हारे
जीवन में। तुम
हरे होने लगोगे।
वह
एक पीड़ा की
जगह है। और
तीसरी एक पीड़ा
की जगह है, कंठ।
ये तीन स्थान
हैं आमतौर से।
कुछ और स्थान
भी हैं, वे
कभी—कभी अपवाद
रूप किन्हीं
व्यक्तियों
के जीवन में
होते हैं, अन्यथा
तीन सामान्य
स्थल हैं।
कंठ
भी अवरुद्ध
है। क्योंकि
जो तुम कहना
चाहते थे, कहने
नहीं दिया
गया। हंसना
चाहते थे, हंसने
नहीं दिया
गया। रोना
चाहते थे, रोने
नहीं दिया
गया। जब रोए
तो कहा, चुप
हो जाओ। हंसने
लगे जोर से, तो असभ्यता
थी! जो कहने का
मन था, वह
कहा नहीं; जो
नहीं कहने का
मन था, वह
कहलवाया गया।
तो कंठ में भी
अवरोध है।
ये
तीन क्षेत्र
पीड़ा के हैं।
और इन तीनों
में पीड़ा हो
ध्यान के बाद, संन्यास
के बाद, तो
घबड़ाना मत।
कोई चिकित्सा
की जरूरत
नहीं। यह
बीमारी है ही
नहीं। यह तो
स्वास्थ्य का
लौटना है।
लेकिन तुम
इतने दिन
बीमार रह गए
हो कि अब स्वास्थ्य
भी तुम्हें
बीमारी जैसा
लगता है। अब
तो स्वास्थ्य
के लौटने में
भी तुम्हें
घबड़ाहट लगती
है, क्योंकि
तुम खाट से
बंध गए हो।
खाट से बंधे
होने को तुमने
जीवन समझ लिया
है। अब यह जो
जीवन— धारा
आती है, तो
भयभीत करती है
कि यह क्या हो
रहा है!
घबड़ाओ
मत। इसलिए
निरंतर गुरु
की जरूरत है।
क्योंकि तुम
जहां—जहां
घबडाओगे, वहीं—वहीं
वह सहारा दे
सकेगा।
जहां—जहां भय
पकड़ेगा, वहीं—वहीं
निर्भय कर
सकेगा। और
इनके अतिरिक्त
भी कई स्थानों
पर भी दर्द और
पीड़ा हो सकती
है। सिर में
भी पीड़ा हो
सकती है। उसके
होने का कारण
भी है। सिर
में भी बड़े
दमन हैं।
सिर
के दो हिस्से
हैं,
मस्तिष्क
के दो भाग हैं,
बायां और
दाया। दोनों
के बीच में
छोटा—सा सेतु
है, जो
दोनों को जोड़े
हुए है। और
समाज बड़ा
अदभुत है।
उसने जो—जो
चीजें लेफ्ट
हैं, बाईं
हैं, उनका
दमन किया है।
तो तुम्हारा
दायां मस्तिष्क
दमन किया गया
है।
अगर
कोई बच्चा
बाएं हाथ से
लिखता है, तो
हम उसे लिखने
नहीं देते। दस
प्रतिशत
बच्चों को
बाएं हाथ से
ही लिखना
चाहिए, क्योंकि
वे वैसे ही
पैदा हुए हैं;
उनका बायां
हाथ ही सक्रिय
है। लेकिन
शिक्षक पीछे
पड़े हैं, माताएं
डंडा लिए खड़ी
हैं, बाप
खड़े हैं, कि
लिखो दाएं से।
अब
जो बच्चा बाएं
से ही लिखने
को पैदा हुआ
है,
वह दाएं से
लिखेगा, लेकिन
तुमने उसकी
जीवन—ऊर्जा
कुंठित कर दी।
उसका बायां
हाथ दमित किया
गया। बाएं हाथ
से दायां
मस्तिष्क
जुड़ा है और
दाएं हाथ से
बायां
मस्तिष्क
जुड़ा है। क्रास
की तरह जुड़े
हैं। अगर
तुमने उसको
बाएं हाथ से न
लिखने दिया, तो तुमने
उसके दाएं
मस्तिष्क को
दमित कर दिया।
वह दायां
मस्तिष्क
तड़फड़ाएगा। वह
बंद पड़ा रह
जाएगा। और वही
उसका असली
मस्तिष्क था।
यह बच्चा सदा
के लिए बुद्ध
हो जाएगा और
तुम इसी को
जिम्मेवार
ठहराओगे।
अभी
पश्चिम में
मनोवैज्ञानिक
और वैज्ञानिकों
का बड़ा समूह
इस पक्ष में
हो गया है कि
जो बच्चे बाएं
से लिखते हैं, उनको
बाएं से ही
लिखने दो।
अन्यथा तुम
उनको जीवनभर
के लिए
बुद्धिहीन
बना दोगे।
उनका असली मस्तिष्क
तो रोक दिया
जाएगा और जो
मस्तिष्क काम
करना नहीं
चाहता था, कर
नहीं सकता था,
उसके सहारे
उनको चलाया
जाएगा। तुमने
उन्हें नाहक
ही बैसाखिया
पकड़ा दीं। वे
अपने ही पैर
से दौड़ सकते
थे।
तो
जो लोग, दस
प्रतिशत लोग,
काफी बड़ी
संख्या है, उनको बगावत
करनी ही
चाहिए। ये
दाएं हाथ वाले
लोगों ने, नब्बे
प्रतिशत
लोगों ने, दस
प्रतिशत
लोगों की
गर्दन दबा ली
है।
अगर
तुम्हारा
लिखने का ढंग
बाएं से शुरू
हुआ हो—तुम
भूल भी गए हो
शायद—और जब जीवन—ऊर्जा
फिर से बहेगी, तो
तुम्हारा
दायां
मस्तिष्क
सक्रिय होगा,
वहा पीड़ा
शुरू हो
जाएगी। जहां
भी पीड़ा हो
ध्यान के बाद,
चिकित्सक
को दिखा लेना।
अगर चिकित्सक
कहे कि शरीर
में कोई खामी
नहीं है, कोई
खराबी नहीं है,
तो फिक्र मत
करना। अगर वह
कहे, शरीर
में कोई खराबी
है, तो दवा
ले लेना। अगर
शरीर में कोई
खराबी नहीं है,
तो ध्यान से
जो काम हो रहा
है, उसकी
कोई चिकित्सा
नहीं है।
चिकित्सा की
जरूरत नहीं
है। वह तो
स्वास्थ्य का
लौटना है।
वह
तो ऐसी धार हो
गए हो तुम नदी
की,
जहां सिर्फ
रेत रह गई है, पत्थर पड़े
रह गए हैं।
कहीं—कहीं
डबरे भरे रह
गए हैं। वर्षा
हो गई है
ध्यान की, फिर
से जल आया है
नदी में। फिर
से धार बहने
की कोशिश कर
रही है। कई
जगह पत्थर
तोड्ने
पड़ेंगे, आवाज
होगी, पीड़ा
होगी। कई जगह
मार्ग बनाना
पड़ेगा, पीड़ा
होगी।
लेकिन
यह सब पीड़ा
सौभाग्य है।
इसे अगर तुमने
धन्यवाद से
स्वीकार किया
और परमात्मा
के प्रति
अनुग्रह का
भाव रखा, तुम
पाओगे, जल्दी
ही पार हो गई।
साक्षी रहना
और परमात्मा को
काम करने
देना।
अपने
को छोड़ दो
उसके हाथ में, निमित्त
मात्र हो जाने
का यही अर्थ
है। वह जो कराए,
होने दो। वह
जो न कराए, उसकी
आकांक्षा न
करो।
अब
सुत्र :
तथा हे
अर्जुन, जो
कर्म
शास्त्र—विधि
से नियत किया
हुआ और कर्तापन
के अभिमान से
रहित, फल
को न चाहने
वाले पुरुष
द्वारा बिना
राग — द्वेष से
किया हुआ है, वह कर्म तो
सात्विक कहा
जाता है। और
जो कर्म बहुत
परिश्रम से
युक्त है तथा
फल को चाहने
वाले और
अहंकारयुक्त
पुरुष द्वारा
किया जाता है,
वह कर्म
राजस कहा गया
है।
तथा जो
कर्म परिणाम, हानि
और हिंसा और
सामर्थ्य को न
विचारकर केवल अज्ञान
से आरंभ किया
जाता है, वह
कर्म तामस कहा
जाता है।
तामस
का अर्थ है, मूर्च्छा
की एक दशा, जिसमें
तुम सोए—सोए
हो। जैसे कोई
नींद में चलता
हों। कई लोगों
को निद्रा में
चलने का रोग
होता है। रात
उठते हैं, फ्रिज
के पास पहुंच
जाते हैं, खोल
लेते हैं
फ्रिज, आइसक्रीम
खा लेते हैं, कोका—कोला
पी लेते हैं; बंद कर देते
हैं, वापस
लौट जाते हैं;
सो जाते
हैं।
सुबह
उनसे पूछो; उन्हें
कुछ याद नहीं।
अगर बहुत
चेष्टा करेंगे,
तो इतनी ही
याद आएगी कि
एक सपना देखा
कि फ्रिज के
पास खड़े हैं।
सपने में
फ्रिज खोला, सपने में
सपने की ही
आइसक्रीम खाई,
ऐसी उनको
याद ज्यादा से
ज्यादा आ सकती
है।
ऐसे
लोगों ने कई
बार दुनिया
में बड़ी
मुश्किलें
खड़ी कर दी
हैं। क्योंकि
खुद ही आदमी
रात उठता है, घर
में गड़बड़ कर
आता है, सो
जाता है। सुबह
पुलिस में खबर
करता है कि रात
घर में कोई
घुसा था, क्योंकि
चीजें
अस्तव्यस्त
हैं! कई
स्त्रियां
पकड़ी गई हैं, जो खुद ही
रात को उठकर
अपनी साड़ियों
को काट देती
हैं और सुबह
उपद्रव खड़ा हो
जाता है कि
किसने
साड़ियां
काटीं? कोई
भूत—प्रेत घर
में घुस गया
है! आग लगा दी
है लोगों ने
अपने ही
सामानों में।
धीरे—
धीरे
मनोविज्ञान
एक तथ्य पर
पहुंचा कि बहुत—से
लोगों को यह
बीमारी है। जब
इस तरह का बीमार
आदमी रात में
उठकर चलता है, तो
उसकी आंख खुली
होती है और
नींद नहीं
टूटती। इसलिए
वह टकराता भी
नहीं।
न्यूयार्क
में एक घटना
घटी कुछ
वर्षों पहले। एक
आदमी रोज रात
में उठकर अपनी
साठ मंजिल के
मकान से पास
की साठ मंजिल
के दूसरे मकान
पर छलांग
लगाता था। यह
रोज का कृत्य
था। धीरे —
धीरे लोग भी
जानने लगे कि
रात ठीक दो
बजे वे सज्जन आते
हैं,
दो—चार बार
उस तरफ जाते
हैं, दो—चार
बार इस तरफ।
बड़ा खतरनाक
मामला था। बड़ी
खाई थी साठ
मंजिल की!
धीरे—
धीरे खबर फैल
गई। एक रात
बहुत लोग
इकट्ठे हो गए
देखने। जैसे
ही उस आदमी ने
छलांग लगाई, कि
उन सारे लोगों
ने शोरगुल कर
दिया। उसकी
नींद टूट गई।
नींद टूट गई
कि वह घबड़ा
गया। वह पहुंच
गया दूसरे की
छत पर, खड़ा
हो गया। लेकिन
इतना घबड़ा गया,
उसे भरोसा
ही नहीं आया
कि यह क्या हो
रहा है, कि
घबड़ाहट में
उसका पैर फिसल
गया और गिर
गया। मर गया
वह आदमी। रोज
कर रहा था, उसे
याद ही न थी।
इसको निद्रा
में चलने का
रोग, सोम्नाबुलिज्म
कहते हैं।
तामस
ऐसी ही
जीवन—दशा है, जिसमें
तुम चलते हो, फिर भी
क्यों चल रहे
हो, पता
नहीं। दुकान
करते हो, क्यों
कर रहे हो, पता
नहीं। झगड़ा भी
हो जाता है, किसी की
हत्या भी कर
देते हो, पता
ही नहीं। पीछे
तुम्हीं कहते
हो, कुछ
पता नहीं, मेरे
बावजूद हो
गया! मैं करना
नहीं चाहता था
और हो गया।
मैंने सोचा ही
नहीं, और
हो गया। क्रोध
के क्षण में
हो गया। होश
ही न था।
ऐसी
नशे की दशा
में जो
जीवन—व्यवहार
चल रहा है, उसे
कृष्ण कहते
हैं, वह
तामस की
अवस्था है।
परिणाम
का विचार किए
बिना, हानि और
हिंसा का
विचार किए बिना,
सामर्थ्य
का ध्यान दिए
बिना, केवल
अज्ञान से, केवल अंधेरे
से जो उठता है
कृत्य; जिसके
लिए तुम अपना
उत्तरदायित्व
भी नहीं मानते,
जिसके लिए
तुम यह भी
नहीं कह सकते
कि मैंने किया
है, क्योंकि
तुमने
होशपूर्वक
किया ही नहीं
है।
बहुत—से
हत्यारे
अदालतों में
कहते हैं कि
उन्होंने
हत्या की ही
नहीं। पहले तो
समझा जाता था
कि वे झूठ बोल
रहे हैं।
लेकिन अब तो
झूठ को पकड़ने
के लिए
लाई—डिटेक्टर
की मशीन तैयार
हो गई है। ऐसे
हत्यारों को
लाई—डिटेक्टर
पर खड़ा करके
भी पूछा गया
है। वे तब भी
कहते हैं कि
नहीं, हमने
हत्या की ही
नहीं। और मशीन
भी कहती है कि
वे ठीक कहते
हैं। और सब
गवाह मौजूद
हैं कि
उन्होंने
हत्या की है।
रंगे हाथ वे
पकड़े गए हैं।
क्या मामला है?
मनसविद
इस पर काफी
अध्ययन किए
हैं पिछले तीस
वर्षों से। और
उन्होंने
पाया कि
इन्होंने हत्या
की है, लेकिन
इतने गहन तमस
में की है कि
इनको पता ही
नहीं है कि
इन्होंने की
है। नींद में
हो गई है।
इसलिए
पश्चिम में
मनोविज्ञान
और कानून के
बीच एक बड़ा
संघर्ष शुरू
हुआ है।
क्योंकि
मनोविज्ञान
कहता है, इस
तरह के आदमी
को सजा देना
गलत है। जब
उसने किया ही
नहीं, किसी
मूर्च्छा
के क्षण में
हुआ है, तो
सजा देने का
क्या सार है? उसने किया
होता, जानकर
किया होता, तो सजा का
कोई अर्थ था।
छोटे
बच्चों को तो
हम सजा नहीं
देते, क्योंकि
हम कहते हैं
कि उनकी समझ
नहीं, उत्तरदायित्व
नहीं। अगर
शराबी कोई पाप
कर ले, कोई
अपराध कर ले, तो उसको भी
हम कम सजा
देते हैं, क्योंकि
वह शराब पीए था।
अगर यह सिद्ध
हो जाए कि
आदमी पागल है
और पागलपन में
उसने कुछ किया,
तो हम उसे
माफ कर देते
हैं, क्योंकि
पागल को क्या
दंड देना! अब
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
तमस में
जिन्होंने
किया है, उनको
भी क्या दंड
देना। उनका भी
कोई उत्तरदायित्व
थोड़े ही है।
लेकिन
अगर उन्हें
छोड़ दो, तो
सभी अपराधी
छूट जाएंगे।
अगर उन्हें
छोड़ दो, तो
सभी अपराधी
छूट जाएंगे।
तब तो बुद्ध
जैसा आदमी पाप
करे, तो ही
सजा दे सकते
हो। क्योंकि
वही केवल
बोधपूर्वक कर
सकता है, बाकी
लोग तो
बोधहीनता में
करेंगे ही।
मुझे
भी लगता है, सजा
देना तो उचित
नहीं है, छोड़ना
भी उचित नहीं
है। चिकित्सा
करनी चाहिए।
सजा देना उचित
नहीं है, क्योंकि
सोए हुए आदमी
को क्या सजा
देनी! और कौन
सजा देगा? हत्या
करने वाला
सोया है, पकड़ने
वाला
पुलिसवाला
सोया है, अदालत
में निर्णय
देने वाला जज
सोया है, जूरी
तो घुर्राटे
ले रहे हैं।
उनका तो कोई पता
ही नहीं! सजा
कौन दे रहा है
इसको? किसलिए
दे रहा है? कौन
इसको सजा देने
का हकदार है?
सभी
एक से अपराधी
हैं। पूरा
समाज अपराधी
है। इसका इलाज
होना चाहिए।
इसकी
चिकित्सा
होनी चाहिए।
दुनिया में
शीघ्र ही वह
घड़ी आ जाएगी, जब
अपराधी बीमार
समझा जाएगा।
वह बीमार ही
है, वह
अपराधी है
नहीं।
दूसरे
तरह का ऐसा
कर्म है, जिसको
हम राजस कहते
हैं। एक, पहला
तामस, दूसरा
जिसे हम राजस
कहते हैं।
बहुत
परिश्रम से
युक्त, फल को
चाहने वाले, अहंकारयुक्त
पुरुष द्वारा
किया जाता है,
वह कर्म
राजस कहा जाता
है।
राजस
ऐसा कर्म है, जो
तुम्हारी
उत्तेजना के
कारण तुम करते
हो। तामस ऐसा,
जो तुम अपनी
मूर्च्छा के
कारण करते हो।
लोग
हैं,
जिनके जीवन
में ऐसी
रेस्टलेसनेस,
ऐसी
उत्तेजना है
कि वे खाली
नहीं बैठ सकते;
उन्हें कुछ
करने को
चाहिए। अगर वे
न करें, तो
बड़े बेचैन
होने लगते
हैं। अगर कुछ
न हो, तो
उसी अखबार को
दुबारा
पढ़ेंगे, तीसरी
बार पढ़ेंगे; रेडियो खोल
लेंगे, खिड़की
खोलेंगे, बंद
करेंगे; सामान
उठाकर रखने
लगेंगे यहां—वहा।
महिलाएं घर
में निरंतर
करती रहती हैं
इस तरह का
काम। फर्नीचर
ही जमा रही
हैं! घर की
सफाई ही कर
रही हैं! सफाई
जो कि काफी हो
चुकी, उसको
किए चली जा
रही हैं।
कुछ
एक भीतरी
उत्तेजना है, जो
उससे निकल रही
है। लोगों को
इसीलिए तो
ध्यान करना
सबसे कठिन
मामला है।
मूर्च्छित
ध्यान करे, सो
जाता है।
राजसी ध्यान
करे, हजार
तरह के काम
उसके शरीर में
उठने लगते
हैं। कहीं पैर
में चींटी
काटती है, देखता
है, चींटी
है ही नहीं। मगर
चींटी काटती
है। कहीं
खुजलाहट उठती
है। पहले कभी
न उठी थी, जिंदगीभर
न उठी थी। आज
कमर खुजला रही
है, कहीं
पीठ खुजलाती
है, कहीं
सिर खुजलाता
है।
ये
सब भीतरी
उत्तेजनाएं
हैं। इसलिए
राजस शांत
नहीं बैठ
सकता। राजस के
लिए सबसे कठिन
बात है, थोड़ी
देर शांत बैठ
जाना। राजस
तामस से भी
खतरनाक लोग
हैं। क्योंकि
तामसी आदमी तो
कभी—कभार कुछ
करता है। वह
तो आलसी होता
है। इतना
पक्का है कि
तामसी आदमी से
अच्छा काम
नहीं होता, बुरा काम भी
नहीं होता।
राजस बहुत
उपद्रवी है।
चंगेज
खां और
तैमूरलंग और
नेपोलियन और
स्टैलिन और
दुनिया के सब
राजनीतिज्ञ, वे
सब राजस, उपद्रवी
लोग हैं। वे
खाली नहीं बैठ
सकते। कुछ न
कुछ करते ही
रहेंगे। कहीं
न कहीं
क्रांति सुलगाएगे;
कहीं न कहीं
परिवर्तन
चलवाएंगें; कहीं न कहीं
कुछ न कुछ
उपद्रव! शांत
बैठना उन्हें
असंभव है। ये
दुनिया के
सबसे ज्यादा
खतरनाक लोग
हैं। इतिहास
में जिनके तुम
नाम पाते हो, वे सब राजस
हैं।
तामसियों
के नाम
तुम्हें
इतिहास में न
मिलेंगे, इतना
उपद्रव वे
करते नहीं कि
इतिहास तक आ
पाएं; कि
अखबार में
उनकी खबर छपें,
ऐसा उपद्रव
वे करते नहीं।
वे पाप भी
करते हैं, तो
छोटे—मोटे, क्योंकि बड़े
पाप करने के
लिए बड़ा आयोजन
चाहिए। इतनी
भी नींद
तोड्ने की
उनकी इच्छा नहीं
होती। वे तो
कभी—कभार, बेबस
ही हो गए, तो
कुछ थोड़ा
उपद्रव कर
लेते हैं।
उपद्रव उनका सतत
रोग नहीं है।
इसलिए
दुनिया में
राजनीति
जितने अपराध
करती है, और
कोई इतने
अपराध नहीं
करता। किसी
दिन अगर मनुष्य—जाति
समझदार होगी,
तो
राजनीतिज्ञों
से छुटकारा
पाने की
चेष्टा करेगी।
उसमें अच्छे
से अच्छा
राजनीतिज्ञ
भी बुरा ही
है।
राजनीतिज्ञ
और अच्छा, यह
ऐसे ही है, जैसे
नीम और मीठी!
यह होता ही
नहीं। जहर ही होगा
भीतर। वह राजस
की दौड़ है एक।
उसे कुछ करना
है, करके दिखाना
है। वह जब तक
कुछ कर न ले, जब तक उसके
चारों ओर आस —
पास झंझावात न
चलने लगे
घटनाओं का, तब तक उसे
चैन नहीं है।
कहते
हैं,
नेपोलियन
जब हार गया और
सेंट हेलेना
के द्वीप में
उसे बंद कर
दिया गया, तो
वह परिपूर्ण
स्वस्थ था।
लेकिन हारते
ही और सेंट
हेलेना के
द्वीप में
छोड़ते ही.।
द्वीप बड़ा
सुंदर था और
उस पर कोई
बंधन न थे।
घूम—फिर सकता
था, कोई
जंजीरें न
थीं। सम्राट,
हारे हुए
सम्राट की तरह
ही उससे
व्यवहार किया गया
था। लेकिन वह
जल्दी ही
रुग्ण हो गया।
बीमार हो गया
और मर गया।
चिकित्सक
कहते हैं कि
उसके रोग को
हम समझ न पाए।
उस पर बड़े
चिकित्सक लगे
थे। क्योंकि
वह कीमती आदमी
था। हारा था, तो
भी था तो
नेपोलियन ही।
चिकित्सक समझ
ही न पाए कि
इसकी बीमारी
क्या है! मैं
जानता हूं उसकी
बीमारी क्या
थी।
सभी
राजनीतिज्ञ
हारते ही मरने
को तैयार —हो
जाते हैं। जिस
दिन भारत चीन
के साथ पराजित
हुआ,
उसी दिन
नेहरू बीमार
पड़ गए। उसके
बाद फिर वे स्वस्थ
न हो सके। अगर
राजनीतिज्ञ
जीतता ही चला जाए,
तो वह कभी
बीमार ही नहीं
पड़ता। तुम उस
जैसा स्वस्थ
आदमी न पाओगे।
अगर वह लगा ही
रहे उपद्रव में,
तो तुम
पाओगे, उसके
पास बड़ा
स्वास्थ्य
है।
अगर
उसकी आशा लगी
ही रहे, जैसे
मोरारजी हैं,
वे बिलकुल
स्वस्थ हैं।
अस्सी पार कर
गए; अभी भी
आशा लगी है।
स्वस्थ
रहेंगे, जब
तक आशा है, तब
तक उनके
स्वास्थ्य को
तुम हिला नहीं
सकते। लेकिन
अगर आशा टूट
जाए तो वे इसी
दिन डूब जाएंगे।
उत्तेजना का
जीवन है।
चौबीस घंटे
कुछ होता रहे!
जब
औरंगजेब ने
अपने बाप को
बंद कर दिया
कैदखाने में, तो
उसके बाप ने
खबर भेजी कि
कुछ तू न कर, इतना तो कर
मेरे लिए कि
तीस लड़के भेज
दे, तो मैं
एक मदरसा खोल
दूं, एक
स्कूल चलाऊ।
औरंगजेब ने
अपनी जीवनी
में लिखवाया
है कि मेरे
बाप ने
जिंदगीभर कुछ
न कुछ किया
ही। वह
जेलखाने में
भी शांत नहीं
बैठ सकता। सब
सुविधा है।
विश्राम करे,
कुरान पढ़े,
नमाज पढ़े, आराम करे, कोई तकलीफ
नहीं है।
लेकिन वह बैठ
नहीं सकता खाली।
उसको उपद्रव
चाहिए!
और
ध्यान रखो, तीस
लड़के इतना
उपद्रव कर
सकते हैं, जितना
पूरी राजधानी
न कर सके। तो
उसको मदरसा खोलना
है। तीस लड़के
उसको भेज दिए
गए। बस, वह
फिर कुर्सी पर
बैठ गया डंडा लेकर।
न हुए सम्राट,
हेड मास्टर
ही हुए, क्या
हर्जा।
मगर
हेड मास्टर
होने में भी
बडा मजा है।
तुम जरा हेड
मास्टरों को
देखो स्कूल
में जाकर। उनकी
अकड़ देखो!
छोटे—छोटे
बच्चों के
सामने वे ऐसे बैठे
हैं,
जैसे सिकंदर,
नेपोलियन, और परम
ज्ञान को
उपलब्ध! जो वे
कहें, वह
कानून है। जो
वे कहें, वही
नियम है।
मनसविद
कहते हैं कि
शिक्षक होने
की जिन लोगों के
मन में
उत्सुकता है, उसमें
थोडी हिंसा
है। और दुनिया
में तुम बच्चों
से ज्यादा
हिंसा के लिए
योग्य पात्र
नहीं पा सकते।
उनको सताना
जितना आसान है
और जितना सुलभ
है, और
किसी को सताना
आसान नहीं है।
क्योंकि वे बिलकुल
निहत्थे हैं,
असहाय हैं।
और तुम सताओ, तो बच्चों
के मां—बाप भी
तुम्हारे साथ
हैं। क्योंकि
न सताओगे, तो
विद्या कैसे
आएगी! शान
कैसे पैदा
होगा!
स्कूल
का अध्यापक एक
छोटा—मोटा
राजनीतिज्ञ
है। वह कुछ भी
बकवास करता
रहता है, लोग
सुनते रहते
हैं। राजनेता
कुछ भी बकवास
बोलते रहते
हैं, लोग
सुनते रहते
हैं। ताकत
उनके हाथ में
है।
मैंने
सुना है, एक
गांव के एक
लायंस क्लब
में एक
राजनेता व्याख्यान
दे रहा था।
बड़ा राजनेता
था, और वह
दिए ही चला जा
रहा था
व्याख्यान।
लोग घबड़ा गए।
खा रहे हैं, पी रहे हैं, जैसे लायंस
क्लब और रोटरी
क्लब का रिवाज
है। मगर वह
बोले ही चला
जा रहा है। उस
घबड़ाहट में लोग
और ज्यादा
पीते गए।
आखिर
एक आदमी इतना
पी गया कि
उसने अध्यक्ष
से कहा कि
कृपा करके जिस
हथौड़ी से आप
घंटी बजाते हैं, इस
नेता के सिर
पर चोट मारो।
मत डरो
इमरजेंसी है
या नहीं, मारो।
फिर देखेंगे,
जो होगा। यह
चुप ही नहीं
हो रहा है।
लेकिन
अध्यक्ष भी
काफी पी चुका
था। बात तो
उसे भी जंची।
उसने हथौड़ी
उठाई, लेकिन
हाथ हिल रहा
था। मारा भी
उसने, लेकिन
उस नेता को तो
न लगा, जो
प्रधान अतिथि
था, उसकी
खोपड़ी पर लगा।
वह प्रधान
अतिथि
अर्ध—मूर्च्छा
में टेबल के
नीचे सरकने
लगा। नीचे से
उसकी आवाज आई,
एक बार और
मारो, मुझे
व्याख्यान
अभी भी सुनाई
पड़ रहा है!
ताकत
के खोजी हैं।
फिर वे सता
सकते हैं। फिर
तुम उन्हें
रोक नहीं
सकते। फिर वे
हजार बहाने खोज
लेते हैं, उन्हें
जो करना है, जो बोलना
है। वह सारी
राजस की
व्यवस्था है।
बहुत परिश्रम
करते हैं वे, इसमें कोई
शक नहीं। अगर
श्रम को ही
मूल्य देना हो,
तो राजसी
लोग बड़ी मेहनत
उठाते हैं।
परिणाम कुछ
नहीं आता, मगर
मेहनत बड़ी
उठाते हैं।
दौड़ते बहुत हैं,
पहुंचते
कहीं नहीं।
कोल्हू के बैल
सिद्ध होते
हैं। लेकिन
यात्रा काफी
करते हैं।
और
तीसरा है सत्व
कर्म, सात्विक
कर्म। जो
शास्त्र—विधि
से नियत......।
शास्ताओं
द्वारा कहा
हुआ;
जिन्होंने
जाना है, जो
जागे हैं, उनके
इशारे के
अनुसार जो
किया जाए।
तामसी
व्यक्ति अपने
अज्ञान के
इशारे से करता
है,
राजसी
व्यक्ति अपने
भीतर अतिशय
शक्ति के कारण
करता है, उत्तेजना
के कारण करता
है, ऊर्जा
के कारण करता
है। सात्विक
व्यक्ति न तो अपने
अज्ञान से
करता है, न
अपनी ऊर्जा के
कारण करता, शास्ताओं के
वचनों के
अनुसार करता
है। जो जागे, उन बुद्ध पुरुषों
से सूत्र लेता
है। उन्होंने
जो कहा, वही
करता है। अपने
पर भरोसा नहीं
करता, बुद्ध
पुरुषों पर
भरोसा करता
है। अपने को
बाद दे देता
है, बुद्ध
पुरुषों को
आगे ले लेता
है।
जो
कर्म
शास्त्र—विधि
से नियत, कर्तापन
के अभिमान से
रहित..।
स्वभावत:, जब
तुम शास्ताओं
का नियम मानकर
चलोगे, तो
तुम्हें
कर्तापन का
भाव होगा ही
नहीं, तुमने
किया ही नहीं।
अब
तुम
राजनीतिज्ञ
से कहो कि तू
कर्तापन छोड़ दे, तब
तो सारी
राजनीति ही
छूट जाती है!
फिर करेंगे ही
क्यों!
राजनीतिज्ञ
तो दौड़ ही रहा
है, ताकि
कर्तापन
सिद्ध हो जाए
कि मैंने करके
दिखा दिया।
सात्विक
व्यक्ति, जो
शास्ताओं के
वचन मानकर
चलता है, जो
उनके दीए की
ज्योति में
चलता है, जो
अपने अहंकार
से इशारे नहीं
लेता और न
अपने अज्ञान
से इशारे लेता
है; जो
कहता है, तुम
दोनों चुप रहो;
जिन्होंने
जाना है, उनका
सूत्र मेरा
जीवन—सूत्र
होगा।
स्वभावत:, उसका
कर्तापन गिर
जाता है। उसको
फल की भी कोई
चाहना नहीं
होती। वह तो, जो जानने
वालों ने कहा
है, उसे
करने में ही
इतना आनंदित
हो जाता है कि
अब और फल क्या
चाहिए! उसे
साधन ही साध्य
हो जाता है।
उसे इसी क्षण
सब कुछ मिल
जाता है; उसे
कल की कोई
वासना नहीं रह
जाती। वैसा
कर्म सात्विक
कहा जाता है।
ये
तीन कर्म हैं, मगर
तीनों के भीतर
तुम्हारी तीन
तरह की चेतना की
अवस्थाएं
हैं। असली
सवाल कर्म का
नहीं है, असली
सवाल
तुम्हारी
चेतना—अवस्था
का है। तमस का
अर्थ है, तुम
मूर्च्छित।
रजस का अर्थ
है, तुम
विक्षिप्त।
सत्व का अर्थ
है, तुम होशपूर्वक,
जागे हुए, ध्यानपूर्वक,
सुरति से
भरे।
मूर्च्छा
से खींचो अपने
को,
अहंकार से
भी उठाओ अपने
को। न तो
अज्ञान के कारण
कुछ करो, न
करना है, करने
में रस आ रहा
है, उत्तेजना
मिल रही है, इसलिए करो; बल्कि इसलिए
करो, ताकि
प्रत्येक
कृत्य
तुम्हारे
भीतर और नए जीवन
की, जागरण
की सुविधा बन
जाए।
प्रत्येक
कृत्य तुम्हें
और जगाए, तुम्हारा
प्रत्येक
कृत्य
तुम्हें और
सावधानी से
भरे।
प्रत्येक
कृत्य कदम बन
जाए तुम्हारे
अंतर—जागरण का,
तो एक दिन
तुम्हारे
भीतर सोया हुआ
बुद्ध उपलब्ध
हो सकता है।
पाने
को कहीं जाना
नहीं; भीतर ही
खोदना है।
होने को कहीं
जाना नहीं; खजाना तुम
लेकर ही आए
हो। जो है, उसे
तुम लिए ही
हुए हो, इस
क्षण भी।
सिर्फ जागना
है, सिर्फ
होश से भरना
है।
आज
इतना ही।
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