अध्याय—17
सूत्र:
198
सद्भावे
साधुभावे च
सदित्येतगयुज्यते।
प्रशस्ते
कर्मणि तथा
सच्छब्द:
पार्थ
युज्यते।। 26।।
यज्ञे
तपसि दाने च
स्थिति: सीदति
चौच्यते।
कर्म
चैव तदर्थीयं
सदित्येवाभिप्रीयते
।। 27।।
अश्रद्धया
हुतं दत्तं तपस्तप्तं
कृतं च यत्।
असदित्युच्यते
पार्थ न च तत्प्रेत्य
नौ इह ।। 28।।
और सत्— ऐसे
यह परमात्मा
का नाम सत्य—
भाव में और
श्रेष्ठ— भाव
में प्रयोग
किया जाता है।
तथा हे पार्थ,
उत्तम कर्म
में भी सत्
शब्द प्रयोग
किया जाता है।
तथा यज्ञ
तय और दान में
जो स्थिति है,
वह भी सत् है, ऐसे कही
जाती है। और
उस परमात्मा
के अर्थ किया
हुआ कर्म
निश्चयपूर्वक
सत् है,
ऐसे कहा जाता
है।
और हे
अर्जुन, बिना
श्रद्धा के होम।
हुआ हवन तथा
दिया हुआ दान
एवं तपा हुआ
तप और जो कुछ
भी किया हुआ
कर्म है वह
समस्त असत् है
ऐसे कहा जाता
है। इसीलिए वह
न तो हम लोक
में लाभदायक
है और न मरने
के पीछे ही।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : कहा
जाता है कि
कृष्ण द्वारा
अठारहवां
अध्याय पूरा
करते ही
महाभारत का
युद्ध
प्रारंभ हो
गया था। क्या
आपके द्वारा
भी अठारहवां
अध्याय पूरा
होने पर किसी
महाभारत की
संभावना है? ज्योतिषी
भी कहते हैं
कि बाईस जुलाई
को आठ ग्रह एक
ही स्थान पर
इकट्ठे हो रहे
हैं।
महाभारत
न तो कभी शुरू
होता और न कभी
अंत,
वह मनुष्य के
अज्ञान के साथ
चलता ही रहता
है। कृष्ण ने
गीता कही, उसके
पहले भी वह चल
रहा था; कृष्ण
ने गीता पूरी
की, तब भी
वह चलता रहा।
अज्ञान
ही महाभारत है।
कभी शीत, कभी
गर्म, कभी
प्रकट, कभी
अप्रकट, लेकिन
मूर्च्छा में
तुम लड़ते ही
रहोगे।
मूर्च्छा में
लड़ना ही जीवन
मालूम होता है।
हजार
रूपों में
युद्ध चल रहा
है,
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। युद्ध के
लिए कोई आकाश
से बम—वर्षा
होनी आवश्यक
नहीं है। वह
तो आखिरी
परिणति है। वह
तो युद्ध का
आखिरी रूप है।
लेकिन तैयारी
तो घर—घर में
चलती है; तैयारी
तो हृदय—हृदय
में चलती है।
युद्ध युद्ध
के मैदानों पर
नहीं लडे जाते,
मनुष्य के
अंधकार में
लड़े जाते हैं।
इसे
ठीक से समझ लो, अन्यथा
धोखा खड़ा होता
है। पहला तो
धोखा यह खड़ा
हो जाता है कि
हम सोचने लगते
हैं, महाभारत
कोई बाहर का
युद्ध है।
महाभारत
बाहर का युद्ध
नहीं है। अगर
युद्ध बाहर का
होता, तो गीता
के जन्म का
उपाय ही न था।
युद्ध तो भीतर
का है। बाहर
भी उसकी
प्रतिध्वनि
सुनी जाती है,
बाहर भी
परिणाम होते
हैं। लेकिन
युद्ध सदा
भीतर है।
तुम
चौबीस घंटे
बंटे हुए हो, लड़
रहे हो। किसी
दूसरे से तो
बाद में लड़ोगे,
पहले तुम
अपने से लड़
रहे हो।
एक
भी ऐसी
तुम्हारे
जीवन की पल—दशा
नहीं है, जब
तुम्हारा
किसी न किसी
अर्थों में
संघर्ष न चल
रहा हो। और
जहां संघर्ष
है, वहां
कैसे शांति
होगी? और
जहां संघर्ष
है, वहा
कैसे समाधि
फलित होगी? फिर
तुम्हारा
संघर्ष, तुम
जिनसे जुड़े हो,
उनमें फैल
जाता है—
क्षुद्र
बातों पर!
तुमने
कभी ध्यान
दिया, कितनी
छोटी बातों पर
तुम लड़ते हो।
जैसे बातें तो
बहाना हैं; लड़ना तुम
चाहते हो, इसलिए
कोई भी बहाना
काम दे देता
है।
एक
बड़ी प्रसिद्ध
हंगेरियन
कहानी है कि
एक आदमी का
विवाह हुआ।
झगडैल
प्रकृति का था, जैसे
कि आदमी
सामान्यत:
होते हैं। मां—बाप
ने यह सोचकर
कि शायद शादी
हो जाए तो यह
थोड़ा कम
क्रोधी हो जाए,
थोड़ा प्रेम
में लग जाए, जीवन में
उलझ जाए तो
इतना उपद्रव न
करे, शादी
कर दी।
शादी
तो हो गई। और
आदमी झगडैल
होते हैं, उससे
ज्यादा झगडैल
स्त्रियां
होती हैं।
झगडैल होना ही
स्त्री का
पूरा शास्त्र
है, जिससे
वह जीती है।
मां—बाप लड़की
के भी यही
सोचते थे कि
विवाह हो जाए,
घर—गृहस्थी
बने, बच्चा
पैदा हो, सुविधा
हो जाएगी। उलझ
जाएगी, तो
झगड़ा कम हो
जाएगा।
लेकिन
जहां दो झगडैल
व्यक्ति मिल
जाएं, वहां
झगड़ा कम नहीं होता;
दो गुना भी
नहीं होता; अनंत गुना
हो जाता है।
जब दो झगड़ैल
व्यक्ति
मिलते हैं, तो जोड़ नहीं
होता गणित का;
दो और दो
चार, ऐसा
नहीं होता, गुणनफल हो
जाता है।
पहली
ही रात, सुहागरात,
पहला ही—भेंट
में जो चीजें
आई थीं, उनको
खोलने को
दोनों उत्सुक
थे—पहला डब्बा
हाथ में लिया;
बड़े ढंग से
पैक किया गया
था। पति ने
कहा कि रुको, यह रस्सी
ऐसे न खुलेगी।
मैं अभी चाकू
ले आता हूं।
पत्नी ने कहा
कि ठहरो, मेरे
घर में भी
बहुत भेंटें
आती रहीं। हम
भी बहुत
भेंटें देते
रहे हैं।
तुमने मुझे
कोई नंगे—लुच्चो
के घर से आया
हुआ समझा है? ऐसे सुंदर
फीते चाकुओं
से नहीं काटे
जाते, कैंची
से काटे जाते
हैं।
झगड़ा
भयंकर हो गया
कि फीता चाकू
से कटे कि
कैंची से कटे।
दोनों की
इज्जत का सवाल
था। बात इतनी
बढ़ गई कि
डब्बा उस रात
तो काटा ही न
जा सका, सुहागरात
भी नष्ट हो गई
उसी झगड़े में।
और विवाद, क्योंकि
प्रतिष्ठा का
सवाल था, दोनों
के परिवार दाव
पर लगे थे कि
कौन सुसंस्कृत
है!
वह
बात इतनी बढ़
गई कि वर्षों
तक झगड़ा चलता
रहा। फिर तो
बात ऐसी
सुनिश्चित हो
गई कि जब भी
झगडे की हालत
आए,
तो पति को
इतना ही कह
देना काफी था,
चाकू! और
पत्नी उसी
वक्त
चिल्लाकर
कहती, कैंची!
वे प्रतीक हो
गए।
वर्षों
खराब हो गए।
आखिर पति के
बरदाश्त के
बाहर हो गया।
और डब्बा
अनखुला रखा है।
क्योंकि जब तक
यही तय न हो कि
कैंची या चाकु
तब तक वह खोला
कैसे जाए। कौन
खोलने की
हिम्मत करे?
एक
दिन बात बहुत
बढ़ गई, तो पति
समझा—बुझाकर
झील के किनारे
ले गया पत्नी
को। नाव में
बैठा, दूर
जहां गहरा
पानी था, वहा
ले गया, और
वहा जाकर बोला
कि अब तय हो
जाए। यह पतवार
देखती है, इसको
तेरी खोपड़ी
में मारकर
पानी में गिरा
दूंगा। तैरना
तू जानती नहीं
है, मरेगी।
अब क्या बोलती
है? चाकू
या कैंची? पत्नी
ने कहा, कैंची।
जान
चली जाए, लेकिन
आन थोड़े ही
छोड़ी जा सकती
है! रघुकुल
रीत सदा चली
आई, जान
जाय पर वचन न
जाई।
पति
भी उस दिन तय
ही कर लिया था
कि कुछ
निपटारा कर ही
लेना है। यह
तो जिंदगी
बरबाद हो गई।
और चाकू—कैंची
पर बरबाद हो
गई!
लेकिन
वह यही देखता
है कि पत्नी
बरबाद करवा रही
है। यह नहीं
देखता कि मैं
भी चाकू पर ही
अटका हुआ हूं
अगर वह कैंची
पर अटकी है।
तो दोनों कुछ
बहुत भिन्न
नहीं हैं। पर
खुद का दोष तो
युद्ध के क्षण
में,
विरोध के
क्षण में, क्रोध
के क्षण में
दिखाई नहीं
पड़ता। उसने
पतवार जोर से
मारी, पत्नी
नीचे गिर गई।
उसने कहा, अभी
भी बोल दे! तो
भी उसने डूबते
हुए आवाज दी, कैंची। एक
डुबकी खाई, मुंह—नाक
में पानी चला
गया। फिर ऊपर
आई। फिर भी
पति ने कहा, अभी भी
जिंदा है। अभी
भी मैं तुझे
बचा सकता हूं?
बोल! उसने
कहा, कैंची।
अब पूरी आवाज
भी नहीं निकली,
क्योंकि
मुंह में पानी
भर गया। तीसरी
डुबकी खाई, ऊपर आई। पति
ने कहा, अभी
भी कह दे, क्योंकि
यह आखिरी मौका
है! अब वह बोल
भी नहीं सकती
थी। डूब गई।
लेकिन उसका एक
हाथ उठा रहा
और दोनों
अंगुलियों से
कैंची चलती
रही। दोनों
अंगुलियों से
वह कैंची
बताती रही—डूबते—डूबते,
आखिरी क्षण
में।
महाभारत
के लिए कोई
कुरुक्षेत्र
नहीं चाहिए; महाभारत
तुम्हारे मन
में है।
क्षुद्र पर
तुम लड़ रहे हो।
तुम्हें लड़ने
के क्षण में
दिखाई भी नहीं
पड़ता कि किस
क्षुद्रता के
लिए तुमने
आग्रह खड़ा कर
लिया है। और
जब तक
तुम्हारा
अज्ञान गहन है,
अंधकार गहन
है, अहंकार
सघन है, तब
तक तुम देख भी
न पाओगे कि
तुम्हारा
पूरा जीवन एक
कलह है। जन्म
से लेकर
मृत्यु तक, तुम जीते
नहीं, सिर्फ
लड़ते हो। कभी—कभी
तुम दिखलाई
पड़ते हो कि लड़
नहीं रहे हो, वे लड़ने की
तैयारी के
क्षण होते हैं;
जब तुम
तैयारी करते
हो।
गीता
के शुरू और
अंत होने से
कोई संबंध
नहीं है। न ही
आठ ग्रहों के
इकट्ठे होने
से कुछ लेना—देना
है।
आदमी
हमेशा दोष
दूसरे पर देने
में बड़ा कुशल
है। युद्ध तुम
करोगे, आठ
ग्रहों का
मिलना
जिम्मेवार
होगा। वह भी
तरकीब है, बेईमानी
है। युद्ध तुम
करोगे, लड़ोगे
तुम, युद्ध
तुम्हारे
भीतर से आएगा,
आठ निर्दोष
ग्रहों के
मिलने से
युद्ध का क्या
लेना—देना? लेकिन हम
हमेशा ही दोष
किसी को देकर
अपने को बचा
लेना चाहते
हैं। जब कोई
भी नहीं मिलता,
तो निर्दोष
ग्रह मिल जाते
हैं, कि
ग्रह मिल रहे
हैं, कि
सूर्यग्रहण
हो गया, कि
चंद्रग्रहण
हो गया। आदमी
क्या—क्या
तरकीबें
निकालता है, सिर्फ एक
बात को देखने
से बचने के
लिए कि तुम्हारे
भीतर शांति
नहीं है। तुम अशांत
हो। तुम जो भी
करोगे, तुम
जो भी छुओगे, वहीं तुम अंशांति
का रोग
फैलाओगे। तुम
जिसके पास
जाओगे, वहीं
कलह खड़ी हो
जाएगी। तुम
प्रेम करने
जाओगे और
सिर्फ घृणा
पैदा होगी।
तुम सोना
छुओगे और
मिट्टी हो
जाएगा।
रोग
तुम्हारे
भीतर है, आठ
ग्रह
तुम्हारे
भीतर मिले हुए
हैं। और तब
पंडित हैं, पुजारी हैं,
वे मिल
जाएंगे कि युद्ध
आने के करीब
है, आठ
ग्रह मिल रहे
हैं; शांति
के लिए
महायज्ञ होने
चाहिए।
करोडों रुपये
महायज्ञों पर
फूंके जाएंगे।
महायज्ञ
की जरूरत
तुम्हारे
भीतर है। और
वहां किसी
अग्नि में घी
डालने से काम
न चलेगा, वहां
तो परमात्मा
की अग्नि में
तुम्हें स्वयं
को ही डालना पड़ेगा।
वही एक मात्र
यश है, जीवन—यज्ञ,
जहां तुम
अपनी आहुति दे
देते हो और
अपने अहंकार
को जल जाने देते
हो। अहंकार के
बाद जो बच
रहता है, फिर
कोई युद्ध
नहीं है, फिर
कोई उपाय ही
नहीं है युद्ध
का।
तुम्हारे
भीतर सूत्र
टूटना चाहिए।
आदमी
जैसा है, वैसा
तो लड़ता ही
रहेगा। कितना
ही बचाओ, कितना
ही समझाओ, अहिंसा
का पाठ पढ़ाओ, कोई फर्क न
पड़ेगा। वह
अहिंसा के लिए
लड़ेगा। कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
तलवारें उठ
जाएंगी, अहिंसा
की रक्षा करनी
है। कितना ही
धर्म सिखाओ, वह धर्म के
लिए लड़ेगा, इस्लाम खतरे
में है, हिंदू
धर्म खतरे में
है।
कोई
भी मूढ़ जोर से
शोरगुल मचा दे, हिंदू
धर्म खतरे में
है, फिर
कोई नहीं
पूछता कि
हिंदू धर्म है
कहां, जो
खतरे में है? कहीं धर्म
भी खतरे में
होते हैं? लेकिन
लड़ने के लिए
बहाने हैं।
कोई भी बहाने
काम दे जाते
हैं।
आदमी
ऐसी—ऐसी चीजों
पर लड़ा है कि
भरोसा नहीं
आता अब। बड़ी
क्षुद्र
बातों पर लड़ा
है। इससे एक
बात सिद्ध
होती है कि
बातों से कोई
संबंध ही नहीं
है;
आदमी लड़ना
चाहता है।
बातें तो
बहाने हैं; वे तो
खूंटियां हैं
जिन पर हम
अपने भीतर की
घृणा, विद्वेष,
ईर्ष्या, जलन टांग
देते हैं।
खूंटियों का
क्या लेना—देना?
कोट तुम
खूंटी न मिलेगी,
तो दरवाजे
के कोने पर टांग
दोगे। कहीं न
कहीं जगह खोज
लोगे टांगने
के लिए।
असली
सवाल युद्ध
नहीं है, असली
सवाल मनुष्य
की युद्ध से
भरी चित्त—दशा
है। और इस
चित्त—दशा को
तुम थोड़ा
गहराई से
समझने की
कोशिश करो।
क्योंकि इस
चित्त—दशा का
जो पहला आधार—बिंदु
है, वह अपने
से लड़ना है।
दूसरे
से लड़ने तो
तुम बाद में
जाते हो, पहले
तुम अपने से
लड़ते हो। और
तुम्हारे
तथाकथित
आदर्शवादियों
ने तुम्हें वह
लड़ाई सिखाई है।
वे कहते हैं, तुम्हारे
भीतर क्रोध है,
लड़ो क्रोध
से। युद्ध
शुरू हुआ।
तुम्हारे
भीतर
कामवासना है,
लड़ो
कामवासना से।
युद्ध शुरू
हुआ। और जब
तुम अपने से
लड़ोगे, तो
तुम दुनिया
में किसी के
भी साथ बिना
लड़े नहीं रह
सकते। जो अपने
से बिना लड़े
नहीं रह सका, वह किस से
बिना लड़े रह
जाएगा!
इसलिए
समस्त
युद्धों के
पीछे शैतानों
का हाथ नहीं
है,
तुम्हारे तथाकथित
महात्माओं का
हाथ है।
उन्होंने तुम्हें
विभाजित कर
दिया, तोड़
दिया दो
हिस्सों में।
वे कहते हैं, तुम्हारे
नीचे का
हिस्सा बुरा,
ऊपर का
हिस्सा अच्छा।
लड़ो! तुम्हारे
भीतर शैतान
छिपा है, उससे
लड़ो। वे
तुम्हें
खंडित करते
हैं। और
तुम्हें एक
युद्धस्थल
में बदल देते
हैं।
फिर
तुम अपने से
ही लड़ते हो।
जैसे कोई अपने
ही दाएं—बाएं
हाथ को लड़ाए।
जीत कभी नहीं
होती; सिर्फ
मिटते हो, नष्ट
होते हो, समाप्त
होते हो, सड़ते
हो।
और
जितना ही जीवन
खोता जाता है
लड़ाई में, उतना
ही क्रोध बढ़ता
जाता है।
क्योंकि तुम
जीवन के आनंद
को अनुभव नहीं
कर पाए। आए और
गए; अवसर
ऐसे ही खो गया।
मंदिर के
द्वार तक
पहुंच गए थे
और द्वार के
भीतर प्रवेश न
हुआ। अधूरे, अपूर्ण, अतृप्त
विदा हो गए।
मौत करीब आ
जाती है।
तुम्हारे
आदर्शवादियों
ने तुम्हें
अपने से लड़ना
सिखाया है।
कृष्ण की सारी
शिक्षा यही है
अर्जुन से कि
तू अपने से मत
लड़,
तू अपने को
स्वीकार कर।
तू क्षत्रिय
है, तू
ब्राह्मण
होने की नाहक
चेष्टा मत कर।
वह तेरा
गुणधर्म नहीं
है; वह
तेरा स्वभाव
नहीं है।
कृष्ण
सभी
महात्माओं के
विपरीत हैं।
इसलिए
महात्मा
कृष्ण का नाम
लेने में भी
जरा डरते हैं।
और अगर लेते
हैं,
तो कृष्ण के
ऊपर अपनी
धारणाएं थोप
देते हैं, अपनी
व्याख्या थोप
देते हैं।
कृष्ण
का मूल संदेश
क्या है
अर्जुन को? एक
छोटी—सी बात
कृष्ण उसे
समझा रहे हैं
कि जो तेरा
स्वधर्म है, जो तेरा
होने का ढंग
है, जैसा
तू आदमी है, तू क्षत्रिय
है, तू
लड़ाका है।
तेरे जीवन की
सारी कला, तेरी
सारी कुशलता
तेरी वीरता
में है, तेरे
क्षत्रियत्व
में है। आज
अचानक तू
ब्राह्मण
होने के खयाल
से भर रहा है; आज अचानक तू
अपने
क्षत्रिय से
लड़ने जा रहा
है.।
अर्जुन
सोचता है कि
वह एक बड़े
युद्ध से बच
रहा है। और
कृष्ण देख रहे
है कि वह एक
बड़े युद्ध की
शुरुआत कर रहा
है। यह बड़ा
बुनियादी और
बारीक मामला
है।
अर्जुन
तो ऊपर से ऐसे
ही दिखाई पड़ता
है,
यह कह रहा
है कि मुझे
जाने दें; संन्यस्त
हो जाऊंगा।
वानप्रस्थ
दशा पैदा हो
गई। अब तो
विराग आ गया।
अब क्या मारना
इन लोगों को!
इस युद्ध में
मुझे कोई रस
नहीं मालूम
होता।
हे
कृष्ण, मेरा
गांडीव शिथिल
हो गया है, मेरे
गात शिथिल हो
गए हैं। लड़ने
का कोई उन्मेष
नहीं है, लड़ने
की कोई ऊर्जा
नहीं है, लड़ने
का कोई भाव
नहीं है। इन
अपनों को
मारकर मैं
क्या करूंगा।
इससे
तो अच्छा है, मैं
संन्यस्त हो
जाऊं। क्या
सार है धन को
पा लेने में? पद—प्रतिष्ठा,
राज, सिंहासन,
करूंगा
क्या? अपने
ही न बचेंगे, भोगने वाले
न बचेंगे, उत्सव
मनाने वाले न
बचेंगे, फायदा
क्या है? मैं
हट जाता हूं।
सम्हालने दो
कौरवों को, भोगने दो
उन्हें। मैं
युद्ध से अपने
को अलग कर
लेता हूं।
जो
भी ऊपर से
देखेगा, उसे
लगेगा कि
अर्जुन युद्ध
से हटना चाह
रहा है, शांतिवादी
है।
बर्ट्रेंड
रसेल, महात्मा
गांधी, विनोबा
का अनुयायी है;
पेसिफिस्ट
है। पहला
पेसिफिस्ट, शांतिवादी
है। और जो ऊपर
से देखता है, उसको लगेगा,
कृष्ण
युद्धवादी
हैं; क्योंकि
कृष्ण कहते
हैं, तू लड़।
और
मैं तुमसे
कहता हूं बात
बिलकुल उलटी
है। कृष्ण
अर्जुन को युद्ध
से बचा रहे
हैं,
क्योंकि
अर्जुन एक
भीतरी युद्ध
में पड़ने की कोशिश
कर रहा है। और
बाहर के युद्ध
तो सिर्फ
प्रतिध्वनियां
हैं; असली
युद्ध तो भीतर
है।
अर्जुन
अपने
क्षत्रियत्व
को इनकार कर
रहा है, जिसका
कि उसके खून—खून
में, रोएं—रोएं
में वास है।
बूंद—बूंद में
जो छिपा है, उसके कण—कण
में जो बना है,
उसके भीतर
सब तरफ
क्षत्रिय है।
वह स्वभाव से
क्षत्रिय है।
कृष्ण
का वचन बड़ा
अदभुत है, स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
अपने स्वभाव
में, स्वधर्म
में, अपने
ढंग में, अपनी
शैली में मर
जाना बेहतर है।
पर धर्मो
भयावह:। और
दूसरे के धर्म
में, दूसरों
की शैली में
जाना बड़ा
भयावह है
अर्जुन। तू
चूक जाएगा।
ब्राह्मण
होना तेरी
नियति नहीं।
क्षत्रिय
होना तेरी
नियति है।
उसके लिए ही
तू निर्मित
हुआ है। वही
तेरी मास—मज्जा
में समाया है;
वह तेरी
आत्मा है।
कृष्ण यह कह
रहे हैं, तू
अपनी निजता को
मत झुठला। तू
अगर जंगल में
भी भाग जाएगा
और संन्यासी
होकर झाडू के
नीचे बैठ
जाएगा और तुझे
एक हरिण दिख
जाएगा, तो
हरिण को देखकर
तुझे सौंदर्य
का खयाल न
आएगा, तू
आस—पास
टटोलेगा कि
मेरा धनुष—बाण
कहां है! हरिण
को देखकर
कविता पैदा न
होगी तेरे मन
में, धनुष—बाण
की खोज शुरू
हो जाएगी। अगर
सिंह तुझे दिख
जाएगा और धनुष—बाण
भी न हुआ, तो
तू छलांग
लगाकर कूद
पड़ेगा और
युद्ध में उतर
जाएगा। तेरा
रोआं—रोआं
क्षत्रिय का
है। वह तेरा
गुणधर्म है; वह तेरा
स्वधर्म है।
मैं
भी तुमसे यही
कहता हूं
स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
तुम अगर
गृहस्थ हो, और
वही तुम्हारा
सुख और शांति
है, और अगर
तुमने वहीं
पाया है अपनी
नियति को, तो
तुम
संन्यासियों
की मत सुनना।
होगा
उनका स्वधर्म
संन्यास, तुम्हारा
नहीं है। जहां
तुम्हें शांति
मिल रही हो, जहां
तुम्हें जीवन
की ऊर्जा
सहजता से
प्रवाहित
होती मालूम
होती हो, जहां
ऊर्जा में कोई
स्खलन न होता
हो, जीवन
एक प्रवाह हो—अगर
दुकान पर हो, तो दुकान; दफ्तर में
हो, तो
दफ्तर, पहाड़
पर हो, तो
पहाड़।
मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि कोई
स्थान चुनने
योग्य है।
तुम्हारे
जीवन की सहजता
चुनने योग्य
है।
एक
बड़ी अनूठी
कहानी है, अशोक
के जीवन में
घटी। कहना
मुश्किल है कि
कहा तक सच है।
लेकिन बड़ी
गहरी सचाई की
खबर देती है।
एक
संध्या, वर्षा
के दिन हैं, पाटलीपुत्र
में, पटना
में अशोक गंगा
के किनारे खड़ा
है। भयंकर बाढ़
आई है गंगा
में। सीमाएं
तोड़कर गंगा बह
रही है। बड़ा
विराट उसका
रूप है; भयंकर
ताडव करता
उसका रूप है।
न मालूम कितने
गांव बहा ले
गई। न मालूम
कितने खेतों
को विनष्ट कर
दिया, कितने
पशु—पक्षी
बहते चले जा
रहे हैं। अशोक
खड़ा है अपने
आमात्यों, अपने
मंत्रियों के
साथ। और उसने
कहा कि क्या
यह संभव है, क्या कोई
ऐसा उपाय है
कि गंगा उलटी
बह सके? ऐसा
अचानक उसको
खयाल उठ आया
कि क्या कोई
रास्ता है कि
गंगा उलटी बह
सके स्रोत की
तरफ? आमात्यों
ने कहा, असंभव।
और अगर चेष्टा
भी की जाए तो
अति कठिन है।
एक वेश्या भी
अशोक के साथ
गंगा के
किनारे आ गई है।
वह नगर की सब
से बड़ी वेश्या
है। उन दिनों
में वेश्याएं
भी बड़ी
सम्मानित
होती थीं। वह
नगरवधू है। उस
वेश्या का नाम
था, बिंदुमति।
वह हंसने लगी
और उसने कहा
कि अगर आप आशा
दें, तो
मैं इसे उलटा
बहा सकती हूं।
अशोक
चौंका। उसने
कहा कि क्या
ढंग है? क्या
मार्ग है इसको
उलटा बहाने का?
तेरे पास
ऐसी कौन—सी
कला है? तो
उस वेश्या ने
कहा, मेरी
निजता का सत्य।
बड़ी
अनूठी कहानी
है। उसने कहा, मेरी
निजता का सत्य,
मेरे जीवन
का सत्य मेरी
सामर्थ्य है।
मैंने उसका
कभी उपयोग
नहीं किया।
बड़ी ऊर्जा
मेरे जीवन के
सत्य की मेरे
भीतर पड़ी है।
अगर आप कहें, तो यह गंगा
उलटी बहेगी, मेरे कहने
से बहेगी।
इसका मुझे
पक्का भरोसा
है। क्योंकि
मैं अपने सत्य
से कभी भी नहीं
डिगी। सम्राट
को भरोसा न
आया, पर
उसने कहा, देखें।
वेश्या ने आंखें
बंद कीं; और
कहानी कहती है
कि गंगा उलटी
बहने लगी।
सम्राट तो
चरणों पर गिर
पड़ा वेश्या के।
और उसने कहा, बिंदुमति, हमें तो कभी
पता ही न चला
कि तू वेश्या
के अतिरिक्त
भी कुछ और है।
यह राज, यह
रहस्य तूने
कहां सीखा? यह तो बड़े
सिद्ध पुरुष
भी नहीं कर
सकते हैं।
वेश्या
ने कहा, मुझे
सिद्ध
पुरुषों का
कोई पता नहीं।
मैं तो सिर्फ
एक सिद्ध
वेश्या हूं।
और वही मेरे
जीवन का सत्य
है।
क्या
है तेरे जीवन
का सत्य, तू
खोलकर कह, अशोक
ने कहा। उसने
कहा, मेरे
जीवन का सत्य
इतना है कि
मैं जानती हूं, वेश्या
होना ही मेरे
जीवन की शैली
है, वही
मेरी नियति है।
अन्यथा मैंने
कभी कुछ और
होना नहीं
चाहा। अन्यथा
की चाह ही
मैंने कभी
अपने भीतर
नहीं आने दी।
मैं समग्र हूं
मैं सिर से
लेकर पैर तक
वेश्या हूं।
मेरा रोआं —रोआं
वेश्या है। और
मैंने वेश्या
के धर्म से
कभी अपने को
च्युत नहीं
किया।
अशोक
ने पूछा, क्या
है वेश्या का
धर्म? पागल,
मैंने कभी
सुना। नहीं कि
वेश्या का भी
कोई धर्म होता
है। हम तो
वेश्या को
अधार्मिक
समझते हैं। और
यही मैं मानता
था कि तू
कितनी ही
सुंदर हो, लेकिन
तेरे भीतर एक
गहरी कुरूपता
है। क्योंकि
तू शरीर को
बेच रही है, सौंदर्य को
बेच रही है।
इससे क्षुद्र
तो कोई
व्यवसाय नहीं!
वेश्या
ने कहा, व्यवसाय
क्षुद्र और
बड़े नहीं होते,
व्यवसायी
पर सब निर्भर
करता है। मेरे
जीवन का सत्य
यह है कि मेरे
गुरु ने, जिसने
मुझे वेश्या
होने की
शिक्षा और
दीक्षा दी, उसने मुझे
कहा कि एक
सूत्र भर को
सम्हाले रखना,
तो तेरा
मोक्ष कभी
तुझसे छिन
नहीं सकता। और
वह सूत्र यह
है कि चाहे
धनी आए चाहे
गरीब आए; चाहे
शूद्र आए, चाहे
ब्राह्मणं आए;
चाहे सुंदर
पुरुष आए, चाहे
कुरूप पुरुष
आए; चाहे
जवान, चाहे
का; कोढ़ी
आए रुग्ण आए; जो भी तुझे
पैसे दे, तू
पैसे पर ध्यान
रखना और
व्यक्तियों
के साथ समान
व्यवहार करना।
न तो तू कोढी
को और रोगी को
घृणा करना, न सुंदर को
प्रेम करना।
वह वेश्या का
काम नहीं है।
तू तटस्थ रहना।
तेरा काम है
पैसा ले लेना।
बस, बात
खतम हो गई।
तेरा ध्यान
पैसे पर रहे।
ब्राह्मण आए,
तो तू अतिशय
भाव से उसके
पैर मत छूना।
और शूद्र आए, तो तू उसे
इनकार मत करना।
तेरा काम है
पैसा। वेश्या
का ध्यान पैसे
पर। बाकी कोई
भी आए, तू
सम— भाव रखना।
वही तेरा
सम्यकत्व है,
वही तेरा
सत्य है।
और
मैंने उसे
सम्हाला है। मैंने
न तो कभी किसी
के प्रति
प्रेम किया, लगांव
दिखाया, आसक्ति
बनाई, मोह
किया, नहीं।
न मैंने कभी
किसी को घृणा
की, जुगुप्सा
की, नहीं।
मैं दूर तटस्थ
खड़ी रही हूं।
तब
तो वेश्या भी
संन्यस्त हो
जाती है।
कृष्ण ठीक
कहते हैं, स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
वह
अर्जुन को यही
समझा रहे हैं
कि तू ठीक से
पहचान ले, तेरा
स्वधर्म क्या
है। अगर तू
कहता है, संन्यासी
होना तेरा
स्वधर्म है, अगर तू
मानता है, समझता
है कि
संन्यासी
होना तेरा
स्वधर्म है, तो तू जा।
लेकिन आज तक
तुझमे
संन्यास की
कोई झलक दिखाई
नहीं पड़ी।
काफी जीवन
तेरा बीत गया।
हम पुराने
संगी—साथी हैं।
कभी तुझमे
मैंने
ब्राह्मण की
कोई झलक नहीं
देखी; संन्यासी
का कोई भाव
नहीं देखा। तू
शुद्ध
क्षत्रिय है।
अर्जुन से
ज्यादा शुद्ध
क्षत्रिय
खोजना भी मुश्किल
है। तो तू
इससे भिन्न हो
न सकेगा। तो
एक ही उपाय है
कि तू अपने ही
धर्म के सत्य
को उपलब्ध हो,
निजता को मत
छोड़। कृष्ण यह
कह रहे हैं कि
तू अपने भीतर
.अगर निजता को
छोड्कर किसी
और के पीछे
चलेगा, किसी
और की सुनेगा,
किसी और
आदर्श से
प्रलोभित
होगा, तो
तेरे भीतर
द्वंद्व पैदा
हो जाएगा।
और
जिस व्यक्ति
के भीतर
द्वंद्व पैदा
हो गया, वही, असली युद्ध
है। फिर एक
संघर्ष शुरू
होता है, जिसका
कोई अंत नहीं
है। क्योंकि
तुम अपने से
ही लड़ते हो, अंत हो कैसे
सकता है!
और
तुम सभी लड़
रहे हो। कोई
क्रोध से लड़
रहा है, कोई
काम से लड़ रहा
है, कोई
लोभ से लड़ रहा
है। लोभ भी
तुम्हारा है,
क्रोध भी
तुम्हारा है,
लड़ने वाले
भी तुम हो, करोगे
क्या? तुम
अपने को ही
बांट लोगे दो
हिस्सों में
और अपने से ही
लड़ोगे। कोई
जीत सकता है? जीत संभव है?
तुम व्यर्थ
ही खो जाओगे।
अपने
को स्वीकार कर
लो,
स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
अपने को
परिपूर्ण भाव
से स्वीकार कर
लो। तुम जो हो,
उससे
अन्यथा होने
का उपाय नहीं है।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
न होगी। जिस
दिन तुम
स्वीकार कर
लोगे कि तुम
जो हो, उससे
अन्यथा होने
का उपाय नहीं
है, तुम्हें
तुम्हारे
धर्म का सत्य
उपलब्ध हो जाएगा।
तुम गंगा को
उलटी बहा सकते
हो। बड़ी ऊर्जा
है तुममें, अगर तुम
अखंड हो।
वह
वेश्या अखंड
रही होगी। और
उसने बड़ी
निष्णात
कुशलता से
सम्यकत्व को साध
लिया था।
वेश्या का
सवाल नहीं है, न
संन्यासी
होने का सवाल
है। क्योंकि
यह हो सकता है,
संन्यासी जंगल
में बैठा हो
और वेश्या का
विचार करे; तब उसके
भीतर द्वंद्व
है, संघर्ष
है, कुरुक्षेत्र
है। और वेश्या
वेश्यालय में
बैठी हो और
संन्यास की
धारणा करे; उसके भीतर
भी द्वंद्व है।
तुम जहां
हो,
वहा पूरे
रही।
तुम्हारी
समग्रता ही
तुम्हें
मोक्ष की तरफ
ले जाएगी, मुक्ति
की तरफ ले
जाएगी।
और
बड़ी अनूठी बात
यह है कि जिस
दिन तुम अपने
को परिपूर्ण
स्वीकार कर
लेते हो, उसी
दिन तुम्हारे
भीतर क्रांति
शुरू हो जाती है।
जिसने
स्वीकार कर
लिया अपने
क्रोध को, उसके
स्वीकार में
ही अतिक्रमण
है। वह क्रोध
से ऊपर उठ गया,
वह क्रोध के
पार हो गया।
उस स्वीकार
में ही वह अलग
हो गया, साक्षी
हो गया।
वह
वेश्या अपने
वेश्यापन को
स्वीकार करके
साक्षी हो गई, अलग
हो गई, भिन्न
हो गई। अब सब
खेल रह गया, लीला रह गई।
इसलिए तो कोढ़ी
आए, स्वस्थ
आए, बीमार
आए, युवा
आए, बूढ़ा
आए, कोई
अंतर न रहा, सब खेल हो
गया, सब
नाटक हो गया।
वेश्या दूर
खड़ी हो गई।
अर्जुन
को कृष्ण यही
कह रहे हैं कि
तू बीच में मत
आ, दूर खड़ा हो
जा—तटस्थ भाव
से, फलाकांक्षाशून्य,
अनासक्त।
जो तेरी निजता
है, उसको
प्रकट होने दे।
इस क्षण से
भाग मत, और
अपने से भाग
मत।। अपने से
कोई कहीं भाग
नहीं पाया कभी।
कहा जाओगे
भागकर अपने से?
जहां जाओगे,
तुम तो
तुम्हीं
रहोगे। जिसने
अपने को
समग्ररूपेण
स्वीकार कर
लिया—इसे
लाओत्से ने
तथाता कहा है—उसके
जीवन में
परितोष आ जाता
है, संतोष
बरस जाता है।
उसी संतोष में
क्रांति घटित
होती है।
तुम
जरा कोशिश
करके देखो।
लड़कर तो तुमने
बहुत कोशिश
करके देख ली
जन्मों —जन्मों
से। पिछले
जन्म तुम्हें
याद भी न हों, तो
इस जन्म में
भी तुमने लड़कर
कोशिश कर ली।
तुम एक सालभर
के लिए मेरी
मान लो कि तुम
लड़ी मत, तुम
अपनी निजता
में बहो।
संसार
कुछ भी कहे, लोग
कितना ही
समझाएं कि
तुम्हें
बुद्ध होना है,
महावीर
होना है, राम
होना है, कृष्ण
होना है, तुम
किसी की मत
सुनना।
क्योंकि तुम्हें
तुम ही होना
है; न राम
होना है, न
बुद्ध होना है,
न कृष्ण
होना है। वे
सब विजातीय
हैं तुम्हारे
लिए।
तुम
चेष्टा करके
राम अगर हो भी
गए,
तो झूठे, रामलीला के
राम हो पाओगे।
उसका कोई
मूल्य नहीं है,
दो कौड़ी भी
मूल्य नहीं है।
यह भी हो सकता
है कि रामलीला
के राम के भी
लोग पैर छूते
हैं, तुम्हारे
भी छुए। पर
इससे तुम कुछ
प्रसन्न मत
होना। इसमें
कुछ सार नहीं
है। तुम तुम
ही होने को
पैदा हुए हो।
कृष्ण
के वचनों से
बडी संसार में
कोई दूसरी व्यवस्था
नहीं है
अनुशासन की, जिसने
व्यक्ति को
उसके निजता के
परम स्वीकार के
लिए आग्रह
किया हो।
अर्जुन
जैसे ही राजी
हो जाएगा, समझ
लेगा कि मैं
क्षत्रिय हूं
और इससे
अन्यथा मैं
कैसे हो सकता
हूं कौन होगा
इससे अन्यथा,
मेरा सारा
होना यही है, उसी क्षण
क्षत्रिय के
बाहर एक सूत्र
खड़ा हो गया जो
साक्षी का है।
फिर युद्ध में
उतर सकता है।
फिर यह युद्ध एक
नाटक है।
यदि
चाहते हो कि
महाभारत न हो, तो
तुम्हारे हाथ
में केवल इतना
ही है कि भीतर जो
युद्ध चलता है,
उसे तुम रोक
दो। और नकल
में मत पड़ो।
कोई और होने
की कोशिश मत
करो।
तुम्हारी
कोशिश ऐसी ही
है,
जैसे गुलाब
का फूल कमल
होना चाहे।
पागल हो जाएगा।
कमल तो क्या
होगा, गुलाब
भी न हो पाएगा।
शक्ति लग
जाएगी कमल
होने में, गुलाब
होने से वंचित
रह जाएगा।
तुम
वही हो सकते
हो,
जो तुम हो।
तुम्हें पूरा
ही बनाया गया
है; कुछ
अधूरा नहीं है,
कुछ कमी
नहीं है। तुम
जरा एक वर्ष
के लिए अपने
को स्वीकार
करके देख लो, और देखो, कैसी
शांति तुम्हारे
चारों तरफ घनी
हो जाती है!
बड़ी
कठिनाई होगी।
क्योंकि
सैकड़ों
वर्षों की
शिक्षा
तुम्हें सदा, जैसे
बैल को कोई
पीछे से कोंचे
चला जाता है, ऐसे तुम्हें
कोच रही है, कोड़े लगा
रही है। कुछ
बनो! दौड़ो! ऐसे
खड़े—खड़े जीवन
गंवा दोगे।
बुद्ध बनो, महावीर बनो,
कृष्ण बनो।
जैसे
परमात्मा
तुम्हें
स्वीकार नहीं
करता, सिर्फ
बुद्धों को
स्वीकार करता
है।
और
कभी तुम यह भी
तो देखो, बुद्ध
बुद्ध कैसे
बने! उन्होंने
कोई और बनने की
कोशिश नहीं की,
इसलिए
बुद्ध बने।
मैंने
सुना है, एक
सूफी फकीर
अपने गुरु के
आसन पर
विराजमान हुआ
गुरु की
मृत्यु के बाद।
लोगों में बड़ी
अफवाहें चलीं।
लोगों में बड़े
शक—संदेह उठे।
आखिर गांव के
लोग इकट्ठे हो
गए। कहना
जरूरी था।
क्योंकि बात
जरा गलत थी।
क्योंकि इस
शिष्य का
व्यवहार गुरु
से बिलकुल भिन्न
था। यह गुरु
के पद का
अधिकारी न था।
लोगों
ने कहा कि
क्षमा करें, नाराज
न हों, लेकिन
आप गुरु के पद
के अधिकारी
नहीं हैं।
क्योंकि आप
ऐसी कोई भी
बात हमें नहीं
दिखाई पड़ती, जो गुरु की
मानते हों।
वह
फकीर हंसने
लगा। उसने कहा, इसीलिए।
मेरे गुरु भी
अपने गुरु की
नहीं मानते थे।
इसीलिए मैं
उनका शिष्य
हूं। मेरे
गुरु अपने ढंग
के आदमी थे।
उनके गुरु
अपने ढंग के
आदमी थे। मैं
अपनेढंग का
आदमी हूं। और
मेरे गुरु ने
स्वयं को मेरे
ऊपर नहीं थोपा।
सिर्फ मुझे
सहारा दिया कि
मैं वही हो
स्कंध जो मैं
हो सकता हूं।
सदगुरु और
असदगुरु का
यही फर्क है।
सदगुरु तुमसे
कहेगा, स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
अपने धर्म में,
अपनी निजता
में मर जाना
भी ठीक ' दूसरे
की निजता को
ओढ़कर जीना भी
गलत। सफलता भी
मिल जाए दूसरे
के पाखंड को
ओढ़कर, दूसरे
के वस्त्रों
में छिपकर, तो सफलता दो
कौड़ी की है।
असफल भी होना
पड़े अपनी
निजता को
बचाते हुए, तो असफल
होना भी
श्रेयस्कर।
क्योंकि उस
असफलता में भी
तृप्ति होगी
कि तुम तुम ही
रहे।
तुम्हारे
कंठ पर ही जब
पानी की बूंद
पड़ेगी, तभी
तृप्ति आएगी।
दूसरे के
कंठों पर पडने
से कुछ हल न
होगा।
तुम्हारी आंख
जब देखेगी
प्रकाश को, तभी
सूर्योदय
होगा। दूसरों
की आंखों से
देखने से कुछ
भी न होगा।
तुम उधार मत
बनना।
अर्जुन
के मन में बड़े
उधार बनने की
चेष्टा पैदा
हो गई थी।
कृष्ण की सारी
व्यवस्था यही
है कि वह उधार
न बने। नगद, स्वयं
रहे। वहीं से
युद्ध शुरू
होता है, फिर
युद्ध फैलता
चला जाता है।
फिर तुम घर
में लड़ते हो, परिवार में
लड़ते हो, समाज
में लड़ते हो, राज्य। फिर
युद्ध फैलता
चला जाता है, फिर पूरी
पृथ्वी एक
युद्ध है।
चांद—तारों
को दोष मत दो।
थोड़ा भीतर
देखो। आदमी के
अतिरिक्त और
कोई दोषी नहीं
है।
दूसरा
प्रश्न : इस
अत्यंत
आक्रमणशील
युग में —चित्त
वाले लोगों को
कोई भी जगह
जीना कठिन लगता
है; क्योंकि
शिक्षा ही
आक्रामक होकर
जीने की दी जाती
है। लोग अपने
जैसा ही करके
छोड़ेंगे, ऐसा
लगता है। तो
क्या करें?
तुम्हें
एक पुरानी
कहानी कहता
हूं।
यहूदियों में
कथा है कि
छत्तीस छिपे
हुए संत सदा
पृथ्वी पर
घूमते रहते
हैं। ?ई वे
लोगों को
जगाने की
कोशिश करते
हैं, गिरतो
को सम्हालने
की कोशिश करते
हैं, भटकों
को बुलाने की
कोशिश करते
हैं, दुखियों
को सांत्वना
बंधाते हैं।
और छिपे हैं, उनकी कोई
घोषणा नहीं
होती। वे
चुपचाप
अदृश्य हाथों
से इन सारे
कामों को करते
रहते हैं।
यद्यपि—कहानी
का जो असली
सूत्र है, वह
यह है—उनके
करने से कुछ
परिणाम नहीं
होता। न तो वे
गिरीं को उठा
पाते हैं, न
वे सोयों को
जगा पाते हैं,
न वे
दुखियों को
सुखी कर पाते
हैं। लेकिन
उनकी चेष्टा
के कारण
परमात्मा
संसार को बनाए
रखता है।
यह
बड़ी मीठी कथा
है यहूदियों
में। जिस दिन
वे छत्तीस
आदमी निराश हो
जाएंगे, उस
दिन पृथ्वी
विलीन हो
जाएगी।
यद्यपि उन
छत्तीस से कुछ
भी नहीं होता;
हो नहीं
सकता।
क्योंकि जो
आदमी गिरा है,
वह अपनी
मरजी से गिरा
है, उसकी
मरजी के बिना
तुम उसे उठा
नहीं सकते। और
तुम्हारी सब
उठाने की
चेष्टाएं उसे
और गिरने का
आमंत्रण बन
जाएंगी।
और
जो सोया है, वह
जानकर सोया है।
तुम उसे जगा
नहीं सकते। और
जो दुखी है, उसने दुख
में कुछ
नियोजित कर
रखा है, उसका
इनवेस्टमेंट
है, तुम
उसे सुखी नहीं
कर सकते।
क्योंकि उसे
तुम सुखी
करोगे, तो
उसके
इनवेस्टमेंट
का क्या होगा?
समझो
कि एक पत्नी
बीमार पड़ी है
घर में। रोती
रहती है; अपनी
हजार झूठी—सच्ची
बीमारियों की
चर्चा करती
रहती है। और
तुम उसे सुखी
करना चाहते हो।
वह तुम उसे न
कर पाओगे, क्योंकि
उसकी इस
बीमारी के
पीछे एक राज
है। यह बीमारी
पति को
नियंत्रित
करने का उपाय
है। वह उसका
इनवेस्टमेंट
है। इसी ढंग
से वह पति.।
क्योंकि जब
पत्नी बीमार
होती है, तो
पति क्या कर
सकता है।
मानना पड़ता है
जो भी पत्नी
कहती है।
स्वस्थ पत्नी
का इनकार भी
कर दो। अब मर
रही है, बिस्तर
पर पड़ी है, उसको
क्या कहो!
झुकना पड़ता है।
एक
दफा
स्त्रियों को
पता चल जाता
है कि तानाशाही
करने का सुगम
उपाय बीमारी
है,
फिर बहुत
मुश्किल है।
तब ऐसा भी
होता है कि
पति जब बाहर
जाता है, तब
पत्नी बिलकुल
ठीक रहती है, पास—पड़ोस
में जाती है, बातचीत करती
है, रस
लेती है; अखबार
पढ़ती है, रेडियो
चलाती है।
जैसे ही पति
के आने का
वक्त होता है,
रेडियो बंद,
अखबार हट
जाते हैं, बिस्तर
पर लेट जाती
है। और जितनी
बीमारी होती
है, उससे
हजार गुना
करके बताती है।
डाक्टरों
को पता है कि
स्त्रियों की
बीमारियों पर
एकदम से भरोसा
नहीं किया जा
सकता, पचास
प्रतिशत झूठी
होती हैं। और
बाकी जो पचास
प्रतिशत हैं,
जितना बड़ा
पहाड़ बनाकर
बताया जाता है,
उतना नहीं
होतीं। छोटा—सा
राई, तिल
और पर्वत जैसा
बताया जाता है।
कारण हैं।
इसलिए
इस स्त्री को
तुम सुखी नहीं
कर सकते, क्योंकि
वह सुखी होना
नहीं चाहती।
वह दुखी जानकर
है। दुख उसका
व्यवसाय है।
उसने दुख में
से रास्ता बना
लिया है।
छोटे—छोटे
बच्चे भी समझ
लेते हैं। जब
बच्चा बीमार
होता है, तो
बाप भी आकर
पास बैठता है,
पैर दबाता
है। जब बच्चा
बीमार होता है,
पड़ोसी
देखने आते हैं।
जब बच्चा
स्वस्थ होता
है, कोई
फिक्र नहीं
करता, कोई
देखता ही नहीं;
कोई ध्यान
ही नहीं देता।
बच्चे ने एक
गणित सीख लिया,
कि जब तक
तुम दुखी न
होओ, तुम
पर ध्यान नहीं
दिया जा सकता।
और ध्यान की
बड़ी गहरी आकांक्षा
है सब में कि
लोग ध्यान दें।
लोग ध्यान दें,
उससे
तुम्हारे
अहंकार की
पुष्टि होती
है।
तो
बच्चा बीमार
है। वह बाहर
जाकर टांग
तोड़कर आ जाता
है,
हाथ में चोट
मारकर आ जाता
है। ध्यान
मांग रहा है।
वह यह कह रहा
है, ध्यान
दो मेरी तरफ।
तुमने
कभी खयाल किया
है,
छोटे
बच्चों को जब
तुम्हारे घर
में मेहमान
आते हैं तब
तुम कह देते
हो, शांत
बैठना। ऐसे वे
शांत ही बैठे
रहते हैं, लेकिन
जब मेहमान आ
जाएं, फिर
वे हजार
उपद्रव खड़े
करने लगते हैं।
क्योंकि वे
देखते हैं कि
मेहमानों की
सारी नजर और
सारा ध्यान
तुम ही लिए ले
रहे हो। उन पर
भी ध्यान जाना
चाहिए। वे भी
ध्यान का
केंद्र होना
चाहते हैं। और
अड़चन नहीं है,
बच्चे हैं
छोटे। बड़े—बड़े
राजनीतिज्ञ, बड़े नेता भी
ध्यान पर सारा
जोर लगाए रखते
हैं।
अभी
मोरारजी ने
अनशन किया। उस
अनशन में
उन्होंने एक
पत्थर से दो
चिड़िया मारने
की कोशिश की।
एक तो इंदिरा
को झुका लें
और दूसरा जयप्रकाश
को जगह पर
बिठा दें।
क्योंकि
जयप्रकाश का
नाम जोर से
बढ़ता जाता है।
और ऐसा लगता
है कि विरोध
में वे अग्रणी
हो गए हैं; वह
भी पीड़ा है।
तो अगर आमरण
अनशन कर दो, तो अखबार
में नाम
अग्रणी हो
जाएगा।
अब
ये बड़े खेल
चलते हैं।
छोटे बच्चों
से लेकर बड़े—बूढ़ों
तक कोई अंतर
नहीं पड़ता।
क्योंकि आकांक्षा
अहंकार की
तृप्ति की बनी
रहती है।
तौ
यहूदियों में
यह कथा है कि
वे छत्तीस
छिपे हुए संत
पृथ्वी पर
घूमते रहते
हैं। यद्यपि
उनसे किसी को
सहायता नहीं
मिलती, वे
किसी को जगा
नहीं पाते, कोई उनकी
सुनता नहीं, मगर वे अपने
प्रेम से अपना
काम जारी रखते
हैं।
तुम
क्या सोचते हो, मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तो इस
भरोसे से कि तुम
सुन ही लोगे!
वह सवाल बड़ा
नहीं है। तुम
सुनोगे, इसकी
संभावना बहुत
कम है। लेकिन
मैं निराश
नहीं हूं इससे।
तुम सुनोगे या
नहीं सुनोगे,
यह
तुम्हारे ऊपर
है। मैं कहे
चला जाऊंगा।
मैं अपनी तरफ
से तुम्हारी
चिंता करता
हूं यह बताए चला
जाऊंगा। तुम न
सुनोगे, वह
तुम्हारी
जिम्मेवारी।
तो
ऐसा हुआ कि एक
नगर था सोदोम, पुराना
नगर था इजरायल
का। अंग्रेजी
में एक शब्द
है, सोदोमी।
वह उसी नगर से
बना है, सोदोम
से। सोदोम में
लोग बिलकुल
भ्रष्ट हो गए
थे। वे इतने
भ्रष्ट हो गए
थे कि पुरुष
पुरुषों से
संभोग करते थे,
स्त्रियां
स्त्रियों से
संभोग करती
थीं। यहीं तक
नहीं, लोग
पशुओं के साथ
संभोग करने
लगे थे—कुत्ता,
बिल्ली, जानवर..।
इसलिए
अंग्रेजी में
जो शब्द है
सोदोमी, उसका
मतलब है, पशुओं
के साथ संभोग
करना। वह उसी
नगर से आया है,
सोदोम से।
परमात्मा
बहुत नाराज हो
गया,
क्रुद्ध हो
गया, इस
नगर को तो
बिलकुल मिटा
ही देना है, जला ही देना
है।
जैसे
ही उन छत्तीस
में से एक को
खबर मिली, जो
कहीं पास ही
सोदोम के घूम
रहा था, वह
भागा हुआ
सोदोम आ गया।
कहते हैं, उसके
सोदोम में आ
जाने के कारण
परमात्मा को
रुकना पड़ा। अब
क्या करो! वह
जलाने जा ही
रहा था सोदोम
को, मगर वह
एक संत आ गया।
और वह
चिल्लाने लगा
नगर के
रास्तों पर; लोगों को
समझाने लगा कि
विनष्ट हो
जाओगे। पाप से
जागो! यह तुम
क्या कर रहे
हो? यह तो
विकृति है।
संस्कृति तो
दूर, प्रकृति
तक तुमने खो
दी। धर्म तो
दूर, तुमने
जीवन का
साधारण
स्वास्थ्य भी
खो दिया। यह
तुम क्या कर
रहे हो!
वह
चिल्लाता
फिरता, लोगों
को जगाता
फिरता, लेकिन
कोई उसकी
सुनता न। पहले
तो लोगों ने
समझा पागल है,
हंसे। फिर
धीरे—धीरे
उपेक्षा करने
लगे। फिर तो
उन्होंने
हंसना भी बंद
कर दिया। फिर
तो कोई उसकी
बात पर ध्यान
ही न देता।
लोग बहरे हो
गए। लेकिन वह
चिल्लाता रहा।
परमात्मा
बड़ी अड़चन में
पड़ गया, क्योंकि
वह रुके और
गांव छोड़े, तो वह गांव
को जला दे। तो
इस एक आदमी की
वजह से, जो
इतनी फिक्र
करता है, जो
इतनी चिंता
करता है, जिसके
मन में ऐसी करुणा
है! लेकिन
उसकी कोई नहीं
सुनता है, तो
भी वह लगाए जा
रहा है अपनी
रट.......।
एक
दिन एक बच्चे
ने उसे रोका, क्योंकि
वह बच्चा उसे
देखता था। कभी—कभी
संतों और
बच्चों के बीच
संवाद हो जाता
है।
क्योंकि
संत भी बच्चे
हैं और बच्चे
भी थोड़े—से
संत हैं, इसलिए
थोड़ा—सा सूत्र
मिल जाता है।
एक बच्चे ने
कहा कि सुनो
जी, कितने
दफे तुम
चिल्लाते हो,
कोई सुनता
नहीं। बंद
क्यों नहीं हो
जाते?
तो
उसने कहा, पहले
मैं चिल्लाता
था कि लोग बदल
जाएंगे, सुन
लेंगे, राजी
हो जाएंगे, और यह
दुर्भाग्य जो
आ रहा है, बच
जाएगा। उस
बच्चे ने कहा,
ठीक है, पहले
की छोड़ो; अब
किसलिए
चिल्लाते हो?
कोई नहीं
सुन रहा है।
उसने कहा, अब
इसलिए
चिल्लाता हूं.।
पहले
चिल्लाता था
कि लोग बदल
जाएंगे इस आशा
से, अब इस
आशा से
चिल्लाता हूं
कि कहीं लोग
मुझे न बदल
दें।
चिल्लाना तो
जारी ही
रखूंगा। ये
लोग बड़े कठिन
मालूम पड़ते
हैं। इनको मैं
तो न बदल पाया,
लेकिन कहीं
ये मुझे न बदल
दें।
यह
जो प्रश्न है
कि आक्रामक
शिक्षा है, दीक्षा
है, सारा
समाज आक्रामक
है। इसमें सरल—चित्त
लोग, अनाक्रामक
लोग, अहिंसक
लोग, हृदय
से भरे लोग—जिनको
स्त्रैण—चित्त
कहता है
लाओत्से—इनकी
क्या जगह है? कहां ये खड़े
हों? कहीं
ऐसा तो न होगा
कि लोग अपने
जैसा ही करके
छोड़ेंगे?
नहीं, ऐसा
न होगा। अगर
तुम लोगों को
जगाने की, उठाने
की चेष्टा में
संलग्न रहे।
अगर तुम लोगों
की
आक्रमणशीलता
को क्षीण करने
के उपाय करते
रहे, यह
जानते हुए भी
कि शायद कोई
भी न बदलेगा, निराश न हुए.।
करुणा
कभी निराश
नहीं होती।
करुणा को कभी
कोई निराश
नहीं कर पाया
है। करुणा कभी
हताश नहीं
होती। करुणा
ने हताशा जानी
ही नहीं है।
तो
अगर तुम्हें
लगता है कि
लोग आक्रामक
हैं,
युद्धखोर
हैं, हिंसक
हैं, तो
बैठे मत रहो, चुप मत रहो, जो तुम से बन
सके उनकी
आक्रमणशीलता
को क्षीण करने
के लिए, करो;
यह जानते
हुए कि शायद
तुम कुछ भी न
कर पाओगे।
लेकिन
तुमसे मैं
कहता हूं कि
उन्हें बदलने
की कोशिश में
एक बात कम से
कम होगी, वे
तुम्हें न बदल
पाएंगे। और वह
भी कुछ कम
नहीं है। वह
भी काफी है।
इसलिए
मुझसे जब कोई
पूछते हैं
मित्र कि हम
क्या करें? आपकी
बात हमारे
हृदय को भर
देती है। हम
चाहते हैं कि
जाकर लोगों को
कहें, समझाएं।
लेकिन फिर डर
लगता है कि
कोई सुनेगा तो
नहीं।
सुनी
कब किसकी है? बुद्ध
की किसी ने
सुनी है? कि
महावीर की? या कि कृष्ण
की किसी ने
सुनी है? अगर
सुन ही ली
होती, तो
दुनिया दूसरी
होती; सुनाने
को कोई बचता
ही न। नहीं
सुनी है किसी
ने।
तुम
क्यों फिक्र
करते हो कि
लोग सुनेंगे
या नहीं! कम से
कम तुम तो
सुनोगे अपने
को ही बोलते
हुए। उससे
तुम्हारा बल
बढ़ेगा। उससे
कम से कम एक
बात पक्की है
कि लोग
तुम्हें न बदल
पाएंगे। वह भी
कुछ कम नहीं
है।
जाओ!
और इसकी भी
फिक्र मत करो
कि लोग
हंसेंगे। लोग
हंसेंगे ही।
वे सदा से
हंसते रहे हैं।
लोग अपना
स्वभाव नहीं
बदलते, तुम
अपना क्यों
बदलते हो?
तुम्हारे
मन में भाव
उठा है कि
लोगों को कुछ
देना है, दे दो,
बांट दो।
इसकी चिंता मत
करो कि वे हंसेंगे,
फेंक देंगे।
यह उनका काम
है। यह
तुम्हें
विचार करने की
जरूरत नहीं है।
तुम अपने हृदय
को उंडेल दो, उससे तुम
हलके हो जाओगे।
जैसे
कोई बादल आकाश
में घिरता है
जल से भरा हुआ; बरस
जाता है। पहाड
पर भी बरसता
है, झील पर
भी बरसता है।
पहाड़ इनकार कर
देते हैं, तो
भी बादल पहाड़
पर बरसना बंद
नहीं करते।
झील स्वीकार
कर लेती है, भर लेती है, तो भी झील—झील
पर ही नहीं
बरसते, बरसते
रहते हैं।
तुम
बरसो।
तुम्हारे
भीतर अगर कोई
थोडी—सी भी
प्रतीति आई है, तो
तुम डरो मत, उस प्रतीति
को बाटो।
बांटने से वह
तुम्हारे
भीतर बढ़ेगी।
कम से कम घटने
की संभावना
मिट जाएगी।
तुम
इसकी चिंता मत
करो कि दूसरों
को वह प्रतीति
हो पाएगी या
नहीं। वह
तुमने चिंता
की,
तो तुम डर
जाओगे, सिकुड़
जाओगे। और डरा
हुआ, सिकुड़ा
हुआ आदमी
दूसरों के
द्वारा बदला
जा सकता है।
और
ध्यान रखना, हिंसक,
अज्ञानी
आक्रामक होते
हैं। हिंसक अज्ञानी
पहल लेते हैं।
शांत आदमी
संकोच करता है;
दो दफा
सोचता है, कहना
कि नहीं कहना! अशांत
फिक्र ही नहीं
करता। वह एकदम
हमला कर देता
है तुम्हारे
ऊपर।
तुम्हारी
दया,
तुम्हारी
करुणा, तुम्हारा
ज्ञान, तुम्हारा
ध्यान तुम अगर
बाटोगे, तो
तुम्हारे
चारों तरफ
उनसे एक परकोटा
बन जाएगा, वह
तुम्हें
बचाएगा।
उस
फकीर ने ठीक
ही कहा कि
पहले मैं इस
आशा में चिल्लाता
था कि लोग बदल
जाएंगे। अब
मैं इस आशा
में चिल्लाए
चला जाता हूं
कि कहीं लोग
मुझे न बदल
लें।
लेकिन
जब तक वह फकीर
उस गांव में
रहा,
सोदोम जलाया
न जा सका।
कहते हैं, तब
परमात्मा को
कुछ उपाय करना
पड़ा। और एक
संदेशवाहक
भेजना पड़ा कि
तेरी दूसरे
गांव में
जरूरत है।
दूसरा गांव था,
गोमोरा।
वहा जरूरत है,
वहा लोग बड़े
पाप से भरे
हैं, यहां
से भी ज्यादा।
संत
वहां गया भाग।
हुआ। जैसे ही
वह गांव के
बाहर हुआ, सोदोम
पर अग्नि बरसी,
सोदोम सदा
के लिए नष्ट
हो गया।
ये
कहानियां बड़ी
महत्वपूर्ण
प्रतीक हैं, बड़ी
सिबालिक हैं।
यह हो सकता है
कि संसार में
आदमी जीता है
सिर्फ इसीलिए
कि कुछ लोग
परमात्मा से
जुड़े रहते हैं,
अन्यथा
तुम्हारा
जीवन बिलकुल
सड़ जाए। कोई
एक भी उस
स्रोत से जुड़ा
रहता है, तो
थोड़ी—सी जीवन
की धारा आती—जाती
है। तुम्हारे
मरुस्थल में
एक मरूद्यान
बना रहता है।
तुम्हारी
तपती दुपहरी
में कहीं कोई
एक वृक्ष होता
है, जिसके
नीचे कभी तुम
क्षणभर छाया
ले लो, विश्राम
कर लो।
आखिरी
प्रश्न :
सजगता से आत्म—स्वीकार
फलित होगा या
कि आत्म—स्वीकार
से सजगता फलित
होती है?
ऐसे
प्रश्नों में
मत पड़ो।
ये
तो मुर्गी—
अंडे जैसे
प्रश्न हैं, कि
मुर्गी पहले
होती है कि
अंडा पहले
होता है। अंडा
पास हो, आमलेट
बना लो; मुर्गी
पास हो, शोरबा
बना लो।
इन
सवालों में मत
पडो। जहां से
शुरू करना हो, अंडे
से करना हो अंडे
से, मुर्गी
से करना हो
मुर्गी से।
दोनों तरह से
शुरू हो सकता
है। अंडा खरीद
लाओ, मुर्गी
बन जाएगी।
मुर्गी खरीद
लाओ, अंडा
रख देगी।
लेकिन
दार्शनिक
सवालों में मत
पड़ो। क्योंकि
उन्हें कभी
कोई हल नहीं
कर पाया—सिवाय
मुल्ला
नसरुद्दीन के
लड़के के। मैं
उसके घर था एक
सुबह और
मुल्ला
नसरुद्दीन
बड़े दार्शनिक
भाव में था।
और उसने मुझसे
पूछा कि आप
बडी—बड़ी बातें
किया करते हैं,
एक सवाल का
जवाब दे दो, कि मुर्गी
पहले या अंडा?
इसके पहले
कि मैं कुछ कहूं, उसके बेटे
ने कहा, इसका
जवाब तो मैं
ही दे सकता
हूं। मैं भी
प्रसन्न हुआ;
मैं भी थोड़ा
हैरान हुआ
लेकिन कि वह
जवाब देगा
कैसे! पर उसने
जवाब दे दिया।
नसरुद्दीन
ने कहा, तू? क्या जवाब
है? उसने
कहा, अंडा
पहले, मुर्गी
बाद में; अंडा
नाश्ते में, मुर्गी भोजन
में।
बस, यही
मेरा जवाब भी
है।
चीजें
संयुक्त हैं।
लोग पूछते हैं, ज्ञान
पहले या आनंद
पहले? संयुक्त
हैं, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। इधर
ज्ञान, उधर
आनंद। इधर
आनंद, उधर
ज्ञान। या तो
तुम आनंद पा
लो, तो तुम
ज्ञान को
उपलब्ध हो जाओ।
या तुम ज्ञान
को पा लो, तो
तुम आनंद को
उपलब्ध हो जाओ।
सजगता
से आत्म—स्वीकार
फलित होता है।
जैसे—जैसे तुम
जागोगे, तुम
अपने को
स्वीकार कर
लोगे।
क्योंकि तुम
तुम ही हो, और
तुम सिर्फ तुम
ही हो सकते हो।
और कुछ होने
का उपाय ही
नहीं है। और
सब असंभव है, व्यर्थ है।
उस दौड़ में जो
भटका, वह
भटका, कभी
नहीं पहुंचा।
तुम ही
तुम्हारी
मंजिल हो।
जैसे—जैसे
सजग होओगे, वैसे—वैसे
तुम स्वीकार
करने लगोगे।
और जैसे—जैसे
तुम अपने को
स्वीकार
करोगे, तुम
पाओगे, तुम्हारी
स्वीकृति
सजगता को
बढ़ाती है। वे
एक—दूसरे के
सहारे बढ़ जाते
हैं। तुम बाएं
पैर से चलते
हो कि दाएं
पैर से? कोई
ऐसा सवाल नहीं
पूछता; क्योंकि
कोई सवाल का
अर्थ ही नहीं
है। तुम दोनों
से चलते हो।
जब तुम बायां
उठाते हो, तब
बायां उठता है,
दायां
सम्हाले रहता
है तुमका।
दाएं के
सम्हालने के
बिना बायां उठ
न सकेगा। और
जब बायां जमीन
पर जम जाता है,
तब दायां उठ
आता है। दो
पैर हैं, दो
पंख हैं; वे
अलग— अलग नहीं
हैं, तुमने
उनको अलग बांट
लिया कि फिर
उपद्रव शुरू हो
जाता है। फिर
सवाल खड़ा होता
है, जिसका
कोई हल नहीं
हो सकता।
पश्चिम
में एक बहुत
बड़ा मनसविद
हुआ,
विलियम
जेम्स। उसने
एक बडी अनूठी
किताब लिखी है,
वैरायटीज
आफ रिलिजस
एक्सपीरिएंस,
धार्मिक
अनुभव के
विविध रूप।
फिर वैसी
किताब दोबारा
नहीं लिखी गई।
बहुत लोगों ने
कोशिश की, लेकिन
विलियम जेम्स
लाजवाब है।
बड़ी
खोज की, सारी
दुनिया में
घूमा। वह भारत
भी आया। यहां
एक महात्मा से
मिलने वह
हिमालय गया।
उसने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैंने महात्मा
से पूछा कि
हिंदू
शास्त्रों
में कहा है कि
परमात्मा ने
पृथ्वी बनाई,
फिर
परमात्मा ने
आठ श्वेत हाथी
बनाए और आठों
दिशाओं में
हाथियों को
खड़ा कर दिया, और पृथ्वी
उन्हीं के ऊपर
सम्हली है।
महात्मा
ने कहा, बिलकुल
ठीक पढ़ा और
ठीक समझे। पर विलियम
जेम्स ने कहा,
तब सवाल
उठता है कि
हाथी किस पर
खड़े हैं? किस
पर सम्हले हैं?
महात्मा ने
कहा, और
बड़े—बड़े सफेद
हाथी हैं, वे
उन पर खड़े हैं।
विलियम जेम्स
थोड़ा हैरान
हुआ कि क्या
महात्मा समझ
नहीं पाया
मेरे प्रश्न
को! उसने कहा, फिर सवाल
उठता है कि वे
बड़े—बड़े हाथी
किस पर खड़े
हैं? महात्मा
ने कहा, और
भी बड़े—बड़े
हाथी हैं, वे
उन पर खड़े हैं।
विएलियम
जेम्स ने कहा, आप
समझ नहीं पा
रहे हैं।
महात्मा ने
कहा, मैं
समझ रहा हूं, पर मैं कर भी
क्या सकता
हूं! हाथी के
ऊपर हाथी, हाथी
के ऊपर हाथी; हाथी के
नीचे हाथी, हाथी के
नीचे हाथी।
मैं कर भी
क्या सकता
हूं! जैसा है, वैसा कह रहा
हूं। तुम पूछे
चले जाओ
जन्मों—जन्मों
तक, मैं
यही कहूंगा कि
और हाथी नीचे
खडे हैं; क्योंकि
शास्त्र गलत
हो ही नहीं
सकते।
दार्शनिक
सवाल चीजों को
दो में तोड़
लेते हैं और
उलझन हो जाती
है। पृथ्वी
कहां सम्हली
है तुमने पूछा
कि गड़बड़ शुरू
हो गई। पृथ्वी
स्वयं सम्हली
है,
कोई हाथी
सम्हाले हुए
नहीं हैं। और
अगर हाथी
सम्हाले हुए
हैं, तो
अड़चन आने ही
वाली है, क्योंकि
फिर हाथी को
कौन सम्हाले
हुए है।
यहां
सभी चीजें
स्वयं सम्हली
हुई हैं, क्योंकि
स्वयं का सत्य
ही परमात्मा
का सत्य है।
यहां कोई किसी
को सम्हाले
हुए नहीं है।
अन्यथा कोई
अंत न होगा
सम्हालने का।
मुर्गी से
हटोगे, तो
अंडा मिलेगा।
फिर सवाल
उठेगा कि अंडा
कहां से आया? वह फिर
मुर्गी से
आएगा। फिर
मुर्गी
पूछोगे कि कहा
से आई? वह
फिर अंडे से
आएगी। इसका
कोई अंत न
होगा।
लेकिन
जीवन में इसका
अंत हो जाता
है। कौन फिक्र
करता है कि
मुर्गी पहले
या अंडा पहले? जब
भूख लगी हो, तो मुर्गी—अंडे
को सामने रखकर
कोई विचार
करता है? तब
आदमी भोजन
करता है। मैं
तुमसे भी यही
कहता हूं। तुम
या चाहो तो
सजगता से शुरू
कर दो, तो
भी तुम वहीं
पहुंच जाओगे।
सजगता से पैदा
हो जाता है
आत्म—स्वीकार।
या आत्म—स्वीकार
से शुरू कर दो,
तो भी वहीं
पहुंच जाओगे।
बाएं पैर से
यात्रा शुरू
करो कि दाएं
से, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, क्योंकि
दोनों पैर
तुम्हारे हैं।
और दोनों पैर
तुम्हें ले
जाएंगे।
तुम
दोनों पैर के
ऊपर सम्हले
हुए हो। दोनों
पंख तुम्हारे
हैं। लेकिन
अलग—अलग लोगों
को अलग— अलग
सुविधा होती
है। कुछ लोग
हैं,
जो दाएं पैर
से शुरू
करेंगे, कुछ
लोग हैं, जो
बाएं पैर से
शुरू करेंगे।
अपनी— अपनी
सुविधा, अपना—अपना
ढंग।
दो
तरह के लोग
हैं। एक तरह
के लोग हैं, जो
आत्म—स्वीकार
से शुरू
करेंगे। ये शांत
तरह के लोग
हैं। ये बहुत अशांत
नहीं हैं। ये
संतुष्ट
प्रवृत्ति के
लोग हैं। इनका
ढंग जन्मों—जन्मों
में संतोष का हो
गया है, शांति
का हो गया है।
ये आत्म—स्वीकार
से शुरू कर
सकेंगे, और
सजगता परिणाम
में आएगी।
जो
लोग अशांत हैं, परेशान
हैं, वे
कैसे स्वीकार
कर सकेंगे
अपने को? अंशांति
को कौन
स्वीकार कर
पाएगा? बहुत
कठिन होगा।
उनके लिए
सजगता से
यात्रा शुरू
होगी। पर फर्क
कुछ भी नहीं
पड़ता; क्योंकि
कहीं से शुरू
करो, चलते
तुम हो र
मंजिल पर तुम
पहुंचते हो।
मंजिल
पर पहुंचकर
आदमी भूल ही
जाता है कि
बाएं से शुरू
किया था कि
दाएं से शुरू
किया था।
गुठलियां
मत गिनो।
रामकृष्ण
कहते थे, जब आम
पक गए हों, तो
आम चूस लो, गुठलियां
मत गिनो।
और
ये सब
गुठलियां हैं।
और
दर्शनशास्त्र
गुठलियां
गिनता रहता है
और धार्मिक
व्यक्ति आम
चूस लेता है।
फिलासफी और
धर्म, दर्शन
और धर्म का
यही भेद है।
दार्शनिक
सोचता ही रहता
है और धार्मिक
अनुभव कर लेता
है।
यहां
मैं तुम्हें
दार्शनिक
बनाने को नहीं
हूं धार्मिक
बनाने को हूं।
अब सूत्र
और
सत्,
ऐसे यह
परमात्मा का
नाम सत्य— भाव
में और
श्रेष्ठ— भाव
में प्रयोग
किया जाता है।
तथा हे पार्थ,
उत्तम कर्म
में भी सत्
शब्द प्रयोग
किया जाता है।
तथा
यज्ञ, तप और
दान में जो
स्थिति है, वह भी सत् है,
ऐसे कही
जाती है। और
उस परमात्मा
के अर्थ किया
हुआ कर्म
निश्चयपूर्वक
सत् है, ऐसा
कहा जाता है।
हे
अर्जुन, बिना
श्रद्धा के
होमा हुआ हवन
तथा दिया हुआ
दान एवं तपा
हुआ तप और जो
कुछ भी किया
हुआ कर्म है, वह समस्त
असत् है, ऐसा
कहा जाता है इसलिए
वह न तो इस लोक
में लाभदायक
है और न मरने के
पीछे उस दूसरे
लोक में।
ओम
तत् सत्। इन
तीन शब्दों
में सभी कुछ आ
जाता है।
ओम
शब्द नहीं है, ध्वनि
है। इसका कोई
अर्थ नहीं है;
क्योंकि
सभी अर्थ
मनुष्यों के
दिए हुए हैं।
यह अर्थातीत
ध्वनि है।
जैसे नदी में
कल—कल नाद
होता है। क्या
अर्थ है कल—कल
का? कोई
अर्थ नहीं है।
हवाएं
वृक्षों से
गुजरती हैं, सरसराहट
होती है। क्या
अर्थ है
सरसराहट का? कोई अर्थ
नहीं है। आकाश
में मेघ गरजते
हैं।
क्या
अर्थ है उस
गर्जना में? कोई
भी अर्थ नहीं
है। अर्थ तो
आदमी के दिए
हुए हैं।
ओंकार
मौलिक ध्वनि
है,
जिससे सब
विस्तार हुआ
है। उस ध्वनि
के ही अलग— अलग
सघन रूप अलग—अलग
ढंग से प्रकट
हुए हैं।
उस
ओंकार में कोई
भी अर्थ नहीं
है। तुम चाहो
तो उसे
अर्थहीन कह
सकते हो, और
चाहो तो
अर्थातीत कह
सकते हो। एक
बात पक्की है
कि वहा कोई
अर्थ नहीं है।
अर्थ हो नहीं
सकता, क्योंकि
उसके पूर्व
कोई मनुष्य
नहीं है।
इसलिए
हमने ओंकार को
परमात्मा का
प्रतीक बना
लिया, क्योंकि
परमात्मा कोई
तुम्हारा
दिया हुआ अर्थ
नहीं है।
परमात्मा तुम
से पहले है और
तुम से बाद
में है। तुम
में भी है, तुम
से पहले भी है,
तुम से बाद
में भी है।
परमात्मा
तुम से विराट
है। तुम छोटी
तरंग की तरह
हो,
वह सागर है।
तरंग कैसे
सागर को अर्थ
दे पाएगी? और
तरंग का दिया
हुआ अर्थ क्या
अर्थ रखेगा?
इसलिए
हमने ओम
परमात्मा का
प्रतीकवाची
शब्द चुना है।
इसका हिंदुओं
से कुछ लेना—देना
नहीं है। अर्थ
होता, तो
हिंदुओं से
कुछ लेना—देना
होता। इसलिए
यह अकेला शब्द
है.। भारत में
तीन धर्म पैदा
हुए, चार
धर्म कहना
चाहिए, जैन,
बौद्ध, हिंदू
और सिक्ख।
इनमें बड़े
मतभेद हैं, बडी
दार्शनिक
झंझटें हैं, झगडे हैं।
लेकिन ओंकार
के संबंध में
कोई मतभेद
नहीं है।
नानक
कहते हैं, इक
ओंकार सतनाम।
ओम तत् सत्, इसका ही वह
रूप है। जैन
ओम का प्रयोग
करते हैं बिना
किसी अड़चन के।
बौद्ध प्रयोग
करते हैं बिना
किसी अड़चन के।
यह
एक शब्द गैर—सांप्रदायिक
मालूम पड़ता है।
बाकी सब पर
झगड़ा है।
ब्रह्म शब्द
का उपयोग जैन
न करेंगे।
आत्मा शब्द का
उपयोग बुद्ध न
करेंगे।
लेकिन ओम के
साथ कोई झगड़ा
नहीं है। और
ईसाई, इस्लाम,
यहूदी, तीन
धर्म जो भारत
के बाहर पैदा
हुए, उनके
पास भी ओंकार
की ध्वनि है, उसे वे ठीक
से पकड़ नहीं
पाए। कहीं कुछ
भूल हो गई। वे
उसे कहते हैं,
ओमीन, आमीन।
हर प्रार्थना
के बाद
मुसलमान कहता
है, आमीन।
वह ओंकार की
ही ध्वनि है :
वह ओम का ही
रूप है।
इसलिए
यह एक ही
अर्थहीन शब्द
है,
जो सारे
धर्मों को
अनुस्थूत किए
हुए है। अगर
दुनिया में हम
कोई एक शब्द
खोजना चाहें जो
गैर—सांप्रदायिक
है, जिसके
लिए सभी
धर्मों के लोग
राजी हो जाएंगे,
तो वह ओम है।
यह
बड़ा अदभुत है।
सभी ने इसकी
प्रतिध्वनि
सुनी है। जो
भी भीतर गए
हैं,
उन्होंने
ओंकार को सुना
है। लेकिन
ओंकार को
सुनकर बाहर
उसकी खबर देने
में थोड़े—
थोड़े भेद पड़
गए हैं, पड़
ही जाएंगे।
तुमने
कभी गौर किया, ट्रेन
में बैठे हो, ट्रेन चलती
है। अब वह किस
तरह की आवाज
हो रही है? झक—झक,
छक—छक, भक—
भक? तुम
जैसा सुनना
चाहो, वैसा
सुन ले सकते
हो। और एक दफे
तुम्हें पकड़
जाए एक बात कि
यह झक—झक हो
रहा है, या
भक— भक हो रहा
है, फिर
मुश्किल है; फिर वह
पैटर्न पकड़
गया, फिर
वह ढाचा पकड़
गया, फिर
तुम्हें वही
सुनाई पड़ेगा।
फिर लाख
तुम्हें कोई
दूसरा समझाए
कि नहीं, यह
ठीक नहीं है, तो भी
तुम्हें वही
सुनाई पड़ेगा,
क्योंकि
तुम्हारे मन ने
एक ढाचा पकड़
लिया।
ओम
की शुद्धतम
ध्वनि अलग—अलग
लोगों ने अलग—
अलग तरह से
सुन ली होगी।
किसी ने आमीन
की तरह सुन ली, वह
संभव है।
लेकिन इस
संबंध में कोई
विवाद नहीं है।
यह
एकमात्र शब्द
है,
जो सारे
धर्मों को
जोड़े हुए है।
यह शिखर शब्द
है। जैसे
मंदिर के खंभे
अलग— अलग खड़े
हैं, लेकिन
मंदिर का शिखर
एक है।
अगर
हम धर्म का
कोई मंदिर
बनाएं और हर
संप्रदाय के
लिए एक—एक
खंभा बना दें, तो
शिखर पर हमें
ओंकार को रखना
पड़ेगा। ओम तत्
सत्। ओम, तत्
यानी वह, सत्
यानी है। तत्
के संबंध में
हमने कल बात
की कि हम
क्यों उसे तत्
कहते हैं, क्यों
कहते हैं वह, दैट।
हम
उसे तू नहीं
कहते। तू कहने
से हमारा मैं
निर्मित होता
है,
बनता है। और
तू कहने से हम
परमात्मा को
थोड़ा नीचे
लाते हैं उसके
तत् रूप से, उसकी दैटनेस
से। वह इतना
पार। उसे हम
खींचकर अपने
घर के पास ले
आते हैं। तब
वह हमारा
प्रेमी हो
जाता है, पिता
हो जाता है, पत्नी हो
जाता है, प्रेयसी
हो जाता है।
फिर हम उससे
एक संबंध बना
लेते हैं।
जैसे
ही हमने
परमात्मा को
तू कहा, हम
परमात्मा को
खींचकर संसार
में ले आते
हैं। इसलिए
भक्त तू के
पार जाने में
मुश्किल पाता है।
क्योंकि फिर
संबंध छूट
जाएगा।
भक्ति
संबंध है, ज्ञान
असंबंध है।
भक्ति तो
संबंध है, ज्ञान
असंबंध है।
भक्ति में तुम
कितने ही करीब
आ जाओ, लेकिन
फिर भी दूरी
रहती है। ज्ञान
में तुम एक ही
हो जाते हो।
इसलिए
ज्ञानियों ने
उसे तत् कहा
है, वह। एक
तटस्थ शब्द, जिसमें
हमारा कोई भी
राग—रंग नहीं
जुड़ता।
और
तीसरा शब्द है, सत्।
इन
तीन में सारे
भारत का
वेदांत, सारा
सार, सारी
भारत की आत्मा
समाई है। सब
बुद्ध, सब
महावीर, सब
कृष्ण इन तीन
शब्दों में
समाए हैं।
सत्
का अर्थ है, जो
है। वृक्ष भी
है, पहाड़
भी है, तुम
भी हो, मैं
भी हूं। लेकिन
परमात्मा का
होना, इस
होने से भिन्न
है। क्योंकि
वृक्ष कल नहीं
हो जाएगा; मैं
आज हूं, कल
नहीं होऊंगा,
पहाड़ अभी है,
कल मिट
जाएगा। बड़े से
बड़ा पहाड़ भी
मिट जाएगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, जब
आर्य भारत आए,
आज से कोई
तीस—पैंतीस
हजार वर्ष
पूर्व, तो
हिमालय था ही
नहीं। हिमालय
बाद में पैदा
हुआ। और
हिमालय है भी
बचकाना अभी भी।
वह बड़ा बहुत
है, जैसे
कोई छोटा
बच्चा बाप से
बड़ा हो जाए, लंबा हो जाए,
ऐसा हिमालय
बड़ा बहुत है, ऊंचाई उसकी
कोई नहीं छू
सकता, लेकिन
वह बिलकुल नया
है, बच्चा
है। अभी भी बढ़
रहा है। हर
वर्ष कोई चार
इंच बढ़ जाता
है। अभी भी
बढ़ती जारी है।
अभी भी प्रौढ़
नहीं हुआ है, बढ़ती रुकी
नहीं।
विंध्याचल
सब से पुराना
पहाड़ है। उसकी
कमर झुक गई है, का
है।
विंध्याचल के
आस—पास की जो
भूमि है, वह
संसार की सबसे
पुरानी भूमि
है। नर्मदा की
खूबी उस भूमि
में बहना है, जो सर्वाधिक
प्राचीन है, जो सबसे
पहले सागर के
बाहर आई।
हिमालय
बच्चा है; कभी
पैदा हुआ, कभी
नहीं था और
कभी एक दिन
विलीन हो
जाएगा। पहाड़
भी बनते हैं, समाप्त हो
जाते हैं।
इसलिए
परमात्मा के
है—पन में एक
फर्क ध्यान
रखना। हमारा
होना एक तथ्य
है,
फैक्ट, कभी
था, कभी
फिर नहीं हो
जाएगा। दो तरफ
न—होने की खाई
और बीच में
होने की छोटी—सी
ऊंचाई। जैसे
एक पक्षी कमरे
में चला आए
तुम्हारे, क्षणभर
तड़फड़ाए; एक
खिड़की से
प्रवेश करे, दूसरी खिड़की
से निकल जाए।
ऐसा क्षणभर!
को हमारा होना
है, फिर
गहन न—होना हो
जाता है।
परमात्मा
सदा है। सत्
का अर्थ है, जो
सदा है, जिसके
न—होने का
उपाय नहीं है।
इसलिए तुम तो
मिटोगे, तुम्हारे
भीतर का
परमात्मा कभी
नहीं मिटता है।
और जब तक
तुमने अपने
मिटने वाले
स्वरूप के साथ
अपने को एक
समझा, तभी
तक तुम भटकोगे,
तब तक तुम
दुखी रहोगे, तब तक मौत
तुम्हें
डराकी। लेकिन
जिस दिन
तुम्हारी नजर
बदली और तुमने
अपने भीतर उसको
पहचान लिया, जो सत् है, जो न कभी
मिटता, न
कभी पैदा होता;
जो बस है, जो शुद्ध है—
पन है, इजनेस.।
इसलिए
परमात्मा है, ऐसा
कहना
पुनरुक्ति है,
गॉड इज, ऐसा
कहना
पुनरुक्ति है।
वृक्ष है, यह
कहना तो ठीक
है। क्योंकि
वृक्ष कभी
नहीं भी हो
जाएगा।
परमात्मा है,
ऐसा कहना
ठीक नहीं है, क्योंकि है
का क्या मतलब?
परमात्मा
है, इसका
तो मतलब हुआ
कि जो है वह है;
यह तो
पुनरुक्ति है।
इसलिए हमने
परमात्मा को।
सत् कहा है।
हमने कहा कि
वह है—पन है।
उसको मत कहो
कि परमात्मा
है।
इसलिए
उपनिषद को, वेदांत
को नास्तिक भी
इनकार नहीं कर
सकता, क्योंकि
वेदांत दावा
ही नहीं करता
कि परमात्मा है।
इसलिए तुम
कैसे खंडन
करोगे! कैसे
सिद्ध करोगे
कि वह नहीं है!
यह
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है। वेदांत
यह नहीं कहता
कि परमात्मा
है। वेदांत यह
कहता है, जो है,
वही
परमात्मा है।
है—पन, होना
मात्र
परमात्मा है।
इसलिए
भारत में नास्तिक
पनप नहीं सके, क्योंकि
हमारा दावा ही
बड़ा अनूठा है।
पश्चिम में
नास्तिक पनपे।
और ईसाई
धार्मिक गुरु
नास्तिकों को
कभी भी समझा
नहीं पाया।
क्योंकि तुम
कहते हो, ईश्वर
है, जैसे
वृक्ष है, पहाड़
है। और
नास्तिक कहते
हैं कि नहीं
है। जो है, उसे
सिद्ध किया जा
सकता है कि वह
नहीं है।
इसलिए
नीत्से का
बहुत
प्रसिद्ध वचन
है,
जिसमें
उसने कहा, गॉड
इज डेड।
ईसाइयत से
इसका कोई
विरोध नहीं है।
क्योंकि अगर
तुम कहते हो
कि परमात्मा
भी वैसा ही है,
जैसे और
चीजें हैं, तो जैसे और
चीजें मरती
हैं, वैसे
ईश्वर भी मर
सकता है।
तो
नीत्से ठीक कहता
है कि ईश्वर
मर गया है। अब
तुम व्यर्थ
पूजा कर रहे
हो चर्चों में।
बंद करो, ईश्वर
मर चुका; तुम
किस की पूजा
कर रहे हो? अब
वह नहीं है।
जो
है,
वह नहीं है
हो सकता है।
लेकिन हमारी
घोषणा ही
भिन्न है। हम
कहते हैं, वह
सत्। सत् उसका
स्वरूप है, उसका गुण
नहीं। यह थोड़ी
सूक्ष्म बात
है।
गुण
कभी खो सकता
है,
स्वरूप कभी
खोता नहीं।
तुम्हारा
होना गुण है, स्वरूप नहीं।
परमात्मा का
होना स्वरूप
है, गुण
नहीं। वह सदा
है। उचित तो
यही होगा कि
हम कहें, जो
सदा है, उसी
का एक नाम
परमात्मा है।
इसलिए
ओम तत् सत्, इन
तीन में सब आ
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
ये तीन शब्द
एक बार पढ़ लिए
कहीं किसी शास्त्र
में। और यह भी
पढ़ लिया कि इन
तीन शब्दों से
जो भी तादात्म्य
बना ले, जो भी
इन तीन को समझ
ले, इसकी
गहराई में उतर
जाए, वह
मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है। वह
बड़ा खुश और
प्रसन्नचित्त
घर लौटा। और
उसने अपनी
पत्नी से कहा
कि सुनो, एक
बड़ा हीरा हाथ
लग गया है, राम
रतन धन पायो।
पत्नी
तो ऐसे कई
हीरे उसके हाथ
लगते पहले ही
देख चुकी थी।
पत्नी कहीं
किसी पति को
मानती है कि
इनके हाथ और
हीरा लग सकता
है! हीरा भी लग
जाए,
तो समझेगी
कि कहीं का
कंकड़—पत्थर
उठा लाए हैं।
तुम्हारे हाथ
और हीरा लग
जाए! इतनी
तुम्हारी योग्यता!
कोई पत्नी पति
की मानती ही
नहीं। सारी
दुनिया पति को
मानने लगे, लेकिन पत्नी
को संदेह बना
रहता है कि यह
आदमी इतना
प्रसिद्ध
कैसे होता जा
रहा है? यह
आदमी में है
तो कुछ भी
नहीं।
पत्नी
ने कहा कि
छोडो बकवास, कहां
का हीरा? देखें!
उसने कहा, यह
हीरा बड़ा
भीतरी है।
पत्नी ने कहा,
हम पहले ही
समझ गए थे कि
हीरा भीतरी ही
होगा, जिसमें
कि बताने की
जरूरत ही न
रहे।
नसरुद्दीन ने
कहा, मजाक
की बात नहीं
है। मैंने तीन
शब्द पढ़े, और
शास्त्र कहता
है कि इन तीन
शब्दों को जो
जान ले, वह
मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है।
पत्नी
ने कहा कि तुम
बेकार, व्यर्थ
ही, नाहक
ही मेहनत किए।
हमसे पूछ लेते
तीन शब्द। हम
ही बता देते।
नसरुद्दीन ने
कहा, बोलो।
उसने कहा, फांसी
लगा लो। हैं
तीन शब्द, मुक्ति
हो जाएगी।
लेकिन अगर
बहुत गौर से
देखो, तो
इन तीन शब्दों
से फांसी लगती
है। इसे तुम
मजाक मत समझना।
ओम तत् सत्
यानी फांसी
लगा लो। मैं
भी इनका यही
अर्थ करता हूं।
तुम
मिटोगे, तो ही
ओम तत् सत्
सत्य हो पाएगा।
तुम मरोगे, तुम खो
जाओगे, विलीन
हो जाओगे, तो
ही परमात्मा
के होने की
प्रगाढता का
तुम्हें
अनुभव होगा।
तुम
ही बंधन हो। तुम
बंधे हो, ऐसा
नहीं, तुम
ही बंधन हो।
तुम मुक्त हो
जाओगे, ऐसा
भी नहीं; तुमसे
ही मुक्ति
चाहिए। जिस
दिन तुम न
रहोगे, उस
दिन जो शेष रह
जाता है, ओम
तत् सत्।
कृष्ण
कहते हैं, सत्,
ऐसे यह
परमात्मा का
नाम सत्य— भाव
में और
श्रेष्ठ— भाव
में प्रयोग
किया जाता है।
तथा हे पार्थ,
उत्तम कर्म
में भी सत्
शब्द प्रयोग
किया जाता है।
और
जहां—जहां
अहंकारशून्य
होकर कुछ भी
होगा, वहीं
सत् शब्द का
प्रयोग किया
जा सकता है।
उस कर्म को हम
सत् कर्म कहते
हैं, जो
निरअहंकार
भाव से किया
जाए। इस
परिभाषा को
ठीक से याद रख
लेना।
सत्
कर्म का अर्थ
है,
जिसे तुमने
न किया हो, तुम्हारे
द्वारा
परमात्मा से
हुआ हो। सत्
कर्म का कोई
अर्थ नहीं है
दूसरा, कि
तुमने
दक्षिणा दी, दान दिया, सेवा की।
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। तुमने
अगर सेवा की
और तुमने ही
की, तो वह
सत् कर्म नहीं
है। तुम से
अगर सेवा हुई
और परमात्मा
ने की, तो
वह सत् कर्म
है।
अगर
दान देते वक्त
अहंकार खड़ा हो
गया,
तो वह असत्
कर्म हो गया।
अगर दान देते
वक्त तुमने
अपना हाथ
परमात्मा के
हाथ में दे
दिया और उसने
ही दान दिया, तुम सिर्फ
उपकरण रहे, निमित्त
मात्र, तो
सत् कर्म हो
गया।
सत्
कर्म की यह
व्याख्या
अनूठी है।
इसमें कुछ
संबंध नहीं है
दूसरे से।
इसमें अच्छे
कर्म का सवाल
नहीं है।
इसमें सवाल है
निरअंहकारिता
का। परमात्मा
से हो, तो सत्
हो जाता है
कृत्य। तुम से
हो, तो
असत् हो जाता
है कृत्य।
तथा
यज्ञ, तप और
दान में जो
स्थिति है, वह भी सत् है,
ऐसे कही
जाती है। और
उस परमात्मा
के अर्थ किया
हुआ कर्म
निश्चयपूर्वक
सत् है, ऐसे
कहा जाता है।
कृष्ण
यह कह रहे हैं, अर्जुन,
युद्ध न तो
सत् है और न
असत्। कैसे तू
करता है, इस
पर सब निर्भर
है। तो तू यह
मत कह कि
युद्ध असत् है,
हिंसक है, बुरा है, दुष्कर्म
है; मैं न
करूंगा; पाप
है। कृष्ण
पूरी
व्याख्या को
बड़ी गहराई पर
ले जा रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
सवाल युद्ध
का नहीं है; सवाल करने
वाले का है।
अगर तू ऐसे युद्ध
में उतरता, तू ही नहीं, परमात्मा ही
तेरे द्वारा
जो करवा रहा
है, वह हो
रहा है, तू
बीच से हट जाए,
तो सत् कर्म
है। तो युद्ध
भी धर्म—युद्ध
हो जाता है।
और अगर तू
युद्ध कर रहा
है और
परमात्मा को
तू पीछे हटा
लेता है, खुद
आगे आ जाता है,
तो वह असत्
हो जाता है।
इसका
यह अर्थ हुआ
कि कर्मों से
कोई संबंध
नहीं है सत्
और असत् होने
का। एक वेश्या
भी सत् को
उपलब्ध हो
सकती है, एक
चोर भी, एक
हत्यारा भी, अगर उसने
अपना अहंकार
छोड दिया और
परमात्मा ने
जो करवाया वह
निमित्त
मात्र हो गया।
कबीर
कहते हैं, मैं
तो बांस की
पोंगरी हूं।
गीत तेरे।
बस, तब
गीत जो भी हो, वह सत् हो
जाएगा। और
चाहे तुम दान
करो, तप
करो, यज्ञ
करो, लेकिन
अहंकार के ही
आभूषण जोड़ रहे
हो, तो कृत्य
अच्छे दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
सत् नहीं हैं।
परमात्मा
के हाथ की छाप
जिस पर पड़ जाए, वही
कृत्य सत् है,
क्योंकि
परमात्मा सत्
है।
हे
अर्जुन, बिना
श्रद्धा के
होमा हुआ हवन
तथा दिया हुआ
दान, तपा
हुआ तप और जो
कुछ भी किया
जाए, वह
कर्म असत् है,
ऐसा कहा
जाता है।
श्रद्धा
का अर्थ है, समर्पण।
श्रद्धा का
अर्थ है, निमित्त
हो जाना।
श्रद्धा का
अर्थ है, मैं
नहीं हूं तू
है। श्रद्धा
का अर्थ है, मैं हटा, तू
आ और विराजमान
हो जा।
श्रद्धा का
अर्थ है, मैं
सिंहासन
छोड़ता हूं
तेरे लिए।
श्रद्धा का
अर्थ है, अब
मैं ऐसे
जीऊंगा, जैसे
तू जिलाएगा; अब मेरी कोई
मरजी नहीं, अब तेरी
मरजी ही मेरी
मरजी है।
श्रद्धा का
अर्थ है, फांसी।
श्रद्धा का
अर्थ है, मैं
मरा, अब तू
मुझसे जी। जिस
क्षण तुम शववत
हो जाते हो, उसी क्षण
तुम शिववत हो
जाते हो। जिस
क्षण तुम
मुरदे की
भांति हो जाते
हो, उसी
क्षण
परमात्मा का
शिवत्व
तुम्हारे
भीतर से
अहर्निश बहने
लगता है। फिर
तप करो, न
करो, करने
वाला न रहा, कोई फल की आकांक्षा
न रही, तुम
उसके हाथ की
लकड़ी हो गए।
फिर न तो
तुम्हें पाप
लगते, न
पुण्य लगता।
फिर कर्म के
सारे जाल
तुम्हें नहीं
छूते। तुम फिर
कमलवत इस
संसार में रह
सकते हो, अस्पर्शित।
और
वह सब असत् है, जो
बिना श्रद्धा
के किया जाता
है। इसलिए वह
न तो इस लोक
में लाभदायक
है और न मरने
के पीछे ही।
उसके
धोखे में मत
पड़ना।
सूत्र
रूप में, सार
रूप में एक
आखिरी बात
स्मरण रखना कि
जो भी तुमसे
हो, वह
अधर्म है। जो
तुम करो, वह
अधर्म है। जो
अहंकार से बहे,
वह पवित्र
गंगा नहीं है।
उस किनारे
तीर्थ न
बनेंगे। जो
निरअहंकार से
आए!
एक
ही यश है, तुम्हारा
जल जाना। नाहक
घी मत जलाओ; घी की वैसे
ही कमी है।
नाहक अनाज मत
फेंको; अनाज
वैसे ही बहुत
कम है।
मूढ़ताएं मत
करो।
एक
ही तप है। धूप
में मत खड़े
रहो,
क्योंकि उस
धूप में
तुम्हारा
अहंकार ही और
अकड़ेगा, भरेगा।
व्यर्थ अपने
को भूखा मत
मारो, क्योंकि
उस भूखे मरने
में तुम्हारा
अहंकार और सघन
होगा। एक ही
तप है कि तुम
मिटो। एक ही
यज्ञ है कि
तुम मिटो। एक
ही दान है कि
तुम अपने को
दे डालो। फिर
जो बच रहता है,
लहर के खो
जाने पर जो बच
रहता है सागर,
उसका ही नाम
है, ओम तत्
सत्।
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