अध्याय—18
सूत्र—
यञ्जैतानि
महाबाहो
कारणानि
निबोध मे ।
सांख्ये
कृतान्ते
प्रोक्तानि
सिद्धये
सर्वकर्मणाम्।।
13।।
अधिष्ठानं
तथा कर्ता
करणं च पृथश्विधम्।
विविधाश्च
यृथक्चैष्टा
दैवं चैवात्र
यञ्जयम्।। 14।।
शरीरवाक्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नर:।
न्याटयं
वा विपरीतिं
वा पज्जैते
तस्य हेतवः ।।
15।।
तत्रैवं
सति
कर्तारमात्मानं
केवलं तु व: ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न
स पश्यति
दुमॅल: ।। 16।।
यस्य
नाहंकृतो भावो
बुद्धिर्यस्य
न लिप्यते।
हत्वापि
स
हमाँल्लोकान्न
हन्ति न
निबध्यते ।। 17।।
और हे
महाबाहो, संपूर्ण
कर्मों की
सिद्धि के लिए
ये पांच हेतु सांख्य
सिद्धांत में
कहे गए है,
उनको तू मेरे
से भली प्रकार
जान।
हे अर्जुन,
हस विषय में
आधार और कर्ता
तथा न्यारे—
न्यारे करण और
नाना प्रकार
की न्यारी—
न्यारी
चेष्टा एवं
वैसे ही पांचवां
हेतु दैव कहा
गया है।
मनुष्य
मनु वाणी और
शरीर से
शास्त्र के
अनुसार अथवा
विपरीत भी जो
कुछ कर्म आरंभ
करता है,
उसके ये
पांचों ही
कारण हैं।
परंतु ऐसा
होने पर भी जो
पुरूष अशुद्ध
बुद्धि होने
के कारण उस
विषय में केवल
शुद्ध स्वरूप
आत्मा को
कर्ता देखता
ह्रै वह
दुर्मति
यथार्थ नहीं
देखता है।
और हे
अर्जुन,
जिस पुरुष के
अंतःकरण में
मैं कर्ता हूं
ऐसा भाव नहीं है
तथा जिसकी
बुद्धि
सांसारिक पदार्थों
में और
संपूर्ण
कर्मों में
लिपायमान
नहीं होती? वह पुरूष इन
सब लोगों को
मारकर भीं
वास्तव में न
तो मारता है
और न पाय से
बंधता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आपको
वर्षों से रोज—रोज
सुनते रहने से
निर्विचार
बढ़ा है, मौन
गहन हुआ है, प्रेम
अंकुरित हुआ
है, अहोभाव
की भी कुछ
बूंदा—बांदी
होती है।
परंतु अनेक
अवसरों पर
लगता है कि
बुद्धि और अहंकार
की धार भी तेज
और सूक्ष्म
होती गई है।
उपरोक्त
दोनों बातों
के साथ—साथ
घटने से
आश्चर्य भी
होता है और
चिंता भी। इस
स्थिति पर
प्रकाश डालें।
क्या साधक को
ऐसा हो सकता
है?
जीवन
के प्रत्येक
आयाम में
विपरीत साथ—साथ
ही बढ़ते हैं।
जन्म के साथ
चलती है
मृत्यु। हर
जन्मदिन, मृत्यु
का भी नया चरण
है। श्रम के
साथ—साथ चलती
है थकान, विश्राम
की आकांक्षा।
प्रेम के साथ—साथ
छाया की तरह
लगी रहती है
घृणा।
विपरीत
जुड़े हैं।
जितना ऊंचा
होगा पर्वत—शिखर, उतनी
ही गहरी होगी
खाई। पर्वत—शिखर
और ऊंचा होने
लगेगा, खाई
और गहरी होने
लगेगी। पर्वत—शिखर
की ऊंचाई और
खाई की गहराई,
एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
जितने—जितने
तुम समझदार
होने लगोगे, उतनी—उतनी
तुम्हें अपने
भीतर नासमझी
दिखाई पड़ने लगेगी।
ज्ञान के साथ—साथ
अज्ञान का बोध
होता है।
जैसे—जैसे
तुम शांत होओगे, वैसे—वैसे
तुम्हारे
अशांत होने की
क्षमता में भी
बढ़ती होगी।
क्योंकि
जितने तुम शांत
होओगे, उतने
संवेदनशील हो
जाओगे, उतने
सेंसिटिव हो
जाओगे। उस
संवेदना में
छोटी—सी घटना
भी बडा गहरा
तहलका मचा
देगी।
जितने
तुम स्वस्थ
होओगे, उतनी
तुम्हारी
बीमार होने की
क्षमता भी
बढ़ेगी। मरा
हुआ आदमी तो
बीमार नहीं हो
सकता। जीवित
आदमी बीमार
होता है। और
तुमने एक
अनूठी घटना
देखी होगी कि
अक्सर ऐसा
होता है कि
बहुत स्वस्थ
आदमी एक ही
बीमारी में मर
जाता है।
अस्वस्थ आदमी
कई तरह की
बीमारियां
आती रहें, तो
भी सह जाता है।
जो कभी बीमार नहीं
पड़ा, वह
पहली ही
बीमारी में
विदा हो जाता
है। जो सदा
खाट से बंधा
रहा, उन्हें
कोई बीमारी ले
जाती नहीं।
जितना
स्वस्थ आदमी
हो,
उतने ही
उसके अस्वस्थ
होने की
क्षमता भी
होती है।
जितने ऊंचे
चढ़ोगे, उतने
गिरने का डर
भी लगेगा।
चढोगे ही नहीं
ऊंचे, तो
गिरने के भय का
कोई सवाल नहीं
है।
योग—
भ्रष्ट शब्द
है हमारे पास, तुमने
कभी भोग—
भ्रष्ट सुना?
भोग में
भ्रष्ट होने
का उपाय ही
नहीं है।
सिर्फ योगी
भ्रष्ट हो
सकता है।
जो
ऊंचा जाता है, वह
गिर सकता है।
जो जमीन पर ही
रेंगता है, वह गिरेगा
भी तो गिरेगा कहां?
इसलिए ये
दोनों बातें साथ—साथ
चलेंगी। और
साधक को रोज—रोज
ज्यादा
सावधानी
चाहिए पड़ेगी।
तुम
ऐसा मत सोचना
कि साधना
तुम्हारी आगे
बढ़ेगी, तो
सावधानी की
जरूरत न रहेगी।
सावधानी की
जरूरत बढेगी।
सिद्ध तो
प्रतिपल
सावधान है।
लाओत्से
कहता है, जिस
पुरुष को ताओ
उपलब्ध हो गया,
वह ऐसे चलता
है, सावधान,
जैसे
प्रतिपल
शत्रुओं से
घिरा है। वह
एक—एक कदम ऐसे
रखता है, सोचकर,
विचारकर, जैसे कोई
सर्दी के
दिनों में
बर्फीली नदी
में उतरता हो।
सिद्ध
की सावधानी
परम,
आखिरी हो
जाती है।
सावधानी के
लिए उसे
प्रयास नहीं
करना पड़ता।
लेकिन
सावधानी तो
गहन होती ही
है।
तो
तुम जितने
ऊंचे उठोगे, उतने
ही गिरने का
डर है। और खाई
बड़ी होने
लगेगी, और
भी ज्यादा
सावधानी की
जरूरत होगी।
इसमें
कुछ आश्चर्य
का कारण नहीं
है,
यह बिलकुल
स्वाभाविक है।
प्रेम
अंकुरित होगा,
तो घृणा भी
साथ—साथ खड़ी
है। अब थोड़े
सावधान रहना।
पहले तो जब
प्रेम
अंकुरित न हुआ
था, तब तो
तुम घृणा को
ही प्रेम
समझकर जीए थे।
अब जब प्रेम
अंकुरित हुआ
है, तभी
तुम्हें पहली
दफे बोध भी
आया है कि
घृणा क्या है।
और अब तुम
गिरोगे, तो
बहुत पीड़ा
होगी।
अहोभाव
की थोड़ी बूंदा—बांदी
होगी, तो
शिकायत भी
बढ़ने लगेगी।
क्योंकि जब
परमात्मा से
मिलने लगेगा,
तो तुम और
भी मांगने की
आकांक्षा से
भर जाओगे। आज
मिलेगा, तो
अहोभाव। कल
नहीं मिलेगा,
तो शिकायत
शुरू हो जाएगी।
अहोभाव के साथ—साथ
शिकायत की खाई
भी जुड़ी है।
सावधान रहना।
अहोभाव को
बढ़ने देना और
शिकायत से
सावधान रहना।
शिकायत तो बढ़ेगी,
लेकिन तुम
उस खाई में
गिरना मत।
खाई
के होने का
मतलब यह नहीं
है कि गिरना
जरूरी है।
शिखर ऊंचा
होता जाता है, खाई
गहरी होती
जाती है, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम्हें
खाई में गिरना
ही पड़ेगा।
सिर्फ
सावधानी
बढ़ानी पड़ेगी।
भिखमंगा
निश्चित सोता
है। सम्राट
नहीं सो सकता।
भिखमंगे के
पास कुछ चोरी
जाने को नहीं
है। सम्राट के
पास बहुत कुछ
है। सम्राट को
सावधान होकर
सोना पड़ेगा।
थोड़ी सावधानी
बरतनी पड़ेगी।
तो ही बचा
पाएगा जो
संपदा है, अन्यथा
खो जाएगी।
जैसे—जैसे
तुम गहरे
उतरोगे, वैसे—वैसे
तुम्हारी
संपदा बढ़ती है।
उसके खोने का
डर भी बढ़ता है;
खोने की
संभावना बढ़ती
है।
उसके
चोरी जाने का, लुट
जाने का अवसर
आएगा। जरूरी
नहीं है कि
तुम उसे लुट
जाने दो। तुम
उसे बचाना, तुम सावधान
रहना। अड़चन
इसलिए आती है
कि तुम तो
सोचते हो कि
एक दफा ध्यान
उपलब्ध हो गया,
समाधि
उपलब्ध हो गई,
तो यह
सावधानी, जागरूकता,
ये सब
झंझटें मिटी।
फिर निश्चित चादर
ओढ़कर सोएंगे।
इस
भूल में मत
पड़ना।
निश्चित तो हो
जाओगे, लेकिन
असावधान होने
की सुविधा कभी
भी नहीं है।
सावधान तो
रहना ही पड़ेगा।
सावधानी को
स्वभाव बना
लेना है। वह
इतनी
तुम्हारी
जीवन—दशा हो
जाए कि तुम्हें
करना भी न पड़े,
वह होती रहे।
सावधान होना
तुम्हारा
स्वभाव—सहज
प्रक्रिया हो
जाए।
नहीं
तो यह अड़चन
आएगी। मुझे
सुनोगे, समझ
बढ़ेगी, समझ
के साथ—साथ
अहंकार भी
बढेगा कि हम
समझने लगे।
उससे बचना। उस
फंदे में मत
पड़ना। पड़े, समझ कम हो
जाएगी।
बड़ा
सूक्ष्म खेल
है,
बारीक जगत
है, नाजुक
यात्रा है।
स्वभावत:, जब
समझ आती है, तो मन कहता
है, समझ गए।
तुमने कहा, समझ गए, कि
गई समझ, गिरे
खाई में।
क्योंकि समझ
गए, यह तो।
अहंकार हो गया।
अहंकार
नासमझी का
हिस्सा है।
जान लिया, अकड़
आ गई; अकड़
तो अज्ञान का
हिस्सा है।
अगर अकड़ आ गई, तो जानना
उसी वक्त खो
गया। बस, तुम्हें
खयाल रह गया
जानने का।
जानना खो गया।
ज्ञान
तो निरअहंकार
है। जहां
अहंकार है, वहां
शान खो जाता
है। इसलिए
प्रतिपल होश
रखना पड़ेगा।
जैसे कोई दो
खाइयों के बीच
खिंची हुई
रस्सी पर चलता
है कोई नट, ऐसे
ही चलना है।
प्रतिपल
सम्हालना है।
कदम—कदम
सम्हालना है।
एक दिन ऐसी
घड़ी आएगी कि
सम्हालना
स्वभाव हो जाएगा।
सम्हालना न
पड़ेगा और
सम्हले रहोगे।
लेकिन अभी वह
घड़ी नहीं है।
न
तो आश्चर्य
करने की जरूरत
है,
क्योंकि यह
स्वाभाविक है,
विपरीत साथ—साथ
बढते हैं। और
न चिंता में
पड़ने की जरूरत
है, क्योंकि
यह स्वाभाविक
है, विपरीत
साथ—साथ चलते
हैं। इस सत्य
को समझकर, शिखर
को तो बढने दो,
अपने पैरों
को सम्हालते
जाओ; खाई
में मत गिरो।
खाई
का निमंत्रण
भी बड़ा
महत्वपूर्ण
होता जाएगा।
खाई का बुलावा
भी बड़ा आकर्षक
होने लगेगा।
खाई खाई जैसी
न लगेगी, स्वर्ग
मालूम होने
लगेगी। जितने
ऊंचे जाओगे, उतनी ही खाई
पुकारेगी कि आ
जाओ, यहां
विश्राम है।
उससे सावधान
रहना।
अगर
गिर भी पड़ो, तो
जितनी जल्दी
हो सके, उठ
आना और अपनी
यात्रा पर
निकल जाना।
गिरना
भी होगा। जैसे
छोटा बच्चा
चलता है, उठता
है, गिरता
है, फिर
उठता है, फिर
गिरता है, फिर
धीरे— धीरे
गिरना बंद हो
जाता है। अब
तुम नहीं
गिरते। कभी
तुम भी छोटे
बच्चे थे और
गिरते थे।
सिद्ध का अर्थ
इतना ही है कि
अब वह चलने
में कुशल हो
गया; अब
गिरता नहीं।
पर कभी वह भी
गिरता था। अभी
तुम भी गिर
रहे हो, कभी
वह घड़ी
तुम्हारे
जीवन में आ
जाएगी, जब
न गिरोगे। लेकिन
अहंकार को
बनने मत देना।
चिंता को सघन
मत होने देना।
सावधानी को
सदा ही बरकरार
रखना।
सावधानी को
कभी छोड़ना है,
यह बात ही
विचार में मत
लाना। वह जब
छूटने को होगी,
छूटेगी। वह
तभी छूटेगी, जब स्वभाव
बन जाएगी।
उसके पहले सावधानी
नहीं छूटती है।
दूसरा
प्रश्न : आप कहते
हैं, जो उसकी
मर्जी, हम
निमित्त—मात्र
हो जाएं; जो
भी जीवन में
अभिनय मिला है,
उसे हम पूरा
करें। परंतु
जो होता है, उसे होने
देने से
अर्थात शरीर,
मन और
अहंकार के साथ
बहने से दुख
उपजता है। तो
क्या हम शरीर,
मन और
अहंकार के
संबंध में भी
निमित्त का
सूत्र मानते
रहें और दुख
पाते रहें? निमित्त के
सूत्र और दुख
के सतत यथार्थ
की पहेली को
हम कैसे
सुलझाएं?
तब तुम
समझे ही नहीं
निमित्त का
अर्थ।
निमित्त—मात्र
हूं इस भाव—दशा
की तुम्हें
पकड़ न आई। तुम
अपनी
होशियारी लगा
रहे हो। तुम
सोच रहे हो, निमित्त
हमें होना है,
जहां—जहां
सुख होगा, निमित्त
हो जाएंगे, और जहां—जहां
दुख होगा, वहां
कर्ता हो
जाएंगे।
क्योंकि दुख
तुम चाहते
नहीं।
निमित्त होने
का अर्थ है, दुख देता है,
तो तू देता
है, तेरा
दुख हमारा
सौभाग्य है।
कुछ तो दिया!
सुख देता है, तो तू देता
है। हमारा कोई
चुनाव नहीं। हम
दुख भी
भोगेंगे, हम
सुख भी
भोगेंगे। तू
जो देगा हमारे
भिक्षा—पात्र
में, हम
अहोभाव से
स्वीकार
करेंगे। सुख
में तो कोई भी
निमित्त होना
चाहता है, उसके
लिए कोई सिद्ध
होने की जरूरत
पड़ेगी! सुख में
तो सभी मानते
हैं कि हम निमित्त
हैं। जहां मजा
ही मजा है, वहां
कर्ता को लाने
का सवाल ही
क्या है!
कर्ता तो वहां
आना शुरू होता
है, जहां
दुख शुरू होता
है। क्यों? क्योंकि दुख
को तुम्हें
हटाना है। दुख
तुम्हें
स्वीकार नहीं
है। हटाना है,
तो हटाने
वाले को लाना
पड़ेगा। सुख तो
स्वीकार है, उसे हटाना
नहीं है। तो
कर्ता को लाने
की कोई जरूरत
नहीं है। जिस
दिन तुम सुख
और दुख को एक—सा
ही स्वीकार कर
लोगे, उसी
दिन कर्ता
विलीन हो
जाएगा। न तो
सुख को चाहो, न तो सुख की
आसक्ति करो और
न दुख का
द्वेष। न दुख
को छोड़ना चाहो,
न सुख को
पकड़ना चाहो, तो तुम्हारा
कर्ता खो
जाएगा। फिर जो
हो। फिर तुम
बीच में हो
नहीं सोचने को।
प्रश्न
से तो लगता है
कि तुम बीच
में खड़े हो, छांट
रहे हो। क्या
फिर हम दुख
भोगते रहें?
तुम
हो कौन, अगर
निमित्त— भाव
को समझ गए? यह
कौन है जो
कहता है, फिर
हम दुख भोगते
रहें?
यह
कर्ता है, जो
कह रहा है, दुख
तो हम भोगना
नहीं चाहते।
असल में तुम
निमित्त— भाव
को भी इसीलिए
स्वीकार कर
रहे हो कि
शायद इससे
बहुत सुख मिले।
तुम गलती में
हो। निमित्त—
भाव को
स्वीकार करने
से दुख भी
मिलेंगे, सुख
भी मिलेंगे, लेकिन धीरे—
धीरे न तो दुख
दुख रह जाएंगे,
न सुख सुख
रह जाएंगे।
क्योंकि जो
दुख को
स्वीकार कर
लेता है, उसके
लिए दुख दुख
कैसे रह जाएगा।
दुख का
अनिवार्य
लक्षण है, उसके
प्रति
अस्वीकार का
भाव। वह
त्याज्य है।
मन उसे गले
नहीं लगाना
चाहता। जिस
दिन तुम गले
लगा लोगे दुख
को, दुख का
तुमने स्वभाव
बदल दिया। वह
सुख जैसा हो
गया।
सुख
का स्वभाव है
कि उसे तुम गले
लगाना चाहते
हो। लेकिन जब
तुमने सुख को
भी ऐसा ही
स्वीकार किया, जैसा
दुख को, कोई
विशेष आदर न
दिया, तो
उसका गुणधर्म
भी बदल गया।
ज्ञानी
का सुख न तो
सुख होता है, न
दुख दुख होता
है। धीरे—
धीरे सुख—दुख
का भेद ही खो
जाता है। एक
ऐसी घड़ी आती
है कि सुख दुख
का रूप मालूम
होता है, दुख
सुख का रूप
मालूम होता है
और तुम दोनों
के पार होने
लगते हो। वह
दोनों के पार
जो दशा है, वही
साक्षी की है।
कर्ता
से मुक्त
होओगे, तो
साक्षी बनोगे।
कृष्ण
का सारा संदेश
साक्षी का है।
अर्जुन की
सारी दुविधा
यह है कि वह
कर्ता होने से
छूट नहीं पाता।
वह कहता है, ऐसा
हो जाएगा, तो
वह ठीक न होगा।
वह यह कह रहा
है कि मैं
अपने निर्णय को
कायम रखूंगा;
मैं
निर्णायक
रहूंगा।
निमित्त— भाव
का अर्थ है, परमात्मा
निर्णायक है,
मैं कौन
हूं! मैं
किसलिए बीच
में आऊं! तो यह
तो तुम पूछो
ही मत कि क्या
हम दुख पाते
रहें? दुख
से बचने की
तुमने जन्मों—जन्मों
कोशिश की है; दुख उससे
मिटा? अब
तक तो मिटा
नहीं है, पाते
ही रहे हो।
सुख को पाने
की भी तुमने
जन्मों—जन्मों
से कोशिश की
है; सुख
मिला? अब
तक तो मिला
नहीं है।
सिर्फ आशा में
कहीं
इंद्रधनुष की
भांति दिखाई
पड़ता है।
अब
बदलो जीवन की व्यवस्था
को। अब तक
कर्ता होकर
देख लिया, न
तो दुख मिटा, न सुख मिला।
अब अकर्ता
होकर भी देख
लो। क्योंकि
जो जानते हैं,
वे कहते हैं
कि अकर्ता
होकर दुख भी
मिट गया, सुख
भी मिट गया।
और फिर जिसका
उदय होता है, उसे ही हमने
सच्चिदानंद
कहा है, उसे
ही हमने परम
आनंद कहा है।
वह
परम आनंद सुख—दुख
दोनों के पार
है। वह न तो
रात जैसा है, न
दिन जैसा है।
वह तो
संध्याकाल है।
सूरज जा चुका,
रात अभी आई
नहीं; रोशनी
कायम है—बड़ी
धीमी, मधुर,
अनाक्रामक—वह
संध्याकाल है।
सुबह हुई, अभी
सूरज आया नहीं,
रात जा चुकी,
ऐसा
संध्याकाल है।
उस संध्याकाल
में जो ठहर
गया, उसी
को हम
प्रार्थना
करना कहते हैं।
इसलिए हिंदू
अपनी
प्रार्थना को
संध्या कहते हैं।
संध्या
का अर्थ है, द्वंद्व
के बीच में जो
ठहर गया; दो
के बीच में
जिसने संधि
खोज ली। सुख—दुख,
प्रेम—घृणा,
जीत—हार, रात—दिन, जीवन—मृत्यु,
सब दो के बीच
में जिसने
संधि खोज ली, और जो संधि
में खड़ा हो
गया। उस
संधिकाल को
खोजो।
कृष्ण
कहते हैं, सरल
है खोज लेना।
अगर तुम कर्ता
न रह जाओ, तत्क्षण
मिल जाएगा।
तुम्हारे
कर्ता होने से
ही तुम चूकते
चले जाते हो।
तो
यह तो पूछो ही
मत कि दुख
उपजेगा, तो
फिर हम क्या
करेंगे। तुम
तो रहे नहीं।
जो होगा, होगा।
क्या करोगे? तुम मर गए।
तुम्हारी लाश
पडी है। सुबह
होगी, लाश
क्या करेगी? दिन होगा, लाश क्या
करेगी? रात
आएगी, लाश
क्या करेगी? घर खाली है, कोई है नहीं।
सन्नाटा होगा,
तो ठीक। गीत
बजेगा, शोरगुल
होगा, तो
ठीक। घर खाली
है, कोई है नहीं।
तुम
खाली घर हो
रहो। इसको
बुद्ध ने
शून्य होना
कहा है, जिसको
कृष्ण
निमित्त
मात्र होना
कहते हैं, उसको
ही बुद्ध ने
शून्य होना
कहा है। अगर
ईश्वर पर
तुम्हारी
श्रद्धा हो, तो निमित्त
मात्र हो जाओ;
अगर ईश्वर
पर श्रद्धा न
हो, तो
शून्य मात्र
हो जाओ। बात दोनों
एक ही हैं।
क्योंकि
निमित्त
मात्र होने के
लिए तो ईश्वर की
धारणा चाहिए।
निमित्त
मात्र का यह
अर्थ है, करने
वाला तू है।
मैं सिर्फ
उपकरण हूं।
मगर अगर
तुम्हारी
श्रद्धा
ईश्वर पर न हो,
तो कुछ
घबडाने की
जरूरत नहीं है।
तुम शून्य
मात्र हो जाओ।
तुम कहो, मैं
हूं ही नहीं।
बस, वही घट
जाएगा।
जो
भक्त को भगवान
के माध्यम से
घटता है, वही
ध्यानी को
शून्य के
माध्यम से
घटता है।
ध्यानी के लिए
शून्य भगवान
है, भक्त
के लिए भगवान
ही शून्यता है।
पर शून्य या
निमित्त
मात्र, एक
ही अर्थ रखते
हैं। कुल
प्रयोजन इतना
है कि मैं बीच
में नहीं हूं।
तीसरा
प्रश्न : आप
हमेशा कहते
हैं, ध्यान
है कुछ न करना,
मात्र होना,
और समर्पण
है द्वार। फिर
आप अनेक योग
और साधनाएं भी
करने को कहते
हैं। मेरी
मुसीबत यह है
कि कुछ न करने
और समर्पण—
भाव से जीने
से तमोगुण
बढ़ता नजर आता
है और साधनाएं
करने से
अहंकार के
तीशा होने का
खतरा आने लगता
है। ऐसी दशा
में क्या
मार्ग है?
न तो
समर्पण करते
हो,
न साधना
करते हो। जब
मैं समर्पण की
बात करता हुं, तब तुम
साधना की बात
सोचते हो। और
जब मैं साधना
की बात करता
हूं तब तुम
समर्पण की बात
सोचते हो।
बेईमान चित्त
की दशा है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
पैस्कल ने कहा
है कि एक सदी
में अगर तीन
ईमानदार आदमी
भी मिल जाएं, तो
बहुत है—सौ
वर्षों में।
क्योंकि
बेईमानी
जन्मजात है।
और बेईमानी
खून में छिपी
है। मेरे पास
रोज यही
प्रश्न खड़ा
रहता है। अगर
मैं किसी को
कहता हूं कि
कुछ न करो, तो
वह कहता है, यह कैसे
होगा? कुछ
तो करना ही
पड़ेगा। मैं
कहता हुं,
चलो, कुछ
करो। वह कहता
है, कुछ
करेंगे, तो
अहंकार बढ
जाएगा।
ये
बहाने हैं। ये
जीवन को जैसा
है,
वैसा चलाए
रखने के बहाने
हैं। कुछ भी
चुन लो; दोनों
से एक जगह
पहुंचना हो
जाता है। फिर
दूसरे की बात
ही मत करो।
दोनों रास्ते
वहीं
पहुंचाते हैं।
तुम एक रास्ते
पर चार कदम
चलते हो, फिर
दूसरे रास्ते
पर चार कदम
चलते हैं,
फिर पहले
रास्ते पर चार
कदम चलते हो।
तुम वहीं के
वहीं बने
रहोगे। तुम
कभी पहुंचोगे
नहीं।
तुम
कोई भी एक
रास्ता चुन लो, फिर
फिक्र छोड़ो।
हर रास्ते की
सुविधाएं हैं
और हर रास्ते
की कठिनाइयां
हैं।
तुम्हारी
बेईमानी
इसलिए पैदा
होती है कि
तुम चाहते हो, हर
रास्ते की
सुविधा भी
तुम्हें मिल
जाए दोनों की
सुविधाएं मिल
जाएं। और तुम
चाहते हो, दोनों
की असुविधाओं
से भी बचना हो
जाए। तब
तुम्हारे मन
में एक दुविधा
पैदा होती है।
तब तुम
त्रिशंकु हो
जाते हो। एक
रास्ता चुन लो।
अगर समर्पण
ठीक लगता है, चुन लो।
लेकिन समर्पण
तुम वहीं तक
चुनते हो, जहां
तक तुम्हें
आलस्य के लिए
सुविधा मिले।
मैं
चकित होता हूं
कभी—कभी सोचकर
कि लोग जिन
शब्दों का
उपयोग करते हैं, कभी
उन पर विचार
भी करते हैं
या नहीं!
समर्पण तुम
चुनते हो
सिर्फ इसलिए,
ताकि कुछ न
करना पड़े।
समर्पण नहीं
चुनते, कुछ
न करना चुनते
हो। खाली बैठे
रहो।
तुम
आलस्य चुनना
चाहते हो, समर्पण
में बहाना
खोजते हो। फिर
आलस्य से तो
कोई परमात्मा
मिलता नहीं, कोई सत्य
मिलता नहीं।
तो जल्दी ही
तुम्हारे
भीतर यह लगने
लगता है, समर्पण
से कुछ नहीं
मिल रहा है।
समर्पण तुमने
कभी किया नहीं।
तुमने आलस्य
के लिए समर्पण
शब्द का बहाना
खोज लिया। फिर
आलस्य से तो
परमात्मा
मिलता नहीं, तो तुम्हारे
मन में विचार
उठना शुरू
होता है कि अब
इससे तो मिल
नहीं रहा है।
समर्पण
किया ही नहीं, मिलने
की आकांक्षा
रखे बैठे हो।
तो फिर सोचते
हो, कुछ
करें। तो कुछ
करना शुरू
करते हो। वह
करना भी
संकल्प नहीं
है, वह
करना भी साधना
नहीं है। वह
करना भी आलस्य
से अहंकार को
जो चोट लगती
है.। क्योंकि
आलसी को कोई
आदर तो मिलता
नहीं, कहीं
नहीं मिलता।
संसार तो करने
वालों का है।
आलसी
को आदर नहीं
मिलता। आलसी
सोचता है, हम
समर्पण किए
हैं। आदर उसे
मिलता नहीं।
वह चाहता है, दुनियाभर
में खबर हो
जाए कि हमारा
समर्पण हो गया,
देखो।
सम्मान मिले!
सम्मान
दुनिया आलस्य
को नहीं देती।
और समर्पण हो
जाए, तो
सम्मान की
इच्छा नहीं
होती।
तो
धीरे — धीरे
बेचैनी पैदा
होती है कि यह
तो जिंदगी ऐसे
ही जा रही है, कुछ
पा भी नहीं
रहे, कुछ
मिल भी नहीं
रहा, सिर्फ
मक्खियां उड़
रही हैं चारों
तरफ आलस्य की।
तो आदमी करने
में लगता है। करता
है, तो
अहंकार खड़ा
होता है। तब
तुम्हारे मन
में चिंताएं
खड़ी हो जाती
हैं कि अब
क्या करें।
कुछ
भी चुन लो एक।
अगर तुम
समर्पण चुनते
हो,
तो आलस्य से
बचना वहां
जरूरी है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है। आलसी
समर्पण चुनते
हैं और समर्पण
के मार्ग पर
आलस्य से बचना
अनिवार्य है।
क्योंकि वही
खाई है वहा, वही
खतरा है। अगर
तुम संकल्प
चुनते हो, तो
अहंकार से
बचना वहां
जरूरी है, क्योंकि
वही वहां खतरा
है।
समर्पण
में अहंकार का
खतरा नहीं है
और संकल्प में
आलस्य का खतरा
नहीं है। खतरे
को देख लो।
इसलिए अगर
समर्पण करना
है,
तो समर्पण
को
अकर्मण्यता
मत बना लेना।
कर्म तो करना,
कर्ता— भाव
परमात्मा पर
छोड़ देना।
लेकिन
तुम कर्ता—
भाव तो छोड़ते
नहीं, कर्म
छोड़ते हो
परमात्मा पर।
कर्ता— भाव
बचाते हो और
चाहते हो कि
दुनिया
तुम्हें सम्मान
दे ऐसा, जैसे
कि तुम बड़े
साधक हो, बड़े
कर्ता हो, बड़ी
साधना की है, बड़े सिद्ध
पुरुष हो। वह
नहीं होगा।
चीजें
बिलकुल साफ
हैं। और अगर
धुंधला—
धुंधला
तुम्हें लगता
है,
तो तुम
धुंधलापन
पैदा कर रहे
हो। तुम चीजों
को साफ देखना
नहीं चाहते।
कल
ही एक युवक
मेरे पास आया।
वह कहता है कि
सब आपको
समर्पण। जो आप
कहेंगे, वह
मैं करूंगा।
मैंने उससे
पूछा, तू
करता क्या है
अभी? उसने
कहा कि मैं
फार्मेसी में
पढ़ता हूं। मगर
फेल हो गया
हूं। तो मैंने
उसको कहा कि
तू जा
फार्मेसी की
पढ़ाई पूरी कर
ले। वह कहता
है, वह तो
मुझसे हो ही
नहीं सकता।
अभी एक क्षण
पहले मुझसे
कहता है, जो
आप कहेंगे, वह मैं
करूंगा।
फार्मेसी? वह
तो मुझसे हो
ही नहीं सकता।
वह तो मैं कभी
जीवन में
उत्तीर्ण हो
ही नहीं सकता।
आप जो भी
कहेंगे, वह
मैं करूंगा, यह भी वह कहे
चला जा रहा है।
हम
अपने चित्त की
दशा को भी
नहीं देख पाते।
अब फार्मेसी
पूरी नहीं
होती, परमात्मा
को पूरा करने
का इरादा हो
रहा है। वह
फार्मेसी से
भागकर
परमात्मा में
शरण ले रहा है।
और जिसकी इतनी
भी हिम्मत
नहीं है कि एक
छोटे—से काम
को पूरा कर ले,
वह और क्या
पूरा कर पाएगा?
तो
मैंने उसे कहा, पहले
फार्मेसी
पूरी कर, फिर
त्याग देना।
सफल
आदमी त्याग कर
सकता है, असफल
आदमी त्याग
नहीं कर सकता।
कभी किसी चीज
को असफल होकर
मत त्यागना, नहीं तो वह
तुम्हारे
जीवन की शैली
हो जाएगी। फिर
तुम कभी सफल न
हो पाओगे। जो
भी छोड़ना हो, सफल होकर
छोड़ना। अगर
संसार छोड़ना
हो, तो सफल
होकर छोड़ना।
पद छोड़ना हो, सफल होकर
छोड़ना। धन
छोड़ना हो, तो
पाकर छोड़ना।
धन
में तो कोई
मूल्य नहीं है, लेकिन
तुम पा सकते
हो; वह जो
भाव की
बुनियाद बनती
है, उसका
मूल्य है। वह
काम आएगी। तुम
जहां भी जाओगे,
जिस दिशा
में भी जाओगे,
वहां काम
आएगी। अपना
मार्ग साफ कर
लेना चाहिए।
अगर तुम
अहंकारी हो, तो समर्पण
तुम्हारे लिए
मार्ग है। अगर
तुम आलसी हो, तो संकल्प
तुम्हारे लिए
मार्ग है।
तुम
कहोगे, यह तो
मैं उलटी बात
बता रहा हूं।
आलसी को तो
बताना चाहिए
समर्पण, और
अहंकारी को
बताना चाहिए
संकल्प। नहीं,
तब तो तुम
अपनी बीमारी
को औषधि समझ
रहे हो। अपने
को ठीक से समझ
लो। और
तुम्हारी जो
बीमारी हो, उसको समझ लो।
संकल्प
के मार्ग पर
अहंकार बढ़ता
है। अगर
अहंकार
तुम्हारी
बीमारी है, तो
उस मार्ग पर
तुम मत जाओ, अन्यथा वह
भयंकर हो
जाएगा।
समर्पण के
मार्ग पर
आलस्य के बढ़ने
की संभावना है।
अगर आलस्य
तुम्हारी
बीमारी है, तो कृपा
करके उस तरफ
मत जाओ। आलस्य
वाला संकल्प की
तरफ जाए, तो
संकल्प आलस्य
को काटता है।
अहंकारी
समर्पण की तरफ
जाए, तो
समर्पण
अहंकार को
काटता है।
गणित बिलकुल
सीधा—साफ है।
कहीं भी कोई
धुंधलका, अंधेरा,
उलझन नहीं
है।
लेकिन
तुम बीमारी को
औषधि समझ लो, फिर
अड़चन आती है।
और फिर तुम
बदलते जाओ; दो—चार कदम
चले नहीं कि
फिर बदल लिया,
फिर दो—चार
कदम चले नहीं
कि फिर बदल
लिया; फिर
तुम कभी भी न
पहुंच पाओगे।
लगेगा, चल
बहुत रहे हो, लेकिन पहुंच
कहीं भी नहीं
रहे हो।
यात्रा
व्यर्थ ही
जाएगी। और तुम
धीरे— धीरे
ज्यादा से
ज्यादा भ्रम
में भर जाओगे।
तुम्हारे
नीचे की
बुनियाद कंपने
लगेगी।
तुम्हारा
चित्त कंपित,
भयभीत, डरा
हुआ हो जाएगा।
तुम अपने ऊपर
आस्था खो दोगे।
और इस जगत में
सबसे बड़ी
दुर्घटना है,
स्वयं पर
आस्था खो देना।
जिसकी स्वयं
पर आस्था नहीं
है, वह
किसी दूसरे पर
आस्था कर ही
नहीं सकता।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि हम दूसरे
पर आस्था नहीं
करना चाहते।
हमारी तो अपने
पर ही आस्था
है। मैं उनसे
कहता हुं,
जिसकी अपने पर
आस्था है, वह
किसी पर भी
आस्था कर सकता
है। और जिसकी
अपने पर आस्था
नहीं है, वह
किसी पर आस्था
नहीं कर सकता।
जो भीतर ही
नहीं है, उसे
तुम बाहर कैसे
फैलाओगे?
गुलाब
के फूल में जो
गंध आती है, वह
गुलाब के भीतर
से आती है।
गंध दूर—दूर
फैल जाती है
हवाओं में।
तुम्हारे
कपड़ों पर छा
जाती है, तुम्हारे
नासापुटों
में भर जाती
है। गुलाब के
पास से गुजरो,
तो घंटों तक
तुम्हें
गुलाब की भनक
मालूम पड़ती रहती
है। लेकिन
सुगंध भीतर से
आती है।
आस्था
अगर तुम्हारी
स्वयं पर है, तो
तुम गुरु पर
आस्था कर
सकोगे, तो
तुम परमात्मा
पर आस्था कर
सकोगे। स्वयं
की आस्था में
और दूसरे पर
आस्था में विरोध
नहीं है। वे
एक ही सुगंध
की दो तरंगें
हैं।
लेकिन
जिसकी स्वयं
पर आस्था नहीं
है,
वह किसी पर
आस्था नहीं कर
सकेगा। और जो
किसी पर आस्था
नहीं करता है,
उसे सम्हल
जाना चाहिए, संभावना है
कि उसकी स्वयं
पर भी आस्था
नहीं होगी।
मनुष्य
के जीवन में
जितनी अड़चनें
दिखाई पड़ती हैं, उतनी
अड़चनें हैं
नहीं। बहुत—सी
तो बनाई हुई
हैं। फिर तुम
बना लेते हो, फिर अपने ही
जाल में उलझ
जाते हो। और
फिर उस जाल से
निकलना भी
नहीं चाहते।
और निकलना भी
चाहते हो।
क्योंकि जाल
कष्ट देता है,
तो निकलना
चाहते हो। और
जाल थोड़ा—सा
सुख भी दे रहा
है, इसलिए
निकलना भी
नहीं चाहते।
एक हाथ से
पकड़े रहते हो,
एक हाथ से
छोड़ना चाहते
हो।
चौथा
प्रश्न : आप
कहते हैं, गुरु
पृथ्वी पर
परमात्मा की
खबर है और यह
भी कि मिलन के
लिए प्रेम और
श्रद्धा ही
सेतु है।
लेकिन जिसका
मस्तिष्क
संदेहशील हो
और हृदय कुंठित,
वह धर्म की
यात्रा पर
निकलने के
पूर्व क्या करे?
निकले
ही क्यों? यह
तो ऐसा मामला
है कि तुम मुझसे
पूछो कि जो
बीमार नहीं है,
वह डाक्टर
के घर कैसे
जाए! जाए ही क्यों?
तुम मुझसे पूछते
हो कि जो भूखा
नहीं है, वह
भोजन की तरफ कैसे
बढ़े! लेकिन
बडे ही क्यों?
अगर
भूख नहीं है
परमात्मा की, बात
ही छोड़ो। ऐसी
आवश्यकता
क्या है? भूख
के पहले तो
कोई भी कुछ
नहीं कर सकता।
कोई एपेटाइजर
है नहीं, जो
तुम्हें दिया
जा सके, जिससे
तुम्हारी भूख
बढ़ जाए।
एपेटाइजर भी
काम करता है, क्योंकि भूख
होती है, नहीं
तो वह भी काम
नहीं करेगा।
अगर भूख न हो, तो वह और पेट
को भर देगा।
भूख और मर
जाएगी।
अगर
नहीं है
परमात्मा की
प्यास, तो
छोड़ो
परमात्मा को।
वह अपने घर
भला, तुम
अपने घर भले।
नाहक की झंझट
क्यों खड़ी
करते हो? जब
प्यास जगेगी,
तब जाना। और
जल्दी क्या है?
काल अनंत है।
कोई जल्दी
नहीं है। और
परमात्मा
किसी
जल्दबाजी में,
अधैर्य में
नहीं है। तुम
जब भी आओगे, उसे तुम
पाओगे, वह
सदा वहां है।
कुछ देर से
पहुंचोगे, तो
ऐसा नहीं है
कि तुम उसे
नहीं पाओगे।
कठिनाई
क्या है? कठिनाई
यह है कि
परमात्मा को
तुम पाना भी
चाहते हो, क्योंकि
सुन—सुनकर लोभ
पैदा हो गया
है। सुन रहे
हो सदियों से
कि परमात्मा
को पाने पर आनंद
मिलता है।
आनंद से मतलब
तुम लेते हो
सुख, जो कि
गलत है। सुख
की आकांक्षा
है, और लोग
कहते हैं, परमात्मा
को पाने से
मिलता है, और
परमात्मा की
कोई प्यास
नहीं है।
सुख
तुम भी पाना
चाहते हो।
संसार में सुख
दिखाई पड़ता है, पैर
उस तरफ जा रहे
हैं। और ये
ऋषि—मुनि कहे
चले जाते हैं
कि वहां सुख
नहीं है।
तुम्हें वहीं
दिखाई पड़ता है।
यह दूसरे कहते
हैं कि वहां
नहीं है। इन
पर तुम्हें
भरोसा भी नहीं
आता, क्योंकि
इन पर भरोसा
कैसे आएगा! जो
तुम्हारी प्रतीति
नहीं है, उस
पर तुम्हें
भरोसा कैसे
आएगा!
तुम्हारी
तो प्रतीति यह
है कि सुख वहा
लुट रहा है
बाजार में, और
ये नासमझ समझा
रहे हैं कि
चलो हिमालय।
बैठ जाओ शांत
होकर, आख
बंद करके। सुख
तो है रूप में,
और ये कहते
हैं, आख
बंद कर लो।
सुख है स्वाद
में, और ये
नासमझ कहते
हैं कि स्वाद
त्याग कर दो।
सुख है संसार
में, और ये
संन्यास
सिखाते हैं।
इसलिए तुम
इनकी बात भी
नहीं सुनते।
पैर तुम्हारे
संसार की तरफ
बढ़े जाते हैं।
लेकिन
संसार में
तुम्हें दुख
भी बहुत मिलता
है,
सुख की तो
सिर्फ आशा ही
रहती है, मिलता
कभी नहीं।
दिखाई पड़ता है,
अब मिला, अब मिला, अब
मिला, मिलता
कभी नहीं।
मिलता दुख है।
जब दूख मिलता
है, इन ऋषि—मुनियों
की बात याद
आती है कि पता नहीं,
ये पागल ठीक
ही कहते हों।
शायद हम ही
गलती में हैं।
लेकिन वह जो
दूर खड़ा सुख
है, वह
कहता है, तुम
गलती में नहीं
हो। जरा और
चेष्टा करने
की जरूरत है, और मंजिल
पास है। और
इतने पास आकर
लौट रहे हो? कहां की
बातों में
पड़ते हो!
सुख
बुलाता है
संसार की तरफ।
तुम्हारी आशा
भी,
तुम्हारी
श्रद्धा भी
सुख की है; मिलता
है दुख। दुख
मिलने के कारण
तुम भयभीत भी
हो जाते हो।
ऋषि—मुनियों
की बात सुनाई
पड़ने लगती है।
इसलिए तो सुख
में कोई स्मरण
नहीं करता, दुख में
स्मरण करता है।
दुख में लगता
है कि शायद ये
लोग ठीक ही
कहते हों।
जंचती तो बात
नहीं है कि
ठीक कहते हों।
इनकी संख्या
भी थोड़ी है।
तुम करोड़ हो, तो ये कभी एक।
करोड़ की मानें
कि एक की? और
इसको भी मिला
है, इसका
भी क्या
पक्का! पता
नहीं, कहता
ही हो।
तुम्हारे
अनुभव में तो
कोई ऐसी बात
है नहीं, जिससे
तुम्हें
श्रद्धा बढ़े।
तुमने तो जहां—जहां
गए, धोखा
ही पाया।
संसार में जहां
तलाशा, वहीं
धोखा पाया। जहां
खोदा, वहीं
पानी न मिला।
पता नहीं ये
ऋषि—मुनि भी
एक धोखा ही
हों। इस संसार
के बड़े धोखे
में यह भी एक
धोखा। बस, भरोसा
नहीं आता, संदेह
है। और आशा भी
नहीं छूटती, क्योंकि
जीवन के अनुभव
से तुम कुछ
सीखते भी नहीं।
तो
मैं तुमसे
क्या कहूं? मैं
तुमसे इतना ही
कहता हूं कि
अगर परमात्मा
की तरफ प्यास
नहीं है, तो
परमात्मा की
बात ही अभी
छोड़ दो। यह
बात तुम बेसमय
उठा रहे हो।
अभी मौसम नहीं
आया। अभी ऋतु
नहीं पकी। यह
बात ही छोड़ दो।
क्योंकि यह
बेमौसम की बात
खतरनाक है।
इससे तुम
संसार को भी न
भोग पाओगे और
परमात्मा की
तरफ तो तुम जा
ही नहीं सकते।
इससे तुम
बिलकुल ही अधर
में लटके हुए
हो जाओगे।
तुम
संसार की तरफ
पूरी तरह दौड़
लो। मेरी समझ
यह है कि तुम
अगर परमात्मा
को भूल जाओ
कुछ समय के
लिए और संसार
की तरफ पूरी
तरह दौड़ लो, तो
परमात्मा की
प्यास पैदा हो
जाएगी। तुम
संसार को ठीक
से जान ही लो।
अगर सुख मिल
गया, तब तो
कोई परमात्मा
की जरूरत ही न
रहेगी। बात ही
खतम हो गई।
अगर सुख न
मिला, तो
प्यास पैदा हो
जाएगी।
अब
तक किसी को
सुख मिला नहीं
है। इसलिए
प्यास पैदा
होना निश्चित
है। अगर नहीं
पैदा हो रही, तो
तुम संसार में
ठीक से गए
नहीं। तुम
अधकचरे हो।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी युवक
अमेरिका जा
रहा था। बाप—परिवार
पुराने ढंग का
था। वे बड़े
चिंतित थे कि
अमेरिका में
लड़का बिगड़ न जाए।
तो उन्होंने
अपने
धर्मगुरु को
बुलाया और कहा,
इसे कुछ
समझाओ।
तो
उस धर्मगुरु
ने उसे बड़ा
भयभीत किया।
बड़े डर दिखाए
कि अगर
स्त्रियों के
प्रति तूने रस
लिया, तो नरक
में कैसे—कैसे
कढाओं में
सडाया जाएगा।
अगर तूने शराब
पी, तो
कैसे कष्ट
तुझे भोगने
पड़ेंगे। कीड़े—मकोड़े
तेरे शरीर में
छेद करके
निकलेंगे और
सारे शरीर को
गूंथ डालेंगे।
ऐसे सारे भय
उसे दिखाए।
वह
कंपने लगा। वह
युवक बिलकुल कंपने
लगा,
उसको पसीना
आ गया। उस
युवक ने कहा
कि आप जो कह
रहे हैं, इनसे
क्या मेरे मन
में कामवासना
उठनी बंद हो जाएगी?
इनसे क्या
प्रलोभन बंद
हो जाएगा? इनसे
क्या जो
उत्तेजना
चारों तरफ से
मुझे मिलेगी
अमेरिका में,
वह नहीं
मिलेगी?
उस
धर्मगुरु ने कहा, नहीं,
वह तो मैं
नहीं कह सकता।
उत्तेजना तो
मिलेगी कि
नहीं मिलेगी,
वह तो मैं
नहीं कह सकता।
लेकिन तू कुछ
भी भोगेगा, ठीक से न भोग
पाएगा, इतना
पक्का है। अगर
स्त्री के
प्रेम में
पड़ेगा, तो
नरक बीच में
खड़ा रहेगा, कड़ाही जलती
रहेगी। इतना
भर मैं कह
सकता हूं कि
तू कुछ भी ठीक
से न भोग
पाएगा। यही
तुम्हारी
दशा है। तुम
भोग ही नहीं
पा रहे हो।
भोगने जाते हो,
तो नरक बीच
में खड़ा है।
शराब पीने
जाते हो, तो
पाप बीच में
खड़ा है। धन
कमाने जाते हो,
तो स्वर्ग
का प्रलोभन, नरक का भय
बीच में खड़ा
है। कहीं भी
जाते हो संसार
में, परमात्मा
साथ चल रहा है।
वह देख रहा है।
तुम्हें
छुट्टी नहीं
है पूरी करने
की।
ये
तुम्हारी
धारणाएं हैं, जो
तुमने
पुरोहितों से
सीख ली हैं।
तुम कृपा करके
इन्हें छोड़ दो।
तुम एक बार
पूरी तरह
सांसारिक हो
जाओ। और मैं
तुम्हें
भरोसा दिलाता
हूं कि अगर
तुम पूरी तरह
सांसारिक हो
जाओ, तो
सिवाय
परमात्मा के
और कोई प्यास
बचेगी नहीं।
क्योंकि
संसार सिर्फ
मरुस्थल है।
लेकिन
उसे खोजना
पड़ेगा, सारे
कोने—कोने खोज
लेने पड़ेंगे।
तुम्हारा
भ्रम मिट जाना
चाहिए कि हो
सकता है, कहीं
कोई मरूद्यान
छिपा हो।
विराट संसार
है, कहीं
कोई सुख छिपा
ही हो, पता
नहीं। तुम
रत्ती—रत्ती
नाप डालो। तुम
एक—एक लहर को
खोज लो। तुम
एक—एक वासना
का पीछा कर लो।
उस पीड़ा से ही
उठेगी प्यास।
और कोई उपाय
नहीं है।
संसार
जब व्यर्थ
होता है, तभी
संन्यास
सार्थक होता
है। भोग जब दो
कौड़ी का हो
जाता है, तभी
योग का मूल्य
समझ में आता
है।
तुम्हारी
अवस्था है, न
घर के, न
घाट के। संसार
में जाते हो, ऋषि—मुनि
पीछा कर रहे
हैं। वे कमीज
पकड़कर पीछे
खींच रहे हैं।
ऋषि—मुनियों
के पीछे जाते
हो, संसार
पीछा करता है।
वह कमीज पकड़कर
पीछे खींचता
है। तुम कहीं
भी जा नहीं
पाते। तुम एक तरफ
जाओ। एक साधे,
सब सधै।
मैं
तुमसे कहता
हूं तुम संसार
ही साध लो।
कृपा करके
परमात्मा को
बीच में मत
लाओ। और इतना
पक्का है कि
अगर तुमने
संसार ही साधा, एक
साधा, सब
सध जाएगा।
क्योंकि
संसार में
सिवाय असफलता
के और कुछ उपलब्ध
हो नहीं सकता।
वहां से आनंद
पाने की आशा
ऐसे ही है, जैसे
कोई रेत से
तेल निकालता
हो। वह हारेगा
ही।
उस
हार से ही कुछ
संभव है।
परिपूर्ण
पराजय से ही
रूपांतरण
संभव है। तुम
अभी हारे नहीं
हो। आशा लगी
है। वही आशा
तुम्हें
भटकाए है।
नहीं, प्यास
पैदा करने का
और कोई उपाय
नहीं है। यही
भूल तुमने
जन्मों—जन्मों
की है, इसलिए
अब तक पैदा
नहीं हो पाई
है। अब मत करो
इस भूल को।
और
मैं नहीं
उत्सुक हूं कि
तुम धार्मिक
हो जाओ।
क्योंकि मैं
देख रहा हूं
कि जिन लोगों
ने तुम्हें
धार्मिक
बनाने में
उत्सुकता ली
है,
उन्होंने
तुम्हें
बरबाद किया है।
मेरी उत्सुकता
तुम्हें
सच्चा बनाना
है, धार्मिक
बनाने से मेरा
कोई प्रयोजन
नहीं है।
संसार में हो,
सच्चाई से
संसार में हो
जाओ।
जब
मैं कह रहा
हूं सचाई से
संसार में हो
जाओ,
तो मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि सत्य
बोलो संसार में।
मैं यह कह रहा
हूं कि पूरे
संसारी हो जाओ,
प्रामाणिक
रूप से संसारी
हो जाओ। जो
भोगना है, भोग
ही लो। सब भोग
दुख पर ले आते
हैं। सब भोगों
के बाद अंधकार
छा जाता है।
उस गहन अंधकार
से ही सुबह
पैदा होती है।
अब सूत्र
और
हे महाबाहो, संपूर्ण
कर्मों की
सिद्धि के लिए
ये पांच हेतु
सांख्य सिद्धांत
में कहे गए
हैं, उनको तू
मेरे से भली
प्रकार सुन।
हे अर्जुन, इस विषय में
आधार और कर्ता
तथा न्यारे—न्यारे
करण, नाना
प्रकार की
न्यारी—न्यारी
चेष्टा, वैसे
ही पाचवां
हेतु दैव कहा
गया है।
कृष्ण
कहते हैं, पांच
कारण हैं, हेतु
हैं, सभी
घटनाओं के।
कोई आधार होता
है घटना का, निराधार तो
कुछ भी घट
नहीं सकता।
कोई करने वाला
होता है घटना
का, बिना
कर्ता के घटना
घट नहीं
सकती।
उपकरण होते
हैं,
उनके सहारे
के बिना घटना
नहीं घट सकती।
चेष्टा होती
है, यत्न
होता है, प्रयास
होता है, उसके
बिना भी घटना
नहीं घट सकती।
और फिर जन्मों—जन्मों
के संचित कर्म
होते हैं, जिनको
दैव कहा है।
वे भी उस घटना
को घटाने में
सहयोगी होते
हैं। ये पांच
आधार हैं कर्म
के।
मनुष्य
मन,
वाणी और
शरीर से
शास्त्र के
अनुसार अथवा
विपरीत जो कुछ
भी कर्म करता
है, उसके
ये पांचों ही
कारण हैं।
परंतु ऐसा
होने पर भी जो
पुरुष अशुद्ध
बुद्धि होने
के कारण उस
विषय में केवल
शुद्ध स्वरूप आत्मा
को कर्ता
देखता है, वह
दुर्मति
यथार्थ नहीं
देखता है।
कारण
तो हैं, पाच
हैं, लेकिन
फिर भी तुम
उनके बाहर हो।
घटना घटती है,
तो अकारण
नहीं घट सकती।
घटना घटती है,
तो कर्ता भी
होगा। घटना
घटती है, तो
घटाने की
चेष्टा भी
होगी। पूर्व—संस्कार
पीछे खड़े
होंगे। किसी
भी घटना के
लिए ये पांच
सहारे चाहिए।
लेकिन फिर भी
तुम इन पाचों
के बाहर हो।
तुम साक्षी हो,
तुम देखने
वाले हो।
भूख
लगी,
तो शरीर ने
आधार बनाया।
भूख उठी। इसको
तुम भूख की तरह
समझ लेते हो, क्योंकि
पहले भी तुमने
भूख को भूख की
तरह जाना है।
अगर यह पहली
ही दफे लगती, तो तुम
पहचान भी न
पाते कि यह
भूख है। शायद
तुम समझते पेट
में दर्द हो
रहा है। तुम
कुछ भी समझते,
लेकिन भूख
नहीं समझ सकते
थे।
पहले
दिन का बच्चा
भी पहली ही
घड़ी,
पैदा होते ही
जो भूख पैदा
होती है, तो
अनुभव कर लेता
है कि भूख लगी
और मां के
स्तन को खोजने
निकल जाता है।
यह खबर है इस
बात की कि यह
स्तन बहुत बार
पहले भी खोजा
गया है।
अन्यथा कैसे
खोजोगे? पूर्व—संस्कार
चाहिए।
तो
यह बच्चा कैसे
जानता है कि
भूख लगी? इसको
यह भूख की तरह
कैसे पहचानता
है? यह
कैसे जानता है
कि स्तन इसकी
भूख की पूर्ति
कर देंगे? इसका
हाथ स्तन की
तरफ क्यों
बढ़ने लगता है?
यह कैसे
स्तन से दूध
को पीता है? इसने कभी
पहले पीया
नहीं। तो दैव।
पहला
अतीत, सारा
अतीत पीछे से
काम कर रहा है।
भूख लगी, शरीर
ने आधार दिया,
संस्कार ने पहचाना,
फिर तुमने
चेष्टा की।
क्योंकि भूख
लगी, तो
चेष्टा करनी
पड़ेगी। भीख भी
मांगने गए, तो भी
चेष्टा होगी;
दुकान गए, तो भी
चेष्टा होगी;
चोरी करने
गए, तो भी
चेष्टा होगी।
धर्म के
अनुकूल या
प्रतिकूल कुछ
भी करो, चेष्टा
होगी।
जब
तुम चेष्टा
करोगे, तो
तुम्हारा मन कर्ता
भी होगा। बिना
करने वाले के
चेष्टा कैसे
होगी? तो
मन करेगा। मन
विचार करेगा,
क्या करूं,
क्या न करूं?
कैसे रोटी
पाऊं आज? चोरी
से? भिक्षा
से? किसी
के घर मेहमान
बनकर? कमाकर?
क्या करूं?
तो मन कर्ता
बनेगा। और तुम
जो भी उपकरण, जिन—जिन
साधनों से
भोजन जुटाओगे,
वे करण हैं।
ये
पांच हैं; तुम
छठवें हो।
कृष्ण
कहते हैं, इन
पांचों में
जिसने अपने को
डूबा हुआ समझ
लिया, वह
दुर्मति। तुम
इन पांचों के
बाहर हो; तुम
इन पांचों के
देखने वाले हो।
भूख
लगती है, वह
तुम्हें नहीं
लगती। तुम
देखते हो, तुम
पहचानते हो कि
भूख लगी। भूख
तुमसे बाहर है,
तुमसे दूर
है। भूख
तुम्हारे आस—पास
घटती है, तुममें
नहीं घटती।
भूख
लगते ही मन
चेष्टा में लग
जाता है। मन
भी तुमसे बाहर
है। उसकी भी
जरूरत है।
बिना मन के
भूख लगी रहेगी
और तुम्हें
पता ही नहीं
चलेगा। क्या
करोगे? मर
जाओगे। मन
चेष्टा में लग
जाता है, उपाय
खोजने लगता है,
हाथ—पैर
चलने लगते हैं,
उपकरण
जुटाए जाने
लगते हैं, आटा
लाओ, पानी
लाओ, आग
जलाओ, व्यवस्था
करो भोजन
बनाने की।
लेकिन
इस सब घटने
में तुम बाहर
हो। तुम्हारा
होना साक्षी
का होना है।
तुम सिर्फ
देखने वाले हो, द्रष्टा
हो।
ऐसा
होने पर जो
पुरुष अशुद्ध
बुद्धि होने
के कारण उस
विषय में केवल
शुद्ध स्वरूप
आत्मा को कर्ता
देखता है, वह
दुर्मति
यथार्थ नहीं
देखता।
अगर
इन सब पांचों
के कारण तुमने
यह समझा कि तुम
कर्ता हो, तो
तुम यथार्थ
नहीं देखते।
तुम अज्ञान
में पड़े हो।
और
हे अर्जुन, जिस
पुरुष के
अंतःकरण में
मैं कर्ता हुं, ऐसा भाव
नहीं है तथा
जिसकी बुद्धि
लिपायमान नहीं
होती, वह
पुरुष इन सब
लोगों को
मारकर भी
वास्तव में न
तो मारता है
और न पाप से
बंधता है।
कृष्ण
कहते हैं, अगर
इन पांच के
बाहर तू अपने
को जान ले, जो
कि तेरा होना
है ही, सिर्फ
प्रत्यभिज्ञा
चाहिए, होश
चाहिए। अगर तू
इन पांचों के
बाहर अपने को
मान ले, जान
ले, पहचान
ले, तो फिर
तू जो भी करता
है, उसका
कोई पाप—बंध
तेरे ऊपर नहीं
है। फिर तू
भोजन करते हुए
उपवासा रहेगा,
बोलते हुए
मौन, चलते हुए
अनचला, करते
हुए अकर्ता, संसार में
होते हुए भी संसार
के बाहर।
क्योंकि
साक्षी सदा
बाहर है। वह
लिपायमान
नहीं होता।
साक्षी का
गुणधर्म क्या
है? वह
लिपायमान
नहीं होता; वह किसी चीज
में डूबता
नहीं। तुम उसे
डुबा नहीं
सकते। वह सदा
बाहर ही रहता
है। वह बाजार
में दुकान
करेगा और
डूबेगा नहीं।
वह कर्मों में
लीन होगा, फिर
भी भीतर एक
तत्व शेष
रहेगा, जो
लीन नहीं होगा।
यह जो
लिपायमान न
होने की कला
है, यही
धर्म है।
इसलिए
क्या कहते हैं, हे
अर्जुन, ऐसी
अगर तेरी दशा
हो जाए, अगर
तू पहचान ले
कि यह सारा कम
इन पांच का है
और तू अकर्ता
है, तो फिर
ये जो सारे
लोग खड़े हैं, अगर तू इनको मार
भी डाल, तो
भी पाप से
नहीं बंधता है।
क्योंकि तूने
कोई कृत्य
किया ही नहीं;
हुआ, किया
नहीं। घटना
जरूर घटी, उसके
कारण थे, उपकरण
थे, आधार
थे, हेतु
थे, लेकिन
तू बाहर रहा।
वह
पुरुष इन सब
लोगों को
मारकर भी
वास्तव में न
तो मारता है।
क्योंकि
जब मारने वाला
ही भीतर भाव
नहीं है, तो
कैसे हम कहें
कि वास्तव में
मारता है!
सिर्फ अभिनय
करता है मारने
का।
और
न पाप से
बंधता है।
यह
भारत की गहनतम
खोज है।
साक्षी तक
विश्व का कोई
धर्म इस भांति
नहीं पहुंचा।
बड़े से बड़े
धर्म दुनिया
में पैदा हुए
हैं,
लेकिन वे भी
कर्ता तक ही
पहुंचकर रुक
जाते हैं। वे
भी कहते हैं, अच्छा करो, बुरा मत करो।
यहूदियों
की दस आज्ञाएं
हैं या
ईसाइयों की, वे
सब करने पर
आधारित हैं।
चोरी मत करो, हिंसा मत
करो; करुणा
करो, दया
करो। महावीर
के वचन हैं, उनका भी
सारा सूत्र
करने से बंधा
हुआ है। हिंसा
मत करो, परिग्रह
मत करो। सब
अच्छी बातें
हैं, लेकिन
एक सीढ़ी नीचे
रह जाती हैं, करने पर खड़ी
हैं। कर्ता
समाप्त नहीं
होता।
कृष्ण
आखिरी बात कह
रहे हैं। इसके
पार फिर कोई
जाना नहीं है।
इसके पार
अस्तित्व ही
समाप्त हो
जाता है। यह
आखिरी घड़ी है।
साक्षी से
पीछे नहीं जा
सकते। साक्षी
यानी बस आ गए
आखिरी से
आखिरी मंजिल
तक। तुम
साक्षी के
साक्षी नहीं
हो सकते। तुम
सब चीजों को
देख सकते हो
दुनिया में, स्वयं
को नहीं देख
सकते। स्वयं
तो देखने वाला
है, वह सदा
ही देखने वाला
है; उसे
तुम कभी देखा
जाने वाला
नहीं बना सकते।
वह द्रष्टा है,
उसे तुम कभी
दृश्य नहीं बना
सकते।
कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि फिर ये
सारे लोग भी
तेरे द्वारा
मारे जाएं, तो
न तो वास्तव
में ये मारे
जाते हैं, क्योंकि
जिसने अपने
साक्षी को जान
लिया, उसने
यह भी जान
लिया कि भीतर
का तत्व अमृत
है। इन बाहर
के लोगों को
भी काटते समय
वह जानेगा कि
शरीर ही काट
रहा हुं,
इनको मार नहीं
रहा हूं। मरता
तो कोई है ही
नहीं। कृष्ण
के हिसाब से
हिंसा तो
असंभव है।
मरना तो होता
ही नहीं, तो
हिंसा कैसे
संभव है? हिंसा
इसलिए थोड़े ही
होती है कि
तुमने किसी को
मार डाला।
हिंसा सिर्फ
इसलिए होती है
कि तुमने समझा
कि तुमने मार
डाला।
तुम्हारे
मारने से कोई
मरता है? ऐसे
ही जैसे कोई
किसी के कपड़े
छीन ले, इससे
कोई मरता है? आदमी दूसरे
कपड़े खरीद
लेगा। तुमने
किसी को मारा,
देह छीन ली,
देह दूसरी
देह खोज लेगी।
नई देह मिल
जाएगी। शायद
पुरानी
जराजीर्ण हो
गई थी, तुमने
बड़ी कृपा की।
नई देह मिल
जाएगी। जैसे
कोई घर को बदल
ले, ऐसे
देहों को बदल
लिया जाएगा।
तुम्हारे
मारने से भी
कोई मरता नहीं, इसलिए
वस्तुत: तो
हिंसा होती ही
नहीं, हो
नहीं सकती। और
मारते समय तुम
कर्ता नहीं हो।
कृत्य हो रहा
है, कारण
सब मौजूद हैं,
तुम बाहर
खड़े हो। इसलिए
मैं कहता हूं
कृष्ण का यह
सूत्र जीवन को
अभिनय बना
देता है। तुम
एक अभिनेता हो,
कर्ता नहीं।
एक बड़ा मंच है
जीवन का, उस
पर तुम बहुत
तरह के काम कर
रहे हो। जो
तुम्हें दिया
गया है, जो
तुमने पाया है
कि तुम्हें
दिया गया है, तुम उसे
पूरा कर रहे
हो बिना
लिपायमान हुए।
इसे
थोड़ा सोचो, इसे
थोड़ा साधो, और तुम्हारे
जीवन में
संन्यास की
सुगंध उतरनी
शुरू हो जाएगी।
इसलिए
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
तुम छोड़ो घर
को,
गृहस्थी को,
बच्चों को,
परिवार को।
उसके छोड़ने से
कुछ अर्थ नहीं
है। क्योंकि
अगर छोड़ने
वाला न छूटा, तो कुछ भी
नहीं छूटा।
तुम
रहो वहीं, जहां
हो, सभी जगहें
एक—सी हैं।
रहो वहीं, रहने
के ढंग को बदल
दो। और तुम
बड़े हैरान
होओगे। जरा से
ढंग को बदलने
की बात है। और
उस ढंग की
बदलाहट का
बाहर पता भी
चलना जरूरी
नहीं है। किसी
को भी पता न
चलेगा; कानों—कान
खबर न होगी।
लेकिन
तुम्हारा
जीवन आमूल बदल
जाएगा।
तुम
पति हो, इसको
अभिनय समझो।
पत्नी छोड्कर
भागने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। सिर्फ
अभिनय समझो।
और पति का काम
जितनी कुशलता
से कर सको, कर
दो। तुम पत्नी
हो, पत्नी
का काम कुशलता
से कर दो।
अभिनय है, कुशलता
से करना है।
लिपायमान मत
हो।
किसी
को कहने की भी
जरूरत नहीं है।
किसी को पता
चलने की भी
जरूरत नहीं है।
तुम भीतर सरक
जाओ। सब काम
वैसा ही चलता
रहे। हाथ
उठेंगे, बुहारी
लगेगी, पति
आएगा, चरण
धोए जाएंगे; पति आएगा, बाजार से
फूल ले आएगा; सब काम वैसे
ही चलेगा।
कहीं कोई भेद
न होगा। कहीं
रत्तीभर भेद
की जरूरत नहीं
है। भीतर कुछ
सरक जाएगा।
भीतर से कोई
हट जाएगा।
भीतर घर खाली
हो जाएगा।
कर्ता वहां
नहीं रहा।
और
जब कर्ता भीतर
नहीं रह जाता, तो
ऐसा सन्नाटा
छा जाता है
जीवन में, कि
कोई भी चीज उस
सन्नाटे को
तोड़ती नहीं।
ऐसी गहन शांति
उतर आती है, कि सारा
संसार कोलाहल
करता रहे, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। तूफान
और आधी के बीच
भी तुम्हारे
भीतर सब शांत
बना रहता है।
सफलता हो, असफलता;
सुख हो, दुख;
हार हो, जीत,
जीवन हो, मृत्यु—कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। एक बात
के साध लेने
से, कि तुम
पीछे हटना सीख
गए, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। इसे तुम
थोड़ा जीवन में
इसकी कोशिश
करो। यह बड़ी
अनूठी कोशिश
है और बड़ी
रसपूर्ण। और
इससे ऐसा आनंद
का झरना फूटने
लगता है, जिसका
हिसाब रखना
मुश्किल है।
और तुम खुद
मुस्कुराओगे
कि यह क्या हो
रहा है। इतनी
सरल थी बात!
घर
आए हो, बेटे की
पीठ थपथपा रहे
हो, मत
थपथपाओ बाप की
तरह। बस, थपथपाओ
नाटक के बाप
की तरह। और
मजा यह है कि
पीठ ज्यादा
अच्छी तरह
थपथपाई जाएगी।
बेटा ज्यादा
प्रसन्न होगा।
कहीं कुछ अड़चन
न आएगी, कहीं
कुछ तुम्हारे
कारण बाधा
पैदा न होगी
और तुम्हारे
जीवन का सार
सधने लगेगा।
अगर
तुम इस जीवन
के मंच से ऐसे
आओ और ऐसे
गुजर जाओ, जैसे
अभिनेता आता
है; मरते
वक्त
तुम्हारी
मृत्यु तब ऐसे
ही होगी, जैसे
परदा गिरा; उसमें कोई
पीड़ा न होगी।
एक कृत्य को
ठीक से पूरा
कर लेने का
अहोभाव होगा।
विश्राम की
तरफ जाने की
भावना होगी।
और काम पूरा
हो गया, परमात्मा
का आह्वान आ
गया, वापस
लौट चलें।
परदा गिर गया।
गेटे, जर्मनी
का एक बहुत बड़ा
नाटककार, कवि
हुआ। जीवनभर
नाटकों का ही
अनुभव था। और
गैटे धीरे—धीरे
नाटक के अनुभव
से ही उस
गहनता को
अनुभव करने
लगा, जिसको
हम साक्षी—
भाव कहते हैं।
नाटक, और
नाटक, और
नाटक। धीरे—धीरे
पूरा जीवन उसे
नाटक जैसा
दिखाई पड़ने
लगा। जब गेटे
मरा, तो
उसके आखिरी
शब्द ये थे।
उसने आख खोली
और उसने कहा
कि देखो, अब
परदा गिरता
है!
नाटककार
की भाषा थी, पर
चेहरे पर बड़ी
प्रसन्नता थी,
बड़ा आनंद का
अहोभाव था। एक
काम कुशलता से
पूरा हो गया; परदा गिरता
है। मौत तब
परदे का गिरना
है और जीवन तब
खेल है, लीला
है।
कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं कि
बस,
इतना तू समझ
ले; भागने
की जरूरत नहीं
है इस
महायुद्ध से।
और भागकर कोई
कहीं जा नहीं
सकता, क्योंकि
जहां भी जाओगे,
वहीं युद्ध
है। जीवन
महासंघर्ष है।
वह। छोटी मछली
बड़ी मछली के
द्वारा खाई जा
रही है। इसका
कोई उपाय नहीं
है।
शायद
यही परमात्मा
का नियोजित
खेल है, कि इस
युद्ध में तुम
जागो, कि
इस युद्ध के
भी तुम पार हो
जाओ। रहो
निमित्त—मात्र,
करने दो उसे
जो उसकी मर्जी
है। बहे उसकी
हवाएं, तुम
सिर्फ उन्हें
गुजर जाने दो।
तुम बाधा मत
डालों, तुम
बीच में मत आओ।
और सब सध जाता
है। बिना कहीं
गए, सब मिल
जाता है। एक
बिना कदम उठाए,
मंजिल घर आ
जाती है।
साक्षी—
भाव कुंजी है।
इसे थोड़ा
प्रयोग करना
शुरू करो। यह
परम ध्यान है।
भूल— भूल जाओ, फिर—फिर
याद कर लो।
भोजन कर रहे
हो, ऐसे ही
करो जैसे कि
बस, एक
नाटक में कर
रहे हैं। नाटक
बड़ा है माना, बड़ा लंबा है,
सत्तर साल
चलता है, अस्सी
साल चलता है, लेकिन है
नाटक।
और
तुम्हें भी कई
दफे खयाल आ
जाता है कि
क्या नाटक हो
रहा है! लेकिन
बार—बार भूल
जाते हो।
स्मरण को
सम्हाल नहीं
पाते, सुरति
को बांध नहीं
पाते, छूट—छूट
जाती है हाथ
से। बस, छूटे
न। इतना—सा
अगर तुम साध
पाओ, एक
छोटा—सा शब्द,
साक्षी।
उसमें सारे
शास्त्र समाए
हैं। यह जो
विराट जीवन
फैला दिखाई
पड़ता है, जहां
भी जाओ, रास्ते
में खड़े होकर
देखो ऐसे ही
जैसे नाटक देख
रहे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
नाटक देखने
गया था। एक
अभिनेता बड़ा
कुशल अभिनय कर
रहा था। और वह
नाटक में कई
बार अपनी
पत्नी को
आलिंगन करता
है;
उसका चुंबन
लेता है।
मुल्ला की
पत्नी भी पास
बैठी थी। उसने
मुल्ला का हाथ
हाथ में ले
लिया और कहा, मुल्ला, तुम
इस भांति मुझे
कभी प्रेम
नहीं करते।
मुल्ला
ने कहा, वह तो
अभिनय है देवी;
उस पर
ज्यादा ध्यान
मत दे। पत्नी
ने कहा, अभिनय
नहीं है। वे
वास्तविक
जीवन में भी पति—पत्नी
हैं, वे जो
अभिनय कर रहे
हैं पति—पत्नी
का। मुल्ला ने
कहा, तब तो
यह अभिनेता
गजब का है, कि
अपनी ही पत्नी
को इतने
मुग्धभाव से
अता है!
अपनी
ही पत्नी को
मुग्धभाव से
चूमना बड़ा
कठिन हो जाता
है। उसके लिए
बड़ा कुशल
अभिनय चाहिए।
और सभी चीजें
लाभ की हैं।
पूरब
में हमने सब
चीजें थिर कर
ली थीं।
ज्यादा हमने
स्वतंत्रता न
दी थी जीवन को।
क्योंकि
स्वतंत्रता
से समय नष्ट
होता है और मूल्यवान
अनुभव करीब
नहीं आ पाता।
अगर तुम हर दो—चार
महीने में
पत्नी बदलते
जाओ,
तो यह खेल, अभिनय कभी
भी न हो पाएगा।
क्योंकि तुम
हमेशा ही
उत्तेजित
रहोगे। लेकिन
एक ही पत्नी
चालीस साल, पचास साल; सब चीजें
थिर हो जाती
हैं, उत्तेजना
खो जाती है।
उस
अनुत्तेजित
अवस्था में
चीजें अभिनय
जैसी हो जाती
हैं। तुम
चीजों के आर—पार
ज्यादा
कुशलता से देख
पाते हो।
हमने
चीजें थिर कर
ली थीं, सिर्फ
इसीलिए, ताकि
आख ठीक से आर—पार
जा सके। दृश्य
अगर बदलते
रहें दिन—रात,
तो तुम किसी
भी दृश्य में
गहराई से नहीं
उतर पाते।
पूरब ने एक
बड़ी थिर जीवन—व्यवस्था
बनाई थी, जिसमें
कुछ बहुत
बदलता नहीं था।
तुम
ऐसा समझो कि
अगर रामलीला
भी हर साल
बदलने लगे, उसकी
कहानी बदल जाए,
तो वह
रामलीला जैसी
न लगेगी। हर
बार तुम
उत्तेजित
होकर वहां
पहुंच जाओगे।
तुम
ऐसा समझो कि
एक ही फिल्म
तुम्हें
पच्चीस बार
देखनी है। आज
देखकर आए, कल
देखी, परसों
देखी। आज जो
उत्तेजना
होगी, कल न
रह जाएगी। कल
तुम्हें घटना
मालूम ही है
कि क्या होने
वाला है।
परसों तो बात
बिलकुल ही
फीकी हो जाएगी।
तुम थोड़ी—
थोड़ी झपकी भी
बीच में लेने
लगोगे। चौथे
दिन तो तुम
मजे से सोने
लगोगे कि अब
क्या, जानने
को क्या है, सब जान लिया।
अगर पच्चीस
दिन तुम्हें
एक ही फिल्म
देखनी पड़े, तो तुम
मुक्त हो
जाओगे उस
फिल्म से, बिलकुल
मुक्त हो
जाओगे। लेकिन
रोज नई फिल्म
हो, तो
उत्तेजना बनी
रहेगी। नए को
जानने के लिए
मन आतुर होता
है।
पश्चिम
ने एक बदलता
हुआ समाज
बनाया है, जो
रोज बदल रहा
है। इसलिए
पश्चिम में
आखिरी क्षण तक
बेचैनी बनी रहती
है। मरते दम
तक आदमी ऐसा
व्यवहार करता
है, जैसे
अभी जवान है।
सुनकर' ही
हैरानी होती
है कभी हमें।
एक
संन्यासी से
मैं पूछ रहा
था। उसने कहा
कि मेरे पिता
की तबीयत खराब
है। और वे बडी
चिंता में पड़े
हैं। आप कुछ
सहायता करें।
मैंने कहा, उनकी
चिंता क्या है?
काफी
पैसे वाले हैं।
पचासी साल की
उम्र है।
चिंता यह है
कि पत्नी भी
है और एक गर्ल—फ्रेंड
भी है। पचासी
साल की उम्र
में,
गर्ल—फ्रेंड।
उससे झगड़ा—झांसा
है। क्योंकि
वह पत्नी
बरदाश्त नहीं
करती। वे
पचासी साल के
हैं, गर्ल—फ्रेंड
पच्चीस साल की
है। अब यह जो
पचासी साल का
आदमी है, पचासी
साल का हो ही
नहीं पाया। यह
पच्चीस साल की
उम्र में तो
समझ में आ
जाती है बात, लेकिन पचासी
साल की उम्र
में समझ में
नहीं आती।
लेकिन
पश्चिम में
समझ में आती
है,
कोई अड़चन
नहीं है। जीवन
कंपता हुआ है,
कुछ थिर
नहीं है। जैसे
कि नदी
डांवाडोल हो,
तो उथली नदी
की भी गहराई
में देखना
मुश्किल है।
नदी थिर हो, लहर न उठती
हो, तो
गहरी से गहरी
नदी की भी
तलहटी में
देखना संभव हो
जाता है।
हमने
एक घिर जीवन
बनाया था।
उसके पीछे राज
था। हम हर
आदमी को
साक्षी बनाने
की चेष्टा में
संलग्न थे।
हमारी कोशिश
यह थी कि तुम
जीवन को देखते—देखते
ही यह समझ जाओ
कि यह तो सिर्फ
खेल है। इसके
पीछे तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे। हर दृश्य
के पीछे
तुम्हें
द्रष्टा
दिखाई पड़ने
लगे;
हर शरीर के
पीछे तुम्हें
आत्मा दिखाई
पड़ने लगे; हर
घटना के पीछे
तुम्हें
परमात्मा का
हाथ दिखाई
पड़ने लगे।
इसलिए
हमने सब चीजों
को थिर कर
दिया था, ताकि
लहरों के कंपन
के कारण
दृष्टि में
बाधा न पडे।
सब चीजें साफ
हो जाएं।
साक्षी सूत्र
है, महासूत्र
है। छोड़ दो
वेद, छोड़
दो उपनिषद, भूल जाओ
गीता, अगर
यह एक दो
अक्षरों का
छोटा—सा शब्द,
साक्षी, याद
रह जाए तो तुम
सारे
शास्त्रों को
अपने भीतर
जन्म दे सकते
हो। क्योंकि
सभी
शास्त्रों की
बस इतनी सी ही
शिक्षा है, कि तुम
कर्ता न रहो, द्रष्टा हो
जाओ।
इसे
थोड़ा शुरू करो।
मेरे समझाने
से यह समझ में
न आएगा। यह
बात ही समझने—समझाने
की नहीं है।
लिखा—लिखी की
है नहीं, देखा—देखी
बात।
आज
इतना ही।
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