अध्याय—18
सूत्र—204
ज्ञानं
ज्ञेयं
पीरज्ञाता
त्रिविधा
कर्मचोदना।
करणं
कर्म कर्तेति
त्रिविध:
कर्मसंग ।। 18।।
ज्ञानं
कर्म च कर्ता
च त्रिधैव
गुणभेदत:।
प्रोच्यते
गुणसंख्याने यथावच्छृणु
तान्ययि।। 19।।
सर्वभूतेषु
येनैकं
भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं
विभक्तेषु
तज्जानं
विद्धि सात्विकम्।।
20।।
पृथक्त्वेन
तु यज्ज्ञानं
नानाभावान्पृश्रश्विधान्।
वेत्ति
सर्वेषु
भूतेषु
तज्ज्ञानं विद्धि
राजसम् ।। 21।।
यत्तु
कृत्स्नवक्केस्मिन्क्रायें
स्थ्यमहैक्कुम्।
अतल्छार्श्रवदल्पं
च
तत्तामसमुदहतम्।।
22।।
तथा है
भारत, ज्ञाता, ज्ञान और
ज्ञेय, ये
तीनों तो कर्म
के प्रेरक हैं
अर्थात इन
तीनों के
संयोग मे तो
कर्म में
प्रवृत्त
होने की इच्छा
उत्पन्न होती
है। और कर्ता?
करण और
क्रिया, ये
तीनों कर्म के
अंग हैं
अर्थात इन
तीनों के
संयोग से कर्म
बनता है।
उन सब में
ज्ञान और कर्म
तथा कर्ता भी
गुणों के भेद
से सांख्य ने
तीन प्रकार के
कहे है,
उनको भी तू
मेरे से भली
प्रकार सुन।
हे अर्जुन,
जिस ज्ञान से
मनुष्य पृथक—पृथक
सब भूतों में एक
अविनाशी
परमात्मा को
विभागरहित, समभाव से
स्थित देखता
ह्रै उस ज्ञान
की तू सात्विक
जान।
और जो
ज्ञान अर्थात
जिस ज्ञान के
द्वारा मनुष्य
संपूर्ण
भूतों में
अनेक भावों को
न्यारा— न्यारा
करके जानता है,
उस ज्ञान को
तू राजस जान।
और जो
ज्ञान एक
कार्यरूप शरीर
में ही
संपूर्णता के
सदृश आसक्त है
तथा जो बिना
युक्ति वाला, तत्वअर्थ
से रहित और तुच्छ
है, वह
ज्ञान तामस
कहा गया है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आपकी
ओर देखने से
निष्काम कर्म का
चमत्कार नजर
आता है, लेकिन
अपनी ओर देखने
से वह एक
असंभावना
जैसा दिखता है,
ऐसा क्यों?
जिस
प्रेम से मेरी
तरफ देखते हो, उसी
प्रेम से अपनी
तरफ देखो। जिस
श्रद्धा से
मेरी तरफ
देखते हो, उसी
श्रद्धा से
अपनी तरफ
देखो। फिर जरा
भी फासला न रह
जाएगा। फिर
तुम्हें अपने
भीतर भी वही
दिखाई पड़ेगा,
जो मेरे
भीतर दिखाई
पड़ता है।
प्रेम
की आंख चाहिए।
असली बात
श्रद्धापूर्ण
हृदय, प्रेम
से भरी आंख
है। लेकिन इस
संसार में
सबसे कठिन बात
यही है, अपने
को ही प्रेम
से देखना।
दूसरे के
प्रति प्रेम
रखना कठिन है,
इतना कठिन
नहीं। दूसरे
के प्रति
श्रद्धा रखना
बहुत कठिन है,
पर फिर भी
असंभव नहीं
है। सध जाता
है, सधते—सधते
सध जाता है।
लेकिन अपनी
तरफ श्रद्धा
के भाव से
देखना बड़ी
असंभव—सी बात
लगती है। लेकिन
जिस दिन वह
असंभव घटता है,
उसी दिन
जीवन में कुछ
घटा, ऐसा
जानना।
आंखें
दूसरे को तो
देख पाती हैं, क्योंकि
दूसरा बाहर है;
स्वयं को
नहीं देख पाती,
क्योंकि
स्वयं तो
आंखों के भीतर
छिपा है। वहां
जाने के लिए
तो आंख बंद
करनी होगी।
दूसरे की तरफ
जाने के लिए
तो यात्रा
करनी पड़ती है
जीवन—ऊर्जा
को। अपने तक
आने के लिए सब
यात्रा छोड़नी
पड़ेगी, शांत
और थिर होकर
बैठ जाना
पड़ेगा। उस
थिरता के क्षण
में ही स्वयं
से मिलन होगा।
बहुत
कठिन है, लेकिन
असंभव नहीं; घटता है। और
यह मैं तुमसे
कहूंगा, जब
तक वह
तुम्हारे
भीतर न घट जाए
तब तक तुम कितनी
ही श्रद्धा
करो किसी पर, उससे सहारा
भला मिले, उससे
मंजिल पूरी न
होगी। अपने पर
श्रद्धा लानी
होगी।
कठिनाई
और भी बढ़ गई है, क्योंकि
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मगुरुओं
ने, तुम्हारे
महात्माओं ने,
तुम्हें
स्वयं की
निंदा सिखाई
है; तुम्हें
स्वयं का
अपमान सिखाया
है, तुम्हें
स्वयं को ही
तिरस्कृत
करने की भावना
सिखाई है।
उन्होंने
तुमसे यही कहा
है कि तुम महापापी
हो, चोर हो,
बेईमान हो,
झूठे हो, अंधेरे में
हो, हिंसक
हो। तुम्हारे
भीतर
उन्होंने नरक
को चित्रित
किया है।
अग्नि की
लपटें ही
लपटें बताई हैं।
तुम्हारे
भीतर स्वर्ग
के राज्य की
तरफ तो
उन्होंने
इशारा नहीं
किया। कभी कोई
जीसस, कभी
कोई बुद्ध, महावीर
इशारा करता है,
लेकिन वह
आवाज खो जाती है
लाखों
महात्माओं के
शोरगुल में।
महात्मा
का सारा धंधा
इस बात पर
निर्भर है कि तुम्हें
निंदित करे।
तुम जितने
निंदित हो जाते
हो,
जितने
भयभीत हो जाते
हो, जितने
घबड़ा जाते हो,
उतने ही तुम
महात्मा की
शरण में चले
जाते हो। तुम
जितने अपराध—
भाव से भर
जाते हो, उतना
ही तुम्हारा
शोषण किया जा
सकता है।
मंदिर—मस्जिदों
में,
गुरुद्वारों
में झुके हुए
लोग बड़ी गहन
अपराध की
भावना से झुके
हैं।
प्रार्थनाएं
कर रहे हैं कि
हम पतित हैं, तुम
पतितपावन हो!
ध्यान
रखना, अगर तुम
पतित हो, तो
पतितपावन से
कभी तुम्हारा
मिलन न होगा।
क्योंकि समान
से ही समान
मिलता है। तुम
अगर पतित ही
हो, तो
मिलन संभव
नहीं है।
तुम्हें भी
पतितपावन
होना पड़ेगा।
परमात्मा से
मिलना हो, तो
परमात्मा की
उदभावना
तुम्हें अपने
भीतर भी करनी
होगी। वही
तुम्हारी
पात्रता
बनेगी। जिस
दिन तुम भी इस
उदघोष से
भरोगे कि मैं
भी परमात्मा
हूं......।
यह
कोई अहंकार
नहीं है। यह
सीधा सत्य है।
तुम भी
परमात्मा हो, उसी
के अंश हो।
छोड़ो निंदा, छोड़ो अपने
प्रति दूषित—कलुषित
भाव। भूलो नरक
को।
जैसे—जैसे
तुम अपने
प्रति सदभाव
से भरोगे, अपने
को स्वीकार
करोगे, वैसे—वैसे
तुम पाओगे कि
स्वर्ग के
राज्य के
द्वार खुलने
लगे। और बड़ा
चमत्कार तो यह
है कि जितना
तुम अपने को पतित
समझोगे, उतने
पतित होते
जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारे
विचार ही तो
तुम्हारे जीवन
को निर्मित
करते हैं। तुम
जितना अपने को
बुरा समझोगे,
उतना अपने
आचरण में अपने
को बुरा
तुम्हें सिद्ध
करना भी पड़ेगा,
नहीं तो खुद
की ही समझ गलत
होने लगेगी।
तुम
अपने को
बेईमान समझते
हो,
इससे और
बेईमानी पैदा
होती है। और
बेईमानी पैदा
होती है, तुम
अपने को और
बेईमान समझते
हो। उससे और
बेईमानी पैदा
होती है।
मनसविद
कहते हैं कि
अगर पापी
व्यक्ति को भी, बुरे
व्यक्ति को भी
सारे लोग यही
याद दिलाएं कि
तू पापी नहीं है;
उसके चारों
तरफ की हवा
उससे एक ही
बात कहे कि तू
परमात्मा है,
पुण्यात्मा
है। अगर पाप
हो भी गया है, तो वह कृत्य
है एक, वह
तेरा स्वभाव
नहीं है। वह
भूल है, वह
तेरा कोई
स्वरूप नहीं
है।
हजार
काम आदमी कर
रहा है, एक भूल
हो जाती है, इससे कोई
पापी नहीं हो
जाता! कभी कोई
आदमी बीमार हो
जाता है, इसलिए
बीमारी
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
हो जाती, कि
कभी बुखार आ
गया था, तो
तुम्हारा
बुखार स्वभाव
हो गया! कि अब
तुम जब भी
मंदिर में जाओ
तब भगवान को
कहो कि मैं
बुखार हूं और
तुम महा
चिकित्सक हो!
यह
बकवास बंद करो।
कभी आदमी
बुखार से भर
जाता है, कभी
क्रोध से भी
भर जाता है, पर ये
दुर्घटनाएं
हैं, ये
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
हैं। ये !भूल—चूक
हैं ज्यादा से
ज्यादा, अपराध
इसमें कुछ भी
नहीं है।
कमजोरियां
होंगी, पाप
कुछ भी नहीं
है। इन्हें
गौण करो, इन
पर ज्यादा
ध्यान मत दो।
अगर तुमने
इन्हीं पर
ध्यान दिया, तो इन्हीं
को पोषण
मिलेगा।
तुम
ध्यान तो अपने
स्वभाव पर दो, अपने
निर्विकार पर
दो, अपने
निर्दोष पर दो।
धीरे— धीरे
तुम पाओगे, अपने ही
प्रेम में
गिरने लगे।
अपने ही प्रेम
में गिरने लगे,
अपने में ही
रस आने लगा, अपने ही
जीवन का
अंतर्गीत
उठने लगा, अपने
भीतर ही सुवास
अनुभव होने
लगी। और जैसे
ही भीतर सुवास
अनुभव होगी, फिर बढ़ती
चली जाती है।
फिर तुम्हारे
जीवन—चेतना की
धारा बदल जाती
है।
ज्ञानी
तो एक ही बात
दोहराते हैं, तत्वमसि
श्वेतकेतु! तू
भी वही है
श्वेतकेतु।
जो वहां आकाश
में है, वही
तेरे अंतर—आकाश
में है। उसको
हीन मत कर, उसको
छोटा मत मान, उसकी निंदा
मत कर। क्या
फर्क पड़ता है
कि तुम्हारे
भीतर के परमात्मा
ने एक दिन पान
खा लिया, कोई
पाप नहीं हो
गया। कि एक
सुंदर स्त्री
को राह से
निकलते देखकर
तुम्हारे
भीतर के
परमात्मा पर
थोड़ी—सी बदली
छा गई; कुछ
पाप नहीं हो
गया। सूरज पर
इतनी बदलिया
छाती रही हैं,
इससे कोई
सूरज का
प्रकाश नष्ट
नहीं हो जाता
है। इससे सूरज
कोई चिल्ला—चिल्लाकर
रो—रोकर छाती
नहीं पीटता है
कि मेरे चारों
तरफ बदलिया छा
गईं, मैं
महापापी हो
गया। सूरज के
सूरजपन में
कोई फर्क नहीं
आता। बदलिया
आती हैं, चली
जाती हैं, सूरज
का सूरजपन
शाश्वत है।
तुम्हारा
परमात्म— भाव
शाश्वत है।
जिस प्रेम से
तुमने मेरी
तरफ देखा है, उसी
प्रेम से तुम
अपनी तरफ देखो।
मेरे पास तुम
अगर प्रेम
करना ही सीख
लो, बस
काफी है—अपने
को प्रेम करना।
यह बात उलटी
लगेगी, क्योंकि
तुम्हें तो
महात्मा
समझाते हैं, दूसरों को
प्रेम करो।
मैं तुम्हें
समझाता हूं
अपने को प्रेम
करो। क्योंकि
जिसने अपने को
नहीं किया, वह दूसरे को
करेगा कैसे!
उस करने में
कहीं न कहीं
धोखा होगा। जब
घर में ही
रोशनी नहीं है,
तो तुम उसे
दूसरे पर कैसे
डालोगे? भीतर
का दीया जलता
हो, तो
किसी दूसरे की
आंख में भी उस
ज्योति की झलक
आ सकती है।
भीतर का दीया
ही न जलता हो, तो तुम
दूसरों पर
कैसे रोशनी
डालोगे?
मैं
तुमसे नहीं
कहता, दूसरों
को प्रेम करो।
उससे ही तुम
भटके हो। मैं
तुमसे कहता
हूं तुम अपने
को प्रेम करो।
तुम जिस दिन अपने
को प्रेम
करोगे, तुम
पाओगे, दूसरे
को प्रेम करने
के अतिरिक्त
अब कोई उपाय न
बचा।
तुम्हारे
भीतर प्रेम की
लहरें उसके
अतिरिक्त
तुम्हारे पास
कुछ बचा नहीं
जो तुम दूसरे मैं
तुमसे कहता
हूं स्वार्थी
बनो। तुम्हें
परार्थी बनाने
वालों ने
तुम्हें
बिलकुल बिगाड़
दिया है। मैं
तुमसे कहता
हूं स्वार्थी
बनो। क्योंकि
स्व का अर्थ
जान लेना ही
धर्म है, और
कुछ भी नहीं।
स्वार्थ धर्म
है।
लेकिन
तुम घबड़ाते हो
स्वार्थ शब्द
सुनकर ही। यह
तो बात ही पाप
की हो गई।
परार्थ! और
जिसने जीवन
में स्वार्थ न
साधा, उसके
जीवन में
परार्थ कैसे
आएगा? जो
अपना ही न हो
पाया, वह
किसका हो
पाएगा! जो
अपने को भी
गरिमा और गौरव
से न भर पाया, वह किसके
गौरव के गीत
गा सकेगा!
उसके तो जीवन
में बीज ही
नहीं है, वृक्ष
की तो बात ही
छोड़ दो। भूमि
पर आधार ही न
रख रहे हो, भवन
कहां खड़ा होगा!
गुरु
के पास अगर
कोई एक घटना
घटनी चाहिए, तो
वह यह है कि
तुम गुरु के
प्रेम से धीरे—
धीरे समझो, अपना प्रेम।
गुरु को बाहर
देखो, और
गुरु वही है, जो तुम्हें
धीरे— धीरे
तुम्हारे
प्रेम में डाल
दे। और एक दिन
तुम्हारे
पैरों में वह
गति आ जाए और तुम्हारी
आंखों में वह
रोशनी आ जाए
और तुम्हारा
हृदय एक नए
अहोभाव से
धड़कने लगे।
तब
तुम पाओगे कि
जीवन की पूरी
प्रक्रिया और
हो गई। कल तक
तुम भूलों पर
ध्यान देते थे, अब
तुम स्वभाव पर
ध्यान देते हो।
जिसको तुम
ध्यान देते हो,
वह
परिपुष्ट
होता है। जहां
ध्यान जाता है,
वहीं
तुम्हारी जीवन—
धारा पोषण
करती है। भूल
पर ध्यान दोगे,
भूलें बढ़ती
जाएंगी; भूल
परिपुष्ट
होंगी। ध्यान
भोजन है। भूल
को गौण करो।
ध्यान स्वयं
पर दो, अस्तित्व
पर दो। कृत्य
पर नहीं, स्वभाव
पर। कृत्य में
भूल हो सकती
है, तुम्हारे
स्वभाव में तो
अहर्निश
परमात्मा वास
कर रहा है।
वहा कभी कोई
भूल नहीं हुई।
तुम्हारे
होने में तो
कोई भी भूल
नहीं है, तुम्हारे
करने में भूल
हो सकती है।
करने
की भूल सपने
से ज्यादा
नहीं है। जैसे
रात तुमने
सपना देखा कि
किसी की हत्या
कर दी। अब
सुबह तुम छाती
पीटकर रोते
नहीं। न ही
तुम चिल्लाते
फिरते हो कि
मैं महापापी
हूं। सपना
सपना था।
कृत्य सपने से
ज्यादा नहीं
है,
यही माया का
सिद्धांत है।
कि जो तुम
करते हो, वह
सपने से
ज्यादा नहीं
है; जो तुम
हो, वह
सत्य है। जो
तुम करते हो, वह तो सपना
है, वह तो
विचार की
तरंगें हैं।
आएंगी, चली
जाएंगी। तुम
उनके पार
अछूते रह
जाओगे।
यह
ठीक ही लगता
है। मेरी ओर
देखने से
तुम्हें अगर
निष्काम कर्म
का चमत्कार
नजर आता है और
अपनी तरफ
देखने पर
असंभावना
दिखाई पड़ती है, तो
उसका कुल कारण
सीधा—साफ है।
तुम जिस भाव
और प्रेम से
मेरी तरफ
देखते हो, उसी
भाव और प्रेम
से तुमने अपनी
तरफ नहीं देखा।
जिस भाव से तुमने
मेरे चरण छुए
हैं, उसी
भाव से तुमने
अपने चरण नहीं
छुए।
जिस
भाव से तुम
मेरे सामने
झुके हो, उसी
भाव से अपने
सामने भी झुक
जाओ। क्योंकि
मैं जो
तुम्हारे
बाहर हूं वही
तुम्हारे
भीतर भी है।
कभी
तुम खयाल करो, अगर
तुम अपने ही
चरण छूने को
झुक जाओ, तो
तुम्हारे जीवन
में कैसी क्रांति
न घट जाएगी! तब
तुम अपने भीतर
परमात्मा को
सम्हालकर
चलोगे, जैसे
गर्भवती
स्त्री चलती
है। एक नए
जीवन का भीतर
आविर्भाव हुआ
है, एक—एक
कदम सम्हालकर
रखती है, होश
से रखती है।
उसकी सारी
जीवन— धारा नए
आने वाले शिशु
के आस—पास
घूमने लगती है,
परिक्रमा
करने लगती है।
वह नया आने
वाला जन्म
मंदिर जैसा हो
जाता है, उसके
चारों तरफ
परिक्रमा
चलने लगती है।
तुम
अपने ही पैर
छूकर किसी दिन
देखो; कभी
अपने ही सामने
सिर झुकाओ। और
तुम बडे हैरान
होओगे कि भीतर
विराजमान है सम्राटों
का सम्राट।
तुम व्यर्थ ही
भिखारी बने थे।
लेकिन
तुम्हें
भिखारी बनाया
भी गया है।
क्योंकि जब तक
तुम भिखारी न
बन जाओ, तब तक
पुरोहित का
व्यवसाय नहीं
चल सकता। तुम
भिखारी बनो, तो ही मंदिर
में जाओगे।
अगर तुम
सम्राट हुए, तो तुम
स्वयं मंदिर
हो गए। अगर
तुम भिखारी
बनो, तो ही
तुम गुरुओं को
खोजोगे। अगर
तुम स्वयं
सम्राट हो गए,
तो गुरु को
खोजने की क्या
जरूरत रह
जाएगी!
यह
धर्म है, इतना
विराट जाल
चलता है धर्म
का, वह
तुम्हारे
भिखमंगेपन से
चलता है।
इसलिए धर्म
तुम्हें
समझाए जाता है—तथाकथित
धम— कि तुम
पापी हो, महापापी
हो, तुम
जमीन पर बोझ
हो। तुमने
उसको स्वीकार
कर लिया है।
बचपन से यही
बात तुम्हें
समझाई गई है।
बच्चा
पैदा होता है।
और दुनिया में
एक बड़ी से बड़ी
दुर्घटना
घटनी शुरू हो
जाती है। जैसे
ही बच्चा पैदा
होता है, मां—बाप
उसके होने पर
जोर नहीं देते,
उसके कृत्य
पर जोर देते
हैं। जैसे
बच्चा अगर कुछ
करता है, तो
वे कहते हैं, गलत किया।
कुछ और करता
है, तो
कहते हैं, ठीक
किया। जब
बच्चा ठीक
करता है, तो
वे उसे
प्रशंसा देते
हैं, मिठाई
देते हैं, खिलौने
देते हैं। जब
बच्चा गलत
करता
है,
तो पीटते
हैं, मारते
हैं।
बच्चे
को पहले तो
समझ में नहीं
आता,
क्योंकि
बच्चे की भाषा
अस्तित्व की
होती है, करने
की नहीं होती।
वह समझ ही
नहीं पाता कि
मामला क्या
है! कभी पीटते
हैं, कभी
मिठाइयां
देते हैं। मैं
तो वही हूं।
लेकिन कभी
पीटने लगते
हैं, कभी
चिल्लाने
लगते हैं, कभी
बड़े प्रसन्न
होकर गले लगा
लेते हैं!
बच्चा बड़ी
विडंबना में
पड़ जाता है।
उसका मन समझ
ही नहीं पाता
कि यह राज
क्या है! कौन
सी तरकीब है, जिससे ये
सदा प्रसन्न
रहें! क्योंकि
इनके ऊपर वह
निर्भर है।
तो
वह धीरे— धीरे
वही काम करने
शुरू कर देता
है,
जिनमें
प्रशंसा पाता
है; और वे
काम बंद करने
लगता है, जिनमें
अप्रशसा
मिलती है। न
केवल बंद करने
लगता है, बल्कि
दबाने लगता है,
क्योंकि
उनको भी करने
की भावना मन
में उठती है।
उनका भी कोई
नैसर्गिक
अर्थ है। करना
चाहता है, लेकिन
करता नहीं।
फिर स्वात में,
अकेले में
करने लगता है
उन्हीं
कर्मों को, उन्हीं
कृत्यों को।
तब ग्लानि
पैदा होती है
कि मैं अपराध
कर रहा हूं
मैं बहुत बड़ा
पाप कर रहा
हूं।
फिर
एक बात सूत्र
की तरह साफ हो
जाती है हर
बच्चे को। और
जिस दिन यह
बात साफ हो
जाती है, समझो
उसी दिन बच्चा
मर जाता है; उसी दिन से
बचपन की सरलता,
निर्दोषता
मर गई; उसी
दिन से बच्चे
में विकार
पैदा हो गया।
वह क्या है
धारणा?
वह
धारणा यह है
कि मैं जैसा
हूं वह
स्वीकृत नहीं।
स्वीकार होने
के लिए मुझे
कुछ करना
पड़ेगा, तब
मैं स्वीकार
हो सकता हूं।
मैं जैसा हूं
वैसा प्रेम के
योग्य नहीं
हूं। प्रेम के
योग्य होने के
लिए कुछ
शर्तें मुझे पूरी
करनी पड़ेगी, अन्यथा मैं
घृणा के योग्य
हो जाऊंगा।
बस, यहीं
भूल शुरू हो
गई। फिर वह
भूल तुम्हारा
पीछा करती है।
पहले मां—बाप
उसे पैदा करते
हैं, फिर
पंडित—पुरोहित
उसे बढ़ाते हैं,
फिर स्कूल
के शिक्षक हैं,
राजनीतिज्ञ
हैं, महात्मा
हैं। फिर पूरा
तुम्हारा
जीवन का जाल
एक ही बात के इर्द
—गिर्द घूमता
रहता है कि
तुम जैसे हो, वैसे
स्वीकृत नहीं
हो, तुम्हें
कुछ करना होगा।
होना काफी
नहीं है, कृत्य
का मूल्य है।
और कृत्यों
में भी भेद
हैं। कुछ
कृत्य पाप हैं
और कुछ कृत्य
पुण्य हैं। और
कभी—कभी तो
बिलकुल
साधारण से
कृत्य भी......।
कल
एक युवक मुझे
पूछ रहा था।
वापस लौटता है
डेनमार्क। वह
मुझसे पूछने
लगा कि यहां
भारत में तो
मैं अंगुलियां
चटकाना सीख
गया हूं। और मुझे
अच्छा भी लगता
है चटकाने से।
और
भारत
में इसका कोई
विरोध भी नहीं
करता, लेकिन
पश्चिम में अंगुलियां
चटकाना बहुत
बुरा समझा
जाता है। तो
जब मैं वापस जाऊंगा,
मैं झंझट
में पड़ने वाला
हूं। अगर
मैंने
अंगुलियां
चटकाईं, तो
लोग इसको बुरा
समझते हैं। यह
अपशगुन है।
पूरब
में तो इसका
कोई विरोध
नहीं है, बल्कि
उपयोग है इसका।
जब भी तुम थके
होते हो, अंगुलियां
चटका लेते हो,
हाथ फिर से
ऊर्जा से भर
जाते हैं, हाथ
फिर ताजे हो
जाते हैं।
लेकिन पश्चिम
में इसका
विरोध है। वह
विरोध भी इसी
कारण है। कारण
वही है कि तुम
जब किसी के
सामने हाथ
चटकाते हो, तो इसका
मतलब यह है कि
वह तुम्हें
थका रहा है।
तुम ऊब जाहिर
कर रहे हो।
कोई तुमसे बात
कर रहा है और
तुम
अंगुलियां चटका
रहे हो, इसका
मतलब यह है कि
तुम जम्हाई ले
रहे हो उसके
मुंह के सामने,
जो कि
अपशगुन है, सुसंस्कार
नहीं है।
दोनों
के पीछे कारण
तो वही है, लेकिन
एक तरफ उसको
स्वीकार कर
लिया गया है, एक तरफ
अस्वीकार कर
दिया गया है।
तो पश्चिम में
अगर अंगुली
चटकानी है, तो वह युवक
मुझसे बोला, तो फिर मुझे एकांत
में ही चटकानी
पड़ेगी। वह मैं
सीधे सबके
सामने नहीं
चटका सकता।
साधारण—सा
कृत्य, निर्विकार,
जिसका कोई न
किसी को
नुकसान पहुंच
रहा है, न
किसी को हानि
हो रही है, वह
भी स्वीकार—अस्वीकार
की दुनिया में
तुलता है। तुम
ऐसी—ऐसी बातों
को स्वीकार—अस्वीकार
करते हो, जिनका
कोई भी निहित
मूल्य नहीं है।
पर
इसका परिणाम
यह होता है कि
बच्चे के भीतर
एक दरार पड़ गई।
वह आधा
अस्वीकृत हो
गया,
आधा
स्वीकृत हो
गया। फिर वह
यह जानकर भी
हैरान होता है
कि कभी—कभी
वही कृत्य
दूसरों के
सामने
अस्वीकार किए जाते
हैं, घर के
ही लोगों के
सामने
अस्वीकार
नहीं किए जाते।
एक
बच्चा खेल रहा
है,
दौड़ रहा है,
ऊधम कर रहा
है। परिवार के
लोग कोई फिक्र
नहीं करते, लेकिन घर
में मेहमान आ
रहे हैं कि
उसे डांट—डपट
शुरू हुई।
उसकी समझ के
बाहर होता है
कि जो अभी
क्षणभर पहले
बिलकुल ठीक था,
वह क्षणभर
बाद अचानक
गड़बड़ क्यों हो
गया! मेहमान
के आने से क्या
फर्क पड़ रहा
है! इसका मतलब
यह हुआ कि तुम
एक और धारणा
उसके भीतर
पैदा कर रहे
हो, कि तुम एकांत
में एक तरह से
हो सकते हो, दूसरों के
सामने दूसरी
तरह से होना
है। तुम एक
झूठा आदमी
पैदा कर रहे
हो, जिसमें
एक झूठा चेहरा
लगाकर जाना पड़ेगा।
संसार में
जाना है, बाजार
में जाना है, समाज में
जाना है, तो
तुम्हें बहुत—से
मुखौटे उपयोग
करने पड़ेंगे।
इन्हीं
मुखौटों में
तुम्हारी
आत्मा खो गई
है। और एक
बहुत
बहुमूल्य बात
तुम्हें
विस्मृत हो गई
है कि तुम
जैसे हो, परमात्मा
को वैसे ही
स्वीकृत हो।
अन्यथा तुम
होते ही नहीं।
उपनिषदों का
यह वचन, तत्वमसि
श्वेतकेतु!
इसी बात की
उदघोषणा है।
इस वचन पर
पूरा का पूरा
शिक्षाशास्त्र
रूपांतरित हो
सकता है। इस
एक वचन पर
पूरी दूसरी
तरह की
संस्कृति निर्मित
हो सकती है।
इस
वचन का मतलब
यह है कि हे
श्वेतकेतु, तू
जैसा है, वैसा
ही परमात्मा
है। तुझे
परमात्मा
होने के लिए
कुछ करना नहीं
है। और तू जो
करता है, उसकी
तेरे
परमात्मा
होने से कोई
संगति—असंगति
नहीं है।
इससे
क्या मैं यह
कह रहा हूं कि
बच्चों को हम
कहें कि
तुम्हें जो
करना है तुम
करो?
नहीं, वह
तो संभव न
होगा, व्यावहारिक
भी न होगा। बच्चे
को हमें यह
धारणा देनी
चाहिए कि तुम
तो स्वीकृत हो,
तुम्हारे
प्रति हमारा
प्रेम तो
बेशर्त है।
तुम्हारे
करने, न
करने से तो
हमारे प्रेम
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन हम तो
तुम्हें
प्रेम करते
हैं, यह
सारी दुनिया
तुम्हें
प्रेम नहीं
करती। इस
दुनिया से अगर
तुम्हें
प्रेम पाना हो,
तो तुम्हें
कृत्य और
अकृत्य का
खयाल रखना होगा।
लेकिन
हमारी तरफ से
तुम पूरे
स्वीकृत हो।
तुम अगर पाप
भी करोगे, महापाप
भी करोगे, तो
भी हमारे
प्रेम की धारा
में क्षणभर भी
बूंदभर की भी
कमी न होगी।
हम तुम्हें
वैसे ही प्रेम
किए चले
जाएंगे। तुम चाहे
मंदिर में
विराजमान हो
जाओ सिंहासन
पर और चाहे
कारागृह में
बंद रहो, हमारा
प्रेम
तुम्हारे
प्रति एक—सा
रहेगा। प्रेम
से तुम्हारे
कृत्यों का
कुछ लेना—देना
नहीं है।
लेकिन
दुनिया को
तुमसे कोई
प्रेम नहीं है।
दुनिया को
तुम्हारे
कृत्यों से
मतलब है। सारी
दुनिया तुम्हारे
माता—पिता
नहीं हैं, न
तुम्हारे
मित्र हैं, न तुम्हारे
प्रेमी हैं।
वहां तो तुम
जाओ, तो
उनसे
तुम्हारा
संबंध कृत्य
का है। हमसे
तुम्हारा
संबंध होने का
है।
एक
बार बच्चे को
यह पता चल जाए
कि उसका होना
पूरा का पूरा
स्वीकार करने
वाला भी कोई
है,
तुमने उसके
जीवन से निंदा
हटा दी। तब
उसके जीवन में
कभी भी
आत्मनिदा न
होगी।
मैं
सदगुरु उसी को
कहता हूं कि
जो मां—बाप से
नहीं हो पाया, वह
कर दे। तुम
उसके पास आओ, और वह
तुम्हारी
निंदा न करे।
रोज घटना घटती
है। परसों एक
युवक ने आकर
कहा कि मुझे शराब
पीने की आदत
पड़ी है। वह बहुत
घबड़ाया हुआ था।
शराब छूटती
नहीं है।
तो
मैंने उसको
कहा,
तू फिक्र मत
कर, ऐसी
छोटी—सी आदत
के लिए इतनी
क्या फिक्र!
इतनी क्या चिंता
लेनी! शराब ही
पीता है न, कोई
किसी का खून
तो नहीं पी
रहा!
उसका
सिर जो नीचे
झुका था, ऊपर
उठ गया। उसने
कहा कि नहीं, इसमें किसी
की हानि नहीं
कर रहा हूं; अपनी ही
हानि कर रहा
हूं। लेकिन
छूटती नहीं।
मैंने
कहा,
तू उस पर
ध्यान ही मत
दे। तू ध्यान
पर ताकत लगा।
यह शराब को
छोड़ने का खयाल
ही गलत है।
दुनिया में
छोड़ने की बात
ही गलत है।
दुनिया में
पाने की बात
करनी चाहिए।
और जब भी तुम
विराट को पा लोगे,
क्षुद्र
छूट जाएगा।
श्रेष्ठ को पा
लोगे, निकृष्ट
छूट जाएगा। तू
शराब इसीलिए
पी रहा है कि
तेरे भीतर कोई
समाधि की गहरी
आकांक्षा है।
तू जानता नहीं
कैसे समाधि
लगे, इसलिए
गलत ढंग से
उसको लगाने की
कोशिश कर रहा है।
शराब
का मतलब ही
केवल इतना है
कि आदमी डूबना
चाहता है।
इसलिए तो
फकीरों ने, संतों
ने परमात्मा
तक को शराब
कहा है। कबीर
ने कहा है, सकल
कलारी भई
मतवारी, मधुवा
पी गई बिन
तौले।
मधुशाला पूरी
की पूरी पागल
हो उठी कि
बिना तौले लोग
शराब पी गए।
अब
परमात्मा की
शराब भी कोई
तौल—तौलकर
पीनी पड़ती है!
वह भी कोई
तौलने की बात
है! वह तो जब पी
गए,
तो पी गए; पूरी पी गए।
संतों
ने परमात्मा
को शराब कहा
है,
समाधि को
शराब कहा है।
कारण है। शराब
में कुछ बात
है।
मेरे
देखने में यही
आया है कि जो
लोग भी शराब की
तरफ उत्सुक
होते हैं, वे
जरा—सी चूक कर
रहे हैं; बड़ी
जरा—सी चूक।
उन्हें ध्यान
की तरफ उत्सुक
होना था। उनकी
गहरी
आकांक्षा
ध्यान की है।
इसलिए
मेरे अनुभव
में ऐसा आया
है कि जिसने
कभी शराब नहीं
पी है, वह शायद
ध्यान कर भी न पाए।
उसके भीतर आकांक्षा
नहीं है। वह शराब
तक नहीं पीया है,
ध्यान क्या खाक
करेगा! उसे
बेहोश होने की,
मस्त होने
की धारणा ही
नहीं है। डूबने
का उसने मजा
ही नहीं जाना
है, उसको
रस ही नहीं
आया है, स्वाद
ही नहीं पकड़ा
है।
तो
मेरे पास उस तरह
के लोग भी आ जाते
हैं। वे कहते
हैं,
हम शराब भी
नहीं पीते, सिगरेट भी
नहीं पीते, पान भी नहीं
खाते, शाकाहारी
हैं, समय
पर सोते हैं, समय पर उठते
हैं, लेकिन
जीवन में कोई
आनंद नहीं है।
क्या
तुम सोचते हो, इन
सब बातों से
जीवन में आनंद
होने का कोई
भी संबंध है!
तुम सिगरेट न
पीयो, इससे
क्या आनंद
होने का कोई
संबंध है? सिगरेट
न पीने से
आनंद होने का
कौन—सा संबंध
है? किस
मूढ़ ने
तुम्हें
समझाया कि तुम
सुबह ठीक रोज
समय पर उठ आते
हो, इससे
तुम्हारे
जीवन में कोई
आनंद हो
जाएगा! नहीं, तुम्हें पता
ही नहीं है।
शराबी
मुझे स्वीकृत
है,
क्योंकि
मैं जानता हूं
कि उसके शराब
के कृत्य में
भूल हो सकती
है, लेकिन
शराब की आकांक्षा
में भूल नहीं
है। उसने गलत
शराब चुन ली
है, इतनी भर
भूल है। उसे
ठीक शराब
चुननी थी, वह
हम चुना देंगे,
वह हम उसे
पकड़ा देंगे।
वह ठीक
मधुशाला में आ
गया, अब
भाग न पाएगा।
वह
शराबी युवक
मुझसे कहने
लगा कि यही
मुसीबत है।
आपसे बचने का
उपाय नहीं है।
कई दफे सोचता
हूं?
छोड़ दूं
संन्यास, शराब
नहीं छूटती, संन्यास छोड़
दूं। लेकिन
कैसे छोडूं?
मैं
शराब छोड़ने को
कहता भी नहीं।
मैं कहता हूं
हम बड़ी शराब
बनाने की कला
सिखाते हैं, और
घर—घर भट्टी
खोलने की कला
सिखाते हैं।
अपनी ही बना
लो और पी लो, और बिना
तौले पी जाओ।
छूट जाएगी
शराब।
मेरे
देखे, गलत
कृत्य सिर्फ
इसीलिए जीवन
में हैं, क्योंकि
उनके द्वारा
तुम कुछ पाना
चाहते हो; तुम्हें
होश नहीं है, वह उनसे
मिलेगा नहीं।
शराब
से कहीं समाधि
मिली है? थोड़ी
देर के लिए
विस्मरण
मिलेगा और बड़ा
महंगा। शरीर
को नुकसान
होगा, मन
को नुकसान
होगा। और यह
भी संभावना है
कि अगर यह
बहुत ज्यादा
शराब चलती रही,
चलती रही, तो तुम्हारा
होश इतना खो
जाए कि
तुम्हें समाधि
की तरफ जाने
में पैर ही
डगमगाने लगें।
उस तरफ तुम
कभी जा ही न
सको।
कृत्य
का कोई बहुत
मूल्य नहीं है, तुम्हारे
होने का मूल्य
है। तुम्हारा
होना इतना
मूल्यवान है,
इतना परम
मूल्य है उसका
कि तुम क्या
करते हो, इसका
हम कहां हिसाब
रखें! उस पर
ध्यान देते
हैं भीतर, तो
परमात्मा खड़ा
दिखाई पड़ता है,
हाथ में भला
हो कि तुम
सिगरेट पी रहे
हो। अब सिगरेट
पर ध्यान दें
कि भीतर के
परमात्मा पर
ध्यान दें।
पंडित—पुरोहित
का जोर हाथ की
सिगरेट पर है।
ज्ञानियों का
जोर भीतर के
परमात्मा पर
है।
हम
तो भीतर के
परमात्मा को
पुकारेंगे।
अगर वह पुकार
सून ली गई, सिगरेट
हाथ से छूट
जाएगी। वह छूट
जानी चाहिए।
छोड़ने की
जरूरत नहीं
आनी चाहिए, छूट जानी
चाहिए।
हम
तो भीतर की
शराब पिलाके, बाहर
की छूट जाएगी।
छोड़ने के लिए
हमारी कोई
जल्दी भी नहीं
है, कोई
आग्रह भी नहीं
है। छूटनी
चाहिए। यह सहज
ही फलित होगा।
यह तुम्हारा
कृत्य नहीं
होगा।
जिस
आंख से तुमने
मेरी तरफ देखा
है,
उसी आंख से
अपनी तरफ देखो।
और जिन हाथों
से और जिस
श्रद्धा से
तुमने मेरे
पैर छुए हैं, उसी श्रद्धा
और उन्हीं
हाथों से अपने
पैर छुओ। मैं
तुम्हारे
भीतर भी हूं।
बस, उसी
दिन रूपांतरण
शुरू हो जाता
है।
दूसरा
प्रश्न :
जिसके जीवन
में सुबह घट जाए, क्या
उसके जीवन में
फिर सांझ नहीं
आती?
जिसके
जीवन में सुबह
घट जाए, उसके
जीवन में सांझ
तो आती है, लेकिन
साझ जैसी
मालूम नहीं
पड़ती। जिसके
जीवन में आनंद
घट जाए, उसके
जीवन में भी
दुख आता है, लेकिन दुख
जैसा मालूम
नहीं पड़ता।
बुद्ध
के पैर में भी
कांटा चुभे, तो
पीड़ा होगी।
शायद तुमसे
थोडी ज्यादा
ही हो, क्योंकि
तुम्हारी
संवेदना
बुद्ध जैसी
नहीं हो सकती।
बुद्ध की
संवेदनशीलता
तो बिलकुल
शुद्ध है, तुम्हारी
संवेदनशीलता
तो कठोर है।
बुद्ध के पैर
में कांटे का
चुभना तो कमल
की पखुडी में
काटे का चुभना
है। तुम्हारा
पैर तो जड़ है।
बुद्ध को पीड़ा
तो होगी, और
पीड़ा नहीं
होगी। इस
विरोधाभास को
ठीक समझ लेना
चाहिए।
बुद्ध
पीड़ा को तो
जानेंगे, लेकिन
बुद्ध को पीड़ा
नहीं होगी।
सांझ तो आएगी,
लेकिन सुबह
बनी रहेगी।
सांझ सुबह के
चारों तरफ आ
जाएगी, लेकिन
सुबह को
स्थानांतरित
न कर पाएगी।
सुबह की जगह न
आएगी सांझ।
सुबह तो जलती
ही रहेगी भीतर।
बुद्ध का आनंद
तो वैसा का
वैसा बना
रहेगा। इस
पीड़ा की बदली
से कोई भी
फर्क न पड़ेगा।
पीड़ा
आएगी, पीड़ा का
पता भी चलेगा।
काटा चुभ रहा
है, दर्द दे
रहा है, यह
सब होश होगा।
बुद्ध को न
होगा, तो
यह होश होगा!
थोड़ा ज्यादा
ही होगा, क्योंकि
होश पूरा है।
जैसे सन्नाटा
गहन हो, तो
सुई भी गिर
जाए तो आवाज
सुनाई पड़ती है।
ऐसा सन्नाटा
है बुद्ध का।
वहां सुई भी
गिरेगी, तो
सुनाई पड़ेगी।
तुम तो एक
बाजार हो।
वहां कोई बैड—बाजा
बजाए, तब
कहीं मुश्किल
से तुम्हें
सुनाई पड़ता है
कि अच्छा, कुछ
हो रहा है।
तुम तो एक भीड़
हो। तुम्हारे
भीतर छोटी—छोटी
घटनाओं का तो
पता ही नहीं
चल सकता। सुई
के गिरने का
क्या खाक पता
चलेगा! उसका
कोई तुम्हें
पता न चलेगा। लेकिन
बुद्ध को पता
चलेगा। पर पता
चलेगा। बुद्ध
उसके पार ही
रहेंगे।
सुबह
होने का अर्थ
है,
पार होने की
कला। सुबह
होने का अर्थ
है, अतिक्रमण,
ट्रांसेंडेंस।
घट रही है
पीड़ा, कांटा
चुभ रहा है।
लेकिन बुद्ध
को नहीं
चुभेगा; शरीर
को ही चुभेगा।
पीड़ा शरीर में
ही घटेगी। बुद्ध
दर्शक की तरह
ही होंगे।
बुद्ध
को ऐसी पीड़ा
होगी, जैसी
किसी और को
होती हो।
निश्चित ही, बुद्ध
उपेक्षा न
करेंगे, क्योंकि
बुद्धत्व का
अर्थ ही परम
करुणा है।
जिनकी करुणा
दूसरे की पीड़ा
पर होती है, क्या उनकी
अपने शरीर पर
करुणा न होगी?
तुम्हारे
पैर में कांटा
चुभे, तो
बुद्ध
निकालने दौड़
आते हैं, तो
अपने पैर में
चुभेगा तो न
दौडे जाएंगे?
बराबर
जाएंगे।
तुम
जैसे दूर हो, ऐसे
ही अपना शरीर
भी दूर है।
तुम जैसे पराए
हो, ऐसा
अपना शरीर भी
पराया है।
बुद्ध काटा भी
निकालेंगे, पीड़ा भी
होगी, और
बुद्ध बाहर भी
रहेंगे। यह
घटना बुद्ध को
डुबा न पाएगी।
इससे उनका होश
न खो जाएगा।
ऐसा न होगा कि
यह पीड़ा का
बादल उनके होश
को इस भांति
छा ले कि होश
का पता ही न
रहे, पीड़ा
ही रह जाए। यह
न होगा। ' जिसके
जीवन में सुबह
हो गई, सांझ
तो आती रहेगी,
लेकिन साँझ
सुबह को मिटा
न पाएगी।
और
यह बड़े मजे की
बात है, जब
भीतर सुबह
होती है और
बाहर सांझ
होती है, तब
भीतर की सुबह
इतनी प्रगाढ़
होकर प्रकट
होती है, जितनी
कभी नहीं।
क्योंकि
अंधेरा और
प्रकाश साथ—साथ
होते हैं, अंधेरा
पृष्ठभूमि बन
जाता है। भीतर
की ज्योति उस
पृष्ठभूमि
में बड़ी प्रखर
होकर जलती है।
दिन
में दीया जलाओ, कैसा
मंदा—मंदा
मालूम पड़ता है।
फिर आने दो
रात, घिरने
दो अंधेरा, छा जाने दो
सब तरफ गहन
अंधकार, और
दीए की रोशनी
प्रगाढ़ होने
लगती है। दीए
में एक रूप—रेखा
प्रकट होती है।
जितना गहन हो
जाता है
अंधेरा चारों
तरफ, दीए
की ज्योति में
उतना ही
स्वर्ण बरसने
लगता है।
पीड़ा
के क्षणों में
बुद्धत्व का
दीया भी
प्रगाढ़ होकर
जलता है। जब
आती है सांझ, तब
सुबह और भी
गहरी हो जाती
है।
सुबह
और सांझ तो
चलती ही
रहेंगी, जब तक
शरीर है।
क्योंकि सुबह
और सांझ का
संबंध शरीर से
है। शरीर इस
पृथ्वी का
हिस्सा है। इस
पृथ्वी पर
सुबह और सांझ
आती है, सुख—दुख
आते हैं। इस
पृथ्वी के
हिस्से जब तक
हम हैं, तब
तक सुख—दुख
आते रहेंगे।
जब शरीर छूट
जाता है किसी
बुद्ध पुरुष
का, तब फिर
जो होता है, उसे सुबह
कहना भी ठीक
नहीं।
क्योंकि जब
सांझ ही नहीं
आती, तो अब
इसको सुबह
क्या कहना!
फिर न तो सुबह
आती है, न
सांझ आती है।
इसलिए
बुद्ध ने
निर्वाण के दो
चरण कहे हैं।
एक,
जो उनको
चालीस वर्ष की
उम्र में हुआ,
तब वे
निर्वाण को
उपलब्ध हुई, समाधि को
उपलब्ध हुए, सबुद्ध हुए,
उन्होंने
जाना। फिर
चालीस वर्ष तक
शरीर की
यात्रा और भी
जारी रही। इसी
पृथ्वी पर रथ
चलता रहा। इस
पृथ्वी के ऊबड़—खाबड़
मार्ग पर रथ
को नीचा—ऊंचा
भी देखना पड़ा।
फिर
हुआ
महापरिनिर्वाण।
तब देह भी छूट
गई। देह के
छूटते ही सुबह—सांझ
दोनों चली
गयीं। फिर तो
एक ऐसे प्रकाश
का आविर्भाव
होता है, जिसको
प्रकाश भी
क्या कहें, क्योंकि
उसका अंधेरे
से कोई नाता
ही नहीं है।
फिर तो एक ऐसे
जीवन का
प्रादुर्भाव
होता है, उसको
जीवन भी कैसे
कहें, क्योंकि
उसका मृत्यु
से कोई भी
संबंध नहीं है।
इसलिए बुद्ध
उस संबंध में
बिलकुल चुप रह
जाते हैं, कुछ
भी नहीं कहते।
क्योंकि जो भी
कहेंगे, उसी
में भूल हो
जाएगी।
हमारे
सभी शब्द
विरोधियों से
बंधे हैं। कहो
प्रकाश, अंधेरा
याद आता है।
कहो प्रेम, घृणा याद
आती है। कहो
मित्र, शत्रु
की स्मृति बन
जाती है।
हमारे सब शब्द
विरोधी से
जुड़े हैं। कहो
जीवन, मृत्यु
खड़ी है। जो भी
कहोगे शब्द
में, उसका
विपरीत शब्द
ही उसकी सीमा
बनाता है, परिभाषा
बनाता है।
अगर
तुमसे कोई
पूछे, प्रकाश
क्या है? तो
तुम यही कहोगे
न कि जो
अंधेरा नहीं
है। तो अंधेरा
परिभाषा है, प्रकाश की!
बड़ी बेबूझ
दुनिया है!
कहो, जीवन
क्या है, तो
तुम यही कहोगे
न कि जो
मृत्यु नहीं
है। जीवन की
परिभाषा
मृत्यु से
करनी पड़ती है!
हमारे
सभी शब्द
विपरीत से
परिभाषा पाते
हैं। इसलिए तो
हम परमात्मा
की परिभाषा
नहीं कर सकते, क्योंकि
उससे विपरीत
कुछ भी नहीं
है। वह
अपरिभाष्य है।
उसे हम भाषा
में नहीं बांध
पाते। बांधते
ही भूल हो
जाती है।
इसलिए
ज्ञानी सतत
कहते हैं कि
जो कहा जा सके, वह
फिर सत्य न
रहा। जो नहीं
कहा जा सकता—नहीं
ही कहा जा
सकता, किसी
काल में नहीं
कहा जा सकता—वही
सत्य है। फिर
भी ज्ञानी
बोलते हैं।
उनका बोलना
तुम्हें
जगाने के लिए
है, सत्य
कहने के लिए
नहीं।
जैसे
तुम सोए हो, सुबह
हो गई, पक्षियों
ने गीत गाए, सूरज उगने
लगा, फूल
खिले, गंध
उठी, लोक
रूपांतरित
हुआ, रात
का अंधेरा, तमस गया।
तुम सोए पडे
हो।
इस
सोए हुए आदमी
को कोई भी
उपाय नहीं है
समझाने का कि
फूल गंध दे
रहे हैं, पक्षी
गीत गा रहे
हैं, सूरज
उगा है। इसकी आंखें
बंद हैं। इसका
होश खोया है।
इसको बताने का
कोई भी उपाय
नहीं है कि
सुबह हो गई है,
जागो और
देखो।
एक
ही उपाय है, इसे
हिलाओ, चौंकाओ,
इसकी नींद
तोड़ो। नींद
तोड़ी, यह
खुद ही देख
लेगा।
सत्य
कहा नहीं जा
सकता। और जो
भी कहा जाता
है,
वह सिर्फ
तुम्हारी
नींद को
तोड्ने का
उपाय है। खुल
जाने पर सत्य
तो तुम देखोगे,
वह कभी भी
किसी ने कहा
नहीं है। सदा
से सत्य अनकहा
है और सदा अनकहा
रहेगा। अच्छा
ही है, क्योंकि
शब्द तो बासे
हो जाते हैं।
कितने होंठों
पर से गुजरते
हैं, कितने
गंदे हो जाते
हैं! सत्य
कुंआरा है। वह
किसी होंठ से
कभी नहीं
गुजरा, कभी
बासा नहीं हुआ।
वह सिक्का हाथ—हाथ
में चलता नहीं,
और बासा
नहीं होता। वह
चला ही नहीं, वह ढला ही
नहीं। वह
शुद्ध सोना
अपनी खदान में
ही छिपा है और
उसे हम कभी
खोज नहीं पाते।
कोई उपाय नहीं
शब्दों से
खोजने का, जब
तक कि हम
उसमें छलाग ही
न ले लें।
सत्य
तुम हो सकते
हो,
सत्य को जान
नहीं सकते।
सत्य की तरफ
इशारे किए जा
सकते हैं, सत्य
कहा नहीं जा
सकता।
तीसरा
प्रश्न : आपने
कल कहा, एक
साधे सब सधै, कोई भी एक
साध लो, सब
सध जाता है।
क्या कुछ भी न
साधें, तब
भी सब सध जाता
है?
वह तो
बहुत बड़ी
साधना है, कुछ
भी न साधें।
अगर छ सध गया
तो टक ००।
लेकिन
तुम शब्दों की
भ्रांति में
मत पड जाना।
कुछ भी न
साधने का मतलब
यह नहीं होता
कि खाली बैठे
रहना।
क्योंकि खाली
बैठने में तुम
खाली ही कहा
होते हो! हजार
विचार चलते
हैं। चुप बैठे
होते हो, चुप
कहां होते हो!
मन तो गंथता
ही चला जाता
है। न मालूम
कितनी
कहानियां, न
मालूम कितनी
वासनाएं, न
मालूम कितने
जाल! कुछ न
करते वक्त भी
तुम कुछ नहीं
करते हो? कितने
कृत्य, कितनी
बेचैनियां
भीतर उबलती
हैं!
कुछ
न करना
तुम्हारा अगर
सच में ही कुछ
न करना हो, तो
परम दशा है।
उससे ऊपर फिर
कुछ भी नहीं।
अगर तुम साध
सको, न
करने को साध
सको, तो
उससे ऊपर कोई
भी साधना नहीं
है। वह तो परम
योग है। उस एक
को साध लो।
कुछ तो साधो, कुछ न करना
ही साधो।
यह
मत समझना कि
जब कुछ नहीं
करना है, तो हम
जैसे थे वैसे
ही रहेंगे। तब
तुम धोखा दे
रहे हो, तब
तुम शब्द की
आड़ में बचाव
कर रहे हो।
एक
जर्मन विचारक
हेरिगेल एक
झेन फकीर के
पास तीर चलाना
सीखता था, धनुर्विद्या
सीखता था।
उसके गुरु का
कहना था, तीर
ऐसे चलाओ कि
तुम चलाने
वाले न होओ।
तीर को चलने
दो, तुम मत
चलाओ।
अब
हेरिगेल
जर्मन विचारक!
सीधी बात है
कि यह पागलपन
की बात कर रहा
है। तो
हेरिगेल उससे
कहता है, अगर
मैं न चलाऊ, तो यह चलता
नहीं। अगर मैं
चलाऊ, तो
तुम्हारी
तृप्ति नहीं
होती! तो करना
क्या है? तुम
कोई उपाय नहीं
छोड़ते। अगर
तुम कहते हो
कि न चलाऊ, तो
फिर मैं बैठ
जाता हूं; फिर
चलता ही नहीं।
तब तुम कहते
हो, बैठे—बैठे
क्या कर रहे
हो? उठो, साधो तीर को।
अगर लगाता हुं, निशाना भी
ठीक लग जाता
है, तब भी
तुम्हारी
तृप्ति नहीं
है। क्योंकि
तुम कहते हो, तीर को चलने
दो, चलाओ
मत।
तीन
साल मेहनत की
गुरु के पास, थक
गया। तीन साल
लंबा वक्त है,
और कोई
परिणाम हाथ न
आया। सौ
प्रतिशत
निशाने ठीक
लगने लगे, लेकिन
गुरु रोज
इनकार किए चला
जाता है कि
नहीं, यह
भी नहीं।
वह
गुरु कहता, हमें
निशाने से
प्रयोजन नहीं
है। तुम हो
हमारा निशाना।
हम तुम्हारी
तरफ देख रहे
हैं। तुम वहा
देख रहे हो कि
वह जो निशाना
लगा है, उसकी
तरफ। तुम
सोचते हो, निशाना
मार लिया तो
बात हो गई।
तीर चलाना तो
तुम सीख गए, लेकिन ध्यान
नहीं सीखे।
ध्यान सीखने
तुम आए हो। और
हमारे लिए तीर
चलाना तो
सिर्फ ध्यान
सिखाने का
बहाना है। वह
नहीं सीखा
तुमने।
अब
हेरिगेल
निश्चित ही
मुश्किल में
पड़ गया होगा
कि इस आदमी के
साथ क्या करना।
पश्चिम की एक
सोचने की
प्रक्रिया है।
हेरिगेल को
सर्टिफिकेट
मिलना चाहिए, क्योंकि
वह सौ प्रतिशत
निशाने ठीक
मारने लगा। अब
और क्या जानने
को बाकी रहा!
और गुरु
सर्टिफिकेट
तो दूर, अभी
यह भी नहीं
मानता कि
तुमने पहला
कदम भी उठाया
है।
तीन
साल बाद वह थक
गया। और उसने
कहा,
अब मैं जाता
हूं। वह आखिरी
दिन विदा लेने
गया। चूंकि अब
जा ही रहा था, इसलिए चिंता
भी नहीं थी मन
पर, जाकर
बैठ गया
कुर्सी पर, जहां गुरु
दूसरे लोगों
को तीर चलाना
सिखा रहा था।
बैठकर देखता
रहा कि वे
निपट जाएं, तो उनसे
विदा ले लूं।
पहली
दफा उसने गौर
से देखा, क्योंकि
अब अपनी कोई
चिंता न थी।
वह जो भीतर की
दौड़ थी, वह
तो बंद थी। अब
जा ही रहे हैं,
बात खतम हो
गई। अब कुछ
नाता न था।
पहली दफे बिना
लिपायमान हुए
उसने देखा कि
यह आदमी कैसे
तीर चला रहा
है। यह तो
मैंने कभी
खयाल ही न
किया। यह तो
कुछ और ही ढंग
से चला रहा है!
उसे पहली दफे अनुभव
हुआ कि तीर चल
रहा है, गुरु
चला नहीं रहा
है। रखता है, हाथ खींचता
है; लेकिन
गुरु वहा नहीं
है। जैसे कोई
दूसरी ही
ऊर्जा चला रही
है।
वह
उठा। कहना ठीक
नहीं है कि
उठा,
क्योंकि
उसे पता ही
नहीं कि वह कब
उठ गया। गुरु
के पास पहुंच
गया। और उसने
गुरु से
प्रत्यंचा
अपने हाथ में
ले ली, तीर
चढ़ाया। तीर
छूटा भी न था
और गुरु ने
कहा, शाबास!
बस, पर्याप्त
है। निशाना
लगे न लगे।
समझ गए तुम।
इसी दिन की
प्रतीक्षा थी।
तीर
अभी चला भी न
था और गुरु
तृप्त हो गया।
तीन वर्ष में
जो न हुआ, वह
क्षण में हो
गया।
पर
हेरिगेल ने
कहा,
अब मैं कह
सकता हूं कि
वह बात ही अलग
थी, अनुभव
ही अलग था।
इसके पहले तो
मैं भी नहीं
मान सकता था
कि यह हो सकता
है कि ऐसी आविष्ट
दशा आ जाए, जब
कि तुम नहीं
करते और होता
है!
मैं
एक अमेरिकी
साधक का जीवन
पढ़ रहा था। वह
एक सदगुरु को
मिलने गया।
अकारण पहुंच
गया। कई बार
अकारण घटनाएं
घट जाती हैं।
क्योंकि जब
तुम कारण से
जाते हो, तो
तुम तने होते
हो। जब तुम
अकारण जाते हो,
तो कोई तनाव
नहीं होता।
वह
ऐसे ही रास्ते
से घूमने
निकला था। एक
जगह द्वार पर
तख्ती लगी
देखी कि कोई
ध्यान केंद्र
है। कभी उसकी
ध्यान में
उत्सुकता न
रही थी। अचानक
उस दिन उसे
लगा कि आज
घूमना छोड्कर
भीतर जाकर
देखा जाए, यहां
क्या हो रहा
है! ऐसे ही
कुतूहलवश
भीतर पहुंच
गया।
वहां
कोई दस—बारह
लोग बैठे
ध्यान करते थे।
वह भी जाकर
उनके पास बैठ
गया। वह देखने
लगा,
क्या हो रहा
है! वह किसी
बड़े प्रयोजन
से आया ही न था।
गुरु ने उसकी
तरफ देखा।
उसकी आंखों
में आंखें
डालीं। उसे
कुछ पता ही न
था कि यह क्या
हो रहा है, तो
उसने भी गौर
से गुरु की आंखों
में आंखें
डालकर देखा कि
यह आदमी क्या
देख रहा है।
लेकिन उस क्षण
कुछ हो गया।
और एक ऐसा
धक्का उसको
पेट पर लगा, आनंद भी
बहुत मालूम
हुआ। लेकिन उस
दिन से उसको
पेट में एक
पीड़ा शुरू हो गई।
पांच—सात दिन
तो वह परेशान
रहा।
डाक्टरों को
दिखाया।
उन्होंने कहा,
कुछ दर्द हम
तो नहीं पकड़
सकते! जहां से
हुआ है, वहीं
जाओ। उसने कहा,
यह तो झंझट
हो गई। मैं तो
ऐसे अकारण ही,
ऐसे ही चलते
राह से कुछ
उत्सुकतावश
पहुंच गया था!
गुरु
से मिलने गया।
कहा कि पीड़ा
हो रही है और
मिटती नहीं।
गुरु ने कहा, जैसे
आई है, चली
जाएगी; तुम
फिक्र न करो।
यह
बात उसे कुछ
जंची नहीं। यह
तो उपेक्षा
हुई। और यह तो
कोई रस ही न
लिया इस आदमी
ने। लेकिन अब
कोई उपाय भी
नहीं है। वह
पीड़ा बढ़ती ही
चली गई।
वह
संगीत की
साधना करता था; तबला
सीखता था। कोई
दो साल पीड़ा
रही। क्योंकि
चिकित्सक पकड़
न सकें, और
गुरु के पास
दों—चार बार
गया, उसने
ऐसी उपेक्षा
की कि हो
जाएगा। जैसे
आया है, वैसे
चला जाएगा। न
तुमने अपनी
तरफ से बनाया
है, न तुम
मिटा सकते हो।
साक्षी रखो।
यह तो ऐसा लगा,
जैसे टालना
है।
लेकिन
एक दिन दो साल
बाद,
तबला बजा
रहा था, अचानक
उसने देखा कि
कुछ घटना घटी।
हाथ उसके अपने
से चलने लगे, जैसे वह खुद
नहीं चला रहा।
आविष्ट हो गया।
उसने पहली दफे
तबले को बजते
देखा अपने से,
वह बजा नहीं
रहा है! कोई
आधा घंटे तक
वह सुर— धुन
बंधी रही। बडा
आनंद अनुभव
हुआ।
सुना
था उसने कि
ऐसा कभी घटता
है संगीतज्ञ
को,
और तभी
संगीत का जन्म
होता है, जब
संगीत का तो
मिट जाता है, कोई विराट ऊर्जा
पकड़ लेती है
आविष्ट हो
जाता है। तब
वह खुद नहीं
बजाता, कोई
बजवाता है। तब
तबले पर हाथ
उसके नहीं
पड़ते, किसी
और के हाथ
उसके हाथ से
पड़ते हैं। ऐसा
सुना था, भरोसा
इसका था नहीं।
लेकिन यह घटा।
आधे
घंटे के बाद
जब वह थककर
लेट गया, क्योंकि
बड़ा अनूठा
अनुभव था, अचानक
उसने पाया कि
वह जो दर्द था
पेट में, वह
जा चुका है।
वह जो दो साल
तक पीछा नहीं
छोड़ा, वह
जैसे आया था, वैसे चला
गया। और उस
दर्द के साथ
जीवन में से
बहुत कुछ चला
गया; जैसे
उस दर्द में
सभी कुछ जीवन
का रोग इकट्ठा
हो गया था।
न
कुछ साधने का
अर्थ होता है, तुम
परमात्मा को
द्वार दो। उसे
आविष्ट होने
दो। तुम जगह
खाली करो। वह
तुम्हारे
सिंहासन पर
विराजमान हो
जाए।
अगर
तुम न करना
साध लो, तो
जगत की सबसे
बड़ी चीज साध
ली। उससे बड़ी
कोई भी साधना
नहीं है। उसको
ही ज्ञानियों
ने सहज—योग
कहा है।
कबीर
कहते हैं, साधो
सहज समाधि भली।
यह
है सहज समाधि।
तुम खाली हो।
तुम सिर्फ
परमात्मा को
जगह देने के
लिए आतुर हो, प्रतीक्षा
करते हो। चलते
हो तो सोचते
हो, वही
चले मेरे भीतर।
भोजन करते हो
तो सोचते हो, वही भोजन
करे मेरे भीतर।
सोते हो तो
सोचते हो, उसी
के लिए सेज
लगाऊं, वही
सोए मेरे भीतर।
ऐसे धीरे—
धीरे तुम
परमात्मा के
मंदिर बनते
जाते हो। तुम
कुछ नहीं करते।
तुम अपने करने
को उस पर
छोड़ते जाते हो।
एक
ऐसी घड़ी आती
है,
महाघडी, जब
तुम्हारा सब
कृत्य उसका
कृत्य हो जाता
है। उस घड़ी ही
समझना कि न
करना सधा।
उसके पहले न
करना नहीं सधा।
जब तक तुम्हारा
कर्ता भीतर है,
न करना कैसे
सधेगा? कर्ता
तो करवाता ही
रहेगा।
यह
कृष्ण की पूरी
शिक्षा
अर्जुन से यही
है कि तू
कर्ता मत बन।
तू न करने में
हो जा। उसी को
साधने दे तेरे
हाथ में
प्रत्यंचा को, उसी
को उठाने दे
गांडीव को, उसी को
चलाने दे तीर,
उसी को लडने
दे युद्ध, उसी
को जीतने दे, उसी को
हारने दे, तू
बीच में मत आ।
तू निमित्त
मात्र हो जा।
चौथा
प्रश्न: आप
कहते हैं, जो
व्यक्ति
साक्षित्व को उपलब्ध
होता है, उसकी
समस्त
वासनाएं और
विकार मिट
जाते हैं। तब
क्या यह संभव
है कि ऐसा
मुक्त भी जैसे
और विकारग्रस्त
पुरुष हत्या
वासनाजन्य
कृत्य में उतर
सके?
उतर तो
नहीं सकता; स्वयं
तो नहीं उतर
सकता, लेकिन
अगर परमात्मा
की मर्जी हो, तो रोक भी
नहीं सकता।
क्योंकि जब
तुम मिट ही गए,
तो करने
वाला भी न बचा,
रोकने वाला
भी न बचा। फिर
जो हो, हो।
फिर ऐसा
व्यक्ति तो
ऐसा हो जाता
है, जैसे
बादल। हवाएं जहां
ले जाएं।
तुम
यह नहीं कह
सकते कि वह
क्या नहीं कर
सकता और क्या
करेगा। वह बचा
ही नहीं। उसके
सारे विकार
शून्य हो गए।
वह तो खाली
शून्य गृह हो
गया। अब उसमें
परमात्मा की
हवाएं, जिस
भांति बहे, बहे। न तो
करने वाला कोई
बचा, न
रोकने वाला
कोई बचा।
रोकने वाला भी
करने वाला ही
है।
तो
जरूरी नहीं है
कि उससे ऐसे
कृत्य हों, लेकिन
अगर परमात्मा
की मर्जी हो, तो होंगे।
लेकिन तब वह
यह नहीं कहेगा,
मैंने किए
हैं। न तो वह
अपने कृत्यों
से कोई गुण—गौरव
लेगा और न
अपने कृत्यों
से कोई निंदा
लेगा। न तो वह
दान करते समय
सोचेगा कि मैं
कोई महान
कार्य कर रहा
हूं और न
हिंसा करते
वक्त सोचेगा
कि मैं कोई
महापातक कर
रहा हूं। वह
है ही नहीं।
वह बीच से हट
ही गया। अब
परमात्मा की
जो मर्जी, वह
करवा ले।
संभव
है कि
परमात्मा को
जरूरत हों—परमात्मा
जब भी मैं
कहता हुं,
तो मेरा मतलब
होता है
समष्टि—यह
सारे
अस्तित्व को
जरूरत हो, जरूरत
हो कि कोई
मिटाया जाए, जरूरत हो कि
कोई हटाया जाए,
तो वह काम
में आ जाएगा।
लेकिन इससे एक
रेखा भी न
खिचेगी उसके
भीतर कि मैंने
कुछ किया।
वही
तो कृष्ण की
पूरी की पूरी
इतनी—सी बात
है अर्जुन के
लिए कि तू बीच
में मत आ। तू
यह मत सोच कि
तू मारेगा। तू
यह मत सोच कि
फल क्या होगा।
तू छोड़ ही दे, सारी
बात ही छोड़ दे।
अगर उस घड़ी
में छोड़ने के
बाद जब अर्जुन
ने कहा, मेरे
सब संशय जाते
रहे, हे
महाबाहो, मेरे
सब संदेह
क्षीण हो गए, अगर उस क्षण
में समष्टि की
यही आकांक्षा
होती कि वह
संन्यस्त हो
जाए, तो वह
उठा होता, रथ
से उतरा होता
और जंगल चला
गया होता।
वह
नहीं थी इच्छा।
जो अर्जुन सोच
रहा था कि मैं
करूं, वह समाष्ट
की इच्छा न थी।
इसलिए कृष्ण
उसको कहे चले
गए।
मैं
निरंतर सोचता
हूं कि अगर
महावीर जैसा
व्यक्ति होता अर्जुन
की जगह, तो
क्या कृष्ण
इतनी बातें
कहते! बिलकुल
नहीं कह सकते
थे। क्योंकि
महावीर को
देखकर ही वे
समझ लेते कि यही
अस्तित्व की
घटना घट रही
है, अस्तित्व
यही चाहता है
कि महावीर
नग्न हो जाएं,
जंगलों में
भटकें। युद्ध
महावीर के लिए
नहीं है। वह
उनका स्वधर्म
नहीं है।
कृष्ण
ने अर्जुन को
देखकर गीता
कही। महावीर
को देखकर तो
चुप ही रह गए
होते।
क्योंकि
महावीर का
जाना, महावीर
का अपना जाना
न था।
महावीर
के जीवन में
बड़ा मीठा
प्रसंग है। वे
संन्यस्त
होना चाहते थे।
उनकी मां ने
कहा कि मेरे
जीते नहीं। वे
चुप हो गए।
बात ही छोड़ दी
संन्यास की।
जैसे कोई
आग्रह ही न था
संन्यास का।
आग्रह
तो अहंकार का
होता है।
संन्यास का भी
क्या आग्रह!
छोड़ने का भी
क्या आग्रह!
पकड़ने के
आग्रह से जब
छूट गए, तो
छोड़ने का
आग्रह भी छोड़
देना चाहिए।
अगर कोई दूसरा
होता, तो
जिद पकड़ जाता।
मां जितना
रोकती, उतनी
जिद बढ़ती। घर
के लोग जितने
परेशान होते,
उतनी ही अकड़
आती कि मैं तो
संन्यासी
होकर रहूंगा।
दुनिया
में सौ में से
निन्यानबे
संन्यासी, दूसरों
की वजह से हो
जाते हैं, रोकने
वालों की वजह
से। क्योंकि
जब भी कोई
रोकता है, तब
बड़ा अहंकार को
मजा आता है कि
हम कोई महान
कार्य करने जा
रहे हैं।
लेकिन
महावीर चुप ही
हो गए। मां भी
शायद सोची
होगी कि यह भी
कैसा संन्यास!
एक बार कहा
नहीं, कि चुप
हो गया! सभी
माताएं कहती
हैं। यह कोई
नई बात थी कि
महावीर की मां
ने कहा कि मत लो
संन्यास मेरे
जीते—जी। मैं
मर जाऊंगी।
ऐसा सभी
माताएं कहती
हैं। कोई मां
मरी है कभी
किसी के
संन्यास लेने
से! यह तो मा—बाप
के कहने के
ढंग हैं। इनका
कोई मूल्य
नहीं है। मां
भी थोड़ी
चिंतित हुई
होगी कि यह भी
संन्यास कैसा
संन्यास था!
फिर
मां मरी। मरघट
से लौटते थे।
रास्ते में
अपने बड़े भाई
को कहा कि अब
तो ले सकता
हूं?
रास्ते ही
में! अभी विदा
ही करके लौटते
थे। बड़े भाई
ने कहा, यह
भी कोई बात
हुई? इधर
मां मर गई है, इधर हम
परेशान हो रहे
हैं और
तुम्हें
संन्यास की
पडी है! एक दुख
काफी है, अब
तुम और यह दुख
मेरे ऊपर मत
लाओ। चुप रहो,
यह बात ही
मत उठाना।
अब
जब बड़े भाई ने
कहा,
चुप रहो, तो वे चुप हो
गए। हमें भी
लगेगा, यह
भी कैसा
संन्यासी है।
यह तो होगा ही
नहीं कभी, ऐसा
अगर चला तो।
क्योंकि कोई न
कोई मिल ही
जाएगा। बड़ा घर
रहा होगा, बड़ा
परिवार था।
राज—परिवार था,
संबंधी रहे
होंगे। ऐसे
अगर हर एक के
कहने से रुके,
तब तो जन्म—जन्म
बीत जाएं, महावीर
का संन्यास
होने वाला
नहीं। भाई ने
भी सोचा होगा
कि यह भी कैसा
संन्यास है! एक
दफा कहो नहीं
कि यह चुप हो
जाता है। यह
जैसे रास्ते
ही देखता है
कि तुम रोक दो
बस, हम रुक
जाएं! मगर
नहीं, बात
कुछ और थी।
महावीर
आग्रही नहीं
थे। संन्यास
का भी क्या
आग्रह करना!
छोड़ने का भी
क्या आग्रह
करना! नहीं तो
वह पकड़ने जैसा
ही हो गया।
संन्यास को भी
क्या पकड़ना! जब
संसार ही छोड़
दिया, तो
संन्यास को
क्या पकड़ना!
तो वह ठीक।।
लेकिन धीरे—
धीरे घर के
लोगों को लगा
कि वे घर में
हैं ही नहीं।
रहते घर में
हैं। भोजन
करते, उठते—बैठते,
लेकिन ऐसे
शून्यवत हो
रहे कि उनके
होने का किसी
को पता ही न
चलता।
आखिर
भाई और घर के
लोग मिले।
उन्होंने कहा, अब
इसे रोकना
व्यर्थ है। यह
तो जा ही चुका।
सिर्फ शरीर है
घर में। शरीर
को भी रोकने
के लिए हम
क्यों पापी
बनें! नहीं तो
कहने को होगा
कि हमारी वजह
से यह संन्यस्त
न हुआ। और यह
हो ही गया। यह
यहां है नहीं।
इसकी मौजूदगी
यहां मालूम
नहीं पड़ती।
किसी को पता
ही नहीं चलता
महीनों, दिन
बीत जाते हैं
कि महावीर कहा
है! वह अपने में
ही समाया है।
तो
घर के लोगों
ने ही हाथ
जोड़कर कहा कि
अब तुम जा ही
चुके हो, तो अब
तुम हमको नाहक
अपराधी मत
बनाओ। अब तुम
जाओ ही। अब
तुम यहां हो
ही नहीं, अब
रोकें हम
किसको! रोकना
किसको है! जब
उन्होंने ऐसा
कहा, तो
महावीर उठकर
चल दिए।
ऐसे
संन्यास को
कृष्ण न रोक
सकते थे।
अर्जुन का
संन्यास ऊपर—ऊपर
था। वह घबड़ाकर
भाग रहा था, जानकर
नहीं। वह खुद
भाग रहा था, परमात्मा
उसे भगा नहीं
रहा था। इसलिए
जब उसके सब
संशय गिर गए
थे और जब उसने
सब छोड़ दिया
था, तब फिर
जो घटित हुआ, हुआ। फिर वह
न जा सका जंगल
की तरफ, क्योंकि
वह परमात्मा
की मर्जी न थी।
कृष्ण
का जो संघर्ष
है अर्जुन से, वह
अर्जुन की
मर्जी के
खिलाफ है, परमात्मा
की मर्जी के
पक्ष में है।
वे इतना ही कह
रहे हैं।
कृष्ण ने भी न
रोका होता, अगर सब संशय
गिर जाने पर, अहंकार को
अलग रख देने
पर, अर्जुन
उतरता, चरण
छूता और कहता
कि अब जाता
हूं; सब
संशय समाप्त
हुए, बात
खतम हो गई, तो
मैं जानता हूं
कि कृष्ण रोक
न पाते। न
रोकने की कोई
जरूरत रह जाती।
रोक
हम उसी को
सकते हैं, जो
अपने से जा
रहा हो। रोकने
की जरूरत उसी
को है, जो
अस्तित्व के
विपरीत जा रहा
हो।
गीता
को लोग समझ
नहीं पाए।
गीता को लोगों
ने समझा कि यह
युद्ध में
जाने का संदेश
है,
गलत। गीता
को लोगों ने
समझा, यह
संसार में अड़े
रहने का संदेश
है; गलत।
एक तरफ यह
गीता को मानने
वालों की भूल
है। दूसरी तरफ
जैनों ने समझा
कि यह गीता
संन्यास के
विरोध में है,
गलत। कि
गीता त्याग से
बचाती है, यह
भी गलत।
गीता
कुल इतना कहती
है कि परम की
जो आकांक्षा है, तुम
उसके साथ बहो,
विपरीत मत
बहो। फिर वह जो
भी हो आकांक्षा।
कभी संन्यास
की होगी, महावीर
के लिए
संन्यास की थी;
अर्जुन के
लिए संन्यास
की नहीं थी।
जो परम की आकांक्षा
हो।
नदी
की धार के
विपरीत मत बहो।
नदी की धार के
साथ हो रहो।
फिर नदी पूरब
जा रही हो, तो
पूरब; और
नदी पश्चिम जा
रही हो, तो
पश्चिम।
अब
कुछ नदियां
पश्चिम जाती
हैं,
कुछ पूरब
जाती हैं।
गंगा पूरब की
तरफ भागी जा
रही है, नर्मदा
पश्चिम की तरफ
भागी जा रही
है। विपरीत
नहीं हैं वे।
जो आदमी गंगा
में बह रहा है,
वह पूरब की
तरफ बहेगा; जो आदमी
नर्मदा में बह
रहा है, वह
पश्चिम की तरफ
बहेगा। लेकिन
दोनों नदी के साथ
बह रहे हैं।
दोनों एक हैं।
गीता
को जो ठीक से
समझेगा, गीता
का और कुछ भी
संदेश नहीं है,
इतना ही
संदेश है कि
परमात्मा की
धारा के विपरीत
मत बहना; स्वभाव
के अनुकूल
बहना। इसलिए
कृष्ण बार—बार
कहते हैं, स्वधर्मे
निधन श्रेय:।
वह जो स्वयं
का, भीतर
का आत्यंतिक
धर्म है, उसमें
मर जाना भी
बेहतर।
परधमों भयावह:।
और दूसरे का
धर्म, वह
चाहे सफलता ले
आए, जीवन
दे, तो भी
भयपूर्ण है।
उसमें मत जाना।
स्वभाव
में बहने का
अर्थ
परमात्मा में
समर्पित होकर
बहना है।
स्वभाव यानी
परमात्मा, जिसको
लाओत्से ताओ
कहता है।
आखिरी
प्रश्न : आप कहते
हैं, साक्षी—
भाव से
निमित्त
मात्र होकर
यदि कोई हत्या
भी करे, तो
उसे न कर्म —बंध
होगा और न कोई
पाप लगेगा।
लेकिन किसी भी
प्राणी को
कष्ट देने पर
या उसकी हत्या
करने पर उस
प्राणी को
पीड़ा तो होगी
ही, तो
उसके दुख की
तरंगों का
कार्य—कारण के
नियमानसार
क्या परिणाम
होगा?
यह थोड़ा—सा
सूक्ष्म, लेकिन
समझने योग्य
और अत्यंत
जरूरी सवाल है।
बात बिलकुल
ठीक है। तुम
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए।
परम की मर्जी
यही थी कि तुम
युद्ध में जाओ,
तुम गए।
तुमने अर्जुन
की तरह
महाभारत का
युद्ध। किया।
उसमें लोग मरे।
तुमने काटे।
उनको पीड़ा हुई।
तुम्हारे
ज्ञान से उनकी
पीड़ा तो न
रुकेगी। तुम
साक्षी— भाव
से कर रहे हो, इससे
उन्हें मरने
में कोई मजा
तो न आएगा।
मरने में तो
पीड़ा ! उतनी ही
होगी। तुम
चाहे साक्षी—
भाव से करो, चाहे तमस—
भाव से। करो, तुम चाहे
परमात्मा पर
छोड्कर करो, चाहे खुद
करो, मरने
वाले को तो
इससे कोई फर्क
न पड़ेगा। वह
तो दोनों हालत
में पीड़ित
होगा। तो सवाल
यह है कि उसे
जो पीड़ा हो
रही है, उसका
क्या परिणाम
होगा?
उसका
परिणाम होगा, उसी
को होगा। पीड़ा
उसको हो रही
है,। वही
जिम्मेवार है।
अब इसे तुम
थोड़ा समझो।
ऐसा
समझो कि
अर्जुन मारने
वाला है, बुद्ध
मरने वाले हैं।
तो क्या बुद्ध
को पीड़ा होगी?
अर्जुन
मारेगा परम की
मर्जी के
अनुसार; बुद्ध
मरेंगे परम की
मर्जी के
अनुसार, पीड़ा
की घटना ही न
घटेगी। तो अगर
तुम मारे जा
रहे हो अर्जुन
से और तुम्हें
पीड़ा हो रही
है, तो
जिम्मेवार
तुम हो, अर्जुन
नहीं। अर्जुन
तो जिम्मेवार
तब है, जब
वह मार रहा हो,
जब वह स्वयं
मार रहा हो, अपनी
आकांक्षा से
मार रहा हो, तब
जिम्मेवार है,
तब कर्म का
बंध उसे होगा।
और
ध्यान रखना, अगर
अर्जुन बुद्ध
को मार रहा हो
और अपनी इच्छा
से मार रहा हो,
और बुद्ध को
पीड़ा भी न हो, तो भी उस
पीड़ा का, जो
कभी नहीं हुई,
उसका पाप—बंध
अर्जुन को
होगा।
अहंकार
ने मारा; तो
मारने की जो
धारणा है
अर्जुन की कि
मैं मार रहा
हूं वही उसके
पाप—बंध का
कारण होगी।
बुद्ध को पीड़ा
हुई या नहीं
हुई, यह
सवाल ही नहीं
उठता। तुमने
मारने की आकांक्षा
की, तुमने
मारा, तुमने
परमात्मा के
हाथ में अपने
को न
छोड़ा, तुम
कर्ता रहे, तो तुम्हें
कर्म का बंध
होगा।
फिर
तुम्हारे
मारने से जो
आदमी मर रहा
है,
उसकी पीड़ा
के लिए वही जिम्मेदार
है। क्योंकि यह
भी हो सकता, अगर वह
साक्षी—रूप हो,
तो पीड़ा न
हो। तो वह
देखे कि मरना
घट रहा है, लेकिन
पीडा से लिप्त
न हो। अगर वह
लिप्त हो रहा
है, तो
स्वयं ही
जिम्मेवार है।
तुम्हारे
मारने से.....।
अगर तुमने
परमात्मा पर
छोड्कर किसी
को मारा, इसे
ध्यान रखना।
और तुम ऐसा
सोच मत लेना
कि जिसको भी
तुम मार रहे
हो, परमात्मा
पर छोड्कर मार
रहे हो। इतना
आसान नहीं है।
धोखा देना
आसान है। तुम
बिलकुल ठीक
भीतर पहचान
सकते हो कि
तुम मार रहे
हो या
परमात्मा के
द्वारा यह
कृत्य किया जा
रहा है।
अगर
मारने के
द्वारा कोई भी
पिछला
प्रतिशोध लिया
जा रहा है, तो
तुम मार रहे
हो, परमात्मा
का क्या
प्रतिशोध! अगर
मारने के द्वारा
भविष्य की कोई
फलाकांक्षा
की जा रही है, तो तुम मार
रहे हो, परमात्मा
को भविष्य से
क्या लेना—देना!
अगर यह आदमी
मर जाएगा तो
तुम प्रसन्न
होओगे, न
मरेगा तो
अप्रसन्न
होओगे, तो
तुम मार रहे
हो, परमात्मा
को प्रसन्नता—अप्रसन्नता
क्या!
अगर
तुम्हें न कोई
अतीत की
आकांक्षा हो
कि कोई
प्रतिशोध ले
रहे हो, न
भविष्य का कोई
सवाल हो कि
किसी फल की
कोई आकांक्षा
है, न हार
जाओ, जीत
जाओ, कोई
फर्क पड़े, तो
समझना कि
परमात्मा की
मर्जी तुम
पूरी कर रहे
हो, तुम
निमित्त
मात्र हो।
वैसी दशा में
अगर यह आदमी
मरते वक्त दुख
पाता है, पीड़ा
पाता है, तो
यह इसका अशान
है। यह अपने
शरीर को समझ
रहा है कि मैं
हूं। इसलिए
शरीर के कटने
को समझता है
कि मैं मर रहा हूं।
यह इस अज्ञान
के कारण दुख
पा रहा है और
इस दुख के
कारण भविष्य
में और दुख
अर्जन करेगा,
और अज्ञान
घनीभूत करेगा,
और पीड़ित
होगा। तुम
इसके बिलकुल
बाहर हो गए; तुम्हारा
इससे कुछ लेना—देना
नहीं है।
अब
सूत्र:
तथा हे
भारत, ज्ञाता,
ज्ञान और
ज्ञेय, ये
तीनों तो कर्म
के प्रेरक लै
अर्थात इनके
संयोग से तो
कर्म में
प्रवृत्त
होने की इच्छा
उत्पन्न होती
है। और कर्ता,
करण और
क्रिया, ये
तीनों कर्म के
संग्रह हैं
अर्थात इनके
संयोग से कर्म
बनता है।
उन सब में
ज्ञान और कर्म
तथा कर्ता भी
गुणों के भेद
से सांख्य ने
तीन प्रकार के
कहे हैं, उनको
भी तू मेरे से
भली प्रकार
सुन। दो वर्तुल
हैं तुम्हारे
जीवन के। भीतर
का वर्तुल है,
ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय। वह
विचार का
वर्तुल है, जहां तुम
जानने वाले हो,
जहाकुछ
जाना जाता है
और जहां दोनों
के बीच में
ज्ञान घटता है।
जब तुम कुछ भी
नहीं कर रहे
हो, तब भी
तुम ज्ञाता
होते हो, ज्ञान
घटता है, गेय
होता है।
तुम्हारे
अकृत्य में भी
विचार का
कृत्य तो जारी
रहता है।
इसलिए विचार
तुम्हारे
भीतर का कृत्य
है।
ज्ञाता
का अर्थ है, कर्ता,
विचार का
कर्ता, विचारक।
ज्ञेय का अर्थ
है, जिस पर
तुम अपने
ज्ञाता को
आरोपित करते
हो, आब्जेक्ट,
विषय। और
दोनों के बीच
जो घटना घटती
है, वह
ज्ञान। यह
तुम्हारे मन
की प्रक्रिया
है।
तो
पहली परिधि
तुम्हारे
आत्मा के आस—पास
मन की है; एक
वर्तुल। फिर
दूसरा वर्तुल
तुम्हारे शरीर
का है। शरीर
में दूसरा
वर्तुल है
कर्ता, करण
और क्रिया का।
जब विचार
कृत्य बनता है,
तब तुम
कर्ता हो जाते
हो। कोई उपकरण,
हाथ, आंख
करण बन जाते
हैं। और बाहर
के जगत में
कृत्य घटित
होता है।
कर्ता, करण
और किया, यह
तुम्हारा
दूसरा वर्तुल
है।
ऐसा
समझो कि मध्य
का बिंदु, केंद्र,
तुम्हारी
चेतना है।
उसके बाद पहला
धुआं इकट्ठा
होता है विचार
का, ज्ञाता,
ज्ञेय, ज्ञान।
फिर जब धुआं
और भी सघन हो
जाता है, ठोस
हो जाता है, तो कृत्य का
जन्म होता है,
तब कर्ता, करण और
क्रिया।
संसार
से तुम्हारा
संबंध कर्म का
है। इसलिए जब
तक तुम कुछ
कर्म न करो, तब
तक अदालत
तुम्हें नहीं
पकड़ सकती। अगर
तुम बैठकर रोज
हजारों लोगों
की हत्या करते
हो विचार में,
तो कोई
अदालत तुम पर
मुकदमा नहीं
चला सकती। वह
यह नहीं कह
सकती कि यह
आदमी रोज
बैठकर बिना हजार
की हत्या किए
नाश्ता नहीं
करता! मजे से करो,
कोई मनाही
नहीं है। और
तुम अदालत के
सामने
वक्तव्य भी दे
सकते हो कि
मैं रोज एक
हजार की हत्या
करके, फिर
नाश्ता करता
हूं लेकिन
विचार में।
समाज
का विचार से
कोई लेना—देना
नहीं है। तुम
समाज की परिधि
में उतरते ही
तब हो, जब
विचार कृत्य
बनता है। जब
विचार कृत्य
बन जाता है, तब तुम्हारा
संबंध दूसरे
से जुड़ा। शरीर
हमें दूसरे से
जोड़ता है। इसे
तुम ठीक से
समझो।
मन
तुम्हारी
आत्मा को शरीर
से जोड़ता है।
इसलिए जब तक
तुम ज्ञाता, ज्ञान
और ज्ञेय के
बीच उलझे हो, तुम्हारा
संबंध शरीर से
बना रहेगा; वह सेतु है।
फिर कर्म
तुम्हें अपने
शरीर को
दूसरों के शरीरों
से जोड़ता है, संसार से
जोड़ता है।
संसार और समाज
तुम्हारे
कर्म की चिंता
करते हैं।
इसलिए
अदालत उस बात
को पाप कहती
है,
जो कृत्य हो
जाए। विचार
में घटे पाप
को पाप नहीं
कहती, अपराध
नहीं कहती।
लेकिन धर्म? धर्म तो
उसको भी पाप
कहता है, जो
तुम्हारे
भीतर विचार में
घटे। यही
अपराध और पाप
का भेद है।
अपराध
ऐसा पाप है, जो
कृत्य बन गया;
और पाप ऐसा
अपराध है, जो
केवल विचार रह
गया। जहां तक
तुम्हारा
संबंध है, विचार
करने से ही
कृत्य हो गया।
तुम उतने ही
पाप के
भागीदार हो गए
विचार करके भी,
जितना तुम
करके होते, यद्यपि
दूसरा तुमसे
अप्रभावित
रहा। दूसरे पर
प्रभाव तो तब
पड़ेगा, जब
तुम विचार को
कृत्य
बनाअईागे।
तो
समाज
तुम्हारे
कृत्य पर रोक
लगाता है, धर्म
तुम्हारे
विचार पर।
समाज की नीति
सिर्फ इसी बात
पर निर्भर है
कि तुम शुभ
कर्म करो, अशुभ
कर्म मत करो।
धर्म की चितना
इस पर है कि
तुम शुभ विचार
करो, अशुभ
विचार मत करो।
धर्म
ज्यादा गहरे
जाता है।
क्योंकि
अंततः अशुभ
विचार ही अशुभ
कर्म बन जाएगा
किसी दिन। वह
बीज है, अभी
दिखाई नहीं
पड़ता, सूक्ष्म
है। फिर वह
प्रकट होगा।।
फिर वह वृक्ष
बनेगा। फिर
उसमें शाखाओं
पर शाखाएं
निकलेंगी और
वह फैल जाएगा।
और उसका जहर
अनेकों लोगों
के जीवन को
प्रभावित
करेगा।
इसलिए
इसके पहले कि
कोई विचार
कृत्य बने, उसे
विचार के जगत
में ही शून्य
कर दो। वही
आसान भी है।
बीज को मिटाना
बहुत आसान है,
वृक्ष को
मिटाना
मुश्किल हो
जाएगा। वृक्ष
बड़ी शक्ति बन
जाता है।
विचार को लौटा
लेना आसान है,
कृत्य को
लौटाना
मुश्किल हो
जाएगा। वह
छूटा हुआ तीर
है। वह फिर
वापस कैसे
लौटेगा?
ये
दो वर्तुल हैं।
और इन दोनों
वर्तुलों से
जो मुक्त हो
जाता है, वही
साक्षी है। जब
तुम कृत्य के
भी देखने वाले
हो जाते हो और
कर्ता नहीं रह
जाते और तुम
विचार के भी
देखने वाले हो
जाते हो और
ज्ञाता नहीं
रह जाते, तुम
मात्र साक्षी
हो जाते हो।
इसे थोड़ा
समझना। बहुत—से
लोग साक्षी और
जाता का अर्थ
एक—सा ही कर
लेते हैं। वे
उसे
पर्यायवाची
समझते हैं। वे
भूल में हैं।
ज्ञाता तो
कर्ता हो गया।
उसने कहा, मैंने
जाना। मैंने
किया, तो
कर्ता हो गए; मैंने जाना,
तो भी कर्ता
हो गए, सूक्ष्म
में। मैंने
सोचा। मैं आ
गया। ज्ञाता
भी कर्ता का
सूक्ष्म रूप
है।
साक्षी
सबके पार है।
साक्षी में
कोई मैं— भाव
नहीं है। न तो
जाना, न किया, सिर्फ देखते
रहे। साक्षी
में द्रष्टा
तक भी नहीं है,
क्योंकि
द्रष्टा जैसे
कहा, फिर
कर्ता बना।
साक्षी
बड़ा अनूठा
शब्द है।
उसमें कर्ता
का भाव बिलकुल
नहीं है।
द्रष्टा में
देखने का भाव
आ गया, कि देखा।
तत्काल तीन हो
गए। देखा, द्रष्टा
बने, तो
दर्शन और
दृश्य।
साक्षी
सबका
अतिक्रमण कर
जाता है। तुम
सिर्फ हो; न
तुम करते, न
तुम देखते, न तुम सोचते।
सारी
क्रियाएं
शून्य हो गईं।
जो साक्षी में
जीता है, वही
कर्म करते हुए
अकर्म में
जीता है।
देखते हुए
देखता नहीं, जानते हुए
जानता नहीं, सिर्फ होता
है। यह
शुद्धतम
अस्तित्व है।
यह आत्यंतिक
परिशुद्धि की
धारणा है।
कृष्ण
कहते हैं, सांख्य
ने शान, कर्म
और कर्ता को
भी तीन गुणों
के अनुसार
विभाजित किया
है। तू उन्हें
भी मुझसे भली
प्रकार सुन।
जिस ज्ञान से
मनुष्य पृथक—पृथक
सब भूतों में
एक अविनाशी
परमात्मा को
विभागरहित, समभाव से
स्थित देखता
है, उस
ज्ञान को तू
सात्विक जान।
सांख्य
का एक
सुनिश्चित सिद्धांत
है कि प्रत्येक
चीज तीन—रूपी
होगी, क्योंकि
सारे
अस्तित्व की
सभी चीजें
त्रिगुण से
बनी हैं। तो
वह विभाजन हर
जगह करते हैं।
और वह विभाजन
कीमती है।
उससे साधक को
साफ सीढियां
हो जाती हैं, कैसे आगे
बढ़ना। सत्व
कहते हैं उस
ज्ञान को, जब
सब जगह अनेक
रूपों में एक
ही दिखाई पड़ने
लगे। रूप हों
अनेक, नाम
हों अनेक, सभी
नामों में एक
ही अनाम की
प्रतीति होने
लगे और सभी
रूपों में एक
अरूप झलकने
लगे, सभी
आकार एक ही
निराकार की
तरंगें मालूम
होने लगें, तब शान
सात्विक। जब
अनेक में एक
दिखाई पड़े, तो शान
सात्विक।
और
जब मनुष्य
संपूर्ण
भूतों में
अनेक— अनेक
भावों को
न्यारा—न्यारा
करके जानता है, उस
शान को राजस
जान।
और
जब अनेक अनेक
की भांति
दिखाई पड़े!
अनेक एक की
भांति दिखाई
पडे,
तो सत्व।
अनेक अनेक की
भांति दिखाई
पड़े, तो
राजस। भेद
दिखाई पडे, द्वंद्व
दिखाई पड़े, विरोध दिखाई
पड़े, सीमाएं
दिखाई पड़े, तो राजस।
क्षत्रिय
की सारी जीवन—
धारा सीमा से
बंधी है। वह
लड़ता है सीमा
के लिए। सीमा
को बडा करने
की चेष्टा में
लगा रहता है।
पर सीमा है।
ब्राह्मण
का सारा जीवन
असीम से बंधा
है। लड़ने का
कोई उपाय नहीं
है। सीमा
बनाने की कोई
सुविधा नहीं
है। परिभाषा
करना गलत है।
फिर
तीसरा है तमस
से भरा हुआ
व्यक्ति।
तीसरे
व्यक्ति को हम
ऐसा समझें कि
उसे न तो एक
दिखाई पड़ता, न
अनेक दिखाई
पड़ते; उसे
दिखाई ही नहीं
पड़ता। वह अंधा
है। जैसे दीया
बुझा है। दीया
तो रखा है, पर
ज्योति नहीं
है। तो नाम
मात्र का दीया
है, उसको
क्या दीया
कहना! मिट्टी
का दीया रखा
है, तेल
भरा है, बाती
लगी है, पर
ज्योति नहीं
है।
फिर
ज्योति जलती
है। थोड़ा—सा
प्रकाश होता
है। अंधेरे
में चीजें
नहीं दिखाई
पड़ती थीं, अब
अनेक चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं; थोड़ा—सा
प्रकाश है। इस
थोड़े—से
प्रकाश में
अनेक का अनुभव
होता है।
फिर
महाप्रकाश का
जन्म है। जहां
दीए की बाती, दीया,
तेल, सब
खो जाते हैं।
बिन बाती बिन
तेल! तब सिर्फ
प्रकाश रह
जाता है। उस
प्रकाश में
सभी रूप लीन
हो जाते हैं।
तमस
यानी अंधकार।
इस शब्द का
अर्श भी
अंधकार है।
सत्व का अर्थ, प्रकाश।
सत्व का अर्थ
है, जहां
परम प्रकाश हो
गया। तमस का
अर्थ है, जहां
परम अंधकार है।
अंधकार में
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता। न
एक, न अनेक।
सत्य में सब
कुछ दिखाई
पड़ता है और
इतनी गहराई से
दिखाई पड़ता है
कि परिधियों
में जो अनेकता
है, वह खो
जाती है और
केंद्र की
एकता अनुभव
होने लगती है।
और दोनों के
मध्य में है
राजस। कुछ
दिखाई पड़ता है,
कुछ नहीं भी
दिखाई पड़ता।
कुछ अंधेरा है,
कुछ प्रकाश
है। प्रकाश—अंधेरे
का तालमेल है।
तो सीमाएं
दिखाई पड़ती
हैं, अनेक
दिखाई पड़ता है।
ये
तीन चित्त की
दशाएं हैं।
तुम कहां हो, अपने
को ठीक से
पहचान लेना
चाहिए, क्योंकि
वहीं से
तुम्हारी
यात्रा हो
सकेगी।
अगर
तुम तमस में
हो,
तो घबड़ाना
मत। अगर यह भी
तुम्हें समझ
में आ जाए कि
मैं तमस में
हूं तो राजस
शुरू हो गया।
क्योंकि इतना
बोध भी दीए
में थोड़ी
रोशनी आने से
शुरू होता है।
अगर तुम्हें
ऐसा लगे कि
मैं तमस में हुं, घबडाना मत।
जो भी सत्व को
उपलब्ध हुए
हैं, सभी
तमस से गए हैं।
तमस में होने
का अर्थ है, तुम अभी
गर्भ में हो।
बस, कुछ
घबड़ाने की बात
नहीं। जन्म
होगा। थोड़ा
जागो। थोडे
होश को
सम्हालो। तमस
से उठो। ऊर्जा
को उठाओ। रजस
का जन्म शुरू
हुआ।
रजस
यानी ऊर्जा, शक्ति।
थोड़ा हिलो—डुलो।
थोड़ा जीवन में
गति लाओ। अगति
में मत पड़े
रहो। थोड़ा
घूमो आस—पास, देखो। अनेक
का जन्म होगा।
जैसे
ही अनेक का
जन्म हो जाए, फिर
एक—एक में
थोड़ा गहरा
देखना शुरू
करो कि
वस्तुत: अनेक
हैं या सिर्फ
दिखाई पड़ते
हैं।
जैसे
सागर के पास
खडे रही, कितनी
लहरें दिखाई
पड़ती हैं! फिर
हर लहर में गौर
से देखो, तो
वही सागर है, एक ही सागर
है। ऊपर से जो
अनेक दिखाई
पड़ता है, वह
भीतर से एक है।
फिर सत्व का
जन्म होता है।
और
इन तीनों के
पार है साक्षी।
इसलिए उसको
हमने तुरीय
कहा है, चौथा।
सत्व को भी
मंजिल मत समझ
लेना।
क्योंकि तुम
कहते हो कि
हमें लहरों
में सागर दिखाई
पड़ता है, पर
अभी लहरें भी
दिखाई पड़ती
हैं। अभी ऐसा
नहीं हुआ कि
सागर ही सागर
हो गया हो।
लहरों में
सागर दिखाई
पड़ता है।
नामों में
अनाम दिखाई
पड़ता है, रूप
में अरूप
दिखाई पड़ता है,
पर रूप भी
दिखाई पड़ता है।
फिर इन तीनों
के पार तुम हो,
वह जो
साक्षी है।
जैसे
कभी अंधेरा
दिखाई पड़ा, फिर
अंधेरा चला
गया। फिर थोड़ी
रोशनी आई, जिससे
अनेक का जगत
फैला, संसार
का फैलाव हुआ,
दुकान खुली,
पसारा फैला,
बहुत कुछ
दिखाई पड़ा।
जन्मों—जन्मों
उसमें यात्रा
की। फिर अनुभव
गहरा हुआ।
सत्य की
प्रतीति हुई,
प्रकाश सघन
हुआ; अनेक
में एक की झलक
आने लगी। वह
भी दिखाई पड़ा।
लेकिन
जिसको ये
तीनों दिखाई
पड़े,
जो इन तीनों
से गुजरा, वह
चौथा है।
इसलिए हम उस
चौथी अवस्था
को गुणातीत
कहते हैं। ये
तीन तो गुण की
अवस्थाएं हैं,
चौथी
गुणातीत है।
इन तीन से
गुजरना है और
चौथे को पाना
है। और जब तक
चौथी न आ जाए, तब तक रुकना
मत। तब तक
कहीं ठहरना
पड़े, तो
ठहर जाना, रातभर
का विश्राम कर
लेना। सराय
समझना।
तमस
को तो समझना
ही सराय, सत्य
को भी सराय ही
समझना। असाधु
को तो छोड़ना
ही है, साधु
को भी छोडना
है। झूठ को तो
छोड़ना ही है, सत्य को भी
छोड़ना है।
क्योंकि
अंततः पकड ही
छोड़नी है। और
एक ऐसी चैतन्य
की अंतिम
अवस्था में आ
जाना है, जहां
न तो पकड़ने
वाला है, न
पकड़ने को कुछ
है। सिर्फ बोध—मात्र
है।
उसको
महावीर ने
कैवल्य कहा, उसको
बुद्ध ने
शून्य कहा, उसको पतंजलि
तुरीय कहते
हैं, उसको
कृष्ण
गुणातीत
अवस्था कहते
हैं।
आज
इतना ही।
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