अध्याय—18
सूत्र—
धृत्या
यया धारयते
मनप्राणेन्द्रियक्रिया:।
योगेनाथ्यमिचारिण्या
धृति: सा
पार्थ सात्विकी।।
33।।
यया
त
धर्क्कामार्थान्धृत्या
धारयतेऽर्जन।
प्रसङ्गेन
फलाकाङ्क्षी
धृति: सा
पार्थ राजसी।।
34।।
यया
स्वप्नं भयं
शोकं विषादं
मदमेव च।
न
विमुज्चति
दुमेंधा धृति:
आ पार्थ तामसी।।
35।।
और है
पार्थ,
ध्यान— योग के
द्वारा जिस
अव्यभिचारिणी
धृति अर्थात
धारणा से
मनुष्य मन,
प्राण और
इंद्रियों की
क्रियाऔं को
धारण करता है, वह धृति तो
सात्विकी है।
और है पृथापुत्र
अर्जुन,
फल की इच्छा
वाला मनुष्य
अति आसक्ति से
जिस धृति के
द्वारा धर्म, अर्थ और
कामों को धारण
करता है,
वह धृति राजसी
है।
तथा हे पार्थ,
दुष्ट बुद्धि
वाला मनुष्य
जिस धृति अर्थात
धारणा के
द्वारा निंद्रा, भय और दुख को
एवं उन्मत्तता
को भी नहीं
छोड़ता है
अर्थात धारण किए
रहता है,
वह धृति तामसी
है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : कल
आपने कहा है
कि संसार के
अनुभवों में
जल्दी मत करना।
लेकिन आप तो
अत्यंत जल्दी
में हैं, फिर
आप मिलेंगे
कहां? मिलेंगे
कैसे?
जल्दी
से ज्यादा देर
कराने वाला और
कोई तत्व नहीं
है। जितनी
जल्दी करोगे, उतनी
देर हो जाएगी।
क्योंकि
जल्दी में कुछ
भी गहरा तो हो
ही नहीं पाता,
सतह पर ही
हो सकता है।
अगर
संसार से
भागने की भी
जल्दी की, तो
गहरे में
संसार से बंधे
रह जाओगे। तब
तुम्हारी
स्वतंत्रता
वैसी ही होगी,
जैसे घोड़े
को खूंटे से
बांध दिया हो,
लेकिन काफी
लंबी रस्सी दे
दी हो। घूमता
रहता है उसी
रस्सी से बंधा।
सोचता है, स्वतंत्र
है। लेकिन
स्वतंत्र
नहीं है।
जल्दी ही
अनुभव में आ
जाएगा कि बंधा
है।
रस्सी
लंबी हो सकती
है। संसार से
बिना अनुभव के
जो भाग गया, उसकी
रस्सी लंबी हो
सकती है। वह
हिमालय में भी
रहे, बाजार
की खूंटी से
ही बंधा रहेगा;
चित्त तो
वहीं घूमेगा।
चित्त
तो वहीं घूमता
है,
जहां अधूरा
अनुभव रह जाता
है। फिर तुम
चित्त के
घूमने से
मुक्त होना
चाहते हो। वह
तुम न कर
पाओगे। अड़चन
चित्त की नहीं
है, अधूरे
अनुभव की है।
अब
एक आदमी मेरे
पास आता है।
वह कहता है, जब
भी ध्यान करने
बैठता हूं
संसार भर की
चीजें याद आती
हैं।
इसका
अर्थ क्या है? इसका
अर्थ है, मन
वहां जाना
चाहता है, जहां
से अतृप्त लौट
आया है।
अतृप्त तो वह
भी लौटेगा, जो पूरा
जानकर लौटा है,
लेकिन तब
अतृप्ति
सुनिश्चित हो
जाएगी। अभी
इसकी अतृप्ति
सुनिश्चित भी
नहीं है। अभी
यह सोचता है, शायद तृप्ति
मिल जाती, शायद
मैं जल्दी आ
गया। मैंने
पूरा खोजा
नहीं, कहीं
कोई खजाना हो
ही। किसी और
उपाय से सफलता
मिल जाती।
सारा संसार
गलत तो नहीं
हो सकता। इतने
लोग घूम रहे
हैं, खोज
रहे हैं—धन, पद, प्रतिष्ठा।
सभी पागल तो
नहीं हो सकते।
इसे अपने पर
संदेह आता है,
क्योंकि
अपना अनुभव
मजबूत नहीं है।
मैं एक
सड़क से गुजर
रहा था एक नगर
में और एक
चर्च के द्वार
पर मैंने एक
तख्ती लगी
देखी। छपी हुई
तख्ती लगी थी।
शायद और
चर्चों के
द्वार पर भी
लगाई गई होगी।
तख्ती पर लिखा
था,
इफ टायर्ड
आफ सिन, कम
इन—अगर पाप से
थक गए तो भीतर
आ जाओ।
तख्ती
बड़ी मौजूं
मालूम पड़ी।
लेकिन तख्ती
के नीचे हाथ
से घसीटे
अक्षरों में
जैसे किसी ने
लाल
लिपिस्टिक से
लिखा था, इफ
नाट, देन
फोन, फोर
सेवन वन वन—अगर
न थके हों, तो
फोन नंबर चार
सात एक एक पर
खबर करें।
किसी वेश्या
का पता था।
बात तो और भी
मौजूं लगी। थक
गए हों पाप से,
तो ही मंदिर
में जाने का
उपाय है। न
थके हों, तो
वेश्यागृह
खोजना ही उचित
है। क्योंकि
जो थककर नहीं
जाएगा, वह
मंदिर में तो
चला जाएगा, लेकिन मन
वेश्यागृह
में छूट जाएगा।
और
असली सवाल मन का
है,
तुम्हारी
देह का नहीं
है। तुम अपनी
देह को तो
पूरा का पूरा
साष्टांग मंदिर
में ले जा
सकते हो, लेकिन
मन को कैसे ले
जाओगे? मन
तुम्हारी
सुनता नहीं।
तुम मंदिर में
होते हो, मन
अपने मंदिरों
में भटकता है।
तो मंदिर में
बीता वह समय
व्यर्थ ही गया,
जब मन वहां
न था।
इसलिए
कहता हूं
जल्दी मत करना।
और मैं रहूं
या न रहूं अगर
तुमने जल्दी न
की,
तो कोई न
कोई तुम्हें
मिल जाएगा।
रूप—रंग बदल
जाते हैं, नाम
बदल जाते हैं,
पर कोई राह
पर तुम्हें
मिल जाएगा, जो आगे का
इशारा कर देगा।
जब
भी तुम तैयार
हो,
इशारा करने
वाला मिल ही
जाता है। वह जीवन
के गणित का
हिस्सा है।
उसमें जरा भी
संशय का कोई
कारण नहीं है।
उससे भिन्न
कभी हुआ ही
नहीं है। जब
शिष्य तैयार
है, गुरु
उपलब्ध हो
जाता है।
ही, अगर
तुमने जिद्द
की मुझसे ही
मिलने की, तो
तुम वंचित रह
जाओगे। अगर
तुम्हें गुरु
चाहिए, तो
गुरु मिल
जाएगा। लेकिन
अगर गुरु का
भी आग्रह है
कि वह इसी रूप—रंग
में मिले, तो
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
तो तुम गुरु
खोज ही नहीं
रहे हो। तुम
कोई मोह, कोई
आसक्ति खोज
रहे हो। तब
तुम्हारा
संसार इतना
बड़ा है कि
उसने गुरु को
भी डुबा लिया
है। तब तुम्हारा
गुरु भी संसार
का ही हिस्सा
है।
अन्यथा
तुम्हें क्या
प्रयोजन है कि
महावीर से राह
मिलती है, कि
बुद्ध से, कि
क्राइस्ट से,
कि मोहम्मद
से! जो भी मिल
जाएगा, तुम
उससे पूछ लोगे।
तुम
स्टेशन की तरफ
भागे जा रहे
हो,
राह पर कोई
आदमी मिल जाता
है। तुम उससे
पहले यह पूछते
हो कि आप
हिंदू हैं या
मुसलमान, क्योंकि
मैं पूछना
चाहता हूं
स्टेशन का
रास्ता कहां
है! कोई भी
नहीं पूछता
हिंदू—मुसलमान
को, तुम
रास्ता पूछ
लेते हो। तुम
यह भी नहीं
पूछते रास्ता
पूछने के बाद
कि तुम हिंदू
थे कि
मुसलमान!
रास्ते से
प्रयोजन है, मंजिल से
प्रयोजन है।
जिसने भी बता
दिया, धन्यवाद
देकर आगे बढ़
जाते हो।
मुझसे
क्या लेना—देना
है?
कोई न कोई
मिल जाएगा, जल्दी मत
करना। और मजे
की बात यह है
कि अगर तुम
जल्दी न करो, तो शायद
मुझसे ही
तुम्हें राह
मिल जाए। अगर
तुम जल्दी करो,
तो मुझसे तो
मिल ही न
पाएगी, आगे
भी वह जो जल्दबाजी
है, वह
तुम्हें
चुकाती चली
जाएगी।
जल्दबाजी
चुकाती है, क्योंकि
जल्दबाजी
उत्तेजना है।
वह एक तने हुए
चित्त का
लक्षण है। वह
एक परेशान, व्यथित—चित्त
की दशा है।
इस
दशा में कहीं
कोई परमात्मा
से मिला है!
किसी ने सत्य
को जाना है!
कोई समाधि को
उपलब्ध हुआ है!
धैर्य, अत्यंत
धैर्य चाहिए।
इतना धैर्य
चाहिए कि जब
भी होगा, हम
राजी हैं। तब
तो अभी भी हो
सकता है।
जल्दी
में ही तो तुम
चूके हो पहले
भी। तुम इतनी
भाग—दौड़ में
हो कि तुम सुन
ही नहीं पाते, क्या
मैं कह रहा
हूं। तुम
पहुंचने को
इतने उत्सुक
हो कि तुम सुन
ही नहीं पाते
कि मैं
तुम्हें कहां
पहुंचाने के
लिए इशारा कर
रहा हूं। तुम
देख ही नहीं
पाते।
तुम्हारी आंखें
जल्दी से भरी
हैं।
तुम्हारे
प्राण जल्दी
से कैप रहे
हैं।
धैर्य
हो,
तो ही बीज
रोपित हो
सकेगा। धैर्य
हो, तो ही
बीज तुम्हारे
हृदय की भूमि
में उतर सकेगा,
अंकुरित हो
सकेगा। बीज को
तुम डालते हो
जमीन पर और
जमीन कंपती रहे
और भूकंप आते
रहें, तो
बीज टिक ही न
पाएगा। वह
अपनी जड़ें
फैला ही न
पाएगा। फेंक—फेंक
दिया जाएगा।
उखड़—उखड़
जाएगा। बार—बार
बाहर आ जाएगा।
तुम
थोड़े भूकंप से
बचो। जल्दी, भूकंप
लाती है। वह
चित्त की बड़ी
ही कंपायमान
दशा है। जल्दी
नहीं। होगा।
और जब भी होगा,
तुम
प्रतीक्षा
करने को राजी
हो। ऐसी अगर
प्रतीक्षा हो,
तो अभी भी
हो सकता है।
यही
जटिलता है, जो
तुम्हारी समझ
में नहीं बैठ
रही है। अगर
तुम अनंत तक
राजी हो
प्रतीक्षा
करने को, तो
इसी क्षण हो
सकता है, क्योंकि
फिर कोई कारण
न रहा देर तक
रुकने का।
जल्दी खो गई, धैर्य बैठ
गया, बीज
रोपित हो गया।
बीज रोपित हो
जाए, रूपांतरित
भी हो जाएगा।
भूलकर
भी जल्दी मत
करना। खोना हो, तो
वही रामबाण
उपाय है। पाना
हो, तो
धैर्य।
दूसरा
प्रश्न : साधक
सदगुरु को खोज
ले,
तो क्या खोज
मिट जाती है?
तभी खोज
शुरू होती है।
उसके पहले तो
खोज के नाम पर
ऐसे ही व्यर्थ
का चलना—फिरना
था। उसके पहले
तो टटोलना था
अंधेरे में। न
कोई मार्ग था, न
कोई दिशा थी, न कोई
दृष्टि थी।
सदगुरु
के मिलते ही
खोज शुरू होती
है। व्यर्थ
दौड़— धूप
समाप्त हो
जाती है। वह
खोज थी ही
नहीं। असली
खोज शुरू होती
है। और असली
खोज शुरू हो
जाए,
तो आधी तो
पूरी ही हो गई।
बहुत थोड़ा ही
बचता है गुरु
के बाद।
गुरु
को जिसने खोज
लिया, उसका
अर्थ है, वह
झुका, मिटा,
अहंकार से
थोड़ा हटा। तभी
तो गुरु को
खोज पाया, नहीं
तो गुरु को
नहीं खोज
पाएगा। और इसी
मार्ग पर तो
गुरु और आगे
ले जाएगा कि
बिलकुल मिट
जाओ, थोड़े
क्या मिटे! जब
मिटे, तो
बिलकुल ही मिट
जाओ। थोड़े से
मिटने से गुरु
मिलता है, पूरे
से परमात्मा
मिल जाता है।
अब तो मार्ग
साफ है। थोड़े
से हटे, गुरु
मिला। बिलकुल
ही हट जाओ बीच
से, परमात्मा
मिल जाता है।
गुरु
तो पहला स्वाद
है,
पहली सुगंध
है। बगीचा
बहुत करीब है।
ठंडी हवाएं
छूने लगीं, सुवासित
हवाएं छूने
लगीं। अब तुम
निश्चित हो
सकते हो। गुरु
को पाकर
आश्वासन मिल
गया कि जो एक
को हो सकता है,
वह तुम्हें
भी हो सकता है।
गुरु
तो एक झरोखा है, एक
वातायन, उससे
तुम झांक लोगे
दूर के
दृश्यों को।
उन्हें पाने
के लिए
तुम्हें
यात्रा करनी
पड़ेगी। लेकिन
उनका होना
सुनिश्चित हो
जाए, तो
यात्रा कठिन
नहीं है।
असली
कठिनाई है
आश्वासन की।
तुम खोजते हो, तब
भी तुम्हें
पक्का नहीं है
कि तुम जिसे
खोज रहे हो, वह है भी।
कैसे खोज होगी
जब तुम्हारे
पैर ही डगमगा
रहे हैं! जब
तुम्हारा
हृदय ही
निश्चित नहीं
है! जब भीतर
श्रद्धा का
उदय ही नहीं
हुआ है! तुम
खोज रहे हो
किसी चीज को, और पक्का ही
नहीं है कि वह
है। तुम कैसे
पूरे प्राणपण
से इस खोज में
उतरोगे? तुम
कैसे अपने
जीवन को दाव पर
लगाओगे?
गुरु
को मिलकर कुछ
और थोड़े ही
मिलता है, भरोसा
मिलता है, आस्था
मिलती है। इस
व्यक्ति को हो
सका, तो
तुम्हें भी हो
सकता है। इसके
माध्यम से एक
झलक मिलती है
दूर के पर्वत शिखरों
की। पहुंचने
में समय लगेगा,
यात्रा
होगी। लेकिन
एक बार दूर का
गौरीशंकर
दिखाई पड़ जाए,
आंखें उस
दृश्य को देख
लें, उस
शीतलता को
थोड़ा—सा पी
लें, उस
सौंदर्य में
थोड़ी डूब जाएं,
तो फिर
मंजिल बड़ी
आसान हो जाती
है। फिर तुम
दौड़कर चलने
लगते हो।
मार्ग साफ है,
दिशा
स्पष्ट है, भीतर आस्था
का उदय हुआ है।
अब देर कितनी
ही लग जाए, लेकिन
मंजिल है। फिर
देर क्या है, पहुंच ही
जाओगे।
गुरु
के बिना बड़ी
कठिनाई जो है
कि तुमने किसी
ऐसे आदमी को
नहीं जाना, जिसे
हो गया हो।
इसलिए संदेह
बना रहता है।
मन में यह बना
ही रहता है, निर्वाण
होता है? समाधि
घटती है? कहीं
लोग झूठ ही तो
नहीं बोलते
रहे? शास्त्रों
में लिखा है, कहीं कपोल—कल्पना
तो नहीं है? कहीं
चालबाजों की
चालबाजी तो
नहीं है? कहीं
धूर्तों की
ईजाद तो नहीं
है? परमात्मा
है?
जीवन
को देखकर
भरोसा नहीं
आता। इतनी
पीड़ा, इतना
दुख, इतना
नर्क। अगर
परमात्मा है,
तो इतना
नर्क क्यों है?
इतना दुख
क्यों है? इतनी
पीड़ा क्यों है?
अगर
परमात्मा है,
तो जीवन एक उत्सव
क्यों नहीं है?
जीवन एक
महारोग जैसा
क्यों है? मृत्यु
क्यों है? हजार—हजार
प्रश्न हैं।
परमात्मा
कोरा शब्द
मालूम पड़ता है।
शायद नासमझों
ने ईजाद कर
लिया या
धूर्तों ने या
शायद भयभीत
लोगों ने, सांत्वना
के लिए, समझाने
के लिए। एक
कल्पना मालूम
पड़ती है। सुखद
हो सकती है, लेकिन
भ्रांत है।
सपना मालूम
होता है। तो
तुम बढ़ोगे
कैसे? सपने
को कोई खोजने
निकलता है?
इंद्रधनुष
कितना सुंदर
मालूम पड़ता है, लेकिन
कोई भी तो
खोजने नहीं
जाता। तुम
जानते हो, वहां
कुछ भी नहीं
है, किरणों
का जाल है।
पानी की
बूंदों से गुजरता
हुआ रंग का
धोखा है। पास।
जाओगे, मिलेगा
नहीं। लोग, जिन्होंने
जाना है, वे
संसार को मृग—मरीचिका
कहते हैं। और
जिन्होंने
नहीं जाना, उन्हें
परमात्मा सब
से बड़ी मृग—मरीचिका
मालूम होता है।
संसार
फिर भी यथार्थ
है। दीवार से
सिर टकराओं, तो
सिर टूटता है;
खून, लहू
बहता है। यह
परमात्मा कहां
है? इसको
कहीं छूने का
उपाय नहीं। और
ज्ञानी कहते
हैं कि इसे
सोचने तक का
उपाय नहीं है,
छूने की तो
बात दूर।
यतो
वाचो
निवर्तन्ते—वहां
से वाणी भी
गिर जाती है, लौट
आती है।
अप्राप्य
मनसा सः —उसे
मन से पाने का
कोई उपाय ही
नहीं है। न
चक्षु: गच्छति—न
आंख वहां तक
जाती। न वाक्
गच्छति—न वाणी
वहां तक जाती।
न मना—मन भी वहां
तक नहीं जाता।
जहां
न वाणी जाती
है,
न आंख जाती
है, न मन
जाता, जहां
से शब्द लौटकर
गिर जाते हैं,
वह है भी? वहां जाने
का फिर उपाय
क्या है? सारी
बात पहेली
जैसी मालूम
पड़ती है; पागलपन
की मालूम पड़ती
है।
सदगुरु
को मिलने से
सिर्फ एक घटना
घटती है, वह यह
कि जो कल तक
बेबूझ मालूम
पड़ता था, उसमें
सूझ—बूझ आ
जाती है।
सदगुरु को
देखकर लगता है
कि वाणी चाहे
वहां तक न
पहुंचती हो, पर चेतना
पहुंच जाती है।
आंखें न
पहुंचती हों,
लेकिन और भी
आंखें हैं
भीतर की, जो
पहुंच जाती
हैं। वाणी न
कह पाती हो, मौन कह देता
है। मन से न
मिलता हो, लेकिन
मिलता है।
सदगुरु
को देखकर पता
चलता है कि
ऐसी भी दशा है चैतन्य
की,
जहां मन
नहीं होता और
तुम पूरे—पूरे
होते हो—अपनी
समग्रता में,
अपनी
संपूर्ण
गरिमा में।
सदगुरु
परमात्मा की
एक झलक है।
झलक,
एक वातायन,
एक छोटा—सा
झरोखा, जिसको
तुम खोल लेते
हो और दूर के
दृश्य, जो कल
तक अपरिचित
अनजाने थे, भरोसे योग्य
न थे, अतर्क्य
थे, वे
तर्क्य हो
जाते हैं।
असंभव थे, संभव
हो जाते हैं।
होने की कोई
आशा न थी, अचानक
सुनिश्चित हो
जाते हैं।
इतना
ही नहीं, संसार
जो यथार्थ
मालूम पड़ता था,
फीका मालूम
पड़ने लगता है।
संसार जो सत्य
मालूम पड़ता था,
स्वप्न हो
जाता है। इस
बड़े यथार्थ की
तुलना में, सापेक्षता
में, संसार
एकदम माया हो
जाता है। फिर
यात्रा बड़ी
आसान है।
पर
यात्रा गुरु
से ही शुरू
होती है। उसके
पहले तो तड़पन
थी,
टटोलना था,
अंधेरे में
भटकना था।
अंधे आदमी की
यात्रा थी।
कुछ पता न था; चल रहे थे।
शायद कोई
धक्का दे रहा
था। धक्के में
बहे जाते थे। आंख
खुलती है, पैर
थमते हैं, होश
आता है, आस्था
दृढ़ होती है।
तब यात्रा का
रंग—रूप बदल
जाता है, गुणधर्म
बदल जाता है।
इसलिए
ज्ञानी
निरंतर कहे
जाते हैं कि
गुरु के बिना
बहुत कठिन है; करीब—करीब
असंभव है।
जिसने स्वाद
ही न जाना हो, वह खोज पर
पूरा जीवन दाव
पर कैसे
लगाएगा? जिसे
एक भी अनुभव न
हुआ हो, जिसके
स्वप्न में भी
छाया न पड़ी हो
परमात्मा की,
वह कैसे
अचानक जुआरी
हो जाएगा और
सब दाव पर
लगाकर निकल
जाएगा? असंभव
है।
गुरु
पर यात्रा
समाप्त नहीं
होती, शुरू
होती है।
लेकिन करीब—करीब
पूरी भी हो
जाती है। फिर
बस, दों—चार
कदम ही चलने
की बात है। वह
तुम पर निर्भर
है। लेकिन फिर
तुम न भी चलो, तो भी तुम
जानते हो कि
जब चाहो, चल
सकते हो। फिर
तुम न भी चलो, तब भी तुम
जानते हो कि
बस, यह रहा
किनारे पर।
जरा हाथ
फैलाना है और
पा लेंगे।
फिर
तुम लाख उपाय
करो,
जो तुमने
गुरु की आंखों
से झांककर देख
लिया है, उसकी
स्मृति
तुम्हें घेरे
रहती है। उसकी
स्मृति
तुम्हें
कचोटती रहती
है। एक मीठा
दर्द तुम्हारे
हृदय में भर
जाता है। तीर
लग गया, वह
चुभता रहता है।
वह तुम्हें
चैन से न
बैठने देगा।
वह तुम्हें
मंजिल तक
पहुंचाकर
रहेगा।
सत्य
का स्वाद हो, तो
सत्य की पीड़ा
पैदा होती है।
पीड़ा हो, तो
फिर यात्रा से
बचा नहीं जा
सकता।
तीसरा
प्रश्न : कल
आपने कहा, हम
कहां हैं, सत्व, तमस या रजस
में, यह
हमें ही खोजना
होगा। और यह
कि साधक के
लिए यह जरूरी
है। पर मुझे
तो कुछ पता
नहीं चलता कि
मैं कहां हूं!
अगर पता
न चले कहां हो, समझना
तमस में हो।
अगर धुंधला—
धुंधला पता
चले, कुछ—कुछ
पता चले, कुछ—कुछ
न चले, समझना
रजस में हो।
अगर साफ—साफ
पता चले, समझना
कि सत्व में
हो।
घबड़ाने
की कोई जरूरत
नहीं। सौ में
निन्यानबे
लोग तमस में
हैं। यह
स्वाभाविक है।
तमस में हम
पैदा हुए हैं, अंधकार
में। तमस में
हम बड़े हुए
हैं। अंधकार
हमारी स्थिति
है। वह हमारी
नियति नहीं है,
वह हमारी
स्थिति है। वह
हमारी मंजिल नहीं
है, लेकिन
हमारा आज का
होने का क्षण
उसी में है।
बड़ी अमावस की
रात है।
लेकिन
इससे कुछ न तो
हताश हो जाने
की जरूरत है, क्योंकि
जितनी अंधेरी
रात हो, उतनी
ही सुंदर सुबह
होती है। रात
को रात की तरह
जानने से ही
तुम तमस के
बाहर उठने
शुरू हो जाते
हो। अगर पता न
चलता हो कहा
हो, तो
समझना कि तमस
में हो, क्योंकि
अंधेरे में ही
पता नहीं चलता
कि कहां हैं।
घबड़ाना
मत इससे कि
तमस में हैं, अब
क्या होगा! यह
जान लिया कि
तमस में हैं, तो तुम तमस
के पार उठने
ही लगे। जान
लिया कि नींद
में हैं, नींद
टूटने ही लगी।
जान लिया कि
पागल हूं पागलपन
हटने ही लगा।
जानना
बड़ी भारी क्रांति
है।
कृष्णमूर्ति
निरंतर कहते
हैं,
ज्ञान
एकमात्र क्रांति
है। है भी।
क्योंकि जिस
चीज को भी तुम
जान लो, उसी
में क्रांतिकारी
परिवर्तन हो
जाते हैं।
जिस
व्यक्ति ने
जान लिया, मैं
आलसी हूं,
आलस्य टूटने
लगा। क्योंकि
यह जानना भी
आलसी को संभव
नहीं है। आलसी
कभी अपने को
आलसी नहीं
मानता। तामसी
कभी अपने को
तामसी नहीं
मानता। तुम
कहो, तो
लड़ने को खड़ा
हो जाएगा। और
सौ में
निन्यानबे
लोग तामसी हैं।
यह
स्वाभाविक है।
तामसी न होते, तो
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाते। अंधेरे
में हैं। अभी
रोशनी नहीं
हुई। अभी भीतर
का दीया नहीं
जला।
अगर
तुम्हें समझ
में आने लगे
कि तुम तामसी
हो,
तो दूसरी
दशा पैदा होगी
जो राजस की है।
कुछ—कुछ समझ
में आएगा, कुछ
— कुछ समझ में
नहीं आएगा।
कभी ऊपर उठ
आओगे, कभी
डुबकी मार
जाओगे, कभी
अंधेरे में दब
जाओगे, कभी
घडीभर को ऊपर
आ जाओगे।
किसी
को नदी में ड़बते
देखा है? बाहर
निकलता, भीतर
जाता, बाहर
निकलता। वैसी
दशा होगी। जब
बाहर आओगे, तब कुछ—कुछ
साफ मालूम
होगा। जब ड़बोगे,
तब सब
सीमाएं खो
जाएंगी।
लेकिन
ठीक से अपनी
स्थिति को समझ
लेना बहुत जरूरी
है,
क्योंकि वहीं
से काम होगा
शुरू। तुम हो
तमस में और
समझो कि सत्य
में हो, तो
तब तुम कभी
काम न कर
सकोगे। तुम थे
बीमार और समझा
कि स्वस्थ हो,
तो इलाज
कैसे होगा!
तुम चिकित्सक
के पास ही न जाओगे।
इसलिए
तो बहुत लोग
गुरु की खोज
नहीं करते।
जरूरत नहीं है।
वे मानते हैं
कि उन्हें शान
है ही। वे
मानकर ही चलते
हैं कि अब और
कुछ जानने को
शेष नहीं है।
जानने योग्य
सब उन्होंने
जान लिया है।
किससे पूछना? किसके
पास जाना? किसलिए
जाना? जब
तुम किसी की
खोज में जाते
हो, तो
स्वभावत: भीतर
एक स्थिति आ
गई है, जब
तुम्हें लगता
है कि तुम
नहीं जानते हो।
तमस
की स्थिति है।
उसके प्रति
होश से भर जाओ, उसे
छिपाओ मत।
छिपाने से कोई
बीमारी कभी
मिटती नहीं, बढ़ती है।
घाव को दबाओ
मत, उघाड़ो,
खुली रोशनी
में रखो, हवाओं
को छूने दो, घाव भरता है।
सूरज को खेलने
दो घाव के ऊपर,
घाव भरता है।
उसे ढांको मत,
छिपाओ मत, अन्यथा और
सडेगा। जो
छोटा—मोटा घाव
था, वह
नासूर हो
जाएगा। जो
नासूर था, वह
कभी कैंसर हो
जाएगा। छिपाओ
मत। बीमारी
छिपाने से
मिटती नहीं।
लेकिन
हम सब बीमारी
को छिपाते हैं
और झूठे स्वास्थ्य
को प्रकट करते
हैं। तो
बीमारी बढ़ती
जाती है और
तुम भीतर सड़ते
जाते हो। जीवन
एक लंबी सड़ाध
हो जाती है।
उघाड़ो; अपने
को वैसा ही
जानो, जैसे
हो। यह सत्य
का पहला कदम
हुआ। पहले
धुंधलका
रहेगा, कुछ
जागे, कुछ
सोए। चेष्टा
जारी रहेगी, धुंधलका भी
मिट जाएगा।
जागे ही जागे;
तब सत्य का
जन्म होगा।
चौथा
प्रश्न : क्या
आप तामसी
लोगों को भी
अपने संन्यास
में दीक्षित
करते हैं?
यह पूछा
है मुक्ति ने।
अगर न करते
होते, तो
मुक्ति का
क्या होता!
तामसी
ने कोई कसूर
नहीं किया है, न
कोई उसने
अपराध किया है।
तामसी का तो
कुल इतना ही
अर्थ है कि
अभी जीवन की
संपदा अंधेरे
में छिपी पड़ी
है। उसे
उघाड़ना है। तो
मेरा उपयोग ही
इसलिए है। सात्विक
तो मेरे बिना
भी खोज ले
सकता है, तामसी
कैसे खोजेगा?
मैंने
सुना है कि
चीन में एक
बहुत बड़ा
सदगुरु हुआ, हुवांग—पो।
उसके पांच सौ
शिष्य थे। बड़ा
आश्रम था।
पांच सौ
भिक्षु उसके
पास रहते थे।
लेकिन एक
भिक्षु बहुत
उपद्रवी था।
चोर भी था, और
भी अनेक तरह
की नशे की आदतें
थीं। किसी तरह
योग्य न था
भिक्षु होने
के। कई बार
पकड़ा भी गया, रंगे हाथों
भी पकड़ा गया।
सारा आश्रम
परेशान था। कि
वह चोरी भी
करता, नशा
भी करता। कभी
शराब पीए हुए
चला आता है।
बदनामी फैलती
पूरे इलाके
में कि यह किस
तरह का
संन्यासी है!
शराबघरों में
पाया गया है, जुआघरों में
बैठा मिला है
और भिक्षु है!
गुरु
के पास बहुत
शिकायतें आती
रहीं। हुवांग—पो
सुनता और बात
टाल देता।
लेकिन एक दिन
तो हद हो गई।
वह शराब पीकर
बाजार में
किसी से लड़ा, मार—पीट
की, किसी
का सिर फोड़
दिया। वहां से
लोग उसे पकड़े
हुए लाए, लहूलुहान,
और नशे में
धुत और
गालियां बकता
हुआ। उस दिन
तो बाकी
शिष्यों ने
कहा, आज
कुछ निर्णय हो
ही जाना चाहिए।
अब यह आदमी एक
क्षण भी भीतर
नहीं रखा जा
सकता।
उन
चार सौ
निन्यानबे
शिष्यों ने
गुरु से एक स्वर
से प्रार्थना
की कि अब हम सब
एक स्वर से
प्रार्थना
करते हैं, इसे
यहां नहीं रखा
जा सकता। गुरु
ने कहा, तुम
सब अच्छे लोग
हो, तुम
कहीं और भी
चले जाओगे, तो शायद वहां
से भी तुम
सत्य को खोज
लोगे, लेकिन
इसका क्या
होगा? तो
तुम जा सकते
हो, इसे
छोड़ दो। इसको
तो मेरी बहुत
जरूरत है। तुम
मेरे बिना भी
खोज लोगे, यह
मेरे बिना न
खोज पाएगा।
इसे छोड़ना तो
ऐसे होगा, जैसे
कि चिकित्सक
बीमार को छोड़
दे और स्वस्थ
का इलाज करे।
तुम भले—चंगे
हो; तुम जा
सकते हो।
मेरे
पास तो सब तरह
के लोग आएंगे।
अगर मैं उनके
लिए हूं जो
स्वस्थ हैं, तो
मेरे होने का
कोई अर्थ ही
नहीं है। मैं
उनके लिए भी
हूं जो
अस्वस्थ हैं।
वस्तुत: तो उन्हीं
के लिए हूं।
मेरे
पास रोज ऐसे
मामले आते हैं।
कोई आकर कहता
है,
फलां संन्यासी
ऐसा काम करता
पाया गया। आप
कुछ कहते
क्यों नहीं
हैं? आप
प्रोत्साहन
देते हैं। आप
चुप हैं।
वह
जो करता हुआ
पाया गया है, वह
तो स्थिति है,
वह कोई
नियति नहीं है।
उस स्थिति को
बदलना है। और
वह अकेला नहीं
बदल सकता, इसलिए
तो मेरे पास
आया है, नहीं
तो खुद ही बदल
लेता। वह अपने
पैर से नहीं
चल सका, इसलिए
तो मेरे सहारे
आया है। अब
मैं सहारा
खींच लूं?
और
दुनिया में
बुराई बढ़ती है, क्योंकि
भले लोग बुरे
आदमियों के
हाथ से सहारा
छीन लेते हैं;
उनको बुरा
होने के लिए छोड़
देते हैं। जो
उनकी स्थिति
है, उसको
उनकी नियति
मान लेते हैं।
जब
भी मैं देखता
हूं कि कोई
आदमी कुछ बुरा
कर रहा है, तो
मेरी इच्छा यह
नहीं होती कि
उससे कहूं कि
तू बुरा मत कर।
क्योंकि यह तो
बहुत बार उससे
कहा गया है।
अगर यही सुनकर
वह ठीक हो
सकता, तो
ठीक हो गया
होता। यह कहना
तो व्यर्थ की
पुनरुक्ति
होगी। यह तो
मूढ़ता होगी।
यह तो कितने
लोगों ने उससे
नहीं कहा है
कि बुरा मत कर।
मैं
उससे बुरे की
बात ही नहीं
करता। मैं
उससे कुछ और
करने को कहता
हूं। निषेध पर
मेरा जोर नहीं
है। मैं उससे
कहता हूं
ध्यान कर, प्रार्थना
कर, पूजा
कर। मैं उसे
कुछ करने में
लगाना चाहता
हूं। न करने
की बात नहीं
करता। जैसे—जैसे
ध्यान गहरा
होगा, कुछ
चीजें छूटनी
शुरू हो जाती
हैं।
आदमी
शराब पीता है, ध्यान
गहरा होगा, छूट जाएगी।
क्योंकि मेरा
अनुभव यही है
कि वह शराब भी
इसीलिए पीता
है कि एक तरह
की ध्यान की आकांक्षा
है। कोई और
अमृतरूपी
ध्यान उसे पता
नहीं है। शराब
सस्ती है, बाजार
में मिल जाती
है। वह शराब
पीकर अपने को
भुलाने की
कोशिश में लगा
है।
भुलाने
की कोशिश वहां
है। अगर उसे
ध्यान की कोई
विधि मिल जाए, जिसमें
वह सरलता से
अपने को डुबा
दे, तो
शराब छूट
जाएगी। उसका
प्रयोजन ही न
रहा। धीरे—
धीरे तो वह
पाएगा कि
ध्यान में वह
इतना ड़ब जाता
है कि दुनिया
की कोई शराब
नहीं डुबा सकती।
तब दुनिया की
सब शराबें छूट
जाएंगी।
कोई
व्यक्ति धन के
पीछे पागल है, तो
उसे रोकने का
क्या प्रयोजन
है? धन में
ही उसने कुछ
चीज देखी है, कोई शाश्वत
की थोडी—सी
झलक देखी है।
बाकी सब चीजें
तो बदल जाती
हैं; इस
संसार में धन
थोड़ा—सा स्थिर
मालूम पड़ता है।
प्रेम का
भरोसा नहीं है,
आज करे
व्यक्ति, कल
न करे।
प्रियजनों का
भरोसा नहीं है, आज जिंदा
हैं, कल मर
जाएं। आज मुंह
है अपनी तरफ, कल पीठ कर
लें। धन साथी
मालूम पड़ता है।
यह
आदमी किसी
साथी की तलाश
में है। बाकी
कोई भी साथी
भरोसे योग्य
नहीं मिलता।
तो इसने धन से
साथ जोड़ लिया
है। इसको तुम
कंजूस कहते हो, कृपण
कहते हो।
लेकिन
गालियों से यह
नहीं बदलने
वाला। इसकी
खोज भी बहुत
गहरे में संग—साथ
की चल रही है।
कोई ऐसा साथी
चाहता है जो
कभी न छूटे।
यह परमात्मा
की खोज करना
चाहता है।
परमात्मा की
छोटी—सी झलक, गलत ही सही, इसे धन में
दिखाई पड़ी है।
इसलिए तो
ज्ञानियों ने
परमात्मा को
परम धन कहा है।
कोई
आदमी किसी
स्त्री के
पीछे दीवाना
है,
या कोई किसी
पुरुष के पीछे
दीवानी है। उस
पुरुष में कुछ
परमात्मा की
छाया दिखाई
पड़ी है। इसलिए
तो पत्नियों
ने पति को
परमात्मा कहा
है। किसी
स्त्री में
किसी पुरुष को
सौंदर्य के द्वार
खुलते हुए
दिखाई मालूम
पड़े हैं। चाहे
वे सदा खुले न
रहें, चाहे
जल्दी ही बंद
हो जाएं, चाहे
वे द्वार
वस्तुत: वहां
न हों, काल्पनिक
हों, लेकिन
कुछ दिखाई पड़ा
है, कुछ
अलौकिक, कोई
ज्योति किसी
और लोक की।
उसी के पीछे
आदमी पागल है।
उसको रोकना
क्या है? जिसके
पीछे वह पागल
है, उसकी
और बड़ी झलक
देना जरूरी है।
रुक जाएगा।
अगर
परमात्मा की
सीधी झलक मिले, तो
कौन उसे
माध्यम से
खोजना चाहता
है! कौन फिक्र
करता है फिर
कि हम किसी
पुरुष में या
किसी स्त्री में
उसके सौंदर्य
को देखें! अगर
उसका सौंदर्य सीधा
दिख जाए, सामने
आ जाए, आंख
पर आ जाए, तो
फिर कौन
मध्यस्थ को
लेना पसंद
करेगा! क्योंकि
मध्यस्थ में
तो विकृति हो
ही जाती है।
मैं
तुमसे कहता हूं,
तुम कैसे हो, इसकी मैं
चिंता नहीं
करता, क्योंकि
तुम जैसे हो, वह तुम्हारी
स्थिति है
तुम्हारा
स्वभाव नहीं।
मैं तुम्हारे
स्वभाव को
देखता हूं।
तुम्हारा
स्वभाव परम है।
तुम्हारा
स्वभाव
परमात्मा का
स्वभाव है। उस
पर कितनी ही
राख की पर्तें
जमी हों, मैं
तुम्हारे
भीतर के अंगार
को देखता हूं।
तुम्हारी राख
की पर्तों को
झाड़ देंगे।
राख की पर्तें
हैं, कुछ
बहुत झाड़ने
में समय भी
नहीं लगता।
राख ही है, जरा—सा
हवा का झोंका
भी झाड़ देगा;
भीतर का
अंगार साफ हो
जाएगा।
मैं
तुम्हें राख
में बहुत
उत्सुक होने
को भी नहीं
कहता कि तुम
इसे झाड़ने की
पहले फिक्र
करो। मैं तो
कहता हूं
तुम्हें भीतर
के अंगारे का
स्मरण आ जाए।
राख रही तो, न
रही तो, झड़
गई। रही तो भी अंतर
नहीं पड़ता जिसको
भीतर के अंगार
का अनुभव होने
लगा, वह
क्या फिक्र
करता है कि बाहर
थोड़ी राख जमी
है; जमी
रहे।
अंगार
की प्रतीति हो
जानी चाहिए।
भीतर के प्रभु
का अनुभव हो
जाना चाहिए।
फिर तुम क्या
करते हो, क्या
नहीं करते हो,
वह तुम जानो।
इस भेद को ठीक
से समझ लो।
मैं
कोई नैतिक
शिक्षक नहीं
हूं। तुम अगर
तमस में हो, तो
मेरे मन में
तुम्हारे प्रति
कोई निंदा
नहीं है, न
कोई अस्वीकार
है। ठीक है।
खूब हो, भले
हो। कुछ हर्जा
नहीं है। हर्ज
तो तब होगा, जब तुम
जिद्द करो इस
तमस में रहने
की।
तुम
मेरे पास आए
हो,
वही बताता
है कि तुम
जिद्द तोड़ना
चाहते हो।
मेरे पास तुम
आए हो, वह
बताता है कि
तुम तमस के
पार उठना चाहते
हो। बस, काफी
है। तुम्हारे
लिए प्रमाण
काफी है कि
तुम खोज कर रहे
हो कि कोई
उपाय मिल जाए।
एक
शराबी ने चार
दिन पहले मुझे
कहा कि छूटती
नहीं। मैंने
कहा,
तू फिक्र ही
छोड़ दे। छोड़ना
भी क्या है? शराब ही
पीता है; किसी
का खून तो
नहीं पी रहा!
वह थोड़ा चौंका।
उसने कहा, लेकिन
शराब बड़ी बुरी
चीज है। मैंने
कहा, रहने
दे बुरी है।
बुरी पर
ज्यादा ध्यान
मत दे।
क्योंकि जीवन
के बड़े जटिल
नियम हैं।
अगर
तुम बुरे को
छोड़ने पर
ज्यादा ध्यान
दो,
तो तुम बुरे
से ही आविष्ट
होते जाओगे।
जिस चीज पर
ध्यान दो, उसी
से सम्मोहन हो
जाता है। आंख
लगाकर देखते
रहो किसी चीज
को, तुम
उसके प्रभाव
में पड़ जाते
हो।
तू
छोड़ दे फिक्र।
शराब की फिक्र
मत कर, ध्यान
की फिक्र कर।
तेरी जीवन—ऊर्जा
ध्यान की तरफ
जाने लगे, किसी
दिन अपने आप
तू पाएगा, शराब
गई। पता भी
नहीं चलेगा, कैसे छूटी।
पता चले, तो
मजा नहीं रहा।
छोड़ना पड़े, तो बात ही
क्या हुई। छोड़—छोड़कर
छोड़ी, तो
क्या खाक छोड़ी।
छोड़ी ही नहीं।
छोड़—छोड़कर
छोड़ी, तो
रेखा छूट
जाएगी, घाव
बन जाएगा।
घाव
बन जाए सदा के
लिए,
वह उचित
नहीं है। फिर
कभी गिरने का
डर रहेगा।
छूटनी चाहिए,
छोड़नी नहीं
चाहिए। कुछ
विराट मिले, कुछ बड़ा
मिले, तो
छूट जाए। छूट
जाती है।
इस
संसार में कुछ
भी नहीं है, जो
तुम्हें
परमात्मा के
पास जाने से
रोक सके। ही, तुम ही
रुकना चाहो, तो बात अलग।
लेकिन
जब तुम मेरे
पास आए हो, तो
उसका अर्थ है
कि तुम जाना
चाहते हो, बात
पूरी हो गई।
तुम तामसी हो,
कि राजसी, कि सात्विक,
कुछ अंतर
नहीं पड़ता।
तुम जहां हो, मैं वहीं से
काम शुरू करता
हूं। मेरे
द्वार सबके
लिए खुले हैं।
पांचवां
प्रश्न : रात
अच्छी नींद
लेने के बाद भी
प्रात: कई बार
आपके प्रवचन
में ध्यान खो—खो
जाता है। इससे
बचने को क्या
किया जाए?
कुछ भी
मत करो। खो
जाए,
खो जाने दो।
इतना ही ध्यान
रखो कि खो गया।
गैर—ध्यान की
अवस्था को भी
ध्यान ?एए
बनाओ। और
निषेध को मत
देखो, विधेय
को देखो। तुम
पूछते हो, अच्छी
नींद लेने के
बाद भी प्रात:
कई बार प्रवचन
में ध्यान खो—खो
जाता है.।
कई
बार खो जाता
है,
कई बार नहीं
भी खोता। नहीं
खोता, उस
पर ध्यान दो।
जितनी बार
नहीं खोता, उतनी बार
परमात्मा को
धन्यवाद दो।
जितना सधता है,
उतनी ही
अनुकंपा है।
उतना भी क्या
कम है।
अगर
मैं डेढ़ घंटा
बोलता हूं और
डेढ़ घंटे में
अगर पांच मिनट
को भी ध्यान
लग जाए मेरी
बात पर, तो हो
गया। पचासी
मिनट जाने दो।
कोई चिंता न
करो। पांच
मिनट भी, क्षण—
क्षण करके भी
पांच मिनट जुड़
जाएं, तो
काफी है। उसके
लिए भी
धन्यवाद दो।
क्योंकि
उसमें भी नींद
आ सकती थी, नहीं
आई; प्रभु
की कृपा है, अनुकंपा है।
और
जो हो रहा है, उसको
अगर तुम
अनुग्रह
मानोगे, तो
तुम पाओगे, वह बढ़ने लगा।
तुमने उसे
भोजन दिया।
तुमने उसे
प्रोत्साहन
दिया। धीरे—
धीरे क्षण
बढ़ते जाएंगे।
अभी
क्या करते हो, तुम्हारी
पूरी जीवन—दिशा
निषेधात्मक
है। जो नहीं
होता, उस
पर नजर लगाते
हो, कि कई
बार झपकी लग
गई, ध्यान
खो गया, ध्यान
नहीं रहा। अब
इसके लिए दुखी
हुए। इसके
दुखी होने में
बाकी जो क्षण
थे, वे भी
व्यस्त हो जाएंगे,
नष्ट हो
जाएंगे। इसके
लिए परेशान
हुए, इसके
लिए शिकायत
उठने लगी मन
में, चेष्टा
उठने लगी, विचार
चलने लगा; जल्दी
ही तुम पाओगे,
जो कुछ देर
ध्यान लगता था,
वह भी अब
नहीं लगता। तब
तुम और चिंतित
हो जाओगे। बस,
धीरे— धीरे
चिंता ही
चिंता फैल
जाएगी।
चौबीस
घंटे में अगर
एक क्षण को भी
आनंद आ जाता
हो,
तो उस क्षण
के लिए
धन्यवाद दो और
बाकी चौबीस
घंटों के लिए
शिकायत मत करो।
और तुम पाओगे
एक दिन, सारे
चौबीस घंटे
उसी एक क्षण
में समा गए।
वही एक क्षण
सब पर फैल गया।
वही स्वाद
पूरे समय का
हो गया।
अगर
तुमने चौबीस
घंटे के लिए
शिकायत की और
एक क्षण के
लिए धन्यवाद न
दिया, वह क्षण
बहुत छोटा है,
बड़ा कोमल है;
वह दब जाएगा।
ये चौबीस घंटे
के पत्थर—पहाड़
काफी हैं। तुम
उसके प्राण ले
लोगे। वह
अंकुर मर
जाएगा।
इसे
तुम पूरे जीवन
की शैली बना
लो,
जो मिले, उसके लिए धन्यवाद;
जो न मिले, उसके लिए
शिकायत नहीं।
तब तुम पाओगे,
धीरे— धीरे
एक घड़ी आती है,
शिकायत
करने को कुछ
बचता ही नहीं।
ये
जीवन को देखने
के दो ढंग हैं, निषेधात्मक,
विधेयात्मक।
संसार निषेध
से चलता है, परमात्मा
विधेय से।
संसार में
सारी शिक्षा
इसी बात की है
कि जो तुम्हारे
पास नहीं है, उस पर ध्यान
रखो। एक आदमी
के पास दस
रुपये हैं।
उनसे वह
आनंदित नहीं
है। नब्बे
रुपये नहीं
हैं, सौ
होते, वह
नब्बे के लिए
दुखी है। तो
वह दौड़ेगा।
कोशिश करेगा,
किसी तरह
नब्बे कमाएगा,
सौ करेगा।
जैसे ही सौ हो
जाएंगे, वह
नौ सौ के लिए
दुखी हो जाएगा,
क्योंकि
हजार चाहिए।
तब वह सौ को
नहीं देखेगा।
हजार भी हो
जाएंगे, तो
वह लाख के लिए
दुखी होने
लगेगा, जो
उसके पास नहीं
हैं। संसार का
पूरा गणित यह
है कि जो
तुम्हारे पास नहीं
है, उसे
देखो। एक छोटे
बच्चे ने अपने
स्कूल में
जाकर अपनी शिक्षिका
को कहा कि एक
सवाल है। क्या
ऐसे काम के
लिए भी किसी
व्यक्ति को
दंडित किया जा
सकता है, जो
उसने किया ही
न हो? शिक्षिका
ने कहा, कभी
नहीं।
क्योंकि वह
धर्म की कक्षा
थी और
शिक्षिका धर्म
पढ़ा रही थी।
उसने कहा, परमात्मा
के जगत में
ऐसा कभी भी
नहीं होता। जो
किया ही नहीं
तुमने, उसके
लिए तुम्हें
क्यों दंडित
किया जाएगा!
तो उस लड़के ने
कहा, आज
मैं होम—वर्क
करके नहीं
लाया हूं। जो
किया ही नहीं
है।
लेकिन
अगर तुम गौर
से देखो, तो
तुम अपने जीवन
में पाओगे कि
जो तुमने नहीं
किया है, उसके
लिए तुम स्वयं
अपने को दंडित
कर रहे हो। जो
तुमने नहीं
पाया है, उसके
लिए पीड़ित हो
रहे हो। जो
नहीं हुआ है, वह तुम्हारे
प्राण पर फासी
का फंदा बना
है। जो हुआ है,
उससे तुम
प्रसन्न नहीं
हो। जो पाया
है, उससे
तुम नाचे नहीं।
जो बरसा तुम
पर, उसके
लिए तुमने कभी
कोई अहोभाव प्रकट
नहीं किया।
इसे
बदली। यह
संसार का गणित
संसार में तो ठीक
है,
क्योंकि
वहां सिवाय
दुख के और कुछ
मिलना नहीं है।
यह दुख का ही
सार है, यह
दुख का ही
आधार है।
लेकिन जहां
तुम महाआंनद
की खोज में
चले हो, वहां
विधेय पर
दृष्टि दो।
एक
कांटा गड़ जाए, तो
चिल्लाओ मत, चीखो मत।
हजारों फूल
मिले हैं
तुम्हें जीवन
में। उन
हजारों फूल का
स्मरण करो, इस काटे की
चुभन अपने आप
कम हो जाएगी।
और तुम धीरे—
धीरे पाओगे कि
उन हजारों
फूलों की
याददाश्त तुम्हें
ऐसी दशा में
ले आती है कि
काटा चुभ भी जाए,
तो पता नहीं
चलता। कहा पता
चलेगा हजारों
फूलों में एक
काटा! फिर धीरे—
धीरे कांटा
चुभता भी नहीं।
कांटा
थोड़े ही चुभता
है,
तुम्हारी
गलत दृष्टि
चुभती है। और
तब तुम पाओगे,
जो
तुम्हारे पास
है, वह
बहुत है, तुम्हारी
पात्रता से
ज्यादा है।
तुमने उसे
कमाया भी नहीं
है; वह
प्रसाद—रूप
बरसा है। कोई
फिक्र नहीं है।
अगर मुझे
सुनते—सुनते
कभी झपकी लग
जाए, तो वह
झपकी भी उसी परमात्मा
की है। ले लो, लड़ो मत।
जल्दी ही वह
खो जाएगी। लड़े,
कि बढ़ जाएगी।
ले लो, ठीक
है। यही शुभ
होगा
तुम्हारे लिए
अभी। जितना
जरूरी होगा, उतना ही सुन
पा रहे हो।
जितना जरूरी
नहीं है, वह
नहीं सुन पा
रहे हो। छोड़
दो इसे भी।
ऐसे ही धीरे—
धीरे अहंकार
को छोड़ने के
पाठ सीखोगे।
कोई चिंता न
लो। जितना सुन
लिया, उसको
ही जीवन में
लाने की फिक्र
करो, उतने
से ही काफी
मिल जाएगा।
मैंने तुमसे
जो कहा है, अगर
उसमें से एक
शब्द भी तुम
ठीक से समझ गए,
तो काफी है।
सब समझना
जरूरी भी नहीं
है। सब तो मैं
इसलिए कहे
जाता हूं कि
तुम एक शब्द भी
नहीं समझ पाते
हो। इसलिए कहे
जाता हूं कि
शायद कभी किसी
भाव—दशा में
एक शब्द
तुम्हारे
द्वार पर
कुंजी बन जाएगा
और ताला खुल
जाएगा।
लेकिन
सभी कुंजियों
की कोई जरूरत
नहीं है। एक
कुंजी
पर्याप्त है।
बस,
हीरा मिल
जाए, जल्दी
से गांठ बांधी,
गठियाया।
थोड़ी झपकी ली,
कोई हर्जा
नहीं। धीरे—
धीरे झपकी मिट
जाएगी। जैसे—जैसे
संपदा बढ़ने
लगेगी, वैसे—वैसे
नींद घटने
लगेगी।
लोग
उलटी बातें
पकड़ लिए हैं।
लोग समझते हैं
कि अगर तुम कम
सोओगे, तो
तुम योगी हो
जाओगे।
तुम
पागल हो जाओगे।
योगी कम सोता
है,
यह बात सच
है। मगर कम
सोने से कोई
योगी नहीं
होता।
विक्षिप्त हो
जाओगे।
पागलखाने में
भरती करना
पडेगा।
हां, योग
से आदमी कम
सोने लगता है।
जैसे—जैसे जाग
बढ़ने लगती है,
जरूरत कम
होने लगती है
नींद की। जैसे—जैसे
तुम आनंदित
होओगे, वैसे
—वैसे झपकी कम
आने लगेगी।
क्योंकि झपकी
एक तरह की
उदासी है, एक
तरह की तमस
अवस्था है, बोझ है। तुम
हलके नहीं हो,
तुम पथरीले
हो। ऐसा नहीं
है कि
तुम्हारे पंख
लगे हों, तुम
आकाश में उड़
जाओ। तुम बड़े
वजनी हो।
इसलिए झपकी लग—लग
जाती है। लग
जाने दो, कोई
अड़चन नहीं है।
उसे भी आनंद—
भाव से ले लो।
उसे भी
स्वीकार कर लो।
अस्वीकार
करना छोडो।
क्योंकि
अस्वीकार
करने से
अहंकार बढ़ता
है, स्वीकार
करने से टूटता
है।
छठवां
प्रश्न :
सांख्य ने
प्रकृति का गुण
विभाजन किया।
इसे आपने बहुत
वैज्ञानिक
बताया और यह
भी कि यह
ज्ञान तक पर
लागू है। केवल
परमात्मा
गुणातीत है।
तो क्या समझा
जाए कि ज्ञान
भी प्रकृति या
पदार्थ का ही
सूक्ष्म रूप
है?
निश्चित
ही। होना, परमात्म—
भाव है। जानना,
प्रकृति का
विकार है।
होना, जानने
के बिना हो
सकता है।
जानना, होने
के बिना नहीं
हो सकता। तुम
हो सकते हो
बिना जाने, इसलिए होना
तो मूल आधार
है। लेकिन
जानना तो होने
के बिना नहीं
हो सकता, इसलिए
जानने को गौण
रखो। जानना
दोयम है।
द्वितीय है, मूल केंद्र
नहीं है। छोड़ा
जा सकता है, उसके बिना
हुआ जा सकता
है। जानना
प्रकृति के
माध्यम से है।
इसलिए
तो जानने के
लिए संसार में
भेजना पड़ता है, आना
पड़ता है। बिना
प्रकृति के
संयोग के जानना
न होगा। और जब
कोई जान लेगा
पूरा, तब
फिर प्रकृति
में नहीं
लौटता। अब कोई
जरूरत न रही।
अब होने में
लीन हो गया।
उस होने को ही
हम परमात्म—
भाव, ब्रह्म—
भाव, निर्वाण
कहते हैं।
फिर
तुम्हारा
जानना भी
तुम्हारे
गुणों पर निर्भर
होता है। अगर
तुम्हारी
प्रकृति
तामसी है, तो
तुम्हारा
जानना भी
तामसी होगा।
तुम जो जानने
की उत्सुकता
रखोगे, वह
भी तमस से
पैदा होगी।
अब
ऐसे लोग हैं
कि अगर तुम
उनकी
जिज्ञासा
पूछो, तो
हैरान होओगे।
उनकी
जिज्ञासा
बताएगी कि वे
क्या जानना
चाहते हैं। वे
क्षुद्र में
उत्सुक हैं, व्यर्थ में
उत्सुक हैं, बुराई में
उत्सुक हैं, निंदा में
उनका रस है।
अगर
तुम संसार में
घूमकर देखो, तो
जितने लोगों
को निंदा—रस
में ड़बे
पाओगे, उतना
तुम किसी रस
में ड़बे हुए
न पाओगे।
निंदा अमृत
मालूम पड़ती है।
कोई किसी की
निंदा कर रहा
है, गाली
दे रहा है।
कोई किसी का
खंडन कर रहा
है, कोई
किसी की
बुराइयां बता
रहा है। कितने
लोग प्रसन्न
होकर सुनते
हैं और कितनी
सरलता से
श्रद्धा करते
हैं। कोई
संदेह भी नहीं
उठाता।
बुराई
पर तो संदेह
कोई उठाता ही
नहीं। बुराई
को तो लोग
बिलकुल
चुपचाप
स्वीकार कर लेते
हैं,
जैसे तैयार
ही बैठे थे।
बस, किसी
के बताने की
जरूरत थी।
अगर
तुम किसी की
भलाई बताओ, कोई
सुनने को
उत्सुक नहीं
है। लोग कहते
हैं, क्यों
उबाते हो? क्यों
बोरियत पैदा
करते हो? तुम
भलाई की बात
करो, भीड़
छंट जाएगी।
भीड़ निंदा में
उत्सुक है।
राजनैतिक की
सभा हो, बड़ी
भीड़ इकट्ठी
होगी।
क्योंकि वहां
सारी चर्चा
तमस की होने
वाली है, गाली—गलौज
होने वाली है।
धर्म की चर्चा
हो, भीड़
छंट जाएगी।
जैसे—जैसे
सत्य की चर्चा
गहरी होने
लगेगी, वैसे—वैसे
लोग छंटने
लगेंगे। रस न
आएगा।
रस
तुम्हारी
प्रकृति से
आता है।
राजसी
व्यक्ति का रस
महत्वाकांक्षा
में है, वासना
में है। वह उसकी
तलाश में लगा
है। अगर कोई
उसे नए रास्ते
बता दे महत्वाकांक्षा
पूरी करने के,
तो वह
सुनेगा।
सात्विक
व्यक्ति की आकांक्षा
सत्य को जानने
में है।
सत्य, रज,
तम, ये
तीन प्रकृति
के गुण हैं, जो तुम्हारी
आत्मा को घेरे
हैं। जैसे तीन
चश्मे लगे हों।
तो जिस रंग का
चश्मा है, वैसी
तुम्हें
प्रकृति
दिखाई पड़ती है।
अगर तुमने लाल
चश्मा लगा
लिया, तो
सारा संसार
लाल मालूम
पड़ता है।
तुम्हारी
आत्मा पर ये
तीन गुण हैं।
इनके माध्यम
से तुम देखते
हो। जो भी तुम
देखते हो, वह
इनसे
प्रभावित
होता है। जब
ये तीनों गिर
जाते हैं, तब
तुम गुणातीत
हो जाते हो।
तब देखने को
कुछ बचता ' नहीं
और देखने वाला
भी नहीं बचता,
क्योंकि एक
ही रह जाता है।
फिर द्रष्टा
और दृश्य, दोनों
खो जाते हैं।
शुद्ध ऊर्जा
रह जाती है।
इसलिए
परमात्मा को
तुम न तो
अज्ञानी कह
सकते, न
ज्ञानी।
ज्ञानी कहना
भी उचित न
होगा।
अज्ञानी कहना
तो उचित होगा
ही नहीं। तो
परमात्मा को
हम क्या कहें?
इसलिए
तो परमात्मा
बेबूझ पहेली
है। उसे
ज्ञानी कहें, तो
भी ठीक नहीं
मालूम पड़ता।
क्योंकि शानी
का मतलब है, वह कुछ
जानता है; और
जानने की तो
सीमा होगी।
कितना ही
जानता हो, तो
भी सीमा होगी।
बड़े से बड़े ज्ञानी
की भी सीमा
होगी।
अज्ञानी तो कह
ही नहीं सकते।
फिर परमात्मा
को हम क्या
कहें?
ज्ञानातीत
है,
भावातीत है,
गुणातीत है।
हमारे सब
विभाजन नीचे
छूट जाते हैं।
वहां तक कोई
भी हमारा
विभाजन नहीं
जाता है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी ने उसे
किसी दूसरी
स्त्री के साथ
बैठे हुए देख
लिया कमरे के
भीतर, प्रेमालाप
में संलग्न।
दरवाजा लगाना
भूल गया था
नसरुद्दीन।
दरवाजा खुला;
पत्नी भीतर
आ गई। चीखी—चिल्लाई
और उसने कहा
कि अब मुझे सब
पता चल गया।
नसरुद्दीन ने
कहा, ठीक
है, अगर सब
पता चल गया, तो लाटरी
में कौन—सा
नंबर जीतेगा,
बता।
पत्नी
कह रही है, मुझे
सब पता चल गया
अब, क्योंकि
देख लिया यह
स्त्री के साथ
बैठे हुए। अब
सब रहस्य
जाहिर हो गया
कि क्या गड़बड़
चल रही थी।
लेकिन
नसरुद्दीन के
मुंह से जो
बात निकली वह यह
कि अगर सब पता
चल गया, तो
बता लाटरी में
कौन—सा नंबर
निकलेगा!
हमारे
भीतर हमारी
जानने की
उत्सुकताएं
हैं।
मैं
बहुत परेशान
था सफरों में।
खासकर बंबई से
जब भी मैं
वापस यात्रा
करता, तो
हमेशा झंझट
होती।
क्योंकि वह जो
एयरकंडीशंड
कमरे के नौकर
होते, वे
देख लेते, इतने
लोग छोड़ने आए
हैं। तो बंबई
में तो इतने
लोग छोड़ने आते
हैं तभी, जब
कोई लाटरी के
नंबर बताता हो,
रेस के घोड़े
का नाम बताता
हो। और तो कोई
कारण नहीं
बंबई के लोगों
को इतने आदमी
छोड़ने आने का।
तो
वे मेरी जान
खा जाते। इधर
तो लोग छोड्कर
गए और नौकर
मेरे पैर पकड़
लें,
कि आप इस
बार तो बता ही
दें। मैं बहुत
गरीब आदमी हूं;
मेरी पत्नी
बीमार है और
बच्चे की शादी
भी करनी है।
अब आप मिल ही
गए, तो अब न
छोडूंगा।
क्या
बता दूं तेरे
को?
अब
आप तो जानते
ही हैं। नंबर
बता दें।
हमारी
जिज्ञासाएं
भी हमारे तमस, हमारे
रजस, हमारे
सत्व से
निकलती हैं।
हम वही सोच
सकते हैं। और
कई बार तो
अजीब हालतें
हो जाती हैं।
मैं
एक बार जबलपुर
में खड़ा था
अपने घर के
बाहर। एक
सज्जन मुझे
मिलने आए थे
पंजाब से। तो
मैं बाहर ही
खड़ा था बगीचे
में। ऐसी कार
खड़ी थी, मैं
उससे टिका हुआ
खड़ा था। वहीं आए,
तो उनसे
वहीं मैं बात
करने लगा। कार
के नंबर पर
मेरा हाथ था।
उन्होंने
देखा; उन्होंने
जल्दी से
डायरी
निकालकर नोट
किया। मैंने
कहा, क्या
मामला है? उन्होंने
कहा, मैं
समझ गया। मैं
कुछ नहीं समझा
कि बात क्या
हुई। फिर भी
मैंने कहा, मुझे भी तो
कुछ समझाओ।
उन्होंने कहा,
अब क्या
कहना। जिस काम
से आया था, वह
पूरा हो गया।
मैंने कहा, मुझे भी
थोड़ा ज्ञान दो,
मामला क्या
है? क्योंकि
मुझे खयाल ही
नहीं कि मैं
उस नंबर पर हाथ
रखे हूं। वह
नंबर
उन्होंने नोट
कर लिया। वे
इशारा समझ गए।
वे इशारा यह
समझे कि यह
नंबर आने वाला
है।
वे
पंजाब से नंबर
खोजने मेरे
पास आए थे। अब
अगर कहीं भूल—चूक
से वह नंबर आ
जाए,
तो पंजाब
जाना ही मेरा
मुश्किल हो
जाए।
आदमी
की जिज्ञासा
उसके अपने गुण
से उठती है, उसकी
खोज, उसका
ज्ञान। तुम
क्या जानना
चाहते हो, गौर
से देखना।
उससे
तुम्हारे गुण
का तुम्हें
पता चलेगा। और
जिस दिन तुम
कुछ भी नहीं
जानना चाहते,
सिर्फ होना
चाहते हो, उस
दिन तुम समझना
कि परमात्मा
की तरफ यात्रा
शुरू हुई।
क्योंकि
हो सकता है, तुम
कहो कि मैं
परमात्मा को
जानना चाहता
हूं। लेकिन
जरा गौर से
सोचना कि अगर
परमात्मा मिल
जाए, तो
तुम क्या
पूछोगे, लाटरी
का नंबर? बात
खतम हो गई।
परमात्मा से
तुम्हारा कोई
लेना—देना
नहीं है।
परमात्मा मिल
जाए तो तुम
क्या पूछोगे
कि मुझे अमर
बना दे? बात
खतम हो गई।
तुम्हारी
परमात्मा से
कोई जिज्ञासा
नहीं, परमात्मा
की कोई खोज
नहीं। तुम
मृत्यु से
भयभीत हो!
परमात्मा मिल
जाए, तुम
क्या कहोगे कि
मुझे सम्राट
बना दे दुनिया
का! तो
परमात्मा से
तुम्हें कुछ
लेना—देना
नहीं।
गौर
से अपनी जिज्ञासा
को खोजोगे, तो
तुम्हारा
अपना गुण भी
तुम्हें पकड़
में आ जाएगा।
कम से कम तमस
से ऊपर उठो, रजस से ऊपर
उठो, सत्व
तक आओ। उठना
तो सत्व के भी
ऊपर है। इसी
संबंध में
भारत की खोज
सारी दुनिया
की खोज से ऊपर
जाती है। सारे
दुनिया के
धर्म सत्य पर
आकर रुक जाते
हैं। अंग्रेजी
का शब्द गॉड
गुड का ही
रूपांतर है—सत्व,
भला, अच्छा,
शुभ। सारी
दुनिया के
धर्म सत्व तक
आकर रुक जाते
हैं। सिर्फ
भारत में पैदा
हुआ धर्म सत्य
के भी पार ले
जाता है। वह
कहता है, वह
भी गुण है।
अच्छा है, माना।
जंजीर वह भी
है। सोने की
है, माना।
लेकिन लोहे की
जंजीर हुई कि
सोने की जंजीर,
इससे क्या
फर्क पड़ता है।
तमस से बंधे
रहे कि सत्व
से बंध गए, इससे
क्या फर्क
पड़ता है। बुरे
कारागृह में
पड़े रहे कि एक
महल में बंद हो
गए, इससे
क्या फर्क
पड़ता है। बंधन
बंधन है।
भारत
की कामना है
मुक्ति की, जहां
कोई गुण न रह
जाए; जहां
तुम निर्गुण,
निराकार से
एक हो जाओ, जहां
गुणातीत हो
जाओ। अब सूत्र
और
हे पार्थ, ध्यान—योग
के द्वारा, अव्यभिचारिणी
धृति अर्थात
धारणा से
मनुष्य मन—प्राण
और इंद्रियों
की क्रियाओं
को धारण करता
है, वह
धृति तो
सात्विकी है।
फल
की इच्छा वाला
मनुष्य अति
आसक्ति से जिस
धृति के
द्वारा धर्म, अर्थ
और कामों को
धारण करता है,
वह धृति
राजसी है। तथा
हे पार्थ, दुष्ट
बुद्धि वाला
मनुष्य जिस
धृति अर्थात धारणा
के द्वारा
निद्रा, भय,
चिंता और
दुख को एवं
उन्मत्तता को
भी नहीं छोड़ता
है और धारण
किए रहता है, वह धृति
तामसी है।
धृति
है धारणा की
शक्ति। ये
सूत्र बहुत
कीमती हैं।
तुम्हारे कदम—कदम
पर काम पड़ेंगे।
इसलिए किसी की
झपकी लग गई हो, तो
कृपा करके
थोड़ी देर को
तोड़ ले।
हमारी
खोज यही है कि
मनुष्य के
जीवन में वही
घटता है, जो
उसकी धारणा
होती है।
धारणा ही
तुम्हारे
जीवन का मूल
सूत्र और आधार
है। तुम जैसी
धारणा करते हो,
वही हो जाते
हो।
कोई
दूसरा
तुम्हें न तो
सताता है, न
कोई दूसरा
तुम्हें सुख
देता है।
तुम्हारी
धारणा ही
तुम्हें सुख
देती है, तुम्हें
दुख देती है।
न तो किसी ने
तुम्हें
बांधा है और न
तुम्हें कोई
मुक्त करेगा;
तुम्हारी
धारणा ही
तुम्हें
बांधती है और
तुम्हें मुक्त
करती है।
इसलिए धारणा
बड़ी बहुमूल्य
है।
बुद्ध
ने कहा है
धम्मपद में, कि
जैसा करोगे
विचार, वैसे
हो जाओगे।
इसलिए विचार
करते वक्त
सावधानी
बरतना, क्योंकि
उसी वक्त तुम
अपने भविष्य
के आधार रख रहे
हो, नींव
भर रहे हो। फिर
भवन बन जाता
है, तब तुम
रोते हो।
लेकिन
तुम्हारे
जीवन में आज
जो हो रहा है, यह
कल बीते अतीत
में की गई
धारणा का
परिणाम है। यह
तुमने ही चाहा
है, इसलिए
हो रहा है। और
आज तुम जो
धारणा करोगे,
वह कल घटित
होगा। अब बड़ी
कठिनाई यह है
कि धारणा और
फल के बीच तुम संबंध
नहीं जोड़ पाते,
इसलिए बड़ी
अड़चन में पड़ते
हो। तुम सोचते
हो, दुख
तुम्हें कोई
और दे रहा है।
वह तुम्हारी
ही धारणाओं का
परिणाम है।
तुम
सोचते हो, दूसरे
तुम्हें सता
रहे हैं। कोई
तुम्हें
सताता नहीं।
किसी को क्या
प्रयोजन है!
तुम अपनी ही
धारणाओं में
घिरे परेशान
हो रहे हो।
एक
मेरे मित्र
हैं। एक कालेज
में मैं
प्रोफेसर था।
वे भी वहां
प्रोफेसर थे।
होली के दिन
में भांग पी
गए। कभी पी न
थी,
सीधे—सादे
आदमी थे।
ज्यादा पी गए,
लोगों ने
मजाक कर दी।
चौरस्ते पर
उन्होंने
उपद्रव कर
दिया, कुछ
मार—पीट कर दी,
नग्न होकर
दौड़ गए। पुलिस
पकड़कर ले गई।
रातभर बंद रखा।
मेरे
साथ रहते थे।
दो बजे तक तो
उनकी राह देखी, फिर
मैं थोड़ा
चिंतित हुआ।
ऐसा कभी हुआ न
था। बिलकुल
सीधे—सादे
आदमी थे।
इसीलिए झंझट
में पड़े। थोड़े
तिरछे होते, तो इतनी
जल्दी भांग का
नशा भी न आता।
अनुभवी होते,
तो कुछ गड़बड़
भी न होती।
कभी पी ही न थी।
ज्यादा पी गए।
होश के बाहर
हो गए।
खोजने
निकला, पता
चला कि पकड़कर
पुलिस ले गई
है उनको। खोज—बीन
की। कोई तीन
बजे रात उनको
छुड़ा पाया।
उनको घर तो ले
आए, लेकिन
उस दिन से
उनको एक धारणा
पकड़ गई। धारणा,
कि पुलिस
उनके खिलाफ है।
धारणा, कि
सारी सरकार
उनके खिलाफ है।
वह धारणा इतनी
गहन होती चली
गई..।
पहले
तो सब ने मजाक
में लिया कि
दो—चार दिन
में ठीक हो
जाएंगे। भांग
का नशा उतर
जाएगा, ठीक
हो जाएंगे।
भंग तो चली गई,
लेकिन वह
धारणा न गई।
रास्ते पर
पुलिसवाले को
देख लेते, तो
घर लौट आते कि वहां
पुलिसवाला
खड़ा है। वह
पकड़ ही लेगा।
फिर तो बहुत
मुसीबत हो गई।
मेरा भी
उन्होंने
जीना मुश्किल
कर दिया।
क्योंकि रात
पुलिसवाले की
सीटी सुन लें,
वे जल्दी से
मेरे बिस्तर
में आ जाएं, कि वह सीटी
बजा रहा है। आ
गए वे लोग। अब
तक कहता था, आप सुनते
नहीं थे। अब
देखो पैर की
आवाज आ रही है,
जूते की आवाज
आ रही है। कोई
कार रुक जाए, कुछ भी हो
जाए। रातभर
मुसीबत हो गई।
फिर
वे बताने लगे।
उनका बढ़ने लगा
जाल धारणा का
कि पुलिस के
पास बड़ी फाइल
है और मैंने
जो भी किया
जिंदगी में, वह
सब वहां तैयार
है। वे पकड़कर
मुझे.। अब की
बार न छोड़ेंगे।
इस बार तो
किसी तरह छोड़
दिया, अब न
छोड़ेंगे।
कालेज से
छुट्टी
लिवानी पड़ी, क्योंकि
वहां जाना भी
मुश्किल हो
गया उनको।
चलते तो चौंके
हुए चलते, खिड़की
से झांककर दिन—रात
देखते। एकदम
भयभीत चित्त
हो गया।
फिर
कोई रास्ता न
रहा। तो पुलिस
के एक
इंस्पेक्टर
को,
जिनसे मेरी
पहचान थी, उनको
मैंने समझाया
कि अब कुछ करो।
तुम एक फाइल
लेकर आ जाओ।
क्योंकि वे
कहते हैं कि
जब तक फाइल न
जलेगी, तब
तक कुछ भी न
होगा। कोई भी
फाइल लेकर आ
जाओ कचरा, कूड़ा—करकट
की। क्योंकि
उनके खिलाफ
कुछ है नहीं।
बस, उसने
एक ही जुर्म
किया जिंदगी
में भंग पीने
का। वह भी कोई
खास जुर्म
नहीं है
और
तुम जल्दी मत
छोड़ देना, नहीं
तो वे समझेंगे
कि कोई मेरा
हाथ है। तुम
उनको दो—चार
चांटे भी
लगाना और कोड़ा
भी बताना और
हथकड़ी डाल
देना हाथ—पैर
में, ताकि
उनको पक्का हो
जाए कि वे जो
कहते थे, बिलकुल
ठीक कहते थे।
फिर मैं
तुम्हें बहुत
समझाऊंगा—बुझाऊंगा।
ये दस हजार
रुपये
तुम्हें
दूंगा उनके
सामने—फिर तुम
लौटा देना—और
मेरे सामने उस
फाइल में आग
लगा देना वहीं,
ताकि यह
झंझट; शायद
कुछ रास्ता बन
जाए। करना पड़ा
यह पूरा काम।
जब वे पिटे, तब वे बड़े
प्रसन्न हुए।
वे मुझसे कहने
लगे कि देखो, कोई मेरी
मानता न था।
अब यह हो रहा
है। आंख से
देख रहे हो।
अब तो गवाह हो!
देख ही रहे
हैं, हो ही
रहा है। और वह
फाइल है। वह
रखे है
पुलिसवाला
बगल में दबाए।
पिटे—कुटे, उनको हथकड़ी
डल गई। तब
उनको शांति
थोड़ी मिली, क्योंकि
धारणा पूरी हो
गई कि बिलकुल
ठीक थे वे।
आदमी
गलत भी हो, तो
भी अहंकार
अपने को ठीक
सिद्ध करने के
लिए इतना आतुर
है कि नरक भी
जाना पड़े, लेकिन
मेरी धारणा
गलत न हो जाए।
उसने
काफी अपमानित
किया, मारा—पीटा,
रुपये दिए,
बामुश्किल
राजी हुआ। आग
लगाकर फाइल
जलवा दी।
दूसरे दिन से
ठीक हो गए।
लेकिन
तब से
उन्होंने
मुझसे मिलना—जुलना
बंद कर दिया, क्योंकि
अब मैं ही एक
गवाह हूं उनके
सारे अपराध का
और अपराध में
रिश्वत देने
का और फाइल का।
एक मैं ही
देखने वाला
हूं कि वे
पिटे—कुटे। तब
से उन्होंने
मुझसे मिलना—जुलना
बंद कर दिया।
वह मेरा कमरा
भी छोड़ दिए
जहां मेरे पास
रहते थे। मगर
ठीक है।
तुम
न मालूम कितनी
धारणाओं के
जाल जन्मों—जन्मों
में अपने पास
बुन लिए हो।
और बड़े मजे की
बात यह है कि
तुम उन्हें
सही सिद्ध
करने की कोशिश
करते हो, चाहे
उनसे कितना ही
कष्ट क्यों न
मिले।
कृष्ण
कहते हैं, हे
पार्थ, दुष्ट
बुद्धि वाला
मनुष्य जिस
धृति अर्थात धारणा
के द्वारा
निद्रा, भय,
चिंता और दुख
को एवं
उन्मत्तता को
भी नहीं छोड़ता
है अर्थात
धारण किए रहता
है, वह
धृति तामसी है।
तो तीन तरह की
धारणाएं हैं;
तीन तरह के
ध्यान हैं; तीन तरह की
धृतिया हैं।
तामसी, कि
तुम उसको पकड़े
रहते हो, जो
तुम्हारा नरक
है। तुम्हें
नरक से भी कोई
निकालने को
राजी हो जाए, तो तुम जाने
को राजी नहीं
होते।
क्योंकि तुम
उसके आदी हो
गए होते हो।
तुम कहते हो, यह मेरा घर
है।
अभी
पिछले वर्ष
अमेरिका में
एक आदमी मरा।
वह जब बीस साल
का था, तब
हत्या के
अपराध में उसे
पचास साल की
सजा हुई।
लेकिन वह
अपराधी नहीं
था, हत्या
भावावेश में
हो गई थी। वह कोई
वस्तुत:
अपराधी नहीं
था। बस, एक
भाव—दशा में
हो गया। पचास
साल की सजा
हुई उसे।
लेकिन उसका
जीवन—व्यवहार
इतना अच्छा
रहा जेल में
कि पच्चीस साल
बाद उसको माफी
मिल गई। उसे
छोड़ दिया गया।
वह
थोड़ी देर
घूमकर गाव में
वापस लौट आया।
उसने कहा कि
बाहर मैं नहीं
जाना चाहता।
क्योंकि जब वह
पकड़ा गया था, तब
न तो कारें
थीं रास्तों
पर, न बसें
थीं। दुनिया
ही और थी। और
अब तो सारी
दुनिया बदल गई
थी पच्चीस साल
में। वह ठीक
से समझ भी
नहीं पाता था
कि क्या हो
रहा है, लोग
क्या कह रहे
हैं। भाषा भी
बदल गई थी।
लोगों के ढंग,
रीति—रिवाज
बदल गए थे। वह
बिलकुल घबड़ा
गया। उसके
परिवार का कोई
भी बचा नहीं
था। बाप मर
चुका था, मां
मर चुकी थी।
शादी उसकी कभी
हुई नहीं थी।
वह
वापस लौट आया।
उसने कहा कि
मैं नहीं जाना
चाहता।
अधिकारी
जबरदस्ती किए
कि जाना ही
पड़ेगा, क्योंकि
तेरा काम ही यहां
खतम हो गया।
अब जेल के भीतर
नहीं रह सकता।
तो उसने कहा, मैं बाहर ही
रहा आऊंगा।
लेकिन रहूंगा
यहीं।
वह
पैंतीस साल और
जीया, लेकिन
जेल के बाहर
ही जीया। बस, वहीं वह जेल
के बगीचे में
काम करता रहता।
अधिकारी उसे
खाने को दे
देते। वहीं
जेल की दीवार
के पास वह सो
रहता। धीरे—धीरे
उन्होंने
इसके लिए
कोठरी का
इंतजाम कर
दिया कि अब यह
जाएगा भी कहां।
जाना भी नहीं
चाहता। वह कभी
जेल की परिधि
को छोड्कर
बाहर नहीं गया
पैंतीस साल
दुबारा फिर।
तुम्हारे
जीवन में भी
ऐसे कारागृह
तुमने बना लिए
हैं। वे दुख
दे रहे हैं।
बंधन में डाले
हैं। उनके
कारण क्रोध
होता है। उनके
कारण भय होता
है। उनके कारण
पीड़ा होती है।
लेकिन फिर भी
तुम उनके आदी
हो गए हो और
उनकी धारणा को
पकड़े हुए हो, छोड़ना
नहीं चाहते।
गलत
को भी पकड़कर
ऐसा लगता है, कुछ
तो हाथ में है।
बुरे को भी
पकड़े ऐसा लगता
है, कम से
कम हाथ खाली
तो नहीं है।
इसको कहते हैं,
तामस धृति।
जानते हुए कि
दुख पा रहा
हूं इस धारणा
को छोड़ दूं
नहीं छोड़ते।
जानते हुए कि
आलस्य पीड़ा दे
रहा है, जीवन
बोझ हुआ जा
रहा है, नहीं
छोड़ते। सोचते
ही नहीं कि
मेरी धारणा का
फल है।
फल
की इच्छा वाला
मनुष्य अति
आसक्ति से जिस
धृति के
द्वारा धर्म, अर्थ
और कामों को
धारण करता है,
वह धृति
राजसी है। फल
की इच्छा वाला
पुरुष.।
वह
धर्म भी करता
है,
प्रार्थना
भी, पूजा
भी, तो भी
फल की इच्छा
से करता है।
यश करता है, दान करता है,
वह भी फल की आकांक्षा
से करता है।
वह सब करता है,
लेकिन
आकांक्षा फल की
होती है, समझते
हुए, जानते
हुए कि फल की
आकांक्षा से
कोई कभी सुख को
उपलब्ध नहीं
होता।
फल
की आकांक्षा
दुख में ले
जाती है। फल
की आकांक्षा
विषाद में ले
जाती है।
क्योंकि एक तो
सौ में
निन्यानबे
मौकों पर तुम्हारी
आकांक्षा कभी
पूरी नहीं
होती, इसलिए
दुख होता है।
और अगर कभी
पूरी भी हो
जाए, तो
सुख नहीं होता,
क्योंकि
जैसे ही पूरी
होती है, फल
की आकांक्षा
आगे बढ़ जाती
है। वह
क्षितिज की
भांति है। उसे
तुम कभी छू
नहीं पाते। वह
सदा दूर ही
दूर रहती है।
तुम कभी पहुंच
नहीं पाते, उपलब्ध नहीं
हो पाते।
कितना
ही धन हो, दरिद्रता
नहीं मिटती।
कितना ही बड़ा
पद हो, और
पद की आकांक्षा
नहीं मिटती।
कितनी ही जीवन
में सुख—सुविधा
हो, और सुख—सुविधा
की दौड़ समाप्त
नहीं होती। और
अनुपात हमेशा
वही रहता है।
एक
भिखमंगा है।
उसके पास एक
पैसा है। वह
दस पैसे की
कामना करता है।
एक करोड़पति है।
उसके पास एक
करोड़ रुपया है।
वह दस करोड़ की आकांक्षा
करता है।
दोनों का
अनुपात बराबर
है। दोनों का
दुख बराबर है।
एक जिसके पास
है,
वह दस की
आकांक्षा कर
रहा है। नौ की
कमी खल रही है।
भिखमंगा भी
उतने ही दुख
में मर रहा है,
जितना कि
करोड़पति मर
रहा है।
भिखमंगा
मरे,
समझ में आता
है। करोड़पति
क्यों दुख में
मरा जा रहा है
गुर अनुपात
वही है। लोगों
के पास धन बढ़
जाता है, लेकिन
दरिद्रता
नहीं मिटती, दीनता नहीं
मिटती।
फलाकांक्षा
दुख देती है।
सब फलाकांक्षाएं
अंततः विषाद
में ले जाती
हैं,
हाथ में कुछ
आता नहीं, हाथ
खाली रह जाता
है; तो भी
राजसी व्यक्ति
पकड़े रहता है।
और
हे पार्थ, ध्यान—योग
के द्वारा
अव्यभिचारिणी
धृति अर्थात।
धारणा से मन, प्राण और
इंद्रियों की
क्रियाओं को
धारण करता है,
वह धृति
सात्विकी है।
जहां
अव्यभिचारिणी
ध्यान या धृति
पैदा हो जाए..।
जब
तुम शांत
बैठते हो, तब
भी मन का
व्यभिचार
चलता रहता है।
तुम शांत बैठे
हो, मन
हजार
यात्राएं
करता है। तुम
चुप बैठना
चाहते हो, मन
बोले ही चला
जाता है। तुम
रुकना चाहते
हो, मन
रुकता नहीं।
यह मन का
व्यभिचार है,
यह
बलात्कार है।
और तुम मन के
बलात्कार को
सहे चले जाते
हो। न केवल
सहे जाते हो, सहयोग दिए
जाते हो।
इस
सहयोग को हटा
लो। एकदम से
बलात्कार न
रुक जाएगा मन
का। यह
व्यभिचार बड़ा
पुराना है, जन्मों—जन्मों
का है। इसकी
बड़ी गहरी
गांठें हैं।
नदी की धार बन
गई है। पानी
बहाओगे, वहीं
से बहेगा।
लेकिन टूट
जाता है। टूट
जाती हैं
धारें पुरानी
और एक ऐसी घड़ी
भी आ जाती है
कि कुंआरी
चेतना पैदा
होती है।
मन
व्यभिचारिणी
स्थिति है।
कितने विचार!
कितना
व्यभिचार! मन
एक बाजार की तरह
है,
एक
पागलखाना, जहां
कितनी आवाजें
एक साथ गंज
रही हैं!
कृष्ण
कहते हैं, ध्यान—योग
के द्वारा जो
अव्यभिचारिणी
धृति को उपलब्ध
हो जाता है।
ऐसी
धारणा जो
शुद्ध है, कुंआरी
है, जिसमें
विचार का
व्यभिचार
नहीं है, निर्विचार
है। और जो
निर्विचार है,
वही
निर्विकार है।
और जहां विचार
की तरंग नहीं
उठती, वहीं
कुंआरापन है।
वहां शुद्धतम
चैतन्य की
अवस्था है।
ऐसी
धारणा मन, प्राण
और इंद्रियों
की क्रियाओं
को धारण करती
है, लेकिन
व्यभिचारित
नहीं होती।
ऐसी धृति मन
को चलाती है, मन द्वारा
नहीं चलती।
ऐसी धृति हाथ,
पैर, इंद्रियों
को चलाती है, इंद्रियों
के द्वारा
चलती नहीं।
इंद्रियां
मालिक नहीं रह
जातीं। ऐसी
कुंआरी धृति
मालिक हो जाती
है। यही
स्वामित्व है।
इसलिए
हम संन्यासी
को स्वामी कहे
हैं। वह सत्व
की दशा है। वह
संन्यासी की
मंजिल है, कि
वह स्वामित्व
को उपलब्ध हो
जाए; वह
कुंआरी धारणा
को उपलब्ध हो
जाए। इसलिए
ध्यान पर इतना
जोर है। गैर—
ध्यान की
अवस्था संसार
है। ध्यान
संन्यास है।
और
जिस दिन तुम
अपने मन, तन, प्राण, सबके
मालिक हो जाते
हो, उसी
दिन तुम योग्य
हुए, पात्र
हुए। अब
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उतर सकता
है।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं उससे
मिलना हो, तो
सम्राट होकर
ही उसके द्वार
पर जाना, भिखारियों
की तरह नहीं।
मन के गुलाम
हुए उसके
द्वार पर तुम
न जा सकोगे।
गुलामों के
लिए वह नहीं
है; मुक्त
पुरुषों के
लिए है।
तो
इतनी मुक्ति
तुम साध लो कि
मन निर्विकार
हो जाए, चेतना
शांत और
कुंआरी हो जाए;
बस, तुम्हारा
काम पूरा हो
गया। तुमने
कदम उठा लिया;
अब
परमात्मा के
कदम उठाने की
बारी है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें