अध्याय—18
सूत्र—
सुखं
त्विदानीं
त्रिविधं
मृणु मे
भरतर्षभ।
अभ्यासद्रमते
यत्र दुखान्तं
च निगच्छति।।
36।।
यत्तदग्रे
विषमिव परिणामेऽमृतीयमम्।
तत्सुखं
सात्विक
प्रोक्तमात्मबुध्यिसादजम्।।
37।। विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोयमम्।
परिणामे
विषीमव
तत्सुखं राजसं
स्मृतम्।। 38।।
यदग्रे
चानुबन्धे च
सुखं
मोहनमात्मन।
निद्रलस्थ्यमादोत्थं
तत्तामसमुदाह्रतम्।।
39।।
न
तदस्ति पृथ्विव्यां
वा दिवि दैवेषु
वा पुन:।
है अर्जुन,
अब सुख भी तू
तीन प्रकार का
मेरे से सुन।
हे भरतश्रेष्ठ, जिस सुख में
साधक पुरूष ध्यान, उपासना और
सेवादि के
अभ्यास से रमण
करता है और दुखों
के अंत को
प्राप्त होता
है, वह सुख
प्रथम साधन के
आरंभ काल में
यद्यपि विष के
सदृश भासता है, परंतु परिणाम
में अमृत के
तुल्य है। इसलिए
जो आत्मबुद्धि
के प्रसाद से उत्पन्न
हुआ सुख है वह
सात्विक कहा
गया है।
और जो सुख
विषय और
इंद्रियों के
संयोग से होता
है यद्यपि भोग
काल के सदृश
भासता है, परंतु
परिणाम में
विष काल अमृत
सदृश भासता है, परंतु
परिणाम में
विष के सदृश
है इसलिए वह सुख
राजस कहा गया
है।
तथा जो सुख
भोग काल में और
परिणाम में भी
आत्मा को
मोहने वाला है, वह
निद्रा आलस्य
और प्रमाद से
उत्पन्न हुआ
सुख तामस कहा
गया है।
और हे
अर्जुन,
पृथ्वी में या
स्वर्ग में
अथवा देवताओं
में ऐसा वह कोई
भी प्राणी
नहीं है कि जो
इन प्रकृति से
उत्पन्न हुए
तीनों गुणों
मे रहित हो।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आपने
कहा कि गुरु
के बाह्य आकार
से आसक्त हो
जाना भी ठीक
नहीं है। पर
मेरे मन में
बार —बार भाव
होता है कि
नहीं चाहिए
ज्ञान और
मोक्ष। बस, गुरु
के साथ ही घुल—मिलकर
एक हो जाऊं।
क्या यह भी
आसक्ति है?
जब तक
चाह है, तब तक
आसक्ति है। वह
चाहे गुरु से
मिलने की चाह
हो, चाहे
ज्ञान
प्राप्त करने
की चाह हो, चाहे
मोक्ष की चाह
हो; चाह—मात्र
आसक्ति है। जहां
सभी चाहें छूट
जाती हैं, वहीं
मोक्ष है। और
जहां सब चाहें
छूट जाती हैं,
वहीं गुरु
से मिलन भी है।
क्योंकि जो
गुरु बाहर
दिखाई पड़ता है,
वह तो केवल
प्रतिबिंब है।
सब चाह के छूट
जाने पर भीतर
के गुरु का
आविर्भाव
होता है। और
जब तक तुम्हें
तुम्हारे
भीतर ही गुरु
न मिल जाए तब
तक तुम संसार
में भटकते ही
रहोगे। कब तक
किसी के पीछे
चलोगे? पीछे
चलने में
अंधापन तो
कायम ही रहेगा।
कब
तक किसी के
हाथ का सहारा
लोगे? सहारा
तुम्हें पंगु
बनाएगा।
सहारे से कभी
कोई स्वतंत्र
थोड़े ही हुआ
है। सहारे से
तो पंगुता
बननी निर्मित
हो जाती है।
बाहर किसी में
तुम्हें
दिखाई पडा है
आविर्भाव
चैतन्य का, उससे अपने
भीतर के
चैतन्य को
स्मरण करो।
गुरु
में मिल जाने
की कामना भी
कामना है। इस
कामना से तुम
मुक्त न हो
सकोगे। यह
तुम्हें
भटकाए रहेगी, भरमाए
रहेगी। अंततः
एक ऐसी चैतन्य
दशा को पाना
है, जिसके
पार पाने को
कुछ भी शेष न
हो, जहां
होना परम
तृप्ति हो, जिसके पार
क्षणभर के लिए
भी भविष्य की आकांक्षा
न उठती हो।
ऐसी चैतन्य
दशा को पाना
है, जिसमें
भविष्य शून्य
हो जाए, समय
मिट जाए। जहां
समय मिट जाता
है, वहीं
अमृत का अनुभव
होता है।
इसलिए
हमने मृत्यु
को नाम दिया
है,
काल। काल का
एक अर्थ समय
भी होता है और
दूसरा अर्थ मृत्यु
भी होता है।
जब तक समय है, तब तक
मृत्यु है। जब
समय खो गया, अकाल अनुभव
हुआ। अकाल का अर्थ
है, अमृत।
अकाल का अर्थ
है, तुम्हारा
शाश्वत होना।
यह
कौन चाहता है
गुरु के साथ
मिल जाना? इसने
विषय तो बहुत
अच्छा चुना, गुरु चुना, लेकिन वह
मिलने की
कामना तो बहुत
पुरानी है।
कभी प्रेमी के
साथ मिल जाना
चाहा था और एक
हो जाना चाहा
था, कभी धन
के साथ मिल
जाना चाहा था,
एक हो जाना
चाहा था; कभी
पद के साथ
मिलकर एक हो
जाना चाहा था।
हजार—हजार
विषय चुने हैं
तुम्हारी
वासना ने।
तुम
गुरु को बना
सकते हो वासना
का बिंदु।
इससे कुछ अंतर
न पड़ेगा।
तुम्हारी
वासना वैसे की
वैसी रही।
विषय बदल गया, खूंटी
बदल गई, लेकिन
तुम जो टांग
रहे हो, वह
वही है, जो
तुम सदा से टांगते
रहे हो।
वैकुंठ चुन लो,
स्वर्ग चुन
लो, मोक्ष
चुन लो।
बुद्ध
ने कहा है, जब
तक तुम
निर्वाण
चाहते हो, तब
तक निर्वाण की
कोई प्रतीति न
होगी। और जब
तक तुम मुक्त
होना चाहते हो,
तब तक तुम
बंधे ही रहोगे।
क्योंकि चाह
ही बंधन है।
मुक्त होने की
चाह भी चाह है।
इसलिए
करना क्या? तब
तो बात बड़ी
उलझी मालूम
पड़ती है।
मुक्त होने की
चाह भी चाह है।
परमात्मा को
पाने की चाह
भी चाह है।
फिर करें क्या?
फिर छूटें
कैसे?
चाह
को समझो, चाह
को बदलों मत।
चाह के स्वभाव
को समझो कि
चाह का स्वभाव
बांधना है। और
चाह की गहरी
से गहरी तरकीब
यह है कि जब भी
तुम उसके
स्वभाव को
समझने के करीब
होते हो, तभी
वह अपना विषय
बदल लेती है।
विषय बदलने से
तुम्हें ऐसा
लगता है कि
चाह बदल गई।
चलो, कुछ
दिन के लिए
बोझ नया हो
गया। एक कंधे
का भार दूसरे
कंधे पर ले
लिया। बस, थोड़े
दिन रहेगी यह
राहत।
संसार
से थक गए, चाह
बदल जाती है।
चाह कहती है, मंदिर चलो, दुकान में
क्या रखा है।
धन में क्या
रखा है, धर्म
खोजो। इन सोने—चांदी
के ठीकरों में
क्या रखा है, ये सब तो पड़े
रह जाएंगे। वह
चाह ही कह रही
है। चाह ही
कहती है, सब
ठाठ पड़ा रह
जाएगा, जब
बाध चलेगा
बंजारा। तो
फिर कुछ ऐसा
खोजो, जो
पड़ा न रह जाए।
कुछ मोक्ष के
सिक्के खोजो,
कुछ ऐसी
संपदा खोजो, जो मौत के
पार भी
तुम्हारे साथ
जाए। अग्नि की
लपटें भी
तुम्हें जला
दें, लेकिन
तुम्हारी
संपदा को न
जला पाएं।
तब
तुम बड़े कुशल
हो रहे हो।
तुम फिर संसार
ही खोज रहे हो।
अनुभव से तुम
जागे नहीं।
अनुभव से
तुमने नया
सपना पैदा कर
लिया,।
अगर
तुम चाह का
स्वभाव
समझोगे, तो
तुम पाओगे, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता कि तुम
क्या चाहते हो।
चाहते हो, बंधन
रहेगा। चाह ही
बंधन है।
इसलिए विषय मत
बदलों, खूंटियां
मत बदलों, इस
चाह को ही
गिरा दो।
बड़ी
कठिनाई मालूम
पड़ती है।
क्योंकि तुम
कहते हो, यह भी
समझ में आता
है कि धन न
खोजें, धर्म
खोजें; दुकान
न जाएं, मंदिर
जाएं; यह
बिलकुल समझ
में नहीं आता
कि कहीं न
जाएं; कुछ
भी न खोजें।
पर
मैं तुमसे
कहता हूं जिस
दिन तुम कहीं
न जाओगे, कुछ
भी न खोजोगे, तुम्हारे भीतर
ही रमने
लगोगे.......। चाह
तो बाहर ले
जाती है। कभी
बाएं, कभी
दाएं; कभी
उत्तर, कभी
पूरब; इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, ले
जाती बाहर है।
जिस दिन तुम
कहीं भी न
जाओगे, तुम्हारे
भीतर ही तुम
ठहरोगे, रमोगे,
उसी दिन, उसी दिन मिल
गया मोक्ष।
उसी दिन हो
गया गुरु से
मिलन, उसी
दिन पा लिया
परमात्मा को।
चाह
को समझो, ताकि
चाह विसर्जित
हो जाए। मैं
चाह को छोड़ने
को भी नहीं
कहता।
क्योंकि
छोड़ने में भी
खतरा है कि
तुम छोड़ोगे तभी,
जब भीतर
तुम्हारे मन
में कोई दूसरी
चाह पैदा हो
गई हो।
तुम
संसार छोड़ोगे, जब
मोक्ष की चाह
पैदा हो जाएगी।
तुम धन छोड़
दोगे, जब
त्याग की चाह
पैदा हो जाएगी।
तुम कामवासना
छोड़ दोगे, जब
ब्रह्मचर्य
की वासना पैदा
हो जाएगी। मगर
सूक्ष्म हो गई
वासना, मिटी
नहीं।
छोड़ने
को भी नहीं
कहता, बदलने
को भी नहीं
कहता, समझने
को कहता हूं।
समझना
एकमात्र नियम
है। वह सब
शास्त्रों का
शास्त्र है।
तुम चाह को
समझो कि चाह
कैसे बांधती
है? चाह का
ढंग क्या है? चाह का
शास्त्र क्या
है?
चाह
का शास्त्र यह
है,
चाह सदा यह
कहती है कि
तुम जहां हो, वह ठीक होना
नहीं है। और
जो ठीक होना
है, वहां
तुम नहीं हो।
तुम्हारे पास
दस रुपए हैं, यह ठीक
अवस्था नहीं
है। दस करोड़
होने चाहिए, तब आनंद ही
आनंद होगा।
तुम शरीर में
हो, शरीर
में तो दुख ही
दुख है, व्याधियां,
बीमारियां।
जब देह—मुक्त
होकर स्वर्ग
में रमोगे, तभी आनंद
होगा। यह वही
चाह का
शास्त्र है।
तुम
जो हो, उसमें
अधैर्य। तुम
जो हो, उसमें
अशांति। तुम
जो हो, उसमें
राजीपन नहीं,
स्वीकार
नहीं। तुम जो
हो, उसका
निषेध। और तुम
जो नहीं हो, उसकी कामना,
उसकी वासना,
उसको पाने
का खयाल। बस, यह चाह का
शास्त्र है।
इसे
फिर तुम कहीं
भी लगा लेना।
धन पर लगाना, धर्म
पर लगाना, वस्तुओं
पर लगाना, मोक्ष
पर लगाना, कोई
अंतर न पड़ेगा।
एक बात पक्की
रहेगी, तुम
जहां हो, वहीं
दुखी रहोगे।
और जहां तुम
नहीं हो, वहां
तुम्हारे
स्वर्ग की मृग—मरीचिका
होगी। और
स्वर्ग
तुम्हारे
भीतर है।
स्वर्ग वहीं
है, जहां
तुम हो।
कबीर
कहते हैं, कस्तुरी
कुंडल बसै।
वह
मृग के भीतर
ही कस्तुरी का
नाफा है। गंध
उसे लगती है
कहीं से आती।
भागता है पागल
होकर, खोजता
है वनों में, चीखता—चिल्लाता
है, विक्षिप्त
हो जाता है, क्योंकि
पुकारे ही चली
जाती है वह
गंध। और गंध
उसको नाभि में
है, आती
भीतर से है।
लेकिन भीतर का
उसे पता नहीं।
सोचता है, जरूर
कहीं से आती होगी।
जब आती है, तो
जरूर कहीं से
आती होगी।
उसका तर्क वही
है, जो
तुम्हारा है।
दूर दिखती है
मृग—मरीचिका;
भागता है, चीखता —चिल्लाता
है, विक्षिप्त
हो जाता है —उसके
लिए जो भीतर
था।
जो
तुम्हारे पास
सदा से है, उसे
तुम देख न
पाओगे, जब
तक एं
तुम्हारी आंखें
उसे पाने में
लगी हैं, जो
तुम्हारे पास
नहीं है। छोड़ो
मोक्ष, छोड़ो
विचार गुरु का,
स्वर्ग का,
सत्य का।
तुम इतनी ही
कृपा करो कि
तुम जो हो, जहां
हो, जैसे
हो, उसके
प्रति जाग जाओ।
अपने भीतर के
नाफे को थोड़ा
खोलो।
कस्तुरी
कुंडल बसै!
और
तब तुम पाओगे
कि तुम अकारण
ही भागते थे।
भागने की कोई
जरूरत ही न थी।
तुम्हें वह
मिला ही था, जिसकी
तुम खोज कर
रहे थे।
इसलिए
ज्ञानी कहते
हैं,
अचाह से मिल
जाता है, चाह
से खो जाता है।
तृष्णा
भटकाती है, पहुंचाती
नहीं।
अतृष्णा
पहुंचा देती
है, भटकाती
नहीं।
तो
तुम नाम मत
बदलो। नाम
बदलने से कुछ
अर्थ न होगा।
नए—नए रूपों
में चाह पुन: —पुन:
जीवित हो
जाएगी। तुम तो
चाह के प्राण
को समझ लो, उसके
मूल को समझ लो,
ताकि फिर वह
कोई नए रूप न
ले पाए, वह
कोई नए वेश न
ले पाए। वह
किसी भी वेश
में आए, तुम
उसे तत्क्षण
पहचान लो कि आ
गई चाह। कल की
पुकार आ गई; भविष्य का
निमंत्रण आ
गया। बाहर
खींचने की
तरकीब शुरू हो
गई। यह मुझे
हटा देगी मेरी
जगह से। जहां
मेरी चेतना की
लौ अकंप जलती
है, वह कंप
जाएगी। उसके
कंपते ही सब
धूमिल हो जाता
है, सब
अंधकारपूर्ण
हो जाता है।
अचाह
तुम्हें
ध्यान में ले
जाएगी, ध्यान
मोक्ष है।
इसलिए हमने
ध्यान को
समाधि कहा है।
क्योंकि
ध्यान आखिरी
समाधान है। पर
ध्यान में
जाने के लिए
अचाह मार्ग है।
दूसरा
प्रश्न :
ध्यान और
धैर्य में
क्या संबंध है?
बडा
संबंध है, बहुत
गहरा संबंध है।
और अक्सर ऐसा
हो जाता है, तुम्हें ऐसे
लोग भी मिल
जाएंगे, जो
ध्यान कर रहे
हैं, लेकिन
जिनमें धैर्य
नहीं। और ऐसे
लोग भी मिल
जाएंगे, जो
धैर्यवान हैं,
लेकिन
जिनमें ध्यान
नहीं। ये
दोनों कहीं
नहीं
पहुंचेंगे।
उनकी नाव ऐसे
है,
जैसे उसमें
एक ही पतवार
हो। एक सूफी
फकीर हुआ, जुन्नैद
उसका नाम था।
उसने अपने
गुरु से पूछा
कि क्या ध्यान
काफी नहीं है?
फिर यह
धैर्य और बीच
में क्यों?
सूफी
तो जीवन से
भागते नहीं।
वे तो जीवन
में ही रहते
हैं। गुरु एक
मांझी था। वह
लोगों को एक
किनारे से
दूसरे किनारे
पहुंचाने का
काम करता था।
ऐसे भी गुरु
मांझी है।
इसलिए जैनों
ने तो अपने
महागुरुओं को
तीर्थंकर कहा
है। तीर्थंकर
का मतलब होता
है,
मांझी।
तीर्थंकर का
मतलब है, जिनके
द्वारा तुम उस
पार पहुंच
जाते हो।
तीर्थ का अर्थ
होता है, घाट।
तीर्थंकर का
अर्थ होता है,
जो पहुंचा
दे उस पार, इस
घाट से उस घाट।
वह
गुरु जुन्नैद
का मांझी था, तीर्थंकर
था। ऐसे बाहर
की दुनिया में
भी वह लोगों
को एक घाट से
दूसरे घाट
पहुंचाता; भीतर
की दुनिया में
भी उसका काम
वही था। उसने
जुन्नैद से
कहा कि मैं उस
तरफ जा रहा
हूं कुछ
यात्री
पहुंचाने हैं,
तू भी आ जा।
और कौन जाने
रास्ते में
तेरा समाधान
भी हो जाए!
जुन्नैद
थोड़ा चकित हुआ, क्योंकि
समाधान यहीं
किया जा सकता
है। इसमें नदी
में जाने की
और नाव में
बैठने की क्या
जरूरत! गुरु
दो पतवार लेकर
नाव चलाता है।
लेकिन उस दिन
उसने एक पतवार
तो अंदर रख दी,
नाव जैसे ही
मझधार में
पहुंची, एक
ही पतवार से
चलाने लगा।
नाव गोल—गोल
घूमने लगी।
अब
एक ही पतवार
से नाव चलाओगे, तो
गोल घूमने
लगेगी।
संतुलन खो
जाएगा। अगर
तुम बाएं हाथ
की पतवार से
नाव चला रहे
हो, तो
बाईं तरफ नाव
घूमने लगेगी
और चक्कर खाने
लगेगी।
यात्री
चिल्लाए कि
क्या
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया, मांझी।
क्योंकि
यात्रियों को
तो कुछ पता
नहीं। यह तुम
क्या कर रहे
हो? ऐसे तो
हम कभी न
पहुंचेंगे।
गुरु
ने जुन्नैद से
कहा,
बोल, एक
पतवार से
पहुंचना हो
सकता है या
नहीं? उसने
कहा, एक से
पहुंचना
मुश्किल होगा।
गुरु ने कहा, तो दोनों
पतवार को गौर
से देख। एक
पतवार पर उसने
लिखा था ध्यान
और एक पतवार
पर लिखा था
धैर्य।
समझें
थोड़ा।
अगर
आदमी अकेला
ध्यान करे और
धैर्य न हो, तो
ध्यान भी न हो
पाएगा।
क्योंकि
जल्दी में
होगा। मिल जाए
करने के पहले,
ऐसा आदमी का
मन है। बिना
किए मिल जाए
ऐसी आदमी की आकांक्षा
है। फल हाथ लग
जाए, कर्म
न करना पड़े।
तो
ध्यान तो किसी
तरह करेगा, लेकिन
आकांक्षा फल
पर लगी रहेगी,
जल्दी हो
जाए ध्यान और
फल मिल जाए!
अगर मोक्ष है
कोई, तो हर
दो—चार—पांच
क्षण बाद आंख
खोलकर देख
लेगा, अभी
तक मोक्ष पास
आया, नहीं
आया!
ध्यान
हो कैसे पाएगा? क्योंकि
ध्यान तभी हो
सकता है, जब
फलाकांक्षा न
हो। फलाकांक्षा
हो, तो मन
फल में लगा
रहता है।
ध्यान की
थिरता आती ही
नहीं।
ध्यान
का अर्थ है, तनावशन्य
हो जाना। फल
की आकांक्षा
तो तनाव है।
ध्यान का तो
अर्थ है, अभी
और यहीं, परिपूर्ण
ड़ब जाना।
लेकिन फल की आकांक्षा
तो आने वाले
कल की आकांक्षा
है। ध्यान का
अर्थ है, कृत्य
ही फल हो जाए, साधन ही
साध्य हो जाए,
मार्ग ही
मंजिल हो जाए।
लेकिन जब तक
मन में फल है, तब तक तो यह
नहीं हो सकता।
मेरे
पास लोग आते
हैं वे कहते
हैं,
रात नींद
नहीं आती।
क्या ध्यान से
यह ठीक हो
जाएगी?
मैं
उनसे कहता हूं
कि ध्यान बड़ी
तलवार है। तुम
उससे सुई का
काम मत लेना।
सुई का काम
तलवार से लोगे, कपड़ा
और फट जाएगा, सीना तो
मुश्किल है।
ध्यान बड़ी
तलवार है। तुम
बात ही बड़ी
छोटी लेकर आ
गए हो कि रात
नींद नहीं आती,
ध्यान से आ
जाएगी।
ही, जो
ध्यान करता है
उसे नींद
अच्छी आती है,
भली आती है,
गहरी आती है,
वह सच है।
लेकिन नींद ही
लाने के लिए
जो ध्यान करने
गया है, उसका
तो ध्यान ही
नहीं हो पाएगा।
नींद तो दूर
की बात हो गई।
बड़ी छोटी
आकांक्षा
पीछे पड़ी
रहेगी।
लोग
कहते हैं, मन
अशांत है, ध्यान
से शांति मिल
जाएगी? एक
सज्जन ने मुझे
आकर कहा, न
मुझे
परमात्मा की
इच्छा है, न
मुझे कोई
मोक्ष चाहिए.।
वह कुछ इस ढंग
से कह रहे थे, जैसे बड़े
त्यागी हैं।
संसार भी
छोड़ते हैं, मोक्ष, परमात्मा,
सब छोड़ते
हैं। मन में
जरा अशांति
रहती है, बस
इसको रास्ता
मिल जाए।
अगर
मन की अशांति
को मिटाने के
लिए तुम ध्यान
करने बैठे हो, तो
तुम बार—बार
लौटकर देखोगे,
अब तक मिटी
नहीं! और मजा
तो यह है कि जब
ध्यान शुरू
करोगे, तो अशांति
बढ़ेगी।
क्योंकि जो
दबी पड़ी है, वह भी प्रकट
होगी। जो सदा—सदा
से दबाई है, उसका भी
रेचन शुरू
होगा, कैथार्सिस
होगी।
जो
कूड़ा—करकट
भीतर छिपाकर
बैठे रहे हो, प्रकट
नहीं किया है,
ध्यान उन द्वारों
को भी तोड़ेगा।
घर की सफाई
करेगा।
वर्षों की जमी
धूल, जन्मों
की जमी धूल
उठेगी फिर से,
अंधड़—तूफान
होंगे। कुछ
देर तो थोड़ी—बहुत
जो शांति
तुम्हारे पास
थी, वह भी
खो जाएगी।
तब
तो तुम घबड़ा
जाओगे कि लेने
आए थे शांति
और यह हाथ में
जो थी, वह भी गई।
अगर धैर्य न
हुआ, तो
तुम
विक्षिप्त भी
हो सकते हो, क्योंकि
ध्यान इतना
बड़ा तूफान
लाएगा।
क्योंकि वह एक
दिन की जमी
हुई रोग की
अवस्था नहीं
है, जन्मों—जन्मों
की है। ध्यान
तो सारी परतों
को तोड़ेगा, ताकि
तुम्हारे
भीतर के
अंतरतम तक
पहुंच जाए।
तो
परतों को
तोड्ने में सारी
व्यवस्था, अब
तक के दमन की, उखडेगी। एक
झंझावात! सब
कंप जाएगा।
जमा हुआ थिर
सब खो जाएगा, बना—बनाया
सब गिर जाएगा।
अगर तुम इसी
बीच भाग गए, धैर्य न हुआ,
तो तुम
विक्षिप्त भी
हो सकते हो।
बहुत
लोग ध्यान
करते हैं, धैर्य
नहीं होता। दो
दिन करते हैं,
फिर दो साल नहीं
करते। फिर एक—दो
दिन कर लेते
हैं, फिर
भूल जाते हैं।
मेरे
पास ऐसे लोग आ
जाते हैं, जिनकी
सत्तर साल
उम्र है। वे
कहते हैं, कई
दफे शुरू किया,
कई दफा छूट
गया।
ध्यान
भी कहीं छूटता
है शुरू किया? स्वाद
लग जाए, रस
आ जाए, तो
ध्यान कहीं
छूटता है शुरू
किया? और
जो छूट—छूट
जाए, वह
ध्यान ही न
रहा होगा।
धैर्य न था, एक बात
पक्की है।
इसलिए थोड़ी
देर नाव गोल—गोल
घूमी, फिर
तुम थक गए, क्योंकि
कहीं जाती
मालूम न पड़ी।
कभी
बैठो बिना
धैर्य के, तो
मन गोल—गोल
घूमेगा। थोड़ी
देर चक्कर
मारेगा। फिर
तुम कहोगे, इसमें क्या
सार है! इससे
तो अखबार ही
पढ़ते, या
दुकान ही चले
जाते। थोड़े
ग्राहक ही
निपटा लेते, फाइल ही देख
लेते दफ्तर की।
ताश ही खेल
लेते, वह
भी सार्थक
मालूम पड़ता है।
यह बैठे—बैठे
सिर में गोल
नाव घुमाने से
क्या फायदा है!
नहीं, अगर
धैर्य न होगा,
तो ध्यान की
जड़ ही न जमेगी।
बिना धैर्य के
ध्यान तो ऐसा
है, बीज
बोए, उखाड़कर
देखे कि अभी
तक अंकुर आए
या नहीं। ऐसे
कई बार बोए, फिर उखाड़कर
देख लिए घडीभर
बाद। अंकुर
आने भी दोगे? थोड़ी देर
बीज को भूमि
में तो पड़ा
रहने दो।
एक
महिला मेरे
पास आई। उसने
कहा कि ज्यादा
मेरे पास समय
नहीं है।
स्कूल में
अध्यापिका
हूं। सात दिन
की छुट्टी
लेकर आई हूं।
परमात्मा
का दर्शन हो
जाएगा? सात
दिन की छुट्टी।
मैंने
उससे कहा, तू
भी परमात्मा
पर बड़ी कृपा
कर रही है।
एकदम सात दिन
की छुट्टी
लेकर आ गई।
परमात्मा भी
सदा—सदा
अनुगृहीत
रहेगा। कौन
लेता है
परमात्मा के
लिए सात दिन
की छुट्टी!
तूने खूब गजब
कर दिया।
वह
थोड़ी चौंकी।
नहीं, उसने
कहा कि दो दिन
तो छुट्टी है
ही, पांच
ही दिन की ली
है।
फिर
भी कृपा है।
पर अब ऐसा
व्यक्ति कहीं
परमात्मा को
उपलब्ध होने
वाला है! ऐसा
व्यक्ति तो
किसी भी चीज
को उपलब्ध
नहीं हो सकता
है। इस
व्यक्ति की तो
चित्त की दशा
बड़ी मूढ़ है।
यह तो क्या कह
रहा है, इसे
पता ही नहीं
है।
सात
जन्म में भी
परमात्मा मिल
जाए,
तो जल्दी
मिल गया। यह
सात दिन की
छुट्टी लेकर आ
गई है। उसमें
भी दो दिन की
छुट्टी थी ही,
पांच दिन की
और ले ली है।
और इस भाव से
आई है कि अगर न
मिला
परमात्मा, तो
सिद्ध ही हो
जाएगा कि है
ही नहीं।
अब
मैंने उससे
कहा,
तू ऐसा कर
छुट्टी बचा ही
ले। वापस चली
जा। इतनी
जल्दी होगा भी
नहीं और नाहक
तेरे मन में ऐसा
हो जाएगा, हमने
इतनी कृपा की
परमात्मा पर,
उधर से कोई
उत्तर न आया।
तू नाहक
नास्तिक हो
जाएगी। नास्तिक
तू है ही, क्योंकि
आस्तिक ने कभी
यह सोचा ही
नहीं कि सात
दिन में
परमात्मा
मिलने वाला है।
मिल जाता है
कभी—कभी सात
क्षण में भी, पर आस्तिक
ने कभी सोचा
नहीं कि सात
दिन में मिल
जाएगा।
सात
जन्मों में भी
मिल जाए, तो
जल्दी हो गई।
योग्यता क्या
है? पात्रता
क्या है? जब
भी मिलता है, तभी
प्रसादस्वरूप
है। हमारे
प्रयत्न से
मिला नहीं।
लेकिन
मन जल्दी में
है। हम वैसे
ही चाहते हैं
ध्यान भी, जैसे
कि इंस्टैंट
काफी। जल्दी
से डाली, चम्मच
हिलाया, तैयार
हो गई। सब
चीजें जल्दी
हो जाएं। बटन
दबाई, काम
हो जाए।
जीवन
काश,
ऐसा होता! लेकिन
अच्छा ही है
कि नहीं है।
बटन
दबाई, परमात्मा
आ गए; बटन
दबाई, ध्यान
हो गया, समाधि
लग गई। तब तो
कबीर और कृष्ण
सड़क—सड़क बिकते।
अकेले भी न
बिकते, दर्जन
में बिकते।
कोई मतलब ही न
था, कोई
बात ही अर्थ
की न थी।
ध्यान
बहुत लोग शुरू
करते हैं बिना
धैर्य के, तब
ध्यान टूट—टूट
जाता है। उसका
सातत्य नहीं
जमता, क्योंकि
सातत्य के लिए
धैर्य चाहिए।
श्रृंखला
नहीं बनती, माला के
मनके रह जाते
हैं, माला
नहीं बन पाती।
क्योंकि वह
धागा, जो
सब मनकों को
जोड़ दे धैर्य
का, वह
भीतर होता
नहीं। तो एक
ढेर लग जाता
है मनकों का, लेकिन माला
नहीं बनती। और
जब तक ध्यान
माला न बन जाए
तब तक कुछ भी न
होगा। वह
दिखाई नहीं
पड़ता धागा
भीतर पिरोया
हुआ, पर
वही सम्हाले
हुए है।
ध्यान
करने वालों
में तुम्हें
शायद धैर्य का
अनुभव भी न हो, तुम्हें
दिखाई भी न
पड़े, क्योंकि
मनके ही दिखाई
पड़ते हैं।
लेकिन भीतर
असली चीज जो
सम्हाले है, वह धैर्य है।
ध्यान के मनके,
धैर्य का
धागा, फिर
बन जाती है
माला।
फिर
बहुत लोग हैं
जो धैर्यवान
हैं,
लेकिन
जिन्होंने
कभी ध्यान
नहीं किया।
उनका धैर्य
सिवाय आलस्य
के और कुछ भी
नहीं है।
वस्तुत: वे यह
कह रहे हैं कि
हम बिलकुल
धैर्यवान हैं,
जब मिलेगा मिल
जाएगा।
असलियत में यह
है कि उन्हें
कोई चाहना भी
नहीं है, पाने
की कोई आकांक्षा
भी नहीं है।
वे कहते हैं, ऐसे ही बैठे—बैठे
चलते—चलते मिल
जाएगा। जंच।
तो ठीक है, चुन
लेंगे, अन्यथा
कोई जल्दी
नहीं है।
अगर
गौर से उनके
भीतर देखो, तो
उनको कोई
आकांक्षा ही
नहीं है, कोई
अभीप्सा ही
नहीं है, कोई
प्यास ही नहीं
है। आलसी हैं,
तामसी हैं।
अब
यूं समझो कि
जिसने बिना
धैर्य के
ध्यान किया, वह
राजसी है।
जिसने बिना
ध्यान के
धैर्य रखा, वह तामसी है।
और जिसने
धैर्य और
ध्यान का
संतुलन बना
लिया, वह
सात्विक है।
तब तुम्हें
कृष्ण का
सूत्र समझ में
आ जाएगा कि
सत्य का क्या
अर्थ है।
धैर्य
ऐसा,
जैसे आलसी
पुरुषों में
होता है। आलसी
पुरुषों में
बड़ा धैर्य
होता है। अगर
धैर्य सीखना
हो, तो
उन्हीं से
सीखना चाहिए।
उन्हें कुछ
पाने की जल्दी
ही नहीं होती।
पाने का खयाल
ही नहीं होता,
कोई दौड़
नहीं होती। वे
बैठे ही हैं; मिट्टी के
ढेर हैं। कोई
जीवन नहीं है,
कोई ऊर्जा
नहीं है, कोई
गति नहीं है।
फिर
राजसी पुरुष
हैं। उनमें
दौड़ तो बहुत
होती है; रुकने
की क्षमता
नहीं होती।
ठहर नहीं सकते,
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते,
भाग सकते
हैं।
जब
कभी राजसी
व्यक्ति जैसी
ऊर्जा और आलसी
जैसा धैर्य
होता है, तब
ध्यान और
धैर्य का संगम
होता है। तब
सोने में
सुगंध आ जाती
है। तब सत्व
का जन्म है।
अकेला
ध्यान बिना
धैर्य के
जमेगा ही नहीं, बनेगा
ही नहीं, तार
ही न जुड़ेगा।
अकेला धैर्य
बिना ध्यान के
किसी अर्थ का
नहीं है, सिर्फ
आलस्य है।
कुछ
तो हैं, जो
बीज बोते हैं,
उखाड़—उखाड़कर
देख लेते हैं;
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते।
कुछ हैं, जिन्होंने
बीज ही नहीं
बोए हैं, आराम
से बैठे
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। बीज
ही न बोए हों, तो
प्रतीक्षा से
कुछ आएगा न।
बीज बोए हों
और प्रतीक्षा
न हो, तो भी
बीज बंठर हो
जाएंगे। तो भी
उनसे कुछ न
आएगा।
जीवन
एक कला है।
वहां विपरीत
को मिलाने की
क्षमता होनी
चाहिए। ध्यान
और धैर्य दो
विपरीतताएं
हैं। ध्यान और
धैर्य के जोड़
का अर्थ है, पाना
चाहता हूं अभी,
रुकने को
राजी हूं सदा
के लिए। इसे
समझ लेना।
पाना
चाहता हूं इसी
क्षण, रुकने
को राजी हूं
सदा के लिए।
शक्ति तो पूरी
लगा दूंगा कि
अभी मिल जाए, लेकिन जानता
हूं कि मेरी
शक्ति से क्या
मिलने वाला
है! तेरी कृपा
से मिलेगा।
इसलिए अगर
अनंत जन्मों
में भी मिला, तो भी तेरा
अनुग्रह
रहेगा। अपने
को पूरा डुबा
दूंगा, लेकिन
मेरी पात्रता
क्या है! मेरे
हाथ कितने दूर
जाएंगे! अपने
हाथ पूरे फैला
दूंगा, उसमें
कोई कमी न
रखूंगा, लेकिन
मेरे हाथ छोटे
हैं। इसलिए
जानता हूं कि
तू अभी मिलेगा
नहीं, लेकिन
प्रयास मैं
ऐसा करूंगा, जैसे अभी
मिल रहा है।
घर को सजाऊंगा
ऐसे, जैसे
अतिथि आज ही आ
रहा है। जन्म—जन्म
बीत जाएं, तो
भी शिकायत न
आएगी। जब भी
आएगा, समझूंगा,
आज ही आ गया।
यही क्षण था
ठीक आने का।
ध्यान
और धैर्य जहां
मिल जाते हैं, वहां
जीवन का परम
संगीत बजता है;
वहां सत्य
की धुन गूंजती
है।
इन
दोनों पर खयाल
रखो। अक्सर
तुम पाओगे, जब
तुम ध्यान
करोगे, तब
धैर्य खो
जाएगा; जब
तुम धैर्य
रखोगे, तब
ध्यान खो
जाएगा। पर एक
पतवार से नाव
कहीं जाएगी न।
दोनों पतवार
चलनी चाहिए, साथ—साथ
चलनी चाहिए।
तीसरा
प्रश्न : आपने
पूर्व में कहा
है,
आनंद कसौटी
है मार्ग
मिलने की। पर
सदगुरु के पास
पहुंचकर भी
आनंद क्यों
नहीं मिलता?
क्यों कि
पास तुम पहुंच
ही नहीं पाते।
निकट होने को
तुम पास होना
मत समझ लेना।
पास होने को तुम
पास होना मत
समझ लेना।
शारीरिक
निकटता तो
बिलकुल आसान
है।
अनेक
बार बुद्धों
से कंधा लड़ते
हुए तुम निकल
गए हो। पर
इससे तुम उनके
पास पहुंच गए, ऐसा
मत समझ लेना।
कितनी ही बार
जीवन की अनंत
राहों पर
तुम्हें बुद्ध
पुरुष मिल गए
हैं। क्षणभर
उनका साथ भी
हो लिया है, थोड़ी गपशप
भी कर ली है।
थोड़ी अपनी भी
कही है, उनकी
भी सुन ली है।
पर इससे तुम
यह मत समझ
लेना कि साथ
हो गया। साथ
ही हो जाता, तो तुम कभी
के लीन हो गए
होते विराट में।
साथ नहीं हुआ।
साथ
होना बड़ी
अदभुत घटना है।
इसलिए तो हम
सत्संग को
इतना मूल्य
देते हैं।
सत्संग को
हमने द्वार
कहा है सत्य
का। सत्य बड़ी
से बड़ी घटना
है। उसकी
महिमा का कोई
अंत नहीं।
उसका भी द्वार
हमने सत्संग
कहा है।
सत्संग
का क्या अर्थ
होगा? हृदयपूर्वक
निकट होना।
शरीर
की निकटता का
कोई बड़ा मूल्य
नहीं है। शरीर
पास हो सकते
हैं,
प्राण
करोड़ों मील के
फासले पर हो
सकते हैं। तुम
यहां मेरे
सामने बैठे हो
सकते हो, दो
कदम उठाओ और
मेरे पास आ
जाओ, लेकिन
हृदय करोड़ों
मील के फासले
पर हो सकता है।
इससे उलटी बात
भी सच है कि
तुम करोड़ों
मील के फासले
पर होओ और
हृदय
तुम्हारा बिलकुल
पास हो, मेरे
हृदय के पास
धड़के।
प्रेम
चाहिए; प्रेम
ही पास होना
है। तुम मेरे
पास हजार
कारणों से आ
सकते हो, लेकिन
आ न पाओगे। एक
कारण ही
तुम्हें मेरे
पास ला सकेगा,
वह प्रेम है।
तुम
मेरे पास आ
सकते हो, क्योंकि
मेरी बातें
तुम्हें ठीक
मालूम पड़ती
हैं। तो तर्क
के कारण तुम
मेरे पास आ गए।
वह कोई पास
आना नहीं है।
तुम्हारे—मेरे
बीच कोई हृदय
का लेन—देन
नहीं हुआ; बुद्धि
का सौदा हुआ।
तुम्हें मेरी
बात जमी, तुम्हें
मेरी बात पटी;
तर्क ने
हामी भरी।
तुमने कहा, ही, बात
ठीक लगती है।
तुम बात के
कारण मेरे पास
हो, मेरे
कारण नहीं। कल
बात ठीक न
लगेगी, दूर
हो जाओगे। कल
किसी और की
ठीक लगेगी, वहां चले
जाओगे। तुम
बात के पारखी
थे; जहां
ले जाएगी, वहां
जाओगे।
और
बात भी
तुम्हारी
बुद्धि को ठीक
लगी। इसलिए
तुम,
मेरी बात
ठीक लगी, ऐसा
मत कहो। ऐसा ही
कहो कि
तुम्हारी
बुद्धि जैसी
है, उसमें
मेरी बात ठीक
लगी। अंतत: तो
तुम अपनी
बुद्धि को ही
चुन रहे हो, मुझे नहीं
चुन रहे हो।
निर्णय तो
तुम्हारे
तर्क का
तुम्हारे ही
पास है, तो
मेरे पास कैसे
आओगे!
तुम
हो सकता है, किसी
और कामना से
मेरे पास हो।
कुछ हो जाए, मुकदमा जीत
जाओ, बीमारी
दूर हो जाए; बच्चा घर
में नहीं पैदा
होता, वह
पैदा हो जाए।
अभी
कुछ दिन पहले
एक सज्जन आ गए।
वे इसीलिए आए
कि उनको बच्चा
नहीं पैदा
होता। मैंने
उनको कहा कि
तुम किसी
चिकित्सक के
पास जाओ। मेरे
पास आने से
क्या लेना—देना
है! और मैं
क्यों जिम्मेवार
होऊंगा
तुम्हारे
बच्चे के पैदा
होने न होने
का! तुम मुझे
बख्शो।
पर
वे कहने लगे, नहीं,
बड़ी आशा से
आया हूं और
सदा आपकी याद
आती है।
मेरी
याद आती है? यहां
भी आकर वह
बच्चे की आकांक्षा
है, मेरी
क्या याद लेने
का संबंध है।
अगर बच्चा
यहां आने से
पैदा नहीं हुआ,
जो कि कोई
कारण नहीं है
यहां आने से
बच्चा पैदा होने
का, तो तुम
कहीं और जाओगे।
वह। भी तुम
यही कहोगे कि
आपकी बड़ी याद
आती है।
नहीं, अगर
तुम किसी और
कारण से आ गए
हो, कोई
वासना है, कोई
इच्छा है, कोई
कामना है, वह
पूरी करनी है,
तो तुम मेरे
पास आए ही
नहीं हो। फिर
आनंद की झलक न
होगी। तुम आए
ही नहीं, तुम्हें
भ्रांति रही
कि तुम आ गए थे,
क्योंकि
तुमने ट्रेन
में सफर की और
तुम पूना पहुंच
गए। मेरे पास
आने के लिए
कुछ और आंतरिक
और सूक्ष्म
यात्रा चाहिए।
वह हृदय की
यात्रा है; तुम अकारण
आते हो।
अगर
तुमसे कोई
पूछे कि तुम ठीक—ठीक
बताओ, क्यों
तुम इस आदमी
के पास हो? और
तुम न बता पाओ,
और तुम कहो
कि कुछ कहना
मुश्किल है, बेबूझ है
बात, कोई
कारण नहीं है
होने का। असल
में दूर जाने
के सब कारण
हैं, पास
होने का कोई
कारण नहीं है।
पर एक लगाव है।
हृदय में कोई
बात धड़कती है।
यह आदमी गलत
हो या सही हो, तर्कयुक्त
हो या अतर्क
से भरा हो; जो
कहता हो, वह
ठीक हो, गलत
हो, इस
सबका हिसाब
नहीं है। यह
आदमी भा गया।
यह क्या करता
है, क्या
नहीं करता है,
इस सबका भी
प्रयोजन नहीं
है।
जैसे
कोई किसी के
प्रेम में पड़
जाता है, तो
प्रेम तो अंधा
है। अगर तुम
वैसे अंधे
होकर मेरे पास
हो! और मैं तुमसे
कहता हूं कि
प्रेम
एकमात्र आंख
है। लोग कहते
हैं, प्रेम
अंधा है, क्योंकि
लोगों के पास
प्रेम की आंख
नहीं है। उनके
पास तो सिर्फ
संदेह की आंख
है। श्रद्धा
की आंख से
उनका कोई
परिचय नहीं है।
अगर
तुम संदेह की आंख
से ही आए हो, तो
दूर ही दूर
रहोगे, फासला
बना ही रहेगा,
सीमाएं
टूटेंगी नहीं।
अगर
तुम श्रद्धा
के अंधेपन को
लेकर आए हो, या
जिसे मैं कहता
हूं श्रद्धा
की आंख—दोनों
एक ही बात है—तो
सीमाएं खो
जाएंगी। और तब
तुम पाओगे, एक अपूर्व
आनंद से
तुम्हारा मन—मदिर
भरने लगा, एक
नई पुलक
तुम्हारे
जीवन में आई, एक नई थिरक, जिससे तुम
अपरिचित थे।
एक नई धुन बजी।
तुम एक नए नाच,
एक नए उत्सव
में सम्मिलित
हुए। तुम मेरे
भीतर आ गए।
मेरे पास आने
का अर्थ है, मेरे भीतर आ
गए। मेरे पास
आने का अर्थ
है, मुझे
तुमने अपने
भीतर आने दिया।
सब सुरक्षा की
फिक्र छोड़ दी।
सब सुरक्षा के
आयोजन छोड़ दिए।
सब दीवारें
अलग कर लीं।
खतरनाक
है। इसलिए तो
प्रेम
मुश्किल हो
गया है।
क्योंकि
प्रेम का मतलब
है,
तुम
असुरक्षित हो
जाओगे। प्रेम
धीरे—धीरे
कठिन होता गया
है।
और
जब प्रेम ही
कठिन हो गया, तो
श्रद्धा तो
बहुत असंभव हो
गई। क्योंकि
श्रद्धा तो
प्रेम का
नवनीत है; वह
तो उस प्रेम
का शुद्धतम
सार है। प्रेम
अगर दूध है, तो श्रद्धा
नवनीत है।
मनों दूध में
से निकालों, तब थोड़ा—सा
नवनीत निकल
पाएगा।
लेकिन
दूध आज नहीं
कल सड़ जाता है।
इसलिए सब
प्रेम सड़ जाता
है। जो अपने
प्रेम को श्रद्धा
तक नहीं
पहुंचाता, उसका
प्रेम सड़ ही
जाएगा।
अब
यह बड़े मजे की
बात है। दूध
पुराना हो, तो
सड़ जाता है।
घी पुराना हो,
तो
मूल्यवान हो
जाता है।
जितना पुराना
घी हो, उतना
पौष्टिक हो
जाता है। औषधि
में बड़े
पुराने घी का
प्रयोग करते
हैं। अगर कई
साल पुराना घी
मिल जाए, तो
उसकी शीतलता
ही अनूठी है; वह प्रायों
से ताप को हर
लेता है।
दूध
तो सड़ ही जाता
है। इसके पहले
कि दूध सड़ जाए, दही
बना लेना। अगर
तुमने दही बना
लिया, तो
तुमने सड़ने से
बचा लिया।
इसके पहले कि
दही सड़ जाए, तुम नवनीत
अलग कर लेना।
तब तुमने
शाश्वत को बचा
लिया।
सब
प्रेम सड़ जाता
है। तुम भी
जानते हो कि
सब प्रेम सड़
जाता है।
पत्नी से करो, वह
भी सड़ जाता है।
बच्चों से करो,
वह भी सड़
जाता है।
मित्रों से
करो, वह भी
सड़ जाता है।
सब प्रेम सड़
जाता है। कुछ
प्रेम का कसूर
नहीं है।
प्रेम तो दूध
है। उसमें सिर्फ
संभावना है।
तुम दूध को ही
लिए बैठे रह
गए, वह सड़
ही जाएगा।
जल्दी
करो,
नवनीत बनाओ!
प्रेम को
श्रद्धा तक ले
आओ। तब प्रेम
भी श्रद्धा
में बच जाता
है। और
श्रद्धा तो
कभी सड़ती नहीं।
और श्रद्धा तो
जितनी
प्राचीन होने
लगती है, उतनी
ही अनूठी होने
लगती है, उतनी
ही उसकी औषधि
का गुण बढ़ता
जाता है; वह
अमृत होने
लगती है।
तुम
अगर श्रद्धा
से मेरे पास
हो,
अगर प्रेम
के नवनीत को
तुमने मेरे
पास सीखा है, जीया है, निर्मित
किया है, तो
तुम आनंद से
भर जाओगे।
उसमें फिर कोई
दो मत नहीं
हैं। उससे
अन्यथा होता
ही नहीं है।
लेकिन
अगर तुम आनंद
से न भरो, तो
समझना कि तुम
पास आए ही
नहीं। तुम दूर
ही दूर थे।
शारीरिक
निकटता को
तुमने निकटता
समझकर भूल कर
ली। वह कोई
निकटता नहीं
है। वह तो
निकट होने का
भ्रम और आभास
है।
निकटता
तो केवल एक है, वह
हृदय की है।
सामीप्य एक है,
वह प्रेम का
है। नवनीत एक
है, वह
श्रद्धा का है।
चौथा
प्रश्न : हम
दुख से तो सदा
बचना चाहते
हैं, पर जीवन
की शैली
निषेधात्मक
क्यों कर बन
जाती है?
बचना
चाहते हो, तो
जीवन की शैली
निषेधात्मक
बन ही जाएगी।
वह बचने में
ही तो निषेध
है। भागना
चाहते हो।
किसी भी चीज
को आमने—सामने
साक्षात्कार
नहीं करना
चाहते।
दुख
है तो भागोगे
कहां? और दुख
है तो
परिस्थिति के
कारण अगर होता,
तो भाग भी
जाते। दुख तो
तुम्हारे ही
कारण है। यही
तो सभी
ज्ञानियों का
विश्लेषण है।
दुख
परिस्थिति के
कारण नहीं है।
परिस्थिति
बदली जा सकती
है। पूना में
दुख है, भाग
जाओ कलकत्ता।
शायद दो—चार
दिन पाओ कि
परिस्थिति के
बदलने से दुख
नहीं है।
लेकिन जैसे ही
व्यवस्थित हो
जाओगे, पाओगे
कि फिर दुख
पैदा हो गया।
क्योंकि तुम
तो अपने साथ
ही पहुंच
जाओगे। तुम
अपने को पीछे कहां
छोड़ जाओगे।
तुम
अपने दुख की
सारी
व्यवस्था
अपने साथ लिए
जा रहे हो।
अगर यहां तुम्हारी
लोगों से कलह
हो जाती थी, क्रोध
हो जाता था, कलकत्ते में
नहीं होगा? फिर होगा।
हिमालय पर
जाओगे, क्या
होगा? वहां
भी वही होगा।
अगर तुम यहां
उदास होते थे,
दुखी होते
थे, तो
हिमालय पर
बैठकर दुखी और
उदास होओगे।
तुम्हारा
होना
तुम्हारे दुख
का कारण है।
भागो मत।
पलायनवादी मत
बनो। भगोड़ों
से सारी
पृथ्वी भरी है, पूरा
मनुष्य जाति
का इतिहास भरा
है। उनसे कुछ
बदला नहीं।
उनसे जीवन में
निषेध की शैली
आई। उनसे
लोगों ने यही
सीखा कि जहां
भी घबड़ाहट, परेशानी
मालूम पड़े, वहां से भाग
जाओ। भागकर
जाओगे कहा? जो तुमने यहां
पैदा किया था,
वही तुम नई
जगह फिर पैदा
कर लोगे, थोड़ी
देर लगेगी।
लोग
मरघट ले जाते
हैं किसी की
अर्थी को, तो
रास्ते में
कंधा बदल लेते
हैं। एक कंधे
पर से अर्थी
दूसरे कंधे पर
रख ली, थोड़ी
देर को राहत
मिलती है। थका
हुआ कंधा
सुस्ता लेता
है। सुस्ताया
कंधा थोड़ा
ताकतवर होता
है। पर थोड़ी
देर बाद फिर
वही हालत आ
जाती है।
कंधे
मत बदलों।
कंधे बदलने से
कोई सार नहीं
है। इसलिए मैं
कहता हूं
संसार को
छोड्कर मत
भागो।
क्योंकि एक
बार छोड्कर
भागना
तुम्हारी
जीवन—शैली बन
गई,
तो तुम
भागते ही
रहोगे और
पहुंचोगे
कहीं भी नहीं।
क्योंकि रोग
तुम्हारे
भीतर है, रोग
तुम हो। औषधि
वहीं करनी है,
चिकित्सा
वहीं करनी है,
समाधान
वहीं खोजना है,
बाहर नहीं।
दुख
से क्यों
भागते हो? अगर
दुख है, तो
तुमने बुलाया
होगा; बिना
बुलाए संसार
में कुछ आता
नहीं। अगर दुख
है, तो
तुमने इसे
संवारा होगा;
अनजाने सही,
बेहोशी में
सही। तुमने
शायद सुख ही
चाहा होगा।
तुम शायद सुख
की आकांक्षा
से ही कुछ किए
थे। लेकिन दुख
आया है। उससे
साफ है कि तुम
दुख के लिए
निमंत्रण दिए
थे।
तुमने
बीज बोए। तुम
आम की
प्रतीक्षा
करते थे, आम
नहीं लगे, नीम
के कड़वे फल लग
गए। तो क्या
तुम यह कहोगे
कि आम के
बीजों में नीम
के फल लग गए? यह तो होता
नहीं। होने की
संभावना यही
है कि जिन्हें
तुमने आम के
बीज समझा था, वे नीम के
बीज थे। बीज
बोने में भूल
हो गई।
तुम
चेष्टा तो
करते हो सुख
की,
लेकिन
मिलता दुख है।
तुम ठीक से
नहीं समझ पा
रहे कि तुम
नीम के बीज बो
रहे हो, आकांक्षा
आम की कर रहे
हो। और रोज
यही करते हो, फिर भी नहीं
जागते। भागो
मत। दुख है, तो तुम्हारे
कारण। दुख है,
तो तुमने
बुलाया था, इसलिए आया
है। दुख है, तो तुमने
वर्षों तक
इसकी
प्रतीक्षा की
थी, अब
उसका आगमन हुआ
है, अब
भागते कहां
हो! अब इस
अतिथि का
स्वागत करो।
अब इस अतिथि
को ठहराओ, इससे
परिचित हो जाओ।
इससे इतने
परिचित हो जाओ
कि दुबारा भूल
—चूक से
निमंत्रण न
दिया जा सके।
इसका नाम—पता,
इसका जीवन —ढंग,
इसकी
स्थिति सब समझ
लो, ताकि
दुबारा तुम
फिर से इनको
पत्र न लिख दो।
नहीं तो तुम
फिर वही भूल
करोगे।
भागने
वाला बार—बार
वही भूल करता
है। तुम अब
जागकर दुख को
समझ लो।
मेरी
जीवन—दृष्टि
जागने पर जोर
देती है, भागने
पर नहीं, समझने
पर जोर देती
है, पलायन
पर नहीं। वह
तो कायर का
मार्ग है।
साहसी, थोड़ा
भी साहसी हो, तो जो आ गया
जीवन में उसका
साक्षात्कार
करता है।
दुख
है,
ठीक है। उसे
देखो, क्यों
है? कैसे
आया? कैसे
तुमने बुलाया?
और अब तुम
आगे बुलाने से
कैसे बच सकते
हो? नहीं
तो तुम फिर—फिर
वही भूल करोगे।
आदमी
का बड़ा अदभुत
लक्षण यह है
कि वह अनुभव
से सीखता ही
नहीं। वही—वही
तो घटनाएं तुम
रोज करते हो।
कल भी क्रोध
किया, परसों
भी क्रोध किया,
जीवनभर
क्रोध किया, आज भी क्रोध
किया, कल
भी क्रोध
करोगे। तुम
कुछ नया कर
रहे हो? अगर
तुम अपनी
जीवनचर्या
लिखो, तो
तुम पाओगे, तुम्हारी
जीवनचर्या
वही की वही है,
पुनरुक्ति
होती है रोज।
तुम गाड़ी के
चाक हो, घूमते
चले जाते हो, वही के वही; कोई फर्क
नहीं पड़ता।
अब
रुकी और समझो।
दुख है।
निश्चित, बहुत
दुख है।
क्योंकि
तुमने अब तक
दुख के बीज
बोए। अब तुम
फसल काट रहे
हो। इसको तुम
किसी और का
उत्तरदायित्व
मत समझो। नहीं
तो फिर चूक
जाओगे। पूरा
उत्तरदायित्व
अपने ऊपर ले
लो कि मैंने
जो किया, मैं
भोग रहा हूं।
यही तो सारा
कर्म का
सिद्धात है।
जो बोथा।, वह
काटेगा। जो
बोएगा, वही
काटेगा। जो
करेगा, वही
भरेगा।
बिलकुल साफ है।
समझो।
दुख द्वार आया
है,
इस अवसर को
ऐसे ही मत खो
दो। यह समझने
का बड़ा सुखद
अवसर है। इसे
ठीक से पहचान
लो, ताकि
दुबारा ये बीज
तुम न बोओ।
और
मैं नहीं कहता
कि तुम कसम
खाओ कि अब
दुबारा बीज न
बोएंगे, क्योंकि
कसम भी नासमझ
खाते हैं। समझ
लिया, फिर
क्या कसम खानी
है। अगर तुमने
क्रोध को समझ
लिया कि दुख
है, तो
क्या तुम
मंदिर में
जाकर कसम
खाओगे कि अब क्रोध
कभी न करूंगा!
यह बात ही फिजूल
हो गई। तुमने
दुख समझ लिया
क्रोध को, बात
खतम हो गई।
अगर समझ लिया,
तो तुम
दुबारा इसी
मार्ग से न
गुजरोगे।
एक
दफा आदमी
दीवार से
निकलने की
कोशिश किया, सिर
टूट गया; अब
वह कसम थोड़े
ही खाता है
मंदिर में
जाकर कि अब
दुबारा दीवार
से निकलने की
कोशिश न
करूंगा। चाहे
दीवार कितना
ही प्रलोभन दे
और चाहे लोग
कितना ही
प्रचार करें,
मैं तो अब
दरवाजे से ही 1
निकलूंगा।
नहीं, ऐसा
आदमी अपने आप
दरवाजे से
निकलता है।
बात खतम हो गई।
दुख
को ठीक से देख
लो,
वहां दीवार
है। दरवाजा
अगर तुमने
देखा था, तो
वह तुम्हारी
भांति थी।
वहां सिर्फ सिर
टकराएगा, पीड़ा
होगी, लहू
बहेगा। द्वार
को खोजो।
द्वार पास ही
है, दूर
नहीं है।
क्रोध में
द्वार नहीं है,
करुणा में
द्वार है।
हिंसा में
द्वार नहीं है,
घृणा में
द्वार नहीं है।
क्योंकि कभी
कोई उनके
द्वारा सुख
नहीं पा सका।
प्रेम में
द्वार है, दया
में द्वार है।
उनसे जो गुजरे,
वे प्रभु के
मंदिर में
प्रविष्ट हो
गए।
तो
दुख को ठीक से
पहचान लो। और
तब तुम पाओगे
कि तुम्हारे
जीवन में सुख
अपने आप बरसने
लगा।
ऐसा
समझो कि दुख
का तो अर्जन
करना पड़ता है, सुख
बरसता है। दुख
तुम्हारी
उपलब्धि है, सुख
तुम्हारा
स्वभाव। सुख
के लिए किसी
कारण की कोई
जरूरत नहीं, दुख के लिए
कारण होते हैं।
अगर तुम
चिकित्सक के
पास जाओ, तो
वह तुम्हारी
बीमारी के
कारण खोज सकता
है, तुम्हारे
स्वास्थ्य के
कारण नहीं खोज
सकता।
स्वास्थ्य का
कोई कारण होता
ही नहीं।
स्वास्थ्य
स्वाभाविक है।
जब बीमारी
होती है, तब
कारण होता है।
तो चिकित्सक
बीमारी का
निदान कर देता
है।
चिकित्साशास्त्र
के पास
स्वास्थ्य की
कोई परिभाषा
तक नहीं है।
इतनी ही
परिभाषा है कि
जब कोई बीमारी
न हो। यह भी
कोई परिभाषा
हुई?
बीमारी से
स्वास्थ्य की
परिभाषा! कोई
बीमारी न हो, तुम स्वस्थ
हो।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि स्वास्थ्य
तो स्वभाव है, बीमारी
पर— भाव है।
बीमारी बाहर
से आती है, इसलिए
कारण खोजे जा
सकते हैं।
स्वास्थ्य
तुम्हारे
भीतर ही खिलता
है, अकारण
है। वह फूल
अकारण है।
शांति
भी अकारण है, अशांति
सकारण है। दुख
सकारण है, सुख
अकारण है। अगर
यह बात
तुम्हें ठीक
से समझ में आ
जाए तो जब भी
दुख हो, कारण
खोजना; और
जब भी सुख हो, तब सुख को
भोगना, कारण
वहां कोई है
ही नहीं।
सुख
को भोगो, दुख
को समझो, परमात्मा
दूर नहीं है
फिर। सुख को
जीओ, दुख
को पहचानो, मोक्ष दूर
नहीं है फिर।
तुम ठीक
रास्ते पर चल
रहे हो।
सुख
को पहचानते —पहचानते
महासुख हो
जाएगा। दुख को
पहचानते—पहचानते
दुख के कारण
तिरोहित हो
जाएंगे। उस
घड़ी को हमने
सच्चिदानंद
कहा है। तब
तुम्हारे
जीवन की शैली
विधायक होगी।
अभी
तुम्हारे
जीवन की शैली
निषेधात्मक
है। भागों, यह
न करो, वह न
करो। यहां से
हटो, बचो।
इससे तुम कहीं
पहुंचे नहीं
हो। न कहीं
पहुंच सकते हो।
अब
सूत्र:
और हे
अर्जुन, अब
सुख भी तू तीन
प्रकार का
मुझसे सुन। हे
भरतश्रेष्ठ, जिस सुख में
साधक पुरुष
ध्यान, उपासना
और सेवादि के
अभ्यास से रमण
करता है और
दुखों के अंत
को प्राप्त
होता है, वह
सुख प्रथम साधन
के आरंभ काल
में यद्यपि
विष के समान
भासता है, परंतु
परिणाम में
अमृत—तुल्य है।
इसलिए जो
आत्मबुद्धि
के प्रसाद से
उत्पन्न हुआ
सुख है, वह
सात्विक कहा
गया है।
और जो सुख
विषय और
इंद्रियों के
संयोग से होता
है, वह
यद्यपि भोग
काल में अमृत
के सदृश भासता
है, परंतु
परिणाम में
विष सदृश है, इसलिए वह
सुख राजस कहा
गया है।
तथा जो सुख
भोग काल में
और परिणाम में
भी आत्मा को
मोहने वाला है, वह
निद्रा, आलस्य
और प्रमाद से
उत्पन्न हुआ
सुख तामस कहा गया
है।
और हे
अर्जुन, पृथ्वी
में या स्वर्ग
में अथवा
देवताओं में ऐसा
वह कोई भी
प्राणी नहीं
है कि जो इन
प्रकृति से
उत्पन्न हुए
तीनों गुणों
से रहित हो।
तामसिक
सुख से
प्रारंभ करें।
जो
सुख भोग काल
में और परिणाम
में भी आत्मा
को मोहने वाला
है.....।
मूर्च्छित
करने वाला है, जिसका
गुण शराब जैसा
है, जिससे
चैतन्य खोता
है; जिससे
समझ तिरोहित होती
है, ढकती
है; जिसमें
भीतर की
प्रज्ञा पर
राख जम जाती
है। जिससे तुम
ऐसा व्यवहार
करने लगते हो,
जैसा तुम भी
होश के क्षणों
में सोच न
सकते थे कि
करोगे।
तुम
ऐसे आच्छादित
हो जाते हो
मूर्च्छा से, जैसे
शराबी गालियां
बकने लगता है,
रास्ते पर
उलटा—सीधा
चलने लगता है
और सुबह उठकर
उसे याद भी
नहीं रहती कि
मैंने क्या
किया। और सुबह
तुम उसे कहो
कि तुमने ऐसा—ऐसा
व्यवहार किया,
तो वह कहेगा,
क्या मैं
पागल हूं! ऐसा
मैं कैसे कर
सकता हूं।
जो
सुख भोग—काल
में और परिणाम
में भी आत्मा
को मोहने वाला
है।
सुख
को भोगते समय
भी जो मनुष्य
को मूर्च्छित
करता है और
परिणामत: भी, अंततः
भी जो अपने
पीछे
मूर्च्छा को
ही छोड़ जाता निद्रा,
आलस्य और
प्रमाद से
उत्पन्न हुआ।
ऐसा
सुख निद्रा से
उत्पन्न होता
है,
आलस्य से
उत्पन्न होता
है, प्रमाद
से उत्पन्न
होता है। उसे
तामस कहा गया
है।
तुम्हारे
जीवन में कुछ सुख
हैं,
जो आलस्य से,
प्रमाद से
और निद्रा से
उत्पन्न होते
हैं। उन सुखों
को वस्तुत:
सुख कहना ठीक
नहीं है, क्योंकि
उनका
आत्यंतिक
परिणाम
महादुख में ले
जाना है।
लेकिन वे
प्रतीत तो सुख
जैसे होते हैं।
एक
आदमी ने
ज्यादा खाना
खा लिया है।
खाना खाते
वक्त कितना ही
सुखद मालूम
पड़े,
दुखद है।
शरीर का
संतुलन खो
जाएगा। शरीर
पर बोझ पड़ेगा,
मूर्च्छा
होगी, आलस्य
बढ़ेगा। यह
आदमी पड़ा
रहेगा घंटों
तंद्रा में।
और तब भी उठकर
यह न पाएगा, ऊर्जस्वी
हुआ, सतेज
हुआ, शक्ति
जागी। तब भी
ऐसा ही पाएगा,
धुंध—धुंध
से घिरा, ढंका—ढंका,
मरा—मरा, जीवंत नहीं।
एक
उदासी ऐसे
आदमी को घेरे
रहेगी। चलेगा, तो
जबरदस्ती, जैसे
धकाया जा रहा
है। करेगा कुछ,
तो मजबूरी
में। लेकिन
प्राण में कोई
प्रफुल्लता न
होगी। ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में रात
ही रात रहेगी,
सुबह का
सूरज उगता ही
नहीं। ऐसा
व्यक्ति
ज्यादा खाएगा,
ज्यादा
सोएगा, नशे
खोजेगा।
और
उसका रस हमेशा
इस बात में
होगा कि जहां
भी किन्हीं
कारणों से होश
खो जाए, वहीं
उसे सुख मालूम
पड़ेगा।
सिनेमा में
बैठ जाएगा तीन
घंटे के लिए, ताकि होश खो
जाए। उसकी
चेष्टा होगी
मूर्च्छा की
तलाश की। जिन
चीजों में भी
जागरण आता है,
वहां उसे रस
न आएगा। उसकी
आकांक्षा यह
है कि अगर वह
सदा सोया रहे,
तो बड़ा सुखी
होगा।
इसका
बहुत गहरा
अर्थ क्या हुआ? इसका
गहरा अर्थ हुआ,
यह आदमी
जीना ही नहीं
चाहता; यह
आदमी मरना
चाहता है। यह
मरे — मरे जीना
चाहता है।
नींद छोटी मौत
है। मूर्च्छा
अपने हाथ से
बुलाई गई मौत
है।
ऐसा
आदमी यह कह
रहा है कि
परमात्मा
तुझसे मुझे
बड़ी शिकायत है
कि तूने मुझे
जीवन दिया। यह
आदमी चाहता है
कि कब में ही
पड़ा रहे, तो
अच्छा है।
इसका जीवन
करीब—करीब कब
में ही जीया
जाएगा। और
इसको यह समझता
है सुख।
इसे
पता ही नहीं
है कि महासुख
संभव था, इसने आंख
ही न खोली।
बड़े सुख के
बादल घिरे थे,
इसने झोली
ही न फैलाई।
सूरज ऊगा था, यह आंख बंद
किए बैठा रहा।
चारों तरफ
जीवन नृत्य कर
रहा था, परमात्मा
का उत्सव था, यह सम्मिलित
न हुआ।
तामस
सुख,
भोग काल में
और परिणाम में
भी आत्मा को
मोहने वाला है।
मोह यानी
मूर्च्छा, मोह
यानी शराब।
तो
तुम अपने
सुखों में खोज
करना। अगर
तुम्हारा सुख
ऐसा हो कि
नींद में ही
सुख आता हो, ज्यादा
खाना खा लेने
में सुख आता
हो, शराब
पीने में सुख
आता हो। बस, किसी भी तरह
अपने को भूल
जाएं कहीं, इसमें सुख
आता हो।
कामवासना में
सुख आता हो।
तो समझना कि
ये सब तामस
सुख हैं। ये
तुम्हें और—
और गहरे नरक
में ले जाएंगे।
इनसे तुम जीवन
के आरोहण को
उपलब्ध न
होओगे, जीवन
का सोपान न
चढ़ोगे। इनसे
तुम नीचे
गिरोगे। तुम
मनुष्य जीवन
का ठीक—ठीक
उपयोग ही नहीं
कर पा रहे हो।
अवसर ऐसे ही
खोया जाता है।
वह
निद्रा, आलस्य
और प्रमाद से
उत्पन्न हुआ
सुख तामस कहा गया
है। और जो सुख
विषय और
इंद्रियों के
संयोग से होता
है.। ऐसा समझ
लें कि भीतर
दीया जल रहा
है चेतना का।
तामस सुख ऐसा
है, जैसे
दीए के चारों
तरफ अंधेरे को
इकट्ठा कर लो
और अंधेरे में
ही सुख पाओ।
दिन दुख दे, रात में ही
सुख पाओ।
तो
जिन समाजों
में तामस सुख
बढ़ जाता है, उनमें
लोगों का
रात्रि—जीवन
बड़ा
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
दिनभर तो वे
किसी तरह
गुजारते हैं।
रात के लिए
क्लब, होटल,
सिनेमाघर, थियेटर, नाच,
वेश्या, रात
का ही जीवन
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
दिन तो उन्हें
व्यर्थ मालूम
पड़ता है, रात
में ही
सार्थकता
दिखाई पड़ती है।
अंधकार कीमती
मालूम पड़ता है।
अगर
इस तरह के लोग
उपनिषद लिखें, तो
वे कहेंगे, हे परमात्मा,
हमें
प्रकाश से
अंधकार की तरफ
ले चल; जीवन
से मृत्यु की
तरफ ले चल।
अमृत हम नहीं
चाहते, हमें
मृत्यु दे।
उनकी यही
प्रार्थना
है।
जो
सुख विषय और
इंद्रियों के
संयोग से होता
है?।
फिर, चेतना
का दीया जल
रहा है। कुछ
लोग उसके आस—पास
के अंधेरे में
ही सुख पाते
हैं। उन्हें
पूरा सुख तो
तभी मिलेगा, अगर दीया
बिलकुल बुझ
जाए, अंधेरा
ही अंधेरा रह
जाए। ऐसे तामस
से भरे व्यक्ति
कभी—कभी
आत्महत्या
में भी सुख
पाते हैं; अपने
को मिटा लेने
में भी सुख
पाते हैं।
क्योंकि तब
उन्हें पूरा
विश्राम हो
जाता है। सुबह
न तो घड़ी का
अलार्म उठा
सकेगा, न
ब्रह्ममुहूर्त
के पक्षी जगा
सकेंगे, न
मंदिरों की
बजती हुई
घंटों की आवाज,
न चर्च, न
मस्जिद की अजान
परेशान करेगी।
खो गए; झंझट
से बाहर हुए।
आत्मघातियों
में बड़ा वर्ग
तामसियों का
होता है। वे
जीवन को इनकार
कर रहे हैं।
एक परम प्रसाद
था परमात्मा
का, उसको
इन्होंने
इनकार कर दिया।
दूसरा
सुख है, तामसी
सुख के बाद
राजसी सुख। यह
इंद्रियों और
विषयों के
संयोग से
उत्पन्न होता
है।
चैतन्य
का दीया जल
रहा है। अगर
इसके पास
अंधेरे में
सुख लेते हो, तो
तामसी। अगर इस
चैतन्य के दीए
का सुख सीधा
नहीं लेते, इंद्रियों
के माध्यम से,
शरीर के
माध्यम से, भोग के
माध्यम से
लेते हो, तो
सुख राजसी है।
और अगर इस दीए
की ज्योति का
सुख दीए की
ज्योति के ही
कारण लेते हो,
बिना किसी
माध्यम के—न
इंद्रियों का
माध्यम, न
विषय का
माध्यम, न
शरीर का, न
मन का—सीधे इस
प्रकाश में ही
आह्लादित
होते हो, तो
सात्विक।
जो
सुख विषय और
इंद्रियों के
संयोग से होता
है,
वह भोग काल
में अमृत के
सदृश मालूम
पड़ता है, परंतु
परिणाम में
जहर की भांति
है.....।
इंद्रियों
के सभी सुख
भोगते समय
सुखद मालूम पड़ते
हैं,
भोगते ही
दुख बन जाते
हैं। धोखा है।
कामवासना
सुख देती
मालूम पड़ती है।
गई भी नहीं, कि
पीछे विषाद, पीड़ा, थकापन,
हारापन! और
एक
आत्मग्लानि पकड़
लेती है कि
फिर वही
नासमझी की, जिसका कोई
मूल्य नहीं है,
जो कहीं
पहुंचाती
नहीं है, जिससे
कभी कोई कहीं
गया नहीं है।
फिर एक बार
उसी गड्डे में
गिरे।
संभोग
के बाद ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, ऐसी
स्त्री खोजनी
मुश्किल है, जिसे
आत्मग्लानि
का स्वर सुनाई
न पड़ता हो।
अगर न सुनाई
पड़ता हो, तो
समझना कि उसका
सुख तामसी है।
तब कामवासना
भी सिर्फ
अंधेरे में खो
जाने का उपाय
है। अगर यह ग्लानि
का स्वर सुनाई
पड़ता हो संभोग
के बाद, तो
समझना कि सुख
राजसी है।
सभी
सुख,
इंद्रियों
के माध्यम से
जो लिए गए हैं,
वे
क्षणभंगुर
होंगे। वे ऐसे
ही होंगे, जैसे
रास्ते पर
चलते वक्त
अचानक एक तेज
प्रकाश वाली
कार पास से
गुजर जाए। एक
क्षण लगेगा, फिर गहन
अंधेरा हो
जाएगा।
अंधेरा पहले
से भी ज्यादा
अंधेरा हो
जाएगा। इतना
अंधेरा पहले
भी नहीं था।
इस प्रकाश ने आंखें
चौंधिया दी।
इंद्रियों से
मिले सुख और
भी गहरे
अंधेरे की प्रतीति
करवाते हैं
सुख के बाद।
इसलिए मिलते
समय तो अमृत
जैसा मालूम
होता है, परिणाम
में विष जैसा
मालूम होता है।
और
वह सुख जिसमें
साधक पुरुष
ध्यान, उपासना
और सेवादि के
अभ्यास से रमण
करता है और
दुखों के अंत
को प्राप्त
होता है, वह
सुख प्रथम
साधन के
प्रारंभ काल
में विष के समान
और परिणाम में
अमृत के तुल्य
है।
ठीक
राजस से उलटी
दशा सात्विक
की है।
प्रारंभ में
तो दुखद मालूम
होगा। सभी
तपश्चर्या
दुख मालूम
होती है।
ध्यान करो, प्रार्थना
करो, पूजा
करो, ऐसा
लगता है कि
कोई सुख नहीं
है। लेकिन जो
कर गुजरते हैं,
वे महासुख
के अधिकारी हो
जाते हैं।
ध्यान
करो,
कोई सुख
नहीं सुनाई
पड़ता कहीं भी।
ऐसा लगता है, समय व्यर्थ
गंवा रहे हो।
पैर दुखतें
हैं, चींटियां
काटती हैं, मच्छर सताते
हैं, हजार
तरह के मन में
विचार उठते
हैं, कल्प—विकल्प
का तूफान उठ
जाता है। इससे
तो वैसे ही
बेहतर थे, इतना
उपद्रव नहीं
होता था। गौर
से खोजते हो, पैर के पास
चींटी है ही
नहीं, लेकिन
काटना मालूम
पड़ता है। कहीं
शरीर खुजलाता
है। ये सब के
सब उपद्रव खड़े
हो जाते हैं।
बड़ा कठिन
मालूम पड़ता है।
एक चालीस मिनट
शांत बैठना
बड़ा दुखद
मालूम पड़ता है।
तपश्चर्या
दुखद है, लेकिन
उसके फल बड़े
मीठे हैं।
सात्विक सुख
प्रारंभ में
तो दुखपूर्ण
और अंत में
महासुख।
अब
समझें।
सात्विक सुख
राजस के
विपरीत है इस
अर्थों में कि
उसका माध्यम
इंद्रियां
नहीं हैं।
उसका माध्यम
है ही नहीं।
वह ध्यान, उपासना
और सेवादि में
अभ्यास के रमण
से उत्पन्न
होता है। वह
तुम्हारे
चैतन्य का
स्वभाव ही है।
तुम उसे किसी
माध्यम से
उपलब्ध नहीं
करते।
ध्यान
में क्या
माध्यम है? ध्यान
का अर्थ है, तुम खाली
होकर बैठ रहे।
धीरे—धीरे अगर
तुमने हिम्मत
रखी और बैठते
ही गए, बैठते
ही गए, एक
दिन ऐसा आएगा
कि विचार खो
जाएंगे। तुम अकेले
छूट जाओगे। उस
दिन उस स्वात
क्षण में, उस
मौन में, कहीं
से कोई संबंध
न रह जाएगा।
भीतर ही झरने
फूटने लगेंगे।
भीतर ही कोई
नई सुगबुगाहट,
कोई नई तरंग
तुम्हें डुबा
लेगी। भीतर ही
लहरें आने
लगेंगी। और ये
लहरें भीतर की
ही हैं, बाहर
से नहीं आती।
सात्विक सुख
तुम्हारे
भीतर से ही
आता है।
तामसिक सुख
तुम अपने भीतर
के दीए को
बुझाकर पाते
हो। राजसिक
सुख तुम
इंद्रियों और
शरीर के
माध्यम से
खोजते हो।
सात्विक
सुख राजसिक
सुख से विपरीत
है,
क्योंकि
इंद्रियों का
कोई माध्यम
नहीं है।
इसलिए भी
विपरीत है कि
राजसिक सुख
में पहले तो
सुख मिलता, फिर दुख।
सात्विक सुख
में पहले दुख
मिलता, फिर
सुख।
सात्विक
सुख तामसिक
सुख के विपरीत
है। क्योंकि
तामसिक सुख
मूर्च्छा पर
निर्भर है और
सात्विक सुख
अमूर्च्छा पर, ध्यान
पर, उपासना
पर, जागरण पर।
तामसिक सुख
शरीर की
बोझिलता पर
निर्भर है, आलस्य, प्रमाद।
सात्विक सुख
हलकेपन पर, जैसे पंख लग
गए प्राणों को,
जैसे तुम उड़
सकते हो आकाश
में, ऐसे
हलकेपन पर
निर्भर है।
ये
तीन तरह के
सुख हैं।
और
कृष्ण कहते
हैं,
पृथ्वी पर
या स्वर्ग में
ऐसा कोई
प्राणी नहीं है,
जो इन
प्रकृति से
उत्पन्न
तीनों गुणों
से रहित हो।
सभी
प्राणी इन
तीनों तरह के
सुखों के बीच
दबे हैं, पृथ्वी
पर या स्वर्ग
में। लेकिन
कृष्ण के
संबंध में
क्या कहोगे? कृष्ण तो
पृथ्वी पर खड़े
थे, जब यह
कह रहे थे।
क्या कृष्ण भी
इन तीन तरह के
सुखों में दबे
हैं?
नहीं, जो
इन तीनों को
जान लेता है, वह तीनों के
पार हो जाता
है। उसको हमने
तुरीय कहा है,
चौथी
अवस्था कहा है।
वह गुणातीत हो
जाता है।
लेकिन
जैसे ही तुम
गुणातीत हो
जाते हो, दूसरों
को तुम दिखाई
पड़ते हो कि
पृथ्वी पर हो,
फिर तुम
पृथ्वी पर
नहीं हो। फिर
तुम्हारे पैर
पृथ्वी पर
पड़ते हैं और
नहीं भी पड़ते।
फिर तुम यहां
दिखाई भी पड़ते
हो और यहां हो
भी नहीं। फिर
तुम प्राणी
नहीं हो।
तुम्हारी कोई
सीमा नहीं है।
तुम तो प्राण
का स्रोत हो
गए। तुम
परमात्मा हो
गए। तीन तरह
के सुख हैं, तीन तरह के
सुखों में जो
घिरा है, वह
प्राणी है।
तीन के जो पार
हो गया, वह
सृष्टि के पार
हो गया, वह
स्वयं
स्रष्टा का
अंग हो गया, गुणातीत हो
गया।
इन
तीनों सुखों
को गौर से
समझने की
कोशिश करना।
समझने का अर्थ
है,
अपने जीवन
में परखने की
कोशिश करना।
तुम्हारा
जीवन अभी तमस
से भरा है, तो
थोड़ा उठाओ
अपने को रजस
की तरफ। रजस
से भरा है, तो
उठाओ अपने को
सत्व की तरफ।
सत्व से भरा
है, तो
उठाओ अपने को
गुणातीत की
तरफ, क्योंकि
गुणातीत
मंजिल है।
सभी
गुणों के जो
पार हो गया, वह
प्रकृति के
पार हो गया।
प्रकृति के
पार हो जाना
परमात्मा हो
जाना है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें