(साक्षी
की साधना करना
बहुत बड़ा संकल्प
है और तथाता
की साधना करना
तो साक्षी से भी
बड़ा संकल्प है।
यह महासंकल्प
है। जब एक
आदमी यह तय
करता है कि
मैं साक्षी
बनकर जीऊंगा,
तो इससे बड़ा
संकल्प नहीं
है दूसरा।)
भगवान
श्री आपने कहा
है कि यदि कोई
साधक तीव्र
संकल्प के साथ
यह प्रयोग करे
कि मैं मरना
चाहता हूं मैं
अपने केंद्र
पर वापस लौटना
चाहता हूं तो
कुछ ही दिनों
में उसके
प्राण भीतर
सिकुड़ने लगेंगे
और साधक पहले
भीतर से बाद
में बाहर से अपने
ही शरीर को
मरा हुआ पड़ा
देख सकता है
तब उसका
मृत्यु का भय
सदा के लिए
मिट जाता है।
तो प्रश्न है
कि क्या इस
स्थिति में
पुन: शरीर में
सुरक्षापूर्वक
वापस लौट सकें
इसके लिए किसी
विशेष तैयारी
और सावधानी की
आवश्यकता है? या
वापस लौटना
अपने आप हो
जाता है? कृपया
इस पर प्रकाश
डालें।
मनुष्य
का जीवन बहुत
अर्थों में
उसके मन का ही जीवन
है। जिसे हम
शारीरिक घटना
समझते हैं, वह
भी गहरे में
मानसिक घटना
ही होती है।
शरीर पर जो भी
प्रकट होता है,
उसका जन्म
भी मन में ही
होता है। इस
संबंध में दो —चार
बातें समझ लें,
तो फिर जो
प्रश्न पूछा
है उसे समझना
आसान होगा।
आज
से पचास साल
पहले तक सारी
बीमारियां
शारीरिक
बीमारियां
थीं। इन पचास
सालों में
बीमारी के
संबंध में
जितनी समझ बढ़ी
है,
उतना ही
बीमारी का
अनुपात
शारीरिक कम
होता गया और
मानसिक
ज्यादा होता
गया। आज तो
बड़े से बड़ा
शरीरवादी भी
यह स्वीकार
करने को राजी
है कि पचास
प्रतिशत से
ज्यादा बीमारियां
मानसिक हैं।
जो बीमारियां
शारीरिक हैं,
वे भी आधे
से ज्यादा मन
से ही
प्रभावित
होती हैं। मन
ही हमारे
व्यक्तित्व
का आधार—बिंदु
है। वहीं से
हम जीते हैं, वहीं से हम
बीमार पड़ते
हैं, वहीं
से हम मरते
हैं। इसलिए
संकल्प का बड़ा
मूल्य है।
सम्मोहन
का प्रयोग अगर
आपने कभी देखा
हो,
तो सम्मोहन
की दो —तीन
छोटी —सी
बातें इस
संबंध में
खयाल ले लेने
जैसी हैं। अगर
एक सम्मोहित
व्यक्ति को जो
मूच्छित है.....।
और सम्मोहित
व्यक्ति का अर्थ
इतना ही होता
है कि जिसका
चेतन मन सो
गया है और
जिसका अचेतन
मन जाग गया है।
जिसका चेतन मन
सो जाता है, वह संदेह
करना बंद कर
देता है, क्योंकि
समस्त संदेह
चेतन मन तक ही
होते हैं। और
हमारे मन के
अगर हम दस खंड
करें, तो
एक खंड चेतन
है और नौ खंड
अचेतन हैं।
हमारे मन के
नौ हिस्से तो
अंधेरे में
अचेतन में हैं
और एक सिर्फ
छोटा—सा
हिस्सा जागा
है, चेतन
है। यह चेतन
मन ही संदेह
करता है, विचार
करता है, सोचता
है। अगर यह
चेतन मन सो
जाए, तो
फिर नीचे जो
नौ खंड मन के
रह जाते हैं, वे सिर्फ
स्वीकार करते
हैं। वहां कोई
संदेह नहीं है।
तो
सम्मोहित
अवस्था का
अर्थ है कि
आपका संदेह करनेवाला
मन सुला दिया
गया और अब
आपका निःसदिग्ध
रूप से भाव
करने वाला मन
ही शेष रह गया।
फिर हम इस
सम्मोहित
व्यक्ति के
हाथ पर अगर कंकड़
रख दें और
कहें कि हमने
एक अंगारा रखा
है,
तो वह
व्यक्ति चीख
मारकर
चिल्लाएगा। वह
चीख ठीक वैसी
ही होगी जैसे
अंगारा रखने
पर निकलती है।
और हाथ से
कंकड़ को वह
ऐसे ही फेंक
देगा, जैसे
आपने उसके हाथ
पर अंगारा रखा
होता तो फेंकता।
लेकिन यहां तक
खात चल सकती
है। उसके मन
को खयाल हो
गया। लेकिन
आश्चर्य तो तब
होता है जब
उसका हाथ फफोला
भी उठा देता है।
उसके हाथ पर
फफोला भी आ
जाता है जैसा
कि अंगारा
रखने पर आया
होता। रखा था
आपने साधारण
कंकड़, लेकिन
उसके मन ने
परिपूर्ण रूप
से स्वीकार किया
कि यह अंगारा
है। तो शरीर
के पास मन को
इनकार करने का
कोई उपाय नहीं
है।
इस
बात को ध्यान
में ले लें।
शरीर के पास
मन को इनकार
करने का कोई
भी उपाय नहीं
है। अगर मन ने
किसी चीज को
पूरी तरह
स्वीकार कर लिया, तो
शरीर को
अनुगमन करना
ही पड़ेगा।
इससे उलटा भी
हो जाता है।
वह इससे भी
ज्यादा
चमत्कारपूर्ण
है कि हाथ पर
आप अंगारा
रखें और
कहें
कि ठंडा कंकड़
रखा है, तो वह
आदमी अंगारे
को पकड़े बैठा
रहेगा और उसका
हाथ अंगारे की
वजह से फफोला
नहीं उठाएगा।
क्योंकि मन की
स्वीकृति के
बिना शरीर कुछ
भी करने में
असमर्थ है।
इसीलिए
फकीर हैं जो
नंगे पैरों से
अंगारों पर नाच
पाते हैं।
उसमें कुछ
चमत्कार नहीं
है। मन के
विज्ञान का
छोटा —सा
प्रयोग है। और
अगर दस फकीर
भरे हुए
अंगारों के
अलाव पर नाच
रहे हैं, तो वे
यह भी कह देते
हैं कि किसी
और को नाचना
हो, तो वह
भी आकर नाच ले।
इसलिए
धोखाधड़ी का
उपाय नहीं है।
आप भी नाच
सकते हैं।
लेकिन आप भी
तभी नाचेंगे
जब दस आदमियों
को नाचते
देखकर आपको
पक्का भरोसा आ
जाए कि वे जल
नहीं रहे हैं।
और जब आपको यह
भरोसा आ गया
कि दस नहीं जल
रहे हैं तो
मैं क्यों
जलूंगा, बस
आप भी उसी
हालत में
पहुंच गए, जिसमें
सम्मोहित
आदमी पहुंचता
है। अब आपका
एक हिस्सा मन
संदेह नहीं कर
रहा है, नौ
हिस्सा मन
विश्वास कर
रहा है। अब आप
कूद जाएं, आपके
पैर भी नहीं
जलेंगे। और
जिसको थोड़ा —सा
संदेह है, वह
कूदेगा नहीं।
जिसको संदेह
नहीं है, वह
कूद जाएगा। आग
भी न जलाए, अगर
मन स्वीकार
करने को राजी
नहीं है, और
ठंडक भी जला
दे, अगर मन
जलने के लिए
तैयार है।
सम्मोहन
के प्रयोग मन
के संबंध में
बड़े गहरे सत्यों
को प्रकट करते
हैं। एक लड़की
पर कुछ दिनों
तक मैं प्रयोग
कर रहा था।
उसके घर ही
ठहरा हुआ था।
जब वह
सम्मोहित थी, तो
मैंने उससे
कहा कि कमरे
में तुम्हारी
मां नहीं है।
उसकी मा सामने
ही बैठी हुई
है और कोई आठ
लोग बैठे हुए
हैं। सब
मिलाकर हम दस
लोग उस कमरे
में हैं। वह
लड़की, मैं,
और आठ लोग।
दस लोग उस
कमरे में हैं।
मैंने उस लड़की
से कहा कि
तेरी मां इस
कमरे के बाहर
चली गई। अब तू आंख
खोल और गिनती
कर। उसने आंख
खोली और गिनती
की। गिनती
उसने नौ तक की।
क्योंकि मा जो
सामने बैठी थी
वह तो थी नहीं
उसके लिए।
मैंने उससे
बहुत कहा कि
सामने के सोफे
पर कौन है! तो
उसने कहा, आप
भी कैसी बातें
करते हैं।
सोफा खाली है।
उसकी मां ने
उसको सोफे से
आवाज दी, उस
लड़की का नाम
लेकर। उसने उस
सोफे को
छोड्कर पूरे
कमरे में देखा
कि मां की
आवाज कहां से
आ रही है। उस
सोफे पर उसकी
मां नहीं है।
फिर
उसे दोबारा आंख
बंद करने को
कहा—और उसके
पिता उस कमरे
में मौजूद
नहीं थे —और
उससे कहा, अब
तुम्हारे
पिता आ गए हैं
और सामने की
कुर्सी पर आकर
बैठे हुए हैं।
आंख खोलो।
उसने आंख खोली
और उससे कहा, अब गिनती
करो। उसने
गिनती अब दस
तक की। मां जो
मौजूद थी उस
कुर्सी पर, वह मौजूद
नहीं है। उससे
पूछा कि इस
कुर्सी को तू
पहले खाली कह
रही थी, लेकिन
अब गिनती
क्यों कर रही
है? उसने
कहा कि पिता
जी आकर बैठ गए
हैं। पिता
वहां नहीं हैं,
लेकिन उसका
मन अगर पूरी
तरह स्वीकार
कर ले, तो
घटना घट जाएगी।
मन
के संकल्प की
बड़ी अदभुत
संभावनाएं
हैं। जो लोग
जिंदगी में
हारते हैं, उसमें
परिस्थितियां
कम होती हैं, उनके मन के
हारने की
स्वीकृति
ज्यादा होती
है। जो लोग
जिंदगी में
असफल ही होते
चले जाते हैं,
उनकी
असफलता में
संसार बहुत कम
हाथ बंटाता है,
सौ में से
नब्बे हिस्से
वे खुद ही
जिम्मेवार होते
हैं। और जब
कोई आदमी
नब्बे
प्रतिशत
हारने को
तैयार है, तो
दस प्रतिशत
संसार उसका
साथ न दे, तो
ज्यादती होगी।
दस प्रतिशत
संसार उसका
साथ देता है।
इस दुनिया में
जो लोग जीतते
चले जाते हैं,
उनका भी
नियम वही है।
जो लोग हारते
चले जाते हैं,
उनका भी
नियम वही है।
जो लोग स्वस्थ
हैं, उनका
भी नियम वही
है। जो लोग
बीमार हैं, उनका भी नियम
वही है। इस
जिंदगी में जो
शांत हैं, उनका
भी नियम वही
है। जो अशांत
हैं, उनका
भी नियम वही
है। आप क्या
होना चाहते
हैं, बहुत
गहरे में वही
हो जाते हैं।
विचार
वस्तुएं बन
जाती हैं, विचार
घटनाएं बन
जाती हैं, विचार
व्यक्तित्व
बन जाता है।
तो हम जहां
जीते हैं, जैसे
जीते हैं, उस
जीने में हम
ही बहुत गहरे
में आधारभूत
हैं। सारी
बुनियादें हम
रखते हैं। यह
सत्य खयाल में
आ जाए, तो
जो पूछा है वह
खयाल में आ
सकता है।
मैंने
कहा है कि
व्यक्ति तब तक
मृत्यु के भय
से मुक्त नहीं
हो सकता जब तक
वह स्वेच्छा
से मृत्यु में
प्रवेश न कर
जाए,
वालेंटरी।
एक बार मृत्यु
आएगी, लेकिन
तब वह
वालेंटरी
नहीं होगी, स्वेच्छा से
नहीं होगी, तब वह आएगी
और आपको
मजबूरी में
प्रवेश करना
पड़ेगा। और जिस
स्थान पर आपको
मजबूरी से
जाना पड़ रहा है,
वहा अगर आप
जाते वक्त आंख
बंद कर लें और
बेहोश हो जाएं,
तो आश्चर्य
नहीं है। जहां
आप घसीटे जा
रहे हैं, वहां
आप होशपूर्वक
नहीं जा सकते।
लेकिन यह
अनिवार्यता
का बंधन
आवश्यक नहीं
है। व्यक्ति
जीते जी
स्वेच्छा से
मरकर देख सकता
है। यह मृत्यु
बहुत अदभुत है।
साधारण जो
मृत्यु होती
है उससे बहुत
ज्यादा अदभुत
है। क्योंकि
इसको
स्वेच्छा से
देखा गया है।
आप कहेंगे, स्वेच्छा से
कोई मर कर
कैसे देख सकता
है?
तो
यह और समझ लें
कि हमारे
व्यक्तित्व
में,
हमारे शरीर
में, हमारे
पूरे यंत्र
में दो हिस्से
हैं—एक
वालेंटरी और
एक नान—
वालेंटरी।
कुछ हिस्से
हैं, जो
हमारी
स्वेच्छा से
चलते हैं।
जैसे मैं इस
हाथ को जब
हिलाता हूं, तब हिलता है।
अगर मैं न
हिलाना चाहूं, तो नहीं
हिलेगा।
लेकिन इस हाथ
के भीतर जो
खून बह रहा है,
वह मेरी
स्वेच्छा से
नहीं चलता कि
मैं कहूं कि
मत चलो तो न
चले। वह नान—वालेंटरी
है। मेरा हृदय
धड़क रहा है।
वह मेरी स्वेच्छा
से नहीं धड़क
रहा है कि मैं
कहूं कि पांच
मिनट जरा शात
रहो, तो वह
शांत हो जाए।
मेरी नाड़ी चल
रही है, वह
स्वेच्छा से
नहीं चल रही
है। मेरे पेट
में पाचन हो
रहा है, वह
स्वेच्छा से
नहीं हो रहा
है कि मैं
कहूं आज पाचन
मत करो, बंद
रखो, तो
पेट बंद रख दे।
हमारे
व्यक्तित्व
के संस्थान के
दो हिस्से हैं—स्वेच्छा
से चलने वाला
और स्वेच्छा
के अतीत चलने
वाला। लेकिन
अगर कोई
व्यक्ति अपनी
इच्छा की
शक्ति को बढ़ाए, तो
जो अभी
स्वेच्छा के
बाहर है, वह
स्वेच्छा के
भीतर आ जाएगा।
अगर किसी
व्यक्ति की
स्वेच्छा की
शक्ति कम हो
जाए, तो जो
इच्छा के भीतर
है, वह
इच्छा के बाहर
हो जाएगा।
जैसे
एक आदमी को
लकवा लग गया।
सौ में से
सत्तर से
ज्यादा लकवे
मानसिक होते हैं।
वस्तुत: लकवा
लगा नहीं है, सिर्फ
इस आदमी के
स्वेच्छा के
बाहर चले गए
हैं पैर। अब
यह कहता है
चलो, वे
नहीं चलते।
असल में पैर
बाहर नहीं चले
गए, क्योंकि
पैरों की क्या
सामर्थ्य है
बाहर जाने की।
इसकी
स्वेच्छा का
वर्तुल छोटा
हो गया है, इसकी
इच्छा—शक्ति
छोटी हो गई है,
पैर बाहर पड़
गए हैं। जैसे चांदर
छोटी हो गयी
है, आप ओढ़े
हैं तो पैर
बाहर निकल गये
हैं। पैर बाहर
पड़ गये हैं, इसकी इच्छा—शक्ति
की जो सीमा है,
वह सिकुड़ गई
है।
इसलिए
ऐसा बहुत बार
हुआ है कि
आदमी को लकवा
था,
वर्षों से
बीमार था, उठ
नहीं सकता था,
रात घर में
आग लग गई, सारे
लोग घर के
बाहर पहुंच गए,
तब उन्हें
खयाल आया कि
जिसको लकवा
लगा है उसका
क्या होगा।
लेकिन वे देख
रहे हैं कि वह
तो उनके पीछे
भागा चला आ
रहा है। वह तो
उठ नहीं सकता
था! वे तो घबड़ा
गए हैं, आग
तो भूल गए हैं,
इस आदमी को
देखकर हैरान हैं
कि तुम तो चल
नहीं सकते थे,
तुम चल कैसे
रहे हो? और
जब उन्होंने
उसे टोका और
पूछा कि आप
चले रहे हैं? तो उसने कहा,
मैं? मैं
चल कैसे सकता
हूं! वह वापिस
गिर गया। आग
की चोट और आग
की घबड़ाहट में
उसकी
स्वेच्छा का
वृत्त बड़ा हो
गया। पैर भीतर
आ गए चादर के।
वह निकल आया।
बाहर आकर उसे
याद आया कि
मैं चल कैसे
सकता हूं! उसका
स्वेच्छा का
वृत्त फिर
छोटा हो गया।
पैर फिर बाहर
पड़ गए।
नाड़ी
की गति भी
स्वेच्छा के
भीतर आ जाती
है। ऐसा नहीं
कि बड़े —बड़े
योगियों की आ
जाती है। आपकी
भी आ सकती है।
कोई बहुत बड़े
प्रयोग करने
की जरूरत नहीं
है। बैठकर एक
मिनट भर नाड़ी
की गति घड़ी
रखकर नाप लें।
फिर दस मिनट
तक आंख बंद
करके सिर्फ
भाव करें कि
नाड़ी की गति
बढ़ रही है।
फिर दस मिनट
के बाद नापे, तो
शायद ही एकाध
आदमी ऐसा हो
जिसकी गति न
बढ़ जाए।
इसलिए
डाक्टर जब आप
की नाड़ी नापता
है,
तो वह उतनी
कभी नहीं होती
जितनी थी।
डाक्टर के हाथ
पकड़ने से ही
घबराहट आपकी
बढ़ गई होती है।
और जैसे ही
डाक्टर देखता
है, आप
अस्तव्यस्त
हो गए होते
हैं। नाड़ी की
गति ज्यादा हो
जाती है। और
अगर लेडी
डाक्टर है, तो और
ज्यादा हो
जाएगी, क्योंकि
और घबराहट बढ़
गई।
हृदय
की धड़कन भी
स्वेच्छा के
भीतर आ जाती
है। करीब—करीब
बंद होने की
सीमा पर
पहुंचाई जा
सकती है। वैज्ञानिक
प्रयोग हो
चुके हैं और
स्वीकृत हो गए
हैं कि यह हो
सकता है।
आज
से कोई चालीस
साल पहले बंबई
मेडिकल कालेज
में ही
ब्रह्मयोगी
नाम के एक
व्यक्ति ने
हृदय की सारी
गति को बंद
करके
डाक्टरों को
चकित कर दिया
था। फिर
आक्सफोर्ड
में भी उसने
प्रयोग किया
था,
फिर कलकत्ता
युनिवर्सिटी
में भी प्रयोग
किया। वह तीन
काम कर सकते
थे। नाड़ी
बिलकुल बंद कर
लेते थे। न
केवल नाड़ी बंद
कर लेते थे, बल्कि अगर
उनकी
रक्तवाहिनी
नस को काट
दिया जाए, तो
जब तक वह कहते
तब तक खून
गिरता और जब
वह कहते रुक
जाओ, तो
खून वहीं ठहर
जाता। फिर एक
बूंद खून उनकी
कटी हुई नस से
बाहर नहीं
निकल सकता था।
तीसरा एक काम
वे करते थे
जिसमें उनकी
मृत्यु हुई
अंततः। वह
किसी भी तरह
का जहर ले
लेते थे और
आधे घंटे बाद
उस जहर को
शरीर के बाहर
निकाल देते थे।
जहर ली हुई
हालत में उनके
पेट के बहुत
एक्सरे लिये
गए। जब तक वे
आशा न दें, तब
तक उनके शरीर
का कोई रस, कोई
खून उस जहर से
मिलता नहीं था।
दोनों में
फासला बना
रहता था। बीच
में गैप बना
रहता था।
रंगून में
उनकी मृत्यु
हुई। रंगून
युनिवर्सिटी
में उन्होंने
प्रयोग किया
और जिस कार
में बैठ कर वे
घर की तरफ चले—वह
आधा घंटे से
ज्यादा की
उनकी सामर्थ्य
नहीं थी—वह
कार रास्ते
में
दुर्घटनाग्रस्त
हो गई और घर
पहुंचते —पहुंचते
उन्हें
पैंतालीस
मिनट लग गए।
वे घर बेहोश
पहुंचे, क्योंकि
तीस मिनट तक
ही अपने
संकल्प के
वृत्त के बाहर
रख सकते थे
जहर को। तीस
मिनट का
अभ्यास था।
तीस मिनट चूक
गए। पंद्रह
मिनट के लिए
जहर को
स्वेच्छा के
भीतर पहुंचने
का मौका मिल
गया। वह
प्रवेश कर गया।
लेकिन
हमारे शरीर का
ऐसा कोई
हिस्सा नहीं
है,
जो इच्छा के
भीतर न लाया
जा सके; और
ऐसा भी कोई
हिस्सा नहीं
है, जो
इच्छा के बाहर
न जा सके। ये
दोनों घटनाएं
घट सकती हैं।
स्वेच्छा से
मृत्यु भी
इसका गहरा
प्रयोग है। वह
इस बात का
प्रयोग है कि
हम
संकल्पपूर्वक
अपने प्राणों
की ऊर्जा को
सिकोड़ रहे हैं।
ध्यान में
रखने की बात
यह है कि
संकल्प अगर पूरा
हो, तो
ऊर्जा
सिकुड़ेगी
ही।
कोई उपाय नहीं
है उसके पस।
असल में हमारी
जो जीवन—ऊर्जा
फैली है, वह भी
संकल्प का ही
फल है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जहां आप की आंखें
हैं —आमतौर से
हम सोचते हैं
कि चूंकि यहां
आंखें हैं
इसलिए हम देख
लेते हैं—लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सचाई उलटी है।
चूंकि हम यहां
से देखना
चाहते हैं, इसलिए
यहां आंखें
पैदा हो गई
हैं। अन्यथा आंख
की चमड़ी में
और हाथ की
चमड़ी में कोई
बुनियादी फर्क
नहीं है। आंख
पर भी जो है वह
चमड़ी है।
लेकिन वह चमड़ी
देखनेवाली
पारदर्शी हो
गई है। वही
चमड़ी नाक पर
है, लेकिन
वह चमड़ी
सूंघने वाली
है। उसका
पारदर्शी
होना सूंघने
की दिशा में
हो गया है।
कान पर भी वही
चमड़ी है, वही
हड्डी है, वही
तत्व है, लेकिन
वे सुननेवाले
हो गए हैं।
ये
भी हमारे
संकल्प के ही
परिणाम हैं।
करोड़ों
वर्षों में, लाखों
वर्षों में
हमने जो
संकल्प किया
है, वह
फलित हो गया।
एक व्यक्ति का
संकल्प नहीं
है, कलेक्टिव
विल है, समूह
संकल्प है।
पीढ़ी—दरपीढ़ी
ऐसा होता रहा
है। वह संकल्प
फलित हो गया।
रूस
में अभी एक
स्त्री है जो
अंगुलियों से
पढ़ पाती है —बेल
नहीं, अंधे की
भाषा नहीं—
साधारण किताब आंख
बंद करके
सिर्फ अंगुली
अक्षरों पर रख
कर पढ़ पाती है।
अब ये
अंगुलियां
जीवन भर
प्रयोग करने
से इतनी संवेदनशील
हो गई हैं कि
जरा—सी काली
रेखा के भेद
को भी कोरे
कागज से अलग
कर पाती हैं।
हमारी
अंगुलिया
इतना नहीं कर
पाएंगी।
एक
चित्रकार जब
देखता है
रंगों को, तो
हमें सिर्फ
हरे वृक्ष
दिखाई पड़ते
हैं, उसे
हजार ढंग के
हरे वृक्ष
दिखाई पड़ते
हैं। हरे में
भी हजार शेड
होते हैं।
साधारण आदमी
के लिए हरा एक
रंग है।
चित्रकार के
लिए जैसे
रंगों की
संवेदनशीलता है,
उसके लिए
हरा एक रंग
नहीं है, हरा
भी हजार रंग
है। एक हरे और
दूसरे हरे में
उतना ही फर्क
है जितना हरे
और पीले में
या हरे और लाल
में फर्क है।
लेकिन उतने
बारीक शेड
देखने के लिए आंखों
की एक विशेष
संवेदनशीलता
चाहिए। वह
हमें नहीं
दिखाई पड़ती।
एक
संगीतज्ञ को
स्वरों की
बहुत बारीक
स्थितियां
दिखाई पड़ती
हैं,
जो हमें कभी
पकड़ में नहीं
आतीं।
संगीतज्ञ को न
केवल स्वरों
की बारीक
स्थितियां
दिखाई पड़ती
हैं, बल्कि
दो स्वरों के
बीच में जो
अंतराल होता
है, जो
शून्य होता है,
वह भी अनुभव
होने लगता है।
असली संगीत
वहीं से पैदा
होता है। असली
संगीत स्वरों
से पैदा नहीं
होता, स्वरों
के बीच में जो
साइलेंस के
क्षण हैं, असली
संगीत वहीं
पैदा होता है।
दो तरफ के
स्वर उस शून्य
को उभारने का
काम भर करते
हैं, और
कुछ भी नहीं
करते। लेकिन
उस शून्य का
हमें कोई पता
नहीं है।
संगीत हमारे
लिए शोरगुल है,
आवाजें है।
संगीतज्ञ के
लिए, जिसकी
गहरी पैठ है, उसके लिए
संगीत का शब्द
से, स्वर
से कोई संबंध
नहीं है। दो
स्वर तो सिर्फ
बीच के निःस्वर
स्थिति को
उभारने के लिए
हैं, इससे
ज्यादा कुछ
अर्थ नहीं है
उनका। जिस चीज
का हम प्रयोग
करते हैं
निरंतर, संकल्प
करते हैं
निरंतर, वह
प्रकट होने
लगती है।
मनुष्य
का यह सारा
व्यक्तित्व
भी...... पक्षियों
का,
पौधों का, पशुओं का
सारा
व्यक्तित्व
उनके संकल्प
का ही फल है।
हम जो गहरा
संकल्प करते
हैं, हम
वही हो जाते
हैं।
रामकृष्ण
के जीवन में
एक उल्लेख है, जो
कीमती है।
रामकृष्ण ने
अपने जीवन में
पांच —सात
धर्मों की
साधनाएं कीं।
उनको यह खयाल
आया कि सभी
धर्म एक ही
जगह पहुंचा
देते हैं, तो
मैं सभी
रास्तों
पर चलकर देखूं
कि वहां
पहुंचा देते हैं
कि नहीं
पहुंचा देते
हैं। तो
उन्होंने
ईसाइयत की
साधना की, उन्होंने
सूफियों की
साधना की, उन्होंने
वैष्णवों की
साधना की, उन्होंने
शैवों की
साधना की
तांत्रिकों की
साधना की। जो
भी उन्हें
उपलब्ध हो सकी
साधना, वह
उन्होंने की।
एक बहुत अदभुत
घटना तो तब
घटी..... क्योंकि
ये सारी
साधनाएं तो आंतरिक
थीं, बाहर
से पता नहीं
चल सका।
रामकृष्ण
कहते थे तो
ठीक था। जब
रामकृष्ण
सूफियों की
साधना करते थे,
तब हम कैसे
बाहर से जानें
कि उनके भीतर
क्या हो रहा
है। लेकिन फिर
एक ऐसी साधना
की पद्धति से
वे गुजरे कि
बाहर के लोगों
को भी देखना
पड़ा कि कुछ हो
रहा है।
बंगाल
में एक सखी—संप्रदाय
है,
जिसका साधक
अपने को कृष्ण
की प्रेयसी या
पत्नी मानकर
ही जीता है।
सखी ही हो
जाता है। वह
पुरुष है या
स्त्री, यह
सवाल नहीं है।
पुरुष एक ही
रह जाते हैं
कृष्ण और साधक
उनकी प्रेयसी
होकर, उनकी
राधा बनकर, उनकी सखी
बनकर जीता है।
छह महीने तक
रामकृष्ण ने
सखी—संप्रदाय
की साधना की।
और आश्चर्य तो
यह हुआ कि
उनकी आवाज
स्त्रैण हो गई।
अगर वे दूर से
बोलें, तो
कोई भी न समझ
पाए कि वे पुरुष
हैं। उनकी चाल
स्त्रैण हो गई।
असल में
स्त्री और
पुरुष एक जैसा
चल ही नहीं सकते,
क्योंकि
हड्डियों के
कुछ बुनियादी
फर्क हैं, चर्बी
का कुछ
बुनियादी
फर्क है।
स्त्री को
चूंकि बच्चे
को पेट में
रखना है, इसलिए
उसके पेट में
एक विशेष जगह
है, जो
पुरुष के पास
नहीं है।
इसलिए उन
दोनों की चाल
में फर्क हो
जाता है। उनके
पैर अलग ढंग
से पड़ते हैं।
कोई स्त्री
कितना ही संभल
कर चले, उसका
चलना कभी
पुरुष जैसा
नहीं हो सकता।
स्त्री कभी
पुरुष जैसा
नहीं दौड़ सकती।
कोई उपाय नहीं
है। उसके
ढांचे का भेद
है।
लेकिन
रामकृष्ण
स्त्रियों
जैसा दौड़ने
लगे,
स्त्रियों
जैसा चलने लगे,
स्त्रियों
जैसी आवाज हो
गई। यहां तक
भी ठीक था कि
कोई आदमी चाहे
कोशिश करके
स्त्रियों
जैसा चलता हो,
कोई आदमी
कोशिश कर के
स्त्रियों
जैसा बोलता हो।
लेकिन और भी
हैरानी की बात
हुई।
रामकृष्ण के
स्तन बड़े हो
गए और स्त्रैण
हो गए। यहां
तक भी बहुत
मामला नहीं था,
क्योंकि
बहुत लोगों को
वृद्धावस्था
में स्तन बड़े
हो जाते हैं, पुरुषों को
भी। लेकिन
रामकृष्ण को
मासिक धर्म
शुरू हो गया, जो कि बहुत
चमत्कार की
घटना थी और
नियमित स्त्रियों
की भांति उसका
वर्तुल चलने
लगा। यह
मेडिकल साइंस
के लिए बहुत
चिंतनीय घटना
थी कि यह कैसे
हो सकता है।
और रामकृष्ण
ने छह महीने
के बाद जब
साधना छोड़ दी,
तब भी उनके
ऊपर कोई डेढ़
साल तक उसके
असर रहे। डेढ़
साल लग गया
उसको वापस
विदा होने में।
संकल्प...... अगर
रामकृष्ण ने
पूरे मन से यह
मान लिया कि
मैं सखी हूं
कृष्ण की तो
व्यक्तित्व
सखी का हो
जाएगा।
यूरोप
में बहुत—से
ईसाई फकीर हैं
जिनके हाथ पर
स्टिगमैटा
प्रकट होता है।
स्टिगमैटा का
मतलब है कि
जीसस को जब
सूली दी गई, तो
उनके हाथों
में खीले
ठोंके गए।
खीले ठोंकने
से उनके हाथ
से खून बहा।
तो बहुत से
फकीर हैं जो
शुक्रवार को
जिस दिन जीसस
को सूली हुई
उस दिन सुबह
से ही जीसस के
साथ अपने को
आइडेटीफाई कर
लेते हैं। वे
जीसस हो जाते
हैं। ठीक सूली
का क्षण आते —
आते हजारों
लोगों की भीड़
देखती रहती है।
वे हाथ फैलाए
खड़े रहते हैं।
फिर उनके हाथ
फैल जाते हैं
जैसे सूली पर
लटक गए हों।
और हाथों में,
जिनमें खीलें
नहीं ठुके हैं,
उनसे खून की
धाराएं बहनी
शुरू हो जाती
हैं। वे इतने
संकल्प से
जीसस हो गए
हैं और सूली
लग गई है। तो
हाथ से छेद
होकर खून बहने
लगता है बिना
किसी उपकरण के,
बिना किसी
छेद किए, बिना
कोई खीला
चुभाए।
मनुष्य
के संकल्प की
बड़ी
संभावनाएं
हैं। लेकिन
हमें कुछ खयाल
में नहीं है।
यह जो मृत्यु
का स्वेच्छा
से प्रयोग है, यह
संकल्प का
गहरा से गहरा
प्रयोग है।
क्योंकि
साधारणत: जीवन
के पक्ष में
संकल्प करना
कठिन नहीं है।
हम जीना ही
चाहते हैं।
मृत्यु के
पक्ष में
संकल्प करना
बहुत कठिन बात
है। लेकिन
जिन्हें भी सच
में ही जीने
का पूरा अर्थ
जानना हो, उन्हें
एक बार मर कर
जरूर देखना
चाहिए।
क्योंकि बिना
मर कर देखे वे
कभी नहीं जान
सकेंगे कि
उनके पास कैसा
जीवन है, जो
नहीं मर सकता।
उनके पास कुछ
जीवन है जो
अमृत की धारा
है। इसे जानने
के लिए उन्हें
मृत्यु के
अनुभव से गुजरना
जरूरी है।
क्योंकि एक
बार वे
स्वेच्छा से
मर कर देख लें,
फिर दोबारा
उन्हें मरने
का भय नहीं रह
जाएगा। फिर
मृत्यु है ही
नहीं।
तो
सिर्फ पूर्ण संकल्प
से कि मेरी
चेतना सिकुड़
रही है, मैं
अपने को चारों
तरफ से सिकोड़
लेता हूं। आंख
बंद करके मैं
अपने को
सिकोड़ता हूं
कि मेरी चेतना
सिकुड़ रही है,
उसने पैरों
से यात्रा
भीतर की तरफ
शुरू कर दी, हाथों से
भीतर की तरफ
शुरू कर दी, मस्तिष्क से
भीतर की तरफ
शुरू कर दी। उस
केंद्र पर
ऊर्जा इकट्ठी
होने लगी, जहां
से फैली थी।
वापस सब
किरणें लौटने
लगीं। इसका
सघन मन से
किया गया
प्रयोग एक
क्षण में अचानक
सारे शरीर को
मृत कर देता
है और एक
बिंदु कोई
भीतर जीवित
बिंदु रह जाता
है। सारा शरीर
अलग मुर्दे की
तरह पड़ा रह
जाता है, सिर्फ
शरीर के भीतर
एक बिंदु
जीवित हो जाता
है। यह जीवित
बिंदु अब
भलीभांति
देखा जा सकता
है कि शरीर से
भिन्न है। ऐसे
ही जैसे बहुत
अंधेरे में
बहुत—सी
किरणें फैली
हों और पता न
चलता हो कि
क्या किरण है
और क्या
अंधेरा है।
लेकिन सारी
किरणें सिकुड़
कर एक जगह आ
जाएं, तो
अंधेरा और
किरणों का
कंट्रास्ट
साफ हो जाए कि
अलग हो गया।
जब
हमारे भीतर
प्राण की
ऊर्जा इकट्ठी
एक बिंदु पर
आकर घनीभूत हो
जाती है, कंडेन्स,
इकट्ठी हो
जाती है तो
सारा शरीर अलग
और वह बिंदु
अलग मालूम
होने लगता है।
अब जरा —से
संकल्प की
जरूरत है कि
आप शरीर के
बाहर हो सकते
हैं। सिर्फ
सोचें कि मैं
बाहर हूं,
और आप बाहर
हैं। और अब
बाहर से खड़े
होकर इस शरीर
को पड़ा हुआ
देख सकते हैं
कि यह मुर्दे
की तरफ पड़ा
हुआ है। छोटा—सा
एक धागे की
तरह कोई चीज
इस शरीर से अब
भी जोड़े रहेगी।
वही द्वार है
आने —जाने का।
एक सिलवर
कार्ड, एक
स्वर्ण धागा इस
शरीर की नाभि
से आपको जोड़े
रहेगा।
जैसे
ही यह बिंदु
बाहर आएगा, वैसे
ही एक और नई
हैरानी का
अनुभव होगा कि
इस बिंदु ने
फिर नए शरीर
का रुख ले
लिया। यह फिर
फैलकर एक नया
शरीर बन गया।
यह शरीर
सूक्ष्म शरीर
है। यह शरीर
बिलकुल इसकी
ही प्रतिलिपि
है जैसा यह
शरीर है। लेकिन
बहुत जिसको
कहें धूमिल, फिल्मी, ट्रासपेरेंट,
पारदर्शी।
अगर हाथ को
हिलाएं, तो
उसके आर—पार
निकल जाएगा, लेकिन उसका
कुछ बिगड़ेगा
नहीं।
तो
पहला तत्व है
इस संकल्प की
साधना का, सारे
प्राणों को एक
बिंदु पर
इकट्ठा कर
लेना। और जब
एक बिंदु पर
वे इकट्ठे हो
जाएं, तो
यह ऐसे छलांग
लगाकर बाहर
निकल जाता है।
सिर्फ इच्छा,
कि बाहर
यानी बाहर। और
सिर्फ इच्छा,
कि वापिस
भीतर तो यानी
भीतर। इसमें
कुछ करने का
नहीं है। बस
करने का
प्रयोग तो
सिर्फ ऊर्जा
को इकट्ठा करना
है। एक दफा
ऊर्जा इकट्ठी
हो जाए, तो
आप बाहर— भीतर
हो सकते हैं।
उसमें कोई
कठिनाई नहीं
है।
और
यह अनुभव एक
बार साधक को
हो जाए, तो
उसकी जीवन—यात्रा
तत्काल ही बदल
जाती है, रूपांतरित
हो जाती है।
कल तक फिर
जिसे वह जीवन
कहता था, अब
जीवन न कह
सकेगा। और कल
तक जिसे
मृत्यु कहता
था, उसे
मृत्यु भी न
कह सकेगा। और
कल तक जिन
चीजों के लिए
दौड़ रहा था, अब दौड़ जरा
मुश्किल हो
जाएगी। और कल
तक जिन चीजों
के लिए लड़ रहा
था, अब
लड़ना मुश्किल
हो जाएगा। और
कल तक जिन
चीजों की
उपेक्षा की थी,
अब उपेक्षा
न कर सकेगा।
जिंदगी
बदलेगी, क्योंकि
एक ऐसा अनुभव
जिंदगी में
आया है कि
इसके बाद
जिंदगी वही नहीं
हो सकती जो
इसके पहले थी।
इसलिए
प्रत्येक
ध्यान के साधक
को एक न एक दिन आउट
बाडी
एक्सपीरिएंस,
यह शरीर के
बाहर जाने का
अनुभव
अनिवार्य चरण
है, जो
उसके भविष्य
के लिए बड़े
अदभुत परिणाम
ले आने लगता
है।
कठिन
नहीं है यह, संकल्प
भर चाहिए।
संकल्प कठिन
है, यह
प्रयोग कठिन
नहीं है।
संकल्प कठिन
है। और इसलिए
कोई सीधा चाहे
कि इस प्रयोग
को कर ले, तो
जरा मुश्किल
पड़ेगी। उसे
छोटे —छोटे
संकल्प के
प्रयोग करने
चाहिए। उसे
छोटे —छोटे
प्रयोग करने
चाहिए। जब वह
छोटे —छोटे
प्रयोगों में
सफल होता जाता
है, तो
उसकी संकल्प
की सामर्थ्य
बढ़ती चली जाती
है।
इस
सारे जगत में
धर्म की
साधनाएं
वस्तुत: धर्म
की साधनाएं
नहीं हैं, संकल्प—पूर्व
तैयारिया हैं।
जैसे एक आदमी
तीन दिन का
उपवास कर लेता
है, यह
सिर्फ संकल्प
की साधना है।
उपवास से कोई
फायदा नहीं
होता, फायदा
होता है
संकल्प से।
उपवास से कोई
फायदा नहीं हो
रहा है, फायदा
हो रहा है
संकल्प से। कि
उसने तीन दिन
का संकल्प
किया तो उसको
पूरा निभाता
है। कि एक
आदमी कहता है
कि मैं बारह
घंटे खड़ा रहूंगा
एक ही जगह पर।
खड़े रहने से
कोई फायदा
नहीं हो जाता,
फायदा होता
है खड़े रहने
के संकल्प से,
उसकी
पूर्णता से।
धीरे — धीरे
क्या हुआ कि
मूल बात खयाल
से भूल गई है
कि ये संकल्प
के प्रयोग हैं।
अब एक आदमी
खड़े होने को
ही समझ रहा है
कि काफी है, वह खड़ा ही है।
वह यह भूल ही
गया है कि खड़ा
होने से कोई
प्रयोजन नहीं
है, प्रयोजन
है उस भीतरी
संकल्प का जो
कि खड़े होने
का निर्णय
करता है, तो
उसे पूरा करता
है।
ये
संकल्प किसी
भी तरह से
पूरे किए जा
सकते हैं। ये
बहुत छोटे —छोटे
संकल्प हैं, ये
कोई बहुत बड़े
संकल्प नहीं
हैं। कि एक
आदमी इस गैलरी
में खड़ा हो
जाए और संकल्प
कर ले कि छह
घंटे तक खड़ा
रहूंगा, लेकिन
नीचे झांक कर
न देखूंगा, तो भी काम हो
जाएगा। सवाल
यह नहीं है कि
नीचे झांक कर
नहीं देखने से
कोई फायदा
होने वाला है।
सवाल यह है कि
उसने तय किया,
वह उसे पूरा
कर रहा है। जब
कोई आदमी जो
तय करता है, उसे पूरा कर
लेता है, तो
उसके भीतर की
ऊर्जा बलवान
हो जाती है, वह आत्मवान
होने लगता है।
उसे लगता है
कि मैं ऐसा
हवा के झोंके
पर डोलता हुआ
कुछ नहीं हूं।
उसके भीतर एक
तरह का
क्रिस्टलाइजेशन,
उसके भीतर
कुछ क्रिस्टल
बनने शुरू हो
जाते हैं।
उसके
व्यक्तित्व
में पहली दफा
कुछ बुनियादें
पड़नी शुरू हो
जाती हैं।
बहुत
छोटे—छोटे
संकल्पों का प्रयोग
करना चाहिए और
छोटे —छोटे
संकल्पों से
ऊर्जा इकट्ठी
करनी चाहिए।
और हमें
जिंदगी में
बहुत मौके हैं।
आप कार में
बैठे जा रहे
हैं। आप इतना
ही संकल्प कर
ले सकते हैं
कि आज मैं रास्ते
के किनारे लगे
बोर्ड नहीं
पढूंगा।
इसमें किसी का
कोई हर्जा
नहीं हुआ जा
रहा है। इससे
किसी का कोई
नुकसान—फायदा
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
लेकिन आपके
संकल्प के लिए
मौका मिल
जाएगा और किसी
को कहने की भी
कोई जरूरत
नहीं। यह आपकी
भीतरी यात्रा
है कि आप कहते
हैं कि मैं यह
नहीं पढूंगा
आज,
जो किनारे
पर बोर्ड लगे
हैं। और आप
पाएंगे कि आधा
घंटा कार में
बैठना व्यर्थ
नहीं गया।
जितने आप कार
में बैठे थे, उससे कुछ
ज्यादा होकर
कार के बाहर
उतरे हैं।
आपने कुछ उपलब्ध
किया, जब
कि आप ऐसे
बैठकर कुछ भी
खोते। यह सवाल
बड़ा नहीं है
कि आप कहां
प्रयोग करते
हैं। मैं
उदाहरण के लिए
कह रहा हूं।
कुछ भी प्रयोग
कर सकते हैं।
जिस प्रयोग से
भी आपके
संकल्प को
ठहरने की सामर्थ्य
बढ़ती हो, उसे
आप कर सकते
हैं। ऐसे छोटे
—छोटे प्रयोग
करते रहें।
अब
एक आदमी को हम
कहते हैं कि
ध्यान में
चालीस मिनट' आंख
ही बंद रखो।
तीन दफे वह आंख
खोलकर देख
लेता है बीच
में। अब यह
आदमी
संकल्पहीन है,
आत्महीन है।
आंख बंद करने
का बड़ा फायदा
और नुकसान
नहीं है।
लेकिन चालीस
मिनट तय किया
तो यह आदमी
चालीस मिनट आंख
भी नहीं बंद
रख सकता, तो
और इससे बहुत
आशा रखना कठिन
है। इस आदमी
से हम कह रहे
हैं कि दस
मिनट गहरी
श्वास लो। वह
दो मिनट के
बाद ही धीमी
श्वास लेने
लगता है। फिर
उससे कहो गहरी
श्वास लो, फिर
एकाध —दो गहरी
श्वास लेता है,
फिर धीमी
लेने लगता है।
वह आत्मवान
नहीं है। दस
मिनट गहरी
श्वास लेना
कोई बड़ी कठिन
बात नहीं है।
और सवाल यह
नहीं है कि दस
मिनट गहरी
श्वास लेने से
क्या मिलेगा
कि नहीं
मिलेगा। एक
बात तय है कि
दस मिनट गहरी
श्वास के
संकल्प करने
से यह आदमी
आत्मवान हो
जाएगा। इसके
भीतर कुछ सघन
हो जाएगा। यह
किसी चीज को
जीतेगा, किसी
रेसिस्टेंस को
तोड़ेगा। और वह
जो वैगरेंट
माइंड है, वह
जो आवारा मन
है, वह
आवारा मन
कमजोर होगा।
क्योंकि उस मन
को पता चलेगा
कि इस आदमी के
साथ नहीं चल
सकता। इस आदमी
के साथ जीना
है, तो इस
आदमी की माननी
पड़ेगी।
और
आप रोज कार
में बैठ कर
निकलते हैं, हो
सकता है, आप
कभी पास के बोर्ड
न पढ़ते हों, लेकिन जिस
दिन आप तय
करेंगे कि आज
बोर्ड नहीं पढ़ना
है, तो उस
दिन मन पूरी
कोशिश करेगा
कि पढ़ो।
क्योंकि मन की
ताकत आपके
संकल्पहीन
होने में निर्भर
है। इधर आपका
संकल्पवान
होना, उधर
मन की मौत है।
विल जितनी
मजबूत हो, मन
उतना मुर्दा
है। मन जितना
मजबूत है, संकल्प
उतना क्षीण है।
तो वह रोज कभी
नहीं कहता था,
क्योंकि
रोज आपने उसको
चुनौती न दी
थी। आज यह भी
उसके लिए
चुनौती का
सवाल है। वह
हजार बहाने
खोजेगा, वह
कहेगा, यह
तो देखना
बिलकुल जरूरी
था इसलिए देखा।
वह कहेगा, इतने
जोर की आवाज आ
.रही है, दंगाफसाद
हो गया, जरा
तो बाहर देखो
कि क्या हो
रहा है! वह
भुलाने की
कोशिश करेगा,
वह दूसरी
बातों में लगा
लेगा, ताकि
आपको यह खयाल
भूल जाए और आप
एक दफे बाहर झांककर
देख लें और
बोर्ड पढ़ लें।
सारा उपाय
करेगा। यह ऐसा
ही है।
हम
मन के साथ ही
जीते हैं।
साधक संकल्प
के साथ जीना
शुरू करता है।
जो मन के साथ
जीता है, वह
साधक नहीं है।
जो संकल्प के
साथ जीता है, वह साधक है।
साधक का मतलब
ही यह है कि मन
जो है वह अब
संकल्प में
रूपांतरित हो
रहा है।
तो
बहुत छोटे —छोटे
मुद्दे चुन
लें। आप खुद
ही चुन लेंगे, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है, बहुत
छोटे —छोटे मुद्दे
चुन लें। और
चौबीस घंटे
में दो—चार
प्रयोग कर लें
जिनका किसी को
पता नहीं चलेगा।
अलग बैठकर
करने की कोई
जरूरत नहीं है,
किसी को खबर
करने की जरूरत
नहीं है, बस
चुपचाप कर लें
और गुजर जाएं।
बहुत छोटे..।
छोटा—सा
संकल्प कि जब
कोई क्रोध
करेगा, तब
मैं हसूंगा।
और आपके ऊपर
किए गए
प्रत्येक
क्रोध
की इतनी अदभुत
कीमत आपको मिल
जाएगी कि आप
जिसने क्रोध
किया, उसको
धन्यवाद
देंगे। एक
छोटा—सा
संकल्प कि जब
भी मुझ पर कोई
क्रोध करेगा,
मैं हसूंगा,
चाहे कुछ भी
हो जाए। आप एक
पंद्रह दिन के
बाद पाएंगे कि
आप दूसरे आदमी
हो गए, आपकी
क्वालिटी बदल
गई। आप वही
आदमी नहीं हैं
जो पंद्रह दिन
पहले थे। बहुत
छोटे —से
निर्णय करें
और उनको जीने
की कोशिश करें।
और उस जीने की
कोशिश से धीरे—
धीरे जब आपको
ऐसा भरोसा आने
लगे कि अब मैं
कोई बड़े
संकल्प कर
सकता हूं तो
थोड़े बड़े
संकल्प करें।
और अंतिम
संकल्प साधक
को करने जैसा
है स्वेच्छा
से मरने का।
किसी दिन जब
आपको यह लगे
कि अब मैं यह
कर सकता हूं
तो करें। जिस
दिन आप उस
संकल्प को
करके शरीर को
मुर्दे की तरह
देख लेंगे, उस दिन से
दुनिया का कोई
धर्मशास्त्र
आपके लिए कोई
नई बात कहने
वाला नहीं रह
जाएगा। उस दिन
से दुनिया का
कोई गुरु आपको
कोई नई बात न
बता सकेगा।
भगवान
श्री आत्म—
हत्या करने
वाला व्यक्ति
भी स्वेच्छा
से अपने आप को
मार डालने की
कोशिश करता है
और जब तक वह पूरा
मर नहीं जाता
तब तक उसको
मृत्यु की
प्रक्रिया का
पता चलता रहता
है— कि शरीर
क्रमश: ठंडा
हो रहा है
प्राण सिकुड़
रहे हैं आदि
लेकिन अंतिम
स्थिति से वह
लौटकर नहीं
आता तो क्या
आत्म— हत्या
स्वेच्छा से
आयोजित
मृत्यु के
प्रयोग जैसा
ही नहीं है?
आत्म—हत्या
का प्रयोग भी
किया जा सकता
है संकल्प के
लिए,
लेकिन
साधारणत: आत्म—हत्या
करने वाले लोग
इसके लिए करते
नहीं हैं।
आमतौर से जो
आदमी आत्म —हत्या
करता है वह
आदमी खुद आत्म
—हत्या करता
है, ऐसा
नहीं है।
अक्सर तो वह
आदमी यह अनुभव
करता है कि
कुछ लोग मुझे
आत्म—हत्या के
लिए मजबूर कर
रहे हैं। कुछ
परिस्थितियां,
कुछ घटनाएं
उसे आत्म—हत्या
करने के लिए
मजबूर कर रही
हैं। अगर
परिस्थितिया
ऐसी नहीं
होतीं, तो
वह आत्म—हत्या
नहीं करता।
किसी को उसने
प्रेम से चाहा
था और वह उसे
नहीं मिल सका।
अब वह मरने जा
रहा है। अगर
वह उसको मिल
जाता, तो
मरने न जाता।
असल में आत्म—हत्या
करने वाला
मरने की
तैयारी नहीं
दिखा रहा है।
उसकी जीने की
एक शर्त के
साथ तैयारी थी,
वह शर्त
पूरी नहीं हुई,
इसलिए वह
जीने से इनकार
कर रहा है।
मरने में उसका
रस नहीं है।
उसका जीवन में
रस नहीं रह
गया। तो एक तो
उसकी आत्म—हत्या
मजबूरी की है।
इसलिए किसी भी
आत्म—हत्या
करनेवाले को
अगर दो क्षण
के लिए रोका
जा सके तो फिर
शायद दोबारा
वह आत्म—हत्या
न करे। दो
क्षण की देरी
काफी हो सकती
है। क्योंकि
दो क्षण में
उसका मन फिर
बिखर जाएगा।
क्योंकि वह
जबर्दस्ती
इकट्ठा हुआ था।
और
आत्म—हत्या
करने वाला
व्यक्ति
संकल्प नहीं
कर रहा है। सच
तो यह है कि
संकल्प से भाग
रहा है। आत्म—हत्या
करने वाला
व्यक्ति
आमतौर से
बहादुर नहीं
होता, कायर
होता है। असल
में जिंदगी
उससे संकल्प
करने की मांग
कर रही थी।
जिंदगी कह रही
थी कि कल जिसे
तूने प्रेम
किया अब
संकल्प कर, उसे भूल जा।
यह उसकी
सामर्थ्य
नहीं है।
जिंदगी कह रही
है कि कल जिसे
तूने प्रेम
किया था अब
उसे छोड़, अब
किसी और को
प्रेम कर। यह उसकी
सामर्थ्य
नहीं है।
जिंदगी उससे
कहती है कि कल
तू धनी था, आज
तू बैंक्रप्ट
है, दिवालिया
है, फिर भी
जी। यह उसकी
हिम्मत नहीं
है। वह जिंदगी
में संकल्प
कहीं भी नहीं
कर पा रहा है।
अब उसको एक ही
रास्ता दिखता
है कि मौत में
डूब जाए। यह
वह संकल्पों
से बचने के
लिए कर रहा है।
यह उसका
संकल्प नहीं
है, यह
उसका पाजिटिव
विल नहीं है।
यह उसका
निगेटिव विल
है।
तो
निगेटिव विल, नकारात्मक
संकल्प का कोई
फायदा नहीं है।
यह आदमी और भी
कमजोर आत्मा
लेकर पैदा
होगा। जितनी
कमजोर आत्मा
थी, उससे
भी कमजोर
आत्मा लेकर
पैदा होगा।
क्योंकि जहां
इसे अवसर मिला
था संकल्प को
जगाने का, वहां
से यह भाग खडा
हुआ है। यह
ऐसा ही है कि
जैसे एक बच्चे
की परीक्षा
करीब आई हो और
वह क्लास
छोड्कर भाग
गया है। ऐसे
उसने भी
संकल्प किया
है, क्योंकि
जब तीस लोग
परीक्षा दे
रहे थे, तब
वह निकल भागा
है। लेकिन यह
संकल्प
नकारात्मक है।
संकल्प था
परीक्षा का, वह विधायक
था। वहां
संघर्ष था। वह
संघर्ष से भाग
निकला है।
एस्केपिस्ट
भी संकल्प
करता है। जब
शेर को देखकर
एक आदमी भागता
है और झाडू पर
चढ़ता है, तो
वह भी संकल्प
करता है।
लेकिन हम यह
नहीं कहेंगे
कि उससे वह
संकल्पवान हो
जाएगा, क्योंकि
आखिर भाग रहा
है, पलायन
कर रहा है। तो
सुसाइडल
वृत्ति जो है,
वह
पलायनवादी, एस्केपिस्ट
है। उसमें
संकल्प नहीं
है।
लेकिन
ही,
मृत्यु का
उपयोग संकल्प
के लिए किया
जा सकता है।
वह दूसरी बात
है। जैसे कि
महावीर की
परंपरा में
मृत्यु का
उपयोग भी
संकल्प के लिए
किया गया है।
अगर कोई साधक
मृत्यु का
उपयोग करना
चाहे संकल्प
के लिए, तो
सिर्फ महावीर
अकेले
व्यक्ति हैं
सारी दुनिया
में, जिन्होंने
छूट दी है।
बाकी किसी
आदमी ने छूट
नहीं दी।
सिर्फ महावीर
ने कहा है कि
मृत्यु का
उपयोग तुम कर
सकते हो साधना
के लिए। लेकिन
मृत्यु ऐसी
नहीं कि जहर
खाकर मर जाओ।
क्योंकि यह एक
क्षण में हो
जाएगा। एक
क्षण में
संकल्प का कभी
पता नहीं चलता।
संकल्प के लिए
लंबी श्रृंखला
चाहिए क्षणों
की।
तो
महावीर कहते
हैं कि उपवास
कर लो और भूखे
मर जाओ।
साधारण
स्वस्थ आदमी
हो तो भूखा
मरने में नब्बे
दिन लगते हैं।
अगर जरा भी
संकल्प कमजोर
है,
तो दूसरे ही
दिन खाने की
इच्छा होगी।
तीसरे दिन
सोचेगा कि अब
कहां हम बचें,
किस तरह
भागें, यह
क्या उपद्रव
कर लिया!
लेकिन नब्बे
दिन तक
सस्टेंड, मरने
की इच्छा पर
कायम रहना बड़ी
कठिन बात है।
इसलिए इसमें
धोखे का डर
नहीं है।
महावीर ने कहा,
भूखे रहो और
मर जाओ। इसमें
धोखे का डर
इसलिए नहीं है
कि जो नब्बे दिन
में जरा भी
संकल्पहीन
आदमी होगा, वह कभी का
भाग गया होगा।
इसका उपाय
नहीं है।
हां, जहर
लेकर मरने को
कहें, नदी
में डूबकर
मरने को कहें,
पहाड़ से
कूदकर मरने को
कहें, तो
एक क्षण की
घटना है। एक
क्षण के लायक
संकल्प हम सभी
जुटा लेते हैं।
मगर एक क्षण
का बहादुर
युद्ध के
मैदान में काम
का नहीं है, क्योंकि
दूसरे क्षण वह
कायर हो जाएगा।
और इतने ही
संकल्पपूर्वक
जितने
संकल्पपूर्वक
वह बहादुर हुआ
था, उतने
ही
संकल्पपूर्वक
कायर हो जाएगा।
तो
महावीर ने
संथारा के
आत्म—मरण की
स्वीकृति दी
है साधना के
लिए कि कोई व्यक्ति
अगर चाहे कि
वह अपनी आखिरी
कसौटी मृत्यु
में भी कसना
चाहता है, तो
कस ले। वैसे
यह बड़ी कीमत
की बात है और
सोचने जैसी है।
क्योंकि
महावीर अकेले
ही ऐसे
व्यक्ति हैं
सारी पृथ्वी
पर, जिनकी
आज्ञा है कि
साधक ऐसा कर
सकता है। इसके
दो कारण हैं।
एक
तो कारण यह है
कि महावीर को
पक्का भरोसा
है कि कोई
मरता नहीं है, इसलिए
मरने के लिए
कोई इतनी
चिंता करने की
जरूरत नहीं है।
इसका पक्का
भरोसा है कि
कोई मरता नहीं
है। इसलिए कोई
हर्जा नहीं है।
एक प्रयोग
करते हो, करो।
दूसरा, इसका
भी अनुभव और
पक्का भरोसा
है कि कोई
आदमी पचास दिन,
साठ दिन, सत्तर दिन, अस्सी दिन, नब्बे दिन, सौ दिन तक
निःसदिग्ध
भाव से मृत्यु
की कामना करे,
यह इतनी
महान घटना है
कि साधारण
घटना नहीं है।
एकाध
क्षण के लिए
मरने का खयाल
तो हम सबको
आता है। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है
जिसने जिंदगी
में दो —चार
दफे मरना न
चाहा हो। नहीं
मरा है, यह
दूसरी बात है।
ऐसे क्षण आ ही
जाते हैं, जब
आदमी मरना
चाहता है। फिर
एक चाय का
प्याला पी
लेता है और
भूल जाता है।
पत्नी सोचती
है कि पति के
खिलाफ अब
फांसी लगा लो,
लेकिन पति
आकर कह देता
है कि टिकट ले
आया हूं पिक्चर
की, तो वह
छोड़ देती है
कि छोड़ो भी, ऐसे मरने
में क्या रखा
हुआ है।
मैं
एक जगह रहता
था। और मेरे
पड़ोस में एक
बंगाली
प्रोफेसर
रहते थे। पहले
दिन ही जब मैं
वहां रुका, तो
रात पति और
पत्नी में
बहुत जोर से
झगड़ा हो गया।
तो दीवाल से
आरपार मुझे
सुनाई पड़ता था।
तो मैं बहुत
हैरान हुआ।
मैंने कहा कि
मुझे जाना
चाहिए, क्योंकि
कोई है नहीं।
क्योंकि पति
बिलकुल मरने
की धमकी दे
रहा था कि मर
जाऊंगा। अब
अपरिचित लोग
थे 1 मैंने
उचित भी नहीं
माना कि मैं
एकदम जाऊं।
पहले ही दिन
रुका हूं इस
कमरे में और
पड़ोस में यह
हो रहा है।
फिर यह भी लगा
कि परिचय—
अपरिचय का
मामला नहीं है
यह, यह
आदमी मर जाए
तो मैं भी
जिम्मेवार
हूं। लेकिन
फिर भी मैंने
संयम रखा कि
भई जब यह जाने
ही लगें मरने
के लिए, तब
बाहर जाकर रोक
लूंगा। थोड़ी
देर बाद
बातचीत बंद हो
गई, तो
मैंने समझा
निपटारा हो
गया। लेकिन
फिर मैंने
सोचा कि बाहर
जाकर देखूं कि
बात क्या है।
जाकर देखा, दरवाजा खुला
था और पत्नी
दरवाजे के
अंदर बैठी थी,
वह सज्जन तो
जा चुके थे।
तो
मैंने उससे
पूछा, कहा गए
आपके पति
जिनसे बात हो
रही थी? उसने
कहा, आप
बेफिक्र रहिए,
वे ऐसा कई
दफे जा चुके
हैं। अभी थोड़ी
देर में लौट
आएंगे। मैंने
कहा, वे
मरने गए हुए
हैं! उसने कहा,
वे बिलकुल
लौट आएंगे, आप बेफिक्र
रहिए। पंद्रह—बीस
मिनट बाद
सचमुच वे वापस
लौट आए। मैं
बाहर रुका हुआ
था। मैंने
उनसे पूछा कि
आप वापस लौट
आए! उन्होंने कहा,
पानी गिरने
के आसार हो
रहे हैं। उनको
क्या मालूम कि
मुझे पता है
कि वे मरने गए थे।
उन्होंने कहा,
पानी गिरने
के आसार हो
रहे हैं। देख
नहीं रहे हैं
आप, बादल
घिर रहे हैं।
इसलिए लौट आया।
छाता नहीं ले
गया था साथ
में। घर में
छाता न हो, तो
भी मरनेवाला
आदमी बाहर
नहीं जाता।
हम
सभी सोच लेते
हैं बहुत बार
मरने की।
लेकिन जब हम
मरने की सोचते
हैं,
तब वह मरने
की बात नहीं
होती, वह
सिर्फ जीवन
में थोड़ी—सी
अड़चन होती है।
संकल्प की कमी
के कारण हम
मरने की सोच
लेते हैं।
जीवन में अड़चन
है, कहीं
अटकाव आ गया
है। जरा—सी
जीवन में अड़चन
है और चले
मरने। जीवन की
अड़चन से जो
मरने जा रहा
है, वह
संकल्पवान
नहीं है।
लेकिन मृत्यु
को सीधा
पॉजिटिव
अनुभव करने कोई
जा रहा है, विधायक
रूप से मृत्यु
क्या है, इसे
जानने जा रहा
है—जीवन से
भाग नहीं रहा
है, जीवन
से कोई विरोध
नहीं है, जीवन
का कोई निषेध
नहीं है—तब तो
यह आदमी
मृत्यु में भी
जीवन खोजने जा
रहा है। यह
बात और है।
और
भी इसमें
महत्वपूर्ण
घटना है और वह
यह है कि जन्म
के लिए तो हम
साधारणतया
निर्णायक
नहीं होते।
जन्म भी अंततः
तो हम निर्णय करते
हैं। लेकिन वह
भी अचेतन
निर्णय होता
है। हमें पता
नहीं होता है
कि हमने क्यों
जन्म लिया, कहां
जन्म लिया, किसलिए जन्म
लिया। एक अर्थ
में मृत्यु
ऐसा मौका है, जिसके हम
निर्णायक हो
सकते हैं।
इसलिए मृत्यु
जिंदगी में
बहुत अनूठी
घटना है, जिसको
कहना चाहिए, डिसीसिव।
क्योंकि जन्म
का तो हम
पक्का निर्णय
नहीं कर सकते,
कि हमने से कहां
जन्म लिया, क्यों जन्म
लिया, कैसे
जन्म लिया।
लेकिन मृत्यु
का तो हम
निर्णय कर ही
सकते हैं कि
हम कैसे मरें,
कहां मरें,
क्यों मरें।
मृत्यु का ढंग
तो हम निश्चित
कर ही सकते
हैं।
महावीर
ने इसलिए भी
आशा दी मृत्यु
के इस प्रयोग
को करने की कि
जो व्यक्ति
मृत्यु का
प्रयोग करके
मरेगा, वह
अपने अगले
जन्म का भी
निर्णायक हो
जाएगा।
क्योंकि
जिसने मरने की
स्वेच्छा से
व्यवस्था कर
ली, उसके
लिए प्रकृति
उसके जन्म को
स्वेच्छा से चुनने
का मौका भी दे
देती है। वह
उसका दूसरा
हिस्सा है। जब
वह इस दरवाजे
से निकलते
वक्त ज्ञान से
निकला है, जानते
हुए निकला है,
तो दूसरे
दरवाजे भी
उसके लिए ज्ञान
से ही स्वागत
देंगे और भीतर
आने के लिए
स्वेच्छा से
वरण करेंगे।
अगले जन्म का
जिन्हें
निर्णय करना
है, उन्हें
इस मृत्यु को
स्वेच्छा से
गुजरना चाहिए।
इसलिए भी आशा
दी। लेकिन
साधारण आत्म—हत्यारा,
साधारणतया
आत्मघात
करनेवाला
संकल्पवान व्यक्ति
नहीं है।
भगवान
श्री आपने
संकल्प से
सूक्ष्म शरीर
से अलग होने
की बात कही
क्या जो
साक्षी का
साधक है या जो
तथाता की
साधना करता है
उसका सूक्ष्म
शरीर बिना
संकल्प के अलग
हो सकता है?
असल
में साक्षी की
साधना करना
बहुत बड़ा
संकल्प है और
तथाता की
साधना करना तो
साक्षी से भी
बड़ा संकल्प है।
यह महासंकल्प
है। जब एक
आदमी यह तय करता
है कि मैं
साक्षी बनकर
जीऊंगा, तो
इससे बड़ा
संकल्प नहीं
है दूसरा।
उदाहरण
के लिए, एक
आदमी ने तय
किया है कि आज
मैं खाना न
खाऊंगा। भूखे
रहने का
निर्णय किया
है। एक आदमी
ने तय किया कि
मैं खाना तो
खाऊंगा, लेकिन
अपने को खाता
हुआ नहीं
देखूंगा, देखता
हुआ देखूंगा।
यह ज्यादा
कठिन संकल्प
है।
खाना
नहीं खाना कोई
बहुत बड़ी
कठिनाई की बात
नहीं है। सच
तो यह है कि
जिन लोगों को
ठीक से खाना
मिल रहा है, उनको
महीने में
एकाध—दों दिन
खाना न खाना
बड़ी सुगमता की
बात है। इसलिए
जब भी समाज
में ठीक खाना
मिलने लगता है,
तो उपवास की
कल्ट प्रचलित
होना शुरू हो
जाती है। जैसे
अमरीका में
इसई वक्त
उपवास का सिद्धांत
बडे जोरों से
चल रहा है।
नेचरोपैथी
फौरन लोगों को
पकड़ लेती है
जब लोगों को
ठीक से खाना
मिलने लगता है।
और जंचती भी
है बात कि कभी
उपवासे रहो।
उपवास ज्यादा
हल्का और
ज्यादा
आनदपूर्ण मालूम
होने लगता है।
असल
में गरीब समाज
में हो भी
सकता है कि
भूखा रहना एक
संकल्प हो, अमीर
समाज में तो
भूखा रहना एक
सुविधा है, कनवीनिएंस
है। असल में
जब सारी
दुनिया में
ठीक से भोजन
मिलने लगेगा,
तो सभी
लोगों के लिए
उपवास जरूरी
हो जाएगा। कभी—कभी
खाली पेट रहना
ही होगा। लेकिन
साक्षी होना
बड़ी कठिन बात
है।
इसको
ऐसा समझें कि
मैं निर्णय कर
लूं कि मैं नहीं
चलूंगा, मैं
इसी कुर्सी पर
बैठा रहूंगा
आठ घंटे, यह
इतनी बड़ी बात
नहीं है।
क्योंकि नहीं
चलना तो नहीं
चल रहा। मैं
निर्णय कर लूं
कि आठ घंटा
चलूंगा, वह
भी उतनी बड़ी
बात नहीं है।
क्योंकि
निर्णय कर
लिया तो चल
रहा हूं।
साक्षी का
मतलब यह है कि
मैं चलूंगा भी
और अपने को
जानूंगा कि
मैं नहीं चल
रहा हूं।
साक्षी का
मतलब क्या है?
कि मैं
चलूंगा भी और
जानूंगा भी कि
मैं नहीं चल
रहा हूं। मैं
सिर्फ चलने को
देख रहा हूं।
यह ज्यादा
सूक्ष्म
संकल्प है, महासंकल्प
है।
और
तथाता तो और
भी महासंकल्प
है। वह आखिरी
संकल्प है।
उससे बड़ा कोई
संकल्प नहीं
है।
एक आदमी मरने
का भी संकल्प
करे,
यह भी उतना
बड़ा संकल्प
नहीं है।
लेकिन तथाता
का मतलब होता
है चीजें जैसी
हैं वैसी ही
स्वीकृत हैं।
राह मरने का
संकल्प भी तो
कुछ
अस्वीकृति से
आ रहा है, यानी
हम जानना
चाहते हैं कि
मृत्यु क्या
है, हम
जानना चाहते
हैं कि मृत्यु
होती है कि
नहीं होती है।
नहीं, तथाता
का मतलब यह है
कि मृत्यु
होगी तो मर
जाएंगे और
जिंदगी रहेगी
तो जी जाएंगे।
न हमें जिंदगी
से मतलब है, न हमें
मृत्यु से
मतलब है।
अंधेरा आएगा
तो अंधेरे में
बैठे रहेंगे,
रोशनी आएगी
तो रोशनी में
बैठे रहेंगे।
अच्छा होगा तो
अच्छा झेल
लेंगे, बुरा
होगा तो बुरा
झेल लेंगे। जो
होगा, उसके
लिए हम राजी
हैं। हमारी
नाराजी है ही
नहीं।
एक
उदाहरण से तुम्हें
समझाऊं।
डायोजनीज एक
जंगल से गुजर
रहा है। नंगा
फकीर है और
बड़ा सुंदर है।
कुछ आश्चर्य न
होगा कि हो
सकता है आदमी
ने अपने शरीर
की कुरूपता को
डाकने के लिए
ही वस्त्र पहनने
शुरू किए हों।
बहुत संभावना
इसी की है।
शरीर के जो —जो
कुरूप अंग हैं
उनको हम
ढांकने के लिए
उत्सुक हैं।
बहुत सुंदर
आदमी है
डायोजनीज।
नंगा ही रहता
है। गुजर रहा
है एक जंगल से।
चार आदमियों
ने उसे पकड़ने
का विचार कर
लिया है। ये
चारों आदमी
गुलामों को
पकड़ने का काम
करते हैं। और
उन्होंने
सोचा कि इतना
खूबसूरत आदमी
अगर चक्कर में
आ जाए, तो
बिक्री अच्छी
हो सकती है।
और इसका कोई
मालिक भी नहीं
दिखाई पड़ता है,
कोई धनी—
धोरी इसका
दिखाई नहीं
पड़ता है।
अकेला चला जा
रहा है। कपड़े —लत्ते
भी नहीं हैं।
देखने में बड़ा
सुंदर है।
विशालकाय है,
तेजस्वी है।
मगर पकड़े कैसे?
क्योंकि वे
चारों डरे कि
इतना तगडा
आदमी, कहीं
चारों को कठिनाई
में न डाल दे।
फिर उन्होंने
कहा, एक
कोशिश तो करो।
बहुत से बहुत
यही होगा कि
थोड़ी मार
खाएंगे, तो
भाग जाएंगे।
वे
चारों गए।
उन्होंने बड़ी
ताकत लगा करके
उसको एकदम से
घेरा। तो वह
उनके बीच में
एकदम शाति से
खड़ा हो गया।
उसने कहा, क्या
इरादा है? अब
वे लोग बड़े हैरान
हुए।
उन्होंने
जंजीरें
निकालीं, तो
उसने हाथ आगे
कर दिये। उनके
हाथ कांप रहे
हैं, डर
रहे हैं वे कि
यह पता नहीं
मार दे या
क्या करे। तो
वह कहता है, कपों मत, हाथ
क्यों कंपाते
हो? लाओ, मैं जंजीर
कस दूं। वह
जंजीर बांधने
में सहायता
करता है। वे
बड़े चकित हुए।
जब जंजीरें—वजीरे
कस गईं, तब
उन्होंने
उससे पूछा कि
आप आदमी कैसे
हो? हम
आपके हाथ में
जंजीरें डाल
रहे हैं और आप
सहायता कर रहे
हैं। हम तो
डरे थे कि
झगड़ा होगा, मारपीट होगी,
कुछ उपद्रव
हो जाएगा।
उसने कहा कि
नहीं, जब
तुम्हें मजा आ
रहा है
जंजीरें
बांधने में, तो हमको भी
मजा आ रहा है
बंधवाने में।
अब झगड़ा क्या
करना है इसमें।
बड़ा मजा रहा।
अब बोलो, कहां
चलना है? उन्होंने
कहा, अब
आपको बताने
में हमें शर्म
आती है। लेकिन
हम तो गुलामों
को पकड़ने वाले
लोग हैं। तो
हम तो बाजार
आपको ले
चलेंगे बेचने।
उसने कहा, चलो।
वह इतनी खुशी
से चलने लगा
कि उनकी चाल
कम पड़ती है, वह तेजी से
चलता है। वे
उससे कहते हैं,
जरा धीरे भी
चलिए, इतनी
जल्दी भी क्या
है। तो वह
कहता है, लेकिन
बाजार चल हीं
रहे हैं तो
जल्दी ही चलें।
फिर
वे बाजार में
पहुंच गए हैं।
बड़ी भीड़ लग गई
है जो लोग
गुलामों को
खरीदने आए हैं—ऐसा
गुलाम
साधारणत:
बिकने नहीं
आया था, क्योंकि
यह तो शाही
सम्राट जैसा
आदमी था—बडी
भीड़ लग गई है।
टिकटी पर उसको
खड़ा किया गया,
जहां गुलाम
बेचे जाते हैं।
और जो गुलाम
बेचने वाला, नीलाम करने
वाला था, उसने
चिल्ला कर कहा
कि एक गुलाम
बिकने आया है,
किसी को
खरीदना हो......।
तो उस
डायोजनीज ने
कहा, चुप
नासमझ, उन
लोगों से पूछ
कि मैं आगे चल
रहा था कि वे
आगे चल रहे थे?
और जंजीरें
उन्होंने
बांधी कि
मैंने बंधवायीं?
उन
लोगों ने कहा
कि बात तो यह ठीक
ही कह रहा है।
अगर हम लोग
जंजीरें
बांधते, तो
हमें अभी भी
भरोसा नहीं है
कि इसको बांध
सकते थे। इसने
बंधवायी हैं।
और जहां तक
आगे चलने का
सवाल है, यह
इतनी तेजी से
चलता है कि हम
लोग इसके पीछे
दौड़ते चले आ
रहे हैं। यानी
हम इसे बाजार
में लाए हैं, यह कहना गलत
है। हम इसके
पीछे आए हैं, यही ठीक है।
और यह कहना भी
ठीक नहीं है
कि हमने इसको
गुलाम बनाया।
यही कहना ठीक
है कि यह आदमी
गुलाम बनने को
तैयार हो गया।
हमने इसको
बनाया नहीं।
तो
डायोजनीज ने
कहा,
नासमझ, इस
तरह की बात मत
कर। मैं खुद
ही आवाज लगा
देता हूं,
तेरी आवाज भी
कमजोर है, इतनी
भीड़ में सुनाई
नहीं पड़ेगी।
तो डायोजनीज
ने चिल्लाकर
कहा कि आज एक
मालिक इस
बाजार में
बिकने आया है,
किसी को
खरीदना हो तो
खरीदे। तो
किसी ने उससे
पूछा कि आप
अपने को मालिक
कहते हैं? उसने
कहा, मैं
अपने को मालिक
कहता हूं अपनी
मर्जी से मैंने
जंजीर बांधी,
अपनी मर्जी
से मैं आया
हूं अपनी
मर्जी से मैं बिक
रहा हूं अपनी
मर्जी से मैं
जाऊंगा। मेरी
मर्जी के
खिलाफ कुछ भी
नहीं हो सकता,
क्योंकि जो
भी होता है
उसको मैं अपनी
मर्जी बना
लेता हूं।
समझ
रहे हैं न! वह
यह कह रहा है
कि जो भी होता
है,
उसे मैं
अपनी मर्जी
बना लेता हूं।
यह
आदमी तथाता को
उपलब्ध है।
तथाता का यह
मतलब है कि
जिसमें सारी
चीजें, जो भी
हो रही हैं, उस के लिए वह
राजी है, जिसका
कोई विरोध ही
नहीं है।
जिसको तुम
किसी भी हालत
में हरा नहीं
सकते, क्योंकि
वह स्वयं हार
जाएगा। जिसको
तुम मार नहीं
सकते, क्योंकि
वह पिटने को
राजी हो जाएगा।
जिसको तुम दबा
नहीं सकते, क्योंकि तुम
दबाओगे उसके
पहले वह दब
जाएगा। जिसके
साथ तुम कुछ
भी नहीं कर
सकते, क्योंकि
तुम जो भी
करोगे, उसका
कोई विरोध
नहीं है। यह
तो बहुत
महासंकल्प है।
तथाता परम
संकल्प है, वह अल्टीमेट
विल है। तो जो
तथाता को
उपलब्ध है, वह तो
परमात्मा को
उपलब्ध हो गया
है।
इसलिए
इस प्रश्न को
ऐसे मत पूछो
कि साक्षी के साधक
को या तथाता
के साधक को
संकल्प की
साधना से जो
मिलता है, वह
मिलेगा या
नहीं मिलेगा।
वह तो मिला ही
हुआ है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है उसे।
संकल्प की
साधना अति
प्राथमिक है,
साक्षी की
साधना
माध्यमिक है,
तथाता की
साधना चरम है।
संकल्प से
शुरू करो, साक्षी
पर यात्रा करो,
तथाता पर
पहुंच जाओ। इन
तीनों में
विरोध नहीं है।
साक्षी और
तथाता में भेद
बताने की कृपा
करें।
साक्षी
में द्वैत
मौजूद है।
साक्षी अपने
को अलग, और
जिसे जान रहा
है, उसे
अलग मानता है।
अगर उसके पैर
में कांटा गड़ा
है, तो
साक्षी कहता
है, मुझे
नहीं गड़ा, मैं
जानने वाला
हूं। कांटा
शरीर को गड़ा
है। गड़ना कहीं
और है, जानना
कहीं और है। 'जानने' और
'होने' में
द्वैत है
साक्षी की
साधना में।
इसलिए साक्षी
अद्वैत को
नहीं उठ सकता।
इसलिए
जो साधक
साक्षी पर रुक
जाएंगे, वे एक
तरह के
डुआलिज्म, एक
तरह के द्वैत
से घिर जाएंगे।
अंतत: वे जगत
को दो हिस्सों
में तोड़ देंगे,
चेतन और जड़।
चेतन, वह
जो जानता है।
जड़, वह जो जाना
जाता है।
अंततः वे जगत
को दो हिस्सों
में तोड़े बिना
नहीं मानेंगे,
पुरुष और
प्रकृति। यह
शब्द बड़ा
अच्छा है—पुरुष।
यह
शब्द प्रकृति
भी बड़ा अच्छा
है। प्रकृति
का मतलब शायद
कभी खयाल में
न आया हो।
प्रकृति का
मतलब नेचर
नहीं होता।
असल में
अंग्रेजी के
पास प्रकृति जैसा
कोई शब्द ही
नहीं है।
प्रकृति का
मतलब है, बनने
के भी पहले से
जो है—प्रकृति।
बनने के पहले
से भी जो है।
प्रकृति का
मतलब सृष्टि
नहीं है।
सृष्टि का
मतलब है, जो
बनने के बाद
है। प्रकृति
का मतलब है, जब कुछ भी
नहीं बना था
तब भी थी—प्रकृति।
दैट व्हिच वाज
बिफोर
क्रिएशन। और
पुरुष शब्द भी
बड़ा
अर्थपूर्ण है।
पुरुष जैसा
शब्द भी
दुनिया की
भाषा में
खोजना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि ये
सारे के सारे
शब्द बहुत
विशेष अनुभवों
से पैदा हुए
हैं। पुरुष का
वही मतलब होता
है...... 'पुर'
तो हम जानते
हैं। 'पुर'
का मतलब
होता है नगर।
जैसे कानपुर,
नागपुर। वह
जो पुर है, वह
है नगर। और उस
नगर में जो
रहने वाला है,
वह है पुरुष।
तो शरीर तो एक
गांव है और
उसमें एक
निवास कर रहा
है, कोई
निवासी—वह है
पुरुष। तो
प्रकृति तो
पुर है और
प्रकृति में
जो रह रहा है
अलग— थलग, वह
है पुरुष।
तो
साक्षी
प्रकृति और पुरुष
तक जाएगा। वह
तोड़ देगा, यह
रही प्रकृति,
यह रहा जड़
और यह रहा
चेतन, जानने
वाला। नोअर और
नोन का फासला
खड़ा हो जाएगा।
तथाता
और भी बड़ी बात
है। तथाता का
मतलब है, कोई
द्वैत नहीं है।
न कोई जानने
वाला है, न
कुछ जानने को
है। या जो
जानने वाला है
वही जाना भी
जा रहा है। द
नोअर इज द नोन।
अब ऐसा नहीं
है कि कांटा
गड़ रहा है और
मैं जान रहा
हूं। अब ऐसा
भी नहीं है कि
कांटा अलग है
और मैं अलग हूं।
अब ऐसा भी
नहीं है कि कांटा
न गड़ता होता, तो अच्छा
होता। अब ऐसा
भी नहीं है कि
कांटा निकल
जाए, तो
अच्छा हो।
नहीं, अब
ऐसा कुछ भी
नहीं है। काटे
का होना, गड़ने
का होना, गड़ने
का पता चलना, पीड़ा का
होना, सब
स्वीकृत है और
सब एक ही चीज
के छोर हैं।
तो कांटा भी
मैं हूं गड़ना
भी मैं हूं
जानना भी मैं
हूं पहचानना
भी मैं हूं सब
मैं हूं।
इसलिए इस मैं
के बाहर कोई
जाना नहीं है।
न तो ऐसा सोच
सकता हूं कि
कांटा न गड़ता,
क्योंकि
कैसे सोच सकता
हूं! क्योंकि कांटा
भी मैं हूं
गड़ना भी मैं
हूं जानना भी
मैं हूं। न
मैं ऐसा सोच
सकता हूं कि कांटा
न गड़े तो
अच्छा, क्योंकि
अपने को ही
कहां काट कर
अलग करूंगा।
तथाता
जो है, वह परम
स्थिति है।
वहा जो है, वह
है। जो है, उसकी
परम स्वीकृति।
उसमें कोई भेद
नहीं है।
लेकिन साक्षी
हुए बिना
तथाता तक नहीं
पहुंचा जा
सकता।
हालांकि कोई
चाहे तो
साक्षी पर रुक
सकता है और
तथाता पर न
पहुंचे।
संकल्प के
बिना कोई
साक्षी तक
नहीं पहुंच
सकता, हालांकि
कोई चाहे तो
संकल्प पर रुक
जाए और साक्षी
तक न पहुंचे।
जो
आदमी संकल्प
पर रुक जाएगा, वह
आदमी
शक्तिशाली तो
बहुत हो जाएगा,
लेकिन
ज्ञानवान न हो
पाएगा। इसलिए
संकल्प के
दुरुपयोग भी
हो सकते हैं, क्योंकि
वहां ज्ञान
अनिवार्य
नहीं है।
शक्ति तो बहुत
आ जाएगी, इसलिए
उसके
दुरुपयोग हो
सकते हैं।
सारा
ब्लैक मैजिक
जो है, वह
संकल्प की ही
शक्ति से पैदा
हुआ है।
क्योंकि
ज्ञान तो कुछ
भी नहीं है, शक्ति बहुत
आ गई है, अब
उसका कुछ भी
उपयोग हो सकता
है।
संकल्पवान
व्यक्ति
शक्ति से भर
गया है। शक्ति
का क्या उपयोग
करेगा, यह
कहना अभी
मुश्किल है।
वह बुरा उपयोग
कर सकता है।
शक्ति तटस्थ
है। लेकिन
शक्ति होनी तो
चाहिए ही।
बुरा करने के
लिए भी होनी
चाहिए, भला
करने के लिए
भी होनी चाहिए।
और मेरा मानना
है कि
शक्तिहीन
होने से चाहे
बुरा भी करो, तो भी ठीक है।
क्योँकि जो बुरा
करता है, वह
कभी अच्छा भी
कर सकता है।
लेकिन जो बुरा
भी नहीं .कर
सकता, वह
तो अच्छा भी
नहीं कर सकता।
इसलिए
निर्वीर्य, शक्तिहीन
होने से
शक्तिवान
होना बेहतर है।
फिर शक्तिवान
होने में भी
शुभ और अशुभ
की यात्राएं
हैं। तो
शक्तिवान
होकर शुभ की
यात्रा पर
होना बेहतर है।
लेकिन शक्ति
की शुभ की
यात्रा अगर
ठीक से चले, तो साक्षी
पर पहुंचा
देगी। अगर
अशुभ की
यात्रा चले, तो साक्षी
पर नही
पहुंचोगे, संकल्प
की शक्ति में
ही भटक कर रह
जाओगे। तो
मेस्मरिज्म
होगा, हिप्नोटिज्म
होगा, तंत्र
होगा, मंत्र
होगा, जादू
—टोना होगा।
सब तरह की
चीजें पैदा हो
जाएंगी, लेकिन
इससे कोई
आत्मा की
यात्रा नहीं
होगी। यह
भटकाव हो गया।
शक्ति तो हुई,
लेकिन भटक
गई। अगर शक्ति
शुभ की यात्रा
पर चले, तो
साक्षी का
जन्म हौ जाएगा।
क्योंकि
अंततः जब
शक्ति पैदा
होगी, तो
आदमी शक्ति का
इसलिए उपयोग
करेगा कि
स्वयं को जान
सके और पा सके।
यह उसकी शुभ
यात्रा होगी।
दूसरे को दबा
सके और दूसरे
को पा सके, यह
अशुभ यात्रा
होगी। शक्ति
की अशुभ
यात्रा का
मेरा मतलब है 'कि दूसरे को
दबाऊं, दूसरे
का मालिक हो
जाऊं, दूसरे
को कस लूं? तो
अशुभ यात्रा
शुरू हो गई।
वह ब्लैक
मैजिक है।
शक्ति से अपने
को पाऊं, पहचानूं, जीऊं, जान
लूं कि कौन हूं, क्या हूं, यह शुभ
यात्रा हो गई।
अगर शक्ति शुभ
यात्रा पर
होगी, तो
साक्षी बन
जाएगी।
अब
अगर साक्षी का
भाव,
सिर्फ मैं
स्वयं को जान
लूं? इतने
पर तृप्त हो
जाए, तो
पांचवें शरीर
तक बात
पहुंचेगी और
खतम हो जाएगी।
लेकिन साक्षी
का भाव अगर और
गहरा हो और
इसका भी पता
लगाए कि मैं
अकेला तो नहीं
हू, हूं तो
सबके साथ।
मेरे होने में
चांद—तारे भी
सम्मिलित हैं,
सूरज भी
सम्मिलित है,
मेरे होने
में पत्थर, मिट्टी, फूल,
पौधे सब
सम्मिलित हैं,
मेरे होने
में दूसरों का
होना भी
सम्मिलित है,
मेरा होना
सम्मिलित
होना है। अगर
इस खयाल से
यात्रा शुरू
हो, तो
तथाता तक
पहुंच पाएगा।
और
तथाता धर्म की
परम उपलब्धि
है,
जहां सब
स्वीकार है, टोटल
एक्सेप्टीबिलिटी
है। जैसा हो
रहा है, वह
सबके लिए राजी
है। और जो
आदमी जैसा हो
रहा है, उस
सबके लिए पूरा
राजी है, ऐसा
आदमी ही पूर्ण
शांत हो सकता
है। क्योंकि
जो जरा भी
नाराज है, उसकी
अशांति जारी
रहेगी। अगर जो
जरा भी शिकायत
से भरा है, उसकी
अशांति जारी
रहेगी। अगर
जिसके मन में
जरा भी ऐसा है
कि ऐसा होना
था और ऐसा
नहीं हुआ, तो
उसके मन में
तनाव जारी
रहेगा।
परम
शांति, परम
तनावमुक्तता,
परम मुक्ति
तथाता में ही
संभव है। पर
संकल्प हो, तो साक्षी
तक जाया जा
सकता है।
साक्षी भाव हो,
तो तथाता तक
जाया जा सकता
है। क्योंकि
जिस व्यक्ति
ने अभी साक्षी
होना ही नहीं
जाना, वह
सर्व —स्वीकार
नहीं जान सकता।
जिसने अभी यही
नहीं जाना कि
मैं कांटे से
अलग हूं,
वह अभी यह
नहीं जान सकता
कि मैं कांटे
से एक हूं।
असल में काटे
से अलग होना
जो जान ले, वह
दूसरा कदम भी
उठा सकता है
काटे से एक
होने का।
तो
तथाता सारभूत
है। समस्त
साधना में जो
श्रेष्ठतम
खोज हुई है, वह
तथाता की है। इसलिए
बुद्ध का एक
नाम है तथागत।
तथागत शब्द को
समझना थोड़ा
उपयोगी है, उससे तथाता
को समझने में
यह सहयोगी
होगा।
बुद्ध
खुद अपने लिए
भी तथागत का
उपयोग करते हैं।
बुद्ध खुद
कहते हैं कि
तथागत ने ऐसा
कहा। तथागत का
मतलब है, दस
केम, दस
गान। ऐसे आए
और ऐसे गए।
जैसे हवा का
झोंका आए और
चला जाए; न
कोई प्रयोजन,
न कोई अर्थ।
बस हवा का
झोंका आए भीतर
और चला जाए।
जो ऐसे ही आए
और गए। जिनका
आना—जाना ऐसा
निष्प्रयोजन,
निष्काम है,
जैसा हवा का
झोंका है। ऐसे
व्यक्तित्व
को कहते हैं
तथागत।
लेकिन
हवा के झोंके
की तरह कौन
आएगा और कौन
जाएगा? हवा
के झोंके की
तरह वही आ और
जा सकता है, जो तथाता को
उपलब्ध है।
जिसको न आने
से कोई फर्क
पड़ता है, न
जाने से कोई
फर्क पड़ता है।
आए तो आए, गए
तो गए। वैसे
ही जैसे
डायोजनीज चला
गया। न इससे
फर्क पड़ता है
कि जंजीर डालों,
न इससे फर्क
पड़ता है कि
जंजीर मत डालों।
क्योंकि
डायोजनीज ने
बाद में कहा
कि जो गुलाम
हो सकता है, वही
गुलामी से
डरता है, हम
तो गुलाम हो
ही नहीं सकते,
तो हम
गुलामी से
कैसे डरें।
जिसको थोड़ा—सा
भी डर है
गुलाम होने का,
वही तो
गुलामी से डर
सकता है। और
जिसको डर है, वह गुलाम है।
हम ठहरे मालिक।
तुम हमें
गुलाम बना
नहीं सकते। हम
तुम्हारी
जंजीरों के
भीतर भी मालिक
हैं। हम
तुम्हारे
कारागृह में
जाकर भी मालिक
ही होंगे। हम
मालिक हैं।
इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि तुम हमें
कहा डाल देते
हो। इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। हमारी
मालकियत पूरी
है।
संकल्प
से साक्षी, साक्षी
से तथाता, ऐसी
यात्रा है।
साक्षी
भाव और दृष्टा
भाव में कोई
अंतर है?
नहीं, कोई
अंतर नहीं।
साक्षी
भाव और दृष्टा
भाव एक ही हैं?
एक
ही बात है।
और उसके
बाद तथाता है?
उसके
बाद ही तथाता
है।
आपने कहा
कि अंग्रेजी
में प्रकृति
के लिए कोई शब्द
नहीं है क्या
कांस्टीटयूशन
प्रकृति जैसा
शब्द नहीं है?
जैसे कहते हैं
कि ही इज
कास्टीटयूशनली
लाइक दैट तो
इसका क्या यही
अर्थ नहीं
होता कि ही इज
बॉर्न विद......
नहीं, वह
मतलब नहीं।
कास्टीटयूशनली
का मतलब होता
है कि उसका
विधान ऐसा है।
कांस्टीटयूशन
का मतलब होता
है विधान। हा,
जैसे एक
आदमी है, कास्टीटयूशनली
का मतलब होता
है उस व्यक्ति
की संरचना ऐसी
है, उस
व्यक्ति का
विधान ऐसा है।
प्रकृति शब्द
बहुत और है।
हम प्रयोग
करते हैं ऐसा
कि फलां आदमी
की प्रकृति
ऐसी है। वह
ठीक नहीं है
प्रयोग।
प्रकृति का
मतलब होता है
कृति के पूर्व।
प्रलय का मतलब
होता है कृति
के बाद।
प्रकृति का
मतलब होता है
जब कुछ भी
नहीं बना था, तब भी जो था।
प्रकृति का
मतलब होता है
जिसे बनने की
कोई जरूरत ही
नहीं, जो
अनादि है, जो
है ही। सृष्टि
का मतलब होता
है वह जो बना।
योरोप
की भाषाओं में
प्रकृति के
लिए शब्द नहीं
है,
क्योंकि
योरोप की
भाषाएं
ईसाइयत से
प्रभावित हैं।
तो योरोप में
तो क्रिएशन, सृष्टि और
स्रष्टा शब्द
हैं। इस देश
की भाषाओं में
प्रकृति का
शब्द है। वह
भी सबकी
भाषाओं में
नहीं है।
सांख्य, वैशेषिक,
जैन—प्रकृति
उनकी भाषा है,
प्रकृति
शब्द
उनका है।
क्योंकि वे
क्रिएशन को
नहीं मानते, वे
किसी ईश्वर को
भी नहीं मानते।
वे कहते हैं, जो सदा से है
और जिसको कभी
नहीं बनाया
गया, उसका
नाम प्रकृति
है। तुम बनाओ
उसके पहले वह
मौजूद है।
अब
जैसे इस मकान
को हमने बनाया।
तो इस मकान का
जो ढांचा है, यह
तो
कास्टीटचूशन
है। लेकिन इस
मकान के लिए
जो मिट्टी हम
लाए, वह
प्रकृति है।
इस मकान के
लिए जो हवा हम
उपयोग में लाए,
वह प्रकृति
है। इस मकान
के लिए जो आग
हम .उपयोग में
लाए, वह
प्रकृति है।
जो बनकर तैयार
हो गया, वह
तो इसका ढांचा
है। लेकिन इस
ढांचे को
बनाने के पहले
भी जो मौजूद था
जिसको हमने
नहीं बनाया, जिसको किसी
ने नहीं बनाया,
जो
अनक्रिएटेड
है, जो था
ही, उसका
नाम प्रकृति
है। योरोप की
भाषा में
प्रकृति के
लिए कोई शब्द
नहीं है।
एक
छोटा सा
प्रश्न है
जस्ट
अवेयरनेस
केवल होश और
तथाता क्या एक
ही बात है?
असल
में जब हम
कहते हैं, जस्ट
अवेयरनेस, बस
होश मात्र, तो इसमें और
तथाता में
थोड़ा—सा फर्क
है। और इसमें
और साक्षी में
भी थोड़ा—सा
फर्क है। अगर
ऐसा समझें कि
साक्षी और
तथाता के बीच
की कड़ी है। जब
तुम साक्षी से
गुजरोगे
तथाता तक, तब
यह बीच की एक
कड़ी होगी—जस्ट
अवेयरनेस।
साक्षी होने
में मैं हूं
और तू है, इसका
भाव पक्का है।
जस्ट
अवेयरनेस में
सिर्फ हूं,
तू का भाव भूल
गया है। सिर्फ
होने का भाव
है। तथाता में
सिर्फ होने का
भाव ही नहीं
है। यह मेरा
होना और तेरा
होना एक ही
होना है।
क्योंकि जब तक
जस्ट
अवेयरनेस भी
है, जब तक
सिर्फ होने का
भाव भी है, तब
तक होने के
भाव के बाहर
एक सीमा होगी,
जो कि मैं
नहीं हूं,
जहां से मैं
अलग हूं।
तथाता में कोई
सीमा नहीं है।
होना ही है।
तो अगर कहें
तथाता, तो
जस्ट बीइंग, जस्ट
अवेयरनेस
नहीं। बीइंग
बड़ा शब्द है।
जस्ट
अवेयरनेस सब
को नहीं झेल
लेगा?
जैसे
ही तुम कहते
हो जस्ट
अवेयरनेस
उसमें कुछ को
छोड़ दिया।
जस्ट शब्द जो
है,
वह छोड़ने
वाला है। जब
हम कहते हैं, बस चेतना, तो बस के
बाहर हमने कुछ
छोड़ दिया, नहीं
तो बस क्यों
लगाते हो। जब
हम कहते हैं
सिर्फ चेतना,
तो हमने
सिर्फ के बाहर
कुछ को इनकार
कर दिया, नहीं
तो सिर्फ
क्यों लगाते
हो।
केवल
अवेयरनेस
कहें तो?
हां, केवल
अवेयरनेस कहो,
तो बात चल
जाए। लेकिन 'केवल' मत
लगाओ। 'अवेयरनेस'
कहा, तो
चल जाएगा। फिर
कठनाई की कोई
बात नहीं है।
आखिरी
प्रश्न है
आपने कहा है
कि भीतर लौटने
के संकल्प से
या मृत्यु के
समय सारी जीवन
ऊर्जा सिकुड़ती
है पुन: बीज
बनने के लिए
केंद्र पर वापस
लौटती है तो
किस केंद्र पर
सिकुड़ती है
आज्ञा— चक्र
पर या नाभि पर
या अन्यत्र? कौन—
सा केंद्र
सर्वाधिक
प्रमुख है और
क्यों?
यह
थोड़ी सोचने
जैसी बात है।
मरने के पहले
सारी चेतना
सिकुड़ेगी। नई
यात्रा पर
निकलने के
पहले इस शरीर
में जो—जो
बिखराव है, वह
वापस लौट
जाएगा। जैसे
कोई आदमी इस
घर से विदा
होता हो और
फिर इस घर में
कभी लौटने को
न हो, तो जो
भी
महत्वपूर्ण
है, वह
उसको अपनी
पोटली में
बांध ले। इस
घर में फैलाव
था जब रह रहा
था। एक—एक
कमरे में
चीजें फैली
थीं। बाथरूम
से लेकर
बैठकखाने तक
फैलाव था। फिर
जब वह विदा
होने लगा इस
घर से, तो
छांट लेगा, सब इकट्ठा कर
लेगा। जो
व्यर्थ होगा,
छोड़ देगा।
जो सार्थक
होगा, उसे
ले लेगा और
यात्रा पर
निकलेगा।
यह
यात्रा..... जैसे
ही हम एक जीवन
को छोड़ते हैं, एक
शरीर को छोड़ते
हैं और दूसरे
जीवन में
प्रवेश करते
हैं और दूसरे
शरीर की
यात्रा पर
निकलते हैं, वैसे ही
हमारी चेतना
ने जो —जो इस
शरीर में
फैलाकर रखा था,
उसको वापस
लौटाकी, बीज
बनेगी फिर से।
ऐरूअल बन गई
थी, अब फिर
पोटेंशियल
बनेगी।
क्योंकि अब नए
शरीर में बीज
की तरह प्रवेश
होगा। जैसे
कोई वृक्ष
मरता है, तो
फिर बीज छोड़
जाता है। ऐसे
ही जब एक शरीर
मरता है, तो
भी बीज छोड़
जाता है। जिनको
हम वीर्यकण
कहते हैं या
रजकण कहते हैं,
वह शरीर के
मरते वक्त
छोड़े गए बीज
हैं, मरने
के पहले छोड़े
गए बीज हैं, मरने की
अपेक्षा में
छोड़े गए बीज
हैं। एक शरीर
अपने बीज छोड़
जाता है।
वीर्यकण जो है,
उस कण में, तुम्हारे
शरीर की पूरी
प्रतिमूर्ति
है। तुम्हारे
शरीर का पूरा
का पूरा बिल्ट
इन प्रोग्राम
है। उस छोटे —से
बीज को वह छोड़
जाता है, क्योंकि
यह शरीर तो अब
विदा होने के
करीब है। शरीर
भी बीज छोड़ता
है। यह एक
स्तर पर होता
है। चेतना
अपने बीज को
इकट्ठा करती
है और किसी शरीर
के बीज में
प्रवेश करेगी।
सब
यात्रा बीज से
शुरू होती है
और सब यात्रा
बीज पर अंत
होती है।
ध्यान रहे, जो
प्रारंभ है, वही अंत है।
जो बिगनिंग है,
वही ऐंड है।
जहां से
यात्रा शुरू
होगी, वहीं
यात्रा का
वृत्त पूरा
होगा। एक बीज
से हम शुरू
होते हैं और
एक बीज पर हम
पन: अंत हो
जाते हैं।
सब
यात्रा बीज से
शुरू होती है
और सब यात्रा
बीज पर अंत
होती है।
ध्यान रहे, जो
प्रारंभ है, वही अंत है।
जो बिगनिंग है,
वही ऐंड है।
जहां से
यात्रा शुरू
होगी, वहीं
यात्रा का
वृत्त पूरा
होगा। एक बीज
से हम शुरू
होते हैं और
एक बीज पर हम
पुन: अंत हो
जाते हैं।
वह
जो चेतना मरते
वक्त अपने को
सिकोड़ लेगी, बीज
बनेगी, वह
किस केंद्र पर
इकट्ठी होगी?
जिस केंद्र
पर आप जीए थे!
जो आपके जीने
का सर्वाधिक
मूल्यवान
केंद्र था, वहीं इकट्ठी
हो जाएगी।
क्योंकि जहां
आप जीए थे, वही
केंद्र
सक्रिय है। जहां
आप जीए थे, कहना
चाहिए, वहीं
आपके जीवन का
प्राण है।
अगर
एक आदमी का
सारा जीवन
सेक्स से ही
भरा हुआ जीवन
था,
उसके पार
उसने कुछ भी
नहीं जाना, कुछ भी नहीं
जीया, अगर
धन भी इकट्ठा
किया तो भी
काम के लिए, यौन के लिए, अगर पद भी
पाना चाहा तो
काम और यौन के
लिए, स्वास्थ्य
भी पाना चाहा
तो काम के लिए
और यौन के लिए,
अगर उसकी
जिंदगी का वह
सबसे बहुत
एमफैटिक
केंद्र सेक्स
था, तो
सेक्स के
केंद्र पर ही
ऊर्जा इकट्ठी
हो जाएगी और
उसकी यात्रा
फिर वहीं से
होगी। क्यों?
क्योंकि
अगला जन्म भी
उसकी सेक्स की
केंद्र की ही
यात्रा की
कंटीन्यूटि
होगा, उसका
सातत्य होगा।
तो वह व्यक्ति
सेक्स के
केंद्र पर
इकट्ठा हो
जाएगा। और
उसके प्राण का
जो अंत है, वह
सेक्स के
केंद्र से ही
होगा। उसके
प्राण
जननेंद्रिय
से ही बाहर निकलेंगे।
अगर
वह व्यक्ति
दूसरे किसी
केंद्र पर
जीया था, तो उस
केंद्र पर
इकट्ठा होगा।
यानी जिस
केंद्र पर
हमारा जीवन
घूमा था, उसी
केंद्र से हम
विदा होंगे।
जहां हम जीए
थे, वहीं
से हम मरेंगे।
इसलिए कोई
योगी आज्ञा—चक्र
से विदा हो
सकता है। कोई
प्रेमी हृदय—चक्र
से विदा हो
सकता है। कोई
परम ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति
सहस्रार से विदा
होगा। उसका
कपाल फूट
जाएगा, वह
वहां से विदा
होगा। हम कहां
से विदा होंगे,
यह हमारे
जीवन का पूरा
सारभूत सबूत
होगा।
और
इन सबके सूत्र
खोज लिये गए
थे कि मरे हुए
आदमी को देखकर
कहा जा सकता
है कि वह कहां
से विदा हुआ।
इस सबके सूत्र
खोज लिए गये
थे। मरे हुए
आदमी को देखकर, उसकी
लाश को देखकर
कहा जा सकता
है कि वह कहां
से निकला है, किस द्वार
का उपयोग किया
उसने
बहिर्गमन के
लिए। ये सब
चक्र द्वार भी
हैं। ये
प्रवेश के
द्वार भी हैं,
ये विदा
होने के द्वार
भी हैं। और जो
जिस द्वार से
निकलेगा, उसी
द्वार से
प्रवेश करेगा।
एक मां के पेट
में वह जो नया
अणु बनेगा, उस अणु में
आत्मा उसी
द्वार से
प्रवेश करेगी
जिस द्वार से
वह पिछली
मृत्यु में
निकली थी। वह
उसी द्वार को
पहचानती है।
और
इसीलिए मां—बाप
का चित्त और
उनकी चेतना की
दशा संभोग के
क्षण में
निर्णायक
होगी कि कौन —सी
आत्मा वहां
प्रवेश करेगी।
क्योंकि मां —बाप
की चेतना
संभोग के क्षण
में जिस
केंद्र के
निकट होगी, उसी
केंद्र को
प्रवेश करने
वाली चेतना उस
गर्भ को ग्रहण
कर सकेगी, नहीं
तो नहीं कर
सकेगी। अगर दो
योगस्थ
व्यक्ति बिना
किसी संभोग की
कामना के
सिर्फ किसी
आत्मा को जन्म
देने के लिए प्रयोग
कर रहे हैं, तो वे ऊंचे
से ऊंचे
चक्रों का
प्रयोग कर
सकते हैं।
इसलिए
अच्छी
आत्माओं को
जन्म लेने के
लिए बहुत दिन
तक प्रतीक्षा
करनी पड़ती है, क्योंकि
अच्छा गर्भ
मिलना चाहिए।
बहुत कठिनाई
हो जाती है कि
उन्हें ठीक
गर्भ मिल सके।
इसलिए बहुत सी
अच्छी
आत्माएं
सैकड़ों —सैकड़ों
वर्षों तक
दोबारा जन्म
नहीं ले पातीं।
बहुत सी बुरी
आत्माओं को भी
बड़ी कठिनाई हो
जाती है, क्योंकि
उनके लिए भी
सामान्य गर्भ
काम नहीं करता।
साधारण
आत्माएं
तत्काल जन्म
ले लेती हैं।
इधर मरी, उधर
जन्म हुआ, उसमें
ज्यादा देर
नहीं लगती।
क्योंकि उनके
योग्य बहुत
गर्भ उपलब्ध
होते हैं सारी
पृथ्वी पर।
प्रतिदिन
उनके लिए
हजारों—लाखों
मौके हैं।
बहुत मौके हैं
इस वक्त। कोई
एक लाख अस्सी
हजार लोग रोज
पैदा होते हैं।
मरने वालों की
संख्या काटकर
इतने लोग बढते
हैं। कोई दो
लाख आत्माओं
के लिए रोज
प्रवेश की सुविधा
है। लेकिन ये
बिलकुल
सामान्य तल पर
यह सुविधा है।
असामान्य
आत्माओं को
अगर हम पैदा न
कर पाएं तो यह
भी हो सकता है, और
बहुत बार हुआ
है......। इसकी
थोड़ी बात खयाल
में लेनी
अच्छी होगी।
बहुत—सी
आत्माएं जो इस
पृथ्वी ने बड़ी
मुश्किल से पैदा
कीं, उनको
जन्म किसी
दूसरी
पृथ्वियों पर
लेने पड़े हैं।
यह पृथ्वी
उनके लिए
वापिस जन्म
देने में असमर्थ
हो गई। ऐसा ही
समझो तुम कि
जैसे हिंदुस्तान
में एक
वैज्ञानिक को
हम पैदा कर लें,
लेकिन
नौकरी उसको
अमरीका में ही
मिले। पैदा हम
करें; मिट्टी,
भोजन, पानी
हम दें; जिंदगी
हम दें; लेकिन
हम उसे कोई
जगह न दे पाएं
उसके जीवन के
लिए। उसको जगह
लेनी पड़े
अमरीका में।
आज सारी
दुनिया के
अधिकतम
वैज्ञानिक
अमरीका में
इकट्ठे हो गए
हैं। हो ही
जाएंगे। ऐसे
ही इस पृथ्वी
पर जिन
आत्माओं को हम
तैयार तो कर
लेते हैं, लेकिन
दोबारा जन्म
देने के लिए
गर्भ नहीं दे
पाते, उनको
स्वभावत:
दूसरे ग्रहों
पर खोज करनी
पड़ती है।
यदि हमारे
में प्रतिभा
है कि
वैज्ञानिक
पैदा कर सके
तब तो फिर उसे
नौकरी देने की
भी प्रतिभा
होगी ही।
नहीं, यह
जरूरी नहीं है।
कठिनाई क्या
है कि एक
वैज्ञानिक
पैदा करना बहुत—सी
बातों पर
निर्भर है। और
एक वैज्ञानिक
को नौकरी देना
और दूसरी बहुत—सी
बातों पर
निर्भर है। एक
वैज्ञानिक को
पैदा करना तो
एक वैज्ञानिक
आत्मा की
पिछली यात्राओं
पर निर्भर है।
और दो
व्यक्तियों
के बीच जो
संभोग का क्षण
है अगर वह
क्षण ऐसा है
कि उस व्यक्ति
को बुद्धि के
द्वार से
प्रवेश मिल
जाए, तो
उसे वह प्रवेश
मिल जाएगा। वह
पैदा भी हो
जाएगा। लेकिन
एक वैज्ञानिक
को नौकरी देना
पूरे समाज की
व्यवस्था पर
निर्भर है। इस
वैज्ञानिक को
अमरीका में दस
हजार रुपए मिल
सकते हैं, हिंदुस्तान
में हजार
मिलेंगे। और
फिर इस
वैज्ञानिक को
अमरीका में एक
लेबोरेटरी
मिल सकती है
जिसके लिए
हिंदुस्तान
में अभी हजार
वर्ष रुकना पड़ेगा
तब मिलेगी। और
अमरीका में इसका
शोध होगा तो
वह सरकारी
दफ्तरों में
पड़ा हुआ सड़
नहीं जाएगा, उसको नोबल
प्राइज मिल
जाएगी। यहां
अगर वह शोध
करेगा तो उसका
ऊपर का आफिसर
ही उसको दबाकर
बैठ जाएगा, उसको कभी
निकलने नहीं
देगा। और
निकले भी कभी
तो हो सकता है
वह नेता के
नाम से निकले,
आफिसर के
नाम से निकले।
उसके नाम से
कभी उसके शोध
का पता ही न
चलेगा। यह
हजार बातों पर
निर्भर: करेगा।
तो
जिन
व्यक्तियों
को हम इस
पृथ्वी पर
पैदा करते हैं, उनमें
बहुत—से
व्यक्तियों
को दूसरे
ग्रहों पर
जन्म लेना पड़ता
है। असल में
इस पृथ्वी तक
दूसरे ग्रहों
की खबर लाने
वाले लोग भी
मूलत: किन्हीं
दूसरे ग्रहों
से आए थे। यह
तो आज वैज्ञानिक
को खयाल आया
है कि कोई
पचास हजार
ग्रह हैं जिन पर
जीवन होगा।
लेकिन योगी को
यह खयाल बहुत
प्राचीन है।
योगी के पास
कोई उपाय नहीं
था कि वह पता
लगाए कि और
ग्रहों पर कोई
होगा। एक ही
उपाय था कि
ऐसी कुछ
आत्माए जो
दूसरे ग्रहों
से यहां पैदा
हुईं, वे
खबर ले आई थीं।
या इस ग्रह की
खबरें भी
दूसरे ग्रहों
पर ले जाने
वाली दूसरी ही
आत्माएं हैं।
मनुष्य
की चेतना मरते
क्षण मै पूरी
की पूरी इकट्ठी
होगी। अपने
सारे संस्कार, अपनी
सारी
प्रवृत्ति, अपनी सारी
वासना, अपने
जीवन का सारा
सारभूत, एसेंशियल,
जिसको कहें
परफ्यूम, सारे
जीवन की सुगंध
या दुर्गंध, उसको इकट्ठी
लेकर खड़ी हो
जाएगी और
यात्रा पर निकल
जाएगी।
यह
यात्रा
साधारणत: अ—चुनी
होगी। इसमें
कोई चुनाव
नहीं होगा, आटोमेटिक
होगी। यह वैसे
ही होगी जैसे
कि हम पानी
गिराएं और वह
गड्डे की तरफ —बह
जाए और गड्ढे
में भर जाए। साधारणत:
यह ऐसे ही
होगा कि एक गर्भ
एक गड्डे का
काम करेगा और
एक चेतना
उपलब्ध होगी
निकट और वह
प्रवेश कर
जाएगी।
इसलिए
आम तौर से एक
आदमी
ज्यादातर
अपने ही समाज, अपने
ही देश में
पैदा होता
रहता है। बहुत
कम परिवर्तन
होते है।
परिवर्तन तभी
होते हैं जब
कि गर्भ नहीं
मिलता। इसलिए
बहुत हैरानी की
बात है कि
पिछले दो सौ
वर्षों में हिंदुस्तान—में पैदा
हुई बहुत—सी
कीमती
आत्माओं को
योरोप में
पैदा होना पड़ा।
जैसे एनी
बीसेंट हो या.
बलावट्सकी
हों या लीड
बीटर हों या
अल्काट हों, ये सारी की
सारी भारत की
आत्माएँ हैं,
लेकिन इनको
पैदा होना पड़ा
योरोप में।
जैसे लोबसांग
राम्पा है, वह तिब्बतन
आत्मा है, लेकिन
पैदा —हुई
योरोप में।
इसके कारण हो
गए। क्योंकि
वे पैदा जहां
हुई थीं वहा
फिर गर्भ नहीं
मिल सका और
गभें?इ
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कहीं और खोजना
पड़ा।
अन्यथा
साधारण व्यक्ति
तो तत्काल
पैदा हो जाता
है। वह ऐसे ही
जैसे कि इस
मुहल्ले से आप
यह घर छोड़े, तो
पहले आप इसी
मुहल्ले में
घर खोजें
स्वभावत:। और
यहां न मिले
तब कहीं आप दूसरे
मुहल्ले में
घर खोजने
जाएं। और बंबई
में न मिले तब
आप सबर्ब में
जाएं। और
सबर्ब में भी
न मिले तब
कहीं आगे
निकलें।
लेकिन अगर मिल
जाए तो बात
खतम हो गई।
इसका
बड़ा अदभुत
उपयोग किया
गया था। उस
उपयोग के
संबंध में भी
दो बातें खयाल
में ले लेनी
जरूरी हैं और
इस समय और भी
जरूरी हो गई
हैं। इसका एक
जो सबसे अदभुत
उपयोग किया
गया था वह
हिंदुस्तान
में किया गया
था वर्ण बनाकर।
उसका उपयोग
बड़ा कीमती था।
हिंदुस्तान
ने चार वर्णों
में तोड़ दिया
था पूरे समाज
को। और यह
कोशिश की थी
कि ब्राह्मण
की आत्मा मरे
तो वह
ब्राह्मण के
वर्ण में
प्रवेश कर जाए, क्षत्रिय
की आत्मा मरे
तो वह
क्षत्रिय के
वर्ण में
प्रवेश कर जाए।
स्वभावत: अगर
एक समाज में
वर्ण
सुनिश्चित हो,
तो
क्षत्रिय जब
मरेगा तो बहुत
संभावना
नेबरहुड में
ही खोजने की
है। वह
क्षत्रिय में
ही प्रवेश कर
जाएगा। और अगर
एक व्यक्ति की
आत्मा दस —पांच
जन्मों तक
क्षत्रिय रह
जाए, तो
जैसी
क्षत्रिय
होगी वैसा
क्षत्रिय आप
एक दिन
मिलिट्री की
ट्रेनिंग
देकर पैदा
नहीं कर सकते
हैं। और अगर
एक व्यक्ति की
आत्मा दस—बीस
जन्मों में
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होती चली जाए,
तो जैसा
शुद्धतम
ब्राह्मणत्व
पैदा होगा, वैसा आप कोई गुरुकुल
बनाकर और आदमी
को शिक्षा
देकर तैयार नहीं
कर सकते।
यह
तुम जानकर
हैरान होगे कि
एक जिंदगी में
हमने शिक्षा
का उपाय सोचा
है,
कुछ लोगों
ने अनंत
जिंदगियों
में भी शिक्षा
की व्यवस्था
खोजी है। और
इसलिए बड़ा
अदभुत प्रयोग
था, लेकिन
वह सड़ गया।
सड़ा इसलिए
नहीं कि गलत
था, सड़ा
इसलिए कि उसके
मूल सूत्र खो
गए। और जो
उसके दावेदार
हैं, उनके
पास कोई भी
सूत्र नहीं है।
जो दावेदार
हैं, उनके
पास कोई सूत्र
नहीं है।
ब्राह्मण के
पास कोई सूत्र
नहीं है, शंकराचार्य
के पास कोई
सूत्र नहीं है
कि वे दावा कर
सकें। बस दावा
इतना ही है कि
हमारे
शास्त्र में
लिखा हुआ है
कि ब्राह्मण
ब्राह्मण है,
शूद्र
शूद्र है।
शास्त्र नहीं
चल सकते, वैज्ञानिक
सूत्र चलते
हैं।
इसलिए
एक अदभुत घटना
है कि इस
मुल्क ने एक
बड़ा भारी
प्रयोग किया
था जन्मांतर
का। यानी एक
जन्म में ही
हम आदमी को
तैयार नहीं कर
रहे हैं, हम
आगे जन्मों के
लिए भी उसे
सुनियोजित
चैनलाइजेशन
दे रहे हैं, उसे. ठीक
नहरें दे रहे
हैं कि वह अगली
यात्रा पर भी
फिर एक वर्ग
विशेष को
पकड़कर यात्रा
कर सके।
क्योंकि हो
सकता है कि एक
ब्राह्मण को
शूद्र के घर
में पैदा होना
पड़े और पिछले
जन्मों में जो
उसने कमाया था,
पिछले
जन्मों में
उसने जो पाया
था, वह
अगले जन्मों
में उसके
अनुकूल
व्यवस्था
पूरी न मिलने
से उसे बड़ी
अड़चन हो जाए।
और यह भी हो
सकता है कि जो
काम ब्राह्मण
के घर में ही
पैदा होकर दस
दिन में ही हो
जाता, वह
शूद्र के घर
में दस साल
में न हो पाए।
तो इतनी दूर
तक विकास की
धारणा की जो
दृष्टि थी, उसने मुल्क
को सीधे
हिस्सों में
तोड़ दिया था।
और व्यवस्था
की थी
नेबरहुड्स की,
ताकि इनके
भीतर जन्मों—जन्मों
तक....।
अब
जैसे कि
महावीर या
बुद्ध के
चौबीस जन्म सब
क्षत्रिय
परंपरा में
हैं। वह सारा
का सारा
व्यवस्थित एक
धारा में चल
रहा है। तो एक
आदमी की पूरी
की पूरी
तैयारी चल रही
है। जहां से
तैयारी छूटी
थी,
दूसरी
तैयारी होने
में बीच में
कोई गैप नहीं
हो पाता, कोई
अंतराल नहीं
हो पाता—एक
सातत्य है।
इसलिए
हम बहुत अनूठे
आदमी पैदा कर
पाए। ऐसे
अनूठे
आदमियों को
पैदा करना अब
बहुत कठिनाई
की बात है।
सांयोगिक है
कि ऐसे आदमी
पैदा हो जाएं, लेकिन
व्यवस्थित
रूप से ऐसे
आदमियों को
पैदा करना
बहुत ही
कठिनाई की बात
हो गई है।
समाप्त
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