अध्याय—17
सूत्र-
दातव्यमिप्ति
यद्दानं
दींयतेउनुपकारिणे।
देशे
काले च पात्रे
च तद्दानं
सात्विक
स्मृतम्।। 20।।
यत्तु
प्रत्यक्कारार्थं
फलमुद्दिश्य
वा पन:।
दीयते
च परिक्लिष्टं
तद्दानं राजसं
स्मृतम्।। 21।।
अदेशकाले
यद्दानमयात्रेभ्यश्च
दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं
तत्तामसमुदष्ठतम्।।
22।।
है अर्जुन,
दान देना ही
कर्तव्य है, ऐसे भाव से
जो दान देश, काल और पात्र
के प्राप्त
होने पर प्रत्युपकार
न करने वाले
के लिए दिया
जाता है,
वह दान तो सात्विक
कहा गया है।
और जो दान क्लेशपूर्वक
तथा प्रत्युपकार
के प्रयोजन से
अथवा फल को
उद्देश्य रखकर
फिर हिया जाता
है, वह दान राजस
कहा गया है।
और जो दान बिना
सत्कार किए अथवा
तिरस्कारपूर्वक
अयोग्य देश—काल
में
कुपात्रों के
लिए दिया जाता
है वह दान
तामस कहा गया
है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
सदगुरु अलग—
अलग होते हैं
और किसी एक
सदगुरु को
मानने वाला
दूसरे सदगुरु
को स्वीकार
नहीं कर सकता।
लेकिन हम
बुद्ध, महावीर,
लाओत्से, जीसस, कृष्ण,
सभी के
प्रति झुक
जाते हैं।
इसकी वजह यह
हो सकती है कि
आपने ही हमें
उनके उन्मूख
किया। जीवित
गुरु कृष्णमूर्ति
को देखकर भी
हमारा हृदय
आनंदविभोर हो
उठा है, पैर
थिरक उठे हैं।
क्यों? और
समझ में नहीं
आता कि
कृष्णमूर्ति
के प्रेमी
आपको क्यों
स्वीकार नहीं
कर सकते?
सदगुरु
निश्चित ही
भिन्न—भिन्न
हैं। विशेषकर
तीन वर्ग किए
जा सकते हैं।
एक वर्ग है
कृष्णमूर्ति
जैसे
सदगुरुओं का, महावीर,
बुद्ध उसी
पंक्ति में
आते हैं। इस
प्रकार के
सदगुरु का एक
ही उपदेश है
कि तुम परिपूर्ण
रूप से
स्वतंत्र हो
जाओ, निर्भर
न रहो।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में ही
तुम्हारा
मोक्ष है।
मोक्ष कोई
अंतिम घटना
नहीं है। पहले
कदम से ही
मुक्त होना
सीखना पड़ेगा,
तो ही अंतिम
कदम पर मुक्ति
फलित होगी।
कृष्णमूर्ति
की प्रसिद्ध
किताब है, दि
फर्स्ट एंड दि
लास्ट फ्रीडम—पहली
और अंतिम
मुक्ति। पहली
मुक्ति ही
अंतिम मुक्ति
है और पहला
कदम ही, स्वतंत्रता
का, अंतिम
कदम है।
तो
न तो किसी की
शरण जाना, न
कहीं समर्पण
करना, न
किसी विचार से
बंधना, श्रद्धा
से बचना।
महावीर ने इसी
बात को अशरण—
भाव कहा हैं, किसी की शरण
मत जाना।
बुद्ध
ने मरते समय
जो आखिरी
संदेश दिया.।
आनंद ने पूछा
कि कुछ आखिरी
बात हमें कह
दें,
जिसे हम सदा
संजोकर रख
सकें। तो
बुद्ध ने कहा,
अप्प दीपो
भव! अपने दीए
खुद बनना।
किसी का दीया
उधार मत
मांगना और
किसी दूसरे की
रोशनी मत लेना,
तो ही तुम
परम मुक्ति को
उपलब्ध हो
सकोगे।
स्वभावत:, जिसने
ऐसे गुरु के
वचन सुने हों,
वह किसी
दूसरे गुरु के
पास नहीं आ
सकता। उसे तो
कठिन है
कृष्णमूर्ति
के पास भी
रहना।
क्योंकि अगर
उसने ठीक से
सुना है, तो
वह उनसे भी
भाग खड़ा होगा।
उसने अधूरा
सुना है, इसलिए
वह उनके पास
खड़ा है। लेकिन
इतना तो उसने
सुन ही लिया
है कि अब वह किसी
और के पास
नहीं जाएगा, कहीं और
नहीं झुकेगा।
ज्यादा से
ज्यादा वह
कृष्णमूर्ति
के प्रति झुकेगा।
वह
भी ठीक नहीं
सुनी बात उसने, अन्यथा
वह भी रुक
जाना चाहिए।
क्योंकि
कृष्णमूर्ति
हों, कि
कृष्ण हों, कि बुद्ध
हों, क्या
फर्क पड़ता है?
तुम झुके, कि चूक हो गई।
वहां झुकने का
ही विरोध है।
लेकिन फिर
भक्त तो
समझौते बनाता
है। वह कहता
है, इतना
चलेगा, एक
के प्रति झुकेंगे,
और किसी के
प्रति न
झुकेंगे। और
इस आदमी के
प्रति तो
झुकेंगे, क्योंकि
इसने ही
सिखाया कि
किसी के प्रति
मत झुको।
लेकिन दूसरे
सब द्वार बंद
हो जाते हैं।
ऐसा आदमी
संकीर्ण हो
जाता है।
अब
यह बड़े सोचने
जैसी बात है।
कृष्णमूर्ति, बुद्ध
और महावीर
किसी को
संकीर्ण नहीं
बनाना चाहते;
चाहते हैं,
तुम मुक्त
आकाश जैसे हो
जाओ। इसीलिए
कहते हैं, किसी
से बंधना मत।
जोर इसीलिए है,
ताकि तुम
बंधी न, कोई
कारागृह खड़ा न
हो। तो तुम
मुक्त खुले
आकाश जैसे
रहोगे, तुम्हारी
कोई सीमा न
होगी, कोई
संप्रदाय न
होगा, कोई
शास्त्र न
होगा।
लेकिन
जो कृष्णमूति
कहते हैं, वही
थोड़े ही सुनने
वाला सुनता है।
ही, कोई
कृष्णमूर्ति
ही सुन रहा हो,
तो वही
सुनेगा जो
कृष्णमूर्ति
कहते हैं।
लेकिन
कृष्णमूर्ति
को सुनने
कृष्णमूर्ति
क्यों जाएगा?
सुनने वाला
अपने तल से
सुनता है। वह
कहता है, बिलकुल
ठीक, कहीं नहीं
झुकना है, यह
तो हम पहले से
ही जानते थे।
वह उसका
अहंकार बोल
रहा है, मोक्ष
नहीं, स्वतंत्रता
नहीं।
जब
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, मत
झुको कहीं, तो वे यह
नहीं कह रहे
हैं कि अकड़े
खड़े रही। वे
यह कह रहे हैं
कि झुकने से
तो गुलामी बन
जाएगी। तो किसी
के प्रति मत
झुको, सिर्फ
झुको। किसी के
प्रति नहीं, प्रति न हो; सिर्फ झुकना
हो। समस्त के
प्रति झुको, यह संदेश है।
मुक्त आकाश के
प्रति झुको; क्या छोटे—छोटे
आंगन के प्रति
झुकना? जब
बड़ा मौजूद हो
तो क्यों छोटे
के लिए झुकना?
जब विराट
मौजूद हो तो
क्यों क्षुद्र
के लिए झुकना?
जब असीम
मौजूद हो तो
सीमा को क्यों
झुकना? वे
यह कह रहे हैं
कि झुको पूरे
के लिए। सुनने
वाला समझ रहा
है, झुको
ही मत, अकड़े
रहो।
कृष्णमूर्ति
डरते हैं कि
कहीं तुम किसी
के सामने झुके, चाहे
वह कोई कृष्ण
ही क्यों न हो,
तो भी तुम
बंध जाओगे।
उतना भी उनको
लगता है कि
बंधन न हो, अड़चन
हो जाएगी।
लेकिन तुम समझ
रहे हो कि
अपने से ही
बंधे रहो, झुको
ही मत। इससे
तो बेहतर था, तुम कृष्ण
के प्रति ही
झुक जाते।
तुमसे तो वे
बड़े ही थे।
तुम तो बिलकुल
क्षुद्र हो, क्षुद्रतम
हो।
लेकिन
सुनने वाला
वही सुन सकता
है,
जो वह है। उसकी
अपनी
व्याख्या है।
उसकी अपनी
टीका है। तो
कृष्णमूर्ति
के पास सुनने
वाले
निन्यानबे तो
चूक जाते हैं,
वे क्या कह
रहे हैं।
मुश्किल से एक
समझ पाता है।
उस एक को मेरे
पास आने में
कोई अड़चन न
होगी। वह मेरे
इतने पास आ
जाएगा, जितने
पास आया जा
सकता है; कोई
अड़चन न होगी।
क्योंकि उसने
समझ लिया, झुकना
नहीं है, बंधना
नहीं है, वह
मुक्त हो गया;
सब द्वार
खुले हैं। अब
उसकी गंगा
कहीं भी बह
सकती है। सब
मार्ग अपने
हैं। लेकिन वह
एक को होगा, निन्यानबे
तो
कृष्णमूर्ति
से बंध जाएंगे।
इसी ने सिखाया
न झुकना, इसने
ही अहंकार को
पुष्टि दी। अब
इसको छोड़कर वे
नहीं जा सकते।
क्योंकि जहां
भी जाओ, लोग
कहते हैं, झुको।
तो
एक तो
कृष्णमूर्ति
के ढंग के
सदगुरु हैं, बुद्ध,
महावीर।
दूसरे
मेहरबाबा के
ढंग के सदगुरु
हैं। वह दूसरा
ढंग है। वह
ठीक
कृष्णमूर्ति
से उलटा है।
वहां झुकना ही
कला है। वे
कहते हैं, बिलकुल
झुक जाओ, बचो
ही मत। गुरु
परमात्मा है।
वही परम है।
तुम बिलकुल
झुक जाओ। तुम
अपने को खो ही
दो।
मेहरबाबा
जैसे गुरु हैं
कृष्ण, जो
अर्जुन को
कहते हैं, मामेकं
शरणम् वज। सब
छोड़, सब
धर्म छोड़, मेरी
शरण आ। चैतन्य
महाप्रभु!
सारे भक्ति के
मार्ग से
उपलब्ध हुए जितने
भी लोग हैं, वे सब
कहेंगे, छोड़
दो, सब छोड़
दो। जीसस कहते
हैं, सब
छोड़ो। कम, फालो
मी! आओ, मेरे
पीछे चलो।
यह
दूसरा वर्ग है।
इस वर्ग को भी
समझ लेना
चाहिए। यह
वर्ग यह कह
रहा है कि तुम
इतने झुक जाओ
कि तुम बचो ही
नहीं। दूसरा
थोड़े ही
बांधता है; तुम्हारी
वह जो क्षुद्र
अस्मिता है, वही बंधती
है। दूसरा
क्या बांधेगा!
अगर अहंकार न
हो तुम्हारे
पास, संसार
में तुम्हें
कोई भी नहीं
बांध सकता।
बांधने को ही
कुछ न बचा।
अहंकार जब
तुम्हारे
भीतर नहीं रह
जाता, तुम
खुले आकाश हो
गए। इसको कोई
मुट्ठी में
बांधना चाहे,
कोई भी नहीं
बांध सकता।
तो
वे कहते हैं, झुकने
से डरो मत, अन्यथा
बंध जाओगे।
जरा तुम बचे, कि अकड़ थोड़ी
बची रही.। वही
अकड़ तो बंधती
है जगह—जगह।
उसी अकड़ पर तो
जंजीरें पड़
जाती हैं। वही
अहंकार तो
तुम्हारी
सारी
उपाधियों, सारे
रोगों की जड़
है। वही तो
तुम्हें
संसार में
भटकाता है।
वही तो तुम्हें
धन से बांध
देता है, पद
से बांध देता
है। तुम धन से
बंधोगे, पद
से बंधोगे, पत्नी से
बंधोगे, पति
से बंधोगे; सिर्फ गुरु
से बचना चाहते
हो? जब कि
गुरु एकमात्र
ऐसा बंधन है, जो मुक्ति
बन सकता है।
तो मेहरबाबा
की कोटि के
सदगुरु कहते
हैं, छोड़
दो अपने को
बिलकुल, भूल
ही जाओ कि तुम
हो। परतंत्र
होने को कोई
है ही नहीं, इस तरह मिट
जाओ। फिर
तुम्हें कौन
परतंत्र
करेगा? इसलिए
समर्पण पूरा
कर दो।
ध्यान
रखना, दुनिया
में सौ में से
एक प्रतिशत
लोग कृष्णमूर्ति, बुद्ध
महावीर के
मार्ग से
पहुंच सकते
हैं, इससे
ज्यादा नहीं।
क्योंकि
अहंकार बड़ी
भयंकर व्याधि
है। वह
स्वतंत्रता
के नाम पर
अहंकार को ही
पुष्टि
मिलेगी।
मेहरबाबा
जैसे
व्यक्तियों
के साथ जितने
लोग पहुंचते
हैं,
वह संख्या
निन्यानबे
प्रतिशत है।
क्योंकि अगर
तुम छोड़ दो
अहंकार, तो
न कुछ बंधने
को रहा, न
कुछ मुक्त
होने को रहा।
अगर तुम बचे
रहे तुम्हारे
मोक्ष में भी,
तो
तुम्हारा
मोक्ष भी
संसार होगा।
मोक्ष कोई
स्थान थोड़े ही
है, जहां
तुम्हें जाना
है; मोक्ष
तो एक अवस्था
है, जहां
तुम्हें नहीं
बचना है।
तो
कृष्णमूर्ति
के मानने वाले
को एक तो
मोक्ष बहुत
दूर। क्योंकि
वह उस मानने
में से अपने
अहंकार को
बचाएगा।
लेकिन कोई एक
उससे भी
उपलब्ध होता
है।
इसलिए
कृष्णमूर्ति, बुद्ध
और महावीर के
मार्ग को मैं
हीनयान
कहता
हूं;
वह छोटी
डोंगी है। वह
कोई बडा जहाज
नहीं है, महायान
नहीं है।
उसमें थोड़े—बहुत
लोग बैठकर नदी
पार हो जाते
हैं। पार होते
हैं। डोंगी
में कुछ हर्जा
नहीं है, उससे
भी पार हो
सकते हैं। और
डोंगी में एक
तरह की
स्वतंत्रता
है। जब खेना
हो खेओ, न
खेना हो मत
खेओ, रुकना
हो किसी
किनारे पर
थोड़ी देर, तो
रुको, न
रुकना हो, मत
रुको।
लेकिन
खतरा भी है।
क्योंकि
डोंगी अक्सर
डूबती है, पहुंचती
कम है। स्वतंत्रता
थोड़ी ज्यादा
है, लेकिन
खतरा भी उतना
ही ज्यादा है।
और अक्सर तो
यह होता है कि
तुम पहुंच ही
नहीं पाते।
अक्सर तो थोड़ा
भटक— भटकाकर
अपने किनारे
वापस आ जाते
हो।
मैंने
सुना है, एच .जी
वेल्स ने एक
कहानी लिखी है।
एक आदमी था।
वह उसी ढंग का
आदमी रहा होगा,
जिसको हम
शेखचिल्ली
कहते हैं; या
स्पेन में
जिसके ऊपर एक
बड़ी प्रसिद्ध
किताब लिखी गई
है, डान
कुईजोट।
शेखचिल्ली
ढंग का आदमी
रहा होगा।
उसने एक किताब
पढ़ी। और किताब
में वर्णन था
कि प्राचीन
समय में लोग
छोटी—छोटी
डोंगियों से
समुद्र पार कर
जाते थे।
जहाज
तो थे नहीं, लेकिन
समुद्र तो
लोगों ने पार
किया ही है।
अर्जुन की एक
पत्नी
मैक्सिको से
आई थी। तो जहाज
तो बड़े नहीं
थे, डोंगियों
में ही आई
होगी, डोंगियों
में ही लाई गई
होगी। लोग तो
यात्रा कर रहे
थे। और अब तो
मैक्सिको की
पत्नी की बात
करीब—करीब
ऐतिहासिक हो
गई है, क्योंकि
मैक्सिको में
बहुत—से हिंदू
चित्र मिले
हैं, मूर्तियां
मिली हैं, मंदिर
मिले हैं।
मैक्सिको कभी
हिंदू देश रहा,
इसके सब
प्रमाण जुट गए
हैं। महाभारत
में उसका नाम
मक्षिका है।
मैक्सिको
मक्षिका का ही
अपभ्रंश
मालूम होता है।
तो
लोग चलते रहे
होंगे बिना
बडे जहाजों के।
उसने ये सब
कहानियां पढ़ी, वह
बहुत
उत्तेजित हो
गया। उसने भी
एक डोंगी
खरीदी। तीन
महीने का भोजन,
सामान
तैयार करके
रखा, हलके
से हलका, क्योंकि
ज्यादा वजन ले
जा नहीं सकता
था। विटामिन
की गोलियां रख
लीं और सब
इंतजाम कर लिया
और चल पड़ा।
बड़ा संघर्ष था,
भयंकर
तूफान थे।
लेकिन हिम्मतवर
आदमी था, जूझता
रहा। तीन
महीने पूरे
होने को करीब
आए, तब उसे
थोड़ी घबराहट
भी होने लगी।
कहीं पहुंचता
हुआ नहीं
मालूम पड़ता।
रात थी, सुबह
हुई; देखा
कि जमीन करीब
है। बहुत
आनंदित हो गया।
भगवान को
धन्यवाद दिया
कि पहुंच गए।
बड़ी
प्रसन्नता से
किनारे
पहुंचा।
देखकर
चकित हुआ।
चकित यह हुआ
कि कहानियों
में उसने यही
सुना था कि जब
तुम पहुंचोगे
दूसरे देश, तो
वहां के लोग
दूसरी भाषा
बोलेंगे। ये
लोग अंग्रेजी
ही बोलते हैं
यहां भी! तीन
महीने की
यात्रा के
बाद! जब वह और
थोड़े पास गया
और लोगों को
देखा, तो
पता चला, यह
तो उसी का गांव
है। अपने ही
गांव तीन
महीने उपद्रव
में उलझकर वापस
डोंगी लग गई।
यह
भी बहुत कि कम
से कम अपने गांव
ही लग गई।
सागरों में
डोंगियां
लेकर यात्रा
करना कठिन काम
है। कहीं
पहुंचोगे, इसकी
संभावना कम है।
तो
जो समझ सकता
है—और कितने
लोग समझ सकते
हैं?
वह
कृष्णमूर्ति
की डोंगी में
भी पहुंच
जाएगा। जो
नहीं समझ सकता—और
बहुत लोग हैं,
जो नहीं समझ
सकते—उसके लिए
तो मेहरबाबा
का बड़ा जहाज
चाहिए। जहां
तुम्हें कुछ
करना ही नहीं
पड़ता; तुम
सब छोड़ देते
हो गुरु पर, तुम अशेष
भाव से छोड़
देते हो, तुम
कुछ बचाते ही
नहीं। गुरु
कहे, कूद
जाओ, तो
कूद जाते हो, गुरु कहे, रुको, तो
रुक जाते हो।
तुम्हारा
अपना कोई अब
निर्णय न रहा।
तुम न रहे।
एक
मार्ग यह है।
जो पहुंचे हैं, उनमें
से निन्यानबे
प्रतिशत इससे
पहुंचे हैं।
तीसरा
और एक मार्ग
है,
जिसके बाबत
मैं तुमसे
चर्चा कर रहा
हूं। वह मार्ग
इन दो को अलग—
अलग नहीं
तोड़ता। इन दो
मार्गों की, जिनकी मैंने
तुमसे बात की—कृष्णमूर्ति
और मेहरबाबा—ये
दो अति मालूम
होते हैं, दो
छोर। मैं जिस
मार्ग की
तुमसे बात कर
रहा हूं वह इन
दोनों का
सम्मिलन है, और इन दोनों
का ऐक्य है।
क्योंकि मैं
कहता हूं कि
सौ ही आदमी
पार होने चाहिए।
क्यों
निन्यानबे
पार हों? एक
क्यों चूके? या क्यों एक
पार हो और
निन्यानबे
क्यों चूके?
तो
मैंने कुछ ऐसा
इंतजाम किया
है कि बड़े जहाज
के आस—पास
छोटी—छोटी
डोंगियां भी
बांध दी हैं।
तो जिनका शौक
डोंगी में ही
बैठने का है, डोंगी
में बैठ जाएं,
लेकिन जहाज
से बंधे रहें।
कुछ लोग हैं, जिनको डोंगी
में बैठने का
आनंद है। उनको
चैन ही न
मिलेगी, जब
तक तकलीफ न हो,
कुछ घबड़ाहट—बेचैनी
न हो। वे बैठ
जाएं डोंगी
में, लेकिन
डोंगी जहाज से
बंधी है।
तो
मैं दोनों के
लिए बोल रहा
हूं एक
प्रतिशत के
लिए भी, निन्यानबे
प्रतिशत के
लिए भी। इसलिए
तुम्हें जहां
भी कोई ज्ञानी
मिल जाए, तुम
मजे से झुको।
तुम पूरी तरह
झुको। मेरे
शिष्य को किसी
भी ज्ञानी में
मुझे ही देखना
चाहिए, इससे
कम नहीं। तुम
झुको पूरी तरह।
कोई तुम्हें
बाध न पाएगा।
बांधने
का,
बंध जाने का
डर भी थोड़ी
कमजोरी का
लक्षण है।
क्या बंधना है?
कौन बांध
लेगा? यह
भी भय है कि
कहीं बंध न
जाएं। ऐसे
छोटे भय लेकर
क्यों जीते हो?
भयभीत न रहो।
तुम्हें
जहां कोई
सदगुरु दिखे, पूरी
तरह झुक जाओ।
चाहे वह
सदगुरु यही कह
रहा हो कि
झुकना ठीक नहीं
है, तब भी
झुको। इतना भी
सिखाया उसने,
तो भी
अनुग्रह! यह
भी बड़ी बात
कही उसने। तो
भी धन्यवाद!
तो
मेरे पास जो
हैं,
उनके लिए
मेहरबाबा हों
कि
कृष्णमूर्ति
हों, बुद्ध
हों कि कृष्ण
हों, राम
हों कि
मोहम्मद हों,
कोई फर्क
नहीं है।
क्योंकि मैं
तुम्हें ऊपर
की खोलों के
फर्क नहीं
सिखा रहा हूं
तुम्हें भीतर
की चेतना का
राज बता रहा
हूं।
तुम
सब जगह झुकी।
कोई तुम्हें
बांध न पाएगा।
समर्पण में
तुम्हारी
मुक्ति है।
तुम वहां भी
जाओ,
जो कहता है
कि सब समर्पण
गलत है। उसकी
भी सुनो।
क्योंकि एक
प्रतिशत उससे
भी मुक्त होते
हैं। कौन जाने,
तुम उस एक
प्रतिशत में
होओ।
तुम्हारे
लिए मैंने सब
द्वार खुले
छोड़ दिए हैं, कोई
द्वार बंद
नहीं रखा है।
मैं तुम्हें
कोशिश कर रहा
हूं इतना
विराट बनाने
की कि तुम्हें
अगर कोई
बांधकर भी ले
जाए, तो
तुम तो न बंधो,
बांधकर ले
जाने वाले को
तुम्हारे साथ
मुक्त होना
पड़े।
ऐसा
भी हुआ है।
डायोजनीज, यूनान
में एक फकीर
हुआ। महावीर
की तरह फकीर
था, नग्न
रहता था।
अलमस्त आदमी
था, कोई
चिंता—फिक्र न
थी, तो
मस्त था, शरीर
स्वस्थ था, शक्तिशाली
था। कुछ लोग
निकल रहे थे
जंगल से और वह
एक झाडू के नीचे
विश्राम कर
रहा था। आठ
आदमी थे वे।
उनका धंधा
गुलामों को
बेचना था।
उन्होंने
इस मस्त आदमी
को सोए देखा।
उन्होंने कहा
कि अगर यह पकड
में आ जाए!
लेकिन इसको
पकड़ो कैसे? हालांकि
यह सो रहा है, हम आठ हैं; मगर अगर यह
जाग गया, तो
मुसीबत खड़ी हो
जाएगी। अगर यह
हाथ आ जाए, तो
खूब दाम मिल
सकते हैं।
हमने बहुत
गुलाम बेचे
हैं। मगर इस
गुलाम को तो
बाजार में ले
जाएंगे, तो
ऐसा हीरा कभी
आया ही नहीं, इसके तो बड़े
दाम मिल
जाएंगे।
क्या
करें, वे
विचार ही कर
रहे थे। उनकी
बातचीत सुनकर
डायोजनीज की
नींद खुल गई।
तो उसने आंखें
बंद ही किए
कहा कि तुम
परेशान मत होओ,
बांध लो।
चलूंगा साथ, घबड़ाओ मत।
वे
और भी घबडाए
कि यह आदमी
किस तरह का है!
आदमी को गुलाम
बनाना हो, तो
वह हजार
झंझटें खड़ी
करता है, कमजोर
आदमी भी करता
है। वह भी
उछलकूद मचाता
है, शोरगुल
मचाता है, मार—पीट
करेगा, उसमें
भी ताकत आ
जाती है। और
यह आदमी ऐसे
ही पड़ा है, और
आंखें ही बंद
किए! आंख
खोलकर भी नहीं
देखा कि कौन
हो, क्या
हो?
उसने
कहा कि ज्यादा
चिंता—फिक्र
मत करो; चिंता—फिक्र
का मैं दुश्मन
हूं। यही मेरी
शिक्षा है कि
चिंता—फिक्र
छोड़ो। तुम
बांध ही लो।
मैं चलने को
राजी हूं। मैं
कोई अड़चन खड़ी
न करूंगा।
डरते—डरते
उन्होंने
उसके हाथ
बांधे। उसने
हाथ आगे कर
दिए। बांध तो
लिया उसे, लेकिन
भीतर कुछ टूट
गया उनके। यह
आदमी बांधने
जैसा है नहीं।
इतना
स्वतंत्र
आदमी
उन्होंने
देखा ही न था, जो बंधने को
इतनी आसानी से
राजी हो।
सिर्फ
परम स्वतंत्र
आदमी ही बंधने
को राजी हो सकता
है। उसको अपने
पर इतना भरोसा
है,
अपनी
स्वतंत्रता
की इतनी
श्रद्धा है कि
क्या तुम उसे
मिटाओगे! और
जिसको आठ आदमी
मिलकर मिटा
दें, वह भी
कोई मोक्ष है?
वह भी कोई
स्वतंत्रता
है, मुक्ति
है? जिसको
कोई गुरु मिटा
दे, वह भी
कोई मोक्ष है?
कृष्णमूर्ति
के पास कमजोर
आदमी इकट्ठे
हो गए हैं, अहंकारी
और कमजोर।
अपने को बचाने
में लगे हैं, डर रहे हैं।
इसलिए वे मेरे
पास कैसे
आएंगे! यहां खतरा
हो सकता है।
डायोजनीज
बंध गया। उसने
फिर पूछा कि
किस तरफ चलें? तुम
बता दो, क्योंकि
मैं जरा तगड़ा
आदमी हूं। अगर
मैं पूरब जाऊं,
तो तुम को
पूरब जाना
पड़ेगा। तुम आठ
कुछ कर न
पाओगे। इसलिए
तुम मुझे राह
बता दो। और एक
आदमी आगे हो
जाए; कहां
चलना है!
एक
आदमी आगे हो
गया। लेकिन
रास्ते में उन
लोगों पर उसका
बड़ा प्रभाव
पड़ने लगा।
उसकी मस्ती, उसकी
चाल! वह गीत
गुनगुनाए! वह
जैसे कि जंगल
से लाया शेर
हो! और इतना
निर्भीक कि
तुम उसे बांध भी
न सको, बंधने
को भी खुद ही
राजी हो!
आखिर
वै पूछने लगे, तुम
आदमी किस तरह
के हो? ऐसा
आदमी हमने
देखा नहीं, जिंदगी हमें
गुलामों का
धंधा करते हो
गई। उसने कहा,
तुम भी
गुलाम हो।
गुलामों का
धंधा करने
वाले गुलामों
से बेहतर नहीं
हो सकते।
जो
तुम्हें बांधते
हैं,
याद रखना, वे भी बंधे
हुए ही लोग हो
सकते हैं। कौन
मुक्त आदमी
तुम्हें
बांधेगा? क्योंकि
मुक्त भलीभांति
जानता है, जिसको
तुम बाधोगे, उससे तुम
बंध जाओगे।
बंधन एकतरफा
नहीं होता।
बंधन दोधारी
धार है। जब
मैं तुम्हें
बांका, तब
मैं भी बंधा
तुम्हारे साथ।
तुम जहां
घसिटोगे, मुझे
भी घसिटना
पड़ेगा।
डायोजनीज
ने कहा, हम इस
राज को समझ गए
कि गुलाम ही !? गुलामों को
बाधते हैं, परतंत्र लोग
ही परतंत्रों
को परतंत्र
करते हैं। हम
स्वतंत्र हैं।
तुम हमें क्या
बाधोगे? हम
खुद ही बंधे
हैं! ?,, उससे
बड़े प्रभावित
हो गए।
उन्होंने
धीरे— धीरे
अपनी जंजीरें
भी निकाल लीं।
उन्होंने कहा
कि तुम पर
जंजीरें! तुम
तो वैसे ही चल
रहे हो साथ।
वह
साथ रहा।
बाजार आ गया।
भीड़ लग गई
उसके आस—पास।
लेकिन लोगों
को तय करना
मुश्किल हुआ
कि मालिक कौन
है,। गुलाम कौन
है! उन
मालिकों ने, तथाकथित
मालिकों ने
आवाज भी दी, बताया भी कि
हम एक गुलाम
को ले आए हैं।
लोगों ने
गुलाम को देखा,
बहुत
शक्तिशाली, बिना जंजीरों
के!
डायोजनीज
ने कहा कि
रुको, तुमसे न
चलेगा काम। वह
खड़ा हो गया
टिकटी पर, जिस
पर खड़े होकर
नीलाम किए
जाते थे गुलाम,
और उसने खड़े
होकर जो बात
कही, वह
बड़ी अनूठी है।
उसने कहा, एक
मालिक बिकने
आया है, कोई
गुलाम खरीदने
को तैयार है?
एक
मालिक बिकने
आया है, कोई गुलाम
खरीदने को
तैयार है!
मालिक तो
मालिक है, कारागृह
में भी। और
गुलाम तो
गुलाम ही
रहेगा, खुले
आकाश के नीचे
भी। क्योंकि
गुलामी या
स्वतंत्रता
बाहर की घटनाएं
नहीं, जंजीरों
से उनका कुछ
लेना—देना
नहीं;, भीतर
की गुणवत्ता
है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं
झुको! जहां तुम्हारी
मौज आए, वहां
झुको।
.कृष्णमूर्ति
मिलें, तो
नाचो, झुको,
नमस्कार
करो। वहां भी
दीया जला है।
वह दीया तो एक
ही सूरज की
रोशनी है।
तुम्हें
मेहरबाबा मिल
जाएं रास्ते
पर, उनके
साथ भी हो लो, उनके साथ भी
नाचो।
अगर
तुम ठीक से
समझो, तो यही
मेरा तुम्हें
मुक्त करने का
उपाय है।
इसलिए मैं
कृष्ण पर
बोलता हूं? बुद्ध पर
बोलता हूं ! महावीर
पर बोलता हूं, ताकि तुम
कहीं बंध न
जाओ; सबसे
मुक्त हो जाओ।
तुम सबको
प्रेम कर सको,
और सबसे
मुक्त हो जाओ।
और यह बड़े मजे
की बात है और
बड़ी जटिल है, विरोधाभासी
है, अगर
तुम सबसे
मुक्त होना चाहते
हो, तो
सबके प्रति
समर्पित हो
जाने के सिवाय
कोई उपाय नहीं।
तब तुम्हें
कोई भी न बाँध पाएगा।
तब न महावीर, न बुद्ध, न
कृष्ण, तुम्हें
कोई भी न बांध
पाएगा। तुम
परमात्मा हो,
अगर तुम
समर्पित हो।
कौन तुम्हें
बांध पाएगा?
??
फिर उस
समर्पण के बाद
तुम चाहे
अकेले खड़े रहो,
चाहे किसी
के पीछे चलो, कोई भी फर्क
नहीं पड़ता।
चाहे तुम
डोंगी में
यात्रा करो, चाहे एक बड़े जहाज
में बैठ जाओ, कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
भीतर से तुम
कहीं जकड़ न
जाओ, इसलिए
मैं विपरीत
मार्गों की
बात भी तुमसे
करता हूं। तुम
उलझन में भी
पड़ जाते हो।
जब मैं महावीर
पर बोलता हूं, तो तुम
महावीर से
प्रभावित हो
जाते हो।
लेकिन जल्दी
ही मैं कृष्ण
पर बोलूंगा, और दूसरी
धारा आ जाएगी।
और तुम चकित
होओगे, और
तुम मुश्किल
में पड़ोगे, कि अब क्या
करें!
तुम्हारी
अड़चन यह है
कि तुम चाहते
थे,
कुछ एक बता
दो, जहां
हम बंध जाएं।
.अब झंझट और न
करो! एक मकान
बन नहीं पाता
कि आप दूसरा
मकान शुरू कर
देते हैं।
हमारा उसमें
अभी गृह—प्रवेश
भी न हुआ था।
अभी बैंड—बाजे
हम इकट्ठे ही
कर रहे थे, निमंत्रण
भेजा ही था, कि उसको
गिराने का
वक्त आ गया, और आप दूसरा
मकान बना रहे
हो! और दूसरा
और भी शोभायुक्त
मालूम होता है।
लेकिन
दूसरे के साथ
भी यही होगा; मैं
तीसरा मकान
बनाऊंगा। मैं
असल में
तुम्हें
मकानों से
मुक्त करना चाहता
हूं। मैं
चाहता हूं
तुम्हारा गृह—प्रवेश
तो हो, लेकिन
आकाश में हो, मकानों में
न हो। और एक ही
उपाय है कि
मैं तुम्हें
सारे मकान दिखला
दूं र जहां—जहां
तुम कारागृह
में पड़ सकते
हो। और उन
सारे मकानों
के भीतर छिपा
हुआ आकाश भी दिखला
दूं र जो कि
भीतर भी है और
बाहर भी है।
तो मेरा मार्ग
बड़ा अन्य है।
कृष्णमूर्ति
तुम्हें
स्वतंत्र
करना चाहते हैं;
एकाध
व्यक्ति को कर
पाते हैं, निन्यानबे
अहंकार से
बंधे रह जाते हैं।
उससे तो बेहतर
था गुरु से
बंध जाना, थोड़ी
आशा थी, थोड़ी
किरण थी, शायद
कोई मार्ग मिल
जाता! किसी
दीए से बंध
जाते, तो
कुछ मार्ग मिल
जाता। अपने
अंधेरे से ही
बंधे हो, क्या
मार्ग मिलेगा!
मेहरबाबा
बंधने को कहते
हैं। कहते हैं, सब
छोड़ दो, अनन्य
भाव से छोड़ दो;
श्रद्धा
पूरी रखो। वह
कृष्णमूर्ति
से ज्यादा
कारगर हैं।
लेकिन बहुत—से
लोग उसमें भी
चूक जाएंगे।
क्योंकि बहुत
तरह के लोग
हैं। आलसी हैं,
जो सदा से
चाहते थे कि
अच्छा ही हुआ,
झंझट मिटी;
अब हमें कुछ
करना नहीं है।
कृष्णमूर्ति
के पास
अहंकारी
इकट्ठे हो
जाएंगे और
मेहरबाबा के
पास आलसी
इकट्ठे हो
जाएंगे।
कृष्णमूर्ति
के पास वे लोग
इकट्ठे हो
जाएंगे, जिनमें
रजस की मात्रा
ज्यादा है। और
मेहरबाबा के
पास वे। लोग
इकट्ठे हो
जाएंगे
जिनमें तमस की
मात्रा ज्यादा
है, जो
कहते हैं कि
चलो अच्छा ही
हुआ, अब
तुम करोगे सब,
सम्हालों!
अब हम निश्चित
हुए; अब
हमें कुछ करना
ही नहीं है।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि वे कुछ न
करेंगे, वे सब
जारी रखेंगे,
जो कर रहे
थे, वह तो
जारी रखेंगे—दुकान
पर काम जारी
रखेंगे, चोरी
जारी रखेंगे,
बेईमानी
जारी रखेंगे—और
कहेंगे कि अब
सब बाबा पर
छोड़ दिया, अब
अपना करने से
क्या होगा! तो
जो भगवान
करवाए। भगवान
लगता है, चोरी
और बेईमानी ही।
करवाता है! वे
कुशल लोग हैं,
चालाक लोग
हैं। सब बाबा
पर छोड़ दिया
है!
एक
आदमी को मैं
जानता हूं
जिसने तीस साल
तक मेहरबाबा
के सत्संग में
बिताया है। और
तीस साल बाद
मेरी उनसे बात
हुई,
तो
उन्होंने कहा
कि हमें तो
कुछ करने की
जरूरत नहीं है।
ध्यान भी हमें
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
प्रार्थना—पूजा
की भी कोई
जरूरत नहीं।
हमने तो सब
बाबा पर छोड़
दिया, अब
वे जानें।
मैंने
कहा,
तीस साल हो
गए छोड़े हुए, कुछ हुआ?
उन्होंने
कहा,
यह भी हम
क्यों सोचें?
एक
तरह से तो
दिखता है कि
श्रद्धा बडी
गहरी है। मगर
बड़ा चालाक है
आदमी का मन।
चोरी, बेईमानी
सब जारी है! सब
बाबा पर छोड़
दिया, इसका
यह मतलब नहीं
है कि बाबा
अगर कहे कि
चोरी मत करो, तो ये चोरी
बंद करेंगे, या बाबा अगर
कहे कि शराब
मत पीओ, तो
ये शराब पीना
बंद करेंगे!
ये तो बाबा से
भी कहेंगे, सब आप पर ही
छोड़ दिया, अब
हमको करना
क्या है?
मेरे
पास ऐसे लोग आ
जाते हैं। वे
मुझसे कहते
हैं,
अब जब सब आप
पर ही छोड़
दिया, तो
अब हमको क्यों
ध्यान वगैरह
में उलझाते
हैं? अब आप
ही करो! मैं
उनसे कहता हूं, मुझ पर छोड़
दिया, तो
मैं तुमसे
कहता हूं कि
ध्यान करो। वे
कहते हैं, अब
आपकी अनुकंपा
चाहिए, और
क्या! वे मेरी
सुनते ही नहीं
कि मैं उनसे
क्या कह रहा
हूं! मेरी
सुनने का सवाल
भी नहीं है।
वे तो अपनी एक
धुन लगाए हुए
हैं कि सब आप
पर छोड़ दिया।
सब
आप पर छोड़ने
का मतलब क्या
होता है? मतलब
यह होता है, अगर तुमने
ठीक समझा, तो
मैं जो कहूं, वह करो।
लेकिन अगर गलत
समझा, तो
मतलब यह होता
है कि अब मैं
जो कहूं,
उसको भी मत
सुनो, और
तुम यही कहे
चले जाओ कि सब
आप पर छोड़
दिया। अब हमको
करना क्या है?
अब आप जो
करेंगे, ठीक
है! और तुम जो
करते थे, वह
तुम करते चले
जाते हो।
तो
आलसी इकट्ठे
हो जाते हैं, समर्पण
की जहां धारणा
होती है। और
जहां अशरण की
धारणा होती है,
वहां
अहंकारी
इकट्ठे हो
जाते हैं।
सत्व
का व्यक्ति तो
हर जगह से लाभ
ले लेता है।
वह कृष्णमूर्ति
के पास भी पार
हो जाएगा, वह
मेहरबाबा के
पास भी पार हो
जाएगा।
क्योंकि
वस्तुत: न तो
कृष्णमूर्ति
पार करते हैं,
न मेहरबाबा
पार करते हैं,
न मैं पार
करता हूं; सत्व
पार करता है।
तो
तुम अपने भीतर
देखना कि तुम
जो कर रहे हो, वह
तमस से तो
नहीं आ रहा है!
रजस से तो
नहीं आ रहा है!
वह सत्व से
आना चाहिए।
तो
तुम मेहरबाबा
के पास लोग
पाओगे, बहुत
तार्किक नहीं,
बहुत
बौद्धिक नहीं;
ज्यादा
हृदयपूर्ण, प्रेमी, उनकी
आंख से तुम आंसू
बहते हुए
पाओगे, उन्हें
तुम भजन गाते
पाओगे।
कृष्णमूर्ति
के पास तुम
पाओगे अधिक
बौद्धिक लोग,
जिनकी आंखों
के आंसू सदा
के लिए सूख
चुके हैं, जिनके
हृदय में कोई
पुलक नहीं उठती,
जो तर्क
करने में कुशल
हो गए हैं।
रजस
तर्क है। तमस
इतना आलस्य है
कि तर्क भी
कौन करे! सत्व, तर्क
के बाद उपलब्ध
हुई श्रद्धा
है। सत्व, रजस
और तमस का
संतुलन है।
सत्व वाला
व्यक्ति हर
कहीं लाभ उठा
लेता है। वह
जहां भी
जाएगा, लाभ
उठा लेगा। उसे
कोई नुकसान नहीं
है।
मैं
कोशिश कर रहा
हूं कि तुम यह
संतुलन सीख जाओ।
फिर कृष्ण मिल
जाएं तो उनसे
भी तुम्हें
लाभ होगा, बुद्ध
मिल जाएं तो
भी, कृष्णमूर्ति
राह पर मिल
जाएं तो उनसे
भी लाभ होगा।
और अगर तुम इस
सत्य की
अवस्था में
नहीं उठते हो,
तो चाहे
बुद्ध मिलें
तो भी नुकसान
होगा, कृष्णमूर्ति
मिलें तो भी
नुकसान होगा।
मेरे पास
जिंदगी रहो तो
भी नुकसान
होगा, लाभ
न हो पाएगा।
लाभ और हानि
किसी के कारण
नहीं होती है,
तुम्हारी
चेतना की
क्षमता से
होती है, तुम्हारी
पात्रता से
होती है।
पर
मैं सबके
संबंध में बात
किए जाता हूं
ताकि तुम
झुकने की कला
सीख लो। और
तुम इस तरह
झुकने की कला
सीख लो कि
तुम्हारे
भीतर वह जो न
झुकने वाला
तत्व है
अहंकार, वह
विसर्जित हो
जाए। तब तुम
सब जगह से
संपदा बटोर
लाओगे।
तो
अगर
कृष्णमूर्ति
के मार्ग को
हम स्वतंत्रता
का मार्ग कहें, अशरण
का, और मेहरबाबा
के मार्ग को
परतंत्रता का
मार्ग कहें, समर्पण का, तो मेरे
मार्ग को तुम
क्या कहोगे?
मेरा
मार्ग है
परस्पर—तंत्रता
का,
इंटर—डिपेंडेंस
का। और मेरे
हिसाब से न तो
कोई व्यक्ति
पूर्ण रूप से
स्वतंत्र है
इस अस्तित्व
में; हो भी
नहीं सकता, क्योंकि तुम
अकेले नहीं हो
सकते। और न
कोई पूर्ण रूप
सै परतंत्र है
इस जगत में, क्योंकि वह
भी संभव नहीं
है। न तो पूरी
परतंत्रता
संभव है, न
पूरी
स्वतंत्रता
संभव है; अस्तित्व
का स्वभाव
परस्पर—तंत्रता
है, इटर—डिपेंडेंस
है। सब चीजें
एक—दूसरे पर
निर्भर हैं।
इसलिए
परम ज्ञानी
परस्पर—तंत्रता
में जीता है।
न तो वह
परतंत्र होता
है,
न वह
स्वतंत्र
होता है।
क्योंकि
स्वतंत्रता
भी अहंकार की
घोषणा है और
परतंत्रता भी
अहंकार का
बंधन है। जहां
निरहकार फलित
होता है, वहा
दिखाई पड़ता है,
सभी चीजें
जुडी हैं, एक—दूसरे
से श्रृंखला
में बंधी हैं।
कुछ भी अलग
नहीं है। कोई
आदमी अलग खंड
नहीं है, भूखँड
अलग नहीं है।
सब जुड़ा है।
तुम
चांद—तारों से
जुड़े हो। तुम
अपने आस—पास
मनुष्यों से
जुड़े हो, पक्षियों
से जुड़े हो, पौधों से
जुड़े हो, पत्थरों
से जुड़े हो।
तुम्हें लगी
चोट, और
सारे
अस्तित्व में
झंकार होता।
तुम नाचते हो
प्रसन्नता से,
पूरा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
प्रसन्न होता
है।
अखंड
है,
एक है, तो
कैसी
स्वतंत्रता
और कैसी
परतंत्रता? अद्वैत अगर
है, तो
स्वतंत्रता
भी झूठी बात
है; क्योंकि
स्वतंत्रता
का कोई अर्थ
ही नहीं, जब
दूसरा है ही
नहीं, जो
परतंत्र कर
सके। और अगर
एक ही है, तो
कैसी
परतंत्रता? किसकी
परतंत्रता? उस एक पर ही
अगर तुमने
ध्यान दिया, तो तुम्हें
मेरी बात समझ
में आ जाएगी।
तो मैं कहता
हूं किए ये
बांसुरिया
अलग— अलग होगी—कृष्ण
की, बुद्ध
की, महावीर
की, कृष्णमूर्ति
की, मेहरबाबा
की—मगर संगीत
एक है।
बासुरियों पर
बहुत ध्यान मत
दो। इनके राग
भी भिन्न—भिन्न
हैं, इनके
ढंग भी भिन्न—भिन्न
हैं। तुम
सिर्फ संगीत
पर ध्यान दो।
संगीत एक का
ही है।
संगीत
एक है, अगर यह
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे, तो
तुम सब जगह से
समृद्ध होकर
लौटोगे। बड़ी
संपदा
तुम्हारे लिए
राह देख रही
है। सब खजाने
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। तुम
सभी खजानों के
मालिक हो सकते
हो।
इसलिए
मैं तुम्हें
नहीं रोकता।
मैं तुम्हें
बढ़ावा देता
हूं कि तुम
जाओ,
जहां
तुम्हें कोई
दीया जला हुआ
मिले, उसके
निकट बैठो। उस
रोशनी से थोड़ा
संग करो।
सत्संग का वही
अर्थ है। उस
रोशनी
को
थोड़ा पीओ। उस
रोशनी से थोड़े
भरो। और डरो
मत। वह क्या
कहता है, इसकी
भी फिक्र मत
करो। वह उसका
ढंग है कहने
का। तुम चिंता
ही मत करो।
तुम
तो सिर्फ एक
बात खयाल रखो
कि घाट अलग—अलग, गंगा
एक है। तुम
सभी घाटों से
अपनी प्यास को
बुझा लो। और
जितने—जितने
तुम घाटों पर
जाओगे, उतनी—उतनी
तुम्हें समझ
आएगी कि घाट
का कोई सवाल
नहीं है, सवाल
गंगा का है।
इसलिए
बुद्ध एक घाट
हैं। हमने तो
पुराने दिनों
में उनको जो
नाम दिया है ' वही
साफ है। जैन
अपने बुद्धों
को तीर्थंकर
कहते हैं।
तीर्थ। का
अर्थ होता है,
घाट।
तीर्थंकर का
अर्थ होता है,
घाट बनाने
वाला। गंगा एक
है, घाट
अनेक हैं, घाट
बनाने वाले
अनेक हैं। यह
तीर्थंकर
शब्द बड़ा मधुर
है। यह खूबी
पैगंबर शब्द
में नहीं है
और न अवतार शब्द
में है, जो
तीर्थंकर
शब्द में है।
इसका मतलब है,
सिर्फ घाट
बनाने वाले
हैं महावीर, बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट।
गंगा बहुत बड़ी
है, पूरी
गंगा पर तो
कोई घाट नहीं
बना सकता।
मेरी
चेष्टा है कि
तुम्हें बहुत
घाट दिखा दिए जाएं।
क्यों? क्योंकि
बहुत घाटों को
देखकर ही
तुम्हें समझ में
आएगा कि गंगा
एक है, घाट
अलग हैं।
घाटों के ढंग
से कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
कहीं संगमरमर
का घाट है और
कहीं
संगेमूसा का।
बड़े विपरीत
हैं। एक काले
पत्थर का है, एक सफेद
पत्थर का, एक
कृष्णमूर्ति,
एक
मेहरबाबा! घाट
पर नजर जाएगी,
तो बड़े फर्क
हैं; लेकिन
अगर गंगा पर
नजर गई जो
घाटों के पास
से बह रही है।
और
गंगा का क्या
लेना है घाट
से?
घाट न हो तो
भी गंगा बहती
है, गैर—घाट
भी बहती है, बिना घाट भी
बहती है, घाट
पर भी बहती है।
अमीर के घाट
से भी बहती है,
गरीब के घाट
से भी बहती है।
मरघट के पास
भी उसके नाद
में कोई फर्क
नहीं पड़ता और
बस्ती के पास
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता।
तुम्हें
गंगा दिखाई पड़
जाए एक की, इसलिए
सब पर बोलता
हूं। ; और
कठिनाई खड़ी
होती है
तुम्हें, क्योंकि
जब मैं कृष्ण
पर बोलता हूं, तो कृष्ण के
घाट की चर्चा
में ऐसा लीन
हो जाता हूं
कि मैं खुद ही
भूल जाता हूं
कि और घाट भी
हैं। तो जो
कृष्ण को
मानने वाला है,
बड़ा
आह्लादित
होता है कि
यही तो हम
मानते थे।
जल्दी
मत करो; थोड़ा
धैर्य रखो!
क्यौंकि जब मैं
अष्टावक्र पर
बोलूंगा, तो
इस तरह कृष्ण
को भूल जाऊंगा,
जैसे वह घाट
ही नहीं है।
तब अष्टावक्र
का घाट ही
मेरे लिए सब
कुछ हो जाएगा।
और
यही मेरी
मान्यता है।
क्षण— क्षण
जीने की कला
यही है कि तुम
जिस क्षण को
जीयो, उसे
पूरी तरह जीयो।
इसलिए
तुम्हें मेरे
वचनों में
विरोधाभास दिखाई
पड़ेंगे। कभी
मैं कहता हूं
कि महावीर का
कोई मुकाबला नहीं,
तो तुम
सोचते हो, बात
खतम हो गई। और
तब मैं कहता हूं, कृष्ण का
कोई मुकाबला
नहीं, तुम
कहते हो, यह
तो अड़चन हो गई।
पहले कहा, महावीर
का कोई
मुकाबला नहीं,
अद्वितीय
हैं, फिर
कहते हैं, कृष्ण
का कोई
मुकाबला नहीं,
अद्वितीय
हैं!
और
जब मैं कृष्ण
से भरा हूं
अगर तुमने
महावीर की बात
छेड़ी, तो
महावीर मुझे
तुलना में कुछ
भी न जंचेंगे।
और जब मैं
महावीर से भरा
हूं तब तुम
कृष्ण की बात
ही मत उठाना, नहीं तो
नाहक कृष्ण की
उपेक्षा होगी।
जिस क्षण में
मैं जो बोल
रहा हूं उसके
साथ मेरा पूरा
तादात्म्य है।
उस क्षण वही
घाट सब कुछ है;
सारे घाट
भूल गए, उतनी
ही गंगा सब
कुछ है। लेकिन
यह तुम्हें
तीर्थयात्रा
करा रहा हूं।
तीर्थयात्री
निकलते हैं।
स्वामी
अखंडानंद एक
यात्रा लेकर
निकलते हैं, स्पेशल
ट्रेन, उसमें
वे सभी
तीर्थों की
यात्रा कराते
हैं। मैं भी
निकला हूं
तुम्हें
तीर्थयात्रा
पर लेकर। वे
तीर्थ बहुत
दृश्य के
तीर्थ नहीं
हैं, अदृश्य
के तीर्थ हैं।
वे ही असली
तीर्थ हैं।
वहां कोई
स्पेशल ट्रेन
नहीं जा सकती।
वहा तो एक
विशेष मनोदशा
और भाव—दशा
जाती है। उसको
ही पैदा करने
की कोशिश में
लगा हूं।
प्रश्न
: आपने कहा है
कि मांगो तो
क्षुद्र मिलता।
पर हम तो
भगवान मांगते
हैं। क्या
भगवान मांगने
से भी क्षुद्र
ही मिलेगा?
मांगोगे
तो क्षुद्र ही
मिलेगा, क्योंकि
मांग का अर्थ
ही क्षुद्र है।
भगवान भी
मांगो, तो
भगवान के कारण
क्षुद्र नहीं,
तुम्हारी
मांग के कारण
वह भी क्षुद्र
हो जाता है।
मांग
क्षुद्र करती
है। बिना
मांगे जो मिले, वह
संपदा, मांगकर
जो मिले, वह
उच्छिष्ट!
बिना मांगे जो
मिले, वह
विराट; भिक्षापात्र
फैलाकर जो
मिले, वह
कैसे विराट
होगा? वह
तुम्हारे
भिक्षापात्र
में ही है।
सीमा विराट के
लिए नहीं है।
मांग
भिक्षापात्र
है। मांगना
यानी भिखारी
होना।
तुमने
अगर भगवान को
भी मांगा, मांगोगे
तो तुम!
तुम्हारी
मांग तो
तुम्हारे ही
जीवन से ओत—प्रोत
होगी।
थोडा
सोचो इसे।
क्योंकि ऊपर
से ऐसा लगता
है कि भगवान ?' को
मांगा, यह
कोई छोटी मांग
तो नहीं।
लेकिन तुम
बाजार में खड़े
धन मांग रहे
थे, फिर
किसी स्त्री
के सामने हाथ
जोड़कर शरीर
माग रहे थे, फिर किसी पद
वाले व्यक्ति
के सामने
सुरक्षा मांग
रहे थे, ऐसी
तुमने हजारों
मांगें की हैं
हजार—हजार ढंग
से। इन सब
मांगों ने
तुम्हें
बनाया है। और
इन सब मांगों
ने तुम्हारी
मांग को बनाया
है, तुम्हारे
मांगने का ढंग
बनाया है, तुम्हारा
भिक्षापात्र
निर्मित किया
है। अब अचानक
तुम्हें
भगवान का खयाल
आया।
क्यों
खयाल आता है
तुम्हें
भगवान का? भगवान
का इसीलिए
खयाल आता है
कि ये मांगें
पूरी नहीं हो
पाईं। पूरी हो
जातीं, तो
शायद तुम
भगवान की बात
ही न उठाते।
सुख में कौन
स्मरण करता है
भगवान का? दुख
में लोग —स्मरण
करते हैं, विफलता
में, विषाद
में। तुमने
मांगा बहुत, मिला कुछ भी
नहीं; दिनभर
भिक्षापात्र
लिए खड़े रहे, जन्मों भर
खड़े रहे, सांझ
आए तो ठीकरे!
इतने ही ठीकरे
पड़ते हैं
भिक्षापात्र
में कि तुम कल
भी जिंदा रह
सकते हो और मांग
सकते हो, बस।
मांगने लायक
जिंदगी बाकी
बच जाती है, इतना मायने
से मिल जाता
है कि .कल भी
तुम घिसटोगे,
कल फिर
भिक्षापात्र
फैलाओगे, फिर
मागोगे।
तुम्हारी
निरंतर मांग
ने क्षुद्र की, तुम्हारी
मांग पर भी
अपनी छाप छोड़
दी है। अचानक
तुम खड़े हो गए,
परमात्मा
को मांगने
लगे! तुम तो
वही हो!
तुम्हारा मन
वही है! तुम्हारा
अनुभव वही है!
और
परमात्मा का
तुम्हें पता
ही क्या है? परमात्मा
तुम्हारे लिए,
अगर ठीक से
तुम विचार करो,
तो
तुम्हारी सब
मांगों का जोड
है। तुम्हें
ऐसा खयाल है
कि शायद परमात्मा
के मिलने से
सब मिल जाए जो
मांगने से नहीं
मिला, धन
मिल जाए, पद
मिल जाए।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
ध्यान
करेंगे तो
व्यवसाय में
सफलता मिलेगी
कि नहीं? आदमी
की मूढ्ता की
कोई सीमा नहीं
मालूम पड़ती! अब
ध्यान करने से
व्यवसाय की
सफलता का क्या
लेना—देना है!
बीमारी जाएगी
कि नहीं?
एक
सज्जन ने
मुझसे पूछा कि
ध्यान करेंगे
तो चिंता
मिटेगी कि
नहीं? मैंने
कहा, चिंता
जरूर मिटेगी,
लेकिन पहले
तुम मुझे बता
दो कि चिता
क्या है?
उन्होंने
कहा कि मुझ पर
एक मुकदमा चल
रहा है।
मुकदमा
थोड़े ही हट
जाएगा ध्यान
करने से! हॉ, तुम
चिंतित न
रहोगे इतने; मुकदमा चलता
रहेगा, तुम
निश्चित
रहोगे, यह
मैं तुमसे कह
सकता हूं।
लेकिन वे बोले,
मुकदमा
चलता रहे, तो
कोई आदमी
निश्चित कैसे
रह सकता है?
व्यवसाय
में सफलता
मिलेगी कि
नहीं? व्यवसाय
में तो सफलता
नहीं मिल सकती;
लेकिन असफलता
भी मिले तो
तुम्हें
असफलता न
लगेगी, यह
ध्यान से मिल
सकता है।
पत्नी बीमार
है, बचेगी
कि मरेगी? नहीं,
ध्यान से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
ध्यान कोई
दवाई नहीं है
तुम्हारी
पत्नी के लिए।
ही, इतना
पक्का है कि
बचे तो ठीक, न बचे तो भी
ठीक, ऐसी
दशा मिल जाएगी।
तुम
जब ध्यान करने
आते हो, तब भी
तुम्हारे
ध्यान के नीचे
पर्त दर पर्त
मागें छिपी
हैं। तुम जब
परमात्मा भी
मांगते हो, तो परमात्मा
समूहवाची नाम
है तुम्हारी
सब वासनाओं
का! भगवान का
क्या अर्थ है
अगर तुमसे हम पूछें?
भगवान के
ढक्कन को जरा
उठाओ, तो
नीचे तुम
पाओगे, धन!
क्योंकि
ज्ञानियों ने
कहा, परम
धन परमात्मा
है। पद!
क्योंकि
ज्ञानियों ने
कहा, परम
पद परमात्मा
है। ऐश्वर्य!
क्योंकि
भगवान का नाम
ही ईश्वर इसीलिए
है, ऐश्वर्य
वाला!
किन
पागलों ने
ईश्वर नाम
दिया है भगवान
को,
पता नहीं।
वह ऐश्वर्य से
बना हुआ शब्द
है। वह
तुम्हारी मांग
की खबर दे रहा
है कि तुम
चाहते क्या हो?
ईश्वर को
थोड़े ही चाहते
हो, तुम तो
ऐश्वर्य
चाहते हो। और
तुमने नाम में
भी छिपा रखा
है।
पूछो
भक्तों से, तथाकथित
भगवान के
मानने वालों
से, कि
क्या? तो
वैकुंठ, परम
सुख, आनंद
ही आनंद!
तुम
सपने देख रहे
हो। तुम सत्य
नहीं मांग रहे
हो। तुम्हारे
सत्य में भी सपने
ही छिपे हुए है।
तुम संसार से
हारे नहीं हो
अभी।
तुम्हारा
परमात्मा भी
तुम्हारे
संसार का आखिरी
पड़ाव है।
तो
मैं तुमसे
कहता हूं,
तुम जब तक
मांगोगे, जो
भी मांगोगे
क्षुद्र होगा।
तुम परमात्मा
मांगोगे तो
क्षुद्र होगा,
तुम मोक्ष
मांगोगे तो
क्षुद्र होगा,
तुम समाधि
मांगोगे तो
क्षुद्र होगी।
तुम्हारे
मांगने से हर
चीज क्षुद्र
हो जाएगी, क्योंकि
तुम क्षुद्र
हो। और मांग
क्षुद्र है, तो फिर कैसे
विराट होगी? क्या ऐसी भी
कोई मांग हो
सकती है, जो
विराट हो जाए?
नहीं, मांग
तो विराट नहीं
हो सकती। थोड़ा
सोचो! तुम कोई
ऐसी मांग सोच
सकते हो, जिसकी
कोई सीमा न हो?
तो वह मांग
ही न रह जाएगी।
असीम को कैसे
मांगोगे? सीमित
मांगी जा सकती
है बात। असीम
तो शब्द में
भी नहीं
समाएगा, भाव
में भी नहीं
समाएगा। असीम
में तो तुम
समा जाओगे, असीम थोड़े
ही तुममें
समाएगा। तो
तुम कैसे
विराट को
मांगोगे?
मांग
ही क्षुद्र कर
देती है। जो
मांगा, क्षुद्र
हुआ। मलना मत।
इसलिए परम
ज्ञानी क्या
कहते हैं? वे
कहते हैं, अचाह
परमात्मा को
पाने का उपाय
है।
निर्वासना, न मांगना।
राजी हो जाना,
जो है, उससे;
मांग छोड़
देना। तृप्ति,
संतोष; ऐसा
परितोष कि जो
है, वह
काफी है, काफी
से ज्यादा है,
मांग कुछ भी
नहीं है। तत्क्षण
तुम पाओगे, विराट
तुममें उतरने
लगा; बिन मांगे!
मांगने
से खो जाता है।
बिना मांगे
मिलता है। इस
गणित को तुम
खूब याद रख लो।
अगर
तुम्हें
परमात्मा
नहीं मिल रहा
है,
तो
तुम्हारी
मांग ही बाधा
बनी है। छोड़ो
मांगना! बात
ही शोभा नहीं
देती।
परमात्मा को,
और मांगना?
परमात्मा
का मिलना तो
सम्राटों से
होता है, भिखारियों
से नहीं होता।
तुम सम्राट
बनो थोड़ा।
और
मजा ऐसा है कि
तुम्हारे
सम्राट भी
भिखारी हैं, तो
तुम तो सम्राट
कैसे बनो? थोड़े
मालिक बनो।
थोड़ा धन्यवाद
देना सीखो, मांगना कम
करो। थोड़ा
अनुग्रह से
भरो, मांग
क्षीण करो।
थोड़ा उसके
प्रसाद को, जो मिला है, उसको अनुभव
करो, ताकि
तुम अहोभाव से
कह सको कि
मेरी योग्यता
से ज्यादा
तूने मुझे
दिया, धन्यवाद!
मैंने
सुना है, सूफी
फकीर बायजीद
के जीवन में
उल्लेख है कि बायजीद
प्रार्थना
करता रहा, पूजा
करता रहा, स्मरण
करता रहा; लेकिन
उसने कभी
मांगा नहीं।
कहते हैं, परमात्मा
मुश्किल में
पड़ गया।
क्योंकि जो
मांगे न, अब
इसके साथ क्या
करो! और
परमात्मा तक
को बेचैनी
लगने लगी।
कहानी बड़ी
मीठी है।
परमात्मा को
बेचैनी लगने
लगी कि इस
बायजीद के साथ
क्या करो!
इसका कोई
निपटारा करना
पड़े। नहीं तो
वह ऋणी हुआ जा
रहा है। यह
आदमी ध्यान
करता है, पूजा
करता है, प्रार्थना
करता है, मांगता
कभी भी नहीं।
कुछ मांगा ही
नहीं कि इसको
दे दो और
छुटकारा हो।
तो
कहते हैं, देवता
भेजे। कहानी
है, प्रतीक
है। और
देवताओं ने
बायजीद को कहा
कि परमात्मा
बड़ा प्रसन्न
है, तुम
कुछ मांग लो।
उसने कहा, अब
और मांगने को
क्या बचा? जब
वह प्रसन्न है,
तो सब मिल
गया। कह देना,
धन्यवाद!
देवताओं
ने कहा, इतने
सस्ते में हम
न जाएंगे।
क्योंकि
तुमने अड़चन
खड़ी कर दी है।
तुम उसे बेचैन
किए दे रहे हो,
कुछ मांग लो,
तो निपटारा
हो जाए।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं
उसके सिर पर
घूम रही हैं।
तुम्हारा
ध्यान उसके
चारों तरफ
वर्तुल मार रहा
है। और तुम किए
जा रहे हो, किए
जा रहे हो, मांगते
तुम कुछ नहीं,
तो काम कैसे
समाप्त हो!
बायजीद
ने कहा, जब वह
प्रसन्न है, तो और अब
क्या चाहिए? और अगर उसको
मेरे न मिलने
से बेचैनी हो
रही है, तो
एक बात मांगे
लेता हूं।
देवता
प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा
कि बस, क्या
है, जल्दी
कहो। उसने कहा,
एक ही बात मांगनी
है कि कभी कुछ
मीरा न। उसने
हरा दिया
परमात्मा को।
एक वरदान, कि
कोई चाह कभी न
आए! कभी
भिखारी होकर
उसके द्वार पर
न आऊं! कभी
मांग न! जिस
दिन तुम न
मांगोगे, उस
दिन परमात्मा
देने को
व्याकुल हो
जाता है।
और
तुमसे मैं
कहता हूं कि
यह परमात्मा
और तुम्हारे
बीच का संबंध
ही नहीं है, सारे
जीवन का संबंध
यही है। जिससे
भी तुम
मांगोगे, वही
डर जाता है।
पत्नी पति से
प्रेम मांगती
है, पति डर
जाता है, देने
में कंजूस हो
जाता है, देता
है, तो
परेशानी से
देता है। पति
पत्नी से
प्रेम मांगता
है, बस, कुछ
बात सिकुड़
जाती है।
कुछ
जीवन—चेतना का
लक्षण ऐसा है
कि जब भी कोई
कुछ मांगता है, तो
सिकुड़न पैदा
हो जाती है।
और जब कोई
नहीं मांगता,
तो देने का
फैलाव आता है।
तो
जब पत्नी नहीं
मांगती, देने
का मन होता है।
जब पति नहीं
मांगता, देने
का मन होता है।
जब मित्र नहीं
मांगता, देने
का मन होता है।
क्योंकि तब
तुम देने में
मालिक होते हो।
और जब कोई
मांगता है, तब तुम्हें
ऐसा लगता है, तुम्हारा
शोषण किया जा
रहा है, छीना
जा रहा है, तुम्हारे
ऊपर जबरदस्ती
की जा रही है।
जीवन—चेतना
का लक्षण यही
है कि जब अचाह
होती है, तब
तुम्हारे
द्वार पर
वर्षा हो जाती
है। और जब तुम
चाह से भरे
होते हो, तब
सब द्वार बंद
हो जाते हैं।
नहीं, परमात्मा
को तो भूलकर
मत मांगना। वह
मांग ही
तुम्हारे और
उसके बीच
दीवार है। तुम
उसके पास ऐसे
जाना, मांगने
नहीं, धन्यवाद
देने, जो
उसने दिया ही
हुआ है, उसके
लिए अनुग्रह
का भाव प्रकट
करने।
मंदिर
की
प्रार्थनाएं
तुम्हारी
मांगें न हों, तुम्हारे
धन्यवाद हों।
आखिरी
प्रश्न : आपने
कहा कि स्वयं
पर संदेह
श्रद्धा पर ले
जाता है, तो
बताएं कि
श्रद्धा पर
संदेह कहां ले
जाएगा?
कुछ
बातें समझे।
एक, संदेह
साधारणत:
संदेह पर
संदेह नहीं
करता', कर ?ई ले, तो
संदेह मर जाता
है। संदेह की
पूर्णता तभी
है, जब
संदेह पर
संदेह आ जाए।
तभी तुम ढंग
के विचारक हो,
तभी तुममें
कोई प्रतिभा
है। सब चीजों
पर संदेह करो
और संदेह पर
संदेह न करो, तो तुम्हारे
विचार की
पूर्णता नहीं
है; तुम
शिखर तक नहीं
पहुंचे, तुम्हारा
संदेह अधूरा
है, तुम्हारी
नास्तिकता
प्रगाढ नहीं
है। जब तुम
संदेह करते—करते
उस क्षण में आ
जाओगे कि
तुम्हें
संदेह उठेगा
संदेह पर, कि
मैं जिसकी
मानकर अब तक
चल रहा हूं, वह मानने
योग्य भी है? जिसके पीछे
मैं चल रहा
हूं छाया की
तरह, वह
चलने योग्य भी
है? वह
मुझे कहीं ले
जाएगा? संदेह
को मैंने गुरु
बनाया है, वह
गुरु बनने
योग्य है? जिस
दिन तुम संदेह
पर संदिग्ध हो
गए, उसी
दिन संदेह की
मृत्यु हो
जाती है।
संदेह की
मृत्यु पर
श्रद्धा का
जन्म होता है।
फिर एक नई
यात्रा शुरू
होती है।
तुम
परमात्मा पर
श्रद्धा
करोगे, गुरु
पर श्रद्धा
करोगे, शास्त्र
पर श्रद्धा
करोगे, लेकिन
यह श्रद्धा
वैसी हो अधूरी
है, जैसे
संदेह पहले
अधूरा था।
श्रद्धा तो
तभी पूरी होती
है, जब न
परमात्मा पर,
न गुरु पर, न शास्त्र
पर, वरन
श्रद्धा पर ही
श्रद्धा आ
जाती है, तब
श्रद्धा पूरी
होती है।
संदेह
पर संदेह आ
जाए,
संदेह पूरा
हो जाता है और
संदेह समाप्त
हो जाता है।
जब श्रद्धा पर
श्रद्धा आ
जाती है, तो
श्रद्धा पूरी
हो जाती है और
श्रद्धा भी
समाप्त हो
जाती है।
संदेह
में रहोगे, तो
नास्तिक, श्रद्धा
में रहोगे, तो आस्तिक, और जब संदेह
और श्रद्धा
दोनों के पार
हो जाते हो, तब न तुम
नास्तिक, न
आस्तिक, तभी
धर्म का जन्म
हुआ, तब
तुम धार्मिक!
धार्मिक
व्यक्ति
द्वंद्व के पार
है। श्रद्धा
और संदेह का
संघर्ष तो द्वंद्व
है।
तो
ध्यान रखना, जो
संदेह करता है,
उसमें भी
थोड़ी श्रद्धा
होती है; श्रद्धा
संदेह पर होती
है। और जो
श्रद्धा करता
है, उसमें
भी थोड़ा संदेह
होता है, संदेह
अश्रद्धा पर
होता है।
संदेह करने
वाले की
श्रद्धा होती
है संदेह पर, श्रद्धा
करने वाले की
श्रद्धा होती
है अश्रद्धा
के विपरीत, संदेह के
विपरीत, लेकिन
दूसरा मौजूद
रहता है थोड़े
परिमाण में।
जब हम कहते
हैं, फलां
आदमी
श्रद्धालु है,
तो इसका
मतलब है, अभी
कहीं न कहीं
कोने में
संदेह भी छिपा
होगा। नहीं तो
श्रद्धा का
क्या अर्थ?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
हमारी दृढ़
श्रद्धा है।
मैं कहता हूं
दृढ़ क्यों
कहते हो? क्या
श्रद्धा कहना
काफी नहीं है?
दृढ
क्यों कह रहे
हो?
दृढ़ का मतलब
है कि भीतर
संदेह छिपा है,
उसको दृढ़ से
दबा रहे हो।
नहीं तो
श्रद्धा काफी
है।
जब
कोई कहे कि
मेरा प्रेम
बहुत दृढ़ है, तब
खतरा है।
प्रेम
पर्याप्त है।
प्रेम में कमी
क्या रही? और
दृढ़ क्या कर
रहे हो उसको? प्रेम काफी
नहीं था, भीतर
घृणा छिपी है,
दृढ़ता से
उसको दबा रहे
हो। आस्तिक
में नास्तिक
छिपा रहता है
थोड़ी मात्रा
में। नास्तिक
में आस्तिक
छिपा रहता है
थोड़ी मात्रा
में। जब दोनों
विदा हो जाते
हैं, तब
परम धर्म का
जन्म होता है।
तो
पहले संदेह पर
संदेह करो, ताकि
नास्तिक मरे।
फिर श्रद्धा
पर श्रद्धा
करना, ताकि
आस्तिक भी मर
जाए। और जहां
न संदेह बचा, न श्रद्धा
बची, वहां
अकेले तुम बचे।
तुम यानी सब।
तुम यानी
सर्वस्व। तुम
यानी सर्व
अस्तित्व।
फिर वहां कोई
मन न रहा।
ध्यान रखना, संदेह में
भी मन मौजूद
रहता है, श्रद्धा
में भी मौजूद
रहता है।
संदेह में
समझो कि
शीर्षासन
करता है, श्रद्धा
में पैर के बल
खड़ा हो जाता
है, बाकी
मन जाता नहीं।
जब दोनों चले
जाते हैं, तभी
मन जाता है।
जहां तक
द्वंद्व है, वहां तक मन
है। जहां
अद्वंद्व
पैदा होता है,
वहीं मन से
छुटकारा होता
है।
मन
से मुक्ति
मोक्ष है। मन
से मुक्ति
परमात्मा की
उपलब्धि है।
और इसलिए फिर
दोहराता हूं
मन ही मांग है।
जब तक माग है, तब
तक परमात्मा न
मिलेगा।
मन
गया,
मांग गई, चाह गई।
परमात्मा
मिला ही हुआ
है। ऐसा नहीं
कि मिलता है।
जब चाह गिर
जाती है, अचानक
तुम जागते हो
कि वह सदा से
भीतर मौजूद था।
वह मंदिर में
बैठा ही था, तुम कहां—कहां
भटकते थे! तुम
कहा—कहा खोजते
थे! सिर्फ
अपने भीतर
छोड्कर, तुमने
सारी पृथ्वी
छान डाली, चांद—तारे
छान डाले। एक
जगह छोड़ गए थे।
जिस दिन मन
समाप्त होता
है, उसी
जगह प्रवेश
होता है। तुम
अपने भीतर के
आकाश में आते
हो। जिसे तुम
खोजते थे, वह
कभी खोया ही न
था। वह तो सदा
से वहां था।
वह सदा से ही
मौजूद है।
अब
हम सूत्र को
लें।
हे अर्जुन!
दान देना ही
कर्तव्य है, ऐसे
भाव से जो दान
देश, काल
और पात्र के
प्राप्त होने
पर
प्रत्युपकार
न करने वाले के
लिए दिया जाता
है, वह दान
सात्विक।
और जो दान
क्लेशपूर्वक
तथा
प्रत्युपकार
के प्रयोजन से
अथवा फल को
उद्देश्य
रखकर दिया
जाता, वह
दान राजस।
और जो दान
बिना सत्कार
किए अथवा
तिरस्कारपूर्वक
अयोग्य देश, काल
में कुपात्रों
को दिया जाता
है, वह
तामस कहा गया
है।
कृष्ण
तीनों गुणों
को जीवन की सब
विधाओं में
समझाने की
कोशिश कर रहे
हैं।
दान
देना कर्तव्य
है........।
कर्तव्य
शब्द को थोड़ा
समझना चाहिए।
क्योंकि जो
अर्थ कृष्ण के
समय में
कर्तव्य का
होता था, अब वह
अर्थ रहा नहीं,
विक़त हो गया
है। शब्द पर
बड़ी धूल जम गई
है। शब्द खराब
हो गया है।
तुम तो
कर्तव्य तभी
कहते हो किसी
चीज को, जब
तुम करना नहीं
चाहते और करना
पड़ता है। जैसे
कि बाप बीमार
है और तुम पैर
दबा रहे हो; और तुम
मित्रों से
कहते हो, कर्तव्य
है। तुम यह कह
रहे हो कि
करना तो नहीं
था, लेकिन
लोक—लाज
करवाती है।
तुम्हारे मन
में कर्तव्य
का अर्थ ही यह
हो गया है कि
जो जबरदस्ती
करना पड़ता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
दुकान करनी
पड़ रही है। अब कोई
प्रेम नहीं
मालूम पड़ता।
बच्चों को बड़ा
करना है, इसमें
कोई अहोभाव
नहीं मालूम
पड़ता। बच्चों
को शिक्षा
देनी है, उनको
जीवन की
दिशाओं में
यात्रा पर
भेजना है, इसमें
कोई रस नहीं
मालूम पड़ता।
कर्तव्य है!
जैसे बच्चे
खुद जबरदस्ती
घर में घुस गए
हों। जैसे
बच्चों ने खुद
ही आकर कब्जा
कर लिया हो और
घोषणा कर दी
हो कि हम
तुम्हारे
बच्चे हैं; अब तुम
दुकान करो और
कर्तव्य करो!
कर्तव्य
शब्द की गरिमा
खो गई। कृष्ण
के समय में
कर्तव्य शब्द
बड़ा दूसरा अर्थ
रखता था।
कर्तव्य का
अर्थ यह नहीं
था कि जो नहीं
करने की इच्छा
है,
और करना
पड़ता है। नहीं,
कर्तव्य का
अर्थ था—बडा
सात्विक भाव
था उसमें छिपा—वह
अर्थ था, जो
करने योग्य है,
जो ही करने
योग्य है, जिसके
अतिरिक्त
करने योग्य
कुछ भी नहीं
है।
तुम
पिता के पैर
दबा रहे हो......।
महाराष्ट्र
में विठोबा की
कथा है कि एक
भक्त.......।
महाराष्ट्र
में ही कृष्ण
का नाम विठोबा।
विठोबा यानी
कृष्ण। पर
कैसे विठोबा
हो गए कृष्ण!
एक भक्त अपनी
मां के पैर
दबा रहा था।
और कृष्ण उस
पर बड़े
प्रसन्न थे।
वे आकर पीछे
खड़े हो गए। और
यह भक्त
वर्षों से
रोता था, विरहलीन
रहता था, गीत
गाता था, नाचता
था। और इससे
मिलने आ गए।
और उन्होंने
कहा कि देख, तू क्या उस
तरफ मुंह किए
हुए है? मैं
तेरा भगवान, जिसकी तूने
इतने दिन पूजा—प्रार्थना—
अर्चना की, धूप—दीप
जलाए। मैं
मौजूद हूं!
लौट, मेरी
तरफ देख।
उस
भक्त ने कहा, अभी—एक
ईंट पास में
पड़ी थी, पीछे
सरका दी और
कहा—इस पर बैठ
रहो। इसलिए
विठोबा! बिठा
दिया ईंट पर।
इस पर बैठ रहो,
अभी मैं मां
के पैर दबा
रहा हूं। तुम
ठीक वक्त नहीं
आए।
भगवान
को जिसने छोड़
दिया मां के
पैर दबाने के लिए, तब
कर्तव्य! जो
करने योग्य
है! अभी भगवान
भी बीच में आ
जाए, तो
कोई अर्थ नहीं
रखता।
कहा, बेवक्त
आए! समय से आना।
और अगर रुकना
ही हो, तुम्हारी
मरजी है। यह
ईंट है, बैठ
रहो।
किसी
भक्त ने कृष्ण
को ऐसा नहीं
बिठाया।
इसलिए
पंढरपुर के
विठोबा का
मंदिर अनूठा
है। उसका कोई
सानी नहीं।
बहुत मंदिर
हैं,
जहां भगवान
अपनी ही मरजी
से खडे हैं; यहं। भक्त
की मरजी से
बैठे हैं! और
ईंट पर बैठे हैं;
कुछ खास बड़ा
सिंहासन नहीं
है। लेकिन जब
तक उसने अपनी
मां को सुला न
दिया, जब उसकी
मां सो गई—घटों
लगे होंगे—तभी
उसने मुंह
किया। लेकिन
कृष्ण को वह
बडा प्यारा हो
गया। क्योंकि जहां
ऐसा प्रेम है,
वहीं तो
प्रार्थना का
फूल खिलता है।
कर्तव्य
का अर्थ है, जो
करने योग्य है।
तुम्हारे लिए
कर्तव्य का
अर्थ है, जो
करना नहीं
चाहते, करने
योग्य मालूम
भी नहीं पड़ता;
मगर क्या
करें, संसार
करवा रहा है!
लोक—लाज है, मर्यादा है,
नियम हैं, संस्कार है,
करना पड़ेगा।
तुम बेमन से
जो करते हो, उसी को तुम
कर्तव्य कहते
हो।
कृष्ण
जब कहते हैं
कि सात्विक
व्यक्ति के
लिए दान देना
कर्तव्य है, तो
वे यह कह रहे
हैं कि वह
देता है, क्योंकि
देने से बड़ा
और कुछ भी
नहीं है। वह
देता है, क्योंकि
देने में ही
उसका आनंद
प्रगाढ़ होता है।
देना अपने आप
में आनंद है।
दान
देना कर्तव्य
है,
ऐसे भाव से
जो दान दे।
देश, काल
और पात्र के
प्राप्त होने
पर.।
निश्चित
ही,
सात्विक
व्यक्ति
हमेशा इस बात
को ध्यान में
रखेगा कि वह
जो कर रहा है, उस करने के
व्यापक,
परिणाम क्या
होंगे? क्योंकि
तुम तुम्हारा
कृत्य जब करते
हो, तुम तो
चाहे समाप्त
भी हो जाओगे
कभी—हो ही
जाओगे—लेकिन
तुम्हारा
कृत्य जीवित
रहेगा अनंत—
अनंत काल तक।
ऐसे
ही जैसे किसी
ने एक कंकड़
फेंक दिया झील
में। वह तो
झील में कंकड़
फेंककर चला
गया,
कंकड़ भी
जाकर झील की तलहटी
में बैठ गया; लेकिन जो
लहरें उठीं, वे चलती
जाती हैं, चलती
जाती हैं। वह
आदमी मर जाए, रास्ते में
एक्सीडेंट हो
जाए कार का; लेकिन वे
लहरें चलती
रहेंगी। वे
लहरें तो दूर
तटों तक
जाएंगी, जहां
तक फैलाव होगा
झील का। और
जीवन की झील
का कहीं कोई
तट है? कहीं
कोई तट नहीं।
इसका अर्थ है
कि तुम जो भी
कृत्य करोगे,
वह शाश्वत
है, उसकी
तरंग चलती ही
रहेगी।
तुमने
एक आदमी को
दान दिया। तुम
समाप्त हो
जाओगे, जिसे
दान दिया, वह
समाप्त हो
जाएगा; लेकिन
दान का कृत्य
चलता ही रहेगा।
तो इसका अर्थ
यह हुआ कि
सात्विक
व्यक्ति सोचेगा,
अत्यंत
समाधिस्थ भाव
से सोचेगा देश,
काल और
पात्र को।
क्योंकि यह हो
सकता है, तुम
अपात्र को दान
दे दो। दिया
तो तुमने सही,
लेकिन वह
दान न रहा और
अधर्म हो गया।
तुमने
एक हत्यारे को
दान दे दिया।
मैंने
सुना है कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने पड़ोस में
एक दानी के घर गया।
और उसने कहा
कि हालत बहुत
खराब है और
बच्चे भूखे मर
रहे हैं; आज तो
रोटी का भी
इंतजाम नहीं,
आटा भी नहीं
खरीद सके, तो
कुछ दान मिल
जाए! तो उस
आदमी ने कहा, जहां तक मैं
समझता हूं,
गांव में
सर्कस आया है,
और तुम जरूर
ही, जो
पैसे मैं
तुम्हें
दूंगा, उससे
सर्कस देखोगे।
उसने कहा, नहीं,
आप उसकी
फिक्र ही मत
करो, उसके
लिए तो हमने
पैसे पहले ही
बचा रखे हैं।
सर्कस की तो
कोई चिंता ही
न करो आप।
तुम
अगर एक आदमी
को दान देते
हो,
और वह
हत्यारा है और
उससे जाकर
बंदूक खरीदकर
दस आदमियों को
मार डालता है,
तो क्या तुम
सोचते हो कि
तुम्हारा
इसमें हाथ नहीं?
जानकर
तो नहीं है, अनजाने
तो हाथ है। और
यह संभव था कि
तुम अगर थोड़े
सात्विक होते,
तो इस आदमी
की चित्त—दशा
को पहचान पाते।
जब यह तुमसे
मांगने आया था,
तब भी यह
हत्यारा था, छिपा
हत्यारा था, बीज में
छिपी थी हत्या।
तुममें अगर
जरा—सी भी समझ
होती, जितनी
माली में होती
है समझ, तो
वह देख लेता
है कि इस बीज
में कौन—सा
वृक्ष छिपा है,
कडुवा
वृक्ष छिपा है
कि मीठा। तुम
अगर सात्विक
होते हो, तो
दूसरे लोग
तुम्हारे
सामने दर्पण
की तरह साफ हो
जाते हैं।
इसलिए
सात्विक व्यक्ति
को कृष्ण कहते
हैं,
देश, काल
और पात्र के
प्राप्त होने
पर ही वह देता
है।
हर
किसी को नहीं
बांटता फिरता।
वह भैंस के
सामने बैठकर
बीन नहीं
बजाता।
क्योंकि भैंस
क्या करेगी? भैंस
पड़ी पगुराय!
तुम बीन बजाते
रहो, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता भैंस को।
वह सुअरों के
सामने मोती
नहीं फेंकता,
क्योंकि वे
व्यर्थ चले
जाएंगे। वह
हंस की खोज
करता है। हंसा
तो मोती के!
लेकिन
सात्विक
व्यक्ति ही यह
खोज कर सकता
है कि किसको
देना, कब देना।
क्योंकि यह भी
जरूरी नहीं है
कि जो आदमी
सुबह ठीक है, वह सांझ ठीक
हो, या जो
आदमी एक दिन
ठीक है, वह
दूसरे दिन ठीक
हो।
तो
देश,
काल........।
और
जो आदमी यहां
ठीक है, वह
वहा ठीक न हो!
जो इस गांव
में ठीक है, वह दूसरे
गांव में ठीक
न हो! क्योंकि
आदमी का होना
तो परिस्थिति
पर निर्भर है,
जब तक कि
आदमी जाग न
जाए। और बुद्ध
तो तुम्हें
मिलते नहीं है,
जिनको तुम
दान दोगे। तो
तुम्हारा दान
एक कृत्य है, जिसके
परिणाम अनंत
काल तक गूंजते
रहेंगे।
तो
सोचकर, होशपूर्वक
देना। सिर्फ
देना काफी
नहीं है, देखकर
देना, समझकर
देना। देश, काल, पात्र
को पूरा जब
तुम देख लो, कि यह
तुम्हारा
कृत्य सदा के
लिए शुभ रहेगा,
तुम्हारा
यह कृत्य सदा
के लिए शुभ के
फल लाएगा, फूल
लाएगा, तो
ही देना।
और
प्रत्युपकार
न करने वाले
के लिए दिया
जाता है।
क्योंकि
दान का अर्थ
ही है कि सौदा
नहीं। उसी को
देता है
सात्विक
व्यक्ति, जिससे
लेने की कोई आकांक्षा
नहीं। नहीं तो
वह दान न .रहा।
अगर तुमने कुछ
भी
प्रत्युत्तर
मला, तो वह
सौदा हो गया।
तुमने अगर
धन्यवाद भी
मागा, तो
वह सौदा हो
गया। इसलिए
गहरा दानी ऐसे
देता है कि
किसी को पता न चले।
मैंने
सुना है कि एक
गांव में
अज्ञात दान की
वर्ष में एक
घड़ी आती थी, जहां
गांव के सारे
लोग अज्ञात
दान करते थे, अनानिमस, कोई नाम
नहीं लेता था।
एक पेटी रखी
रहती थी। पेटी
के पास एक
रीजेस्टर रखा
रहता था। लोग
पेटी में दान
डाल देते, रजिस्टर
में संख्या
लिख देते, और
लिख देते, अज्ञात
व्यक्ति
द्वारा, अनानिमस।
मुल्ला
नसरुद्दीन भी
उस गांव में
था और दान देने
गया। किसी ने
हजार दिए थे, किसी ने
पांच हजार दिए
थे, किसी
ने दस हजार
दिए थे। उसने
भी पांच रुपए
दिए। उसने डाल
दिए पांच रुपए
पेटी में।
जिन्होंने
पांच हजार दिए
थे, उन्होंने
भी छोटे—छोटे
अक्षरों में
लिखा था, उसने
पांच रुपया
इतने बड़े
अक्षरों में
लिखा कि पचास
हजार भी देता,
तो उतनी जगह
में लिखे जा
सकते थे। पांच
रुपया! फिर
उसने लिखा, मुल्ला
नसरुद्दीन, इकतीस नंबर
का मकान, फला—फलां
मोहल्ला, सब
पता—ठिकाना, और नीचे बड़े—बड़े
अक्षरों में
लिखा, अनानिमस,
अज्ञात
व्यक्ति के
द्वारा।
आदमी
दिखाना चाहता
है। धन्यवाद
पाना चाहता है।
दो पैसा देता
है,
तो हजार
गुना करके
बताना चाहता
है। उसकी
चर्चा करता है,
उसकी बात
उठाता है।
उसका प्रचार
करता है कि
मैंने इतना
दान दे दिया।
अगर
जरा—सी भी आकांक्षा
प्रत्युत्तर
की है कि कोई
धन्यवाद दे, कोई
कहे, वाह!
वाह! खूब किया!
बड़ी ऊंची बात
की! तो कृष्ण
कहते हैं, दान
सात्विक न रहा;
सात्विक की
कोटि से नीचे
गिर गया। फिर
वह राजस हो
गया।
जो
दान
क्लेशपूर्वक
तथा
प्रत्युपकार
के प्रयोजन से
अथवा फल को
उद्देश्य में
रखकर दिया गया, वह
दान राजस है।
और
जब तुम कुछ
प्रत्युत्तर
चाहते हो, तो
तुम दान
आनदभाव से
देते ही नहीं।
क्योंकि
तुम्हारा
आनंद तो तब होगा,
जब फल
मिलेगा, जब
उत्तर आएगा।
तो देने में
तो तुम
क्लेशपूर्वक
ही दोगे, क्योंकि
फल का क्या
पक्का पता है?
तुम दे रहे
हो, यह
आदमी लौटाएगा,
इसका कुछ
पक्का पता है?
इसका कोई
पक्का पता
नहीं है।
इसलिए क्लेश
रहेगा कि दे
तो रहे हैं, लौटेगा कि
नहीं? कहीं
व्यर्थ तो न
चला जाएगा?
क्लेश
रहेगा। और फल
को उद्देश्य
में रखकर दिया
जाएगा, तौ
सौदा हो गया, दान न रहा।
तुम खो ही दिए
वह अदभुत क्षण,
जो शुद्ध
दान का है, जो
सिर्फ
कर्तव्य से
किया जाता है।
और
जो दान बिना
सत्कार किए.।
लेकिन
राजस व्यक्ति
कम से कम
सत्कार करेगा
देने वाले का।
क्यों? क्योंकि
पीछे उससे
उत्तर पाना है।
भीतर चाहे
कितना ही
क्लेश से भरा
हो, ऊपर
मुस्कुराकर
देगा, ताकि
इस आदमी को
क्लेश की खबर
न मिल जाए। यह
तो यही समझे
कि बड़े आनंद
से दिया गया
है, ताकि
इतने ही आनंद
से यह वापस भी
कर सके। जो
दान बिना
सत्कार के
अथवा तिरस्कारपूर्वक।
फिर
कुछ दानी ऐसे
भी हैं, जो न
तो सत्कार
करते, न
सत्कार से कोई
प्रयोजन है
उनका; वस्तुत:
दान देकर वे
अपमान करते
हैं, तिरस्कार
करते हैं। दान
देने का उनका
मजा ही यह है
कि हमारा हाथ
ऊपर और
तुम्हारा हाथ
नीचे! दान
देने का मजा
ही यह है कि
देखो, हम
दान देने की
स्थिति में
हैं और तुम
दान लेने की
स्थिति में!
एक
मेरे परिचित
हैं,
बडे धनी हैं।
मध्य प्रदेश
में उनसे बडा
कोई धनी नहीं।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
मैं जीवनभर से
दान दे रहा
हूं? अपने
सब सगे—संबंधियों
को मैंने बड़ा
अमीर बना दिया,
जो मेरे पास
आया, उसको
मैंने दिया, लेकिन लोग
मुझसे खुश
नहीं हैं। और
जो एक दफा
मुझसे ले लेता
है, वह फिर
मुझसे दूर हट
जाता है।
नमस्कार करने
तक से लोग
बचते हैं।
क्या कारण है?
मैंने
कहा,
कारण
बिलकुल साफ है।
देते वक्त
तिरस्कार रहा
होगा। तो ले
तो लिया है उस
आदमी ने
मजबूरी में, लेकिन वह
तुम्हें
क्षमा नहीं कर
सकता।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि
जिसको तुम दान
देते हो, वह भी
तुम्हें
क्षमा नहीं कर
पाएगा, अगर
तिरस्कार रहा।
क्योंकि दान
तो दो दिन में
चुक जाएगा, लेकिन
तिरस्कार सदा
बना रहेगा। तो
मैंने कहा, वे आपसे
बचते हैं, डरते
हैं।
फिर
मैंने उनसे
पूछा कि एक
बात मैं पूछता
हूं;
कभी आप उनको
भी कोई मौका
देते हैं कि
वे आपकी थोडी
सहायता कर
सकें? वे
कहते हैं, जरूरत
ही नहीं। तो
फिर, मैंने
कहा, बहुत
कठिन है। उनको
आप कोई मौका
नहीं देते कि
वे आपकी थोड़ी
सहायता करने
का मजा ले
सकें और आप
उनको दान दिए
जाते हैं, आप
दबाए जाते हैं,
उनकी छाती
पर पत्थर की
तरह चढ़ते जाते
हैं। मजबूरी
है तो आपसे
दान लेना पडता
है; लेकिन
अगर मौका लगे
तो वे आपको
गोली मार दें।
उनको
भी थोड़ा मौका
दो। कभी—कभार, छोटा—मोटा,
कि तुम
बीमार पड़े हो,
किसी को
बुला लो, ताकि
तुम्हारे पास
बैठकर
सांत्वना
प्रकट कर सके।
उसमें भी उसको
राहत मिलेगी
कि हमने भी
कुछ दिया।
नहीं धन दे
सकते, कोई
बात नहीं, गरीब
हैं; लेकिन
सांत्वना दी।
जब तुम मर रहे
थे, तब हम
ही ने तुमको
सांत्वना दी
और बचाया!
उसको थोड़ा
मौका दो कोई
छोटे—मोटे काम
का, जो
जरूरी भी न हो,
लेकिन उसे
सिर्फ यह
एहसास दो कि
उसने भी तुम्हारे
लिए कुछ किया।
कभी उसे भी
ऊपर होने का
मौका दो, तो
वह तुम्हें
क्षमा कर
पाएगा, अन्यथा
क्षमा न कर
पाएगा।
जो
दान बिना
सत्कार किए
अथवा
तिरस्कारपूर्वक
दिया जाता.।
स्वभावत:, तामसी
दान न तो देश
का विचार कर
सकता है, न
काल का, न
पात्र का। वह
दान दान ही
नहीं है, नाम—मात्र
को दान है।
तामसी
व्यक्ति खोज
भी कैसे सकता
है, कौन है
पात्र? अभी
खुद की
पात्रता नहीं।
तुम दूसरे को
वहीं तक पहचान
सकते हो, जहां
तक तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा का
विकास हुआ है।
अक्सर
तामसी
व्यक्ति
तामसी को खोज
लेगा दान देने
के लिए, क्योंकि
समान समान में
बड़ा तालमेल है।
तामसी
व्यक्ति किसी ऐसे
आदमी को दान
देगा, जो
उस दान से
नुकसान ही
करेगा, लाभ
नहीं पहुंचा
सकेगा। वह
खोजेगा अपने
जैसों को। और
हमेशा ऐसे समय
में देगा, जब
कि योग्य न तो
काल था, न
स्थान था, न
पात्र था। और
फिर सोचेगा कि
कोई धन्यवाद
तक नहीं देता!
तामसी
धन्यवाद देना
जानते ही नहीं।
धन्यवाद तो
सिर्फ
सात्विक देना
जानते हैं।
लेकिन
सात्विक को
खोजना कठिन
बात है।
बुद्ध
ने कहा है, ध्यानी
को, संन्यासी
को, सात्विक
को अगर तुम
खोज लो भोजन
देने के लिए, तो तुम धन्यभागी
हो। तुम्हारा
अहोभाग्य है।
तुम्हारा
पूरा जीवन
सार्थक हुआ।
बुद्ध
के पचास हजार
भिक्षु थे।
सुबह से कतार
लग जाती थी
लोगों की, निमंत्रण
देने वालों की।
और भिक्षु
जहां जाता, वहीं उसका
सम्मान था।
भिखारी नहीं
था भिक्षु।
इसलिए
हमने अलग शब्द
उसके लिए गढा
है। भिखारी
नहीं है वह; वह
हमसे कहीं
ज्यादा बड़ा
सम्राट है। वह
ज्यादा
सात्विक है।।
उसके जीवन की
सारी ऊर्जा शांति
और ध्यान और
मोक्ष की तलाश
में लगी है।
उसने अपने को
सब भांति मौन
किया है। उसके
उठने, चलने
में है
तुम्हारे
भोजन सब तरफ
सत्व का आभास।
वह घर ले ले, तो तुम
धन्यभागी हो।
इसलिए भिक्षु
धन्यवाद नहीं
देता था, धन्यवाद
तुम देते थे
कि तुमने भोजन
लिया, हम
धन्यभागी!
इसलिए
दान,
जब तक
दक्षिणा न दी
जाए, तो
पूरा नहीं है।
आए। तुम, स्वीकार
किया हमारा
भोजन, हम
अपात्र को
मौका दिया कि हम
सुपात्र को
कुछ दे सकें, ऐसी घड़ी
हमारे जीवन
में आ सकी कि
जो करने योग्य
था, हम कर
सके, ऐसा
अवसर तुमने
जुटाया, उसके
लिए दक्षिणा
है।
सात्विक
दान सात्विक
पात्र की खोज, सात्विक
क्षण की खोज, सात्विक
स्थान की खोज
से होगा; प्रत्युत्तर
की बिना आकांक्षा
के, चुपचाप
होगा; देने
वाला जैसे है
ही नहीं। और
देने वाला
अनुगृहीत
होगा कि तुमने
लिया, स्वीकार
किया, तुम
इनकार भी कर
सकते थे। वह
दान के बाद
दक्षिणा भी
देगा।
राजस
दान
क्लेशपूर्वक
दिया जाएगा, आकांक्षापूर्वक,
कि उत्तर
ज्यादा आना
चाहिए, पाच
दे रहा हूं, तो दस लौटने
चाहिए।
गंगा
के किनारे मै
बैठा था एक
कुंभ के मेले
में। और एक
पडित वहा कुछ
लोगों को समझा
रहा था कि अगर
तुम यहां एक
पैसा दान
करोगे, तो एक
करोड़ गुना
तुम्हें
स्वर्ग में
मिलेगा। लोग
कर भी रहे थे
एक पैसा, दो
पैसा दान, एक
करोड़ गुने की आकांक्षा
में! धंधा भी
कुछ छोटा नहीं
कर रहे हैं वे।
जुआरी भी इतने
जुआरी नहीं
हैं। वे भी एक
पैसा लगाकर एक
करोड़ गुना
नहीं पाने की आकांक्षा
रखते। सटोरिए
भी क्या
सटोरिए होंगे,
जैसे
स्वर्ग के
सटोरिए हैं!
दे रहे हैं एक
पैसा, दो
पैसा, करोड़
गुने की
आकांक्षा कर
रहे हैं। यह
दान है? एक
पैसा देकर भी
कलपेंगे, तड़फेंगे,
वह स्वर्ग
कब आएगा, जब
एक करोड़ पा
लेंगे? तब
इनको शांति
मिलेगी!
ऐसा
स्वर्ग कभी
नहीं आता।
स्वर्ग तो
उसके ही पास
है,
जो देता है
और मांगता
नहीं। ये तो
नरक में
गिरेंगे। और
जितना क्लेश
इन्होंने एक
पैसा देकर
पाया है, उससे
एक करोड़ गुना
पाएंगे।
क्लेश क्लेश
बढ़ाएगा। आनंद
आनंद बढाता है।
तुम जो बनते
जाते हो, उसी
के और होने की
संभावना बढ़ती
जाती है।
जीसस
का बडा अनूठा
वचन है, जिनके
पास है, उन्हें
और दिया जाएगा,
और जिनके
पास नहीं है, उनसे वह भी
छीन लिया
जाएगा। अगर
तुम आनंदित हो,
तो और आनंद
मिलेगा। अगर
तुम दुखी हो, और दुखी हो
जाओगे, आनंद
थोडा—बहुत
होगा, वह भी
छीन लिया
जाएगा। जीवन
का गणित जीसस
के वचन में
पूरी तरह है।
और फिर तामस
दान है, जो
दान नहीं है, जो सिर्फ
अपमान के लिए
दिया जाता है,
जो अहंकार
की तृप्ति के
लिए दिया जाता
है। वह
निश्चित ही
कुपात्रों के
हाथ में पड़ेगा
और उसके
दुष्परिणाम
.होंगे।
आज
इतना ही।
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