बारहवीं
प्रश्नोत्तर
चर्चा:
भीतर के
पुरुष अथवा
स्त्री से
मिलन:
प्रश्न:
ओशो कल की
चर्चा के
अंतिम हिस्से
में आपने कहा
कि बुद्ध
सातवें शरीर
में
महापरिनिर्वाण
को उपलब्ध हुए।
लेकिन अपने एक
प्रवचन में
आपने कहा है कि
बुद्ध का एक
और पुनर्जन्म
मनुष्य शरीर
में मैत्रेय
के नाम से
होनेवाला है।
तो निर्वाण
काया में चले
जाने के बाद
पुन मनुष्य
शरीर लेना
कैसे संभव
होगा इसे
संक्षिप्त में
स्पष्ट करने
की कृपा करें।
इसको
छोड़ो, पीछे
लेना, तुम्हारे
पूरे नहीं हो
पाएंगे नहीं
तो।
प्रश्न:
ओशो आपने कहा
है कि पांचवें
शरीर में
छंचने पर साधक
के लिए स्त्री
और पुरुष का
भेद समाप्त हो
जाता है। यह
उसके प्रथम
चार शरीरों के
पाजिटिव और
निगेटिव
विद्युत के
किस समायोजन
से घटित होता
है?
स्त्री और
पुरुष के
शरीरों के
संबंध में, पहला
शरीर स्त्री
का स्त्रैण है,
लेकिन
दूसरा उसका
शरीर भी पुरुष
का ही है। और
ठीक इससे उलटा
पुरुष के साथ
है। तीसरा
शरीर फिर
स्त्री का है,
चौथा शरीर
फिर पुरुष का
है।
मैंने
पीछे कहा कि
स्त्री का
शरीर भी आधा
शरीर है और
पुरुष का शरीर
भी आधा शरीर
है,
इन दोनों को
मिलकर ही पूरा
शरीर बनता है।
यह
मिलन दो
दिशाओं में
संभव है।
पुरुष का शरीर—पहला
शरीर— अपने से
बाहर स्त्री
के पहले शरीर
से मिले तो एक
यूनिट, एक
इकाई पैदा
होती है। इस
इकाई से
प्रकृति की
संतति का, प्रकृति
के जन्म का
काम चलता है।
यदि
अंतर्मुखी हो
सके पुरुष या
स्त्री, तो
उनके भीतर के पुरुष
या स्त्री से
मिलन होता है
और एक दूसरी यात्रा
शुरू होती है
जो परमात्मा
की दिशा में है।
बाहर के शरीर—मिलन
से जो यात्रा
होती है वह
प्रकृति की
दिशा में है; भीतर के
शरीर के मिलन
से जो यात्रा
होती है, वह
परमात्मा की
दिशा में है।
पुरुष
का पहला शरीर
जब अपने ही
भीतर के ईथरिक
बॉडी के
स्त्री शरीर
से मिलता है, तो
एक यूनिट बनता
है; स्त्री
का पहला शरीर
जब अपने ही
ईथरिक शरीर के
पुरुष तत्व से
मिलता है, तो
एक यूनिट बनता
है। यह यूनिट
बहुत अदभुत है,
यह इकाई
बहुत अदभुत है।
क्योंकि अपने
से बाहर के
स्त्री या
पुरुष से मिलना
क्षण भर के
लिए ही हो
सकता है। सुख
क्षण भर का
होगा और फिर
छूटने का दुख
बहुत लंबा
होगा। इसलिए
उस दुख में से
फिर मिलने की
आकांक्षा पैदा
होती है।
लेकिन मिलना
फिर क्षण भर
का होता है और
फिर छूटना फिर
लंबे दुख का
कारण बन जाता
है।
तो
बाहर के शरीर
से जो मिलन है
वह क्षण भर को
ही घटित हो
पाता है, लेकिन
भीतर के शरीर
से जो मिलन है
वह चिरस्थायी
हो जाता है— वह
एक बार मिल
गया तो दूसरी
बार टूटता
नहीं। इसलिए
भीतर के शरीर
पर जब तक मिलन
नहीं हुआ है तभी
तक दुख है।
जैसे ही मिलन
हुआ तो सुख की
एक अंतरधारा
बहनी शुरू हो
जाती है। वह
सुख की
अंतरधारा
वैसे ही है, जैसे क्षण
भर के लिए
बाहर के शरीर
से मिलने पर संभोग
में घटित होती
है। लेकिन वह
इतनी क्षणिक
है कि वह आ भी
नहीं पाती कि
चली जाती है।
बहुत बार तो
उस सुख का भी
कोई अनुभव
नहीं हो पाता,
क्योंकि वह
इतनी त्वरा, इतनी तेजी
में घटना घटती
है कि उसका
कोई अनुभव भी
नहीं हो पाता।
ध्यान :
आत्मरति की
प्रक्रिया:
योग
की दृष्टि से
अगर
अंतर्मिलन
संभव हो जाए, तो
बाहर संभोग की
वृत्ति
तत्काल विलीन
हो जाती है; क्योंकि जिस
आकांक्षा के
लिए वह की जा
रही थी, वह
आकांक्षा
तृप्त हो गई।
मैथुन के जो
चित्र मंदिरों
की दीवालों पर
खुदे हैं, वे
अंतमैंथुन की
ही दिशा में
इंगित
करनेवाले चित्र
हैं।
अंतमैंथुन
ध्यान की
प्रक्रिया है।
और इसलिए
बहिमैंधुन और
अंतमैंथुन
में एक विरोध
खयाल में आ
गया। और वह
विरोध इसीलिए
खयाल में आ
गया कि जो भी
अंतमैंथुन
में प्रवेश
करेगा उसका
बाहर के जगत
से यौन का
सारा संबंध
विच्छिन्न हो
जाएगा।
स्त्री जब
अपने पहले
शरीर से दूसरे
शरीर से मिलेगी..
.तो यह भी समझ
लेने जैसा है
कि जब स्त्री अपने
पहले शरीर से
दूसरे शरीर से
मिलेगी, तो जो
यूनिट बनेगा
दोनों के
मिलने पर वह
फिर स्त्रैण
होगा—पूरा
यूनिट; और
पुरुष का पहला
शरीर जब दूसरे
शरीर से
मिलेगा तो जो
इकाई बनेगी वह
फिर पुरुष की
होगी—पूरा
शरीर।
क्योंकि जो
प्रथम है वह
द्वितीय को
आत्मसात कर
लेता है। जो
प्रथम है वह
द्वितीय को
आत्मसात कर
लेता है; दूसरा
उसमें
समाविष्ट हो
जाता है।
लेकिन
अब ये स्त्री
और पुरुष भी
बहुत दूसरे
अर्थों में
हैं;
उस अर्थों
में नहीं जैसा
कि हम बाहर
स्त्री—पुरुष
को देखते हैं।
क्योंकि बाहर
जो पुरुष है
वह अधूरा है, इसलिए सदा
अतृप्त है; बाहर जो
स्त्री है वह
अधूरी है, इसलिए
सदा अतृप्त है।
अगर
हम जैविक
विकास को
खोजने जाएं तो
यह पता चलेगा
कि जो
प्राथमिक
प्राणी हैं
जगत में, उनमें
स्त्री और
पुरुष के शरीर
अलग—अलग नहीं
हैं। जैसे
अमीबा है, जो
कि प्राथमिक
जीव है। अमीबा
के शरीर में
दोनों एक साथ
मौजूद हैं स्त्री
और पुरुष।
उसका आधा
हिस्सा पुरुष
का है, आधा
स्त्री का।
इसलिए अमीबा
से तृप्त
प्राणी खोजना
बहुत कठिन है।
उसमें कोई
अतृप्ति नहीं
है। उसमें
डिसकटेंट
जैसी चीज पैदा
नहीं होती।
इसलिए वह
विकास भी नहीं
कर पाया; वह
अमीबा अमीबा
ही बना हुआ है।
तो बिलकुल जो
प्राथमिक
कड़ियां हैं
बायोलाजिकल
विकास की, वहां
भी शरीर दो
नहीं हैं, वहां
एक ही शरीर है
और दोनों
हिस्से एक ही
शरीर में
समाविष्ट हैं।
आत्मरति
से पूर्ण
स्त्रीत्व और
पूर्ण
पुरुषत्व
प्राप्त:
स्त्री
का पहला शरीर
जब दूसरे से
मिलेगा तो फिर
एक नये अर्थों
में स्त्री—जिसको
हम पूर्ण
स्त्री कहें—पैदा
होगी। और
पूर्ण स्त्री
के
व्यक्तित्व
का हमें कोई अंदाज
नहीं, क्योंकि
हम जिस स्त्री
को भी जानते
हैं वे सभी
अपूर्ण हैं; पूर्ण पुरुष
का भी हमें कोई
अंदाज नहीं है,
क्योंकि
जितने पुरुष
हम जानते हैं
वे सब अपूर्ण
हैं, वे सब
आधे—आधे हैं।
जैसे ही यह
इकाई पूरी
होगी, एक
परम तृप्ति
इसमें प्रवेश
कर जाएगी—जिसमें
असंतोष जैसी
चीज क्षीण
होगी, विदा
हो जाएगी।
यह
जो पूर्ण
पुरुष होगा या
पूर्ण स्त्री
होगी, पहले और
दूसरे शरीर के
मिलने से, अब
इनके लिए बाहर
से तो कोई भी
संबंध जोड़ना
मुश्किल हो
जाएगा। इनके
लिए बाहर से
संबंध जोड़ना
बिलकुल
मुश्किल हो
जाएगा, क्योंकि
बाहर अधूरे
पुरुष और
अधूरी
स्त्रियां
होंगी जिनसे इनका
कोई तालमेल
नहीं बैठ सकता।
लेकिन अगर एक
पूर्ण पुरुष,
भीतर जिसके
दोनों शरीर
मिल गए हों, और एक
स्त्री, जिसके
दोनों शरीर
मिल गए हैं—इनके
बीच संबंध हो
सकता है।
पूर्ण
पुरुष और
पूर्ण स्त्री
के बीच
बहिर्सभोग का
तांत्रिक
प्रयोग:
और
तंत्र ने इसी
संबंध के लिए बड़े
प्रयोग किए।
इसलिए तंत्र
बहुत परेशानी
में पड़ा और
बहुत बदनाम भी
हुआ। क्योंकि
हम नहीं समझ
सके कि वे
क्या कर रहे
हैं। हमारी
समझ के बाहर
था। हमारी समझ
के बाहर होना
बिलकुल
स्वाभाविक था।
क्योंकि अगर
एक स्त्री और
एक पुरुष, तंत्र
की दशा में, जब कि उनके
भीतर के दोनों
शरीर एक हो गए
हैं, संभोग
कर रहे हैं, तो हमारे
लिए वह संभोग
ही है। और हम
सोच भी नहीं
सकते कि यह
क्या हो रहा
है।
लेकिन
यह बहुत ही और
घटना थी। और
यह घटना बड़ी
सहयोगी थी
साधक के लिए।
इसके बड़े
कीमती अर्थ थे।
क्योंकि एक
पूर्ण पुरुष, एक
पूर्ण स्त्री
का बाहर जो
मिलन था, वह
एक नये मिलन
का सूत्रपात
था, एक नये
मिलन की
यात्रा थी।
क्योंकि अभी
एक तरह से
यात्रा खत्म
हो गई— अधूरे
पुरुष, अधूरी
स्त्री पूरे
हो गए; एक
जगह पर जाकर
चीज खड़ी हो गई
और पठार आ
जाएगा।
क्योंकि अब
हमें और कोई
आकांक्षा का
खयाल नहीं है।
अगर
एक पूर्ण पुरुष
और पूर्ण
स्त्री इस
अर्थों में
मिलते, तो
उनके भीतर
पहली दफा
अधूरे से बाहर
एक पूर्ण
स्त्री और
पूर्ण पुरुष
के मिलन का
क्या रस और आनंद
हो सकता है, वह उनके
खयाल में आता।
और उनको दूसरी
बात भी खयाल
में आती कि
अगर ऐसा ही
पूर्ण मिलन
भीतर घटित हो
सके, तब तो
अपार आनंद की
वर्षा हो
जाएगी!
क्योंकि आधे
पुरुष ने आधी
स्त्री को
भोगा था। फिर
उसने अपने
भीतर की आधी
स्त्री से
अपने को जोड़ा,
तब उसने
पाया कि अपार
आनंद मिला।
फिर पूरे
पुरुष ने पूरी
स्त्री को
भोगा और तब स्वभावत:
बिलकुल
तर्कसंगत
उसको खयाल
आएगा कि अगर
मेरे भीतर भी
एक पूर्ण
स्त्री मुझे
मिल सके! तो
अपने भीतर वह
पूर्ण स्त्री
की खोज में
तीसरे और चौथे
शरीर का मिलन
घटित होता है।
उनके
बीच संभोग में
ऊर्जा का स्खलन
नहीं:
तीसरा
शरीर पुरुष का
फिर पुरुष है
और चौथा स्त्री
है;
स्त्री का
तीसरा शरीर
स्त्री का है
और चौथा शरीर
पुरुष का है।
तंत्र ने इस
व्यवस्था को
कि कहीं आदमी
रुक न जाए एक
शरीर की
पूर्णता पर..
.क्योंकि बहुत
तरह की
पूर्णताएं
हैं।
अपूर्णता कभी
नहीं रोकती, लेकिन बहुत
तरह की
पूर्णताएं
हैं जो किसी
आगे की
पूर्णता की
दृष्टि से
अपूर्ण होंगी,
लेकिन पीछे
की अपूर्णता
की दृष्टि से
बड़ी पूरी
मालूम पड़ती
हैं। पीछे की
अपूर्णता मिट
गई है, आगे
की पूर्णता का
हमें, और
बड़ी पूर्णता
का कोई पता
नहीं है—रुकाव
हो सकता है।
इसलिए तंत्र
ने बहुत तरह
की
प्रक्रियाएं
विकसित की, जो बड़ी
हैरानी की थीं—
और जिनको हम
समझ भी नहीं
सकते हैं एकदम
से। जैसे अगर
पूर्ण पुरुष
और पूर्ण
स्त्री का
संभोग होगा, तो उसमें
किसी की ऊर्जा
का पात नहीं
होगा। वह हो
नहीं सकता; क्योंकि वे
दोनों अपने
भीतर कंप्लीट
सर्किल हैं; उनसे कोई
ऊर्जा का स्खलन
नहीं
होनेवाला।
लेकिन बिना
ऊर्जा—स्खलन
के पहली दफा
सुख का अनुभव
होगा।
और
मजे की बात यह
है कि जब भी
ऊर्जा—स्खलन
से सुख का
अनुभव होगा, तो
पीछे दुख का
अनुभव
अनिवार्य है;
क्योंकि
ऊर्जा—स्खलन
से जो विषाद, और जो
फ्रस्ट्रेशन,
और जो दुख, और जो पीड़ा, और जो संताप
पैदा होगा, वह होगा।
सुख तो क्षण
भर में चला
जाएगा, लेकिन
जो ऊर्जा खोई
है, उसको
पूरा करने में
चौबास घंटे, अड़तालीस
घंटे, और
ज्यादा वक्त
भी लग सकता है।
उतनी देर तक
चित्त उस अभाव
के प्रति दुखी
रहेगा।
अगर
बिना ऊर्जा—स्खलन
के संभोग हो
सके...... .इसके लिए
तंत्र ने बड़ी
आश्चर्यजनक
दिशा में काम
किया, और बड़ी
हिम्मतवर
दिशा में काम
किया। उस पर
तो पीछे कभी
अलग बात करनी
पड़े, क्योंकि
उनका सारा
प्रक्रिया का
जाल है पूरा का
पूरा। और वह
जाल चूंकि टूट
गया, और वह
पूरा का पूरा
विज्ञान धीरे—
धीरे
इसोटेरिक हो
गया, फिर
उसको सामने
बात करना
मुश्किल हो गई,
क्योंकि
हमारी नैतिक
मान्यताओं ने
हमें बड़ी कठिनाई
में डाल दिया,
और हमारे
नासमझ
समझदारों नें—जिनको
कि कुछ भी पता
नहीं होता, लेकिन जो
कुछ भी कहने
में समर्थ
होते हैं—उन्होंने
बहुत सी कीमती
बातों को
जिंदा रहना मुश्किल
कर दिया। उनको
विदा कर देना
पड़ा, या वे
छुप गईं और
अंडरग्राउंड
हो गईं, और
भीतर छुपकर
चलने लगीं, लेकिन उनकी
धाराएं जीवन
में स्पष्ट
नहीं रह गईं।
दोनों
की निकटता से
दोनों की
शक्ति का बढ़ना:
यह
पूर्ण स्त्री
और पुरुष के
संभोग की
संभावना..... और
यह संभोग बहुत
और तरह का है, इसमें
ऊर्जा का
स्खलन नहीं है,
बल्कि एक नई
घटना घटती है
जिसको कि
इशारे में कहा
जा सकता है।
अधूरी
स्त्री और
अधूरे पुरुष
का जब भी मिलन
होगा, तो
दोनों की
शक्ति क्षीण
होगी, मिलने
के पहले उनकी
जितनी शक्ति
थी, मिलने
के बाद उन
दोनों की
शक्ति कम होगी।
और पूरे पुरुष
और पूरी
स्त्री के
मिलन में इससे
उलटी घटना
घटेगी मिलने
के पहले जितनी
उनकी शक्ति थी,
मिलने के बाद
दोनों की
ज्यादा होगी।
ठीक इससे उलटी
घटना घटेगी
दोनों के पास
ज्यादा शक्ति
होगी। यह
शक्ति उन्हीं
के भीतर पड़ी
है जो कि
दूसरे के निकट
आने से सजग और
जागरूक और
सक्रिय हो जाएगी।
उनकी ही शक्ति
है। पहले में
भी उनकी ही
शक्ति दूसरे
के निकट आने से
स्खलित होती
थी; दूसरी
घटना में उनकी
ही शक्ति
दूसरे के निकट
आने से सक्रिय
और सजग हो
जाएगी, और
जो उनके भीतर
छिपा है वह
पूरा का पूरा
उनको प्रकट
होगा। इस घटना
से इंगित
मिलेगा कि
भीतर भी क्या
पूर्ण पुरुष
और पूर्ण
स्त्री का
मिलन हो सकता
है? क्योंकि
पहला मिलन
भीतर भी अधूरे
पुरुष और
अधूरी स्त्री
का मिलन है।
तीसरे
और चौथे शरीर
के
अंतर्मैभुन
से द्वंद्व—मुक्ति:
इसलिए
दूसरे यूनिट
पर काम शुरू
होता है कि
तीसरे और चौथे
शरीर को.....
.तीसरा और
चौथा शरीर जब
मिलेगा, तो
तीसरा शरीर
पुरुष का फिर
पुरुष है और
चौथा शरीर फिर
स्त्री है, स्त्री का
तीसरा शरीर
स्त्री है, चौथा पुरुष
है। इन दोनों
के मिलन पर
पुरुष के भीतर
पुरुष ही बचेगा—फिर
तीसरा शरीर
प्रमुख हो
जाएगा— और
स्त्री के
भीतर फिर
स्त्री बचेगी।
और ये दो
पूर्ण
स्त्रियां
फिर लीन हो
जाएंगी एक में,
क्योंकि
इनके बीच अब
कोई सीमा—रेखा
नहीं रह जाएगी
जहां से ये
अलग हो सकें।
इनके अलग होने
के लिए बीच—बीच
में पुरुष के
शरीर का होना
जरूरी था—या
पुरुष के बीच—बीच
में स्त्री का
शरीर होना
जरूरी था, जिनसे
यह फासला होता
था। पहले और
दूसरे शरीर की
मिली हुई
स्त्री, और
तीसरे—चौथे
शरीर की मिली
हुई स्त्री—दोनों
के मिलने की
घटना के साथ
ही एक हो
जाएंगी। और तब
दोहरे चरण में
स्त्री के पास
और भी पूर्ण
स्त्रैणता
पैदा होगी।
इससे बड़ी स्त्रैणता
नहीं संभव है,
क्योंकि
इसके बाद फिर
कोई
स्त्रैणता की
सीमा नहीं। बस
यह पूरी
स्त्रैण
स्थिति होगी,
यह पूर्ण
स्त्री होगी।
यह पूर्ण
स्त्री होगी
जिसको अब पूर्ण
से भी मिलने
की कोई
आकांक्षा
नहीं रह जाएगी।
पहली
पूर्णता में
भी दूसरे
पूर्ण से
मिलने का रस
था और उसके
मिलने से
शक्ति जगती थी, अब
वह भी बात
समाप्त हो
जाएगी। अब
इसको
परमात्मा भी
मिलता हो तो
उस अर्थ में मिलने
का कोई अर्थ
नहीं रह जाएगा।
न पुरुष को।
पुरुष के भीतर
भी दो पुरुष
मिलकर पूर्ण
हो जाएंगे।
चार शरीरों को
मिलकर पुरुष
के पास पुरुष
बचेगा, स्त्री
के पास स्त्री
बचेगी। और
इसके बाद कोई
पुरुष—स्त्री
नहीं है
पांचवें शरीर
से।
इसलिए
स्त्री और
पुरुष के इस
चौथे शरीर के
बाद जो घटना
घटेगी, वह
दोनों की फिर
भिन्न होगी—भिन्न
होनेवाली है।
घटना एक ही
होगी, लेकिन
दोनों की समझ
भिन्न होगी।
पुरुष अब भी
आक्रामक होगा,
स्त्री अब
भी समर्पक
होगी। स्त्री
सरेंडर कर
देगी; स्त्री
अपने को, चौथे
शरीर को पूरा
पा लेने के
बाद संपूर्ण
रूप से छोड़
सकेगी; अब
उसके छोड़ने
में इंच भर की
भी कमी नहीं
रहेगी। और यह
जो छोड़ना है, यह जो लेट गो
है, यह जो
समर्पण है, यह उसे आगे
की यात्रा पर
पहुंचा देगा
पांचवें शरीर
में—जहां फिर
स्त्री
स्त्री नहीं
रह जाती।
क्योंकि
स्त्री होने
के लिए भी
अपने को थोड़ा सा
बचाना जरूरी
था।
असल
में हम जो हैं, वह
अपने को थोड़ा
सा बचाकर हैं।
अगर हम अपने
को पूरा छोड़
सकें तो हम
तत्काल और हो
जाएंगे, जो
हम कभी भी
नहीं थे।
हमारे होने
में हमारा
बचाव है पूरे
वक्त। अगर एक
स्त्री एक
साधारण पुरुष
के लिए भी पूरा
छोड़ सके, तो
उसके भीतर एक
क्रिस्टलाइजेशन
घटित हो जाएगा;
वह चौथे
शरीर को पार
कर जाएगी।
सती
शब्द का गुह्य
अर्थ:
इसलिए
कई बार
स्त्रियों ने
साधारण पुरुष
के प्रेम में
भी चौथा शरीर
पार कर लिया।
जिनको हम सती
कहते हैं, उनका
कोई और दूसरा
मतलब नहीं है—इसोटेरिक
अर्थों में।
उनका और कोई
मतलब नहीं।
उनका यह मतलब
नहीं है कि
जिनकी दृष्टि
दूसरे पुरुष
पर नहीं उठती।
सती का मतलब
यह है कि
जिनके पास
दूसरों पर दृष्टि
उठाने को बची
नहीं। सती का
मतलब यह नहीं
है कि जिनकी
दृष्टि दूसरे
पुरुष पर नहीं
उठती है। सती
का मतलब यह है
कि जिनके पास
अब स्त्री ही
नहीं बची जो
दूसरे पर
दृष्टि उठाए।
अगर
साधारण पुरुष
के प्रेम में
भी कोई स्त्री
इतनी समर्पित
हो जाए, तो
उसको यह
यात्रा करने
की जरूरत नहीं,
उसके चार
शरीर इकट्ठे
होकर पांचवें
के द्वार पर
वह खड़ी हो
जाएगी।
इसी
वजह से, जिन्होंने
यह अनुभव किया
था, उन्होंने
कहा कि पति
परमात्मा है।
उनके पति को
परमात्मा
कहने का मतलब
पुरुष को कोई
परमात्मा बनाने
का नहीं था, लेकिन उनके
लिए पति के
माध्यम से ही
पांचवें का
दरवाजा खुल
गया था। इसलिए
उनके कहने में
कोई भूल न थी; उनका कहना
बिलकुल उचित
था। क्योंकि
जो साधक को
बड़ी मेहनत से
उपलब्ध होता
है, वह
उनको प्रेम से
ही उपलब्ध हो
गया था; और
एक व्यक्ति के
प्रेम में ही
वे उस जगह
पहुंच गई थीं।
सीता
जैसी पूर्ण
स्त्री की
तेजस्विता:
अब
जैसे सीता है।
सीता को हम उन
स्त्रियों
में गिनते हैं
जिनको कि सती
कहा जा सके।
अब सीता का
समर्पण बहुत
अनूठा है; समर्पण
की दृष्टि से
पूर्ण है; और
टोटल सरेंडर
है। रावण सीता
को ले जाकर भी
सीता का
स्पर्श भी नहीं
कर सका। असल
में, रावण
अधूरा पुरुष
है और सीता
पूरी स्त्री
है। पूरी
स्त्री की
तेजस्विता
इतनी है कि
अधूरा पुरुष
उसे छू भी
नहीं सकता
उसकी तरफ आंख
उठाकर भी जोर
से नहीं देख
सकता।
वह
तो अधूरी
स्त्री को ही
देखा जा सकता
है। और जब एक
पुरुष एक
स्त्री को
छूता है, तो
सिर्फ पुरुष
जिम्मेवार
नहीं होता, स्त्री का
अधूरा होना
अनिवार्य रूप
से भागीदार
होता है। और
जब कोई रास्ते
पर किसी
स्त्री को
धक्का देता है,
तो धक्का
देनेवाला आधा
ही जिम्मेवार
होता है, धक्का
बुलानेवाली
स्त्री भी आधी
जिम्मेवार
होती है, वह
धक्का बुलाती
है, निमंत्रण
देती है।
चूंकि वह
पैसिव है, इसलिए
उसका हमला
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
पुरुष चूंकि
एक्टिव है, इसलिए उसका
हमला दिखाई
पड़ता है।
दिखाई पड़ता है
कि इसने धक्का
मारा; यह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता कि
किसी ने धक्का
बुलाया।
रावण
सीता को आंख
उठाकर भी नहीं
देख सका। और
सीता के लिए
रावण का कोई
अर्थ नहीं था।
लेकिन, जीत
जाने पर राम
ने सीता की
परीक्षा लेनी
चाही, अग्नि—परीक्षा
लेनी चाही।
सीता ने उसको
भी इनकार नहीं
किया। अगर वह
इनकार भी कर
देती तो सती
की हैसियत खो
जाती। सीता कह
सकती थी कि आप
भी अकेले थे, और परीक्षा
मेरी अकेली ही
क्यों हो, हम
दोनों ही
अग्नि—परीक्षा
से गुजर जाएं!
क्योंकि अगर
मैं अकेली थी
किसी दूसरे
पुरुष के पास,
तो आप भी
अकेले थे और
मुझे पता नहीं
कि कौन स्त्रियां
आपके पास रही
हों। तो हम
दोनों ही
अग्नि—परीक्षा
से गुजर जाएं!
लेकिन
सीता के मन
में यह सवाल
ही नहीं उठा; सीता
अग्नि—परीक्षा
से गुजर गई।
अगर उसने एक
बार भी सवाल
उठाया होता तो
सीता सती की
हैसियत से खो
जाती—समर्पण
पूरा नहीं था,
इंच भर
फासला उसने
रखा था। और
अगर सीता एक
बार भी सवाल
उठा लेती और
फिर अग्नि से
गुजरती, तो
जल जाती; फिर
नहीं बच सकती
थी अग्नि से।
लेकिन समर्पण
पूरा था, दूसरा
कोई पुरुष
नहीं था सीता
के लिए।
इसलिए
यह हमें
चमत्कार
मालूम पड़ता है
कि वह आग से
गुजरी और जली
नहीं! लेकिन
कोई भी
व्यक्ति, जो
अंतर— समाहित
है...... साधारण
व्यक्ति भी
किसी अंतर—समाहित
स्थिति में आग
पर से निकले
तो नहीं जलेगा।
हिप्नोसिस की
हालत में एक
साधारण से
आदमी को कह
दिया जाए कि
अब तुम आग पर
नहीं जलोगे, तो वह आग पर
से निकल जाएगा
और नहीं जलेगा।
बिना
जले आग पर से
गुजर जाने का
राज:
साधारण
सा फकीर आग पर
से गुजर सकता
है एक विशेष
भावदशा में, जब
वह भीतर उसका
सर्किल पूरा
होता है।
सर्किल टूटता
है संदेह से।
अगर उसे एक
बार भी यह
खयाल आ जाए कि
कहीं मैं जल न
जाऊं, तो
भीतर का
वर्तुल टूट
गया, अब यह
जल जाएगा। अगर
भीतर का
वर्तुल न टूटे
तो दो फकीर
अगर कूद रहे
हों कहीं आग
पर, और आप
भी पीछे खड़े
हों, और दो
को कूदते
देखकर आपको
लगे कि जब दो
कूद रहे हैं
और नहीं जलते
तो मैं क्यों
जलूंगा, और
आप भी कूद
जाएं, तो
आप भी नहीं
जलेंगे। पूरी
कतार, भीड़
गुजर जाए आग
से, नहीं
जलेगी। और
उसका कारण है,
क्योंकि
जिसको जरा भी
शक होगा, वह
उतरेगा नहीं;
वह बाहर खड़ा
रह जाएगा; वह
कहेगा, पता
नहीं मैं न जल
जाऊं। लेकिन
जिसको खयाल आ
गया है, जो
देख रहा है कि
कोई नहीं जल
रहा है तो मैं
क्यों जलूंगा,
वह गुजर
जाएगा, उसको
कोई आग नहीं
छुएगी।
अगर
हमारे भीतर का
वर्तुल पूरा
है तो हमारे
भीतर आग तक के
प्रवेश की
गुंजाइश नहीं
है।
तो
सीता को आग न
छुई हो, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं। आग से
गुजरने के बाद
भी जब राम
उसको छुडूवा
दिए, तब भी
वह यह नहीं कह
रही है कि
मेरी परीक्षा
भी हो गई, अग्नि—परीक्षा
में भी सही
उतर गई, फिर
भी मुझे छोडा
जा रहा है!
नहीं, उसकी
तरफ से समर्पण
पूरा है।
इसलिए छोड़ने की
कोई बात ही
नहीं उठती, इसलिए सवाल
का कोई सवाल
नहीं है।
पूर्ण
समर्पण से
चारों शरीरों
का अतिक्रमण:
पूरी
स्त्री अगर एक
व्यक्ति के
प्रेम में भी
पूरी हो जाए, तो
वे जो सीढ़ियां
हैं साधना की
उनमें चार को
तो छलांग लगा
जाएगी। पुरुष
के लिए यह
संभावना कठिन
है। पुरुष के
लिए यह
संभावना बहुत
कठिन है, क्योंकि
समर्पक चित्त
नहीं है उसके
पास। यह बड़े
मजे की बात है
कि आक्रमण भी
पूरा हो सकता
है, लेकिन
आक्रमण पूरा
होने में सदा
और बहुत सी चीजें
जिम्मेवार
होंगी, आप
अकेले नहीं।
लेकिन समर्पण
के पूरे होने
में आप अकेले
जिम्मेवार
होंगे, और
बहुत सी चीजों
का कोई सवाल
नहीं है। अगर
मुझे समर्पण
करना है किसी
के प्रति तो
मैं उससे बिना
पूछे पूरा कर
सकता हूं।
लेकिन अगर
आक्रमण करना
है किसी के
प्रति, तब
तो आक्रमण का
अंतिम जो
परिणाम होगा
उसमें मैं
अकेला नहीं, वह दूसरा
व्यक्ति भी
जिम्मेवार
होगा।
इसलिए
जहां
शक्तिपात की
चर्चा मैंने
की,
तो वहां ऐसा
प्रतीत हुआ
होगा कि
स्त्री में थोड़ी
सी कमी है, उसको
थोड़ी सी
कठिनाई है। पर
मैंने कहा था,
कपनसेशन के
नियम हैं जीवन
में। वह कमी
उसके समर्पण
की शक्ति से
पूरी हो जाती है।
पुरुष कभी भी
किसी को कितना
ही प्रेम करे,
पूरा नहीं
कर पाता। उसके
न करने का
कारण है। वह
आक्रामक है, समर्पक नहीं
है। और आक्रमण
का पूरा होना
असंभव मामला
है। आक्रमण भी
तभी पूरा हो
सकता है जब
कोई पूरा समर्पण
कर दे, तो
उस पर पूरा
आक्रमण हो
सकता है, अन्यथा
वह नहीं हो सकता।
तो
स्त्री के चार
शरीर पूरे हो
जाएं, एक हो
जाए इकाई, तो
पांचवें पर
बड़ी सरलता से
वह समर्पण कर
पाती है। और
इस चौथी
अवस्था में, जब स्त्री
इन दोहरी
सीढ़ियों को
पार करके पूरी
होती है, तब
दुनिया की कोई
शक्ति उसको
रोक नहीं सकती,
और उसके लिए
सिवाय
परमात्मा के
फिर कोई बचता
नहीं। असल में,
चार शरीरों
में रहते हुए
जिसको उसने
प्रेम किया था
वह भी
परमात्मा हो
गया था। और अब
तो जो भी है वह
परमात्मा है।
मीरा
के जीवन में
बहुत मीठी
घटना है कि वह
गई है वृंदावन।
और वहां उस
बड़े मंदिर में
कृष्ण के जो
पुजारी है, वह
स्त्रियों का
दर्शन नहीं
करता है, स्त्रियों
को देखता नहीं
है। इसलिए उस
मंदिर में
स्त्रियों के
लिए प्रवेश निषिद्ध
है। लेकिन
मीरा तो अपना
मंजीरा बजाती
हुई भीतर प्रवेश
ही कर गई है।
उसे लोगों ने
रोका और कहा
कि स्त्री का
जाना भीतर मना
है, क्योंकि
वह जो पुरोहित
है मंदिर का, वह स्त्री
नहीं देखता है।
तो मीरा ने
कहा, बड़ी
अदभुत घटना
है! मैं तो
सोचती थी कि
एक ही पुरुष
है जगत में, कृष्ण!
दूसरा पुरुष
कौन है, उसे
मैं जरूरी
देखना चाहती
हूं। वह मुझे
भला देखने में
डरता हो, लेकिन
मैं उसे देखना
चाहती हूं—दूसरा
पुरुष कौन है?
दूसरा
पुरुष भी है?
उस
पुरोहित को
खबर पहुंचाई
गई कि एक
स्त्री दरवाजे
पर प्रवेश कर
गई है और वह
कहती है कि
मैं उस दूसरे
पुरुष को
देखना चाहती
हूं। क्योंकि
मैं तो देखती
हूं कि एक ही
पुरुष है, कृष्ण!
वह दूसरा
पुरुष कहां है?
उसके मैं
दर्शन करना
चाहती हूं। वह
जो मंदिर का
पुरोहित था, पुजारी था, वह आया और
भागा और मीरा
के पैरों में
गिरा। और उसने
कहा कि जिसके
लिए एक ही
पुरुष बचा है,
अब उसको
स्त्री कहना
बेमानी है; अब उसका कोई
मतलब ही नहीं
रहा; अब
बात ही खत्म
हो गई। और मैं
तेरे पैर छूने
आया हूं। और
भूल हो गई
मुझसे, मैंने
साधारण
स्त्रियों को
देखकर अपने को
पुरुष समझ रखा
था, लेकिन
तेरी जैसी
स्त्री के लिए
तो मेरे पुरुष
होने का कोई
अर्थ नहीं है।
समर्पण
भक्ति बन जाती
है और आक्रमण
योग:
पुरुष
अगर चौथे शरीर
पर पहुंचेगा, तो
वह पूर्ण
पुरुष हो
जाएगा—दोहरी
सीढ़ियां पार
करके पूर्ण
पुरुष हो जाएगा।
उस दिन के बाद
उसके लिए कोई
स्त्री नहीं
है; उस दिन
के बाद उसके
लिए स्त्री का
कोई अर्थ नहीं
है। अब वह
सिर्फ आक्रमण
की ऊर्जा है।
जैसे स्त्री
चौथे शरीर को
पार करके
सिर्फ समर्पण
की ऊर्जा है, सिर्फ शक्ति
जो समर्पित हो
सकती है, और
पुरुष सिर्फ
शक्ति है जो
आक्रामक हो सकती
है। अब सिर्फ
शक्तियां बच
गई हैं, अब
इनका स्त्री—पुरुष
नाम नहीं है, अब ये सिर्फ
ऊर्जाएं हैं।
पुरुष
का जो आक्रमण
है,
वही योग की
बहुत सी
प्रक्रियाओं
में विकसित हुआ;
स्त्री का
जो समर्पण है,
वही भक्ति
की बहुत सी
प्रक्रियाओं
में विकसित
हुआ। समर्पण
भक्ति बन जाता
है, आक्रमण
योग बन जाता
है। लेकिन बात
एक ही है; उन
दोनों में कुछ
भेद नहीं है
अब। यह सिर्फ
स्त्री और
पुरुष की तरफ
से भेद है। अब
बूंद सागर में
गिरती है कि
सागर बूंद में
गिरता है, इससे
अंतिम परिणाम
में कोई भेद
नहीं है।
पुरुष की जो
बूंद है, वह
सागर में गिरेगी;
वह छलांग
लगाएगा और
सागर में गिर
जाएगा।
स्त्री की
बूंद जो है, वह खाई बन
जाएगी और पूरे
सागर को अपने
में पुकार
लेगी; वह
समर्पित हो
जाएगी और पूरा
सागर उसमें
गिरेगा। अब भी
वह निगेटिव
होगी, निगेटिविटी
होगी उसकी
पूरी की पूरी।
वह गर्भ रह
जाएगी और सारे
सागर को अपने में
ले लेगी; समस्त
विश्व की
ऊर्जा उसमें
प्रवेश कर
जाएगी। पुरुष
अब भी गर्भ
नहीं बन सकता;
पुरुष अब भी
वीर्य ही होगा—
और एक छलांग
लगाएगा और
सागर में डूब
जाएगा।
पांचवें
शरीर से
स्त्री—पुरुष
का भेद समाप्त:
बहुत
गहरे में उनके
व्यक्तित्व
इस सीमा तक, आखिरी
सीमा तक पीछा
करेंगे—चौथे
शरीर के आखिरी
तक। पांचवें
शरीर की
दुनिया अलग हो
जाएगी; तब
आत्मा ही शेष
रह जाती है।
और आत्मा का
कोई लैंगिक
भेद नहीं है।
इसलिए उसके
बाद यात्रा
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
चौथे तक फर्क
पड़ेगा और फर्क
ऐसा ही होगा
कि बूंद सागर
में गिरेगी कि
सागर बूंद में
गिरेगा।
अंतिम परिणाम
एक ही हो
जाएगा—बूंद
सागर में गिरे
कि सागर बूंद
में गिरे, कोई
फर्क पड़ने वाला
नहीं है।
लेकिन चौथे
शरीर की आखिरी
सीमा तक फर्क
रहेगा। अगर
स्त्री ने
छलांग लगाना
चाही तो वह
मुश्किल में
पड़ जाएगी और
अगर पुरुष ने
समर्पण करना
चाहा तो वह
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
बहुत सी
स्त्रियां
छलांग लगाने
की मुश्किल में
पड़ती हैं, बहुत
से पुरुष
समर्पण करने
की मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। उस भूल
से सावधान
रहना जरूरी है।
लंबे
संभोग में
स्त्री और
पुरुष के बीच
विद्युत—वलय:
प्रश्न:
ओशो आपने एक
प्रवचन में
कहा है कि
लंबे संभोग
में स्त्री और
पुरुष के बीच
एक प्रकाश—
वलय निर्मित
होता है। यह
क्या है कैसे
निर्मित होता
है? और इसका
क्या उपयोग है?
प्रथम चार
शरीरों की
विद्युतीय
विभिन्नता के
आधार पर इन
प्रश्नों का
उत्तर देने की
कृपा करें।
अकेले ध्यान
में उपरोक्त
घटना का क्या
रूप होगा?
हां, जैसा
मैंने कहा कि
स्त्री आधी है,
पुरुष आधा
है; दोनों
ऊर्जाएं हैं,
दोनों
विद्युत हैं;
स्त्री
निगेटिव पोल
है, पुरुष
पाजिटिव पोल
है। और जहां
कहीं भी
विद्युत की
ऋणात्मक और
धनात्मक
ऊर्जाएं एक
वर्तुल बनाती
हैं, वहां
प्रकाश—पुंज
पैदा हो जाता
है। प्रकाश—पुंज
ऐसा हो सकता
है जो दिखाई न
पड़े; ऐसा
हो सकता है जो
कभी दिखाई पड़
जाए; ऐसा
हो सकता है जो
किसी को दिखाई
पड़े, किसी
को दिखाई न
पड़े। लेकिन
वर्तुल
निर्मित होता
है। पर
वर्तुल......
.पुरुष और
स्त्री का
मिलन इतना
क्षणिक है कि
वर्तुल निर्मित
हो ही नहीं
पाता और टूट
जाता है।
इसलिए
संभोग को
लंबाने की
क्रियाएं हैं, और
संभोग को
लंबाने की
पद्धतियां
हैं। अगर आधे
घंटे के पार
संभोग चला जाए
तो वलय, वह
विद्युत का
वर्तुल, प्रकाश—पुंज,
स्त्री और
पुरुष को घेरे
हुए दिखाई पड़
सकता है। उसके
चित्र भी लिए
गए हैं। और
कुछ आदिवासी
कौमें अब भी
इतने लंबे
संभोग में
गुजर सकती हैं।
और इसलिए उनके
वर्तुल बन
जाते हैं।
तनावों
के बढ़ने पर
संभोग की अवधि
का घटना:
साधारणत:
सभ्य समाज में
वर्तुल खोजना
बहुत मुश्किल
है;
क्योंकि
जितना
तनावग्रस्त
चित्त होगा, संभोग उतना
ही क्षणिक
होगा। असल में,
जितना टेंस
माइंड होगा, उतना जल्दी
स्खलन होगा
उसका; जितना
तनाव से भरा
चित्त है, उतना
स्खलन
त्वरित होगा।
क्योंकि तनाव
से भरा चित्त
असल में संभोग
नहीं खोज रहा
है, रिलीज
खोज रहा है।
पश्चिम में
सेक्स का जो
उपयोग है, वह
छींक से
ज्यादा नहीं
रह गया—स्व
तनाव है जो फिक
जाता है; एक
बोझ है सिर पर
जो निकल जाता
है। ऊर्जा कम
हो जाती है तो
आप शिथिल हो
जाते हैं।
रिलैक्स होना
दूसरी बात है,
शिथिल होना
दूसरी बात है।
रिलैक्स होने
का मतलब है, विश्राम का
मतलब है? ऊर्जा
भीतर है और आप
विश्राम में
हैं। और शिथिल
होने का मतलब
है ऊर्जा फिक
गई और अब आप
निढाल पड़े रह
गए हैं; अब
ऊर्जा नहीं है
तो आप शिथिल
हो गए हैं, इसलिए
सोच रहे हैं
कि विश्राम हो
रहा है।
तो
पश्चिम में
जितना तनाव
बढ़ा है, उतना
सेक्स जो है
वह एक रिलीज, एक तनाव से
छुटकारा, एक
भीतरी शक्ति
के दबाव से
मुक्ति, ऐसी
हालत हो गई है।
इसलिए पश्चिम
में ऐसे
विचारक हैं जो
सेक्स को छींक
से ज्यादा
मूल्य देने को
तैयार नहीं
हैं। जैसे नाक
में एक
खुजलाहट हुई
है और छींक दी
है तो मन हलका
हो गया है, बस
इससे ज्यादा
मूल्य देने को
पश्चिम में
लोग राजी नहीं
हैं कुछ। और
उनका कहना ठीक
भी है, क्योंकि
वे जो कर रहे
हैं, वह
इतना ही है, वह इससे
ज्यादा मूल्य
का है भी नहीं।
और पूरब में
भी लोग उनसे
धीरे— धीरे
राजी होते चले
जा रहे हैं, क्योंकि
पूरब भी
तनावग्रस्त
होता चला जा
रहा है। कहीं
किसी दूर किसी
पहाड़—पर्वत की
कंदरा में कोई
व्यक्ति मिल
सकता है जो
तनावग्रस्त न
हो, जिसको
सभ्यता ने अभी
न छुआ हो और जो
वहां जी रहा
हो जहां वृक्ष
और पौधों और
पत्तियों और
पहाड़ों की
दुनिया है, तो वहां अभी
भी संभोग में
वह वर्तुल
बनता है। और
या फिर तंत्र
की
प्रक्रियाएं
हैं जिनसे कोई
भी वर्तुल बना
सकता है।
लंबे
संभोग से
दीर्घकालीन
तृप्ति:
उस
वर्तुल के
अनुभव बड़े
अदभुत हैं; क्योंकि
जब वह वर्तुल
बनता है, तभी
तुम्हें ठीक
अर्थों में यह
पता चलता है
कि तुम एक हुए।
स्त्री और
पुरुष एक हुए,
इसका अनुभव
तुम्हें
वर्तुल बनने
के पहले पता नहीं
चलता। उसके बनते
ही मैथुन में
रत दो व्यक्ति
दो नहीं रह
जाते, उस
वर्तुल के
बनते ही वे एक
ही ऊर्जा के, एक ही शक्ति
के प्रवाह बन
जाते हैं; कोई
चीज जाती और
आती और घूमती
हुई मालूम
पड़ने लगती है
और दो व्यक्ति
मिट जाते हैं।
यह वर्तुल जिस
मात्रा में
बनेगा, उसी
मात्रा में
संभोग की
आकांक्षा कम
और दूरी पर हो
जाएगी। यह हो
सकता है कि एक
दफा वर्तुल बन
जाए तो वर्ष भर
के लिए भी फिर
कोई इच्छा न
रह जाए, कोई
कामना न रह
जाए; क्योंकि
एक तृप्ति की
घटना घट जाए।
इसे
ऐसे ही समझ
सकते हो कि एक
आदमी खाना खाए
और वॉमिट कर
दे,
खाना खाए और
उलटी कर दे, तो कोई
तृप्ति तो
नहीं होगी!
खाना खाने से
तृप्ति नहीं
होती, खाना
पचने से
तृप्ति होती
है। आमतौर से
हम सोचते हैं—खाना
खाने से
तृप्ति होती
है। खाना खाने
से कोई तृप्ति
नहीं होती, तृप्ति तो
पचने से होती
है।
संभोग
के भी दो रूप
हैं एक सिर्फ
खाना खाने का और
एक पचने का।
तो जिसे हम
आमतौर से
संभोग कह रहे
हैं,
वह सिर्फ
खाना खाना और
उलटी कर देने
जैसा है, उसमें
कहीं कुछ पच
नहीं पाता।
अगर पच जाए तो
उसकी तृप्ति
लंबी और गहरी
है। और जो
पचना है वह इस
विद्युत के
वर्तुल बनने पर
ही होता है।
यह सिर्फ सूचक
है उसका कि
दोनों की
चित्त—वृत्तियां
एक— दूसरे में
समाहित और लीन
हो गईं; दोनों
अब दो न रहे, एक हो गए; दोनों
अब दो शरीर ही
रहे, लेकिन
भीतर बहती हुई
ऊर्जा एक ही
हो गई और छलांग
लगाकर एक—दूसरे
में प्रवाह
करने लगी।
गृहस्थ
के लिए गहरी
काम—तृप्ति ही
काम—मुक्ति है:
यह
जो स्थिति है, यह
स्थिति बड़ी
गहरी तृप्ति
दे जाती है।
यह इस अर्थ
में मैंने कहा
था। इसका योग
के लिए तो
बहुत उपयोग है,
साधक के लिए
इसका बहुत
उपयोग है।
क्योंकि साधक
को अगर ऐसा
मैथुन उपलब्ध
हो सके, तो
मैथुन की
जरूरत बहुत कम
हो जाती है।
और जितने दिन
मैथुन की
जरूरत नहीं
होती, उतने
दिन तक उसकी
अंतर्यात्रा
आसान हो जाती
है। और एक दफा
अंतर्यात्रा
शुरू हो जाए
और भीतर की
स्त्री से
संभोग होने
लगे, तब तो
बाहर की
स्त्री बेकार
हो जाएगी, बाहर
का पुरुष
बेकार हो
जाएगा।
गृहस्थ के लिए
ब्रह्मचर्य
का जो अर्थ है,
वह यही हो
सकता है।
आप
खयाल लेते हैं? गृहस्थ
के लिए जो
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है, वह यही हो
सकता है कि
उसका संभोग
इतना तृप्तिदायी
हो कि वर्षों
के लिए बीच
में
ब्रह्मचर्य का
क्षण छूट जाए।
और एक दफा यह
क्षण छूट जाए
और भीतर की
यात्रा शुरू
हो जाए तो फिर
बाहर की
आवश्यकता ही
विलीन हो जाती
है। गृहस्थ के
लिए कह रहा
हूं।
संन्यासी
को ध्यान
द्वारा
अंतमैंबुन की
उपलब्धि:
संन्यस्त
के लिए, जिसने
गृहस्थी को
स्वीकार नहीं
किया, उसके
लिए
ब्रह्मचर्य
का अर्थ.. .उसके
लिए ब्रह्मचर्य
का अर्थ
अंतर्रमण है,
उसके लिए
अंतमैंथुन है।
उसे सीधे ही
अंतमैंथुन के
प्रयोग खोजने
पड़ेंगे।
अन्यथा वह
सिर्फ बाहर की
स्त्री से नाम—
मात्र को बचा
हुआ दिखाई
पड़ेगा, उसका
चित्त तो
दौड़ता ही
रहेगा, भागता
ही रहेगा। और
जितनी ऊर्जा
स्त्री से
मिलने में
व्यय नहीं
होती, उससे
ज्यादा ऊर्जा
स्त्री से
मिलने और
रुकने की
चेष्टा में
व्यय हो जाती है।
तो
संन्यासी के
लिए थोड़ा सा
अलग मार्ग है।
और वह थोड़े से
मार्ग में जो
फर्क है वह
इतना ही है कि
गृहस्थ के लिए
बाहर की
स्त्री से
मिलना प्राथमिक
होगा, द्वितीय
चरण पर अंतर
की स्त्री से
मिलना होगा; संन्यस्त के
लिए अंतर की
स्त्री से
सीधा मिलना
होगा, पहला
चरण नहीं है।
इसलिए हर किसी
को संन्यासी
बना देना
नासमझी की हद
है। असल में, संन्यास
देने का मतलब
ही यह है कि हम
उसके अंतर में
झांक सकें और
समझ सकें कि
उसका पहला पुरुष
उसकी अपनी ही
स्त्री से
मिलने की
क्षमता और
पात्रता में
है या नहीं।
अगर है, तो
ही
ब्रह्मचर्य
की दीक्षा दी
जा सकती है, अन्यथा
पागलपन पैदा
करेंगे और कुछ
फायदा नहीं हो
सकता है।
लेकिन लोग हैं
कि दीक्षाएं
दिए चले जा
रहे हैं। कोई
हजार
संन्यासियों
का गुरु है, कोई दो हजार
संन्यासियों
का गुरु है।
उन्हें कुछ
पता नहीं कि
वे क्या कर
रहे हैं! वे जिस
आदमी को
दीक्षा दे रहे
हैं, वह
अंतमैंथुन के
योग्य है? यह
तो दूर की बात
है, यह भी
पता नहीं कि
अंतमैंथुन भी
कोई मैथुन है।
इसलिए
मुझे जब भी
संन्यासी
मिलता है तो
उसकी गहरी
तकलीफ सेक्स
की होती है।
गृहस्थ तो
मुझे मिल जाते
हैं जिनकी और
तकलीफें भी
हैं,
लेकिन
संन्यासी
मुझे नहीं मिलता
जिसकी और कोई
तकलीफ हो; उसकी
तकलीफ सेक्स
ही है। गृहस्थ
की और तकलीफें
भी हैं, हजार
तकलीफें हैं,
उनमें
सेक्स एक
तकलीफ है।
लेकिन
संन्यासी की
एक ही तकलीफ
है। और इसलिए
सारा का सारा
चित्त उसका
इसी एक बिंदु
पर अटका रह
जाता है।
तो
बाहर की
स्त्री से
बचने के तो उपाय
बता रहे हैं
उसके गुरु, लेकिन
भीतर की
स्त्री से
मिलने का कोई
उपाय नहीं है
उनके खयाल में।
इसलिए बाहर की
स्त्री से बचा
नहीं जा सकता,
सिर्फ
दिखाया जा
सकता है कि बच
रहे हैं। बचना
बहुत मुश्किल
है। वह तो
वैद्युतिक
ऊर्जा है, उसके
लिए जगह चाहिए।
अगर वह भीतर
जाए तो बाहर
जाने से
रुकेगी, अगर
भीतर नहीं जा
रही है तो
बाहर जाएगी।
कोई फिकर नहीं
कि स्त्री
कल्पना की
होगी, उससे
भी काम चलेगा;
वह कल्पना
की स्त्री के
साथ भी बाहर
बह जाएगी, वह
भीतर नहीं जा
सकती। ठीक
स्त्री के लिए
भी यही होगा।
कुंवारी
स्त्री के लिए
अंतमैंभुन सरल:
लेकिन
स्त्री और
पुरुष के
मामले में
यहां भी थोड़ा
सा भेद है जो
खयाल में ले
लेना चाहिए।
इसलिए अक्सर
यह होगा कि
साधु के लिए
जितना सेक्स
प्राब्लम
बनेगा, उतना
साध्वी के लिए
नहीं बनता।
इधर मैं बहुत
सी साध्वियों
से परिचित हूं।
साध्वी के लिए
सेक्स इतना
प्राब्लम नहीं
बनता। उसका
कारण है कि
पैसिव है उसका
सेक्स। अगर एक
दफा उठाया जाए
तो प्राब्लम
बनता है, अगर
बिलकुल न
उठाया गया हो
तो उसे पता ही
नहीं चलता कि
प्राब्लम है।
स्त्री को
इनीशिएशन
चाहिए सेक्स
में भी। कोई
पुरुष एक दफा
स्त्री को ले
जाए सेक्स में,
इसके बाद
उसमें तीव्र
ऊर्जा उठनी
शुरू होती है।
लेकिन अगर न
ले जाई जाए, तो वह जीवन
भर कुंवारी रह
सकती है। उसके
कुंवारे रहने
की बहुत
सुविधा है, क्योंकि
पैसिव है। वह
खुद तो
आक्रामक नहीं
है उसका चित्त,
वह
प्रतीक्षा
करती रहेगी, वह
प्रतीक्षा
करती रहेगी।
इसलिए
मेरा मानना है
कि विवाहित
स्त्री को
दीक्षा देना
खतरनाक है, जब
तक कि उसको
अंतर्पुरुष
से मिलना न
सिखाया जाए।
कुंवारी लड़की
दीक्षा ले
सकती है, कुंवारे
लड़के से वह
ज्यादा ठीक
हालत में है।
उसको जब तक एक
दफा दीक्षा
नहीं मिली काम
की, यौन की,
तब तक वह
प्रतीक्षा कर
सकती है।
आक्रामक नहीं
है, इसलिए।
और अगर आक्रमण
न हो बाहर से, तो अपने आप
धीरे— धीरे
उसके भीतर का
पुरुष उसकी
बाहर की
स्त्री से
मिलना शुरू कर
देता है; क्योंकि
उसके नंबर दो
का जो शरीर है,
वह पुरुष का
है, वह
आक्रामक है।
तो अंतमैंथुन
स्त्री के लिए
पुरुष की बजाय
बहुत सरल है।
मेरा
मतलब समझ रहे
हो न तुम?
उसका
जो दूसरा
पुरुष का शरीर
है,
वह आक्रामक
है। इसलिए अगर
बाहर से
स्त्री को
पुरुष न मिले,
न मिले, न
मिले; उसे
पता ही न हो
बाहर के पुरुष
के द्वारा यौन
में जाने का; तो उसके
भीतर का पुरुष
उस पर हमला
करना शुरू कर
देगा, उसकी
ईथरिक बॉडी उस
पर हमला करने
लगेगी, और
उसका मुख भीतर
की तरफ मुड़
जाएगा, वह
अंतमैंथुन
में लीन हो
जाएगी।
पुरुष
के लिए
अंतमैंथुन
जरा कठिन बात
है,
क्योंकि
पुरुष का
आक्रामक शरीर
नंबर एक का है,
नंबर दो का
शरीर उसका
स्त्री का है।
नंबर दो का
शरीर उस पर
आक्रमण करके
नहीं बुला
सकता; जब
वह जाएगा तभी
नंबर दो का
शरीर उसको
स्वीकार
करेगा।
ये
सारे भेद हैं।
और ये भेद अगर
खयाल में हों
तो सारी
व्यवस्था इस
सबके संबंध
में दूसरी
होनी चाहिए।
यह
जो संभोग में
विद्युत—वर्तुल
पैदा हो सके
तो गृहस्थ के
लिए बड़ा सहयोगी
है। और ऐसा ही
वर्तुल, जब
तुम्हारा
अंतमैंथुन
होगा तब भी
पैदा होगा।
इसलिए जो
साधारण
व्यक्ति को
संभोग में जो
विद्युत की
ऊर्जा उसको
घेर लेगी, वैसी
ऊर्जा उस
व्यक्ति को जो
भीतर के शरीर
से संबंधित
हुआ है, चौबीस
घंटे घेरे
रहेगी। इसलिए
तुम्हारे
प्रत्येक
शरीर पर
तुम्हारा वर्तुल
बढ़ता चला
जाएगा।
बुद्ध—पुरुष
: एक ऊर्जा
पुंज:
इसलिए
बहुत बार ऐसा
हो सकता है, जैसे
कि बुद्ध के
मर जाने के
बाद कोई पांच
सौ वर्षों तक
बुद्ध की कोई
प्रतिमा नहीं
बनाई गई और
प्रतिमा की
जगह
बोधिवृक्ष की
पूजा चली।
प्रतिमा नहीं
थी, सिर्फ
वृक्ष ही था।
मंदिर भी
बनाते थे तो
उसमें एक
वृक्ष, पत्थर
का वृक्ष
बनाते थे—या
पत्थर पर
वृक्ष को खोद
देते थे—और
नीचे वह जगह
खाली रहती, जहां बुद्ध
के बैठने की
जगह थी। अब जो
लोग पुरातत्व
या इतिहास की
खोज करते हैं,
वे बड़ी
मुश्किल में
हैं कि बुद्ध
की प्रतिमा क्यों
न बनाई, बुद्ध
का वृक्ष
क्यों बनाया?
फिर पांच सौ
साल के बाद
क्यों
प्रतिमा बनाई?
और पांच सौ
साल तक वृक्ष
के नीचे जगह
क्यों खाली
छोड़ी?
अब
यह बड़े राज की
बात है और
पुरातत्वविद
को और इतिहासज्ञ
को कभी पता
नहीं चल सकता, क्योंकि
इतिहास और
पुरातत्व से
इसका कोई लेना—देना
नहीं है। असल
में, जिन
लोगों ने
बुद्ध को गौर
से देखा था, उनका कहना
था कि जब गौर
से देखो तो
बुद्ध दिखाई
नहीं पड़ते, सिर्फ वृक्ष
ही रह जाता है,
सिर्फ
विद्युत की
ऊर्जा रह जाती
है। गौर से
अगर देखो तो
बुद्ध विदा हो
जाते हैं, वहां
सिर्फ
विद्युत की
ऊर्जा ही रह
जाती है, वहां
आदमी समाप्त
हो जाता है।
जैसे मैं यहां
बैठा हूं और
गौर से देखा
जाऊं, सिर्फ
कुर्सी दिखाई
पड़े और मैं
विदा हो जाऊं।
तो
बुद्ध को
जिन्होंने
गौर से देखा, वे
कहते थे कि
बुद्ध दिखाई
नहीं पड़ते थे,
वृक्ष ही
दिखाई पड़ता था,
और
जिन्होंने
गौर से नहीं
देखा, वे
कहते थे, बुद्ध
दिखाई पड़ते थे।
इसलिए
आथेंटिक उनका
ही कहना था
जिन्होंने गौर
से देखा था।
पांच सौ साल
तक उनकी बात
मानी गई। पांच
सौ साल तक
उनकी बात मानी
गई जिन्होंने
कहा था कि
नहीं, बुद्ध
कभी नहीं
दिखाई पड़े; जब गौर से
देखा तो वे
नहीं थे, जगह
खाली थी; वृक्ष
ही रह गया था
पीछे।
लेकिन
यह तब तक चल
सका जब तक कि
गौर से
देखनेवाले
लोग थे, और
गैर—गौर से
देखनेवालों
ने माना कि भई,
हमने तो कभी
गौर से देखा
नहीं, इसलिए
हमको तो दिखाई
पड़ते थे।
लेकिन जब यह
वर्ग खोता चला
गया, तब यह
बात मुश्किल
हो गई कि
वृक्ष अकेला
क्यों हो, नीचे
बुद्ध होने चाहिए।
फिर पांच सौ
साल बाद उनकी
प्रतिमा बनाई
गई।
यह
बहुत मजेदार
बात है!
जिन्होंने
जीसस को भी गौर
से देखा उनको
जीसस नहीं
दिखाई पड़े; जिन्होंने
महावीर को गौर
से देखा उनको
महावीर दिखाई
नहीं पड़े; जिन्होंने
कृष्ण को गौर
से देखा उनको
कृष्ण दिखाई
नहीं पड़े। अगर
पूरी अटेंशन
से इस तरह के
लोग देखे जाएं
तो वहां सिर्फ
विद्युत की
ऊर्जा ही
दिखाई पड़ेगी;
वहां कोई
व्यक्ति
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
यह......तुम्हारे
प्रत्येक दो
शरीर के बाद
यह ऊर्जा बड़ी
होती जाएगी।
और चौथे शरीर
के बाद यह
ऊर्जा पूर्ण
हो जाएगी।
पांचवें शरीर
पर ऊर्जा ही
रह जाएगी।
छठवें शरीर पर
यह ऊर्जा अलग
दिखाई नहीं
पड़ेगी, यह
ऊर्जा चांद—तारों
से, आकाश
से, सबसे
जुड़ जाएगी।
सातवें शरीर
पर ऊर्जा भी
दिखाई नहीं
पड़ेगी, पहले
मैटर खो जाएगा,
फिर एनर्जी
भी खो जाएगी; पहले पदार्थ
खो जाएगा, फिर
शक्ति भी खो
जाएगी।
तो
इस लिहाज से
वह सोचने जैसी
बात है।
निर्विचार
की पूरी
उपलब्धि
पांचवें शरीर
में:
प्रश्न:
ओशो
निर्विचार की
स्थायी
उपलब्धि साधक
को किस शरीर
में होती है? क्या
चेतना और विषय
के तादात्म्य
के बिना भी विचार
आ सकते हैं या
विचार के लिए
तादात्म्य आवश्यक
है?
निर्विचार
की पूरी
उपलब्धि
पांचवें शरीर
में होती है, लेकिन
अधूरी झलकें
चौथे शरीर से
शुरू हो जाती हैं।
चौथे शरीर में
विचार चलते
हैं, लेकिन
बीच में दो
विचारों के जो
खाली जगह होती
है वह दिखाई
पड़ने लगती है।
चौथे शरीर के
पहले वह दिखाई
नहीं पड़ती।
चौथे शरीर के
पहले हमें लगता
है कि विचार
ही विचार हैं,
और विचारों
के बीच में जो
गैप है, वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
चौथे शरीर में
गैप दिखाई
पड़ने लगता है
और एस्फेसिस
एकदम बदल जाती
है। अगर तुमने
कभी
गेस्टाल्ट के
कोई चित्र
देखे हैं तो
यह खयाल में आ
सकेगा।
समझ
लें कि एक
सीढ़ियों का
चित्र बनाया
जा सकता है।
वह चित्र ऐसा
बनाया जा सकता
है कि उसे अगर
आप गौर से
देखते रहें तो
एक बार ऐसा
लगे कि सीढ़ियां
नीचे की तरफ आ
रही हैं और एक
बार ऐसा लगे
कि सीढ़ियां
ऊपर की तरफ जा
रही हैं।
लेकिन यह बड़े
मजे की बात है
कि दोनों
चीजें एक साथ
नहीं देखी जा
सकतीं, इसमें
एक को ही तुम
देख सकते हो।
दोबारा जब
तुम्हें
दूसरी चीज
दिखाई पड़ने
लगेगी, तो
पहली नदारद हो
जाएगी।
एक
ऐसा चित्र
बनाया जा सकता
है कि दो
आदमियों के
चेहरे आमने—सामने
दिखाई पड़ें—उनकी
नाक,
उनकी आंख, उनकी दाढ़ी, वह सब दिखाई
पड़े। एक दफा
ऐसा दिखाई पड़े
कि दो आदमी
आमने—सामने
चेहरे करके
बैठे हैं।
इनको काला पोत
दिया है
चेहरों को; बीच में जो
जगह खाली है
वह सफेद है।
और एक दफा ऐसा
दिखाई पड़े कि
बीच में एक
गमला रखा हुआ
है। तो गमले
की कगारे
दिखाई पड़े— वह
नाक और मुंह, वे गमले की
कगारे हो जाएं।
लेकिन ये
दोनों बातें
एक साथ दिखाई नहीं
पड़ सकती हैं।
जब तुम्हें दो
चेहरे दिखाई
पड़ेंगे तो
गमला नहीं
दिखाई पड़ेगा,
और जब
तुम्हें गमला
दिखाई पड़ेगा
तो तुम पाओगे कि
वे दो चेहरे
कहां गए! वे दो
चेहरे नहीं
दिखाई पड़ेंगे।
इसकी तुम लाख
कोशिश करो, तो भी
गेस्टाल्ट
में एस्फेसिस
बदल जाएगी, तब तुम
दोनों न देख
पाओगे। जब
तुम्हारी
एस्फेसिस
चेहरे पर
जाएगी तो गमला
नदारद हो
जाएगा, जब
तुम्हारी
एस्फेसिस
गमले पर जाएगी
तो चेहरे
नदारद हो
जाएंगे।
तीसरे
शरीर तक हमारा
जो माइंड का
गेस्टाल्ट है, उसकी
एस्फेसिस
विचार के ऊपर
है। 'राम
आया'…...तो
राम दिखाई
पड़ता है, आया
दिखाई पड़ता है।
राम और आया के
बीच में जो
खाली जगह है, और राम के
पहले जो खाली
जगह है, और
आया के बाद
में जो खाली
जगह है, वह
नहीं दिखाई
पड़ती।
एस्फेसिस ' राम आया ' पर
है। तो विचार
दिखाई पड़ता है,
बीच का
अंतराल नहीं
दिखाई पडता।
चौथे
शरीर में फर्क
होना शुरू
होता है।
अचानक
तुम्हें ऐसा
लगता है कि
राम आया, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है। जब
राम नहीं आया
था, तब
खाली जगह थी, और जब राम
आया, तब
खाली जगह थी; और जब राम
चला गया, तब
खाली जगह थी।
वह खाली जगह
तुम्हें
दिखाई पड़नी
शुरू हो जाती
है। चेहरे
विदा होते हैं
और गमला दिखाई
पड़ने लगता है।
और जब तुम्हें
खाली जगह
दिखाई पड़ती है,
तब तुम
विचार नहीं कर
सकते। दो में
से एक ही कर
सकते हो जब तक
तुम विचार देखोगे
तो विचार कर
सकते हो, जब
तुम खाली जगह
देखोगे तो
खाली हो जाओगे।
लेकिन यह
बदलता रहेगा
चौथे शरीर में
कभी गमला दिखाई
पड़ने लगेगा, कभी दो
चेहरे दिखाई
पड़ने लगेंगे।
यह चलता रहेगा—
कभी विचार
दिखाई पड़ेंगे,
कभी खाली
जगह दिखाई
पड़ेगी। तो मौन
भी आएगा और
विचार भी
चलेंगे।
मौन और
शून्य में
फर्क:
मौन
में और शून्य
में फर्क यही
है। मौन का
मतलब यह है कि
अभी विचार
समाप्त नहीं हो
गए,
लेकिन
एस्फेसिस बदल
गई है। अब
वाणी से चित्त
हट गया है और
चुप होने को
रसपूर्ण पा
रहा है; लेकिन
अभी वाणी नहीं
हट गई है।
वाणी से चित्त
हट गया है, वाणी
से ध्यान हट
गया है, वाणी
से अटेंशन हट
गई है, अटेंशन
चली गई है मौन
पर, लेकिन
वाणी अभी आती
है; और कभी—कभी
जब पकड़ लेती
है ध्यान को
तो मौन खो
जाता है और
वाणी चलने
लगती है। तो
चौथे शरीर की
आखिरी घड़ियों
में इन दोनों
पर चित्त
बदलता रहेगा।
पांचवें
शरीर पर विचार
एकदम खो
जाएंगे और शून्य
रह जाएगा।
इसको मौन नहीं
कह सकते; क्योंकि
मौन जो है वह
मुखरता की ही
अपेक्षा में
है, बोलने की
ही अपेक्षा
में है। मौन
का मतलब है—न
बोलना। शून्य
का मतलब है—न
बोलना और न न—बोलना,
दोनों नहीं
हैं वहां।
वहां न गमला
रहा, न दो
चेहरे रहे, कागज खाली
हो गया। अब
अगर कोई पूछे
कि चेहरा है
कि गमला? तो
तुम कहोगे, दोनों नहीं
हैं। पांचवें
शरीर पर तो
निर्विचार
पूरी तरह घटित
होगा। चौथे
शरीर पर उसकी
झलक आनी शुरू
हो जाएगी—कभी
दिखाई पड़ेगा।
लेकिन
निर्विचार भी
सदा दो विचार
के बीच में ही
दिखाई पड़ेगा।
पांचवें शरीर
पर निर्विचार
दिखाई पड़ेगा,
विचार नहीं
दिखाई पड़ेगा।
तीसरे
शरीर में
विचारों के
साथ पूरा तादात्म्य:
अब
दूसरा सवाल
तुम्हारा जो
है कि क्या
विचार के साथ
आइडेंटिटी, तादात्म्य
होना जरूरी है
तभी विचार आते
हैं? या
ऐसा भी हो
सकता है कि
कोई विचार से
तादात्म्य न
हो और विचार
आएं?
तीसरे
शरीर तक तो
आइडेंटिटी और
विचार का आना
सदा साथ होता
है। तुम्हारा
तादात्म्य
होता है और
विचार आते हैं।
इनमें कभी
फासले का पता
ही नहीं चलेगा।
तुम्हारा
विचार और तुम
एक ही चीज हो, दो
नहीं हो। जब
तुम क्रोध
करते हो तो यह
कहना गलत है
कि तुम क्रोध
करते हो, यही
कहना उचित है
कि तुम क्रोध
हो जाते हो; क्योंकि 'क्रोध करते
हो ' यह तभी
कहा जा सकता
है जब तुम न भी
कर सको; क्योंकि
करने का मतलब
ही यह होता है
अगर
मैं कहूं कि
मैं हाथ
हिलाता हूं और
फिर तुम मुझसे
कहो कि अच्छा, जरा
रोककर दिखाइए।
मैं कहूं वह
तो नहीं हो
सकता; हाथ
तो हिलता ही
रहेगा। तो फिर
तुम कहोगे कि
फिर आप हिलाते
हैं, इसका
क्या मतलब रहा?
कहिए, हाथ
हिलता है। अगर
आप हिलाते हैं,
तो रोककर
दिखाइए, फिर
हिलाकर
दिखाइए। तो
अगर मैं रोक न
सकूं तो
हिलाने की
मालकियत बेकार
है; उसका
कोई मतलब नहीं
है।
चूंकि
तुम विचार को
रोक नहीं सकते
तीसरे शरीर तक, इसलिए
तुम्हारी
आइडेंटिटी
पूरी है, तुम
ही विचार हो।
इसलिए तीसरे
शरीर तक आदमी के
विचार पर अगर
चोट करो तो उस
पर ही चोट हो
जाती है। अगर
कह दो कि आपकी
बात गलत है तो
उसको ऐसा नहीं
लगता कि मेरी
बात गलत है; उसको लगता
है, मैं
गलत हूं। झगड़ा
जो शुरू होता
है, वह बात
के लिए नहीं
होता, फिर
वह मैं के लिए
झगड़ा शुरू
होता है; क्योंकि
आइडेंटिटी
पूरी है; तुम्हारे
विचार को चोट
पहुंचाना, मतलब
तुम्हें चोट
पहुंचाना हो
जाता है। भला
तुम कहो कि
कोई बात नहीं
है, आप
मेरे विचार के
खिलाफ हैं।
लेकिन भीतर
तुम जानते हो
कि आपकी
खिलाफत हो गई
है।
और
कई बार तो ऐसा
होता है कि
विचार से कोई
मतलब नहीं
होता, चूंकि
वह आपका है, इसलिए झगड़ा
करना पड़ता है;
और कोई मतलब
नहीं होता
उससे।
क्योंकि आप कह
चुके कि मेरी
इससे
आइडेंटिटी है—यह
मेरा मत है, यह मेरी
किताब है, यह
मेरा शास्त्र
है, यह
मेरा सिद्धात
है, यह
मेरा वाद है, तो अब झगड़ा
शुरू होगा।
तीसरे
शरीर तक तुम्हारे
और विचार के
बीच कोई फासला
नहीं होता, तुम
ही विचार होते
हो। चौथे शरीर
में डगमगाहट
शुरू होती है,
तुम्हें
ऐसी झलकें
मिलने लगती
हैं कि मैं
अलग हूं और
विचार अलग है।
लेकिन, फिर
भी तुम अपने
को असमर्थ
पाते हो कि
विचार को रोक
सको। क्योंकि
बहुत गहरी
जड़ों में संबंध
रह जाता है, ऊपर से
संबंध अलग
मालूम होने
लगता है; शाखाओं
पर अलग हो
जाता है, एक
शाखा पर तुम
बैठ जाते हो, दूसरे पर
विचार बैठ
जाता है।
तुम्हें
दिखाई तो पड़ता
है अलग है, लेकिन
नीचे जड़ में
तुम और विचार
एक होते हो।
इसलिए लगता भी
है कि अलग है, लगता भी है
कि अगर मेरा
संबंध टूट जाए,
तो बंद हो
जाएगा; लेकिन
बंद भी नहीं
होता, संबंध
भी किसी गहरे
तल पर बना चला
जाता है।
चौथे
शरीर पर फर्क
पड़ना शुरू
होता है।
तुम्हें यह
झलक मिलने
लगती है कि
विचार कुछ अलग, मैं
कुछ अलग; विचार
कुछ अलग, मैं
कुछ अलग।
लेकिन अभी भी
तुम इसकी
घोषणा नहीं कर
सकते। और अभी
भी विचार का
आना यांत्रिक
होता है— न तो
तुम रोक सकते
हो, न तुम
ला सकते हो।
जैसे
मैंने यह बात
कही कि क्रोध
को रोको, तो
पता चलेगा कि
तुम मालिक हो।
इससे उलटा भी
कहा जा सकता
है कि अभी
क्रोध को लाकर
बताओ, तब
समझेंगे कि
मालिक हो। तो
ला भी नहीं
सकते। कहोगे
कि कैसे ले
आएं! लाएं
कैसे? और
अगर तुम ले आओ,
तो बस उसी
दिन से तुम
मालिक हो
जाओगे, उसी
दिन से तुम
रोक भी सकते
हो—किसी भी
क्षण।
मालकियत जो है
वह लाने, ले
जाने में अलग—अलग
नहीं है, अगर
तुम ले आए तो
तुम रोक भी
सकते हो।
और
यह बड़े मजे की
बात है कि रोकना
जरा कठिन है, लाना
जरा सरल है।
इसलिए अगर
मालकियत लानी
हो तो लाने से
शुरू करना सदा
आसान है, बजाय
रोकने के।
क्योंकि लाती
हालत में तुम
शांत होते हो
न! रोकती हालत
में तुम क्रोध
में होते ही
हो, तो
इसलिए तुम
अपने होश में
भी नहीं होते,
रोकोगे उसे
कैसे? इसलिए
लाने के
प्रयास से
शुरुआत करना
सदा आसान पड़ता
है, बजाय
रोकने के
प्रयास के।
जैसे
तुम्हें हंसी
आ रही है और
तुम नहीं रोक
पा रहे, यह
जरा कठिन है; लेकिन नहीं
आ रही है और
हंसना शुरू
करो, तो
तुम दों—चार
मिनट में हंसी
ले आओगे। और
जब वह आ जाएगी
तब तुम्हें
सीक्रेट भी
पता चल जाएगा
कि आ सकती है—कहा
से आती? कैसे
आती? तब
तुम रोकने का
भी रहस्य जान
सकते हो किसी
दिन, रोका
भी जा सकता है।
निर्विचार
की झलक से
तादात्म्य का
टूटना:
चौथे
शरीर में
तुम्हें फर्क
तो दिखाई पड़ने
लगेगा कि मैं
अलग हूं और
विचार कहीं से
आते हैं, मैं
ही नहीं हूं।
इसलिए चौथे
शरीर में जहां—जहां
निर्विचार
होगा, जो
मैंने पहले
कहा, वहीं—वहीं
तुम्हारा
साक्षी भी आ
जाएगा; और
जहां—जहां
विचार होगा, वहां—वहां
साक्षी खो
जाएगा। वे जो
निर्विचार के
गैप्स हैं, अंतराल हैं,
वहां—वहां
तुम पाओगे कि
ये विचार तो
अलग हैं, मैं
अलग हूं
तादात्म्य
नहीं है।
लेकिन अभी भी
तुम अवश इसको
जानोगे भर, अभी बहुत
कुछ कर न
पाओगे। लेकिन
करने की सारी
चेष्टा चौथे
शरीर में ही करनी
पडती है।
इसलिए
चौथे शरीर की
मैंने दो
संभावनाएं
कहीं एक जो
सहज है वह, और
एक जो साधना
से उपलब्ध
होगी। उन
दोनों के बीच
तुम डोलते
रहोगे। और जिस
दिन साधना से
तुम विवेक को,
चौथे शरीर
की दूसरी
संभावना को—पहली
संभावना
विचार, दूसरी
संभावना
विवेक—दूसरी
संभावना को
उपलब्ध हो
जाओगे, उसी
दिन चौथा शरीर
भी छूटेगा और
तादात्म्य भी छूटेगा।
पांचवें शरीर
में एक साथ ही..
.जब तुम
पांचवें शरीर
में जाओगे तो
दो बातें
छूटेगी. चौथा
शरीर छूटेगा
और तादात्म्य
छूटेगा।
पांचवें
शरीर में
चित्त—वृत्तियों
पर पूर्ण
मालकियत:
पांचवें
शरीर में तुम
विचार को
चाहोगे तो लाओगे, नहीं
चाहोगे तो
नहीं लाओगे।
विचार पहली
दफा साधन
बनेगा और
आइडेंटिटी पर
निर्भर नहीं
रह जाएगा। तुम
चाहोगे कि
क्रोध लाना है
तो तुम क्रोध
ला सकोगे, और
तुम चाहोगे कि
प्रेम लाना है
तो तुम प्रेम ला
सकोगे, और
तुम चाहोगे कि
कुछ नहीं लाना
है तो तुम कुछ नहीं
ला सकोगे, और
तुम चाहो कि
आधे क्रोध को
वहीं कह दो
रुको, तो
वह वहीं रुक
जाएगा। और तुम
जिस विचार को
लाना चाहोगे
वह आएगा और जिसको
नहीं लाना
चाहोगे उसकी
कोई सामर्थ्य
नहीं रह जाएगी।
गुरजिएफ
की जिंदगी में
इस तरह की
बहुत घटनाएं हैं, इसलिए
लोगों ने तो
उसको समझा कि
वह आदमी कैसा आदमी
है! अक्सर तो
वह ऐसा करता
कि अगर उसके
आसपास दो आदमी
बैठे हैं, तो
एक की तरफ इस
तरह से देखता
कि भारी क्रोध
में है और
दूसरे की तरफ
इस तरह से
देखता कि भारी
प्रेम में है—
इतने जल्दी
बदल लेता! और
वे दो आदमी दो
रिपोर्ट लेकर
जाते। दोनों
साथ मिलने आए
थे और एक आदमी
कहता कि बड़ा खतरनाक
अजीब आदमी है;
दूसरा कहता,
कितना
प्रेमी आदमी
है!
यह
बिलकुल संभव
है,
पांचवें
शरीर पर
बिलकुल आसान
है। इसलिए
गुरजिएफ
बिलकुल समझ के
बाहर हो गया
लोगों को कि
वह क्या कर
रहा है! वह
चेहरे पर हजार
तरह के भाव
तत्काल ला
सकता था।
उसमें कोई
कठिनाई न थी
उसको। और लाने
का कुल कारण
इतना था कि
पांचवें शरीर में
तुम पहली दफा
मालिक होते हो,
तुम जो
चाहो! तब
क्रोध और
प्रेम और घृणा
और क्षमा... और
सब... और
तुम्हारे
सारे विचार
तुम्हारा खेल
हो जाते हैं।
इसके पहले
तुम्हारी
जिंदगी थे, इसके बाद
तुम्हारा खेल
हैं। और इसलिए
तुम जब चाहो
तब विश्राम पा
सकते हो।
खेल
से विश्राम
आसान है, जिंदगी
से विश्राम
बहुत मुश्किल
है। अगर मैं
खेल में ही
क्रोध कर रहा
हूं तो तुम्हारे
चले जाने के
बाद इस कमरे
में क्रोध में
नहीं बैठा
रहूंगा। और
अगर मैं खेल
में ही बोल
रहा हूं तो
तुम्हारे चले
जाने के बाद
इस कमरे में
बोलता नहीं
रहूंगा।
लेकिन अगर
बोलना मेरी
जिंदगी है, तो तुम चले
जाओगे तो मैं
बोलता रहूंगा।
कोई नहीं
सुनेगा तो मैं
ही सुनूंगा, मैं ही
बोलूंगा; क्योंकि
वह मेरी
जिंदगी है; वह कोई खेल
नहीं है जिससे
विश्राम हो
जाए, वह
मेरी जिंदगी
है जो चौबीस
घंटे मुझे
पकड़े हुए है।
तो वह आदमी
रात में भी
बोलेगा, सपने
में भी बोलेगा,
सपने में भी
सभा इकट्ठी कर
लेगा, वहां
भी बोलता
रहेगा। सपने
में भी लड़ेगा,
झगड़ेगा; वही
करेगा जो दिन
में किया है; वह चौबीस
घंटे करेगा; क्योंकि वह
जिंदगी है, वह उसका
प्राण है।
विचार :
अपने या पराए?:
पांचवें
शरीर पर
तुम्हारी
आइडेंटिटी
टूट जाती है।
इसलिए
पांचवें शरीर
पर पहली दफा
तुम अपने वश से
मौन होते हो
शून्य होते हो, और
जब जरूरत होती
है तो तुम
विचार करते हो।
तो पांचवें
शरीर से विचार
का पहली दफा
उपयोग शुरू
होता है। अगर
हम इसको ऐसा
कहें तो
ज्यादा ठीक
होगा कि पांचवें
शरीर के पहले
विचार
तुम्हें करता
है और पांचवें
शरीर से तुम
विचार को करते
हो। उसके पहले
तो तुम्हें
कहना ठीक नहीं
है कि हम विचार
करते हैं।
और
पांचवें शरीर
पर एक बात और
पता चलती है
कि विचार केवल
हमारा ही होता
है,
ऐसा भी नहीं
है, दूसरे
के विचार भी
हममें प्रवेश
करते रहते हैं।
ऐसा नहीं है
कि हमारा
विचार हमारा
ही है, उसमें
बहुत चारों
तरफ के विचार
हममें प्रवेश करते
रहते हैं। और
हम अक्सर खयाल
में नहीं होते
कि हम किस विचार
को अपना कह
रहे हैं! वह
किसी और का हो
सकता है।
शक्तिशाली
विचारों की
उम्र लंबी:
एक
हिटलर पैदा होता
है,
तो पूरे
जर्मनी को
अपना विचार दे
देता है, और
पूरे जर्मनी
का आदमी समझता
है कि ये मेरे
विचार हैं। ये
उसके विचार
नहीं हैं। एक
बहुत
डाइनेमिक
आदमी अपने
विचारों को
विकीर्ण कर
रहा है और
लोगों में डाल
रहा है और लोग
उसके विचारों
की सिर्फ
प्रतिध्वनिया
हैं। और यह
डाइनामिज्म
इतना गंभीर और
इतना गहरा है,
कि मोहम्मद
को मरे हजार
साल हो गए, जीसस
को मरे दो
हजार साल हो
गए, क्रिश्चियन
सोचता है कि
मैं अपने
विचार कर रहा
हूं। वह दो
हजार साल पहले
जो आदमी छोड़
गया है तरंगें,
वे अब तक
पकड़ रही हैं।
महावीर या
बुद्ध या
कृष्ण या क्राइस्ट—
अच्छे या बुरे
कोई भी तरह के
डाइनेमिक लोग—जो
छोड़ गए हैं वह
तुम्हें पकड़
लेता है।
तैमूरलंग ने
अभी भी पीछा
नहीं छोड़ दिया
है मनुष्यता
का और न
चंगीजखा ने
छोड़ा है, न
कृष्ण ने छोड़ा
है, न राम
ने छोड़ा है।
पीछा वे नहीं
छोड़ते। उनकी
तरंगें पूरे
वक्त डोल रही
हैं। तुम जिस
तरंग को पकड़ने
की हालत में
होते हो, उसको
पकड़ लेते हो।
विचारों
के सागर से
घिरा व्यक्ति:
इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
सुबह एक आदमी
बहुत भला था
और दोपहर होते—होते
बुरा हो गया।
सुबह वे राम
की तरंगों में
रहे हों, दोपहर
चंगीजखा की
तरंगों में
हैं! रिसेप्टिविटी
है, और समय
से फर्क पड़
जाता है। सुबह
भिखमंगा
तुम्हारे
दरवाजे पर भीख
मांगने आता है,
क्योंकि
सुबह सूरज के
उगने के साथ
बुरी तरंगों
का प्रभाव
सर्वाधिक कम
होता है
पृथ्वी पर।
सूरज के थकते—
थकते प्रभाव
बढ़ना शुरू हो
जाता है। सांझ
को भिखारी भीख
मांगने नहीं आता,
क्योंकि
सांझ को आशा
नहीं है दया
की किसी से भी।
सुबह थोड़ी आशा
है, कि अगर
सुबह उठे आदमी
से हम कहेंगे
कि दो पैसा दे
दे, तो वह
एकदम से इनकार
न कर पाएगा; सांझ को हां
भरना जरा
मुश्किल हो
जाएगा। दिन भर
में उसका सब
हां थक गया है
बुरी तरह से, अब वह इनकार
करने की हालत
में है। अब
उसकी सारी
चित्त—दिशा और
है, सारी
पृथ्वी का
वातावरण भी और
है।
तो
जो विचार हमें
लगते हैं
हमारे हैं, वे
भी हमारे नहीं
हैं। यह
तुम्हें
पांचवें शरीर
में ही पता
चलेगा जाकर कि
क्या
आश्चर्यजनक
है— विचार भी
बाहर से आता
और जाता है!
तुम पर विचार भी
आता और जाता
है; और
तुम्हें
पकड़ता है और
छोड़ता है। और
हजारों तरह के
विचार, और
बहुत
कट्राडिक्टरी,
आपस में
विरोधी विचार
आदमी को पकड़े
हुए हैं। इतने
विरोधी विचार
पकड़े हुए हैं,
इसीलिए
इतना कनफ्यूजन
है, एक—एक
आदमी इतना कनफ्यूज्ड
है। अगर
तुम्हारे ही
विचार हों, तो कनफ्यूजन
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन एक हाथ
चंगीजखा पकड़े
हुए हैं, दूसरा
हाथ कृष्ण
पकड़े हुए हैं,
अब कनफ्यूजन
होनेवाला है,
क्योंकि
दोनों के
विचार
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कि
तुम कब तैयारी
दिखाओ, वे
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर जाएं। वे
सब मौजूद हैं
चारों तरफ।
पांचवें
शरीर में
विचार—मुक्ति:
यह
पांचवें शरीर
में तुम्हें
पता चलेगा, तुम्हारी
आइडेंटिटी
पूरी टूट
जाएगी। लेकिन
तब, जैसा
मैंने कहा कि
जो बड़ा भारी
फर्क होगा वह
यह होगा कि
इसके पहले
तुम्हारे पास
थॉट्स थे, विचार
थे, इसके
बाद तुम्हारे
पास थिंकिंग
होगी, विचारणा
होगी। और
इनमें भी फर्क
है।
विचार
आणविक, एटामिक
चीजें हैं।
तुम पर आते
हैं, पराए
होते हैं सदा।
ऐसा अगर हम
कहें कि विचार
सदा पराए होते
हैं, तो
हर्जा नहीं है।
विचारणा अपनी
होती है, विचार
सदा पराए होते
हैं; थिंकिंग
अपनी होती है,
थॉट हमेशा
पराया होता है।
तो
पांचवें शरीर
से तुम में
थिंकिंग पैदा
होगी, तुम
विचार कर
सकोगे। तुम
सिर्फ
विचारों को
पकड़कर
संगृहीत किए
हुए नहीं बैठे
रहोगे। और
इसलिए
पांचवें शरीर
की जो विचारणा
है, उसका
कोई बोझ तुम
पर नहीं होगा,
वह
तुम्हारी
अपनी है। और
पांचवें शरीर
पर चूंकि
विचारणा का
जन्म हो जाएगा,
उसको प्रज्ञा
कहो—जो भी नाम
देना चाहें, हम दें—पांचवें
शरीर पर चूंकि
तुम्हारी
अपनी इनटचूशन,
अपनी प्रज्ञा,
अपनी
बुद्धि, अपनी
मेधा जग जाएगी,
इस पांचवें
शरीर के बाद
तुम पर दूसरों
के विचारों का
समस्त प्रभाव
क्षीण हो
जाएगा। इस
अर्थों में भी
तुम आत्मवान
बनोगे, इस
अर्थ में भी
तुम आत्मा को
उपलब्ध हो
जाओगे, तुम
स्वयं हो
जाओगे; क्योंकि
तुम्हारे पास
अब अपनी
विचारणा है, अपनी विचार—शक्ति
है, और
तुम्हारे पास
देखने की अपनी
आंख है, अपना
दर्शन है।
इसके बाद तुम
जो चाहोगे, वह आ जाएगा; तुम जो
चाहोगे, वह
नहीं आएगा; तुम जो
सोचोगे, सोच
सकोगे, तुम
जो नहीं
सोचोगे, नहीं
सोच सकोगे।
तुम मालिक हो।
और यहां से
आइडेंटिटी का
कोई सवाल नहीं
रह जाता है।
छठवें
शरीर में
विचारणा भी
अनावश्यक:
प्रश्न : और
छठवें शरीर
में?
छठवें
शरीर में
विचारणा की भी
कोई जरूरत
नहीं रह जाती
है। चौथे शरीर
तक विचार की
जरूरत है; पांचवें
शरीर पर
विचारणा, थिंकिंग,
प्रज्ञा; छठवें शरीर
पर वह भी
समाप्त हो
जाती है।
क्योंकि
छठवें शरीर पर
तुम वहां होते
हो जहां कोई
जरूरत ही नहीं
होती, तुम
कास्मिक हो
जाते हो; तुम
ब्रह्म के साथ
एक हो जाते हो,
अब कोई दूसरा
बचता नहीं।
असल
में,
सब विचार
दूसरे के साथ
संबंध है।
चौथे शरीर के
पहले का जो
विचार है, वह
मूर्च्छित संबंध
है—अरे के साथ।
पांचवें शरीर
पर जो विचार
है वह अमूर्च्छित
संबंध है, लेकिन
दूसरे के ही
साथ। आखिर
विचार की
जरूरत क्या है?
विचार की
जरूरत है
क्योंकि दूसरे
से संबंधित
होना है। चौथे
तक मूर्च्छित
संबंध है, पांचवें
पर जाग्रत
संबंध है, छठवें
पर संबंध के
लिए कोई नहीं
बचता—रिलेटेड
नहीं बचते, कास्मिक हो
गए, तुम और
मैं एक ही हो
गए। तो अब तो
कोई सवाल नहीं
बचता, विचार
की अब कोई जगह
नहीं बचती
जहां विचार
खडा हो।
छठवें
शरीर में केवल
ज्ञान शेष:
इसलिए
ब्रह्म शरीर
है छठवां, वहां
कोई विचार
नहीं है।
ब्रह्म में
विचार नहीं है।
इसलिए अगर ठीक
से कहें तो हम
इसको ऐसा कह
सकते हैं कि
ब्रह्म में
जान है। असल
में, विचार
जो है—चौथे
शरीर तक
मूर्च्छित
विचार— गहन
अज्ञान है, क्योंकि वह
इस बात की खबर
है कि हमें
विचार की
जरूरत है अज्ञान
से लड़ने के
लिए। पांचवें
शरीर में भीतर
तो ज्ञान है, लेकिन बाहर
जो हमसे अन्य
है, उसके
बाबत अब भी
अज्ञान है, अभी भी वह
अन्य दिखाई पड़
रहा है। इसलिए
पांचवें शरीर
में विचार
करने की जरूरत
है। छठवें
शरीर में बाहर
और भीतर कोई
भी नहीं रहा—बाहर—
भीतर न रहा, मैं—तू न रहा,
यह—वह न रहा—
अब कोई फासला
न रहा जहां
विचार की
जरूरत है, अब
तो जो है सो है।
इसलिए छठवें
शरीर में
ज्ञान है, विचार
नहीं है।
सातवां
शरीर
ज्ञानातीत है:
सातवें
में ज्ञान भी
नहीं है, क्योंकि
जो जानता था, अब वह भी
नहीं है, जो
जाना जा सकता
था, वह भी
नहीं है।
इसलिए सातवें
में ज्ञान भी
नहीं है।
अज्ञान नहीं,
ज्ञानातीत
है सातवीं
अवस्था—
बियांड नालेज
है। कोई चाहे
तो उसको
अज्ञान भी कह सकता
है। इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
परम ज्ञानी और
परम अज्ञानी
कभी—कभी
बिलकुल एक से
मालूम पड़ते
हैं। जो परम
ज्ञानी है
उसमें और परम
अज्ञानी में कई
बार बड़ा एक सा
व्यवहार होगा।
इसलिए छोटे
बच्चे में और
ज्ञान को
उपलब्ध बूढ़े
में बड़ी
समानता हो
जाएगी; वस्तुत:
नहीं, लेकिन
बड़ा ऊपर से एक
सा दिखाई पड़ने
लगेगा। कभी—कभी
परम संत का व्यवहार
बिलकुल बच्चे
जैसा हो जाएगा;
कभी—कभी
बच्चे के
व्यवहार में
परम संतता की
झलक दिखाई
पड़ेगी। और कभी—कभी
परम ज्ञानी जो
है वह परम
अज्ञानी हो
जाएगा, बिलकुल
जड़भरत हो
जाएगा। वह ऐसा
मालूम पड़ने
लगेगा कि इससे
अज्ञानी और कौन
होगा! क्योंकि
वह भी बियांड
नालेज है और
यह बिलो नालेज
है। एक ज्ञान
के आगे चला
गया, एक
ज्ञान के अभी
पीछे खड़ा है; इन दोनों
में एक समानता
है कि ज्ञान
के बाहर हैं, दोनों ज्ञान
के बाहर हैं, इतनी समानता
है।
समाधि
के तीन प्रकार:
प्रश्न:
ओशो जिसे आप
समाधि कहते है?
वह किस शरीर
की उपलब्धि है?
असल में, बहुत
तरह की समाधि
हैं। इसलिए एक
समाधि तो चौथे
शरीर और
पांचवें शरीर
के बीच में
घटेगी। और यह
भी ध्यान रहे
कि समाधि जो
है, वह सदा
दो शरीरों के
बीच में घटती
है; वह
संध्याकाल है।
समाधि जो है
वह किसी एक
शरीर की घटना
नहीं है, दो
शरीरों के बीच
की घटना है; वह संध्याकाल
है। जैसे अगर
कोई पूछे कि
संध्या, सांझ
दिन की घटना
है कि रात की? तो हम
कहेंगे कि
सांझ न दिन की
घटना है, न
रात की; रात
और दिन के बीच
की घटना है।
ऐसे
ही समाधि जो
है,
एक समाधि, पहली समाधि
चौथे और
पांचवें शरीर
के बीच में घटती
है। चौथे—पांचवें
शरीर के बीच में
जो समाधि घटती
है, उसी से
आत्मज्ञान
उपलब्ध होता
है। एक समाधि
पांचवें और
छठवें शरीर के
बीच में घटती
है। पांचवें
और छठवें शरीर
के बीच में जो
समाधि घटती है,
उससे
ब्रह्मज्ञान
उपलब्ध होता
है। एक समाधि
छठवें और
सातवें के बीच
में घटती है।
छठवें और
सातवें के बीच
में जो घटती
है, उससे
निर्वाण
उपलब्ध होता
है। तो तीन
समाधियां हैं
साधारणत:। तो
ये तीन
समाधियां तीन
शरीरों के बीच
में घटती हैं।
चौथे
शरीर में
समाधि की
मानसिक झलक:
और
एक फाल्स
समाधि को भी
समझ लेना
चाहिए, जो
समाधि नहीं है,
लेकिन चौथे
शरीर में घटती
है; लेकिन
समाधि जैसी
प्रतीत होती
है। जिसको
जापान में झेन
सतोरी कहते
हैं, वह
सतोरी इसी तरह
की समाधि है।
वह वस्तुत:
समाधि नहीं है।
जैसे
एक चित्रकार
को घट जाता है
कभी,
एक
मूर्तिकार को
घटता है, एक
संगीतज्ञ को
घटता है—कि
कभी वह लीन हो
जाता है पूरी
तरह और बड़े
आनंद का अनुभव
करता है।
लेकिन वह चौथे,
साइकिक
शरीर की
घटनाएं हैं।
अगर चौथे शरीर
में चित्त
बिलकुल
समाहित और लीन
हो जाए किसी
भी बात को
लेकर—सुबह
सूरज को उगता
देखकर, एक
संगीत की धुन
सुनकर, एक
नृत्य को
देखकर, एक
फूल को खिलते
देखकर— अगर
चित्त बिलकुल
लीन हो जाए, तो एक फाल्स
समाधि, एक
मिथ्या समाधि
घटित होती है।
ऐसी मिथ्या
समाधि
हिम्पोसिस से
पैदा हो सकती है।
ऐसी मिथ्या
समाधि मिथ्या
शक्तिपात से
घटित हो सकती
है। ऐसी
मिथ्या समाधि
शराब से, गांजे
से, चरस से,
मेस्कलीन
से, मारिजुआना
से, एल एस
डी से पैदा हो
सकती है।
तो
चार तरह की
समाधियां
हुईं, अगर ऐसा
समझें तो। तीन
समाधियां जो
आथेंटिक, प्रामाणिक
समाधियां हैं,
उनमें भी
तारतम्यता है।
और एक चौथी
झूठी समाधि, जो बिलकुल
समाधि जैसी
मालूम पड़ती है,
लेकिन
सिर्फ समाधि
का खयाल होती
है, घटना
नहीं होती। और
धोखे में डाल
सकती है। और
अनेक लोगों को
धोखे में डाला
हुआ है।
और
किस शरीर में
घटती है? सिर्फ
फाल्स समाधि
चौथे शत्तर
में घटती है।
सिर्फ झूठी
समाधि जो है, वह संध्या
नहीं है; वह
किसी शरीर में
घटती है; वह
चौथे शरीर में
घटती है। बाकी
तीनों
समाधियां
शरीरों के
बाहर घटती हैं,
संक्रमण
काल में, जब
एक शरीर से
तुम दूसरे में
जा रहे होते
हो—तब। समाधि
एक द्वार है, पैसेज है।
चौथे
से पांचवें के
बीच में एक
समाधि है, जिससे
आत्मज्ञान
उपलब्ध होता
है। पहली
समाधि पर आदमी
रुक सकता है।
पहली तो बहुत
बड़ी बात है, आमतौर से तो
चौथे की फाल्स
समा।सृ पर रुक
जाता है।
क्योंकि वह
सरल है बहुत; खर्च कम
पड़ता, मेहनत
नहीं होती; और ऐसे ही
पैदा हो सकती
है। उसमें
रुँक जाता है।
पहली समाधि
बहुत कठिन बात
हो जाती है—चौथे
से पांचवें की
यात्रा।
दूसरी समाधि
और कठिन हो
जाती है— आत्मा
से परमात्मा
की यात्रा। और
तीसरी तो
सर्वाधिक
कठिन हो जाती
है। तो उसके
लिए जो शब्द
खोजे गए, वे
सब कठिन है— वज्र—
भेद! वह
सर्वाधिक
कठिन है—होने
से न होने की
यात्रा, जीवन
से मृत्यु में
छलांग, अस्तित्व
से अनस्तित्व
में डूब जाना।
श वे तीन
समाधियां हैं।
प्रश्न:
उनके कोई नाम
हैं?
पहली
को आत्म समाधि
कहो,
दूसरी को
ब्रह्म समाधि
कहो, तीसरी
को निर्वाण
समाधि कहो; और पहली को......
और भी पहली को,
मिथ्या
समाधि कहो। और
उससे सबसे
ज्यादा बचने
की जरूरत है, क्योंकि वह
जल्दी से
उपलब्ध हो
सकती है, चौथे
शरीर में घटती
है। और इसको
भी एक शर्त और
कसौटी समझ
लेना कि अगर
किसी शरीर में
घटे तो फाल्स
होगी। दो
शरीरों के बीच
में ही घटनी
चाहिए। वह
द्वार है।
उसको बीच कमरे
में होने की
कोई जरूरत
नहीं है। उसको
कमरे के बाहर
होना चाहिए और
दूसरे कमरे के
जोड़ पर होना
चाहिए। वह
पैसेज है, मार्ग
है।
कुंडलिनी
शक्ति और सर्प
में समानताएं:
प्रश्न:
ओशो कुंडलिनी
शक्ति का
प्रतीक सांप
को क्यों माना
गया है? कृपया
उसके सभी
कारणों का
उल्लेख करें।
थियोसाफी के
एंबलम, प्रतीक
में एक
वृत्ताकार
सांप हे जिसकी
पूंछ मुंह के
अंदर है।
रामकृष्ण
मिशन के
प्रतीक में
सांप के फन को
स्पर्श करती
हुई उसकी पूछ
है। कृपया इनका
अर्थ भी
स्पष्ट करें।
कुंडलिनी
के लिए सर्प
का प्रतीक बड़ा
मौजूं है।
शायद उससे
अच्छा कोई
प्रतीक नहीं
है। इसलिए
कुंडलिनी में
ही नहीं, सर्प
ने बहुत—बहुत
यात्राएं की
हैं, उसके
प्रतीक ने। और
दुनिया के
किसी कोने में
भी ऐसा नहीं
है कि सर्प
कभी न कभी उस
कोने के धर्म
में प्रवेश न
कर गया हो।
क्योंकि सर्प
में कई खुबियां
हैं जो
कुंडलिनी से
तालमेल खाती
हैं।
पहली
तो बात यह कि
सर्प का खयाल
करते ही सरकने
का खयाल आता
है। और
कुंडलिनी का
पहला अनुभव
किसी चीज के
सरकने का
अनुभव है, कोई
चीज जैसे सरक
गई—जैसे सर्प
सरक गया।
सर्प
का खयाल करते
ही एक दूसरी
चीज खयाल में आती
है कि सर्प के
कोई पैर नहीं
हैं,
लेकिन गति
करता है, गति
का कोई साधन
नहीं है उसके
पास, कोई
पैर नहीं हैं,
लेकिन गति
करता है।
कुंडलिनी के
पास भी कोई
पैर नहीं हैं,
कोई साधन
नहीं है, निपट
ऊर्जा है, फिर
भी यात्रा
करती है।
तीसरी
बात जो खयाल
में आती है कि
सर्प जब बैठा
हो,
विश्राम कर
रहा हो, तो
कुंडल मारकर
बैठ जाता है।
जब कुंडलिनी
बैठी हालत में
होती है, हमारे
शरीर की ऊर्जा
जब जगी नहीं
है, तो वह
भी कुंडल मारे
ही बैठी रहती
है। असल में, एक ही जगह पर
बहुत लंबी चीज
को बैठना हो तो
कुंडल मारकर
ही बैठ सकती
है, और तो
कोई उपाय भी
नहीं है उसके
बैठने का।
वह
कुंडल लगाकर
बैठ जाए तो
बहुत लंबी चीज
भी बहुत छोटी
जगह में बन
जाए। और बहुत
बड़ी शक्ति
बहुत छोटे से
बिंदु पर बैठी
है,
तो कुंडल
मारकर ही बैठ
सकती है। फिर
सर्प जब उठता
है, तो एक—एक
कुंडल टूटते
हैं उसके—जैसे—जैसे
वह उठता है
उसके कुंडल
टूटते हैं।
ऐसा ही एक—एक
कुंडल
कुंडलिनी का
भी टूटता हुआ
मालूम पड़ता है,
जब
कुंडलिनी का
सर्प उठना
शुरू होता है।
सर्प
कभी खिलवाड़
में अपनी पूंछ
भी पकड़ लेता
है। सर्प का
पूंछ पकड़ने का
प्रतीक भी
कीमती है। और
अनेक लोगों को
वह खयाल में
आया कि वह
पकड़ने का, पूंछ
को पकड़ लेने
का प्रतीक बड़ा
कीमती है। वह
कीमती इसलिए
है कि जब
कुंडलिनी
पूरी जागेगी,
तो वह
वर्तुलाकार
हो जाएगी और
भीतर उसका
वर्तुल बनना
शुरू हो जाएगा—उसका
फन अपनी ही
पूंछ पकड़ लेगा;
सांप एक
वर्तुल बन
जाता।
अब
कोई प्रतीक
ऐसा हो सकता
है कि सांप के
मुंह ने उसकी
पूंछ को पकड़ा।
अगर पुरुष
साधना की
दृष्टि से
प्रतीक बनाया
गया होगा तो
मुंह पूंछ को
पकड़ेगा—
आक्रामक होगा।
और अगर स्त्री
साधना के
ध्यान से
प्रतीक बनाया
गया होगा तो
पूंछ मुंह को
छूती हुई
मालूम पड़ेगी—समर्पित
पूंछ है वह, मुंह
ने पकड़ी नहीं
है। यह फर्क
पड़ेगा प्रतीक
में, और
कोई फर्क
पडनेवाला
नहीं है।
सहस्रार
में कुंडलिनी
का पूरा
विस्तार:
यह
जो सर्प का जो
फन है, यह भी
सार्थक मालूम
पड़ा। क्योंकि
पूंछ तो उसकी
पतली होती है,
लेकिन उसका
फन बड़ा होता
है। और जब कुंडलिनी
पूरी की पूरी
जागती है, तो
सहस्रार में
जाकर फन की
भांति फैल
जाती है।
उसमें बहुत
फूल खिलते हैं,
वह बहुत
विस्तार ले
लेती है; पूंछ
तब उसकी बहुत
छोटी रह जाती
है।
सर्प
जब कभी खड़ा
होता है तो
बड़ा
आश्चर्यजनक
है. वह पूंछ के
बल पूरा खड़ा
हो जाता है।
वह भी एक मिरेकल
है,
एक चमत्कार
है। सर्प में
हड्डी नहीं
होती, वह
बिना हड्डी का
जानवर है, लेकिन
वह पूंछ के बल
खड़ा हो सकता
है। और जब
बिना हड्डी का
जानवर, कोई
रेंगता हुआ
पशु—सर्प जैसा—बिना
हड्डियों के,
पूंछ के बल
पूरा खड़ा हो
जाता है, तो
वह निपट ऊर्जा
के सहारे खड़ा
है। और कोई
उपाय नहीं; उसके पास और
ठोस साधन नहीं
हैं खड़े होने
कें—सिर्फ
शक्ति के बल, सिर्फ
संकल्प के बल
खड़ा है। खड़ा
होने में कोई
बहुत
मैटीरियल
ताकत नहीं है
उसके पास। समझ
रहे हैं मेरा
मतलब?
तो
जब हमारी
कुंडलिनी
पूरी जागकर
खड़ी होती है तो
उसके पास कोई
मैटीरियल
सहारा नहीं
होता, एकदम
इम्मैटीरियल
फोर्स...... .इसलिए
सर्प प्रतीक
की तरह लगा।
और
भी कई कारण थे
जो सर्प में
लगे सार्थक।
जैसे, एक अर्थ
में सर्प बहुत
इनोसेंट है, बड़ा भोला है।
इसलिए
भोलेशंकर
उसको सिर पर
रखे हुए हैं।
वह बहुत भोला
है, एकदम
भोला है। ऐसे
अपनी तरफ से
किसी को सताने
नहीं जाता।
लेकिन अगर कोई
छेड़ दे तो
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है।
तो यह खयाल भी
कुंडलिनी में
है कि
कुंडलिनी ऐसे
बहुत इनोसेंट
शक्ति है, अपनी
तरफ से
तुम्हें
परेशान नहीं
करती। लेकिन
अगर तुम गलत
ढंग से छेड़ दो
तो खतरे में पड़
सकते हो, भारी
खतरा हो सकता
है। इसलिए गलत
ढंग से छेड़ना
खतरनाक है, वह बोध भी
खयाल में है।
ये
सारी बातों को
ध्यान में
रखकर वह
प्रतीक.. .उससे
बेहतर कोई
प्रतीक दिखाई
नहीं पड़ा—सर्प
से बेहतर। और
सारी दुनिया
में सर्प जो
है वह विजडम
का प्रतीक भी
है,
प्रज्ञा का
प्रतीक भी है।
जीसस का वचन
है सर्प जैसे
बुद्धिमान, चालाक और
कबूतर जैसे
भोले—ऐसे बनो।
सर्प बहुत ही
बुद्धिमान
प्राणी है—बहुत
सजग, बहुत
जागरूक, बहुत
तेज, बहुत
गतिमान, वे
सब उसकी
खूबियां हैं।
कुंडलिनी भी
वैसी चीज है।
बुद्धिमत्ता
का चरम शिखर
उससे छुआ
जाएगा। उतनी
ही चपल और
गतिमान भी है।
उतनी ही
शक्तिशाली भी
है।
कुंडलिनी
का आधुनिक
प्रतीक—विद्युत
व राकेट:
तो
पुराने दिनों
में जब यह
प्रतीक खोजा
गया कुंडलिनी
के लिए, तब
शायद सर्प से
बेहतर कोई
प्रतीक नहीं
था। अब भी
नहीं है; लेकिन
शायद भविष्य
में और प्रतीक
हो जाएं—
राकेट की तरह।
कभी भविष्य का
कोई खयाल
राकेट की तरह
कुंडलिनी को
पकड़ सकता है; वैसी उसकी
यात्रा है— एक
अंतरिक्ष से
दूसरे
अंतरिक्ष, एक
ग्रह से दूसरे
ग्रह में, बीच
में शून्य की
पर्त है। वह
कभी प्रतीक बन
सकता है।
प्रतीक तो युग
खोजता है। यह
प्रतीक तो उस
दिन खोजा गया
जब आदमी और पशु
बड़े निकट थे।
उस वक्त सारे
प्रतीक हमने
पशुओं से खोजे,
क्योंकि
हमारे पास वही
तो जानकारी थी,
उन्हीं से
हम खोजते थे।
सर्प उस समय
हमारी नजर में
सबसे निकटतम
प्रतीक था।
जैसे
विद्युत— उस
दिन हम नहीं
कह सकते थे।
आज जब मैं बात
करता हूं तो
कुंडलिनी के
साथ इलेक्ट्रिसिटी
की बात कर
सकता हूं। आज
से पांच हजार
साल पहले
कुंडलिनी के
साथ विद्युत
की बात नहीं
की जा सकती थी, क्योंकि
विद्युत का
कोई प्रतीक
नहीं था।
लेकिन सर्प
में विद्युत
जैसी क्वालिटी
भी है। हमें
अब कठिन मालूम
होता है, क्योंकि
हममें से
बहुतों के
जीवन में सर्प
का कोई अनुभव
ही नहीं है।
हमारी बड़ी
कठिनाई है, क्योंकि
हमारे लिए
सर्प का कोई
अनुभव नहीं है।
कुंडलिनी का
तो है ही नहीं,
सर्प का भी
बहुत अनुभव
नहीं है। सर्प
हमारे लिए
जैसे एक मिथ
है।
आधुनिक
युग में सर्प
से अपरिचय और
कुंडलिनी से
भी:
अभी
पिछली दफा
लंदन में
बच्चों का एक
सर्वे किया
गया,
तो लंदन में
सात लाख ऐसे
बच्चे हैं
जिन्होंने गाय
नहीं देखी। तो
जिन बच्चों ने
गाय न देखी हो,
उन्होंने
सर्प देखा हो,
यह जरा
मुश्किल
मामला है। अब
जिन बच्चों ने
गाय नहीं देखी
है, अब
इनका चिंतन, इनका सोचना,
इनके
प्रतीक बहुत
भिन्न हो
जाएंगे।
सर्प
बाहर हो गया
दुनिया से, वह
हमारी दुनिया
का अब हिस्सा
नहीं है बहुत।
कभी वह हमारा
बहुत निकट
पड़ोसी था; चौबीस
घंटे साथ था, सत्संग था।
और तब आदमी ने
उसकी सब
चपलताएं देखी
हैं, उसकी
बुद्धिमानी
देखी है, उसकी
गति देखी है; उसकी सरलता
भी देखी है, उसका खतरा
भी देखा है, वह सब देखा
है। ऐसी
घटनाएं हैं जब
कि कोई सर्प
एक बच्चे को
बचा ले। एक
निरीह बच्चा
पड़ा है, और
सर्प उस पर फन
मारकर बैठ जाए
और उसको बचा
ले। वह इतना
भोला भी है।
और ऐसी भी
घटनाएं हैं कि
वह खतरनाक से
खतरनाक आदमी
को एक दंश मार
दे और समाप्त
कर दे। वे
दोनों उसकी
संभावनाएं
हैं।
तो
जब आदमी सर्प
के बहुत निकट
रहा होगा, तब
उसको पहचाना
था वह। उसी
वक्त
कुंडलिनी की
बात भी चली थी,
वे दोनों
तालमेल खा गए।
वह बहुत
पुराना
प्रतीक बन गया।
लेकिन सब
प्रतीक
अर्थपूर्ण
हैं। क्योंकि
जब बनाए गए
हैं हजारों
साल में, तो
उनके पीछे कोई
तालमेल है।
लेकिन अब टूट
जाएगा, बहुत
दिन सर्प का
प्रतीक नहीं
चलेगा। अब
बहुत दिन तक
हम कुंडलिनी
को सरपेंट
पावर नहीं कह
सकेंगे।
क्योंकि सर्प
बेचारा अब
कहां है! अब
उसमें उतनी
शक्ति भी कहां
है! अब वह
जिंदगी के
रास्ते पर
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता। वह
कहीं हमारा
पड़ोसी भी नहीं
रहा, हमारे
पास भी नहीं
रहता। उससे
हमारे कोई
संबंध नहीं रह
गए हैं। इसलिए
यह सवाल उठता
है, नहीं
तो पहले यह
कभी सवाल नहीं
उठ सकता था, क्योंकि
सर्प एकमात्र
प्रतीक था।
शारीरिक
संरचना में
रूपांतरण:
प्रश्न
: ओशो ऐसा कहा
गया है कि कुंडलिनी
जब जागती है तो
वह खून पी
जाती है मांस
खा जाती है।
इसका क्या
अर्थ है?
हां, इसका
अर्थ होता है,
इसका अर्थ
होता है। इसका
अर्थ...... और
बिलकुल वैसा
ही होता है, जैसा कहा
गया है; प्रतीक
अर्थ नहीं
होता। असल में,
कुंडलिनी
जागे तो शरीर
में बड़े
रूपांतरण होते
हैं; बड़े
रूपांतरण
होते हैं। कोई
भी ऊर्जा शरीर
में जागेगी नई,
तो शरीर का
पुराना पूरा
का पूरा
कपोजीशन बदलता
है। बदलेगा ही।
जैसे, हमारा
शरीर कई तरह
के व्यवहार कर
रहा है जिनका
हमें पता नहीं
है, जो
अनजाने और अनकांशस
हैं। जैसे
कंजूस आदमी है।
अब कंजूसी तो
मन की बात है, लेकिन शरीर
भी उसका कंजूस
हो जाएगा। और
शरीर उन
तत्वों को
डिपॉजिट करने
लगेगा जिनकी
भविष्य में
जरूरत है।
अकारण इकट्ठे
कर लेगा, इतने
इकट्ठे कर
लेगा कि उनके
इकट्ठे होने
से परेशानी
में पड़ जाएगा।
वे बोझिल हो
जाएंगे।
अब
एक आदमी बहुत
भयभीत है। तो
शरीर उन
तत्वों को
बहुत इकट्ठे
करके रखेगा
जिनसे भय पैदा
किया जा सकता
है। नहीं तो
कभी भय का
तत्व न रहे
पास,
और तुम्हें
भयभीत होना है,
तो शरीर
क्या करेगा? तुम उससे
मांग करोगे—मुझे
भयभीत होना
है! और शरीर के
पास भय की
ग्रंथियां
नहीं हैं, भय
का रस नहीं है,
तो क्या
करेगा? तो
वह इकट्ठा
करता है।
भयभीत आदमी का
शरीर भय की
ग्रंथियां
इकट्ठी कर
लेता है, भय
इकट्ठा कर
लेता है। अब
जिस आदमी को
भय में पसीना
छूटता है, उसके
शरीर में
पसीने की
ग्रंथियां
बहुत मजबूत हो
जाती हैं और
बहुत पसीना वह
इकट्ठा करके रखता
है। कभी भी, रोज दिन में
दस दफे जरूरत
पड़ जाती है।
तो
हमारा शरीर जो
है,
वह हमारे
चित्त के
अनुकूल बहुत
कुछ इकट्ठा करता
रहता है। जब
हमारा चित्त
बदलेगा तो
शरीर बदलेगा।
और जब हमारा
चित्त बदलेगा
और कुंडलिनी
जागेगी तो
पूरा
रूपांतरण
होगा। उस
रूपांतरण में
बहुत कुछ
बदलाहट होगी।
उसमें
तुम्हारा मांस
कम हो सकता है,
तुम्हारा
खून कम हो
सकता है, लेकिन
उतना ही कम हो
सकता है जितने
की तुम्हारे
लिए जरूरत रह
जाए। शरीर
एकदम
रूपांतरित
होगा। शरीर के
लिए जितना
निपट आवश्यक
है, वह रह
जाएगा, शेष
सब जलकर खाक
हो जाएगा—तभी
तुम हलके हो
पाओगे, तभी
उड़ने योग्य हो
पाओगे। वह
होगा फर्क।
इसलिए
वह ठीक है
खयाल उनका।
इसलिए साधक को
एक विशेष
प्रकार का
भोजन, एक
विशेष प्रकार
की जीवन
व्यवस्था, वह
सब जरूरी है।
अन्यथा वह
बहुत मुश्किल
में पड़ सकता
है।
कुंडलिनी
की आग में सब
कचरा भस्म:
फिर
कुंडलिनी जब
जागेगी, तुम्हारे
भीतर बहुत
गर्मी पैदा
होगी; क्योंकि
वह तो
इलेक्ट्रिक
फोर्स है; वह
तो बहुत
तापग्रस्त
ऊर्जा है।
जैसा कि मैंने
तुमसे कहा कि
सर्प एक
प्रतीक है, कुछ जगह
कुंडलिनी को
अग्नि ही
प्रतीक समझा
गया है। वह भी
अच्छा प्रतीक
था। तो वह आग
की तरह ही
जलेगी
तुम्हारे
भीतर और लपटों
की तरह ऊपर
उठेगी। उसमें
तुम्हारा
बहुत कुछ
जलेगा। तो
अत्यंत
रूखापन भीतर
पैदा हो सकता
है कुंडलिनी
के जगने से।
इसलिए
व्यक्तित्व
स्निग्ध
चाहिए और
व्यक्तित्व
में थोड़े रस—स्रोत
चाहिए।
अब
जैसे क्रोधी
आदमी है। अगर
क्रोधी आदमी
की कुंडलिनी
जग जाए तो वह
मुश्किल में
पड़ेगा; क्योंकि
वह वैसे ही
रूखा आदमी है,
और एक आग जग
जाए उसके भीतर
तो कठिनाई हो
जाएगी।
प्रेमी आदमी
है, वह
स्निग्ध है, उसके भीतर
रस की
स्निग्धता है।
कुंडलिनी
जगेगी तो
कठिनाई नहीं
होगी।
इन
सब बातों को
ध्यान में
रखकर वह बात
कही गई है।
लेकिन वह बहुत
क्रूड ढंग से
कही गई है। और
पुराना ढंग
सभी कूड था।
वह बहुत
विकसित नहीं
है कहने का
ढंग। पर ठीक
कहा है कि
मांस जलेगा, खून
जलेगा, मज्जा
जलेगी।
क्योंकि तुम
बदलोगे पूरे
के पूरे; तुम
दूसरे आदमी
होनेवाले हो,
तुम्हारी
सारी की सारी
व्यवस्था, सारी
कपोजीशन
बदलने को है।
इसलिए साधक की
तैयारी में वह
भी ध्यान में
रखना अत्यंत
जरूरी है।
अब फिर
कल बात करेंगे।
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