(नौवीं
प्रश्नोत्तर
चर्चा)
धर्म और
विज्ञान के
भिन्न
दृष्टिकोण:
प्रश्न :
ओशो कल की
चर्चा में
आपने कहा कि
विज्ञान का
प्रवेश
पांचवें शरीर
स्पूचुअल
बॉडी तक संभव
है। बाद में
चौथे शरीर में
विज्ञान की
संभावनाओं पर
चर्चा की। आज
कृपया
पांचवें शरीर
में हो सकने वाली
कुछ
वैज्ञानिक
संभावनाओं पर
संक्षिप्त
में प्रकाश
डालें।
एक तो
जिसे हम शरीर
कहते हैं और
जिसे हम आत्मा
कहते हैं, ये
ऐसी दो चीजें
नहीं हैं कि
जिनके बीच
सेतु न बनता
हो, ब्रिज
न बनता हो।
इनके बीच कोई
खाई नहीं है, इनके बीच
जोड़ है।
तो
सदा से एक
खयाल था कि
शरीर अलग है, आत्मा
अलग है; और
ये दोनों इस
भांति अलग हैं
कि इन दोनों
के बीच कोई
सेतु, कोई
ब्रिज नहीं बन
सकता। न केवल
अलग हैं, बल्कि
विपरीत हैं एक—दूसरे
से। इस खयाल
ने धर्म और
विज्ञान को
अलग कर दिया
था। धर्म वह
था, जो
शरीर के
अतिरिक्त जो
है उसकी खोज
करे, और विज्ञान
वह था, जो
शरीर की खोज
करे— आत्मा के
अतिरिक्त जो
है, उसकी
खोज करे।
स्वभावत:, दोनों
तरह की खोज एक
को मानती और
दूसरे को इनकार
करती रही, क्योंकि
विज्ञान जिसे
खोजता था, उसे
वह कहता था
शरीर है, आत्मा
कहां! और धर्म
जिसे खोजता था,
उसे वह
मानता था :
आत्मा है, शरीर
कहां!
तो
धर्म जब अपनी
पूरी
ऊंचाइयों पर
पहुंचा तो
उसने शरीर को
इल्यूजन और
माया कह दिया, कि
वह है ही नहीं;
आत्मा ही
सत्य है, शरीर
भ्रम है। और
विज्ञान जब
अपनी
ऊंचाइयों पर
पहुंचा तो उसने
कह दिया कि
आत्मा तो एक
झूठ, एक
असत्य है, शरीर
ही सब कुछ है।
यह भ्रांति
आत्मा और शरीर
को अनिवार्य
रूप से विरोधी
तत्वों की तरह
मानने से हुई।
अब
मैंने सात
शरीरों की बात
कही। ये सात
शरीर..... अगर
पहला शरीर हम
भौतिक शरीर
मान लें और
अंतिम शरीर
आत्मिक मान
लें,
और बीच के
पांच शरीरों
को छोड़ दें, तो इनके बीच
सेतु नहीं बन
सकेगा। ऐसे ही
जैसे जिन
सीढ़ियों से
चढ़कर आप आए
हैं, ऊपर
की सीढ़ी बचा
लें और पहली
सीढ़ी बचा लें
नीचे की, और
बीच की
सीढ़ियों को
छोड़ दें, तो
आपको लगेगा कि
पहली सीढ़ी
कहां और दूसरी
सीढ़ी कहां!
बीच में खाई
हो जाएगी। अगर
आप सारी
सीढ़ियों को
देखें तो पहली
सीढ़ी भी आखिरी
सीढ़ी से जुड़ी
है। और अगर
ठीक से देखें
तो आखिरी सीढ़ी
पहली सीढ़ी का
ही आखिरी
हिस्सा है; और पहली
सीढ़ी आखिरी
सीढी का पहला
हिस्सा है।
परमाणु
ऊर्जा से भी
सूक्ष्म
ईथरिक ऊर्जा:
तो
जब पूरे सात
शरीरों को हम
समझेंगे, तब
पहले और दूसरे
शरीर में जोड़
बनता है।
क्योंकि पहला
शरीर है भौतिक
शरीर, फिजिकल
बॉडी, दूसरा
शरीर है ईथरिक
बॉडी, ईथर,
भाव शरीर।
वह भौतिक का
ही सूक्ष्मतम
रूप है। वह
अभौतिक नहीं
है, वह
भौतिक का ही
सूक्ष्मतम
रूप है—इतना
सूक्ष्मतम कि
भौतिक उपाय भी
उसे पकड़ने में
अभी ठीक से
समर्थ नहीं हो
पाते। लेकिन
अब भौतिकवादी
इस बात को
इनकार नहीं
करता है कि
भौतिक का
सूक्ष्मतम
रूप करीब—करीब
अभौतिक हो
जाता है। अब
जैसे आज
विज्ञान कहता
है कि अगर हम
पदार्थ को
तोड़ते चले
जाएं तो जो
अंतिम, पदार्थ
के विश्लेषण
पर हमें
मिलेंगे—इलेक्ट्रान,
वे अभौतिक
हो गए, वे
इम्मैटीरियल
हो गए हैं; क्योंकि
वे सिर्फ
विद्युत के कण
हैं, उनमें
पदार्थ और
सब्सटेंस
जैसा कुछ भी
नहीं बचा, सिर्फ
एनर्जी और
ऊर्जा बच रही
है। इसलिए बड़ी
अदभुत घटना
घटी है पिछले
तीस वर्षों
में कि जो
विज्ञान यह
बात स्वीकार
करके चला था
कि पदार्थ ही
सत्य है, वह
विज्ञान इस
नतीजे पर
पहुंचा है कि
पदार्थ तो
बिलकुल है ही
नहीं, एनर्जी
और ऊर्जा ही
सत्य है, और
पदार्थ जो है
वह एनर्जी का,
ऊर्जा का
तीव्र घूमता
हुआ रूप है, इसलिए भ्रम
पैदा हो रहा
है।
एक
पंखा हमारे
ऊपर चल रहा है।
यह पंखा इतने
जोर से चलाया
जा सकता है कि
इसकी तीन
पंखुड़ियां
हमें दिखाई
पडनी बंद हो जाएं।
और जब इसकी
तीन
पंखुड़ियां
हमें दिखाई
पड़नी बंद हो
जाएंगी, तो
पंखा
पंखुड़ियां न
मालूम होकर, टीन का एक
गोल चक्कर घूम
रहा है, ऐसा
मालूम होगा।
और तीनों
पंखुड़ियों के
बीच की जो
खाली जगह है वह
भर जाएगी, वह
खाली नहीं रह
जाएगी; क्योंकि
तीन
पंखुड़ियां
दिखाई नहीं
पड़ेगी।
असल
में,
पंखुड़ियां
इतनी तेजी से
घूम सकती हैं
कि इसके पहले
कि एक पंखुड़ी
हटे एक जगह से
और हमारी आंख
से उसका
प्रतिबिंब
मिटे, उसके
पहले दूसरी
पंखुड़ी उसकी
जगह आ जाती है;
प्रतिबिंब
पहला बना रहता
है और दूसरा
उसके ऊपर आ
जाता है।
इसलिए बीच की
जो खाली जगह
है वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ती। यह पंखा
इतनी तेजी से
भी घुमाया जा
सकता है कि आप
इसके ऊपर मजे
से बैठ सकें
और आपको पता न
चले कि नीचे
कोई चीज बदल
रही है। अगर
दो पंखुडियों
के बीच की
खाली जगह इतनी
तेजी से भर
जाए कि एक
पंखुड़ी आपके
नीचे से हटे, आप इसके
पहले कि खाली
जगह में से
गिरे, दूसरी
पंखुड़ी आपको
सम्हाल ले, तो आपको दो
पंखुड़ियों के
बीच का अंतर
पता नहीं
चलेगा। यह गति
की बात है।
अगर
ऊर्जा तीव्र
गति से घूमती
है तो हमें
पदार्थ मालूम
होती है।
इसलिए
वैज्ञानिक आज
जिस एटामिक
एनर्जी पर सारा
का सारा
विस्तार कर
रहा है, उस
एनर्जी को
किसी ने देखा
नहीं है, सिर्फ
उसके
इफेक्ट्स, उसके
परिणाम भर
देखे हैं। वह
मूल अणु की
शक्ति किसी ने
देखी नहीं है,
और कोई कभी
देखेगा भी, यह भी अब
सवाल नहीं है।
लेकिन उसके
परिणाम दिखाई
पड़ते हैं।
ईथरिक
बॉडी को अगर
हम यह भी कहें
कि वह मूल
एटामिक बॉडी
है,
तो कोई हर्ज
नहीं है। उसके
परिणाम दिखाई
पड़ते हैं।
ईथरिक बॉडी को
किसी ने देखा
नहीं है, सिर्फ
उसके परिणाम
दिखाई पड़ते
हैं। लेकिन उन
परिणामों की
वजह से वह है, यह स्वीकार
कर लेने की
जरूरत पड़ जाती
है। यह जो
दूसरा शरीर है,
यह पहले
भौतिक शरीर का
ही सूक्ष्मतम
रूप है; इसलिए
इन दोनों के
बीच कोई सीढ़ी
बनाने में कठिनाई
नहीं है। ये
दोनों एक तरह
से जुड़े ही
हुए हैं—एक
स्थूल है जो
दिखाई पड जाता
है, दूसरा
सूक्ष्म है
इसलिए दिखाई
नहीं पड़ता।
ईथरिक
ऊर्जा से भी
सूक्ष्म
एस्ट्रल
ऊर्जा:
ईथरिक
बॉडी के बाद
तीसरा शरीर है, जिसे
हमने एस्ट्रल
बॉडी, सूक्ष्म
शरीर कहा। वह
ईथर का भी
सूक्ष्मतम
रूप है। अभी
विज्ञान उस पर
नहीं पहुंचा
है। अभी
विज्ञान इस
खयाल पर तो
पहुंच गया है
कि अगर पदार्थ
को हम
विश्लेषण
करें, एनालिसिस
करें और तोड़ते
चले जाएं, तो
अंत में ऊर्जा
बचती है। उस
ऊर्जा को हम
ईथर कह रहे
हैं। अगर ईथर
को भी तोड़ा जा
सके और उसके
भी सूक्ष्मतम
अंश बनाए जा
सकें, तो
जो बचेगा वह
एस्ट्रल है—सूक्ष्म
शरीर है वह।
वह सूक्ष्म का
भी सूक्ष्म
रूप है।
अभी
विज्ञान वहा
नहीं पहुंचा, लेकिन
पहुंच जाएगा।
क्योंकि कल वह
भौतिक को स्वीकार
करता था, आणविक
को स्वीकार
नहीं करता था।
कल वह कहता था
पदार्थ ठोस
चीज है; आज
वह कहता है.
ठोस जैसी कोई
चीज ही नहीं
है; जो भी
है, सब गैर—ठोस
है, नॉन—सालिड
हो गया सब। यह
दीवाल भी जो
हमें इतनी ठोस
दिखाई पड़ रही
है, ठोस
नहीं है; यह
भी पोरस है, इसमें भी
छेद हैं, और
चीजें इसके आर—पार
जा रही हैं।
फिर भी हम
कहेंगे कि
छेदों के
आसपास, जिनके
बीच छेद हैं, वे तो कम से
कम ठोस अणु
होंगे! वे भी
ठोस अणु नहीं
हैं। एक—एक
अणु भी पोरस
है। अगर हम एक
अणु को बड़ा कर
सकें तो जमीन
और चांद और
तारे और सूरज
के बीच जितना
फासला है, उतना
अणु के कणों
के बीच फासला
है। अगर उसको
इतना बड़ा कर
सकें तो फासला
इतना ही हो
जाएगा।
फिर
वे जो फासले
को भी
जोड़नेवाले
अणु हैं, हम
कहेंगे, कम
से कम वे तो
ठोस हैं!
लेकिन विज्ञान
कहता है, वे
भी ठोस नहीं
हैं, वे
सिर्फ
विद्युत कण
हैं। कण भी अब
विज्ञान
मानने को राजी
नहीं है; क्योंकि
कण के साथ
पदार्थ का
पुराना खयाल
जुड़ा हुआ है।
कण का मतलब
होता है.
पदार्थ का
टुकड़ा। वे कण
भी नहीं हैं, क्योंकि कण
तो एक जैसा
रहता है। वे
पूरे वक्त
बदलते रहते
हैं। लहर की
तरह हैं, कण
की तरह नहीं।
जैसे पानी में
एक लहर उठी, जब तक आपने
कहा कि लहर
उठी, तब तक
वह कुछ और हो
गई। जब आपने
कहा, वह
रही लहर! तब तक
वह कुछ और हो
गई। क्योंकि
लहर का मतलब
ही यह है कि वह
आ रही है, जा
रही है। लेकिन
अगर हम लहर भी
कहें तो भी
पानी की लहर
एक भौतिक घटना
है।
इसलिए
विज्ञान ने एक
नया शब्द खोजा
है,
जो कि कभी
था नहीं आज से
तीस साल पहले,
वह है कांटा।
अभी हिंदी में
उस शब्द के
लिए कहना
मुश्किल है।
इसलिए कहना
मुश्किल है, जैसे हिंदी
के पास शब्द
है ब्रह्म और
अंग्रेजी में
कहना मुश्किल
है; क्योंकि
कभी जरूरत पड़
गई थी कुछ
अनुभव करनेवाले
लोगों को, तब
यह शब्द खोज
लिया गया था।
पश्चिम उस जगह
नहीं पहुंचा
कभी, इसलिए
इस शब्द की
उन्हें कभी
जरूरत नहीं
पड़ी। इसलिए
धर्म की बहुत
सी भाषा के
शब्द पश्चिम को
सीधे लेना
पड़ते हैं—जैसे
ओम्। उसका कोई
अनुवाद
दुनिया की
किसी भाषा में
नहीं हो सकता।
वह कभी
किन्हीं
आध्यात्मिक
गहराइयों में
अनुभव की गई
बात है। उसके
लिए हमने एक
शब्द खोज लिया
था। लेकिन
पश्चिम के पास
उसके लिए कोई
समांतर शब्द
नहीं है कि
उसका अनुवाद
किया जा सके।
ऐसे
ही 'कांटा' पश्चिम
के विज्ञान की
बहुत ऊंचाई पर
पाया गया शब्द
है जिसके लिए
दूसरी भाषा
में कोई शब्द
नहीं है।
कांटा का अगर
हम मतलब समझना
चाहें, तो
कांटा का मतलब
होता है. कण और
तरंग एक साथ।
इसको कसीव
करना मुश्किल
हो जाएगा। कोई
चीज कण और
तरंग एक साथ!
कभी वह तरंग
की तरह व्यवहार
करता है और
कभी कण की तरह
व्यवहार करता
है— और कोई
भरोसा नहीं
उसका कि वह
वैसा व्यवहार
करे।
पदार्थ
के सूक्ष्मतम
ऊर्जा कणों
में चेतना के
लक्षण:
पदार्थ
हमेशा भरोसे
योग्य था, पदार्थ
में एक
सटेंन्टी थी।
लेकिन वे जो
अणु ऊर्जा के
आखिरी कण मिले
हैं, वे
अनसटेंन हैं,
उनकी कोई
निश्चयात्मकता
नहीं है; उनके
व्यवहार को
पक्का तय नहीं
किया जा सकता।
इसलिए पहले
विज्ञान बहुत
सटेंन्टी पर
खड़ा था; वह
कहता था, हर
चीज निश्चित
है। अब वैज्ञानिक
उतने दावे से
नहीं कह सकता,
हर चीज
निश्चित है।
क्योंकि वह
जहां पहुंचा
है, वहीं
उसको पता चला
है कि निश्चित
होना बहुत ऊपर—ऊपर
है, भीतर
बहुत गहरा
अनिश्चय है।
और एक बड़े
मजे की बात है
कि अनिश्चय का
मतलब क्या
होता है?
जहां
अनिश्चय है
वहां चेतना
होनी चाहिए, नहीं
तो अनिश्चय
नहीं हो सकता।
अनसटेंन्टी
जो है वह
कांशसनेस का
हिस्सा है; सटेंन्टी जो
है वह मैटर का
हिस्सा है।
अगर हम इस
कमरे में एक
कुर्सी को छोड़
जाएं, तो
लौटकर हमको वह
वहीं मिलेगी
जहां थी।
लेकिन एक
बच्चे को हम
इस कमरे में
छोड़ जाएं, तो
वह वहीं नहीं
मिलेगा जहां
था। उसके बाबत
अनसटेंन्टी
रहेगी कि अब
वह कहां है और
क्या कर रहा
है। कुर्सी के
बाबत हम सटेंन
हो सकते हैं
कि वह वहीं है
जहां थी।
पदार्थ के
बाबत निश्चित
हुआ जा सकता
है, चेतना
के बाबत
निश्चित नहीं
हुआ जा सकता।
तो
विज्ञान ने
जिस दिन यह
स्वीकार कर
लिया कि अणु
का जो आखिरी
हिस्सा है, उसके
बाबत हम
निश्चित नहीं
हो सकते कि वह
कैसा व्यवहार
करेगा, उसी
दिन—विज्ञान
को अभी पता
नहीं है साफ—उसी
दिन यह बात
स्वीकृत हो गई
कि वह पदार्थ
का जो आखिरी
हिस्सा है, उसमें चेतना
की संभावना स्वीकृत
हो गई है।
अनसटेंन्टी
चेतना का
लक्षण है। जड़
पदार्थ
अनिश्चित
नहीं हो सकता।
ऐसा नहीं है
कि आग का मन हो
तो जलाए, और मन
हो तो न जलाए।
ऐसा नहीं है
कि पानी की
तबीयत हो तो
नीचे बहे, और
पानी की तबीयत
हो तो ऊपर बहे।
ऐसा नहीं है
कि पानी सौ
डिग्री पर
गर्म होना चाहे
तो सौ पर हो, अस्सी पर
होना चाहे तो
अस्सी पर हो।
नहीं, पदार्थ
का व्यवहार
सुनिश्चित है।
लेकिन जब हम
इन सबके भीतर
प्रवेश करते
हैं, तो वे
जो आखिरी
हिस्से मिलते
हैं पदार्थ के,
वे
अनिश्चित हैं।
इसे
हम ऐसा भी समझ
सकते हैं कि
समझ लें कि हम
बंबई के बाबत
अगर तय करना
चाहें कि रोज
कितने आदमी
मरते हैं, तो
तय हो जाएगा, करीब—करीब
तय हो जाएगा।
अगर एक करोड़
आदमी हैं, तो
साल भर का
हिसाब लगाने
से हमको पता
चल सकता है कि
रोज कितने
आदमी मरते हैं।
और वह
भविष्यवाणी
करीब—करीब सही
होगी। थोड़ी—बहुत
भूल हो सकती
है। अगर हम
पूरे पचास
करोड़ के मुल्क
के बाबत विचार
करें तो भूल
और कम हो
जाएगी, सटेंन्टी
और बढ़ जाएगी।
अगर हम सारी
दुनिया के
बाबत तय करें
तो सटेंन्टी
और बढ़ जाएगी, हम तय कर
सकते हैं कि
इतने आदमी रोज
मरते हैं।
लेकिन अगर हम
एक आदमी के
बाबत तय करने
जाएं कि यह कब
करेगा, तो
सटेंन्टी बहुत
कम हो जाएगी।
जितनी भीड़
बढ़ती है उतना
मैटीरियल हो
जाती है चीज, जितना
इंडिविजुअल
होता है उतनी कांशस
हो जाती है।
असल
में,
एक पत्थर का
टुकड़ा भीड़ है
करोड़ों अणुओं
की, इसलिए
उसके बाबत हम
तय हो सकते
हैं। और जब हम
नीचे प्रवेश
करते हैं और
एक अणु को पकड़ते
हैं, तो वह
इंडिविजुअल
है। उसके बाबत
तय होना
मुश्किल हो
जाता है, उसका
व्यवहार वह
खुद ही तय
करता है। तो
पूरे पत्थर के
बाबत हम कह
सकते हैं कि
यह यहीं
मिलेगा।
लेकिन इस
पत्थर के भीतर
जो अणुओं का
व्यक्तित्व
जो था, वह
वहीं नहीं
मिलेगा। जब हम
लौटकर आएंगे,
वह सब बदल
चुका होगा।
उसने सब जगह
बदल ली होंगी,
वह यात्रा
कर चुका होगा।
परमाणुओं
के सूक्ष्मतर
तल:
पदार्थ
की गहराई में
उतरकर
अनिश्चय शुरू
हो गया है।
इसलिए अब
विज्ञान
सटेंन्टी की
बात न करके
प्रोबेबिलिटी
की बात करने
लगा है; वह
कहता है, इसकी
संभावना
ज्यादा है
बजाय उसके। अब
वह ऐसा नहीं
कहता कि ऐसा
ही होगा। बड़े
मजे की बात है
कि विज्ञान की
तो सारी दावेदारी
जो थी, वह
उसकी
निश्चयात्मकता
पर थी—कि वह जो
भी कहता है वह
निश्चित है कि
ऐसा होगा। अब
विज्ञान की जो
गहरी खोज है, उसने पैर
डगमगा दिए हैं।
और उसका कारण
है। उसका कारण
यह है कि वह फिजिकल
से ईथरिक पर
चले गए हैं, जिसका उनको
अंदाज नहीं है।
असल में, वे
इस भाषा को
स्वीकार नहीं
करते, इसलिए
उनको तब तक
अंदाज भी नहीं
हो सकता कि वे फिजिकल
से हटकर ईथरिक
पर पहुंच गए
हैं, वे
पदार्थ में भी
दूसरे शरीर पर
पहुंच गए हैं।
और दूसरे शरीर
की अपनी
संभावनाएं
हैं। लेकिन
पहले शरीर और
दूसरे शरीर के
बीच कोई खाली
जगह नहीं है।
तीसरा जो
एस्ट्रल शरीर
है, वह और
भी सूक्ष्म है,
वह सूक्ष्म
का भी सूक्ष्म
है। वह ईथर के
भी अगर हम अणु
बना सकें, जो
अभी बहुत
मुश्किल है, क्योंकि अभी—अभी
तो हम मुश्किल
से फिजिक्स
में अणु पर
पहुंच पाए हैं,
अभी हम
पदार्थ के अणु
बना पाए हैं, परमाणु बना
पाए हैं, अभी
ईथर के लिए
बहुत वक्त लग
सकता है।
लेकिन जिस दिन
हम ईथर के अणु
बना सकें, उस
दिन हमें पता
चलेगा कि वे
अणु जो हैं, वे उसके
पिछले
आगेवाले शरीर
के अणु सिद्ध
होंगे—एस्ट्रल
के।
असल
में,
फिजिकल को
जब हमने तोड़ा
तो उसके अणु
ईथरिक सिद्ध
हुए हैं, ईथर
को हम तोड़ेंगे
तो उसके अणु
एस्ट्रल
सिद्ध होंगे,
सूक्ष्म के
सिद्ध होंगे।
तब उनके बीच
एक जोड़ मिल
जाएगा। ये तीन
शरीर तो बहुत
स्पष्ट जुड़े
हुए हैं।
इसलिए
प्रेतात्माओं
के चित्र लिए
जा सके हैं।
सूक्ष्म
शरीरों की
शक्तियां:
प्रेतात्मा
के पास भौतिक
शरीर नहीं
होता, ईथरिक
बॉडी से शुरू
होता है उसका
पर्दा जो है।
प्रेतात्माओं
के चित्र लिए
जा सके हैं, सिर्फ इसी
वजह से कि ईथर
भी अगर बहुत
कंडेंस्ट हो
जाए, तो
बहुत
सेंसिटिव
प्लेट उसे पकड़
सकती है। और
ईथर के साथ एक
सुविधा है कि
वह इतनी
सूक्ष्म है
इसलिए बहुत
मनस से प्रभावित
होती है। अगर
एक प्रेत यह
चाहे कि मैं
यहां प्रकट हो
जाऊं, तो
वह अपनी ईथरिक
बॉडी को
कंडेंस्ट कर
लेगा, सघन
कर लेगा। वे
अणु जो दूर—दूर
हैं, पास
सरक आएंगे, और उसकी एक
रूप—रेखा बन
जाएगी। उस रूप—रेखा
का चित्र लिया
जा सका है, उस
रूप—रेखा का
चित्र पकड़ा जा
सका है।
यह
जो दूसरा
हमारा ईथर का
बना हुआ शरीर
है,
यह हमारे
भौतिक शरीर से
कहीं ज्यादा
मन से प्रभावित
हो सकता है।
भौतिक शरीर भी
हमारे मन से
प्रभावित
होता है, लेकिन
उतना नहीं।
जितना
सूक्ष्म होगा
उतना मन से
प्रभावित होने
लगेगा, उतने
मन के करीब हो
जाएगा।
एस्ट्रल शरीर
तो और भी
ज्यादा मन से
प्रभावित
होता है।
इसलिए
एस्ट्रल
ट्रेवेलिग
संभव हो जाती
है। एक आदमी
इस कमरे में
सोकर भी अपनी
एस्ट्रल बॉडी
से दुनिया के
किसी भी
हिस्से में हो
सकता है।
इसलिए ये जो
कहानियां
बहुत बार सुनी
होंगी कि एक
आदमी दो जगह
दिखाई पड़ गया,
तीन जगह
दिखाई पड़ गया,
इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है। उसका
भौतिक शरीर एक
जगह होगा, उसका
एस्ट्रल शरीर
दूसरी जगह हो
सकता है।
इसमें अड़चन
नहीं है, यह
सिर्फ थोड़े से
ही अभ्यास की
बात है और
आपका शरीर
दूसरी जगह
प्रकट हो सकता
है।
जितने
हम भीतर जाते
हैं,
उतनी मन की
शक्ति बढ़ती
चली जाती है; जितने हम
बाहर आते हैं,
उतनी मन की
शक्ति कम होती
चली जाती है।
ऐसा ही जैसे
कि हम एक दीया
जलाए और उस
दीये के ऊपर
कांच का एक
ढक्कन ढांक
दें; अब
दीया उतना
तेजस्वी नहीं
मालूम होगा।
फिर एक दूसरा
ढक्कन और ढांक
दें; अब
दीया और भी कम
तेजस्वी
मालूम होगा।
फिर हम एक
ढक्कन और ढांक
दें, और हम
सात ढक्कन
ढांक दें; तो
सातवें ढक्कन
के बाद दीये
की बहुत ही कम
रोशनी पहुंच
पाएगी। पहले
ढक्कन के बाद
ज्यादा
पहुंचती थी, दूसरे के
बाद उससे कम, तीसरे पर और
कम, सातवें
पर बहुत धीमी
और धूमिल हो
जाएगी, क्योंकि
सात पर्दों को
पार करके आएगी।
भौतिक
ऊर्जा का ही
सूक्ष्मतम
रूप मनोमय
ऊर्जा:
तो
हमारी जो जीवन—ऊर्जा
की शक्ति है, वह
शरीर तक आते—आते
बहुत धूमिल हो
जाती है।
इसलिए शरीर पर
हमारा उतना
काबू नहीं
मालूम होता।
लेकिन, अगर
कोई भीतर
प्रवेश करना
शुरू करे, तो
शरीर पर उसका
काबू बढ़ता चला
जाएगा; जिस
मात्रा में
भीतर प्रवेश
होगा, उस
मात्रा में
शरीर पर भी
काबू बढ़ता चला
जाएगा।
यह
जो तीसरा शरीर
है एस्ट्रल, यह
भी...... भौतिक का
सूक्ष्मतम
शरीर है ईथरिक,
ईथरिक का
सूक्ष्मतम
हिस्सा है
एस्ट्रल। अब
चौथा शरीर है मेंटल।
अब
तक हम सबको
यही खयाल था
कि माइंड कुछ
और बात है
पदार्थ से, माइंड
और मैटर अलग
बात है। असल
में, ऐसी
परिभाषा करने
का उपाय ही
नहीं था। अगर
किसी से हम
पूछें कि मैटर
क्या है? तो
कहा जा सकता
है : जो माइंड
नहीं है। और
माइंड क्या है?
तो कहा जा
सकता है. जो मैटर
नहीं है। बाकी
और कोई
परिभाषा है भी
नहीं। इसी तरह
हम सोचते रहे
हैं इन दोनों
को अलग करके।
लेकिन अब हम
जानते हैं कि
माइंड जो है, वह भी मैटर
का ही
सूक्ष्मतम
हिस्सा है—या
इससे उलटा भी
हम कह सकते
हैं कि जिसे
हम मैटर कहते
हैं, वह
माइंड का ही
कंडेंस्त, सघन
हो गया हिस्सा
है।
अलग— अलग
विचारों की
अलग— अलग तरंग
रचना:
एस्ट्रल
का भी अगर अणु
टूटेगा तो वे
माइंड के थॉट
वेक बन जाएंगे।
अब कांटा और
थॉट वेक में
बड़ी निकटता है।
विचार, अब तक
नहीं समझा
जाता था कि
विचार भी कोई
भौतिक
अस्तित्व
रखता है।
लेकिन जब आप
एक विचार करते
हैं, तो
आपके आसपास की
तरंगें बदल
जाती हैं।
अब
यह बहुत मजे
की बात है न
केवल विचार की, बल्कि
एक—एक शब्द की
भी अपनी
वेवलेंथ है, अपनी तरंग
है। अगर आप एक
कांच के ऊपर
रेत के कण
बिछा दें, और
कांच के नीचे
से जोर से एक
शब्द आवाज
करें, जोर
से कहें— ओम्!
तो उस कांच के
ऊपर रेत पर
अलग तरह की
वेल्स बन
जाएंगी। और आप
कहें—राम! तो
अलग तरह की
वेब्स बनेंगी।
और आप एक
भद्दी गाली
दें तो अलग
तरह की वेक
बनेंगी।
और
आप एक बड़ी
हैरानी की बात
में पड़ जाएंगे
कि जितना
भद्दा शब्द
होगा, उतनी
कुरूप ऊपर
वेब्स बनेंगी;
और जितना
सुंदर शब्द
होगा, उतनी
सुंदर वेब्स
होंगी, उतना
पैटर्न होगा
उनमें; जितना
भद्दा शब्द
होगा, उतना
पैटर्न नहीं
होगा, अनार्किक
होगा। शब्द का
भी.. .इसलिए
बहुत हजारों
वर्ष तक शब्द
के लिए बड़ी
खोजबीन हुई कि
कौन सा शब्द
सुंदर तरंगें
पैदा करता है,
कौन सा शब्द
कितना वजन
रखता है दूसरे
के हृदय तक
चोट पहुंचाने
में।
लेकिन
शब्द तो प्रकट
हो गया विचार
है,
अप्रकट
शब्द भी अपनी
ध्वनियां
रखता है—जिसको
हम विचार कहते
हैं, थॉट
कहते हैं। जब
आप सोच रहे
हैं कुछ, तब
भी आपके चारों
तरफ विशेष
प्रकार की
ध्वनियां
फैलनी शुरू हो
जाती हैं, विशेष
प्रकार की
तरंगें आपको
घेर लेती हैं।
इसलिए
बहुत बार आपको
ऐसा लगता है
कि किसी आदमी
के पास जाकर
आप अचानक उदास
हो जाते हैं।
अभी उसने कुछ
कहा भी नहीं; हो
सकता है वह
ऐसे हंस ही
रहा हो आपको
मिलकर; लेकिन
फिर भी कोई
उदासी आपको
भीतर से पकड़
लेती है। किसी
आदमी के पास
जाकर आप बहुत
प्रफुल्लित
हो जाते हैं।
किसी कमरे में
प्रवेश करते
से ही आपको
लगता है कि आप
कुछ भीतर बदल
गए; कुछ
पवित्रता पकड़
लेती है, अपवित्रता
पकड़ लेती है।
किसी क्षण में
कहीं कोई
शांति पकड़
लेती है और कहीं
कोई अशांति छू
लेती है, जिसको
आपको समझना
मुश्किल हो
जाता है कि
मैं तो अभी
अशांत नहीं था,
अचानक यह
अशांति मन में
क्यों उठ आई!
आपके
चारों तरफ
विचारों की
तरंगें हैं, और
वे तरंगें
चौबीस घंटे
आपमें प्रवेश
कर रही हैं।
अभी तो एक
फ्रेंच
वैज्ञानिक ने
एक छोटा सा यंत्र
बनाया जो
विचार की
तरंगों को
पकड़ने में सफल
हुआ है। उस
यंत्र के पास जाते
से ही वह
बताना शुरू कर
देता है कि यह
आदमी किस तरह
के विचार कर
रहा है; उस
पर तरंगें
पकड़नी शुरू हो
जाती हैं। अगर
एक ईडियट को, जड़बुद्धि
आदमी को ले
जाया जाए तो
उसमें बहुत कम
तरंगें पकडती
हैं, क्योंकि
वह विचार ही
नहीं कर रहा; अगर एक बहुत
प्रतिभाशाली
आदमी को ले
जाया जाए तो
वह पूरा का
पूरा यंत्र
कंपन लेने
लगता है, उसमें
इतनी तरंगें
पकड़ने लगती
हैं।
तो
जिसको हम मन
कहते हैं, वह
एस्ट्रल का
सूक्ष्म का भी
सूक्ष्म है।
निरंतर भीतर
हम सूक्ष्म से
सूक्ष्म होते
चले जाते हैं।
अभी विज्ञान
ईथरिक तक
पहुंच पाया है।
अभी भी उसने
उसको ईथरिक
नहीं कहा है, उसको एटामिक
कह रहा है, पारमाणिक
कह रहा है, ऊर्जा,
एनर्जी कह
रहा है; लेकिन
वह दूसरे शरीर
पर उतर गया है—सत्य
के दूसरे शरीर
पर वह उतर गया
है। तीसरे
शरीर पर उतरने
में बहुत देर
नहीं लगेगी, वह तीसरे
शरीर पर उतर
जाएगा; उतरने
की जरूरतें पैदा
हो गई हैं।
चौथे
शरीर पर भी
बहुत दूसरी
दिशाओं से काम
चल रहा है, क्योंकि
मन को अलग ही
समझा जाता था,
इसलिए कुछ वैज्ञानिक
मन पर अलग से
ही काम कर रहे
हैं, वे
शरीर से काम
ही नहीं कर
रहे।
उन्होंने
चौथे शरीर के
संबंध में
बहुत सी बातों
का अनुभव कर
लिया है। अब जैसे,
हम सब एक
अर्थ में
ट्रांसमीटर्स
हैं, और
हमारे विचार
हमारे चारों
तरफ विकीर्ण
हो रहे हैं।
मैं आपसे जब
नहीं भी बोल
रहा हूं तब भी
मेरा विचार आप
तक जा रहा है।
विचार—संप्रेषण
पर खोजें:
अभी
रूस में इस
संबंध में
काफी दूर तक
काम हुआ है, और
एक वैज्ञानिक
फयादेव ने एक
हजार मील दूर
तक विचार का
संप्रेषण किया
है। वह मास्को
में बैठा है
और एक हजार
मील दूर दूसरे
आदमी को विचार
का संप्रेषण
कर रहा है।
ठीक वैसे ही
जैसे रेडियो
से
ट्रांसमिशन
होता है, ऐसे
ही अगर हम
संकल्पपूर्वक
एक दिशा में
अपने चित्त को
केंद्रित
करके किसी विचार
को तीव्रता से
संप्रेषित
करें, तो
वह उस दिशा
में पहुंच
जाता है; और
अगर दूसरी तरफ
भी माइंड
रिसीव करने को,
ग्राहक
होने को तैयार
हो—उसी क्षण
में, उसी
दिशा में अपने
मन को
केंद्रित
करके खुला हो
और स्वीकार
करने को राजी
हो—तो विचार
संप्रेषित हो
जाता है।
विचार—संप्रेषण
का एक घरेलू
प्रयोग:
इस
पर कभी छोटा—मोटा
प्रयोग आप घर
में करके
देखें तो
अच्छा होगा।
छोटे बच्चे
जल्दी से पकड़
लेते हैं, क्योंकि
अभी उनकी
ग्राहकता
तीव्र होती है।
कमरा बंद कर
लें; एक
छोटे बच्चे को,
कमरे को
अंधेरा करके
दूसरे कोने पर
बिठा दें; आप
दूसरे कोने पर
बैठ जाएं। और
उस बच्चे से
कहें कि एक
पांच मिनट के
लिए तू ध्यान
मेरी तरफ रखना,
मैं तुझसे
चुपचाप कुछ
कहूंगा, वह
तू सुनने की
कोशिश करना और
अगर तुझे
सुनाई पड़ जाए
तो बोल देना।
फिर आप एक
शब्द पकड़ लें
कोई भी—जैसे
राम या गुलाब—
और इस शब्द को
उस बच्चे की तरफ
ध्यान रखकर
जोर से अपने
भीतर गुंजाने
लगें, बोलें
नहीं, राम—राम
ही गुंजाने
लगें। एक दो—तीन
दिन में आप
पाएंगे कि उस
बच्चे ने आपके
शब्द को पकड़ना
शुरू कर दिया।
तब इसका क्या
मतलब हुआ? फिर
इससे उलटा भी
हो सकता है एक
दफे ऐसा हो
जाए तो आपको
आसानी हो
जाएगी। फिर आप
बच्चे को बिठा
सकते हैं और
उससे कह सकते
हैं कि वह एक
शब्द अपने
भीतर सोचकर
आपकी तरफ
फेंके। लेकिन
तब आप ग्राहक
हो सकेंगे, क्योंकि
आपका डाउट, आपका संदेह
गिर गया होगा।
घटना घट सकती
है, तो फिर
ग्राहकता बढ़
जाती है।
निर्जरा—कर्म—मल
का झड़ जाना:
आपके
और आपके बच्चे
के बीच तो
भौतिक जगत
फैला हुआ है।
यह विचार किसी
गहरे अर्थों
में भौतिक ही
होना चाहिए, अन्यथा
इस भौतिक
माध्यम को पार
न कर पाएगा।
यह
जानकर आपको
हैरानी होगी
कि महावीर ने
कर्म तक को
भौतिक कहा है—फिजिकल
कहा है, मैटीरियल
कहा है। जब आप
क्रोध करते
हैं और किसी
की हत्या कर
देते हैं, तो
आपने एक कर्म
किया—क्रोध का
और हत्या करने
का। महावीर
कहते हैं, यह
भी सूक्ष्म
अणुओं में
आपमें चिपक
जाता है; कर्म—मल
बन जाता है।
यह भी
मैटीरियल है।
यह भी कोई इम्मैटीरियल
चीज नहीं है, यह भी मैटर
की तरह पकड़
लेता है आपको।
और इसलिए
महावीर निर्जरा
जिसको कहते
हैं, वे
निर्जरा कहते
हैं, इस
कर्म—मल से
जिस दिन
छुटकारा हो
जाए। यह सारा
का सारा जो
कर्म—अणु आपके
चारों तरफ जुड़
गए हैं, ये
गिर जाएं। जिस
दिन ये गिर
जाएंगे, उस
दिन आप
शुद्धतम शेष
रह जाएंगे; वह निर्जरा
होगी।
निर्जरा
का मतलब है
कर्म के अणुओं
का झड़ जाना।
कर्म भी...जब आप
क्रोध करते
हैं तब आप एक
कर्म कर रहे
हैं। वह क्रोध
भी आणविक होकर
ही आपके साथ
चलता है।
इसलिए जब आपका
यह शरीर गिर
जाता है, तब भी
उसको गिरने की
जरूरत नहीं
होती; वह
दूसरे जन्म
में भी आपके
साथ खड़ा हो
जाता है, क्योंकि
वह अति
सूक्ष्म है।
तो
मेंटल बॉडी जो
है,
मनस शरीर जो
है, वह
एस्ट्रल बॉडी
का सूक्ष्मतम
हिस्सा है। और
इसलिए इन
चारों में
कहीं भी कोई
खाली जगह नहीं
है, ये सब
एक—दूसरे के
सूक्ष्म होते
गए हिस्से हैं।
मेंटल बॉडी पर
काफी काम हुआ
है, क्योंकि
अलग से मनस—शास्त्र
उस पर काम कर
रहा है— और
विशेषकर पैरा—साइकोलाजी
उस पर अलग से
काम कर रही है,
परा—मनोविज्ञान
अलग से काम कर
रहा है। और मन
के इतने अदभुत
खयाल विज्ञान
की पकड़ में आ
गए हैं— धर्म
की पकड़ में तो
बहुत समय से
थे—विज्ञान की
पकड़ में भी
बहुत सी बातें
साफ हो गई हैं।
विचार
तरंगों का
प्रभाव पदार्थ
पर भी:
अब
जैसे एक आदमी
है और वह जुआ
खेलता है। अब
माटकालों में
ऐसे ढेर आदमी
हैं,
जिनको जुए
में हराना
मुश्किल है; क्योंकि वे
जो पांसा
फेंकते हैं, वे जो नंबर
फेंकना चाहते
हैं वही फेंक
लेते हैं।
उनके पांसे
बदल देने से
कोई फर्क नहीं
पड़ता। पहले तो
समझा जाता था
कि वे पांसे
कुछ चालबाजी
से बनाए गए
हैं कि वे
पांसे वहीं
गिर जाते हैं
जहां वे
गिराना चाहते
हैं। लेकिन हर
तरह के पांसे
देकर, वे
जो नंबर लाना
चाहते हैं वही
आंकड़ा ले आते
हैं— आंख बंद
करके भी ले
आते हैं। तब
बड़ी मुश्किल
हो गई। तब
इसकी जांच—पड़ताल
करनी जरूरी हो
गई कि बात
क्या है!
असल
में,
उनका विचार
का तीव्र
संकल्प पांसे
को प्रभावित
करता है। वे
जो लाना चाहते
हैं उसके
तीव्र संकल्प
की धारा से
पांसों को
फेंकते हैं।
विचार की वे
तरंगें उन
पांसों को उसी
आकड़े पर ले
आती हैं। अब
इसका मतलब
क्या हुआ? अगर
विचार की तरंग
एक पांसे को
बदलती है तो
विचार की तरंग
भी भौतिक है, नहीं तो
पांसे को नहीं
बदल सकती।
विचार
शक्ति की एक
प्रयोगात्मक
जांच:
आप
एक छोटा सा
प्रयोग करें
तो आपके खयाल
में आ जाए।
चूंइक
विज्ञान की
बात आप करते
हैं,
इसलिए मैं
प्रयोग की बात
करता हूं। एक
गिलास में
पानी भरकर रख
लें और
ग्लिसरीन या
कोई भी चिकना
पदार्थ उस
गिलास के पानी
के ऊपर थोड़ा
सा डाल दें कि उसकी
एक पतली धीमी
फिल्म पानी के
गिलास के ऊपर
फैल जाए। एक
छोटी आलपीन, बिलकुल पतली
कि उस फिल्म
पर तैर सके, उसको उसके
ऊपर छोड़ दें।
फिर कमरे को
सब तरफ से बंद
करके दोनों हाथों
को जमीन पर
टेककर आंखें
उस छोटी सी
आलपीन पर गड़ा
लें। एक पांच
मिनट चुपचाप
बैठे रहें आंखें
गड़ाए हुए, फिर
उस आलपीन से
कहें कि बाएं
घूम जाओ, तो
आलपीन बाएं
घूमेगी; फिर
कहें दाएं घूम
जाओ, तो
दाएं घूमेगी;
कहें कि रुक
जाओ, तो
रुकेगी; कहें
कि चलो, तो
चलेगी।
अगर
आपका विचार एक
आलपीन को बाएं
घुमा सकता है, दाएं
घुमा सकता है,
तो फिर एक
पहाड़ को भी
हिला सकता है।
वह जरा लंबी
बात है, बाकी
फर्क नहीं रह
गया, बुनियादी
फर्क नहीं रह
गया। आपकी
सामर्थ्य अगर
एक आलपीन को
हिलाती है तो बुनियादी
बात पूरी हो
गई है। अब यह
दूसरी बात है
कि पहाड़ बहुत
बड़ा पड़ जाए, आप न हिला
पाएं, लेकिन
हिल सकता है
पहाड।
वस्तुओं
द्वारा विचार
तरंगों का
अपशोषण:
हमारे
विचार की तरंग
पदार्थ को
छूती और रूपांतरित
करती है।
इसीलिए अगर
आपके कपड़े को
दिया जा सके.....ऐसे
लोग हैं, जिनको
आपके हाथ का
रूमाल दिया जा
सके, तो आपके
व्यक्तित्व
के संबंध में
वे करीब—करीब
उतनी ही बातें
बता देंगे
जितना आपको
देखकर बताया
जा सकता था; क्योंकि
आपके हाथ का
रूमाल आपके
विचार की तरंगों
को अपशोषित कर
जाता है, आपका
गहना आपकी
तरंगों को
अपशोषित कर
जाता है। और
मजा यह है कि
वे इतनी
सूक्ष्म
तरंगें हैं कि
एक रूमाल जो
सिकंदर के हाथ
में रहा हो, वह अभी भी
सिकंदर के
व्यक्तित्व
की खबर देता है।
वे इतनी
सूक्ष्म
तरंगें हैं कि
उनको फिर बाहर
निकलने में
करोड़ों वर्ष
लग जाते हैं।
इसीलिए
कब्रें हमने
बनानी शुरू की
थीं, समाधियां
बनानी शुरू की
थीं।
दिव्य
व्यक्तियों
की तरंगें
हजारों
वर्षों तक
प्रभावशील:
कल
मैंने आपसे
कहा था कि इस
मुल्क में हम
मरे हुए आदमी
को तत्काल जला
देते हैं।
लेकिन
संन्यासी को
नहीं जलाते।
मरे हुए आदमी
को इसलिए जला
देते हैं कि
उसकी आत्मा
उसके आसपास न
भटके।
संन्यासी को
इसलिए नहीं
जलाते हैं कि
उसकी तो जिंदा
में. ही आत्मा
ने आसपास
भटकना बंद कर
दिया था; अब
उसके शरीर से
उसकी आत्मा को
कोई खतरा नहीं
है कि वह भटके।
पर उसके शरीर
को हम बचा
लेना चाहते
हैं, क्योंकि
जो आदमी अगर
तीस वर्ष तक
पवित्रता के विचारों
में जीया हो, उसका शरीर
हजारों—लाखों
वर्ष तक उस
तरह की तरंगों
को विकीर्ण
करता रहेगा।
और उसकी समाधि
अर्थपूर्ण हो
जाएगी; उसकी
समाधि के
आसपास परिणाम
होंगे। वह
शरीर तो मर
गया, लेकिन
वह शरीर इतने
निकट रहा है
उस आत्मा के कि
अपशोषित कर
गया है बहुत
कुछ—जो भी
विकीर्ण हो
रहा था, उसे
वह अपशोषित कर
गया है।
विचार
की अनंत संभावनाएं
हैं,
लेकिन हैं
वे सब भौतिक।
इसलिए जब आप
एक विचार
सोचते हैं तो
बहुत ध्यान
रखकर सोचना
चाहिए।
क्योंकि उसकी
तरंगें, आप
नहीं होंगे, तब भी शेष
रहेंगी। यानी
आपका मर जाना...
आपकी उम्र
बहुत कम है
लेकिन विचार
इतना सूक्ष्म
है कि उसकी
उम्र बहुत ज्यादा
है। इसलिए वैज्ञानिक
तो अब इस खयाल
पर पहुंचे हैं
कि अगर जीसस
कभी हुए हैं
या कृष्ण कभी
हुए हैं, तो
आज नहीं कल हम
उनकी विचार—तरंगों
को पकड़ने में
समर्थ हो
जाएंगे, और
यह तय हो
सकेगा कि कृष्ण
ने गीता कभी
कही है कि
नहीं कही है।
क्योंकि वे
विचार—तरंगें
जो कृष्ण से
निकली हैं, वे आज भी लोक—
लोकातर में
किसी ग्रह, किसी उपग्रह
के पास टकरा
रही होंगी।
ऐसे
ही,
जैसे हम एक
कंकड़ समुद्र
में फेंके, तो जब कंकड़
गिरता है तो
एक छोटा सा
छिद्र, एक
छोटा सा
वर्तुल
समुद्र के
पानी पर बनेगा।
फिर कंकड़ तो
डूब जाएगा, कंकड़ की
जिंदगी पानी
की सतह पर बहुत
ज्यादा नहीं
है, कंकड़
की जिंदगी तो
पानी पर छुआ
नहीं कि गया; लेकिन उस
वर्तुल से
कंकड़ की चोट
से जो तरंगें पैदा
हुईं, वे
फैलनी शुरू हो
जाएंगी; वे
बढ़ती जाएंगी;
वह अंतहीन
है उनका बढ़ाव।
आपकी आंख से
ओझल हो जाएंगी,
लेकिन न
मालूम किन दूर
तटों पर वे
अभी भी बढ़ रही
होंगी।
जो
विचार कभी भी
पैदा हुए हैं—
बोले ही नहीं
गए,
जो मन में
भी पैदा हुए
हैं—वे विचार
भी दूर इस जगत
के आकाश में, किन्हीं
किनारों पर
अभी भी बढ़ते
चले जा रहे हैं।
उनको पकड़ा जा
सकता है। किसी
दिन अगर
मनुष्य की गति
तीव्र हो सकी
विज्ञान की, और उनसे आगे
निकल सके, तो
उन्हें सुना
जा सकता है।
अब
जैसे समझ लें
कि दिल्ली से
अगर एक रेडियो
पर रेडियो वेक
बंबई के लिए
खबर भेजती हैं, तो
उसी वक्त थोड़े
ही खबर यहां आ
जाती है जब
दिल्ली से की
जाती है! थोड़ा
टाइम गैप है; क्योंकि
ध्वनि की
यात्रा में
समय लगता है।
दिल्ली में तो
वह ध्वनि मर
चुकी होती है
जब बंबई आती
है। वहां से
तरंगें आगे
निकल गई होती
हैं। दिल्ली
में वे नहीं
हैं अब। थोड़े
ही क्षणों का
फासला पड़ता है,
लेकिन क्षण
बीच में गिरते
हैं।
अगर
समझ लें कि
न्यूयार्क से
एक आदमी को
टेलीविजन पर
हम देख रहे
हैं। तो जब
उसका चित्र
न्यूयार्क
में बनता है, तभी
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
उसके चित्र
बनने में और
हम तक पहुंचने
में समय का
फासला है। यह
भी हो सकता है
इस समय वह
आदमी मर गया
हो, लेकिन
हमें वह आदमी
जिंदा दिखाई
पड़ेगा।
हमारी
पृथ्वी से भी
विचार की, चित्रों
की तरंगें
अनंत लोकों तक
जा रही हैं।
अगर हम उन
तरंगों के आगे
जाकर कभी भी
उनको पकड़ सकें,
तो वे अभी
भी जिंदा हैं
उस अर्थों में।
आदमी मर जाता
है, विचार
इतने जल्दी
नहीं मरता।
आदमी की उम्र
बहुत कम है, विचार की
उम्र बहुत
ज्यादा है। और
यह भी खयाल
रहे कि जो
विचार हम
प्रकट नहीं करते,
उसकी उम्र
और ज्यादा है
उस विचार से
जो हम प्रकट
कर देते हैं; क्योंकि वह
और ज्यादा
सूक्ष्म है।
जो अप्रकट है,
वह और
सूक्ष्म है; उसकी उम्र
और ज्यादा है।
जितना
सूक्ष्म, उतनी
ज्यादा उम्र;
जितना
स्थूल, उतनी
कम उम्र।
विशिष्ट
संगीत—
ध्वनियों के
विशिष्ट
प्रभाव:
ये
जो विचार हैं, ये
बहुत तरह से, जिसको हम
भौतिक जगत कह
रहे हैं, उसको
प्रभावित कर
रहे हैं। हमें
खयाल में नहीं
है। अभी तो
वनस्पति—शास्त्री
इस अनुभव पर
पहुंच गया कि
अगर एक पौधे
के पास
प्रीतिपूर्ण
संगीत बजाया
जाए, तो
पौधा जल्दी फल
देना शुरू कर
देता है, जल्दी
उसमें फूल आ
जाते हैं, बेमौसम।
अगर उसके पास
कुरूप, भद्दा
और नॉइजी
संगीत बजाया
जाए, तो
मौसम भी निकल
जाता है और
उसके फल नहीं
आते और फूल
नहीं आते। वे
तरंगें उसको
छू रही हैं, उसको स्पर्श
कर रही हैं।
गाएं ज्यादा
दूध दे देती
हैं खास संगीत
के प्रभाव में,
खास संगीत
के प्रभाव में
दूध देना बंद
ही कर देती
हैं। विचार
इससे भी
सूक्ष्म हवा
पैदा कर रहा
है, उसके
चारों तरफ
तरंगों की एक
छाया है। और
हर आदमी अपने
विचार का एक
जगत अपने साथ
लेकर चल रहा
है, जिससे
पूरे वक्त
चीजें
विकीर्ण हो
रही हैं।
निद्राकाल
में मनोमय जगत
की वैज्ञानिक
जांच:
ये
जो विकीर्ण
होती हुई
किरणें हैं, ये
भी भौतिक हैं।
हमारा माइंड
जिसे हम कहते
हैं, वह
मेंटल ही नहीं
है; हम
जिसे मन कहते
हैं, वह
मनस ही नहीं
है, वह
भौतिक का ही
चार सीढ़ियां
छलांग लगाकर
सूक्ष्म रूप
है। इसलिए
कठिनाई नहीं
है कि विज्ञान
वहां पहुंच जाए।
कठिनाई नहीं
है, क्योंकि
उसकी तरंगों
को पकड़ा—जांचा
जा सकता है।
जैसे
कल तक हमें
पता नहीं चलता
था कि आदमी
रात में कितना
गहरा सो रहा
है,
उसका मनस
कितनी गहराई
में है। अब
पता चल जाता
है, अब
हमारे पास
यंत्र हैं।
जैसा कि हृदय
की धड़कन नापने
के यंत्र हैं,
इसी तरह
नींद की धड़कन
नापने के यंत्र
तैयार हो गए
हैं। तो रात
भर आपकी खोपड़ी
पर एक यंत्र
लगा रहता है, वह पूरे
वक्त ग्राफ
बनाता रहता है
कि कितनी गहराई
में हो। वह
ग्राफ बनता
रहता है पूरे
वक्त कि आदमी
इस वक्त
ज्यादा गहराई
में है, इस
वक्त कम गहराई
में है। वह
पूरे वक्त रात
भर का ग्राफ
देता है कि यह
आदमी कितनी
देर सोया, कितनी
देर सपने देखे,
कितनी देर
अच्छे सपने
देखे, कितनी
देर बुरे सपने
देखे, कितनी
देर इसके सपने
सेक्सुअल थे,
कितनी देर
सेक्सुअल
नहीं थे, वह
सब ग्राफ पर
दे देता है।
अमेरिका
में इस समय
कोई दस
लेबोरेटरी
हैं,
जिनमें
हजारों लोग
रात में पैसा
देकर सुलाए जा
रहे हैं, जिनकी
नींद पर बड़ा
परीक्षण चल
रहा है।
क्योंकि यह
बड़ी हैरानी की
बात है कि
नींद से हम
अपरिचित रह
जाएं।
क्योंकि आदमी
की एक तिहाई
जिंदगी नींद
में खत्म होती
है; छोटी—मोटी
घटना नहीं है
नींद। साठ साल
आदमी जीता है,
तो बीस साल
तो सोता है।
तो बीस साल के
इस बड़े हिस्से
को अनजाना छोड़
देना— आदमी का
एक तिहाई
अपरिचित रह
जाएगा। और मजा
यह है कि यह जो
एक तिहाई, बीस
वर्ष है, अगर
यह न सोए, तो
बाकी चालीस
वर्ष बच नहीं
सकता। इसलिए
बहुत बेसिक है।
अच्छा, बिना
जागे सो सकता
है आदमी साठ
वर्ष, लेकिन
बिना सोए जग
नहीं सकता। तो
ज्यादा गहरे
में और
बुनियादी तो
नींद है।
तो
नींद में हम
कहीं और होते
हैं,
हमारा मनस
कहीं और होता
है। लेकिन उस
मनस को नापा
जा सकता है।
अब उसके पता
लगने शुरू हो
गए हैं कि वह
कितनी गहरी
नींद में है।
ढेर लोग हैं, जो कहते हैं
कि हमें सपना
नहीं आता। वे
सरासर झूठ
कहते हैं; उनको
पता नहीं है, इसलिए झूठ
कहते हैं; उन्हें
पता नहीं है।
आदमी खोजना
मुश्किल है
जिसको सपना न
आता हो। बहुत
मुश्किल
मामला है। रात
भर सपना आता
है। और आपको
भी खयाल होगा
कि कभी एक—आध
आता है। वह
गलत खयाल है
आपका। मशीन
कहती है रात
भर आता है।
लेकिन स्मृति
नहीं रह जाती,
आप नींद में
होते हैं
इसलिए याद
नहीं बनती उसकी।
आपको सपना जो
याद रहता है, वह आखिरी
रहता है, जब
नींद टूटने के
करीब होती है,
तब आपकी
स्मृति बन
जाती है।
लौटते हैं
नींद से जब आप,
तो आखिरी
दरवाजे पर
नींद के जो
सपना रहता है,
वह आपके
खयाल में रह
जाता है; क्योंकि
उसकी धीमी सी
भनक आपके
जागने तक चली
आती है। लेकिन
गहरी नींद में
जो सपना रहता
है, उसका
आपको पता नहीं
रहता।
अब
गहरी नींद में
आदमी क्या
सपने देखता है, यह
जांच करना
जरूरी हो गया
है; क्योंकि
वह जो सपने
बहुत गहराई
में देखता है,
वे उसका
असली
व्यक्तित्व
होंगे। असल
में, जागकर
तो हम नकली
होते हैं।
आमतौर से हम
सोचते हैं कि
सपने में क्या
रखा है! लेकिन
सपना हमारी
ज्यादा
सच्चाई को
बताता है बजाय
हमारे जागरण
के, क्योंकि
जागरण में हम
झूठे आवरण ओढ़
लेते हैं।
अगर
किसी दिन हम
आदमी की खोपड़ी
में एक खिड़की
बना सकें, विंडो
बना सकें, और
उसके सब सपने
देख सकें, तो
आदमी की आखिरी
स्वतंत्रता
चली जाएगी—सपना
भी नहीं देख
सकेगा हिम्मत
के साथ कि जो देखना
हो वही देखे।
उसमें भी डरा
रहेगा। वहां
भी नैतिकता और
नियम और कानून
और पुलिसवाला
प्रविष्ट हो
जाएगा। वह
कहेगा सपना जरा.......यह
सपना ठीक नहीं
देख रहे हो, यह सपना
अनैतिक है।
अभी
वह
स्वतंत्रता
है। आदमी नींद
में अभी
स्वतंत्र है।
लेकिन बहुत
दिन नहीं रह
जाएगा; क्योंकि
अब नींद पर
एनक्रोचमेंट
शुरू हो गया है।
निद्रा
में बच्चों को
शिक्षित करना:
जैसे, नींद
में शिक्षा
देनी रूस में उन्होंने
शुरू की है।
स्लीप टीचिंग
पर बड़ा काम चल
रहा है।
क्योंकि
जागने में
बहुत मेहनत
करनी पड़ती है,
बच्चा
रेसिस्ट करता
है। एक लड़के
को कुछ सिखाना
बड़ा उपद्रव का
काम है, क्योंकि
वह बुनियादी
रूप से इनकार
करता है सीखने
से। असल में, हर आदमी
सीखने से
इनकार करता है,
क्योंकि हर
आदमी
बुनियादी रूप
से यह मानकर
चलता है कि
मैं जानता ही
हूं। बच्चा भी
इनकार करता है—कि
क्या सिखा रहे
हैं! वह हजार
तरह से इनकार
करता है। हमको
प्रलोभन देना
पड़ते हैं, परीक्षाओं
के पुरस्कार
देना पड़ते हैं,
गोल्ड—मेडल
बांटने पड़ते
हैं, प्रतियोगिता
पैदा करनी
पड़ती है, बुखार
जगाना पड़ता है,
किसी तरह
दौड़ा—दौडूकर
हम उसे सिखा
पाते हैं।
लेकिन इस
कांफ्तिक्ट
में बहुत समय
व्यय होता है।
जो काम दो
घंटे में सीख
सकता है, उसमें
दो महीने लग
जाते हैं। तो
वे स्लीप
टीचिंग की
फिकर पर चले
गए हैं। और
बात साफ हो गई
है कि नींद में
पढ़ाया जा सकता
है, और बड़ी
अच्छी तरह से,
क्योंकि
नींद में कोई
रेसिस्टेंस
नहीं है। एक
टेप लगा रहता
है, और वह
रात भर नींद
में भीतर
डालता रहता है
जो भी कहना है—दो
और दो चार
होते हैं, दो
और दो चार
होते हैं, वह
दोहरता रहेगा।
सुबह उस बच्चे
से कहिए, दो
और दो कितने
होते हैं? वह
कहेगा, चार
होते हैं।
अब
यह जो नींद
में विचार
डाला जा सका, यह
विचार तरंगों
से भी डाला जा
सकता है, क्योंकि
विचार की
तरंगें हमारे
खयाल में आ गई हैं।
जैसे कि हमें
कल तक खयाल
नहीं था, जैसा
हम अब जानते
हैं कि
ग्रामोफोन का
रेकॉर्ड है।
उस रेकॉर्ड पर
भाषा रेकॉर्ड
नहीं है, उस
रेकॉर्ड पर
सिर्फ तरंगों
के आघात
रेकॉर्ड हैं।
और जब सूई उन
तरंगों पर
वापस दोहरती
है तो उन्हीं
तरंगों को फिर
पैदा कर देती
है जिन तरंगों
से वे आघात
पड़े थे। वहां
कोई भाषा नहीं
है उस पर, रेकॉर्ड
पर।
जैसा
मैंने कहा कि
अगर आप ओम्
बोलेंगे, तो
रेत में एक
पैटर्न बनता
है। वह पैटर्न
ओम् नहीं है।
लेकिन अगर
आपको पता है
कि ओम् बोलने
से यह पैटर्न
बनता है, तो
किसी दिन इस
पैटर्न को ओम्
में कनवर्ट
किया जा सकता
है। यह पैटर्न
जब बना हो ऊपर,
तो इसके
नीचे ओम् को
पैदा किया जा
सकेगा, क्योंकि
यह पैटर्न उसी
से बना है; ये
दोनों एक
चीजें हैं।
तो
अब हमने
ग्रामोफोन
रेकॉर्ड बना
लिया, उसमें
वाणी नहीं है,
उसमें
सिर्फ वाणी से
पड़े हुए आघात
हैं। वे आघात
फिर से सूई से
टक्कर खा कर
फिर वाणी बन जाते
हैं।
हम
आज नहीं कल, विचार
के रेकॉर्ड
बना सकेंगे।
विचार के आघात
पकड़े जाने लगे
हैं, तो
रेकॉर्ड बनने
में बहुत देर
नहीं लगेगी।
और तब बड़ी
अजीब बात हो
जाएगी। तब यह
संभव है कि
आइंस्टीन मर
जाए, लेकिन
उसके विचार
करने की पूरी
प्रक्रिया मशीन
में हो, तो
आइंस्टीन अगर
जिंदा रहता तो
आगे जो सोचता,
वह वह मशीन
सोचकर बता सकेगी;
क्योंकि
उसके सारे के
सारे......उसके
विचार के सारे
आघात उस मशीन
के पास हैं।
नींद
पकड़ी जा सकी
है,
स्वप्न
पकड़े जा सके
हैं, बेहोशी
पकड़ी जा सकी
है— और इस मन के
साथ
वैज्ञानिक
रूप से क्या
किया जाए, वह
भी पकड़ा जा
सका है। इसलिए
वह भी समझ
लेना चाहिए।
मनोमय
जगत में
वैज्ञानिक
हस्तक्षेप की
संभावनाएं:
जैसे
कि एक आदमी
क्रोध में
होता है। तो
पुराना हमारा
हिसाब यही था
कि हम उसको
समझाएं कि
क्रोध मत करो, इसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं था;
समझाएं कि
क्रोध करोगे
तो नरक जाओगे,
इसके सिवाय
कोई उपाय नहीं
था। लेकिन वह
आदमी अगर कहे
कि हम नरक
जाने को राजी
हैं, तो हम
असमर्थ हो
जाते थे, तब
उस आदमी के
साथ हम कुछ भी
नहीं कर सकते
थे। और वह
आदमी कहे, हमें
नरक जाने में
बहुत मजा आता
है, तो
हमारी सारी
नैतिकता एकदम
व्यर्थ हो
जाती थी, उस
आदमी पर कोई
वश ही नहीं था।
वह तो नरक से
डरे तभी तक वश
था।
इसलिए
दुनिया में
जैसे ही नरक
का डर गया, वैसे
ही हमारी
नैतिकता चली
गई; क्योंकि
अब उससे कोई
डर ही नहीं
रहा है। वे
कहते हैं, ठीक
है, कहां
है नरक? हम
देखना ही
चाहते हैं एक
दफा।
तो
नैतिकता पूरी
की पूरी खत्म
हो गई, क्योंकि
वह जिस डर पर
खड़ी थी वह चला
गया।
लेकिन
विज्ञान कहता
है,
इसकी कोई
जरूरत ही नहीं
है। विज्ञान
ने अब दूसरे
सूत्र खोजे
हैं। वे सूत्र
ये हैं कि
क्रोध के लिए
शरीर में एक विशेष
रासायनिक
प्रक्रिया
होनी जरूरी है,
क्योंकि
क्रोध एक
भौतिक घटना है।
और जब क्रोध
होता है तो
शरीर में खास
तरह के रस पैदा
होने जरूरी हैं।
वे रस रोके जा
सकते हैं, क्रोध
को रोकने की
क्या जरूरत है?
और अगर वे
रस रोके जा
सकते हैं तो
आदमी क्रोध करने
में असमर्थ हो
जाएगा।
अब
हम चौदह साल
के लड़के को
समझा रहे हैं.
ब्रह्मचर्य
धारण करो!
लड़की को समझा
रहे हैं
ब्रह्मचर्य
धारण करो! वे
धारण नहीं
करते। उन्होंने
कभी नहीं किया।
शिक्षा, सब
समझाना—बुझाना
कोई परिणाम
नहीं लाता।
विज्ञान
कहता है कि अब
इसकी फिकर न
करो,
क्योंकि
कुछ ग्लैंड्स
हैं जिनसे
सेक्स पैदा होता
है, हम उन
ग्लैंड्स को
ही पच्चीस साल
तक रोके देते
हैं बढ़ने से।
तो सेक्स
मैच्योरिटी
ही पच्चीस साल
में आएगी, आप
ब्रह्मचर्य
की चिंता मत
करो।
खतरनाक
है यह बात!
क्योंकि मन
जिस दिन पूरा
का पूरा वैज्ञानिक
पकड़ में आ जाए, उस
दिन हम उसका
दुरुपयोग भी
कर सकते हैं।
क्योंकि
विज्ञान कहता
है कि जो आदमी
रिबेलियस है,
उस आदमी का
रासायनिक
कपोजीशन उस
आदमी से अलग होता
है जो आर्थोडाक्स
है। जो आदमी
क्रांति और
विद्रोही
चित्त का है, उस आदमी के
रासायनिक
कपोजीशन में
और वह आदमी जो
परंपरावादी
और रूढ़िवादी
है, उसके
रासायनिक
कपोजीशन में
फर्क होता है।
तब तो बड़ा
खतरनाक है, क्योंकि अगर
यह कपोजीशन
हमें पता चल
गया है तो हम
विद्रोही को
विद्रोही होने
से रोक सकते
हैं, रूढ़िवादी
को रूढ़िवादी
होने से रोक
सकते हैं। जेल
में किसी आदमी
को मारने की
जरूरत नहीं रह
जाएगी, किसी
को फांसी की
सजा देने की
जरूरत नहीं—सजा
ही देने की
जरूरत नहीं है।
क्योंकि जब
हमें पक्का हो
गया कि एक
आदमी चोरी
करता है, और
उस चोरी के
लिए ये
रासायनिक
तत्व
अनिवार्य हैं,
अन्यथा वह
चोरी नहीं कर
सकता, तो
कोई जरूरत
नहीं उसको जेल
ले जाने की, उसको
अस्पताल ले
जाकर सर्जरी
की जा सकती है;
उसका विशेष
रस बाहर किया
जा सकता है; या दूसरे रस
डालकर उसके
पहले रस को
दबाया जा सकता
है; या
एंटीडोट दिया
जा सकता है।
यह सारा काम
चल रहा है।
यह
काम बताता है
कि चौथे शरीर
पर तो प्रवेश
में कोई
कठिनाई नहीं
रह गई है।
कठिनाई सिर्फ
एक रह गई है, कठिनाई
सिर्फ एक रह
गई है कि बहुत
बड़े विज्ञान
का हिस्सा
युद्ध के
मामले में
उलझा हुआ है, इसलिए उस पर
पूरे काम नहीं
हो पाते, वह
गौण रह जाता
है। लेकिन फिर
भी बहुत काम
चल रहा है, और
बहुत अनूठे
काम चल रहे
हैं।
आध्यात्मिक
अनुभवों के
रासायनिक
प्रतिरूप:
अब
जैसे कि
अल्डुअस
हक्सले का
दावा यह है कि
कबीर को जो
हुआ,
या मीरा को
जो हुआ, वह
इंजेक्यान से
हो सकता है।
इस दावे में
थोड़ी सच्चाई
है। यह बड़ा
संघातक दावा
है, लेकिन
इसमें सच्चाई
है।
अगर
महावीर एक
महीना उपवास
करते हैं, और
एक महीना
उपवास करके
उनका मन शांत
हो जाता है।
उपवास भौतिक
घटना है, भौतिक
घटना से अगर
मन शांत होता
है तो मन भी भौतिक
है।
उपवास
से होता क्या
है?
एक महीने के
उपवास से शरीर
की पूरी
रासायनिक व्यवस्था
बदल जाती है, और तो कुछ
होता नहीं। जो
भोजन मिलने
चाहिए, वे
नहीं मिल पाते;
जो तत्व
शरीर में
इकट्ठे हो गए
थे रिजर्वायर
में, वे सब
खत्म हो जाते
हैं; चर्बी
कम हो जाती है;
कुछ जरूरी
तत्व बचा लिए
जाते हैं, गैर—जरूरी
नष्ट हो जाते
हैं। तो शरीर
का पूरा का
पूरा जो
रासायनिक
इंतजाम था
महीने भर के
पहले, वह
बदल जाता है।
विज्ञान
कहता है कि एक
महीना परेशान
होने की क्या
जरूरत है? यह
रासायनिक
इंतजाम उसी
अनुपात में
अभी बदला जा
सकता है—इसी
वक्त! तो अगर
यह रासायनिक
इंतजाम अभी बदल
जाएगा, तो
महीने भर बाद
महावीर को जो
शांति अनुभव
हुई, वह
आपको अभी हो
जाएगी। उसकी
बुनियाद तो
वही है।
अब
जैसे मैं
ध्यान में
कहता हूं कि
आप जोर से श्वास
लें। मगर एक
घंटा तीव्र
श्वास लेने से
होनेवाला क्या
है?
सिर्फ आपके
आक्सीजन का
अनुपात बदल
जाएगा। लेकिन
यह आक्सीजन का
अनुपात तो
बाहर से बदला
जा सकता है, इसको एक
घंटा आपसे
मेहनत करवाना
जरूरी नहीं है।
यह तो इस कमरे
की आक्सीजन का
अनुपात बदलकर
भी किया जा
सकता है कि
यहां बैठे हुए
सारे लोग शांत
हो जाएं, प्रफुल्लित
हो जाएं।
तो
विज्ञान चौथे
शरीर पर तो कई
तरफ से प्रवेश
कर गया है, और
रोज प्रवेश
करता जा रहा
है।
अब
जैसे कि
तुम्हें
ध्यान में
अनुभूतियां
होंगी—सुगंध
आएगी, रंग
दिखाई पड़ेंगे—ये
सब ध्यान में
बिना जाए भी
हो सकता है अब!
क्योंकि विज्ञान
ने यह सब पता
लगा लिया है
ठीक से कि जब
तुम्हें भीतर
रंग दिखाई
पड़ते हैं तो
तुम्हारे
मस्तिष्क का
कौन सा हिस्सा
सक्रिय होता
है; उसके
सक्रिय होने
की तरंगें
कितनी होती
हैं। समझ लें
कि मेरे
मस्तिष्क का
पीछे का
हिस्सा जब
सक्रिय होता
है, तब
मुझे भीतर रंग
दिखाई पड़ते
हैं—सुंदर रंग
दिखाई पड़ते
हैं। यह जांच
बता देती है
कि इस वक्त जब
तुम्हें रंग
दिखाई पड़ रहे
हैं, तुम्हारे
मस्तिष्क का
कौन सा हिस्सा
तरंगित है, और उसमें
कितने
वेवलेंथ की
तरंगें उठ रही
हैं।
अब
कोई जरूरत
नहीं है आपको
ध्यान में
जाने की; उस
हिस्से पर
उतनी तरंगें
बिजली से पैदा
कर दी जाएं, आपको रंग
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। ये सब
पैरेलल हैं; क्योंकि इस
तरफ का छोर
पकड़ लिया जाए,
दूसरी तरफ
का छोर तत्काल
होना शुरू हो
जाता है।
स्वेच्छा
मृत्यु की भी
एक समस्या:
इसके
खतरे हैं। कोई
भी नई खोज, और
मनुष्य के
जितने भीतर
जाती है, उतने
खतरे बढ़ते चले
जाते हैं। अब
जैसे कि हमें
आदमी की कितनी
उम्र बढ़ानी है,
हम अब बढ़ा
सकते हैं। अब
कोई उम्र
प्रकृति की
बात नहीं है, विज्ञान के
हाथ में आ गई
है। तो आज
यूरोप और
अमेरिका में
हजारों ऐसे के
हैं जो यह
मांग कर रहे
हैं अथनासिया
की कि हमें स्व—मरण
का अधिकार
चाहिए।
क्योंकि उनको
लटका दिया गया
है खाटों पर, वे लटके हैं
और उनको
आक्सीजन दी जा
रही है, और
वह अंतहीन काल
तक उनको जिंदा
रखा जा सकता है।
अब एक नब्बे
साल का बूढ़ा
है, वह
कहता है, हमें
मरना है!
लेकिन डाक्टर
कहता है, हम
मरने में
सहयोगी नहीं
हो सकते; क्योंकि
कानून उसको
हत्या कहता है।
अच्छा, उसका
बेटा भी मन
में भी सोचता
हो कि पिता
तकलीफ भोग रहा
है, तब भी
खुले नहीं कह
सकता कि पिता
को मार डाला जाए।
और पिता को अब
जिलाया जा
सकता है। और
एक मशीनरी
पैदा हो गई है
जो उसको जिलाए
रखेगी। अब वह
बिलकुल मरा
हुआ जिंदा
रहेगा।
अब
यह एक लिहाज
से खतरनाक है।
हमारा पुराना
जो कानून है
वह तब का है जब
हम आदमी को
जिंदा नहीं रख
सकते थे, सिर्फ
मार सकते थे।
अब कानून
बदलने की
जरूरत है, क्योंकि
अब हम जिंदा
भी रख सकते
हैं। और इतनी
सीमा तक जिंदा
रख सकते हैं
कि वह आदमी चिल्लाकर
कहने लगे कि
मेरे साथ
अत्याचार हो रहा
है, हिंसा
हो रही है! कि
अब मैं जिंदा
नहीं रहना
चाहता हूं; यह क्या
मेरे साथ हो
रहा है? यानी
कभी हम एक
आदमी को सजा
देते थे कि इस
आदमी ने गुनाह
किया है, इसकी
हत्या कर दो।
कोई आश्चर्य
नहीं कि पचास
साल बाद हम एक
आदमी को सजा
दें कि इस
आदमी ने गुनाह
किया है, इसको
मरने मत देना।
इसमें कोई कठिनाई
नहीं है। और
यह पहली सजा
से ज्यादा बड़ी
सजा सिद्ध
होगी, क्योंकि
मर जाना एक
क्षण का मामला
है और जिंदा
रहना सदियों
का हो सकता है।
तो
जब भी कोई नई
खोज होती है, और
मनुष्य के
भीतर होती है,
तो उसके
दोहरे परिणाम
होंगे इधर
नुकसान का भी खतरा
है, फायदा
भी हो सकता है।
ताकत जब भी
आती है तो
दोतरफा होती
है।
बीसवीं
सदी के अंत तक
विज्ञान का
मनस शरीर पर अधिकार:
अब
मनुष्य के
चौथे शरीर पर विज्ञान
चला गया, जा
रहा है। और
आनेवाले पचास
वर्षों में—पचास
वर्ष नहीं
कहने चाहिए, आनेवाले तीस
वर्षों में.......क्योंकि
यह बात
तुम्हें शायद खयाल
में न हो कि हर
सदी के अंत पर,
उस सदी ने
जो कुछ किया
है वह
क्लाइमेक्स
पर पहुंच जाता
है—हर सदी के
अंत पर, उस
सदी में जो भी
पैदा होता है,
सदी के अंत
होते—होते वह
अपनी चरम
स्थिति में आ
जाता है। तो
हर सदी अपने
काम को अपने
अंत तक पूरा
करती है। इस
सदी ने बहुत
से काम उठा
रखे हैं जो कि
तीस साल में
पूरे होंगे।
उनमें मनुष्य
के मनस शरीर
पर प्रवेश
बहुत बड़ा काम
है जो पूरा हो
जाएगा।
आत्म
शरीर में
भाषागत
बाधाओं का
अतिक्रमण:
पांचवां
जो शरीर है, जिसको
मैं आत्म शरीर
कह रहा हूं वह
चौथे का भी सूक्ष्मतम
रूप है। विचार
की ही तरंगें
नहीं हैं, मेरे
होने की भी
तरंगें हैं।
अगर मैं
बिलकुल भी चुप
बैठा हूं और
मेरे भीतर कोई
विचार नहीं चल
रहा है, तब
भी मेरा होना
भी तरंगित हो
रहा है। तुम
अगर मेरे पास
आओ, और
मेरे पास कोई
विचार नहीं है,
तब भी तुम
मेरी तरंगों
के क्षेत्र
में आओगे। और
मजा यह है कि
मेरे विचार की
तरंगें उतनी
मजबूत नहीं
हैं और उतनी
पेनिट्रेटिंग
नहीं हैं, जितनी
मेरे सिर्फ
होने की
तरंगें हैं।
इसलिए
जिस आदमी की
निर्विचार
स्थिति बन
जाती है, वह
बहुत प्रभावी
हो जाता है; उसके प्रभाव
का कोई हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
उसके प्रभाव
का हिसाब ही
लगाना
मुश्किल है; क्योंकि
उसके भीतर से
अस्तित्व की
तरंगें उठनी
शुरू हो जाती
हैं। वे आदमी
की जानकारी
में सब से
सूक्ष्म
तरंगें हैं—
आत्म शरीर की।
इसलिए
बहुत बार ऐसा
हुआ है, जैसे
महावीर के
संबंध में जो
बात है वह सही
है कि वे बोले
नहीं, बहुत
कम बोले शायद
नहीं ही बोले।
वे सिर्फ बैठे
रहेंगे। लोग
उनके पास आकर
बैठ जाएंगे और
समझ लेंगे, चले जाएंगे।
यह उस दिन
संभव था, यह
आज बहुत कठिन
हो गया है। आज
इसलिए कठिन हो
गया है कि
अस्तित्व की
जितनी... आत्म
शरीर की जो
गहरी तरंगें
हैं, वे आप
भी तभी अनुभव
कर पाएंगे, जब आप भी
विचार को खोने
को तैयार हों।
नहीं तो आप
अनुभव....... आप अगर
बहुत नॉइज से
भरे हैं अपने
विचारों की, तो वे बहुत
सूक्ष्म
तरंगें चूक
जाएंगी; आपके
आर—पार निकल
जाएंगी, आप
उनको पकड़ नहीं
पाएंगे।
तो
अस्तित्व की
तरंगें अगर
पकड़ में आने
लगें, और
दोनों तरफ अगर
निर्विचार हो,
तो बोलने की
कोई जरूरत ही
नहीं है। तब
हम ज्यादा
गहरे में कोई
बात कह पाते
हैं और वह
सीधी चली जाती
है। उसमें तुम
व्याख्या भी
नहीं करते, व्याख्या का
उपाय भी नहीं
होता, उसमें
डांवाडोल भी
नहीं होते—ऐसा
होगा कि नहीं
होगा, यह
भी नहीं होता,
वह तो सीधा
तुम्हारा
अस्तित्व
जानता है कि
हो गया।
इस
पांचवें शरीर
पर जो बात है, इस
पांचवें शरीर
की तरंगें
जरूरी नहीं है
कि आदमी को ही
मिलें। इसलिए
महावीर के
जीवन में एक
और अदभुत घटना
है कि उनकी
सभा में जानवर
भी रहते हैं।
इसको जैन साधु
नहीं समझा पाता
अब तक कि क्या
मामला है! वह
समझा भी नहीं
पाएगा। उनकी
सभा में जानवर
भी रहते, यह
तभी संभव है, क्योंकि
जानवर आदमी की
भाषा तो नहीं
समझ सकता, लेकिन
बीइंग की, होने
की भाषा तो
उतनी ही समझता
है। उसमें कोई
फर्क नहीं है।
अगर मैं
निर्विचार
होकर एक
बिल्ली के पास
बैठा हूं तो
बिल्ली तो
निर्विचार है।
तुमसे तो मुझे
बात ही करनी
पड़े, क्योंकि
तुम्हें
बिल्ली के
निर्विचार तक
ले जाना भी एक
लंबी यात्रा
है। तो इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। अगर
आत्म शरीर से
तरंगें निकल
रही हों, तो
उसको पशु भी
समझ सकते हैं,
पौधे भी समझ
सकते हैं, पत्थर
भी समझ सकते
हैं। इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
इस
शरीर तक भी
प्रवेश हो
जाएगा, पर
चौथे के बाद
ही हो सकेगा।
और चौथे में
प्रवेश हो गया
है, उसके
द्वार कई जगह
से तोड़ लिए गए
हैं।
आत्म
शरीर तक
विज्ञान की
पहुंच:
तो
आत्म—स्थिति
को तो विज्ञान
जल्दी
स्वीकार कर
लेगा, बाद में
जरा कठिनाई है।
इसलिए
मैंने कहा कि
पांचवें शरीर
तक चीजें बड़ी वैज्ञानिक
ढंग से साफ हो
सकती हैं, बाद
में कठिनाई
होनी शुरू हो
जाती है। उसके
कारण हैं।
क्योंकि विज्ञान
को अगर ठीक से
हम समझें तो
वह
स्पेशलाइजेशन
है, वह
किसी एक दिशा
में विशेषशता
है, चुनाव
है। इसलिए विज्ञान
उतना ही गहरा
होता जाता है
जितना वह किसी
चीज के संबंध
में, कम से
कम चीज के
संबंध में
ज्यादा से
ज्यादा जानने
लगता है—टु नो
अबाउट दि
लिटिल एंड टु
नो मोर। तो
दोहरा काम है
उसका ज्यादा
जानता है
लेकिन और छोटी
चीज के संबंध
में, और
छोटी चीज के
संबंध में, और छोटी चीज
के संबंध में।
छोटी चीज करता
जाता है और
ज्ञान को
बढ़ाता जाता है।
जैसे
पहले एक
डाक्टर था, तो
पूरे शरीर के
संबंध में
जानता था। अब
कोई डाक्टर
पूरे शरीर के
संबंध में
नहीं जानता।
और अगर वैसा
कोई पुराना
डाक्टर बच गया
है, तो वह
सिर्फ
रेलिक्स है; वे चले
जाएंगे, वे
बच नहीं सकते।
वे पुराने
खंडहर हैं
जिनको विदा हो
जाना पड़ेगा।
क्योंकि वह
डाक्टर अब
भरोसे के
योग्य नहीं रह
गया, वह
इतनी ज्यादा
चीज के संबंध
में जानता है
कि ज्यादा
नहीं जान सकता,
कम ही जान
सकता है। अब आंख
का डाक्टर अलग
है, कान का
डाक्टर अलग है,
वह ज्यादा
भरोसे के
योग्य है; क्योंकि
वह इतनी छोटी
चीज के संबंध
में जानता है
कि ज्यादा जान
सकता है। आज
तो आंख पर ही
इतना साहित्य
है कि एक आदमी
अपनी पूरी जिंदगी
भी जानने में
लगाए तो पूरा
साहित्य नहीं
जान सकता।
इसलिए
आज नहीं कल, बाईं
आंख और दाईं आंख
का डाक्टर अलग
हो सकता है।
बांटना पड़
सकता है। कल
हम आंख में भी
विभाग कर सकते
हैं कि कोई
सफेद हिस्से के
संबंध में
जानता है, कोई
काले हिस्से
के। क्योंकि
वे भी बहुत
बड़ी घटनाएं
हैं। और उनमें
भी अगर
विस्तार में......
और विज्ञान का
मतलब ही यह है
कि वह रोज
छोटा करता
जाता है अपना
फोकस। इसलिए
विज्ञान बहुत
जान पाता है।
उसका फोकस
होता है कम, कनसनट्रेटेड
हो जाता है।
ब्रह्म
शरीर और
निर्वाण शरीर
के रहस्य में
विज्ञान का खो
जाना:
तो
पांचवें शरीर
तक,
मैं कहता
हूं विज्ञान
का प्रवेश हो
सकेगा; क्योंकि
पांचवें शरीर
तक इंडिविजुअल
है। इसलिए
फोकस में, पकड़
में आ जाता है।
छठवें से
कास्मिक है; फोकस में, पकड़ में
नहीं आता।
छठवां जो है
वह कास्मिक
बॉडी है, ब्रह्म
शरीर, है।
ब्रह्म शरीर
का मतलब है—दि
टोटल। वहां
विज्ञान
प्रवेश नहीं
कर पाएगा; क्योंकि
विज्ञान छोटे,
और छोटे, और छोटे पर
जा सकता है।
तो वह व्यक्ति
तक पकड़ लेगा।
व्यक्ति के
बाद उसकी
दिक्कत है; कास्मिक को
पकड़ना उसकी
दिक्कत है।
कास्मिक को तो
धर्म ही
पकड़ेगा।
इसलिए
आत्मा तक
विज्ञान को
कठिनाई नहीं
आएगी, कठिनाई
आएगी
परमात्मा पर।
वहां मैं नहीं
समझ पाता कि
किसी दिन संभव
हो पाएगा कि विज्ञान
पकड़े, क्योंकि
वहां तभी पकड़
सकता है जब वह
स्पेशलाइजेशन
छोड़े। और
स्पेशलाइजेशन
छोड़े कि वह विज्ञान
नहीं रह गया, वह वैसा ही
वेग और
जनरलाइब्द हो
जाएगा जैसा धर्म
है।
इसलिए
मैंने कहा कि
पांचवें तक
विज्ञान के साथ
सहारा और
यात्रा हो
सकेगी; छठवें
पर वह खो जाएगा;
और सातवें
पर तो बिलकुल
ही नहीं जा
सकता।
क्योंकि
विज्ञान की
सारी खोज जीवन
की खोज है।
असल में, हमारी
जो जीवन की
आकांक्षा है,
जो जीवेषणा
है कि हम जीना
चाहते हैं—कम
बीमार, ज्यादा
स्वस्थ, ज्यादा
देर, ज्यादा
सुख से, ज्यादा
सुविधा से।
विज्ञान की
मूल प्रेरणा
ही जीवन को
गहरा, सुखद,
संतुष्ट, शांत, स्वस्थ
बनाने की है।
और सातवां
शरीर जो है वह
मृत्यु का
अंगीकार है, वह
महामृत्यु है।
वहां साधक
जीवन की खोज
के पार आ गया; अब वह कहता
है हम मृत्यु
को भी जानना
चाहते हैं, हमने होना
जान लिया, अब
हम न होना भी
जानना चाहते
हैं, हमने
बीइंग जान
लिया, अब
हम नॉन—बीइंग
भी जानना
चाहते हैं।
वहां विज्ञान
का कोई अर्थ
नहीं है।
तो
वैज्ञानिक तो
वहां कहेगा—जैसा
फ्रायड कहता
है—कि डेथ विश, यह
अच्छी बात
नहीं है, यह
स्युसाइडल है।
फ्रायड कहता
है, यह
अच्छी बात
नहीं है; निर्वाण,
मोक्ष, ये
ठीक बातें नहीं
हैं; ये
आपके मरने की
इच्छा के सबूत
हैं! आप मरना
चाहते हैं, आप बीमार
हैं। वह
इसीलिए कह रहा
है, क्योंकि
वैज्ञानिक
मरने की इच्छा
को इनकार ही
करेगा, क्योंकि
विज्ञान खड़ा
ही जीवन की
इच्छा के
विस्तार पर है।
लेकिन जो आदमी
जीना चाहता है
वह स्वस्थ हैं—लेकिन
एक घड़ी ऐसी
आती है, तब
मरना चाहना भी
इतना ही
स्वस्थ हो
जाता है। हां,
बीच में कोई
मरना चाहे तो
अस्वस्थ है, लेकिन एक
घड़ी जीवन की
ऐसी आ जाती है
जब कोई मरना
भी चाहता है।
कोई
कहे कि जागना
तो स्वस्थ है
और सोना
स्वस्थ नहीं
है। ऐसा हुआ
जा रहा है, कि
हम रात का समय
दिन को देते
जा रहे हैं।
पहले छह बजे
रात हो जाती
थी, अब दो
बजे होने लगी
है। रात का
समय दिन को
दिए जा रहे
हैं। और कुछ
विचारक हैं जो
कहते हैं कि
किसी तरह से आदमी
को नींद से
बचाया जा सके,
तो उसकी
जिंदगी में
बहुत समय बच
जाएगा। नींद
की इच्छा ही
क्यों? इसको
छोड़ ही दिया
जाए किसी तरह
से।
लेकिन
जैसे जागने का
एक आनंद है, ऐसे
ही सोने का एक
आनंद है। और
जैसे जागने की
इच्छा भी
स्वाभाविक और
स्वस्थ है, ऐसे ही एक
घड़ी सो जाने
की इच्छा भी
स्वस्थ और स्वाभाविक
है। अगर कोई
आदमी मरते दम
तक भी जीने की
आकांक्षा किए
जाता है तो
अस्वस्थ है; और अगर कोई
आदमी जन्म से
ही मरने की
आकांक्षा करने
लगता है, वह
भी अस्वस्थ है।
एक बच्चा अगर
मरने की
आकांक्षा
करता है तो बीमार
है, उसका
इलाज होना
चाहिए। और अगर
एक का भी जीना
चाहता है तो
बीमार है, उसका
इलाज होना
चाहिए।
महाशून्य
में परम
विसर्जन परम
स्वास्थ्य है:
जीवन
और मृत्यु दो
पैर हैं
अस्तित्व के।
आप एक को
स्वीकार करते
हैं तो लंगड़े
ही होंगे, दूसरे
को स्वीकार
नहीं करेंगे
तो लंगड़ापन कभी
नहीं मिटेगा।
दोनों पैर हैं—
होना भी और न
होना भी। और
वही आदमी परम
स्वस्थ है जो
दोनों को एक
सा आलिंगन कर
लेता हैं—होने
को भी, न
होने को भी।
जो कहता है, होना भी
जाना, अब न
होना भी जान
लें, जिसे
न होने में
कोई भय नहीं
है।
तो
सातवां जो
शरीर है, वह तो
सिर्फ उन्हीं
साहसी लोगों
के लिए है, जिन्होंने
जीवन जान लिया
और अब जो
मृत्यु भी जानना
चाहते हैं। जो
कहते हैं, इसे
भी खोजेंगे!
जो कहते हैं, हम इसे भी
जानेंगे! जो
कहते हैं, हम
मिट जाने को
भी जानना
चाहते हैं! यह
मिट जाना क्या
है? यह खो
जाना क्या है?
यह न हो
जाना क्या है?
जीने का रस
देखा, अब
मृत्यु का रस
भी देखना है।
अब तुम्हें इस
संबंध में यह
भी जान लेना उचित
होगा कि जो
हमारी मृत्यु
है, वह
सातवें शरीर
से ही आती है।
साधारण
मृत्यु भी, वह हमारे
सातवें शरीर
से आती है; और
जो हमारा जीवन
है, वह
हमारे पहले
शरीर से आता
है। तो जन्म
जो है, वह
भौतिक शरीर से
शुरू होता है।
जन्म का मतलब
ही है भौतिक
शरीर की
शुरुआत।
इसलिए मां के
पेट में पहले
भौतिक शरीर
निर्मित होता है,
फिर और शरीर
प्रवेश करते
हैं। पहला
शरीर हमारा
जन्म की
शुरुआत है; और अंतिम
शरीर, जिसको
निर्वाण शरीर
मैंने कहा, वहां से
हमारी मृत्यु
आती है। और जो
इस भौतिक शरीर
को जोर से पकड़
लेता है, वह
इसलिए मौत से
बहुत डरता है।
और जो मौत से
डरता है, वह
सातवें शरीर
को नहीं जान
पाएगा कभी।
इसलिए
धीरे— धीरे
भौतिक शरीर से
पीछे हटते—हटते
वह घड़ी आ जाती
है,
जब हम मौत
को भी अंगीकार
कर लेते हैं; तभी हम जान
पाते हैं। और
जो मौत को जान
लेता है, वह
परिपूर्ण
अर्थों में
मुक्त हो जाता
है, क्योंकि
तब जीवन और
मृत्यु एक ही
चीज के दो
पहलू हो जाते
हैं, और वह
दोनों के बाहर
हो जाता है।
वैज्ञानिक
बुद्धि और
धार्मिक हृदय
: एक दुर्लभ
संयोग:
यह
सातवें शरीर
तक विज्ञान
कभी जाएगा, इसकी
कोई आशा नहीं
है, छठवें
शरीर तक जा
सकेगा, इसकी
संभावना नहीं
है। पांचवें
तक जा सकता है,
क्योंकि
चौथे के द्वार
खुल गए हैं और
पांचवें पर
जाने में कोई
कठिनाई नहीं
रह गई है
वस्तुत:।
सिर्फ ऐसे
लोगों की
जरूरत है
जिनके पास
वैज्ञानिक
बुद्धि हो और
जिनके पास
धार्मिक हृदय
हो—वे अभी
प्रवेश कर
जाएं। यह
मुश्किल
कांबिनेशन है
थोड़ा; क्योंकि
वैज्ञानिक की
जो ट्रेनिंग
है, वह उसे
धार्मिक होने
से कई दिशाओं
से रोक देती
है; और
धार्मिक की जो
ट्रेनिंग है,
वह उसे
वैज्ञानिक
होने से कई
दिशाओं से रोक
देती है। तो
इन दोनों
ट्रेनिंग का
कहीं
ओवरलैपिंग
नहीं हो पाता,
इससे बड़ी
कठिनाई है।
कभी
ऐसा होता है।
जब भी ऐसा होता
है,
तब दुनिया
में एक नई पीक
ज्ञान की, एक
नया शिखर पैदा
हो जाता है— जब
भी कभी ऐसा
होता है। जैसे
पतंजलि! अब वह
आदमी
वैज्ञानिक
बुद्धि का है
और धर्म में
प्रवेश कर गया।
तो उसने योग
को एक चोटी पर
पहुंचा दिया,
जिसके बाद
फिर उस चोटी
को पार करना
अब तक संभव नहीं
हुआ है। एक
ऊंचाई पर बात
चली गई, पतंजलि
को मरे बहुत
वक्त हो गया, बहुत काम हो
सकता था; लेकिन
पतंजलि जैसा
आदमी नहीं मिल
सका, जिसके
पास एक
वैज्ञानिक की
बुद्धि थी और
जिसके पास एक
धार्मिक
साधना का जगत
था। एक ऐसे
शिखर पर बात
पहुंच गई कि
उसके बाद फिर
योग का कोई शिखर
दूसरा उससे
ऊंचा नहीं उठा
सका।
अरविंद
ने बहुत कोशिश
की,
लेकिन सफल
नहीं हो सके।
अरविंद के पास
भी एक
वैज्ञानिक की
बुद्धि थी, और शायद
पतंजलि से
ज्यादा थी; क्योंकि
सारा शिक्षण
उनका पश्चिम
में हुआ।
अरविंद का
शिक्षण बड़ा
महत्वपूर्ण
है। बाप ने
अरविंद को
हिंदुस्तान
से बहुत छोटी
उम्र में, पांच—छह
वर्ष की उम्र
में भेज दिया,
और सख्त
मनाही की कि
अब इसे
हिंदुस्तान
तब तक वापस
नहीं लौटाना
है जब तक यह
पूरा मैच्योर
न हो जाए। यह
हालत आ गई कि
बाप के मरने
का वक्त आ गया
और लोगों ने
चाहा कि
अरविंद को वापस
भेज दें।
उन्होंने कहा
कि नहीं, मैं
मर जाऊं, यह
बेहतर; लेकिन
लड़का पूरी तरह
पश्चिम को
पीकर लौटे; पूरब की
छाया भी न पड
जाए उस पर, उसे
खबर भी न दी
जाए कि मैं मर
गया।
हिम्मतवर बाप
था ऐसे।
तो
अरविंद पूरे
पश्चिम को
पीकर लौटे।
अगर
हिंदुस्तान
में कोई आदमी
ठीक अर्थों
में वेस्टर्न
था तो वह
अरविंद थे। वह
अपनी भाषा
उनको लौटकर
सीखनी पड़ी—मातृभाषा।
वे तो सब भूल—
भाल गए थे। तो
विज्ञान तो
पूरा हो गया
इस आदमी में, लेकिन
धर्म पीछे से
आरोपित था, वह बहुत
गहरा नहीं जा
सका। धर्म जो
था वह बहुत
बाद में ऊपर
से प्लांटेड था,
वह बहुत
गहरा नहीं जा
सका। नहीं तो
पतंजलि से
ऊंचा शिखर
अरविंद छू
सकते थे। वह
नहीं हो सका।
वह ट्रेनिंग
जो थी पश्चिम
की, वह
बहुत गहरे
अर्थों में
बाधा बन गई।
और बाधा इस
तरह से बन गई
कि वे, जैसा
वैज्ञानिक
सोचता है, उसी
तरह से सोचने
में लग गए। तो
डार्विन की
सारी एवोल्यूशन
वे धर्म में
ले आए। पश्चिम
से जो—जो खयाल
लाए थे, उन
सबको धर्म में
उन्होंने
प्रविष्ट कर
दिया, लेकिन
धर्म का उनके
पास कोई खयाल
नहीं था, जो
वे विज्ञान
में प्रवेश कर
दें। इसलिए विज्ञान
की बड़ी काया, बड़ा वाल्यूमिनस
साहित्य
उन्होंने रच
डाला, लेकिन
उसमें धर्म नहीं
है, धर्म
उसमें बहुत
ऊपरी है।
जब
भी कभी ऐसा
हुआ है कि वैज्ञानिक
बुद्धि और
धार्मिक
बुद्धि का
कहीं कोई
तालमेल हो गया
है तो बड़ा
शिखर छुआ जा
सकता है। ऐसा
पूरब में हो
सकेगा, इसकी
संभावना कम
होती जाती है;
क्योंकि
पूरब के पास
धर्म भी खो
गया है और विज्ञान
तो है ही नहीं।
पश्चिम में ही
हो सके, इसकी
संभावना
ज्यादा है, क्योंकि विज्ञान
अतिशय हो गया
है। और जब भी
कोई अतिशय हो
जाती है चीज, तो पेंडुलम
दूसरी तरफ
झूलना शुरू हो
जाता है। तो
पश्चिम का जो
बहुत
बुद्धिमान
वर्ग है, वह
जिस रस से अब
गीता को पढ़ता
है, उस रस
से हिंदुस्तान
में कोई नहीं
पढ़ता।
जब
पहली दफा
शापेनहार ने
गीता पढ़ी तो
सिर पर रखकर
वह नाचने लगा—नाचता
हुआ घर के
बाहर आ गया।
और लोगों ने
कहा,
क्या हो गया?
पागल हो गए
हो? उसने
कहा कि यह
ग्रंथ पढ़ने
योग्य नहीं, सिर पर रखकर
नाचने योग्य
है। मुझे पता
ही नहीं था कि
ऐसी बात कहने वाले
लोग भी हो गए
हैं। यह क्या
कह दिया! यह
भाषा में आ
सकता है? यह
शब्द में बंध
सकता है? मैं
तो सोचता था
बंध ही नहीं
सकता। यह तो
बंध गया! यह तो
कुछ बात कह दी
गई!
अब
हिंदुस्तान
में गीता सिर
पर रखकर
नाचनेवाला
आदमी नहीं
मिलेगा। हां, बहुत
लोग मिलेंगे
जो गीता की
बैलगाड़ी
बनाकर और उस
पर सवार होकर
चल रहे हैं।
वे लोग
मिलेंगे। वह
उनसे कोई..
.उनसे कोई
अर्थ नहीं
होता है।
पर
इस सदी के
पूरे होते—होते
एक बड़ा शिखर
छू लिया जा
सकेगा, क्योंकि
जब जरूरत होती
है तो हजार—हजार
कारण सारे जगत
में सक्रिय हो
जाते हैं।
आइंस्टीन
मरते—मरते
धार्मिक आदमी
होकर मरा है।
जीते जी तो
वैज्ञानिक था,
मरते—मरते
धार्मिक आदमी
होकर मरा है।
इसलिए
जो दूसरे बहुत
अतिशय
वैज्ञानिक
हैं,
वे कहते हैं,
आइंस्टीन
की आखिरी
बातों को
गंभीरता से
नहीं लेना
चाहिए; उसका
दिमाग खराब हो
गया होगा।
क्योंकि आखिर—आखिर
में उसने जो
कहा है, वह
बहुत अदभुत है।
आइंस्टीन
आखिरी—आखिरी
वक्त कहते मरा
है कि मैं
सोचता था—जगत
को जान लंगूा; लेकिन
जितना जाना, उतना पाया
कि जानना
असंभव है, जानने
को अनंत शेष
है। और मैं
सोचता था कि
एक दिन विज्ञान
जगत के रहस्य
को तोड़कर गणित
का सवाल बना
देगा, मिस्ट्री
खतम हो जाएगी;
लेकिन गणित
का सवाल बड़ा
होता चला गया,
जगत की
मिस्ट्री तो
कम न हुई, गणित
का सवाल ही और
बड़ी मिस्ट्री
हो गया; अब
उसको भी हल
करना मुश्किल
है।
आधुनिक
विज्ञान धर्म
की
प्रतिध्वनि
में:
पश्चिम
में और भी
चोटी के दो—चार
वैज्ञानिक
धर्म की परिधि
के करीब घूम
रहे हैं। विज्ञान
में ही वैसी
संभावनाएं
पैदा हो गई
हैं,
क्योंकि वह
जैसे ही तीसरे
शरीर के करीब
पहुंच रहा है—अरे
को वह पार कर
गया है— जैसे
ही वह तीसरे
के करीब पहुंच
रहा है, धर्म
की
प्रतिध्वनि
अनिवार्य है,
क्योंकि अब
वह
अनसटेंन्टी
के, प्रोबेबिलिटी
के, अनिश्चय
के, अननोन
के जगत में
खुद ही प्रवेश
कर रहा है। अब
उसको कहीं न
कहीं स्वीकार
करना पड़ेगा अज्ञात
है! अब उसको
स्वीकार करना
पड़ेगा जो
दिखाई पड़ता है,
उससे
अतिरिक्त भी
है, जो
नहीं दिखाई
पड़ता, वह
भी है, जो
नहीं सुनाई
पड़ता, वह भी
है। क्योंकि
आज से सौ ही
साल पहले हम
कह रहे थे— जो
नहीं सुनाई
पड़ता, वह
नहीं है, जो
नहीं दिखाई
पड़ता, वह
नहीं है, जो
नहीं स्पर्श
में आता, वह
नहीं है। अब
विज्ञान कहता
है— नहीं, इतना
है कि स्पर्श
में तो बहुत
कम आता है; स्पर्श
की तो बड़ी
सीमा है, अस्पर्श
का बड़ा
विस्तार है।
इतना है कि
सुनाई तो बहुत
कम पड़ता है, न सुनाई
पड़नेवाला
अनंत है। इतना
है कि दिखाई
तो छोटा सा
पड़ता है, न
दिखाई
पड़नेवाला
अदृश्य, अछोर
है। असल में, अब हमारी आंख
जितना पकड़ती
है, वह
बहुत छोटा सा
पकड़ती है। एक
खास वेवलेंथ
पर हमारी आंख
पकड़ती है, और
एक खास
वेवलेंथ पर
हमारा कान
सुनता है, और
उसके नीचे
करोड़ों
वेवलेंथ हैं
और उसके ऊपर करोड़ों
वेवलेंथ हैं।
कभी
ऐसी भूल हो
जाती है। एक
आदमी पिछली
दफा आल्फ पर
कहीं किसी
पहाड़ पर चढ़ता
था और गिर पड़ा।
गिरने से उसके
कान को चोट
लगी,
और वह जिस
गांव का
रहनेवाला था,
उसके
रेडियो
स्टेशन को
उसने पकड़ना
शुरू कर दिया—
कान से! जब वह
अस्पताल में
भर्ती था तो
वह बहुत मुश्किल
में पड़ गया।
वह दिन भर......वहां
कोई ऑन—ऑफ
करने का उपाय
नहीं है कान
में अभी। पहले
तो वह समझा कि
कुछ.... .क्या हो
रहा है? मेरा
दिमाग खराब हो
रहा है या
क्या हो रहा
है? लेकिन धीरे—
धीरे चीजें
साफ होने लगीं।
और उसने
डाक्टर से कहा,
यह क्या हो
रहा है? आसपास
कोई रेडियो
बजाता है या
क्या बात है
अस्पताल में?
क्योंकि
मुझे सब सुनाई
पड़ता है।
उन्होंने
कहा,
रेडियो
अस्पताल में
कहां बज रहा
है! आपको वहम हो
गया होगा।
उसने कहा कि
नहीं, मुझे
ये—ये समाचार
सुनाई पड रहे
हैं। डाक्टर
भागा, बाहर
गया, आफिस
में जाकर
रेडियो बजाया।
उस वक्त उसके
गांव के
स्टेशन पर
समाचार सुनाई
पड़ रहे थे; जो
उसने बताए थे,
वह बताया जा
रहा था। फिर
तो तालमेल
बिठाया गया; पाया गया कि
उसका कान
सक्रिय हो गया
है। उसका कान
जो है, वेवलेंथ
बदल गई चोट
लगने से।
आज
नहीं कल—रेडियो
ऐसा अलग हो, यह
गलत है— आज
नहीं कल, यह
इंतजाम हो
जाएगा कि हम
कान की
वेवलेंथ सीधे
डाइवर्ट कर
सकें, कान
में एक मशीन
ऊपर से लगा
लें, उसकी
वेवलेंथ बदल
सकें, तो
वह उस स्तर पर
सुन सके।
करोड़ों
आवाजें हमारे
आसपास से गुजर
रही हैं। छोटी—मोटी
आवाजें नहीं, क्योंकि
हमें कुछ अपने
कान के नीचे
की आवाज भी
सुनाई नहीं
पड़ती, उससे
बड़ी आवाज भी
सुनाई नहीं
पड़ती। अगर एक
तारा टूटता है
तो उसकी भयंकर
गर्जना की
आवाज हमारे
चारों तरफ से
निकलती है, लेकिन हम
सुन नहीं पाते,
नहीं तो हम
बहरे हो जाएं।
बड़ी—बड़ी
आवाजें निकल
रही हैं, बड़ी
छोटी आवाजें
निकल रही हैं।
वे हमारी पकड़
में नहीं हैं।
बस एक छोटा सा
दायरा है
हमारा।
जैसे
कि हमारे शरीर
की गर्मी का
एक दायरा है कि
अट्ठानबे
डिग्री से एक
सौ दस डिग्री
के बीच हम
जीते हैं। इधर
अट्ठानबे से
नीचे गिरना
शुरू हुए कि मरने
के करीब
पहुंचे, उधर
एक सौ दस के
पार गए कि मरे।
यह दस—बारह
डिग्री की
हमारी कुल
दुनिया है।
गर्मी बहुत है—
आगे भी बहुत
है, पीछे
भी कम बहुत है।
उससे हमारा
कोई संबंध
नहीं है।
इसी
तरह हर चीज की
हमारी एक सीमा
है। पर उस
सीमा के बाहर
जो है उसके
बाबत? वह भी है।
विज्ञान ने
उसकी
स्वीकृति
शुरू कर दी है।
स्वीकृति
होती है, फिर
धीरे से खोज
शुरू हो जाती
है कि वह कहां
है? कैसी
है? क्या
है? उस
सबको जाना जा
सकेगा; उस
सबको पहचानना
जा सकेगा। और
इसलिए मैंने
कहा था कि
पांचवें तक
संभव हो सकता
है।
प्रश्न :
ओशो नॉन—
बीइंग को कौन
जानता है और
किस आधार पर
जानता है?
न, यह
सवाल नहीं है,
यह सवाल
नहीं उठेगा।
यह सवाल न
उठेगा, न
बन सकता है।
क्योंकि जब हम
कहते हैं कि न
होने को कौन
जानता है, तो
हमने मान लिया
कि अभी कोई
बचा। फिर न
होना नहीं
हुआ।
निर्वाण
शरीर के अनुभव
की कोई
अभिव्यक्ति
नहीं :
प्रश्न:
रिपोर्टिग
कैसे होगी?
कोई
रिपोर्टिंग
नहीं होती; कोई
रिपोर्टिंग
नहीं होती।
ऐसा होता है......ऐसा
होता है, जैसे
रात को तुम
सोते हो; जब
तक तुम जागे
होते हो तभी
तक का तुम्हें
पता होता है, जिस वक्त
तुम सो जाते
हो उस वक्त
तुम्हें पता
नहीं होता; जागते तक का
पता होता है।
तो
रिपोर्टिंग
जागने की करते
हो तुम। लेकिन
आमतौर से तुम
कहते उलटा हो—वह
रिपोर्टिंग
गलत है— तुम
कहते हो, मैं
आठ बजे सो गया।
तुम्हें कहना
चाहिए, मैं
आठ बजे तक
जागता था।
क्योंकि सोने
की तुम
रिपोर्ट नहीं
कर सकते।
क्योंकि सो गए
तो रिपोर्ट
कौन करेगा? उस तरफ से
रिपोर्ट होती
है कि मैं आठ
बजे तक जागता
था, यानी
आठ बजे तक
मुझे पता था
कि अभी मैं
जाग रहा हूं
लेकिन आठ बजे
के बाद मुझे
पता नहीं। फिर
मैं सुबह छह
बजे उठ आया, तब मुझे पता
है। बीच में
एक गैप छूट
गया— आठ बजे और
छह बजे के बीच
का; उस
वक्त मैं सोया
या, यह
इनफरेंस है।
यह
उदाहरण के लिए
तुमसे कह रहा
हूं। उदाहरण
के लिए तुमसे
कह रहा हूं कि
तुम्हें छठवें
शरीर तक का
पता होगा।
सातवें शरीर
में तुम डुबकी
लगाकर छठवें
में वापस आओगे, तब
तुम कहोगे कि
अरे, मैं
कहीं और चला
गया था, नॉन—बीइंग
हो गया था। यह
जो
रिपोर्टिंग
है, यह
रिपोर्टिंग
छठवें शरीर तक
है। इसलिए
सातवें शरीर
के बाबत कुछ
लोगों ने बात ही
नहीं की। नहीं
करने का भी
कारण था।
क्योंकि
जिसको नहीं
कहा जा सकता
उसको कहना ही
क्यों!
अभी
एक आदमी था
विटगिस्टीन, उसने
बड़ी कीमती कुछ
बातें लिखीं।
उसमें एक बात
उसकी यह भी है,
कि दैट
व्हिच कैन नाट
बी सेड, मस्ट
नाट बी सेड।
जो नहीं कही
जा सकती, उसको
कहना ही नहीं
चाहिए।
क्योंकि बहुत
लोगों ने उसको
कह दिया, और
हमको दिक्कत
में डाल दिया।
क्योंकि वह
साथ उनकी शर्त
यह भी है कि
नहीं कहीं जा
सकती और फिर
कहा भी है, तो
वह कहना जो है
वह निगेटिव
रिपोर्टिंग
है। वह उस
स्थिति की
नहीं, उस
स्थिति के
पहले तक की, आखिरी पड़ाव
तक की खबर है, कि यहां तक
मैं था, इसके
बाद मैं नहीं
था; क्योंकि
इसके बाद मैं,
न
जाननेवाला था,
न कुछ जानने
को बचा था; न
कोई रिपोर्ट
लानेवाला था,
न कोई
रिपोर्ट की
जगह थी। मगर
एक सीमा के
बाद यह हुआ था,
उस सीमा के
पहले मैं था।
बस, तो
वह सीमा—रेखा
छठवें शरीर की
सीमा—रेखा है।
अगम, अगोचर,
अवर्णनीय
निर्वाण:
छठवें
शरीर तक वेद, उपनिषद,
गीता, बाइबिल
जाते हैं। असल
में, जो
अगोचर और
अवर्णनीय जो
है, वह
सातवां है।
छठवें तक कोई
अड़चन नहीं है।
पांचवें तक तो
बड़ी सरलता है।
लेकिन उसकी
कोई.....क्योंकि
बचता नहीं कोई
जाननेवाला; जानने को भी
कुछ नहीं बचता।
असल में, जिसको
हम बचना कहें,
वही नहीं
बचता। तो यह
जो खाली
अंतराल है, यह जो शून्य
है, इसको
हम कहेंगे तो
हमारे सब शब्द
निषेधात्मक होंगे।
इसलिए वेद—उपनिषद
कहेंगे—नेति,
नेति। वे
कहेंगे कि यह
मत पूछो, वहां
क्या था; यह
हम बता सकते
हैं, क्या—क्या
नहीं था—दिस
इज नाट, दैट
इज नाट; यह
भी नहीं था, वह भी नहीं
था। और यह मत
पूछो कि क्या
था, वह हम न
कहेंगे। हम
इतना ही बता
सकते हैं कि
यह भी नहीं था,
यह भी नहीं
था—पत्नी भी
नहीं थी, पिता
भी नहीं था, पदार्थ भी
नहीं था, अनुभव
भी नहीं था, शान भी नहीं
था, मैं भी
नहीं था, अहंकार
भी नहीं था, जगत भी नहीं
था, परमात्मा
भी नहीं था—नहीं
था, क्योंकि
यह हमारे
छठवें की सीमा—रेखा
बनती है। क्या
था? तो
एकदम चुप हो
जाएंगे; उसको
नहीं कहा जा
सकेगा।
निर्वाण
शरीर की
अभिव्यक्ति
के लिए बुद्ध
का सर्वाधिक
प्रयास:
इसलिए
ब्रह्म तक
खबरें दे दी
गई हैं। इसलिए
जिन लोगों ने
ब्रह्म के बाद
की खबरें दीं..
.खबर तो
निषेधात्मक
होगी, इसलिए
वह हमको
निगेटिव लगेगी।
जैसे बुद्ध; बुद्ध ने
बड़ी मेहनत की
है उसके बाबत
खबर देने की।
इसलिए सब नकार
है, इसलिए
सब निषेध है।
इसलिए
हिंदुस्तान
के मन को बात
नहीं पकड़ी।
ब्रह्मज्ञान
हिंदुस्तान
को पकड़ता था, वहां तक
पाजिटिव चलता
है। ब्रह्म
ऐसा है— आनंद
है, चित्
है, सत् है।
यहां तक चलता है।
यहां तक
पाजिटिव
एसर्शन हो
जाता है; हम
कह सकते हैं—यह
है, यह है, यह है।
बुद्ध ने, जो—जो
नहीं है, उसकी
बात कही। वह
सातवें की बात
करने की, शायद
उस अकेले आदमी
ने सातवें की
बात करने की बड़ी
मेहनत की।
इसलिए
बुद्ध की जड़ें
उखड़ गईं इस
मुल्क से, क्योंकि
वे जिस जगह की
बात कर रहे थे
वहां जड़ें
नहीं हैं; जिस
जगह की बात कर
रहे थे वहां
के लिए कोई
आकार नहीं है,
रूप नहीं है।
हम सब सुनते
थे, हमें
लगा कि बेकार
है, वहां
जाकर भी क्या
करेंगे जहां
कुछ भी नहीं
है! हमें तो
कुछ ऐसी जगह
बताइए जहां हम
तो होंगे कम
से कम। बुद्ध
ने कहा, तुम
तो होओगे ही
नहीं। तो हमें
लगा कि फिर इस
खतरे में
क्यों पड़ना!
हम तो अपने को
बचाना चाहते
हैं आखिर तक।
इसलिए
बुद्ध और
महावीर दोनों
मौजूद थे, लेकिन
महावीर की बात
लोगों को
ज्यादा समझ
में पड़ी, क्योंकि
महावीर ने
पांचवें के
आगे बात ही
नहीं की, छठवें
की भी बात
नहीं की।
क्योंकि
महावीर के पास
एक वैज्ञानिक
चित्त था, और
उनको छठवां भी
लगा कि वह भी, शब्द वहां
डांवाडोल, संदिग्ध
हो जाते हैं।
पांचवें तक
शब्द बिलकुल
थिर चलता है
और एकदम वैज्ञानिक
रिपोर्टिंग
संभव है, कि
हम कह सकते
हैं ऐसा है, ऐसा है।
क्योंकि
पांचवें तक हमारा
जो अनुभव है
उससे तालमेल
खाती हुई
चीजें मिल
जाती हैं।
समझ
लो कि एक आदमी......एक
महासागर में
एक छोटा सा
द्वीप है; उस
द्वीप पर एक
ही तरह के फूल
खिलते हैं।
छोटा द्वीप है,
एक ही तरह
के फूल खिलते
हैं; दस—पचास
लोग उस द्वीप
पर रहते हैं।
वे कभी बाहर
नहीं गए। तो वहां
से कोई यात्री
जहाज निकल रहा
है और एक उनमें
कोई
बुद्धिमान
आदमी है, वह
उसको अपने
जहाज पर ले
आता है; वह
अपने देश में
उसे ले आता है।
वह
यहां हजारों
तरह के फूल
देखता है। फूल
का मतलब उसके
लिए एक ही फूल
था। फूल का
मतलब वही फूल
था जो उसके
द्वीप पर होता
था। पहली दफा
फूल के मतलब
का विस्तार
होना शुरू
होता है। फूल
का मतलब वही
नहीं था जो था।
अब उसे पता
चलता है कि
फूल तो हजारों
हैं। वह कमल
देखता है, वह
गुलाब देखता
है, वह
चंपा देखता है,
चमेली
देखता है। अब
वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाता है कि
मैं जाकर लोगों
को कैसे
समझाऊंगा कि
फूल का मतलब
यही फूल नहीं
होता, फूलों
के नाम होते
हैं। उसके
द्वीप पर नाम
नहीं होंगे; क्योंकि
जहां एक होता
है वहां नाम
नहीं होता।
वहां फूल ही
नाम होगा। वह
काफी है।
गुलाब का फूल
कहने की कोई
जरूरत नहीं, चंपा का फूल
कहने की कोई
जरूरत नहीं।
अब वह कहेगा
कि मैं उनको
कैसे
समझाऊंगा कि
चंपा क्या है।
वे कहेंगे, फूल ही न! तो
फूल तो उनका
एक साफ है
उनके सामने।
अब
वह आदमी लौटता
है। अब वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया है।
फिर
भी कुछ उपाय
है,
क्योंकि एक
फूल तो कम से
कम उस द्वीप
पर हैं—फूल तो
है कम से कम।
वह बता सकता
है कि यह लाल
रंग है, सफेद
रंग का भी फूल
होता है। उसको
यह नाम कहते
हैं। यह छोटा
फूल है, बहुत
बड़ा फूल होता
है, उसको
कमल कहते हैं।
फिर भी उस
द्वीप के
निवासियों को
वह थोड़ा—बहुत
कम्युनिकेट
कर पाएगा, क्योंकि
एक फूल उनकी
भाषा में है।
और दूसरे फूलों
को भी थोड़ा
इशारा किया जा
सकता है।
लेकिन
समझ लें कि वह
आदमी चांद पर
चला जाए—वह
आदमी जहाज पर
बैठकर किसी
द्वीप पर न आए, बल्कि
एक अंतरिक्ष
यात्री उसको
चांद पर ले जाए—जहां
फूल हैं ही
नहीं, जहां
पौधे नहीं हैं,
जहां हवा का
आयतन अलग है, दबाव अलग है—
और वह अपने द्वीप
पर वापस लौटे,
और उस द्वीप
के लोग पूछें
कि तुम क्या
देखकर आए? चांद
पर क्या पाया?
तो खबर देना
और मुश्किल हो
जाए, क्योंकि
कोई तालमेल
नहीं बैठता कि
वह कैसे खबर
दे; क्या
कहे, वहां
क्या देखा; उसकी भाषा
में उसे कोई
शब्द न मिलें।
ठीक
ऐसी स्थिति है।
पांचवें तक
हमारी जो भाषा
है उसमें हमें
शब्द मिल जाते
हैं,
पर वे शब्द
ऐसे ही होते
हैं कि हजार
फूल और एक फूल
का फर्क होता
है। छठवें से
भाषा गड़बड़
होनी शुरू हो
जाती है।
छठवें से हम
ऐसी जगह
पहुंचते हैं
जहां एक और अनेक
का भी फर्क
नहीं है, और
मुश्किल होनी
शुरू हो जाती
है।
फिर
भी,
निषेध से
थोड़ा—बहुत काम
चलाया जा सकता
है; या
टोटेलिटी की
धारणा से थोड़ा—बहुत
काम चलाया जा
सकता है। हम
कह सकते हैं
कि वहां कोई
सीमा नहीं है,
असीम है।
सीमाएं हम
जानते हैं, असीम हम
नहीं जानते।
तो सीमा के
आधार पर हम कह
सकते हैं कि
वहां सीमाएं
नहीं हैं, असीम
है वहां। तो
भी थोड़ी धारणा
मिलेगी।
हालांकि
पक्की नहीं
मिलेगी, हमें
शक तो होगा कि
हम समझ गए, हम
समझेंगे नहीं।
इसलिए
बड़ी गड़बड़ होती
है। हमें लगता
है कि हम समझ
गए,
ठीक तो कह
रहे हैं कि
सीमाएं वहां
नहीं हैं।
लेकिन सीमाएं
नहीं होने का
क्या मतलब
होता है? हमारा
सारा अनुभव
सीमा का है।
यह वैसा ही
समझना है, जैसे
उस द्वीप के
आदमी कहें कि
अच्छा हम समझ
गए, फूल ही
न! तो वह आदमी
कहेगा, नहीं—नहीं,
उस फूल को
मत समझ लेना, क्योंकि
उससे कोई
मामला नहीं है,
यह हम बहुत
दूसरी बात कर
रहे हैं। ऐसा
फूल तो वहां
होता ही नहीं,
वह कहेगा।
तो वे लोग
कहेंगे, फिर
उनको फूल
किसलिए कहते
हो जब ऐसा फूल
नहीं होता? फूल तो यही
है।
हमको
भी शक होता है
कि हम समझ गए; कहते
हैं असीम है
परमात्मा। हम
कहते हैं, समझ
गए। लेकिन
हमारा सारा
अनुभव सीमा का
है; समझे
हम कुछ भी
नहीं। सिर्फ
सीमा शब्द को
समझने की वजह
से उसमें अ
लगाने से हमको
लगता है कि
सीमा वहां नहीं
होगी, हम
समझ गए। लेकिन
सीमा नहीं
होगी, इसको
जब कसीव करने
बैठेंगे कि
कहां होगा ऐसा
जहां सीमा
नहीं होगी, तब आप घबड़ा
जाएंगे।
क्योंकि आप
कितना ही
सोचें, सीमा
रहेगी। आप और
बढ़ जाएं, और
बढ़ जाएं, अरब—खरब,
संख्या टूट
जाए, मील
और प्रकाश
वर्ष समाप्त
हो जाएं— जहां
भी आप रुकेंगे,
फौरन सीमा
खड़ी हो जाएगी।
असीम
का मतलब हमारे
मन में इतना
ही हो सकता है, जिसकी
सीमा बहुत दूर
है—ज्यादा से
ज्यादा; इतनी
दूर है कि
हमारी पकड़ में
नहीं आती, लेकिन
होगी तो। चूक
गए, वह
नहीं बात पकड़
में आई।
इसलिए
छठवें तक की
बात कही जाएगी; लोग
समझेंगे, समझ
गए; समझेंगे
नहीं।
सातवें
की बात तो
इतनी भी नहीं
समझेंगे कि
समझ गए।
सातवें की बात
का तो कोई
सवाल ही नहीं
है। वे तो साफ
ही कह देंगे, क्या
एब्सर्ड
बातें कर रहे
हो? यह
क्या कह रहे
हो?
शब्दातीत, अर्थातीत
सत्य का
प्रतीक— ओम्:
इसलिए
सातवें के लिए
फिर हमने
एब्सर्ड शब्द
खोजे, जिनका
कोई अर्थ नहीं
होता। जैसे
ओम्। इसका कोई
अर्थ नहीं
होता। इसका
कोई अर्थ नहीं
होता, यह
अर्थहीन शब्द
है। यह हमने
सातवें के लिए
प्रयोग किया।
जब कोई जिद ही
करने लगा, छठवें
तक हमने बात
कही और जब वह
जिद ही करने
लगा, हमने
कहा— ओम्।
इसलिए सारे
शास्त्र सब
लिखने के बाद आखिर
में ओम्
शांति! ओम्
शांति का मतलब
आप समझते हैं?
सातवां, समाप्त,
अब इसके आगे
नहीं बात— दि
सेवेंथ, दि
एंड। वे दोनों
एक ही मतलब
रखते हैं।
इसलिए हर
शास्त्र के
पीछे हम इति
नहीं लिखते, ओम् शांति
लिख देते हैं।
वह ओम् सूचक
है सातवें का
कि अब कृपा
करो, इसके
आगे बातचीत
नहीं चलेगी, अब शांत हो
जाओ।
तो
हमने एक
एब्सर्ड शब्द
खोजा, उसका
कोई अर्थ नहीं
है। उसका कोई
मतलब नहीं
होता, कि
उसका कोई मतलब
होता हो। मतलब
हो तो वह
बेकार हो गया;
क्योंकि
हमने उस
दुनिया के लिए
खोजा जहां सब
मतलब खत्म हो
जाते हैं; वह
गैर— मतलब
शब्द है।
इसलिए दुनिया
की कोई भाषा
में वैसा शब्द
नहीं है।
प्रयोग किए गए
हैं—जैसे अमीन।
पर वह शांति
का मतलब है
उसका। प्रयोग
किए गए हैं, लेकिन ओम्
जैसा शब्द नहीं
है। जैसे कि
ईसाई
प्रार्थना
करेगा और आखिर
में कहेगा—
अमीन। वह यह
कह रहा है— बस
खत्म; शांति
इसके बाद; अब
शब्द नहीं।
लेकिन ओम्
जैसा शब्द
नहीं है। उसका
कोई अनुवाद
नहीं है संभव।
वह हमने
सातवें के लिए
प्रतीक चुन
लिया था जिसको।
इसलिए
मंदिरों में
उसे खोदा था—सातवें
की खबर देने
के लिए कि
छठवें तक मत
रुक जाना। वे
ओम् बनाते हैं, राम
और कृष्ण को
उसके बीच में
खड़ा कर देते
हैं। ओम् उनसे
बहुत बड़ा है।
कृष्ण उसमें
से झांकते हैं,
लेकिन
कृष्ण कुछ भी
नहीं हैं ओम्
बहुत बड़ा है।
उसमें से सब
झांकता है, और सब उसी
में खो जाता
है। इसलिए ओम्
से कीमत हमने
किसी और चीज
को कभी ज्यादा
नहीं दी है।
वह पवित्रतम
है। पवित्रतम
इस अर्थों में
है, होलिएस्ट
इस अर्थों में
है, कि वह
अंतिम है, उसके
पार बियांड, जहां सब खो
जाता है, वहां
वह है।
तो
सातवें की
रिपोर्टिंग
की बात नहीं
होती है। हां, इसी
तरह नकार की
खबरें दी जा
सकती हैं— यह
नहीं होगा, यह नहीं
होगा। लेकिन
यह भी छठवें
तक ही सार्थक
है। सातवें के
संबंध में
इसलिए बहुत
लोग चुप ही रह
गए। या
जिन्होंने
कहा, वे
कहकर बड़ी झंझट
में पड़े। और
कहते हुए, बार—बार
कहते हुए उनको
कहना पड़ा कि
यह कहा नहीं
जा सकता; इसको
बार—बार
दोहराना पड़ा
कि हम कह तो
जरूर रहे हैं,
लेकिन यह
कहा नहीं जा
सकता। तब हम
पूछते हैं
उनसे कि भई
बड़ी मुश्किल
है, जब
नहीं कहा जा
सकता, आप
कहें ही मत।
फिर वे कहते
हैं, वह है
तो जरूर! और उस
जैसी कोई चीज
नहीं है जो कहने
योग्य हो; लेकिन
उस जैसी कोई
चीज भी नहीं
है जो कहने
में न आती हो।
कहने योग्य तो
बहुत है, खबर
देने योग्य है
बहुत, रिपोटेंबल
वही है, कि
उसकी कोई खबर
दे। लेकिन
कठिनाई भी यही
है कि उसकी
कोई खबर नहीं हो
सकती; उसे
जाना जा सकता
है, कहा
नहीं जा सकता।
और
इसलिए उस तरफ
से आकर जो लोग
गंगें, की
तरह खड़े हो जाते
हैं हमारे बीच
में—जो बड़े
मुखर थे, जिनके
पास बड़ी वाणी
थी, जिनके
पास बड़े शब्द
की सामर्थ्य
थी, जो सब
कह पाते थे, जब वे भी
अचानक गूंगे
की तरह खड़े हो
जाते हैं—तब
उनका गुंगापन
कुछ कहता है; उनकी गूंगी आंखें
कुछ कहती हैं।
जैसा
तुम पूछते हो, ऐसा
बुद्ध ने नियम
बना रखा था कि
वे कहते, यह
पूछो ही मत; यह पूछने
योग्य ही नहीं,
यह जानने
योग्य है। तो
वे कहते, यह
अव्याख्य है,
इसकी
व्याख्या मत
करवाओ, मुझसे
गलत काम मत
करवाओ।
लाओत्से
कहता है कि
मुझसे कहो ही
मत कि मैं लिखूं
क्योंकि जो भी
मैं लिखूंगा
वह गलत हो
जाएगा। जो
मुझे लिखना है
वह मैं लिख ही
न पाऊंगा; और
जो मुझे नहीं
लिखना है उसको
मैं लिख सकता
हूं लेकिन
उससे मतलब
क्या है! तो
जिंदगी भर टालता
रहा—नहीं लिखा,
नहीं लिखा,
नहीं लिखा।
आखिर में
मुल्क ने
परेशान ही
किया तो छोटी
सी किताब लिखी,
पर उसमें
पहले ही लिख
दिया कि सत्य
को कहा कि वह
झूठ हो जाता
है।
पर
यह सेवेंथ, यह
सातवें सत्य
की बात है, सभी
सत्यों की बात
नहीं है।
छठवें तक कहने
से झूठ नहीं
हो जाता।
छठवें तक कहने
से संदिग्ध
होगा, पांचवें
तक कहने से
बिलकुल
सुनिश्चित
होगा, सातवें
पर कहने से
झूठ हो जाएगा।
जहां हम ही
समाप्त हो
जाते हैं, वहां
हमारी वाणी और
हमारी भाषा
कैसे बचेगी!
वह भी समाप्त
हो जाती है।
ओम्
शब्द नहीं, चित्र
है:
प्रश्न:
ओशो ओम् को
प्रतीक क्यों
चुना गया? उसकी
क्या— क्या
विशेषताएं
हैं?
ओम् को
चुनने के दो
कारण हैं। एक
तो,
एक ऐसे शब्द
की तलाश थी
जिसका अर्थ न
हो, जिसका
तुम अर्थ न
लगा पाओ; क्योंकि
अगर तुम अर्थ
लगा लो तो वह
पांचवें के इस
तरफ का हो
जाएगा। एक ऐसा
शब्द चाहिए था
जो एक अर्थ
में मीनिंगलेस
हो।
हमारे
सब शब्द
मीनिगफुल हैं।
शब्द बनाते ही
हम इसलिए हैं
कि उसमें अर्थ
होना चाहिए।
अगर अर्थ न हो
तो शब्द की
जरूरत क्या है? उसे
हम बोलने के
लिए बनाते हैं।
और बोलने का
प्रयोजन ही यह
है कि मैं
तुम्हें कुछ
समझा पाऊं; मैं जब शब्द
बोलु तो
तुम्हारे पास
कोई अर्थ का
इशारा हो पाए।
जब लोग सातवें
से लौटे या
सातवें को
जाना, तो
उन्हें लगा कि
इसके लिए कोई
भी शब्द
बनाएंगे, उसमें
अगर अर्थ होगा,
तो वह
पांचवें शरीर
के पहले का जो
जाएगा—तत्काल।
उसका भाषा—कोश
में से अर्थ
लिख दिया
जाएगा; लोग
पढ़ लेंगे और
समझ लेंगे।
लेकिन सातवें
का तो कोई
अर्थ नहीं हो
सकता। या तो
कहो मीनिगलेस,
अर्थहीन; या कहो
बियांड
मीनिंग, अर्थातीत;
दोनों एक ही
बात है।
तो
उस अर्थातीत
के लिए—जहा कि
सब अर्थ खो गए
हैं,
कोई अर्थ ही
नहीं बचा है—कैसा
शब्द खोजें? और कैसे
खोजें? और
उस शब्द को
कैसे बनाएं? तो शब्द को
बनाने में बड़े
विज्ञान का
प्रयोग किया
गया। वह शब्द
बनाया बहुत......बहुत
ही कल्पनाशील,
और बड़े विजन,
और बड़े
दूरदृष्टि से
वह शब्द बनाया
गया; क्योंकि
वह बनाया जा
रहा था और एक
रूट, एक
मौलिक शब्द था
जो मूल आधार
पर खड़ा करना
था। तो कैसे
इस शब्द को
खोजें जिसमें
कि कोई अर्थ न
हो; और किस
प्रकार से
खोजें कि वह
गहरे अर्थ में
मूल आधार का
प्रतीक भी हो
जाए?
तो
हमारी भाषा की
जो मूल ध्वनि
हैं,
वे तीन हैं
ए, यू एम— अ, ऊ, म।
हमारा सारा का
सारा शब्दों
का विस्तार इन
तीन ध्वनियों
का विस्तार है।
तो रूट
ध्वनियां तीन
हैं— अ, ऊ, म। अच्छा अ, ऊ और म में
कोई अर्थ नहीं
है; अर्थ
तो इनके
संबंधों से तय
होगा। अ जब ' अब' बन
जाएगा, तो
अर्थपूर्ण हो
जाएगा; म
जब कोई शब्द
बन जाएगा तो
अर्थपूर्ण हो
जाएगा। अभी
अर्थहीन हैं।
अ, ऊ, म, इनका कोई
अर्थ नहीं है।
और ये तीन मूल
हैं। फिर सारी
हमारी वाणी का
विस्तार इन
तीन का ही फैलाव
है, इन तीन
का ही जोड़ है।
तो
ये तीन मूल
ध्वनियों को
पकड़ लिया गया—
अ, ऊ, म, तीनों
के जोड़ से ओम्
बना दिया। तो
ओम् लिखा जा
सकता था, लेकिन
लिखने से फिर
शक पैदा होता
किसी को कि इसका
कोई अर्थ होगा;
क्योंकि
फिर वह शब्द
बन जाता। ' अब
', ' आज ', ऐसा
ही ओम् में भी
एक शब्द बन
जाता। और लोग
उसका अर्थ
निकाल लेते कि
ओम् यानी वह जो
सातवें पर है।
तो फिर शब्द न
बनाएं इसलिए
हमने चित्र
बनाया ओम् का,
ताकि शब्द,
अक्षर का भी
उपयोग मत करो
उसमें। अ, ऊ,
म तो है वह, पर वह ध्वनि
है—शब्द नहीं,
अक्षर नहीं।
इसलिए
फिर हमने ओम्
का चित्र
बनाया, उसको
पिक्टोरिअल
कर दिया, ताकि
उसमें सीधा
कोई भाषा—कोश
में खोजने न
चला जाए उसे—कि
ओम् का क्या
मतलब होता है।
तो वह ओम् जो
है आपकी आखों
में गड़ जाए और
प्रश्नवाचक
बन जाए कि
क्या मतलब?
जब
भी कोई आदमी
संस्कृत पढ़ता
है या पुराने
ग्रंथ पढ़ने
दुनिया के
किसी कोने से
आता है, तो इस
शब्द को बताना
मुश्किल हो
जाता है उसे।
और शब्द तो सब
समझ में आ
जाते हैं, क्योंकि
सबका अनुवाद
हो जाता है।
वह बार—बार
दिक्कत यह आती
है कि ओम्
यानी क्या? इसका मतलब
क्या है? और
फिर इसको
अक्षरों में
क्यों नहीं
लिखते हो? इसको
ओम् लिखो न! यह
चित्र क्यों
बनाया हुआ है?
उस
चित्र को भी
अगर तुम गौर
से देखोगे, तो
उसके भी तीन
हिस्से हैं, और वे अ, ऊ
और म के
प्रतीक हैं।
वह पिक्चर भी
बड़ी खोज है, वह चित्र भी
साधारण नहीं
है। और उस
चित्र की खोज
भी चौथे शरीर
में की गई है।
उस चित्र की
खोज भी भौतिक
शरीर से नहीं
की गई है, वह
चौथे शरीर की
खोज है। असल
में, जब
चौथे शरीर में
कोई जाता है
और निर्विचार
हो जाता है, तब उसके
भीतर अ, ऊ, म, इनकी
ध्वनियां
गूंजने लगती
हैं और उन
तीनों का जोड़
ओम् बनने लगता
है। जब पूर्ण
सन्नाटा हो
जाता है विचार
का, जब सब
विचार खो जाते
हैं, तब
ध्वनियां रह
जाती हैं और
ओम् की ध्वनि
गंजने लगती है।
वह जो ओम् की
ध्वनि गूंजने
लगती है, वहां
चौथे शरीर से
उसको पकड़ा गया
है कि ये जहां
विचार खोते
हैं, भाषा
खोती है, वहां
जो शेष रह
जाता है, वह
ओम् की ध्वनि
रह जाती है।
निर्विचार
चेतना में ओम्
का आविर्भाव:
इधर
से तो उस
ध्वनि को पकड़ा
गया। और जैसा
मैंने तुमसे
कहा कि जिस
तरह हर शब्द
का एक पैटर्न
है,
हर शब्द का
एक पैटर्न है......जब
हम एक शब्द का
प्रयोग करते
हैं तो हमारे
भीतर एक
पैटर्न बनना
शुरू होता है।
तो जब यह ओम्
की ध्वनि रह
जाती है भीतर
सिर्फ, तब
अगर इस ध्वनि
पर एकाग्र
किया जाए
चित्त, तो
ध्वनि— अगर
पूरी तरह से
चित्त एकाग्र
हो, जो कि
चौथे पर हो
जाना कठिन
नहीं है, और
जब यह ओम्
सुनाई पड़ेगा
तो हो ही
जाएगा। उस
चौथे शरीर में
ओम् की ध्वनि
गूंजती रहे गूंजती
रहे, गूंजती
रहे, और
अगर कोई
एकाग्र इसको
सुनता रहे, तो इसका
चित्र भी
उभरना शुरू हो
जाता है।
इस
तरह बीज मंत्र
खोजे गए— सारे
बीज मंत्र
इसलिए खोजे गए।
एक—एक चक्र पर
जो ध्वनि होती
है,
उस ध्वनि पर
जब एकाग्र
चित्त से साधक
बैठता है, तो
उस चक्र का
बीज शब्द उसकी
पकड़ में आ
जाता है। और
वे बीज शब्द
इस तरह
निर्मित किए
गए। ओम् जो है,
वह परम बीज
है; वह
किसी एक चक्र
का बीज नहीं
है, वह परम
बीज है; वह
सातवें का
प्रतीक है—या
अनादि का
प्रतीक है, या अनंत का
प्रतीक है।
ओम्—सार्वभौमिक
सत्य:
इस
भांति उस शब्द
को खोजा गया।
और करोडों
लोगों ने जब
उसको टैली
किया और स्वीकृति
दी,
तब वह
स्वीकृत हुआ।
एकदम से
स्वीकृत नहीं
हो गया; सहज
स्वीकृत नहीं
कर लिया कि एक
आदमी ने कह
दिया। करोड़ों
साधकों को जब
वही प्रति बार
हो गया, और
जब वह
सुनिश्चित हो
गया।
इसलिए
ओम् शब्द जो
है,
वह किसी
धर्म की, किसी
संप्रदाय की
बपौती नहीं है।
इसलिए बौद्ध
भी उसका उपयोग
करेंगे, बिना
फिकर किए; जैन
भी उसका उपयोग
करेंगे, बिना
फिकर किए।
हिंदुओं की
बपौती नहीं है
वह। उसका कारण
है। उसका कारण
यह है कि वह तो
साधकों को—
अनेक साधकों
को, अनेक
मार्गों से गए
साधकों को वह
मिल गया है।
दूसरे
मुल्कों में
भी जो चीजें
हैं, वे भी
किसी अर्थ में
उसके हिस्से
हैं।
अब
जैसे कि अगर
हम अरेबिक या
लैटिन या रोमन, इनमें
जो खोजबीन साधक
की रही है, उसको
भी पकड़ने जाएं,
तो एक बड़े
मजे की बात है
कि म तो जरूर
मिलेगा; किसी
में अ और म
मिलेगा, म
तो अनिवार्य
मिलेगा। उसके
कारण हैं कि
वह इतना
सूक्ष्म
हिस्सा है कि
अक्सर आगे का
हिस्सा छूट
जाता है, पकड़
में नहीं आता
और पीछे का
हिस्सा सुनाई
पड़ता है। तो
ओऽऽऽम् की जब
आवाज होनी
शुरू होती है
भीतर, तो म
सबसे ज्यादा
सरलता से पकड़
में आता है।
वह आगे का जो
हिस्सा है वह
दब जाता है
पिछले म से।
ऐसे भी तुम
अगर किसी बंद
भवन में बैठकर
ओम् की आवाज
करो, तो म
सबको दबा देगा—
अ और ऊ को दबा
देगा और म
एकदम व्यापक
हो जाएगा। इसलिए
बहुत साधकों
को ऐसा लगा कि
म तो है पक्का।
आगे की कुछ
भूल—चूक हो गई,
सुनने के
कुछ भेद हैं।
और
इसलिए दुनिया
के सभी, जहां
भी......जैसे अमीन,
तो उसमें म
अनिवार्य है।
जहां—जहां
साधकों ने उस
शरीर पर काम
किया है, वहां
कुछ तो उनको
पकड़ में आया
है। लेकिन
जितना ज्यादा
प्रयोग हो, जैसे कि एक
प्रयोग को
हजार वैज्ञानिक
करें, तो
उसकी
वैलिडिटी बढ
जाती है।
लाखों
साधकों की
सम्मिलित खोज—
ओम्:
तो
यह मुल्क एक
लिहाज से
सौभाग्यशाली
है कि यहां
हमने हजारों
साल आत्मिक
यात्रा पर
व्यतीत किए
हैं। इतना
किसी मुल्क ने, इतने
बड़े पैमाने पर,
इतने अधिक
लोगों ने कभी
नहीं किया। अब
बुद्ध के साथ
दस—दस हजार
साधक बैठे हैं।
महावीर के साथ
चालीस हजार
भिक्षु और
भिक्षुणियां
थीं। छोटा सा
बिहार, वहां
चालीस हजार
आदमी एक साथ
प्रयोग कर रहे
हैं। दुनिया
में कहीं ऐसा
नहीं हुआ।
जीसस बेचारे बड़े
अकेले हैं।
मोहम्मद का
फिजूल ही समय
जाया हो रहा
है नासमझों से
लड़ने में।
यहां एक
स्थिति बन गई
थी कि यहां यह
बात अब लड़ने
की नहीं रह गई
थी, यह
खत्म हो चुका
था वक्त, यहां
चीजें साफ हो
गई थीं।
अब
महावीर बैठे
हैं और चालीस
हजार लोग एक
साथ साधना कर
रहे हैं। टैली
करने की बड़ी
सुविधा थी।
चालीस हजार
लोगों में
क्या हो रहा
है—चौथे शरीर
पर क्या हो
रहा है, तीसरे
पर क्या हो
रहा है, दूसरे
में क्या हो
रहा है। एक
भूल करेगा, दो भूल
करेंगे, चालीस
हजार तो भूल
नहीं कर सकते!
चालीस हजार अलग—अलग
प्रयोग कर रहे
हैं, फिर
वह सब सोचा जा
रहा है, पकड़ा
जा रहा है।
इसलिए
इस मुल्क ने
कुछ बहुत बीज
चीजें खोज लीं, जो
दूसरे मुल्क
नहीं खोज पाए,
क्योंकि
वहां साधक सदा
अकेला था।
साधक इतने बड़े
३मा३ पर कहीं
भी नहीं था।
जैसे आज
पश्चिम बड़े
पैमाने पर
विज्ञान की
खोज में लगा
है, हजारों
वैज्ञानिक
लगे हैं, इस
भांति इस
मुल्क ने कभी
अपने हजारों
प्रतिभाशाली
लोग एक ही
विज्ञान पर
लगा दिए थे।
तो वहां से वे
जो लाए हैं, वह बड़ा
सार्थक तो है।
और
फिर कभी उसकी
खबरें जाते—जाते
यात्रा में, दूसरे
मुल्कों तक
पहुंचते—पहुंचते
बहुत बदल गईं—बहुत
बदल गईं, बहुत
टूट—फूट गईं।
क्रास
का स्वस्तिक
और ओम् से
संबंध:
अब
जैसे कि जीसस
का क्रास है, वह
स्वस्तिक का
बचा हुआ
हिस्सा है।
लेकिन इतनी
यात्रा करते—करते
वह इतना टूट
गया है।
स्वस्तिक
बहुत वक्त से
ओम् जैसा एक
प्रतीक था।
ओम् सातवें का
प्रतीक था, स्वस्तिक
प्रथम का
प्रतीक है।
इसलिए
स्वस्तिक का
जो चित्र है, वह डाइनेमिक
है, मूव कर
रहा है। इसलिए
उसकी शाखा आगे
फैल जाती है
और मूवमेंट का
खयाल देती है—घूम
रहा है वह।
संसार का मतलब
होता है जो
घूम रहा है, जो पूरे
वक्त घूम रहा
है।
तो
स्वस्तिक
हमने प्रथम का
प्रतीक बना
लिया था और
ओम् अंतिम का
प्रतीक था।
इसलिए ओम् में
मूवमेंट
बिलकुल नहीं
है;
वह बिलकुल
थिर है— डेड
साइलेंट, और
सब रुक गया है
वहां, वहां
कोई मूवमेंट
नहीं है। उस
चित्र में कोई
मूवमेंट नहीं
है। स्वस्तिक
में मूवमेंट
है। वह पहला
और वह अंतिम
है। स्वस्तिक
यात्रा करते—करते
कटकर क्रास रह
गया, क्रिश्चिएनिटी
तक पहुंचते—पहुंचते।
वह जब जीसस के
वक्त में.....क्योंकि
जीसस की बहुत
संभावना है कि
वे इजिप्त भी
आए और भारत भी
आए; वे
नालंदा में भी
थे और वे
इजिप्त में भी
थे, और वे
बहुत सी खबरें
ले गए; उन
खबरों में
स्वस्तिक भी
एक खबर थी।
लेकिन वह खबर
वैसी ही हुई
सिद्ध जैसा कि
वह आदमी जो
बहुत फूलों को
देखकर गया, और उस जगह
जाकर उसने खबर
दी जहां एक ही
फूल होता था।
वह कट गई खबर, वह क्रास रह
गया।
ओम्
(ओम) से उदभूत
इस्लाम का
अर्धचंद्र:
ओम्
का जो ऊपर का
हिस्सा है वह
इस्लाम तक
पहुंच गया। वह
चांद का जो
आधा टुकड़ा वे
बहुत आदर कर
रहे हैं, वह
ओम् का टूटा
हुआ हिस्सा है—ऊपर
का हिस्सा है;
वह यात्रा
करते में कट
गया। शब्द और
प्रतीक
यात्रा करते
में बुरी तरह
कटते हैं, और
हजारों साल
बाद वे इस तरह
घिसपिस जाते
हैं कि अलग
मालूम होने
लगते हैं। फिर
पहचानना ही
मुश्किल हो
जाता है कि यह
वही शब्द है।
पकड़ना ही
मुश्किल हो
जाता है कि यह
वही शब्द कैसे
हो सकता है!
यात्रा में नई
ध्वनियां
जुड़ती हैं, नये शब्द
जुड़ते हैं, नये लोग नई
जबान से उसका
उपयोग करते है—सब
तरह का अंतर
होता जाता है।
और फिर मूल
स्रोत से अगर
विच्छिन्न हो
जाएं, तो
फिर कुछ तय
करने की जगह
नहीं रह जाती
कि वह ठीक
क्या था—कहां
से आया? क्या
हुआ?
सारी
दुनिया के
आध्यात्मिक
प्रवाह गहरे
में इस मुल्क
से संबंधित
हैं,
क्योंकि
उनका मौलिक
मूल स्रोत इसी
मुल्क से पैदा
हुआ, और
सारी खबरें इस
मुल्क से
फैलनी शुरू
हुईं। लेकिन
खबरें ले
जानेवाले
आदमी के पास
दूसरी भाषा थी।
जिनको उसने
खबर दी जाकर, उनको कुछ भी
पता नहीं था
कि वह क्या
खबर दे रहा है।
अब किसी ईसाई
को, पादरी
को यह खयाल
नहीं हो सकता
कि वह गले में
जो लटकाए हुए
है, वह
स्वस्तिक का
टूटा हुआ
हिस्सा है, वह क्रास बन
गया। किसी
मुसलमान को
खयाल नहीं हो
सकता कि वह उस
चांद को, वह
जो अर्धचंद्र
को इतना आदर
दे रहा है, वह
ओम् का आधा
हिस्सा है, ओम् का टूटा
हुआ हिस्सा है।
अब फिर
कल बात करेंगे।
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