अध्याय—8
सुत्र—
ब्रह्यणक्षत्रियविशां
शूद्राणां च परंतय।
कर्माणि
प्रीवभक्तानि
स्वभाअभवैर्गुणै।।
41।।
शमो
दमस्तप: शौचं
क्षान्तिरार्जवमेव
च।
ज्ञानं
विज्ञानमास्तिक्यं
ब्रह्मकर्म
स्वभावजम् ।।
42।।
शौर्य
तेजी
धृतिर्दाक्ष्यं
युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च
क्षात्रं
कर्म
स्वभावजम्।।
43।।
कृषिगौरमवाणिज्यं
वैश्यकर्म
स्वभावजम्।
परिचर्यात्क्कं
कर्म शूद्रस्यापि
स्वभावजम्।।
44।।
इसलिए हे
परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय
तथा वैश्यों
के तथा शूद्रों
के भी कर्म
स्वभाव से
उत्पन्न हुए
गुणों के आधार
पर विभक्त किए
गए हैं।
शम अर्थात
अंतःकरण का
निग्रह,
दम अर्थात इंद्रियों
का दमन,
शौच अर्थात
बाहर— भीतर की
शुद्धि, तय
अधर्म धर्म के
लिए कष्ट सहन
करना,
क्षांति
अर्थात क्षमा—
भाव एवं आर्जव
अर्थात मन,
इंद्रिय और
शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि,
ज्ञान और
विज्ञान,
ये तो ब्रह्मण
के स्वाभाविक
कर्म हैं। और
शौर्य, तेज, धृति
अर्थात धैर्य, चतुरता और
युद्ध में भी
न भागने का
स्वभाव एवं
दान और स्वामी—
भाव, ये सब
क्षत्रिय के
स्वाभाक्कि
कर्म हैं।
तथा खेती, गौपालन
और क्रय— विक्रय
रूप सत्य व्यवहार, वैश्य के
स्वाभाविक
कर्म हैं। और
सब वर्णो की
सेवा करना,
यह शूद्र का
स्वाभाक्कि
कर्म है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
भीष्म और कर्ण
जैसे धार्मिक
लोगों ने
अधर्मी
दुयोंधन का
पक्ष क्यों
लिया था? और
महाभारत के
अंतिम काल में
कृष्ण ने
अर्जुन आदि
पांच पांडवों
को भीष्म
पितामह के पास
उनकी
मृत्युशय्या
पर धर्म का
उपदेश लेने
क्यों भेजा था?
पहली
बात,
धार्मिक
व्यक्ति का
अर्थ है
समर्पित
व्यक्ति।
जीवन जहां ले जाए
उसकी अपनी कोई
मर्जी नहीं है।
अगर जीवन दुयोंधन
के पक्ष में खड़ा
कर दे, तो
वह वहीं खड़ा
हो जाएगा। अगर
जीवन अर्जुन
के पक्ष में
खड़ा कर दे, तो
वह वहीं खड़ा
हो जाएगा।
धार्मिक
व्यक्ति की
अपनी मर्जी
होती, अपना
निर्णय होता,
तो सवाल
उठता था कि
भीष्म क्यों
दुर्योधन के पक्ष
में खड़े हैं।
धार्मिक
व्यक्ति तो
निमित्त—मात्र
है। इसलिए
जहां
परमात्मा की
मर्जी हो, वहीं
खड़ा हो जाता
है। उसने अपनी
तरफ से निर्णय
लेना छोड़ दिया
है। वह
समर्पित है।
इसलिए
भीष्म ने जहां
पाया, उसे
स्वीकार कर
लिया। इस
स्वीकृति के
कारण ही, जो
कि बड़ी कठिन
है.......।
इसे
थोड़ा समझें।
अगर
भीष्म ने
पांडवों के
पक्ष में अपने
को पाया होता, तो
स्वीकृति
ज्यादा सरल थी,
समर्पण
ज्यादा आसान
था।
जब
तुम शुभ दशा
में पाते हो, तब
समर्पण कठिन
होता ही नहीं।
स्वर्ग में
अपने को पाकर
कौन समर्पण न
कर देगा! नरक
में पाकर जो
समर्पण करे, वही समर्पण
है। जहां जीत
होने को ही हो,
और यह
स्पष्ट ही था
कि पांडवों की
जीत सुनिश्चित
है, फिर भी
अपने को छोड़
दिया भीष्म ने
उनके साथ जिनकी
हार निश्चित
थी।
भीष्म
को भलीभांति
पता है।
भारत
की सारी बोध
की संपदा एक
छोटे—से सूत्र
में समाई है, सत्यमेव
जयते
नान्यर्तम।
सत्य जीतता है,
असत्य कभी
नहीं।
उन्हें
पता है कि
सत्य कहां है।
उन्हें यह भी
पता है कि जीत
कहां होगी, कैसी
होगी, फिर
भी उन्होंने
छोड़ दिया।
इसलिए गुण—गौरव
और भी बढ़ जाता
है।
भीष्म
की गरिमा बढ़
जाती है, घटती
नहीं। भीष्म
अगर कहते कि
युधिष्ठिर और
अर्जुन और पांडवों
के पक्ष में
तू मुझे खड़ा
कर दे, तो
मैं समर्पण को
राजी हूं तब
तो समर्पण कुछ
बहुत गहरा न
हुआ होता। जिस
बात के लिए
तुम राजी हो, उसमें
समर्पण करने
में कौन—सी
कठिनाई है!
वस्तुत: तुम
समर्पण का
आवरण ओढ़ रहे
हो; मर्जी
तुम्हारी ही
है। लेकिन
भीष्म ने अपने
को ऐसी विपरीत
दशा में छोड़
दिया, जहां
कि समर्पण अति
कठिन है, असंभव
है। अंधेरे के
पक्ष में छोड़
दिया। अगर
प्रभु की यही
मर्जी है, तो
यही होगा।
और
यही कारण है
कि पांडवों को
कृष्ण ने
अंततः भीष्म
के पास धर्म
की शिक्षा के
लिए भेजा।
क्योंकि
जिसका समर्पण
इतना गहरा है
कि परमात्मा
के भी विपरीत
लड़ना हो, अगर
परमात्मा की
यही मर्जी है,
तो यह भी
करेगा। वहां
भी ना—नुच न
करेगा, वहां
भी इनकार न
करेगा। जिसका
आस्तिक भाव
इतना परम है, उसके पास
उसके मरण के
क्षण में
शिक्षा लेने
योग्य है, जाने
योग्य है।
उसके चरणों
में बैठकर
उससे सीखने
योग्य है।
इससे
तुम एक बात
समझ लेना कि
जो व्यक्ति
जैसी भी
परिस्थिति हो, बिना
किसी शर्त के
समर्पण करता
है, वही
समर्पण करता
है। तुम्हारी
मर्जी के
अनुसार
स्थिति हो और
तुम समर्पण
करो, तो
तुम समर्पण के
धोखे में पड़ना
मत। तुम
चालबाजी कर
रहे हो।
जब
सुख बरसता हो, स्वर्ग
पास हो, तब
तुम यह मत
कहना कि प्रभु,
तेरी ही
मर्जी पूरी हो।
जब नरक द्वार
पर दस्तक देता
हो, अंधकार
सब तरफ से
घेरे हो, पराजय
सुनिश्चित हो,
पैर के नीचे
की भूमि
खिसकती हो, कहीं सहारा
न मिलता हो, नाव ड़बने
ही वाली हो, आंधियां हों,
अंधड़ हों, तब भी तुम
कहना, प्रभु
तेरी ही मर्जी
पूरी हो। तो
तुम्हारे
समर्पण की जो
गहराई होगी, वही असली
गहराई है।
भीष्म
ने अदभुत किया।
बड़ा कठिन था
दुर्योधन के
साथ खडा होना।
साधारण
बुद्धि का
आदमी भी देख
लेता कि दुर्योधन
के साथ खड़ा
होना कितना
कठिन है। भाग
खड़ा होता। या
तो भीष्म जैसे
लोग खड़े थे
दुर्योधन के
साथ,
जिनका
समर्पण पूरा
था, या
वैसे लोग खड़े
थे, जिनकी
दुष्टता पूरी
थी।
अधार्मिकों
की जमात थी।
दुष्टों का
गिरोह था।
उसके बीच
भीष्म खड़े थे
चुपचाप, क्योंकि
उसकी अगर यही
मर्जी है, तो
ठीक। उसकी
मर्जी के
मार्ग पर मर
जाना बेहतर, मिट जाना
बेहतर। उसकी
मर्जी से नरक
में गिर जाना
बेहतर, महाअंधकार
में उतर जाना
बेहतर। अपनी
मर्जी का
प्रकाश कोई
प्रकाश सिद्ध
होने वाला
नहीं है।
इस
महा समर्पण के
कारण ही यह
गरिमा उनको
कृष्ण ने दी।
महाभारत बहुत
अनूठा है।
उसकी हर घटना
अनूठी है।
महाभारत जैसा
महाकाव्य इस
संसार में
दूसरा नहीं।
उसमें जीवन के
बड़े गहन
तत्वों को बड़ी
सरलता से
प्रकट किया
गया है। मगर
बड़ी सूझ चाहिए, तो
ही दिखाई
पड़ेगा कि
मामला क्या है।
मरणशथ्या
पर पड़े भीष्म
के पास भेजते
हैं कि सीख लो
उनसे धर्म की
असली बात।
क्योंकि
जिसने इतना
महा समर्पण
किया है, उसने
असली धर्म को
पहचान लिया है।
उलटा
ही होता, तुम
अगर होते, तो
तुम कहते, इसके
पास क्या जाना,
जो दुष्टों
के साथ खड़ा
रहा! जिसको
धर्म की इतनी
भी बुद्धि
नहीं है कि
असद को छोड़ो, सद को पकड़ो; बुराई को
त्यागों, भलाई
को पकड़ो; जिसको
इतनी भी
सदबुद्धि
नहीं है, इसके
पास धर्म
सीखने जाना? बात ही उलटी
है!
लेकिन
कृष्ण ने भेजा, पांडव
गए। न तो
पांडवों ने यह
बात उठाई कि
हम जाएं, इस
आदमी से
सुनने! नहीं, वे समझे इस
राज को कि
भीष्म वहां
अपनी मर्जी से
नहीं हैं, वे
परमात्मा की
मर्जी से हैं।
जिसने
इस तरफ लोगों
को खड़ा किया
है,
उसी ने उस
तरफ भी लोगों
को खड़ा किया
है। खेल उसका
है। हम उसके
हाथ में चलने
वाले प्यादे,
सिपाही, घोड़े,
हाथी, राजा,
रानी, कुछ
भी हों, लेकिन
शतरंज के
मोहरे हैं।
हाथ उसका है, वह जहां
उठाए, जैसे
चलाए। जो उसके
साथ पूरी तरह
चलने को राजी
है, जिसने
अपने अहंकार
को बिलकुल
छोड़ा है, वही
धर्म के गुह्य
राज को जानने
में समर्थ होता
है।
मरने
के पहले पूछ
लो उससे, कृष्ण
ने कहा, यह
अवसर न खो जाए।
क्योंकि जो
नासमझ उसके आस—पास
खड़े हैं, वे
तो उससे
पूछेंगे भी
नहीं।
शायद
दुर्योधन तो
यही सोचता रहा
होगा मन में
कि ये भीष्म
पितामह और ये
सब मेरी
दुष्टता के कारण
ही मेरे साथ
हैं। मेरे भय
के कारण मेरे
साथ हैं। या
मेरे साथ रहने
से कुछ लोभ
पूरा होगा, धन—संपदा,
यश—प्रतिष्ठा
मिलेगी, विजय
मिलेगी, इसलिए
मेरे साथ हैं।
मेरे डर के
कारण मेरे साथ
हैं। उसने तो
कभी सोचा भी न
होगा कि ये एक
परम समर्पण के
कारण मेरे साथ
हैं।
उस
राज को तो
कृष्ण के
सिवाय कोई भी
नहीं जानता है
कि दुर्योधन
के साथ भीष्म
का खड़ा होना
किसी और कारण
से नहीं है, प्रभु
की मर्जी के
कारण है।
इसलिए जाओ, इसके पहले
कि यह जीवन—ज्योति
खो जाए, इससे
इसके जीवन का
निचोड़ पूछ लो,
सार पूछ लो।
इससे पूछ लो, धर्म क्या
है! इसने धर्म
को बड़ी विपरीत
अवस्थाओं में
जाना है। और
जिसने जाना है
अंधकार में
प्रकाश को, उसकी पहचान,
प्रत्यभिज्ञा
बड़ी गहरी होती
है।
जब
सूरज उगा हो
और तुमने एक
जलते हुए दीए
को देखा हो, तो
तुम्हारी
प्रत्यभिज्ञा
होती ही नहीं
गहरी। दीया
दिखाई ही नहीं
पड़ता। अमावस
की घनी अंधेरी
रात में, जब
तारे भी छिपे
हों, तब दीया
प्रकट होता है।
तब उसकी
ज्योति को
जिसने देखा है,
उसने
ज्योति का रोआं—रोआं
देखा है, उसने
ज्योति का
रेशा —रेशा
देखा है, उसने
ज्योति को
अंधेरे की
पृष्ठभूमि
में देखा है।
उससे पूछ लो
ज्योति का नक्शा,
ज्योति का
रहस्य, ज्योति
को जलाने की
विधि। उसके
पास दृष्टि है।
इसलिए भीष्म
के पास भेजा
है।
और
एक बात समझ
लेनी जरूरी है, क्योंकि
वह सवाल भी मन
में उठेगा, कि आखिर
परमात्मा की
भी ऐसी मर्जी
क्यों? क्या
परमात्मा
असत्य को
जिताना चाहता
है? क्यों
परमात्मा ऐसा
चाहे? क्यों
समग्र की ऐसी आकांक्षा
हो कि भीष्म
और कर्ण जैसे
लोग, महिमाशाली,
पवित्र, जिनकी
शुचिता का कोई
अंत नहीं, वे
दुष्टों के
गिरोह में खड़े
हो जाएं?
कारण
है। और कारण
समझने जैसा है।
इस
संसार में
बुराई भी भलाई
के पैरों पर
ही खड़ी हो
सकती है, अन्यथा
खड़ी ही नहीं
हो सकती। झूठ
भी सत्य का
सहारा ही लेकर
खड़ा हो सकता
है, अन्यथा
खडा ही नहीं
हो सकता। झूठ
के पास अपने
कोई पैर ही
नहीं हैं। पाप
के पास अपनी
कोई शक्ति ही
नहीं है कि वह
खड़ा हो जाए
उसको भी पुण्य
का सहारा
चाहिए।
तो
वहां रावण के
खेमे में कोई
है,
जो राम को
प्रेम करता है।
रावण के खेमे
में कुछ सत्य
की किरण है, नहीं तो
रावण का खेमा
ही गिर जाए।
दुर्योधन
के खेमे में
कोई है कि अगर
उसके प्राणों
के प्राणों से
पूछा जाए, तो
वह कहेगा, पांडव
जीत जाएं।
लेकिन वह खेमे
में खड़ा है
दूसरे, विपरीत।
वहां अर्जुन
के गुरु द्रोण
हैं, वहां
कर्ण जैसा
महारथी है, वहां भीष्म
जैसा अनूठा
पुरुष है, अन्यथा
पलड़ा पहले ही
गिर जाएगा।
युद्ध हो ही न
पाएगा।
संघर्ष खड़ा ही
न हो सकेगा।
झूठ के पास
अपने पैर नहीं
हैं, सत्य
के पैर चाहिए।
लेकिन तुम
कहोगे, अगर
ऐसा सत्य के
उधार पैर लेकर
लड़ना पड़ता है,
तो झूठ को
लड़ाने की
जरूरत ही क्या
है?
यहीं
जीवन की एक
बड़ी गहरी
कीमिया है।
अगर झूठ न लड़े, तो
सत्य कभी
जीतेगा भी
नहीं। झूठ को
लड़ाना भी होगा,
सत्य को
जिताना भी
होगा। झूठ के
पार होकर ही
सत्य निखरेगा।
अंधेरी रात के
बाद ही सुबह
होगी।
तुम
कहो,
अंधेरी रात
की जरूरत ही
क्या है? दुख
की जरूरत ही
क्या है? दुख
के बाद ही सुख
का फूल खिलेगा
और समझ में आएगा।
संसार की
जरूरत क्या है?
संसार से
गुजरकर ही
मोक्ष की
प्रतीति होगी।
विपरीत से आकर
ही तुम अनुभव
को उपलब्ध हो
सकते हो, अन्यथा
जीवन का सारा
खेल पंगु हो
जाएगा, लंगड़ा
हो जाएगा।
तो
परमात्मा झूठ
को भी सच के
सहारे देता है।
उससे सच हारता
नहीं, उससे
झूठ जीतता
नहीं, सिर्फ
झूठ और सच का
संघर्ष हो
पाता है। उस
संघर्ष में
सत्य ही सदा
जीतता है। उस
संघर्ष में
झूठ ही सदा
हारता है।
लेकिन वह
संघर्ष भी
अनिवार्य है
और जरूरी है, एक अनिवार्य
शिक्षण है।
उससे गुजरना
आवश्यक है। वह
विद्यापीठ है।
असत्य
को भी सहारा
तो भगवान का
ही है, इतना
नहीं है कि वह
जीत जाए, पर
इतना जरूर है
कि सत्य से लड़
सके। क्योंकि
उसकी लड़ाई से
ही सत्य को बल
मिलेगा, उसके
संघर्ष से ही
सत्य निखरेगा,
नया होगा, उभरेगा, प्रकट
होगा। वह सत्य
के विपरीत
नहीं है
वस्तुत:, सत्य
को प्रकट होने
का अवसर है।
दूसरा
प्रश्न : आप
कहते हैं कि
कामना धन की
है अथवा धर्म
की,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
धर्म की यात्रा
का आरंभ तो
उसकी कामना से
ही होता है या
कि उसका उतना
उपयोग भी नहीं
है!
नहीं, धर्म
की यात्रा का
प्रारंभ धर्म
की कामना से नहीं
होता, संसार
की कामना के
असफल होने से होता
है। इसे ठीक से
गांठ बाँध लो।
इसे सम्हाल कर
रख लो। धर्म की
यात्रा धर्म की
कामना से शुरू
नहीं होती, क्योंकि कामना
से तो धर्म की
यात्रा शुरू
ही नहीं हो
सकती। कामना
तो संसार है।
कामना का
फैलाव ही तो
संसार है। तो
कामना से कैसे
धर्म की
यात्रा शुरू
होगी? अन्यथा
धर्म भी संसार
हो जाएगा।
कामना से ही
तुम कामना के
पार कैसे
जाओगे? यह
तो कीचड़ से
कीचड़ धोना हो
जाएगा।
नहीं, संसार
की कामना जब
हार जाती है, समग्ररूपेण,
परिपूर्णता
से। तुम सब
तरफ से जीतने
की कोशिश कर
लेते हो, सब
तरफ के सहारे
खोजते हो, बैसाखियां
लगाते हो, लेकिन
गिर—गिर जाते
हो। एक ऐसी
घड़ी होती है
कि तुम जान
लेते हो कि
संसार पराजय
है। वहां दुख
ही दुख है। वहां
सुख की केवल आशा
है। और वह आशा
जिस दिन
निराशा बन
जाती है, प्रगाढ़
निराशा बन
जाती है, कि
उसमें फिर आशा
की एक भी किरण
नहीं बचती, इस अनुभव से
कि संसार
व्यर्थ हो गया,
तुम धर्म की
तरफ चलते हो।
धर्म
की कामना से
नहीं, संसार
की कामना के
टूट जाने से।
संसार व्यर्थ
हो गया, पैर
धर्म की तरफ
उठने लगते हैं।
यह कोई नयी
कामना नहीं है,
वासना की
कोई नयी
यात्रा नहीं
है। सभी
वासनाएं हार
गयीं, यह
तो निर्वासना
की तरफ जाना
है।
दो
तरह के लोग
धर्म की तरफ
जाते हैं। एक, कामना
से ही जाते
हैं। वे जा ही
नहीं पाते।
उन्हें लगता
है कि वे धर्म
की यात्रा पर
हैं; वह भ्रांति
है उनकी। धर्म
के नाम पर
संसार ही चलता
है। मंदिर
जाते हैं—धन
चाहिए, मुकदमा
जीतना है, विवाह
करना है, बच्चे
नहीं होते हैं,
दुकान नहीं
चलती, नौकरी
नहीं मिलती है।
मंदिर वे जाते
हैं; जाते
नहीं।
मंदिर
भी बाजार है, बाजार
का ही हिस्सा
है। दिखता भर
है कि मंदिर
है, वह है
नहीं मंदिर।
मंदिर में
क्या कुछ
मांगने जाना!
जिसकी मांग समाप्त
हो गयी, वही
मंदिर में
जाता है।
जिसने जान
लिया कि कुछ
सार नहीं; मिल
जाए संसार तो
सार नहीं, न
मिले तो सार
नहीं; जिसने
सब भांति
पहचान लिया कि
असार ही असार
है, वही
धर्म की तरफ
जाता है। तब
वह मांगने
नहीं जाता, कुछ पाने
नहीं जाता।
मांग
और पाने का
कोई संबंध ही
धर्म से नहीं
है। तब वह सब
छोड्कर, सब
व्यर्थता को
पहचानकर, एक
नयी यात्रा पर
निकलता है जो
निर्वासना की
है।
यहां
न तो परमात्मा
पाना है, न
मोक्ष पाना है।
कुछ पाना नहीं
है। यहां तो
सिर्फ होने का
आनंद लेना है।
होना
और पाना, इन दो
शब्दों को ठीक
से खयाल रखो।
जब होने की
यात्रा शुरू
होती है, तब
धर्म। जब पाने
की यात्रा
चलती रहती है,
तब संसार।
तुम सिर्फ
होना चाहते हो
अपनी
परिपूर्णता
में। यह कोई
चाह नहीं है, यह तुम हो ही।
सब चाह छूट
जाए, तो यह
तुम्हें
दिखायी पड़ जाए।
चाह
के कारण
दिखायी नहीं
पड़ता। चाह
घेरे रहती है, चाह
का धुआं चारों
तरफ घिरा रहता
है। तुम अपने
को नहीं पहचान
पाते। चाह के
कारण दौड़ते हो,
बैठ नहीं
पाते। चाह के
कारण सपने
संजोते हो, शांत नहीं
हो पाते। चाह
के कारण चित्त
विचार और
विचार करता है,
हजार
आयोजनाए करता
है। और उस
कारण, वह
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है, उसके
साथ मैत्री
नहीं बन पाती,
उसके साथ
संबंध नहीं
जुड़ पाता।
चाह
लाखों संबंध
बनवाती है
अपने से बाहर, भीतर
से संबंध नहीं
जुड्ने देती।
जब सब चाह छूट
जाती है—छूट
जाने का मतलब
यह नहीं कि
तुम छोड्कर
भाग जाते हो—छूट
जाने का मतलब,
जब तुम समझ
जाते हो, व्यर्थ
है। बोध होता
है; सुरति
जगती है। तब
ऐसा नहीं है
कि कोई नयी
यात्रा शुरू
हो जाती है।
बस, पुरानी
यात्रा बंद हो
जाती है। तुम
अपने को वहीं
पाते हो, जहां
तुम जाना
चाहते थे।
तुम
अपने को
परिपूर्ण
पाते हो, तुम
अपने को
ब्रह्मस्वरूप
पाते हो। उस
क्षण
तुम्हारे
भीतर अहर्निश
एक नाद गंजने लगता
है, अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ही ब्रह्म
हूं। बिना
कहीं गए मंजिल
मिल जाती है।
धर्म यात्रा
ही नहीं है।
क्योंकि
यात्रा में तो
वासना होगी, कहीं जाना
है। धर्म तो
पहुंचना है, यात्रा नहीं
है। धर्म
मार्ग नहीं है,
मंजिल है।
और तुम वहां
इस क्षण भी हो,
अभी भी हो।
लेकिन
तुम्हारी
वासनाएं
तुम्हें
दौड़ाती हैं।
अवसर नहीं
मिलता, समय
नहीं मिलता, सुविधा नहीं
मिलती कि तुम
पहचान लो, भीतर
क्या घटित हो
रहा है! क्या
सदा से ही
घटित हुआ हुआ
है!
तुम्हारे
भीतर अहर्निश
परमात्मा
विराजमान है।
श्वास—श्वास
में,
हृदय की
धड़कन— धड़कन
में वही रमा
है। पर फुरसत कहां,
सुविधा
कहां, समय कहां
है!
अभी
बहुत बड़ी दौड़
है,
संसार
जीतना है।
सिकंदर छाती
पर सवार है।
वह खींचे लिए
जा रहा है।
बहुत पाना है।
सोचते हो कि
जब सब पा
लेंगे, तब
फिर इस तरफ भी
ध्यान देंगे।
ध्यान
रखो,
धर्म
यात्रा ही
नहीं है। धर्म
वासना ही नहीं
है। उतना भी
उपयोग नहीं है,
धर्म के लिए।
धर्म
संसार की
असफलता से उठा
हुआ फूल है, जीवन
के विषाद से
उठा हुआ फूल
है, विफलता
से खिला हुआ
फूल है। कामना
की मृत्यु पर
धर्म का जन्म
है। कामना की
राख पर धर्म
का अंकुर
फूटता है।
तीसरा
प्रश्न : कल के
श्लोक में
ध्यान, उपासना
आदि से उत्पन्न
सात्विक सुख
को दुख का अंत
करने वाला, अमृत—तुल्य
और
आत्मबुद्धि
के प्रसाद से
उत्पन्न हुआ
कहा गया है।
कृपया समझाएं
कि कृष्ण ने
इसे सुख क्यों
कहा है? आनंद
क्यों नहीं
कहा?
सुख
दुख के विपरीत
है। संसार में
तुम जानते हो
दुख,
स्वयं में
तुम जानोगे
सुख। संसार
भूल जाएगा, तो सुख का
उदय होगा। जब
स्वयं भी भूल
जाएगा, तब
आनंद का उदय
होगा।
पहले
संसार से मुका
होना है, फिर
स्वयं से भी।
संसार से
मुक्ति पर दुख
न रहेगा, सुख
हो जाएगा, अमृत—तुल्य
हो जाएगा। बड़ा
अनूठा है; प्रसादरूप
है; भीतर
से उपजता है; सतत धार
बहती है। संगीत
में नहा जाते
हो उसके, प्रफुल्लित
हो उठते हो।
लेकिन संसार
में जो दुख
जाना था, यह
उसके विपरीत
अवस्था है। और
आनंद दुख के
विपरीत नहीं
है। आनंद तो
दुख और सुख
दोनों के अतीत
है।
तो
पहली अवस्था
है,
दुख। संसार,
जहां तुम
दुख ही दुख
जानते हो। सुख
की सिर्फ आशा
होती है, मिलता
कभी नहीं। बस
मिला, मिला,
ऐसा मालूम पड़ता
है। मिलता कभी
नहीं। अब आया
हाथ, अब
आया हाथ, हाथ
कभी आता नहीं।
दूर—दूर हटता
चला जाता है।
दुख मिलता है,
सुख की आशा
रहती है। सुख
की आशा के
कारण ही तुम
दुख झेलने में
राजी रहते हो,
नहीं तो तुम
कभी के भाग
खड़े होओ।
वह
तो ऐसा ही है
जैसे कि गाय
को घर लाना हो, तो
घास की एक
गठरी लेकर चल
पड़ो घर की तरफ।
गाय उसके पीछे
चली आती है।
आशा बंधी रहती
है कि अब यह
घास है, मिलेगा।
लेकिन
गाय को तो घर
आने पर घास
मिल भी जाता
है,
तुम जिस घास
के पीछे चल
रहे हो, वह
कभी मिलता ही
नहीं। बस, वह
आगे चलता ही
रहता है। तुम
भी चलते रहते
हो, घास भी
चलता रहता है।
फासला उतना ही
रहता है, जितना
पहली बार था, आखिरी बार
भी उतना ही
रहता है। वह
भ्रामक है, माया जैसा
है, सपने
जैसा है।
संसार
में दुख मिलता
है,
सुख की आशा
रहती है। आनंद
की तो बात ही
मत उठाओ। आनंद
का तो तुम
सपना भी नहीं
देख सकते
संसार में। सुख
की ही जहां
आशा है, वह
भी कभी नहीं
मिलता, वहां
आनंद का तो
सवाल क्या!
आनंद की तो
भनक भी नहीं
पड़ती।
इसलिए
आनंद शब्द
तुम्हारे
शब्दकोश में
है ही नहीं, हो
नहीं सकता।
तुम ज्यादा से
ज्यादा आनंद
का अर्थ भी
सुख ही कर
पाते हो, बड़ा
सुख, महासुख,
बहुत गुना
सुख। लेकिन तुम्हारा
आनंद
गुणात्मक रूप
से सुख से
भिन्न नहीं
होता। सुख का
ही बहुत गुना
होता है, लेकिन
सुख ही होता
है। तो सुख
होगा
तुम्हारा एक
रेत के कण
जैसा और आनंद
होगा सागर की
तटों पर फैली
हुई सारी
रेतों के जैसा।
लेकिन
गुणात्मक कोई
फर्क नहीं है,
परिमाण का
भेद है। बड़ा
होगा, भिन्न
नहीं होगा।
और
आनंद भिन्न है, बड़ा
नहीं है।
इसलिए आनंद का
तो तुम सुख ही
अर्थ ले सकते
हो। अभी सुख
भी तो जाना
नहीं है। वह
भी आशा में
झलका है।
जब
संसार छटता है, असार
होता है आंख
भीतर मुड़ती है, अपने पर आती
है, तो सुख
वास्तविक हो
जाता है।
जिसकी कल तक
आशा थी, वह
बहने लगता है।
तुम
भटकते थे, क्योंकि
बाहर खोजते थे
और वह भीतर था।
कस्तूरी
कुंडल बसै!
तुम उसकी
सुगंध में
कहां —कहां
यात्रा नहीं
किए! लोक—परलोक
छान डाले, कितनी
पृथ्वियों पर
भटके, कितनी
योनियों में
भटके, सब
तरफ टटोला, खोजा, सिर
टकराया, हाथ—पैर
मारे, कुछ
भी अनकिया न
छोड़ा। वह मिला
नहीं।
क्योंकि वह
भीतर था। अब
तुम थके —हारे
भीतर लौटे।
अचानक पाया कि
यहां तो
अहर्निश उसी
की धुन बज रही
है, उसी का
दीया जल रहा
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
अमृत—तुल्य।
अमृत ही नहीं,
अमृत—तुल्य;
अमृत जैसा।
प्रसादरूप, क्योंकि कुछ
कर नहीं रहे
हो और मिल रहा
है। बस भीतर
गए और मिलने
लगा है। भीतर
था ही। यात्रा
गलत हो रही थी;
जो भीतर था,
उसे तुम
बाहर खोजते थे।
यात्रा ठीक हो
गयी, सुख
भरने लगा।
लेकिन
यह सुख संसार
के दुख के
विपरीत है। यह
वही सुख है, जिसकी
आशा संसार में
तुमने बांधी
थी और कभी पाया
नहीं। वही सुख
अब तुम्हें
मिल रहा है।
लेकिन यह भी
संसार से जुड़ा
है। कितना ही
सात्विक हो, संसार से
जुड़ा है।
क्योंकि
तुम्हारा
होने का खयाल
कि मैं हूं,
यह भी संसार
का ही हिस्सा
है। दूसरे हैं,
तू है, उन्हीं
से जुड़ा हुआ
खयाल है, मैं
हूं। मैं और
तू एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
अब
तक तुमने तू
में खोजा था, दुख
पाया, अब
तुमने मैं में
खोजा और सुख
पाया। सुख
मिलने के बाद
तुम्हारे
जीवन में पहली
दफे आनंद की
आशा बंधेगी।
जैसे दुख में
सुख की आशा थी,
सुख में
आनंद की आशा
बंधेगी। सुखी
व्यक्ति आनंद
की तलाश पर
निकलेगा।
वह
पूछेगा, आनंद!
क्योंकि सुख
थोड़े ही दिनों
में उबाने लगेगा।
कितना ही अमृत—तुल्य
हो, रोज—रोज
पीने से
बेस्वाद हो
जाएगा। कितना
ही प्रसादरूप
हो, रोज—रोज
वही भोगने से
ऊब जाओगे, रसहीन
हो जाएगा।
उससे भी थक
जाओगे।
और
अक्सर ऐसा हुआ
है कि जब तुम
भीतर के सुख
से थक जाओगे, तो
तुम बाहर की
तरफ फिर आंख
खोलने लगोगे,
थोड़ा—सा दुख
मिल जाए, थोड़ा
स्वाद बदल जाए।
जंगलों
में बैठे हुए
संन्यासी सुख
पाते हैं।
लेकिन सुख से
फिर ऊबने लगते
हैं। फिर
संसार उन्हें
पुकारने लगता
है। क्योंकि
जब तक मैं
जिंदा है, तब
तक संसार
स्थूल रूप से
मर गया, सूक्ष्म
रूप से नहीं
मरा है। उसका
मौलिक आधार
अभी भी शेष है।
प्ल प्रिंट
मौजूद है। फिर
से भवन बनाया
जा सकता है।
बीज बना है, वृक्ष फिर
बन सकता है।
तुमने वृक्ष
तो काट दिया, बीज अभी
सम्हला हुआ है।
मैं ही, अहंकार
ही तो बीज है
सारे फैलाव का।
कभी
तुमने खयाल
किया, अगर कभी
ध्यान में
थोड़ी शांति भी
लगने लगती है,
तो जल्दी ही
तुम पाते हो
कि मन चाहता
है, थोड़ी अशांति
भी भोगें। चलो,
फिल्म ही
देख आएं!
मित्रों से
मिल आएं! कुछ
उपद्रव कर
लें! क्योंकि
शांति भी सतत
पड़ती रहे, तो
तुम झेल नहीं
पाते। उसमें
भी ऊब आने
लगती है।
स्वर्ग
भी अगर सतत ही
मिलता रहे, तो
जल्दी ही तुम
नरक जाने की
अर्जी दे दोगे।
तुम कहोगे कि
थोड़े दिन के
लिए जरा बाहर
हो आएं। थोड़ी
हवा बदल हो
जाएगी।
सुख
से भी आदमी ऊब
जाता है।
क्योंकि सुख
भी एक अनुभव
है। और सभी
अनुभव बार—बार
मिलते रहें, तो
उबाने वाले हो
जाते हैं।
आनंद
अनुभव नहीं है।
वह प्रसादरूप
भी नहीं है, वह
स्वभावरूप है।
वह अमृत—तुल्य
नहीं है, वह
अमृत है। वहां
भोगने वाला
कोई भी नहीं
है। वहां ऐसा
नहीं है कि
तुम हो और
आनंद मिल रहा
है। वहां बस
आनंद है और
तुम नहीं हो।
जिसको
सुख मिलता है, वह
अधर में अटक
जाता है। दो
उपाय हैं। अगर
समझदार न हो, अगर संगी—साथी
न हों, जो
उसे ऊपर खींच
सकें, अगर
गुरु उपलब्ध न
हो, तो
बहुत डर है कि
वह वापस संसार
में लौट जाए।
बहुत बार लोग
लौट गए हैं।
तुम में से भी
बहुत लौट गए
हैं।
इसी
तरह के लोगों
को तो हम
योगभ्रष्ट
कहते हैं। वे
करीब—करीब आ
गए थे। मंजिल
बस हाथ के
करीब थी और लौट
गए! पर मजबूरी
है। वे कर भी
क्या सकते
हैं!
मैंने
सुना है, कोलरेडो
में जब पहली
दफा सोने की
खदानें खोजी गयीं,
तो लोग एकदम
पागल की तरह
कोलरेडो की
तरफ भागने लगे।
क्योंकि वहां
सोना ही सोना
बरस रहा था।
खेतों में
सोना पड़ा था।
पहाड़ों पर
सोना था। जहां
खोदी, वहां
सोना मिल रहा
था।
एक
करोड़पति ने
अपनी सारी
जमीन—जायदाद, अपने
सब महल बेच
दिए और एक
पूरा पहाड़
खरीद लिया।
संयोग की बात,
पहाड़ सोने
से खाली था।
बहुत खोजा, लेकिन कुछ न
मिला। कर्ज
लिया
उसने; बड़े
यंत्र लगवाए।
लोग खेतों में
हाथ से खोद
रहे थे और
सोना मिल रहा
था। नदी के
किनारे रेत
खोद रहे थे और
सोना मिल रहा
था। और उसने
पूरा पहाड
खरीद लिया था
इसी आशा में कि
वह दुनिया का
सबसे बड़ा
धनपति हो
जाएगा। वह
कंगाल हुआ जा
रहा है! उसने
बडा कर्ज लिया,
बड़ी मशीनें
ले गया। पहाड़
खुदवा डाले, लेकिन सोने
का कोई पता
नहीं।
एक
दिन उसने
अखबारों में
खबर दी कि मैं
अपने सारे
यंत्र, सारी
संपत्ति, सारा
पहाड़ बेचना
चाहता हूं।
उसके मित्रों
ने कहा, कौन
खरीदेगा? यह
खबर तो सबको
मिल गयी है।
तो पूरे
अमेरिका में
चर्चा है इसकी
कि भाग्य की
बात कि राह पर
पड़ा मिल रहा
है सोना, और
एक आदमी ने
इतनी मेहनत की
और एक कण भी न
पाया, आश्चर्य!
भाग्य में ही
न होगा। तो अब
तुम क्या
सोचते हो,
कोई
पागल होगा, जो
इतनी बड़ी
व्यवस्था को
खरीदे। जैसे
तुमने अपने को
दाव पर लगाया,
कौन लगाएगा!
और जानते हुए!
तुमने तो खैर
अंधेरे में
दाव लगाया था।
अब तो जानी
हुई बात है।
उसने
कहा,
कौन जाने!
दुनिया कभी
पागलों से
खाली नहीं। और
एक आदमी मिल
गया, जिसने
करोड़ों रुपए
देकर वह पूरी
जायदाद खरीद ली।
उसके घर के
लोगों ने कहा,
तुम पागल हो
गए हो? उस
आदमी ने कहा
कि जहां तक
उसने खोजा है,
वहां तक
नहीं मिला, लेकिन आगे
नहीं होगा, इसका कुछ
पक्का है? एक
कोशिश कर लेनी
जरूरी है।
और
वह दूसरा आदमी
दुनिया का
अरबपति हो गया, क्योंकि
सिर्फ एक फीट
और खोदा। और
इससे बड़ी
खदानें
कोलरेडो में
मिली ही नहीं।
सिर्फ एक फीट!
पहले ही दिन
मशीनों ने काम
शुरू किया और
खदानें प्रकट
हो गयीं। और
वह आदमी
पचासों फीट
खोद चुका था।
पर
तुम जानोगे भी
कैसे कि एक
फीट पहले ही
लौट आए हो! बस, एक
फीट दूर थी
तुम्हारी
संपदा।
तुम्हारा
भाग्य
प्रतीक्षा
करता था, बस
एक इंच दूर भी
हो सकता था।
सिर्फ मिट्टी
की एक पतली
सतह एक इंच की
हो सकती थी।
और तुम लौट आए
होते।
सुख
की अवस्था से
बहुत लोग वापस
गिर जाते हैं।
क्योंकि जब सुख
उबाने लगता है, तब
अगर कोई
सम्हालने को न
हो और कोई कहे
कि भागों मत, यही तो मौका
है। आंख ऊपर
उठाओ, आनंद
की झलक मिल
सकती है अभी!
सुख
में ही आनंद
की झलक मिलती
है,
दुख में
नहीं। दुख में
तो सुख की झलक
मिलती है।
स्वाभाविक है।
दुख की सीढ़ी
से सुख की
सीढ़ी जुड़ी है।
सुख की सीढ़ी
के पार आनंद
की सीढ़ी है।
भागों
मत,
सुख का
उपयोग कर लो।
अगर तुमने दुख
को ठीक से
समझा, तुम
सुख में पहुंच
जाओगे। अगर
तुमने सुख को
ठीक से समझा, तुम आनंद
में पहुंच
जाओगे।
दुख
है संसार और
तुम। दो मौजूद
रहो तो दुख है, मैं
और तू। बस, मैं
और तू की सारी
बकवास है
संसार। फिर
मैं ही बचे, आधा रोग रह
जाए, तो
सुख मालूम
होता है। फिर
मैं भी चला
जाए, तो
आनंद बरसता है।
लेकिन तब तुम
नहीं होते।
आनंद
अनुभव नहीं है।
कोई है ही
नहीं वहां, जो
अनुभव करता है।
आनंद ही हो।
इसलिए हमने
परमात्मा का
लक्षण कहा है,
सच्चिदानंद।
परमात्मा
आनंदित हो रहा
है,
ऐसा नहीं
कहा है।
परमात्मा
आनंद है।
क्योंकि
आनंदित हो रहा
है, तो कभी—कभी
दुखी भी होगा।
कभी—कभी आनंद
से हाथ छूट भी
जाएगा। कभी—कभी
उदास भी हो
जाएगा। नहीं,
परमात्मा
आनंद है। यह
उसका होना है।
इसलिए
कृष्ण इसे सुख
कह रहे हैं, आनंद
नहीं कह रहे
हैं। समझो।
अगर सत्य की
दशा सध जाए, तो सुख
मिलेगा, अगर
गुणातीत दशा
सध जाए, तो
आनंद मिलेगा।
तीनों गुणों
के जो पार हो
जाता है, वह
आनंद को
उपलब्ध होता
है।
सत्य
की दशा, शुद्धतम
गुण की दशा
में सुख होता
है, महासुख
होता है, आनंद
नहीं। अभी एक
रेखा बनी ही
रहती हैं
तुम्हारे
होने की। वही
कांटे की तरह
चुभती रहती है।
सुख में भी
दुख का बीज
बना रहता है।
चौथा
प्रश्न : आपने
समझाया कि तमस
से रजस में, फिर
रजस से सत्व
में उठना है।
फिर कहा गया
है कि स्वधर्म
में जीना ही
धर्म का लश है।
तो यदि किसी
व्यक्ति का
स्वधर्म
राजसिक होना
हो, तो
क्या उसे भी
अपना स्वधर्म
छोड्कर सत्व
में उठना
जरूरी है?
कोई
गुण स्वधर्म
नहीं है। गुण
तो बाहर के
आवरण हैं।
स्वधर्म का
अर्थ तो
स्वभाव में
जाना है। वह
तो गुणातीत है।
रजस, तमस
या सत्य
स्वधर्म नहीं
हैं, धर्म
पर आरोपण हैं।किसी
के ऊपर लोहे
का आवरण है, वह तमस।
किसी के ऊपर
चांदी का आवरण
है, वह रजस।
किसी के ऊपर
सोने का आवरण
है, वह
सत्य। बाकी
तीनों आवरण
हैं। भीतर जो
छिपा है, गुणातीत,
स्वधर्म तो
वहां है।
तो
स्वधर्म का
अर्थ तुम
गुणों से मत
करना।
स्वधर्म तो
आकाश की भांति
है। उसमें तो
तुम जाओगे, तो
ही पहचान
पाओगे, उसका
कोई गुण नहीं
है। स्वधर्म
का कोई गुण
नहीं है, गुणातीत
अवस्था ही
उसका होना है।
इसलिए सभी को
तमस से उठना
है, रजस से
उठना है, सत्य
से भी उठना है।
और अंतत:
स्वधर्म को
पाना है।
अब
यह स्वधर्म—न
तो इसका हिंदू
धर्म से कोई
मतलब है, न
मुसलमान धर्म
से कोई मतलब
है, न जैन
धर्म से कोई
मतलब है—स्वधर्म
का अर्थ तो है
तुम्हारे
चैतन्य की परम
अनुभूति, आत्यंतिक
अनुभूति।
पांचवां
प्रश्न :
बर्ट्रेड
रसेल ने कहीं
कहा है कि
आधुनिक
मनुष्य की
सबसे बड़ी
समस्या अपराध—
भाव है। क्या
यह बात सही है? और
यदि सही है, तो उससे
मुक्त होने को
वह क्या करे?
यह बात
बहुत गहरे
अर्थों में
सही है। और आज
ही ऐसा है, ऐसा
नहीं; सदा
से मनुष्य की
समस्या रही है
अपराध— भाव।
जब मैं कहता
हूं सदा से, तो मेरा
अर्थ है, जब
से आदमी सभ्य
हुआ।
असभ्य
आदमी को कोई
अपराध— भाव
नहीं होता। वह
ऐसे ही सरलता
से जीता है, जैसे
बच्चे, जैसे
पशु—पक्षी, पौधे।
सभ्यता का
जन्म ही अपराध—
भाव से होता
है।
अपराध—
भाव का अर्थ
है,
हम
प्रत्येक
बच्चे को कहते
हैं कि
तुम्हें ऐसा
होना चाहिए और
ऐसा नहीं होना
चाहिए। फिर
बच्चा जब भी
अपने को पाता
है उस दिशा
में झुकता, जैसा नहीं
होना चाहिए, तो अपराध की
वृत्ति पैदा
होती है, गिल्ट
पैदा होती है,
ग्लानि
पैदा होती है।
और जब भी पाता
है उस दिशा
में झुकता हुआ,
जैसा हम
कहते हैं होना
चाहिए, तो
अहंकार पैदा
होता है।
सभ्यता
दो रोग पैदा
करवाती है, एक
तरफ अहंकार और
एक तरफ अपराध।
तुमने
किसी बच्चे को
कहा,
सिगरेट
नहीं पीना; महापाप है, नरक में
सडोगे। तुमने
डरवाया। अब
अगर पीएगा, तो अपराध—
भाव पैदा होगा
कि मैंने कुछ
पाप किया। मा—बाप
से झूठ बोला, छिपाया। वह
डरा—डरा घर
आएगा।
चौकन्ना
रहेगा कि कहीं
न कहीं से खबर
मिलने ही वाली
है। कोई न कोई
ने देख ही
लिया होगा।
कपड़े में बास
आ जाएगी मां
को। मुंह को
पास लाएगा, तो मुंह से
पता चल जाएगा।
वह पकड़ा ही
जाने वाला है।
वह अपराध से
भरा हुआ है, डर रहा है, घबड़ा रहा है।
अगर
यह भय बहुत
गहरे बैठ जाए, तो
तुम जीवनभर
डरते ही डरते
समाप्त हो
जाते हो। तुम
जी ही नहीं
पाते। भयभीत
जीएगा कैसे!
अपराध
तुम्हारे
जीवन को चूस
डालता है।
अगर
सिगरेट न पी, पीने
की आकांक्षा
थी, पीने
का मन था, हाथ
में उठा ली थी,
फिर छोड़ दी,
त्याग कर दी,
तो अकड़ पैदा
होगी, अहंकार
पैदा होगा। यह
लड़का घर और ही
चाल से चलता
हुआ आएगा, कि
इसने कोई
महाकार्य कर
लिया है, कि
जैसे यह
परमात्मा की
नजरों में
बहुत ऊपर उठ
गया। स्वर्ग
बिलकुल
निश्चित है!
छोटे
बच्चों को तो
छोड़ दो, तुम्हारे
बड़े साधु—संन्यासी
भी ऐसी ही
छोटी बातों
में स्वर्ग और
नरक का हिसाब
लगा रहे हैं!
किसी ने उपवास
कर लिया; वह
पक्का मानकर
बैठा है कि
स्वर्ग में
बैड—बाजे लिए
परमात्मा खड़ा
है। जैसे ही
वह मरेगा कि
बैड—बाजे बजे,
हाथी पर
जुलूस निकला!
बचकानी
बुद्धि है।
तुमने किया
क्या है? भोजन
नहीं किया, कि सिगरेट
नहीं पी, कि
पान नहीं खाया।
कुछ हैं कि
जिन्होंने
पान खा लिया
है, सिगरेट
पी ली है, वे
घबड़ा रहे हैं
कि नरक का
द्वार खुला, अब खुला। अब
देर नहीं है
और शैतान ने
दबोचा!
दोनों
ही बातें
नासमझी की हैं।
और दोनों ही
के पीछे कारण
है। कारण है, समाज,
राज्य, धर्म।
समाज जीता है
व्यक्ति को
डराकर, भयभीत
करके।
पुरोहित भी
जीता है
व्यक्ति को
डराकर, भयभीत
करके। पहले
डराओ। जब आदमी
बिलकुल घबड़ा
जाए, तब
उसको बचाने आ
जाओ। यह जाल
है।
मैंने
सुना है, एक
गांव में दो
भाई थे। उनका
धंधा बहुत
अच्छा चलता था।
एक भाई रात
में जाकर
लोगों की
खिड़कियों पर
डामर फेंक आता
था। और दूसरा
भाई सुबह से
निकलता था
चिल्लाता हुआ,
किसी को काच
तो साफ नहीं
करवाने हैं? धंधा बड़ा
परिपूर्ण था।
उसमें कभी ऐसा
होता ही न था
कि ग्राहक न
मिलें। पहला
भाई ग्राहक
पैदा कर जाता
था, दूसरा
भाई सुबह जाकर
लोगों के काच
पर डामर साफ
कर आता था।
पहले
पुरोहित
तुम्हें
डराता है। जब
तुम भयभीत हो
जाते हो, तब
तुम्हें
सांत्वना देता
है कि घबड़ाओ
मत। हमारे पास
कुंजियां हैं,
उपाय हैं, जिनसे तुमने
अगर पाप भी
किए हैं, तो
भी क्षमा हो
जाओगे। जिनसे
अगर तुमने
अपराध भी किए
हैं, तो
अपराध
तुम्हें नरक
में न ले
जाएंगे।
हमारे पास
मंत्र हैं, यज्ञ का
साधन है। अगर
तुमने हमारी
सुनी और मानी,
तो क्षमा कर
दिए जाओगे।
घबड़ाओ मत, बचाने
का उपाय है।
बचने की
संभावना है।
मनुष्य
को पहले हम
रुग्ण करते
हैं,
फिर इलाज।
पहले बीमार
करते हैं, फिर
चिकित्सा
करते हैं। ऐसे
धंधा चलता है।
आदमी
स्वस्थ है, कुछ
करने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन यह जारी
रहेगा, क्योंकि
राजनेता
व्यर्थ हो
जाएगा, अगर
तुम घबडाए न।
अगर तुम डरे न,
तो राजनेता
तुम्हें
युद्धों में न
झोंक सकेगा।
अगर तुम डरे न,
तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे
खाली हो
जाएंगे।
क्योंकि कौन
वहां घुटने
टेककर
प्रार्थना करेगा?
अगर तुम डरे
न, तो समाज
की छाती पर जो
लोग बैठे हैं,
वे बैठे न
रह सकेंगे। तब
व्यक्ति
मुक्त होने
लगेगा। समाज
बिखरने लगेगा।
लोग सरल हो
जाएंगे, लोग
नैसर्गिक हो
जाएंगे, लोग
आनंद— भाव को
उपलब्ध हो
जाएंगे, लेकिन
तब दुष्टों की,
शोषकों की,
पीड़ित करने
वालों की, परपीड़कों
की बड़ी कठिनाई
हो जाएगी। वे
क्या करेंगे?
इसलिए
यह सारा खेल है।
जैसे ही आदमी
सभ्य हुआ है, सबसे
बड़ी दुर्घटना
जो घटी है, वह
है, उसके
भीतर अपराध—
भाव पैदा हो
गया। और कैसी—कैसी
छोटी बातों पर
अपराध— भाव
पैदा हो जाता
है!
मैं
छोटा था। तो
मेरे घर में
पर्युषण के
दिन आते, जैनों
का त्योहार
आता, तो सब
बड़े उपवास
करते।
स्वभावत:, जब
बड़े उपवास
करते हैं, तो
छोटे भी
अनुकरण करते
हैं। न करो, तो ऐसा लगता
है, पाप कर
रहे हैं; करो,
तो बड़ी अकड़
पैदा होती है
कि कोई
महाकार्य कर
लिया! सिर्फ भूखे
मरे हैं, महाकार्य
कर लिया!
मैं
छोटा था, तो जब
घर में सभी
उपवास कर रहे
हों, तो
मुझे भी करना
चाहिए। कोई
जबरदस्ती न थी।
लेकिन न करो, तो ऐसा लगता
कि जैसे अभी
तक मनुष्य
जाति के हिस्से
नहीं हैं। अभी
थोड़े मनुष्य
जाति से नीचे
हो।
फिर
दूसरों के
घरों में
दूसरों के
बच्चे कर रहे
हैं। वह भी
बड़ी पीड़ा का
कारण था, कि
फलाने के लड़के
ने उपवास कर
लिया। या तो
भूखे न मरो, तब अहंकार
की तृप्ति
नहीं होती।
भूखे मरो, तो
अहंकार की
तृप्ति हो
सकती है। अगर
न करो, तो
अपराध— भाव
पैदा होता है
कि तुम्हीं
कुछ गलत हो, बाकी सब कर
रहे हैं।
रात
प्यास लग आए, तो
पानी नहीं पी
सकते। घर के
लोग समझाएं भी
कि पी लो, तुम
अभी बच्चे हो।
उससे भी दुख
होता है कि
अभी हम बच्चे
हैं, इसीलिए
पीने को कहा
जा रहा है, वैसे
तो यह पाप है।
तो अकड़ पैदा
होती है कि मत
पीओ, रात
गुजार ही दो
किसी तरह।
बच्चे तो
जिद्दी होते
भी हैं। किसी
तरह रात तकलीफ
में गुजार दो,
सुबह की राह
देखो।
प्रकृति
के विपरीत जो
भी करवाया जा
रहा है, उससे
अहंकार पैदा
होगा, अगर
करोगे। अगर न
करोगे, तो
अपराध पैदा हो
जाएगा, क्योंकि
दूसरे कर रहे
हैं, आगे
निकले जा रहे
हैं, तुम
पीछे छूटते जा
रहे हो।
आत्मनिंदा
पैदा होगी।
और
इस संसार में
सबसे बड़ी बुरी
बात है, आत्मनिंदा
का भाव पैदा
हो जाए।
क्योंकि
जिसको आत्मनिंदा
पैदा हो गयी, वह कैसे
पहचानेगा
भीतर के
परमात्मा को?
वह तो इतना
निंदित हो गया
कि वह कभी सोच
भी नहीं सकता
कि मेरे भीतर
और परमात्मा
हो सकता है! महावीर
के भीतर होगा,
बुद्ध के
भीतर होगा, कृष्ण के
भीतर होगा, मेरे भीतर
हो सकता है? रात पानी पी
लिया! उपवास
का दिन था; भूख
लग गयी!
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा हो
सकता है, यह
बात ही
मुश्किल हो
जाएगी, जितनी
अपराध की पर्त
मजबूत हो
जाएगी। और
अहंकार की
पर्त मजबूत हो
जाए, तो भी
मुश्किल हो
जाएगी कि
तुम्हारे
भीतर परमात्मा
है।
अहंकार
भी जानने नहीं
देता और अपराध
भी जानने नहीं
देता। दोनों
से जो मुक्त
हो जाता है, उसको
ही मैं सरल—साधु
कहता हूं। न
तो जो अपराध
की धारणा रखता
है अपने भीतर।
भूख लगी तो
भोजन किया।
प्यास लगी तो
पानी पीया, नींद आयी तो
सो गए।। जो
जीवन को इतनी
सरलता से
चलाता है कि
प्रकृति को
नाहक लड़ाई—झगड़े
में नहीं
डालता। और न
ही किसी
अहंकार को
अर्जित करता
है। कर भी
नहीं सकता।
अगर
तुम नींद आए
तभी सो जाओ, तो
अहंकार कैसे
अर्जित करोगे?
तुम कैसे
कहोगे कि मैं
सिर्फ दो ही
घंटे सोता हूं!
तुम कैसे
कहोगे कि मैं
रोज
ब्रह्ममुहूर्त
में उठता हूं;
मैं कोई
साधारण आदमी नहीं
हूं। पूरे
जीवन, मैं
ब्रह्ममुहूर्त
में ही उठा
हूं। तुम कैसे
कहोगे कि मैंने
कितने उपवास किए, कितने व्रत रखे।
अगर
तुम समझ, अपराध
छूट जाए, अहंकार
भी छूट जाता
है, क्योंकि
उसका कोई उपाय
ही नहीं बचता।
तब तुम होते
हो, जैसे
नहीं हो। और
यही होने का
श्रेष्ठतम
ढंग है। ऐसे, जैसे नहीं
हो। न तुम
ग्लानि से भरे
हो और न तुम
किसी की छाती
पर खड़े होने
की चेष्टा कर
रहे हो। न तुम
अपने को नीचा
मानते हो कि
दूसरों को अपने
सिर पर खड़ा
करो, न तुम
अपने को ऊंचा
मानते हो कि
किसी के सिर
पर खड़े हो जाओ।
तूम
न नीचे हो, न
तुम ऊपर हो।
तुम बस तुम हो।
तुम न तुलना
करते हो किसी
से अपनी, न
निंदा करते हो;
न अपना
गुणगान करते
हो, न अपनी
स्तुति करते
हो। इस सहजता
का नाम ही
स्वभाव है, स्वधर्म है।
और तभी तुम
अपने भीतर के
परमात्मा का
आविष्कार कर
पाओगे।
बचने
के दो उपाय
हैं,
अपराध और
अहंकार। पाने
का एक ही उपाय
है, दोनों
को छोड़ दो, दोनों
को गिरा दो।
स्वीकार कर लो
अपनी सहजता को,
निसर्ग को।
मत व्यर्थ का
संघर्ष खड़ा
करो। लड़ों मत
नदी से; बहो।
अब
सूत्र :
इसलिए हे
परंतप, ब्राह्मण,
क्षत्रिय
और वैश्यों के
तथा शूद्रों
के भी कर्म
स्वभाव से
उत्पन्न हुए
गुणों द्वारा
विभक्त किए गए
हैं। शम—अंतःकरण
का निग्रह, दम—इद्रियों
का निग्रह, शौच—बाहर—
भीतर की
शुद्धि, तप,
क्षांति, क्षमा— भाव
एवं आर्जव
अर्थात मन, इंद्रिय और
शरीर की सरलता,
आस्तिक
बुद्धि, शान
और वितान, ये
तो ब्राह्मण
के स्वाभाविक
कर्म हैं।
और शौर्य, तेज,
धृति
अर्थात धैर्य,
चतुरता और
युद्ध में भी
न भागने का
स्वभाव एवं
दान और स्वामी—
भाव, ये सब
क्षत्रिय के
स्वाभाविक
कर्म हैं।
तथा खेती, गौपालन,
क्रय—विक्रय
रूप सत्य व्यवहार
वैश्य के और
सब वर्णों की
सेवा करना, यह शूद्र का
स्वाभाविक
कर्म है। पहली
बात। अगर
संसार में लोग
ठीक—ठीक गुणों
में विभाजित
होते, तो
तीन ही वर्ण
होने चाहिए, चार नहीं—ब्राह्मण,
क्षत्रिय, शूद्र। अगर
लोग ठीक—ठीक
विभाजित हों,
तो तीन ही
वर्ण होंगे।
चौथा वर्ण भी
है, क्योंकि
लोग ठीक—ठीक
विभाजित नहीं
हैं।
वैश्य
वस्तुत: कोई
वर्ण नहीं है, सभी
वर्णों का
बाजार है।
शूद्र और
क्षत्रिय के
बीच में जो
हैं, क्षत्रिय
और ब्राह्मण
के बीच में जो।
हैं, शूद्र
और ब्राह्मण
के बीच में जो
हैं, वह जो—जो
बीच में हैं, उन सबका
इकट्ठा समूह
वैश्य है।
वैश्य कोई
वर्ण नहीं है;
मिश्रण है, खिचड़ी है।
लेकिन
उसकी भी जरूरत
है,
वह चौराहा
है। वहां से
एक वर्ण का व्यक्ति
दूसरे वर्ण
में प्रवेश
करता है। वहां
से एक गुण का
व्यक्ति
दूसरे गुण में
प्रवेश करता
है। तीन तो
यात्रा—पथ हैं,
चौथा
चौराहा है।
इसलिए
वैश्य बड़ा से
बड़ा वर्ण है।
होना नहीं
चाहिए। अगर
प्रकृति
बिलकुल नियम
से चलती हो और
सब चीजें बंटी
हो,
जैसी कि हम
गणित और तर्क
में बांट लेते
हैं, विभाजन
साफ हो, तो
वैश्य खो
जाएगा। तब तीन
ही रह जाएंगे।
तमस
से भरे हुए
व्यक्ति का
नाम शूद्र है, सोया,
मूर्च्छित।
रजस से भरे
हुए, तीव्र
त्वरा और कर्म
से भरे हुए
व्यक्ति का नाम
क्षत्रिय है।
सत्व, शांति,
पवित्रता
से भरे हुए
व्यक्ति का नाम
ब्राह्मण है।
ये तीन तो
गणित के
विभाजन हैं, लेकिन जीवन
गणित को नहीं
मानता। तो
जीवन में
ब्राह्मण तो
मुश्किल से
मिलेगा, शूद्र
भी मुश्किल से
मिलेगा, क्षत्रिय
भी मुश्किल से
मिलेगा। जहां
जाओगे, वहां
वैश्य मिलेगा।
क्योंकि तुम
पाओगे, ब्राह्मण
भी धंधा कर
रहा है। चाहे
वह धंधा यज्ञ
का हो, पूजा—पाठ
का हो, पुरोहित
का हो, धंधा
कर रहा है।
धंधा कर रहा
है, तो
वैश्य है।
तुम
पाओगे, शूद्र
भी सेवा कहां
कर रहा है, वह
भी धंधा कर
रहा है। चाहे
जूता बना रहा
हो, चाहे
मालिश कर रहा
हो, चाहे
बुहारी लगा
रहा हो, वह
भी धंधा कर
रहा है, वह
भी वैश्य है।
और क्षत्रिय
तुम कहां
पाओगे? वे
भी धंधा ही
करने वाले लोग
हैं। वे अपनी
जान बेच रहे
हैं। मरने—मारने
के लिए वे
तैयार हैं, क्योंकि सौ
रुपए महीना
तनख्वाह
मिलती है! वे भी
वैश्य हैं।
तीन
तो होते, अगर
जीवन बिलकुल
गणित से चलता।
लेकिन जीवन
गणित से चलता
ही नहीं। तो
तुम तो इन
तीनों का संगम
पाओगे। गंगा,
यमुना, सरस्वती,
तीनों को
तुम प्रयाग
में मिलता
पाओगे। वैश्य
तीर्थ बन गया
है। वह सब
उसमें
गड्डमगड्ड है।
वह सबसे बड़ा
वर्ण बन गया
है, जो
होना ही नहीं
चाहिए।
और
दूसरी बात
ध्यान रखो कि
इनका जन्म से
कोई भी संबंध नहीं
है। जन्म से
तुम ब्राह्मण
के घर में
पैदा हो सकते हो, इससे
तुम्हारे
ब्राह्मण
होने का कोई
संबंध नहीं है।
जन्म से तुम
क्षत्रिय के
घर में पैदा
हो सकते हो, लेकिन इससे
तुम्हारे
क्षत्रिय
होने का कोई संबंध
नहीं है। तुम
डरपोक
क्षत्रियों
को खोज ही
लोगे। और
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होने से कोई
ब्रह्मज्ञान
को थोड़े ही
उपलब्ध हो
जाता है। और
शूद्र के घर
में पैदा होने
से ही कोई
शूद्र थोड़े ही
होता है।
अब
डाक्टर
अंबेदकर थे, वे
शूद्र के घर
में पैदा हुए।
लेकिन उन जैसा
कानून का
पंडित तुम
मुल्क में खोज
ही न सकोगे।
भारत को अपना
विधान बनाना
पडा, तो
कोई ब्राह्मण
पंडित न खोज
सके वे
अंबेदकर से
श्रेष्ठ, जो
उस विधान को
बनाता।
अंबेदकर
शास्त्र का
ज्ञाता, विधि
का ज्ञाता।
ब्राह्मण के
घर में पैदा
नहीं हुआ है।
जीवन
का कोई संबंध
जन्म से बहुत
ज्यादा नहीं है।
जन्म से तो
केवल संभावना
मिलती है।
श्वेतकेतु
घर लौटा
शिक्षित होकर।
गुरुकुल से
वापस आया। बाप
ने पूछा कि तू
सच में ही
ब्राह्मण
होकर लौटा है? क्योंकि
तुझे मैं एक
बात कह दूं, हमारे कुल
में नाम से
ब्राह्मण कभी
भी कोई नहीं
हुआ। तो तू उस
एक को जानकर
लौटा है, जिसको
जानने से सब
जान लिया जाता
है? अगर न
जानकर लौटा हो
उस एक को, तो
अभी तू नाम—मात्र
को ब्राह्मण
है। और हमारे
कुल में कभी
कोई नाम—मात्र
का ब्राह्मण
नहीं हुआ। हम
सदा ही
वस्तुत:
ब्राह्मण
होते रहे हैं।
यह हमारे कुल
की धारा है, प्रतिष्ठा
है। तो तू जा।
उसने
कहा,
उसको तो मैं
जानकर नहीं
लौटा। जो भी
सिखाया गया है,
वह सब जानकर
लौटा हूं।
लेकिन मेरे
गुरु ने उसकी
तो कोई बात ही
नहीं की, उस
एक की, जिसको
जान लेने से
सब जान लिया
जाए! उस एक की
तो बात ही
नहीं उठी। और
मैं ऐसा नहीं
मानता कि मेरे
गुरु को उसका
पता होता और
वे छिपाते।
उन्हें पता ही
न होगा, क्योंकि
उन्होंने तो
अपनी पूरी
मुट्ठी खोल दी
और जो भी था, मुझे दिया
है।
तो
उद्दालक ने
कहा,
फिर? फिर
मैं ही तुझे
उस एक की
शिक्षा दूंगा।
लेकिन उस एक
को जाने बिना
कभी भूलकर
अपने को ब्राह्मण
मत कहना।
तो
ब्राह्मण के
घर में तो कोई
नाम का
ब्राह्मण हो
सकता है। जब
तक ब्रह्म को
न जान लो, तब तक
अपने को
ब्राह्मण
थोड़ा सोच—समझकर
कहना।
कोई
शूद्र के घर
में पैदा होने
से शूद्र नहीं
हो जाता।
हमारी मुल्क
की परंपरा तो
यह है कि सभी
शूद्र की तरह
पैदा होते हैं।
क्योंकि सभी
आलस्य से पैदा
होते हैं, गहन
तमस से आते
हैं।
मां
के पेट में नौ
महीने बच्चा
सोया रहता है।
अब इससे बड़ा
और आलस्य कुछ
खोजोगे! नौ
महीने पड़ा ही
रहता है तमस, अंधकार
में। सभी
अंधकार में से
आते हैं, आलस्य
और तमस से
पैदा होते हैं।
सभी शूद्र हैं।
सब
शूद्र की तरह
पैदा होते हैं
और सब
ब्राह्मण की
तरह मरने चाहिए।
यह तो जीवन की
कला होगी।
लेकिन जिसने
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होकर समझ लिया, मैं
ब्राह्मण हो
गया, वह
चूक जाएगा। वह
नाम—मात्र का
ब्राह्मण था।
उसने लेबल को
असलियत समझ
लिया।
क्षत्रिय के
घर में पैदा
होने से कोई
क्षत्रिय
नहीं होता।
समझने की
कोशिश करें उन
तीनों के
लक्षण।
शम
अर्थात
अंतःकरण का
निग्रह........।
जिसके
भीतर एक गहरी
शांति की
अवस्था आ गयी
है,
जिसके भीतर
कोई उत्तेजित
लहरें नहीं
हैं, अंतःकरण
विक्षिप्त
नहीं रहा, मौन
हो गया है। आंख
बंद कर लो, तो
भीतर सन्नाटा,
और सन्नाटा,
और सन्नाटा
खुलता जाता है।
स्वर की
व्यर्थ गंज
नहीं होती; शब्द अकारण
नहीं तिरते; विचार यों
ही नहीं घूमते
रहते। भीतर एक
परम शांति है।
अंतःकरण
निगृहीत हो
गया। अब
अंतःकरण पागल
की तरह नहीं
दौड़ रहा है।
जब जरूरत होती
है, तब
चलता है; जब
जरूरत नहीं
होती, तब
विश्राम करता
है। तुम मालिक
हो गए हो अपने
अंतःकरण के।
दम.......।
जिसकी
इंद्रियां अब
मालिक नहीं
रहीं; जिसका
होश मालिक हो
गया है।
तुम्हें
तो इंद्रियां
चलाए जाती हैं।
सुंदर स्त्री
जा रही है, तुम
ध्यान करने
बैठे थे और आंख
कहती हैं, देखो,
सुंदर
स्त्री जाती
है। तुम मालिक
नहीं हो। आंख
मजबूर कर देती
है; तुम्हें
देखना पड़ता है;
आंख उठानी
पड़ती है। आंख
उठाकर पछताते
हो कि क्या
होगा देखे
लेने से भी! और
सौंदर्य में
देखने योग्य
भी क्या है!
हवा में खिंची
लकीरें हैं; थोड़ी
अनुपातपूर्ण
होंगी। हड्डी—मांस—मज्जा
पर चढ़ी हुई
लकीरें हैं; थोड़ी
अनुपातपूर्ण
होंगी। लेकिन
क्या होगा? पर नहीं।
ध्यान टूट गया,
श्रृंखला
मिट गयी। आंख
ने पुकार लिया।
आंख ने पकड़
लिया।
इंद्रियां
जिसकी वश में
आ गयी हैं।
शौच—बाहर—
भीतर की
शुद्धि........।
जो
सदा नहाया हुआ
है;
जिसके भातर
विकार की धूल
नहीं। उठती।
तप.......।
जो
जीवन में दुख
झेलने को
तैयार है, अगर
उस दुख से
शुद्धि होती
हो। दुख झेलने
को तैयार है, अगर उस दुख
से शांति आती
हो। दुख झेलने
को तैयार है, उससे अगर
सत्य की खोज
होती है। जो
सुख का आकांक्षी
नहीं है; सुख
से बड़ी आकांक्षा
का जिसके भीतर
आविर्भाव हुआ
है। जो सत्य
का खोजी है।
क्षमा—
भाव.......।
जिसको
भी शांति पैदा
होगी, क्षमा—
भाव पैदा होगा
ही। अगर क्षमा—
भाव पैदा न हो,
तो तुम शांत
कभी हो नहीं
सकते। इतना
बड़ा संसार है,
चारों तरफ
चल रहा है।
हजारों तरह के
काम हो रहे
हैं, लोग
हजारों तरह की
बातें कह रहे
हैं, पक्ष
में, विपक्ष
में। अगर तुम
एक—एक की बात
पर विचार करो,
चोट पाओ, घाव बनाओ, क्षमा न कर
सको, माफ न
कर सको, भूल
न सको, तुम
कहीं शांत हो
सकोगे! तुम
पागल हो जाओगे।
तो जिसके भीतर
क्षांति पैदा
हुई है, जो
क्षमा— भाव को
उपलब्ध हुआ है।
आर्जव......।
जिसका
मन,
इंद्रिय और
शरीर सरल हो
गए हैं, नैसर्गिक
हो गए हैं। जो
छोटे बच्चे की
तरह जीता है।
आस्तिक
बुद्धि।
जिसके
भीतर से ही तो
सरलता से आता
है,
न मुश्किल
से आता है। ही
जिसका स्वभाव
हो गया है, आस्तिक
बुद्धि।
तुमने
देखा होगा, लोग
भी तुम जानते
होगे, हा
कहने वाले लोग
और न कहने
वाले लोग। ऐसे
लोग हैं, जिनके
भीतर से न ही
आता है। ऐसे
कामों में भी
न आता है, जहां
कि कोई जरूरत
ही न थी। नहीं
उनके लिए
स्वाभाविक है।
वह पहला उनका
उत्तर है। तुम
कुछ कहो, वह
नहीं पहले
उनके भीतर
उठेगा। वे
नास्तिक
बुद्धि हैं, जिनके भी
जीवन में
निषेध है, जो
इनकार से चलते
हैं।
आस्तिक
बुद्धि का
अर्थ है, जिसके
भीतर ही है, आस्था है।
ज्ञान और
विज्ञान......।
पुराने
शास्त्रों
में,
गीता में भी,
ज्ञान का
अर्थ तो
साधारण ज्ञान
होता है—संसार
का, पदार्थ
का। जिसको हम
आज विज्ञान
कहते हैं, साइंस
कहते हैं, उसको
गीता ज्ञान
कहती है।
और
उन दिनों, कृष्ण
के दिनों में,
विज्ञान
कहते थे उस
विशेष ज्ञान
को जिससे स्वयं
जाना जाता है।
साधारण ज्ञान
और विशेष
ज्ञान। जिससे
और सब जाना
जाता है, वह
ज्ञान; और
जिससे स्वयं
जाना जाता है,
वह विज्ञान।
ये
ब्राह्मण के
स्वाभाविक
लक्षण हैं।
यही उसका
स्वभाव है।
शौर्य, वीरता,
साहस, तेज,
एक अदम्य
ऊर्जा, शक्ति,
धृति, धैर्य,
चतुरता.......।
एक
जीवन में
संघर्ष की
कुशलता।
युद्ध
में भी न
भागने का
स्वभाव.......।
चाहे
मौत ही क्यों
न आ जाए, लेकिन
क्षत्रिय पीठ
दिखाना पसंद न
करेगा। मौत
वरणीय है, पीठ
दिखाना वरणीय
नहीं है।
दान.......।
कुछ
भी न हो उसके
पास और अगर
कोई मांगे, तो
वह इनकार न कर
सकेगा। देना
उसके लिए
स्वाभाविक है।
और
स्वामी— भाव.........।
और
वह मालिक है।
वह अकड़ भी
उसके लिए
स्वाभाविक है।
वह अहंकार भी
उसके लिए
स्वाभाविक है।
क्षत्रिय के
स्वाभाविक
कर्म हैं। वे
राजस के कर्म
हैं,
साहस, न
भागने की
वृत्ति, देने
की सहज
स्वाभाविकता,
मांगने से बचने
की चेष्टा।
क्षत्रिय
मांग न सकेगा।
तुम उसे
मांगता हुआ न
पाओगे। इसलिए
तो बुद्ध के
पिता को बड़ी
पीड़ा हुई, जब
बुद्ध राह पर
भिक्षा मांगने
लगे।
उन्होंने कहा,
यह हमारे
कुल में कभी
हुआ ही नहीं।
यह तू क्या कर
रहा है? यह
ब्राह्मणों
जैसा व्यवहार
क्यों कर रहा
है? ब्राह्मण
मांग सकता है।
अब
यह थोड़ा समझने
जैसा है।
ब्राह्मण
मांग सकता है, क्योंकि
उसके पास कोई
अहंकार नहीं
है। क्षत्रिय
मांग नहीं
सकता। अहंकार
ही तो उसके
जीवन की रीढ़
है; मांगा
कि गया। दे
सकता है।
तो
क्षत्रिय
महादानी होगा।
ब्राह्मण
महाभिक्षु
होगा। लेकिन
हमने ब्राह्मण
को क्षत्रिय
से ऊपर रखा है।
हमने दानी से
भिक्षु को ऊपर
रखा है।
क्योंकि दानी
में भी अकड़ है।
अभी
कुछ दिन पहले
कर्नल राज की
मां ने
संन्यास लिया।
क्षत्रिय की
अकड़! प्यारी
बुढ़िया है।
उसने जो बातें
मुझे कहीं, उनमें
एक बात यह भी
थी कि अगर
मुझे कोई एक
रुपया दे, तो
मैं सौ रुपए !? लौटाती हूं।
आपका क्या
कहना है? इसमें
कोई गलती तो
नहीं।
यह
क्षत्रिय की
अकड़ है कि कोई
अगर एक पैसा
दे दे, तो सौ
लौटा देने हैं।
उसने कहा, एक
तो मैं लेती
ही नहीं किसी
से। कोई
मजबूरी आ जाए,
कोई भेंट ही
दे दे कुछ, तो
तत्क्षण
लौटाना है, सौ गुना
करके लौटाना
है। इसमें कोई
गलती तो नहीं?
क्षत्रिय
होने तक तो
कोई गलती नहीं
है,
लेकिन अगर
ब्राह्मण
होना हो, तो
महा गलती है।
यह देने का
भाव बुरा नहीं
है, लेकिन
इस देने से भी
अहंकार ही सघन
होगा, मजबूत
होगा, विनम्रता
न आएगी।
स्वामी—
भाव......।
कुछ
भी न रह जाए
क्षत्रिय के
पास,
तो भी
स्वामी— भाव
बना रहता है।
कुछ भी न हो, तो भी वह
मूंछ पर अकड़
देकर चलता हुआ
दिखायी पड़ेगा।
वह उसका
स्वाभाविक
गुण है।
मैंने
सुना है, अकबर
के दरबार में
दो राजपूत
युवक गए और
उन्होंने कहा
कि हम चाहते
हैं कि हमें
नौकरी मिल जाए।
अकबर न उससे ऐसे
ही मजाक में पूछा.......।
अभी मूंछ की रेखा
भी आनी शुरू न
हुई थी, लेकिन
अकड़ भारी थी।
जो मूंछ थी
नहीं, उस
पर भी
उन्होंने अकड़
दे रखी थी।
अकबर ने पूछा,
लेकिन
तुम्हारा गुण
क्या है? उन्होंने
कहा, क्षत्रिय
का गुण क्या? हम लड़ सकते
हैं। अकबर ने
पूछा, तुम्हारी
बहादुरी का
कोई प्रमाणपत्र
लाए हो? बात
अखर गयी।
दोनों भाई थे,
जुड़वा भाई
थे। तलवारें
खिंच गयीं।
इसके पहले कि
कुछ अकबर कहे,
दोनों की
तलवारें एक—दूसरे
की छाती में
घुस गयीं।
दोनों लाशें
पड़ी थीं।
अकबर
तो घबडा गया।
अकबर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखवाया है कि
जैसा मैं उस
दिन घबड़ाया, कभी
नहीं घबड़ाया।
और जब मैंने
मानसिंह को
बुलाकर कहा कि
यह क्या मामला
है! तो
मानसिंह ने
कहा, कभी
किसी
क्षत्रिय से
भूलकर मत
पूछना प्रमाणपत्र।
और क्या
प्रमाणपत्र
हो सकता है? यह रही जान!
कहीं बहादुरी
का कोई
प्रमाणपत्र होता
है? और जो
प्रमाणपत्र
बहादुरी का
लाए, वह
क्षत्रिय न
होगा, कोई
और होगा।
प्रमाणपत्र
लिखवाकर
किससे लाएगा?
अकबर
ने लिखा है, फिर
मैंने किसी
क्षत्रिय से
नहीं पूछा।
क्षत्रिय को
देखकर डरने
लगा, कि यह
तो आदमी
खतरनाक है। यह
भी कोई बात
हुई! अभी तो
बात ही चल रही
थी। इसमें कोई
जान गंवाने का
सवाल था!
लेकिन
जीवन का
प्रश्न उठ गया।
कोई बहादुरी
का
प्रमाणपत्र
पूछ ले। हद हो
गयी! क्षत्रिय
का होना ही
उसकी बहादुरी है।
और
खेती, गौपालन,
क्रय—विक्रय
रूप सत्य व्यवहार,
वैश्य के
स्वाभाविक
कर्म हैं।
सत्य
व्यवहार.......।
वह
जो भी करे, उसमें
सच्चाई हो, ईमानदारी हो।
हमने
एक अनूठी ही
अर्थशास्त्र
की धारणा खोजी
थी। उस धारणा
में,
उस
अर्थशास्त्र
में, अर्थ
कम था, नीति
ज्यादा थी।
अर्थ कम था, धर्म ज्यादा
था। और हमने
चाहा था कि
वैश्य भी
व्यापार भला
करे, लेकिन
व्यापार
अधर्म आधारित
न हो; उसके
पीछे भी सत्य
की खोज चलती
रहे। वह जो भी
करे, उसमें
से उतना ही ले,
जितना
जरूरी है। वह
ज्यादा न चूस
ले।
खेती, गौपालन,
क्रय—विक्रय
रूप सत्य व्यवहार,
वैश्य के
स्वाभाविक
कर्म हैं। इसलिए
जो वैश्य
सचमुच वैश्य
थे, उनके
लिए हमने जो
नाम दिया है, वह है, सेठ।
मूल शब्द उसका
है श्रेष्ठ, जिसका वह
अपभ्रंश है।
जिसने जीवन के
उलझे हुए
व्यापार में
सत्यता को
साधा है, वह
श्रेष्ठ है ही।
श्रेष्ठ का ही
विकृत रूप सेठ
हो गया। वह
बड़ा सम्मानित
शब्द था कृष्ण
के समय में, श्रेष्ठी।
क्योंकि
व्यापार में
और ईमानदारी
साधने से ज्यादा
कठिन कोई बात
नहीं हो सकती।
ब्राह्मण
ईमानदार हो
सकता है, क्योंकि
कोई व्यवसाय
नहीं कर रहा
है। क्षत्रिय
ईमानदार हो
सकता है, क्योंकि
सीधा तलवार का
ही काम है।
लेकिन वैश्य?
वहां तो
सारा धंधा ही
उपद्रव का है।
वहां तो सब
चोरी, षड्यंत्र,
धन की दौड़, महत्वाकांक्षा,
मिलावट, सब
वहां है। वह
बीच बाजार में
खड़ा है।
इसलिए
हमने
ब्राह्मणों
तक को
श्रेष्ठी
नहीं कहा, क्षत्रियों
को श्रेष्ठी
नहीं कहा; और
वैश्य को
श्रेष्ठी कहा।
क्योंकि वहां
जिसने साध
लिया, उसने
निश्चित ही
कुछ गजब की
बात साध ली है।
और
सेवा करना
शूद्र का
स्वाभाविक
कर्म है।
ये
स्वाभाविक
कर्म कृष्ण कह
रहे हैं। इनको
तुम अगर ढंग
से न करो, तो
तुम विकृत हो
जाओगे।
शूद्र
सेवा करे, क्योंकि
वह ज्यादा से
ज्यादा सेवा
ही कर सकेगा।
लेकिन उसमें
भी भाव सेवा
का हो। आलसी
है, तामसी
है, इससे
ज्यादा उससे न
हो सकेगा।
थोड़ा—बहुत काम
कर लेगा, बस
इतना काफी है।
रोटी—रोजी कमा
ले, इतना
उसे मिल जाए।
लेकिन उसकी
भाव—दशा सेवा
की हो।
अब
असंभव है।
दुनिया में
शूद्र अब भी
हैं,
सदा रहेंगे।
क्योंकि उनका
समाज के
रूपांतरण से
कोई संबंध नहीं,
व्यक्तियों
के भीतरी
गुणों से
संबंध है।
लेकिन अब
शूद्र का नाम,
प्रोलिटेरिएट,
सर्वहारा
है। वह क्रोध से
भरा है, वह
घिराव करता है,
हड़ताल करता
है, वह
झंझट खड़ी करता
है। सेवा करने
की उसकी
उत्सुकता
नहीं है। वह
मालिक होना
चाहता है।
अब
भी वैश्य
वैश्य है, लेकिन
सत्य व्यवहार
नहीं है उसका।
अब तो वैश्य
बिलकुल ही
असत्य पर खड़ा
है। झूठ ही
उसके धंधे का
आधार है—बेईमानी,
अप्रामाणिकता।
क्षत्रिय
अब भी है, लेकिन
शौर्य जा चुका
है। अकड़ भला
रह गयी हो, अकड़
ही रह गयी है।
अकड़ के पीछे
अब कोई कारण
नहीं रह गया
है। कभी कारण
था। अकड़ माफ
की जा सकती थी,
क्योंकि खूबियां
थीं।
अगर
कर्ण अकड़ता
क्षत्रिय की
तरह,
तो हम माफ
कर सकते थे, क्योंकि दान
की बात थी।
अपने कान भी
काटकर दे दिए।
अब तो राख रह
गयी है, रस्सी
रह गयी है जल
गयी। रस्सी
में अकड़ के
निशान रह गए
हैं।
ब्राह्मण
भी नाम का
ब्राह्मण है।
पोथी—पंडित है, तोते
की भांति है।
शास्त्र
कंठस्थ हैं।
अब शास्त्र
उसके भीतर से
पैदा नहीं
होते। जमाने
हुए तब से
उसकी भीतर की
धारा सूख गयी
है, रस—स्रोत
विलीन हो गए
हैं। अब वह
उधार है। वह
पुरानी बाप—दादों
की संपत्ति को
दोहराए
चला जाता है।
उसके होंठों
पर भी वे शब्द
सच्चे नहीं
मालूम होते, क्योंकि
उनके भीतर
प्रायों का
कोई सहयोग नहीं
है।
सब
विकृत हो गया
है। लेकिन अगर
सुकृत सब हो, तो
शूद्र धीरे—
धीरे सेवा से
ऊपर उठेगा।
क्योंकि सेवा
अंततः सत्य
में ले जाएगी,
सत्य व्यवहार
में ले जाएगी।
सत्य
का व्यवहार
करने वाला
व्यक्ति धीरे—
धीरे व्यवसाय
से उठकर दान
में जाएगा।
श्रेष्ठी कभी
न कभी दानी हो
जाएगा। जिस
दिन दानी हो
गया,
वह क्षत्रिय
के जगत में
प्रवेश कर गया।
और
अकड़े तुम कब
तक रहोगे? अगर
ठीक—ठीक
क्षत्रिय का व्यवहार
रहा, जीवन
से भागने की
वृत्ति न रही,
तो तुम जीवन
को समझ ही
लोगे। और जीवन
की समझ ही
तुम्हें
ब्राह्मण की
तरफ ले जाएगी,
ज्ञान की
तरफ ले जाएगी।
और
जो ब्राह्मण
है,
वह सत्व से
कभी न कभी ऊब
ही जाएगा।
सत्व बहुत सुख
देता है, लेकिन
आनंद नहीं। वह
एक दिन
गुणातीत होने
की चेष्टा
करेगा।
ऐसी
अगर सुकृत
व्यवस्था हो, तो!
तो शूद्र भी
ब्राह्मण हो
जाएगा और
ब्राह्मण भी
गुणातीत होने
की तरफ यात्रा
करेगा। अगर
सुकृत
व्यवस्था न हो,
तो सारा
समाज धीरे—
धीरे
गड्डमड्ड हो
जाएगा। और अगर
तीनों वर्ण खो
जाएं, तो
वैश्य का
अकेला वर्ण रह
जाएगा, जैसा
कि हुआ है।
आज
अगर गौर से
देखो, तो
वैश्य का वर्ण
ही रह गया है, बाकी सब
वर्ण उसमें खो
गए, गड्डमड्ड
हो गए। यह एक
बड़ी विकृत
स्थिति है, रुग्ण
स्थिति है।
इसका गहन इलाज
होना जरूरी है।
आज
इतना ही।
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