अध्याय—18
सूत्र—
निश्चय
श्रृणु मे
तत्र त्यागे
भरतसत्तम।
त्यागो
हि पुरूषव्याघ्र
त्रिविध:
संप्रकीर्तित:
।। 4।।
यज्ञदानतय:कर्म
न त्याज्यं
कार्यमेव तत्।
यज्ञो
दानं तपश्चैव
पावनानि
मनीषिणाम्।। 5।।
एतान्ययि
तु कर्माणि
सङ्गं
त्यक्वा
फलानि च ।
कर्तथ्यानीति
मे पार्थ
निशिचतं
मतमुत्तमम्।।
6।।
परंतु हे
अर्जुन,
उस त्याग के
विषय में तू
मेरे निश्चय
को सुन। हे
पुरूषश्रेष्ठ, वह त्याग सात्विक
राजस और तामस, ऐसे तीनों प्रकार
का ही कहा गया
है।
तथा यज्ञ,
दान और तपरूप
कर्म त्यागने
के योग्य नही है, किंतु वह
निःसंदेह
करना कर्तव्य
है,
क्योंकि यज्ञ
दान और तप,
ये तीनों ही
बुद्धिमान पुरुषों
को पवित्र
करने वाले हैं।
इसलिए हे पार्थ, यह यज्ञ,
दान और तपरूप
कर्म तथा और
भी संपूर्ण
श्रेष्ठ कर्म
आसक्ति को और
फलों को त्याग
कर अवश्य करने
चाहिए, ऐसा
मेरा निश्चय
किया हुआ
उत्तम मत है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आपने
कहा कि समय के
प्रवाह में शब्दों
के अर्थ बदल
जाते हैं। फिर
हजारों वर्ष
पूर्व कही गई
गीता अब तक अर्थपूर्ण
कैसे रह गई है?
कृष्ण
ने जो कहा था, अगर
और कृष्णों ने
उस पर बार—बार
नए अर्थों के
कलम न लगाए
होते, तो
वह अर्थहीन हो
गई होती, बासी
पड़ गई होती, सड़ गई होती, उसे समझने
का फिर कोई
उपाय न रह
जाता। लेकिन
इन हजारों
वर्षों में, और बहुत
कृष्णों ने
गीता को फिर—फिर
पुनरुज्जीवित
किया, फिर—फिर
कहा। हर बार
गीता को फिर
नया जीवन मिल
गया। जब शंकर
ने गीता को
पुनरुज्जीवित
किया, तब
फिर कृष्ण
दुबारा बोले।
कृष्ण
कोई व्यक्ति
की बात नहीं
है,
कृष्ण तो
चैतन्य की एक
घड़ी है, चैतन्य
की एक दशा है, परम भाव है।
जब भी कोई
व्यक्ति परम भाव
को उपलब्ध हुआ,
उसने फिर
गीता पर कुछ
कहा। गीता से
पुरानी राख झड़
गई, फिर
गीता नया
अंगारा हो गई।
ऐसे
हमने गीता को
जीवित रखा है।
समय बदलता गया, शब्दों
के अर्थ बदलते
गए, लेकिन
गीता को हम
नया जीवन देते
चले गए। गीता
आज भी जिंदा
है।
कुरान
कभी मर जाएगा, क्योंकि
कुरान पर
व्याख्या की
आज्ञा नहीं है।
गीता कभी भी न
मरेगी, क्योंकि
गीता को फिर
से जीवन देने
की सुविधा है।
कुरान, जैसा
मोहम्मद ने
कहा था, उसे
वैसा ही बचाने
की चेष्टा की
गई है। उस पर
कोई दूसरा
मोहम्मद कुछ
जोड न दे, कुछ
बदल न दे!
अगर
दूसरे
मोहम्मदों को
बदलने और
जोड्ने की
सुविधा न हुई, तो
समय मार
डालेगा। समय
किसी की भी
चिंता नहीं
करता। सभी कुछ
बासा हो जाता
है।
भारत
ने एक कला खोज
ली है अपने
शास्त्रों को
सदा जीवित
रखने की। वह
है,
उनकी पुन: —पुन:
व्याख्या।
फिर—फिर हम
विचार करते
हैं। फिर—फिर
कृष्ण की
चेतना से उत्तर
मिल जाता है।
अर्थ बदलते
जाते हैं, लेकिन
गीता अर्थहीन
नहीं हो पाती।
हर युग के
अनुकूल अर्थ
हम फिर खोज
लेते हैं।
जितना युग से
पीछे रह जाती
है गीता, हम
उसे फिर खींच
लेते हैं।
जो
मैंने गीता पर
इधर इन पांच
वर्षों में
कहा है, उससे
गीता
अत्याधुनिक
हो जाती है; बीसवीं सदी
की घटना हो
जाती है। अब
पिछले पांच
हजार साल को
हम भूल सकते
हैं। जो मैंने
कहा है, उसने
गीता के
पुराने पड़ते
रूप को एकदम
अत्याधुनिक
कर दिया। इन
पाच हजार
सालों में जो
भी घटा है, मनुष्य
की चेतना ने
जो नई—नई
करवटें ली हैं,
नई—नई
विधाएं खोजी
हैं, मनुष्य
की चेतना ने
जो नए अनुभव
किए हैं, उन
सबको मैंने
समाविष्ट कर
दिया है। अब
गीता को नया
खून मिल गया।
शब्दों
पर अगर अर्थों
की कलम लगती
चली जाए, युग
के अनुकूल अगर
नए अर्थों की
अभिव्यंजना होती
रहे, तो
किसी शास्त्र
को पुराना
पड़ने की जरूरत
नहीं है।
शास्त्र
पुराना पड़ता
है मतांधता से;
लकीर के
फकीर अगर लोग
हो जाते हैं, तो शास्त्र
पुराना पड़
जाता है।
हम
शास्त्र के
लिए थोड़े ही
हैं,
शास्त्र
हमारे लिए है।
इसलिए जब हम
बदल जाते हैं,
हम शास्त्र
को बदल लेते
हैं। ऐसे ही
जैसे कि
हजारों साल
पहले घर में
दीया जलता था,
अब बिजली
जलती है। अब
भी तुम दीया
जलाने की
कोशिश करोगे,
तो नासमझ हो।
लेकिन दीया
जलने से जो
प्रकाश मिलता
था, वही
प्रकाश और भी
प्रगाढ़ होकर
बिजली से मिल
जाता है।
जो
शब्द कृष्ण ने
अर्जुन से कहे
थे,
उन पर तो
बहुत धूल जम
गई है; उसे
हमें रोज
बुहारना पड़ता
है। और जितनी
पुरानी चीज हो,
उतना ही
श्रम करना
पड़ता है, ताकि
वह नई बनी रहे।
इसलिए
समय का प्रवाह
तो किसी को भी
माफ नहीं करता, पर
अगर हम हमेशा
समय के करीब
खींच लाएं
पुराने
शास्त्र को, तो शास्त्र
पुन: —पुन: नया
हो जाता है।
उसमें फिर नए
अर्थ जीवित हो
उठते है, नए
पत्ते लग जाते
हैं, नए
फूल खिलने
लगते हैं।
गीता
मरेगी नहीं, क्योंकि
हम किसी एक
कृष्ण से बंधे
नहीं हैं।
हमारी धारणा
में कृष्ण कोई
व्यक्ति नहीं
है, सतत
आवर्तित होने
वाली चेतना की
परम घटना है।
इसलिए कृष्ण
कह पाते हैं
कि जब—जब होगा
अंधेरा, होगी
धर्म की
ग्लानि, तब—तब
मैं वापस आ
जाऊंगा—संभवामि
युगे—युगे। हर
युग में वापस
आ जाऊंगा। तुम
यह मत सोचना
कि मोर—मुकुट
वाले कृष्ण हर
युग में वापस
आ जाएंगे। जो
गया, वह
गया। अब मोर—मुकुट
की कोई संगति
न बैठेगी। और
मोर—मुकुट
लगाए अगर
कृष्ण को
तुमने खड़ा कर
दिया बाजार
में, तो
तुम मखौल उड़वा
दोगे, तुम
उनका मजाक
करवा दोगे। वे
नाटकीय मालूम
पड़ेंगे, स्वाभाविक
न मालूम
पड़ेंगे अब। जो
उस दिन
स्वाभाविक था,
आज बिलकुल
नाटक हो जाएगा।.
उन दिनों, कृष्ण
के समय में, पुरुष पहनते
थे आभूषण, स्त्रियां
नहीं। वह
स्वाभाविक था,
ज्यादा प्राकृतिक
था। प्रकृति
में भी तुम
जाओ, तो
वही पाओगे।
मोर
नाचता है। जो
मोर नाचता है
और जिस मोर के
पास
इंद्रधनुषों
जैसे रंगे हुए
पंख हैं, वह
पुरुष है।
मादा के पास
कोई
इंद्रधनुषी
रंग नहीं हैं।
कोयल पुकारती
है। वह जो
पुकारती है
कोयल, वह
पुरुष है, मादा
चुप है। मुर्गे
की कलगी देखी
है! और जिस शान
से अकड़कर चलता
है! मुर्गी के
पास वैसी कलगी
नहीं है।
सारी
प्रकृति में
मादा चुप है; अपने
सौंदर्य का
प्रचार नहीं
करती; पुरुष
करता है। होना
भी यही चाहिए।
क्योंकि मादा
के होने में
ही सौंदर्य है,
किसी और
अतिरिक्त
होने की जरूरत
नहीं है। मादा
के होने में
ही माधुर्य है,
अब और आभूषण
नहीं चाहिए।
जो कमी है, वह
पुरुष को पूरा
करनी पड़ती है।
मादा
कोयल का तो
चुप होना भी
मधुर है; लेकिन
पुरुष कोयल को
तो गीत गाना
पड़ेगा, तभी
थोड़ा—सा
माधुर्य आ
सकेगा। इसलिए
सारी प्रकृति
में खोजने पर
तुम पाओगे, पुरुष सजा—
धजा है; मादा
बिलकुल सादी
है। उसका सादा
होना ही
सौंदर्य है।
उन
पुराने दिनों
में मनुष्य भी
प्रकृति के अनुकूल
था। तो कृष्ण
मोर—मुकुट
बांधे खड़े हैं।
स्वाभाविक था।
आज हालत
बिलकुल उलटी
हो गई है। आज
पुरुष कोई
आभूषण नहीं
पहनता; पहने
तो तुम समझोगे,
कुछ दिमाग
खराब है।
स्त्रियां
पहनती हैं।
प्रकृति
अस्तव्यस्त
हो गई है। जो
नहीं होना
चाहिए, वह
हो रहा है, जो
होना चाहिए, वह नहीं हो
रहा है।
सभ्यता ने सब
डांवाडोल करू
दिया है।
शिक्षण ने
तुम्हारे मन
की
स्वाभाविकता
को डिगा दिया
है। स्त्री तो
अपने आप में
ही सुंदर है, उसे निमंत्रण
भी भेजने की
जरूरत नहीं है।
उसे पुकारने
की भी
आवश्यकता
नहीं है।
प्रेमी उसे
खोजता आएगा।
और
ध्यान रखना, जब
भी स्त्री
आभूषण सजा
लेती है……. पुराने
दिनों में भी
स्त्रियां
सजाती थीं, लेकिन वे
सिर्फ
वेश्याएं थीं,
नगरवधुएं
थीं, जिनको
बाजार में खड़ा
होना था। स्त्री
जब आभूषण से
सज जाती है, और निमंत्रण
भेजती है, तो
उसने स्त्रैण
तत्व खो दिया।
उसने अपने
भीतर के
मादापन का
माधुर्य खो
दिया। उसे याद
ही न रही कि
उसका तो होना
काफी है। अब
सोने से लदने
से उसके
सौंदर्य में
कुछ बढ़ेगा
नहीं, घट
सकता है।
तो
आज कृष्ण को
अगर उनकी ही
रूप—रेखा में
खड़ा कर दो
जैसे वे थे, तो
ठीक है, कोई
नौटंकी, कोई
नाटक में
चलेगा, जीवन
में नहीं
चलेगा। जीवन
में वे बडे
बेतुके
लगेंगे। जो
उनके इस बाहरी
रूप—रेखा के
संबंध में सच
है, वही
उनकी भीतरी
रूप—रेखा के
संबंध में भी
सच है। सब
बदला है।
जब
कृष्ण बार—बार
लौटेंगे, तो
हर बार नए ही
होकर लौटेंगे।
और हर बार
कृष्ण अपनी नई—नई
संभावनाओं
में, उदभावनाओं
में गीता पर
फिर से बोल
देंगे। गीता
फिर
पुनरुज्जीवित
हो जाएगी।
अगर
तुम्हें बहुत
कठिनाई न हो
समझने में, तो
मैं ऐसा कहना
चाहूंगा कि
कृष्ण ही बार—बार
लौटकर अपनी
गीता की पुन: —पुन:
व्याख्या
करते रहे हैं,
इसलिए वह मर
नहीं पाई है।
दूसरा
प्रश्न : कल
आपने कहा कि
अर्थ, काम, धर्म और
मोक्ष, ये
चार
पुरुषार्थ
हैं।
कृपापूर्वक
समझाएं कि
इन्हें
पुरुषार्थ क्यों
कहा गया है?
क्योंकि
इन्हीं के
माध्यम से
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है अर्थ, वह प्रकट
होता है। तुम
कौन हो, इनकी
ही चुनौती में
प्रकट होता है।
तुम क्या हो, एक विशेष
परिस्थिति
में ही तमें
उसकी स्मृति आनी
शुरू होती है।
एक
आदमी अर्थ के
पीछे पागल है, धन
का दीवाना है।
वह धन की
दीवानगी से
कुछ कह रहा है
कि वह कौन है।
वह अपने पुरुष
के अर्थ को
प्रकट कर रहा
है। वह
निम्नतम
पुरुष है।
उसने जीवन के
कोई ऊंचे
काव्य नहीं
जाने हैं। वह
क्षुद्र से
राजी है। वह
ठीकरों को
पकड़े बैठा है।
जहां हीरे—जवाहरात
बरस सकते थे, वहां उसने
कंकड़—पत्थर
चुन लिए हैं।
वह अपना अर्थ
प्रकट कर रहा
है; वह यह
कह रहा है, मैं
कौन हूं।
जब
कोई आदमी किसी
स्त्री के
पीछे भाग रहा
है,
तब भी वह
अपना अर्थ
प्रकट कर रहा
है। वह कह रहा
है, मैं
कौन हूं। वह
कह रहा है, मैं
कामी हूं।
कामना उसका
अर्थ है इस
क्षण। वह कह
रहा है, मैं
गुलाम हूं; वासना का
दास हूं। वह
कह रहा है कि मेरी
जीवन की
इतिश्री
कामवासना है,
वही मेरी
परिधि है, उसके
पार न मेरे
लिए कोई
परमात्मा है,
न कोई मोक्ष
है।
तुम
जो कर रहे हो, उससे
प्रकट करते हो
कि तुम कौन हो।
धन
को पकड़ने वाला
व्यक्ति तो
कामवासना में
भी जाने से
डरता है कि
कहीं धन पर
कोई आंच न आ
जाए। कृपण तो विवाह
भी करने में
भयभीत होता है।
कृपण किसी को
पास नहीं आने
देना चाहता।
क्योंकि जो भी
पास आएगा, वह
भागीदार बनने
लगेगा। कृपण
की अपनी भाषा
है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
ट्रेन से
यात्रा कर रहा
था। उसके पास
ही बैठा था एक
युवक, और उसने
पूछा, क्या
महानुभाव आप
बता सकेंगे कि
समय क्या हुआ
है? नसरुद्दीन
के हाथ में
घड़ी थी, लेकिन
उसने जल्दी
अपनी घड़ी छिपा
ली। और उसने
कहा, माफ
करिए; मैं
न बता सकूंगा
कि समय क्या
है।
वह
युवक थोड़ा
हैरान हुआ। इस
तरह की घटना
कभी जीवन में
उसके घटी न थी
कि कोई समय
बताने से मना
कर दे। उसने
पूछा, मैं
समझा नहीं।
इसमें आपको
क्या अड़चन हो
रही है?
नसरुद्दीन
ने कहा, अब
अगर पूरी बात
ही समझनी है, तो समझाए
देता हूं।
लेकिन बात जरा
लंबी है। अभी
तुम पूछोगे, समय क्या
हुआ है। फिर
मैं बता दूं र
बात आगे बढ़ेगी।
कहां जा रहे
हो, पूछोगे।
मैं कहूं बंबई
जा रहा हूं।
तुम कहोगे, मैं भी बंबई
जा रहा हूं।
ऐसे ही तो
आदमी बात—बात
में फंसता है।
तुम भी बंबई
जा रहे हो; मैं
बंबई ही रहता
हूं। मैं
कहूंगा, अच्छा,
आना मेरे घर
भोजन कर लेना।
ऐसे ही तो
आदमी उलझ जाता
है। बात में
से बात, बात
में से बात
निकलती आती है।
जवान लड़की है
घर में, तुम
भी जवान हो, देखने—दाखने
में अच्छे भी
लगते हो। कोई
न कोई झंझट हो
जाएगी। आज
नहीं कल तुम
कहोगे, जरा
आपकी बेटी को
सिनेमा ले जा
रहा हूं! और
किसी न किसी
दिन तुम आ
जाओगे विवाह
के लिए। और
मैं तुमसे कहे
देता हूं
जिसके पास
अपनी घड़ी भी
नहीं, उससे
मैं लड़की का
विवाह नहीं कर
सकता।
कृपण
आदमी का अपना
तर्क है। उसके
देखने के अपने
ढंग हैं। वह
हर तरफ से
रुपए को देखता
है। उसको आदमी
दिखाई ही नहीं
पड़ते, रुपए ही
दिखाई पड़ते
हैं। जब वह
किसी की तरफ
देखता है, तो
उसे रुपयों की
गड्डियां
दिखाई पड़ती
हैं, आदमी
नहीं दिखाई
पड़ता। उसकी
अपनी जीवन—शैली
है। उसका एक
ढंग है, जिसमें
बंधा हुआ वह
जीता है। अगर
तुम्हारे पास
रुपए हैं, तुमसे
और तरह का
व्यवहार करता
है। नहीं हैं,
तब और तरह
का व्यवहार
करता है।
तुम्हारी
आत्मा का कोई
सवाल नहीं है;
तुम्हारी
जेब कितनी
वजनी है, इसका
ही सवाल है।
जब धन होता है,
तब तुम्हें
पहचानता है; जब नहीं
होता, तब
बिलकुल पहचान
छोड़ देता है; भूल ही जाता
है कि तुम हो।
वह अपना अर्थ
प्रकट कर रहा
है। तुम्हारी आकांक्षा
बताती है, तुम्हारी
आत्मा कहा है।
कामी
कह रहा है कि
मेरी आत्मा बस
कामवासना में
है। उसके पार
उसे कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। वह
मंदिर भी जाता
है,
तो मंदिर
में
प्रार्थना
करती
स्त्रियों को
देखने 'जाता
है। वह मंदिर
जाता नहीं; वह
प्रार्थना
करता नहीं।
उसका रस ही
वहां नहीं है।
जो
आदमी धर्म की आकांक्षा
करता है, सदवचन
सुनता है, सत्य
की खोज में
निकलता है; सोचता है, जीवन का रहस्य
क्या है, वह
भी अपने अर्थ
को प्रकट कर
रहा है। उसकी
नजर मंदिर पर
लगी रहेगी। वह
भला बाजार में
बैठा हो। भला
बाजार से उठ
भी न सकता हो, लेकिन नजर
मंदिर पर लगी
रहेगी। उसका
पुरुषार्थ
उसकी भावना से
प्रकट हो रहा
है। उसके भीतर
एक अहोभाव चल
रहा है निरंतर
परमात्मा के
प्रति। न भी
जा सके, जाना
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, लेकिन
एक अंतर्धारा
बह रही है।
फिर
जो आदमी मोक्ष
की अभीप्सा
करता है कि
मुक्त हो जाऊं, सभी
कुछ से मुक्त
हो जाऊं, इतनी
गहन अभीप्सा
करता है कि
अपने से भी
मुक्त हो आऊं,
यह स्व होने
का बंधन भी न
रहे; बंधन
ही न रहे; शून्य
होने की जो
तैयारी
दिखलाता है; वह एक बड़ी
गहरी समझ, अपने
भीतर के आखिरी
फूल को प्रकट
कर रहा है।
उसका कमल खिल
गया है।
इसलिए
इनको
पुरुषार्थ
कहा है। ये
तुम्हारे
अर्थ को बताते
हैं। ये
तुम्हारे
जीवन की
सार्थकता को, व्यर्थता
को सूचित करते
हैं।
तीसरा
प्रश्न : आपने
कहा कि जैन एक
पूरी बस्ती नहीं
बसा सकते, इसलिए
अधूरे हैं।
लेकिन वही हाल
तो संन्यासी
का भी है, तो
क्या संन्यास
भी अधूरा नहीं
है?
अब तक था, अब
नहीं होगा।
मेरा
संन्यासी
पूरी बस्ती
बसा सकता है।
अब
तक संन्यास
लंगड़ा था, पंगु
था, निर्भर
था। और यह
कैसी दुख की
बात है कि
संन्यासी
गृहस्थ पर
निर्भर हो! और
जिस पर तुम
निर्भर हो, उससे ऊपर
होने की आकांक्षा
ही नासमझी है।
संन्यासी
सोचता है कि
ऊपर है; और
होता है
निर्भर उस पर,
जो उसके
नीचे है। जीता
श्रावक के ऊपर
है, लेकिन
सोचता है, मैं
ऊपर हूं।
श्रावक ही ऊपर
है, वह खुद
के लिए भी
आयोजन कर रहा
है, तुम्हारे
लिए भी आयोजन
जुटा रहा है।
उसका दान बड़ा
है, उसकी
सेवा बड़ी है।
अब
तक संन्यासी
अधूरा था। और
निश्चित ही, अब
तक संन्यासी
बस्ती नहीं
बसा सकते थे।
संन्यासियों
के लिए दूसरों
की बस्तियां
चाहिए, जिनको
.संन्यासी
पापी कहता है,
भटके हुए
कहता है, अंधेरे
में पड़े कहता
है, मूर्च्छा
में डूबे कहता
है, जिनके
लिए नरक का
इंतजाम कर रखा
है उसने, उनके
ऊपर ही निर्भर
होता है। यह
बड़ी विडंबना
की बात है। और
फिर भी अपने
को ऊपर मानता
है। तुम जिस
पर निर्भर हो,
उससे ऊपर
नहीं हो सकते।
और होता भी
नहीं। बस, दिखावा
होता है।
संन्यासी को
बिठा देते हो
तुम तख्त पर
ऊपर, नीचे
तुम बैठते हो।
लेकिन तुम
जानते हो, बागडोर
तुम्हारे हाथ
में है।
मेरे
पास
संन्यासियों
की खबरें आती
हैं कि वे मुझसे
मिलना चाहते
हैं,
लेकिन अपने
अनुयायियों
के कारण आ
नहीं सकते।
उनके अनुयायी
उन्हें आने
नहीं देते!
यह
बड़े मजे की
बात है। तो
अनुयायी नेता
है?
मार्गदर्शक
है? मालिक
है? है, क्योंकि
वही भोजन देता
है, वही
औषधि देता है, वही ठहरने
को जगह देता
है, वही
स्वागत—समारंभ
करता है। उसके
बिना तुम कहीं
भी नहीं हो
सकते। और
तुम्हें वह यह
भी धोखा देता
है कि तुम
तख्त पर ऊपर
बैठ जाओ, कोई
हर्जा नहीं है।
क्योंकि
जानता है, तुम्हारी
लगाम उसके हाथ
में है। वह
आखिरी
निर्णायक है।
यह
संन्यास लकवा
लगा संन्यास
है। बीमार
संन्यास है, रुग्ण
संन्यास है।
मेरा
संन्यासी
पूरी बस्ती
बसा सकता है; बसाएगा।
क्योंकि मैं,
तुम जो कर
रहे हो, उससे
तुम्हें नहीं
तोड़ रहा हूं।
तुम जो कर रहे
हो, उसे
पूरे भाव से
करना है, यही
कह रहा हूं।
तुम जो कर रहे
हो, उसे
ईश्वर—अर्पण
करके करना है,
इतना ही कह
रहा हूं। तुम
जो भी कर रहे
हो!
तुम
सड़क पर बुहारी
लगाते हो, कि
जूते बनाते हो,
कि क्या
करते हो, यह
सवाल नहीं है।
तुम जो भी
करते हो, उसे
ही
ध्यानपूर्वक
करना है। उसे
ही ऐसी
तल्लीनता से
करना है कि
वही तुम्हारी
प्रार्थना, वही
तुम्हारी
साधना हो जाए।
तब संन्यासी
पूरी बस्ती
बसा सकता है।
तब सारी
दुनिया
संन्यासी की
हो सकती है।
अब तक जो
संन्यासी था,
वह कभी भी
पूरी दुनिया
में नहीं फैल
सकता था।
क्योंकि उसके
ऊपर भारी बंधन
थे।
जैन
संन्यासी
भारत के बाहर
नहीं जा पाए, क्योंकि
वहा जैन
श्रावक नहीं
है, जो
उनको भोजन
देगा। पहले
जैन श्रावक
वहा होना
चाहिए, तब
जैन संन्यासी
जा सकता है।
नहीं तो वह भोजन
कहां लेगा? वह किसी और
के घर तो भोजन
ले नहीं सकता!
वह तो अपवित्र
है। अब जब तक
जैन संन्यासी
न जाए, जैन
श्रावक वहा
कैसे हो!
इसलिए वह बात
ही न उठी।
इसलिए जाने का
सवाल ही न उठा।
इसलिए
जैन सिकुड़कर
मर गए। उनकी
कोई संख्या है? पच्चीस
लाख संख्या
है! अगर
महावीर ने
पच्चीस जोड़ों
को भी दीक्षा
दी होगी, तो
पच्चीस सौ साल
में पच्चीस
जोड़े पच्चीस
लाख बच्चे
पैदा कर देंगे।
यह भी कोई
विकास हुआ!
कुंद हो गया, बंद हो गया, सब तरफ से
हाथ—पैर कट गए।
न; मेरा
संन्यासी
सारी दुनिया
में फैल सकता
है, क्योंकि
वह किसी पर
निर्भर नहीं
है। स्वनिर्भरता
तभी संभव है, जब तुम अपनी
रोटी खुद कमा
रहे हो; अपने
कपड़े खुद बना
रहे हो। अपने
जीवन के लिए
परम मुक्त हो,
किसी पर
निर्भर नहीं
हो, तभी
तुम वास्तविक
रूप से
स्वतंत्र हो
सकते हो।
गृहस्थ
ही जब तक
संन्यासी न हो
जाए,
गृहस्थ
रहते हुए ही
संन्यासी न हो
जाए, तब तक
संन्यास
जीवंत नहीं
होगा, मुरदा
होगा। उसमें
वास्तविक
प्राण नहीं हो
सकते, धड़कन
उधार होगी।
चौथा
प्रश्न : आपने
कहा कि भगवान
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
मैत्री का
संबंध गहन था
और उसी संबंध
से गीता—ज्ञान
का उदय हुआ।
फिर अर्जुन
संदेह भी
उठाता है और
शीघ्र ही
समर्पित शिष्य
हो जाता है।
कृपापूर्वक
इस पर प्रकाश
डालें।
जहां ही
प्रेम है, वहां
श्रद्धा
ज्यादा दूर
नहीं। प्रेम
के पास ही
श्रद्धा का
शिखर है।
श्रद्धा
प्रेम का ही
निखार है, निचोड़
है।
अर्जुन
प्रेम तो करता
है कृष्ण को, मित्र
की तरह करता
है। एक गहन
सहानुभूति है;
कृष्ण को
समझने के लिए
तैयारी है।
कृष्ण से मन
में कोई विरोध
नहीं है, कोई
द्वेष नहीं है।
कोई प्रतिरोध
नहीं है कृष्ण
के प्रति।
द्वार खुला है।
कृष्ण मित्र
हैं और जो भी
कहेंगे, वह
कल्याणकर
होगा। कृष्ण
भटकाएगे नहीं,
इतना भरोसा
है। इस भरोसे
से देर नहीं
लगती, और जहां
मित्र— भाव था,
वहीं गुरु—शिष्य
का जन्म हो
जाता है।
बुद्ध
ने तो अपने
संन्यासियों
को कहा है कि
तुम लोगों के
कल्याण—मित्र
होना। फिर उसी
कल्याण—मैत्री
से उनके मन
में श्रद्धा
उठेगी, तो
समर्पण भी
फलित होगा।
बुद्ध ने कहा
है कि आने
वाले संसार
में जो बुद्ध
होगा, उसका
नाम मैत्रेय
होगा।
मैत्रेय
का अर्थ है, मित्र।
मित्रता से ही
शुरुआत होती
है। अगर जरा—सी
भी शत्रुता है,
तो श्रद्धा—
भाव तो पैदा
ही कैसे होगा?
फिर तो
द्वार ही बंद
हैं। फिर तो
तुम पहले से
ही डरे हो; फिर
पहले से ही
तुम अपनी सुरक्षा
कर रहे हो; फिर
संवाद नहीं हो
सकता।
गीता
संवाद है।
संवाद का अर्थ
है,
दो हृदयों
के बीच होती
बात है, दो
मस्तिष्कों
के बीच नहीं।
दो विचार आपस
में लड़ नहीं
रहे हैं, संघर्ष
नहीं कर रहे
हैं। दो भाव
मिल रहे हैं।
एक संगम फलित
हो रहा है।
शिष्य
जब आता है
शुरू में, तो
शिष्य तो हो
ही नहीं सकता।
शिष्य होना तो
बड़ी उपलब्धि
है। इसलिए
नानक ने अपने
पूरे धर्म
का नाम
ही सिक्ख रख
दिया। सिक्ख
शिष्य शब्द का
रूप है। सारे
धर्म का सार
ही इतना है कि
तुम शिष्य हो
जाओ,
सिक्ख हो
जाओ, सीखने
को तैयार हो
जाओ।
साधारणत:
अहंकार सीखने को
तैयार नहीं
होता, सिखाने
को तैयार होता
है। अहंकार का
रस यह होता है
कि किसी को
सिखा दूं सलाह
दे दूं।
इसलिए
दुनिया में
इतनी सलाह दी
जाती है; कोई
नहीं लेता, फिर भी लोग
दिए चले जाते
हैं! बाप बेटे
को दे रहा है, पति पत्नी
को दे रहा है, पत्नी पति
को दे रही है, पड़ोसी पड़ोसी
को दे रहे हैं।
लोग सलाह दिए
चले जाते हैं।
कोई माग नहीं
रहा है।
दुनिया में
सबसे कम मांगी
जाने वाली चीज
सलाह है और
सबसे ज्यादा
दी जाने वाली
चीज भी सलाह है।
देने
का बड़ा मजा है
सलाह; क्योंकि
देते वक्त
तुम्हें लगता
है कि तुम ज्ञानी
हो गए और लेने
वाला अज्ञानी
हो गया।
दूसरों को
अज्ञानी
सिद्ध करने का
मजा लेना हो, तो सलाह
देने से
ज्यादा सुगम
और कोई तरकीब
नहीं है। बिना
अज्ञानी कहे
अज्ञानी
सिद्ध कर दिया,
दे दी सलाह!
इसलिए
जिन चीजों का
तुम्हें पता
भी नहीं है, उनकी
भी तुम सलाह
देते हो।
जिन्हें
तुम्हारे
स्वप्न में भी
छाया तुमने
नहीं देखी है
जिनकी, उनके
संबंध में भी
जब सलाह देने
का मौका आता है,
तो तुम पीछे
नहीं रहते।
सलाह
देने को तो
एकदम तुम
उछलकर तैयार
हो जाते हो।
सलाह लेने को
तुम इतने
तैयार नहीं
दिखाई पड़ते।
और जो सलाह
लेने को तैयार
है,
वही शिष्य
हो सकता है। तो
अहंकार तो
बाधा देगा।
मित्रता
का अर्थ है, तुम
अपने अहंकार
को बचाकर भी
प्रेम कर सकते
हो। शिष्यत्व
का अर्थ है, तुम्हें
अहंकार
छोड्कर प्रेम
करना पड़ेगा।
मित्र का अर्थ
है, मैं
मैं हुं,
तुम तुम हो; हम दोनों
समान हैं।
लेकिन हम एक—दूसरे
में रस लेते
हैं। शुरुआत तो
मित्रता से ही
होगी, अंत
शिष्यत्व पर
होगा।
तो
अर्जुन के मन
में भाव तो
मैत्री का है; कृष्ण
उसके सखा हैं,
बचपन के सखा
हैं। इस सखा—
भाव से ही
उसने अपने
हृदय को उनके
प्रति खुला छोड़
दिया है।
जिज्ञासाएं
उठाई हैं, लेकिन
जिज्ञासाएं
अदालत में
उठाए गए
तर्कों की भांति
नहीं हैं।
किसी को हराना
नहीं है; कुछ
जानना है; कुछ
समझना है।
और
कृष्ण जो
उत्तर दिए हैं, धीरे—
धीरे उसकी
संदेह की
व्यवस्था को
उन्होंने तोड़
दिया; उसके
संशय छिन्न हो
गए। धीरे—धीरे
उसके भीतर
संशय की जगह
श्रद्धा का आविर्भाव
हुआ है। उसने
आख खोलकर देखा
कि जिसे उसने
सखा समझा था, वह सिर्फ
सखा नहीं है।
सखा में विराट
के दर्शन हुए
हैं।
तुमने
भी जिसे सखा
समझा है, वह
सखा ही नहीं
है। तुमने
जिसे पत्नी
समझा है, वह
पत्नी ही नहीं
है। तुमने
जिसे बेटा
समझा है, वह
बेटा ही नहीं
है। किसी दिन आंखें
खुलेंगी, तो
तुम पाओगे वही
विराट! सभी
तरफ विराट है,
वही छिपा है।
तुम
यह मत सोचना
कि यह कोई
चमत्कार है, जो
कृष्ण ने दिखा
दिया। यह
चमत्कार नहीं
है, जो
कृष्ण ने दिखा
दिया। यह
चमत्कार है, जो अर्जुन
ने देख लिया।
अर्जुन
जैसे—जैसे
खुलता गया और
जैसे—जैसे सरल
होता गया, उसकी
ग्रंथि
अहंकार की
जैसे—जैसे
टूटी, जैसे—जैसे
उसने कृष्ण को
गौर से देखा
कि जिसमें हमने
सखा देखा था, वह सिर्फ
सखा नहीं है, परम गुरु
उसमें छिपा
है! जैसे—जैसे
यह भाव प्रगाढ़
हुआ, वह
पुराना सखा
कृष्ण खो गए।
एक
अर्थ में यह
घटना बड़ी कठिन
है,
मित्र में
परमात्मा को
देखना।
क्योंकि जिसे
तुमने मित्र
की तरह जाना
है, उसे
परमात्मा की
तरह जानने में
बड़ी अड़चन हो
जाती है।
इसलिए
जीसस ने कहा
है कि पैगंबर
की पूजा अपने ही
गांव में नहीं
होती।
ठीक
है बात।
क्योंकि गांव
के लोग जानते
हैं,
तुम कौन हो।
अगर जीसस अपने
गाव जाते, तो
लोग कहते, बढ़ई
का लड़का है, वह जोसेफ का
लड़का है।
दिमाग फिर गया
है। ऊंची—ऊंची
बातें करने
लगा है। कोई
मानने को राजी
न होता कि बढ़ई
का लड़का और शान
को उपलब्ध हो
गया है।
हम
भूल ही नहीं
सकते बाहर की
परिधि को, क्योंकि
वही हमारा
परिचय है।
कबीर
ज्ञान को उपलब्ध
हो गए। एक
सुबह नदी पर, गंगा
पर स्थान करने
गए हैं। देखा
एक पड़ोसी, परिचित
है, ऐसे
हाथ से ही
चुल्ल भर—
भरकर स्नान कर
रहा है। तो
उन्होंने
जल्दी से अपना
लोटा मांजा और
उसको दिया कि
लोटे से स्नान
कर लो, ऐसे
चुल्ल से भर—
भरकर स्नान
कितनी देर में
कर पाओगे!
उस
आदमी ने कहा, सम्हालकर
रख अपना लोटा,
जुलाहे!
क्या जुलाहे
का लोटा लेकर
हम अपने को अपवित्र
करेंगे! वह
मुहल्ले का ही
आदमी था। कबीर
जुलाहा हैं, यह भूलना
उसे मुश्किल
है। कबीर ने
कहा कि बडी
गजब की बात
तुमने कह दी।
लेकिन जब यह
लोटा ही
तुम्हारी
गंगा में
स्नान करने से
पवित्र न हुआ,
तुम कैसे हो
जाओगे? तुमने
मेरी तो
दृष्टि खोल दी;
अब गंगा में
नहाने न आऊंगा।
क्या सार!
लोटे को घिस—घिसकर
परेशान हो गया
और साफ न हुआ, शुद्ध न हुआ।
जुलाहे का
लोटा, जुलाहे
का रहा। तो
तुम स्थान कर—करके
क्या पा लोगे?
लेकिन
जिसको तुमने
जुलाहे की तरह
जाना है, उसे
गुरु की तरह
जानना
मुश्किल हो
जाता है। जीसस
ठीक कहते हैं,
पैगंबर की
पूजा अपने ही
गांव में नहीं
होती। एक अर्थ
में तो मित्र
को परमात्मा
की तरह जानना
बहुत कठिन, है। और एक
अर्थ में बिना
मित्र बनाए
परमात्मा को पहचानना
कठिन है।
क्योंकि तब
शुरुआत ही
कैसे होगी!
तो
तुम पर निर्भर
करेगा। अगर
तुम थोड़े सजग
हो,
तो मित्रता
धीरे—धीरे, धीरे— धीरे
गहरे में ले
जा सकती है।
अगर तुम बेहोश
हो, तो
मित्रता नीचे
उतार सकती है।
मित्रता ऊपर
जाने वाली
सीढ़ी भी बन
सकती है और मित्रता
नीचे जाने
वाली सीढ़ी भी
बन सकती है।
अक्सर तो ऐसे
ही होता है कि
मित्रता नीचे
जाने वाली सीढ़ी
बनती है। जब
तक दो व्यक्ति
एक—दूसरे को
मां—बहन की
गाली न देने
लगें, तब
तक समझना
मित्रता पूरी
नहीं है, तब
समझो कि पक्की
है। इतने नीचे
जब तक न उतर
जाएं, तब
तक मित्रता
सिद्ध ही नहीं
होती!
तुम
दो
व्यक्तियों
के व्यवहार को
देखकर कह सकते
हो कि गहरी
मित्रता है या
नहीं। अगर
गाली वगैरह दे
रहे हैं और
मजे से हंस
रहे हैं, तो
समझो कि
मित्रता है।
साधारण
सौजन्य भी छूट
जाता है, साधारण
संस्कार भी
छूट जाते हैं।
दोनों अपने
निम्न तल पर
उतर आते हैं, तब मित्रता
मालूम पड़ती है।
अर्जुन
अनूठा
व्यक्ति रहा
होगा। इसलिए
कृष्ण अगर उसे
पुरुषश्रेष्ठ
कहते हैं, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
मित्र के भीतर
परमात्मा को
देख लिया!
जिसे बचपन से
जाना है, उसके
भीतर अनजान की
झलक पा ली। जो
बिलकुल ज्ञात
मालूम होता है,
उसके भीतर
अज्ञात का
द्वार खुल गया।
इस
मैत्री से ही
गीता जन्मी है।
इस मैत्री के
भाव से ही
अर्जुन शिष्य
हुआ और कृष्ण
को गुरु होने
का मौका दिया।
क्योंकि
ध्यान रखना, कोई
तुम्हारे ऊपर
गुरु नहीं हो
सकता; तुम
मौका दे सकते
हो। गुरु कोई
जबरदस्ती
नहीं है। गुरु
तुम्हारे ऊपर
अपने को थोप
नहीं सकता।
क्योंकि गुरु
कोई हिंसा
नहीं है, आक्रमण
नहीं है।
इसलिए दुनिया
में कोई गुरु
नहीं बन सकता, केवल शिष्य
गुरु बना सकता
है। वह
तुम्हारी ही
भाव—दशा है।
शिष्य
ही गुरू को
निर्मित करता, एक
अर्थों में।
क्योंकि जैसे
ही यह झुकता
है, वैसे
ही गुरु पैदा
होता है।
जितना झुकता
है, उतनी
ही गुरुता का
दर्शन होता है।
अर्जुन
धीरे — हार
झुकता गया है।
उसने अपनी सब
जिज्ञासाएं
उठा ली हैं; सब
प्रश्न उठा
लिए हैं।
कृष्ण उसके एक—एक
प्रश्न को
काटते गए हैं,
बड़े धीरज से।
क्योंकि गुरु
को तो बहुत
धैर्य रखना
जरूरी है।
अज्ञान इतना
गहरा है और मन
के इतने
पुराने जाल
हैं कि तुम एक
तरफ से
सम्हाली, दूसरी
तरफ से बिगड़
जाता है।
दूसरी तरफ से
सम्हालो, तीसरी
तरफ से बिगड़
जाता है। और
मन अंत तक
चेष्टा करता
है जीतने की।
जब
शिष्य गुरु के
पास आता है, तो
गुरु और शिष्य
के मन के बीच
एक गहन संघर्ष
शुरू होता है।
इस बात को
थोड़ा समझ लेना।
जब भी शिष्य
गुरु के पास
आता है, तब
शिष्य के मन
और गुरु के
बीच संघर्ष
शुरू होता है।
शिष्य के हृदय
और गुरु के
बीच तो मैत्री
होती है।
लेकिन शिष्य
की बुद्धि, विचार और
गुरु के बीच
बड़ा संघर्ष
होता है।
ये
दोनों ही
बातें होनी
चाहिए कि हृदय
में मैत्री का
भाव हो, तो
संवाद पैदा हो
सकेगा। गुरु
जो कहेगा, वह
समझ में आ
सकेगा।
क्योंकि समझ
अंततः हृदय की
है, प्रेम
की है। और अगर
हृदय में वह
भाव न हो, सिर्फ
बुद्धि में
प्रश्न हों, तो तुम
शिष्य नहीं हो।
तुम सिर्फ
कुतूहलवश, जिज्ञासावश
आ गए हो। तुम
रूपांतरित
होने को नहीं
आए हो। तुम
कुछ शब्दों का
संग्रह करके
लौट जाओगे।
तुम थोड़े
पंडित हो
जाओगे। तुम
मिटोगे नहीं;
तुम थोड़े—से
और आभूषण अपने
अहंकार के लिए
जुटा लोगे।
मन
में तो प्रश्न
उठेंगे ही।
जैसे वृक्षों
में पत्ते
लगते हैं, ऐसे
मन में प्रश्न
लगते हैं।
लेकिन अगर
हृदय में
प्रेम हो, तो
गुरु जीत
जाएगा, शिष्य
हारेगा। और
शिष्य का
हारना ही
शिष्य की जीत
है। गुरु का
जीतना ही
शिष्य की जीत
है। क्योंकि
गुरु जीत जाए,
तो ही तुम
उठोगे उस कचरे
से, जहां
तुम पड़े हो।
अगर तुम जीत
गए, तो तुम
वहीं पड़े रह
जाओगे।
अर्जुन
हारने को राजी
है,
लेकिन
जल्दी हारने
को भी राजी
नहीं है।
क्योंकि अगर
तुम जल्दी हार
गए तो भी धोखा
होगा। मन में
प्रश्न बने ही
रह जाएंगे, जो बार—बार
उठेंगे, हमेशा
लौट—लौटकर आ
जाएंगे।
तो
अर्जुन अपनी
सारी जिज्ञासाएं
रख लेता है।
मन जो भी उठा सकता
है,
उठा लेता है,
उसमें
कंजूसी नहीं
करता। और हृदय
के प्रेम में
जरा भी बाधा
नहीं डालता।
हृदय का द्वार
खुला रहता है
और गुरु मन को
काटे चला जाता
है।
कृष्ण
तो एक तलवार
हैं,
वे अर्जुन
के एक—एक संशय
को गिराए जा
रहे हैं।
लेकिन इतना
भरोसा होना
चाहिए, किसी
के हाथ में
तलवार देखकर भय
न पैदा हो जाए।
किसी के हाथ
में तलवार
देखकर ऐसा न
लगे कि क्या
पता, यह
संशय काटते—काटते
मुझको ही नहीं
काट देगा!
इतना भरोसा
चाहिए कि यह
बीमारी ही
काटेगा।
जैसे
तुम एक सर्जन
के पास जाते
हो,
तो भरोसा
चाहिए। तुम
लेट जाते हो, तुम बेहोश
कर दिए जाते
हो। तुम भरोसा
रखते हो कि यह
आदमी बीमारी
की ग्रंथि ही
काटेगा, टयूमर
ही निकालेगा।
अब बेहोश हालत
में यह क्या
करेगा, पता
नहीं। लेकिन
एक भरोसा है, एक ट्रस्ट
है, एक
श्रद्धा है।
इसलिए
धर्म की परम
घटना बिना
श्रद्धा के
नहीं घटती, क्योंकि
धर्म सबसे बड़ी
सर्जरी है।
जिसमें
तुम्हारा
सबसे बड़ा टयूमर,
अहंकार
निकाला जाएगा।
और तुम्हारे
जीवन की सारी
संशय की रुग्ण,
जितने
रोगाणु हैं, उन सबको
बाहर फेंका
जाएगा। वह
सबसे बड़ी
शुद्धि है, आमूल
रूपांतरण है,
जड़—मूल से
बदलाहट है।
उतनी ही बड़ी
श्रद्धा भी
चाहिए। ऐसी
श्रद्धा न हो,
तो बेहतर है
गुरु के पास मत
जाना।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
गया था
चिकित्सक के
पास। जैसे ही
चिकित्सक ने
उसे कहा कि
लेटी टेबल पर;
उसने जल्दी
से खीसे में
हाथ डाला, अपना
बटुआ निकाला।
चिकित्सक ने
कहा, कोई
फिक्र नहीं; फीस बाद में
दे देना। उसने
कहा, फीस
कौन दे रहा है!
हम अपने रुपये
गिन रहे हैं।
आपरेशन के बाद
गिनने में
क्या सार!
पहले गिन लेना
उचित है।
कितने थे, इतना
पक्का तो होना
चाहिए; आपरेशन
के बाद वापस
गिन लेंगे।
इतना
भी भरोसा न हो, तो
गुरु के पास
जाना ही मत।
अगर गुरु के
पास भी हाथ
जेब में पड़ा
रहे और बटुए
में नोट गिनते
रहो और संदेह बना
रहे......।
संदेह
के होने में
कोई बुराई
नहीं है; मन
में ही हो, हृदय
में न हो।
हृदय भरोसा
करता हो। तो
वह परम घटना
घट सकती है।
तुम्हारे मन
की मृत्यु हो
जाएगी और तुम
विराट जीवन को
उपलब्ध हो
सकोगे।
पांचवां
प्रश्न : आपने
कहा कि सदगुरु
ही शिष्य को
खोजता है और
विश्व के
सुदूर कोनों
से अपने होने
वाले शिष्यों
को आप पूना
बुला रहे हैं।
यदि सदगुरु
कुछ नहीं करता, तो
यह शिष्य का
खोजना, उसे
अपने पास
बुलाना आदि
घटनाएं किस
प्रकार घटती
हैं?
बस, घटती
हैं। जैसे
पानी भागा चला
जाता है सागर
की तरफ। जैसे
दीए की लौ
उठती है आकाश
की तरफ। कोई
दीया चेष्टा
थोड़े ही करता
है कि आकाश की
तरफ उठे। और
चेष्टा करेगा,
तो गिरेगा
किसी न किसी
दिन, थक
जाएगा। लेकिन
दीया थकता ही
नहीं; उसकी
ज्योति उठे ही
चली जाती है।
अगर नदियां
चेष्टा करती
हों, अगर
गंगा श्रम
करती हो सागर
की तरफ जाने
का, कभी तो
थकेगी।
श्रम
से तो कभी न
कभी थक ही
जाओगे। तो फिर
गंगा कहेगी, जाने
भी दो, कुछ
दिन छुट्टी।
लेकिन बहे चली
जाती है, बहे
चली जाती है।
यह बहना एक
स्वाभाविक
कृत्य है।
जैसे
पानी गड्डे की
तरफ बहता है, ऐसा
जब भी कहीं
गुरुत्व पैदा
होता है, तो
जिनकी भी खोज
है, वे बहे
चले आते हैं।
कोई कुछ करता
नहीं। गुरु
शिष्य को ऐसे
ही बुलाता है,
जैसा गड्डा
पानी को
बुलाता है।
कोई बुलाता
नहीं है। जैसे
चुंबक खींच
लेता है, बिना
खींचे। कोई
खींचने के लिए
उपक्रम थोड़े
ही करना पड़ता है।
नहीं तो चुंबक
को भी विश्राम
करना पड़े; बारह
घंटे खींचे और
बारह घंटे
विश्राम करे!
नहीं, विश्राम
की जरूरत ही
नहीं आती, क्योंकि
श्रम नहीं है
यह।
तुम
मेरे पास हो; न
तो तुम चेष्टा
करके आ गए हो, न मैंने
चेष्टा करके
तुम्हें बुला
लिया है। बस, यह घटना
मेरे और
तुम्हारे बीच
घटी है कि तुम
आ गए हो और मैं यहां
हूं। यह उतनी
ही प्राकृतिक
है, जैसे
गंगा सागर में
गिरती है।
धर्म
में,
धर्म के
गहनतम रूप में
कर्तृत्व का
सवाल ही नहीं
है। और गुरु
अगर कुछ करता
हो, तो
गुरु ही नहीं
है। गुरु तो
अकर्ता है।
कर्ता तो खो
गया है, क्योंकि
कर्ता का तो
अर्थ ही
अहंकार होता
है। इसलिए एक
बड़ी
रहस्यपूर्ण
बात है, वह
यह कि गुरु के
पास बैठ—बैठकर
धीरे— धीरे
कुछ होता है।
गुरु करता
नहीं है, तुम
करते नहीं हो,
पर घटता है।
इसको हमने
सत्संग कहा है।
यह संसार का
सबसे बडा
रहस्य है।
सत्संग
का अर्थ है, शिष्य
बैठा है, गुरु
बैठे हैं; साथ—साथ
हैं। घटता है,
इन दोनों की
मौजूदगी में
कुछ घटता है।
जिसकी खोज है,
वह खोज लेता
है। जिसके पास
देने को है, वह बांट
देता है।
पर
यह भाषा के
साथ तकलीफ है, क्योंकि
हम तो जो भी
कहेंगे, उसमें
ही किया आ
जाएगी।
क्योंकि भाषा
में हमने ऐसा
कोई भी शब्द
नहीं जाना, जान भी नहीं
सकते।
क्योंकि भाषा
तो संसारी
आदमी बनाता है,
कर्ता का
भाव वाला आदमी
बनाता है।
वहां तो सभी
क्रियाएं हैं।
एक
आदमी बैठता है, वह
कहता है, हम
ध्यान कर रहे
हैं। अब ध्यान
कहीं किया
जाता है! तुम
तो यह भी कहते हो
कि हम प्रेम
कर रहे हैं।
प्रेम कहीं
किया जाता है!
होता है। जब
होता है, तब
होता है; नहीं
होता, नहीं
होता। जब नहीं
होता, तब
करके दिखाओ? जैसे मैं
तुम्हें दे
दूं किसी
व्यक्ति को और
कहूं चलो, इसको
प्रेम करके
दिखाओ। दिखा
सकोगे?
ही, अभिनय
कर सकते हो।
गले लगा लो।
लेकिन
हड्डियां
हड्डियों से
मिलेंगी, हृदय
में कोई
उदभावना न
होगी। क्या
करोगे अगर मैं
कहूं कि इस
व्यक्ति को प्रेम
करो, इसी
समय! कुछ न कर
सकोगे।
ज्यादा से
ज्यादा अभिनय
कर सकोगे।
धोखा है अभिनय,
झूठ है
अभिनय। प्रेम
तो होता है, तो होता है।
नहीं होता, तो नहीं
होता। लेकिन
प्रेम में
कितनी घटनाएं
घटती हैं!
ध्यान, लोग
कहते हैं, ध्यान
कर रहे हैं।
ध्यान कर रहे
हैं, कहना
ठीक नहीं है।
ध्यान में हैं,
इतना कहना
ठीक है।
क्योंकि
करोगे कैसे
ध्यान? अगर
करने वाला
मौजूद रहा, तो तुम बाहर
ही बाहर घूमते
रहोगे; भीतर
कैसे जाओगे? करने वाला
कभी भीतर गया
है?
जब
सब करना छूट
जाता है, तब
तुम भीतर होते
हो। जब विचार
का कृत्य भी
नहीं रह जाता,
कोई किया की
लहर तुम्हारे
पास नहीं रह
जाती, तब
तुम भीतर होते
हो। ध्यान में
व्यक्ति होता
है; ध्यान
किया नहीं जा
सकता।
प्रार्थना
कर सकते हो? बकवास
कर सकते हो, उसको तुम
प्रार्थना
कहते हो!
प्रार्थना
भाव—दशा है।
तुम
प्रार्थना
में हो सकते
हो।
प्रार्थना
में सन्नाटा
हो जाएगा, मौन
हो जाएगा। मन
चुप होगा।
कहीं कोई आवाज
न उठेगी। एक
गहन सन्नाटा
छा जाएगा। उसी
सन्नाटे में
तुम झुकोगे।
उसी सन्नाटे
में तुम
परमात्मा में
गिरोगे। उसी
सन्नाटे में
तुम स्वीकार
किए जाओगे, अंगीकार
होओगे।
प्रार्थना
में हो सकते
हो,
प्रार्थना
कर नहीं सकते।
और तुमने
प्रार्थना की,
तो वहां
विवश अभिनय हो
जाएगा।
मंदिरो
में पुजारी
प्रार्थना कर
रहे हैं; अभिनय
चल रहा है!
कैसा मजा है!
नौकर रख छोड़े
हैं तुमने
मंदिरों में,
जिनको तुम
तनख्वाह देते
हो प्रार्थना
करने की। वे
जिंदगीभर
प्रार्थना
करते रहते हैं।
और कुछ भी
नहीं घटता।
रामकृष्ण
को मंदिर में
रखा गया था, भूल
से ही हो गई यह
बात। क्योंकि
ऐसा पुजारी
कोई नौकरी
करने नहीं आता।
गरीबी थी, तकलीफ
में थे, राजी
हो गए। राजी
होने में गरीबी
ही नहीं थी, करुणा भी थी।
क्योंकि जिस
महिला ने यह
मंदिर बनाया
दक्षिणेश्वर
का कलकत्ते
में, वह
शूद्र थी। कोई
ब्राह्मण
उसके यहां
नौकरी करने को
राजी न था।
शूद्र के
मंदिर में कौन
ब्राह्मण
करने को प्रार्थना
जाए? भगवान
भी शूद्र ने
बनवाया हो, तो शूद्र हो
जाता है। अब
शूद्र भगवान
की कौन पूजा
करे! कोई
भ्रष्ट होना
है? आदमी
के तर्क बड़े
अदभुत हैं।
और
वह महिला
निश्चित ही
बडी अदभुत
महिला थी।
रानी रासमणि
उसका नाम था।
वह बड़े भाव से
उसने मंदिर
बनाया था।
लेकिन पुजारी
न मिले मंदिर
में। और वह
शूद्र थी, इसलिए
खुद मंदिर के
गर्भ—गृह में
प्रवेश करने
से डरती थी कि
अगर मैंने भीतर
प्रवेश किया,
तो कहीं
लोगों को पीड़ा
न हो, दुख न
हो। अन्यथा वह
भी पूजा कर
सकती थी। वह
मंदिर के
द्वार पर बाहर
से पूजा करके
जाती थी। वह
ज्यादा
ब्राह्मण थी
उन
ब्राह्मणों
से, जो
मंदिर में
पूजा करने को
राजी नहीं थे,
क्योंकि
इसमें पैसा
रासमणि का लगा
था। रामकृष्ण
राजी हो गए, संयोग ही था,
दयावश, करुणावश,
और गरीबी थी,
नौकरी
चाहिए थी। और
नौकरी उन्हें
कहीं और मिल
भी न सकती थी।
क्योंकि वे
कुछ अनूठे ढंग
के पुजारी थे,
जैसा कि
पुजारी होते
नहीं या कि
सिर्फ असली पुजारी
होते हैं।
तो
यह संयोग मिल
गया,
रासमणि को
पुजारी नहीं
मिलता था, रामकृष्ण
को पूजा का
मंदिर नहीं
मिलता था। जम
गई बात।
मगर
थोड़े ही दिन
में अड़चन शुरू
हो गई।
ट्रस्टी थे
मंदिर के, उन्होंने
रासमणि को कहा
कि यह पुजारी
न चलेगा। इससे
तो बिना पूजा
का मंदिर रहे,
वह बेहतर।
प्रतीक्षा
करें हम, कोई
ब्राह्मण आ
जाएगा ढंग का।
यह तो ढंग का
आदमी ही नहीं
है। क्योंकि
इसने तो ऐसे
जघन्य अपराध
किए हैं कि क्षमा
नहीं किया जा
सकता। क्या
अपराध थे? अपराध
ये थे कि कभी
तो पूजा करते
वे, कभी न
करते। एक
अपराध तो यह
था। कभी दिनों
बीत जाते, वे
जाते ही न
मंदिर में और
कभी दिन—दिनभर
पूजा चलती।
अब
यह भी कोई ढंग
है! पूजा तो
नियम से होनी
चाहिए, पूजा तो
एक रूटीन है।
जैसे
मिलिट्री में
होता है, बाएं
घूम, दाएं
घूम। जल्दी से
किया, पूजा
पूरी हुई, अपने
घर गए, पुजारी
घर गया।
रामकृष्ण
से पूछा गया, यह
क्या गड़बड़ है?
उन्होंने
कहा कि जब
होती है, तब
होती है। जब
नहीं होती, मैं क्या
करूं! क्या
मैं झूठ करूं?
क्या भगवान
के सामने झूठा
खड़ा होकर हाथ
हिलाऊं, सिर
हिलाऊ? कुछ
बोलूं जो मेरे
हृदय में नहीं
है! जब नहीं होती
है, जब मैं
रेगिस्तान की
तरह हूं तब
कैसे जाऊं मंदिर
में! जब होती है,
तब जाता हूं।
और जब होती है,
तो जब तक
होती रहती है,
फिर निकलता
नहीं हूं। फिर
भूख—प्यास भूल
जाती है, दिन
बीत जाते हैं।
कभी—कभी
तो ऐसा है कि
बीस—बीस घंटे
वे खड़े हैं; आंसुओ
की धार बह रही
है, नाच
रहे हैं।
सुनने वाले
आते हैं, चले
जाते हैं, सुबह
होती है, सांझ
होती है; मगर
पुजारी लगा है।
दूसरा
अपराध था कि
वे पहले खुद
भोग लगा लेते
हैं अपने को, और
फिर भगवान को
प्रसाद चढ़ा
देते हैं।
पहले भगवान को
भोग लगना
चाहिए, फिर
खुद प्रसाद
लेना चाहिए। यहां
तो सब बिलकुल
उलटा मामला
है!
उनसे
कहा गया, कम से
कम इतना तो
बंद करो।
क्योंकि यह तो
बिलकुल ही
शास्त्र के
विपरीत है।
मगर
प्रेम कहीं
शास्त्र को
मानता है? पूजा
किसी शास्त्र
के अनुसार
चलती है? शास्त्र
के अनुसार तो
अभिनय चलता है,
नाटक चलता
है।
तो
रामकृष्ण ने
कहा,
फिर मैं
पूजा नहीं
करूंगा। फिर
मुझे छोड़ दें,
छुट्टी दे
दें। यह मैं
कर ही नहीं
सकता। यह मेरी
मां नहीं कर
सकती थी, मैं
कैसे कर सकता
हूं?
लोगों
ने पूछा, क्या
मतलब? उन्होंने
कहा, मेरी
मां जब भी कुछ
बनाती थी, तो
पहले खुद चखती
थी, फिर
मुझे देती थी।
देने योग्य भी
है या नहीं, यह भी तो
पक्का होना
चाहिए। तो मैं
बिना चखे
भगवान को दे
नहीं सकता।
क्योंकि कई
बार मैं पाता
हूं कि शक्कर
कम है, कई
बार पाता हुं, ज्यादा है; कई बार पाता
हूं नमक है ही
नहीं, कई
बार कुछ भूल—चूक
होती है। मैं
भगवान को ऐसे
नहीं कर सकता।
अब
यह किसी बड़े
गहन प्रेम से
आती पूजा है।
इसके लिए कोई
शास्त्र
निर्मित नहीं
हुआ है, न हो
सकता है।
क्योंकि यह हर
पुजारी की अलग
होगी। हर
पुजारी अपना
ही शास्त्र
होगा।
नहीं, गुरु
कुछ करता नहीं
है। वहां महान
घटनाएं घटती
हैं; बिना
किए घटती हैं;
बिना किसी
की चेष्टा के
घटती हैं। कोई
उनके करने से
थकता नहीं।
शिष्य जहां
राजी है, गुरु
जहां मौजूद है,
बस उनकी
मौजूदगी
दोनों की साथ
चाहिए, सत्संग
चाहिए; घटनाएं
शुरू हो जाती
हैं।
छठवां
प्रश्न :
अर्जुन संदेह
और संदेह उठाता
है; कृष्ण
प्रत्युत्तर
भी देते जाते
हैं। ठीक वैसे
ही हमारे भीतर
भी प्रश्नों
का मंथन चलता
है। लेकिन
मुश्किल यह है
कि आपको बहुत
बार सुनकर, पढ़कर भीतर
से ही उत्तर
भी तत्क्षण आ
जाते हैं।
इससे अंतत:
उलझाव तो बना
ही रहता है।
क्या करें?
बुद्धि
से आए हुए
उत्तर काम
नहीं आएंगे।
तुमने अगर
मुझे सुना, तो
दो तरह से सुन
सकते हो। एक
तो ?ए? तुम्हारी
बुद्धि है, तर्क है, विचार
है, वहां
से सुन सकते
हो। मेरी बात
जंच सकती है, ठीक है।
लेकिन यह
जंचना हृदय का
नहीं है। मेरा
तर्क
तुम्हारे
तर्क को काट
सकता है।
लेकिन यह काट
मन से गहरे न
जाएगी।
तो
तुम्हारे
भीतर जब
प्रश्न
उठेंगे, उत्तर
भी उठेगा।
लेकिन प्रश्न
भी मस्तिष्क
में होंगे, उत्तर भी
मस्तिष्क में
होगा। उत्तर
गहरे से आना
चाहिए, हृदय
से आना चाहिए,
तब काटेगा।
उत्तर प्रश्न
से ज्यादा
गहराई से आना
चाहिए, तभी
सुलझाव बनता
है, नहीं
तो सुलझाव
नहीं बनता।
तो
जब तुम पाओ—इसको
कसौटी समझो—जब
तुम पाओ कि
कोई उत्तर
तुम्हारे
भीतर आया, लेकिन
सुलझाव नहीं
आता, समझ
लेना, वह उत्तर
उत्तर ही नहीं
है। अभी खोज
जारी रखनी है।
अभी प्रश्न को
सम्हालो, अभी
उत्तर की
फिक्र मत करो।
अभी और पूछना
है, अभी और
जानना है, अभी
और सिर रगड़ना
है।
तुमने
जल्दी उत्तर
मान लिया है।
प्रश्न मरा
नहीं है और
उत्तर मान
लिया है। तो
प्रश्न तो बार—बार
सिर उठाएगा।
और तुम्हारा
उत्तर नपुंसक
है,
तुम्हारा
प्रश्न ही
बलवान है और
तुम्हारा उत्तर
कमजोर है।
इसीलिए तो
सुलझाव नहीं
आता।
तो
और पूछना
पड़ेगा अभी।
अभी और खोजना
पडेगा। तुमने
जल्दी ही
उत्तर को
स्वीकार कर
लिया है, इसीलिए
अड़चन आ रही है।
इतनी जल्दी न
करो।
कोई
जल्दी नहीं है।
अनंत काल शेष
है। धीरज से
चलो। ऐसा न हो
कि उठाए गए
कदम फिर—फिर
उठाने पड़े।
ऐसा न हो कि
फिर—फिर पीछे
लौटना पड़े।
कुछ अधूरा मत
छोड़ जाओ।
जो
प्रश्न
तुम्हारे
भीतर है, जब तक
हल ही न हो जाए,
तब तक जल्दी
मत समझ लेना
कि हल हो गया।
मन चाहता भी
है कि जल्दी
हल हो जाए।
क्योंकि मन की
एक दूसरी
बीमारी है, जल्दी, अधैर्य।
तो भोजन पका
ही नहीं, तुम
कच्चा ही उतार
लेते हो
चूल्हे से, फिर पेट में
दर्द होता है।
भोजन को पकने
दो, इतनी
जल्दी मत करो।
जल्दी किए कुछ
भी न होगा।
जितनी जल्दी
करोगे, उतनी
देर हो जाएगी।
धीरज
से चलो। कहीं
पहुंचने की
कोई आवश्यकता
नहीं है। तुम जहां
हो,
वहीं सब मिल
जाने वाला है।
कोई यात्रा
नहीं है। तुम
जो हो, वहीं
सब छिपा है।
खजाना
तुम्हारे साथ
है, कुंजी
भला खो गई हो, लेकिन खजाना
नहीं खो गया
है। इसलिए
घबड़ाओ मत और
जल्दी मत करो।
एक—एक
प्रश्न को
सुलझाओ और
प्रेम से
सुलझाओ, क्योंकि
हर प्रश्न के
सुलझाने में
तुम भी सुलझोगे।
अगर प्रश्न को
तुमने ऐसे ही
टाल दिया, समझा—बुझा
लिया अपने को
ऊपर—ऊपर कि हल
हो गया, सांत्वना
बना ली, संतोष
तो न हुआ और
सांत्वना बना
ली, तो
प्रश्न फिर
सिर उठाएगा।
तुम ज्यादा
देर उससे बचे
न रह सकोगे।
फिर तुम उत्तर
दिए चले जाओ, वह उत्तर
उधार है, वह
तुमने मुझसे
ले लिया, वह
तुम्हारे
भीतर घटा नहीं।
जल्दी
नहीं है। मैं
जो उत्तर दे
रहा हुं,
उन्हें बीज की
तरह लो। वे
वृक्ष नहीं
हैं। अगर
तुमने मेरे
उत्तर को वैसा
ही स्वीकार कर
लिया जैसा
मैंने दिया है,
तो तुम जरूर
पाओगे, अड़चन
आएगी।
क्योंकि मेरा
उत्तर मेरा
उत्तर है। वह
तुम्हारा
कैसे हो सकता
है?
मेरे
उत्तर को तो
इशारे की तरह
लो,
बीज की तरह
लो। वृक्ष तो
तुम्हारा
तुम्हारे
भीतर पैदा
होगा। मेरी
तरफ से इंगित
ले लो, फिर
अपने उत्तर को
आने दो धीरज
से। एक दिन
तुम पाओगे, जैसे
तुम्हारे
भीतर प्रश्न
उठा है, ऐसे
ही तुम्हारा
अपना उत्तर भी
आ गया है।
तुम्हारा
प्रश्न है, तो तुम्हारा
ही उत्तर हल
करेगा। मेरे
उत्तर से
तुम्हारे
उत्तर को पास
आने की सुविधा
हो सकती है, लेकिन मेरे
उत्तर को तुम
अपना उत्तर मत
बना लेना।
अन्यथा तुम
उधारी में पड़
जाओगे। और
धर्म नगद सत्य
है, वह
उधार नहीं है।
अब
सूत्र :
परंतु हे
अर्जुन, उस
त्याग के विषय
में तू मेरे
निश्चय को सुन।
कृष्ण
कहते हैं, मेरे
निश्चय को सुन।
यह शब्द समझ
लेने का है।
बहुत कीमती है।
चित्त
की दो दशाओं
में निश्चय का
भाव पैदा होता
है। एक, जब तम
तर्क से, विचार
से, मंथन
से किसी
निष्कर्ष पर
पहुंचते हो, तब भी लगता
है, निश्चय
हुआ। लेकिन वह
निश्चय
क्षणभंगुर है।
नए तर्क आएंगे,
और वह
निश्चय डगमगा
जाएगा। नई
संभावनाएं
होंगी, और
वह निश्चय टूट
जाएगा।
तो
तर्क से जो
निश्चय आता है, उसको
निष्कर्ष कहो,
निश्चय मत
कहो। वह सिर्फ
निष्कर्ष है,
कनक्यूजन
है, डिसीजन
नहीं है।
इसलिए वह
हमेशा
अस्थायी है।
—
जैसे
विज्ञान है। विज्ञान
निष्कर्ष
लेता है, निश्चय
नहीं। न्यूटन
ने कुछ खोजा, तो कुछ
निष्कर्ष लिए।
फिर आइंस्टीन
ने उनको गलत
कर दिया, खोज
आगे बढ गई।
आइंस्टीन
न्यूटन का
दुश्मन नहीं
है। न्यूटन की
खोज को ही आगे
बढ़ाया। उसी
खोज को आगे
खींचने से पता
चला कि बहुत—सी
चीजें बदलनी
पड़ेगी; वह
निष्कर्ष
बदलना पड़ा।
आइंस्टीन के
जाते ही दूसरे
लोग आइंस्टीन
को आगे खींच
रहे हैं, निष्कर्ष
बदल रहे हैं।
इसलिए
विज्ञान कभी
भी
निश्चयात्मक
रूप से कुछ भी
न कह सकेगा।
उसके
निष्कर्ष
बदलते ही
रहेंगे।
तर्क
कभी भी निश्चय
पर नहीं
पहुंचता।
उसके सभी
निश्चय
निष्कर्ष
होते हैं। फिर
नया कोई तर्क
उठा,
फिर कोई नई
घटना घटी, फिर
से डावाडोल हो
जाता है।
लेकिन
कृष्ण यह नहीं
कहते कि मैं
तुझे अपना
निष्कर्ष
बताता हूं। वे
कहते हैं, मैं
तुझे अपना
निश्चय बताता
हूं। निश्चय
हम उस अवस्था
को कहते हैं, जिसमें कोई
बदलाहट न होगी,
समय की धारा
जिसमें कोई
परिवर्तन न
लाएगी। कुछ भी
घट जाए, कैसी
भी स्थितियां
बदल जाएं, निश्चय
नहीं बदलेगा।
निश्चय
का अर्थ है, जिसे
हमने तर्क के
ऊहापोह से
नहीं, बल्कि
आत्म—जागरण से
पाया है।
अंधेरे में
तुम टटोलते हो,
उस टटोलने
से तुम जो
निष्कर्ष
लेते हो, वह
निष्कर्ष है।
फिर रोशनी हो
गई, उस
रोशनी में तुम
जो निष्कर्ष
लेते हो, वह
निश्चय है।
समझो
कि राह पर
तुमने देखा, तुम
चले आ रहे हो, दूर तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि कोई खड़ा है,
मालूम होता
है कोई चोर, कोई शरारती
छिपा है वृक्ष
के नीचे।
बिलकुल ठीक
लगता है, निष्कर्ष
तुमने ले लिया,
घबड़ाहट भी आ
गई। लेकिन
मजबूरी है, राह से
गुजरना ही
पड़ेगा। तुमने
अपने हाथ में
डंडा भी
सम्हाल लिया।
तुम अपने
निष्कर्ष के
अनुकूल तैयार
भी हो गए।
थोड़ी
दूर आगे जाकर
तुम पाते हो
कि नहीं, यह
कोई चोर नहीं
है, यह तो
पुलिसवाला है।
निष्कर्ष बदल
गया। तुमने अब
डंडे को शिथिल
छोड़ दिया।
मस्ती से फिर
चलने लगे। और
पास गए, तो
जाकर देखा, वहां
पुलिसवाला भी
नहीं है, वह
तो सिर्फ
बिजली का खंभा
है।
परिस्थिति
बदलती है, निष्कर्ष
बदल जाते हैं।
क्योंकि नई
परिस्थिति के
अनुकूल
निष्कर्ष को
होना चाहिए।
लेकिन निश्चय
नहीं बदलता।
निश्चय
परिस्थिति पर
निर्भर ही
नहीं है, नहीं
तो बदलेगा।
निश्चय तो
आत्मनिर्भरता
है। तुम अपने
भीतर इतने
इकट्ठे हो गए
हो, एकजुट
हो गए हो; तुमने
भीतर एक ऐसी
योग की स्थिति
पा ली है, एक
ऐसी समाधि पा
ली है, एक
ऐसा समाधान
मिल गया है, अब कोई भी
बदल न सकेगा।
विज्ञान
निष्कर्ष तक
पहुंचता है, धर्म
निश्चय तक।
विज्ञान
संदेहों को हल
करके
निष्कर्ष
लेता है। धर्म
संदेह से
मुक्त होकर
निश्चय लेता
है। विज्ञान
में संदेह
मौजूद ही रहता
है, छिपा
रहता है भीतर,
परदे की आड़
में। धर्म में
संदेह की
मृत्यु हो
जाती है, लाश
निकल जाती है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
हे अर्जुन,
उस त्याग के
विषय में तू
मेरे निश्चय
को सुन। मैं
कोई पंडित की
तरह नहीं बोल
रहा हूं कृष्ण
उससे कह रहे
हैं। मैं कोई
विचारक की तरह
नहीं बोल रहा
हूं। यह मेरे
जीवन का
निश्चय है।
ऐसा मैंने
जाना है।
एक
अंधा आदमी
प्रकाश के
संबंध में
बोले, तो वह
निष्कर्ष से
ज्यादा कभी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
अनुभव तो उसका
कोई भी नहीं
है। और एक आख
वाला आदमी
प्रकाश के
संबंध में बोले,
तो वह
निश्चय है। और
सारी दुनिया
भी उससे कहे
कि तुम गलत हो,
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जो
अनुभव से जाना
गया है, उसमें
अंतर नहीं आता।
अनुभव शाश्वत
की उपलब्धि है।
और
हम उसी को
सत्य कहते हैं, जो
शाश्वत है, सनातन है।
इसलिए
विज्ञान के
पास ज्यादा से
ज्यादा परिकल्पनाएं
हैं, हाइपोथीसिस
हैं, सत्य
नहीं। सत्य तो
केवल धर्म की
अनुभूति है।
हे
अर्जुन, मेरे
निश्चय को सुन।
हे
पुरुषश्रेष्ठ.......।
अर्जुन
को कृष्ण बार—बार
पुरुषश्रेष्ठ
कहते हैं, बड़े
भाव से कहते
हैं।
शिष्य
जितना ज्यादा
झुकता जाता है, उतना
ही श्रेष्ठ
होता जाता है।
यह विरोधाभास
है। तुम सोचते
हो, जितने
अकड़े खड़े
रहेंगे, उतने
ही श्रेष्ठ हो
जाएंगे। गुरु
के सामने तुम
जितने अकड़ते
हो, उतने
ही निकृष्ट
सिद्ध होते हो।
वहां तो झुकना
ही कला है।
वहा तो तुम
जितने झुकते
हो, उतने
ही श्रेष्ठ
होते चले जाते
हो। वहां तो
तुम बिलकुल
झुक जाते हो, तो तुम
श्रेष्ठता की
आखिरी परम
सीमा हो जाते
हो।
अर्जुन
पुरुषश्रेष्ठ
है। वह झुकता
जा रहा है, प्रतिपल
झुकता जा रहा
है। और
पुरुषश्रेष्ठ
इसलिए भी है
कि अब उसने
संन्यास और
मोक्ष की
जिज्ञासा की
है। वह
पुरुषश्रेष्ठ
ही करते हैं।
निकृष्ट पुरुष
धन के बाबत
पूछता है।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। अब
मेरे पास आने
के पहले ही
उन्हें सोचना
चाहिए कि मेरे
पास किसलिए जा
रहे हैं! वे
पूछते हैं कि
ध्यान करने से
आर्थिक लाभ
होगा कि नहीं?
नुकसान
हो सकता है, लाभ
कैसे होगा!
ध्यान करोगे,
तो घंटेभर
तो दुकानदारी
बंद हो जाएगी।
उतना नुकसान
होगा। ध्यान
करोगे, तो
लोगों की जेब
से पैसा
निकालने में
थोड़ी—सी झिझक
होने लगेगी।
उतना नुकसान
होगा। ध्यान
करोगे, तो
शोषण जरा
मुश्किल
मालूम होगा।
उतना नुकसान
होगा। ध्यान
करोगे, तो
झूठ बोलने में
अड़चन आएगी।
उतना नुकसान
हो तो मैं
उनसे कहता हुं, ध्यान की
तरफ जाना ही
मत। ध्यान से
हानि है। वे
कहते हैं कि
नहीं, आप
मजाक कर रहे
होंगे।
क्योंकि हमने
तो यही सुना
है कि ध्यान
करने से सभी
तरह का लाभ
होता है।
लौकिक, पारलौकिक
सभी तरह का
लाभ है।
लाभ
पर नजर है, परलोक
से मतलब क्या
है! ध्यान से
धन पाने की आकांक्षा
उठती हो, तो
बड़ा निकृष्ट
चित्त है।
पुरुष
जब श्रेष्ठ
चित्त से भरता
है,
तो उसकी
जिज्ञासा
मोक्ष की होती
है। वह कहता
है, मुक्त
कैसे हो जाऊं?
देख लिखा
संसार, जान
लिया संसार, दुख के
अतिरिक्त कुछ
भी न पाया, पीड़ा
के अतिरिक्त
कुछ भी न मिला।
काटे ही काटे
थे। फूल सिर्फ
आश्वासन थे; आते कभी न थे,
दूर दिखाई
पड़ते थे; पास
पहुंचने से सब
काटे ही सिद्ध
होते थे।
संसार
से,
संसार की
पीड़ा से जो ऊब
गया, जाग
रहा है, वही
पूछता है, मुक्त
कैसे हो जाऊं?
वही पूछता
है, संन्यास
क्या है? त्याग
क्या है? हे
कृष्ण, मुझे
साफ—साफ करके बता
दें।
हे
पुरुषश्रेष्ठ, वह
त्याग
सात्विक, राजस
और तामस, ऐसे
तीन प्रकार का
कहा गया है।
कृष्ण
सांख्य के
गणित को पूरा
का पूरा
स्वीकार करते
हैं। और हर
चीज तीन
प्रकार की है, तो
त्याग भी तीन
प्रकार का
होगा, संन्यास
भी तीन प्रकार
का होगा।
एक
तो वह आदमी है, जो
त्याग करेगा,
लेकिन उसके
कारण तामसिक
होंगे। अनेक
लोग सिर्फ
आलस्य के वश
त्यागी हो
जाते हैं।
क्योंकि
उन्हें लगता
है कि त्यागी
हो गए, फिर
समाज खिलाता—पिलाता
है, फिक्र
लेता है, फिर
खुद कुछ करना
नहीं पड़ता।
जिनको कुछ
नहीं करना है,
जिनका
प्रमाद गहरा
है, वे
त्याग कर लेते
हैं!
भारत
में सौ
संन्यासियों
में से
निन्यानबे तामसी
मिलेंगे। बड़ी
संख्या है
उनकी। कोई
पचपन लाख
संन्यासी हैं
भारत में। अब
अगर पचपन लाख
संन्यासी
सात्विक हों, तो
इस पृथ्वी पर
स्वर्ग उतर आए।
तामसी हैं, छोड़ने में
रस नहीं है, पकड़ने की चेष्टा
करने की इच्छा
न थी। उतनी भी
इच्छा न थी कि
कुछ करें।
निष्कि्रय
हैं, अकर्मण्य
हैं। मुफ्त
खाने मिल जाए,
पीने मिल
जाए, तो बस
यही उनके जीवन
का परम लक्ष्य
है। इस तरह का
तमस त्याग
कहां ले
जाएगा!
फिर
कुछ लोगों का
त्याग राजस है।
राजस का अर्थ
है,
जो
उन्होंने जबरदस्ती
किया है। एक
तरह की हिंसा
है उसमें, ऊर्जा
है। राजस
व्यक्ति या तो
दूसरे को दबाए
या अपने को दबाए
दबाएगा जरूर।
उसका सारे
जीवन का ढंग
हिंसा का है।
अगर वह दूसरों
को न दबा सके, तो अपने को
दबाएगा। अगर
वह दूसरों पर
मालकियत
सिद्ध न कर
सके, तो
अपने पर
मालकियत सिद्ध
करेगा।
तो
राजस व्यक्ति
भी त्याग कर
सकता है, लेकिन
उसके त्याग
में हिंसा
होगी। वह अपने
को सताएगा। वह
अपने पर
मालकियत करने
की कोशिश
करेगा। वह
अपने शरीर के
साथ ऐसा
व्यवहार
करेगा, जैसे
शरीर कोई
दूसरा है। वह
खड़ा रहेगा, जब शरीर को
बैठना था। वह
भूखा रहेगा, जब शरीर को
भूख. लगी थी।
जब प्यास लगी
थी, तब वह
प्यासा रहेगा।
वह कीटों पर
लेटेगा। वह सब
तरह से शरीर
को सताएगा। वह
मजा वही ले
रहा है, जो
वह दूसरे को
सताने में
लेता। यह
त्याग भी कहां
ले जाएगा! यह
त्याग भी
हिंसा है।
फिर
एक सात्विक
त्याग है, संतुलन
का, सत्व
का, समता
का, बोध का,
सम्यकत्व
का, कि
तुम्हारी समझ
बढ़ी, तुमने
जीवन को जाना—पहचाना।
न तो तुम
अकर्मण्यता
के कारण
छोड्कर भागते
हो; न तुम
भागने में मजा
है, क्योंकि
भागने में दौड़
है, इसलिए
भागते हो।
तुम्हारा
संन्यास
तुम्हारे बोध
की एक परिपक्व
दशा है। तुम्हारी
समझ का ही परिणाम
है।
तुमने
देखा कि संसार
में कुछ पकड़ने
जैसा नहीं है, क्योंकि
सभी छूट जाएगा।
जो छूट ही
जाना है, उसे
पकड़ना क्या? जो छूट ही
जाना है, वह
छूट ही गया है।
तुमने दौड़कर
भी देख लिया
और पाया कि
कोई मंजिल
नहीं आती; यह
संसार कोल्ह
के बैल की तरह
है, दाड़ी
बहुत, पहुंचना
नहीं होता।
तुमने दौड़ भी
छोड़ दी।
अब
तुम एक
सम्यकत्व में
थिर हो गए हो।
तुम्हारे
जीवन में एक
अनअतिशय का
भाव पैदा हुआ
है। न तो तुम
इस तरफ डोलते
हो,
न तुम उस
तरफ डोलते हो,
तुम मध्य
में ठहर गए हो।
घड़ी का पेंडुलम
जैसे बीच में
रुक गया है। न
बाएं जाता, न दाएं जाता।
क्योंकि कहीं
जाने में कोई
सार नहीं है।
होने में सार
है, जाने
में सार नहीं
है। दौड़ने में
सार नहीं है, रुकने में
सार है। कहीं
पहुंचना नहीं
है; जहां
हो, वहीं
पूरी तरह हो
जाना है।
स्वयं में थिर
होना है। ऐसा
जो संन्यास है,
वह सात्विक
है।
हे
पुरुषश्रेष्ठ, वह
त्याग, वह
संन्यास तीन
प्रकार का कहा
गया है। तथा
यज्ञ, दान
और तपरूप कर्म
त्यागने के
योग्य नहीं
हैं। वे
निःसंदेह ही
करने चाहिए, उनका करना
कर्तव्य है, क्योंकि
यज्ञ, दान
और तप, ये
तीनों ही
बुद्धिमान
पुरुषों को
पवित्र करने
वाले हैं।
इसलिए हे
पार्थ, यह
यज्ञ, दान
और तपरूप कर्म
तथा और भी
संपूर्ण
श्रेष्ठ कर्म
आसक्ति और
फलों को
त्यागकर
अवश्य करने चाहिए,
ऐसा मेरा
निश्चित
उत्तम मत है।
कृष्ण
कहते हैं, यज्ञ,
दान और तप, इन्हें भी
छोड़ने की कोई
जरूरत नहीं है।
कृष्ण एक संतुलन
बिठा रहे हैं
लोक में और
परलोक में।
कृष्ण इस
संसार के
विरोध में
नहीं हैं और
उस संसार के
पक्ष में हैं।
यह
थोड़ी नाजुक
बात है।
क्योंकि
साधारणत: जो
लोग परलोक के
पक्ष में हैं, वे
इस लोक के
विपक्ष में
होते हैं। जो
लोग इस लोक के
पक्ष में हैं,
वे परलोक के
विपक्ष में
होते हैं। जो
भौतिकवादी
हैं, वे
अध्यात्मवादी
नहीं होते। जो
अध्यात्मवादी
हैं, वे
भौतिकवादी
नहीं होते।
कृष्ण
भौतिकवादी और
अध्यात्मवादी
दोनों हैं।
पदार्थ और
परमात्मा में
किसी का
तिरस्कार नहीं
करना है।
संसार में और
मोक्ष में भी
एक संतुलन साध
लेना है। यह
गहरे से गहरे
संतुलन की बात
है।
कृष्ण
कहते हैं, इसलिए
संसार में जो
कर्तव्य है, उसे छोड्कर
भाग जाना उचित
नहीं। भागकर
भी जाओगे कहां?
संसार ही पाओगे,
जहां भी
भागकर जाओगे।
कर्म को
छोड़ोगे भी
कैसे गु:
छोड़ना भी कर्म
है। पलायन
करोगे, वह
भी कर्म होगा;
आख बंद करके
बैठोगे, वह
भी कर्म होगा।
बैठना भी कर्म
है।
तो
कर्म से तो
भाग नहीं सकते।
जब तक जी रहे
हो,
श्वास चलती
है, कर्म
चलता ही रहेगा।
तब फिर ध्यान
रखो कि जो
कर्म हो, वह
यज्ञरूप हो, वह दूसरे के
हित के लिए हो।
तुम्हारी
श्वास भी चले,
तो दूसरे के
हित के लिए
चले, वह
स्वार्थ के
लिए न चले।
दानरूप हो।
दूसरे को देने
के लिए
तुम्हारी
चेष्टा हो, छीनने की
चेष्टा न हो।
तपरूप हो। तुम
जो करो, वह
स्वयं को
निखारने और
शुद्ध करने के
लिए हो, अशुद्ध
करने के लिए न
हो।
तो
कहीं कुछ
भागने की
जरूरत नहीं है।
करने का इतना
ही है कि हे
पार्थ, यह
यज्ञ, दान
और तपरूप कर्म
और भी संपूर्ण
श्रेष्ठ कर्म
आसक्ति को
छोड्कर और फल
की आकांक्षा
को छोड्कर किए
जाएं।
तुम
किसी की सेवा
करो,
तो धन्यवाद
भी मत मांगना।
अन्यथा सेवा
व्यर्थ हो गई।
तुम
तपश्चर्या
करो, तो
परमात्मा की
तरफ शिकायत से
मत देखते रहना
कि मैं इतनी
तपश्चर्या कर
रहा हुं,
अभी तक कुछ
हुआ नहीं!
तपश्चर्या को
तुम आनंद मानकर
करना। तुम अगर
दान दो, तो
तुम देने में
सुख लेना।
देने के पार
और देने के
बाद तुम्हारी
कोई आकांक्षा
न हो।
इसीलिए
तो गुप्तदान
को श्रेष्ठतम
दान कहा गया
है,
कि जिसको
दिया है, उसे
धन्यवाद देने
का भी मौका न
मिले, उसे
पता ही न चले
कि किसने दिया
है। और देने
वाले को इतनी
भी आकांक्षा न
हो कि जब राह
पर, जिसे
उसने दिया है,
वह मिले, तो नमस्कार
करे, कि
अखबार में खबर
छपे, कि
रेडियो पर
घोषणा हो।
आकांक्षा
फल की बताती
है कि
तुम्हारे
जीवन में साधन
और साध्य अलग—अलग
हैं;
साधन अभी और
साध्य भविष्य
में। और योग
का सार सूत्र
यही है कि
साधन ही साध्य
हो जाए। यह
वर्तमान क्षण
ही तुम्हारा
सारा भविष्य
हो जाए। आज ही
सब समा जाए; इस कृत्य
में ही सारा
समाविष्ट हो
जाए, इसके
पार कोई
आकांक्षा न हो।
जिस दिन साधन
ही साध्य हो
जाता है और
जिस दिन कदम
ही मंजिल हो
जाती है, जिस
दिन तुम जहां
बैठे हो, वहीं
होना मोक्ष हो
जाता है, उसी
दिन पा लिया।
कृष्ण
की पूरी
प्रक्रिया
कर्मत्याग की
नहीं, फलाकांक्षा
के त्याग की
है। और फलाकांक्षा
का त्याग वही
कर सकता है, जिसने बड़ी
सात्विक
प्रौढ़ता को
पाया हो।
फलाकांक्षी
का त्याग
तामसी नहीं कर
सकता।
क्योंकि
तामसी तो कर्म
का त्याग कर
सकता है, फल का
त्याग नहीं कर
सकता। तामसी
की आकांक्षा
क्या है? वह
कहता है, फल
तो सब मिलने
चाहिए, कर्म
कुछ भी न करना
पड़े। यह तामसी
की आकांक्षा
है। वह कहता
है, बैठे—बैठे
मिल जाए, तो
हम राजी हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
सिगरेट त्याग
दी थी। फिर
मैंने एक दिन
उसे सिगरेट
पीते देखा, तो
पूछा, क्या
हुआ
नसरुद्दीन? उसने कहा, मैंने
खरीदना
त्यागा है।
लेकिन कोई अगर
पिला दे, तो
क्या हर्ज है?
प्रमादी
कर्म नहीं
करना चाहता।
इसे तुम ठीक
से समझ लो।
प्रमादी कर्म
नहीं करना
चाहता, फल
चाहता है।
सत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति कर्म
करता है, फल
नहीं चाहता।
एक छोर है
प्रमाद, निम्नतम।
दूसरा छोर है
श्रेष्ठतम, सत्व। और
मध्य में जो
राजसी है, उसकी
दशा बड़ी अलग
है। उसे कर्म
करने में ही
मजा आता है, किया में ही
मजा आता है।
उसमें इतनी
ऊर्जा है, इतनी
शक्ति है कि
वह दौड़— धूप
करने में रस
लेता है। अगर
उसे दौड़— धूप
करने को न
मिले, तो
परेशानी होती
है।
जैसे
तामसी उठ नहीं
सकता, वैसे
राजसी बैठ
नहीं सकता।
जैसे तामसी को
सुबह बिस्तर
से उठने में
भारी अड़चन आती
है, संसार
का सारा कष्ट
आता है, वैसे
राजसी को रात
बिस्तर पर
जाने में भारी
कष्ट आता है।
राजसी की रात
लंबी होती
जाती है, वह
जागता है दो
बजे, तीन
बजे तक। कुछ
नहीं तो नाचता
है, होटल
में, क्लब
में, कहीं
भी समय बिताता
है। ताश खेलता
है, कुछ
करना है! उसके
भीतर इतनी
बेचैनी है कि
उस बेचैनी को
न निकाले, तो
वह सम्हाल न
सकेगा।
तामसी
पड़ा रहता है, उसे
उठने में अड़चन
है।
ऐसा
हुआ जापान में
कि जापान में
एक सम्राट हुआ।
वह झक्की था, आलसी
था। उसे एक
खयाल आया कि
आलसियों में
कभी ही कोई सम्राट
हो पाता है, अब मैं हो
गया हूं तो और
आलसियो के लिए
भी इंतजाम कर
दूं। तो उसने
राज्य में खबर
भिजवाई कि
जितने भी आलसी
हों, वे
सभी
दरख्वास्त दे
दें। उन्हें
कुछ करने की
जरूरत नहीं
रहेगी।
क्योंकि अगर
तुम आलसी हो, इसमें
तुम्हारा
कसूर क्या!
भगवान ने
तुम्हें आलसी
बनाया, उसका
मतलब भगवान
चाहता है, तुम
आलसी रहो। जिन्हें
उसने काम करने
वाला बनाया, वे काम करें,
अपने लिए भी,
तुम्हारे
लिए भी। मगर
आलसी का कसूर
क्या है? कोई
अंधा है, कोई
लंगड़ा है, कोई
आलसी है, तो
इसमें करोगे
क्या!
हजारों
लोगों की
दरख्वास्तें
आईं। मंत्री
तो घबड़ा गए कि
अगर इतने लोग
खाली बैठ जाएंगे, तो
डूब जाएगी नाव
राज्य की।
सम्राट से
उन्होंने
प्रार्थना की
कि ये तो बहुत
ज्यादा लोग
आलसी होने के
लिए
दरख्वास्त दिए
हैं, यह तो
खजाना डूब
जाएगा। यह चल
न सकेगा
मामला! सम्राट
ने कहा, चलेगा,
तुम उन सबको
कह दो कि वे सब
आ जाएं। जांच
कर ली जाएगी।
असली आलसी तो
एक ऐसी अनूठी
घटना है कि वह
छिपाए छिप
नहीं सकता।
बुला
लिए गए आलसी, उनकी
परीक्षा के
लिए। परीक्षा
यह थी कि
उन्हें घास के
झोपड़ों में ठहरा
दिया गया और
रात आग लगा दी
गई। भागे लोग
निकलकर। जो भी
नकली थे, भाग
गए। चार लेकिन
पड़े रहे। पड़े
थे, उन्होंने
और अपना कंबल
ओढू लिया।
किसी ने कहा
भी कि आग लगी
है। उन्होंने
कहा, ऐसी
बातें न करो
आधी रात; नींद
खराब न करो।
अब जिसने लगाई
है, वही
बुझाका भी।
निश्चित, बुझाई
भी गई आग। चार
बचे; हजारों
आए थे!
आलसी
की जीवन—ऊर्जा
उठती नहीं। वह
मरा—मरा है, जैसे
मरने के पहले
मरा हुआ है।
वह लाश की तरह
है, उसकी
जीवन—ऊर्जा
बैठी हुई है, सक्रिय नहीं
है।
राजसी
उन्मत्त है
ऊर्जा से।
जरूरत से
ज्यादा शक्ति
है। भागेगा, दौड़ेगा,
जमानेभर की
राजनीति
करेगा, उपद्रव
खड़े करेगा, वह उसके
बिना जी नहीं
सकता।
अभी
मैं एक लिस्ट
देख रहा था, गुजरात
में जो
मंत्रिमंडल
बना है, तो
एक नाम मुझे
बड़ा प्यारा
लगा। नाम है, भाईदास भाई
गड़बडिया
काट्रैक्टर।
यह तो सभी
मंत्रियों का
नाम यही होना
चाहिए। पहले
तो भाईदास भाई
भी कोई नाम
हुआ! न तो भाई
नाम है, न
दास नाम है, भाईदास भाई!
फिर गड़बडिया।
और उसमें भी
जो कमी रह गई, वह
काट्रैक्टर!
राजसी
का एक जगत है, उसका
एक पागलपन है।
वह दौड़ेगा, दौड़ेगा। उसे
कहीं पहुंचना
नहीं है, पहुंचने
से कोई लेना—देना
भी नहीं है।
ऊर्जा है, बेचैनी
है।
फिर
सत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति है, वह
संतुलित है।
वह उतना ही
करता है, जितना
करना जरूरी है।
वह श्रम और
विश्राम के
बीच खड़ा है।
वह सदा श्रम
और विश्राम के
बीच संतुलन को
साधता है।
उसका जीवन
सम्यकत्व की
धारा है।
समत्व, अनतिशय,
निरति, उसके
सूत्र हैं।
वैसा व्यक्ति
ही आकांक्षा
को छोड़ सकता
है, फल की
आसक्ति को।
वैसा व्यक्ति
ही अपने
अहंकार को छोड़
देता है।
क्योंकि जब
तुम फल की आकांक्षा
नहीं करते, तुम्हारा अहंकारगिर
जाता है।
बिना
भविष्य के
अहंकार जीएगा
कैसे? भविष्य
का सहारा चाहिए।
वर्तमान में
तो अहंकार
होता ही नहीं।
इस क्षण बोलो,
कहां है
तुप्तारा
अहंकार? इस
क्षण! इस क्षण
तो भीतर
सन्नाटा है।
तुम खोजो भी, कहां हूं
मैं? कहीं
पाओगे न। कल
है, बड़ा
मकान बनाना है,
बड़ी कार
खरीदनी है; कल है
अहंकार।
चुनाव जीतना
है।
राष्ट्रपति
होना है। कल
है अहंकार।
अभी इसी क्षण
खोजोगे, पाओगे
नहीं।
जितना
भविष्य बड़ा
बनाओगे, उतना
बड़ा अहंकार है।
या अतीत में
है अहंकार। जो
तुमने किया या
जो तुम करोगे,
उन दोनों
में अहंकार है।
लेकिन जो तुम
हो, वहां
कोई अहंकार
नहीं है।
तुम्हारा
होना निरअंहकारपूर्ण
है।
अस्तित्व
की कोई
अस्मिता नहीं
है। अस्तित्व
तो बस, है। बस, होना ही है।
इसलिए
कृष्ण बार—बार
सभी द्वारों
से अर्जुन को
समझाते हुए एक
बात पर लौट
आते हैं; वह
उनके गीत की
टेक है। वे
बार—बार वह
कडी पर लौट
आते हैं, तू
फलाकांक्षा
छोड़ दे, और
परमात्मा जो
कराए तू कर। न
तो तू अपनी
तरफ से करने
वाला हो, न
अपनी तरफ से न
करने वाला हो।
न तो तामस, न
राजस, परमात्मा
जो कराए, तू
कर। तू
निमित्त
मात्र हो जा।
आज
इतना ही।
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