आठवीं
प्रश्नोत्तर
चर्चा:
साधक
की बाधाएं:
प्रश्न:
ओशो कल की
चर्चा में
आपने कहा कि
साधक को पात्र
बनने की पहले
फिकर करनी
चाहिए जगह—
जगह मांगने
नहीं जाना
चाहिए। लेकिन
साधक अर्थात
खोजी का अर्थ
ही है कि उसे
साधना में
बाधाएं हैं।
उसे पता नहीं
है कि कैसे
पात्र बने
कैसे तैयारी
करे। तो वह
मांगने न जाए
तो क्या करे? सही
मार्गदर्शक
से मिलना
कितना
मुश्किल से हो
पाता है।
लेकिन
खोजना और
मांगना दो अलग
बातें हैं।
असल में, जो
खोजना नहीं
चाहता वही मांगता
है। खोजना और
मांगना एक तो
हैं ही नहीं, विपरीत
बातें हैं।
खोजने से जो
बचना चाहता है
वह मांगता है,
खोजी कभी
नहीं मांगता।
और खोज और
मांगने की
प्रक्रिया
बिलकुल अलग है।
मांगने में
दूसरे पर
ध्यान रखना
पड़ेगा—जिससे
मिलेगा। और
खोजने में
अपने पर ध्यान
रखना पड़ेगा—जिसको
मिलेगा।
यह
तो ठीक है कि
साधक के मार्ग
पर बाधाएं हैं।
लेकिन साधक के
मार्ग पर
बाधाएं हैं, अगर
हम ठीक से
समझें तो इसका
मतलब होता है
कि साधक के
भीतर बाधाएं
हैं; मार्ग
भी भीतर है।
और अपनी
बाधाओं को समझ
लेना बहुत
कठिन नहीं है।
तो इस संबंध
में थोड़ी सी
विस्तीर्ण
बात करनी
पड़ेगी कि
बाधाएं क्या
हैं और साधक
उन्हें कैसे
दूर कर सकेगा।
जैसे
मैंने कल सात
शरीरों की बात
कही,
उस संबंध
में कुछ और
बात समझेंगे
तो यह भी समझ में
आ सकेगा।
मूलाधार
चक्र की
संभावनाएं:
जैसे
सात शरीर हैं, ऐसे
ही सात चक्र
भी हैं। और
प्रत्येक एक
चक्र मनुष्य
के एक शरीर से
विशेष रूप से
जुड़ा हुआ है।
जैसे सात शरीर
में जो हमने
कहे— भौतिक
शरीर, फिजिकल
बॉडी, इस
शरीर का जो
चक्र है, वह
मूलाधार है; वह पहला
चक्र है। इस
मूलाधार चक्र
का भौतिक शरीर
से केंद्रीय संबंध
है; यह
भौतिक शरीर का
केंद्र है। इस
मूलाधार चक्र
की दो
संभावनाएं
हैं एक इसकी
प्राकृतिक संभावना
है, जो
हमें जन्म से
मिलती है; और
एक साधना की
संभावना है, जो साधना से
उपलब्ध होती
है।
मूलाधार
चक्र की
प्राथमिक
प्राकृतिक
संभावना
कामवासना है, जो
हमें प्रकृति
से मिलती है; वह भौतिक
शरीर की
केंद्रीय
वासना है। अब
साधक के सामने
पहला ही सवाल
यह उठेगा कि
यह जो
केंद्रीय
तत्व है उसके
भौतिक शरीर का,
इसके लिए
क्या करे? और
इस चक्र की एक
दूसरी
संभावना है, जो साधना से
उपलब्ध होगी,
वह
ब्रह्मचर्य
है। सेक्स
इसकी
प्राकृतिक
संभावना है और
ब्रह्मचर्य
इसका ट्रांसफामेंशन
है, इसका रूपांतरण
है। जितनी
मात्रा में
चित्त
कामवासना से
केंद्रित और
ग्रसित होगा,
उतना ही
मूलाधार अपनी
अंतिम
संभावनाओं को
उपलब्ध नहीं
कर सकेगा।
उसकी अंतिम
संभावना
ब्रह्मचर्य
है। उस चक्र
की दो
संभावनाएं
हैं एक जो
हमें प्रकृति
से मिली, और
एक जो हमें
साधना से
मिलेगी।
न भोग, न
दमन—वरन जागरण:
अब
इसका मतलब यह
हुआ कि जो
हमें प्रकृति
से मिली है
उसके साथ हम
दो काम कर
सकते हैं या
तो जो प्रकृति
से मिला है हम
उसमें जीते
रहें, तब जीवन
में साधना
शुरू नहीं हो
पाएगी; दूसरा
काम जो संभव
है वह यह कि हम
इसे रूपांतरित
करें।
रूपांतरण के
पथ पर जो बड़ा
खतरा है, वह
खतरा यही है
कि कहीं हम
प्राकृतिक
केंद्र से
लड़ने न लगें।
साधक के मार्ग
में खतरा क्या
है? या तो
जो प्राकृतिक
व्यवस्था है
वह उसको भागे,
तब वह उठ
नहीं पाता उस
तक जो चरम
संभावना है—जहां
तक उठा जा
सकता था; भौतिक
शरीर जहां तक
उसे पहुंचा
सकता था वहां
तक वह नहीं
पहुंच पाता; जहां से
शुरू होता है
वहीं अटक जाता
है। तो एक तो
भोग है। दूसरा
दमन है, कि
उससे लड़े। दमन
बाधा है साधक
के मार्ग पर—
पहले केंद्र
की जो बाधा है।
क्योंकि दमन
के द्वारा कभी
ट्रांसफामेंशन,
रूपांतरण
नहीं होता।
दमन
बाधा है तो फिर
साधक क्या
बनेगा? साधन
क्या होगा?
समझ
साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग
साधन बनेगी।
कामवासना को
जो जितना समझ
पाएगा उतना ही
उसके भीतर
रूपांतरण
होने लगेगा।
उसका कारण है.
प्रकृति के
सभी तत्व
हमारे भीतर
अंधे और
मूर्च्छित
हैं। अगर हम
उन तत्वों के
प्रति
होशपूर्ण हो
जाएं तो उनमें
रूपांतरण
होना शुरू हो
जाता है। जैसे
ही हमारे भीतर
कोई चीज जागनी
शुरू होती है
वैसे ही
प्रकृति के
तत्व बदलने
शुरू हो जाते
हैं। जागरण
कीमिया है, अवेयरनेस
केमिस्ट्री
है उनके बदलने
की, रूपांतरण
की।
तो
अगर कोई अपनी
कामवासना के
प्रति पूरे
भाव और पूरे चित्त, पूरी
समझ से जागे, तो उसके
भीतर
कामवासना की
जगह
ब्रह्मचर्य
का जन्म शुरू
हो जाएगा। और
जब तक कोई
पहले शरीर पर
ब्रह्मचर्य
पर न पहुंच
जाए तब तक
दूसरे शरीर की
संभावनाओं के
साथ काम करना
बहुत कठिन है।
स्वाधिष्ठान
चक्र की
संभावनाएं:
दूसरा
शरीर मैंने
कहा था भाव
शरीर या आकाश
शरीर— ईथरिक
बॉडी। दूसरा
शरीर हमारे
दूसरे चक्र से
संबंधित है, स्वाधिष्ठान
चक्र से।
स्वाधिष्ठान
चक्र की भी दो
संभावनाएं
हैं। मूलत:
प्रकृति से जो
संभावना
मिलती है, वह
है भय, घृणा,
क्रोध, हिंसा।
ये सब
स्वाधिष्ठान
चक्र की
प्रकृति से
मिली हुई स्थिति
है। अगर इन पर
ही कोई अटक
जाता है, तो
इसकी जो दूसरी,
इससे
बिलकुल
प्रतिकूल ट्रांसफामेंशन
की स्थिति है—प्रेम,
करुणा, अभय,
मैत्री, वह
संभव नहीं हो
पाता।
साधक
के मार्ग पर, दूसरे
चक्र पर जो
बाधा है, वह
घृणा, क्रोध,
हिंसा, इनके
रूपांतरण का
सवाल है। यहां
भी वही भूल
होगी जो सब
तत्वों पर
होगी। कोई
चाहे तो क्रोध
कर सकता है और
कोई चाहे तो क्रोध
को दबा सकता
है। हम दो ही
काम करते हैं
कोई भयभीत हो
सकता है और कोई
भय को दबाकर
व्यर्थ ही
बहादुरी दिखा
सकता है।
दोनों ही
बातों से
रूपांतरण
नहीं होगा। भय
है, इसे
स्वीकार करना
पड़ेगा; इसे
दबाने, छिपाने
से कोई
प्रयोजन नहीं
है। हिंसा है,
इसे अहिंसा
के बाने पहना
लेने से कोई
फर्क पड़नेवाला
नहीं है; अहिंसा
परम धर्म है, ऐसा
चिल्लाने से
इसमें कोई
फर्क पड़नेवाला
नहीं है।
हिंसा है, वह
हमारे दूसरे शरीर
की प्रकृति से
मिली हुई
संभावना है।
उसका भी उपयोग
है, जैसे
कि सेक्स का
उपयोग है। वह
प्रकृति से
मिली हुई
संभावना है, क्योंकि
सेक्स के
द्वारा ही
दूसरे भौतिक
शरीर को जन्म
दिया जा सकेगा।
यह भौतिक शरीर
मिटे, इसके
पहले दूसरे
भौतिक शरीरों
को जन्म मिल
सके, इसलिए
वह प्रकृति से
दी हुई
संभावना है।
भय, हिंसा,
क्रोध, ये
सब भी दूसरे
तल पर
अनिवार्य हैं,
अन्यथा
मनुष्य बच
नहीं सकता, सुरक्षित
नहीं रह सकता।
भय उसे बचाता
है; क्रोध
उसे संघर्ष
में उतारता है;
हिंसा उसे
साधन देती है
दूसरे की
हिंसा से बचने
का। वे उसके
दूसरे शरीर की
संभावनाएं
हैं।
लेकिन
साधारणत: हम
वहीं रुक जाते
हैं। इन्हें
अगर समझा जा
सके— अगर कोई
भय को समझे, तो
अभय को उपलब्ध
हो जाता है, और अगर कोई
हिंसा को समझे,
तो अहिंसा
को उपलब्ध हो
जाता है, और
अगर कोई क्रोध
को समझे, तो
क्षमा को
उपलब्ध हो
जाता है। असल
में, क्रोध
एक पहलू है और
दूसरा पहलू
क्षमा है, वह
उसी के पीछे
छिपा हुआ पहलू
है, वह
सिक्के का
दूसरा हिस्सा
है। लेकिन
सिक्का उलटे
तब। लेकिन
सिक्का उलट
जाता है। अगर
हम सिक्के के
एक पहलू को
पूरा समझ लें,
तो अपने आप
हमारी जिज्ञासा
उलटाकर
देखने की हो
जाती है दूसरी
तरफ।
लेकिन
हम उसे छिपा
लें और कहें, हमारे
पास है ही
नहीं! भय तो
हममें है ही
नहीं! तो हम
अभय को कभी भी
न देख पाएंगे।
जिसने भय को
स्वीकार कर
लिया और कहा, भय है; और
जिसने भय को
पूरा जांचा—पड़ताला, खोजा, वह
जल्दी ही उस
जगह पहुंच
जाएगा जहां वह
जानना चाहेगा
भय के पीछे
क्या है? जिज्ञासा
उसे उलटाने
को कहेगी कि सिक्के
को उलटाकर
भी देख लो। और
जिस दिन वह उलटाएगा
उस दिन वह अभय
को उपलब्ध हो
जाएगा। ऐसे ही
हिंसा करुणा
में बदल जाएगी।
वे दूसरे शरीर
की साधक के
लिए
संभावनाएं
हैं।
इसलिए
साधक को जो
मिला है
प्रकृति से, उसको
रूपांतरण
करना है। और
इसके लिए किसी
से बहुत पूछने
जाने की जरूरत
नहीं है, अपने
ही भीतर
निरंतर खोजने
और पूछने की
जरूरत है। हम
सब जानते हैं
कि क्रोध बाधा
है, हम सब
जानते हैं, भय बाधा है।
क्योंकि जो
भयभीत है वह
सत्य को खोजने
कैसे जाएगा? भयभीत
मांगने चला
जाएगा। वह
चाहेगा कि
बिना किसी अतात,
अनजान
रास्ते पर जाए,
कोई दे दे
तो अच्छा।
मणिपुर
चक्र की
संभावनाएं:
तीसरा
शरीर मैंने
कहा,
एस्ट्रल
बॉडी है, सूक्ष्म
शरीर है। उस
सूक्ष्म शरीर
के भी दो
हिस्से हैं।
प्राथमिक रूप
से सूक्ष्म
शरीर संदेह, विचार, इनके
आसपास रुका
रहता है। और
अगर ये
रूपांतरित हो
जाएं—संदेह
अगर
रूपांतरित हो
तो श्रद्धा बन
जाता है; और
विचार अगर
रूपांतरित हो
तो विवेक बन
जाता है।
संदेह
को किसी ने
दबाया तो वह
कभी श्रद्धा
को उपलब्ध
नहीं होगा।
हालांकि सभी
तरफ ऐसा
समझाया जाता
है कि संदेह
को दबा डालो, विश्वास
कर लो। जिसने
संदेह को
दबाया और
विश्वास किया,
वह कभी
श्रद्धा को
उपलब्ध नहीं
होगा; उसके
भीतर संदेह
मौजूद ही
रहेगा— दबा
हुआ; भीतर
कीड़े की तरह
सरकता रहेगा
और काम करता
रहेगा। उसका
विश्वास
संदेह के भय
से ही थोपा
हुआ होगा।
न, संदेह
को समझना
पड़ेगा, संदेह
को जीना पड़ेगा,
संदेह के
साथ चलना
पड़ेगा। और
संदेह एक दिन
उस जगह पहुंचा
देता है, जहां
संदेह पर भी
संदेह हो जाता
है। और जिस
दिन संदेह पर
संदेह होता है
उसी दिन श्रद्धा
की शुरुआत हो
जाती है।
विचार को छोड्कर
भी कोई विवेक
को उपलब्ध
नहीं हो सकता।
विचार को छोड़नेवाले
लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे
कहते हैं—विचार
मत करो, विचार
छोड़ ही दो।
अगर कोई विचार
छोड़ेगा, तो
विश्वास और
अंधे विश्वास
को उपलब्ध
होगा। वह
विवेक नहीं है।
विचार की
सूक्ष्मतम
प्रक्रिया से
गुजरकर ही कोई
विवेक को
उपलब्ध होता
है।
विवेक
का क्या मतलब
है?
विचार
में सदा ही
संदेह मौजूद
है। विचार सदा
इनडिसीसिव है।
इसलिए बहुत
विचार
करनेवाले लोग
कभी कुछ तय
नहीं कर पाते।
और जब भी कोई
कुछ तय करता
है,
वह तभी तय
कर पाता है जब
विचार के
चक्कर के बाहर
होता है। डिसीजन
जो है वह
हमेशा विचार
के बाहर से
आता है। अगर
कोई विचार में
पड़ा रहे तो वह
कभी निश्चय नहीं
कर पाता।
विचार के साथ
निश्चय का कोई
संबंध नहीं है।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
विचारहीन बड़े
निश्चयात्मक
होते हैं, और
विचारवान बड़े
निश्चयहीन
होते हैं।
दोनों से खतरा
होता है।
क्योंकि
विचारहीन
बहुत डिसीसिव
होते हैं। वे
जो करते हैं, पूरी ताकत
से करते हैं।
क्योंकि
उनमें विचार
होता ही नहीं
जो जरा भी
संदेह पैदा कर
दे। दुनिया भर
के डाग्मेटिक,
अंधे जितने
लोग हैं, फेनेटिक
जितने लोग हैं,
ये बड़े
कर्मठ होते
हैं; क्योंकि
इनमें शक का
तो सवाल ही
नहीं है, ये
कभी विचार तो
करते नहीं।
अगर इनको ऐसा
लगता है कि एक
हजार आदमी
मारने से
स्वर्ग
मिलेगा, तो
एक हजार एक
मारकर ही फिर
रुकते हैं, उसके पहले
वे नहीं रुकते।
एक दफा उनको
खयाल नहीं आता
कि यह ऐसा— ऐसा
होगा? उनमें
कोई इनडिसीजन
नहीं है।
विचारवान तो
सोचता ही चला
जाता है, सोचता
ही चला जाता
है।
तो
विचार के भय
से अगर कोई
विचार का
द्वार ही बंद
कर दे, तो
सिर्फ अंधे
विश्वास को
उपलब्ध होगा।
अंधा विश्वास
खतरनाक है और
साधक के मार्ग
में बड़ी बाधा
है। चाहिए आंखवाला
विवेक, चाहिए
ऐसा विचार
जिसमें डिसीजन
हो। विवेक का
मतलब इतना ही
होता है।
विवेक का मतलब
है कि विचार
पूरा है, लेकिन
विचार से हम
इतने गुजरे
हैं कि अब
विचार की जो
भी संदेह की, शक की बातें
थीं, वे
विदा हो गई
हैं; अब
धीरे— धीरे
निष्कर्ष में
शुद्ध निश्चय
साथ रह गया है।
तो
तीसरे शरीर का
केंद्र है मणिपुर, चक्र
है मणिपुर।
उस मणिपुर
चक्र के ये दो
रूप हैं.
संदेह और
श्रद्धा।
संदेह
रूपांतरित
होगा तो
श्रद्धा
बनेगी।
लेकिन
ध्यान रखें
श्रद्धा
संदेह के
विपरीत नहीं
है,
शत्रु नहीं
है, श्रद्धा
संदेह का ही
शुद्धतम
विकास है, चरम
विकास है; वह
आखिरी छोर है
जहां संदेह का
सब खो जाता है,
क्योंकि
संदेह स्वयं
पर संदेह बन
जाता है और स्युसाइडल
हो जाता है, आत्मघात कर
लेता है और
श्रद्धा
उपलब्ध होती है।
अनाहत
चक्र की
संभावनाएं:
चौथा
शरीर है हमारा, मेंटल
बॉडी, मनस
शरीर, साइक।
इस चौथे शरीर
के साथ हमारे
चौथे चक्र का
संबंध है, अनाहत
का। चौथा जो
शरीर है, मनस,
इस शरीर का
जो प्राकृतिक
रूप है, वह
है कल्पना—इमेजिनेशन,
स्वप्न— और
ड्रीमिंग।
हमारा मन
स्वभावत: यह
काम करता रहता
हैं—कल्पना
करता है और
सपने देखता है।
रात में भी
सपने देखता है,
दिन में भी
सपने देखता है
और कल्पना
करता रहता है।
इसका
जो चरम विकसित
रूप है, अगर
कल्पना पूरी
तरह से, चरम
रूप से विकसित
हो, तो
संकल्प बन
जाती है, विल
बन जाती है; और अगर
ड्रीमिंग
पूरी तरह से
विकसित हो, तो विजन बन
जाती है, तब
वह साइकिक
विजन हो जाती
है।
अगर
किसी व्यक्ति
की स्वप्न
देखने की
क्षमता पूरी
तरह से विकसित
होकर
रूपांतरित हो, तो
वह आंख बंद
करके भी चीजों
को देखना शुरू
कर देता है।
सपना नहीं
देखता तब वह, तब वह चीजों
को ही देखना
शुरू कर देता
है। वह दीवाल
के पार भी देख
लेता है। अभी
तो दीवाल के
पार का सपना
ही देख सकता
है, लेकिन
तब दीवाल के
पार भी देख
सकता है। अभी
तो आप क्या
सोच रहे होंगे,
यह सोच सकता
है; लेकिन
तब आप क्या
सोच रहे हैं, यह देख सकता
है। विजन का
मतलब यह है कि
इंद्रियों के
बिना अब उसे
चीजें दिखाई पड़नी और
सुनाई पड़नी
शुरू हो जाती
हैं। टाइम और
स्पेस के, काल
और स्थान के
जो फासले हैं,
उसके लिए
मिट जाते हैं।
सपने
में भी आप
जाते हैं।
सपने में आप
बंबई में हैं, कलकत्ता
जा सकते हैं।
और विजन में
भी जा सकते
हैं। लेकिन
दोनों में
फर्क होगा।
सपने में
सिर्फ खयाल है
कि आप कलकत्ता
गए, विजन
में आप चले ही
जाएंगे। वह जो
चौथी साइकिक
बॉडी है, वह
मौजूद हो सकती
है।
इसलिए
पुराने जगत
में जो सपनों
के संबंध में
खयाल था—वह
धीरे— धीरे
छूट गया और
नये समझदार
लोगों ने उसे
इनकार कर दिया; क्योंकि
हमें चौथे
शरीर की चरम संभावना
का कोई पता
नहीं रहा—सपने
के संबंध में
पुराना अनुभव
यही था कि सपने
में आदमी का
कोई शरीर
निकलकर बाहर
चला जाता है
यात्रा पर।
स्वीडनबर्ग एक
आदमी था। उसे
लोग सपना
देखनेवाला
आदमी ही समझते
थे। क्योंकि
वह स्वर्ग—नरक
की बातें भी
कहता था, और
स्वर्ग—नरक की
बातें सपना ही
हो सकती हैं!
लेकिन एक दिन
दोपहर वह सोया
था, और
उसने दोपहर
एकदम उठकर कहा
कि बचाओ, आग
लग गई है! बचाओ,
आग लग गई है!
घर के लोग आ गए,
वहां कोई आग
नहीं लगी थी।
तो उसको
उन्होंने
जगाया और कहा
कि तुम नींद में
हो या सपना
देख रहे हो? आग कहीं भी
नहीं लगी है!
उसने कहा, नहीं,
मेरे घर में
आग लग गई है।
तीन सौ मील
दूर था उसका
घर, लेकिन
उसके घर में
उस वक्त आग लग
गई थी। दूसरे—तीसरे
दिन तक खबर आई
कि उसका घर
जलकर बिलकुल राख
हो गया। और जब
वह सपने में
चिल्लाया था
तभी आग लगी थी।
अब
यह सपना न रहा, यह
विजन हो गया।
अब तीन सौ मील
का जो फासला
था वह गिर गया
और इस आदमी ने तीन
सौ मील दूर जो
हो रहा था वह
देखा।
विज्ञान
के समक्ष
अतींद्रिय
घटनाएं:
अब
तो वैज्ञानिक
भी इस बात के
लिए राजी हो
गए हैं कि
चौथे शरीर की
बड़ी साइकिक
संभावनाएं
हैं। और चूंकि
स्पेस ट्रेवेल
की वजह से
उन्हें बहुत
समझकर काम
करना पड़ रहा
है;
क्योंकि आज
नहीं कल यह
कठिनाई खड़ी हो
जाने ही वाली
है कि जिन
यात्रियों को
हम अंतरिक्ष
की यात्रा पर
भेजेंगे— मशीन
कितने ही
भरोसे की हो, फिर भी
भरोसे की नहीं
है— अगर उनके
यंत्र जरा भी
बिगड़ गए, उनके
रेडियो यंत्र,
तो हमसे
उनका संबंध सदा
के लिए टूट
जाएगा; फिर
वे हमें खबर
भी न दे
पाएंगे कि वे
कहां गए और
उनका क्या हुआ।
इसलिए वैज्ञानिक
इस समय बहुत
उत्सुक हैं कि
यह साइकिक, चौथे शरीर
का अगर विजन
का मामला संभव
हो सके और
टेलीपैथी का
मामला संभव हो
सके— वह भी
चौथे शरीर की
आखिरी
संभावनाओं का
एक हिस्सा है—कि
अगर वे यात्री
बिना रेडियो
यंत्रों के
हमें सीधी टेलिपैथक
खबर दे सकें, तो कुछ बचाव
हो सकता है।
इस
पर काफी काम
हुआ है। आज से
कोई तीस साल
पहले एक
यात्री उत्तर
ध्रुव की खोज
पर गया था। तो
रेडियो
यंत्रों की
व्यवस्था थी
जिनसे वह खबर
देता, लेकिन
एक और व्यवस्था
थी जो अभी— अभी
प्रकट हुई है।
और वह
व्यवस्था यह
थी कि एक
साइकिक आदमी
को, एक ऐसे
आदमी को जिसके
चौथे शरीर की
दूसरी संभावनाएं
काम करती थीं,
उसको भी
नियत किया गया
था कि वह उसको
भी खबरें दे।
और
बड़े मजे की
बात यह है कि
जिस दिन पानी, हवा,
मौसम खराब होता
और रेडियो में
खबरें न मिलती,
उस दिन भी
उसे तो खबरें
मिलती। और जब
पीछे सब डायरी
मिलाई गईं, तो कम से कम
अस्सी से पंचानबे
प्रतिशत के
बीच उसने जो
साइकिक आदमी
ने जो माध्यम
की तरह ग्रहण
की थीं, वे
सही थीं। और
मजा यह है कि
रेडियो ने जो
खबर की थीं, वह भी
बहत्तर प्रतिशत
से ज्यादा ऊपर
नहीं गई थीं, क्योंकि इस
बीच कभी कुछ
गड़बड़ हुई, कभी
कुछ हुई, तो
बहुत सी चीजें
छूट गई थीं।
और
अभी तो रूस और
अमेरिका
दोनों अति
उत्सुक हैं उस
संबंध में।
इसलिए
टेलीपैथी और क्लेअरवायंस
और थॉट रीडिंग
और थॉट प्रोजेक्शन
, इन पर बहुत
काम चलता है।
वे हमारे चौथे
शरीर की
संभावनाएं
हैं। स्वप्न
देखना उसकी
प्राकृतिक
संभावना है; सत्य देखना,
यथार्थ
देखना उसकी
चरम संभावना
है। यह अनाहत
हमारा चौथा
चक्र है।
विशुद्ध
चक्र की
संभावनाएं:
पांचवां
चक्र है
विशुद्ध; वह
कंठ के पास है।
और पांचवां
शरीर है स्प्रिचुयूल
बॉडी, आत्म
शरीर। वह उसका
चक्र है, वह
उस शरीर से
संबंधित है।
अब तक जो चार
शरीर की मैंने
बात की और चार
चक्रों की, वे द्वैत
में बंटे हुए
थे। पांचवें
शरीर से द्वैत
समाप्त हो
जाता है। जैसा
मैंने कल कहा
था कि चार
शरीर तक मेल
और फीमेल का
फर्क होता है
बॉडी में; पांचवें
शरीर से मेल
और फीमेल का, स्त्री और
पुरुष का फर्क
समाप्त हो
जाता है। अगर
बहुत गौर से
देखें तो सब
द्वैत स्त्री
और पुरुष का
है; द्वैत
मात्र, डुआलिटी मात्र
स्त्री—पुरुष
की है। और जिस
जगह से स्त्री—पुरुष
का फासला खत्म
होता है, उसी
जगह से सब
द्वैत खत्म हो
जाता है।
पांचवां शरीर
अद्वैत है।
उसकी दो
संभावनाएं
नहीं हैं, उसकी
एक ही संभावना
है।
इसलिए
चौथे के बाद
साधक के लिए
बड़ा काम नहीं
है,
सारा काम
चौथे तक है।
चौथे के बाद
बड़ा काम नहीं
है। बड़ा इस
अर्थों में कि
विपरीत कुछ भी
नहीं है वहां।
वहां प्रवेश
ही करना है।
और चौथे तक
पहुंचते—पहुंचते
इतनी
सामर्थ्य
इकट्ठी हो
जाती है कि पांचवें
में सहज
प्रवेश हो
जाता है।
लेकिन
प्रवेश न हो
और हो, तो क्या
फर्क होगा? पांचवें
शरीर में कोई
द्वैत नहीं है।
लेकिन कोई
साधक जो...... .एक
व्यक्ति अभी
प्रवेश नहीं
किया है, उसमें
क्या फर्क है?
और जो
प्रवेश कर गया
है, उसमें
क्या फर्क है?
इनमें
फर्क होगा। वह
फर्क इतना
होगा कि जो
पांचवें शरीर
में प्रवेश
करेगा उसकी
समस्त तरह की
मूर्च्छा टूट
जाएगी; वह
रात भी नहीं
सो सकेगा।
सोएगा, शरीर
ही सोया रहेगा;
भीतर उसके
कोई सतत जागता
रहेगा। अगर
उसने करवट भी
बदली है तो वह
जानता है, नहीं
बदली है तो
जानता है, अगर
उसने कंबल ओढ़ा
है तो जानता
है, नहीं ओढ़ा है तो
जानता है।
उसका जानना
निद्रा में भी
शिथिल नहीं
होगा; वह
चौबीस घंटे
जागरूक होगा।
जिनका
नहीं पांचवें
शरीर में
प्रवेश हुआ, उनकी
स्थिति
बिलकुल उलटी
होगी. वे नींद
में तो सोए
हुए होंगे ही,
जिसको हम
जागना कहते
हैं, उसमें
भी एक पर्त
उनकी सोई ही
रहेगी।
आदमी की
मूर्च्छा और
यांत्रिकता:
काम
करते हुए
दिखाई पड़ते
हैं लोग। आप
अपने घर आते
हैं,
कार का
घूमना बाएं और
आपके घर के
सामने आकर ब्रेक
का लग जाना, तो आप यह मत
समझ लेना कि
आप सब होश में
कर रहे हैं! यह
सब बिलकुल
आदतन, बेहोशी
में होता रहता
है। कभी—कभी
किन्हीं
क्षणों में हम
होश में आते
हैं, बहुत
खतरे के
क्षणों में!
जब खतरा इतना
होता है कि
नींद से नहीं
चल सकता—कि एक
आदमी आपकी
छाती पर छुरा
रख दे—तब आप एक
सेकेंड को होश
में आते हैं।
एक सेकेंड को
वह छुरे की
धार आपको
पांचवें शरीर तक
पहुंचा देती
है। लेकिन बस,
ऐसे दो—चार
क्षण जिंदगी
में होते हैं,
अन्यथा
साधारणत: हम
सोए—सोए ही
जीते हैं।
न
तो पति अपनी
पत्नी का
चेहरा देखा है
ठीक से, कि
अगर अभी आंख
बंद करके सोचे
तो खयाल कर
पाए। नहीं कर
पाएगा। रेखाएं
थोड़ी देर में
ही इधर—उधर हट
जाएंगी और
पक्का नहीं हो
पाएगा कि यह मेरी
पत्नी का
चेहरा है
जिसको तीस साल
से मैं देखा
हूं। देखा ही
नहीं है कभी।
क्योंकि
देखने के लिए
भीतर कोई जागा
हुआ आदमी
चाहिए।
सोया
हुआ आदमी, दिखाई
पड रहा है कि
देख रहा है, लेकिन वह
देख नहीं रहा
है। उसके भीतर
तो नींद चल
रही है, और
सपने भी चल
रहे हैं। उस
नींद में सब
चल रहा है। आप
क्रोध करते
हैं और पीछे
कहते हैं कि
पता नहीं कैसे
हो गया! मैं तो
नहीं करना
चाहता था।
जैसे कि कोई
और कर गया हो।
आप कहते हैं, यह मुंह से
मेरे गाली
निकल गई, माफ
करना, मैं
तो नहीं देना
चाहता था, कोई
जबान खिसक गई
होगी। आपने ही
गाली दी, आप
ही कहते हैं
कि मैं नहीं
देना चाहता था।
हत्यारे हैं,
जो कहते हैं
कि पता नहीं, इंसपाइट ऑफ अस, हमारे
बावजूद हत्या
हो गई; हम
तो करना ही
नहीं चाहते थे,
बस ऐसा हो
गया।
तो
हम कोई आटोमेटा
हैं?
यंत्रवत चल
रहे हैं? जो
नहीं बोलना है
वह बोलते हैं,
जो नहीं
करना है वह
करते हैं।
सांझ को तय
करते हैं :
सुबह चार बजे
उठेंगे! कसम खा
लेते हैं।
सुबह चार बजे
हम खुद ही
कहते हैं कि
क्या रखा है!
अभी सोओ, कल
देखेंगे।
सुबह छह बजे
उठकर फिर
पछताते हैं और
हम ही कहते
हैं कि बड़ी
गलती हो गई।
ऐसा कभी नहीं
करेंगे, अब
कल तो उठना ही
है, जो कसम
खाई थी उसको
निभाना था।
आश्चर्य
की बात है, शाम
को जिस आदमी
ने तय किया था,
सुबह चार
बजे वही आदमी
बदल कैसे गया?
फिर सुबह
चार बजे तय
किया था तो
फिर छह बजे
कैसे बदल गया?
फिर सुबह छह
बजे जो तय किया
है, फिर
सांझ तक बदल
जाता है। सांझ
बहुत दूर है, उस बीच
पच्चीस दफे
बदल जाता है।
न, ये
निर्णय, ये
खयाल, हमारी
नींद में आए
हुए खयाल हैं,
सपनों की
तरह। बहुत
बबूलों की तरह
बनते हैं और
टूट जाते हैं।
कोई जागा हुआ
आदमी पीछे
नहीं है, कोई
होश से भरा
हुआ आदमी पीछे
नहीं है।
तो
नींद आत्मिक
शरीर में
प्रवेश के
पहले की सहज
अवस्था है—नींद, सोया
हुआ होना। और
आत्म शरीर में
प्रवेश के बाद
की सहज अवस्था
है जागृति।
इसलिए चौथे
शरीर के बाद
हम व्यक्ति को
बुद्ध कह सकते
हैं। चौथे
शरीर के बाद
जागना आ गया।
अब आदमी जागा
हुआ है। बुद्ध,
गौतम
सिद्धार्थ का
नाम नहीं है, पांचवें
शरीर की
उपलब्धि के
बाद दिया गया
विशेषण है—गौतम
दि बुद्धा!
गौतम जो जाग
गया, यह
मतलब है उसका।
नाम तो गौतम
ही है, लेकिन
वह गौतम सोए
हुए आदमी का
नाम था। इसलिए
फिर धीरे—
धीरे उसको
गिरा दिया और
बुद्ध ही रह
गया।
सोए हुए आदमियों
की दुनिया:
यह
हमारे
पांचवें शरीर
का फर्क, उसमें
प्रवेश के
पहले आदमी
सोया—सोया है,
वह स्लीपी
है। वह जो भी
कर रहा है, वे
नींद में किए
गए कृत्य हैं।
उसकी बातों का
कोई भरोसा
नहीं, वह
जो कह रहा है, वह विश्वास
के योग्य नहीं,
उसकी प्रामिस
का कोई मूल्य
नहीं, उसके
दिए गए वचन को
मानने का कोई
अर्थ नहीं। वह
कहता है कि
मैं जीवन भर
प्रेम करूंगा!
और अभी दो
क्षण बाद हो
सकता है कि वह
गला घोंट दे।
वह कहता है, यह संबंध
जन्मों—जन्मों
तक रहेगा! यह
दो क्षण न
टिके। उसका
कोई कसूर भी
नहीं है, नींद
में दिए गए
वचन का क्या
मूल्य है? रात
सपने में मैं
किसी को वचन
दे दूं कि
जीवन भर यह
संबंध रहेगा,
इसका क्या
मूल्य है? सुबह
मैं कहता हूं
सपना था।
सोए
हुए आदमी का
कोई भी भरोसा
नहीं है। और
हमारी पूरी
दुनिया सोए
हुए आदमियों
की दुनिया है।
इसलिए इतना कनक्यूजन, इतनी
कांफ्लिक्ट,
इतना
द्वंद्व, इतना
झगड़ा, इतना
उपद्रव, ये
सोए हुए आदमी
पैदा कर रहे
हैं।
सोए
हुए आदमी और
जागे हुए आदमी
में एक और
फर्क पड़ेगा, वह
भी हमें खयाल
में ले लेना
चाहिए। चूकि
सोए हुए आदमी
को यह कभी पता
नहीं चलता कि
मैं कौन हूं
इसलिए वह पूरे
वक्त इस कोशिश
में लगा रहता
है कि मैं किसी
को बता दूं कि
मैं यह हूं!
पूरे वक्त लगा
रहता है। उसे
खुद ही पता
नहीं कि मैं
कौन हूं इसलिए
पूरे वक्त वह
हजार—हजार
रास्तों से......
कभी राजनीति
के किसी पद पर
सवार होकर
लोगों को
दिखाता है कि
मैं यह हूं
कभी एक बड़ा
मकान बनाकर
दिखाता है कि
मैं यह हूं
कभी पहाड़ पर चढ़कर
दिखाता है कि
मैं यह हूं वह
सब तरफ से
कोशिश कर रहा
है कि लोगों
को बता दे कि
मैं यह हूं।
और इस सब
कोशिश से वह
घूमकर अपने को
जानने की कोशिश
कर रहा है कि
मैं हूं कौन? मैं हूं कौन,
यह उसे पता
नहीं है।
'मैं
कौन हूं' का
उत्तर:
चौथे
शरीर के पहले
इसका कोई पता
नहीं चलेगा।
पांचवें शरीर
को आत्म शरीर
इसीलिए कह रहे
हैं कि वहां
तुम्हें पता
चलेगा कि तुम
कौन हो। इसलिए
पांचवें शरीर
के बाद 'मैं' की आवाजें
एकदम बंद हो
जाएंगी।
पांचवें शरीर
के बाद वह समबडी
होने का दावा
एकदम समाप्त
हो जाएगा।
उसके बाद अगर
तुम उससे कहोगे
कि तुम यह हो, तो वह
हंसेगा। और
अपनी तरफ से
उसके दावे
खत्म हो
जाएंगे; क्योंकि
अब वह जानता
है, अब
दावे करने की
कोई जरूरत
नहीं। अब किसी
के सामने
सिद्ध करने की
कोई जरूरत नहीं;
अपने ही
सामने सिद्ध
हो गया है कि
मैं कौन हूं।
इसलिए
पांचवें शरीर
के भीतर कोई
द्वंद्व नहीं
है;
लेकिन
पांचवें शरीर
के बाहर और
भीतर गए आदमी
में बुनियादी
फर्क है; द्वंद्व
अगर है तो इस
भांति है—बाहर
और भीतर में।
भीतर, पांचवें
शरीर में गए
आदमी में कोई
द्वंद्व नहीं
है।
पांचवां
शरीर बहुत ही तृप्तिदायी:
लेकिन
पांचवें शरीर
का अपना खतरा
है कि चाहो तो
तुम वहां रुक
सकते हो; क्योंकि
तुमने अपने को
जान लिया। और
यह इतनी तृप्तिदायी
स्थिति है और
इतनी
आनंदपूर्ण, कि शायद तुम
आगे की गति न
करो। अब तक जो
खतरे थे वे
दुख के थे, अब
जो खतरा शुरू
होता है वह
आनंद का है।
पांचवें शरीर
के पहले जितने
खतरे थे वे सब
दुख के थे, अब
जो खतरा शुरू
होता है वह
आनंद का है।
यह इतना आनंदपूर्ण
है कि अब शायद
तुम आगे खोजो
ही न।
इसलिए
पांचवें शरीर
में गए
व्यक्ति के
लिए अत्यंत
सजगता जो रखनी
है वह यह कि
आनंद कहीं पकड़
न ले,
रोकनेवाला
न बन जाए। और
आनंद परम है।
यहां आनंद
अपनी पूरी
ऊंचाई पर
प्रकट होगा; अपनी पूरी
गहराई में
प्रकट होगा।
एक बड़ी
क्रांति घटित
हो गई है तुम
अपने को जान लिए
हो। लेकिन
अपने को ही
जाने हो। और
तुम ही नहीं
हो, और भी
सब हैं। लेकिन
बहुत बार ऐसा
होता है कि
दुख रोकनेवाले
सिद्ध नहीं
होते, सुख रोकनेवाले
सिद्ध हो जाते
हैं; और आनंद
तो बहुत
रोकनेवाला
सिद्ध हो जाता
है। बाजार की
भीड़— भाड़ तक को
छोड़ने में
कठिनाई थी, अब इस मंदिर
में बजती वीणा
को छोड़ने में
तो बहुत
कठिनाई हो
जाएगी। इसलिए
बहुत से साधक
आत्मज्ञान पर
रुक जाते हैं
और
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हो पाते।
आनंद
में लीन मत हो
जाना:
तो
इस आनंद के
प्रति भी सजग
होना पडेगा।
यहां भी काम
वही है कि
आनंद में लीन
मत हो जाना।
आनंद लीन करता
है,
तल्लीन
करता है, डुबा
लेता है। आनंद
में लीन मत हो
जाना। आनंद के
अनुभव को भी
जानना कि वह
भी एक अनुभव है—जैसे
सुख के अनुभव
थे, दुख के
अनुभव थे, वैसा
आनंद का भी
अनुभव है।
लेकिन तुम अभी
भी बाहर खड़े
रहना, तुम
इसके भी
साक्षी बन
जाना।
क्योंकि जब तक
अनुभव है, तब
तक उपाधि है; और जब तक
अनुभव है, तब
तक अंतिम छोर
नहीं आया।
अंतिम छोर पर
सब अनुभव
समाप्त हो
जाएंगे। सुख
और दुख तो
समाप्त होते
ही हैं, आनंद
भी समाप्त हो
जाता है।
लेकिन हमारी
भाषा इसके आगे
फिर नहीं जा
पाती। इसलिए
हमने
परमात्मा का
रूप
सच्चिदानंद
कहा है। यह
परमात्मा का
रूप नहीं है, यह जहां तक
भाषा जाती है
वहां तक। आनंद
हमारी आखिरी
भाषा है।
असल
में,
पांचवें
शरीर के आगे
फिर भाषा नहीं
जाती। तो
पांचवें शरीर
के संबंध में
कुछ कहा जा
सकता है— आनंद
है वहां, पूर्ण
जागृति है
वहां, स्वबोध
है वहां; यह
सब कहा जा
सकता है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
आत्मवाद
के बाद
रहस्यवाद:
इसलिए
जो आत्मवाद पर
रुक जाते हैं
उनकी बातों में
मिस्टिसिज्म
नहीं होगा।
इसलिए
आत्मवाद पर
रुक गए लोगों
में कोई रहस्य
नहीं होगा; उनकी
बातें बिलकुल
साइंस जैसी
मालूम पड़ेगी;
क्योंकि मिस्ट्री
की दुनिया तो
इसके आगे है, रहस्य तो
इसके आगे है।
यहां तक तो
चीजें साफ हो
सकती हैं। और
मेरी समझ है
कि जो लोग
आत्मवाद पर
रुक जाते हैं,
आज नहीं कल,
उनके धर्म
को विज्ञान
आत्मसात कर
लेगा; क्योंकि
आत्म तक
विज्ञान भी
पहुंच सकेगा।
सत्य
का खोजी आत्मा
पर नहीं रूकेगा:
और
आमतौर से साधक
जब खोज पर
निकलता है तो
उसकी खोज सत्य
की नहीं होती, आमतौर
से आनंद की
होती है। वह
कहता है सत्य
की खोज पर
निकला हूं
लेकिन खोज
उसकी आनंद की
होती है। दुख
से परेशान है,
अशांति से
परेशान है, वह आनंद खोज
रहा है। इसलिए
जो आनंद खोजने
निकला है, वह
तो निश्चित ही
इस पांचवें
शरीर पर रुक
जाएगा। इसलिए
एक बात और
कहता हूं कि
खोज आनंद की
नहीं, सत्य
की करना। तब
फिर रुकना
नहीं होगा।
तब
एक सवाल नया
उठेगा कि आनंद
है,
यह ठीक, मैं
अपने को जान
रहा हूं यह भी
ठीक; लेकिन
ये वृक्ष के
फूल हैं, वृक्ष
के पत्ते हैं,
जड़ें कहां
हैं? मैं
अपने को जान
रहा हूं यह भी
ठीक; मैं
आनंदित हूं यह
भी ठीक, लेकिन
मैं कहां से
हूं? फ्रॉम
व्हेयर? मेरी
जड़ें कहां हैं?
मैं आया
कहां से? मेरे
अस्तित्व की
गहराई कहां है?
कहां से मैं
आ रहा हूं। यह
जो मेरी लहर
है, यह किस
सागर से उठी
है?
सत्य
की अगर
जिज्ञासा है, तो
पांचवें शरीर
से आगे जा
सकोगे। इसलिए
बहुत
प्राथमिक रूप
से ही, प्रारंभ
से ही
जिज्ञासा
सत्य की चाहिए,
आनंद की
नहीं। नहीं तो
पांचवें तक तो
बड़ी अच्छी
यात्रा होगी,
पांचवें पर
एकदम रुक
जाएगी बात।
सत्य की अगर
खोज है तो
यहां रुकने का
सवाल नहीं है।
तो
पांचवें शरीर
में जो सबसे
बड़ी बाधा है, वह
उसका अपूर्व
आनंद है। और
हम एक ऐसी
दुनिया से आते
हैं, जहां
दुख और पीड़ा
और चिंता और
तनाव के सिवाय
कुछ भी नहीं
जाना। और जब
इस आनंद के
मंदिर में
प्रविष्ट
होते हैं तो
मन होता है कि
अब बिलकुल डूब
जाओ, अब खो
ही जाओ, इस
आनंद में नाचो
और खो जाओ।
खो
जाने की यह
जगह नहीं है।
खो जाने की
जगह भी आएगी, लेकिन
तब खोना न
पड़ेगा, खो
ही जाओगे। वह
बहुत और है—खोना
और खो ही जाना।
यानी वह जगह
आएगी जहां
बचाना भी
चाहोगे तो
नहीं बच सकोगे।
देखोगे
खोते हुए अपने
को, कोई
उपाय न रह
जाएगा। लेकिन
यहां खोना हो
सकता है, यहां
भी खो सकते
हैं हम। लेकिन
वह उसमें भी
हमारा प्रयास,
हमारी
चेष्टा... और
बहुत गहरे में—
अहंकार तो मिट
जाएगा
पांचवें शरीर
में— अस्मिता
नहीं मिटेगी।
इसलिए अहंकार
और अस्मिता का
थोड़ा सा फर्क
समझ लेना
जरूरी है।
आत्म
शरीर में
अहंकार नहीं, अस्मिता
रह जाएगी:
अहंकार
तो मिट जाएगा, ' मैं
' का भाव तो
मिट जाएगा।
लेकिन ' हूं?
का भाव नहीं
मिटेगा। मैं
हूं इसमें दो
चीजें हैं— ' मैं' तो
अहंकार है, और ' हूं
अस्मिता है—होने
का बोध। ' मैं'
तो मिट
जाएगा
पांचवें शरीर
में, सिर्फ
होना रह जाएगा,
' हूं' रह
जाएगा; अस्मिता
रह जाएगी।
इसलिए
इस जगह पर खड़े
होकर अगर कोई
दुनिया के बाबत
कुछ कहेगा तो
वह कहेगा, अनंत
आत्माएं हैं,
सबकी
आत्माएं अलग
हैं; आत्मा
एक नहीं है, प्रत्येक की
आत्मा अलग है।
इस जगह से
आत्मवादी
अनेक आत्माओं
को अनुभव करेगा;
क्योंकि
अपने को वह
अस्मिता में
देख रहा है, अभी भी अलग
है।
अगर
सत्य की खोज
मन में हो और
आनंद में
डूबने की बाधा
से बचा जा सके..
.बचा जा सकता
है;
क्योंकि जब
सतत आनंद रहता
है तो उबानेवाला
हो जाता है।
आनंद भी उबानेवाला
हो जाता है; एक ही स्वर
बजता रहे आनंद
का तो वह भी उबानेवाला
हो जाता है।
बर्ट्रेड
रसेल ने कहीं
मजाक में यह
कहा है कि मैं
मोक्ष जाना
पसंद नहीं
करूंगा, क्योंकि
मैं सुनता हूं
कि वहां सिर्फ
आनंद है, और
कुछ भी नहीं।
तो वह तो बहुत
मोनोटोनस
होगा, कि
आनंद ही आनंद
है, उसमें
एक दुख की
रेखा भी बीच
में न होगी, उसमें कोई
चिंता और तनाव
न होगा। तो
कितनी देर तक
ऐसे आनंद को
झेल पाएंगे?
आनंद
की लीनता बाधा
है पांचवें
शरीर में। फिर, अगर
आनंद की लीनता
से बच सकते हो—
जो कि कठिन है,
और कई बार
जन्म—जन्म लग
जाते हैं।
पहली चार सीढ़ियां
पार करना इतना
कठिन नहीं, पांचवीं सीढ़ी पार
करना बहुत
कठिन हो जाता
है; बहुत
जन्म लग सकते
हैं— आनंद से
ऊबने के लिए, और स्वयं से
ऊबने के लिए, आत्म से
ऊबने के लिए, वह जो सेल्फ
है उससे ऊबने
के लिए।
तो
अभी पांचवें
शरीर तक जो
खोज है, वह
दुख से छूटने
की हैं—घृणा
से छूटने की, हिंसा से
छूटने की, वासना
से छूटने की।
पांचवें के
बाद जो खोज है,
वह स्वयं से
छूटने की है।
तो दो बातें
हैं। फ्रीडम
फ्रॉम समथिंग—किसी
चीज से मुक्ति,
यह एक बात
है; यह
पांचवें तक
पूरी होगी।
फिर दूसरी बात
है—किसी से
मुक्ति नहीं,
अपने से ही
मुक्ति। और
इसलिए
पांचवें शरीर
से एक नया ही
जगत शुरू होता
है।
आज्ञा
चक्र की
संभावना:
छठवां
शरीर ब्रह्म
शरीर है, कास्मिक
बॉडी है; और
छठवां
केंद्र आज्ञा
है। अब यहां
से कोई द्वैत
नहीं है। आनंद
का अनुभव
पांचवें शरीर
पर प्रगाढ़
होगा, अस्तित्व
का अनुभव
छठवें शरीर पर
प्रगाढ़
होगा—एक्सिस्टेंस
का, बीइंग
का। अस्मिता
खो जाएगी
छठवें शरीर पर।
' हूं ', यह
भी चला जाएगा—
है! मैं हूं—तो '
मैं ' चला
जाएगा
पांचवें शरीर
पर, ' हूं ' चला जाएगा
पांचवें को
पार करते ही।
है! इज़नेस
का बोध होगा, तथाता का
बोध होगा— ऐसा
है। उसमें मैं
कहीं भी नहीं आऊंगा, उसमें
अस्मिता कहीं
नहीं आएगी। जो
है, दैट
व्हिच इज,
बस वही हो
जाएगा।
तो
यहां सत् का
बोध होगा, बीइंग
का होगा, चित्
का बोध होगा, कांशसनेस का
बोध होगा।
लेकिन यहां
चित् मुझसे
मुक्त हो गया।
ऐसा नहीं कि
मेरी चेतना।
चेतना! मेरा
अस्तित्व—ऐसा
नहीं।
अस्तित्व!
ब्रह्म
का भी
अतिक्रमण
करने पर
निर्वाण काया में
प्रवेश:
और
कुछ लोग छठवें
पर रुक जाएंगे।
क्योंकि
कास्मिक बॉडी
आ गई,
ब्रह्म हो
गया मैं, अहं
ब्रह्मास्मि
की हालत आ गई।
अब मैं नहीं
रहा, ब्रह्म
ही रह गया है।
अब और कहां
खोज? अब
कैसी खोज? अब
किसको खोजना
है? अब तो
खोजने को भी
कुछ नहीं बचा,
अब तो सब पा
लिया; क्योंकि
ब्रह्म का
मतलब है—दि
टोटल; सब।
इस
जगह से खड़े
होकर
जिन्होंने
कहा है, वे
कहेंगे कि
ब्रह्म अंतिम
सत्य है, वह
एब्लोल्युट
है, उसके
आगे फिर कुछ
भी नहीं। और
इसलिए इस पर
तो अनंत जन्म
रुक सकता है
कोई आदमी।
आमतौर से रुक
जाता है; क्योंकि
इसके आगे तो
सूझ में ही
नहीं आता कि इसके
आगे भी कुछ हो
सकता है।
तो
ब्रह्मज्ञानी
इस पर अटक
जाएगा, इसके
आगे वह नहीं
जाएगा। और यह
इतना कठिन है
इसको पार करना—इस
जगह को पार
करना—क्योंकि
अब बचती ही
नहीं कोई जगह
जहां इसको पार
करो। सब तो
घेर लिया, जगह
भी चाहिए न!
अगर मैं इस
कमरे के बाहर
जाऊं, तो
बाहर जगह भी
तो चाहिए! अब
यह कमरा इतना
विराट हो गया—
अंतहीन, अनंत
हो गया; असीम,
अनादि हो
गया; अब
जाने को भी
कोई जगह नहीं,
नो व्हेयर
टु गो। तो अब
खोजने भी कहां
जाओगे? अब
खोजने को भी
कुछ नहीं बचा,
सब आ गया।
तो यहां अनंत
जन्म तक रुकना
हो सकता है।
परम खोज
में आखिरी
बाधा ब्रह्म:
तो
ब्रह्म आखिरी
बाधा है—दि
लास्ट बैरियर।
साधक की परम
खोज में
ब्रह्म आखिरी
बाधा है।
बीइंग रह गया
है अब, लेकिन
अभी भी नॉन—बीइंग
भी है शेष; ' अस्ति'
तो जान ली, ' है' तो
जान लिया, लेकिन
' नहीं है', अभी वह
जानने को शेष
रह गया। इसलिए
सातवां शरीर
है निर्वाण
काया। उसका
चक्र है
सहस्रार। और
उसके संबंध
में कोई बात
नहीं हो सकती।
ब्रह्म तक बात
जा सकती है—
खींच—तानकर; गलत हो
जाएगी बहुत।
छठवें
शरीर में
तीसरी आंख का
खुलना:
पांचवें
शरीर तक बात
बड़ी
वैज्ञानिक
ढंग से चलती
है;
सारी बात
साफ हो सकती
है। छठवें
शरीर पर बात
की सीमाएं
खोने लगती हैं,
शब्द
अर्थहीन होने
लगता है, लेकिन
फिर भी इशारे
किए जा सकते
हैं। लेकिन अब
अंगुली भी टूट
जाती है, अब
इशारे गिर
जाते हैं; क्योंकि
अब खुद का
होना ही गिर
जाता है।
तो
एकोल्युट
बीइंग को
छठवें शरीर तक
और छठवें
केंद्र से जाना
जा सकता है।
इसलिए
जो लोग ब्रह्म
की तलाश में
हैं,
आशा चक्र पर
ध्यान करेंगे।
वह उसका चक्र
है। इसलिए
भृकुटी—मध्य
में आशा चक्र
पर वे ध्यान
करेंगे; वह
उससे संबंधित
चक्र है उस
शरीर का। और
वहां जो उस
चक्र पर पूरा
काम करेंगे, तो वहां से
उन्हें जो
दिखाई पड़ना
शुरू होगा
विस्तार अनंत
का, उसको
वे तृतीय
नेत्र और थर्ड
आई कहना शुरू
कर देंगे।
वहां से वह
तीसरी आंख
उनके पास आई, जहां से वे
अनंत को, कास्मिक
को देखना शुरू
कर देते हैं।
सहस्रार
चक्र की
संभावना:
लेकिन
अभी एक और शेष
रह गया—न होना, नॉन—बीइंग,
नास्ति।
अस्तित्व जो
है वह आधी बात
है, अनस्तित्व
भी है; प्रकाश
जो है वह आधी
बात है, अंधकार
भी है, जीवन
जो है वह आधी
बात है, मृत्यु
भी है। इसलिए
आखिरी
अनस्तित्व को,
शून्य को भी
जानने की.....क्योंकि
परम सत्य तभी
पता चलेगा जब
दोनों जान लिए—
अस्ति भी और
नास्ति भी; आस्तिकता भी
जानी उसकी
संपूर्णता
में और नास्तिकता
भी जानी उसकी
संपूर्णता
में; होना
भी जाना उसकी
संपूर्णता
में और न होना
भी जाना उसकी
संपूर्णता
में, तभी
हम पूरे को
जान पाए, अन्यथा
यह भी अधूरा
है। ब्रह्मज्ञान
में एक
अधूरापन है कि
वह ' न होने '
को नहीं जान
पाएगा। इसलिए
ब्रह्मज्ञानी
' न होने' को इनकार ही
कर देता है; वह कहता है
वह माया है, वह है ही
नहीं। वह कहता
है होना सत्य
है, न होना
झूठ है, मिथ्या
है; वह है
ही नहीं, उसको
जानने का सवाल
कहां है!
निर्वाण
काया का मतलब
है शून्य काया, जहां
हम ' होने ' से ' न
होने' में
छलांग लगा
जाते हैं।
क्योंकि वह और
जानने को शेष
रह गया, उसे
भी जान लेना
जरूरी है कि न
होना क्या है?
मिट जाना
क्या है? इसलिए
सातवां शरीर
जो है, वह
एक अर्थ में महामृत्यु
है। और
निर्वाण का, जैसा मैंने
कल अर्थ कहा, वह दीये का
बुझ जाना है।
वह जो हमारा
होना था, वह
जो हमारा ' मैं'
था, मिट
गया; वह जो
हमारी
अस्मिता थी, मिट गई।
लेकिन अब हम
सर्व के साथ
एक होकर फिर
हो गए हैं, अब
हम ब्रह्म हो
गए हैं, अब
इसे भी छोड़
देना पड़ेगा।
और इतनी जिसकी
छलांग की
तैयारी है, वह जो है, उसे
तो जान ही
लेता, जो
नहीं है, उसे
भी जान लेता
है।
और
ये सात शरीर
और सात चक्र
हैं हमारे। और
इन सात चक्रों
के भीतर ही
हमारी सारी
बाधाएं और
साधन हैं।
कहीं किसी
बाहरी रास्ते
पर कोई बाधा
नहीं है।
इसलिए किसी से
पूछने जाने का
उतना सवाल
नहीं है।
खोजने
निकलो, मांगने
नहीं:
और
अगर किसी से
पूछने भी गए
हो,
और किसी के
पास समझने भी
गए हो, तो
मांगने मत
जाना। मांगना
और बात है; समझना
और बात है, पूछना
और बात है।
खोज अपनी जारी
रखना। और जो
समझकर आए हो, उसको भी
अपनी खोज ही
बनाना, उसको
अपना विश्वास
मत बनाना।
नहीं तो वह मांगना
हो जाएगा।
मुझसे
एक बात तुमने
की,
और मैंने
तुम्हें कुछ
कहा। अगर तुम
मांगने आए थे,
तो तुमको जो
मैंने कहा, तुम इसे
अपनी थैली में
बंद करके
सम्हालकर रख लोगे,
इसकी
संपत्ति बना
लोगे। तब तुम
साधक नहीं, भिखारी ही
रह जाते हो।
नहीं, मैंने
तुमसे कुछ कहा,
यह तुम्हारी
खोज बना, इसने
तुम्हारी खोज
को गतिमान
किया, इसने
तुम्हारी
जिज्ञासा को दौड़ाया और
जगाया, इससे
तुम्हें और
मुश्किल और
बेचैनी हुई, इसने
तुम्हें और
नये सवाल खड़े
किए, और नई
दिशाएं खोलीं,
और तुम नई
खोज पर निकले,
तब तुमने
मुझसे मांगा
नहीं, तब
तुमने मुझसे
समझा। और
मुझसे तुमने
जो समझा, वह
अगर तुम्हें
स्वयं को
समझने में
सहयोगी हो गया,
तब मांगना
नहीं है।
तो
समझने निकलो, खोजने
निकलो। तुम
अकेले नहीं
खोज रहे, और
बहुत लोग खोज
रहे हैं। बहुत
लोगों ने खोजा
है, बहुत
लोगों ने पाया
है। उन सबको
क्या हुआ है, क्या नहीं
हुआ है, उस
सबको समझो।
लेकिन उस सबको
समझकर तुम
अपने को समझना
बंद मत कर
देना; उसको
समझकर तुम यह
मत समझ लेना
कि यह मेरा
जान बन गया।
उसको तुम
विश्वास मत
बनाना, उस
पर तुम भरोसा
मत करना, उस
सबसे तुम
प्रश्न बनाना,
उस सबको तुम
समस्या बनाना,
उसको
समाधान मत
बनाना, तो
फिर तुम्हारी
यात्रा जारी
रहेगी। और तब
फिर मांगना
नहीं है, तब
तुम्हारी खोज
है। और
तुम्हारी खोज
ही तुम्हें
अंत तक ले जा
सकती है। और
जैसे—जैसे तुम
भीतर खोजोगे,
तो जो मैंने
तुमसे बातें
कही हैं, प्रत्येक
केंद्र पर दो
तत्व तुमको
दिखाई पड़ेंगे—
एक जो तुम्हें
मिला है, और
एक जो तुम्हें
खोजना है।
क्रोध
तुम्हें मिला
है, क्षमा
तुम्हें
खोजनी है; सेक्स
तुम्हें मिला
है, ब्रह्मचर्य
तुम्हें
खोजना है, स्वप्न
तुम्हें मिला
है, विजन
तुम्हें
खोजना है, दर्शन
तुम्हें
खोजना है।
चार
शरीरों तक
तुम्हारी
द्वैत की खोज
चलेगी, पांचवें
शरीर से तुम्हारी
अद्वैत की खोज
शुरू होगी।
पांचवें
शरीर में
तुम्हें जो
मिल जाए, उससे
भिन्न को
खोजना जारी
रखना। आनंद
मिल जाए तो
तुम खोजना कि
और आनंद के
अतिरिक्त
क्या है? छठवें
शरीर पर
तुम्हें
ब्रह्म मिल
जाए तो तुम खोज
जारी रखना कि
ब्रह्म के
अतिरिक्त
क्या है? तब
एक दिन तुम उस
सातवें शरीर
पर पहुंचोगे,
जहां होना
और न होना, प्रकाश
और अंधकार, जीवन और
मृत्यु, दोनों
एक साथ ही
घटित हो जाते
हैं। और तब
परम, दि अल्टिमेट......
और उसके बाबत
फिर कोई उपाय
नहीं कहने का।
पांचवें
शरीर के बाद
रहस्य ही
रहस्य है:
इसलिए
हमारे सब
शास्त्र या तो
पांचवें पर
पूरे हो जाते
हैं। जो बहुत
वैज्ञानिक
बुद्धि के लोग
हैं,
वे पांचवें
के आगे बात
नहीं करते, क्योंकि
उसके बाद
कास्मिक शुरू
होता है, जिसका
कोई अंत नहीं
है विस्तार का।
पर
जो मिस्टिक
किस्म के लोग
हैं—जो
रहस्यवादी
हैं,
सूफी हैं, इस तरह के
लोग हैं—वे
उसकी भी बात
करते हैं।
हालांकि उसकी
बात करने में
उन्हें बड़ी
कठिनाई होती
है, और
उन्हें अपने
को ही हर बार कंट्राडिक्ट
करना पड़ता है,
खुद को ही
विरोध करना
पड़ता है। और
अगर एक सूफी
फकीर की या एक
मिस्टिक की
पूरी बातें
सुनो, तो
तुम कहोगे कि
यह आदमी पागल
है! क्योंकि
कभी यह यह
कहता है, कभी
यह यह कहता है!
यह कहता है :
ईश्वर है भी; और यह कहता
है ईश्वर नहीं
भी है। और यह
यह कहता है कि
मैंने उसे
देखा। और
दूसरे ही
वाक्य में
कहता है कि
उसे तुम देख कैसे
सकते हो!
क्योंकि वह
कोई आंखों का
विषय है? यह
ऐसे सवाल
उठाता है कि
तुम्हें
हैरानी होगी
कि किसी दूसरे
से सवाल उठा
रहा है कि
अपने से उठा
रहा है! छठवें
शरीर से मिस्टिसिज्म
इसलिए
जिस धर्म में
मिस्टिसिज्म
नहीं है, समझना
वह पांचवें पर
रुक गया।
लेकिन मिस्टिसिज्य
भी आखिरी बात
नहीं है, रहस्य
आखिरी बात
नहीं है।
आखिरी बात
शून्य है, निहिलिज्म
है आखिरी बात।
तो
जो धर्म रहस्य
पर रुक गया, समझना
वह छठवें पर
रुक गया।
आखिरी बात तो
आखिरी है। और
उस शून्य के
अतिरिक्त
आखिरी कोई बात
हो नहीं सकती।
राह
के पत्थर को
भी सीढी बना
लेना:
तो
पांचवें शरीर
से अद्वैत की
खोज शुरू होती
है,
चौथे शरीर
तक द्वैत की
खोज खत्म हो
जाती है। और
सब बाधाएं
तुम्हारे
भीतर हैं। और
बाधाएं बड़ी
अच्छी बात है
कि तुम्हें
उपलब्ध हैं।
और प्रत्येक
बाधा का
रूपांतरण
होकर वही तुम्हारा
साधन बन जाती
है। रास्ते पर
एक पत्थर पड़ा
है, वह, जब
तक तुमने समझा
नहीं है उसे, तब तक
तुम्हें रोक
रहा है। जिस
दिन तुमने
समझा उसी दिन
तुम्हारी
सीढ़ी बन जाता
है। पत्थर
वहीं पड़ा रहता
है। जब तक तुम
नहीं समझे थे,
तुम चिल्ला
रहे थे कि यह
पत्थर मुझे
रोक रहा है, मैं आगे
कैसे जाऊं! जब
तुम इस पत्थर
को समझ लिए, तुम इस पर चढ़
गए और आगे चले
गए। और अब तुम
उस पत्थर को
धन्यवाद दे
रहे हो कि
तेरी बड़ी कृपा
है, क्योंकि
जिस तल पर मैं
चल रहा था, तुझ
पर चढ़कर
मेरा तल बदल
गया, अब
मैं दूसरे तल
पर चल रहा हूं।
तू साधन था, लेकिन मैं
समझ रहा था
बाधा है, मैं
सोचता था
रास्ता रुक
गया, यह
पत्थर बीच में
आ गया, अब
क्या होगा!
क्रोध
बीच में आ गया।
अगर क्रोध पर
चढ़ गए तो
क्षमा को
उपलब्ध हो जाएंगे, जो
कि बहुत दूसरा
तल है। सेक्स
बीच में आ गया।
अगर सेक्स पर
चढ़ गए तो
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध हो जाएगा,
जो कि
बिलकुल ही
दूसरा तल है।
और तब सेक्स
को धन्यवाद दे
सकोगे, और
तब क्रोध को
भी धन्यवाद दे
सकोगे।
जिस
वृत्ति से
लड़ेंगे, उससे
ही बंध जाएंगे:
प्रत्येक
राह का पत्थर
बाधा बन सकता
है और साधन बन
सकता है। वह
तुम पर निर्भर
है कि उस
पत्थर के साथ
क्या करते हो।
हां,
भूलकर भी
पत्थर से लड़ना
मत, नहीं
तो सिर फूट
सकता है और वह
साधन नहीं
बनेगा। और अगर
कोई पत्थर से
लड़ने लगा तो
वह पत्थर रोक
लेगा; क्योंकि
जहां हम लड़ते
हैं वहीं हम
रुक जाते हैं।
क्योंकि
जिससे लड़ना है
उसके पास
रुकना पड़ता है;
जिससे हम
लड़ते हैं उससे
दूर नहीं जा
सकते हम कभी
भी।
इसलिए
अगर कोई सेक्स
से लड़ने लगा, तो
वह सेक्स के
आसपास ही
घूमता रहेगा।
उतना ही आसपास
घूमेगा जितना
सेक्स में डूबनेवाला
घूमता है।
बल्कि कई बार
उससे भी
ज्यादा
घूमेगा।
क्योंकि डूबनेवाला
ऊब भी जाता है,
बाहर भी
होता है, यह
ऊब भी नहीं
पाता, यह
आसपास ही
घूमता रहता है।
अगर
तुम क्रोध से
लड़े तो तुम
क्रोध ही हो
जाओगे, तुम्हारा
सारा
व्यक्तित्व क्रोध
से भर जाएगा; और तुम्हारे
रग—रग, रेशे—रेशे
से क्रोध की
ध्वनियां
निकलने
लगेंगी; और
तुम्हारे
चारों तरफ
क्रोध की
तरंगें प्रवाहित
होने लगेंगी।
इसलिए ऋषि—मुनियों
की जो हम
कहानियां
पढ़ते हैं—महाक्रोधी,
उसका कारण
है; उसका
कारण है वे
क्रोध से लड़नेवाले
लोग हैं। कोई
दुर्वासा है,
कोई कोई है।
उनको सिवाय
अभिशाप के कुछ
सूझता ही नहीं
है। उनका सारा
व्यक्तित्व
आग हो गया है।
वे पत्थर से
लड़ गए हैं, वे
मुश्किल में
पड़ गए हैं; वे
जिससे लड़े हैं,
वही हो गए
हैं।
तुम
ऐसे ऋषि—मुनियों
की कहानियां पढ़ोगे
जिन्हें कि
स्वर्ग से कोई
अप्सरा आकर
बड़े तत्काल
भ्रष्ट कर
देती है।
आश्चर्य की
बात है! यह तभी
संभव है जब वे
सेक्स से लड़े
हों,
नहीं तो
संभव नहीं है।
वे इतना लड़े
हैं, इतना
लड़े हैं, इतना
लड़े हैं, इतना
लड़े हैं कि लड़—लड़कर खुद
ही कमजोर हो
गए हैं। और
सेक्स अपनी
जगह खड़ा है; अब वह
प्रतीक्षा कर रहा
है; वह
किसी भी द्वार
से फूट पड़ेगा।
और कम संभावना
है कि अप्सरा
आई हो, संभावना
तो यही है कि
कोई साधारण
स्त्री निकली
हो, लेकिन
इसको अप्सरा
दिखाई पडी
हो। क्योंकि अप्सराओं
ने कोई ठेका
ले रखा है कि
ऋषि—मुनियों
को सताने
के लिए आती
रहें। लेकिन
अगर सेक्स को
बहुत सप्रेस
किया गया हो, तो साधारण
स्त्री भी
अप्सरा हो
जाती है; क्योंकि
हमारा चित्त
प्रोजेक्ट
करने लगता है।
रात वही सपने
देखता है, दिन
वही विचार
करता है, फिर
हमारा चित्त
पूरा का पूरा
उसी से भर
जाता है। फिर
कोई भी चीज.....
.कोई भी चीज अतिमोहक
हो जाती है, जो कि नहीं
थी।
लड़ना
नहीं, समझना:
तो
साधक के लिए
लड़ने भर से
सावधान रहना
है,
और समझने की
कोशिश करनी है।
और समझने की
कोशिश का मतलब
ही यह है कि
तुम्हें जो
मिला है
प्रकृति से
उसको समझना।
तो तुम्हें जो
नहीं मिला है,
उसी मिले
हुए के मार्ग
से तुम्हें वह
भी मिल जाएगा
जो नहीं मिला
है; वह
पहला छोर है।
अगर तुम उसी
से भाग गए तो
तुम दूसरे छोर
पर कभी न
पहुंच पाओगे।
अगर सेक्स से
ही घबराकर भाग
गए तो
ब्रह्मचर्य
तक कैसे
पहुंचोगे? सेक्स
तो द्वार था
जो प्रकृति से
मिला था।
ब्रह्मचर्य
उसी द्वार से
खोज थी जो अंत
में तुम खोद
पाओगे।
तो
ऐसा अगर देखोगे
तो मांगने
जाने की कोई
जरूरत नहीं, समझने
जाने की तो
बहुत जरूरत है;
और पूरी
जिंदगी समझने
के लिए है—किसी
से भी समझो, सब तरफ से
समझो और अंततः
अपने भीतर
समझो।
व्यक्तियों
को तौलने से
बचना:
प्रश्न :
ओशो अभी आप
सात शरीरों की
चर्चा करते
हैं तो उसमें
सातवें या
छठवें या
पांचवें शरीर—
निर्वाण बॉडी
कास्मिक बॉडी
और स्त्रिचुअल
बॉडी को
क्रमश: उपलब्ध
हुए कुछ
प्राचीन और अर्वाचीन
अर्थात एंशिएंट
और माडर्न
व्यक्तियों
के नाम लेने
की कृपा करें।
इस झंझट
में न पड़ो
तो अच्छा है।
इसका कोई सार
नहीं है। इसका
कोई अर्थ नहीं
है। और अगर
मैं कहूं भी, तो
तुम्हारे पास
उसकी जांच के
लिए कोई
प्रमाण नहीं होगा।
और जहां तक
बने
व्यक्तियों
को तौलने से
बचना अच्छा है।
उनसे कोई
प्रयोजन भी
नहीं है। उनसे
कोई प्रयोजन
नहीं है। उसका
कोई अर्थ ही
नहीं है। उनको
जाने दो।
पांचवें
या छठवें शरीर
में मृत्यु के
बाद देव योनियों
में जन्म:
प्रश्न:
ओशो पांचवें
शरीर को या
उसके बाद के
शरीर को उपलब्ध
हुए व्यक्ति
को अगले जन्म
में भी क्या स्थूल
शरीर ग्रहण
करना पडता
है?
हां, यह
बात ठीक है, पांचवें
शरीर को
उपलब्ध करने
के बाद
व्यक्ति का इस
शरीर में जन्म
नहीं होगा। पर
और शरीर हैं।
और शरीर हैं।
असल में, जिनको
हम देवता कहते
रहे हैं, उस
तरह के शरीर
हैं। वे
पांचवें के
बाद उस तरह के
शरीर उपलब्ध
हो सकते हैं।
छठवें
के बाद तो उस
तरह के शरीर
भी उपलब्ध नहीं
होंगे। गॉड्स
के नहीं, बल्कि
जिसको हम गॉड
कहते रहे हैं,
ईश्वर कहते
रहे हैं, उस
तरह का शरीर
उपलब्ध हो
जाएगा।
लेकिन
शरीर उपलब्ध
होते रहेंगे; वे
किस तरह के
हैं, यह
बहुत गौण बात
है। सातवें के
बाद ही शरीर
उपलब्ध नहीं
होंगे।
सातवें के बाद
ही अशरीरी
स्थिति होगी।
उसके पहले
सूक्ष्म से
सूक्ष्म शरीर
उपलब्ध होते
रहेंगे।
शक्तिपात
से प्रसाद
श्रेष्ठतर:
प्रश्न :
ओशो पिछली एक
चर्चा में कहा
था आपने कि आप
पसंद करते हैं
कि शक्तिपात
जितना ग्रेस
के निकट हो
सके उतना ही
अच्छा है इसका
क्या यह अर्थ
न हुआ कि शक्तिपात
की पद्धति में
क्रमिक सुधार
और विकास की
संभावना है? अर्थात
क्या शक्तिपात
की प्रक्रिया
में कालिटेटिव
प्रोग्रेस भी
संभव है?
बहुत
संभव है, बहुत
सी बातें संभव
हैं। असल में,
शक्तिपात की और
प्रसाद की, ग्रेस की जो
भिन्नता है, वह भिन्नता
बड़ी है। मूल
रूप से तो
प्रसाद ही काम
का है; बिना
माध्यम के
मिले, तो
शुद्धतम होगा,
क्योंकि
उसको अशुद्ध
करनेवाला बीच
में कोई भी
नहीं होता।
जैसे कि मैं
तुम्हें अपनी
खुली आंखों से
देखु तो
जो मैं
देखूंगा वह
शुद्धतम होगा।
फिर मैं एक
चश्मा लगा लूं
तो जो होगा वह
उतना शुद्धतम
नहीं होगा, एक माध्यम
बीच में आ गया।
लेकिन फिर इस
माध्यम में भी
शुद्ध और
अशुद्ध के
बहुत रूप हो सकते
हैं। एक रंगीन
चश्मा हो सकता
है, एक साफ—सफेद
चश्मा हो सकता
है। और इस
कांच की भी कालिटी
में बहुत फर्क
हो सकते हैं।
समझ रहे हैं न?
तो
जब हम माध्यम
से लेंगे तब
कुछ न कुछ
अशुद्धि तो
आने ही वाली
है। वह माध्यम
की होगी। और
इसीलिए
शुद्धतम
प्रसाद तो
सीधा ही मिलता
है,
शुद्धतम ग्रेस तो
सीधी ही मिलती
है, तब कोई
माध्यम नहीं
होता।
अब
समझ लो कि अगर
हम बिना आंख
के भी देख
सकें तो और भी
शुद्धतम होगा, क्योंकि
आंख भी माध्यम
है। अगर आंख
के बिना भी
देख सकें तो
और भी शुद्धतम
होगा, क्योंकि
फिर आंख भी
उसमें बाधा
नहीं डाल
पाएगी। अब
किसी की आंख
में पीलिया है,
और किसी की आंख
कमजोर है, और
किसी की कुछ
है, तो
कठिनाइयां
हैं।
लेकिन
अब जिसकी आंख
में कमजोरी है, उसको
एक चश्मे का
माध्यम
सहयोगी हो
सकता है। यानी
हो सकता है कि
खाली आंख से
वह जितना शुद्ध
न देख पाए, उतना
एक चश्मा
लगाने से
शुद्ध देख ले।
ऐसे तो चश्मा
एक और माध्यम
हो गया, दो
माध्यम हो गए,
लेकिन
पिछले माध्यम
की कमी यह
माध्यम पूरा
कर सकता है।
ठीक
ऐसी ही बात है।
जिस व्यक्ति
के माध्यम से
प्रसाद किसी
दूसरे तक
पहुंचेगा, उस
व्यक्ति का
माध्यम कुछ तो
अशुद्धि
करेगा ही।
लेकिन, अगर
यह अशुद्धि
ऐसी हो कि उस
दूसरे
व्यक्ति की आंख
की अशुद्धि के
प्रतिकूल
पड़ती हो और
दोनों कट जाती
हों, तो
प्रसाद के
निकटतम पहुंच
जाएगी बात।
लेकिन यह एक—एक
स्थिति में
अलग—अलग तय
करना होगा।
मेरी
जो समझ है वह
यह है कि
इसलिए सीधा
प्रसाद खोज
जाए,
व्यक्ति के
माध्यम की
फिकर ही छोड़
दी जाए। हां, कभी—कभी अगर जीवनधारा
के लिए जरूरत
पड़ेगी तो
व्यक्ति के
माध्यम से भी
झलक दिखला
देती है, उसकी
तुम्हें
चिंता, साधक
को उसकी चिंता
करने की जरूरत
नहीं है।
लेने
नहीं जाना!
क्योंकि लेने
जाओगे, तो
मैंने कल तुमसे
जैसा कहा, देनेवाला
कोई मिल जाएगा।
और देनेवाला
जितना सघन है,
उतनी ही
अशुद्ध हो
जाएगी बात। तो
देनेवाला ऐसा
चाहिए जिसे
देने का पता
ही न चलता हो, तब शक्तिपात
शुद्ध हो सकता
है। फिर भी वह
प्रसाद नहीं
बन जाएगा। फिर
भी एक दिन तो
वह चाहिए जो
हमें इमीजिएट
मिलता हो, मीडियम
के बिना मिलता
हो, सीधा
मिलता हो; परमात्मा
और हमारे बीच
कोई भी न हो, शक्ति और
हमारे बीच कोई
भी न हो।
ध्यान में वही
रहे, नजर
में वही रहे, खोज उसकी
रहे। बीच के
मार्ग पर बहुत
सी घटनाएं घट
सकती हैं, लेकिन
उन पर किसी पर
रुकना नहीं है,
इतना ही
काफी है। और
फर्क तो
पड़ेंगे। कालिटी
के भी फर्क
पड़ेंगे, काटिटी
के भी फर्क
पड़ेंगे। और कई
कारणों से
पड़ेंगे। वह
बहुत विस्तार
की बात होगी, कई कारणों
से पड़ेंगे।
शक्तिपात
का शुद्धतम
माध्यम:
असल
में,
पांचवां
शरीर जिसको
मिल गया है, किसी को भी शक्तिपात
उसके द्वारा
हो सकता है—
पांचवें शरीर
से। लेकिन
पांचवें शरीरवाले
का जो शक्तिपात
है वह उतना
शुद्ध नहीं
होगा, जितना
छठवेंवाले
का होगा, क्योंकि
उसकी अस्मिता
कायम है।
अहंकार तो मिट
गया, अस्मिता
कायम है; 'मैं'
तो मिट गया,
' हूं ' कायम
है। वह ' हूं?
थोड़ा सा रस
लेगा।
छठवें
शरीरवाले
से भी शक्तिपात
हो जाएगा।
वहां ' हूं भी
नहीं है अब, वहां ब्रह्म
ही है। वह और
शुद्ध हो
जाएगा। लेकिन
अभी भी ब्रह्म
है। अभी ' नहीं
है' की
स्थिति नहीं आ
गई है, ' है' की स्थिति
है। यह ' है'
भी बहुत
बारीक पर्दा
है—बहुत बारीक, बहुत नाजुक,
पारदर्शी, ट्रांसपैरंट—लेकिन है।
यह पर्दा है।
तो छठवें शरीरवाले
से भी शक्तिपात
हो जाएगा।
पांचवें से तो
श्रेष्ठ होगा।
प्रसाद के
बिलकुल करीब
पहुंच जाएगा।
लेकिन कितने
ही करीब हो, जरा सी भी
दूरी दूरी है।
और जितनी
कीमती चीजें
हों, उतनी
छोटी सी दूरी
बड़ी हो जाती
है; जितनी
कीमती चीजें
हों, उतनी
छोटी सी दूरी
बड़ी हो जाती
है। इतनी
बहुमूल्य
दुनिया है
प्रसाद की कि
वहां इतना सा
पर्दा, कि
उसको पता है
कि है, बाधा
बनेगा।
सातवें
शरीर को
उपलब्ध
व्यक्ति से शक्तिपात
शुद्धतम हो
जाएगा।
शुद्धतम हो
जाएगा। ग्रेस
फिर भी नहीं
होगा। शक्तिपात
की शुद्धतम
स्थिति
सातवें शरीर
पर पहुंच जाएगी—
शुद्धतम। जो, शक्तिपात जहां तक
पहुंच सकता है,
वहां तक
पहुंच जाएगी।
लेकिन उस तरफ
से तो कोई
पर्दा नहीं है
अब, सातवें
शरीर को
उपलब्ध
व्यक्ति की
तरफ से कोई पर्दा
नहीं है, उसकी
तरफ से तो अब
वह शून्य के
साथ एक हो गया,
लेकिन
तुम्हारी तरफ
से पर्दा है।
तुम तो उसको
व्यक्ति ही
मानकर जीओगे।
अब तुम्हारा
पर्दा आखिरी
बाधा डालेगा।
अब उसकी तरफ
से कोई पर्दा
नहीं है, लेकिन
तुम्हारे लिए
तो वह व्यक्ति
है।
माध्यम
के प्रति
व्यक्ति— भाव
भी बाधा:
समझो
कि मैं अगर
सातवीं
स्थिति को उपलब्ध
हो जाऊं, तो यह
मेरी बात है
कि मैं जानूं
कि मैं शून्य
हूं लेकिन तुम?
तुम तो मुझे
जानोगे
कि एक व्यक्ति
हूं। और
तुम्हारा यह
खयाल कि मैं
एक व्यक्ति
हूं आखिरी
पर्दा हो
जाएगा। यह
पर्दा तो
तुम्हारा तभी
गिरेगा जब निर्व्यक्ति
से तुम पर
घटना घटे।
यानी तुम कहीं
खोजकर पकड़ ही
न पाओ कि
किससे घटी, कैसे घटी!
कोई सोर्स न
मिले तुम्हें,
तभी
तुम्हारा यह
खयाल गिर
पाएगा; सोर्सलेस हो। अगर
सूरज की किरण
आ रही है तो
तुम सूरज को
पकड़ लोगे कि
वह व्यक्ति है।
लेकिन ऐसी
किरण आए जो
कहीं से नहीं
आ रही और आ गई, और ऐसी
वर्षा हो जो
किसी बादल से
नहीं हुई और
हो गई, तभी
तुम्हारे मन
से वह आखिरी
पर्दा जो
दूसरे के
व्यक्ति होने
से पैदा होता
है गिरेगा।
तो
बारीक से
बारीक फासले
होते चले
जाएंगे।
अंतिम घटना तो
प्रसाद की तभी
घटेगी जब कोई
भी बीच में
नहीं है।
तुम्हारा यह
खयाल भी कि
कोई है, काफी
बाधा है— आखिरी।
दो हैं, तब
तक तो बहुत
ज्यादा है—तुम
भी हो और
दूसरा भी है।
हां, दूसरा
मिट गया, लेकिन
तुम हो। और
तुम्हारे
होने की वजह
से दूसरा भी
तुम्हें
मालूम हो रहा
है। सोर्सलेस
प्रसाद जब
घटित होगा, ग्रेस जब उतरेगी, जिसका कहीं
कोई उदगम नहीं
है, उस दिन
वह शुद्धतम होगी।
उस उदगम—शून्य
की वजह से
तुम्हारा
व्यक्ति
उसमें बह जाएगा,
बच नहीं
सकेगा। अगर
दूसरा
व्यक्ति
मौजूद है तो
वह तुम्हारे व्यक्ति
को बचाने का
काम करता है, तुम्हारे
लिए ही सिर्फ
मौजूद है तो
भी काम करता
है।
'मैं'
और 'तू' से तनाव का
जन्म:
असल
में तुमको, अगर
तुम समुद्र के
किनारे चले
जाते हो, तुम्हें
ज्यादा शांति
मिलती है, जंगल
में चले जाते
हो, ज्यादा
शांति मिलती
है, क्योंकि
सामने दूसरा
व्यक्ति नहीं
है—दि अदर
मौजूद नहीं है।
इसलिए
तुम्हारा खुद
का भी मैं जो
है, वह
क्षीण हो जाता
है। जब तक
दूसरा मौजूद
है, तुम्हारा
मैं भी मजबूत
होता है। जब
तक दूसरा
मौजूद है.. .एक
कमरे में दो
आदमी बैठे हैं,
तो उस कमरे
में तनाव की
धाराएं बहती
रहती हैं। कुछ
नहीं कर रहे—
लड़ नहीं रहे, झगड़
नहीं रहे, चुपचाप
बैठे हैं—मगर
उस कमरे में
तनाव की
धाराएं बहती
रहती हैं।
क्योंकि दो
मैं मौजूद हैं
और पूरे वक्त
कार्य चल रहा
है—सुरक्षा भी
चल रही है, आक्रमण
भी चल रहा है।
चुप भी चलता
है, कोई
ऐसा नहीं है
कि झगड़ने की
सीधी जरूरत है,
या कुछ कहने
की जरूरत है—दो
की मौजूदगी, कमरा टेंस
है। और अगर..
.कभी मैं बात
करूंगा कि अगर
तुम्हें, सारी
जो तरंगें
हमारे
व्यक्तित्व
से निकलती हैं,
उनका बोध हो
जाए, तो उस
कमरे में तुम
बराबर देख
सकते हो कि वह
कमरा दो
हिस्सों में
विभाजित हो
गया, और
प्रत्येक
व्यक्ति एक
सेंटर बन गया,
और दोनों की
विद्युतधाराए
और तरंगें आपस
में दुश्मन की
तरह खड़ी हुई
हैं।
दूसरे
की मौजूदगी
तुम्हारे मैं
को मजबूत करती
है। दूसरा चला
जाए तो कमरा
बदल जाता है, तुम
रिलैक्स हो
जाते हो; तुम्हारा
मैं जो तैयार
था कि कब क्या
हो जाए, वह
ढीला हो जाता
है; वह
तकिए से टिककर
आराम करने
लगता है; वह
श्वास लेता है
कि अभी दूसरा
मौजूद नहीं है।
इसीलिए
एकांत का
उपयोग है कि
तुम्हारा मैं
शिथिल हो सके
वहां। एक
वृक्ष के पास
तुम ज्यादा
आसानी से खड़े
हो पाते हो
बजाय एक आदमी
के। इसलिए जिन
मुल्कों में
आदमी—आदमी के
बीच तनाव बहुत
गहरे हो जाते
हैं,
वहां आदमी
कुत्ते और
बिल्लियों को
भी पालकर
उनके साथ जीने
लगता है। उनके
साथ ज्यादा
आसानी है, उनके
पास कोई मैं
नहीं है। एक
कुत्ते के गले
में पट्टा
बांधे हम मजे
से चले जा रहे
हैं। ऐसा हम
किसी आदमी के
गले में पट्टा
बांधकर नहीं
चल सकते।
हालांकि
कोशिश करते
हैं! पति
पत्नी के
बांधे हुए है, पत्नी
पति के पट्टा
बांधे हुए है
गले में, और
चले जा रहे
हैं! लेकिन
जरा सूक्ष्म
पट्टे हैं, दिखाई नहीं
पड़ते। लेकिन
दूसरा उसमें
गड़बड़ करता
रहता है, पूरे
वक्त गर्दन
हिलाता रहता
है कि अलग करो,
यह पट्टा
नहीं चलेगा।
लेकिन एक
कुत्ते को
बांधे हुए हैं,
वह बिलकुल
चला जा रहा है;
वह पूंछ
हिलाता हमारे
पीछे आ रहा है।
तो कुत्ता
जितना सुख दे
पाता है फिर, उतना आदमी
नहीं दे पाता;
क्योंकि वह
जो आदमी है, वह हमारे
मैं को फौरन
खड़ा कर देता
है और मुश्किल
में डाल देता
है।
धीरे—
धीरे
व्यक्तियों
से संबंध तोड़कर
आदमी वस्तुओं
से संबंध
बनाने लगता है, क्योंकि
वस्तुओं के
साथ सरलता है।
तो वस्तुओं के
ढेर बढ़ते जाते
हैं। घरों में
वस्तुएं बढ़ती
जाती हैं, आदमी
कम होते चले
जाते हैं।
आदमी घबड़ाहट
लाते हैं, वस्तुएं
झंझट नहीं
देती हैं।
कुर्सी जहां
रखी है, वहां
रखी है, मैं
बैठा हूं तो
कोई गड़बड़ नहीं
करती।
वृक्ष
है,
नदी है, पहाड़
है, इनसे
कोई झंझट नहीं
आती, इसलिए
हमको बड़ी
शांति मिलती
है इनके पास
जाकर। कारण
कुल इतना है
कि दूसरी तरफ
मैं मजबूती से
खड़ा नहीं है, इसलिए हम भी
रिलैक्स हो
पाते हैं। हम
कहते हैं—ठीक
है, यहां
कोई तू नहीं
है तो मेरे
होने की क्या
जरूरत है! ठीक
है, मैं भी
नहीं हूं।
लेकिन जरा सा
भी इशारा दूसरे
आदमी का मिल
जाए कि वह है, कि हमारा
मैं तत्काल
तत्पर हो जाता
है, वह
सिक्योरिटी
की फिकर करने
लगता है कि
पता नहीं क्या
हो जाए, इसलिए
तैयार होना
जरूरी है।
शून्य
व्यक्ति के
सामने अहंकार
की बेचैनी:
यह
तैयारी आखिरी
क्षण तक बनी
रहती है।
सातवें शरीरवाला
व्यक्ति भी
तुम्हें मिल
जाए तो भी
तुम्हारी
तैयारी रहेगी।
बल्कि कई बार
ऐसे व्यक्ति
से तुम्हारी
तैयारी
ज्यादा हो
जाएगी।
साधारण आदमी
से तुम इतने
भयभीत नहीं
होते, क्योंकि
वह तुम्हें
चोट भी अगर
पहुंचा सकता है
तो बहुत गहरी
नहीं पहुंचा
सकता। लेकिन
ऐसा व्यक्ति
जो पांचवें शरीर
के पार चला
गया है, तुम्हें
चोट भी गहरी
पहुंचा सकता
है—उसी शरीर
तक पहुंचा
सकता है, जहां
तक वह पहुंच
गया है। उससे
भय भी
तुम्हारा बढ़
जाता है; उससे
डर भी
तुम्हारा बढ़
जाता है कि
पता नहीं क्या
हो जाए! उसके
भीतर से
तुम्हें बहुत
ही अज्ञात और
अनजान शक्ति झांकती
मालूम पड़ने
लगती है।
इसलिए तुम
बहुत सम्हलकर
खड़े हो जाते
हो। उसके
आसपास
तुम्हें एबिस
दिखाई पड़ने
लगती है; अनुभव
होने लगता है
कि कोई गेंहु
है इसके भीतर,
अगर गए तो
किसी गड्डे
में न गिर
जाएं।
इसलिए
दुनिया में
जीसस, कृष्ण
या सुकरात
जैसे आदमी जब
भी पैदा होते
हैं, तो हम
उनकी हत्या कर
देते हैं।
उनकी वजह से
हम में बहुत
गड़बड़ पैदा हो
जाती है। उनके
पास जाना, खतरे
के पास जाना
है। फिर मर
जाते हैं, तब
हम उनकी पूजा
करते हैं। अब
हमारे लिए कोई
डर नहीं रहा।
अब हम उनकी
मूर्ति बनाकर
सोने की और
हाथ—पैर जोड़कर
खड़े हो जाते
हैं; हम कहते
हैं. तुम
भगवान हो।
लेकिन जब ये
लोग होते हैं
तब हम इनके
साथ ऐसा व्यवहार
नहीं करते, तब हम इनसे
बहुत डरे रहते
हैं। और डर
अनजान रहता है,
क्योंकि
हमें पक्का
पता तो नहीं
रहता कि बात क्या
है। लेकिन एक
आदमी जितना
गहरा होता जाता
है, उतना
ही हमारे लिए
एबिस बन जाता
है, खाई बन
जाता है। और
जैसे खाई के
नीचे झांकने
से डर लगता है
और सिर घूमता
है, ऐसा ही
ऐसे व्यक्ति
की आंखों में
झांकने से डर
लगने लगेगा और
सिर घूमने लगेगा।
मूसा
के संबंध में
बड़ी अदभुत कथा
है कि हजरत मूसा
को जब
परमात्मा का
दर्शन हुआ, तो
इसके बाद
उन्होंने फिर
कभी अपना मुंह
नहीं उघाड़ा;
वे एक घूंघट
डाले रखते थे।
वे फिर घूंघट
डालकर ही जीए,
क्योंकि
उनके चेहरे
में झांकना
खतरनाक हो गया।
जो आदमी झांके
वह भाग खड़ा हो;
फिर वहां
रुकेगा नहीं।
उसमें से एबिस
दिखाई पड़ने
लगी। उनकी आंखों
में अनंत खड्ड
हो गया। तो
मूसा लोगों के
बीच जाते तो
चेहरे पर एक
घूंघट डाले
रखते। वह
घूंघट डालकर
ही बात कर
सकते फिर।
क्योंकि लोग
उनसे घबराने
लगे और डरने
लगे। ऐसा लगे
कि कोई चीज
चुंबक की तरह
खींचती है किसी
गडु में!
और पता नहीं
कहां ले जाएगी,
क्या होगा!
कुछ पता नहीं!
तो
यह जो आखिरी, सातवीं
स्थिति में
पहुंचा हुआ
आदमी है, वह
भी है—तुम्हारे
लिए। इसलिए
तुम उससे अपनी
सुरक्षा
करोगे और एक
पर्दा बना रह
जाएगा; इसलिए
ग्रेस
शुद्ध नहीं हो
सकती। ऐसे
आदमी के पास
हो सकती है
शुद्ध, अगर
तुम्हें यह
खयाल मिट जाए
कि वह है।
लेकिन यह खयाल
तुम्हें तभी
मिट सकता है, जब कि
तुम्हें यह
खयाल मिट जाए
कि मैं हूं।
अगर तुम इस
हालत में
पहुंच जाओ कि
तुम्हें खयाल
न रहे कि मैं
हूं तो फिर
तुम्हें
शुद्ध वहां से
भी मिल सकती
है। लेकिन फिर
कोई मतलब ही न
रहा उससे
मिलने, न
मिलने का; वह
सोर्सलेस
हो गई; वह
प्रसाद ही हो
गया।
जितनी
बड़ी भीड़ में
हम हैं, उतना
ज्यादा मैं
हमारा सख्त, सघन और कंडेस्ट
हो जाता है।
इसलिए भीड़ के
बाहर, दूसरे
से हटकर अपने
मैं को गिराने
की सदा कोशिश
की गई है।
लेकिन कहीं भी
जाओ, अगर
बहुत देर तुम
एक वृक्ष के
पास रहोगे, तुम उस
वृक्ष से
बातें करने
लगोगे और
वृक्ष को तू
बना लोगे। अगर
तुम बहुत देर
सागर के पास
रह जाओगे, दस—पांच
वर्ष, तो
तुम सागर से
बोलने लगोगे
और सागर को तू
बना लोगे। वह
हमारा मैं जो
है, आखिरी
उपाय करेगा, वह तू पैदा
कर लेगा, अगर
तुम बाहर भी
भाग गए कहीं
तो, और वह
उनसे भी राग
का संबंध बना
लेगा, और
उनको भी ऐसे
देखने लगेगा
जैसे कि आकार
में।
भक्त और
भगवान के
द्वैत में
अहंकार की
सुरक्षा:
अगर
कोई बिलकुल ही
आखिरी स्थिति
में भी पहुंच जाता
है,
तो फिर वह
ईश्वर को तू
बनाकर खड़ा कर
लेता है, ताकि
अपने मैं को
बचा सके। और
भक्त निरंतर
कहता रहता है
कि हम
परमात्मा के
साथ एक कैसे
हो सकते हैं? वह वह है, हम
हम हैं! कहां
हम उसके चरणों
में और कहां
वह भगवान! वह
कुछ और नहीं
कह रहा, वह
यह कह रहा है
कि अगर उससे
एक होना है तो
इधर मैं खोना
पड़ेगा। तो उसे
वह दूर बनाकर
रखता है कि वह
तू है। और
बातें वह रेशनलाइज
करता है, वह
कहता है कि हम
उसके साथ एक
कैसे हो सकते
हैं! वह महान
है, वह परम
है; हम
क्षुद्र हैं,
हम पतित हैं;
हम कहां एक
हो सकते हैं!
लेकिन वह उसके
तू को बचाता
है कि इधर मैं
उसका बच जाए।
इसलिए
भक्त जो है, वह
चौथे शरीर के
ऊपर नहीं जा
पाता। वह
पांचवें शरीर
तक भी नहीं जा
पाता, वह
चौथे शरीर पर
अटक जाता है।
हां, चौथे
शरीर की
कल्पना की जगह
विजन आ जाता
है उसका। चौथे
शरीर में जो
श्रेष्ठतम
संभावना है, वह खोज लेता
है। तो भक्त
के जीवन में
ऐसी बहुत सी
घटनाएं होने लगती
हैं जो
मिरेकुलस हैं;
लेकिन रह
जाता है चौथे
पर। व्यक्ति
के नाम नहीं
ले रहा, इसलिए
मैं इस तरह कह
रहा हूं। चौथे
पर रह जाता है
भक्त।
भक्त, हठयोगी
और राजयोगी
की यात्रा:
आत्मसाधक, हठयोगी, और बहुत तरह
के योग की
प्रक्रियाओं
में लगनेवाला
आदमी ज्यादा
से ज्यादा
पांचवें शरीर
तक पहुंच पाता
है; क्योंकि
बहुत गहरे में
वह यह कह रहा
है कि मुझे
आनंद चाहिए; बहुत गहरे
में वह यह कह
रहा है कि
मुझे मुक्ति चाहिए;
बहुत गहरे
में वह यह कह
रहा है कि
मुझे दुख—निरोध
चाहिए—लेकिन
सब चाहिए के
पीछे मैं
मौजूद है।
मुझे मुक्ति
चाहिए! मैं से
मुक्ति नहीं,
मैं की
मुक्ति! मुझे
मुक्त होना है,
मुझे मोक्ष
चाहिए। वह मैं
उसका सघन खड़ा
रह जाता है।
वह पांचवें
शरीर तक पहुंच
पाता है।
राजयोगी
छठवें तक
पहुंच जाता है।
वह कहता है—
मैं का क्या
रखा है! मैं
कुछ भी नहीं, वही
है! मैं नहीं, वही है, ब्रह्म
ही सब कुछ है।
वह मैं को
खोने की
तैयारी
दिखलाता है, लेकिन
अस्मिता को
खोने की
तैयारी नहीं
दिखलाता। वह
कहता है—रहूंगा
मैं, ब्रह्म
के साथ एक
उसका अंश होकर।
रहूंगा मैं, ब्रह्म के
साथ एक होकर; उसी के साथ
मैं एक हूं; मैं ब्रह्म
ही हूं; मैं
तो छोड़ दूंगा,
लेकिन जो
असली है मेरे
भीतर वह उसके
साथ एक होकर
रहेगा। वह
छठवें तक
पहुंच पाता है।
सातवें
तक बुद्ध जैसा
साधक पहुंच
पाता है, क्योंकि
वह खोने को
तैयार है—
ब्रह्म को भी
खोने को तैयार
है; अपने
को भी खोने को
तैयार है; वह
सब खोने को
तैयार है। वह
यह कहता है कि
जो है, वही
रह जाए; मेरी
कोई अपेक्षा
नहीं कि यह
बचे यह बचे, यह बचे—मेरी
कोई अपेक्षा
ही नहीं। सब
खोने को तैयार
है। और जो सब
खोने को तैयार
है, वह सब
पाने का हकदार
हो जाता है।
तो निर्वाण
शरीर तो ऐसी
हालत में ही
मिल सकता है
जब शून्य और न
हो जाने की भी
हमारी तैयारी
है, मृत्यु
को भी जानने
की तैयारी है।
जीवन को जानने
की तैयारियां
तो बहुत हैं।
इसलिए जीवन को
जाननेवाला
छठवें शरीर पर
रुक जाएगा।
मृत्यु को भी
जानने की
जिसकी तैयारी
है, वह
सातवें को जान
पाएगा।
तुम
चाहोगे तो नाम
तुम खोज सकोगे, उसमें
बहुत कठिनाई
नहीं होगी।
चौथे
शरीर की
वैज्ञानिक
संभावनाएं:
प्रश्न:
ओशो आपने कहा
कि चौथे शरीर
में कल्पना और
स्वप्न की
क्षमता का जब
रूपांतरण
होता है तो
आदमी को दिव्य—
दृष्टि व दूर—
दृष्टि
उपलब्ध होती
है। अभी तक
पता नहीं
कितने लोग इस
चौथे शरीर तक पहुंच
चुके हैं।
जैसा आपने कहा
कि चौथी स्टेज
तक विज्ञान
विकसित हो
चुका है अगर
ऐसी बात होती
तो आज विज्ञान
जिन चीजों की
खोज कर रहा है
उन चीजों के
संबंध में उन
लोगों ने जो
चौथे शरीर तक
गए है?
क्यों उनकी
प्राप्ति की
सूचना नहीं दी?
क्यों उनकी
अभिव्यक्ति
नहीं की? एक
छोटी सी बात।
आज चांद पर पहुंचा
हुआ आदमी वहां
की
अभिव्यक्ति
कर सकता है? लेकिन चौथी
स्टेज पर पहुंचा
हुआ कोई भी
व्यक्ति किसी
देश में कहीं
भी उसकी सही—
सही स्थिति का
वर्णन नहीं कर
सका। चांद तो
कत दूर है
हमारी पृथ्वी
के बारे में भी
यह नहीं बता
सका कि पृथ्वी
चक्कर लगा रही
है या सूर्य
इसका चक्कर
लगा रहा है।
समझा! यह
बिलकुल ठीक
सवाल है।
इसमें तीन—चार
बातें समझने
जैसी हैं।
पहली बात तो
समझने जैसी यह
है कि बहुत सी
बातें इस चौथे
शरीर को
उपलब्ध लोगों
ने बताई हैं।
बहुत सी बातें
इस चौथे शरीर
को उपलब्ध
लोगों ने बताई
हैं। और उनको
गिना जा सकता
है कि कितनी
बातें उन्होंने
बताई हैं। अब
जैसे, पृथ्वी
कब बनी, इसके
संबंध में जो
पृथ्वी की
उम्र चौथे
शरीर के लोगों
ने बताई है, उसमें और
विज्ञान की
उम्र में थोड़ा
सा ही फासला
है। और अभी भी
यह नहीं कहा
जा सकता कि
विज्ञान जो कह
रहा है वह सही
है; अभी भी
यह नहीं कहा
जा सकता। अभी
विज्ञान भी यह
दावा नहीं कर
सकता। फासला
बहुत थोड़ा है,
फासला बहुत
ज्यादा नहीं
है।
दूसरी
बात,
पृथ्वी के
संबंध में, पृथ्वी की
गोलाई और
पृथ्वी की
गोलाई के माप
के संबंध में
जो चौथे शरीर
के लोगों ने
खबर दी है, उसमें
और विज्ञान की
खबर में और भी
कम फासला है।
और यह जो
फासला है, जरूरी
नहीं है कि वह
जो चौथे शरीर
को उपलब्ध लोगों
ने बताई है, वह गलत ही हो;
क्योंकि
पृथ्वी की
गोलाई में
निरंतर अंतर
पड़ता रहा है।
आज पृथ्वी
जितनी सूरज से
दूर है, उतनी
दूर सदा नहीं
थी; और आज
पृथ्वी से
चांद जितना
दूर है, उतना
सदा नहीं था।
आज जहां
अफ्रीका है, वहां पहले
नहीं था। एक
दिन अफ्रीका
हिंदुस्तान
से जुड़ा हुआ
था। हजार
घटनाएं बदल गई
हैं, वे
रोज बदल रही
हैं। उन बदलती
हुई सारी
बातों को अगर
खयाल में रखा जाए
तो बड़ी
आश्चर्यजनक
बात मालूम
पड़ेगी कि विज्ञान
की बहुत सी
खोजें चौथे
शरीर के लोगों
ने बहुत पहले
खबर दी हैं।
अतींद्रिय
अनुभवों की
अभिव्यक्ति
में कठिनाई:
यह
भी समझने जैसा
मामला है कि
विज्ञान के और
चौथे शरीर तक
पहुंचे हुए
लोगों की भाषा
में बुनियादी
फर्क है, इस
वजह से बड़ी
कठिनाई होती
है। क्योंकि
चौथे शरीर को
जो उपलब्ध है,
उसके पास
कोई मैथेमेटिकल
लैंग्वेज
नहीं होती।
उसके पास तो
विजन और
पिक्चर और
सिंबल की लैंग्वेज
होती है, उसके
पास तो प्रतीक
की लैंग्वेज
होती है।
सपने
में कोई भाषा
होती भी नहीं, विजन
में भी कोई
भाषा नहीं
होती। अगर हम
गौर से समझें,
तो हम दिन
में जो कुछ
सोचते हैं, अगर रात
हमें उसका ही
सपना देखना
पड़े, तो
हमें प्रतीक
भाषा चुननी
पड़ती है, प्रतीक
चुनना पड़ता है;
क्योंकि
भाषा तो होती
नहीं। अगर मैं
महत्वाकांक्षी
आदमी हूं और
दिन भर आशा
करता हूं कि
सबके ऊपर निकल
जाऊं, तो
रात में जो
सपना देखूंगा
उसमें मैं
पक्षी हो जाऊंगा
और आकाश में
उड़ जाऊंगा,
और सबके ऊपर
हो जाऊंगा।
लेकिन सपने
में मैं यह
नहीं कह सकता
कि मैं
महत्वाकांक्षी
हूं। मैं इतना
ही कर सकता
हूं कि—सपने
में सारी भाषा
बदल जाएगी—मैं
एक पक्षी बनकर
आकाश में उडूंगा,
सबके ऊपर उडूगा।
तो
विजन की भी जो
भाषा है, वह
शब्दों की
नहीं है, पिक्चर
की है। और जिस
तरह अभी ड्रीम
इंटरप्रिटेशन
फ्रायड और कै
और एडलर के
बाद विकसित
हुआ कि स्वप्न
की हम
व्याख्या
करें, तभी
हम पता लगा
पाएंगे कि
मतलब क्या है;
इसी तरह
चौथे शरीर के
लोगों ने जो
कुछ कहा है, उसका इंटरप्रिटेशन,
व्याख्या
अभी भी होने
को है, वह
अभी हो नहीं
गई है। अभी तो
ड्रीम की
व्याख्या भी
पूरी नहीं हो
पा रही है, अभी
विजन की
व्याख्या तो
बहुत दूसरी
बात है—कि
विजन में जिन
लोगों ने जो
देखा है, उनका
मतलब क्या है?
वे क्या कह
रहे हैं?
हिंदुओं
के अवतार
जैविक—विकास
कम के
प्रतीकात्मक
रूप:
अब
जैसे, उदाहरण
के लिए, डार्विन
ने जब कहा कि
आदमी विकसित
हुआ है जानवरों
से, तो
उसने एक विज्ञानिक
भाषा में यह
बात लिखी।
लेकिन
हिंदुस्तान
में हिंदुओं
के अवतारों की
अगर हम कहानी
पढ़ें, तो
हमें पता
चलेगा कि वह
अवतारों की
कहानी डार्विन
के बहुत पहले
बिलकुल ठीक
प्रतीक कहानी
है। पहला
अवतार आदमी
नहीं है, पहला
अवतार मछली है।
और डार्विन का
भी पहला जो रूप
है मनुष्य का,
वह मछली है।
अब यह सिबालिक
लैंग्वेज
हुई कि हम
कहते हैं जो
पहला अवतार
पैदा हुआ, वह
मछली था—मत्सावतार।
लेकिन यह जो
भाषा है, यह
वैज्ञानिक
नहीं है। अब
कहां अवतार और
कहां मत्स्य!
हम इनकार करते
रहे उसको।
लेकिन जब
डार्विन ने
कहा कि मछली
जो है जीवन का
पहला तत्व है,
पृथ्वी पर
पहले मछली ही
आई है, इसके
बाद ही जीवन
की दूसरी
बातें आईं!
लेकिन उसका जो
ढंग है, उसकी
जो खोज है, वह
वैज्ञानिक है।
अब जिन्होंने
विजन में देखा
होगा, उन्होंने
यह देखा कि
पहला जो भगवान
है वह मछली
में ही पैदा
हुआ है। अब यह
विजन जब भाषा बोलेगा,
तो वह इस
तरह की भाषा
बोलेगा जो पैरेबल
की होगी।
फिर
कछुआ है। अब
कछुआ जो है, वह
जमीन और पानी
दोनों का
प्राणी है।
निश्चित ही, मछली के बाद
एकदम से कोई
प्राणी
पृथ्वी पर नहीं
आ सकता; जो
भी प्राणी आया
होगा, वह
अर्ध जल और
अर्ध थल का
रहा होगा। तो
दूसरा जो विकास
हुआ होगा, वह
कछुए जैसे
प्राणी का ही
हो सकता है, जो जमीन पर
भी रहता हो और
पानी में भी
रहता हो। और
फिर धीरे—
धीरे कछुओं के
कुछ वंशज जमीन
पर ही रहने
लगे होंगे और
कुछ पानी में
ही रहने लगे
होंगे, और
तब विभाजन हुआ
होगा।
अगर
हम हिंदुओं के
चौबीस
अवतारों की
कहानी पढ़ें, तो
हमें इतनी
हैरानी होगी
इस बात को
जानकर कि जिसको
डार्विन
हजारों साल
बाद पकड़ पाया,
ठीक वही
विकास क्रम
हमने पकड़
लिया! फिर जब
मनुष्य अवतार
पैदा हुआ उसके
पहले आधा
मनुष्य और आधा
सिंह का
नरसिंह अवतार
है। आखिर
जानवर भी एकदम
से आदमी नहीं
बन सकते, जानवरों
को भी आदमी
बनने में एक
बीच की कड़ी पार
करनी पड़ी होगी,
जब कि कोई
आदमी आधा आदमी
और आधा जानवर
रहा होगा। यह
असंभव है कि
छलांग सीधी लग
गई हो—कि एक
जानवर को एक
बच्चा पैदा
हुआ हो जो
आदमी का हो।
जानवर से आदमी
के बीच की एक
कड़ी खो गई है, जो नरसिंह
की ही होगी—जिसमें
आधा जानवर
होगा और आधा
आदमी होगा।
पुराणों
में छिपी
वैज्ञानिक
संभावनाएं:
अगर
हम यह सारी
बात समझें तो
हमें पता
चलेगा कि
जिसको
डार्विन बहुत
बाद में
विज्ञान की
भाषा में कह
सका,
चौथे शरीर
को उपलब्ध
लोगों ने उसे
पुराण की भाषा
में बहुत पहले
कहा है। लेकिन
आज भी, अभी
भी पुराण की
ठीक—ठीक
व्याख्या
नहीं हो पाती
है, उसकी
वजह यह है कि
पुराण बिलकुल
नासमझ लोगों के
हाथ में पड़
गया है, वह
वैज्ञानिक के
हाथ में नहीं
है।
पृथ्वी
की आयु की
पुराणों में
घोषणा:
अच्छा
दूसरी कठिनाई
यह हो गई है कि
पुराण को
खोलने के जो
कोड हैं, वे सब
खो गए हैं, वे
नहीं हैं
हमारे पास।
इसलिए बड़ी
अड़चन हो गई है।
बहुत बाद में
विज्ञान यह
कहता है कि
आदमी ज्यादा
से ज्यादा चार
हजार वर्ष तक
पृथ्वी पर और जी
सकता है। अब
विज्ञान ऐसा
कहता है।
लेकिन इसकी
भविष्यवाणी
बहुत से
पुराणों में है।
और यह वक्त
करीब—करीब वही
है जो पुराणों
में है, कि
चार हजार वर्ष
से ज्यादा
पृथ्वी नहीं
टिक सकती।
हां, विज्ञान
और भाषा बोलता
है। वह बोलता
है कि सूर्य
ठंडा होता जा
रहा है, उसकी
किरणें क्षीण
होती जा रही
हैं, उसकी
गर्मी की
ऊर्जा बिखरती
जा रही है, वह
चार हजार वर्ष
में ठंडा हो
जाएगा। उसके
ठंडे होते से
ही पृथ्वी पर
जीवन समाप्त हो
जाएगा। पुराण
और तरह की
भाषा बोलते
हैं। लेकिन...
और अभी भी यह
पक्का नहीं है,
क्योंकि ये
चार हजार वर्ष
और अगर पुराण
कहें पांच
हजार वर्ष, तो अभी भी यह
पक्का नहीं है
कि विज्ञान जो
कहता है वह
बिलकुल ठीक ही
कह रहा है, पांच
हजार भी हो
सकते हैं। और
मेरा मानना है
कि पांच हजार
ही होंगे।
क्योंकि
विज्ञान के
गणित में भूल—चूक
हो सकती है, विजन में
भूल— चूक नहीं
होती। और
इसीलिए
विज्ञान रोज
सुधरता है—कल
कुछ कहता है, परसों कुछ
कहता है, रोज
हमें बदलना
पड़ता है; न्यूटन
कुछ कहता है, आइंस्टीन
कुछ कहता है।
हर पांच वर्ष
में विज्ञान
को अपनी धारणा
बदलनी पड़ती है,
क्योंकि और एग्जेक्ट
उसको पता लगता
है कि और भी
ज्यादा ठीक यह
होगा। और बहुत
मुश्किल है यह
बात तय करनी
कि अंतिम जो
हम तय करेंगे,
वह चौथे
शरीर में देखे
गए लोगों से
बहुत भिन्न
होगा।
और
अभी भी जो हम
जानते हैं, उस
जानने से अगर
मेल न खाए, तो
बहुत जल्दी
निर्णय लेने
की जरूरत नहीं
है; क्योंकि
जिंदगी इतनी
गहरी है कि
जल्दी निर्णय
सिर्फ
अवैज्ञानिक
चित्त ही ले
सकता है; जिंदगी
इतनी गहरी है!
अब अगर हम
वैज्ञानिकों
के ही सारे सत्यों
को देखें, तो
हम पाएंगे कि
उनमें से सौ
साल में सब
विज्ञान के
सत्य पुराण—कथाएं
हो जाते हैं, उनको फिर
कोई मानने को
तैयार नहीं रह
जाता, क्योंकि
सौ साल में और
बातें खोज में
आ जाती हैं।
अब
जैसे, पुराण
के जो सत्य थे,
उनका कोड खो
गया है; उनको
खोलने की जो
कुंजी है, वह
खो गई है।
उदाहरण के लिए,
समझ लें कि
कल तीसरा
महायुद्ध हो
जाए। और तीसरा
महायुद्ध अगर
होगा, तो
उसके जो
परिणाम होंगे,
पहला
परिणाम तो यह
होगा कि जितना
शिक्षित, सुसंस्कृत
जगत है वह मर
जाएगा। यह बड़े
आश्चर्य की
बात है!
अशिक्षित और
असंस्कृत जगत
बच जाएगा। कोई
आदिवासी, कोई
कोल, कोई
भील जंगल—पहाड़
पर बच जाएगा।
बंबई में नहीं
बच सकेंगे आप,
न्यूयार्क
में
नहीं बच
सकेंगे। जब भी
कोई महान
युद्ध होता है, तो
जो उस समाज का
श्रेष्ठतम
वर्ग है, वह
सबसे पहले मर
जाता है, क्योंकि
चोट उस पर
होती है। बस्तर
की रियासत का
एक कोल और भील
बच जाएगा। वह
अपने बच्चों
से कह सकेगा
कि आकाश में
हवाई जहाज
उड़ते थे।
लेकिन बता
नहीं सकेगा, कैसे उड़ते
थे। तो उसने
उड़ते देखे हैं,
वह झूठ नहीं
बोल रहा।
लेकिन उसके
पास कोई कोड
नहीं है; क्योंकि
जिनके पास कोड
था वे बंबई
में थे, वे मर
गए हैं। और
बच्चे एकाध—दो
पीढ़ी तक
तो भरोसा
करेंगे, इसके
बाद बच्चे
कहेंगे कि
आपने देखा? तो उनके बाप
कहेंगे—नहीं,
हमने सुना;
ऐसा हमारे
पिता कहते थे।
और उनके पिता
से उन्होंने
सुना था कि
आकाश में हवाई
जहाज उड़ते थे,
फिर युद्ध
हुआ और फिर सब
खत्म हो गया।
बच्चे धीरे—
धीरे कहेंगे
कि कहां हैं
वे हवाई जहाज?
कहां हैं
उनके निशान? कहां हैं वे
चीजें? दो
हजार साल बाद
वे बच्चे
कहेंगे—सब
कपोल— कल्पना
है, कभी
कोई नहीं उड़ा—करा।
महाभारत
युद्ध तक
विकसित
श्रेष्ठ
विज्ञान नष्ट
हो गया:
ठीक
ऐसी घटनाएं घट
गई हैं।
महाभारत ने इस
देश के पास
साइकिक माइंड
से जो—जो
उपलब्ध ज्ञान
था,
वह सब नष्ट
कर दिया, सिर्फ
कहानी रह गई।
सिर्फ कहानी
रह गई। अब
हमें शक आता
है कि राम जो
हैं वे हवाई जहाज
पर बैठकर लंका
से आए हों, हमें
शक आता है। यह
शक की बात है, क्योंकि एक
साइकिल भी तो
नहीं छूट गई
उस जमाने की, हवाई जहाज
तो बहुत दूर
की बात है। और
किसी ग्रंथ
में कोई एक
सूत्र भी तो
नहीं छूट गया।
असल
में,
महाभारत के
बाद उसके पहले
का समस्त ज्ञान
नष्ट हो गया, स्मृति के
द्वारा जो याद
रखा जा सका, वह रखा गया।
इसलिए पुराने
ग्रंथ का नाम
स्मृति है, वह मेमोरी
है। सुनी हुई
बात है, वह
देखी हुई बात
नहीं है।
इसलिए पुराने
ग्रंथ को हम
कहते हैं—स्मृति,
श्रुति—सुनी
हुई और स्मरण
रखी गई; वह
देखी हुई बात
नहीं है। किसी
ने किसी को
कही थी, किसी
ने किसी को
कही थी, किसी
ने किसी को
कही थी, वह
हम बचाकर रख
लिए हैं, ऐसा
हुआ था। लेकिन
अब हम कुछ भी
नहीं कह सकते
कि वह हुआ था, क्योंकि उस
समाज का जो
श्रेष्ठतम
बुद्धिमान वर्ग
था... और ध्यान
रहे, दुनिया
की जो
बुद्धिमत्ता
है, वह दस—
पच्चीस लोगों
के पास होती
है। अगर एक
आइंस्टीन मर
जाए तो
रिलेटिविटी
की थियरी
बतानेवाला
दूसरा आदमी
खोजना
मुश्किल हो जाता
है। आइंस्टीन
खुद कहता था
अपनी जिंदगी
में कि दस—बारह
आदमी ही हैं
केवल जो मेरी
बात समझ सकते
हैं—पूरी
पृथ्वी पर।
अगर ये बारह
आदमी मर जाएं
तो हमारे पास
किताब तो होगी
जिसमें लिखा
है कि
रिलेटिविटी
की एक थियरी
होती है, लेकिन
एक आदमी समझनेवाला,
एक समझानेवाला
नहीं होगा।
तो
महाभारत ने
श्रेष्ठतम
व्यक्तियों
को नष्ट कर
दिया, उसके
बाद जो बातें
रह गईं वे
कहानी की रह
गईं। लेकिन अब
प्रमाण खोजे
जा रहे हैं, और अब खोजा
जा सकता है।
लेकिन हम तो
अभागे हैं; क्योंकि हम
तो कुछ भी
नहीं खोज सकते।
पिरामिडों
के निर्माण
में मनस शक्ति
का उपयोग:
ऐसी
जगहें खोजी गई
हैं,
जो इस बात
का सबूत देती
हैं कि वे कम
से कम तीन हजार
या चार हजार
या पांच हजार
वर्ष पुरानी
हैं, और
किसी वक्त
उन्होंने
वायुयान को
उतरने के लिए
एयरपोर्ट का
काम किया है।
ऐसी जगह खोजी
गई हैं। अच्छा,
उतने बड़े
स्थान को
बनाने की और
कोई जरूरत
नहीं थी। ऐसी
चीजें खोज ली
गई हैं जो कि
बहुत बड़ी
यांत्रिक
व्यवस्था के
बिना नहीं बन
सकती थीं।
जैसे पिरामिड
पर चढ़ाए
गए पत्थर हैं।
ये पिरामिड पर
चढ़ाए गए
पत्थर आज भी
हमारे बड़े से
बड़े क्रेन की
सामर्थ्य के
बाहर पड़ते हैं।
लेकिन ये
पत्थर चढ़ाए
गए, यह तो
साफ है, ये पत्थर
चढ़ाकर और
रखे गए, यह
तो साफ है। और
ये आदमी ने चढ़ाए
हैं। इन
आदमियों के
पास कुछ चाहिए।
तो या तो मशीन
रही हो; और
या फिर मैं
कहता हूं चौथे
शरीर की कोई
शक्ति रही हो।
वह मैं आपसे
कहता हूं उसको
आप कभी प्रयोग
करके देखें।
एक
आदमी को आप
लिटा लें और
चार आदमी
चारों तरफ खड़े
हो जाएं। दो
आदमी उसके पैर
के घुटने के
नीचे दो अंगुलियां
लगाएं दोनों
तरफ और दो
आदमी उसके
दोनों कंधों
के नीचे अंगुलियां
लगाएं—एक—एक
अंगुली ही
लगाएं। और
चारों संकल्प
करें कि हम एक—एक
अंगुली से इसे
उठा लेंगे! और
चारों श्वास
को लें पांच
मिनट तक जोर
से,
इसके बाद
श्वास रोक लें
और उठा लें।
वह एक—एक
अंगुली से
आदमी उठ जाएगा।
तो
पिरामिड पर जो
पत्थर चढ़ाए
गए,
या तो क्रेन
से चढ़ाए
गए और या फिर
साइकिक फोर्स
से चढाए
गए—कि चार
आदमियों ने एक
बड़े पत्थर को
एक—एक अंगुली
से उठा दिया।
इसके सिवाय
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन वे
पत्थर चढे
हैं, वे
सामने हैं, और उनको
इनकार नहीं
किया जा सकता,
क्योंकि वे
पत्थर चढ़े हुए
हैं।
जीवन के
अज्ञात
रहस्यों की
मनस शक्ति द्वारा
खोज:
और
दूसरी बात जो
जानने की है
वह यह जानने
की है कि
साइकिक फोर्स
की इनफिनिट
डायमेंशन हैं।
एक आदमी जिसको
चौथा शरीर
उपलब्ध हुआ है, वह
चांद के संबंध
में ही जाने, यह जरूरी
नहीं है। वह
जानना ही न
चाहे, चांद
के संबंध में
जानना ही न
चाहे, जानने
की उसे कोई
जरूरत भी नहीं
है। वे जो
चौथे शरीर को
विकसित
करनेवाले लोग
थे, वे कुछ
और चीजें
जानना चाहते थे,
उनकी
उत्सुकता
किन्हीं और
चीजों में थी,
और ज्यादा
कीमती चीजों
में थी।
उन्होंने वे
जानी।
वे
प्रेत को
जानना चाहते
थे कि
प्रेतात्मा
है या नहीं? वह
उन्होंने
जाना। और अब
विज्ञान खबर
दे रहा है कि
प्रेतात्मा है।
वे जानना
चाहते थे कि
लोग मरने के
बाद कहां जाते
हैं? कैसे
जाते हैं? क्योंकि
चौथे शरीर में
जो पहुंच गया
है उसकी पदार्थ
के प्रति
उत्सुकता कम
हो जाती है; उसकी चिंता
बहुत कम रह
जाती है कि
जमीन की गोलाई
कितनी है।
उसका कारण है
कि वह जिस
स्थिति में
खड़ा होता है...
जैसे
एक बड़ा आदमी
है। छोटे
बच्चे उससे
कहें कि हम तुम्हें
ज्ञानी नहीं
मानते, क्योंकि
तुम कभी नहीं
बताते कि यह
गुड्डा कैसे
बनता है। हम
तुम्हें
ज्ञानी कैसे
मानें! एक
लड़का हमारे
पड़ोस में है, वह बताता है
कि गुड्डा
कैसे बनता है,
वह ज्यादा
ज्ञानी है।
उनका कहना ठीक
है, उनकी
उत्सुकता का
भेद है। एक
बड़े आदमी को
कोई उत्सुकता
नहीं है कि
गुड्डे के
भीतर क्या है,
लेकिन छोटे
बच्चे को है।
चौथे
शरीर में
पहुंचे हुए
आदमी की इंक्वायरी
बदल जाती है; वह
कुछ और जानना
चाहता है। वह
जानना चाहता
है कि मरने के
बाद आदमी का यात्रापथ
क्या है? वह
कहां जाता है?
वह किस यात्रापथ
से यात्रा
करता है? उसकी
यात्रा के
नियम क्या हैं?
वह कैसे
जन्मता है, वह कहां
जन्मता है, कब जन्मता
है? उसके
जन्म को क्या
सुनियोजित
किया जा सकता
है?
उसकी
उत्सुकता
इसमें नहीं थी
कि चांद पर
आदमी पहुंचे, क्योंकि
यह बेमानी है,
इसका कोई
मतलब नहीं है।
उसकी
उत्सुकता
इसमें थी कि आदमी
मुक्ति में
कैसे पहुंचे?
और वह बहुत मीनिगफुल
है। उसकी फिकर
थी कि जब एक
बच्चा गर्भ
में आता है तो
आत्मा कैसे
प्रवेश करती
है? क्या
हम गर्भ चुनने
में उसके लिए
सहयोगी हो सकते
हैं? कितनी
देर लगती है?
तिब्बत
में मृत
आत्माओं पर
प्रयोग:
अब
तिब्बत में एक
किताब है: तिबेतन
बुक ऑफ दि डेड।
तो अब तिब्बत
का जो भी चौथे
शरीर को
उपलब्ध आदमी
था,
उसने सारी
मेहनत इस बात
पर की है कि
मरने के बाद
हम किसी आदमी
को क्या
सहायता
पहुंचा सकते
हैं। आप मर गए,
मैं आपको
प्रेम करता
हूं लेकिन
मरने के बाद
मैं आपको कोई
सहायता नहीं
पहुंचा सकता।
लेकिन तिब्बत
में पूरी
व्यवस्था है
सात सप्ताह की,
कि मरने के
बाद सात
सप्ताह तक उस
आदमी को कैसे सहायता
पहुंचाई
जाए; और
उसको कैसे
गाइड किया जाए;
और उसको
कैसे विशेष
जन्म लेने के
लिए उत्पेरित
किया जाए; और
उसे कैसे
विशेष गर्भ
में प्रवेश
करवा दिया जाए।
अभी
विज्ञान को
वक्त लगेगा कि
वह इन सब
बातों का पता
लगाए; लेकिन
यह लग जाएगा
पता, इसमें
अड़चन नहीं है।
और फिर इसकी
वैलिडिटी के
भी सब
उन्होंने
उपाय खोजे
थे कि इसकी
जांच कैसे हो।
प्रधान
लामा के चुनाव
की विधि:
अभी
फिलहाल जो
लामा है.....तिब्बत
में लामा जो
है,
पिछला लामा
जो मरता है, वह बताकर
जाता है कि
अगला मैं किस
घर में जन्म लूंगा;
और तुम मुझे
कैसे पहचान
सकोगे, उसके
सिंबल्स
दे जाता है।
फिर उसकी खोज
होती है पूरे
मुल्क में कि
वह अब बच्चा
कहां है। और
जो बच्चा उस
सिंबल का राज
बता देता है, वह समझ लिया
जाता है कि वह
पुराना लामा
है। और वह राज
सिवाय उस आदमी
के कोई बता
नहीं सकता, जो बता गया
था। तो यह जो
लामा है, ऐसे
ही खोजा गया।
पिछला लामा
कहकर गया था।
इस बच्चे की
खोज बहुत दिन
करनी पड़ी।
लेकिन आखिर वह
बच्चा मिल गया।
क्योंकि एक
खास सूत्र था
जो कि हर गांव
में जाकर
चिल्लाया
जाएगा और जो
बच्चा उसका
अर्थ बता दे, वह समझ लिया
जाएगा कि वह
पुराने लामा
की आत्मा
उसमें प्रवेश
कर गई।
क्योंकि उसका
अर्थ तो किसी
और को पता ही
नहीं था, वह
तो बहुत
सीक्रेट
मामला है।
तो
वह चौथे शरीर
के आदमी की क्यूरिआसिटी
अलग थी। वह
अपनी उस जिज्ञासा...
और अनंत है यह
जगत,
और अनंत हैं
इसके राज, और
अनंत हैं इसके
रहस्य। अब ये
जितनी साइंस
को हमने जन्म
दिया है, भविष्य
में ये ही
साइंस रहेंगी,
यह मत सोचिए,
और नई हजार
साइंस पैदा हो
जाएंगी, क्योंकि
और हजार आयाम
हैं जानने के।
और जब वे नई
साइंसेस पैदा
होंगी, तब
वे कहेंगी कि
पुराने लोग विज्ञानिक
न रहे, वे
यह क्यों नहीं
बता पाए?
नहीं, हम
कहेंगे.
पुराने लोग भी
विज्ञानिक
थे, उनकी जिज्ञासा
और थी। जिज्ञासा
का इतना फर्क
है कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
वनस्पतियों
से बात
करनेवाला
वैद्य लुकमान:
अब
जैसे कि हम
कहेंगे कि आज
बीमारियों का
इलाज हो गया
है,
पुराने
लोगों ने इन
बीमारियों के
इलाज क्यों न
बता दिए!
लेकिन आप
हैरान होंगे
जानकर कि आयुर्वेद
में या यूनानी
में इतनी जड़ी—बूटियों
का हिसाब है, और इतना
हैरानी का है
कि जिनके पास
कोई प्रयोगशालाएं
न थीं वे कैसे
जान सके कि यह
जड़ी—बूटी फलां
बीमारी पर इस
मात्रा में
काम करेगी?
तो
लुकमान के
बाबत कहानी है।
क्योंकि कोई
प्रयोगशाला
तो नहीं थी, पर
चौथे शरीर से
काम हो सकता
था। लुकमान के
बाबत कहानी है
कि वह एक—एक
पौधे के पास
जाकर पूछेगा
कि तू किस काम
में आ सकता है,
यह बता दे।
अब यह कहानी
बिलकुल फिजूल
हो गई है आज।
आज कोई पौधे
से.. .क्या मतलब
है इस बात का? लेकिन अभी
पचास साल पहले
तक हम नहीं
मानते थे कि
पौधे में
प्राण है। इधर
पचास साल में विज्ञान
ने स्वीकार
किया कि पौधे
में प्राण है।
इधर तीस साल
पहले तक हम
नहीं मानते थे
कि पौधा श्वास
लेता है। इधर
तीस साल में
हमने स्वीकार
किया कि पौधा
श्वास लेता है।
अभी पिछले
पंद्रह साल तक
हम नहीं मानते
थे कि पौधा
फील करता है।
अभी पंद्रह
साल में हमने
स्वीकार किया
कि पौधा
अनुभूति भी
करता है। और
जब आप क्रोध
से पौधे के
पास जाते हैं
तब पौधे की
मनोदशा बदल
जाती है, और
जब आप प्रेम
से जाते हैं
तो मनोदशा बदल
जाती है। कोई
आश्चर्य नहीं
कि आनेवाले
पचास साल में
हम कहें कि
पौधे से बोला
जा सकता है।
यह तो क्रमिक
विकास है। और
लुकमान सिद्ध
हो सही कि
उसने पूछा हो
पौधों से कि
किस काम में
आएगा, यह
बता दे।
लेकिन
यह ऐसी बात
नहीं कि हम
सामने बोल सकें, यह
चौथे शरीर पर
संभव है। यह
चौथे शरीर पर
संभव है कि
पौधे को
आत्मसात किया
जा सके, उसी
से पूछ लिया
जाए। और मैं
भी मानता हूं
क्योंकि कोई
लेबोरेटरी इतनी
बडी नहीं
मालूम पड़ती कि
लुकमान लाख—लाख
जडी—बूटियों
का पता बता
सके। यह इसका
कोई उपाय नहीं
है; क्योंकि
एक—एक जड़ी—बूटी
की खोज करने
में एक—एक
लुकमान की
जिंदगी लग
जाती है। वह
एक लाख—करोड़
जड़ी—बूटियों
के बाबत कह
रहा है कि यह
इस काम में आएगी।
और अब विज्ञान
सही कहता है
कि ही, वह
इस काम में
आती है। वह आ
रही है इस काम
में।
यह
जो सारी की
सारी खोजबीन
अतीत की है, वह
सारी की सारी
खोजबीन चौथे
शरीर में
उपलब्ध लोगों
की ही है। और
उन्होंने
बहुत बातें
खोजी थीं, जिनका
हमें खयाल ही
नहीं है।
अब
जैसे कि हम
हजारों
बीमारियों का
इलाज कर रहे
हैं जो बिलकुल
अवैज्ञानिक
है। चौथे शरीरवाला
आदमी कहेगा ये
तो बीमारियां
ही नहीं हैं, इनका
तुम इलाज
क्यों कर रहे
हो?
लेकिन
अब विज्ञान
समझ रहा है।
अभी एलोपैथी
नये प्रयोग कर
रही है। अभी
अमेरिका के
कुछ हास्पिटल्स
में
उन्होंने....... दस
मरीज हैं एक
ही बीमारी के, तो
पांच मरीज को
वे पानी का इंजेक्यान
दे रहे हैं, पांच को दवा
दे रहे हैं।
बड़ी हैरानी की
बात यह है कि दवावाले
भी उसी अनुपात
में ठीक होते
हैं और पानीवाले
भी उसी अनुपात
में ठीक होते
हैं। इसका
अर्थ यह हुआ
कि पानी से
ठीक होनेवाले
रोगियों को
वास्तव में
कोई रोग नहीं
था, बल्कि
उन्हें बीमार
होने का भ्रम
भर था।
अगर
ऐसे लोगों को, जिन्हें
कि बीमार होने
का भ्रम है, दवाइयां दी
गईं तो उसका
विषाक्त और
विपरीत परिणाम
होगा। उनका
इलाज करने की
कोई जरूरत
नहीं है। इलाज
करने से
नुकसान हो रहा
है, और
बहुत सी
बीमारियां
इलाज करने से
पैदा हो रही
हैं, जिनको
फिर ठीक करना
मुश्किल होता
चला जाता है।
क्योंकि अगर
आपको बीमारी
नहीं है, और
आपको फेंटम
बीमारी है, और आपको
असली दवाई दे
दी गई, तो
आप मुश्किल
में पड़े। अब
वह असली दवाई
कुछ तो करेगी
आपके भीतर
जाकर; वह पायजन
करेगी, वह
आपको दिक्कत
में डालेगी।
अब उसका इलाज
चलाना पड़ेगा।
आखिर में फेंटम
बीमारी मिट
जाएगी और असली
बीमारी पैदा
हो जाएगी।
और
सौ में से, पुराना
विज्ञान तो
कहता है, नब्बे
प्रतिशत
बीमारियां फेंटम हैं।
अभी पचास साल
पहले तक
एलोपैथी नहीं
मानती थी कि फेंटम
बीमारी होती
है। लेकिन अब
एलोपैथी कहती
है, पचास परसेंट तक
हम राजी हैं।
मैं कहता हूं
नब्बे परसेंट
तक चालीस वर्षों
में, पचास
वर्षों में
राजी होना
पड़ेगा; नब्बे
परसेंट
तक राजी होना
पड़ेगा।
क्योंकि
असलियत वही है।
विज्ञान
की भाषा अलग
और पुराण की
अलग:
यह
जो......इस चौथे
शरीर में जो
आदमी ने जाना
है,
उसकी
व्याख्या
करनेवाला
आदमी नहीं है,
उसकी
व्याख्या खोजनेवाला
आदमी नहीं है।
उसको ठीक जगह
पर, ठीक आज
के पर्सपेक्टिव
में और आज के
विज्ञान की
भाषा में रख
देनेवाला
आदमी नहीं है।
वह तकलीफ हो
गई है। और कोई
तकलीफ नहीं हो
गई है। और जरा
भी तकलीफ नहीं
है। अब होता
क्या है, जैसा
मैंने कहा कि पैरेबल की
जो भाषा है वह
अलग है।
सूरज के
सात घोड़े:
आज
विज्ञान कहता
है कि सूरज की
हर किरण
प्रिज्म में
से निकलकर सात
हिस्सों में
टूट जाती है, सात
रंगों में बंट
जाती है। वेद
का ऋषि कहता
है कि सूरज के
सात घोड़े हैं,
सात रंग के
घोड़े हैं। अब
यह पैरेबल
की भाषा है।
सूरज की किरण
सात रंगों में
टूटती है, सूरज
के सात घोड़े
हैं, सात
रंग के घोड़े
हैं, उन पर
सूरज सवार है।
अब यह कहानी
की भाषा है।
इसको किसी दिन
हमें समझना
पड़े कि यह
पुराण की भाषा
है, यह
विज्ञान की
भाषा है।
लेकिन इन
दोनों में
गलती क्या है?
इसमें
कठिनाई क्या
है? यह ऐसे
भी समझी जा
सकती है।
इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
विज्ञान
बहुत पीछे समझ
पाता है बहुत
सी बातों को।
असल में, साइकिक
फोर्स के आदमी
बहुत पहले प्रेडिक्ट
कर जाते हैं।
लेकिन जब वे प्रेडिक्ट
करते हैं तब
भाषा नहीं
होती। भाषा तो
बाद में जब
विज्ञान
खोजता है तब
बनती है; पहले
भाषा नहीं होती।
अब जैसे कि आप
हैरान होंगे,
कोई भी गणित
है, लैंग्वेज है, कोई
भी दिशा में
अगर आप खोजबीन
करें, तो
आप पाएंगे—विज्ञान
तो आज आया है, भाषा तो
बहुत पहले आई,
गणित बहुत
पहले आया। जिन
लोगों ने यह
सारी खोजबीन
की, जिन्होंने
यह सारा हिसाब
लगाया, उन्होंने
किस हिसाब से
लगाया होगा? उनके पास
क्या माध्यम
रहे होंगे, उन्होंने
कैसे नापा
होगा? उन्होंने
कैसे पता
लगाया होगा कि
एक वर्ष में पृथ्वी
सूरज का एक
चक्कर लगा
लेती है? एक
वर्ष में
चक्कर लगाती
है, उसी
हिसाब से वर्ष
है। वर्ष तो
बहुत पुराना
है, विज्ञान
के बहुत पहले
का है। वर्ष
में तीन सौ
पैंसठ दिन
होते हैं, यह
तो विज्ञान के
बहुत पहले
हमें पता हैं।
जब तक किन्हीं
ने यह देखा न
हो.. .लेकिन
देखने का कोई
वैज्ञानिक
साधन नहीं था।
तो सिवाय
साइकिक विजन
के और कोई
उपाय नहीं था।
मनस
शक्ति द्वारा
पृथ्वी को
अंतरिक्ष से
देखना:
एक
बहुत अदभुत
चीज मिली है।
अरब में एक
आदमी के पास
सात सौ वर्ष
पुराना दुनिया
का नक्शा
मिला है—सात
सौ वर्ष
पुराना
दुनिया का नक्शा
है। और वह नक्शा
ऐसा है कि
बिना हवाई जहाज
के ऊपर से
बनाया नहीं जा
सकता; क्योंकि
वह नक्शा
जमीन पर देखकर
बनाया हुआ
नहीं है। बन
नहीं सकता। आज
भी पृथ्वी
हवाई जहाज पर
से जैसी दिखाई
पड़ती है, वह
नक्शा वैसा
है। और वह सात
सौ वर्ष
पुराना है।
तो
अब दो ही उपाय
हैं. या तो सात
सौ वर्ष पहले
हवाई जहाज हो, जो
कि नहीं था।
दूसरा उपाय
यही है कि कोई
आदमी अपने
चौथे शरीर से
इतना ऊंचा
उठकर जमीन को
देख सके और नक्शा
खींचे। सात सौ
वर्ष पहले
हवाई जहाज
नहीं था, यह
तो पक्का है।
इसकी कोई
कठिनाई नहीं
है। यह तय है।
सात सौ वर्ष
पहले हवाई जहाज
नहीं था, लेकिन
यह सात सौ
वर्ष पुराना नक्शा
इस तरह है
जैसे कि ऊपर
से देखकर
बनाया गया है।
तो अब इसका
क्या.......
शरीर की
सूक्ष्मतम
अंतस—रचना का
ज्ञान:
अगर
हम चरक और
सुश्रुत को
समझें तो हमें
हैरानी हो
जाएगी। आज हम
आदमी के शरीर
को काट—पीटकर
जो जान पाते
हैं,
उसका वर्णन
तो है। तो दो
ही उपाय हैं
या तो सर्जरी
इतनी बारीक हो
गई हो। जो कि
नहीं दिखाई
पड़ती; क्योंकि
सर्जरी का एक इंसूमेंट
नहीं मिलता, सर्जरी के
विज्ञान की
कोई किताब
नहीं मिलती है।
लेकिन आदमी के
भीतर के बारीक
से बारीक
हिस्से का
वर्णन है। और
ऐसे हिस्सों
का भी वर्णन
है जो विज्ञान
बहुत बाद में
पकड़ पाया है; जो अभी पचास
साल पहले
इनकार करता था,
उनका भी
वर्णन है कि
वे वहां भीतर
हैं। तो एक ही
उपाय है कि
किसी व्यक्ति
ने विजन की
हालत में
व्यक्ति के
भीतर प्रवेश
करके देखा हो।
असल
में,
आज हम जानते
हैं कि एक्सरे
की किरण आदमी
के शरीर में
पहुंच जाती है।
सौ साल पहले
अगर कोई आदमी
कहता कि हम
आपके भीतर की
हड्डियों का
चित्र उतार
सकते हैं, हम
मानने को राजी
न होते। आज
हमें मानना
पड़ता है, क्योंकि
वह उतार रहा
है। लेकिन
क्या आपको पता
है कि चौथे
शरीर की स्थिति
में आदमी की आंख
एक्सरे से
ज्यादा गहरा
देख पा सकती
है, और
आपके शरीर का
पूरा—पूरा
चित्र बनाया
जा सकता है, जो कि कभी
काट—पीटकर
नहीं किया गया।
और
हिंदुस्तान
जैसे मुल्क
में, जहां
कि हम मुर्दे
को जला देते
थे, काटने—पीटने
का उपाय नहीं
था।
सर्जरी
पश्चिम में
इसलिए विकसित
हुई कि मुर्दे
गड़ाए
जाते थे, नहीं
तो हो नहीं
सकती थी। और
आप जानकर यह
हैरान होंगे
कि यह अच्छे
आदमियों की
वजह से विकसित
नहीं हुई, यह
कुछ चोरों की
वजह से विकसित
हुई जो मुर्दों
को चुरा लाते
थे।
हिंदुस्तान
में तो विकसित
हो नहीं सकती
थी, क्योंकि
हम जला देते
हैं। और जलाने
का हमारा खयाल
था, कोई
वजह थी, इसलिए
जलाते थे।
यह
साइकिक लोगों
का ही खयाल था
कि अगर शरीर
बना रहे, तो
आत्मा को नया
जन्म लेने में
बाधा पड़ती है;
वह उसी के
आसपास घूमती
रहती है। उसको
जला दो, ताकि
इस झंझट से
उसका छुटकारा
हो जाए; वह
इसके आसपास न
घूमे; वह
बात ही खत्म
हो गई। और यह
अपने सामने ही
उस शरीर को
जलता हुआ देख
ले, जिस
शरीर को इसने
समझा था कि
मैं हूं। ताकि
दूसरे शरीर
में भी इसको
शायद स्मृति
रह जाए कि यह
शरीर तो जल
जानेवाला है।
तो हम उसको
जलाते थे।
इसलिए सर्जरी
विकसित न हो
सकी; क्योंकि
आदमी को काटना
पड़े, पीटना
पड़े, टेबल
पर रखना पड़े।
यूरोप में भी
चोरों ने
लोगों की
लाशें चुरा—चुराकर
वैशानिकों
के घर में पहुंचाईं,
मुकदमे चले,
अदालतों
में दिक्कतें
हुईं, क्योंकि
वह लाश को
लाना गैर—कानूनी
था, और मरे
हुए आदमी को
काटना जुर्म
है। लेकिन वे
काट—काटकर जिन
बातों पर
पहुंचे हैं, उन्हें बिना
काटे भी आज से
तीन हजार वर्ष
पुरानी
किताबें
पहुंच गईं उन
बातों पर।
तो
इसका मतलब
सिर्फ इतना ही
होता है कि
बिना प्रयोग
के भी किन्हीं
और दिशाओं से
भी चीजों को
जाना जा सका
है। कभी इस पर
पूरी ही आपसे
बात करना
चाहूंगा। दस—पंद्रह
दिन बात करनी
पड़े,
तब थोड़ा
खयाल में आ
सकता है।
आज
इतना ही।
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