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बुधवार, 17 जून 2015

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--201

फलाकांक्षा का त्‍याग—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—18
सूत्र—

            नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोययद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामम: यरिकीर्तित:।। 7।।
दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशमयाल्यजेत्।
स कृत्या राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।। 8।।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्‍वा फलं चैव स त्याग: सास्थ्यिाए मत:।। 9।।

और हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नही है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है।
और यदि कोई मनुष्य, जो कुछ कर्म है वह सब ही दुखरूप है, ऐसा समझकर शाशीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरूष उस राजस त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।
और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर ही जो शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्‍ति को और फल को त्याग कर किया जाता है, वह ही सात्‍विक कहा जाते है।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू—पूर्णिमा के रूप में मनाने का क्या राज है?

 र्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है।
एक तो राह है जीवन को देखने की गणित की, और एक राह है जीवन को देखने की काव्य की। गणित की यात्रा विज्ञान पर पहुंचा देती है। और अगर काव्य की यात्रा पर कोई चलता ही चला जाए, तो परम काव्य परमात्मा पर पहुंच जाता है। लेकिन काव्य की भाषा को समझना थोड़ा दुरूह है, क्योंकि तुम्हारे जीवन की सारी भाषा गणित की भाषा है। तो गणित की भाषा से तो तुम परिचित हो, काव्य की भाषा से परिचित नहीं हो।
दो भूलों की संभावना है। पहली तो भूल यह है कि तुम काव्य की भाषा को केवल कविता समझ लो, एक कल्पना मात्र! तब तुमने पहली भूल की। और दूसरी भूल यह है कि तुम कविता की भाषा को गणित की तरह सच समझ लो, तथ्य समझ लो, तब भी भूल हो गई। दोनों से जो बच सके, वह समझ पाएगा कि आषाढ़ पूर्णिमा का गुरु—पूर्णिमा होने का क्या कारण है।
काव्य की भाषा तथ्यों के संबंध में नहीं है, रहस्यों के संबंध में है। जब कोई प्रेमी कहता है अपनी प्रेयसी से कि तेरा चेहरा चांद जैसा, तो कोई ऐसा अर्थ नहीं है कि चेहरा चांद जैसा है। फिर भी वक्तव्य व्यर्थ भी नहीं है। चांद जैसा तो चेहरा हो कैसे सकता है?
आइंस्टीन का बड़ा प्रसिद्ध मजाक है। उसने जिस युवती से विवाह किया था, वह थोड़ी कविता करती थी, फ्रा आइंस्टीन। आइंस्टीन ने उससे कहा, मैं समझ ही नहीं पाता। क्योंकि आइंस्टीन तो गणित, साकार गणित, गणित का अवतार। शायद पृथ्वी पर वैसा कोई गणितज्ञ कभी हुआ ही नहीं, और होगा भी, यह भी संदिग्ध है। तो उसने कहा, यह मैं समझ ही नहीं पाता। ये कविताएं बिलकुल बेबूझ मालूम पड़ती हैं। लोग कहते हैं, प्रेयसी का चेहरा चांद जैसा! चांद न तो सुंदर है.।
चांद पर जाकर चांद—यात्रियों को पता चल गया कि आइंस्टीन सही है, सब कवि गलत हैं। खाई—खड्ड हैं; न कोई हरियाली है, न कोई लहलहाती झीलें हैं, न फूल खिलते हैं, न पक्षी गीत गाते हैं; मरुस्थल है। और इतना मुरदा मरुस्थल है कि जहां कोई, कुछ भी जीवित नहीं है। सौंदर्य की बात इस मरघट से क्या हो सकती है? और स्त्री के चेहरे को चांद का चेहरा कहना! आइंस्टीन ने कहा, अनुपात भी नहीं बैठता, कितना बडा चांद, कितना छोटा—सा चेहरा! बात ठीक ही है। अगर काव्य की भाषा को तुमने तथ्य की भाषा समझा, तो यही स्थिति बनेगी।
फिर दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने काव्य की भाषा को तथ्य की भाषा सिद्ध करने की चेष्टा की है। जैसे जीसस को कहा है ईसाइयों ने कि वे कुंआरी मां से पैदा हुए।
यह काव्य है। कुंआरी मां से कोई कभी पैदा नहीं होता। यह तथ्य नहीं है, यह इतिहास नहीं है, पर फिर भी बड़ा अर्थपूर्ण है, इतिहास से भी ज्यादा अर्थपूर्ण है। यह बात अगर इतिहास से भी घटती, तो दो कौड़ी की होती। इसमें जानने वालों ने कुछ कहने की कोशिश की है, जो साधारण भाषा में समाता नहीं।
उन्होंने यह कहा है कि जीसस जैसा व्यक्ति सिर्फ कुंआरी मां से ही पैदा हो सकता है। जीसस जैसी पवित्रता, कल्पना भी हम नहीं कर सकते कि कुंआरेपन के अतिरिक्त और कहा से पैदा होगी!
तो जिन्होंने कहा है कि जीसस कुंआरी मां से पैदा हुए, उन्होंने जरूर बडी गहरी बात कही है, बड़ी अर्थपूर्ण, लेकिन भाषा तथ्य की नहीं है, भाषा काव्य की है। वे यह कह रहे हैं कि जीसस को देखकर हमें इस असंभव पर भी भरोसा आता है कि वे कुंआरी मां से ही पैदा हुए होंगे।
इसे न तो सिद्ध करने की कोई जरूरत है, न असिद्ध करने की कोई जरूरत है। दोनों ही नासमझियां हैं। इसे समझने की जरूरत है। काव्य एक सहानुभूति चाहता है।
महावीर को प्रेम करने वाले लोग कहते हैं कि उनके शरीर से पसीना नहीं बहता था, दुर्गंध नहीं आती थी, वे मल—मूत्र विसर्जन नहीं करते थे।
बिलकुल झूठी बात है। तथ्य की तो बात हो ही नहीं सकती, अन्यथा महावीर जी ही न सकते थे। तब तो महाकब्जियत की अवस्था होती, जैसी कि कभी किसी को न हुई हो। मल—मूत्र का विसर्जन ही न करें, उनकी तुम तकलीफ समझ सकते हो। आनंद तो दूर, नरक पैदा हो जाता।
नहीं; मल—मूत्र तो विसर्जन किया ही होगा। लेकिन इतने पवित्र पुरुष में मल पैदा हो सकता है, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। पसीना तो बहा ही होगा। सूरज किसी को माफ नहीं करता और सूरज के नियम किसी के लिए बदलते नहीं। धूप पड़ी होगी, तो इस फकीर महावीर से पसीना बहा ही होगा। तुमसे ज्यादा बहा होगा, क्योंकि न कोई छप्पर, न कोई मकान रहने को, नग्न, प्रगाढ़ धूप हो कि वर्षा हो, आकाश के नीचे! इसलिए तो महावीर का नाम ही दिगंबर हो गया, आकाश ही जिनका एकमात्र वस्त्र है। खूब पसीना बहा होगा।
लेकिन कहने वाले जो कह रहे हैं, वह बिलकुल ही ठीक कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि इस पवित्रता से पसीने की बदबू पैदा हो सकती है, यह हम कैसे मानें! वे यह कह रहे हैं कि जरूर हमसे कहीं भूल हुई होगी, अगर हमने महावीर के शरीर से कोई दुर्गंध उठती देखी; तो वह हमारी ही नासापुटों की भूल रही होगी, वह महावीर से नहीं हो सकती।
ये सब काव्य हैं। इनको काव्य की तरह समझो, तब इनका माधुर्य अनूठा है; तब इसमें तुम डुबकियां लगाओ और बड़े हीरे तुम ले आओगे, बड़े मोती चुन लोगे।
लेकिन किनारे पर दो तरह के लोग बैठे हैं, वे डुबकी लगाते ही नहीं। एक सिद्ध करता रहता है कि यह बात तथ्य नहीं है, झूठ है। वह भी नासमझ है। दूसरा सिद्ध करता रहता है कि यह तथ्य है, झूठ नहीं है। वह भी नासमझ है। क्योंकि वे दोनों ही एक ही मुद्दे पर खड़े हैं। दोनों ही यह मान रहे हैं, उन दोनों की भूल एक ही है कि काव्य की भाषा तथ्य की भाषा है। दोनों की भूल एक है। वे विपरीत मालूम पड़ते हैं, विपरीत हैं नहीं।
सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा, एक तो आषाढ़, पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश तो खुला न होगा, चांद की रोशनी पूरी तो पहुंचेगी नहीं। और प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों न चुन लिया? ज्यादा ठीक होता, ज्यादा मौजूं मालूम पड़ता।
नहीं; लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहा शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से।
शिष्‍य सब तरह के जन्‍मों—जन्‍मों के अंधेरे का लेकर आ गए। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है उसमें और शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।
ध्यान रखना, अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए काव्य—प्रतीक, तो तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों—जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो, तुम बोझिल हो। तुम्हें तोड़ना है, तुम्हें चीरना है। तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा!
चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, ज्यादा मौजूं होता, तथ्यगत होता। क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोडा समझना।
चांद की सब रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है। चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि तुम दीए को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीए की रोशनी का प्रतिफलन है, वापस लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है।
हमने गुरू को सूरज ही कहा होता, तो बात ज्यादा तथ्यपूर्ण होती। मिश्रित कर दे। चांद शून्य है; उसके पास कोई रोशनी नहीं है, लेता और सूरज के पास प्रकाश भी महान है, विराट है। चांद के पास कोई बहुत बड़ा प्रकाश थोड़े ही है, बड़ा सीमित है; इस पृथ्वी तक आता है, और कहीं तो जाता नहीं।
पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक, और तब हमने चांद को चुना है दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है; वह केवल निमित्तमात्र है, वह केवल दर्पण है।
तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधा देखना बहुत मुश्किल है। देखो, तो अड़चन समझ में आ जाएगी। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ सीधा देखना असंभव है, आंखें फूट जाएंगी, अंधे हो जाओगे। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, तुम सम्हाल न पाओगे, असह्य हो जाएगी। तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे।
इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है; शिष्य की सामर्थ्य के बिलकुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है।
गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और तुम्हें दे देता है। लेकिन इस देने में रोशनी मधुर हो जाती है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है!
इसलिए तो कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय। किसके छुऊं पैर? वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं। फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए, क्योंकि बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।
सीधे तो देखना संभव न होता। गुरु दर्पण बन गया। जो असंभवप्राय था, उसे गुरु ने संभव किया है, जो दूर आकाश की रोशनी थी, उसे जमीन पर उतारा है। गुरु माध्यम है। इसलिए हमने चांद को चुना।
गुरु के पास अपना कुछ भी नहीं है। कबीर कहते हैं, मेरा मुझमें कुछ नहीं। गुरु है ही वही जो शून्यवत हो गया है। अगर उसके पास कुछ है, तो वह परमात्मा का जो प्रतिफलन होगा, वह भी विकृत हो जाएगा, वह शुद्ध न होगा।
चांद के पास अपनी रोशनी ही नहीं है जिसको वह मिला दे, है सूरज से, देता है तुम्हें। वह सिर्फ मध्य में है, माधुर्य को जन्मा देता है।
सूरज कहना ज्यादा तथ्यगत होता, लेकिन ज्यादा सार्थक न होता। इसलिए हमने चांद कहा है।
फिर सूरज सदा सूरज है, घटता—बढ़ता नहीं। गुरु भी कल शिष्य था। सदा ऐसा ही नहीं था। बुद्ध से बुद्ध पुरुष भी कभी उतने ही तमस, अंधकार से भरे थे, जितने तुम भरे हो। सूरज तो सदा एक—सा है।
इसलिए वह प्रतीक जमता नहीं। गुरु भी कभी खोजता था, भटकता था, वैसे ही, उन्हीं रास्तों पर, जहां तुम भटकते हो, जहां तुम खोजते हो। वही भूलें गुरु ने की हैं, जो तुमने की हैं। तभी तो वह तुम्हें सहारा दे पाता है। जिसने भूलें ही न की हों, वह किसी को सहारा नहीं दे सकता। वह भूल को समझ ही नहीं सकता। जो उन्हीं रास्तों से गुजरा हो; उन्हीं अंधकारपूर्ण मार्गों में भटका हो, जहां तुम भटकते हो, उन्हीं गलत द्वारों पर जिसने दस्तक दी हो, जहां तुम देते हो; मधुशालाओं से और वेश्यागृहों से जो गुजरा हो; जिसने जीवन का सब विकृत और विकराल भी देखा हो, जिसने जीवन में शैतान से भी संबंध जोड़े हों—वही तुम्हारे भीतर की असली अवस्था को समझ सकेगा।
नहीं, सूरज तुम्हें न समझ सकेगा, चांद समझ सकेगा। चांद अंधेरे से गुजरा है; पंद्रह दिन, आधा जीवन तो अंधेरे में ही डूबा रहता है। अमावस भी जानी है चांद ने, सदा पूर्णिमा ही नहीं रही है। भयंकर अंधकार भी जाना है, शैतान से भी परिचित हुआ है, सदा से ही परमात्मा को नहीं जाना है। यात्री है चांद। सूरज तो यात्री नहीं है, सूरज तो वैसा का वैसा है। अपूर्णता से पूर्णता की तरफ आया है गुरु चांद की तरह—एकम आई, दूज आई, तीज आई—धीरे— धीरे बढ़ा है एक—एक कदम। और वह घड़ी आई, जब वह पूर्ण हो गया है।
गुरु तुम्हारे ही मार्ग पर है; तुमसे आगे, पर मार्ग वही है। इसलिए तुम्हारी सहायता कर सकता है। परमात्मा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।
यह तुम्हें थोड़ा कठिन लगेगा सुनना। परमात्मा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह उस यात्रा में कभी भटका नहीं है, जहां तुम भटक रहे हो। वह तुम्हें समझ ही न पाएगा। वह तुमसे बहुत दूर है। उसका फासला अनंत है। तुम्हारे और उसके बीच कोई भी सेतु नहीं बन सकते।
गुरु और तुम्हारे बीच सेतु बन सकते हैं। कितना ही अंतर पड़ गया हो पूर्णिमा के चांद में—कहां अमावस की रात, कहां पूर्णिमा की रात—कितना ही अंतर पड़ गया हो, फिर भी एक सेतु है। अमावस की रात भी चांद की ही रात थी, अंधेरे में डूबे चांद की रात थी। चांद तब भी था, चांद अब भी है। रूपांतरण हुए हैं, क्रांतिया हुई हैं; लेकिन एक सिलसिला है।
तो गुरु तुम्हें समझ पाता है। और मैं तुमसे कहता हूं तुम उसी को गुरु जानना, जो तुम्हारी हर भूल को माफ कर सके। जो माफ न कर सके, समझना, उसने जीवन को ठीक से जीया ही नहीं। अभी वह पूर्ण तो हो गया होगा—जो मुझे संदिग्ध है। जो दूज का चांद ही नहीं बना, वह पूर्णिमा का चांद कैसे बनेगा? धोखा होगा।
इसलिए जो महागुरु हैं, परम गुरु हैं, वे तुम्हारी सारी भूलों को क्षमा करने को सदा तत्पर हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि स्वाभाविक है, मनुष्य—मात्र करेगा। उन्होंने स्वयं की हैं, इसलिए दूसरे को क्या दोष देना! क्या निंदा करनी! उनके मन में करुणा होगी।
तुम गुरु की पहचान इससे करना कि कितनी करुणा है। तुम जब क्रोधित हो जाओ और गुरु अगर तुम्हें नरक भेजने की धमकी देने लगे, तो समझना, करुणा नहीं है। तुम भटक जाओ, तुम मार्ग से उतर जाओ, तुम कामवासना से घिर जाओ, और गुरु तुम्हें माफ न कर सके, तो समझना कि गुरु पूर्णिमा का चांद नहीं है। उसने आवरण बना लिया होगा पूर्णिमा के चांद का। वह नकली चांद है, जैसा कि फिल्म के परदे पर दिखाई देता है। वह असली चांद नहीं है।
चांद तो सारी यात्रा से गुजरा है, सारे अनुभव हैं उसके। मनुष्य—मात्र के जीवन में जो हो सकता है, वह उसके जीवन में हुआ है। वही गुरु है, जिसने मनुष्यता को उसके अनंत—अनंत रूपों में जी लिया है—शुभ और अशुभ, बुरे और भले, असाधु और साधु के, सुंदर और कुरूप। जिसने नरक भी जाना है, जीवन का स्वर्ग भी जाना है; जिसने दुख भी पहचाने और सुख भी पहचाने, जो सबसे प्रौढ़ हुआ है। और सबकी संचित निधि के बाद जो पूर्ण हुआ है, चांद हुआ है।
इसलिए हम सूरज नहीं कहते गुरु को, चांद कहते हैं। चांद शीतल है। रोशनी तो उसमें है, लेकिन शीतल है। सूरज में रोशनी है, लेकिन जला दे। सूरज की रोशनी प्रखर है, छिदती है, तीर की तरह है। चांद की रोशनी फूल की वर्षा की तरह है, छूती भी नहीं और बरस जाती है।
गुरु चांद है, पूर्णिमा का चांद है। और तुम कितनी ही अंधेरी रात होओ और तुम कितने ही दूर होओ, कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम उसी यात्रा—पथ पर हो, जहां गुरु कभी रहा है।
इसलिए बिना गुरु के परमात्मा को खोजना असंभव है। परमात्मा का सीधा साक्षात्कार तुम्हें जला देगा, राख कर देगा। सूरज की तरफ आंखें मत उठाना। पहले चांद से नाता बना लो। पहले चांद से राजी हो जाओ। फिर चांद ही तुम्हें सूरज की तरफ इशारा कर देगा। बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय। इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा गुरु—पूर्णिमा है। पर ये काव्य के प्रतीक हैं। इन्हें तुम किसी पुराण में मत खोजना। इनके लिए तुम किसी शास्त्र में प्रमाण मत खोजने चले जाना। यह तो जैसा मैंने देखा है, वैसा तुम से कह रहा हूं।

 दूसरा प्रश्न : क्या हमारे रोज—रोज प्रश्न करने से किसी दिन संवाद घटित हो सकेगा? और क्या संवाद ही किसी दिन समझ बन जाएगा?

 तुम्हारे रोज—रोज प्रश्न पूछने से संवाद नहीं घटेगा, रोज—रोज मैं तुमसे जो कह रहा हूं उसे सुनने से ?ई घटेगा। पूछने से नहीं। पूछे तो तुम जा सकते हो अनंत जन्मों तक, पूछते ही रहे हो; सुना नहीं है। और अक्सर ऐसा होता है कि मन जितना ज्यादा प्रश्नों से भरा होता है, उतना ही सुनने में असमर्थ हो जाता है। तुम्हारे मन में तुम्हारा प्रश्न ही गूंजता रहता है। सुनने के लिए अवकाश नहीं होता, जगह नहीं होती। तुम अपने प्रश्न से इतने भरपूर होते हो कि कहां प्रवेश करे? जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह कहां जाए?
नहीं, पूछते तो तुम रहो जन्मों—जन्मों तक, उससे कुछ न होगा। पूछना तो एक रोग है; वह कोई स्वास्थ्य की दशा नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मत पूछो; क्योंकि रोगी हो, तो पूछना ही पड़ेगा। नहीं पूछने से यह मत समझ लेना कि तुम रोगी न रहे। अस्पताल से भाग जाने से कोई स्वस्थ नहीं हो जाता; और न ही कोई स्वस्थ है इस कारण, क्योंकि वह किसी डाक्टर से कभी अपनी बीमारी के संबंध में नहीं पूछता।
नहीं, पूछना तो तुम्हें होगा। तुम रुग्ण हो। रोग में प्रश्न उठते हैं। तुम्‍हारी स्‍थिति करीब — करीब विक्षिप्त की है। मन में गूंजती ही रहती तै बात; जागते — सोते तुम्हारे रोग तुम्हारा पीछा करते रहते हैं। सपने भी तम वे ही देखते हो जो तुम्हारे रोग से पैदा होते हैं। दिन और रात, चौबीस घंटे, अहर्निश तुम्हारी रोग की धारा बहती रहती है।
पूछना तो पड़ेगा। पूछने से घबड़ाना मत। लेकिन पूछना अकेला काफी नहीं है। पूछकर चुप होना, ताकि सुन भी सको। पूछा इसीलिए था, ताकि सुन सको। पूछा इसीलिए था, ताकि राह बन सके संवाद के लिए। अगर तुम सुन सको, तो संवाद घटित होगा। मेरी तरफ से तो सदा घट रहा है, तुम्हारी तरफ से घटने की बात है।
मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दिए जाता हूं सिर्फ इसी आशा में, कि तुम धीरे — धीरे सुनना सीख जाओगे। मगर इससे विपरीत भी हो सकता है। तुममें से कई असाध्य रोगी हैं। वे जितना पूछते हैं, उतनी ही उनकी पूछ बढ़ती चली जाती है। उनको एक प्रश्न का उत्तर दो, वे उस उत्तर में से दस प्रश्न लेकर दूसरे दिन हाजिर हो जाते हैं।
ऐसा लगता है, जैसे पूछना ही उनका व्यवसाय है; जैसे पूछने के लिए पूछ रहे हैं; जैसे नहीं पूछेंगे, तो कोई बड़ी हानि होगी! सुनने की चिंता नहीं मालूम पड़ती। क्योंकि अगर तुम मेरे एक भी प्रश्न का उत्तर सुन लो, तो तुम्हारे सब प्रश्नों का उत्तर मिल जाए। क्योंकि सुनने के क्षण में जो शांति तुम पर घटित होगी, वही उत्तर है।
मैं जो दे रहा हूं वह थोड़े ही उत्तर है; वह तो बहाना है तुम्हें चुप करने का, तुम्हें मौन हो जाने का। अगर तुम सुनने के लिए भी मौन हो गए; कि मैं क्या कह रहा हूं इसे सुनने के लिए तुम मौन हो गए; तो उस मौन में जो शांति घटित होगी, जो मधुर स्वर भीतर बजने लगेगा, जो वीणा छिड़ जाएगी, वही उत्तर है।
मैं उत्तर नहीं दे रहा हुं, उत्तर तो तुम्हारे भीतर छिपा है। मैं सिर्फ तुम्हें थोड़ा—सा चुप करना सिखा रहा हुं, ताकि तुम्हें अपना उत्तर सुनाई पड़ जाए।
प्रश्न तुम्हारा है, तो उत्तर मेरा कैसे हो सकता है? जिसका प्रश्न है उसको अपना उत्तर खोजना पड़ेगा। जहां से प्रश्न आया है, वहीं उत्तर खोजना पड़ेगा। जिस गहराई से प्रश्न उठा है, उसी गहराई में उत्तर खोजना पड़ेगा। जहां से दर्द उठा है, दवा वहीं खोजनी पड़ेगी। फिर मैं क्या कर रहा हूं? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दिए जाता हूं। वे उत्तर नहीं हैं, वे केवल उत्तरों के नाम पर तुम्हारे हाथों को दिए गए खिलौने हैं। तुम शायद उन खिलौनों में थोड़ी देर उलझ जाओ और चुप हो जाओ। शायद मुझे सुनते—सुनते ध्यान लग जाए।
वैसा घटता है। जो प्रथम कोटि के व्यक्ति हैं, जिनके लिए इशारे काफी होते हैं, उनको वैसे घट जाता है। वे सुनते—सुनते ही ध्यानमग्न हो जाते हैं। वे भूल ही जाते हैं कि मैं क्या कह रहा हूं। उन्हें तो दिखाई पड़ने लगता है कि मैं क्या हूं। वे भूल ही जाते हैं मेरे शब्दों को; शब्द के पीछे जो मौजूद है, उसकी उन्हें प्रतीति होने लगती है। मेरे पास, बात को सुनते—सुनते बात तो गौण हो जाती है, सत्संग शुरू हो जाता है। बात तो भूल ही जाती है। वह तो बहाना था। उसके बिना शायद तुम चुप न बैठ सकते, तुम्हें चुप बैठना कठिन होता।
तुम्हारे मन को थोड़े खिलौने दे रहा हूं ताकि मन वहा उलझ जाए और तुम्हारी चेतना शात हो जाए। जैसे छोटे बच्चों को हम करते हैं। ऊधम कर रहे हैं, शोरगुल मचा रहे हैं, उन्हें खिलौना दे दिया। थोड़ी देर को कोने में बैठकर वे खिलौने में लीन हो जाते हैं, घर को थोड़ी राहत मिलती है।
मैं जो कह रहा हुं, वे अगर उत्तर होते, तब तो तुम उन्हें कंठस्थ कर लेते, बात समाप्त हो जाती। लेकिन वे उत्तर नहीं हैं। उत्तर कभी किसी ने दिए ही नहीं हैं। बुद्ध पुरुष तो केवल तुम्हारे प्रश्न मिटाते हैं, उत्तर देते नहीं, तुम्हारे प्रश्नों को साफ करते हैं, ताकि मन खाली हो जाए।
प्रश्न तो तुम्हारे भीतर हैं; अब अगर तुम मेरे उत्तरों को भी सम्हालकर रख लिए, तो भीड़ और बढ़ जाएगी। वैसे ही काफी तुम परेशान थे, प्रश्नों से परेशान थे, अब तुम उत्तरों से परेशान हो जाओगे। परेशानी तुम्हारी जारी रहेगी।
नहीं, सुनो.....। और जब मैं कहता हूं सुनो, तो मेरा अर्थ है, परिपूर्णता से सुनो। तुम्हारे कान ही न सुनें, तुम्हारे शरीर का रोआं—रोआं सुने। तुम्हारा मन ही न समझे, तुम्हारा हृदय, तुम्हारी हड्डी—मांस—मज्जा भी समझे। तुम अपनी पूर्णता में सुनो। सुनने में तुम ऐसे लीन हो जाओ कि तुम बचो ही न, सुनना ही रह जाए। ऐसी घड़ी आती है। और जब ऐसी घड़ी आती है, सब प्रश्न हल हो जाते हैं। इस घड़ी को हमने सत्संग कहा है। सत्संग का मतलब है, ऐसे किसी व्यक्ति के पास होना, जिसके जीवन में ऐसी घड़ी घट गई है। उसके पास होकर ही किसी दिन तुम्हारे जीवन में भी घड़ी घट सकती है।
लेकिन पास होने का मतलब है, बीच में दीवालें खड़ी मत करना। तुम्हारे प्रश्न भी दीवाल हो सकते हैं। तुम्हारी जानकारी दीवाल हो सकती है। तुम्हारे शब्द दीवाल हो सकते हैं। उनको हटाओ।

तीसरा प्रश्न : आपने कहा कि कृष्ण एक समन्वय हैं संसार और संन्यास के बीच। और आपने कहा कि आपका संन्यास भी कृष्ण के संन्यास जैसा है। परंतु मुझे आश्चर्य होता है कि बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य जैसे ज्ञानियों ने हजारों लोगों को संन्यास में दीक्षित किया और उन्हें भोजन आदि आवश्यकताओं के लिए समाज पर ही निर्भर रहने का आदेश दिया। यदि संन्यासी का समाज पर निर्भर रहना आपकी दृष्टि में गलत है, तो उपरोक्त परम ज्ञानियों ने क्या समझकर अपने संन्यासियों को अथोंत्यादन की मनाही की?

 हुत—सी बातें समझनी पड़े।
पहली बात, दिन और थे, समय और था। महावीर और बुद्ध के समय में एक घर में बीस लोग होते; एक आदमी कमाता, बाकी उन्नीस खाली बैठे रहते। उतना काफी था। लोगों की जरूरतें कम थीं और पृथ्वी की संपदा बहुत थी। लोगों की आकांक्षाएं जरूरतों पर सीमित थीं। बहुत आकाश के फूल तोड़ लाने के लिए कोई पागल नहीं था। पेट भर भोजन मिल जाए, तन ढंकने को वस्त्र मिल जाएं, विश्राम के लिए छप्पर मिल जाए, बस काफी था। हर व्यक्ति सिकंदर होने के लिए पागल नहीं था; कुछ थोड़े लोग पागल थे, पर उनकी संख्या बहुत थोड़ी थी। उन दिनों धर्म जीवन में व्यापक था; राजनीति बड़ी छोटी—सी बात थी। धर्म विराट था; राजनीति सिर्फ एक कोना—कातर थी।
अब हालत बिलकुल उलटी है। अब राजनीति सब कुछ है; धर्म कोने—कातर में भी जी नहीं पा रहा है, वहा भी उसकी जान निकली जा रही है, वहां भी बच नहीं सकेगा। महत्वाकांक्षा प्रबल हुई है। अब कोई एक—दो सिकंदर नहीं होते, अब सभी सिकंदर हैं।
और संख्या बढ़ी, और पृथ्वी बोझिल होती गई, और पृथ्वी की संपदा कम हो गई। और हर आदमी पागल है असंभव वासनाओं के पीछे, जिनके मिलने से भी कुछ न होगा; न मिलीं, तो जिंदगी ऐसे गई; मिल गईं, तो भी जिंदगी ऐसे गई।
तो उन दिनों, जब एक घर में बीस आदमी होते और एक आदमी काम कर लेता और बाकी आराम से जीते, कोई अड़चन न थी कि बुद्ध ने, महावीर ने अपने संन्यासियों को अर्थोपार्जन के लिए नहीं कहा। जरूरत ही न थी; समाज करने भी न देता। यह बिलकुल सुखद था कि गांव में दो—चार— पांच लोग संन्यस्त हो जाएं। वह घर अपने को धन्यभागी मानता था जिससे एकाध व्यक्ति संन्यस्त हो जाए। वह घर अपने को दीन मानता था जिसमें कोई संन्यासी पैदा न हो, जिसमें सभी संसारी हों।
पहली बात, जरूरत न थी।
दूसरी बात, लोग तामसी न थे, लोग बड़े सात्विक थे। संन्यास की तरफ वही जाता था, जिसके जीवन में संन्यास की संभावना आई। तामसी व्यक्ति संन्यास की तरफ जाता ही नहीं था। तामसी को संन्यास का खयाल ही नहीं उठता था। संन्यास तो परम शिखर था जीवन का। सब कुछ जानकर, सब कुछ जीकर, सब कुछ अनुभव करके लोग संन्यास की यात्रा पर जाते थे।
अब हालत बिलकुल उलटी है। अब तो जो अकर्मण्य हैं, जो कुछ नहीं कर सकते हैं, आलसी हैं, प्रमादी हैं, वे संन्यास में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि वे फिर संन्यास लेकर समाज की छाती पर बैठ सकते हैं दावेदार की तरह, कि तुम्हें भोजन खिलाना पडेगा।
संन्यासी अब बोझ हैं; तब बोझ न थे। तब संन्यासी जीवन को हलका करता था, निर्भार करता था, अब भारी कर देता है। अब गलत तरह का आदमी संन्यास में उत्सुक होता है। सही तरह का आदमी तो हजार बार सोचता है, इस दिशा में जाना या नहीं! गलत तरह का आदमी हमेशा तत्पर होता है।
तो तुम अजीब किस्म के संन्यासी सारे मुल्क में देखोगे। कभी कुंभ मेला चले जाओ, तो तुम्हें दिखाई पड़ जाएंगे। ये संन्यासी हैं जिनकी महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य ने आकांक्षा की थी? उनमें तुम सब तरह के लंपट, बिलकुल तृतीय श्रेणी के व्यक्ति पाओगे, जिन्होंने अकर्मण्यता को अकर्म समझ लिया है।
अकर्म तो बड़ी अनूठी घटना है, कभी—कभी घटती है, सदियों में एकाध बार घटती है, कि करते हुए कोई व्यक्ति नहीं करता। ऐसा हो जाता है, जैसे कमल पानी में होते हुए पानी नहीं छूता। लेकिन अकर्मण्यता तो बड़ी सरल बात है। कोई भी खाली बैठना चाहता है। और अगर खाली बैठने से समाज आदर देता हो, तब तो कहना ही क्या!
सारी दुनिया में जो लोग जेलखानों में बंद होते, वे हिंदुस्तान में संन्यासी हैं। तुम जेल के अपराधियों में भी इनसे बेहतर लोग पा लोगे। मगर इनमें तुम बहुत बेहतर लोग न पाओगे, दुष्ट, आलसी, अत्यंत विकृत चित्त—दशाओं से भरे हुए लोग। अगर महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य वापस लौट आएं, तो छाती पीटकर रोएंगे कि यह हमने का किया!
मगर यह होना स्वाभाविक है। इसके पीछे एक गणित है, एक अर्थशास्त्र है। उसे तुम समझ लो।
महावीर और बुद्ध ने संन्यास की जो महिमा गाई, संन्यास का सिक्का पैदा हुआ। जब भी असली सिक्का पैदा होगा, थोड़े दिन में नकली सिक्का भी अंदर आ जाएगा बाजार में। यह सीधा अर्थशास्त्र है। क्योंकि असली सिक्का इतना कीमती सिद्ध हुआ और उसको इतना सम्मान मिला, सम्राट उसके चरणों में झुके! असली सिक्के का सम्मान देखकर, न मालूम कितने अहंकारी, तामसी, व्यर्थ के लोगों को भी लगा कि यह तो बड़ा अच्छा धंधा है, इससे अच्छा कोई धंधा नहीं है। वे भी दौड़ आए मैदान में। और तुम्हें पता हो, अर्थशास्त्र का छोटा—सा नियम है, कि जब भी नकली सिक्के बाजार में आ जाते हैं, तो असली सिक्कों का चलन बंद हो जाता है, नकली चलते हैं। तुम्हारी भी जेब में अगर एक नकली सिक्का पड़ा हो और एक असली, तो तुम पहले नकली को चलाने की कोशिश करते हो। सभी नकली को चलाने की कोशिश करते हैं! असली तिजोरियों में बंद हो जाते हैं, नकली बाजार में चलने लगते हैं।
वही हुआ। असली डरने लगे संन्यास लेने से। असली संन्यास में जाने से भयभीत हो गए। क्योंकि जो ढंग दिखाई पड़ा संन्यासियों का, वह तो बड़ा ही बेहूदा था, अशोभन था। वहा संन्यास तो कुछ भी न था, वहां तो अपाहिज, लंगडे—लूले, अंधे, कोढ़ी, जिनकी जीवन में कोई जरूरत न थी, जिनका जीवन में कोई उपयोग न था, तिरस्कृत, वे सब इकट्ठे हो गए। संन्यास क्या हुआ, शंकरजी की बरात हो गई!
स्वभावत:, असली सिक्का हट गया। असली सिक्के ने कहा, छिप जाओ; इस भीड़ में तो जाना ठीक नहीं है। नकली चलता गया, असली हटता गया।
यह होना था। यह सदा होता है। जब भी कोई अच्छी चीज चलती है, तो जल्दी ही बुरी चीज भी बाजार में आ जाती है। स्वाभाविक है। क्योंकि बेईमान हैं, चोर हैं, शैतान हैं, वे इसी राह में होते हैं; वे थोड़े दिन का फायदा उठा लेते हैं।
बाजार में कोई भी एक चीज अच्छी चल रही हो, कोई दवा अच्छी चल रही हो, तुम तत्‍क्षण पाओगे कि झूठी दवाएं उसी नाम की बाजार में आ गईं। उन पर लेबिल वही होगा; भीतर पानी होगा।
पानी भी संदिग्ध है कि शुद्ध हो, वह भी पता नहीं कहां से भर लिया गया होगा!
यही संन्यास के संबंध में हुआ। संसार में सभी चीजों के संबंध में यही होता है।
इसलिए मैं अब संन्यास को एक दूसरा आयाम देना चाहता हूं। महावीर वापस लौटें, वे मुझसे राजी होंगे। महावीर के संन्यासी राजी नहीं होंगे; वे तो महावीर से भी राजी नहीं होंगे, मुझसे कैसे राजी होंगे! महावीर, शंकराचार्य मुझसे राजी होंगे। इसमें कोई संदेह का सवाल ही नहीं है। क्योंकि वे देखेंगे, चीज तो साफ है।
अब हमें ऐसे संन्यास को पैदा करना होगा, जो संसार पर बोझरूप न हो। उसमें तामसी आदमी उत्सुक ही न होगा। क्योंकि दुकान भी करनी पड़े, बाजार भी जाना पड़े, और गेरुआ पहनकर गाली भी खानी पड़े और लोग हंसे भी।
तामसी यह झंझट न करेगा, वह कहेगा, यह उपद्रव किसको लेना! संन्यासी हो गए; बैठेंगे, तुम पैर छुओ; भोजन लाओ, भोग लगाओ। मगर यह क्या; फायदा ही क्या इस संन्यास का कि हम जाएं, सब्जी खरीदें, नोन, तेल, लकड़ी का हिसाब रखें; और उलटे इस कपड़े की वजह से झंझटें आती हैं!
अभी एक संन्यासी ने आकर कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई है। आदत है पुरानी धूम्रपान करने की। अब इस गेरुआ वस्त्र में कहीं भी करो, तो लोग ऐसा चौंककर देखते हैं, जैसे हम कोई अपराध कर रहे हैं!
एक संन्यासी ने मुझे कहा कि सिनेमा देखने की आदत है! एक दिन क्यू में खड़े थे, लोग ऐसे गौर से देखने लगे कि जैसे मैं कोई पाप कर रहा हूं! मैं भी भागा वहां से कि इस गेरुआ को पहने हुए क्यू में सिनेमा के हाल के बाहर खड़े होना ठीक नहीं है।
तो मेरा संन्यास तो तुम्हें अड़चन देगा, तामसी को तो उत्सुक कर नहीं सकता, जो बहुत सात्विक हैं, केवल वे ही उत्सुक हो सकते हैं। क्योंकि उससे तुम्हें कुछ लाभ तो हो ही नहीं रहा; हानि हो सकती है।
लोभी भी उत्सुक नहीं हो सकते, क्योंकि इसमें हानि होगी, लाभ नहीं हो सकता। तुम जिस ग्राहक से दो पैसे ज्यादा ले लेते हो, उससे दो पैसे कम ले पाओगे। तुम्हारा होने का ढंग करुणा का होने लगेगा, ध्यान का होने लगेगा, प्रेम का होने लगेगा। तुम चोरी आसानी से न कर पाओगे। बेईमानी करोगे भी, तो पीड़ा ज्यादा होगी; काटा गड़ेगा कि यह तुम क्या कर रहे हो! अंतःकरण का जन्म होगा। तुम्हारे भीतर की आवाज धीरे— धीरे प्रखर और प्रगाढ़ होगी, जो तुम्हें खीचेगी और रोकेगी और लगाम बनेगी।
तो इस संन्यास में तामसी को तो कोई रस हो ही नहीं सकता। इस संन्यास में लोभी को कोई रस हो नहीं सकता। क्योंकि मैं तुम्हारे जीवन की बाहर की व्यवस्था को तो बदलने को कह ही नहीं रहा हूं; मैं कह रहा हूं तुम्हीं बदल जाओ।
इससे तुम्हें अड़चनें ही होंगी। इससे तुम समाज में पाओगे कि तुम बेमौजूं हो गए। इसमें तो जिनके पास साहस है, और जिनके पास इतना साहस है कि लोग हंसे और वे उस हंसने को सह सकें शाति से, संतुलन से, सौजन्य से, जो अपने पर भी हंसने में समर्थ हैं, अब वे ही केवल मेरे संन्यास में सम्मिलित हो सकते हैं।
लोग मुझसे कहते हैं कि अब आप कहते हो तो हम लिए लेते हैं, मगर मजाक हो जाएगी।
ऐसा हुआ। बंबई के एक युवक ने संन्यास लिया। पांच—सात दिन बाद वह आया और उसने कहा कि आप मेरी पत्नी को संन्यास दे दें, बड़ी झंझट हो गई!
क्या हुआ?
उसने कहा कि पत्नी के साथ कहीं जाता हुं, लोग ऐसा देखते हैं कि.......! अब एक आदमी पूछने लगा, किसकी औरत लेकर कहां जा रहे हो? अपनी ही औरत, लेकिन इन कपड़ों की वजह से मैं जवाब भी न दे पाया कि अब क्या करूं! संन्यासी की कहीं औरत होती है?
खैर, पत्नी को संन्यास दे दिया। एक सप्ताह बाद वह अपने छोटे लड़के को लेकर आया कि इसको भी दे दें।
क्या हुआ?
हम ट्रेन में बैठे थे, दो आदमी कहने लगे कि मालूम होता है कि ये इस लड़के को भगाकर ले जा रहे हैं, छोटे बच्चे को।
अब पूरा परिवार संन्यासी है!
युग बदलता है, जीवन की धाराएं बदलती हैं, धर्म की भी धाराएं बदलनी ही चाहिए। जो कभी सच था, वह सदा सच नहीं होता। जो आज सच है, वह शायद कल सच न रह जाए। लेकिन कल की क्या चिंता करनी? आज! तुम आज हो, आज तुम्हें जीना है, उसकी फिक्र कर लेनी चाहिए।
महावीर, बुद्ध और शंकर ने तो जो कहा, सोचकर ही कहा था, अपने युग के लिए कहा था। उन्होंने कोई ठेका सभी युगों का नहीं ले लिया है। मैं जो कह रहा हूं तुमसे कह रहा हूं; कोई सारे युगों के लिए ठेका नहीं ले रहा हुं, कि हजार साल बाद तुम कहो कि यह फलां आदमी ने ऐसा कहा था।
यह हो सकता है कि मेरी बात फैलती जाए वह इतनी फैल जाए कि संन्यासी ज्यादा हो जाएं और गृहस्थ कम रह जाएं, तो गड़बड़ खड़ी हो जाएगी। तो हजार साल बाद, दो हजार साल बाद किसी को कहना पड़ेगा, बंद करो यह सब! छोड़ो घर—द्वार! असली संन्यासी वही जो हिमालय जाता है। कहना पड़ेगा। क्योंकि अगर संन्यास इतना बढ़ जाए तो उसका अर्थ खो जाएगा।
अगर संन्यासी की संख्या ज्यादा हो जाए और गृहस्थ की कम हो जाए, तो फिर संन्यासी फिक्र न करेगा, वह चोरी भी करेगा, बेईमानी भी करेगा। धीरे— धीरे गेरुआ वस्त्र स्वीकृत हो जाएंगे; फिर उनसे कोई दंश पैदा न होगा, कोई पीड़ा पैदा न होगी, कोई अंतःकरण न जगेगा। तो फिर किसी न किसी को उठकर कहना ही होगा कि अब जब यह सब ही कर रहे हो, तो यह गेरुआ तो कृपा करके छोड़ो, इसको क्यों खराब कर रहे हो?
जीवन एक वर्तुल है, वह रोज बदलता जाता है। और जो उसके साथ नहीं बदलते, वे पिस जाते हैं।
न तो तुम अतीत की फिक्र करो, न तुम भविष्य की, तुम इस क्षण की फिक्र करो, जो मेरे और तुम्हारे बीच अभी मौजूद है। इसका तुम उपयोग कर लो।

 चौथा प्रश्न : कृष्ण के पास तो एक अर्जुन था, इसलिए गीता का अंत आ गया। आप तो रोज—रोज नए—नए अर्जुन जन्मा रहे हैं, आपकी गीता का अंत कैसे हो पाएगा?

 हो ना भी नहीं चाहिए।
और कृष्ण की गीता का भी अंत अर्जुन के लिए हो गया हो, किसी और के लिए नहीं हुआ है। तुम्हारे लिए कृष्ण की गीता का अंत हुआ? वह तो तभी होगा, जब तुम भी उस जगह पहुंच जाओ, जहां अर्जुन पहुंच गया था, और उसने कहां कि हे महाबाहो, तुमने मुझे निःसंशय कर दिया; मेरे सारे भ्रम क्षीण हो गए; मुझे सत्य—दृष्टि उपलब्ध हुई।
अठारहवां अध्याय अर्जुन के लिए आ गया, तुम्हारे लिए थोड़े ही। तुम्‍हें तो अभी काफी यात्रा करनी पड़ेगी, तब अठारहवाँ उगमाय आएगा। क्योंकि वह तो अंतर्यात्रा है।
और निश्चित ही, गीता का कभी क्या अंत होता है? गाने वाले बदल जाते हैं; गीत का कोई अंत नहीं है। जिसे कृष्ण ने गाया, उसे ही मैं गा रहा हूं उसे कोई और गाएगा। सुनने वाले बदल जाते हैं, गाने वाले बदल जाते हैं; गीता तो चलती जाती है। क्योंकि गीत शाश्वत का है। अगर यह कृष्ण का ही गीत होता, तो इसका अंत आ जाता। यह तो अस्तित्व का गीत है, इसलिए तो हम इसे श्रीमद्भगवद्गीता कहते हैं, इसे हम भगवान का गीत कहते हैं, कृष्ण का नहीं।
कृष्ण तो एक रूप हैं, अर्जुन भी एक रूप है। इन दो रूपों से वही बोला है, उसी ने सुना है। ऐसे रूप बदलते रहेंगे। सुनने वाले बदल जाएंगे, गाने वाले बदल जाएंगे; लेकिन अस्तित्व तो दोनों के भीतर एक है। गीत जारी रहता है। गीत सनातन है।
अब सूत्र:
और हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है।
नियत कर्म कहते हैं उस कर्म को, जो शास्त्रों ने नियत किया है। शास्त्र हैं उन व्यक्तियों की वाणिया, जिन्होंने जाना है। जिन्होंने जाना है, उन्हें हम शास्ता कहते हैं; जो उन्होंने कहा है जानकर, उसे हम शास्त्र कहते हैं; जो उसे मानकर चले, उसे हम अनुशासन कहते हैं।
शास्त्र है अतीत में जाने हुए व्यक्तियों की वाणिया। उनमें बड़ा सार है। अगर आख हो देखने की, तब तो शास्त्र में बडा सार है, सब छिपा है। और अगर आख न हो देखने की, तो शास्त्र एक बोझ बन जाएगा। तब तुम गीता को ढोते रहो सिर पर।
मैंने तुमसे पीछे कहा कि शापेनहार ने जब पहली दफा गीता पढ़ी, जर्मन विचारक ने, तो गीता को सिर पर रखकर नाचने जगा। तुम कभी नाचे हो गीता को सिर पर रखकर?
नहीं; गीता से तुम्हारे पैरों में अर नहीं बंधते, नाच नहीं आता। गीता से तुम्हारे हृदय में कोई गीत थोड़े ही गूंजता है। गीता तो एक बोझ है, जिसे तुम किसी तरह निभाए जाते हो; एक भार है, एक कर्तव्य है, प्रेम थोड़े ही है।
शापेनहार नाचा। उसने गीता पढ़ी। उसने गीता के शब्द के पार देखा, निःशब्द में झांका, बादल हट गए, खुला आकाश आ गया! शब्द को पार किया, शून्य में प्रतीति हुई! तो गीता फिर जीवंत हो गई।
शब्द की खोल को हटाओ, तुम सदा जीवित को छिपा पाओगे। कृष्ण कहते हैं, शास्त्र ने जो नियत किया है, उसे छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
उसे छोड़ने का मन करेगा, क्योंकि वह तामसी मन है। वह कुछ करना नहीं चाहता, वह हर कर्तव्य से बचना चाहता है।
कृष्णमूर्ति को सुनने वाले बहुत लोग हैं। उनमें से कोई कभी मेरे पास आ जाता है, तो वह कहता है, आप गीता पर बोल रहे हैं! और कृष्णमूर्ति तो कहते हैं कि सब शास्त्र बेकार हैं। मैं उनसे कहता हूं सभी शास्त्रों ने यही कहा है। शास्त्रों का सार ही यही है कि सब शास्त्र बेकार हैं। मैं उनसे कहता हूं तुम कृष्णमूर्ति को उद्धृत कर रहे हो, यह शास्त्र हो गया। कृष्ण को उद्धृत करो कि कृष्णमूर्ति को, इससे क्या फर्क पड़ता है? कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, कृष्णमूर्ति ने तुमसे कहा है। तुम आकर मुझे बता रहे हो, तुम शास्त्र बता रहे हो। फिर, तुमने शास्त्र पकड़ा था कभी? अगर पकड़ा ही न था, तो तुम छोड़ोगे कैसे?
कृष्णमूर्ति कहते हैं, शास्त्र छोड़ दो। वे बिलकुल ठीक कहते हैं, अपने अनुभव से कहते हैं। उनको बचपन में एनी बीसेंट और लीडबीटर ने खूब शास्त्र पकड़ाया। वह इतना ज्यादा पकड़ा दिया कि वे अभी तक छोड़े चले जा रहे हैं!
थोड़ा ज्यादा हो गया। वह अति भोजन हो गया। उससे वमन हुआ। वह अतिशय हो गया। हुआ अतिशय करुणा के कारण ही, क्योंकि एनी बीसेंट और लीडबीटर की इच्छा थी कि कृष्णमूर्ति एक जगतगुरु की तरह प्रकट हों। बुद्ध ने जिस मैत्रेय की बात कही है कि आने वाले युगों में मैत्रेय—बुद्ध पैदा होगा, तो एनी बीसेंट और लीडबीटर ने चेष्टा की कि यह कृष्णमूर्ति वह मैत्रेय बन जाएं।
तो बड़ी कठिन चेष्टा थी, क्योंकि कोई किसी को मैत्रेय बना सकता है? और उन्होंने बड़ा उपाय किया। उन्होंने इतना पढ़ाया, इतना सिखाया, इतना ध्यान करवाया कि कृष्णमूर्ति उससे घबड़ा गए, जैसे सभी छोटे बच्चे घबड़ा जाते हैं। क्योंकि छोटी उम्र थी, नौ वर्ष की उम्र थी, तब यह उपद्रव शुरू हुआ। नियम से उठाया, नियम से बिठाया, सोना नियम से, खाना नियम से, सब चीज, एक—एक चीज का खयाल रखा कि कोई भूल—चूक न हो जाए इस व्यक्ति के बुद्धत्व में।
और हुई भी नहीं; यह आदमी बुद्ध हो ही गया। लेकिन एक खरोंच छूट गई, जो बुद्ध के ऊपर नहीं थी, जो कृष्णमूर्ति पर है। क्योंकि बुद्ध पर किसी ने जबरदस्ती चेष्टा नहीं की थी, सहज लंबी
यात्रा में घटनाएं घटी थीं। जो वर्षों में घटना चाहिए, वह एनी बीसेंट और लीडबीटर ने दिनों में घटाने की कोशिश की, जो जन्मों में घटता है, उसे वर्षों में सिकोड़ने की कोशिश की।
उसका फायदा तो हुआ। कृष्णमूर्ति जो भी हैं आज, वह उसी बीज का वृक्ष है। लेकिन नुकसान भी हुआ। नुकसान यह हुआ कि जैसा सभी छोटे बच्चों को हो जाता है। उनसे कहो, मत करो यह, तो छोटे बच्चे के अहंकार में भाव उठता है कि करके दिखा दूं। उसके अहंकार को चोट लगती है। उसे पीड़ा होती है कि मुझे सब दबाए जा रहे हैं, तो वह मौका—बेमौका देखकर विरोध करता है।
अहंकार तो चला गया कृष्‍णमूर्ति का, वे जाग्रत पुरुष हो गए; लेकिन मन पर जो संस्कार पड़े रह गए—वह ऐसे ही जैसे कि किसी ने छुरी से हाथ पर निशाना मार दिया, तो तुम बुद्ध भी हो जाओ, तब भी वह निशान तुम्हारे हाथ पर बना रहेगा—ऐसे मन पर निशान छूट गए। वे तो बुद्ध हो गए, लेकिन मन का यंत्र खरोंचपूर्ण हो गया। जो—जो बातें उनसे जबरदस्ती करवाई गई थीं, उन्हीं—उन्हीं के विरोध में वे चालीस साल से बोल रहे हैं। वह खरोंच जाती नहीं। वह जाएगी भी नहीं। वह खरोंच यह है कि ध्यान से कुछ भी न होगा। जरूर इस बच्चे को चार बजे, तीन बजे उठवाकर ध्यान करवाया है!
मेरे दादा थे, वे मुझे तीन बजे रात उठा लेते। उन्होंने मेरी जिंदगीभर से तीन बजे रात का जो मजा है, वह खराब कर दिया। मैं छोटा, उठने का मन नहीं, उसी वक्त नींद गहरी आ रही है, और वे खींच रहे हैं। और वे उठा लेंगे, और ठंडे पानी से स्नान, और चार बजे वे घूमने ले जाएंगे! अभी मेरी आंखें झप रही हैं, हाथ—पैर हिल नहीं रहे, और वे भागे जा रहे हैं। और वे तेजी से चलते थे। वे जिस दिन मरे, उस दिन मुझे उनके मरने से दुख नहीं हुआ। उस दिन मैंने कहा, हे भगवान! अब तीन बजे न उठना पड़ेगा। बाद में मुझे पछतावा भी हुआ कि यह भी क्या बात हुई! वे मुझे इतना प्रेम करते थे; वे तो मर गए और मुझे कुल इतना ही खयाल आया कि अब तीन बजे न उठना पड़ेगा, अब सो सकते हैं!
कृष्णमूर्ति का पीछा नहीं छूटा। ध्यान से कुछ भी न होगा! ज्यादा करवा दिया ध्यान; अपच हुआ। शास्त्र से कुछ भी न होगा! शास्त्र बोझ बन गए। गुरु कहीं नहीं ले जा सकता! गुरु ने अतिशय धक्के दिए। वह खरोंच छूट गई।
कृष्ण कहते हैं, नियत कर्म…
शास्त्र ने जो कहा है, वह तो पूरा करो ही, क्योंकि वह जानने वालों ने कहा है। और अगर जानने वालों और तुम्हारी बुद्धि के बीच चुनाव करना हो, तो जानने वालों का ही चुनाव करना, तुम्हारी बुद्धि का क्या तुम भरोसा करते हो? ही, जब तुम बुद्ध पुरुष हो जाओ, तब तुम अपनी बुद्धि का भरोसा कर लेना। पर अभी!
और जो बुद्ध पुरुष हैं, उनका ढंग और ही है। वह हम समझने की कोशिश करेंगे।
तो कृष्णमूर्ति के पास, जो तामसी हैं, आलसी हैं, अहंकारी हैं, वे इकट्ठे हो गए हैं। क्योंकि वहा उन्हें एक रेशनलाइजेशन, एक तर्कयुक्त व्यवस्था मिल गई, कि न ध्यान करने से कोई सार है.। ध्यान उन्होंने कभी किया नहीं था। बिना ध्यान किए, ध्यान करने से कोई सार नहीं है, इससे एक छुटकारा मिल गया कि ध्यान की झंझट से मुक्त हुए। गुरु से कुछ होगा नहीं, इसलिए अब किसी के चरणों में झुकने की जरूरत न रही। झुकना वे चाहते न थे, झुकने में पीड़ा थी; अब एक तर्कयुक्त कारण भी मिल गया। शास्त्र को मानने से कुछ भी न होगा। मानना वे चाहते भी न थे, क्योंकि शास्त्र को
मानोगे, तो जीवन में एक अनुशासन लाना होगा, तब जीवन में एक अराजकता नहीं चल सकती, स्वच्छंदता नहीं चल सकती। और बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि जितना अराजक जीवन होगा, उतना परतंत्र होता है; और जितना अनुशासित जीवन होता है, उतना स्वतंत्र होता है।
तो इस तरह के गलत लोग कृष्णमूर्ति के पास इकट्ठे हो गए। और उन सबको अपनी गलत बातों के लिए सही आधार मिल गए। कृष्णमूर्ति बहुत विचारने जैसी घटना हैं आध्यात्मिक जगत में, क्योंकि इस भांति पहले कभी किसी को जबरदस्ती बुद्धत्व की तरफ नहीं धकाया गया था। थियोसाफी ने एक अनूठा प्रयोग किया। उसका लाभ भी हुआ, उसका दुष्परिणाम भी हुआ।
व्यक्ति को जाने देना चाहिए चुपचाप अपनी ही यात्रा से, अपने ही कदमों से, अपने ही ढंग से; धकाना ठीक नहीं है। कृष्णमूर्ति के प्रयोग ने बता दिया कि अब किसी को बुद्धत्व की तरफ कभी भूलकर मत धकाना। अन्यथा वह बुद्धत्व को उपलब्ध भी हो जाए, तो भी खरोंच रह जाएगी। और खरोंच बड़े नुकसान पहुंचाएगी।
कृष्ण कहते हैं, शास्त्र में जो नियत है, वह किन्हीं अंधों की वाणी नहीं है; उसे बहुत जानकर ही उन्होंने किया है। जब तुम बुद्ध पुरुष हो जाओ, जब तुम्हारी चेतना जागे, प्रज्ञावान हो जाओ, जब तुम्हारी अंतर्ज्योति जल उठे, तब तुम अपने निर्णय से चलना, अपने प्रकाश से। अभी तो तुम्हारे पास अपना प्रकाश नहीं है। अंधेरे में चलने से तो यही बेहतर है कि तुम उधार प्रकाश से ही चलो।
अंधे के पास अपनी आख नहीं है, तो पचास—साठ साल का मूढ़ा अंधा भी एक छोटे बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर चलता है। अपनी अंधी आंखों के बजाय—अनुभवी है माना, साठ—सत्तर साल का है —एक गैर— अनुभवी बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर चलता है।
तो शास्त्रों के वचन तो अनुभवियों के वचन हैं। तुम अपनी अंधी आख की सलाह मानने की बजाय उनकी ही सलाह मानकर चलना। और जिस दिन तुम जाग जाओगे, उस दिन अगर चाहो तो छोड़ देना। हालांकि अक्सर बुद्ध पुरुषों ने छोड़ा नहीं है। कभी—कभी छोड़ा है, और वह छोड़ा तभी है, जब शास्त्र समय के विपरीत पड़ा है, अन्यथा नहीं छोड़ा। क्योंकि तब बुद्ध पुरुष को यह देखना है कि कहीं शास्त्र समय के विपरीत पड़ गया, तो अब उसको मानकर चलने वाला भी गड्डे में गिरेगा। अगर शास्त्र समय के विपरीत नहीं है, तो मानकर चलना ही उचित है।
जीसस जिस रात विदा हुए अपने शिष्यों से, उन्होंने सब शिष्यों के पैर धोएं। एक शिष्य ने पूछा, आप यह क्या करते हैं? तो उन्होंने कहा कि आज रात मैं विदा हो जाऊंगा। मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि जब मैं तुम्हारे बीच था, तो मैं तुम्हारे पैर छूता था। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूं कि तुम कभी अहंकारी मत बनना और जरूरत पड़े तो अपने शिष्यों के भी पैर छू लेना। क्योंकि मुझे डर है, मेरे हटते ही तुम दंभी हो जाओगे कि तुम जीसस के सबसे निकट लोग हो! तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ हो जाएगा।
सारिपुत्र ज्ञान को उपलब्ध हो गया, लेकिन बुद्ध के चरण छूने उसने बंद न किए। किसी ने पूछा, सारिपुत्र, अब तुम स्वयं बुद्ध हो गए, अब तुम क्यों बुद्ध के पैर छुए जाते हो? सारिपुत्र ने कहा, और दूसरे बुद्धओं को ध्यान में रखकर। अगर वे मुझे देख लेंगे कि मैं पैर नहीं छूता, वे झुकना बंद कर देंगे। मुझे तो कोई हानि न होगी, लेकिन उन्हें महाहानि हो जाएगी।
तो फिर बुद्ध पुरुष तय करेगा यह देखकर कि शास्त्र अगर समय के अनुकूल है और तुम्हारे हित में है, तो वह मानता रहेगा। वह नियम नहीं छोड़ देगा।
महावीर परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, लेकिन उन्होंने नियम नहीं छोड़े। नियम जैसे साधक के समय में थे, वैसे ही उन्होंने सिद्ध की अवस्था में भी जारी रखे। उसका कुल कारण इतना.....। वे छोड़ना चाहते, छोड़ सकते थे, कोई अड़चन न थी। जो पाना था, वह पा लिया था; अब नियम को बांधने की कोई जरूरत न थी। लेकिन दूसरों के लिए! क्योंकि महावीर से बहुत लोग सीखेंगे। महावीर ने तो पा लिया, इसलिए अब कोई खतरा नहीं है। अगर वे सुबह न उठें पांच बजे और दस बजे उठें, तो कोई उनका मोक्ष खो नहीं जाएगा।
क्या आप सोचते हैं, महावीर अगर सिद्ध हो जाने के बाद सुबह न उठकर दस बजे उठने लगते, तो मोक्ष खो जाता? या क्या आप सोचते हैं कि महावीर मोक्ष प्राप्त करने के बाद अगर धूम्रपान करने लगते, तो मोक्ष खो जाता? लगता बेहूदा है कि महावीर धूम्रपान करें; लेकिन अगर करने लगते, तो मोक्ष खो जाता? तब तो मोक्ष दो कौड़ी का है जो धूम्रपान करने से खो जाए, सिगरेट से भी कम कीमत का मालूम पड़ता है!
नहीं, लेकिन महावीर ने धूम्रपान नहीं किया, इसलिए नहीं कि मोक्ष खो जाएगा। न वे दस बजे सोकर उठे, इसलिए नहीं कि दस बजे तक सोने से कोई मोक्ष की विपरीतता है; बल्कि उन सबके लिए जो अभी अंधेरे में चल रहे हैं, और जिनके लिए महावीर का जीवन ज्योति—स्तंभ होगा। उनके लिए वे चुपचाप उन नियमों को पालते रहे, जिन नियमों की अब कोई सार्थकता महावीर के लिए नहीं।
कृष्ण को तो पक्का पता है, कृष्ण के लिए स्वयं तो नियत कर्मों का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन अर्जुन के लिए! आने वाले अर्जुनों के लिए! सदियों तक उनका वक्तव्य अर्थपूर्ण रहेगा।
तो वे कहते हैं हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं। जो शास्त्र ने कहा है, उसे तो करना ही है। उसका त्याग करना तमस त्याग कहा गया है।
उसे अगर तुमने छोड़ा, तो उसका अर्थ होगा कि वह तुम आलस्य के कारण छोड़ रहे हो, तमस के कारण छोड़ रहे हो, मूर्च्छा के कारण। ज्ञान की भला तुम कितनी ही बातें करो, उन बातों का कोई मूल्य नहीं है।
और यदि कोई मनुष्य, जो कुछ कर्म है वह सब ही दु:खरूप है, ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरुष उस राजस त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता।
और ऐसा भी हो सकता है कि कोई सोच ले कि जीवन में सभी दुख है। जैसा बुद्ध ने कहा है, सब दुख है। दुख सार सत्य है, दुख प्रथम आर्य सत्य है। ऐसा सोचकर अगर सारे जीवन को छोड़कर कोई भाग जाए, तो भी कृष्ण कहते हैं, वह ठीक नहीं कर रहा है। इसका यह अर्थ नहीं कि कृष्ण कहते हैं, बुद्ध ने गलत किया।
कृष्ण यही कह रहे हैं कि बुद्ध अपवाद हैं; अपवाद को नियम कभी मानना मत। बुद्ध ने जो किया, उससे अन्यथा वे कर ही न सकते थे। बुद्ध ने जो किया, वही होने को था। बुद्ध के जीवन में उसकी संगति है।
फिर बुद्ध ने किसी से पूछकर नहीं किया। बुद्ध को भयंकर प्रतीति हुई जीवन में, दुख ही दुख सब तरफ! वे छोड्कर चले गए। ऐसा सोचकर अगर तुम भी छोड्कर चले जाओ जीवन को, तो यह त्याग भयपूर्ण हुआ; तुम दुख से भयभीत हो गए। बुद्ध दुख से भयभीत नहीं हुए थे, दुख से जागे थे।
कृत्य तो एक—से हो सकते हैं, अर्थ अलग—अलग हो सकता है। इसे तुम याद रखना।
बुद्ध तो जागे कि जीवन दुख है, इसलिए छोड़ा। लेकिन तुम, जीवन दुख है, ऐसा भयभीत हो सकते हो कि यहां तो दुख ही दुख है, कोई सार नहीं, भय लगता है, मौत आ रही है, नरक में पड़ना पड़ेगा। इन सब भय को इकट्ठा करके अगर भाग जाओ, तो यह भय कोई जागरण नहीं है।
जो ऐसा समझकर छोड़ दे, उसके त्याग को, कृष्ण कहते हैं, वह राजस त्याग है। उसके पास ऊर्जा थी, शक्ति थी भागने की, त्यागने की, उसने उपयोग कर लिया, लेकिन उपयोग जागरणपूर्वक नहीं हुआ।
और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर जो शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह ही सात्विक त्याग माना गया है।
करना कर्तव्य है, ऐसा जानकर तुम जो भी करते हो, उससे तुम मुक्त हो जाते हो। करना कर्तव्य है, ऐसा जानकर जो भी किया जाता है, उसकी कोई रेखा तुम्हारे ऊपर नहीं छूटती, जैसे तुमने किया ही नहीं, परमात्मा ने करवाया। उसकी मरजी थी, हुआ; तुम अपने को बीच में लाते ही नहीं। तुम ज्यादा से ज्यादा नाटक के एक पात्र हो जाते हो।
लेकिन हमारे जीवन की तो हालतें उलटी हैं। हम तो नाटक के पात्र में भी भूल जाते हैं; वहा भी ऐसा लगने लगता है कि हमारा जीवन दाव पर लगा है। नाटक में अभिनय करने वाले लोग भी कभी—कभी भूल जाते हैं कि यह सिर्फ अभिनय कर रहे हैं; वास्तविक हो जाता है, भांति गहन हो जाती है।
तुम्हें भी कभी ऐसा अनुभव हुआ हो, कभी तुम किसी चीज का नाटक करके देखो।
पश्चिम में एक नया मनोवैज्ञानिक प्रयोग चलता है, उसे वे साइकोड्रामा कहते हैं। समझो कि कोई आदमी कहता है कि मुझे क्रोध से बहुत तकलीफ होती है। तो मनसविद उससे कहता है, तुम बैठो इस कुर्सी पर, यह तकिया सामने रख लो, किस पर तुम्हें क्रोध आता है? वह कहता है, मेरी पत्नी पर। तो मनोवैज्ञानिक कहता है, तुम इस तकिए को पत्नी मान लो।
अब यह सिर्फ नाटक है। तकिया कोई पत्नी है? पत्नी सुन ले कि ऐसा माना गया, तो तलाक ही दे दे। तकिए को पत्नी!
लेकिन वह आदमी भी मानता है कि यह नाटक है। वह बैठ जाता है, तकिए को पत्नी मान लेता है। पहले वह हंसता है कि ऐसे कहीं क्रोध आएगा! वह कहता भी है कि ऐसे कहीं क्रोध आएगा! मनोवैज्ञानिक कहता है, तुम शुरू करो। तुम बोलना शुरू करो। फिर जब क्रोध आने लगे, तो पीटना शुरू करो तकिए को।
एक, दों—तीन मिनट लगते हैं और आदमी धीरे—धीरे आविष्ट हो जाता है, वह पीटने लगता है, फेंकने लगता है। और जब वह पीटने, फेंकने लगता है तकिए को, तब कोई भी भेद नहीं रह जाता, चित्त पूरा का पूरा पकड़ लेता है। कृत्य हो गया, वह जो अभिनय था, वास्तविक हो गया।
अभिनय में भी हम वास्तविकता को आरोपित कर लेते हैं। और क्या कह रहे हैं, तुम वास्तविकता में भी अभिनेता हो जाओ। करना है; क्योंकि लिखा है नाटक के अंकों में, इसलिए पूरा करना है। तुम्हें कुछ बीच में आना नहीं है। लेकिन सपने तक में तुम बीच में आना चाहते हो।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात सपना देखा कि कढ़ाई के पास खड़ा है और गोबर तल रहा है। खुद भी घबड़ा गया कि यह भी कोई बात है! घबड़ाहट में नींद खुल गई। सुबह ही सुबह भाग। हुआ एक ज्योतिषी के पास गया, जो कि सपनों के अर्थ बताता था। ज्योतिषी से कहा कि बहुत बुरा सपना आया। ऐसा सपना तो कभी सुना भी नहीं कि किसी को आया हो, बड़ा चित्त ग्लानि से भरा हुआ है। सपना यह है कि मैं गोबर तल रहा हूं। नींद टूट गई, इतना दुख हुआ। इसका क्या अर्थ है?
उस ज्योतिषी ने कहा कि एक रुपया लगेगा, अर्थ बता दूंगा। नसरुद्दीन ने कहा कि नासमझ, अगर एक रुपया ही मेरे पास होता तो गोबर तलता? मछलियां न खरीद लाता?
सपने को भी लोग वास्तविक समझते हैं! रुपया होता तो वह मछलियां खरीद लाता!
जिसने जीवन को ठीक से समझा, उसने समझा कि न तो तुम अपने कारण पैदा हुए हो, न अपने कारण जीते हो, न अपने कारण पराग; वह महाकारण, तुम्हारे सारे जीवन के भीतर छिपा परमात्मा है। कर्तव्य है 1 बस करना है, इसलिए किए चले जाओ। सब उस पर छोड़ दो।
कृष्ण का सार—सूत्र समर्पण है। समर्पण की इस भाव—दशा में ही फलाकांक्षा शून्य हो जाती है; फल का कोई सवाल नहीं है : फल की चिंता वह करे।
एक सूफी फकीर हज की यात्रा पर जा रहा था। जहाज पर हजारों यात्री थे। दूसरे ही दिन भयंकर तूफान आया। प्राण कैप गए जहाज के। बड़ा शोरगुल, उत्पात मच गया, त्राहि—त्राहि, हाहाकार! लगता था, अब गए, अब गए, बचेंगे नहीं! समुद्र बिलकुल विक्षिप्त मालूम होता था! ऐसी उड़ा तरंगें उठ रही थीं कि जहाज को डुबा ही देंगी! जहाज छोटा मालूम पड़ने लगा, जैसे एक छोटी—सी नाव हो, तरंगें इतनी भयंकर थीं!
कैप्टेन चिल्ला रहा है लाउडस्पीकर पर, आज्ञाएं दे रहा है! जीवन को बचाने के लिए नावें उतारी जा रही हैं, मल्लाह सजग हो गए हैं। सब कंप रहे हैं। स्त्रियां रो रही हैं, चिल्ला रही हैं। बच्चे चीख रहे हैं। कुत्ते भौंक रहे हैं। भाग—दौड़ मची है। एकदम पागलपन है! मौत की घड़ी है! सिर्फ वह एक सूफी फकीर जगह—जगह खड़े होकर बड़े मजे से देख रहा है। न केवल देख रहा है, बल्कि बड़ा प्रसन्न भी हो रहा है, जैसे कि एक भीतरी आनंद हो! एक बूढ़ा आदमी उसे देखते—देखते क्रोध से भर गया। उसने कहा, सुनो जी! होश में हो? इधर इतने लोगों की जान जा रही है, तुम कोई नाटक देख रहे हो? तुम्हारी अकल में आ रहा है कि क्या हो रहा है?
उस सूफी फकीर ने कहा, महानुभाव, आप इतने उत्तेजित क्यों हो रहे हैं? क्या जहाज आपके बाप का है? डूब रहा है, डूब रहा है! एक ऐसी भाव—दशा है। जब डूबे तो उसका, न डूबे तो उसका, बचे तो उसका, न बचे तो उसका, और आदमी अपने को बीच से हटा लेता है। तब कोई दुख तुम्हें दुख नहीं दे सकता, और कोई सुख तुम्हें विक्षिप्त नहीं कर सकता। तब तुम्हारे जीवन में एक परम शांति की दशा निर्मित हो जाती है। तब एक रसधार बहने लगती है, जिसे हम आनंद कहते हैं।
और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर ही जो शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह ही सात्विक त्याग माना गया है।
सात्विक त्याग का अर्थ है, फल का त्याग। सात्विक त्याग का अर्थ कर्म का त्याग नहीं। कर्म तो करना ही है। कर्म तो जीवन है। और परमात्मा ने जीवन दिया है, तुम भागने वाले कौन? और परमात्मा ने तुम्हें भेजा है, तुम त्यागने वाले कौन? जिस विराट से तुम्हारा आना हुआ है, उसी विराट पर छोड़ दो चिंताएं। जहाज तुम्हारा नहीं है। उसकी मर्जी! और उसकी मर्जी में पूरे राजी हो जाओ।
फिर तुम करोगे भी और कर्म की रेखा भी तुम पर न पड़ेगी। तुम फिर जल में कमलवत हो जाओगे! और जो जल में कमलवत हो जाए, उसके जीवन में परम धन्यता प्रकट होती है।

आज इतना ही।



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