दिसम्बर
की शरदऋतु के
दिन थे ठंडी
हवा अंदर तक शरीर
कंपा दे रही
थी। तभी अचानक घर में
कुछ अजीब सी
हरकत शुरू हो
गई। जब भी कुछ
इस तरह की
हरकत घर में होती
तो मैं भयभीत
हो जाता था।
जरूर कही कुछ
गलत होने वाला
है। उस ऐकांत
से बहुत डर
जाता था जो
मुझे जीना
होता था। मन
भी कैसा है उस
जैसे जीने के
लिए छोड दिया जायेऔर
मेरा शक शुभा
सही निकला।
लगातार रोज छत
पर ब्रैड
सुखाई जा रही
थी। और उन्हें
एक बड़े से
ड्रम में भर
कर रखा जा रहा
था। इत्मीनान
से ऐसा काम
पहले भी होता
था परंतु बहुत
छोटे पैमाने
पर। या फिर
गीदड़ों के
लिए ब्रेड ले
जाई जाती थी।
इस तरह प्रचुर
मात्रा में सूखाई
जा रही है ओर
उन्हें एक
जगह जगह सम्हाल
कर रखा जा रहा
है। मन में
कहीं चौर था, एक भय की
आहट होने
लेगी....कि जरूर
कोई आपतकालिन स्थिति
आने वाली है।
वैसे मुझे
सुखी हुई
कुरमुरी
ब्रैड़ खाने में
मजा बहुत आता
है।
लेकिन
बात कुछ और ही
चल रही थी। घर
के अंदर सब समान
जमाया जा रहा
था। बड़े—बड़े
सूट केस खुले रखे
थे। मेरे मन
को एकदम से
धक्का लगा हो
न हो ये कहीं
जाने की
तैयारी चल रही
है। पिछली बार
तो भईया और
दीदी
मेरे साथ रह
गई थी। इस बार
तो ये लोग भी बहुत
खुश धूम रहे
है। मैंने लाख
पास जाकर सूधने
की कोशिश
की....परंतु मेरी
समझ में कुछ
भी नहीं आ रहा
था। शायद भय
के कारण में
घबरा गया था
ओर मेरे सुघंने
की इंद्री भी
ठीक तरह से
काम नहीं कर
रही थी। क्योंकि
में साफ देख रहा
था मन पर एक
तनवा बह रहा
है।
क्योंकि
इतना तो मैं
जानता था ये
लोग अगर इतना
सामान ले कर
जा रहे है तो
जरूर कहीं दूर
जायेगे यहां
पास ही घूमने
जाते है तो श्याम
तक आ जाते थे।
वह दिन भी
मेरे लिए बहुत
भारी हो जाता
है। इतने बड़े
घर में कहीं
भी मेरा मन
नहीं लगता।
कितना तो मैं
सो लेता हूं
परंतु
कितना....अचानक
मेरे मन में
एक भय समा
गया। ओर मेरा
मन उदास हो
गया। अब में
अपनी बात किसी
को कह भी नहीं
सकता। ज्यादा
से ज्यादा
पापा जी के
पास जाकर
उनकीगोदमें
सर रख कर लेट
जाता वह
मेरेसर ओर
गर्दन पर हाथ
फैरते ओर समझ
जाते....उनका यू
छूना मुझे
अंदर तक तृप्त
कर जाता था....ओर
में आंखें बंद
कर लेता था...कि
पापा जी मेरी
आंखों का दर्द
देख न ले। मैं
जितना ज्यादा
से ज्यादा
मम्मी ओर
पापा के पास
ही रहने की
कौशिश करता
था। ताकि उनके
संग—साथ को ज्यादा—से
ज्यादा अपने
अंदर समेट
लूं।
लेकिन
जो होना था
वही हुआ ठीक
अगली सुबह सब
लोग चले गये।
जाने से पहले
मुझे मिठाई
खिलाई गई। में
जानता था ये
तो उस बकरे की
तरह है जो
कसाई घर में
जाने से पहली
खुब अच्छा
भोजन कराया जा
रहा है। परंतु
न तो दूध अच्छा
लगा रहा था।
और न ही मिठाई
हालांकी और
किसी दिन में
लाख मिन्नत
कर के भी
मिठाई के कुछ
ही टूकड़े इक्कठे
कर पाता था
परंतु आज बिन
मांगे मिल रही
है फिर भी हलक
से नीचे नहीं
जा रही थी।
मैने मिठाई की
तरफ से मूहूं
फेर
लिया.....पापा मम्मी
मेरे पास ओर
कहने लगे हम
जल्दी ही आ
जायेगे....मैं
गर्दन नीची
करके एक आज्ञाकारी
बच्चे की तरह
सूनता
रहा....परंतु
मैं जानता था
ये शब्द मेरे
लिए एक हथोड़े
का काम कर रहे
है...एक पीड़ एक
उत्ताप्त
एक दंष..जो
मेरे अंदर चक
चीरे जा रही
थी.....मन में बार—बार
ख्याल आ रहा
था....इस मनुष्य
के पास आकर
जितना पीड़ा
या दूख महसूस
कर रहा हूं ये
मेरा सोभाग्य
है या
दूर्भाग्य.....मां
से बिछूड़ने
का दूख जरूर
हुआ था....परंतु मनुष्य
के साथ रह कर
तो यह नित्य
की बात है....जिस
तरह से वह
खाता है...पीता
है,
चलता है,
सोता है, सब
हम सक कितना
भिन्न
है....उसके शरीर
का ढ़ांचाही
हमसे अलगे है
फिर उस से तुलना
करना ही हमारी
मूर्खता
है....परंतु
जिसके संग साथ
हम रहतेहै
उसके आचार व्यवहार
से ही तो अपने
को तोलते है।
एक आदत या मजबुरी
कह ली जीये....ओर
मम्मी पापा
घर का दरवाजा
खोल कर हाथ
हिला कर बाई....बाई
करते हुए चल
दिये ओर
दरवाजा बंद हो
गय...मेरी आंखों
के सामने
अंधेरा छाने
लगा....लगा की
मेरी सांसे बद
हो जाये...कुछ
देर के लिए तो
दिल इतनी जोर
से धड़काओर लगा
अब सब शांत
है....मुझे लगा
अब ठीक है....ये
बंद ही रहे तो
ठीक है....इसके
धड़कने से ही
बैचेनी ओर पीड़ा
आती
है....परंतुयेबस
मेरे बस की
बात नही थी....मैं
ठगा सा एक पत्थर
की तरह बैठा
रह गया....पहले
तो मैं छत पर
जाकर दूर तक
मम्मी पापा
को जाते हुए
देखता था
परंतु आज तो
हिम्मत ही
नहीं हो रहा
थी। जैसे पैरो
ने जवाबदे दिया
है....शरीर लकवा
मार गया है।
कितनी ही देर
इसी तरह बैठा
रहा....या सो गया
मुझे इस का
जरा भी भान नहीं।
पूरा
दिन इंतजार
करता रहा की
हो सकता है श्याम
रहते सब लोट
आये। परंतु
ऐसा न होना
था और न ही
हुआ। अब रह
गये हम दो
प्राणी दादा
और में। वैसे
तो दादाजी दूर
जो बैठक है उस
में रहते थे।
जहां हमारी
दूकान है। वह
केवल खाना
खाने या बच्चों
के साथ टीवी
देखने के लिए
ही घर आते थे।
और जब भी आते
थे। मेरे मजे
आ जाते थे। क्योंकि
एक दादाजी ही
ऐसे थे जो
मुझे घर आते
ही मुक्त कर
देते थे। घर
का दरवाजा जो
सारा दिन बंध
रहता था। क्योंकि
काफी किमती
सामान अंगन में
रखा रह था।
परंतु दादा जी
घर में आते है
जो से आवाज देते
की मनवा....मणी
दीदी को वह
मनवा के नाम
से पूकारते थे।
और ये सब मेरे लिए
एक सिंगनल का
काम करता था।
और मैं तो
तैयार ही था।
पल में बहार भाग
जाता था। जब
बहार जाकर
किसी कुत्ते
के साथ लड़ई
करता या मुझे
भी कुछ चोट लग
जाती तब दादा
जी कहते बहुत
बैकार है।
दरवाजा खोलते
ही बहार निकल
जाता है।
एक
दिन ऐसा हुआ
की दादा जी ने
मुझे बहार
निकाल दिया ओर
जैसे ही मैं
बहार निकला
गली के तीन
कुत्ते जैसे
मैरा इंतजार
कर रहे थे।
तीनों एक साथ मेरे
उपर झपटे। में
इस के लिए
तैयार नहीं
था। एक ने
मेरी गर्दन
पकड़ ली और
दूसरे ने मुझे
पीठ से पकड़
लिया और तीसरा
मेरे उपर चढ़
कर मुझे
गिराने लगा।
दादा जी के
पास हमेशा एक
बड़ा लट्ठ हाथ
में रहता था।
जिसके साहरे
वह चलते थे।
सब उसने आव
देखा ने ताव
ताबड़ तोट लाठ
मारने शुरू कर
दिया। अब कितने
मुझे लग रहे
है और कितने
दूसरे कुत्तो
के लग रहे है।
इस की उन्हें
जरा भी चिंता
नहीं थी।
परंतु वह कुत्ता
जिसने मेरी
गर्दन पकड़
रखी थी। मुझे
जान से ही
मारना चाहता
था। मेरी सांस
बंद हो रही
थी। उसके दाँत
मेरी गदने में
घस रहे है।
कुछ देर में
वह दोनो कुत्ते
तो दादा जी का
लट्ठ खा कर प्याऊ...प्याऊ
कर के भाग
गये। अब मैं
समझ रहा था ये कुत्तो
बड़ा ही पाजी
है। मैने लाख
जतन कर लिया
आपनी गर्दन
छूड़ाने के
लिए परंतु न
जाने क्यों
गर्दन में उसे
दाँत गड़ते ही
जा रहे हे। शायद
वहां से खुन
भी बहना शुरू
हो गया था।
इसी बीच एक लठ
तो मेरी पीठ
पर लगा। मुझे
चक्कर आ गये
और उसकी
खोपड़ी में।
दादाजी बुढे जरूर
थे शायद उस
समय भी उनकी
उम्र 90 वर्ष
रही होगी। क्योंकि
दादा जी जब
मरे तो उनकी
उम्र 94 साल थी
वह मुझे एक
साल पहले चले
गये। उनकी मृत्यु
2006 में हुई और
मैं तो एक साल
बाद तक भी
जिवित रहा।
दादा
जी इस उम्र भी
बहुत ताकत वर
थे। रोज कम से कम
5 से 7 मील घूम कर
आते थे। अब
उसकी खोपड़ी
में लठ लगते
ही वह अचेत हो
गया और उसके
साथ में भी
अचेत हो गया।
मेरी गर्दन से
खून बह रहा
था। दीदी बहार
निकल कर आई।
दादा जी कहने
लगे रहने दे
मनवा यह मर
गया। दीदी
मुझे बहुत प्यार
करती थी। उसने
पास आकर देखा
तो मेरी सांसे
चल रही थी। वह
भाग कर मुझ
गोद में उठा
कर अंदर ले गई
और पापा जी को
आवाज दी। पापा
जी शायद खाना
खा रहे थे। खाना
छोड़ कर भागे।
देखा तो आँगन
में चारों और
खून फैला है।
पाप जी समझ
गये की चोट
बहुत गहरी लगी
है भाग कर
मेरे गर्दन को
उन्होंने
उपर की और उठा
लिया और दीदी
को कहा की फ्रिज
से बर्फ निकाल
कर लोओ। क्योंकि
ज्यादा खून
निकलने के
कारण में अचेत
होता जा रहा
था। उन्हेंने
मरे जख्म पर
लगातार बर्फ
लगाये रखी
शायद ठंड के
कारण खून जम
कर रूक गया।
और इस अवस्था
में में आधा
घंटा ते लेटा
रहा फिर जब
जख्म पर मरहम
लगा कर पट्टी
बाँध दि गई।
उस रात मेरा
बदन पूरी रात
ताप में जलती
रही। बार—बार
प्यास लगे।
पानी में कुछ
अजीब सा सवाद
था। शायद कुछ
डाल रखा था
फिर भी मजबूरी
में उसे पी ही
जाता था।
बाद
में पता चला
की शरीर मे
खून के
साथ—साथ पानी
की कमी भी हो
जाती है। जो
पानी में पी
रहा था उसमें
गुलुकोस
मिलाया गया
था। जिससे
मेरे अंदर
पानी की कमी न
हो और मेरे
शरीर में
गुलुकोश की कम
पूरी हो जाये।
और सबसे
मजेदार बात तो
तब हुई की
दादा जी तो ये
सब नाटक कर के
भाग गये उस रात
वह घर ही नहीं
आये। और न ही
खाना खाया।
अजीब चरित्र
के आदमी थे।
खेर किसी तरह
से मेरी जान
बच गई। अब में
समझ गया था की
जो आजादी दादा
जी मुझे देते
है वह बहुत
खतरनाक भी हो
सकती है। और
अब तो और भी
खतरनाक क्योंकि
घर में और कोई
था भी नहीं जो
मरे रक्षा
करता। इस लिए
उस आजादी में
बहुत सर्तकता
से उपयोग करता
था। मेरा मुक्ति
दादा जी किसी
दिन मुझे
पूर्ण मुक्ति
भी दिला सकता
है। उस दिन के
बाद मेंने एक
सबक सिखा कि
घर से बहार जब
भी जाता तो एक
दम से कभी नहीं
भागता था। क्योंकि
पहले तो मुझे
लगता था इस
कैद खानें से
जल्दी निकला
जाऊं। परंतु
ये न हो की इधर
कुआं उधर खाई।
अब
बहार निकलने
से पहले चारो
और नजर डाल लेता
था। फिर उसके
बाद उस गर्दन
पकड़ने वाल
कुत्ते को
मेंने इतना
मारा की शायद
वह मर ही
जाता। वह तो
पापाजी आ गये
और मुझे
मारमार कर उसे
छूड़ा दिया
वरना तो मैं
उसे जान से
मार देता। उस
दिन के बाद वह
कुत्ता फिर
कभी मुझसे
लड़ने नहीं
आया। एक तो
दादा जी का लठ
जो उसकी
खोपड़ियांमें
लगा और दूसरा
मेंने एक दिन
उसकी चटनी
बनाई। फिर भी
में आगे के
लिए तैयार हो गया
था। क्योंकि
आदमी को कभी
भी अपने दुश्मन
को कमजोर नहीं
समझना चाहिए।
और उस दिन की लड़ाई
से मैंने यही
सबक सिखा।
दिन
पर दिन बीत
रहे थे। परंतु
कोई नहीं आ
रहा था। लेकिन
एक बात थी
परिवार के
जाते ही खाने
के भी लाले पड़
गये। दूध दही
की तो बात ही
मत करो। दादा
जी एक दिन दूध
लाये थे उस
दिन एक कटोरी
में मुझे
दिया। शायद घर
पर ही रखा हो
उस दिन मेरा
मन नहीं कर
रहा था क्योंकि
उसी दिन सब
परिवार के लोग
गये थे। फिर तो
जितने दिन में
दादा जी के
साथ रहा था
कभी दुध के
दर्शन नहीं हुये।
भूख किस
चिड़ियां का
नाम इन दिनों
मेंने जाना।
वरना तो भूख
लगने से पहले
ही खाने को
मिल जाता। मैं
सोच रहा था
इतनी ब्रैड जो
सुखा कर रखी
थी वह भी दादा
जी मुझे नहीं
देते ओर न ही
खूद खाते है।
खूद तो खा ही
नहीं सकते थे।
क्योंकि
उनके तो दाँत
पूरी तरह से
घीस गये थे। और
कुछ निकलवा
लिए थे। तो
फिर वो वहां
क्यों है।
मैं पास जाकर
खड़ा भी होता उस
सैल्फ पर चढ़ने
की कोशिश भी
करता। क्योंकि
मुझे भूख लगी
हो तब आपको
चोरी चकोरी का
या मार का भी डर
नहीं होता।
सच
पेट की आग
बहुत बुरी
होती है। अब
तो बहार निकल
कर घूमने का
भी मजा जाता
रहा। क्योंकि
पेट खाली हो
तो मस्ती
करने का किसका
मन भी नहीं
करेगा। दूकान
के पास जाकर
खड़ा हो जाता
वहां कुछ सब्जी
लगाने वाले
खड़े होते थे
जो मुझे जानते
थे कि में
किसका कुत्ता
हूं इस लिए
पहले भी मै
उनसे गाजर
मांग कर खाता
था। गाजर मुझे
बहुत ही पसंद
आती थी। एक दो
गाजर ले कर
बड़े चाव से
खाता परंतु
कुछ नमकीन भी
तो चाहिए। कुछ
दूध भी चाहिए।
अब ऐसी हालत
हो गई कूड़ेघर
में जाकर सुखी
रोटियां
ढूंढ—ढूंढ कर
में अपना पेट
भरता।
बहार
निकलने का अब
एक ही मतलब
था। अपना खाना
ढूँढना। और
यही कुछ दिन
पहले एक आवरगी,
एक तफरीह एक
मौज मस्ति....होती
थी। समय—समय
का फेर था समय
हमेशा एक नहीं
होता वह बदलता
ही रहता है।
जो आज तुम्हारे
पास वह सदा के
लिए नहीं है।
उसे तुम जितना
प्रयोग कर
सकते हो करो...
वह तो हाथ से छिटिक ही
जायेगा। अब तो
घर में मुझे
रोकने वाला भी
कोई नहीं था।
एक मात्र
दादाजी ही थे
जो मेरे मुक्ति
दाता थे। फिर
जीवन में
कितना
परिवर्तन आ जाता
है। हम किन्ही
लोगों के साथ
रहते है ये उस
पर निर्भर
करता है हमारा
जीवन क्या
होगा। बहार तो
निकलना ही था
पूरा—पूरा दिन
में आवारा
कुत्तों की
भांति में
गांव भर में
घूमता रहता।
उस समय मन और
शरीर भी अलग
अवस्था में
बदल गये थे।
शरीर में एक
हिम्मत
थी....अपना बचाव
भी करना
था...डरना भी था
और डराना भी
था। दोनों
कामों का
तालमेल मैंने
इस बीच सीखा
था। पहले तो
केवल डराना ही
जानता था आप
डरने में भी
अपना बचाव
करना है। क्योंकि
चार कुत्तों
के बीच आप डरा
कर ही नहीं बच
सकते....आपको
उसके साथ डरना
भी होगा ओर
उनके हमले कि
लिए तैयार रहना
होगा। जो
हमारे लिए
बड़ा कारगर हथीयार
है।
दादाजी
के इस ड्राई
लव को मैंने
पहले भी जाना था
परंतु इस बार
तो हद ही हो
गई। कई—कई बार
तो पूरा दिन
कुछ खाने को
नहीं
मिलता....हमारे
साथी कुत्तों
की तो यही गति
होती है पूरा
जीवन। मैं ये
समझने की कौशिश
कर रहा था कि
पापा जी जो
इतनी ब्रेड़
सुखा कर रख
गये थे वो
कहां चली गई न
तो दादा जी
खुद खाते है
और न मुझे ही
खोने को देते है।
खुद तो वह खा
ही नहीं सकते
थे। क्योंकि
उनके कुछ ही
दाँत रह गये
थे। परंतु चाय
या दूध के साथ
तो खा सकते
थे। राम जाने
दादा की माय
तो अजीब थी।
पता नहीं दादा
जी भी कुछ
खाते है या
नहीं....। मेरी
तो समझ में
कुछ नहीं आ
रहा था। आप
सोचते होगें
की में केवलखाने
की बात कर रहा
हूं...भई जब पेट
खाली हो तो और
कुछ नहीं सुझता....ये
तो बड़े
दार्शनिक ही
कह गये है
भूखे भजन न होई
गोपाला।
पहली
बार भूख का
अहसास इसी
जीवन में मुझे
हुआ नहीं तो
सामने दूध भरा
होता और अंदर
से तबीयत खराब
होती तो सब
कितनी मिन्नत
करते की आज
पोनी ने कुछ
नहीं
खाया....लेकिन
अंदर कुछ जाना
ही नहीं चाहता
तो क्या किया
जा सकता है....ओर
एक या दो दिन
भूखा रहने पर
भी पैट जब
तक पूरा खाली
न कर दिया
जाये....चीत
बड़ा परेशान
रहता है। पैट
को उमेठ कर
किस तरहसे
सब बहार
निकालने को मन
होता था और
निकालने के बाद
कैसा अंदर एक खालिपन सा
लगता था कितना
सुखद ऐहसास
होता था। लगता
अब इस में कुछ
न डाला
जाये.......लेकिन
घर के सब लोग
परेशान हो
जाते....दीदी,
मम्मी,
वरूण....पापा सब
कितनी बार आकर
कहते कुछ खा
ले....लेकिन
नहीं गर्दन
मोड़ कर ठूड़ी
को टैक कर
वही चिर—परिचित
सा पौज बना कर
में लेटा
रहता। और
कितनी ही बार
जब दूध खराब
होने को होता
तो उसे गली के कुत्तो
का पीला दिया
जाता.....ओर आज ये
हालत है....दूध
की क्या उडक
उठती है....मत
पूछो....एक नशेड़ी
की तरह....काश
कहीं से ठंड़ा
दूध आ
जाये.....जीवन
धन्य हो
जाये।
वहीं
घर है वही
दीवारे है लेकिन
आदमी के बदलते
सब बदल जाता
है। परंतु इन
दीवारों पर वह
प्यार पुता
थोड़े ही है।
वह तो आदमीयों
के ह्रदय में
समाया होता
है। उनके स्पर्श
में बसा होता
है। दादा जी
जब खाना खाने
आते तो मैं
आदत के अनुसार
उनके सामने आपनी
दोनों टांगों
को एक दूसरे
पर रखकर....कैसे
एक प्यारा
सा दूलारा
सा चेहरा बना
कर डूपी—डूपी
आंखों से
निहार कर दादा
जी को देखता
और दादा जी
मुझे एक टूकड़ा
अवश्य
देते। तब दादा
जी मुझे बड़
दया के सागर
दिखाई देते
थे। मेरा पैट
भरा भी हो तो
मुझे बुला कर
कहते पौनी आ
ले खा ले और
लड़ में लड़
कर कितने प्यार
से उनके हाथ
से रौटी
का टूकड़ पाकडता
जैसे वो कोई
इनायत मुझे
सौंप रहे है।
मेरी तो समझ
के बाहर यह
बात हो गई की
दादा जी और
मुझे खाने को
नहीं देंगे।
धीरे—धीरे
बहार घूमने का
आंनद खत्म
हो गया था।
कौन घूम
बहार....कुछ
मिलता तो
नहीं.....उपर से
कितने कुत्तो
से अपनी रक्षा
नाहक करनी
होती। कई बार
तो अपने
अहंकार को दबा
कर मुझे अपनी
प्यारी और
मोटी पूछ अंदर
करनीहोती
जो मेरे स्वभीमान
पर एक बहुत
बड़ा धक्का
थी। फिर भूख
के कारण में
धीरे—धीरे
कमजोर भी होने
लगा था। ये
मैं जान गया
था कि अब अगर
मुझसे दो से
अधिक कूत्ते
भीड़ गये तो
मुझमें बचने
की ताकत नहीं
है। तब में ज्यादा
से ज्यादा
देर घर के एक अधेंरे कौने में
दुबका सोतारहता
था।
हम
हर मनुष्य के
आचरण को अपने नजरिये से
जानते है।
परंतु वह सत्य
नहीं होता...वह
तो सत्य की
मात्र छाया
होती है...स्थान
और परिस्थित
ही उसे हमारे
सामने सत्य
के रूप में जब
लाकर खड़ा
करेगी तब हम
हतप्रभ भी हो
सकते है। उसका
पता तो हमे
समय की गहराई
से चलता है।
वहीं पाचू...जो
हमारे घर में
मजदूरी
करता...वहीं
मेरी फूटी आंखों
नहीं सूहता
था....कितनी बार
उसके घर जाकर
मेंने अपना पैट भरा।
मैने न जाने
कितनी बार उस
पर हमला बोला
उसे
गिराया....परंतु
उसने उन सब बातों
को भूल कर
मुझे खाना
दिया...जब की वह
कुछ महीनों से
हमारे घर पर
मजदूरी भी
नहीं करने आता
था। मैं वो सब
भूल जाना
चाहता
हूं...याद करना
चाहता हूं उस
घर से मिला प्यार
ओर दुलार...ओर
इस बीच मम्मी–पापा
की कितनी याद
आद आती आपको
कह नहीं सकता
था। लगता था
पंख लग जाये
और में उड़ कर
वहां चला जांऊ
जहां मम्मी—पापा
गये है....परंतु
न जाने कहा
गये है। मुझे
तो ज्यादा इस
दूनिया का पता
भी नहीं है।
मेरी दूनिया
तो बस चार
पाँच मील के
दायरे तक
सीमित रह गयी है।
मैं सोचता था
ये संसार
कितना बड़ा
है....एक चींटी
के लिए तो चार
मील का दायरा
भी अंनत है....वह
उस जंगल में
कैसे जा सकती
है जहा
में कुछ ही
मिनट में दौड़
कर चला जाता
हूं......परंतु एक
पक्षी तो
मुझसे भी
दूर..दराज
कितने संसार
को जानते
है....सब पशु
पक्षियों का
अपना—अपना
संसार होता है,
सब की समय और
गति अलग—अलग
है।
पांचू के
अलावा हमारी
दूकान के पास
जो सब्जी की
रहड़ी लगते
है....वह भी मुझे
गाजर खाने को
दे देते
थे....परंतु अब क्याकियां
जा सकता
है......अगर ये लोग
मेरी मदद न
करते खाने की
तो शायद में
बहुत कमजोर और
मर भी सकता
था। और मैं इस
तरह सक मरना
नहीं चाहता
में मरना
चाहता हूं पापा—मम्मी
मेरे समाने हो
और में अपने
मन की बात उन्हें
कह रहा हूं.....ओर
मेरी आंखें
बंद हो जोये।
इस तरह बिना—मम्मी—पापा
को मिले मरना
एक अतृप्त
दायी एक गांठ
मेरे मन में
रह जायेगे। एक
प्यास एक
तड़प....जो बात
मुझे बहुत
सालती थी।
और जब
मम्मी—पापा
ने आकर ब्रैड
से भरा वह
बर्तन देखा तो
वह हतप्रभ रह
गये। कि पोनी
को खाने को
ब्रैड़ नहीं
देते थे। तब
दादा जी ने
कितनी सफाई से
कह दिया कि
पोनी तो घर
में खाना ही
नहीं खाता
था....पापा जी श्याद
समझ गये और
उन्होंने
अपना सर ठोक
लिया। और मैं
भाग कर मम्मी
की गोद में
लेट गया। उस
दिन मेरे मन
में मम्मी से
जो डर था वह न
जाने कहां
गायब हो गयो....ओर
सच उन्होंने
मेरे शरिर
पर जो प्रेम
और उष्णता
की दूलार
फेरी वह निहाल
हो गया……पल में
सब दूख
दर्द भूल गया
और आंखेंबंद
कर उस दूलार
ओरछुअनके
आंनद में
डूब गया। और
पी जाना चाहता
था उस एक एक
स्पर्श
को उस रोम—रोम
में बसे दूलार
को.....उस अतृत
शरिर पर
जैसे अमृत की
वर्ष हो रही
थी।
और एक
गहरे में जाकर
में उस का आंनद
ले रहा थ......मम्मी
में भी मुझे
सीने से लगा
कर प्यार से
कितनी ही बार
चूमा......ये प्यार
ओर दूलार
तो मम्मी
वरूण दीदी और हेमांशु
को देती थी
उसकी वर्ष आज
मुझ पर भी हो
रही थी। मैं
अपने जीवन को
धन्य समझ रहा
था और सोचता
था इतने कष्ट
के बाद इतना
लाड़ प्यार
मिले तो ये
कोई अधिक कीमत
नही है इससे
तो हजार गुना
कष्ट उठा
सकता हूं और
सब दुख दर्द को
भूल गया। और
फिर घर में प्यार
की रिमझिम
बरसात होने
लगी अब तो उसे मुसलाधार
वर्षा कहना
चाहिए।
मेरा
कोई नहीं है
ये सोचने में
भी पापा है...क्या
मेरी मां मुझे
इतना प्यार
कर सकती थी।
उसकी भी एक
सीमा थी....जब तक
दूधा था...कुदरत
की देन....वह
मुझे प्यार
दुलार देती
रहती और एक
दिन तो मुझे
अपने खाने में
से भी एक
टुकड़ा देने
के लिये मार
सकती थी…..या मैं
खुद अपने खाने
में एक भी
टुकड़ा अपनी मां
को खाने के
लिए नहीं
देता....परंतु
मनुष्य का प्यार
एक अलग ही
आयाम में जीता
है...वह शरीर या
पेट या मन के
भी पार ह्दय
के उस छोर पर
तब वह महान
है......उसका प्यार
अनमोल है। उस
दिन मैंने
जाना की मैं
भी इस घर का एक
प्राणी
हूं....उन जैसा
तो नहीं
कयोंकि ये
शायद उनकी
मजबूरी थी...जब
परमात्मा ने
मुझे चौपाया
बना दिया तो
अब दो टांगों
पर कैसे खड़ा
किया जा सकता
है। या मैं
हाथों को उनकी
तरह से कैसे
इस्तेमाल कर
सकता
हूं.....परंतु ये
तो शरीर का
भेद है...ह्रदय
का इन सब को
नहीं मानता और
में पहली बार अपने
कुत्ता होने
पर गर्व महसूस
किया....मेरे
जैसा भाग्य
सब कूत्तो
का नहीं है....ये
में जानता
हूं...फिर भी इस
पर इतराता
नहीं इसे एक कर्मो के
सिद्धांत का
फिर मानता
हूं....सबका
अपने कर्म है
अपना भाग्य
है।
उस नकार
नहीं जा
सकता.....ये हम
चारो और देखते
है.....ये पशु...पक्षियां....कीड़े
मकोड़ो...या
प्रत्येक
प्राणी पर
लागू होता है
चाहे वो जल
में हो थल में
या नभ में
हो.....चारों ओर
आंखें खोल कर
इस कुदरत के
अपूर्व करिशमें
को देख और
समझा जा सकता
है।
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