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रविवार, 9 जुलाई 2017

11 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा - (मनसा-मोहनी)

सुबह बच्‍चे ज़िद्द करने लगे की हम आज स्‍कूल नहीं जायेगे। मम्‍मी ने भी उनके साथ जबरदस्‍ती नहीं की शायद वह भी टोनी की मृत्‍यु के कारण दुःख से भरी हुई थी। टोनी की अंतिम विदाई की तैयारी होने लगी। पापा जी ने टोनी को एक कपड़े से लपेट कर उसे स्‍कूटर की जाली में रख दिया। इसी जाली में एक दिन वह बैठ कर कभी वह इस घर में आया था। इस जाली में लेट कर आज बिदा हो रहा था। सब बच्‍चे उसे बिदा करने जा रहे थे। मेरा भी मन कर रहा था मैं भी साथ जाऊं। मैं स्‍कूटर के पास खड़ा हो गया। पापा जी ने कहा पोनी तू भी चलेगा क्या आपने दोस्‍त को अंतिम विदाई देने के लिए। मैंने स्वीकृति में अपनी पूछ हिलाई। और फिर दीदी ने मुझे गोद में बिठा लिया। मैं बहुत ही प्रसन्न था। और कहीं अंतस में उदास भी था कि मृत्यु क्या है। ये शरीर जो अभी कल तक किस तरह से दौड़ता फिर रहा था। मेरे साथ खेलता खाता था और लड़ता था अचानक इस तरह से शांत थिर होकर कैसे लेट गया। क्या मुझे भी इसी तरह से लेटना होगा?

हम सब एक ही स्‍कूटर पर बैठ कर चल दिये। एक सर्कस की झांकी की तरह। आगे वरूण और हिमांशु भैया खड़े हो गये। फावड़ा पीछे बाध दिया। और तीन-चार नमक की थैलियां डिग्‍गी में डाल ली। मम्‍मी ने हमे दुकान से ही बिदा किया। हम जंगल के अंदर काफी दूर गहरे में निकल गये। पापा जी ने उस गहरे नाले को भी हमें बैठे—बिठाये पार कर लिया।

पहले तो मुझे कुछ डर लगा। पर बाद में लगा जब बच्‍चे ही नहीं गिरेगे तो मैं कैसे गिर सकता हूं। कितने गजब की चीज है ये स्कूटर भी। आपके बिना चले भी सारी चीजें पीछे भागती नजर आती थी। आदमी भी एक चमत्‍कार है। दूसरे नाले के पास स्‍कूटर खड़ा कर हम सब को नीचे उतार कर पैदल ही जंगल के अंदर चलते—चले गये। कुछ झाड़ियों और टीलों के पार।

एक ऐसी जगह की खोज में जहां टोनी को चिर निंद्रा में सुला दिया जा सके। शायद पापा जी की आंखें कुछ विशेष ढूंढ रही थी । हमें न तो समझ थी और न ही हमें पता की कैसी जगह होनी चाहिए। वह जगह बीच झाडियों के थी और उसके आस पास काफी झाड-झंखाड़ उगे थे। जिससे वह टोनी के लिए सुरक्षित थी। उसी जगह को उपयुक्त देख कर पापा जी फावड़े से एक गढ़ा खोदने लग गये। मैं काफी परेशान था। टोनी को कपड़े सहित स्‍कूटर की जाली से निकाला गया। और उसे जमीन पर रख दिया। बच्‍चे उसे देख कर रोने लगे। मेरा भी दिल भारी हो गया। कितना साथ था मेरा और टोनी का। आज जा रहा है। पर मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था। टोनी मर क्‍यों गया। अरे ये भी कोई बात है उठ कर खड़े हो जाओ। मुझे उस पर गुस्‍सा भी आ रहा था, लग रहा था ये टोनी उठ जाये तो इसको कौन रोकेगा। पर वह तो मर चूका था। और मैंने पहली बार मृत्‍यु को देखा इतने नजदीक से। परंतु देख कर भी हम कहां देख पाते है, समझ कर भी नहीं समझते है। जब अपने साथ यहीं घटना घटती है तब हम मजबूर होते है। उस में डूबने के लिए एक सैलाब की तरह। तब चाह कर भी कहां होश रखा जा सकता है। क्या बाढ़ में भी तैरना सिखा जा सकता है।

फिर उसे उस गड्ढे में लिटा दिया गया। कैसा शांत लेटा था अगर वह जीवित होता तो कभी इस छोटे से गड्ढे के अंदर नहीं रूकता। पल भर कूद कर बाहर आ जाता। परंतु अब तो वह सौ रहा था। फिर उसके उपर वह नमक की थैलियां खोल कर डाल दि गई। नमक क्‍यों डाला जा रहा था ये मेरी समझ के बाहर था। समझ के बाहर तो वो सब था जो आज घट रहा था। परंतु किया क्या जा सकता था। केवल उसे देखता रहा एक मूक दर्शक की भांति। वरूण भैया ने मानो मेरे ही मन की बात पापा जी पूछ ली। दीदी ने तपक से पापा जी से भी पहले कहा, इससे इसके शरीर की दुर्गंध नहीं फैलेगी। और यह जल्‍दी सड़ जायेगा। फिर उस पर मिटी डाल दि गई। मुझे लग रहा था मुझे भी ऐसे दबाया जाये तो मैं सांस नहीं ले पाऊंगा। और मिटी का भार भी सहना अति कठिन होगा। मुझे तो मम्‍मी ठंड के कारण कभी कंबल भी मुंह तक उढ़ा देती थी तो मैं बेचन हो उठता था। जैसे की मेरा दम घुट रहा हो। अच्‍छे से मिट्टी से दबा कर उस पर तीन चार बड़े—बड़े पत्‍थर ला कर पापा जी और दीदी ने रख दिये। बच्‍चे भी अपने हिसाब से छोटे—छोटे पत्‍थर ला कर रख रहे थे। पापा जी ने बताया की इससे पोनी के शरीर को कोई जंगली जानवर निकाल कर नहीं खा पायेगा। तब वरूण भैया ने पूछा, हम प्रत्येक प्राणी को मरने के बाद दबा देते है। और मनुष्य को। तब पापा जी ने कहां की कुछ धर्म में आज भी लोग दबाते है, लेकिन हमारे धर्म के अनुसार उस जलाया जाता है।

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जलाना क्यों....तब पापा जी ने कहां हाँ दबा देना कही ठीक है पशुओं के लिए। अगर उन्हें आप खुले फेंकोगे तो उसकी गंध हवा को विषाक्त करेगी। दबाने से मिट्टी उसके सब तत्व सोख लेगी। परंतु मनुष्य को हिन्दु लोग जलाते है। जिससे उसके पांचों तत्व अपने-अपने स्थान में चले जाते है। तब दीदी ने पूछा पापा जी पाँच तत्व कौन से, पापा जी ने कहा, मिट्टी, जल, अग्नि, हवा और आकाश... परंतु उसका सही तरीका तो उसे जला देना था। पर बेचारे जानवरों के लिए कोई दाह संस्कार करने का स्‍थान नहीं है। शरीर के सब दूषित जीवाणु जल कर शुद्ध हो जाते है।

हिंदू मनुष्‍य को इसलिए जला देते है। कि सब तत्व अपने—अपने स्‍थान पर चले जाये। सड़ने में तो सालों लग जाता है। तब कही जाकर के व सभी तत्‍व अपने स्त्रोत में विलीन होते है। देखा आपने जब हम किसी लकड़ी को जलाते है तो उसके वज़न से कितनी कम राख बनती है। क्योंकि जिन तत्व से वह लकड़ी बनी थी, पेड़ के रूप में उस जल, वायु, अग्नि, आकाश पृथ्वी तत्व थे, जलने के कारण सब तत्व अपने-अपने स्थान में लुप्त हो गए। टोनी को उसे जंगल में मिट्टी में दबा देना मुझे कुछ अंदर तक हिला गया। क्‍या इसी तरह से एक दिन मैं भी मिट्टी में दबा दिया जाऊंगा? शायद ये एक चिर सत्‍य था, जिसे मैं नादान और अल्हड़ होने के अलाव मुझे जीवन का एक नया रहस्य समझ में आया। कि जो बनता है वह मिटता भी है। यहां कुछ भी थिर नहीं है। साथ—साथ उसने मेरे अंदर एक नये आयाम ने जन्म लिया। अच्छा ही किया जो पापा जी मुझे अपने साथ ले आये। और जो कुछ भी मैंने देखा और समझा वह में लिए एक मील का पत्थर बन सका था।

ये आघात मेरे मन मस्‍तिष्‍क पर बरसो छाया रहा। मैं जब भी टोनी को याद करता या उसके साथ खेलने की कोई वस्‍तु मुझे मिल जाती तो वही दृश्‍य मेरी नजरो के सामने आ खड़ा होता। जब मैंने टोनी को मिट्टी में दबते हुए देखा था। वक्‍त के पास एक ऐसी मरहम है जो पत्‍येक पीड़ा और जख्‍म के घावों को भर देती है। और करीब—करीब ऐसा ही मेरी साथ भी हुआ.....।

अब धीरे से वह शरीर मिटटी में मिल जायेगा। पापा जी मुझे देख कर कह रहे थे कि देखो इस पोनी के कारण ये सब हुआ है। इसे इतनी भी समझ नहीं है कि क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। कुदरत ने तो इसे इतनी शक्ति दी है कि ये तो जहर को भी सूंध कर समझ सकता है। कि यह खाने लायक नहीं है। परंतु अब क्या हो सकता है.....और पापा जी एक गहरी स्वास ली। में थोड़ा झेपा की बात तो सही कहा रहे थे पापा जी। इसके बाद सब पास ही नाले में बहते पानी से हाथ धोये। वही पास की चिकनी मिट्टी को हाथों पर मल कर जो साबुन का काम देती थी। और सब मायूस और उदास थके कदमों से घर की और चल दिये।

अचानक घटना चक्र इतनी तेजी से बदल रहा था। ना चाहते हुए भी कुछ ऐसा घट रहा था जो बहुत कुरूप था। इसके बाद मेरी सारी की सारी दिन चर्या ही बदल गई। अभी में बीमारी से उभरा भी नहीं था की, ये सब देखना पड़ा। मैं मरा तो नहीं पर मेरे शरीर मैं जो विकार आ गया। वह जीवन भर मेरा पीछा करेगा। यह शरीर भी एक गूढ़ रहस्‍य है। इस बीच ये निर्णय लिया गया की पोनी के लिए अंडे मंगवाये जाये। अब जबकि ये पूरा घर शुद्ध शाकाहारी है सालों क्या जन्मों से इनके घर तो कभी प्याज-लहसुन तक नहीं आता अब मेरे लिए अंड़े....भगवान ये पाप भी मुझ से ही करा रहा है।

जहां प्‍याज तक नहीं खाई जाती। क्यों मेरे लिए अंडे आये। उन्‍हें ओवन में हाफ बायल कर रोज मुझे दिया जाता। हम मांसाहारी प्राणियों को अगर मांस ने मिले तो अंदर कुछ खाली या सुखा—सुखा रह जाता है। अंडे खा कर मुझे अंदरूनी तृप्‍ति महसूस होने लगी। मम्‍मी पापा सोच रहे थे। काश ये फैसला हम पहले ले लेते तो हो सकता है। हमारा टोनी भी नहीं मरता। वह भी अंडे खा कर कितना खुश होता। अण्डों ने मेरे शरीर और मन के सूखे पन में नये प्राण फूँकने शुरू कर दिये। कुछ ही दिनों में वो बिमारी वाली बात में लगभग भूल ही गया कि मैं कभी इतना बीमार था। जंगल जाता तब वैसे ही दौड़ता। घर पर भी सारा दिन खुब भागता खेलता था।

शुरू के दिनों की तो कह नहीं सकता पर बाद में कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ की ये मनुष्‍य मेरे हिस्‍से का खाना मुझ से छिन कर खा जायेगा। चाहे वो पापा—मम्‍मी जी हो या हैमान्‍शु भैया, या वरूण भैया या दीदी हो। जब सुबह मुझे दो अण्‍डे खाने को मिलते तब मैं कैसे चाव से बैठ कर उनका इंतजार करता। फिर मम्‍मी जी को देखता रहता फिर जब वह बन कर ठंडे हो जाते तब मम्‍मी जी मुझे कहती पोनी अब खा ले। और मुझे प्‍यार करती तब ही में खाता वरना तो बैठा देखता रहता। में जानता था अपनी जाति के स्‍वभाव को। और देखा है दुसरी और मनुष्‍य के स्‍वभाव को वो हमे देता है। पर हम से छिन कर कभी नहीं खाता इसलिए मेरे मन उस के प्रति एक आदर एक सम्‍मान था।

सब बच्‍चे सुबह स्‍कूल चले जाते। मम्‍मी—पापा दुकान पर चले जाते। वो समय मेरे लिए बहुत भारी हो जाता काँटे से नहीं कटता था। बीच में जब मम्‍मी आती चाय बनाने या और किसी काम से तब में उनके साथ—साथ घूमता रहता। टोनी के बिना घर काटने को दौड़ता था। मैं इस समय कितना अकेला पड़ गया था। जब और भी अधिक बेचैनी होती है तब तुम्हारा अपना शरीर भी स्वास्थ्य न हो। टोनी साथ होता था तो समय का पता भी नहीं चलता था। फिर जब ग्‍यारह बजे मम्‍मी पापा दुकान से आते और नहाने के बाद तुरंत ध्‍यान करने के लिए ध्यान कक्ष में चले जाते थे। या राम रतन अंकल होते तो उसके साथ पापा जी कुछ कम करा रहे होते। राम रत्‍न अंकल होते तब मम्‍मी पापा को ध्‍यान करना मुश्‍किल होता था। वरना में इतने दिनों से देखता वो कभी ध्यान में जाने की नागा नहीं करते थे। पहले तो मैं बहुत शरारत करता था। इसलिए मुझे ध्यान के कमरे में जाने की मनाही थी। परंतु अब तो मुझे ध्‍यान के कमरे में जाने से कोई नहीं रोकता था। वहां पर जाकर में आपने अकेले पन को बिलकुल भूल जाता था। पहले मुझे इस बात की समझ नहीं थी की जब ध्‍यान करते है तब भोंकना नहीं चाहिए। पता भी कैसे चलता हम तो भौंकने को ही अति महान कार्य समझते है। यही हमारा कर्तव्‍य है। यहीं से हमारी महानता का पुराण शुरू होता है। और शायद यहीं पर खत्‍म भी हम इस से ज्‍यादा कुछ जानते ही नहीं। कुछ पता हो न हो हम सब जानते सब चौर उच्चको को पहचानते है....इसलिए तो हम किसी भी गलत काम को होने नहीं देना चाहते। इस सब बातों पर हमारी जाति को बहुत गर्व है।

पापा—मम्‍मी जी को जब ध्‍यान करते देखा तब पहले तो कुछ अजीब लगा। वह जोर से साँसे लेते। फिर चीखते चिल्‍लाते। फिर दोनों हाथों को आसमान कि और उठा कर हू...हू....हूं....मैं समझ नहीं पाता की ये सब क्या है....लाख अपने दिमाग पर जोर डालता तब मुझे कोई समझाने वाला भी कौन है...हम तो सब अपने ही अनुभव से जानना सीखना होता है। इसे केवल समय ही हमें सीख सकता है। पर फिर मैंने अपने दिमाग पर ज्यादा जोर देना बंध कर दिया जो हो रहा वह ठीक ही होगा। मेरी समझ इसे नहीं समझ सकती तो क्‍या मैं इसे गलत मान लूं। हम लोग यही तो करते है। जो हमारी समझ में नहीं आता उसे समझने की बजाय ये मान लेते है ये सब गलत है। भला ऐसा भी कभी होता है। इसी तरह एक दिन कि मजेदार बात आप लोगों को बतलाऊ, एक दिन ध्यान के समय अचानक बिजली चली गई।

लेकिल तब भी पापा जी का टेपरिकार्ड तो चल पड़ता था, क्योंकि उसके अंदर शायद बैटरी होती होगी। तब पहली बार मैंने उस मौन को सूना...क्योंकि बिजली भी काफी ध्वनि प्रदूषण फैलाती है। रेडियों, टी. वी., फेन, आदि चलते है तो है तो हम बहार की आवाज कम सुनाई देती है। पर आज बिजली न होने पर लोग कुछ घरों से निकल कर लोग बहार आगर इकट्ठे हो गए। कुछ लोग अपने घर की छतों पर निकल कर तमाशा सा देखने लगे, छत और गलियों लोगों से भर गई। मानो लोगों कोई काम ही नहीं था, सब एक दम से फालतू है। शायद बिजली चले जाने से काम और सरल कर दिया। बिजली के बिना तो आज मानव का जीना अति कठिन है। खास कर शहर के लोगों के लिए। वरना तो ऐसा शोर गुल यहां रोज ही होता था। मम्‍मी—पापा ध्‍यान का जब दूसरा चरण जब शुरू करते तब उसमें वह जोर-जोर से चिल्‍लाते, रोते, हंसते, पागलों की तरह हरकत करते। बाहर लोगों की भीड़ इक्‍कट्ठी हो गई लोग आ—आ कर कहने लगे क्‍या हो रहा है। क्‍यों पीट रही है मनसा आनी घर वाली को पहले तो कभी इनके घर से हमने कभी कोई ऊंची आवाज नहीं सुनी ऐसा क्‍या हो गया। क्‍या ये भी शराब पीने लगा, वह भी दिन में ही। हाँ ये पैसा जो न करा दे वही कम है। लोग समझने लगे कि पापा जी मम्‍मी जी को मार रहे थे।

हां आपने एक बात देखी मनुष्य की अच्छाई को हम कभी स्वीकार नहीं करते। परंतु बुराई के लिए एक दम तैयार रहते है। काम करने वाली अम्‍मा तो जानती थी। वह कहने लगी आप क्‍यों भीड़ कर रही हो, ये लोग ध्‍यान कर रहे है। वो सब कहने लगे कि ये कैसा ध्‍यान आप हमें अंदर जाकर देख लेने दीजिए। आप भी कमाल कर रही है वो इतनी देर से रोंए जा रही है। वो कसाई की तरह मार रहा है, आप हमें अंदर तक जाने नहीं देती। कही वो उसे जान से तो नहीं मार देगा....। लोगों का स्वभाव है, उन्हें हमदर्दी तो कम होगी नाटक देखना अधिक उत्साह दे रहा था। की देखा न चोगा पहन लेने से कोई संत नहीं बन जाता....हम बहार से कितना ही रंग ले अंदर से तो एक ही है। ये सब दिखावा करते है अंदर से सब एक है।

पास में जो मामा मामी रहते थे वो भी ये सब जानते थे। कि इस तरह की बात हमारे मन में भी पहले आई थी। क्‍योंकि ये तो हम रोज ही सुनते है पर ये लोग ध्‍यान करते है। मैं भी इतनी भीड़ को देख कर बेचैन हुआ जा रहा था। और उन लोगो को वहाँ से भगा देना चाहता था। पर अम्‍मा ने मुझे चैन से पकड़ कर पहले ही बाँध दिया था। वरना तो शायद मैं एक आध को काट भी लेता। फिर कुछ देर बाद ध्‍यान का वो चरण खत्‍म हो गया। वहां पर एक दम से सन्नाटा छा गया। सब लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे। कि अब क्‍या करे कोई उत्तर न सूझने के कारण वे लोग धीरे—धीरे आपने—अपने घर चले गये। पर बात उनकी समझ में नहीं आई कि भला ये कैसा ध्‍यान। न पहले देखा न पहले सुना। खेर सबका अपना—अपना धर्म है, भगवान ने अब खाने कमाने के दिन दिये थे। पर अब दाँत नहीं बचे। सुख सबके भाग्‍य में नहीं लिखा होता। इनकी अपनी मर्जी जैसा जीना है जीने दो....।

कई लोग तो जान बुझ कर दु:ख को ओढ़ लेते है या खुद ही उसे निमत्रंण देते है। आ बैल मुझे मार। राम....राम..भगवान सबका भला करे। किसी की समझ में कुछ नहीं आया। पर सब लोग यही समझते थे कि ये सब गलत है। मेरी भी समझ में कुछ उन लोगो से ज्‍यादा आ गया कि पापा मम्‍मी जी ठीक है। पर हो सकता है मैं ही गलत हूं या मेरी समझ के परे की बात है।

कुछ ही देर में घर के आगे से सारी भीड़ छंट गई....थोड़ी देर में ही सारी गली खली हो गई। परंतु गांव को एक टोपिक मिल गया चर्चा करने के लिए। देखो भला ये कैसा ध्यान....भली करें भगवान इन लोगों का, कौन किसी की मानता है टाइम ही खराब आ गया।

अरे भई आज हमने जो देखा वह आप से कह नहीं सकता, मनसा अपनी बीबी को बहुत मार रहा था, वह किस तरह से जानवर की तरह रो रही थी....और वो जो उनके घर पर काम करती है वह कह रही थी कि वो तो ध्यान कर रहे है...ये लोग पागल किसे बना रहे है। देखों बातों को भी कैसे छुपते है, सब नाटक है। पूरे गांव में बात एक दम से आग की तरह से फेल गई। श्याम को जब मम्मी पापा दुकान पर काम कर रहे थे तो कितने ही लोग तो दूध या कुछ और खरीदने के बहाने से उन्हें देखने के लिए आये चलो गांव में कुछ हलचल तो हई। की देखे मनसा की घरवाली को कहां...कहां चोट आई।

 

भू...भू....भू....

आज इतना ही।


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