जरा-सी चिनगारी काफी है!—दसवां प्रवचन
२० जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए
मेरे जीवन के पादप को फूल नहीं मिल पाया
मैं हूं ऐसी लहर कि जिसको कूल नहीं कूल पाया
कहते हैं
देवत्व छिपा है पत्थर के प्राणों में
पर मेरे अंतर्मन का सौंदर्य नहीं खिल पाया
ऐसी चोट करो हे शिल्पी! मूर्ति प्रगट हो जाए
मुक्त बनें प्रच्छन्न कलाएं, सब नंदन हो जाए
मैं वह
वीणा हूं जो अब तक पड़ी रही अनगाई
नहीं सजी प्राणों की महफिल नहीं चली पुरवाई
नहीं खिला जीवन का मधुवन कोयल कुहुक न पाई
जला न दीपक, बजी न अब तक प्राणों
की शहनाई
ऐसी तान सुना दो भगवन, प्राणों में भिद जाए
हृत्तंत्री के तार छेड़ दो, बस गायन हो जाए,
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए
योग प्रीतम! मैं वही कर रहा
हूं, इसीलिए तो इतना विरोध है। मनुष्य सदियों से रोने का
आदी रहा है। आंसुओं का पाठ उसे सिखाया गया है। धर्म का अर्थ ही उदासीनता धर्म का
अर्थ ही उदासी, ऐसा जहर उसके प्राणों में भरा गया है। यह कुछ
तुम्हारा कसूर नहीं। इस पीड़ा में तुम अकेले नहीं हो, सारी
मनुष्य जाति इसी संताप से घिरी है। और कठिनाई तो तब बहुत जटिल हो जाती है। जब हम
कांटों को फूल समझ लें। तो चुभते भी हैं, फिर भी उन्हें
छोड़ते नहीं। चुभता है, छाती भिदती है, प्राण
रोते हैं, मगर शूल शूल दिखाई नहीं पड़ता। आंखें-संस्कारों से
भरी हैं, वे उसमें फूल ही देखे चली जाती है। तुम्हारे जीवन
को विकृत किया गया है।
हृदय तो पहचान लेता है कि कहां भूल रही है मगर बुद्धि नहीं पहचान
पाती। क्योंकि बुद्धि तुम्हारी तो छीन ली गयी है, तुम्हारी बुद्धि पर
तो धूल डाल दी गयी है और तुम्हें उधार बुद्धि दे दी गयी है--बासी, सड़ी-गली। यद्यपि उस सड़ी-गली बुद्धि का शास्त्रों में लपेट कर दिया गया है।
ऐसे-ऐसे प्यार रंगीन कागजों में लपेटा है, कि तुम रंगीन
कागजों में ही उलझे रह जाते हो, भीतर की गंदगी का तुम्हें
बोध भी नहीं हो पाता।
इस षडयंत्र के पीछे राज है। वह राज तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो शायर हृदय
की वीणा बज उठे। बनी तो इसलिए थी कि बजती। बने तो तुम इसीलिए थे कि नाचते। जीवन
उत्सव है। और जैसे वृक्षों में फल खिलते हैं, वैसे ही फूल मनुष्य
में भी खिलने ही चाहिए। अनिवार्यरूप से खिलने चाहिए। अपरिहार्य रूप से खिलने
चाहिए। कभी एकाध के जीवन में न खिल जाएं तो उसे हम रुग्ण कहें, मगर यहां तो बात उलटी हो गयी है। कभी एकाध के जीवन में खिल पाते हैं। उस
माली को क्या कहोगे, जो करोड़ों पौधे लगाए, और एकाध पौधे पर कभी कोई एकाध फूल आए; उसको माली
कहोगे! उसको धन्यवाद दोगे? उसको आभार मानोगे? यही कहना होगा कि वह फूल उसके बावजूद आ गया होगा। वह फूल उसकी नजरों से
बचकर आ गया होगा। नहीं तो आ नहीं सकता था उसको बस चलता तो नहीं आ पाता।
यूं ही मनुष्य जाति की इस बगिया में कभी कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई मुहम्मद--करोड़ों-करोड़ों में कभी काई
एकाध फूल खिलता है। और हम उस फूल के साथ कैसा व्यवहार करते हैं! हम जो व्यवहार
करते हैं, वह भी बता देता है कि हमारे भीतर का फूल खिले तो
कैसे खिले? जीसस को सूली दोगे, तो
तुम्हारे भीतर का जीसस कैसे जगेगा? जीसस का सूली दी, तुमने अपने भीतर की संभावनाओं को सूली दे दी। तुमने आत्मघात कर लिया।
बुद्ध का पत्थर मारोगे, तो तुम किसका पत्थर मार रहे हो?
तुम अपने बुद्धत्व के ही द्वार पर अड़ंगे खड़े कर रहे हो। तुम अपनी ही
मंदिर गिरा रहे हो। तुम अपनी ही प्रतिमा खंडित कर रहे हो। तोड़ रहे हो तार वीणा के।
फिर रोओगे जार-जार और कहोगे, यह हृत्तंत्री बजती क्यों नहीं?
गीत क्यों नहीं हैं जीवन में? मधुमास क्यों
नहीं आता? आने दो तब न! पतझड़ से तो सगाई किये बैठे हो। वसंत
को तो टिकने नहीं देते। पर प्राणों में प्यास वसंत की है। क्योंकि प्राण बने वसंत
के लिए थे, पतझड़ के लिए नहीं।
मनुष्य का पूरा अतीत इतना सड़ा-गला है, इतनी मवाद से भरा है,
जगह-जगह से मवाद बह रही है, लेकिन तुम बस
लीपापोती करने में लगे हो। इधर से बहती है मवाद तो यहां पट्टी बांध लेते हो,
उधर से बहुत है मवाद तो वहां पटी बांध लेते हो। तुम्हारी सारी आत्मा
ही अगर सड़ न जो तो क्या हो? और जब तुम्हारे जीवन में दीप नहीं
जलते, गीत-नहीं उगते, फूल नहीं खिलते,
तो वे ही जो कारण हैं तुम्हारे जीवन का विनष्ट कर देने के, वे ही तुम्हें समझाते हैं कि यह तुम्हारे अतीत जन्मों में किये गये पापों
का फल है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं बार-बार: तुम जो भोग रहे हो, वह तुम्हारे अतीत जन्मों में किये गये पापों का फल नहीं है तुम्हारे,
पूरी मनुष्य जाति के अतीत के साथ जो दुर्घटना घटी है उसका
दुष्परिणाम है। तुम सामूहिक महापाप का फल भोग रहे हो। व्यक्तिगत तुमने क्या पाप
किये हैं! व्यक्तिगत तुम पाप भी करोगे तो क्या करोगे? कुछ
चोरी कर लोगे, कि कुछ जुआ खेल लोगे, के
कुछ शराब पी लोगे। कोई पाप में पाप हैं! कुछ गिनती करने योग्य हैं! और तुम्हारी
नींद में, बेहोशी में तुमसे आशा भी क्या की जा सकती थी! अब
नींद में कोई बड़बड़ाए, तो जागने पर हम उसे क्षमा नहीं कर
देंगे!
मुल्ला नसरुद्दीन रोज अपनी पत्नी को नींद में बड़बड़ाए, गालियां दे। उलटी-सीधी बातें करे। एक दिन पत्नी ने उसे झकझोरा और कहा कि
नसरुद्दीन, नसरुद्दीन, ये क्या तुम
नींद में अंट-शंट बकते हो? नसरुद्दीन ने कहो, अब तू सुन ही ले, समझ ही ले! कौन कहता है कि मैं सो
रहा हूं? मगर जागने में तू बोलने ही नहीं देती, जबान नहीं खुलने देती, सो आदमी का बच्चा हूं,
कुछ तरकीब तो निकालूंगा! सो आंखें बंद करके लेट जाता हूं, जो मुझे बकना है, जो मुझे कहना है, जो कहना तो जागने में लेकिन जागने में तो झंझट खड़ी होती, सो नींद में बड़बड़ाता हूं।
ऐसे आदमी को तो माफ नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी नींद
झूठी है, लेकिन सच में जो नींद में बड़बड़ा रहा हो, जगने पर उसे माफ नहीं कर दोगे?
अकबर की सवारी निकलती थी और एक शराबी अपने छप्पर पर चढ़ा हुआ था। शराबी
तो जहां न चढ़ जाएं! छप्पर पर क्या काम था मगर बैठे थे छप्पर पर चढ़कर! सवारी निकल
थी, हाथी पर चला जा रहा था अकबर, गालियां देने लगा,
बड़ी वजनी गालियां देने लगा।...दिल्ली का मामला है, पंजाबी रहा होगा! गाली देनी हो तो पंजाबी भाषा में जो लुत्फ है, वह किसी और भाषा में नहीं। जो,वजनदार गाली पंजाबी
में दी जा सकती है, वह किसी और भाषा में नहीं दी जा सकती।
गुजराती में उसी गाली का अनुवाद करो, उसके बिलकुल प्राण निकल
जाते हैं। उसमें कुछ दम ही नहीं रह जाती। गोलमटोल हो जाती है। तुम दो गाली और
लगेगा कि रसगुल्ला बांट रहे हो। पंजाबी की लज्जत और है। उसकी लज्जत वही है।...दीं
उसने वजन गालियां। अकबर भी भन्ना गया। यूं अकबर शांत आदमी था, इतना जल्दी भन्ना नहीं जाता था। तत्क्षण सिपाहियों को कहा, करो इसे बंद! और कल दरबार में हाजिर करो।
कल उस आदमी को दरबार में हाजिर किया गया। उसने झुक-झुक कर नमस्कार
किया। चरणों पर सिर रखा, पगड़ी उतार कर रख दी। अकबर ने कहा, आज तो बड़े भले आदमी मालूम पड़ रहे हो, कल क्या हो गया
था? उसने कहा, आज तो बड़े भले आदमी
मालूम पड़ रहे हो, कल क्या हो गया था? उसने
कहो, कल मैं नहीं था, शराब थी। जो कहा
हो, जो सुना हो, सो ख्याल न लेना।
मैंने कुछ भी नहीं कहा। शराब ने जो कहलवा दिये हो। मगर जो भी सजा देनी हो, मैं भोगने को राजी हूं। अकबर ने कहा, अब शराब थी तो
क्या सजा देनी। शराब ही तुम्हें काफी सजा दे लेगी। जाओ, भाग
जाओ! क्योंकि जब तुम होश में ही नहीं थे तो तुम्हारी गालियों का क्या अर्थ?
तुम प्रशंसा भी करते तो बेकार थी, तुम स्तुति
भी गाते तो बेकार थी, तुमने गालियां भी दी तो बेकार हैं। होश
में जो आदमी नहीं है, उसकी बात का काई मूल्य है!
तुमने अगर अपने पिछले जन्मों में कुछ भूल-चूक भी की हो, तो उसका क्या मूल्य है? बुद्ध ने ठीक कहा है कि
बुद्धत्व के बाद कोई फूल करे तो जिम्मेवारी है। तो उसे सजा मिलनी चाहिए। मगर
बुद्धत्व के बाद कोई भूल करता नहीं। बुद्धत्व के बाद तो कोई कांटा भी छुए तो फूल
हो जाए। मिट्टी छुए कि सोना हो जाए। भूल भी करे तो ठीक हो जाती है। बुद्धत्व के
बाद तो भूल हो सकती नहीं। बुद्ध ने ठीक कहा है कि बुद्धत्व के बाद कोई अगर भूल करे
तो उत्तरदायित्व है। आदमी होश में है तो उत्तरदायित्व है। लेकिन बेहोशी में जो
किया गया है, उसका क्या उत्तरदायित्व!
लेकिन तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें समझाएंगे। कि तुम्हारे जीवन में
आनंद नहीं, यह तुम्हारे अतीत जन्मों के पापों का फल है। मगर मैं
तुमसे कहता हूं, यह तुम्हारे अतीत जन्मों के पापों का फल
नहीं है, यह पूरी मनुष्य जाति के अतीत के साथ किये गये
षडयंत्र का फल है। यह एक-एक आदमी की अलग-अलग बात नहीं है, यह
हमारे पूरे के पूरे चेतना के मूलस्रोत का गंदा कर दिया गया है। जैसे कोई गंगोत्री
पर ही जहर मिला दे। फिर जहां-जहां गंगा बहे, जिन-जिन घाटो पर
बहे, वहां-लोग विक्षिप्त होते लचे जाएं, पागल होते चले जाएं। ऐसे तुम्हारी चेतना के मूल उत्स पर जहर डाल दिया गया
है। क्यों डाला होगा? किसी ने क्यों इतना श्रम उठाया है?
निहित स्वार्थों का हित है इसमें। षडयंत्र के पीछे यही राज है।
प्रत्येक मनुष्य को अगर गुलाम बना रखना है तो उसके भीतर का गीत मत जगने देना।
क्योंकि जिसके भीतर का गीत मुक्त हुआ, उसके प्राण मुक्त
हुए। जिसके भीतर गीत के पंख लगे उसकी आत्मा का पंख लगे। उसे सोने के पींजरों में
भी बंद रखना चाहो तो वहां बंद नहीं होगा। तुम उसे बंद न कर सकोगे। मार सकते हो,
मिटा सकते हो, मगर गुलाम न कर सकोगे। जिसके
भीतर का आनंद मुक्त हो गया, उसके भीतर मोक्ष का फल लग गया।
अब तुम क्या उसे गुलाम करोगे!
तो अगर आदमी को गुलाम करना हो तो पहली बात ध्यान रखनी जरूरी है, उसे कभी आनंदित मत होने देना। सिर्फ दुखी आदमी ही गुलाम हो सकता है। इसलिए
आदमी को दुखी बनाए रखो। सब आयोजन करो कि आदमी दुखी रहे, पीड़ित
रहे, परेशान रहे। उलझा रहेगा परेशानियों में तो गुलाम रहेगा।
दयनीय रहेगा, दीन रहेगा। उलझा रहेगा चिंताओं में तो उसकी
बुद्धि पर कभी निखार न आएगा। कभी उसकी बुद्धि युवा न होगी। कभी उसकी बुद्धि पर धार
न आएगी। बोथली होगी बुद्धि। दुख में आदमी की बुद्धि बोथली हो जाती है। जैसे कि
तलवार जंग खा जाए, सब्जी भी न कटे उससे। ऐसी तुम्हारी बुद्धि
पर जंग मार दी गयी है। बड़ी तरकीब से मारी गयी है, बड़ी कुशलता
से मारी गयी है। और उन सब का हाथ है जो आदमी का गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। उसमें
राजनेता सम्मिलित हों, कुछ फर्क नहीं पड़ता। राजनीति के
दांव-पेंच वही के वही हैं। राजशाही रहे, लोकतंत्र रहे,
समाजवाद रहे, साम्यवाद रहे, कुछ भेद नहीं पड़ता, राजनैतिक की चाल वही, ढाल वही; राजनैतिक की भाषा वही, गणित वही। उसका जाल वही। उसका जाल है, लोगों की छाती
पर बैठे रहना, उनकी गर्दन का कसे रखना, उनकी गर्दन में फांसी लगाए रखना।
लोग अगर प्रसन्न हों, आनंदित हों, नाचें, गाएं, मुक्त हो जाएंगे।
उनके जीवन में इतनी प्रखरता, त्वरा और ऐसी चमक आ जाएगी कि
तुम क्या उन्हें गुलाम करोगे! जरा सोचो तो, मेरे संन्यासी
किसी राजनेता के पीछे चल सकते हैं! असंभव। मेरे संन्यासी किसी पंडित, पुरोहित की बकवास में आ सकते हैं! जिनके जीवन में जरा-सी भी सुगंध आनी
शुरू हो गयी, वे हर तरह की मूढ़ता से मुक्त होने लगेंगे।
तो एक राजनेता--राजनीतिज्ञ--जो चाहता है कि लोगों के जीवन पर छाया
रहे। और दूसरा पंडित-पुरोहित।
धर्म और राजनीति, दोनों ने मिलकर आदमी के प्राण
लिये हैं। ऐसा फंदा कसा है कि न मरने देते हैं, न जीने देते
हैं। मरने भी नहीं देते। क्योंकि मर जाओ तो फिर क्या सार! तो जिलाए तो रखना होगा।
इसलिए हम कारागृह में भी कैदी को भोजन देते हैं। इतना नहीं देते कि इतना बलिष्ठ हो
जाए कि तोड़ दे जंजीरों को, लेकिन भूखा भी नहीं कार डालते।
क्योंकि मर ही जाए कैदी तो फिर कैदी किसको रखोगे? फिर अपनी
जंजीरें लिए बैठे रहना खुद! जिलाते हैं उसे। न मरने देते हैं, न जीने देते हैं।
यूं देखा तुमने, शिव के मंदिर के बाहर नंदी बैठा
होता है। शिव के नाम पर लोग हर गांव में नंदी छोड़ देते हैं। लेकिन शिव के मंदिर के
सामने बैठे हुए नंदी में, शिव पर छोड़े गये नंदी में और
साधारण बैल में तुमने कभी हिसाब लगाया कितना फर्क है। होना तो नहीं चाहिए था,
दोनों में कोई फर्क नहीं होना चाहिए था। सांड और बैल में क्या फर्क
होना चाहिए था! कुछ भी नहीं होना चाहिए था। लेकिन कहां बैल और कहां सांड! कहां
सांड की मस्ती, उसकी चाल, उसका प्रसाद,
कहां सांड की शान और कहां बेचारा दीन-हीन बैल! बैलगाड़ी में जुता है,
कोल्हू में जुता है--जहां चाहो वहां जोतो।
जरा सांड को भी जोत कर देखा कभी, कोल्हू पर! न कोल्हू
बचेगा, न तेल बचेगा, न तेली बचेगा! कभी
बैलगाड़ी में सांड को जोड़कर गये, तीर्थयात्रा को? सांड पहुंच जाएगा तीर्थ, तुम कहीं भी, लौटकर भी न आओगे घर! सांड को बैलगाड़ी में जोतोगे, रास्ते
पर भी नहीं चला सकते। इतना बल होगा उसमें, इतनी तेजस्विता
होगी। फेंक-फांक कर बैलगाड़ी को तुम्हारी कहां भाग खड़ा होगा जंगल में, कहा नहीं जा सकता। और कहीं राह में मिल गयी कोई नवयौवना, गऊमाता, तो तुम्हारी याद रखेगा? कि तुम बैलगाड़ी में बैठे हो! भाड़ में जाओ तुम, भाड़
में जाए तुम्हारी बैलगाड़ी! नंदी वहीं प्रेम रचाएगा। नंदी वहीं कृष्ण की बांसुरी
बजाएगा।
लेकिन बैल बिचारा गाड़ी में जुता है जुता है। ढोए चलता है बोझ। क्या हो
गया! सांड की तरह पैदा हुआ था, तुमने बधिया कर दिया। तुमने
उसमें जीवन-ऊर्जा का खंडन कर दिया, तुमने उसकी जड़ें काट दी।
वैसे ही प्रत्येक आदमी को बधिया कर दिया गया है। तुम्हारे तथाकथित धर्म और
तुम्हारी तथाकथित राजनीति ने प्रत्येक आदमी के जीवन से गौरव छीन लिया है, गरिमा छीन ली है। घसिट सकता है, नाच नहीं सकता। बस
घसिटने योग्य जिंदा छोड़ा है। सरक सकता है जमीन पर कीड़े-मकोड़ों की तरह, आकाश में उड़ नहीं सकता पक्षियों की तरह। दूर-दिगंत की यात्रा पर नहीं जा
सकता। घुटने झुका कर प्रार्थना कर सकता है। लेकिन वह प्रार्थना मुर्दा होगी,
उसमें बल नहीं होगा। वह यहीं की जाएगी, यहीं
गिर जाएगी। क्या उठेगी आकाश तक! घुटने टेक सकता है। हर कहीं घुटने टिकवा लो। जहां
शक्ति देखेगा वहीं जी-हजूरी करने लगेगा।
धर्मगुरुओं और राजनेताओं के बीच एक साझा, समझौता है। दोनों ही चाहते हैं कि आदमी की छाती पर सवार रहें। और दोनों ने
तय कर लिया है, बंटवारा कर लिया है। राजनेता आदमी के शरीर पर
कब्जा रखना चाहता है, धर्मगुरु आदमी की आत्मा पर। और दोनों
की विधि एक है कि आदमी को कभी प्रखर मत होने देना। उसमें कभी क्रांति के अंगार मत
निखरने देना। धूल पर धूल जमाए जाना। राख ही राख रह जाए उसके प्राणों में। तो बस वह
जी-हुजूर रहेगा, गुलाम रहेगा। न्यस्त स्वार्थों की सेवा
करेगा। जो उसे मार रहे हैं, उनके ही चरण दबाएगा। जो उसके
जीवन के हंता हैं, जिन्होंने उसके जीवन से सारे इंद्रधनुष
पोंछ डाले हैं, सारे फूल तोड़ लिये हैं, उनके ही गुणगान करेगा। उनको ही कहेगा--दाता; तुम्हारे
बिना कैसे जी सकता हूं!
इसलिए, योग प्रीतम, कठिनाई हो गयी है।
अन्यथा बड़ी सरल बात है। जीवन भक्ति से भर सकता है, भरना ही
चाहिए। जैसे हर वृक्ष पर फूल लगने ही चाहिए।
वह वृक्ष की नियति है। ऐसे मनुष्य के जीवन में भक्ति, भाव के सुमन--वह उसकी नियति है।
तुम कहते हो--
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में सब कीर्तन हो जाए
जरूरत नहीं है कि मैं भरूं। सिर्फ मेरी तुम सुन लो और पत्थर जो तुमने
पकड़ रखे हैं, जिनके कारण भक्ति के झरने फूट नहीं पाते, उनके छोड़ दो। लेकिन उन पत्थरों को तुम बड़ा कीमती समझते हो। उनका तुम इतना
मूल्य देते हो जिसका हिसाब नहीं उनको तुम कहते हो--हिंदू धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म; कुरान,
बाइबिल, गीता। कैसे छोड़ दें! ये कोई पत्थर
थोड़े ही हैं, ये तो धर्मशास्त्र हैं। कैसे छोड़ दें, ये तो हमारे मंदिर हैं, मस्जिद हैं। ये तो हमारा
काबा, काशी, इसे कैसे छोड़ दें! तो फिर
नहीं भक्ति पैदा हो सकती। तुम्हारे कानों में पत्थर रहेंगे, मेरी
बात ही तुम्हारे प्राणों तक नहीं पहुंच पाएगी।
मैं तो तैयार हूं, योग प्रीतम, तुम्हें जरा तैयारी दिखानी पड़े। क्योंकि भक्ति जबर्दस्ती नहीं थोपी जा
सकती। जीवन में कुछ चीजें है जो जबर्दस्ती नहीं थोपी जा सकती। तुम्हें ही सहयोग
करना पड़ेगा। तभी तुम्हारा स्वभाव प्रकट हो सकता है।
तुमने वचन प्यारे लिखे, तुम्हारी प्रार्थना
प्यारी है! यही तो मैं चाहता हूं। यही मैं कर रहा हूं, लेकिन
बाधाएं तुम्हारी तरफ से आती हैं।
कहते हो--
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए
और चाहता ही क्या हूं! उत्सव ही मेरे लिए धर्म है। नर्तन ही मेरे लिए ध्यान
है। लेकिन तुम्हारे पैरों में इतनी जंजीरें हैं कि तुम नाचो कैसे! और जब नाच नहीं
सकते तो सोचते हो आंगन टेढ़ा है। नाच न आवै आंगन टेढ़ा। आंगन को कसूरवार ठहराते हो
जब, अपने पैरों की तरफ देखते नहीं। लेकिन तुम अपने पैरों में पड़ी जंजीरों को
आभूषण मानते हो। और हो भी सकता है सोने की जंजीरें हो, हीरे-जवाहरात
जड़ी हों, मगर जंजीरें हैं। सच तो यह है, सोने की जंजीरें ज्यादा खतरनाक होती हैं लोहे की जंजीरों से। क्योंकि लोहे
की जंजीरों को तो तुम तोड़ना भी चाहो, सोने की जंजीरों को तुम
बचाना चाहते हो। संपदा है। प्राणों के प्राणों में सम्हाल कर रख लेना चाहते हो।
फिर नृत्य नहीं होगा।
और तुम क्यों देखते हो लोग मुझ पर नाराज हैं? मैं उनसे क्या छीन रहा हूं? उनकी उदासी छीन रहा हूं,
वे मुझ पर नाराज हैं। उनकी उदासीनता छीन रहा हूं और वे मुझ पर नाराज
हैं। उन्हें उत्सव देना चाहता हूं और वे मुझ पर नाराज हैं। उन्हें कीर्तन देना
चाहता हूं, गायन देना चाहता हूं, वादन
देना चाहता हूं, वे मुझसे नाराज हैं। उनके जीवन को एक समारोह
बनाना चाहता हूं और वे मुझसे नाराज हैं। क्योंकि वे अब तक जैसा सोचते रहे हैं,
कि धर्म क्या है, धर्म है भगोड़ापन, धर्म है त्याग, मैं कहता हूं: धर्म है महाभोग,
तो वे मुझको भोगी कहकर गालियां देते हैं। उनके लिए धर्म की परिभाषा
नियत हो चुकी है। और जब तक उनकी परिभाषा न बदली जाए, उनके
प्राण भी नहीं बदले जा सकते हैं। इसलिए मुझे तुम्हारी परिभाषाएं बदलनी पड़ रही हैं।
चोट करनी पड़ रही है सतत। किसी भी तरह तुम्हें यह होश आ जाए कि तुमने गलत धारणाओं
में अपने को घेर रखा है। कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है, ये
गलत धारणाएं। लेकिन तुम उनमें गलती नहीं देखना चाहते। तुम तो उनको गौरव से सिर पर
ढो रहे हो। तुम तो कहते हो, मेरी धारणाएं और गलत? कभी नहीं! सारी दुनिया गलत होगी, मेरी धारणाएं गलत
नहीं हो सकती। तो फिर अपनी उदासी में राजी रहो। फिर मत मांगो कीर्तन, मत मांगो भोजन।
तुम्हें सिखाया गया है कि धर्म गंभीरता है। और मैं तुमसे कहता हूं:
धर्म गंभीरता नहीं है। धर्म तो अभिनय है, गंभीरता नहीं धर्म तो
लीला है, गंभीरता नहीं। लेकिन लंबे चेहरे बनाकर जो लोग बैठे
हैं-- और उनकी भी मजबूरी है कि उनको लंबे चेहरे बनाने पड़ेंगे। कोई उपवास किये बैठा
है। कोई गर्मी में चारों तरफ धूनी रचाए बैठा है। यूं ही गर्मी है, धूप बरस रही है, आग बरस रही है, इससे भी उनका मत तृप्त नहीं हो
रहा, उनको और आग जलानी है चारों तरफ, अंगारों
के बीच में बैठना है। और चेहरा उदास नहीं होगा तो क्या होगा! कुम्हला न जाएंगे फूल
तो क्या होगा! जरा गुलाब की झाड़ी के चारों तरफ अंगीठियां लगा कर तो देखो। फिर
देखना कि गुलाब के फूल महात्मा बनते हैं कि मुरझाते हैं। मुरझाए तो कहना कि अरे,
इनको कुछ महात्मा होना नहीं आता।
तुम्हारे महात्मा भी मुरझाए हुए हैं। मुर्दा हैं। लेकिन तुम्हें ख्याल
में नहीं आती बात।
एक जैन मुनि को मेरे पास लाया गया था। उनके भक्तों ने कहा कि बड़े
त्यागी हैं, बड़े तपस्वी हैं। क्या कुंदन जैसी देह! स्वर्ण जैसी
देह। मैंने कहा कि लाओ, मैं भी देखूं। जरूर थी कुंदन जैसी
देह--जैसा कि बुखार में आदमी की हो जाती है न कुंदन जैसी देह। पीले पड़ गये थे।
जैसे पीले पत्ते वृक्ष से गिरने के पहले। पतझड़ के पहले जो हालत हो जाती है।
अब यूं तुम्हारी मर्जी, चाहे कहो सोने के
पत्ते, स्वर्ण काया हो गयी इनकी, पत्तों
की, सचाई कुछ और है। मुर्दगी थी चेहरे पर। निरंतर उपवास,
हड्डी-हड्डी हो रहे थे। अब निरंतर भूखा-प्यासा आदमी को रखोगे तो
चेहरा पीला पड़ ही जाएगा। उस पीले चेहरे को भक्तगण कह रहे हैं--स्वर्ण जैसी काया,
कुंदन जैसी देह। शब्दों में भी हम क्या-क्या छिपा लेते हैं! मैंने
उनको कहा, पागलो, इस आदमी का इलाज
करवाओ। अगर तुम्हें इससे कुछ प्रेम है तो थोड़ा अपना रक्तदान दो इसे। इसके शरीर से
रक्त खो गया है और कुछ भी नहीं है। यह कुंदन जैसी देह नहीं है, ये मरणासन्न हैं।
वे तो बहुत चौंके। उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं?
अरे, यह त्यागत्तपश्चर्या का बल है। मैंने कहा,
यह कोई बल वगैरह नहीं है, यह आदमी सिर्फ
निर्बल हो गया है। यह सूख गया है। मगर इसके सूखने को तुम आदर दे रहे हो। और आदर
मिल जाए तो आदमी किसी भी तरह की मूर्खता करने को राजी हो जाता है। भूखा मरवाओ,
सिर के बल खड़ा करावाओ, नंगा खड़ा कर दो,
ठंड में मारो, गर्मी में मारो, जो चाहो, जैसा करवाना हो करो। मगर उसके अहंकार की
तृप्ति करते रहना उसको आदर देना, सम्मान देना।
जिनको तुम त्यागी और मुनि कहते हो, उनको विचारों को
सिर्फ एक सांत्वना है: तुम्हारे आदर की। उनके अहंकार की तुम इतनी तृप्ति कर रहे हो,
बस। बाकी। उनके जीवन में कुछ भी नहीं है। न प्राणों में भक्ति है,
न श्वासों में कीर्तन है, न आत्मा में उत्सव
है, न पैरों में नर्तन है। और उनका तुम महात्मा जब कहते हो,
तो कहीं जाने-अनजाने तुम भी उन जैसे ही बनने की कामना से भरते हो।
तुम आदर ही उसे देते हो जो तुम हो जाना चाहते हो। तुम्हारा आदर
सांकेतिक है, प्रतीकात्मक है। वह तीर की तरह बता रहा है कि तुम
क्या होना चाहते हो। हो पाओ या न हो पाओ, यह दूसरी बात है।
जो हो गये, वे सूख गये; जो नहीं हो जाए,
वे अधसुखे हो गये। इस दुनिया ने अब तक जो हालत देखी है आदमी की,
वह यह है: कुछ तो मूढ़ थे, मंदबुद्धि थे,
वे अहंकार की तृप्ति की आशा में हर तरह की मूर्खता करने को राजी हो
गये। अधिकतर लोग इतने मूढ़ नहीं थे; मगर इतने बुद्धिमान भी न
थे कि इस मूढ़ता को साफ मूढ़ता कह सकते। तो इसको उन्होंने आदर तो दिया, और कहा कि कभी हारे भी सौभाग्य का उदय होगा, पुण्यकर्म
का कभी भाव आएगा, कभी पुण्यों का फल संचित होगा, तो हम भी इस जीवन यात्रा पर निकलेंगे; जैसी
महायात्रा पर आप गये, ऐसे हम भी जाएंगे। यद्यपि वे गये नहीं,
लेकिन उनके पैरों में इस जगत में नाचने की क्षमता तो खो ही गयी। वे
अधूरे-अधूरे हो गये। लक्ष्य तो वहां बन गया। रहे संसार में और लक्ष्य बन गया
उदासीनता का। फ्रेड्रिक नीत्शे ने ठीक कहा है कि धर्म ने दो काम किये। कुछ लोगों
के तो जीवन को बिलकुल नष्ट कर दिया और कुछ लोगों के जीवन को अधमरा कर दिया। लोगों
के जीवन को रूपांतरण तो मिला नहीं--या तो कुछ लोग मुर्दा होकर बैठ गये, जिनको तुम महात्मा करने लगे; और कुछ लोग, जो इतने अतिवादी नहीं थे, जिनमें थोड़ी बहुत सूझबूझ
बाकी थी। वे इतने मुर्दा तो नहीं हुए लेकिन उनकी भी सांसें उखड़ी-उखड़ी हो गयीं;
उनका जीवन विषाक्त हो गया। वे संसार में तो रहे लेकिन अपराध के भाव
से भर गये, कि हम जो कर रहे हैं, गलत
है; हम जो जी रहे हैं, वह पाप है। होना
तो नहीं चाहिए ऐसा, मजबूरी है, कमजोरी
है; अभी हम इतने बलशाली नहीं हैं; अभी
पुण्योदय नहीं हुआ; इसलिए भटक रहे हैं कीड़े-मकोड़े की तरह।
मगर समझने लगे अपने को कीड़ा-मकोड़ा। और जो आदमी अपने को कीड़ा- मकोड़ा समझने लगे और
जिसका जीवन अपराध के भाव से भर जाए, वह नाचे कैसे? नाच के लिए कुछ अनिवार्य बातें चाहिए। तुम्हारे जीवन से अपराधभाव समाप्त
होना चाहिए। तुम जीवन को उसकी समग्रता में अंगीकार करो। यह परमात्मा की भेंट है,
प्रसाद है। इसे छोड़कर नहीं भागना है। इसे छोड़कर भागना परमात्मा का
अपमान है। इसे छोड़कर भागना परमात्मा की निंदा है।
एक ओर तो तुम कहते हो, परमात्मा ने जगत
बनाया, जीवन बनाया, अस्तित्व बनाया और
दूसरी तरफ कहते हो--छोड़ना है! जिसे परमात्मा ने बनाया उसे छोड़कर भागना है। तुम्हें
परमात्मा ने जीवन दिया और तुम परमात्मा को क्या उत्तर में दे रहे हो! पलायन।
तुम्हारा जीवन से भागना और जीवन को सिकोड़ना और जीवन का त्याग स्पष्ट रूप से शिकायत
है कि तूने गलत किया जो हमें जीवन दिया। तुम्हारे महात्मा तुम्हारे परमात्मा से
ज्यादा समझदार मालूम होते हैं। उसने जीवन दिया, ये जीवन
छोड़ना सिखाते हैं। नहीं तुम्हारे जीवन में आनंद संभव हो पाएगा। ये धारणाएं तुम्हें
छोड़नी होंगी।
तुम कहते हो--
मेरे जीवन के पादप को फूल नहीं मिल जाया।
कैसे मिले फूल? जड़ों पर पानी नहीं सींचते, जड़ों
को तपश्चर्या करवा रहे हो--पानी देना तो भोग ही हो जाएगा, जड़ों
को योग करवा रहे हो; और जब जड़ों को योग करवाओगे तो पादप पर
फूल कैसे खिलेगा? वह शिखर पर फूल खिलता है वृक्ष के, क्योंकि उसकी जड़ें भूमि से रस लेने में समर्थ होती हैं। यहां जड़ें काट रहे,
वहां फूलों की आशा कर रहे हो! जड़ों को काटना बंद करो! ये दोहरे काम
बंद करो! ये विरोधाभासी काम बंद करो! तुम्हारा जीवन पाखंड हो गया है।
मैं अपने संन्यासियों के जीवन को बिलकुल ही पाखंड से मुक्त करना चाहता
हूं। वैसे जीओ जैसा नैसर्गिक है, जैसा स्वाभाविक है। भूख लगे तो
भोजन। न भूख लगे तो कोई जरूरत नहीं है भोजन की। नींद आए तो नींद। कोई
ब्रह्ममुहूर्त में उठने की आवश्यकता नहीं है। अगर ब्रह्ममुहूर्त में नींद अच्छी
आती हो, अगर ब्रह्म को सोना है उस समय, तो सोने दो। तुम्हारे भीतर बैठा ब्रह्म तुमसे ज्यादा जानता है। लेकिन
जबर्दस्ती खींचतान के ब्रह्ममुहूर्त में मत उठा लो। कोई जबर्दस्ती स्वस्फूर्ति से
जीओ। और तुम देखोगे, फूल खिलेंगे!
कहते हो तुम, योग प्रीतम--
मैं हूं ऐसी लहर कि जिसको कूल नहीं मिल पाया
कूल तो पास ही है, मिला ही हुआ है, तुम्हीं झिझक रहे हो, कूल तक जाते नहीं, कूल से बचते हो।
कहते हो तुम--
कहते हैं देवत्व छिपा है पत्थर के प्राणों में
निश्चित छिपा है। मगर पत्थर की तो बात छोड़ो, तुम जीवंत हो, तुम्हें अपने भीतर के देवता का पता
नहीं चल जाता है।
एक महिला ने लिखा है मुझे कि मेरे चारों बेटे आपके संन्यासी हो गो।
मेरी लड़की भी अब आपकी संन्यासी हो गयी। मैं इधर आयी हूं तो मेरा मन भी डांवाडोल हो
रहा है। मैं भी आपके रस में भीग रही हूं, लेकिन क्या करूं,
मैं महानुभाव पंथ में मानती हूं। और महानुभाव पंथ की यह धारणा है कि
जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। और यह मैं कैसे छोडूं!...और मेरी तो यहां उदघोषणा
है: होने का सवाल ही नहीं है, जीव परमात्मा है। होने-वोने की
क्या बात लगा रखी है!
यह क्या खाक महानुभाव संप्रदाय हुआ! इसने महानता छीन ली तुम्हारी और
महानुभाव संप्रदाय इसका नाम हैं! मैं घोषणा कर रहा हूं कि तुम परमात्मा हो, यह तो मैं कह ही नहीं रहा कि जीव परमात्मा हो सकता है। हो सकने वगैरह की
बात!...तुम हो! तुम चाहो भी कुछ और होना तो नहीं हो सकते हो।
मगर इस महिला की मजबूरी मैं समझता हूं। उसे रस भी छू रहा है, उसे मेरी बात भी छू रही है,...वृद्ध होगी; चार बेटों ने संन्यास लिया है, एक लड़की ने संन्यास
लिया है तो वृद्ध होगी; जड़े गहरी पकड़ गयी हैं, पुरानी धारणाओं में जकड़ गयी हैं। और धारणाएं भी क्या! कैसी व्यर्थ की
धारणाएं! ऐसी धारणाएं जो तुम्हें परमात्मा भी न होने दें। और इनको भी पकड़े हो। जहर
की बोतल को छाती से लगा रखा है कि आज कोई छीनना चाहे, तो तुम
देना नहीं चाहते।
अब मैं तुमसे क्या छीन रहा हूं?
एक व्यर्थ की बकवास तुम्हारे मन में बैठी है कि आदमी परमात्मा नहीं हो
सकता। कहां किसने? आदमी की बात ही छोड़ दो, इस
अस्तित्व में परमात्मा के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। पत्थर भी परमात्मा है। और
वृक्ष भी, पशु भी, पौधे भी, पक्षी भी। परमात्मा ही है अनंत-अनंत रूपों में प्रगट हुआ। ये उसी एक वीणा
के स्वर हैं--अलग-अलग स्वर और अलग-अलग गीत, मगर वीणा वही। ये
उसी एक सागर की लहरें हैं--कोई छोटी, कोई बड़ी, कोई पूरब जाती है, काई पश्चिम जाती है, मगर उसी एक सागर की लहरें हैं। ऐसी सीधी-सादी बात को भी, जो तुम्हारी गरिमा और गौरव के अनुकूल है, जो
तुम्हारे भीतर की भगवत्ता की उदघोषणा करती है, उसका भी मानने
में मन को संकोच होता है, उसमें भी प्राण सिकुड़ते हैं,
कि आदमी कहीं परमात्मा हो सकता है! वह तो हमारे महानुभाव पंथ में है
ही नहीं।। तो महानुभाव पंथ को पकड़ो, आदमी रहो! और कोई
महानुभाव पंथ, परम महानुभाव पंथ को खोज लो, जिसमें आदमी कीड़ा-मकोड़ा है; उसको पकड़ लो और भी अच्छा
रहेगा! फिर नास्तिक ही क्या बुरा है! वह तो समझो पराकाष्ठा हो गयी धर्म की। कि
परमात्मा है ही नहीं झंझट ही मिटाओ! हो और कहीं भूलचूक से ही जाओ, या मिल जाए और गले लगा ले आर छोड़े ही न; तुम लाख
चिल्लाओ कि मैं महानुभाव पंथ को मानती हूं, यह क्या कर रहे
हो, और वह कहे कि नहीं मुझे तो प्रेम हो आया; कि हे देवी, मैं तो तुम्हें अपने में लीन करता हूं,
कि तुममें मैं लीन होता हूं। तुम अपनी महानुभाव की पोथी बीच में
अड़ाने की कोशिश करना, कुछ काम न आएगी। तो उससे तो नास्तिक ही
बेहतर। वह कहता है, ईश्वर है ही नहीं, होने
का सवाल ही नहीं उठता।
ये महानुभाव पंथ वगैरह सब एक तरह की नास्तिकताएं हैं। जो धर्म कहता है
मनुष्य ईश्वर नहीं हो सकता, वह धर्म सिर्फ नास्तिकता का आवरण ओढ़े बैठा हुआ है।
आस्तिकता तो इस बात की घोषणा है कि मनुष्य ईश्वर है! तत्त्वमसि। तुम वही हो। एक
क्षण को भी अन्यथा न हुए कभी, न हो सकते हो कभी। लाख करो पाप,
लाख निकल जाओ दूर, कहां जाओगे? उसके अतिरिक्त कोई स्थान नहीं है। जहां जाओगे, वही
है। जो भी रहोगे, वही है। जो भी करोगे, वही है। बुरा करो तो, भला करो तो, सबके पीछे वही साक्षी बैठा हुआ है। सब खेल वही देख रहा है। मगर ऐसी-ऐसी
अजीब-अजीब धारणाएं हैं, जो तुम्हारे पैरों को पंगु कर देती
हैं, प्राणों पर पक्षाघात लग जाता है।
तुम कहते, योग प्रीतम--
कहते हैं देवत्व छिपा है पत्थर के प्राणों में पर मेरे अंतर्मन का
सौंदर्य नहीं खिल जाया
छिपा है पत्थर में, इसीलिए तो हमने पत्थर की मूर्तियां बनायीं। पत्थर की मूर्तियां बनाने का
राज यही। मगर आदमी कैसा अजीब है! पत्थर की मूर्तियां बनाकर पूज लेता है, मगर आदमी में ईश्वर हो सकता है, यह नहीं मान सकता।
पत्थर की मूर्तियां हमने इसलिए बनायीं, उसके पीछे मौलिक
रहस्य यही था कि हम घोषणा कर सकें कि पत्थर और परमात्मा में कोई भेद नहीं है;
पत्थर का भी परमात्मा हो सकता है। पत्थर भी परमात्मा हो सकता है।
पत्थर भी परमात्मा हो सकता है। पत्थर भी परमात्मा है, जरा
निखार की बात है, जरा रंग-रूप देने की बात है; जरा उठाओ छेनी, व्यर्थ को काट डालो, उघड़ आएगा परमात्मा जो छिपा था। अभी जो अनगढ़ पत्थर था, जरा कलाकार के हाथ में पड़ जाए, कृष्ण की मूर्ति बन
जाएगा, बुद्ध कि मूर्ति बन जाएगा। जब पत्थर भी कलाकार के
हाथों में पड़कर बुद्ध और कृष्ण की मूर्ति बन जाता है, पूज्य
हो उठता है, तो आदमी के तो कहने ही क्या!
कहते हो, योग प्रीतम--
ऐसी चोट करो हे शिल्पी! मूर्ति प्रगट हो जाए
मुक्त बनें प्रच्छन्न कलाएं, सब नंदन हो जाए
कर रहा हूं चोट। इसीलिए तो लोग तिलमिलाए हुए हैं। इसीलिए लोग तो
गालियां दे रहे हैं। जितनी गालियां मुझको पड़ रही हैं, शायद ही किसी को पड़ती हों। मैं प्रसन्न होता हूं। प्रसन्न इसलिए होता हूं
कि इसका मतलब हुआ कि चोटें लगनी शुरू हो गयी। तभी तो लोग गालियां देने लगे,
नहीं तो गालियां क्या देते? चोट पहुंचने लगी।
कहीं-कहीं कुछ-कुछ किसी के जीवन में कुछ कंकड़-पत्थर टूटने लगे हैं, कुछ धारणाएं खंडित होने लगी हैं, घबड़ा गये हैं लोग,
बेचैन हो गये हैं लोग, डर है उन्हें कि अब
कहीं परमात्मा प्रगट हो ही न जाए उनके भीतर। आखिरी चेष्टा करेंगे वे, अपना जैसा रंग-ढंग है उसका वैसा ही बनाए रखने का।
मैं चोट करता रहूंगा। मेरा वश
जितना चलेगा, चोट करूंगा। जितनी कठोर चोट कर सकता हूं, करूंगा। इसमें बिलकुल निर्ममता करूंगा। जरा भी इसमें उदारता नहीं होगी।
कहते हो तुम--
मैं वह वीणा हूं जो अब तक पड़ी रही अनगायी
नहीं सजी प्राणों की महफिल, नहीं चली पुरवाई
योग प्रीतम! अब चलने लगी! मैंने तुम्हारी वीणा छेड़ी है! ये गीत जगने
लगे! यह प्यारा गीत जग उठा! तार कहीं झनझनाने लगे। कहीं झननझन, झननझन। कहीं कुछ बज उठे घूंघर।
नहीं खिला जीवन का मधुबन कोयल कुहुक न पाई
अरे, आने लगी यह कोयल की कुहुक!
जला न दीपक, बजी न अब तक प्राणों की शहनाई
तुम प्रार्थना कर सकते हो मुझसे कि और चोट करो, हे शिल्पी! यह इस बात की सूचना है कि चोट में अब तुम्हें रस आ रहा है। अब
तुम खिन्न नहीं हो, नाराज नहीं हो। अब तुम बेचैन नहीं हो। अब
तुम शत्रु नहीं बने जा रहे हो। अब तुम जानते हो, यह चोट किसी
मित्र की चोट है। किसी परम मित्र की चोट है।
ऐसी तान सुना दो भगवान, प्राणों में भिद जाए
हृत्तंत्री के तार छेड़ दो, सब गायन हो जाए
हो रहा है। और-और अपने द्वार-दरवाजे खोजो कि मैं बह सकूं तुममें।
अवरोध हटा लो। क्रांति शुरू हो गयी है, दीया जल उठा है। और
एक चिनगारी फिर सारे जंगल को जला डालती है।
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए
यह तुम कह सके हो, यह प्रार्थना तुम कर सके हो,
यह सूचना है इस बात की कि बात बनने लगी है, गीत
अंकुरित होने लगा है, वीणा में रुनझुन होने लगी। दूर सही,
मगर कोयल कूकी है। फूल शायद अभी खिला न हो, लेकिन
कली खिलने के निकट आ गयी है। जल्दी ही पाखुड़ियां खुलेंगी, सुगंध
उड़ेगी। चल पड़े हो। चलते रहना। बुद्ध ने अपने अंतिम संदेश में भिक्षुओं को कहा है:
चरैवेति, चरैवेति: चलते रहना, चलते
रहना, रुकना मत। क्योंकि यह अनंत यात्रा है। यहां गीत पर गीत
उठेंगे। यहां एक शिखर चढ़ोगे कि और ऊंचा शिखर दिखाई पड़ने लगेगा। यहां एक तारे का
छुओगे कि और हजार तारे चुनौती बन जाएंगे। यह यात्रा शुरू तो होती है, इसका कोई अंत नहीं है। इसीलिए तो हम परमात्मा को अनंत कहते हैं। अमाप कहते
हैं। अतौल कहते हैं। अपरिभाष्य कहते हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान! सबसे पहले मैं यह साफ कर
दूं कि मैं निपट अज्ञानी हूं। आपका साहित्य पढ़ना जबसे शुरू किया तबसे संन्यासी
होने का भाव जाग्रत हुआ और में यहां चला आया। लेकिन अभी विधिवत संन्यासी नहीं हो
पाया हूं। मगर जबसे यहां आया हूं, एक अजीब-सी शांति का
अनुभव करता हूं।
मैं एक वर्ष के लिए सब कामधाम छोड़कर एकांत साधना
में डूब जाना चाहता हूं। कृपया बताएं कि क्या ऐसा करना उचित होगा? और अंत में यह भी बता दूं कि मैं आपके प्रिय पात्र चंदूलाल की ही बिरादरी
का हूं, गरज यह कि मारवाड़ी हूं।
सुरेशचंद्र, मत लो चिंता, मारवाड़ीयों को बिगाड़ने में मैं भी कुशल हूं! और जब मारवाड़ी को मैं बिगाड़
लेता हूं, तब मुझे भरोसा आ जाता है, मैं
किसी को भी बिगाड़ सकता हूं। फिर मुझे मनुष्य पर आस्था आती है।
एक मारवाड़ी के घर में एक चोर
घुसा। तिजोड़ी खोलने को ही था कि तिजोड़ी ताला भी लगा नहीं है। कोई डाइनामाइट लगाने
की, या कोई हथौड़ी से तिजोड़ी खराब करने की आवश्यकता नहीं है। सो उसने दरवाजा
खोला, तिजोड़ी का दरवाजा तो खुल गया, लेकिन
खुलना था दरवाजे का कि एकदम चारों तरफ प्रकाश जगमगा उठा बिजली की घंटियां बजने
लगीं, चारों तरफ से सिपाही बंदूकें लिए दौड़ पड़े, उसे फौरन पकड़ लिया गया। दरवाजा सच में ही खुला था। जब उसे सिपाही पकड़ कर
ले जाने लगे तो सिर्फ इतना ही लोगों ने उसे बड़बड़ाते सुना कि आज मेरी मनुष्य पर
आस्था उठ गयी। एक सिपाही ने कहा, मनुष्य पर नहीं, सिर्फ मारवाड़ी पर। यह मारवाड़ी की कुशलता है। मनुष्य से आस्था मत खोओ।
मनुष्य बेचारे की क्या हैसियत जो इतनी होशियारी कर सके! यह तो मारवाड़ी का काम है।
जब मैं एक मारवाड़ी को बिगाड़ लेता हूं तो मेरी समस्त मनुष्य जाति पर
आस्था आ जाती है। फिर मुझे लगता है कि अब कोई चिंता की बात नहीं। अरे, जब मारवाड़ी तक बिगड़ गया!
सुरेशचंद्र तुम्हें भी बिगड़ लेंगे, तुम फिकर न करो। और
यूं भी मारवाड़ी में सभी कुछ बुराई होती है, ऐसा नहीं। जहां
कांटे होते हैं, वहां फूल भी होते हैं। एक बार एक दार्शनिक
ने चंदूलाल से पूछा, एक तरफ धन का ढेर लगा हो और दूसरी तरफ
ज्ञान का ढेर लगा हो, तो चंदूलाल तुम क्या चुनोगे? चंदूलाल ने कहा, महानुभाव, मैं
तो धन का ढेर चुनूंगा। दार्शनिक ने कहा, मुझे पता था। अरे,आखिर मारवाड़ी ठहरे! यदि मैं तुम्हारी जगह होता तो ज्ञान चुनता। चंदूलाल ने
कहा, वह तो ठीक है, क्योंकि जिसके पास
जिस चीज की कमी होती है वह वही चुनता है।
तुम्हारा मारवाड़ीपन तो खिसलना शुरू हो गया, क्योंकि तुमने पहला ही वचन कहा--सबसे पहले मैं यह साफ कर दूं कि मैं निपट
अज्ञानी हूं। मारवाड़ी ऐसा कभी स्वीकार नहीं करता। यूं पहली ईंट तो भवन की गिर गयी।
देखा, चंदूलाल ने क्या कहा! जिसके पास जिस चीज की कमी होती
है, वह वही चुनेगा। आप ज्ञान का ढेर चुनोगे, क्योंकि अज्ञानी। मैं धन चुनूंगा, ज्ञानी तो मैं हूं
ही। ज्ञान चुनकर मुझे और क्या करना है!
आशा इससे बंधती है कि तुम अपने को अज्ञानी-स्वीकार कर रहे हो। यह
क्रांति की शुरुआत है। मारवाड़ी हो , मामला तो कठिन,
लेकिन असंभव नहीं।
चंदूलाल किसी बड़ी बीमारी के शिकार हो गये। उन्होंने डाक्टर से पूछा कि
डाक्टर साहब, मैं बच जाऊंगा न? अवश्य,
सौ फीसदी आशा है, डाक्टर ने जवाब दिया और कहा,
डाक्टरी खोजों से पता चला है कि इस रोग में दस रोगियों में से एक
व्यक्ति ही बच पाता है। मैं अब तक नौ लोगों का इलाज कर चुका हूं, वे सब मर गये। तुम्हारा नंबर दस है, बचने की पूरी
आशा है।
तुम चिंता न लो। मैं वैसा डाक्टर नहीं हूं। मैंने तो नौ मारवाड़ियों का
इलाज किया, नौ ही बच गये। तुम दसवें हो, क्या
फिकर लेनी है, जब नौ बच गये तो तुम भी बच जाओगे। न मानो तो
तुम मेरे मारवाड़ियों से पूछ लो।...माणिक बाफना से पूछो, सोहन
बाफना से पूछो, सतसंग से पूछो--एक से एक पहुंचे हुए मारवाड़ी
यहां हैं! अद्वैत बोधिसत्व से पूछो, कृष्णा से पूछो। अब तक
जो मारवाड़ी मेरे हाथ में पड़ा है, बच ही गया! बच गया यानी
बिगड़ गया!--मेरा मतलब समझ लेना। मतलब मारवाड़ी नहीं रहा।
खूबियां हैं मारवाड़ियों की कुछ। एक बार किसी चीज को पकड़ लें; फिर छोड़ते भी नहीं। धन को नहीं छोड़ते, अगर ध्यान को
पकड़ लें तो ध्यान का भी नहीं छोड़ते--यह भी ख्याल रखना। छोड़ना जानते ही नहीं। अब
सवाल यह है कि क्या पकड़ा दो!
और सदभावी लोग होते हैं।
चंदूलाल की पत्नी कह रही थी कि कभी तुमने दिल में सोचा कि यदि मेरी
शादी किसी और से हो जाती तो कैसा होता! चंदूलाल बोले, भला मैं किसी का बुरा क्यों सोचूंगा?
भले आदमी होते हैं। सदगृहस्थ होते हैं।
तो यूं कुछ चिंता न लो!
तुम कहते हो, सबसे पहले मैं साफ कर दूं कि मैं निपट अज्ञानी हूं।
वह तुमने अच्छा किया, कि सबसे पहले साफ कर दिया। लेकिन मुझे
ही साफ मत करना, अपने भीतर भी साफ-साफ समझ लेना। क्योंकि
कभी-कभी यूं आ जाता है कि दूसरे से कहने में तो हमको आसानी होती है--क्योंकि इस
देश में हम इतने जालसाज हो गये हैं! जो देखो वही कहता है, मैं
तो आपके पैरों की धूल हूं।
मैं जबलपुर में बहुत वर्ष रहा। मेरे पड़ोस में ही एक सज्जन रहते थे, उनकी बड़ी ख्याति थी, कि वह बड़े धार्मिक पुरुष हैं,
धर्मात्मा हैं। और ख्याति का कल कारण इतना था, उनको कबीरदास जी और दादूदयाल इत्यादि के कुछ वचन आते थे। और तो उनमें कुछ
था नहीं मगर वह जगह-बेजगह कबीरदास जी के वचन ठोंक देते थे। मैं जब उनके पड़ोस में
रहा तो उन्होंने कबीरदास के वचन मुझ पर ठोंके। और वे बड़ी विनम्रता दिखलाते थे,
कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। स्वभावतः जिससे भी वे कहते थे मैं
आपके पैर की धूल हूं, वही कहता, नहीं-नहीं,
आप और पैर की धूल! मैं आपके पैर की धूल हूं। आप बिलकुल पैर की धूल
हैं। उन्होंने मुझे इतने गुस्से से देखा! एक क्षण का तो उनकी बोलती बंद हो गयी।
कबीरदास जी वगैरह की सब दोहावली जो याद थी, एकदम फूल गयी।
तुलसीदास की चौपाइयां एकदम चौपाये होकर भाग खड़ी हुई। एकदम घुर्रा कर ही देखते रहे,
कहा, क्या कहा? मैंने
कहा, आपने जो कहा, मैंने सिर्फ उसको
स्वीकार किया, मैंने कुछ कहा ही नहीं। आपने कहा आप पैर की
धूल हैं, तो मेरी भी यह मान्यता है कि आप जंचते बिलकुल पैर
की धूल ही हैं। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।
वह मुझसे ऐसे नाराज हुए कि फिर मुझे मिलें ही नहीं। रास्ते पर मिल
जाएं तो मुंह फेर लें। मगर मैं भी कुछ किसी को यूं छोड़ देनेवाला नहीं। वह मुंह
फेरें तो मैं उनके सामने जाऊं। चक्कर भी लगाना पड़े मुझे तो भी कोई बात नहीं मगर
मैं उनके सामने जाऊं। चक्कर भी लगाना पड़े मुझे तो भी कोई बात नहीं मगर उनका एक
चक्कर लगाऊं, कि जयरामजी! ठीक-ठाक हैं न! विनम्रता का क्या हुआ?
और कबीरदास के पद! वे तो इतने घबड़ाने लगे मुझसे कि पता लगा कि
निकलें कि मैं घर के बाहर हूं कि भीतर। मैं भी छोड़नेवाला नहीं। मैं वक्त-बेवक्त
उनके घर जाकर दरवाजा खटका दूं। पहले तो उनकी नौकरानी दरवाजा खोज लेती थी, फिर उन्होंने नौकरानी को बता दिया कि इस व्यक्ति का दरवाजा मत खोजा करे।
इसको देखकर ही मुझे एकदम गुस्सा चढ़ता है।
उनकी नौकरानी ने मुझसे कहा कि आप क्यों उनके पीछे पड़े हैं? वह कहते हैं कि मुझे देखकर ही गुस्सा चढ़ता है। मैंने कहा कि वे सज्जन,
महात्मा आदमी, उनको कभी गुस्सा चढ़ सकता है!
अरे, कभी नहीं! तुम मुझे भीतर तो ले चलो, मुझे मिलाओ तो, मैं देखूं कैसे गुस्सा चढ़ता है! अरे,
उसने कहा, आप बिलकुल,...और
यह बात मत कह देना आप, नहीं तो मेरी भी नौकरी गयी! वह तो
आपका नाम लेकर एकदम भनभना जाते हैं, कि इस आदमी ने मुझसे कहा
कि तुम मेरे पैर की धूल हो। मैंने कहा, मैंने यह कहा नहीं,
यह उन्होंने ही कहा था, मैंने सिर्फ स्वीकृति
दी।
मगर शिष्टाचार का हिसाब कुछ और है, यहां मतलब कुछ और
होते हैं। तो इतना ही भर ख्याल रखना कि तुम जो कहते हो मैं निपट अज्ञानी हूं,
ऐसा किसी शिष्टाचार के कारण मत कहना। मैं मानता हूं कि तुम हो।
इसमें कोई अड़चन की बात ही नहीं है। यहीं से तो शुरुआत हो सकती है बात की। तुम अगर
दिल में यह सोचते होओ कि मैं कहूंगा कि अहह, क्या विनम्र
व्यक्ति हो, क्या निरहंकारी व्यक्ति हो, ऐसा मैं नहीं कहूंगा! वे तो अहंकार के पोषण करने के बड़े सुगम और बड़े
प्राचीन तरीके हैं। लोग निरहंकारिता में भी अहंकार को पाल लेते हैं। और अज्ञान के
पीछे भी यह आशा रखते हैं कि लोग अब कहेंगे कि हां, ज्ञानी
हैं। और अज्ञान के पीछे भी यह आशा रखते हैं कि लोग अब कहेंगे कि हां, ज्ञानी। और अभी मैंने दो दिन पहले एक ज्ञानी की पिटाई की है। तो तुमने
सुनी होगी! तुमने सोचा होगा, सबसे पहल मैं यह साफ ही कर दूं!
नहीं तो मैं पिटाई ही करने लगूं। मगर पिटाई मुझे करनी हो तो मैं छोड़ता ही नहीं!
तुम लाख कुछ करो!
इसको तुम अपने भीतर साफ-साफ समझ लेना कि मैं अज्ञानी हूं। यह सत्य की
तरफ पहला कदम है। कहीं भूलकर भी, भ्रांति से भी, जरा-सा भी ज्ञान का आग्रह मत रखना। क्योंकि उतना ही आग्रह अड़चन हो जाएगी।
और कभी-कभी जरा-सा रेत का तिनका आंख में पड़ जाए, तो काफी
होता है, आंख बंद होती है। जरा सा तिनका और पहाड़ सामने दिखाई
पड़ता था, जरा-सा तिनका आंख में पड़ गया कि पहाड़ दिखाई नहीं
पड़ता। और ऐसी छोटी-छोटी भ्रांतियां हमारी आंखों में पड़ जाती हैं कि परमात्मा चारों
तरफ मौजूद है, दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञानी को नहीं दिखाई पड़ता,
सिर्फ अज्ञानी को दिखाई पड़ सकता है।
लेकिन इसका यह मतलब मत समझ
लेना,...मारवाड़ी हो, इसलिए मुझे
समझा-समझा कर कहना पड़ रहा है। ...मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अज्ञानी हो गये तो बस
परमात्मा मिल गया! परमात्मा पाने के लिए तुम अज्ञानी मत हो जाना। अगर पाने की
आकांक्षा से अज्ञानी हुए तो अज्ञानी हुए ही नहीं। वह तो ज्ञान की ही तरकीब रही। वह
तो होशियारी ही रही। फिर भी होशियारी रही। कि चलो, अज्ञानी
हुए जाते हैं; अगर यह तरकीब हैं परमात्मा के मिलने की,
तो मारवाड़ी बच्चा क्या नहीं कर सकता।
यह मैं तरकीब नहीं बता रहा हूं परमात्मा को पाने की, अज्ञान में परमात्मा का दर्शन होता है, यह सहज
परिणाम है। यह सहज घटना घटती है। यह उसका फल नहीं है। इसलिए तुम साधन नहीं बना
सकते अज्ञान को। साधन बनाना है तो चूक ही जाना है।
तुम कहते हो, आपका साहित्य जब से पढ़ना शुरू किया तबसे संन्यासी
होने का भाव जाग्रत हुआ और में यहां चला आया। अब यहां क्या कर रहे हो जब भाव
जाग्रत हो गया? क्या भाव को सुलाने की कोशिश कर रहे हो?
कि सो जा मेरे राजा बेटा, सो जा मुन्ना! कि
देख, न उठा सिर! कि अब तो सो जा, देख
यहां तक आ गया, अब क्या करना है, अब सो
जा, अब सब देख लिया, अब सो जा! जब भाव
जग गया है, तो अब देर न करो!
लेकिन आदमी ऐसा ही है! बुरा भाव जगे तो तत्क्षण करता है। जैसे किसी को
गाली देना हो, तो उस वक्त तुम यह नहीं कहते कि कल देंगे, जी! कोई आज ही क्यों दें! चौबीस घंटे बाद आएंगे। उस वक्त तुम उसी वक्त
निपटारा करते हो। अगर वह आदमी भी कहे कि भई, ऐसी जल्दी क्या
है, अब कल निपटेंगे, सुलझेंगे, आज इतना ही रहने दो, तो भी तुम कहोगे कि यह तूने
गाली दी, हम रुक नहीं सकते अब! बदला अभी देना पड़ेगा!
अच्छा काम करना हो तो भाव उठ जाता है, फिर तुम काहे की
प्रतीक्षा कर रहे होते हो
ध्यान रखो, बुरा कुछ करना हो तो रुकना, ठहरना!
क्योंकि जो रुका, वह रुका।
जो अभी नहीं किया, उसने फिर कभी नहीं किया। जब भाव
त्वरा में हो, तो अगर बुरा भाव हो और रुक जाओ तो उससे रुक
जाओगे, अगर भला भाव हो, उससे रुक जाओ
तो उससे रुक जाओगे। गणित एक ही है। करना हो तो तत्क्षण कर लेना चाहिए।
जब यह नेक इरादा उठा है, तो क्या हिसाब बिठा
रहे हो! अब क्या सोच रहे हो? धीरे-धीरे भाव मर जाएगा। हजार
बातें उठ आएंगी, हजार विचार उठ आएंगे कि लेने में फायदा क्या,
हानि क्या; घर क्या परिणाम होगा, पत्नी क्या कहेगी, पिता क्या कहेंगे, मां क्या कहेगी, जाति के लोग क्या कहेंगे, बिरादरीवाले--चंदूलाल इत्यादि क्या कहेंगे? इस सब
सोच-विचार में खो जाएगा भाव। भाव तो बड़ी नाजुक चीज है। जैसे गुलाब की कोमल पंखुड़ी।
इतनी आपाधापी मचाई विचारों की कि कहीं दब जाएगा गुलाब का फूल, कहीं खो जाएगा। ऐसे सुंदर भाव जब जगते हों तो छलांग ले लेनी चाहिए।
तुम कहते हो--भाव जाग्रत हुआ, मैं यहां चला आया।
लेकिन अभी संन्यासी नहीं हो पाया हूं। अब हो जाओ, भइया! बहुत
देर वैसे ही हो गयी! फिर कल का क्या भरोसा? मैं आज यहां हूं,
कल नहीं। आज तुम्हारे भीतर भाव है, कल नहीं।
एक सज्जन ने सीन दिन पहले पत्र लिखा कि मैं आपके हाथ के द्वारा ही
संन्यास लेना चाहता हूं। आप इसका उत्तर दें। मैं आज उत्तर देना जाने ही वाला था कि
आज दूसरा प्रश्न आ गया के कृपा करक अब उस प्रश्न का उत्तर न दें, भाव जा चुका है।
अभी तीन दिन में ही भाव चला गया। अच्छा ही हुआ मैं तीन दिन रुक गया, नहीं तो ये बिचारे फंस जाते। ये मुसीबत में पड़ जाते। इनका बड़ी अड़चन लो
जाती।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन भागी आयी और कहा कि वे फांसी लगा
रहे हैं। मैंने कहा, तू फिकिर मत कर, मैं उनका जानता
हूं, वे फांसी-वासी नहीं लगाएंगे! उसने कहो, आप मानिए! वे दरवाजा बंद किये हैं और दरवाजा खटखटाती हूं तो वे कहते हैं,
गड़बड़ मत करे, मैं फांसी लगा रहा हूं। मैंने
कहा, इत्ती देर लगती है क्या फांसी लगाने में? लगा-लुगू चुके होते! अभी बोलते हैं न? कहा, हां, बोलते हैं। तो मैंने कहा, बिलकुल फिकिर मत कर! पर उसने कहा, नहीं आप चलो। तो
मैं गया।
मैंने दरवाजा खटखटाया, उन्होंने कहा,
दरवाजा मत खटखटाओ, मैं फांसी लगा लूंगा। मैंने
कहो, लगाना है तो जल्दी लगाओ। क्योंकि दरवाजा हम लोग कब तक
रुके रहें, न खटखटाएं? दूसरे भी काम
हैं। तुम लगा-लुगू लो जल्दी से। तो हम फिर तुम्हारा निपटारा करके दूसरा काम करें।
उसने कहा, आप कब आ गये! मैंने कहा कि तुम्हारी पत्नी ले आयी।
तुम कितनी देर से दरवाजा बंद किये हो? बोले कि तीनेक घंटे हो
गये। तो तीन घंटे से तुम क्या कर रहे हो, फांसी नहीं लगी?
उसने कहा, अब आप से क्या छिपाना! मैंने कहा,
दरवाजा खोजो। दरवाजा खोलकर उसने जल्दी से दरवाजा बंद करके मुझे भीतर
लिया और कहा, पत्नी को भीतर मत आने देना।
मैंने देखा कि वे स्टूल पर खड़े हैं और दोनों कंधों में रस्सी बांधे
हुए हैं। मैंने कहा, सक कोई फांसी लगाने का ढंग है? अरे,
गले में लगाओ महाराज! बोले कि पहले लगाई थी गले मैं उससे बड़ी सांसें
घुटती हैं!
अब ये हाथ में बांधे हुए तीन घंटे से खड़े हैं। तुम तीन जनम खड़े रहो!
ऐसे कहीं फांसी लगेगी!
अब ये तीन दिन पहले इनको भाव उठा था, तीन दिन में ही खमत
हो गया! बड़े जल्दी खतम हुआ। वह भाव भी कोई ढंग का नहीं था। उसमें बेईमानी थी। मेरे
हाथ से ही संन्यास लेना है! आशा रखी होगी न मैं हां कहूंगा और न यह झंझट आएगी। फिर
शायद तीन दिन में डरे होंगे, कहीं मैं हां कह ही दूं,
फिर? अब कहीं कह ही न दूं, कह ही न दूं--मेरा क्या भरोसा! मैं कोई भरोसे का आदमी हूं! सो उन्होंने
सोचा, बेहतर है झंझट खतम करो। तीन दिन लगाए कंधे में रस्सी
खड़े रहे, स्टूल पर। अब उनने देखा होगा कि कहीं जवाब दे ही
दें कि अच्छा, आ जाओ आज!...और आज मैं देने जा ही रहा था जवाब
कि अच्छा, अब आज आ ही जाओ, अब गले में
ही लगा लें! काहे को, ऐसे हाथ में लगाए कब तक खड़े रहोगे?
सो उन्होंने पहले ही छुटकारा कर लिया कि अब आप जवाब देना ही मत;
अब भाव नहीं रहा है।
भाव का क्या भरोसा? आज है, कल न हो। अरे, सुबह था
और सांझ न हो। जब प्रश्न लिखा था तब रहा हो और अब न रहा हो। भाव तो यूं जाता है,
हवा की तरंग की तरह। इसका कुछ भरोसा है?
तुम कहते हो--मगर जब से यहां आया हूं, एक शांति अनुभव कर
रहा हूं। इतने जल्दी अनुभव न करो! कहीं यह भी तरकीब न हो कि अब शांति तो अनुभव हो
ही गयी, अब संन्यास क्या लेना, अब घर
चलो, भइया! अपनी दूकानदारी देखें, अपना
कारबार देखें!
जब बिना संन्यास लिये सिर्फ संन्यासियों के आसपास की हवा में तुम्हें
शांति मिल रही है, तो संन्यास लेने से क्या नहीं घटित होगा! इसकी थोड़ी
कल्पना करो! थोड़ी कल्पना को दौड़ाओ! थोड़े भाव को पंख दो, उड़ाओ!
थोड़ा और ऊंचे उड़ो। थोड़ा आकाश को देखो। जब यहां सिर्फ आने मात्र से तुम्हें एक
अजीब-सी शांति का अनुभव हो रहा है, तो जब तुम प्रविष्ट हो
जाओगे, इस गंगा में, जब डुबकी मारोगे,
जब स्नान करोगे, जब रंग जाओगे इस रंग में,
इस रौनक में; इस गौरव में, इस गरिमा में, तो क्या संभव नहीं होगा! असंभव भी
संभव हो सकता है।
अब तुम कहते हो कि मैं एक वर्ष के लिए सब कामधाम छोड़कर एकांत साधना
में डूबना चाहता हूं। मेरे हिसाब में यहां तुम्हारा मारवाड़ी प्रवेश कर रहा है।
तुमने सोचा होगा कि पहले एक वर्ष साधना करके देख लेनी चाहिए--एकांत--फिर आगे हिसाब
करेंगे! पहले अनुभव तो कर लो कि ध्यान से क्या मिल सकता है, एकांत से क्या मिल सकता है--कुछ मिलता भी है कि नहीं? तो एक साल पहले पुरा अनुभव कर लो। जब पक्का हो जाए कि हां, सौदा करने योग्य है, तो फिर संन्यास लेंगे। अब
संन्यास की बात नहीं पूछी है उन्होंने? भाव भी उठा है,
लेकिन यह अब एक नयी बात उठा दी कि एक वर्ष के लिए सब कामधाम छोड़कर
एकांत साधना में डूबना चाहता हूं। मगर एक वर्ष के लिए!--ध्यान रखना, उसमें अवधि है। कि अरे, एक ही वर्ष की बात है! छुट्टी
ले रहे हैं एक वर्ष की। फिर एक वर्ष के बाद फिर कूद पड़ेंगे मैदान में। और अगर नहीं
जंचा कुछ यहां, कि एकांत और मौन में कद मिलता है, तो एक साल में जो गंवाया है एक साल भर जरा दुगुनी मेहनत करके उसको वापिस
पा लेंगे, उसमें क्या हर्जा है, क्या
इतना नुकसान है!
संन्यास पहले घटित होने दो। और मैं नहीं कहता कि एकांत में जाओ और
कामधाम छोड़कर जाओ। क्योंकि एकांत में तुम करोगे क्या? कामधाम की ही सोचोगे कि अब एक साल के बाद जब घर लौटेंगे, तो कामधाम को कैसा जमाना है? करोगे क्या एकांत में?
उपवास के दिन आदमी करता क्या है? कल क्या-क्या
भोजन करेगा, इसका विचार करता है। और क्या करेगा? भोजन का विचार ही आदमी उपवास के दिन करता है। और तो दिनों में दूसरे भी
काम रहते हैं।
एकांत में तुम क्या करोगे अभी? और फिर मैं कोई एकांत
का ऐसा पक्षपाती नहीं हूं। कोई एक साल के लिए घर-द्वार छोड़कर जाने की जरूरत नहीं
है। संन्यासी बनो, घर में ही चौबीस घंटे में एक घंटा एकांत
के लिए निकाल लो, तेईस घंटा काम में डूबे रहो। बस, वह एक घंटा ज्यादा सार्थक होगा। यह एक साल ज्यादा सार्थक नहीं होगा। और
एकदम ज्यादा दवा भी नहीं। नहीं तो कभी-कभी नुकसान हो जाता है। भारी नुकसान हो जाता
है।
मुल्ला नसरुद्दीन को पता चल गया कि इस आश्रम में एक हल है जिसका खा
लेने से आदमी जवान हो जाता है। सो पहले तो वह खुद ही खोजता फिरा, लेकिन वृक्ष यहां बहुत हैं और उसको कुछ समझ में न आया, सो उसने संत महराज से पूछा। कि भइया, अब तू ही बता
दे! संत ने उसे एक फल तोड़ कर दे दिया। वह घर ले गया। सोचा तो था खुद ही खाने के
लिए कि बूढ़ा आदमी हूं तो खा लूंगा, लेकिन जैसे ही उसने पत्नी
का दिखाया, पत्नी ने झपट्टा मारा और खा ही गयी--इसके पहले कि
वह कुछ कहे। वह एकदम जवान हो गयी। वह तो बूढ़े के बूढ़े रहे, वह
जवान हो गयी। और एकदम उसने, पत्नी ने मुल्ला का हाथ पकड़ा और
कहा, चलो जरा "ब्लू डायमंड' हो
आएं! मुल्ला बहुत बचना चाहे कि लोग क्या कहेंगे, मगर पत्नी
अब जवान भी हो गयी--ऐसे ही पत्नी मजबूत होती हैं और अब जवान भी हो गयी, सो मुल्ला का घसीटना पड़ा।
दूसरे दिन आया और उसने संत का कालर पकड़ लिया एकदम। कहा कि तबियत तो हो
रही है कि तेरी गर्दन दबा दूं। हद्द कर दी तूने! ऐसी फजीहत हुई! "ब्लू डायमंड' में उसने मुझे पटक दिया। भीड़ इकट्ठी हो गयी। मेरे कपड़े लत्ते निकाल दिये
और वह तमाशा आधा घंटा दिखाया कि मुंह दिखाने योग्य नहीं रहा, अब बस्ती में निकल नहीं सकता, ऐसी की तैसी उस फल की!
इतना नाराज होने लगा कि संत महराज ने कहा, आप घबड़ाओ न, करोगे क्या वहां बैठ कर? कामवासना पकड़ेगी, धनवासना पकड़ेगी, जमाने भर के ख्याल आएंगे, विचार उठेंगे। उससे कुछ
लाभ नहीं होगा।
मैं भागने के लिए नहीं कहता। न छोड़ने के लिए कहता हूं। जीवन को सरलता
से रूपांतरित होने दो। घर में ही रहो, संन्यासी होकर रहो।
तेईस घंटे परिवार के लिए, संसार के लिए, एक घंटा अपने लिए--एक घंटा मेरे लिए--बस, उस एक घंटे
से काम हो जाएगा। वह एक घंटा तुम्हारे जीवन में पर्याप्त क्रांति ले आएगा। उतना
पर्याप्त है। जरा-सी चिनगारी काफी है!
आज इतना ही।
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