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सोमवार, 17 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02


साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
ये फूल लपटें ला सकते हैं—दूसरा प्रवचन
१२ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, आपकी मधुशाला में ढाली जानेवाली शराब पी-पीकर मखमूर हो गया हूं। भगवान, प्यार करने वालों पर दुनिया तो जलती है मगर अपनी मधुशाला के दूसरे पियक्कड़ भी प्रेम के इतने विरोध में हैं--खासकर पचास प्रतिशत भारतीय, जो कि आज दस-बारह वर्षों से आपके साथ हैं। प्रभु, हमारे विदेशी मित्र तो प्यार करनेवालों को देखकर खुश होते हैं, मगर भारतीय सिर्फ जलते ही नहीं बल्कि अपराधजनक दृष्टि से देखते हैं और घंटों व्यंग्यपूर्ण बातचीत करते रहते हैं। यह जमात प्रेम का बस एक ही मतलब जानती है--"काम'। ऐसा क्यों, प्रभु? क्या प्रेम कर कोई और आयाम नहीं है, खासकर नर-नारी के संबंध में?

स्वभाव! भारतीय चित्त सदियों से कलुषित हैं। प्रेम के प्रति निंदा की एक गहन अवधारणा हजारों वर्षों से कूट-कूटकर भारतीय मन में भरी गयी है। वह भारतीय खून का हिस्सा हो गयी है। उसे ही हम संस्कृति कहते हैं, धर्म कहते हैं और बड़े-बड़े सुंदर शब्दों में छिपाते हैं। लेकिन सारे आवरणों के भीतर प्रेम का निषेध है। और प्रेम का निषेध मूलतः जीवन के ही निषेध का एक अंग है।

प्रेम का निषेध ऐसा है जैसे कोई वृक्ष के विरोध में हो और जड़ों को काटे। जड़ें कट जाएंगी, वृक्ष अपने से मर जाएगा। प्रेम विषाक्त हो जाए तो तुम जीवन के प्रति अपने आप उदासीन हो जाओगे। जीवन में सिवाय प्रेम के और कोई रसधार नहीं है। जीवन जीवन है क्योंकि प्रेम प्रवाहित है। प्रेम सूखा, जीवन का वसंत गया; पतझड़ आयी। ठूंठ रह जाता है फिर जीवन। लेकिन हमने ठूंठों की पूजा की सदियों से। हमने उन्हें संत कहा, महात्मा कहा।
जो भारतीय मित्र यहां मेरे पास हैं, वे मेरे पास जरूर हैं लेकिन मेरी बातें कितनी समझ पाते हैं, यह जरा कहना कठिन है। उनमें से पचास प्रतिशत भी समझ लेते हैं तो चमत्कार है।
तुम कहते हो कि पचास प्रतिशत भारतीय मित्र जो आपके पास दस-बारह वर्षों से हैं, वे भी नहीं समझ पा रहे हैं, वे भी प्रेम का एक ही अर्थ लेते हैं--यौन।
जब प्रेम का विरोध किया जाएगा तो प्रेम संकुचित होकर यौन का पर्यायवाची हो जाता है। जब प्रेम को अंगीकार किया जाएगा तो प्रेम फैलता है और प्रार्थना का आकाश बन जाता है।
निषेध में चीजें सिकुड़ती हैं, विधेय में फैलती हैं। आलिंगन करो प्रेम का तो तुम में नये-नये पत्ते, नये-नये फूल खिलते हैं, नये फल लगते हैं,जड़ें काटो उसकी तो ठूंठ ही रह जाता है। कंकाल मात्र। वही हुआ। भारतीय मानस में प्रेम का अर्थ यौन रह गया। स्त्री का अर्थ देह रह गया। जैसे स्त्री में कोई आत्मा ही नहीं है। यूं तो बातें करते हैं कि कण-कण में परमात्मा विराजमान है, यूं तो बड़ी अद्वैत की चर्चा चलती है, मगर सारी चर्चा झूठी मालूम पड़ती है। क्योंकि स्त्री तक में परमात्मा नहीं दिखायी पड़ता। उसी स्त्री में जिसकी कोख में जन्म लिया, जिस गर्भ में नौ महीने बड़े हुए,जिसका खून तुम्हारी रगों में, जिसकी हड्डी-मांस मज्जा से तुम बने हो। पचास प्रतिशत तुम्हारे जीवन का दान स्त्री में, जिसकी हड्डी-मांस-मज्जा से तुम बने हो। पचास प्रतिशत तुम्हारे जीवन का दान स्त्री ने दिया है। उसको ही नर्क कहते हुए शर्म भी न आयी तुम्हारे तथाकथित ऋषियों को, मुनियों को! और यह उन्होंने पांच हजार साल पहले कहा था, मगर वही दशा आज भी है।
स्त्री सिकुड़कर शरीर रह गयी। और शरीर रह जाए स्त्री सिकुड़कर तो नरक का द्वार है। तुम्हारे शास्त्र स्त्री की गणना पशुओं में, गंवारों में, शूद्रों में करते हुए संकोच नहीं खाते। जरा भी ऐसा नहीं लगता उन्हें कि कुछ अशोभन हो रहा है। एक तरफ कहेंगे कि"सियाराममय सब जग जानी',कि सारे जगत में राम और सीता दिखायी पड़ रहे हैं, सारा जगत राम और सीताओं में ही डूबा हुआ है। और दूसरी तरफ उसी जबान से--लड़खड़ाती भी नहीं जबान; झिझकती भी नहीं; थोड़ी ठहरती भी नहीं--इन्हीं सीताओं को: "ढोल गंवार सूद्र पसू नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।' इन्हीं सीताओं को: जैसा ढोल को पीटो तो बजता है, बिना पीटे नहीं बजता, ऐसे इनको पीटो, यही इनकी पात्रता नहीं।
तुम्हारे ऋषि-मुनि दो मुंहें मालूम पड़ते हैं। सांपों की ही दो जबानें नहीं होती, ऋषि-मुनियों की भी दो जबानें होती हैं। और सांपों के पास जहर नहीं होता, तुम्हारे ऋषि-मुनियों के पास उससे भी ज्यादा जहर हैं। वही ऊर्जा जो प्रेम बनती, प्रेम नहीं बन पायी तो जहर बन गयी। अमृत बन सकती थी-- खिलती, फैलती, विकसित होती। नहीं फैली, नहीं खिली, सिकुड़ गयी, सड़ गयी तो जहर बन गयी।
अमृत ही रुक जाए, अवरुद्ध हो जाए तो जहर हो जाता है। पानी की खार ठहर जाए तो सड़ जाती है। और फिर तुम गाली देते हो। ठहरते तुम, पत्थर के अवरोध तुम खड़े करते हो, बांध तुम बनाते हो, और फिर धार सड़ जाती है तो गालियां देते हो, कि इससे दुर्गंध उठती है। तुम्हीं जिम्मेवार हो। और यह बात इतने अचेतन में डूब गयी है कि आज तुम्हें इसका होश भी नहीं है। ऊपर से मेरी बातें सुन लेते हो, तर्कयुक्त लगती है बात तो शायद राजी भी हो जाते हो, मगर तुम्हारा अचेतन मन तो पुरानी धारणाओं में ही लिप्त है। वह तो अब भी कहीं गहरे में शास्त्र ही गुनगुना रहा है। मेरे पास दस-बारह साल आकर भी कुछ नहीं होता।
मैं जानता हूं उन पचास प्रतिशत मित्रों को जो यहां हैं। उन्हें यहां नहीं होना चाहिए। यहां होने का उनका कोई कारण नहीं है। लेकिन मैं जिस तरह के काम में लगा हूं, यह काम ऐसा ही है जैसे कोई कुआं खोदता है। जब तुम कुआं खोदते हो तो पहले तो कूड़ा-करकट हाथ लगता है। स्वभावतः। ऊपर तो जमाने भर का कूड़ा-करकट जमीन पर इकट्ठा होता है। जब खुदाई करोगे तो कूड़ा-करकट पहले हाथ लगेगा। फिर और खोदोगे तो पत्थर-कंकड़-सूखी मिट्टी हाथ लगेगी। फिर और खोदोगे तो गीली मिट्टी हाथ लगेगी। फिर और खोदते ही चले जाओगे तो जलधार हाथ लगेगी। फिर और खोदोगे तो स्वच्छ धार के झरने मिलेंगे।
तो शुरू-शुरू में जब मैंने कुआं खोदना शुरू किया तो बहुत-सा कूड़ा-करकट भी आ गया। उसे हटाने की चेष्टा मैं लगा हूं। बड़ी मात्रा में तो हट गया है; मगर फिर भी कुछ लोग अटके रह गये हैं। वे त्रिशंकु की भांति हो गये हैं। वे मेरे साथ नहीं हैं। वे भी जानते हैं, मैं भी जानता हूं। वे मेरे  साथ हो सकते नहीं हैं, क्योंकि वे अपनी धारणाएं छोड़ने को राजी नहीं हैं। मेरी बातों को सीधा इंकार नहीं कर सकते हैं: क्योंकि इंकार करें तो छोड़ना पड़ेगा। मुझसे आसक्ति भी बन गयी है, मुझसे लगाव भी बन गया है, मगर लगाव ऊपरी है, आत्मिक नहीं है। कहीं और जाने को भी कोई जगह न बची। सो अटक रहे हैं। जा भी नहीं सकते। जाएं भी तो किसी और की बात रुचती भी नहीं है; रुचेगी भी नहीं, क्योंकि बुद्धि से मेरी बातें ठीक मालूम होने लगी हैं। और पूरी तरह हो भी नहीं सकते। तो छिपे-छिपे, गुपचुप, अंधेरे में से उनके चित्त की धारणाएं झांक-झांक जाती हैं। न-मालूम किस-किस रूप में प्रगट होती रहती हैं।
मैं एक-एक व्यक्ति को जानता हूं कि उन्हें यहां नहीं होना चाहिए। लेकिन दस-बारह वर्ष से मेरे साथ हैं, तो मैं भी उनको कहता नहीं कि अपनी राह पकड़ो। सोचता हूं या तो बदल ही जाएंगे, या फिर धीरे-धीरे हट जाएंगे। कोई-न कोई रास्ता बन ही जाएगा। मैं भी कठोर नहीं हो सकता। आशा रखता हूं कि क्रांति उनके जीवन में शायद हो जाए। मगर "शायद' बड़ा है, छोटा नहीं। आशावादी हूं, इसलिए आशा रखता हूं। वैसे संभावना बहुत कम है।
उनका कसूर भी नहीं है। सिर्फ वे स्पष्ट नहीं हैं कि अपने जीवन को क्या दिशा देनी है। अगर पुरानी धारणाओं को ही मानकर चलना है तो मेरे साथ चलना व्यर्थ समय गंवाना है। अगर मेरे साथ चलना है तो पुरानी धारणाओं को ढोना नाहक बोझ ढोना है। लेकिन यह भी हो सकता है उन्हें भी साफ न हो।
आदमी इतना अचेतन है जिसका हिसाब नहीं।
कल ही अखबारों में मैंने पढ़ा, स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रधान श्री प्रमुख स्वामी जी लंदन में हैं। वे इंग्लैंड के केंटरबरी के आर्चबिशप से मिलने जानेवाले हैं। इंग्लैंड का सबसे बड़ा जो धर्मगुरु। सब तय हो गया, शायद आज कल में कभी मिलने की तिथि है, लेकिन अभी आखिर-आखिर में उन्होंने अपनी शर्तें भेजी। श्री प्रमुख स्वामी स्त्री का चेहरा नहीं देखते। तो उन्होंने अभी-अभी उन्हें खबर भेजी है कि जब मैं मिलने आऊं तो कोई स्त्री उपस्थित नहीं होनी चाहिए। सारे इंग्लैंड में उपद्रव मच गया। यह कोई हिंदुस्तान तो नहीं है कि स्त्रियां चुपचाप सह लेंगी। कि उन्हीं महात्माओं का व्याख्यान सुनती रहेंगी जो उनको "ढोल गंवार सूद्र पसू नारी' कह रहे हैं। उन्हीं महात्माओं का प्रवचन सुनती रहेंगी जो उनको नरक का द्वार बता रहे हैं। उन्हीं महात्माओं के पैर दबाती रहेंगी, यह कोई हिंदुस्तान तो नहीं। सारे इंग्लैंड में स्त्रियों ने बड़े जोर से विरोध किया है। क्योंकि वहां स्त्रियां पत्रकार आनेवाली थी, स्त्रियां फोटोग्राफर आनेवाली थीं,...और तो और केंटरबरी के आर्चबिशप की जो सेक्रेटरी है, वह भी स्त्री। वह तो मौजूद रहेगी ही।
केंटरबरी का आर्चबिशप भला आदमी, बड़ी दुविधा में पड़ गया कि हां भी भर चुका हूं मिलने के लिए, अब इंकार भी ठीक नहीं मालूम पड़ता। और यह शर्त बेहूदी है। इसका विरोध किया जा रहा है। कि यह बीसवीं सदी है, यह किस सदी की बात कर रहे हो! कि स्त्री को नहीं देखेंगे!
लेकिन भारत में तो कभी कोई विरोध नहीं हुआ-- यहां भी वे स्त्री को नहीं देखते। यहां कुछ स्त्रियां ही ज्यादा भक्त होती हैं। स्त्रियां बड़ी प्रभावित होती हैं इस बात से कि जरूर यह व्यक्ति महापुरुष है। जब हममें कोई रस नहीं लेता, इतना भी रस नहीं लेता कि हमको देखता नहीं, तो जरूर पहुंचा हुआ सिद्ध है। कोई स्त्री अपने पति को थोड़े ही सम्मान देती है--भारतीय स्त्री कभी अपने पति को सम्मान नहीं दे सकती है। लाख कहे कि तुम स्वामी हो, पतिदेव हो, तुम मेरे परमात्मा हो, यह सब बकवास है। भारतीय स्त्री अपने पति को सम्मान दे ही नहीं सकती। क्योंकि भीतर से तो वह जानती है कि महापापी है। यही तो मुझे पाप में घसीट रहा है। यही दुष्ट तो मुझे न-मालूम कहां के नर्क में घसीट रहा है। इसके कारण ही तो मैं सब तरह के पापों में पड़ी हूं--और तो मुझे कोई पाप में घसीटने वाला है नहीं। तो गहन अचेतन में तो पति के प्रति अपमान होगा ही।
और वह अपमान तरहत्तरह से निकलता है। हर तरह से निकलता है। कितनी कलह पत्नियां खड़ी रखती हैं पति के लिए! उसके मूल में तुम्हारे महात्मा हैं। और उन महात्माओं को सम्मान देती हैं, जो उनके अपमान के आधार हैं, जिन्होंने उनके जीवन को कीड़े-मकोड़ों से बदतर बना दिया है। और उनका यह समझ में भी नहीं आता, यह सीधा-सा तर्क भी समझ में नहीं आता कि जो आदमी स्त्रियों को देखने से डरता है, इस आदमी के चित्त में कामवासना अत्यंत कुरूप, अत्यंत विकराल रूप में खड़ी होगी। क्योंकि स्त्री को देखने में क्या डर हो सकता है! स्त्री को देखने में डर नहीं हो सकता, डर होगा तो कहीं भीतर होगा, अपने भीतर होगा।
लोभी धन को देखने से डरेगा। स्भावतः क्योंकि धन को देखकर वह अपने पर वश नहीं रख सकता। कामी स्त्री को देखकर डरेगा। क्योंकि देखकर स्त्री को अपने पर वश नहीं रख सकता। कामी स्त्री को देखकर डरेगा। क्योंकि देखकर स्त्री को अपने वश नहीं रख सकता। किसी तरह स्त्री को देखे ही नहीं, तो चल जाती है बात। अब धन दिखायी ही न पड़े कहीं, तो लोभी करे भी क्या ! कोई कंकड़-पत्थर से तिजोरी भरे! धन दिखायी ही न पड़े कहीं, तो लोभ अप्रगट रह जाएगा। और अप्रगट लोभ से यह भ्रांति पैदा हो सकती है कि लोभ मिट गया। स्त्री दिखायी ही न पड़े, तो अप्रगट काम से यह भ्रांति पैदा हे सकती है कि काम मिट गया। मगर काम यूं मिटता नहीं। पड़ा रहता है, सूखी धार की तरह।
यूं समझो, वर्षा के बाद तुम देखते हो, मेंढक कहीं दिखायी नहीं पड़ते। कहां चले जाते हैं? इतने मेंढक मरे हुए भी नहीं दिखायी पड़ते। वर्षा में तो कितनी मेंढकों की जमात दिखायी पड़ती है, फिर वर्षा के बाद क्या होता है? मेंढक जमीन में दब कर पड़ जाते हैं। सांस नहीं लेते। करीब-करीब मुर्दा हो जाते हैं। लेकिन करीब-करीब मुर्दां! सांस बंद, भोजन बंद, सब बंद हो जाता है। मेंढक को एक कला आती है कि वह आठ महीने मुर्दे की तरह भूमि के गर्भ में दबा हुआ पड़ा रहता है। और जब वर्षा की बूंदाबांदी होती है, आकाश में बादल गरजते हैं, बिजलियां कड़कती हैं, उसके भीतर भी कोई चीज कड़क उठती है, जग उठती है, मेंढक फिर जीवित हो उठता है। मरा था नहीं, जैसे गहरी प्रसुप्ति में सो गया था। इतनी गहरी प्रसुप्ति में जहां कि श्वास का चलना भी बंद हो जाता है।
कोई मेंढक इतनी आसानी से नहीं मर जाता। इसीलिए वर्षा के बाद तुम्हें एकदम मेंढक ही मेंढक मरते हुए नहीं दिखायी पड़ते। सब तरफ नहीं तो मेंढक ही मेंढक मरे हुए पड़े मिलें। सब मेंढक जमीन में दबकर पड़ जाते हैं। और अगर तुम जमीन को खोदो तो जगह-जगह तुम्हें मेंढक दबे हुए मिल जाएंगे। खासकर तालाब और पोखरों के पास की जमीन अगर तुम खोदो, तुम दंग रह जाओगे। सूखे मेंढक पड़े रहते हैं। लेकिन पानी छिड़को और जीवित हुए।
ऐसी ही मनुष्य की वासनाएं हैं। सूख के पड़ जाती हैं। जरा पानी छिड़को, फिर जग जाती हैं।
 मैं तो कहूंगा कि इंग्लैंड की स्त्रियों को स्वामी महाराज को अच्छा पाठ पढ़ा देना चाहिए। क्योंकि भारत की स्त्रियां तो अभी पाठ पढ़ा सकेंगी, यह जरा मुश्किल है। हां, मेरी संन्यासिनियां पाठ पढ़ा सकती हैं, अच्छे पाठ पढ़ा सकती हैं। लेकिन इंग्लैंड से भागने नहीं देना चाहिए-- अब फंस ही गये हैं, अपने-आप इंग्लैंड आ गये हैं, तो अब जगह-जगह उनके घिराव करने चाहिए। इंग्लैंड की प्रधान मंत्री स्त्री है, इंग्लैंड की साम्राज्ञी स्त्री है! स्त्रियों को पूरी ताकत लगा देनी चाहिए, यह अपमान बरदाश्त करने योग्य नहीं है। जहां भी वे जाएं, हर जगह उन पर घिराव होने चाहिए। यह केवल स्वामी जी की ही मूढ़ता का प्रदर्शन नहीं हैं, यह पूरी भारती मूढ़ता का प्रदर्शन है। यह भारत का अपमान है। इस तरह का अभद्र व्यवहार करना स्त्रियों के साथ!
हवाई जहाज पर जाते हैं, तो उनके चारों तरफ एक पर्दा लगा देते हैं, वे पर्दे के भीतर बैठे रहते हैं। क्योंकि परिचारिकाएं हैं, तो स्त्रियां। वे पर्दे में छिपे बैठे रहते हैं। वे पर्दे में ही छिपे हुए...। आदमियों को बुर्के ओढ़े देखे हैं? ऐसे इनको बुर्का बना लेना चाहिए। बेहतर तो यह हो सबसे कि आंखों पर एक पट्टी क्यों नहीं बांध लेते? और एक आदमी का हाथ पकड़कर चलते रहो! न स्त्री दिखायी पड़ेगी, न पुरुष दिखायी पड़ेगा। क्योंकि पुरुष भी दिखाई पड़े तो स्त्री की याद तो दिलाएगा ही। कि आखिर पुरुश आया कहां से? आखिर इस पुरुष की स्त्री होगी; मां होगी, बहन होगी, पत्नी होगी, लड़की होगी। पुरुष को देखकर स्त्री की याद तो आ ही सकती है। आखिर पुरुष और स्त्रियां कोई इतने दूर-दूर के जानवर भी तो नहीं हैं। पास ही पास के जानवर हैं। एक ही गर्भ से आए हुए हैं, इतना कुछ बहुत भेद भी नहीं है।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कोई भी पुरुष स्त्री होना चाहे तो हो सकता है। कोई भी स्त्री पुरुष होना चाहे तो हो सकती है। और कई दफे नैसर्गिक रूप से घटना घट जाती है कि कुछ पुरुष स्त्री हो जाते हैं, कुछ स्त्रियां पुरुष हो जाती है। फासला बहुत नहीं है, मात्रा का है, थोड़ी-सी मात्रा का है--थोड़े हारमोन का फर्क है। जल्दी ही यह व्यवस्था हो जाएगी कि जिंदगी में दो-चार दफे अपने को बदल लो। एक ही जिंदगी में क्यूं न दो-चार जिंदगियों का मजा लिया जाए! कभी स्त्री हो गये, फिर कभी पुरुष हो गये; कभी पुरुष हो गये, कभी स्त्री हो गये! सब पहलओं से जिंदगी क्यों न देखी जाए! इसमें मैं कुछ एतराज नहीं देखता।
अगर एक इंजेक्शन लगाने से ही हारमोन के पुरुष स्त्री होती हो, स्त्री पुरुष होता हो, तो यह बदलाहट करने जैसी है। साल-दो साल पति रहे, साल-दो साल पत्नी रहे। पत्नी को भी मौका दो पति होने का। यूं जिंदगी का अनुभव ज्यादा होगा, गहरा होगा, ज्यादा समृद्ध होगा।
 कोई फर्क ज्यादा तो नहीं। पुरुष का चेहरा भी देखकर स्त्री के चेहरे की याद आ सकती है। और जवान चेहरे, जिन पर अभी दाढ़ी-मूंछ भी न ऊगी हो, उनको देखकर तो स्त्री के चेहरे की याद आ सकती है। आंख पर पट्टी ही बांध लेनी चाहिए--आंख फोड़ ही लेनी चाहिए, झंझट ही मिटा दो, पट्टी-वट्टी भी क्यों बांधनी! सूरदास ही रहो! फिर जहां जाना हो जाओ। इंग्लैंड जाओ, अमरीका जाओ, जहां जाना हो जाओ। नग्न स्त्रियां नहाती रहीं तो भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इंद्र अप्सराएं भेजे जो भी तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं सकता। तुम्हें कुछ दिखायी ही नहीं पड़ेगा तो क्या पता चलेगा कि अप्सराएं नाच रही हैं आसपास, कि हुड़दंग मचाने वाले लोग हुड़दंग मचा रहे हैं, कौन नहीं है?
बीसवीं सदी और अब भी इस तरह की धारणाएं!
स्वभाव! तो यहां मेरे पास तुम्हें जो पचास प्रतिशत भारतीयों में अड़चन दिखायी पड़ती है, कुछ आश्चर्य नहीं है। यही स्वामी जी महाराज पैसे लोगों ने इनकी बुद्धि को निर्मित किया है--हजारों साल से निर्मित किया है। गहरे अचेतन में सांप-बिच्छुओं की तरह दबे हुए रोग पड़े हैं। मेरी बातें ऊपर से समझ लेते हैं मगर भीतर गहरे में वही बातें सरकती रहती हैं। इसलिए इनके व्यक्तित्व में एक दोहरापन पैदा हो जाएगा। मेरी बात सुनेंगे तो यूं सिर हिलाएंगे कि जैसे इनकी समझ में आ रहा है। और भीतर ठीक इसके विपरीत इनकी समझ है। इसलिए वह समझ भी कभी-कभी रास्ते खोजेगी और प्रगट होगी। तो व्यंग्य बनेगी, जलन बनेगी, दूसरों को अपराधपूर्ण दृष्टि से देखने का भाव पैदा होगा।
यहां जो भारतीय संन्यासी हैं, मेरे पास आश्रम में जो रह रहे हैं, उनमें पचास प्रतिशत निश्चित ही कचरा हैं! न किसी काम के हैं, न किसी उपयोग के हैं, सिर्फ एक उपद्रव हैं। लेकिन फिर भी वे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं।
यहां विदेशी संन्यासी हैं, वे सारा श्रम उठा रहे हज। इस आश्रम की सारी रौनक, सारी कुशलता उनके कारण है। भारतीय न तो काम करेंगे, न श्रम करेंगे, लेकिन फिर भी एक अकड़ भीतरी उनकी कि वे भारतीय हैं; कुछ विशिष्टता है उनकी, कुछ पवित्रता हैं उनकी, कुछ धार्मिकता है उनकी, वे श्रेष्ठ हैं। बस सिर्फ भारतीय होने के कारण श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठता किसी हिस्से में भी सिद्ध नहीं करते हज। सिर्फ एक भीतरी अहंकार है। अब उस अहंकार को कैसे पोषण मिले? उसको पोषण मिलने के लिए ये सरल रास्ते हो जाते हैं। कि निंदा करो औरों की। कारण खोज लो ऐसे। कि अरे, ये सब भ्रष्ट लोग! कि ये सब कामवासना में पड़े हुए लोग! सचाई बिलकुल उलटी है।
सचाई यह है कि यहां अब तक एक भारतीय स्त्री ने मेरे पास शिकायत नहीं कि है कि किसी विदेशी ने उसके कपड़े खींच दिये हों, कि चिउंटी ले दी हो। लेकिन कितनी विदेशी स्त्रियां मुझे रोज पत्र लिखती हैं कि हम क्या करें? भारतीय आते हज तो वे जैसे ध्यान करने नहीं आते, न आपको सुनने आते हैं; कोई चिउंटी काट रहा है, कोई कपड़े खींच देता है, कोई धक्का ही मार देता है। यहां इतने भारतीयों ने विदेशी संन्यासिनियों पर बलात्कार किये, नगर में, लेकिन एक भी ऐसी घटना नहीं घटी कि किसी विदेशी संन्यासी ने किसी भारतीय महिला के साथ ऐसी घटना नहीं घटी कि किसी विदेशी संन्यासी ने किसी भारतीय महिला के साथ बलात्कार करने की चेष्टा की हो; छेड़खान भी की हो।
फिर भी भारतीय समझेंगे कि वे महात्मा हैं। भारत की पुण्यभूमि में पैदा हुए हैं, और क्या चाहिए महात्मा होने के लिए! काफी है इतना। यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! पता नहीं किस तरह के देवता हैं जो यहां पैदा होने को तरसते हैं! और किसलिए तरसते हैं? सड़ना है, क्या करना है? लेकिन भारतीयों को यह भ्रांति है।
यहां हर महीने का यह अनुभव है। जब हिंदी का शिविर उनके लिए है, तब वे आने शुरू हो जाते हैं। बहुत हैरानी की बात है। हिंदी का शिविर उनके लिए है, तब वे आते नहीं। उन्हें क्या लेना-देना है हिंदी से या शिविर से! अंग्रेजी के शिविर में आते हैं यहां। अंग्रेजी समझ में नहीं आए चाहे। लेकिन अंग्रेजी के शिविर से उनको प्रयोजन है। क्योंकि उस वक्त पाश्चात्य संन्यासिनियों की भीड़ होगी यहां, तो धक्कम-धुक्की का मौका मिल जाएगा। चोरी का मौका मिल जाएगा। सिर्फ जब भारतीय यहां बाहर से आते हैं तो चोरी होती है। नहीं तो चोरी नहीं होती।
अभी पुलिस ने एक अड्डा पकड़ा है भारतीयों का जहां करीब तीन लाख रुपयों की विदेशियों की चीजें पकड़ी गयीं। वे सब संन्यासियों की चीजें हैं। क्योंकि और तो पूना में कौन विदेशी हैं? लेकिन अब वे तो सालों पहले आए, गये लोग--खबरें छोड़ गये हैं किसी का कैमरा चोरी गया है, किसी का टेपरिकार्डर चोरी गया है, किसी की घड़ी चोरी गयी है, वे सब पकड़ी गयी हैं, मगर अब जिनकी चीजें हैं वे यहां मौजूद नहीं हैं। किनकी हैं, यह आश्रम को पता नहीं है, सिर्फ इतना पता है कि इस तरह की चीजें चोरी गयी हैं। पुलिस भी मानती है कि हैं तो वे सब संन्यासियों कि ही चीजें, मगर पुलिस की भी मजबूरी है, वह करे क्या? वह हमको आश्रम को दे नहीं सकती। और किनकी हैं, इनके लिए आश्रम के पास कोई प्रमाण नहीं हैं।
और भारतीय बस एक अहंकार है, एक दंभ है। और इस दंभ को और तो कोई मौका मिलता नहीं, किसी और दिशा में तो यह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता नहीं। जिस काम में भी भारतीयों को आश्रम में लगाया जाता है, उसी काम में वे तृतीय श्रेणी के साबित होते हैं। और इसका कारण यह नहीं है कि उनके पास प्रतिभा की कमी है।
 इसका कारण यह है कि कामचोर हैं। इसका कारण यह है कि करना नहीं चाहते। वे तो आते ही आश्रम में इसलिए हैं, उनके आने का कारण ही यही है कि काम वगैरह नहीं करना पड़ेगा। आश्रम का भारत में यही अर्थ रहा है। उनको यह पता नहीं कि यह आश्रम उस अर्थ में आश्रम नहीं है। वे तो कहते हैं: हम तो भक्ति-भाव करेंगे। तो तुम्हारे भोजन की चिंता कौन करे? तुम्हारे कपड़ों की चिंता कौन करे? तुम तो तुम्हारे भोजन की चिंता कौन करे? तुम्हारे कपड़ों कि चिंता कौन करे? तुम तो भक्ति-भाव करोगे, बाकी भोजन वगैरह भी करोगे कि नहीं? कपड़े भी चाहिए कि नहीं तुम्हें? वह चिंता कौन करे? वह चिंता दूसरे लोग करें। भारतीय तो सेवा लेने को हमेशा तत्पर हैं। और संन्यासी हो गये फिर तो सेवा ही चाहिए।
यहां मेरे पास लोग आते हज, पत्र लिखते हज कि हम संन्यास लेने को राजी हैं, मगर संन्यास पीछे लेंगे अगर हमें यह आश्वासन हो कि हमें आश्रम में प्रवेश मिलेगा। और मैं उनसे पुछवाता हूं कि आश्रम में करोगे क्या? वे कहते हैं, आश्रम में कुछ करना ही होता तो आश्रम में क्यों आते? यहां तो भक्ति-भाव करेंगे; प्रभु-भजन करेंगे। मुझे कोई एतराज नहीं, प्रभु-भजन करो, मगर भोजन वगैरह मत मांगना । जितना दिल हो उतना भजन करो। तब वे कहते हैं, भूखे भजन न होहिं गोपाला। तो भोजन की चिंता विदेशी करें, कपड़ों की चिंता विदेशी करें, वे तुम्हारे लिए श्रम करें और तुम भजन-भात करो! और तुम महात्मागीरी करो! और तुम उनसे पैर दबवाओ। और उनको निंदा की दृष्टि से देखो। और देखो कि ये म्लेच्छ। और इनको निंदा की दृष्टि से देखने का एक ही तुम्हारे पास उपाय है, वह यह है कि तुम इनकी प्रेम की जा जीवनदृष्टि है, उसको तुम सरलता से निंदा कर सकते हो अपने मन में।
स्वभाव, इसलिए तुम्हें यह अनुभव हुआ कि वे पचास प्रतिशत भारतीय मित्र जो यहां आश्रम में हैं, न केवल जलते हैं प्रेम करनेवालों से बल्कि अपराधजनक दृष्टि से भी देखते हैं--वे तो उन्हें पापी मानेंगे ही। और घंटों व्यंग्यपूर्ण बातचीत करते रहते हैं। वही तो उनका भक्ति-भाव है, और काम क्या है? फुर्सत ही फुर्सत है उनको। काम उन्हें कुछ करना नहीं है। उनसे काम करने को कुछ भी कहो तो वे बहाने खोजने को तैयार हैं। इतने बहाने खोजते हैं कि बहुत हैरानी होती है।
यहां पंद्रह सौ संन्यासी आश्रम में काम करते हैं, जिनमें मुश्किल से पचास भारतीय हैं। बाकी साढ़े चौदह सौ कोई बहानेबाजी नहीं करते, लेकिन ये पचास सिवाय बहानेबाजी के कुछ और इनका काम नहीं है। आज इनकी तबीयत ठीक नहीं है, कल कोई मिलनेवाला आ गया, परसों इन्हें  किसी  के दर्शन करने जाना है, फिर इनकी बहन की शादी आ गयी, फिर बहन के लिए वर खोजना है, फिर विवाह में जाना है, फिर बारात में जाना है, फिर कोई मर गया है कहीं, फिर कोई बीमार है उसको देखने जाना है--इनको कोई न कोई बहाना। इसके लिए खर्च भी इनको आश्रम से चाहिए! क्योंकि इनके पास तो कुछ है नहीं।
विदेशी संन्यासी अपना खर्च उठाते हैं, अपने रहने का खर्च उठाते हैं, आश्रम के लिए सब तरह से आधार बने हैं--और फिर भी वे निंदा के पात्र हैं। और कारण? कारण उनका प्रेमपूर्ण जीवन। और इनके भीतर जलन पैदा होती है। क्योंकि इनके भीतर भी प्रेम की आकांक्षा तो दबी पड़ी है। मगर साहस नहीं है, हिम्मत नहीं है।
मैं तो चाहूंगा कि ये मित्र धीरे-धीरे विदा हों यहां से। इनके प्रश्न भी आते हैं मेरे पास तो उत्तर देने योग्य नहीं होते। न-मालूम कहां-कहां के कचरा प्रश्न पूछते हैं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं है, जिनका कोई मूल्य नहीं है।
स्त्री और पुरुष के संबंध में भारतीय मन में एक ही धारणा रही है कि एक ही संबंध हो सकता है, वह है कामवासना का। स्त्री और पुरुष के बीच मैत्री भी हो सकती है, मित्रता भी हो सकती है, यह भारतीय परंपरा का अंग नहीं रही। भारतीय परंपरा ने कभी साहस नहीं किया कि स्त्री और पुरुष के बीच मैत्री की धारणा को जन्म दे सके।
यौन तो स्त्री-पुरुष के बीच एक संबंध है। यही सब कुछ नहीं है। मैत्री भी हो सकती है। और मैत्री होनी चाहिए। एक सुंदर, सुसंस्कृत व्यक्तित्व में इतनी क्षमता तो होनी चाहिए कि वह किसी स्त्री के साथ भी मैत्री बना सके, किसी पुरुष के साथ मैत्री बना सके। मैत्री का अर्थ है कि कोई शारीरिक लेन-देन का सवाल नहीं है, एक आत्मिक नाता है।
लेकिन पश्चिम में यह घटना घटती है। एक पुरुष और एक स्त्री के बीच इस तरह की दोस्ती हो सकती है जैसे दो पुरुषों के बीच होती है, या दो स्त्रियों के बीच होती है। मैत्री का आधार बौद्धिक हो सकता है। दोनों के बीच एक बौद्धिक तालमेल हो सकता है। दोनों के बीच रुचियों का एक सम्मिलन हो सकता है। दोनों में संगीत के प्रति लगाव हो सकता है। दोनों में शास्त्रीय संगीत में अभिरुचि हो सकती हैं। यह जरूरी नहीं है कि जिस स्त्री के शरीर से तुम्हारा संबंध है, उससे तुम्हारा बौद्धिक मेल भी खाए। यह जरूरी नहीं है कि जिस स्त्री के शरीर में तुम्हें रुचि है, उसमें और तुम्हारे बीच संगीत के संबंध में भी समानता हो। हो सकता है उसे संगीत में बिलकुल रस न हो । हो सकता है तुम्हें संगीत में बिलकुल रस न हो, उसे रस हो। हो सकता है उसे नृत्य में अभिरुचि हो और तुम्हें दर्शनशास्त्र में। तो ठीक है कि वह अपनी मैत्री बनाएगी उन लोगों के साथ जिनको नृत्य में रुचि है, और तुम उनके साथ मैत्री बनाओगे जिन्हें दर्शन में रुचि है।
पश्चिम में शरीर का संबंध ही एकमात्र संबंध नहीं है। यह श्रेष्ठकर बात है, ध्यान रखना। शरीर का संबंध ही एकमात्र संबंध अगर है, तो इसका अर्थ हुआ कि फिर आदमी के भीतर मन नहीं, आत्मा नहीं, परमात्मा नहीं, कुछ भी नहीं सिर्फ शरीर ही शरीर है। अगर आदमी के भीतर शरीर के ऊपर मन है और मन के ऊपर आत्मा है और आत्मा के ऊपर परमात्मा हैं, शरीर के तल पर किसी और से संबंध हो सकते हैं। क्योंकि यह हो सकता है एक स्त्री के चेहरे में तुम्हें रस न हो, उसका चेहरा तुम्हें न भाए, उसकी देह तुम्हें न भाए, लेकिन उसकी मन की गरिमा तुम्हें मोहित करे। और यह भी हो सकता है एक स्त्री की देह तुम्हें आकृष्ट करे, चुंबक की तरह खींचे, मगर उसके मन में तुम्हें कोई रुचि न हो, कोई रस न हो। फिर क्या करोगे? भारत में तो एक ही उपाय है कि एक चीज से राजी हो जाओ, दूसरे की चिंता छोड़ दो। इससे तो नुकसान होनेवाला है। इससे तुम्हारी एक दशा अवरुद्ध रह जाएगी।
 अब तुम्हारी पत्नी को अगर नृत्य में रुचि है और तुम्हें रुचि नहीं है, तो तुम्हारी पत्नी क्या करे? किसी नर्तक से दोस्ती बनाए या न बनाए? लेकिन तुम किसी नर्तक से उसकी दोस्ती पसंद न करोगे। क्योंकि ये नाचने-गानेवालों का क्या भरोसा? ये कोई भरोसे के आदमी हैं, कोई ढंग के आदमी हैं! ढंग के आदमी होते तो नाचने-गाने में जिंदगी व्यतीत करते! अरे, कुछ काम की बात करते, कुछ धंधा करते, कोई दुकान करते, कोई व्यवसाय करते, कुछ कमा कर दिखाते! यह क्या पैरों में घुंघरू बांध कर नाच रहे हैं! और इनका क्या भरोसा? ये नाचने-गानेवालों के संबंध में तुम्हारी धारणा यह होती है--ये तो नंगे-लुच्चे-लफंगे हैं, इनका कोई मूल्य थोड़े ही है, इनके साथ कोई दोस्ती थोड़े ही बनानी पड़ती है! अगर तुम्हारी पत्नी को नाच भी सीखना हो तो तुम ढूंढोगे कोई बिलकुल मुर्दा, मरा हुआ, बूढ़ा, कि जिससे अब कोई खतरा ही न हो। फिर भी तुम अपने बेटे को या बेटी को मौजूद रखोगे कि तू मौजूद रहना, देखते रहना, कि नाचनेवाला ही है, इसका क्या भरोसा? फिर भी नजर रखोगे तुम।
तुम तो चाहोगे कि तुम्हारी पत्नी की सारी अभिरुचि बस तुममें सीमित हो जाए। और फिर तुम्हारी पत्नी भी स्वभावतः यही चाहेगी कि उसकी अभिरुचि भी तुममें सीमित अगर तुम चाहते हो कि हो, तो तुम्हारी अभिरुचि भी बस उसमें ही सीमित हो जाए। तो वह भी नहीं चाहेगी कि तुम मित्रों के पास ज्यादा बैठो, उठो। कोई पत्नियां तुम्हारे मित्रों के पसंद नहीं करती। क्योंकि तुम अपने मित्रों के साथ ऐसे रसलीन होकर बातचीत करते हो कि पत्नियां जल भुन जाती हैं; कि बस मित्र क्या आए कि बहार आ जाती है तुम्हारे जीवन में एकदम! और मित्र क्या गये, मैं बैठी हूं, जैसे हूं ही नहीं। तुम्हें जैसे मतलब ही नहीं है। जमाने हो गये जबसे तुमने चेहरा नहीं देखा मेरा।
और इस बात में सचाई भी हो सकती है। तुमसे अगर कोई एकदम पूछकि आज पत्नी तुम्हारी किस रंग की साड़ी पहने हुए है, तुम शायद ही बता सको। कौन देखता है पत्नी किस रंग की साड़ी पहने हुए है! भाड़ में जाए, जो रंग की साड़ी पहननी हो पहने, सिर भर न खाए! तुमने कितने वर्षों से पत्नी का चेहरा गौर से नहीं देखा!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी खो गयी। पुलिस में रिपोर्ट करने गया। इंस्पेक्टर ने पूछा, कब खोयी तुम्हारी पत्नी? उसने कहा, सात दिन हो गये। तुम सात दिन क्या करते रहे, बड़े मियां? सात दिन बाद तुम्हें होश आया? शराब ही गये थे? नहीं, नसरुद्दीन ने कहा, मुझे भरोसा ही न आए! यह मेरा सौभाग्य कहां! फिर जब भरोसा आ गया कि नहीं, वह भाग ही गयी है, जब बिलकुल पक्का हो गया कि भाग ही गयी है, अब बहुत दूर निकल चमकी होगी, अब तुम खोजना भी चाहो तो न सकोगे, सो मैं रिपोर्ट कराने आया हूं।
तो उसने कहा, ठीक है। रिपोर्ट लिखनी शुरू की। उसने कहा कि लंबाई? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब ऐसे कठिन सवाल न पूछो। अब अपनी पत्नी को क्या कोई नापता है? अब लंबाई? अरे, यही रही होगी मझोल कद की! न बहुत लंबी, न बहुत ठिगनी। कोई खास बात जिससे उसको पहचाना जा सके? नसरुद्दीन सिर खुजलाने लगा, उसने कहा, खास बात? आवाज बुलन्द है। दहाड़ दे, एकदम छाती कंप जाती है। इंस्पेक्टर ने कहा, कुछ और बताओ, आवाज का क्या, बोले न बोले। दहाड़े न दहाड़े! कुछ ऐसा चिह्न बताओ। नसरुद्दीन ने बहुत सोचा, कहा कि नहीं कुछ ख्याल में नहीं आता। मोटी है कि दुबली? उसने कहा, बस यही समझो बीच में। ऐसे टालमटोल करता रहा। और कहा कि और भी एक दुख की बात है कि मेरे कुत्ते को भी साथ ले गयी। तो उसने कहा, ठीक, कुत्ते की रिपोर्ट लिखवा दो। तो वह बस फौरन लिखवाने लगा--अलसेसियन कुत्ता, इतने फीट लंबा, काला रंग, एक कान सफेद, एक-एक ब्यौरा देने लगा। इंस्पेक्टर ने कहा, तुम कुत्ते का ब्यौरा तो यूं दे रहे हो, और पत्नी के संबंध में कहते थे बस समझ लो, मान लो।
कुत्ते में लोगों को ज्यादा उत्सुकता है अपने।
पतिदेव को, पूछो किसी पत्नी से, कब से नहीं देखा? कौन देखता है! फुरसत किसको है! लड़ाई-झगड़े से समय मिले तब!
इस देश में तो बस एक नाता है। और तुम्हारे लुच्चे-लफंगे भी एक ही दृष्टि से स्त्री को देखते हैं और वह है: यौन-साधन। और तुम्हारे ऋषि-मुनि भी एक ही दृष्टि से स्त्री को देखते हैं और वह है: यौन-साधन। दोनों का इस संबंध में जरा भी मतभेद नहीं। मेरे लिए तो दोनों में कुछ भेद नहीं, इसलिए, क्योंकि दोनों की दृष्टि समान है। समदृष्टि हैं इस संबंध में दोनों। लुच्चे-लफंगों की भी दृष्टि यही है कि स्त्री का उपयोग कर लेना है, शोषण कर लेना है, शरीर है और कुछ भी नहीं। और तुम्हारे ऋषि-मुनियों की भी दृष्टि यही है कि भागो, स्त्री से भागो, क्योंकि स्त्री कामवासना है, शरीर है, आकर्षित कर लेगी, तुम कहीं अपना वश न खो बैठो, इसलिए अवसर से दूर रहो, बचे-बचे रहे, बचे-बचे रहो। जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो उस स्थान पर दस मिनिट तक मत बैठना क्यों?
मैं एक ब्रह्मचारी जी के साथ यात्रा कर रहा था। ट्रेन में हम सवार हुए, हम प्रविष्ट हुए, हमसे पहले कुछ यात्री नीचे उतरे, जिस जगह हम बैठे वहां दो महिलाएं बैठी थीं, मैं तो बैठ गया, वह खड़े रहे। मैंने पूछा, आप बैठेंगे नहीं? उन्होंने कहा, दस मिनिट बाद। मैंने कहा, मतलब? उन्होंने कहा, जिस स्थान पर स्त्री बैठी रही हो, दस मिनिट तक नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि उस स्थान पर स्त्री की ऊर्जा के अणु छूट जाते हैं।
इन मूढ़ों ने इस देश की मनोदशा को बनाया है। उस स्थान पर नहीं बैठेंगे जहां स्त्री बैठी रही है।
मगर दोनों की नजर एक कि स्त्री केवल कामवासना का एक साधन है।
इसलिए इस-देश में, स्वभाव, मैत्री तो असंभव है। मैत्री थोड़ी आध्यात्मिक बात है। थोड़े ऊंचे तल की बात है। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि एक स्त्री और पुरुष में मैत्री है। कि एक स्त्री और पुरुष घंटों बैठकर दर्शनशास्त्र पर या काव्यशास्त्र पर विचार-विमर्श करते हैं। तुम कहोगे, अरे सब बकवास है, यह दिखावा होगा, दरवाजे बंद करके कुछ और ही लीला चलती होगी! दिखाने के लिए दर्शनशास्त्र काव्य-शास्त्र! यह धोखा किसी और को देना। दरवाजा बंद कि सब काव्यशास्त्र गया एक तरफ, फिर एक शास्त्र बचता है।शरीरशास्त्र। फिर एक-दूसरे के शरीरशास्त्र का अध्ययन करते होंगे।
यहां कोई भरोसा ही नहीं कर सकता कि एक मैत्री हो सकती है जिसका तल शरीर न हो। इस देश की संस्कृति अभी भी बहुत भौतिक है। तुम लाख कहो आध्यात्मिक है, मैं नहीं मानूंगा। मुझे कहीं अध्यात्म दिखायी नहीं पड़ता। बातचीत। अध्यात्म की जरूर है।
अब ये श्री प्रमुखजी स्वामी महराज, इनको तुम आध्यात्मिक कहोगे? एक तरफ तो कहते हैं कि सबके भीतर परमात्मा का वास है, सब में ब्रह्म ही समाया हुआ है--सिर्फ स्त्रियों को छोड़कर। ब्रह्म भी स्त्रियों से डरा हुआ है! हद हो गयी! ब्रह्म की क्या दशा होती होगी जब स्त्रियों का सामना हो जाता होगा? जब कयामत की रात आएगी, और सभी का सामना करना पड़गा ईश्वर के--उसमें स्त्रियां भी होंगी--उस वक्त उसकी क्या हालत होगी? और अगर ब्रह्म सभी में समाया हुआ है, वृक्षों में भी ब्रह्म, पत्थरों में भी ब्रह्म...।
एक सूफी फकीर मेरे पास लाया गया। उसके शिष्यों ने कहा कि ये बहुत अदभुत सिद्धपुरुष हैं, इनको हर चीज में ब्रह्म दिखायी पड़ता है। उनको वृक्ष के पास ले जाओ, वे वृक्ष के पास खड़े हो जो हैं एकदम हाथ फैलाकर और कहते हैं--अहह! क्या प्यारा परमात्मा है! चांदत्तारे देखकर खड़े हो जाते हैं हाथ फैलाकर। और उनके भक्त तो एकदम गदगद हो जाते हैं। मगर स्त्री से डरते वे। मैंने कहा कि तुम्हें पत्थर में भी दिखायी पड़ जाता है परमात्मा, स्त्री भर में तुम्हें नहीं दिखायी पड़ता? माजरा क्या है? ऐसा कैसा परमात्मा है। पत्थर में दिख जाता है, तुम्हारी आंख इतनी गहरी, स्त्री में नहीं देख जाते! तुम्हारी ही जैसी हड्डी-मांस-मज्जा है, उसमें नहीं देख पाते? पुरुषों में दिख जाता है, स्त्री में नहीं दिखता? स्त्री से यूं क्यू घबड़ाते हो? इतना क्या भय है?
यह जबर्दस्ती है। यह अपने को सिर्फ छिपा रखना है। यह दमन है।
एक पागल रोगी बार-बार तालियां बजाता रहता था। एक मानसिक चिकित्सक ने उसे इस प्रकार की हरकत करने का कारण पूछा। पागल बोला, तालियां बजाने से शेर पास नहीं आते। इस पर चिकित्सक बोला, लेकिन यहां तो कोई शेर है भी नहीं पागल ने कहा, देख लिया आपने मेरी तालियों का असर! अरे, आ कैसे सकते हैं शेर यहां, जब तक मैं हूं, कभी शेर नहीं आ सकते! तालियों में वह असर है।
 ये भगोड़े सोचते हैं ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गये! ये सोचते हज भगोड़ेपन का असर है! ये सोचते हैं पलायन का असर हैं! स्त्रियों को न देखने से ये ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गये! ये अपने को धोखा दे रहे हैं और दुनिया को धोखा दे रहे हैं। लेकिन इस धोखाधड़ी की बात हमारे खून में समाविष्ट हो गयी है। इस देश को इस भौतिकता से मुक्त करना है; इस पाखंड से मुक्त करना है। और इस पाखंड से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरुष के बीच ज्यादा नैसर्गिक संबंध स्थापित हों, ज्यादा प्रीतिकर संबंध स्थापित हों, ज्यादा मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हों। सिर्फ एक ही दिशा न रह जाए संबंधों की, एक ही आयाम न रह जाए संबंधों का। अनेक आयामों में संबंध स्थापित हों।
तुम्हें अपनी पत्नी से इसलिए एतराज नहीं होना चाहिए कि संगीत में किसी और के साथ उसकी मैत्री है। अब तुम कोई संगीतज्ञ नहीं हो। और उसकी संगीत में रुचि है। और तुम संगीत की हत्या करने के हकदार भी नहीं हो। तुम किसी की आत्मा को मारने के हकदार नहीं हो।
पूना में मुझे अति प्रेम करनेवाली एक महिला है। आ नहीं सकती यहां सुनने। क्योंकि पतिदेव का कहना यह है कि जब मैं मौजूद हूं, तू मुझसे पूछ क्या पूछना है। अब उनकी पत्नी मुझे कहती थी कि जब मैं बंबई था तब वह किसी तरह उपाय निकाल लेती, बंबई में उसकी लड़कियां हैं, तो बंबई जाने का बहाना खोज लेती थी। अब यहां जबसे आ गया पूना तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी, क्योंकि यहां आश्रम आने का उपाय निकालना बहुत मुश्किल मामला है। बंबई में तो लड़कियों से मिलने के बहाने जाती और तुझे मिल आती थी। उसने मुझे कहा कि इस भड़भूंजे से और मैं क्या प्रश्न पूछूं! इसको खाक कुछ आता है! मगर यह पतिदेव हैं, कहते हैं, मुझसे पूछो। तुझे ब्रह्मचर्चा करनी है, मैं तो मौजूद हूं। अरे, मैं मर गया क्या! कहीं सत्संग करने कि कोई जरूरत नहीं। जब मैं तुझे जवाब न दे सकूं, तब तू कहीं जाना। तो मैंने कहा कि कुछ सत्संग किया कर। उसने कहा, क्या खाक सत्संग करना उनसे! सत्संग नहीं होता, मारपीट हो जाए। आपकी किताबें उठाकर फेंक देते हैं खिड़की के बाहर। आपकी तसवीर निकाल कर फेंक दिये, कि मेरे रहते इस घर में किसी और की तसवीर नहीं रह सकती। मैं हूं तेरा पति कि वे। अब सवाल यह है कि तसवीर दो कैसे रह सकती एक घर में! पति कौन है तेरा? पति तो आप ही हैं। तो फिर ये तसवीर अलग करो।
मैंने उससे पूछा कि फिर वे किताबें तू उठा लाती है? बोली मुझे लानी नहीं पड़तीं, वे खुद ही डर के मारे उठा लाते हज बाद में। और मैं उनको एकांत में तसवीर से और किताब से क्षमा भी मांगते देखा है, क्योंकि डरते भी वे हैं, कि पता नहीं कोई पाप हो जाए, कोई अपराध हो जाए। तो मेरे सामने तो बड़ी अकड़ बताते हैं। अब इनसे मैं क्या पूछूं, खाक! ये किताब को सिर से लगाते हज, आपकी तसवीर से माफी मांगते हैं, मेरे सामने अकड़ बताते हैं। और इनके सामने सत्संग करने की बात ही उठती है तो आग लग जाती है मुझे कि इनसे क्या सत्संग करना! इन्हें पता क्या है!! मैंने कहा, तू कभी उनसे पूछ तो, आखिर बेचारे कहते हैं, शायद पता हो। तो उसने कहा, कुछ भी पता नहीं है; मैंने कहा, अच्छा ध्यान करना बताओ, तो बस वे आंख बंद कर के बैठ गये, कहा: इस तरह आंख बंद करके बैठ जाओ। मैंने कहा, फिर क्या करना? बोले फिर कुछ करने की जरूरत नहीं है। और ध्यान उन्होंने कभी नहीं किया, इनके बाप-दादों ने नहीं किया ध्यान, इनको मैंने कभी ध्यान करते देखा नहीं, बस रुपये गिनने में इनकी जिंदगी बीतती है, वही इनका ध्यान है। धन इनका ध्यान है। ठेकेदारी का धंधा करते हज। और शराब इनकी प्रार्थना है।
वे देश के बाहर जाते हैं, काम से, तो बेचारों को पत्नी ले जाना पड़ता है, क्योंकि पत्नी  कहीं यहां सत्संग करने न चली आए। तो मैंने कहा, चल तुझे यह तो फायदा हुआ। देख सत्संग का कुछ न कुछ फायदा तो हुआ, कि अब तू विदेश-यात्राएं करने लगी। उसने कहा, लेकिन मुझे विदेश-यात्राएं करनी नहीं। इनके साथ जी भर गया है। ये जबर्दस्ती मुझे साथ ले जाते हैं सिर्फ इस डर से कि कहीं मैं यहां सत्संग करने न चली जाऊं। इनको इस बात की एक कठिनाई बनी रहती है कि मेरे से ऊपर किसी व्यक्ति को कभी स्वीकार नहीं करना।
अब यह हमारे जीवन की बड़ी दयनीय अवस्था है। हमें जीवन के सब आयाम स्वीकार करने चाहिए। संगीत सीखने जाना हो तो संगीतज्ञ के पास जाना होगा। सत्संग करना हो तो किसी संत के पास करना होगा। गणित सीखना हो, किसी गणितज्ञ से सीखना होगा। परमात्मा की गंध पानी हो तो उसके पास बैठना होगा जिसे परमात्मा मिला हो। और इसका यह अर्थ नहीं है कि पति का कुछ विरोध है, या पत्नी का कुछ विरोध है। पति-पत्नी का एक नाता है। वह एक आयाम है। सभी आयाम उसमें तृप्त नहीं हो सकते। यह असंभव है कि तुम एक ही व्यक्ति में सभी कुछ पा लो। शायद कभी मिल जाए किसी को तो सौभाग्य की बात है, नहीं तो यह असंभव है। कैसे यह संभव हो सकता है!
इसलिए मैत्री की जगह तो बनानी ही चाहिए। और हमें मित्रता को स्वीकार करने का साहस जुटाना चाहिए। लेकिन हम भयभीत लोग हैं, डरे हुए लोग हैं, कामी लोग हैं।
स्वभाव! इस तरह के मित्रों के कारण चिंता मत लेना। वे धीरे-धीरे अपने-आप चले जाएंगे। जाना ही पड़ेगा उन्हें। या तो बदलना पड़ेगा या जाना पड़ेगा। मेरे साथ ज्यादा देर कैसे रुक सकते हैं! मैं देखता भी हूं तो हैरान होता हूं कि वे क्यों रुके हैं? कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता उनके रुकने का। वे आनंदित भी नहीं हैं--आनंदित हो नहीं सकते, क्योंकि मुझमें पूरे डूबते नहीं हैं। और जा भी नहीं सकते। बस, कारण मुझे यूं लगता है कि जाएं कहां? और, कहीं भी जाएंगे, तो काम करना पड़ेगा, श्रम करना पड़ेगा, मेहनत करनी पड़ेगी। एक आलस्य है। चलो, अब यहीं टिके रहो! मगर मैं धीरे-धीरे इस तरह के लागों को दूर हटाए जा रहा हूं। मेरे साथ होना है तो मेरे साथ होना ही होगा पेरी तरह। अधूरे-अधूरे मेरे साथ होने का कोई उपाय नहीं है।

दूसरा प्रश्न: भगवान, आजकल देश भर में बलात्कार, हिंसा आदि अपराध घटनाएं बहुत हो रही हैं और विचारशील लोग इन घटनाओं की भर्त्सना कर रहे हैं, रोकथाम के उपाय सुझा रहे हैं और दंड-व्यवस्था को और सुदृढ़ करने के उपाय हो रहे हैं। फिर भी, इस सबके बावजूद बलात्कार और हिंसाएं जोरों पर हैं।
निवेदन है कि इस स्थिति पर आप कुछ कहें।
चैतन्य कीर्ति!
यह सदियों से इकट्ठी मवाद निकल रही है। निकलती तो पहले भी थी, तुम्हें पता नहीं चलती थी। क्योंकि पता चलने के माध्यम नहीं थे। अखबार नहीं थे, रेडियो नहीं थे, टेलीविजन नहीं था। ये घटनाएं कुछ नयी नहीं हो रही है। ये घटनाएं अति प्राचीन हैं। ये इस देश में सदा से होती रही हैं। बलात्कार की घटनाओं से तुम्हारे पुराण भरे हुए पड़े हैं। अपने पुराण उठा कर देखो। तो तुम पाओगे कि यह तो अपनी प्राचीन संस्कृति है। यह तो अपनी वसीयत है। यह कोई नयी बात नहीं है। और आदमी ही नहीं बलात्कार करते रहे, तुम्हारे देवता भी बलात्कार करते रहे। औरों की स्त्रियों के साथ करते रहे, तुम्हारे ऋषि-मुनियों की स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा। अब इन बातों को कहो तो चोट लगती है, तो जी तिलमिलाता है। सत्य ऐसा लगता है जैसे आंखों में किसी ने मिर्च डाल दी, कि घाव पर किसी ने नमक छिड़क दिया। मगर मजबूरी है, सत्य का हम न समझेंगे तो बदलाहट हो नहीं सकती। अभी यह भ्रांति फैलायी जाती है कि जैसे आज ये घटनाएं घट रही हैं। तो तुम्हारे पुराण कब लिखे गए? और पुराणों में कथाएं क्या हैं? तुम्हारे देवता भी भ्रष्ट और बलात्कारी हैं। सबकी नजर एक-दूसरे की स्त्रियों पर लगी है। तुम्हारे ऋषि-मुनियों की भी गति वही है। उसमें भी कुछ भेद नहीं है।
जिनको तुम धर्मराज कहते हो, युधिष्ठिर, वे अपनी स्त्री को दांव पर लगा सकते हैं जुए में। और क्या अपमान होगा स्त्री का! स्त्री काई संपदा है! कोई वस्तु है! कोई फर्नीचर है, कि तुम उसे जूए में दांव पर लगा दो! और फिर अब दांव लगा दिया और हार गये, तो फिर देखना पड़ा बैठ कर कि दुर्योधन उसे नंगा कर रहा है। जब हार गये तो तुम्हारी तो रही नहीं। अब मालिक वह है। तब एतराज भी क्या करोगे? और महाज्ञानी भीष्म बैठे हुए हैं और कुछ बोलते नहीं और धर्मराज युधिष्ठिर ने दांव पर लगा दिया है और दुर्योधन द्रौपदी को नंगा कर रहा है!
यह कुछ नयी घटना तो नहीं।
रावण को धोखा दिया गया सीता के स्वयंवर के समय। झूठी अफवाह फैलायी गयी कि लंका में आग लग गयी है, ताकि रावण उठकर चला जाए। क्योंकि डर यह था, अगर रावण मौजूद रहा तो इतना बलशाली पुरुष था और शिव का भक्त था कि वह शिव के धनुष को तोड़ देगा और सीता का स्वयंवर करके ले जाएगा। तो यह ऋषि-मुनियों ने साजिश की कि झूठी अफवाह उड़ा दी। रावण चला गया लंका, तब तक यहां धनुष तोड़ दिया गया, सीता का स्वयंवर राम के साथ कर दिया गया। यह जो बेईमानी की गयी, इस बेईमानी का बदला लेने के लिए रावण ने फिर सीता का चुराया। फिर यह सारी उपद्रव की कथा शुरू हुई। लेकिन शुरुआत तुम्हारे भले लोगों ने की, अच्छे लोगों ने की। रावण तो केवल प्रतिकार कर रहा था।
और उस समय यह बिलकुल स्वाभाविक था और आज भी स्वाभाविक है कि अगर किसी का किसी से प्रेम हो जाए तो वह निवेदन करे। रावण की बहन ने लक्ष्मण से निवेदन किया कि मुझसे विवाह कर लो और लक्ष्मण ने उसकी नाग काट ली। और इन बहादुरों को शमें भी न आयी एक स्त्री की नाक काटते हुए! इन्होंने अपनी ही नाक काट ली। और राम भी देखते रहे। जैसे उनका आशीर्वाद उपलब्ध था इस बात के लिए। कोई एतराज नहीं है। और रावण की बहन ने कुछ बुरा निवेदन तो किया नहीं था। और अगर नहीं तुम्हें विवाह करना था तो इनकार करने का तुम्हें हक था। लेकिन नाक काटने का क्या सवाल था!
ये चलती रहीं बातें। ये होती रहीं बातें।
द्रौपदी को लेकर अर्जुन जब घर आया, तो कहानी तो यह कहती है कि उसने कहा कि देखो मां, मैं क्या लाया हूं? लेकिन सत्य ऐसे मालूम होता है कि पांचों भाइयों मेंर् ईष्या थी, क्योंकि द्रौपदी अति सुंदर थी और पांचों भाइयों मेंर् ईष्या थी, अर्जुन के साथ वे बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे इसका होना, इसलिए: पांचों बांट लो। स्त्री भी बांटी जा सकती है!
चलो यही सही कि भूल से कह दिया था कूंती ने, कि अच्छी चीज ले आए हो तो पांचों भाई बांट लो। तो भूल सुधारी जा सकती थी। जब पता चला कि यह स्त्री है, विवाह करके ले आया है यह, तो क्या भूल बदली नहीं जा सकती थी? कि शब्द जो निकल गया उसको सत्य होना ही जरूरी है? फिर यह तो शब्द यूं भीतर से कह दिया था कुंती ने, अनजाने कह दिया था। जरा-सी बात थी, क्षमा मांग लेनी थी कि भूल हो गयी, मुझे क्या पता? तूने कहा क्या चीज लाया हूं देखो तो! तो मैंने समझा कुछ खाने की चीज लाया होगा, कोई खिलौना लाया होगा, तो चलो पांचों बांट लो। मुझे क्या पता?
नहीं लेकिन स्त्री पांचों ने बांट ली। यह बलात्कार नहीं है? स्त्री भी बांटी जा सकती है! उसके पांच पति हो गये!
एक ब्राह्मण ने आकर राम को कहा कि मेरा बेटा मर गया जवान और यह इसलिए हुआ है कि एक शूद्र ने वेद मंत्र सुन लिये हैं। अब शूद्र का वेद मंत्रों का सुनना और किसी ब्राह्मण के बेटे के मर जाने में क्या संबंध हो सकता है! सभी ब्राह्मणों के बेटे मर गये होते तो हम थोड़ा सोचते भी। और शूद्र ने अगर वेद-वचन सुना था तो शूद्रों के बेटे मरने चाहिए थे, ब्राह्मण का तो कोई कसूर न था--कि यह तो बड़ी अजीब बात हुई कि जुर्म कोई और करे, सजा कोई और पाए! इसमें ब्राह्मण का क्या कसूर था? और इस ब्राह्मण का विशेष रूप से क्या कसूर था?
मगर हम मूढ़तापूर्ण बातों को मानने के आदी हैं।
विहार में अकाल पड़ा और महात्मा गांधी ने कहा कि यह शूद्रों के साथ जो अत्याचार हुआ है, उसका फल है। तो सिर्फ बिहार में ही फल मिला! भारत भर में अत्याचार होता है, और कहीं अकाल न पड़ा, सिर्फ बिहार में अकाल पड़ा! जैसे बिहार में ही अत्याचार हो रहा हो! मगर यह बस पुरानी तर्क-पद्धति...।
 और राम ने भी मान ली यह बात कि यह बात ठीक है। शंबूक नाम के शूद्र को बुला कर उसके कानों में, चूंकि उसने वेद मंत्र सुनने का अपराध किया था--महा अपराध! अब यह भी कोई बात है? वेद मंत्र में तो सभी के लिए संदेश है। शूद्र आदमी नहीं है? सीसा पिघलवा कर उस शूद्र के कानों में भरवा दिया। हो गया होगा बहरा सदा के लिए। और हो सकता है मर भी गया हो। क्योंकि किसी के कान में सीसा पिघलवा कर भरवाओगे, क्या जिंदा रह सकेगा? और जिंदा भी रहा होगा तो बज्र बधिर होकर जिंदा रहा होगा। और इसको तुम अत्याचार नहीं कहते! इसका तुम हिंसा नहीं कहते!
महाभारत में करोड़ों लोग मरे। हिंदुओं के हिसाब से तो एक और कुछ करोड़ लोग महाभारत में मरे। इतने लोग मरे, किस बात के लिए? राज्य के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए।
तो पहली तो बात, तुम यह समझ लो कि यह अत्याचार पुराना है, यह हिंसा पुरानी है, यह बलात्कार पुराना है। कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं। उनमें तो सभी उनकी स्त्रियां नहीं थीं। सभी विवाहित नहीं थी उनसे। दूसरों की विवाहित स्त्रियां थीं बहुत, जिनको वे उड़ा लाए थे। यह बलात्कार नहीं था? यह व्यभिचार नहीं था? स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं--राम के समय में बिकती थीं, इसको तुम राम-राज्य कहते हो।
मुझसे लोग पूछते हैं कि रामराज्य कब आएगा? मैं कहता हूं: कभी आना नहीं चाहिए। तुम्हारा दिल नहीं भरा अब तक रामराज्य से?! राम के समय में आदमी और औरतें बाजारों में बिकते थे जानवरों की तरह। गुलाम बिकते थे, खरीदे-बेचे जाते थे, रुपयों में, और तुम सोचते हो कि यह सब सतयुग था; जो हो रहा था शुभ हो रहा था।
लेकिन सचाई सिर्फ इतनी है कि तुमने शूद्रों के साथ सदा अनाचार किया। लेकिन उसकी बात कभी उठी नहीं, आज पहली दफा उठी है। आज अखबार सारी खबरें फैला देते हैं। रेडिओ से सारी तरफ गूंज जाती है। इसलिए, चैतन्य कीर्ति, तुम्हें लगता है: बलात्कार, हिंसा और अपराध-घटनाएं बहुत हो रही हैं। ये सदा होती रही हैं।
अगर ये रुकी थी कुछ तो सिर्फ अंग्रेजों की सत्ता के समय में रुकी थीं। मुसलमानों के समय में भी डट कर होती रहीं। मुसलमान करने वाले थे तब।
भारत ने अपने पूरे इतिहास में अगर कभी भी कोई थोड़े-से सुंदर क्षण देखे हैं तो वे अंग्रेजों के समय में गुलामी के दिन थे। यह हैरानी की बात है। मैं कोई गुलामी का समर्थन नहीं कर रहा हूं, लेकिन अंग्रेजों के समय ही भारत ने थोड़े-से दिन थोड़ी सभ्यता के देखे हैं। अब फिर तुम आजाद हो गये हो। और आजादी का तुम एक ही मतलब समझते हो कि फिर अपनी पुरानी संस्कृति को वापस लाना है, फिर आर्य संस्कृति का झंडा फहराना है। फिर वही मूर्खताएं, फिर वही जड़ताएं तुमने शुरू कर दी हैं। आखिर स्वतंत्रता का मतलब ही यह होता कि अब तुम स्वच्छंद हो!
ऐसा लगता है कि चर्चिल शायद ठीक ही कहता था कि भारत आजाद होने के योग्य नहीं है। तुम्हारे तौरत्तरीके देख कर यह शक होता है कि चर्चिल की गलत बात ही शायद सही रही होगी। तुम अपने असली रंग-रूप में आने शुरू हो गये।
 सतियां फिर होने लगी हैं। अंग्रेजों ने किसी तरह बंद किया था सतियों का होना, अब फिर शुरू हो गयी हैं। अब तुमने फिर "ढांढन सती की झांकी' सजानी शुरू कर दी है। अब जगह-जगह सतियों के चौरे फिर पूजे जाने लगे हैं। अब जगह-जगह सतियां होने की चेष्टाएं शुरू हो गयी हैं। बच्चों की बलि फिर दी जाने लगी है। ये तुम्हारे पुराने ढंग हैं। ये तुम्हारे पुराने तौरत्तरीके हैं। अब तुम फिर से अपना रहे हो। तुम अपनी मरी संस्कृति को फिर से जिंदा कर रहे हो। फिर प्राण फूंक रहे हो। रामराज्य जाने की कोशिश कर रहे हो-- सतयुग फिर से लाने की कोशिश कर रहे हो।
तुम पूछते हो,"आजकल देश भर में बलात्कार, हिंसा आदि अपराध-घटनाएं बहुत हो रही हैं।'क्योंकि तुम स्वतंत्र हो गये हो। और तुम अब वही करना चाहते हो जो तुम्हारे अंतर्तम में पड़ा हुआ है, सदा से पड़ा हुआ है। शूद्र फिर से जलाए जा रहे हैं। जिंदा जलाए जा रहे हैं। तुम बातें अहिंसा की करते हो, मकर तुम्हारे भीतर बड़ी हिंसा भरी हुई है।
अभी खान अब्दुल गफ्फार खां, सरहदी गांधी ने, जो कि गांधी के बाद दूसरे नंबर के गांधी समझे जाते रहे हैं; जो कि अहिंसा के महापुजारी हैं,...चौरानबे वर्ष की उम्र हो गयी, मगर अक्ल बचकानी मालूम होती है।...विनोबा के आश्रम पवनार में, विनोबा के समक्ष पत्रकरों की परिषद में यह वक्तव्य दिया...विनोबा ने भी इनकार नहीं किया, विरोध नहीं किया, चुप रहे। और मौन सम्मति का लक्षण है। और तब नहीं कहा तो ठीक था, बाद में कुछ कहते; बाद में भी कुछ नहीं कहा। इतने दिन बीत गये अब तो। कोई सप्ताह से ऊपर हो गया। कुछ नहीं बोले हैं उस संबंध में। चुप्पी दबाए बैठे हैं। साफ है कि राजी हैं; जो कुछ सरहदी गांधी ने कहा है, ठीक ही कहा है, उनकी प्रतीति भी यही मालूम होती है। ...पत्रकारों ने कुछ प्रश्न पूछे।
एक प्रश्न पूछा कि आप सीमांत प्रदेश के नेता हैं, तो नेतृत्व करना चाहिए, पख्तूनों का, ताकि पख्तून स्वतंत्र हो सकें। सरहदी गांधी ने अपनी गांधीवादी विनम्रता के साथ कहा कि मैं नेता, नहीं-नहीं, मैं तो खुदाई खिदमतगार हूं। मैं तो एक जनता को स्वयंसेवक हूं। मैं तो एक बंदा हूं परमात्मा का। मैं कोई नेता नहीं।
और उसी के बाद दूसरा प्रश्न किसी ने पूछा कि जेड़.ए.भुट्टो का फांसी की सजा दी गयी, इस संबंध में आपका क्या कहना है? तो उन्होंने कहा कि महापापी था। उसे फासी की सजा नहीं, उसे तो जिंदा, बीच बाजार में, भीड़ के बीच आग में जलाया जाना चाहिए था।
ये खुदाई खिदमतगार! ये परमात्मा के बंदे! ये अहिंसा के भक्त! ये सरहदी गांधी! भुट्टो को जिंदा जलाया जाना चाहिए था, तब इनके चित्त को तृप्ति मिलती। इनको तृप्ति नहीं मिली, फांसी काफी नहीं। बातें क्षमा की! बातें अहिंसा की! बातें प्रेम की! और भीतर सब जहर भरा हुआ है। और हम इस पाखंड में इतने ज्यादा डूब गये हैं कि हम बातों ही बातों में पड़े रहते हैं और यह भूल ही जाते हैं हमारी असलियत क्या है।
यही हालत महात्मा गांधी की थी, कुछ भेद न था, सारी अहिंसा राजनीति थी। न तुम्हारे राम अहिंसक थे, न तुम्हारे कृष्ण अहिंसक थे, न परशुराम अहिंसक थे। तुम्हारे अवतारों में कौन अहिंसक था? और गांधी तो राम के भक्त थे। और राम की तो प्रतिमा ही अधूरी रहेगी विना धनुष-बाण के। और धनुष-बाण कोई अहिंसा के प्रतीक हैं? मरते वक्त भी गांधी के मुंह से निकला: हे राम!
जब देश आजाद नहीं हुआ था तो किसी ने गांधी से पूछा कि अगर देश आजाद हो जाए तो सेनाओं का क्या करिएगा? तो उन्होंने कहा, सेनाओं को विसर्जित कर देंगे। अहिंसक देश को सेनाओं की क्या जरूरत है? फिर देश आजाद हो गया। फिर किसी ने याद दिलाई कि अब उस वक्तव्य का क्या करना है तब चुप्पी साध गये। अब सेनाएं विसर्जित नहीं करनी हैं? तो कहने लगे, मेरी कौन सुनता है! अरे तो तुम्हारी अंग्रेजों के समय में कौन सुनता था? जिस तरह शोरगुल मचाते थे, फिर मचाओ शोरगुल। अब तो तुम्हारे ही शागिर्द बैठे हैं वहां, अब तो तुम्हारे ही आदमी सत्ता में बैठे हैं, अगर वे भी नहीं सुनते तो डूब मरो चुल्लू भर जानी में, फिर किस लिए जिंदा हो? फिर यह जिंदगी भर बकवास अहिंसा की क्यों लगा रखी थी?
और जब कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला हुआ और हिंदुस्तान और पाकिस्तान का झगड़ा शुरू हुआ और दिल्ली से पहली दफा हवाई जहाज उड़े पाकिस्तान पर हमला करने के लिए, तो गांधी ने आशीर्वाद दिया। भूल गये सब बातें! बातों की ही बातें हैं। ये बम ले जाते हुए हवाई जहाज, इनको महात्मा गांधी आशीर्वाद दे रहे हैं! और अहिंसा के पुजारी! और अगर कहो तो आग लगती है लोगों को। वे कहते हैं कि आप हमारे महात्माओं को नहीं मानते। आप हमारे ऋषि-मुनियों के खिलाफ बोलते हैं। मैं करूं क्या, तुम्हारे त्रषि-मुनि ऐसे हैं! इसमें मेरा कसूर क्या? मैं तो बात को सीधी-सीधी कह देना चाहता हूं, जैसी है वैसी कह देना चाहता हूं, अखरे तो अखरे। लेकिन मैं चाहता हूं कोई तो बात को साफ-साफ कहे। क्योंकि बात हो जाए, निदान हो जाए रोग का तो चिकित्सा भी हो सकती है।
अब तुम कह रहे हो, चैतन्य कीर्ति, कि विचारशील लोग इन घटनाओं की भर्त्सना कर रहे हैं। कौन हैं ये विचारशील लोग? ये ही विचारशील लोग तो कारण हैं इन घटनाओं के। ये ही पंडित, ये ही पुरोहित, ये ही विचारशील लोग, इन्हीं के कारण तो ये उपद्रव सब हो रहे हैं, ये ही इनकी जड़ में हैं और ये ही भर्त्सना करते हैं। ये ही झगड़े करवाते हैं और ये ही भर्त्सना करते हैं। वही मौलवी, वही पंडित लड़वा देते हैं, हत्याएं हो जाती हैं। फिर वही मौलवी और पंडित सर्व-धर्म-समन्वय की प्रार्थनाएं करते हैं।
इस धोखाधड़ी को पहचानो।
और ये विचारशील लोग इस देश में सदा रहे हैं। इन्होंने किया क्या इतने दिन तक? पांच हजार साल पुरानी संस्कृति को इन विचारशील लोगों ने किस भांति का ढांचा दिया है? इतना सड़ा-गला, इतना गंदा, इतना बेहूदा, इतना अमानवीय, इतना कुत्सित कि इनसे अब क्या और आशा करते हो! तुम्हें कुछ सोचने के नये ढंग ईजाद करने होंगे। तुम्हें हवा में कुछ क्रांति लानी होगी। ये विचारशील लोग विचारशील नहीं हैं। ये लकीर के फकीर हैं, वही दोहराए चले जाते हैं।
महात्मा गांधी ने हरिजनों को नया नाम दे दिया: हरिजन। शूद्र न रहे, बस नाम बदल दिया; अछूत न रहे, नाम बदल दिया। बात तो वही की वही रही, नाम बदलने से क्या होगा? अच्छा प्यारा नाम दे दिया, हरिजन, इससे क्या होता है? कितना ही प्यारा नाम दे दो, व्यवहार तो वही का वही रहा। उसमें तो कोई जरा भी फर्क न पड़ा। आजादी न आई थी तब तक वह कहते थे कि भारत का पहला राष्ट्रपति एक हरिजन महिला को बनाऊंगा। फिर आजादी आयी, फिर बात खत्म हो गयी। फिर बात ही नहीं उठी हरिजन महिला की! फिर ब्राह्मणों का अड्डा फिर जम गया। फिर पंडित जवाहरलाल नेहरू। और फिर तरहत्तरह के पंडित सारे देश में मुख्य मंत्री बनकर बैठ गये। फिर वही अड्डा। फिर वही ब्राह्मण। फिर कोई शूद्र अछूत लड़की को राष्ट्रपति बनाने की बात कहां खो गयी, पता नहीं चला।
अब तुम कह रहे हो कि वे भर्त्सना कर रहे हैं। भर्त्सना करने से कुछ भी नहीं होगा। निंदा करने से क्या कुछ होता है! जड़ें काटनी होंगी। नीम में कड़वे फल लगते हैं, तुम भर्त्सना लाख करो, इससे क्या होगा? कड़वे फल लगते रहेंगे। इधर भर्त्सना करना, उधर पानी भी सींचते रहना। पानी भी सींचते हो, भर्त्सना भी करते हो। उन्हीं शास्त्रों की पूजा जारी है जिनमें इस देश की सारी जड़ता छिपी हुई है। उन्हीं पुराणों की कथाएं पढ़ी जा रही हैं, वे ही ब्राह्मण अड्डा जमाए बैठे हुए हैं, वे ही लोग अब भी मालिक बने बैठे हुए हैं; वे पुजारी, वे पंडित, उनका ही जाल, उनका ही षडयंत्र सबको कसे हुए है। और भर्त्सना भी चल रही है। कुछ भी न होगा इस भर्त्सना से। हमें जड़ें बदलनी होंगी, हमें नीम के पौधे काटने होंगे, हमें आम बोने होंगे। हमें और ढंग से सोचना पड़ेगा।
तुम कहते हो, रोकथाम के उपाय सुझा रहे हैं। रोकथाम के उपाय तो सदियों से तुम कर रहे हो। जड़ क्यों नहीं काटते, रोकथाम क्यों करते हो? आखिर मूल में क्यों नहीं जाते? क्यों इतनी हिंसा है भारत में? आखिर शूद्रों की बस्तियां क्यों जलायी जाती हैं? क्या कारण है? जब तक शूद्र रहेंगे तब तक बस्तियां जलायी जाएंगी।
मनुस्मृति स्पष्ट कहती है कि अगर कोई उच्च वर्ण का व्यक्ति किसी ब्राह्मण, किसी क्षत्रिय, किसी वैश्य को अगर किसी शूद्र की कन्या जम जाए तो वह विवाह कर सकता है। लेकिन कोई शूद्र किसी का उच्च वर्ण की कन्या से विवाह नहीं कर सकता। अधिकतर झगड़े इसीलिए खड़े होते हैं। जब भी कभी कोई शूद्र का प्रेम किसी उच्चवर्गीय महिला से हो जाता है,बस, दंगा-फसाद होता है।
तुम मनु की स्मृति को जब तक सिर पर रखे हुए हो तब तक ये दंगे-फसाद जारी रहेंगे। मनुस्मृति कहती है कि शूद्र की हत्या करने में कोई पाप नहीं है। अगर पापी है शूद्र तो उसको मारने में पुण्य है। पापी ब्राह्मण को भी मारने में पाप है।
आदमी आदमी में ऐसा भेद करनेवाले शास्त्रों को तुमने अभी इंकार किया? या अभी भी तुम उसे स्वीकार कर रहे हो? उनकी स्वीकृति जब तक जारी रहेगी, जब तक उनकी अपनी समग्रता से अतीत से अपने को विच्छिन्न नहीं करते हो, अपने को तोड़ नहीं लेते हो, एकबारगी अतीत को साफ कह नहीं देते हो कि हम समाप्त हुए तुमसे, कि हमारे संबंध विच्छिन्न हुए, कि जो गया वह गया, अब हमारा उससे कुछ नाता नहीं है, तब तक यह उपद्रव जारी रहेगा। झगड़े क्या होते हैं? छोटे झगड़े हैं, दुनिया हंसती है। कोई शूद्र ने कोई उच्चवर्गीय कुएं से पानी भर लिया, बस, झगड़ा हो गया। कोई शूद्र मंदिर में चला गया झगड़ा हो गया।
रोकथाम के उपाय तुम क्या कर रहे हो? रोकथाम के उपाय ये हैं कि दंड-व्यवस्था में उन्हीं के हाथ मजबूत होते हैं जिनके हाथ में सत्ता है। आखिर पुलिस वाला, इंस्पेक्टर, हवलदार किसका गुलाम है? कोई शूद्र का तो है नहीं? शूद्र का बस क्या, बिसात क्या? है तो वह ब्राह्मण का, वैश्य का, क्षत्रिय का। वह खुद भी इन तीन वर्णों में से किसी में है। और इनके पास धन है। और इनसे उसे रिश्वत मिलती है। उसकी तनख्वाह इतनी नहीं कि वह खुद जिंदा रह सके अपनी तनख्वाह पर। वह रिश्वत पर जिंदा रहता है। रिश्वत के बिना इस देश में कोई जिंदा रह सकता नहीं।
तुम चाहते हो कि व्यवस्था हो जाए, ठीक, दंड की कठोर व्यवस्था हो जाए। कैसे होगी दंड की कठोर व्यवस्था? हो ही नहीं सकती। तुम देख रहे हो, मोरारजी का शासन आया, तो जिन पर सुस्पष्ट मुकदमे थे--जैसे "बड़ौदा डायनामाइट कांड' था, जो कि जाहिर, वस्तुतः घटना घटी थी, जो कि झूठ नहीं था, जो कि जबर्दस्ती आरोपित नहीं किया गया था वे सब बरी हो गये। जिसके हाथ में सत्ता है,...वे सब बरी हो गये। बरी ही नहीं हो गये, उस अपराध में जकड़े गये लोग जो कि शायद जीवन भर सजा भोगते या काला पानी भोगते, वे मंत्री बन गये, कैबिनेट स्तर के मंत्री बन गये।
और उनको पता नहीं था की यह सत्ता दोत्तीन साल में ही वह जाएगी...हालांकि मैंने कहा था कि दोत्तीन साल के भीतर ये नालियों में बहते दिखायी पड़ेंगे, इससे ज्यादा ये टिक सकते नहीं। वे सब नालियों में बह भी गये। पहली ही बाढ़ उन्हें ले गयी। चूंकि उन्होंने सोचा था कि अब हमें कोई सत्ता से अलग तो कर सकता नहीं, इसलिए "बड़ौदा कांड' के ही अभियुक्तों ने किताबें लिख दीं। जिनमें उन्होंने स्वीकार किया कि यह कांड हो रहा था और हमने ये तैयारियां की थी। तो इंदिरा ने कोई जबर्दस्ती उन पर थोपा नहीं था, उन्होंने अपराध किया था, करने की पूरी आयोजना थी। ये खुद उन्होंने अपनी किताबों में स्वीकार कर लिया; इस आशा में कि अब हमें कोई सत्ता से तो अलग करने वाला है नहीं, इसलिए डर क्या है, अब तो लिख दो किताबें! शहीद होने का भी मजा ले लो। क्रांतिकारी होने का भी मजा ले लो। सत्ता में होने का भी मजा मिल गया और अपराध से तो मुक्त हो ही गये हैं।
और तीन साल की सत्ता में मोरारजी और चरणसिंह ने किया क्या? झूठे मुकदमे खड़े किये। और सारी कानून की व्यवस्था उनके साथ हो गयी! यह मैं इसलिए कहता हूं कि यह मेरा अपना अनुभव है। मैं अपने काम से से बाहर नहीं निकलता, मुझ पर इतने मुकदमे चलते हैं जिसका हिसाब नहीं! कोई सौ से ऊपर मुकदमे। तुम कल्पना भी नहीं कर सकोगे कि ये अपराध मैं कैसे करता होऊंगा! आए दिन कोई "सम्मन' आ जाता है। मैं तो कभी लेता भी नहीं। मैंने तो दस्तखत ही करना बंद कर दिया है। न करूंगा दस्तखत, न कोई सवाल उठता है। लेकिन आए दिन...।
अभी परसों बिहार से...छपरा, बिहार! मैं कभी गया नहीं। ...वहां मुकदमा है अदालत में! कि मैंने किसी की हार्दिक भावनाओं को चोट पहुंचा दी। अब इस मुल्क में सत्तर करोड़ लोग हैं, किस-किसका हृदय देखकर बोलते रहो! अब छपरा में ये सज्जन के हृदय को चोट पहुंच जाएगी, यह काश मुझे पता होता! तो तीर बिलकुल आरपार कर देता। चोट का मौका ही नहीं रहता। यह बिंधा रह गया तीर तो कष्ट दे रहा है, बीच में अटका रह गया। नहीं तो निशाने मैं ऐसे-वैसे नहीं लगाता। मगर उनको चोट पहुंच गयी है; मुकदमा...!
इंदिरा पर, संजय पर कितने मुकदमे खड़े किये! और सारी अदालत साथ। सारा कानून साथ। और सब ऐसा लगे कि जैसे ठीक। और फिर इंदिरा सत्ता में आयी कि फिर वही अदालतें कहने लगीं कि इनमें, मुकदमों में कोई बल नहीं है, इनमें कोई जान नहीं है; वे ही मुकदमे टायं-टायं फिस्स होने लगे।
यह बड़ी हैरानी की बात है, किसकी दंड-व्यवस्था तुम मजबूत करोगे? कैसे करोगे? यहां जिसके हाथ में लाठी है सकी भैंस है। गांव में किसकी ताकत है? जिसके पास धन है, जमीन है, दौलत है। गांव का पटवारी, हवलदार, बिचारा उसकी हैसियत क्या है! वह तो इनकी मानकर चलेगा। वह जो ये कहेंगे वह करेगा। वह जो ये कहेंगे वह करेगा। वह तो इनका सेवक हैं। वह तो जी-हजूरी करता रहा है, अब भी जी-हजूरी करेगा। वह तो उसकी परंपरा हो गयी है, आदत हो गयी है। दंड-व्यवस्था मजबूत करने से कुछ भी न होगा। हां, तुम पुलिसवालों के हाथ में ज्यादा ताकत दे दो तो इतना ही होगा कि जो अत्याचार, जो हिंसा और लोग करते हैं, वह पुलिसवाले करेंगे वह पुलिसवाले कर रहे हैं। उनके हाथ में ताकत मिलती है तो उन्हें मौका मिल जाता है। तो उनकी दबी हुई वासनाएं खुलकर खेलने लगती हैं। किसी भी स्त्री को पकड़ लो, अदालत में उसके साथ व्यभिचार करो। हवालात में ले जाओ, उसके साथ व्यभिचार करो। हवालात में तो कोई कुछ कर सकता कि क्या हुआ।
मगर ये पुलिस के कांस्टेबल और ये हवलदार और ये तहसीलदार, मैं इनको दोषी नहीं ठहराता। मैं तो दोषी ठहराता हूं इस देश की पूरी परंपरा को, जिसने इस देश के भीतर ही आदमी के मन में इतनी दमित वासना भर दी है कि उसे मौका मिल जाए तो वह छोड़ेगा नहीं। महात्मा जिम्मेवार हैं इस सारे बलात्कार के पीछे। तुम्हारे ऋषि-मुनियों से, अपने महात्माओं से मुक्त नहीं होते तब तक कोई आशा नहीं है। न दंड रोक सकेगा, न रोकथाम की कोई और व्यवस्था काम आ सकती है।
चैतन्य कीर्ति, इस देश को जड़-मूल से क्रांति की आवश्यकता है, कुछ ऊपरी लीपापोती से होनेवाली नहीं। मैं उसी कोशिश में लगा हूं। वैसी ही जड़-मूल से तुम्हारी दृष्टि बदलनी चाहिए। इसीलिए तो मैं हजारों की तादाद में आपने दुश्मन खड़े किये ले रहा हूं। स्वभावतः। क्योंकि उन सब की मान्यताओं पर चोट पहुंचेगी। अन्यथा मुझसे उन्हें क्या भय है? मुझसे उन्हें क्या पीड़ा है? मैं चुपचाप अपना काम यहां करता रहता हूं, न कहीं जाता, न कहीं आता, लेकिन उनको घबड़ाहट हैं। उन्हीं एक बात साफ समझ में आने लगी है कि जो बीज मैं बो रहा हूं, अगर वह फसल आयी, अगर वे फूल खिले, तो इस देश का पूरा वातावरण बदल सकता है। ये फूल लपटें ला सकते हैं, इनसे क्रांति पैदा हो सकती है।
एक महाक्रांति के अतिरिक्त इस देश के सामने अब कोई और उपाय नहीं है।
आज इतना ही।



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