सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो
जिसको पीना हो आ जाए—प्रवचन—नौवां
दिनांक 07 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
आपको लोग गलत क्यों समझते हैं? क्या सत्य को सदा ही गलत समझा गया है? मैं डरता हूं
कि शायद जनमानस आपकी आमूल क्रांति को पचा नहीं सकेगा। आप क्या करने की सोच रहे हैं?
अभयानंद,
यह देख कर कि तुम्हारे भीतर बहुत भय है, मैंने तुम्हें नाम
दिया--अभयानंद। अचेतन तुम्हारा भय की पर्तों से भरा हुआ है। तुम अपने ही भय को
प्रक्षेपित कर रहे हो। और तब बजाए आनंदित होने के तुम मेरे पास बैठ कर भी चिंतित
हो जाओगे। ये सारी चिंताएं तुम्हें पकड़ लेंगी कि आपको लोग गलत क्यों समझते हैं!
क्या फिक्र? तुमने समझा, उतना बहुत।
तुम्हारे भीतर का दीया जला, उतना तुम्हारे मार्ग की रोशनी के
लिए काफी है।
लोगों को आजादी है; जिसे जलाना हो अपना दीया जलाए,
जिसे न जलाना हो न जलाए। यह उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता है। सत्य किसी
पर थोपा तो नहीं जा सकता। सत्य किसी को जबरदस्ती तो दिया नहीं जा सकता। और जो भी
जबरदस्ती दिया जाएगा वह असत्य हो जाता है। जो भी थोपा जाएगा वह जंजीर बन जाता है।
और सत्य का तो अर्थ है--वह, जो सब जंजीरों को तोड़ दे,
सब बेड़ियों को तोड़ दे; जो तुम्हें समस्त
कारागृहों के बाहर ले आए। सत्य तो वह है जो तुम्हें पंख दे; पंखों
को काट न दे।
और लोग अपनी बेड़ियों में बंधे हैं, अपनी जंजीरों में
बंधे हैं। और उन्होंने जंजीरों को खूब सजा लिया है। उन्होंने जंजीरों पर सोने की
पर्त चढ़ा ली है, हीरे-जवाहरात मढ़ लिए हैं। अब वे जंजीरें
नहीं मालूम होतीं; अब तो लगता है वे आभूषण हैं, बहुमूल्य आभूषण हैं। कारागृह की दीवारों को उन्होंने रंग लिया है, तस्वीरें टांग दी हैं। और कारागृह को अपना घर समझ लिया है। परतंत्रता
उन्हें सुरक्षा मालूम होती है। इसलिए वे कैसे मुझे समझें? उनके
न्यस्त स्वार्थों के विपरीत मेरी बात जा रही है। जिसे वे आभूषण कहते हैं, मैं कहता हूं जंजीर है, तोड़ो। मेरी मानें तो जीवन भर
जिसको आभूषण की तरह ढोया है, उसे तोड़ना पड़ेगा। यह बात अखरती
है, अहंकार को चोट करती है, कि मैं
क्या इतना मूढ़ हूं कि जीवन भर जंजीरों को आभूषण समझता रहा! मैं क्या पागल हूं कि
थोथे शब्दों को सत्य मानता रहा! विश्वासों के आधार पर मैंने अपने जीवन को अब तक
चलाया!
और विश्वास यूं हैं जैसे कागज की नाव। डूबेंगे ही। विश्वास का अर्थ ही
है: अज्ञान। किसी विश्वास को अंधविश्वास मत कहना, क्योंकि सभी विश्वास
अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास शब्द खतरनाक है; उससे यह
भ्रांति पैदा होती है कि कुछ विश्वास विश्वास होते हैं और कुछ विश्वास अंधविश्वास
होते हैं। ऐसा नहीं है। विश्वास मात्र अंधा होता है। असल में अंधे को ही विश्वास
की जरूरत होती है। आंख वाला प्रकाश को देखता है; प्रकाश में
विश्वास थोड़े ही करता है! अंधा प्रकाश में विश्वास करता है। बहरा संगीत में
विश्वास करता है। जिसने कभी प्रेम को नहीं जाना, वह प्रेम
में विश्वास करता है। और जिसकी कोई मुलाकात जीवन से नहीं हुई, वह परमात्मा में विश्वास करता है।
विश्वास अर्थात झूठ। और विश्वासों से घिरे हुए लोग समझें तो कैसे
समझें मेरी बात को? इतना बड़ा त्याग करने की छाती नहीं है। घर छोड़ सकते
हैं, परिवार छोड़ सकते हैं, पत्नी छोड़
सकते हैं, दुकान छोड़ सकते हैं; वे सब
छोटी बातें हैं, दो कौड़ी की बातें हैं। लेकिन जब विश्वास
छोड़ने का सवाल उठता है--हिंदू विश्वास, जैन विश्वास, ईसाई विश्वास--तब प्राणों पर बन आती है। यूं लगता है कि जैसे कोई गला
घोंटने लगा। यूं लगता है कि जैसे किसी ने आग में फेंक दिया। इन्हीं विश्वासों ने
तो भरोसा दिया था कि हम ज्ञानी हैं। इन्हीं विश्वासों ने तो सहारा दिया था। ये ही
तो लंगड़े-लूलों की बैसाखियां थे। और इनको ही कोई छीनने लगा!
अभयानंद, लोग गलत न समझें, यह कैसे हो
सकता है? लोग तो गलत ही समझेंगे। उनका गलत समझना बताता है कि
मैं जो कह रहा हूं वह सत्य है। लोग अगर मेरी बात को बिलकुल स्वीकार कर लें,
अगर भीड़ मेरी बात को स्वीकार कर ले, तो एक ही
बात सिद्ध होगी उससे कि मेरी बात में सत्य नहीं होगा। भीड़ हमेशा असत्य के साथ
होगी। सत्य के साथ तो कुछ इने-गिने लोग, कुछ हिम्मतवर लोग,
कुछ दुस्साहसी लोग, बस केवल थोड़े-से ही लोग
सत्य के साथ हो सकते हैं।
"लोग'--तुम पूछते
हो--"आपको क्यों गलत समझते हैं?'
इसीलिए गलत समझते हैं कि मैं सही हूं और सही को उन्हें गलत समझना ही
होगा, क्योंकि वे गलत को इतने दिनों तक सही समझते रहे हैं
कि आज उसे छोड़ना, अपने सारे अतीत पर पानी फेर देना है। आदमी
अपनी भूलों को भी बचाता है, अपने घावों को भी छिपाता है,
अपनी बीमारियों को भी दबाता है कि किसी को पता न चले, किसी को खबर न हो जाए। हम धोखा देने में इतने निष्णात हो गए हैं, हमने मुखौटे ओढ़ लिए हैं; असली चेहरे तो न मालूम कहां
खो गए हैं। आज तुम खोजने भी निकलोगे तो अपने असली चेहरे को शायद ही खोज पाओ।
और मैं चाहता हूं कि तुम्हारे सारे मुखौटे छीन लूं--तुम्हारा भारतीय
होने का मुखौटा, तुम्हारा हिंदू होने का मुखौटा, तुम्हारा धार्मिक होने का मुखौटा, तुम्हारी
सरलता-सादगी का मुखौटा--ये सब झूठ हैं। गरीब आदमी सादगी का मुखौटा ओढ़ लेता है,
आखिर गरीबी को किसी तरह सहनीय तो बनाना होगा। नहीं तो काटेगी,
छाती में छुरी की तरह चुभेगी। जीना मुश्किल हो जाएगा। कुछ तर्क तो
खोजने होंगे कि परमात्मा कसौटी पर कस रहा है, परीक्षा ले रहा
है। बस यह अंतिम परीक्षा है, अग्नि-परीक्षा है; फिर आगे तो स्वर्ग के सुख हैं। यूं आदमी सहारा खोज लेता है--जिंदगी के दुख
से गुजरने का। जिंदगी के दुख को बदलना तो उसको अपनी सामर्थ्य के बाहर मालूम होता
है। हालांकि वह सामर्थ्य के बाहर नहीं है, बाहर हमने कर दिया
है। जहां करोड़ों-करोड़ों लोग अपनी दीनता और गरीबी में भी धन्यता अनुभव करने लगेंगे,
वहां संपदा पैदा नहीं हो सकती।
हमने अपने पाखंड को नैतिकता समझ लिया है। लेकिन समझना ही होगा, क्योंकि अगर हम पाखंड समझें तो फिर छोड़ना पड़ेगा। पाखंड के ऊपर पुताई कर दो,
सफेद चूना पोत दो।
जीसस ने कहा है: लोग कब्रों पर भी सफेद चूना पोत देते हैं, लेकिन इससे कुछ कब्रें स्वच्छ नहीं हो जातीं; भीतर
तो सड़ ही रही है लाश।
ऐसे ही पुते हुए लोग चल रहे हैं, भीतर लाशें सड़ रही
हैं। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और दिखा रहे हैं। कैसे मुझसे
राजी हों?
मैं उनसे कह रहा हूं कि यह बाहर जो तुम दिखावा कर रहे हो, यह पाखंड छोड़ो। मैं संसार छोड़ने को नहीं कहता हूं, नहीं
तो वे मुझसे राजी होते। वह सस्ता मामला है। वह तो कोई भी कायर कर सकता है, कोई भी भगोड़ा कर सकता है। कौन नहीं भाग जाना चाहता? जिंदगी
कठिन है। जिंदगी चुनौती है। जिंदगी संघर्ष है। कौन नहीं छिप जाना चाहता जाकर किसी
गुफा में? वह अगर मैं कहूं तो लोग बिलकुल मुझसे राजी होंगे।
वह उनकी परंपरा के अनुकूल होगा। हालांकि उनकी सड़ी-गली परंपरा, सिर्फ बदबू उठ रही है उस परंपरा से। लेकिन उस बदबू को छिपाने के लिए वे
फूलों से ढांक रहे हैं, इत्र छिड़क रहे हैं। जब लाश को उठाते
हैं तो उस पर कपूर मल देते हैं, फूल सजा देते हैं, ताकि बदबू न आए।
ऐसा ही हमारा पाखंड है। और डर लगता है कि कोई हमारे पाखंड को उघाड़ न
दे। और मेरा सारा आयोजन यहां यही है कि तुम्हारे पाखंड को उघाड़ दूं। तुम मुझसे
नाराज होओगे।
भीड़ मुझसे कैसे राजी हो, अभयानंद? भीड़ तो भेड़चाल जानती है। मेरे साथ तो केवल वे ही लोग चल सकते हैं जो अकेले
होने की हिम्मत रखते हैं। भीड़ तो अपना बचाव करेगी। भीड़ तो आक्रामक हो जाएगी।
सवादे-गम में कहीं गोशा-ए-अमां न मिला
हम ऐसे खोए,
कि फिर तिरा
आस्तां न मिला
गम की नगरी, दुख की यह दुनिया, इसमें पनाह
का एक कोना भी नहीं मिलता है। और हम ऐसे खो गए हैं कि अब परमात्मा की चौखट को
खोजना भी बहुत मुश्किल है। उसकी दहलीज को भी पाना बहुत मुश्किल है। उसके द्वार को
भी पाना बहुत मुश्किल है।
सवादे-गम में कहीं गोशा-ए-अमां न मिला
हम ऐसे खोए, कि फिर तिरा आस्तां न मिला
ये इत्तिफाके-जमाना है, इसका रोना क्या
मिला, मिला कोई दिल का मिजाज-दां न मिला
गमों की बज्म कि तनहाइयों की महफिल थी
हमें वो दुश्मनेत्तमकीं कहां-कहां न मिला
अजीब दौरे-सितम है कि दिल को मुद्दत से
नवेदे-गम न मिली, मुज्दाए-जियां न मिला
किसे है याद कि सअई-ओत्तलब की राहों में
कहां मिला हमें तेरा निशां, कहां न मिला
इधर वफा को गिला है कि दिल का लहू न हुआ
उधर सितम को शिकायत है कि कद्रदां न मिला
लबों को नुत्क का एजाज तो मिला "ताबां'
मगर सुकूत का पैराया-ए-बयां न मिला
एक और भी कठिनाई है: सत्य का अनुभव तो मिल सकता है, लेकिन सत्य को कहने का कोई उपाय नहीं है। सत्य को कभी कोई कह नहीं सका है।
लबों को नुत्क
का एजाज तो
मिला "ताबां'
ओंठों को वाणी मिली, वाणी का चमत्कार मिला।
लबों को नुत्क का एजाज तो मिला "ताबां'
मगर सुकूत का
पैराया-ए-बयां न मिला
लेकिन वह जो भीतर मौन का अनुभव होता है, शून्य का अनुभव होता
है, समाधि का अनुभव होता है...
मगर सुकूत का
पैराया-ए-बयां न मिला
उसे कहने का कोई ढंग न अब तक मिला है और न कभी आगे मिलेगा।
इसलिए भी मैं जो कह रहा हूं, उसे समझना मुश्किल हो
जाता है; क्योंकि जो मैं कह रहा हूं उसे समझने के लिए
सहानुभूति चाहिए, प्रीति चाहिए। और जो मैं कह रहा हूं उससे
तुम पर चोट पड़ती है; उससे तुम्हारे घाव उघड़ते हैं; उससे तुम्हें पीड़ा होती है, तुम तिलमिला जाते हो।
सहानुभूति तुम कैसे करो मुझसे? प्रीति तुम कैसे करो मुझसे?
और जो मैं कह रहा हूं वह बिना प्रीति के समझा न जा सके, क्योंकि उसे कहने का और कोई उपाय नहीं है; वह कोई
गणित नहीं है; कोई दो और दो चार जैसी सीधी बात नहीं है। हां,
प्रेम के किन्हीं क्षणों में शब्दों के साथ-साथ लिपटी हुई भीतर की
शून्यता भी चली आती है। लेकिन बस प्रेम के क्षणों में ही संवाद होता है, और तो विवाद ही है।
इसलिए जो यहां मुझे प्रेम से सुनने को राजी हुए हैं, वे मेरे शब्दों के बीच में जो खाली स्थान हैं उनको भी सुन लेते हैं;
मेरी पंक्तियों के बीच में जो रिक्तता है उसमें डुबकी लगा लेते हैं।
मगर भीड़ को न सहानुभूति है, न प्रीति है, न सत्य की कोई खोज है, न कोई आकांक्षा है, न फुरसत है, न अभीप्सा है। और मेरी बातें उसे
तिलमिला देती हैं।
मेरी भी मजबूरी है। मैं लाख मिठास से कहूं! अब किसी की गर्दन काटनी हो
और तुम तलवार पर लाख मिश्री मलो, इससे क्या होने वाला है? जब गर्दन कटेगी तो तकलीफ होगी ही होगी। और यह मामला गर्दन कटने का ही है।
सहज आसिकी नाहिं! यह प्रेम का रास्ता, यह परमात्मा का
रास्ता केवल उनके लिए है जो अपने हाथ से अपनी गर्दन काट कर रख सकते हैं। उनको ही
मैं संन्यासी कहता हूं--जो पागल होने को राजी हैं, प्रेम में
पागल होने को, जो दीवाने होने को राजी हैं। यह भीड़ का वास्ता
भी नहीं है।
अभयानंद, भीड़ का विचार भी न करो। तुम पूछते हो, "क्या सत्य को सदा ही गलत समझा गया है?'
सदा ही गलत समझा गया है, इतना ही नहीं;
सदा गलत समझा भी जाएगा, यह भी स्मरण रहे। ऐसी
कोई संभावना नहीं है कि कभी भी मनुष्य-जाति समग्ररूपेण सत्य को लेने को राजी हो
सकेगी। निन्यानबे प्रतिशत लोग तो झूठ में ही जीएंगे, क्योंकि
झूठ में बड़ी सांत्वना है। और मुफ्त मिलती है सांत्वना, तो
कौन दाम चुकाए?
फ्रेड्रिक नीत्शे ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि मत लोगों के असत्यों
को खंडित करो, मत तोड़ो उनके झूठों को, क्योंकि
बिना झूठों के वे एक क्षण जी न सकेंगे। उनके असत्य मत छीनो, अन्यथा
उनके पैर के नीचे से जमीन निकल जाएगी; एक कदम उठाना उन्हें
मुश्किल हो जाएगा। उन्हें उनके भ्रमों को सम्हालने दो। उनके भ्रम उनकी सुरक्षा है,
उनकी सांत्वना है, उनकी आशाएं हैं, उनकी कल्पनाएं हैं, उनकी मृग-मरीचिकाएं हैं। मत करो
खंडन उनका। न उन्हें सत्य की चाह है, न उन्होंने सत्य मांगा
है। सोने दो उन्हें। वे प्यारी नींद में सोए हैं। वे गहरी नींद में हैं। वे
सुंदर-सुंदर सपने देख रहे हैं। मत तोड़ो उनके सपनों को।
फ्रेड्रिक नीत्शे एक अर्थ में सही बात कहता है। निन्यानबे प्रतिशत
लोगों के संबंध में तो यह सही है ही। लेकिन मेरे जैसे लोगों की भी मजबूरी है। जो
जाग गए हैं उनकी भी मजबूरी है। वे कैसे सोने दें? क्योंकि उन्होंने जाग
कर जो पाया है, उन्होंने आंख खोल कर जो देखा है, तब उन्हें पता चला है कि हम आंख बंद करके जो सपने देख रहे थे, वे थे ही नहीं; हम नाहक ही समय गंवा रहे थे; हम व्यर्थ ही जीवन को व्यतीत कर रहे थे। आंख जिसकी खुली उसकी भी मजबूरी
है।
नीत्शे ठीक कहता है निन्यानबे प्रतिशत लोगों की तरफ से। मैं भी कहना
चाहता हूं एक प्रतिशत लोगों की तरफ से। मैं नीत्शे से कहना चाहता हूं कि तुम ठीक
कहते हो। मगर वह ठीक केवल सोए हुए लोगों के संबंध में लागू है। जागे हुए लोगों की
भी एक पीड़ा है। अगर तुम्हें दिखाई पड़ रहा हो कि कोई आदमी गङ्ढे में गिरने को है, गिरने को है, गिरने को है, तो
तुम कैसे उसे न रोकोगे? वह चाहे जिद भी करे कि मत रोको मुझे,
जाने दो मुझे; मगर तुम कहोगे, पागल हो! यह गङ्ढा मेरा परिचित है, मैं गिर चुका
हूं। इसी में मैंने अपनी हड्डी-पसलियां तोड़ी हैं। अब तू तो मत तोड़! तुम्हारे देखते
हुए कोई आग में उतरता हो, एक छोटा बच्चा अंगारों को उठाने
चला हो, तुम रोकोगे या नहीं रोकोगे? एक
छोटा बच्चा सांप को पकड़ने चला हो, तुम बाधा डालोगे या नहीं
डालोगे?
बुद्धों की यही पीड़ा है: उन्हें दिखाई पड़ रहा है और तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ रहा। उनकी पीड़ा भी मैं समझता हूं, तुम्हारी पीड़ा भी मैं
समझता हूं। तुम जैसा भी मैं था, उन जैसा मैं हूं। यह भी
पक्का है कि तुम गलत समझोगे। और यह भी पक्का है कि बुद्ध पुरुष सत्य को कहे ही
जाएंगे--इस आशा में कि कितने लोग गलत समझेंगे? कोई तो सही
समझेगा। कोई तो माई का लाल होगा! बस उन थोड़े-से लोगों को निमंत्रण देने के लिए ही
सत्य कहा जाता है।
शरहे-जां सोजी-ए-गम, अर्जे-वफा क्या करते
तुम भी इक
झूठी तसल्ली के
सिवा क्या करते
हृदय की व्यथा, गम की तपिस, किससे कहें?
और कहने से भी क्या सार है?
शरहे-जां सोजी-ए-गम, अर्जे-वफा क्या करते
तुम भी इक झूठी तसल्ली के सिवा क्या करते
शीशा नाजुक था, जरा चोट लगी, टूट गया
हादिसे होते ही रहते हैं, गिला क्या करते
रात ने छेड़ दिए भूले हुए अफसाने
जाग कर सुबह न करते तो भला क्या करते
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
तुंद थी मौज, मुखालिफ थी हवा, क्या करते
जज्बा-ए-शौक को इजहार की फुर्सत ही न मिली
लफ्जी-मानी का फुसूं टूट गया, क्या करते
थी न क्या-क्या हवसे-सैरोत्तमाशा "ताबां'
रास्ता पांव की जंजीर बना, क्या करते
हृदय व्यथा से भरा है, चारों तरफ दुख की बरसती
हुई आग है। मगर किससे कहो, कौन सुनेगा? और कोई सुन भी लेगा तो क्या करेगा?
शरहे-जां सोजी-ए-गम, अर्जे-वफा क्या करते
तुम भी इक
झूठी तसल्ली के
सिवा क्या करते
लोग क्या कर रहे हैं? झूठी तसल्लियां दे रहे हैं!
बच्चा रोता है तो हम उसका ही अंगूठा उसके मुंह में दे देते हैं। अपने ही अंगूठे को
चूसता रहता है। और चूस-चूस कर किलकारी मारता है। बड़ा प्रसन्न होता है। नहीं तो लोग
रबर का स्तन खरीद लाते हैं और बच्चे के मुंह में लगा देते हैं। उसको चूसता-चूसता
बच्चा सो जाता है।
और तुम्हारे मुंह में भी इसी तरह के झूठे स्तन लगा दिए गए हैं, जिनको चूस-चूस कर तुम नींद में सो रहे हो। न तुम्हें पता है पिछले जन्मों
का, लेकिन तुमसे कहा गया है कि पिछले जन्मों में तुमने बुरे
कर्म किए थे, इसलिए तुम दुख पा रहे हो। इससे सांत्वना मिल गई
कि अब क्या करें! अब तो कुछ किया नहीं जा सकता; भाग्य में
लिखा है, शांति से भोग लेना ही उचित है। और अभी शांति से भोग
लोगे तो आगे खूब फल पाओगे। तो भोग ही लो। चार दिन की जिंदगी है, यूं ही कट जाएगी, यूं ही कट जाती है। क्या रोना-धोना?
शरहे-जां सोजी-ए-गम, अर्जे-वफा क्या करते
तुम भी इक झूठी तसल्ली के सिवा क्या करते
शीशा नाजुक था, जरा चोट लगी, टूट गया
हादिसे होते ही
रहते हैं, गिला क्या
करते
क्या करो शिकायत, किससे करो शिकायत? रोज तुम्हारे शीशे टूटते हैं। जरा-सी चोट लगती है और टूट जाते हैं। जिन
नातों पर तुमने सब कुछ बारा था। जरा-सी चोट में टूट जाते हैं। पत्नी कल तक
तुम्हारी थी, आज तुम्हारी नहीं। पति कल तक तुम्हारा था,
आज तुम्हारा नहीं। बेटा कल तक तुम्हारा था, आज
तुम्हारा नहीं। कल तक जो तुम्हारे नहीं थे, आज तुम्हारे हो
जाते हैं। यहां शीशे टूटते ही नहीं, जुड़ते भी हैं। इधर टूटते
हैं उधर जुड़ते हैं। यहां जाल एक कटा नहीं कि दूसरा निर्मित हो जाता है।
हादिसे होते ही
रहते हैं, गिला क्या
करते
ये घटनाएं होती ही रहती हैं। आदमी धीरे-धीरे इनके लिए राजी हो जाता है, सहने को राजी हो जाता है। आदमी मरते रहते हैं, बच्चे
पैदा होते रहते हैं; हम मौत से भी राजी हो जाते हैं, जीवन से भी राजी हो जाते हैं। घसिटते रहते हैं। कहते हैं, यहां तो यह सब होता ही रहता है। यह तो संसार है।
रात ने छेड़ दिए भूले हुए अफसाने
जाग कर सुबह
न करते तो
भला क्या करते
यादें भी आती हैं, मगर करो तो क्या करो! कुछ करने
को रास्ता तो दिखाई नहीं पड़ता। चारों तरफ तुम्हारे ही जैसे भटके हुए लोग हैं,
उन्हीं की भीड़ है। उनके बीच ही तुम्हें जीना है। उनके जैसे ही होकर
जीओ तो आसानी है। वे जिस मंदिर में जाते हैं उसी मंदिर में जाओ। वे जिस मस्जिद में
नमाज पढ़ते हैं उसी मस्जिद में नमाज पढ़ो। वे हनुमान-चालीसा दोहराते हों तो तुम भी
दोहराओ। तुम्हें जंचे कि न जंचे, यह सवाल नहीं है। लेकिन
जिनके साथ रहते हो उनके जैसे ही रहो, उन्हें नाराज न करो।
अन्यथा जिंदगी वैसे ही मुसीबत से भरी है, और वे सारे लोग मिल
कर मुसीबत खड़ी कर देंगे।
जैसे गाड़ी के चाक में हम चर्रचूं की आवाज आने लगे तो तेल डाल देते हैं; तेल डालने से चर्रचूं की आवाज बंद हो जाती है। तेल चाक को सुविधा से चलाने
लगता है। बस हमारी सारी व्यवस्था इतनी ही है कि जिंदगी में ज्यादा चर्रचूं न हो,
तेल डालते रहो। रविवार आया, चर्च हो आओ--यह
तेल डालना है, और कुछ भी नहीं। बाकी जो गए हैं वे भी तेल
डालने गए हैं। सब एक-दूसरे को देख कर राजी हो जाते हैं कि ठीक है, सब ठीक चल रहा है।
लोग धार्मिक हैं। लोग अधार्मिक नहीं हो गए हैं। और है क्या तुम्हारा
चर्च? एक तरह का धार्मिक क्लब। कुछ लोग रोटरी क्लब जाते हैं,
कुछ लोग लायंस क्लब जाते हैं, कुछ लोग चर्च
जाते हैं, कुछ लोग भजन-मंडली में बैठते हैं, कुछ लोग रामायण सुनते हैं। कौन सुनता है? बस बैठे
रहते हैं कि सब लोग देख लें कि हां भाई, यह आदमी भी है तो
धार्मिक! क्योंकि फिर तेईस घंटे अधर्म करना है। उस अधर्म में चर्रचूं न हो। तो यह
तेल का काम कर देता है धर्म। अब आदमी राम-नाम की चदरिया ओढ़े बैठा हो दुकान पर,
दुगने दाम वसूल कर ले, तो भी तुम सोचोगे यह
आदमी झूठ थोड़े ही बोलेगा। राम का ऐसा भक्त, माला फेरता रहता
है!
लोग दुकानों पर बैठे रहते हैं, हाथ में माला लिए हुए
राम-राम जपते रहते हैं। राम-राम भी जप रहे हैं, कुत्ता आ
जाता है, उसको भी भगा देते हैं। ग्राहक आ जाता है, मुनीम को इशारा कर देते हैं--सम्हाल!
मैंने सुना, एक होटल में आधी रात गए एक युवक ठहरने को आया। मैनेजर
ने कहा, इतनी रात तुम्हें लौटाऊं, यह
भी अच्छा नहीं। फिर तुम पुराने ग्राहक भी हो। मगर बड़ी मजबूरी है, पूरी होटल भरी है, क्योंकि गांव में
सर्व-धर्म-सम्मेलन चल रहा है तो सभी धर्मगुरु आए हुए हैं। सिर्फ एक मैं कर सकता
हूं काम और वह यह कि अभी-अभी एक यहूदी धर्मगुरु, रबाई,
एक कमरे में आकर ठहरा है, वह अभी सोया भी नहीं
होगा। अभी-अभी हम उसे उसके कमरे में छोड़ कर आए हैं। उस कमरे में दूसरा बिस्तर भी
है। और आदमी भला है, इसलिए राजी हो जाएगा। तुम अगर राजी होओ
उसके साथ ठहरने को...।
युवक ने कहा, मुझे रात तो गुजारनी ही है। ऐसे तो हैरान हुआ,
थोड़ा दुखी भी हुआ, क्योंकि बड़ी कल्पनाएं और
कामनाएं लेकर आया था, उस होटल में बड़ी सुंदरियां भी उपलब्ध
थीं। मगर अब यह धर्मगुरु का सत्संग करना पड़ेगा! किस्मत ठोंक ली, मगर अब आधी रात जाए तो कहां जाए! सोचा कि चलो जो है ठीक है, कम से कम रात सो तो लूं, फिर सुबह देखा जाएगा।
पहुंचा। अंदर गया तो देखा कि यहूदी धर्मगुरु घुटने टेके परमात्मा से प्रार्थना कर
रहा है। बड़ी भावपूर्ण मुद्रा है। बड़ी प्रार्थना छाई है चेहरे पर। बड़ा प्रभावित हुआ
युवक। दो बिस्तर हैं। कौन-सा बिस्तर युवक ले, यह धर्मगुरु ने
कौन-सा बिस्तर लिया है, पूछना जरूरी है। मगर यह प्रार्थना
जारी है और उसको सोना है। उसने अपने कपड़े वगैरह उतारे और फिर धर्मगुरु से पूछा कि
मैं कौन-सा बिस्तर ले लूं, आप जरा इशारा कर दें। तो धर्मगुरु
ने एक बिस्तर की तरफ हाथ से इशारा कर दिया, प्रार्थना जारी
रही। वह युवक बिस्तर पर जाकर अपने कपड़े रख कर लेटने को हुआ। सोचा कि आदमी भला है,
प्रार्थना में भी इशारा कर दिया, पूछ ही लूं।
तो उसने पूछा कि अगर आपको कोई एतराज न हो तो मैं एक लड़की को भी ले आना चाहता हूं।
धर्मगुरु ने कहा हाथ उठा कर, एक नहीं, दो।
अब ला ही रहे हो तो दो ले आना। एक मेरे लिए भी।
प्रार्थना जारी है। प्रार्थना में बाधा ही क्या पड़ती है इससे?
माला लोग जपते रहते हैं और सब काम चलता रहता है। संसार वैसा का वैसा
बना रहता है, धर्म चलता रहता है। तुम्हारा तथाकथित धर्म तुम्हारे
जीवन में क्रांति नहीं है, वरन सिर्फ सुविधा है। इससे
तुम्हारे और और लोगों के बीच नाते-रिश्ते बनाने में आसानी होती है। एक औपचारिकता
है।
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
किनारा तो प्रत्येक कश्ती को मिल सकता है।
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
लेकिन कश्ती कागज की नहीं होनी चाहिए। और तुम्हारी कश्तियां शास्त्रों
से बनी हैं; शास्त्र यानी कागज। कोई गीता की कश्ती में बैठा है और
मारे जा रहा है, पतवार चलाए जा रहा है। कोई कुरान की कश्ती
में बैठा है। अलग-अलग शास्त्रों में से लोगों ने कश्तियां बना ली हैं और बड़ी आशा
से चल पड़े हैं। और फिर दोष देंगे किसी और बात को।
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
तुंद थी मौज--तेज थीं बहुत लहरें। मुखालिफ थी हवा--हवा दुश्मन थी, हवा प्रतिकूल थी। क्या करते?
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
तुंद थी मौज, मुखालिफ थी हवा,
क्या करते
फिर बहाने खोजते हैं कि क्या करें, बड़ी तेज आंधी उठी,
तूफान उठा, बवंडर आया! तुंद थी मौज, मुखालिफ थी हवा! और हवा ने दुश्मनी साधी। न मालूम किन जन्मों की दुश्मनी!
क्या करते? इसलिए डूब गए।
और मैं तुमसे कहता हूं: डूबने का कारण न तो हवा की तेजी है, न हवा की दुश्मनी है। अरे हवा को तुमसे क्या लेना-देना? लहरों को तुमसे क्या प्रयोजन? कश्तियां डूबती हैं,
क्योंकि कागज की हैं। ताश के पत्तों का घर बनाते हो, फिर हवा का झोंका गिरा देता है, तो कहते हो, हवा का झोंका दुश्मन था। यह नहीं सोचते कि ताश के पत्तों का घर बनाओगे,
गिरेगा नहीं तो क्या होगा? गिरेगा ही गिरेगा।
गिरना सुनिश्चित है। मगर बहाने।
जज्बा-ए-शौक को इजहार की फुर्सत ही न मिली
जीवन यूं ही बीत जाता है--इन्हीं व्यर्थ की बकवासों में; इन्हीं व्यर्थ के इंतजामों में। कागज की नावें बनाओ। बामुश्किल नावें बनती
हैं, फिर इनको तैराओ; बामुश्किल तैरती
हैं। घड़ी दो घड़ी भी तैर जाएं तो बहुत। फिर इनको बचाने में लगो; बचती नहीं, कितना ही बचाओ; डूब
ही जाती हैं और तुम्हें भी ले डूबती हैं।
जज्बा-ए-शौक को इजहार की फुर्सत ही न मिली
और इस अस्तित्व के प्रति प्रेम करने का, इस अस्तित्व के प्रति
प्रीति का आवेदन करने का अवसर ही कहां मिलता है! तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारा
प्रेम तो नहीं है। तोतों की तरह दोहरा रहे हो। प्रेम यंत्रवत नहीं होता। हिंदू
हिंदू प्रार्थना दोहरा रहा है, जैन जैन प्रार्थना दोहरा रहा
है; दोनों में से किसी को प्रयोजन नहीं है कि वे क्या दोहरा
रहे हैं। बस याद हो गई है, कंठस्थ हो गई है प्रार्थना।
दोहराए चले जा रहे हैं।
जज्बा-ए-शौक को इजहार की फुर्सत ही न मिली
प्रेम तो था भीतर। प्रेम तो हम सब लेकर पैदा हुए हैं। और प्रेम ही
प्रार्थना बनता है। लेकिन उसको मौका ही कहां मिलता है!
लफ्जी-मानी का फुसूं
टूट गया, क्या करते
शब्दों और अर्थों का जादू जल्दी ही टूट जाता है और तुम्हें दूसरा कोई
जादू मालूम नहीं।
लफ्जी-मानी का फुसूं
टूट गया, क्या करते
फिर बहाना तुम यह करते हो कि हम कहते भी तो क्या कहते, किन शब्दों में कहते? शब्द छोटे हैं, ओछे हैं, सीमित हैं। कहना भी चाहा था तो कुछ कह न पाए।
लफ्जी-मानी का फुसूं
टूट गया, क्या करते
लेकिन एक और भी तो प्रार्थना है मौन की। एक और भी तो प्रार्थना है
ध्यान की। वही तो प्रार्थना है। वही तो प्रेम का, वही तो अस्तित्व के
साथ प्रणय का वास्तविक निवेदन है--जब तुम मौन कृतज्ञभाव में झुक जाते हो। न कुछ
कहने को है न कुछ सुनने को है। और ध्यान रहे, जब न कुछ कहने
को है, तभी कुछ कहा जाता है। और जब न कुछ सुनने को है,
तभी सुना जाता है। वही प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचती है जो निःशब्द
है, जो मौन है, जो शून्य अनुग्रह का
भाव है, जो शुद्ध प्रेम है। फूल भी नहीं, सिर्फ सुगंध है।
फूल में भी वजन होता है, गिरेगा तो जमीन पर
गिर जाएगा। ऐसे ही शब्दों में वजन होता है। गिरेंगे तो जमीन पर गिर जाते हैं। और
सुगंध आकाश की तरफ उठने लगती है, चांदत्तारों की तरफ चलने
लगती है। सुगंध यूं है जैसे दीए की ज्योति। ज्योति तो ऊपर की तरफ जाती है; दीए को गिराओगे तो नीचे की तरफ गिरेगा। लेकिन ज्योति को तुम लाख नीचे की
तरफ गिराना चाहो, नहीं गिरा सकते। ज्योति का स्वभाव ही
ऊर्ध्वगमन है।
ऐसे ही मौन ऊपर की तरफ जाता है, शून्य ऊपर की तरफ
जाता है, क्योंकि शून्य में कोई वजन नहीं होता। शब्दों में
वजन होता है। तुम भी जानते हो कि शब्दों में वजन होता है। लोग कहते हैं कि उसने
बड़ी वजनी गाली दी। शब्दों में वजन होता है, गालियों में वजन
होता है। तो प्रार्थनाओं में भी वजन होगा। थोड़ा कम सही, छटांक,
आधी छटांक, कम। गाली अगर मनों में तौली जाए तो
समझो कि प्रार्थना को सेरों में तौल लेना, पसेरियों में तौल
लेना। लेकिन वजन तो होगा शब्दों में। सिर्फ शून्य में वजन नहीं होता। और जिसमें
वजन नहीं है वह गुरुत्वाकर्षण के पार हो जाता है।
थी न क्या-क्या
हवसे-सैरोत्तमाशा "ताबां'
कैसी-कैसी आकांक्षाएं लेकर आए थे, कैसी-कैसी अभीप्साएं
लेकर आए थे!
रास्ता पांव की
जंजीर बना, क्या करते
लेकिन मंजिल की तो बात ही न उठी।
रास्ता पांव की
जंजीर बना, क्या करते
जिनको तुम रास्ते समझते हो वे तुम्हारे पैरों की जंजीर बन गए हैं। यूं
तो कहा जाता है ये सब रास्ते हैं परमात्मा तक पहुंचाने के, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं ये अब कोई रास्ते नहीं हैं। कभी थे रास्ते।
रास्ता होता है कोई रास्ता तभी तक जब तक उस रास्ते को जन्म देने वाला जिंदा होता
है। उसकी जिंदगी में जादू होता है। वह मिट्टी को छूता है तो सोना हो जाती है। वह
शब्दों को छूता है तो शून्य से भर जाते हैं। वह बोलता है तो गीत बन जाते हैं;
नहीं बोलता है तो संगीत बन जाता है। उसके भीतर अनाहत का नाद बज रहा
है। उठेगा, बैठेगा, चलेगा--उसका
प्रत्येक कृत्य प्रसादपूर्ण होता है। उसका बुद्धत्व तो हर घड़ी बहा जा रहा है। उससे
गंध उठ रही है। उससे ज्योति जग रही है। उससे प्रकाश विकीर्णित हो रहा है।
जब बुद्ध जिंदा थे तो उन्होंने जो कहा वह मार्ग था, रास्ता था। और जब बुद्ध मर गए तो जो रह गया वह यूं है जैसे सांप निकल जाए
और धूल में निकले सांप की लकीर छूटी रह जाए। वह लकीर सांप नहीं है। उस लकीर को तुम
फिर पीटते रहो जन्मों-जन्मों तक, कुछ भी न पाओगे। और बुद्ध
ने बहुत ठीक कहा है कि बुद्ध पुरुष तो यूं हैं जैसे आकाश में उड़ते हुए पक्षी। आकाश
में जब पक्षी उड़ते हैं तो उनके पैरों के कोई चिह्न भी नहीं बनते। ये गए वे गए!
आकाश वैसा का वैसा कोरा रह जाता है।
बुद्ध को ठीक-ठीक प्रतीक मिल गया। ठीक उन्होंने बात कही कि बुद्ध
पुरुष आकाश में उड़ते हुए पक्षी हैं; कोई चिह्न नहीं छूट
जाते। लेकिन जहां चिह्न नहीं हैं वहां भी लोग चिह्न बना लेते हैं, अपने पत्थर गड़ा देते हैं। और उन्हीं पत्थरों की पूजा में लग जाते हैं।
बुद्ध के साथ बुद्ध का रास्ता भी तिरोहित हो जाता है। जीसस के साथ
जीसस का रास्ता भी खो गया। और जिन रास्तों पर अब करोड़ों-करोड़ों ईसाई चल रहे हैं वे
सिर्फ पैर की जंजीर हैं, और कुछ भी नहीं।
थी न क्या-क्या हवसे-सैरोत्तमाशा "ताबां'
रास्ता पांव की
जंजीर बना, क्या करते
अभयानंद, तुम कहते हो कि "मैं डरता हूं कि शायद जनमानस
आपकी आमूल क्रांति को पचा नहीं सकेगा।'
जनमानस पचा सके, ऐसी मेरी कोई आकांक्षा भी नहीं।
बस थोड़े-से चुनिंदे लोग पी लें, काफी है। इतना पर्याप्त है।
कुछ दीए जल जाएं तो बहुत है। सारी भीड़ के लिए तो संभावना नहीं है, क्योंकि भीड़ इतनी जोखिम न उठा सकेगी।
गर्मी-ए-शौके-नजारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो
ऐसे नादां भी न थे जां से गुजरने वाले
नासेहो, पंदगरो, राहगुजर तो देखो
वो तो वो है तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे
इक नजर तुम मिरा महबूबे-नजर तो देखो
वो जो अब चाक गिरेबां भी नहीं करते हैं
देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो
दामने-दर्द को गुलजार बना रखा है
आओ इक दिन दिले-पुरखूं का हुनर तो देखो
सुबह की तरह चमकता है शबे-गम का उफक
"फैज' ताबंदगी-ए-दीदा-एत्तर
तो देखो
वे तो मेरे पास ही नहीं आते, कैसे मुझे समझेंगे?
दामने-दर्द को गुलजार बना रखा है
आओ इक दिन दिले-पुरखूं का हुनर तो देखो
कभी आओ पास! कभी इस आत्मा में उठ रही जादू की तरंगों को तो देखो! मगर
जो आएंगे ही नहीं, उनके समझने का सवाल कहां है?
वो तो वो
है तुम्हें हो
जाएगी उल्फत मुझसे
आओ पास तो प्रेम जगे!
वो तो वो है तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे
इक नजर तुम
मिरा महबूबे-नजर तो
देखो
यह मेरा ईश्वर को देखने का ढंग, यह उस प्रेमी को
देखने की मेरी नजर तो तुम देखो!
वो तो वो है तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे
इक नजर तुम मिरा महबूबे-नजर तो देखो
वो जो अब चाक गिरेबां भी नहीं करते हैं
देखने वालो कभी
उनका जिगर तो
देखो
यह मामला तो हृदय का है। जो मेरे पास आएंगे, उठेंगे, बैठेंगे, जो इस सत्संग
में डूबेंगे, जो इस संगीत में डुबकी मारेंगे, वे ही केवल जान पाएंगे। जनमानस अभागा है, सदा से
अभागा है। बुद्ध से चूका, लाओत्सु से चूका, महावीर से चूका, जरथुस्त्र से चूका, जीसस से चूका, कबीर से, नानक
से चूका, मुझसे भी चूकेगा। चूकता ही रहेगा।
और तुम पूछते हो अभयानंद, "आप क्या करने
की सोच रहे हैं?'
करना क्या है? मैं यहां बैठा हूं। जिसको पीना हो आ जाए। मुझे तो
कहीं जाना नहीं। प्यासे को कुएं के पास आना पड़ता है। हां, तुम्हें
कुछ करना पड़ेगा, अभयानंद। मेरे संन्यासियों को कुछ करना
पड़ेगा। तुम्हें मैं भेजूंगा दूर-दूर। भेज रहा हूं सारी पृथ्वी के कोने-कोने में।
कोई दो लाख संन्यासी, दुनिया का एक भी ऐसा देश नहीं, एक भी ऐसा कोना नहीं, जहां मेरी बातें को नहीं
पहुंचा रहे हैं।
चश्मे-नम, जाने-शोरीदा काफी नहीं
तोहमते-इश्के-पोशीदा काफी नहीं
आज बाजार में पाबजौलां चलो
दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
खाक बर-सर चलो, खूं-बदामां चलो
राह तकता है सब शहरे-जानां चलो
हाकिमे-शहर भी, मजमा-ए-आम भी
तीरे-इल्जाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुब्हे-नाशाद भी, रोजे-नाकाम भी
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बासिफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
रख्ते-दिल बांध लो दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
जीसस, सुकरात, मंसूर, सरमद--वही फिर होगा।
रख्ते-दिल बांध लो
दिलफिगारो चलो
दिल का सामान बांध लो अब। ऐ हृदय घायल हो गया जिनका, ऐसे लोगो, ऐ घायल हृदय वालो, अब
दिल रूपी सामान बांध लो!
रख्ते-दिल बांध लो दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल
हो आएं यारो
चलो
अब और तो कोई दिखाई नहीं पड़ता।
फिर हमीं कत्ल
हो आएं यारो
चलो
चश्मे-नम--आंखें गीली हों, आंसुओं से भरी
हों--जाने-शोरीदा काफी नहीं। और सिर्फ दीवानगी हो, इतना काफी
नहीं, कुछ और करना होगा। तुम्हें कुछ करना होगा। मैं तो करने
न करने के पार हुआ। जब तक तुम पार नहीं हो गए हो तब तक कुछ करो, अभयानंद।
चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफी
नहीं
सिर्फ मेरे प्रेम में तुम्हारी आंखें गीली हों और तुम सिर्फ मेरे
प्रेम में दीवाने और परवाने रहो, इतना काफी नहीं।
तोहमते-इश्के-पोशीदा
काफी नहीं
तुम्हारे प्रेम के कारण तुम पर बहुत बदनामी होगी, वह भी काफी नहीं।
आज बाजार में
पाबजौलां चलो
आज तो बाजार-बाजार में चलना होगा। शायद तुम्हारे पैरों में जंजीरें
डाल दी जाएं। शायद तुम्हारे हाथों में जंजीरें डाल दी जाएं। फिक्र न करना, जंजीरों को बजाते हुए चलना।
चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफी नहीं
तोहमते-इश्के-पोशीदा काफी नहीं
आज बाजार में
पाबजौलां चलो
आज हथकड़ियों और बेड़ियों को बजाते हुए भी चलना पड़े तो चलो।
दस्त-अफ्शां चलो...
जोर से बजाते हुए चलना हाथों को और पैरों को।
...मस्त-ओ-रक्सां चलो
उन्मत्त और नृत्य करते हुए चलना।
दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
खाक बर-सर चलो...
तुम्हारे ऊपर धूल फेंकी जाएगी, हजार लांछन लगेंगे,
कोई फिक्र न करना। सिर धूल से भर जाए तो चिंता मत करना।
खाक बर-सर चलो,
खूं-बदामा चलो
और तुम्हारे दामन पर तुम्हारा ही खून गिरेगा। अभी तो मैंने तुम्हारे
वस्त्रों को गैरिक से रंग दिया है--उसी तैयारी में कि आज नहीं कल, सच में ही ये वस्त्र खून से रंग जाएंगे। शुरुआत मैंने कर दी है। तुम्हें
इशारा दे दिया है। यह रंग यूं ही नहीं चुन लिया है।
दस्त-अफशां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
खाक बर-सर चलो, खूं-बदामां चलो
राह तकता है सब शहरे-जानां
चलो
और अब उस प्यारे की मंजिल की तरफ चलना है। राह देख रहा है वह।
राह तकता है
सब शहरे-जानां चलो
कब तक रुके रहोगे? प्रेयसी के नगर चलना है! प्रेमी
के नगर चलना है!
हाकिमे-शहर भी, मजमा-ए-आम भी
तीरे-इल्जाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुब्हे-नाशाद भी, रोजे-नाकाम भी
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बासिफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां
रहा कौन है
अब किसकी मरने की तैयारी है? अब कौन है इस योग्य
जिसकी गर्दन पर कातिल का खंजर पड़े! अब कौन है इस योग्य जो सरमद हो सके, मंसूर हो सके?
दस्ते-कातिल के शायां
रहा कौन है
अब तुम पर ही भरोसा है।
रख्ते-दिल बांध लो दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल
हो आएं यारो
चलो
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपका मिलन दादा चूहड़मल फूहड़मल से कब, कहां और कैसे हुआ? दादा के संबंध में कुछ और बताइए
न!
निर्मला,
बाई, काहे को दादा चूहड़मल फूहड़मल के पीछे पड़ी है! बेचारे
मरहूम हो गए, स्वर्गीय हो गए! फिर भी बचाव नहीं!
अब तू कहती है, कुछ और बताइए न! आपका मिलन कब और कहां और कैसे हुआ?
मिलन तो बड़ी अजीब परिस्थितियों में हुआ। मेरे पड़ोस में रहते थे सरदार
विचित्तर सिंह। उनके पास एक अलसेशियन कुत्ता था। नाम उन्होंने रखा था कुत्ते का:
रणजीत सिंह। मोहल्ले के लोग इतने डरते थे सरदार विचित्तर सिंह से कि रणजीत सिंह का
नाम कोई रणजीत सिंह नहीं ले सकता था। लोग कहते थे: हिज हाईनेस कैसे हैं! और
कुत्तों के नाम तो मैंने बहुत सुने हैं, कोई कहता टाईगर,
कोई कुछ, कोई कुछ। मगर विचित्तर सिंह ने नाम
बिलकुल ठीक रखा था। उनका कुत्ता एकाक्षी था, था भी रणजीत
सिंह।
इसी कुत्ते के कारण मेरा दादा चूहड़मल फूहड़मल से मिलन हुआ, इसलिए उससे ही कथा को शुरू करना पड़े। क्योंकि इसी रणजीत सिंह ने दादा
चूहड़मल फूहड़मल को काट लिया। काटा दादा चूहड़मल फूहड़मल को कि कुत्ता पागल हो गया। जब
मुझे खबर मिली कि रणजीत सिंह पागल हो गए, तो यह तो मैंने
बहुत बार सुना था कि कुत्ते के काटने से आदमी पागल हो जाए, मगर
कुत्ता पागल हो गया! मैंने कहा, यह साईं सिद्ध है! सत्संग
करना चाहिए।
और कुत्ता पागल ही न हुआ, कई चमत्कार हुए। उससे
ही दादा प्रसिद्ध हुए। यूं वे काम ऐसा करते थे कि उनकी प्रसिद्धि की कोई संभावना न
थी। जबलपुर में गुरंदी बाजार है, कबाड़ियों का बाजार। उसमें
दादा का अड्डा बीच में ही था। पहुंचे हुए कबाड़ी थे। पुरानी चीजें खरीदना, खास कर पुरानी रद्दी।
सो ऐसे तो मैं जाता था उनकी दुकान पर, क्योंकि उनकी दुकान
से मुझे कभी-कभी बड़ी कीमती पुरानी किताबें हाथ लग जाती थीं। सो उनकी रद्दी में मैं
पुरानी किताबें खोजने अक्सर जाता था। मगर यह मुझे खयाल न था कि वे जो खाट पर बैठे
हुए और हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे, वे कोई पहुंचे हुए साईं
हैं! मैं चूहड़मल फूहड़मल ही समझता था कि हैं, ठीक है। मगर जब
इस कुत्ते ने उन्हें काटा और विचित्तर सिंह ने कहा कि हद हो गई कि मेरा कुत्ता
पागल हो गया! और पागल ही नहीं हुआ, और-और चमत्कार हो रहे
हैं।
मैंने पूछा, क्या चमत्कार?
बोले, कुत्ता बोलने भी लगा है। अरे इतना ही नहीं, लिखने भी लगा है।
मैंने कहा, बिलकुल पागल हो गया। अब इसके बचने की कोई उम्मीद
नहीं।
मैं भी देखने गया कुत्ते को। कुत्ता बैठा खाट पर। दादा चूहड़मल को काटा
था, सो वह भी खाट पर बैठा था। और जल्दी-जल्दी कुछ लिख रहा था।
मैंने पूछा, हिज हाईनेस, क्या लिख रहे हो?
उसने कहा, फेहरिस्त बना रहा हूं कि अब मुझे किन-किन को काटना
है।
फेहरिस्त देखी तो मैं दंग हुआ। नंबर एक महात्मा गांधी, नंबर दो मोहम्मद अली जिन्ना, नंबर तीन पंडित
जवाहरलाल नेहरू। एकदम लिखे ही जा रहा है। मैंने पूछा कि अगर तुझे गुस्सा ही है तो
इन बेचारों ने तेरा क्या बिगाड़ा है? अगर लिखना ही है तो नंबर
एक लिख दादा चूहड़मल फूहड़मल।
अरे, उसने कहा कि भूल कर अब किसी सिंधी को नहीं काटूंगा।
एक ही बार काटने का तो यह फल भोग रहा हूं कि मेरा पतन हो गया, कुत्तों की जाति से बाहर गिर गया, आदमी हो गया।
तो मैंने कहा, इन्होंने तेरा क्या बिगाड़ा है? महात्मा
गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना और जवाहरलाल...?
उसने कहा कि इन्हीं दुष्टों के कारण तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा; न हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटता, न ये चूहड़मल फूहड़मल
आता। मेरी बरबादी का कारण ये ही हैं। तो इसके पहले कि मेरा होश खो जाए, मैं फेहरिस्त बना रहा हूं। मेरे रग-रेशे में एकदम सिंधी खून दौड़ रहा है।
बस मैं जैसे ही तैयार हुआ कि दिल्ली की तरफ जाता हूं और एक-एक को ठिकाने लगा
दूंगा।
वह तो बेचारा दिल्ली नहीं पहुंच पाया, रास्ते में मर गया।
इसलिए तो मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि यह कहावत है कि सिंधी और सांप अगर मिल
जाएं तो पहले सिंधी को मारना, क्योंकि सांप का काटा बच जाए,
सिंधी का काटा नहीं बचता। वह मर ही गया, दिल्ली
पहुंचा ही नहीं। मगर तब से मैं दादा चूहड़मल फूहड़मल के सत्संग में जाने लगा। यह
आदमी तो बड़ा पहुंचा हुआ है! ऐसे निर्मला, चूहड़मल फूहड़मल से
मेरा संबंध बना। फिर तो खूब घुटी, खूब गहरी बातें छनीं,
खूब गुफ्तगू हुई।
और तू कहती है, "उनके संबंध में कुछ और बताइए न!'
दादा चूहड़मल फूहड़मल कृष्ण-भक्त थे। रासलीला में उनका भरोसा था।
रासलीला ही करते थे। गोपिएं इकट्ठी होतीं। और बड़े यथार्थवादी थे। कोई ऐसे बातचीत
ही नहीं करते थे, रास हो ही जाता था। ऐसे ही एक गोपी से रासलीला करने
गए थे। गोपी कोई और नहीं, खट्टमल की पत्नी। डरे तो हुए थे
बहुत, क्योंकि खट्टमल भी कोई साधारण पुरुष नहीं। डरे-डरे गए
थे। झोला टांगे रहते थे हमेशा एक। उस झोले में रासलीला का सब सामान रखते थे। अरे
कब कहां मौका मिल जाए, कब कहां बात छिड़ जाए, मौके-बेमौके गोपी मिल जाए, और रासलीला छिड़ जाए,
सो एक पीतांबर, मोर-मुकुट, घूंघर वगैरह उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन में बने सब झूठे आभूषण, मतलब हीरे-जवाहरात, बांसुरी। मगर विधि से करते थे
रासलीला।
जब इस खट्टमल की पत्नी के यहां रासलीला करने गए तो बड़ी चोरी-छिपे गए।
रासलीला तो चोरी-छिपे होती है। इसके पहले कि रासलीला शुरू हो, उस स्त्री ने कहा कि सावधान, खट्टमल न आ जाएं! जरा
ही खटखट हो कि सम्हल जाना। इसीलिए उनका नाम खट्टमल है। बड़ी खटर-पटर करते आते हैं,
आधा मील दूर से उनकी खटर-पटर सुनाई पड़ना शुरू हो जाती है। सो जैसे
ही खट्ट-पट्ट हो कि तुम पीछे के दरवाजे से भाग खड़े होना। फिर यह मत देखना कि
रासलीला पूरी हुई कि नहीं हुई और यह सामान वगैरह ले जा सके कि नहीं। वह मैं बाद
में पहुंचा दूंगी। यह झोला भी छोड़ जाना यहीं बिस्तर के नीचे।
दादा बहुत घबड़ाए कि ये खट्टमल दूर से ही खट्ट-खट्ट करते हैं! खैर
उन्होंने कहा कोई बात नहीं। इसके पहले कि वे अपना मोर-मुकुट बांधें, उस गोपी ने कहा कि इस बकवास में न पड़ो, समय खराब न
करो, खट्टमल कभी भी आ सकते हैं। अरे तुम तो सीधी लीला शुरू
करो। भूमिका वगैरह की कोई जरूरत नहीं है। अब बांसुरी वगैरह बजाई और किसी ने सुन
ली! वे जमाने गए कि जब कृष्ण कन्हैया बांसुरी बजाए जा रहे हैं, बजाए जा रहे हैं, कोई सुन ही नहीं रहा। जंगली जानवर
तक चले आ रहे हैं, कोई सुन ही नहीं रहा। गोपियां चली आ रही
हैं निकल-निकल कर और गोप कोई बाधा नहीं डाल रहे। वह जमाना गया।
दादा बहुत घबड़ाए। घबड़ाहट में बोले कि भाई ठीक है, मगर बिना विधि-विधान के रासलीला! उसने कहा कि विधि-विधान कुल इतना है कि
यह लो। और एक निरोध उन्हें थमा दिया। इसका उपयोग अवश्य करिएगा--गोपी ने कहा--दादा,
वरना मुसीबत हो जाएगी।
दादा ने निरोध को उलट-पलट कर देखा और बोले, बाई, यह क्या है? हजारों दफे
रासलीला कर चुका, यह चीज तो शास्त्रों में लिखी ही नहीं। ऐसा
तो सुना है कि ऋषि-मुनि नियोग का उपयोग करते थे, मगर निरोध
का!
नियोग कहते थे, ऋषि-मुनियों के पास जब कोई स्त्री चली जाए और उनसे
प्रार्थना करे कि मुझे बाल-बच्चा नहीं होता, तो वे बाल-बच्चा
पैदा करवा देते थे। उसका नाम नियोग था। ऋषि-मुनियों का काम वही था जो सांड़ों का
काम होता है। अरे समाज पालता है तो उपयोग भी लेगा। मुफ्त खिलाएगा तो कुछ काम में
भी लगाएगा। कोई निठल्ले थोड़े ही बैठे रहने देगा। हर गांव में सांड छोड़ देते हैं एक,
शिव जी का सांड, ऐसे ही ऋषि-मुनि, उनसे नियोग का वर्णन है शास्त्रों में। नियोग का मतलब है कि कोई भी स्त्री
जाकर प्रार्थना कर सकती है। विधवा हो, पति बच्चे पैदा न कर
पाता हो या कोई और अड़चन आ गई हो...।
जैसे परशुराम ने काट डाले सब क्षत्रिय, तो फिर क्षत्रिय कहां
से आए? अठारह दफे काट डाले, फिर
क्षत्रिय कहां से आए? अरे नियोग की कला! ऋषि-मुनि प्रसन्न
हुए कि बिलकुल ठीक, काटो तुम। स्त्रियों को तो काट नहीं सकते
थे, वे भी जरा संकोच खाते थे स्त्रियों को काटने में,
पुरुष काट देते थे। स्त्रियों जाकर नियोग करवा कर फिर बच्चे पैदा कर
देती थीं। ऐसे ही तो क्षत्रियों की जगह खत्री रह गए। खत्री यानी नियोग से पैदा हुए
क्षत्रिय। क्योंकि अठारह दफे में तो क्षत्रिय तो और कहां से आते? क्षत्रिय तो खतम हो चुके थे।
सो दादा बोले, यह तो कुछ अशास्त्रीय बात मालूम होती है। यह कौन-सी
भूमिका? यह फुग्गे जैसी चीज, यह है
क्या? अरे मैं बांसुरी बजाऊं कि फुग्गा फूंकूं?
गोपी बहुत नाराज हुई कि दादा, तुम्हें कुछ पता नहीं
है। तुम सतयुगी रासलीला कर रहे हो, अरे कलियुगी करो। हमेशा
समय के अनुकूल होना चाहिए।
मगर वे बोले कि बाई, तू बता तो, इसका करूं क्या? कुछ विस्तार से बता।
बाई ने कहा, विस्तार से नहीं बता सकती। खट्टमल न आ जाएं।
तभी एक चूहे ने खटर-पटर की। दादा बोले, खट्टमल आए क्या?
स्त्री ने कहा, खट्टमल ऐसे नहीं आते चूहों की तरह। वे आते हैं सिंह
की तरह दहाड़ते हुए। दादा सब रासलीला भूल जाओगे, जल्दी करो।
तभी कुछ लड़के बाहर गिल्ली-डंडा खेलने लगे, खटर-खटर की आवाज हुई। दादा फिर बोले, खट्टमल आ रहे
हैं मालूम होता है।
अरे, उस स्त्री ने कहा, तुम बकवास
छोड़ो, खट्टमल आएंगे तो मैं तुम्हें बताऊंगी, तुम क्या पहचानोगे? खट्टमल कोई ऐसे आते हैं
गिल्ली-डंडे के खेलते हुए। अरे जब आएंगे तो जैसे तूफान आ रहा हो। वे भी सिद्ध
पुरुष हैं। वे भी लीला करने गए हैं, आते ही होंगे। यहां दो
फुग्गे थे, एक वे ले गए, एक यह बचा।
उसने कहा, विस्तार से मैं कुछ नहीं बता सकती। संक्षिप्त सार
इतना है, शास्त्रों में वर्णन हो या न हो, मुझे कुछ मतलब नहीं। उस स्त्री ने अपने अंगूठे पर फुग्गे को चढ़ा कर बता
दिया कि इस तरह चढ़ाओ।
दादा बोले कि ठीक है भाई, अगर रासलीला आधुनिक
इसी तरह की होनी है तो इसी तरह की हो। और तत्काल स्त्री ने बिजली बुझा दी। दादा को
फिर हैरानी हुई कि शास्त्रों में कहीं उल्लेख ही नहीं है, किस
तरह की रासलीला हो रही है! पहले तो फुग्गा पकड़ा दिया, अब
बिजली बुझा दी। कृष्ण भगवान ने बहुत रासलीला की, न कोई बिजली
बुझाने का उल्लेख आता, न कुछ। अरे खुलेआम, झाड़ के नीचे, कदंब के वृक्ष के तले, आम्रकुंज में मोर नाच रहे, कोयलें गा रहीं, और लीला चल रही! और यह कैसी लीला है अंधेरे में!
कोई तरह टटोल कर लीला शुरू हुई। लीला अधूरी ही थी कि वह स्त्री बोली
कि दादा, ऐसा लग रहा है निरोध खिसक गया। जरा देखना। नहीं तो
बाद में मुसीबत हो जाएगी। दादा को गुस्सा आ गया। बोले, हद हो
गई, निरोध, निरोध, निरोध! यह क्या बार-बार मुसीबत लगा रखी है? बरी! अरे
मैं कोई ऐसा-वैसा साईं हूं कि क्या जो निरोध को खिसक जाने दूं?
दादा ने अपने हाथ का अंगूठा दिखाते हुए कहा, यह देख, जैसा तूने बताया था बिलकुल वैसा ही चढ़ा हुआ
है।
ऐसे पहुंचे सिद्ध पुरुष थे! अब तू पूछती है, उनके संबंध में कुछ विस्तार से बताइए!
मियां जुम्मन ने एक बार प्रतियोगिता रखी कि जो भी व्यक्ति उनके बकरे
के साथ एक घंटे तक कमरे में ठहरेगा उसे वे एक हजार रुपया इनाम देंगे। प्रतियोगिता
में भाग लेने की फीस सौ रुपए थी। बड़े-बड़े महारथी प्रतियोगिता में भाग लेने आए, जिनमें मटकानाथ ब्रह्मचारी, अखंडानंद, मुक्तानंद, ढब्बू जी, चंदूलाल;
उन्हीं में दादा चूहड़मल फूहड़मल भी गए।
मटकानाथ और ढब्बू जी तो क्रमशः एक के बाद एक बकरे के कमरे के बाहर
एकदम भाग खड़े हुए। पांच-सात मिनट भी न रुक सके, ऐसी भयंकर बदबू थी उस
बकरे में। जुम्मन मियां का बकरा बड़ा जाहिर बकरा था। उसके बाद चंदूलाल मारवाड़ी का
नंबर आया, चंदूलाल लेकिन आधा घंटे तक रुका। किसी तरह सांस
उसने बंद रखी, प्राणायाम साधा। अरे बड़ा योगी आदमी! लेकिन वह
भी आधा घंटे के बाद सह न सका और बाहर निकल आया। फिर दादा गए। उन्हें भी बकरे के
कमरे में भेजा गया। उन्होंने जाते से ही कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। अभी पांच-दस
मिनट ही हुए होंगे कि दरवाजे पर अंदर जोर-जोर से धक्का लगने लगा। दरवाजा खोला गया।
जुम्मन मियां ने विजयी भाव से दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही जुम्मन मियां का बकरा
उन्हें चारों खाने चित करता हुआ कमरे के बाहर भाग गया।
प्रतियोगिता के इस आश्चर्यजनक मोड़ के कारण दादा को विजयी घोषित किया
गया। और इनाम के एक हजार रुपए लेकर दादा प्रसन्न घर लौटे। उस दिन के बाद जुम्मन
मियां का बकरा आज तक लापता है। और उस दिन के बाद से उस गांव में इस तरह की कोई
प्रतियोगिता नहीं हुई।
आज इतना ही।
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