राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
अनुशासन नहीं—स्वतंत्रता-प्रवचन-नौवां
1—अतीत के बुद्धों ने सोए हुए लोगों के लिए भी
कुछ अनुशासन बताए, जो अब समय-बाह्य हो गए हैं। उनके लिए आप क्या अनुशासन
देंगे?
2—अशनाया वै पात्मामतिः। अर्थात भूख ही सब पापों
की जड़ है, वही बुद्धि को भ्रष्ट करती है।
एतरेय ब्राह्मण के इस सूत्र को समझने वाले लोग
दरिद्रता को कब और क्यों आदर देने लगे?
पहला प्रश्न: भगवान,
हम सोए हुए लोगों के लिए आप प्रज्ञापुरुषों का
शायद एक ही उदघोष है: बहुत सो चुके, जागो। लेकिन सभी तो
एक साथ नहीं जाग सकते। मुश्किल से लाखों लोगों में कोई एक जागता है। इसलिए अतीत के
बुद्धों ने सोए हुए लोगों के लिए भी कुछ अनुशासन बताए, जो अब
समय-बाह्य हो गए हैं। उनके लिए आप क्या अनुशासन देंगे?
वसंत लाहिरी,
अनुशासन स्वयं ही समय-बाह्य हो गया है। अनुशासन की भाषा ही सड़ी-गली
भाषा हो गई है। अनुशासन का अर्थ ही है: कोई दूसरा तुम्हें राह बताए, कोई दूसरा तुम्हारा हाथ थामे, कोई दूसरा तुम्हारा
उत्तरदायित्व अपने कंधों पर ले। और यही तो कारण है कि लाखों में कोई एक जाग सका।
जैसे ही कोई और तुम्हारी जवाबदारी ले लेता है, जैसे ही कोई
और तुम्हारे हाथ को थाम लेता है, वैसे ही तुम्हें जागने की
कोई जरूरत नहीं रह जाती।
जैसे कोई किसी छोटे बच्चे को सम्हाले ही रहे--इस डर से कि कहीं चलेगा
तो गिर न जाए, कहीं चोट न खा जाए--तो फिर वह छोटा बच्चा अपंग ही रह
जाएगा। चलने के लिए आवश्यक है गिरना भी। चलने के लिए जरूरी है भूल-चूक करना भी।
भूल-चूक में कोई भूल-चूक नहीं है। भूल-चूक ही सीखने का एकमात्र रास्ता है।
अनुशासन तुम्हें भूल-चूक नहीं करने देता। वह तुम्हें जबरदस्ती भूल-चूक
करने से रोक लेता है--जबरदस्ती। मन तो होता है भीतर भूल-चूक करने का। लेकिन जो
आरोपित अनुशासन है, उसका जो भय है, उसका जो प्रलोभन
है, वह तुम्हारे पैरों में जंजीर बन जाता है। वह तुम्हारे
चारों तरफ एक कारागृह बन जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह प्रबुद्ध हो सकता है।
आखिर क्यों लाखों में एकाध ही व्यक्ति जागा? इस बात की गहराई में
जाना जरूरी है। लाखों में एकाध ही व्यक्ति इसलिए जागा कि लाखों में एकाध ही
व्यक्ति इतनी हिम्मत जुटा पाया कि अनुशासन के बंधन को तोड़ कर मुक्त जीवन जीने का
खतरा मोल ले। वह जुआरी का काम है। वह भूल-चूक करने की तैयारी है। वह इस बात की
घोषणा है कि भूल-चूक भी करूंगा तो भी उधार नहीं करूंगा, अपनी
करूंगा।
स्वयं का उत्तरदायित्व जो स्वीकार करता है वही जाग सकता है। और
अनुशासन उसमें ही बाधा बन जाता है।
इसलिए वसंत लाहिरी, मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं दे
सकता हूं। बहुत हो चुका अनुशासन, परिणाम क्या हुआ? लाखों पौधे लगाए कोई माली और कभी किसी एकाध पौधे में एकाध फूल खिल जाए,
यह कोई माली की गरिमा हुई? कोई गौरव हुआ?
यह कोई बगीचा हुआ?
हां, इससे उलटा हो तो क्षम्य है कि कोई एकाध पौधा कभी बिना
फूल के रह जाए और सारे पौधों पर फूल लद जाएं। सारे फूलों पर सुगंध उड़े, कोई एकाध फूल अगर सुगंधहीन भी रह जाए तो क्षमा योग्य है।
आदमी अब तक जिस ढंग से रहा है, वह ढंग क्षमा योग्य
नहीं है। और उसमें तुम्हारे बुद्ध पुरुषों का भी हाथ है। चूंकि उन्होंने अनुशासन
दिया...और मजा यह है कि उन्होंने स्वयं सत्य को पाया समस्त अनुशासन को छोड़ कर।
गौतम बुद्ध बुद्ध हुए, क्योंकि वे हिंदू
अनुशासन को स्वीकार नहीं किए। हिंदू घर में पैदा हुए। उचित तो यही था कि
पंडित-पुरोहितों की मान कर, मनुस्मृति के अनुसार जीते,
वेद का पठन-पाठन करते, मंत्रोच्चार करते,
हवनऱ्यज्ञ इत्यादि विधि-विधान करते। और जो बंधी हुई लकीर थी उसके
फकीर रहते। फिर वे भी बुद्ध न हो पाते। फिर वे भी वैसे ही बुद्धू रहते जैसे और
बुद्धू हैं। लेकिन उन्होंने अनुशासन छोड़ दिया। उन्होंने समाज के द्वारा आरोपित
नियम, विधान इनकार कर दिए। कहा कि सत्य को मैं स्वयं
जानूंगा। किसी के माध्यम से क्यों जानूं? और माध्यम से जो
सत्य जाना जाएगा, वह सत्य नहीं हो सकता; बासा होगा, उधार होगा।
किसी और ने मिठास ली और उसने तुम्हें खबर दी, इससे तुम्हें मिठास मिलने वाली नहीं है, उसका अनुभव
तुम्हें नहीं होगा। सिर्फ शब्द तुम्हारे हाथ रह जाएगा--मिठास। मगर शब्द मिठास में
क्या कोई मिठास है? शब्द तो कोरा है, शब्द
तो खाली है। उसमें कोई अनुभूति तो नहीं।
जिसने ईश्वर को जाना, जिसने उसे चखा, जिसने उसका रस पीया उसकी बात और ही है। और फिर उसने तुमसे कहा। उसके कहने
से रसधार तुम्हारे भीतर नहीं पहुंच जाएगी। उसके कहने से केवल शब्द तुम्हारे पास
इकट्ठे हो जाएंगे। प्यारे-प्यारे शब्द, सुंदर-सुंदर शब्द। पर
शब्द अंततः शब्द हैं। उनको निचोड़ो तो कुछ भी न निकलेगा। न कोई रस, न कोई स्वाद, न कोई आनंद, न
कोई उत्सव। और उन शब्दों को ही तुम ढोते रहोगे।
और जिस भांति किसी एक व्यक्ति ने सत्य को जाना है, कोई दूसरा व्यक्ति उसी भांति सत्य को कभी नहीं जानेगा। क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति अद्वितीय है। अनुशासन संभव कैसे है? बुद्ध ने जिस
ढंग से जाना, फिर इन ढाई हजार वर्षों में लाखों-लाखों लोगों
ने उसी ढंग से जीने की कोशिश की है, मगर कितने बुद्ध हुए?
ढंग में थोड़े ही बात होती है। उधार ढंग केवल नकलची पैदा करता है;
ज्यादा से ज्यादा कुशल अभिनेता पैदा करता है।
बौद्ध भिक्षु हैं--ये कुशल अभिनेता हैं। ठीक बुद्ध जैसे वस्त्र पहनते
हैं। बुद्ध जिस कंधे को उघाड़ा रखते थे उसी कंधे को उघाड़ा रखते हैं। चादर जिस कंधे
पर डालते थे उसी कंधे पर डालते हैं। जिस ढंग से बैठते थे उसी ढंग से बैठते हैं, उसी ढंग से उठते हैं। मगर क्या सत्य का इस तरह कोई अनुभव कर सकता है?
क्या सत्य का कोई भी संबंध है कि किस कंधे को ढांका और किस कंधे को
उघाड़ा छोड़ा? बुद्ध जो भोजन करते थे वही भोजन करते हैं। जब
भोजन करते थे तभी भोजन करते हैं। ठीक वैसा ही भिक्षापात्र रखते हैं। मगर यह सब नकल,
यह सब रामलीला, यह सब नाटक किसी काम नहीं आता।
एक प्रवंचना पैदा होती है।
जैन मुनि ठीक महावीर के ढंग से उठता है, बैठता है, चलता है। मगर फिर कोई महावीर पैदा क्यों नहीं होता? लाखों
महावीर पैदा होने चाहिए थे। और इन जैन मुनियों को देख कर तुम्हें महावीर पर भी शक
पैदा होगा कि महावीर भी कभी हुए! इनकी कतार देख कर महावीर के जीवन को कोई बल नहीं
मिलता, बल्कि महावीर का जीवन कपोल-कल्पित मालूम होने लगता
है। क्योंकि इनके जीवन में वह किरण तो दिखाई पड़ती नहीं। अगर महावीर की बात मान कर
कोई भी उस किरण को उपलब्ध नहीं होता तो शक स्वाभाविक है, संदेह
बिलकुल संगत है कि पता नहीं महावीर भी उपलब्ध हुए थे या नहीं!
अनुशासन तो उधार होगा। और फिर सोए हुए लोगों के लिए तुम कहते हो, वसंत लाहिरी, तुम्हारे प्रश्न में ऐसा लगता है कि
तुम अपने को सोए हुए लोगों में नहीं गिन रहे हो। तुम अपने को तो अलग रख रहे हो। ये
बेचारे सोए हुए लोग, इनके लिए अनुशासन की जरूरत है।
इन सोए हुए लोगों को किसने सोया हुआ रखा है? इनकी नींद का आधार क्या है? जिंदगी जगाने को काफी है,
मगर अनुशासन का जहर नहीं जागने देता।
जीसस जागे; यहूदी घर में पैदा हुए, लेकिन
यहूदी अनुशासन को नहीं माना। मोहम्मद जागे, क्योंकि जो
मोहम्मद की परंपरा थी उसको इनकार किया। अब तक वही जागा है जिसने परंपरा को इनकार
किया है; जो परंपरा से मुक्त हुआ है; जिसने
स्वच्छंद गीत गाया है; जिसने अपने स्वयं के छंद का उदघोष
किया है। जागना अनिवार्य रूप से वैयक्तिक घटना है।
लेकिन तुम्हें फिक्र है सोए हुए लोगों की। तुम्हें इस बात की जरा भी
चिंता नहीं है कि ये सोए क्यों हैं! ये इसीलिए सोए हैं कि हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, यहूदी
हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं। अगर कुछ इनको
चाहिए तो बगावत चाहिए, क्रांति चाहिए, अनुशासन
नहीं; विद्रोह चाहिए।
फिर, इनको अनुशासन भी दे दो, अगर ये
सोए हुए हैं तो ये तुम्हारे अनुशासन को भी तो अपनी नींद की भाषा में ही समझेंगे।
ये तुम्हारे अनुशासन का अनुवाद भी तो अपनी नींद की भाषा में ही करेंगे।
महावीर नग्न हुए। सोए हुए लोगों ने देखा कि महावीर नग्न हुए और उनकी
सोई हुई दुनिया में महावीर की नग्नता उन्हें ऐसी आभासी कि नग्न होने से सत्य पाया
जाता है।
अब नग्न होने से सत्य पाने का कोई भी संबंध नहीं है। सारे पशु-पक्षी
नग्न हैं। सभी बच्चे नग्न पैदा होते हैं। तब तो सभी बच्चे सत्य को उपलब्ध ही हैं।
महावीर नग्न होकर सत्य को उपलब्ध नहीं हुए। महावीर सत्य को उपलब्ध हुए
और नग्नता सहज सत्य की छाया की तरह आई। नग्नता केवल उनकी निर्दोषता का उदघोष है।
वे छोटे बच्चे की भांति सरल हो गए। छिपाने को कुछ भी न रहा। वस्त्र भी व्यर्थ
मालूम पड़े।
वस्त्र छिपाने का उपाय है। वस्त्र ढांक रहे हैं तुम्हें। नग्न होने
में तुम्हें डर लगेगा। क्योंकि वस्त्रों ने बहुत सी बातों को छिपा रखा है, जो नग्न होते ही प्रकट हो जाएंगी।
वस्त्रों में ढंके हुए तुम रास्ते से गुजरते हो अपनी पत्नी के साथ और
एक सुंदर स्त्री को देखते हो। वस्त्रों में ढंके हो, इसलिए पत्नी को पता
नहीं चलता कि तुम्हारे भीतर क्या हो रहा है। अगर नंग-धड़ंग पत्नी के साथ चल रहे हो
और सुंदर स्त्री दिखाई पड़ जाए तो शरीर ही खबर दे देगा। वहीं रास्ते पर पत्नी
तुम्हारी कुटाई-पिटाई कर देगी। और आस-पास जो भीड़ इकट्ठी होगी, वह भी ऐसा मौका चूकेगी नहीं। और तुम इनकार भी न कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारा शरीर गवाही दे रहा होगा कि तुम्हारे भीतर क्या हो रहा
है।
वस्त्र ढांके हुए हैं। वस्त्र तुम्हारे पाखंड को छिपाए हुए हैं।
वस्त्रों का बड़ा सहारा है।
महावीर के पास जब कुछ छिपाने को न रहा, जब जीवन यूं सरल हो
गया जैसे छोटे बच्चे का जीवन, तो वस्त्र अपने से गिर गए। यह
तो महावीर के भीतर की घटना है कि सत्य पहले मिला, स्वानुभव
पहले हुआ, समाधि पहले घटी, वस्त्र बाद
में गिरे। मगर समाधि तो दिखाई पड़ती नहीं, वह तो अदृश्य है।
वस्त्रों का गिर जाना दृश्य है, वह दिखाई पड़ता है। सोए हुए
आदमियों ने गणित को उलटा बिठाया। उन्होंने सोचा: वस्त्रों के गिरने से, नग्न होने से सत्य की उपलब्धि। यह तर्क ही बदल गया। और यही सोए हुए लोग
अनुशासन बनाएंगे।
महावीर के संबंध में उल्लेख है कि महावीर बोले ही नहीं, महावीर मौन ही रहे, महावीर चुप ही रहे। चुप इसीलिए
रहे कि क्या कहो? किससे कहो? जो कहोगे
वही गलत समझा जाएगा।
लेकिन उनको यह पता नहीं था कि नहीं कहोगे तो भी गलत समझे जाओगे। कहो
या न कहो, गलत समझने को जो बैठा है वह गलत समझेगा ही। महावीर तो
नहीं बोले, लेकिन उनके पास पंडितों की एक कतार इकट्ठी हो
गई--उनके ग्यारह गणधर, ग्यारह ब्राह्मण पंडित। वे लोगों को
समझाने लगे कि महावीर जो बोलते हैं मौन-वाणी, वह हमारी समझ
में आती है, हम उनके संदेशवाहक हैं। और इन गणधरों ने सारा
अनुशासन तय कर दिया। और ये गणधर उतने ही सोए हुए हैं जितने कि तुम सोए हुए हो।
यह सारा अनुशासन सोए हुए लोग ही निर्धारित कर लेते हैं दूसरे सोए हुए
लोगों के लिए। न ये खुद समझ पाते हैं, न दूसरे समझ पाते
हैं। जाग्रत व्यक्ति के जीवन को समझने का इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि तुम भी
जाग जाओ। सोए-सोए तो तुम कुछ का कुछ समझोगे।
डाक्टर मरीज की पत्नी से बोला, क्षमा करें, आपके पति तो मर चुके हैं। और अब कुछ भी किया नहीं जा सकता है।
तभी मरीज बोल उठा, लेकिन डाक्टर साहब, मैं तो जिंदा हूं!
पत्नी बोली, लल्लू के पप्पा, हजार बार कहा,
बीच-बीच में न बोला करो। तुम चुप रहो! क्या तुम डाक्टर से भी ज्यादा
जानते हो?
स्वभावतः डाक्टर विशेषज्ञ है। ये लल्लू के पप्पा बीच में बोल रहे हैं।
शर्म नहीं, संकोच नहीं।
लोग क्या समझेंगे? वही समझेंगे न जो समझ सकते हैं।
पार्टी में एक व्यक्ति बहुत ही ज्यादा बकबक कर रहा था। चंदूलाल
मारवाड़ी बहुत परेशान थे। उन्होंने अपने मित्र मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, इस हरामजादे को देखो, कितनी बकवास लगा रखी है,
बोले ही चला जा रहा है! किसी और को तो बोलने का मौका ही नहीं दे रहा
है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, इसमें कुछ आश्चर्य की
बात नहीं, यह उसका खानदानी मर्ज है।
चंदूलाल ने पूछा, खानदानी मर्ज? मैं कुछ समझा नहीं।
तो मुल्ला नसरुद्दीन ने समझाया कि समझो! इसके परदादा एक महापंडित थे।
इसके दादा एक बड़े राजनेता थे। इसके पिता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। और इसकी
मां तो एक औरत है ही।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन जल्दी ही अपने दफ्तर पहुंच गया। उसने देखा कि
उसका चपरासी उसकी सुंदर टाइपिस्ट लड़की को चूम रहा है। मुल्ला भनभना उठा। गुस्से
में बोला कि क्या मैंने तुम्हें इसीलिए नौकरी पर रखा है, क्या इसी की तनख्वाह देता हूं?
चपरासी बोला, नहीं मालिक, नहीं हुजूर,
यह काम तो मैं निःशुल्क ही कर देता हूं।
डाक्टर ने मरीज को सलाह दी कि वह कुछ दिन तक हलका-फुलका काम करे। फिर
पूछा, वैसे तुम काम क्या करते हो जी?
मरीज ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना? घरों में
सेंध लगाता हूं। कोई बात नहीं लेकिन डाक्टर साहब, कुछ दिन
जेब काट कर ही काम चला लूंगा।
हलका-फुलका काम ही करेंगे, सेंध न लगाएंगे,
जेब काटेंगे!
अनुशासन तो दे दोगे तुम, लेकिन अनुशासन समझेगा
कौन? अनुशासन रूपांतरित हो जाएगा सोए हुए आदमी तक
पहुंचते-पहुंचते।
आस्कर वाइल्ड का नाटक पहली ही रात फेल हो गया। दूसरे दिन उसके मित्रों
ने पूछा, कहो यार, कल तुम्हारा नाटक कैसा
रहा?
आस्कर वाइल्ड ने जवाब दिया, नाटक बेहद सफल रहा,
लेकिन देखने वाले फेल हो गए।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि कल मेरे साथ शराबघर में बड़ी
बदतमीजी हुई। उन लोगों ने मुझे धक्का देकर पीछे के दरवाजे से बाहर निकाल दिया।
मैंने पूछा, फिर तुमने क्या किया?
उसने कहा कि मैंने उन लोगों को बताया कि मैं शहर के एक प्रतिष्ठित
परिवार का व्यक्ति हूं, इस तरह अशोभन व्यवहार मेरे साथ मत करो। नहीं तो पीछे
पछताओगे। मैं इसका बदला चुकाऊंगा।
तो मैंने पूछा, अच्छा, फिर क्या हुआ?
नसरुद्दीन प्रसन्नता से बोला, फिर उन लोगों ने मुझे
अंदर ले लिया और खूब धक्के मारे और सामने के दरवाजे से बाहर निकाल दिया।
प्रतिष्ठित परिवार के व्यक्ति हो, पीछे के दरवाजे से
निकालना अशोभन, तो सामने के दरवाजे से! मगर धक्के तो वही,
धक्कों में कोई फर्क न पड़ेगा! तुम्हें अनुशासन दिए गए, लेकिन तुमने हर अनुशासन में तरकीब निकाल ली।
बुद्ध के जीवन में यह प्रसिद्ध उल्लेख है--बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को
कहा था कि कभी भी भिक्षा मांगते समय कोई मांग न करना कि मुझे यह चाहिए।
महावीर ने भी अपने साधुओं को, साध्वियों को कहा था
कि कभी भिक्षा मांगते हुए जबान न खोलना, कि मुझे यह दो,
मुझे वह दो। तो जैन मुनि जबान नहीं खोलता, हाथ
से इशारा करता है। सब भोजन सजा कर रख दिया जाता है। जैन श्रावक कहते हैं: पधारो,
धन्य भाग हमारे। और फिर मुनि इशारा करता है। स्वभावतः इशारा कोई
रूखी-सूखी रोटी की तरफ नहीं करता। इशारा करता है--रसमलाई, चमचम,
संदेश, गुलाब जामुन। अंगुली से इशारा करता है,
जबान नहीं खोलता। जबान तो खोलने के लिए मनाही कर दी है।
अब तुम यह मत सोचो कि महावीर यह भी कह देते अगर कि अंगुली भी मत उठाना, तो आंख से ही इशारा हो सकता था। कोई अंगुली उठाने की भी जरूरत है? जरा आंख गड़ा कर देख दिया गुलाब जामुन की तरफ, बात
खतम हो गई!
बुद्ध ने भी अपने भिक्षुओं को कहा था, मांगना मत कुछ,
क्योंकि पता नहीं जिससे तुम मांग रहे हो उसकी हैसियत भी है देने की
या नहीं। और तुम मांगो और मजबूरी में उसे देना पड़े, तो मजा न
रहा, बात में रस न रहा, बात बेहूदी हो
गई। इसलिए जो मिल जाए वह स्वीकार कर लेना।
एक दिन यूं हुआ कि एक भिक्षु अपने भिक्षापात्र में भिक्षा लेकर लौट
रहा था कि एक चील आकाश में उड़ती होगी, उसके मुंह से मांस का
एक टुकड़ा छूटा और उसके भिक्षापात्र में गिर गया। बुद्ध ने कहा था, जो भिक्षापात्र में आ जाए उसे स्वीकार कर लेना। अब भिक्षु को सवाल उठा कि
यह मांस का टुकड़ा भिक्षापात्र में आया, मैंने तो मांगा नहीं।
इसे स्वीकार करना कि नहीं करना? लेकिन स्थिति ऐसी थी कि
बुद्ध ने इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा था, इसलिए उसने उचित
समझा कि निवेदन कर दे। भिक्षु-संघ में उसने निवेदन किया कि मैं क्या करूं? आपके अनुसार, जो भी भिक्षापात्र में पड़ जाए, वह स्वीकार कर लेना चाहिए। आप मांसाहार के विरोध में हैं। लोगों को पता है,
इसलिए कोई मांस हमारे भिक्षापात्रों में डालता नहीं। लेकिन यह चील
मांस का टुकड़ा डाल गई है।
बुद्ध ने कहा था, जो भिक्षापात्र में आ जाए उसे
अस्वीकार मत करना। क्योंकि आदमी की होशियारियां बहुत हैं। अगर उसे अस्वीकार करने
का मौका हो तो जो-जो उसे पसंद नहीं है, या जो-जो साधारण है,
छोड़ देगा; और जो-जो उसके स्वाद के अनुकूल है,
उसे रुचिकर है, वह ग्रहण कर लेगा। इसलिए जो
मिल जाए।
बुद्ध थोड़े सोच-विचार में पड़े कि क्या करना। थोड़ी देर आंख बंद किए
रहे। फिर उन्होंने सोचा कि चील कोई रोज ही थोड़े हर किसी के भिक्षापात्र में मांस
डालेगी। यह तो बिलकुल अपवाद स्वरूप है। इसलिए अगर मैं यह कहूं कि इसे इनकार कर दो, तो वह जो मौलिक नियम है उसमें बाधा पड़ जाएगी, फिर
लोग बाद में इनकार करने के सिलसिले पर चल पड़ेंगे।
तो उन्होंने कहा, कोई फिक्र न करो। चील कोई
रोज-रोज किसी के भिक्षापात्र में मांस डालने वाली नहीं है। इसलिए जो पड़ गया
तुम्हारे भिक्षापात्र में, स्वीकार कर लो। तुमने हिंसा नहीं
की है, तुमने मारा नहीं, तुमने मांगा
नहीं। कोई हर्ज नहीं। यह छोटा सा टुकड़ा मांस का अगर अंगीकार भी कर लिया तो कोई हर्ज
नहीं।
मगर इस छोटी सी घटना के कारण सारे बौद्ध दुनिया के मांसाहारी हो गए।
यह सोए हुए लोगों को दिए गए अनुशासन का परिणाम होता है। सारे दुनिया के बौद्ध
मांसाहारी हो गए--इस छोटी सी घटना से। जिसको बुद्ध ने समझा था अपवाद, वह नियम हो गया। चीन में, जापान में, कोरिया में, जहां बौद्ध धर्म का प्रचार है, वहां हर होटल पर, जैसे यहां भारत में लिखा रहता है
कि यहां शुद्ध घी की मिठाइयां मिलती हैं, ऐसे वहां लिखा रहता
है कि यहां अपने आप मर गए जानवर का मांस मिलता है। अपने आप मर गए!
इतने जानवर कैसे अपने आप रोज मरते हैं, यह भी चकित करने वाली
बात है। करोड़ों लोगों के लिए भोजन जुटा जाते हैं अपने आप मर कर। और मजा यह है कि
चीन, जापान या कोरिया में फिर बूचड़खाने किसलिए हैं? जब अपने आप ही सब मर-मर के बौद्धों के लिए मांसाहार जुटा देते हैं,
तो ये बूचड़खाने किसके लिए हैं? क्योंकि
बौद्धों के अतिरिक्त इन देशों में कोई रहता ही नहीं। ये विराट बूचड़खाने भी चल रहे
हैं। रोज जानवर मारे जा रहे हैं। लेकिन अपने आप मर गए जानवर का मांसाहार करने में
कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि मारने में हिंसा है, मारो मत।
उस भिक्षु को कहा कि तुमने मारा नहीं, चील ने भी मारा नहीं,
क्योंकि चील किसको मारेगी? मरे हुए किसी जानवर
के मांस का टुकड़ा ले उड़ी होगी। अब जो मर ही गया है, उसके
मांसाहार को कर लेने में क्या पाप है? पाप तो मारने में है,
किसी का जीवन छीनने में है। इसमें किसी का जीवन नहीं छिन रहा है। तू
यह मांस का टुकड़ा स्वीकार कर ले।
बुद्ध की आकांक्षा यह थी कि इस तरह अपवाद अपवाद ही रहेगा। मगर बुद्ध
की इच्छा और बुद्धुओं की समझ में जमीन-आसमान का फर्क होता है। वह अपवाद ही नियम बन
गया। आज मजे से बौद्ध भिक्षु मांसाहार करते हैं, कोई अड़चन नहीं,
कोई कठिनाई नहीं।
अनुशासन तो दिया जा सकता है, वसंत लाहिरी, पर अनुशासन का अनुवाद कौन करेगा? तुम्हारी निद्रा
में ही अनुवाद होगा, तुम उसे अपने अनुकूल ही बना लोगे। तुम
अपने हिसाब से ही, अपने उपयोग के लिए ही, तुम अपनी नींद के समर्थन के लिए ही सारे अनुशासन का उपयोग कर लोगे।
तुम कहते हो कि अतीत के बुद्धों ने सोए हुए लोगों के लिए भी अनुशासन
बताए।
अगर बताए तो उन्होंने गलती की। नहीं बताने थे। उनकी गलती जाहिर है।
सारी दुनिया अनुशासनबद्ध मालूम होती है। और सारी दुनिया पाखंडी है।
जीसस ने नियम दिया है अपने अनुयायियों को कि कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा
मारे तो दूसरा गाल उसके सामने कर देना।
प्यारा अनुशासन हुआ! सुंदर सूत्र हुआ!
एक ईसाई फकीर चर्च में प्रवचन दिया इसी सूत्र पर, और बड़ा सारगर्भित प्रवचन दिया। एक नास्तिक भी सुन रहा था प्रवचन। उसने
कहा--सोचा मन में--क्यों न प्रयोग करके देख लिया जाए। जैसे ही सभा समाप्त हुई,
वह गया और उसने फकीर के गाल पर एक चांटा लगाया। फकीर ने तत्क्षण
दूसरा गाल उसके सामने कर दिया। थोड़ा हैरान हुआ वह आदमी। लेकिन था वह भी नास्तिक।
अगर फकीर अड़ा था अपनी ईसाइयत पर तो वह भी अड़ा था अपनी नास्तिकता पर। उसने दूसरे
गाल पर और भी कस कर चांटा जड़ दिया। जैसे ही दूसरे गाल पर चांटा जड़ा कि फकीर एकदम
से झपट कर उसके ऊपर टूट पड़ा और उसकी ऐसी पिटाई की कि उसकी पसलियां टूट गईं। वह
चिल्लाए भी कि अरे भाई यह क्या कर रहे हो? अभी तुम क्या समझा
रहे थे? मगर फकीर ने पहले तो उसकी धुनाई की। जब उसकी बिलकुल
ही हड्डी-पसली तोड़ डाली, तब भी वह आदमी बोला कि यह तो मुझे
बताओ, तुमने अभी प्रवचन में क्या कहा?
फकीर ने कहा, प्रवचन में जो कहा, उसका
अनुशासन मैंने पालन भी किया। जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे,
दूसरा उसके सामने कर देना। तीसरे की तो कोई बात ही नहीं है। तीसरा
गाल है भी नहीं। दो तक उनका नियम था, उसके बाद मैं स्वतंत्र
हूं। दो तक मैंने बराबर उनके नियम का अनुसरण किया। उसके आगे उन्होंने कुछ कहा भी
नहीं है। उसके आगे तो प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है।
जीसस के जीवन में यह उल्लेख है कि एक व्यक्ति ने पूछा कि आप कहते हैं
क्षमा कर दो, दुश्मन को भी क्षमा कर दो। कितनी बार?
जीसस ने कहा, सात बार क्षमा करो।
उस आदमी ने कहा, अच्छी बात है!
जिस ढंग से उसने कहा अच्छी बात है, जीसस को लगा कि यह
आदमी आठवीं बार सातों बार का बदला ले लेगा। कहते हैं न--लाख सुनार की और एक लुहार
की। सुनार खट-खट, खट-खट, छोटी सी हथौड़ी,
बारीक नाजुक काम। और लुहार का तो एक ही हथौड़ा काफी है।
तो जीसस ने कहा, नहीं, सात
बार नहीं, सतहत्तर बार।
उस आदमी ने कहा, कोई बात नहीं। सतहत्तर बार भी
सही।
आदमी अजीब है। सतहत्तर बार भी क्षमा कर सकते हैं। लेकिन आखिर सतहत्तर की
भी सीमा तो आएगी। आखिर अठहत्तरवां मौका तो आएगा। देर सही, थोड़ी अबेर सही। लेकिन आखिर में असली आदमी तो प्रकट होगा ही होगा। असली
आदमी कहां जाएगा।
यह असली आदमी अगर सोया हुआ है, तो तुम इसे कोई भी
नियम दे दो, यह उन नियमों को अपनी नींद में ढाल लेगा। वे
नियम इसकी नींद को तोड़ने में सहयोगी नहीं होंगे, इसकी नींद
को मजबूत करेंगे। इसलिए मैं कोई भी अनुशासन नहीं दे रहा हूं।
तुम कहते हो: "अतीत में बुद्धों ने सोए हुए लोगों के लिए अनुशासन
बताए थे, जो अब समय-बाह्य हो गए हैं। उनके लिए आप क्या अनुशासन
देंगे?'
मैं तो अनुशासन को ही समय-बाह्य मानता हूं। अनुशासन मात्र तिथि-बाह्य
हो गया है। देख चुके अतीत में इतना कि क्या परिणाम होता है, अब और नहीं।
अब तो मैं एक ही बात कहता हूं: जागो। तुम्हारे पूरे जीवन को एक ही
सूत्र पर निर्धारित करना है--जागने पर। फिर जागने से तुम्हारे जीवन में अनुशासन
आएगा। मगर वह आएगा तुम्हारे भीतर से, मेरा दिया हुआ नहीं
होगा। और जब अनुशासन स्वयं के जीवन में उठता है स्वस्फूर्त, तो
उसका सौंदर्य और, उसकी सुगंध और, उसका
आनंद और। उससे गुलामी पैदा नहीं होती। उससे स्वतंत्रता पैदा होती है। उससे तुम
जंजीरों में नहीं जकड़ जाते। उससे तुम कारागृह में नहीं पड़ जाते।
और ये सब कारागृह हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख--ये सब कारागृह बन गए। नानक का यह
इरादा न था। कबीर का यह इरादा न था। बुद्ध का यह इरादा न था। जीसस का यह इरादा न
था। मोहम्मद का यह इरादा न था। जरथुस्त्र का यह इरादा न था। मगर इरादे का सवाल
नहीं है। इरादे तुम्हारे अच्छे हों, लेकिन सोए हुए लोग
तुम्हारे इरादों को समझ सकेंगे? उन तक पहुंचते-पहुंचते बात
बिलकुल विकृत हो जाती है। वे उसमें से ऐसे अर्थ निकाल लेंगे और ऐसी तरकीबें निकाल
लेंगे, जिनकी तुम्हें कल्पना भी नहीं होगी। और तुम कितना ही
इंतजाम बिठाओ...।
बौद्ध शास्त्रों में तैंतीस हजार नियम दिए गए हैं। तैंतीस हजार नियम!
याद भी रखना मुश्किल। हर छोटी बात के लिए नियम दिया है। और उस छोटी बात से तुम
कहीं निकल कर भाग न जाओ, इसलिए कोई भी रंध्र नहीं छोड़ी है। तो हर रंध्र को
भरने के लिए भी नियम दिया है। फिर भी निकलने वाले निकल गए। फिर भी निकलने वाले
उपाय खोज लेते हैं।
मैं एक जैन घर में मेहमान था। पर्युषण के दिन थे। जैन शास्त्र कहते
हैं, पर्युषण के दिनों में--जैनों का धार्मिक उत्सव;
व्रत, नियम, साधना का
समय--हरी सब्जी मत खाना। क्योंकि जैन धारणा में वृक्ष में भी जीवन है, जो कि अब वैज्ञानिक सत्य भी है। जगदीशचंद्र बसु की खोजों ने इस बात को
वैज्ञानिक आधार दे दिया है। और जगदीशचंद्र ने जहां तक बात पहुंचाई थी, उनके बाद इन पचास-साठ सालों में बात और भी आगे पहुंच गई।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि पौधों में इतनी संवेदनशीलता है जिसकी तुम
कल्पना ही नहीं कर सकते। वैज्ञानिक कहते हैं कि जब तुम कुल्हाड़ी लेकर किसी पौधे को
काटने जाते हो, अभी तुमने पौधे को काटना शुरू नहीं किया, तुम सिर्फ कुल्हाड़ी लेकर बगीचे में प्रविष्ट हुए हो, और वह पौधा कंप उठता है। जैसे कि तुम्हारे मन के विचार का भी उस पर परिणाम
होता है। उसके कंपन को नापने के अब तो वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो गए हैं। जैसे कि
तुम्हारा कार्डियोग्राम लिया जाता है, जो तुम्हारे हृदय की
धड़कन नापता है--ठीक वैसे ही यंत्र निर्मित हो गए हैं, जो
वृक्ष पर लगा दिए जाते हैं और वृक्ष के नीचे कार्डियोग्राम बनने लगता है, ग्राफ बनने लगता है कि वृक्ष की संवेदना क्या है। वृक्ष आनंदित है,
दुखी है, परेशान है, चिंतित
है, भयभीत है, प्रफुल्लित है, इस सबके अलग-अलग ग्राफ बनते हैं। अभी कुल्हाड़ी लिए हुए लकड़हारा भीतर नहीं
आया था, एक ग्राफ बन रहा था, जो बड़ा
लययुक्त था, संगीतपूर्ण था। और जैसे ही कुल्हाड़ी लिए हुए वह
आदमी प्रविष्ट हुआ, जिस वृक्ष को काटने का उसका इरादा है
उसका सिर्फ ग्राफ बदलता है। बाकी वृक्षों के ग्राफ अभी भी वही बनते हैं जो पहले बन
रहे थे।
इसका तो अर्थ यह हुआ कि विचार भी संप्रेषित हो रहा है, वृक्ष विचार को भी पहचान रहा है। इस आदमी के इरादे अभी इसने जाहिर भी नहीं
किए, शायद इसने किसी को कहा भी न हो, यह
अपने मन में ही सोच रहा हो कि फलां वृक्ष काटना है, उसी को
काटने की नीयत लेकर आया हो, वही वृक्ष तत्क्षण भयातुर हो जाएगा।
उसका ग्राफ डांवाडोल हो जाएगा।
वृक्षों में जीवन है और अति संवेदनशील जीवन है। वृक्ष भलीभांति समझ
पाते हैं कि कौन उन्हें प्रेम करता है, कौन उन्हें घृणा करता
है; कौन उनका दुश्मन है, कौन उनका
मित्र है। माली को देखकर प्रफुल्लित हो जाते हैं। कवि को देखकर आह्लादित हो जाते
हैं। चित्रकार को देखकर नाचने लगते हैं, डोलने लगते हैं,
मस्त हो जाते हैं; जैसे किसी ने शराब पिला दी
हो, यूं मदमस्त हो जाते हैं!
महावीर ने कहा कि जहां तक बने वृक्षों को चोट मत पहुंचाना। इसीलिए
जैनों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी, क्योंकि खेती-बाड़ी करोगे तो
वृक्ष तो काटने ही होंगे। पौधे काटने होंगे, फसल काटनी होगी।
जैन अनिवार्य रूप से व्यवसायी हो गए, उसका कारण यह नियम था।
लेकिन महावीर ने न सोचा होगा कि परिणाम यह होने वाला है। क्षत्रिय तो हो नहीं सकते
थे।
महावीर खुद क्षत्रिय थे। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय थे।
इसलिए जो लोग महावीर और जैनों के तीर्थंकरों के पास पहली बार इकट्ठे हुए थे उनमें
अधिकतम लोग क्षत्रिय थे। यह क्षत्रियों की ही बगावत थी ब्राह्मणों के शोषण के
प्रति। लेकिन अब तलवार तो उठा नहीं सकते थे, क्योंकि तलवार में
हिंसा होगी। इसलिए क्षत्रिय होने का उपाय तो बंद हो गया। खेती-बाड़ी कर नहीं सकते
थे, क्योंकि इसमें हिंसा होगी। ब्राह्मणों से बगावत की थी,
इसलिए यज्ञ-हवन-कुंड, ये तो कर नहीं सकते थे,
क्योंकि यही तो उनका बुनियादी विद्रोह था। शूद्र होने को कोई राजी न
था। चमार तो हो नहीं सकते थे, क्योंकि चमार का धंधा ही चमड़े
का था। मरे हुए जानवरों को ढोना, उनका मांस निकालना, उनका चमड़ा अलग करना, यह संभव न था। और कौन भंगी होना
चाहे! तो एक ही विकल्प बचा--व्यवसाय का। इसलिए सारे जैन व्यवसायी हो गए।
माना कि उन्होंने वृक्षों की हिंसा बंद कर दी और आदमियों को काटना बंद
कर दिया। मगर आदमियों का खून चूसना शुरू कर दिया। सूक्ष्म उपाय खोजे--ब्याज और
चक्रवृद्धि ब्याज। यूं स्थूल हिंसा बंद हुई--यह अनुशासन का परिणाम हुआ--और सूक्ष्म
हिंसा शुरू हो गई। तो जैनों ने जितना धन इकट्ठा कर लिया उतना धन कोई भी इकट्ठा
नहीं कर पाया इस देश में।
मैं एक जैन घर में मेहमान था। पर्युषण के दिन मैंने देखा कि उनकी
थालियों में केले हैं। मैंने पूछा कि यह क्या? पर्युषण में केले!
उन्होंने कहा, यह तो हरी सब्जी नहीं है, केला
तो पीला है।
तुम देखते हो तरकीबें सोए हुए आदमी की! महावीर का हरे से मतलब था कि जो
वृक्ष से तोड़ा गया है, अभी-अभी तोड़ा गया है। और महावीर का गैर-हरे से मतलब
था कि जो वृक्ष से पक कर अपने आप गिरा है। जो अपने आप गिरा है, वृक्ष से पक कर गिरा है, वह अंगीकार किया जा सकता
है। लेकिन हरे का उन्होंने मतलब रंग ले लिया। ऐसा सोया हुआ आदमी अपनी तरकीबें
निकालता है।
तुम कितने ही नियम दो, इसमें कुछ फर्क न
होगा। यूं समझो कि सोया हुआ आदमी अलार्म भर कर सोता है कि सुबह ब्रह्ममुहूर्त में
तीन बजे उठना है। और जब अलार्म बजता है तो सोया हुआ आदमी एक सपना देखता है कि
मंदिर में गया है--धार्मिक सपना--मंदिर में गया है, मंदिर की
घंटी बज रही हैं। अलार्म की घंटी बज रही है। सपना देखता है: मंदिर की घंटियां बज
रही हैं, क्या प्यारी घंटियां बज रही हैं। भाव-विभोर होकर
सुनता रहता है।
अब अलार्म कोई सदा के लिए तो बजता नहीं रहेगा। थोड़ी देर तक बजेगा।
सोया हुआ आदमी, अपनी नींद में, अलार्म की घंटी
को भी बदल लिया, रूपांतरित कर लिया। उसने उसे मंदिर की सुंदर
घंटियों में बदल दिया। और जब मंदिर की घंटियां शांत हो गईं तो मंदिर की घंटियों का
सुखद नाद उसे और गहरी नींद में ले जाएगा। लोरी बन गई। अलार्म की घड़ी लोरी बन गई।
नींद और गहरी लग जाएगी। एक करवट और लेगा, कंबल को और खींच
लेगा, शांति से सो जाएगा। और बड़े आनंद भाव से सो जाएगा कि
अहा! क्या सुंदर धार्मिक सपना देखा! मंदिर देखा, भगवान कृष्ण
देखे! क्या बांसुरी बजा रहे थे! मीरा नाच रही थी! क्या घुंघरुओं का नाच हो रहा था!
नींद में आदमी रूपांतरित करेगा।
इसलिए मैं अनुशासन देने में उत्सुक नहीं हूं। मैं तो सिर्फ जगाने में
उत्सुक हूं। ध्यान जागने की प्रक्रिया है; ध्यान अनुशासन नहीं
है। समाधि जाग्रत अवस्था का दूसरा नाम है--परिपूर्ण जागृति का। निश्चित ही फिर
समाधि के उस उत्तुंग शिखर से हजार-हजार झरने बहते हैं। लेकिन वे झरने तुम्हारे
हैं। और जब कोई अनुशासन तुम्हारा अपना होता है तो स्वभावतः तुम्हारे जीवन में
पाखंड नहीं आता। कैसे आएगा पाखंड? जब दूसरा नियम देता है तो
पाखंड आता है। क्योंकि दूसरा नियम जो देगा वह अपने अनुसार देगा। तुम दूसरे जैसे
नहीं हो। तुम सिर्फ अपने जैसे हो। तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति कभी नहीं रहा।
जैसे दूसरों के जूते तुम पहनोगे तो अड़चन आएगी। कभी ढीले, चलोगे तो चलना मुश्किल। कभी चुस्त, इतने चुस्त कि
प्राण निकाल डालें। और उधार जूते। दूसरे के पैर जिन जूतों में जम गए थे, उस दूसरे आदमी के पैरों ने जूतों के भीतर की आकृति भी बदल दी। तुम्हारे
पैर की आकृति और। तुम्हारे पैर को ये जूते कष्ट देंगे।
उधार कपड़े पहनोगे, झंझट खड़ी होगी। कभी बहुत चुस्त
होंगे, यूं लगेगा कि फांसी लग गई। कभी बहुत ढीले होंगे,
यूं लगेगा कि भिखमंगे हो गए। मगर यह बहुत असंभव है कि तुम्हें ठीक-ठीक
कपड़े मिल जाएं, जो दूसरे के हैं। और फिर कितने ही ठीक क्यों
न हों, उधार होंगे, गंदे भी होंगे,
फटे-पुराने भी होंगे, जराजीर्ण भी होंगे।
तुम दूसरों के जूते पहनना पसंद नहीं करते। तुम दूसरों के कपड़े पहनना
भी पसंद नहीं करते। जब तुम शरीर के संबंध में इतनी स्वतंत्रता बरतते हो तो तुमने
आत्मा को इतना भी मूल्य नहीं दिया? शरीर से भी गई-बीती
समझा है? आत्मा के संबंध में तुम दूसरों के जूते पहनने को
राजी हो और दूसरों के कपड़े पहने को राजी हो। आत्मा की महिमा तो समझो।
इसका कुल परिणाम इतना होता है कि एक पाखंड पैदा हो जाता है। तुम दूसरे
के नियम मान कर जीते हो, वह तुम्हारी ऊपर की सतह होती है। और भीतर तुम्हारा
असली स्वभाव होता है जो उसके विपरीत होता है। होगा ही विपरीत। उसके अनुकूल कभी
नहीं हो सकता। इन दोनों के बीच संघर्ष पैदा होगा।
एक मित्र ने पूछा है--मित्र का नाम है आशुतोष सदाचारी--भगवान, मैंने कुछ साल पहले बाबा कंठीवाले से गुरुमंत्र लिया था। उनके पास मैंने
आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। और उन्होंने मुझे बार-बार चेताया था कि मैं कभी
किसी पराई स्त्री का विचार न करूं; और तो और अपनी पत्नी को
भी अपनी मां के समान समझूं। अब कंठीवाले बाबा तो स्वर्ग सिधार गए और मेरी साधना
अभी अधूरी है, इसलिए मैं आपके पास आया हूं। क्या आप मुझे
अपनी साधना पूरी करने में सहायता देंगे? मेरे लिए तो बस
ब्रह्मचर्य ही जीवन का संबल है।
अब आशुतोष सदाचारी मुश्किल में पड़े। और कंठीवाले बाबा फांसी लगा गए।
वे बार-बार चेता गए इनको कि कभी किसी पराई स्त्री का विचार न करना।
पहली तो बात यह है कि स्त्री को पराई और अपनी मानना ही बेहूदगी है।
स्त्री कोई वस्तु है कि अपनी और पराई? यह भाषा तो वस्तुओं
के संबंध में ठीक है। लेकिन स्त्री को तो वस्तु न बनाओ। लेकिन ये कंठीवाले बाबाओं
की परंपरा! ये हमेशा स्त्री को संपत्ति कहते रहे।
यह मूढ़ता जारी है। अभी भी बाप शादी करता है बेटी की तो कन्यादान करता
है। पुत्रदान नहीं करता, कन्यादान करता है। पुत्र का कैसे दान किया जाए! पुत्र
कोई संपत्ति थोड़े ही है! कन्या का दान किया जाता है। दान! न संकोच लगता लोगों को,
न शर्म आती, न अभद्रता दिखाई पड़ती है। पुराने
संस्कारों में जकड़े हुए हैं। वे सोचते हैं बड़े गजब का काम कर रहे हैं--कन्यादान कर
रहे हैं। लेकिन इस शब्द के भीतर ही स्त्री को संपत्ति समझ लिया: पराई स्त्री का
विचार न करो।
कंठीवाले बाबा को क्या पड़ी थी बार-बार चेताने की? ये जरूर पराई स्त्रियों का विचार करते रहे होंगे। नहीं तो पराई स्त्रियों
से इनको क्या लेना-देना? और बार-बार चेताना। मतलब इनको
गुदगुदी उठती ही रहती होगी। नहीं तो बार-बार किसलिए चेताएंगे? अरे, एकाध बार चेता देते, चलो
ठीक।
और यही नहीं, वे तुमसे यह भी कह गए कि अपनी पत्नी को भी अपनी मां
के समान समझो। फिर अपनी मां को क्या समझोगे? फिर बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई थी। तो वह बड़ा क्रोधित था। दुखी कम, क्रोधित ज्यादा। मैंने उससे पूछा कि पत्नी मर गई, दुखित
होना समझ में आता है, क्रोधित क्यों हो भाई?
उसने कहा, क्रोधित इसलिए हूं कि ये सब मुहल्ले-पड़ोस वाले सब
लुच्चे हैं, सब लफंगे हैं। जब मेरी मां मरी, तो सब बुढ़िएं आईं और कहने लगीं--बेटा, चिंता न करो,
अरे हम तो हैं! हमको अपनी मां समझो। मेरी बहन मरी, सब हरामजादियां आईं कि कोई चिंता न करो भैया! अरे, हम
तो हैं! हम राखी बांधेंगी। और अब मेरी पत्नी मरी, कोई नहीं आ
रहा है। आज तीन दिन हो गए, एक औरत नहीं आती कि भैया, चिंता न करो, अरे हम तो हैं! क्रोध न आए तो क्या आए?
यह क्या पागलपन की बात है कि अपनी पत्नी को भी अपनी मां के समान समझो।
और पत्नी तुमको क्या समझे, पिता के समान समझे? बड़ी झंझट
खड़ी हो जाएगी। पत्नी तुम्हारी मां, तुम पत्नी के पिता। बड़ा
गजब का नाता हो गया!
अब ये कंठीवाले तुम्हें फंसा गए। और आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला
गए। खुद तो मर गए, तुम्हें भी मार गए।
और तुम इस भूल में मत रहना कि कंठीवाले बाबा स्वर्ग सिधार गए। ये नहीं
जा सकते स्वर्ग। ये अभी औरों के गले में फांसी लगा रहे होंगे कहीं और समझा रहे
होंगे, फिर चेता रहे होंगे, कि देखो
पराई स्त्री की तरफ मत देखना। ये इसी गोरखधंधे में रहेंगे। स्वर्ग वगैरह इनको कहां
मिलने वाला है! स्वर्ग कहीं यूं मिलता है? ये तुम्हारे लिए
नर्क खड़ा कर गए। खुद भी नर्क में जीए होंगे।
असल में दूसरे के द्वारा दिए गए अनुशासन भयंकर सिद्ध होते हैं।
ब्रह्मचर्य समाधि की सुगंध है। उस शब्द को ही समझो। उसका अर्थ है:
ब्रह्म जैसी चर्या। इसकी तुम कसम खा सकते हो? जब तक ब्रह्म का
अनुभव न हो तब तक ब्रह्मचर्य कैसे हो सकता है? यह अदभुत
प्यारा शब्द, लेकिन दुष्टों ने ऐसा खराब किया है। सुंदर से
सुंदर शब्द गलत लोगों के हाथ में पड़ कर विकृत हो जाते हैं।
ब्रह्मचर्य सीधा-सादा शब्द है--ब्रह्म जैसी चर्या। लेकिन इसका अर्थ
क्या हुआ? क्या कसम लेकर कोई ब्रह्म जैसी चर्या कर सकता है?
जब ब्रह्म का अनुभव ही न हो तो तुम कैसे ब्रह्म जैसी चर्या करोगे?
ब्रह्म अनुभव का तो पहली बात है, वह केंद्र
बनेगा, ब्रह्मानुभव, और फिर उसकी परिधि
पर ब्रह्मचर्य फैलेगा।
ब्रह्मचर्य की कसमें नहीं ली जा सकतीं। कसम का तो मतलब ही यह है कि
भीतर कामवासना भरी है, इसलिए तुम कसम ले रहे हो। तुम कसम क्यों ले रहे हो
ब्रह्मचर्य की? अगर तुम्हारे भीतर कामवासना समाप्त हो गई है
तो ब्रह्मचर्य की कसम क्यों लोगे?
जो आदमी शराब नहीं पीता वह कभी कसम भी नहीं लेता कि मैं शराब न
पीऊंगा। यह बात ही व्यर्थ है, यह बात ही असंगत है। जो आदमी
तंबाकू नहीं खाता, वह आदमी कसम भी नहीं लेता कि मैं तंबाकू
का त्याग करता हूं। इसका कोई मानी ही न होगा। यह बात बेमानी हो जाएगी। तुम उसी बात
की तो कसम खाते हो जिसके विपरीत तुम लड़ रहे हो। कामवासना भीतर उद्दाम वेग ले रही
है। अब इसको दबाने के लिए तुम कसम खाते हो ब्रह्मचर्य की। दबा लोगे, मगर मुक्त न हो पाओगे। दमन से कोई कभी मुक्त नहीं होता।
और कंठीवाले बाबा तुम्हारी छाती पर बैठे हैं। वे चेता रहे हैं कि दबा!
बेटा और दबा! एकदम दबा दे! अपनी पत्नी को भी अपनी मां समझ!
और तुम इस तरह के जाल में पड़ जाओगे, तुम्हारे भीतर ऐसा
द्वैत खड़ा हो जाएगा कि तुम्हारे भीतर दबी हुई वासना तुम्हारे रग-रेशे में प्रवेश
कर जाएगी, तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाएगी। तुम्हारे सपनों
में पराई स्त्रियां आएंगी, जिनको तुम त्याग किए बैठे हो। सच
तो यह है कि पराई स्त्रियों का तुम त्याग ही क्यों कर रहे हो? वे तुम्हारी हैं ही नहीं। यह भी खूब मजे की बात हुई!
पूर्णिमा की रात दो अफीमची एक वृक्ष के नीचे लेटे थे। और एक अफीमची ने
कहा, अहा! अगर एक करोड़ रुपया भी कोई मांगता हो तो मैं देने
को राजी हूं, मगर यह चांद खरीद कर रहूंगा।
दूसरे ने कहा, चुप रह रे! मुझे बेचना ही नहीं। एक करोड़ क्या,
तू दस करोड़ भी दे, जब बेचना ही नहीं!
चांद किसी का भी नहीं है, खरीद-फरोख्त हो रही
है। पराई स्त्रियों का त्याग कर रहे हो! देखना ही नहीं। यह घबड़ाहट, यह भय, कोई साधना है?
आशुतोष! और तुम अगर यहां आए हो कि मैं तुम्हारी इस साधना में सहयोगी
बनूं तो तुम गलत जगह आ गए। हां, अगर तुम्हें सच में ही साधना में
उतरना है तो ये मूर्खताएं छोड़नी पड़ेंगी। यह मूर्खता तुम्हें किसी ने भी दी हो। इस
देश में कंठीवाले बाबाओं की कोई कमी नहीं है। एक से एक बुद्धू यहां बाबा बने बैठे
हैं। यहां बाबा बन कर बैठना इतना आसान है जिसका हिसाब नहीं। कुछ अकल नहीं चाहिए।
अकल जैसी चीज की कोई जरूरत ही नहीं है। सिर्फ बुद्धूपन चाहिए। जितना सघन बुद्धूपन
हो उतने ही पहुंचे हुए परमहंस तुम हो जाओगे। अगर तुम में थोड़ी बुद्धि हो तो इस तरह
के जालों में तुम पड़ोगे नहीं। ये सस्ती बातें हैं--व्रत ले लेना, नियम ले लेना, कसम खा लेनी, फिर
कसम में बंध जाना। यह सिर्फ अहंकार का पोषण है।
अब तुम कह रहे हो: "मेरे लिए तो बस ब्रह्मचर्य ही जीवन का संबल
है।'
अभी तुमने ब्रह्मचर्य जाना कहां? कसम खाई है। जाना
कहां, पहचाना कहां? अगर ब्रह्मचर्य को
ही जान लेते तो अब साधना में कमी क्या रह गई जो तुम यहां आए? अगर ब्रह्मचर्या ही तुमने पहचान ली, अगर ब्रह्म का
ही अनुभव तुम्हारे भीतर उतर आया, अगर वह प्रकाश घट गया,
तो अब साधना में कमी क्या रह गई? न तो
ब्रह्मचर्य घटा है, न कोई साधना घटी है।
इसलिए पहली तो बात याद रख लो कि अगर तुम चाहते हो मेरे साथ साधना में
उतरना, तो तुमने जो भी बकवास सीख रखी हो, वह छोड़ देनी पड़ेगी। तुम्हारी साधना में मैं सहयोगी नहीं हो सकता। हां,
मैं तुम्हें साधना के सूत्र दे सकता हूं। और कठिन नहीं है मेरी
साधना। अत्यंत सुगम है और सरल है, सीधी-साफ है। दो और दो चार
जैसा स्पष्ट मेरा गणित है। लेकिन उसके लिए साहस करना होगा। उसके लिए साहस करना
होगा पुराने कूड़ा-कचरा को बिलकुल जला देने का। अगर तुम नये होकर मेरे पास आना चाहो
तो ही काम शुरू हो सकता है--कोरे कागज की तरह।
इसलिए मैं कहता हूं, वसंत लाहिरी, मैं कोई अनुशासन नहीं देता। मैं तो, अनुशासन जहां से
जन्मता है, उस समाधि के अनुभव की तरफ थोड़े से इशारे देता
हूं। वह भी इशारे। बहुत सख्त नहीं, बहुत कठोर
नहीं--लोचपूर्ण। क्योंकि सख्त इशारे भी बंधन बन जाएंगे। बहुत लोचपूर्ण कि प्रत्येक
व्यक्ति अपने अनुकूल अपने स्वभाव से मेल खा सके, इस ढंग से
यात्रा कर सके।
ध्यान के अतिरिक्त न कभी कोई मार्ग था, न है। हां, जरूर ध्यान के अनुभव से जीवन में क्रांति घटती है। मगर तब तुम अपने स्वयं
शास्ता होते हो। मैं तुम्हारा शास्ता नहीं हूं। मैं तुम्हें शासन नहीं दे रहा हूं।
यह शासन देने की धारणा भी, छिपे रूप में, आदमियों के ऊपर मालकियत करने की चेष्टा है। राजनेता भी इसी आकांक्षा से
भरा है कि शासन करे। और धर्मगुरु भी इसी आकांक्षा से भरा है कि शासन करे। दोनों
शासन करने को आतुर हैं।
मेरी कोई आकांक्षा तुम्हारे ऊपर शासन करने की नहीं है। मैं तो अपने
हृदय को तुम्हारे सामने खोल कर रख देता हूं। इसमें से अगर कोई बात तुम्हारी
हृदयत्तंत्री को छेड़ दे, इसमें से कोई घटना, कोई शब्द,
कोई मौन, कोई संकेत तुम्हारी नींद को तोड़ने का
कारण बन जाए, तो सत्संग सफल हुआ। फिर तुम अपने मार्ग पर
चलोगे, अपने ढंग से चलोगे।
मेरा प्रत्येक संन्यासी अपनी निजता में जीएगा। वह कोई कार्बन-कापी
नहीं है। मैं उसे स्वतंत्रता दे रहा हूं, अनुशासन नहीं। मैं
उसे स्वयं के छंद को गाने की सुविधा दे रहा हूं, कोई अनुशासन
नहीं। अनुशासन समय-बाह्य हो चुका, उसका अब कोई भविष्य नहीं
है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
अशनाया वै पात्मामतिः।
अर्थात भूख ही सब पापों की जड़ है। वही बुद्धि को
भ्रष्ट करती है।
भगवान, एतरेय ब्राह्मण के इस
सूत्र को समझने वाले लोग दरिद्रता को कब और क्यों आदर देने लगे?
मधुसूदन मिश्र,
यह सूत्र तो प्यारा है। इस सूत्र के साथ तो मैं पूरा-पूरा राजी हूं:
अशनाया वै पात्मामतिः। भूख, गरीबी, दरिद्रता--सब पापों की
जड़ है। और तुम्हारा प्रश्न सार्थक है कि कब यह सूत्र खो गया? और कब और कैसे लोग दरिद्रता को आदर देने लगे?
इस सूत्र के खो जाने के पीछे एक लंबा षडयंत्र है। इस षडयंत्र में
राजनीतिज्ञों और पुरोहितों की सांठ-गांठ है। पुरोहित का धंधा ही लोगों के पाप पर
है। अगर कोई पाप न करे तो पुरोहित के लिए कोई आधार नहीं बचता। इसलिए पुरोहित नहीं
चाहेगा कि दुनिया में लोग सुखी हों, आनंदित हों, समृद्ध हों। क्योंकि समृद्धि, आनंद और सुख उनके पाप
की संभावना को समाप्त कर देंगे। और पापी आदमी को ही डराया जा सकता है; नर्क का भय दिया जा सकता है, स्वर्ग का प्रलोभन दिया
जा सकता है। पापी आदमी को ही घबड़ाया जा सकता है। पापी आदमी को अपराध की ग्लानि
पैदा करवाई जा सकती है। उसी ग्लानि में इन पंडित-पुरोहितों के वह चरण छूता है।
इनके पैर पकड़ता है कि मुझे बचाओ, मुझे उबारो, इस पाप से मेरा छुटकारा दिलाओ! मैं क्या करूं, क्या
न करूं? पाप से बचने के लिए वह कंठीवाले बाबाओं के पास जाता
है कि मुझे मंत्र दो। कोई ऐसा मंत्र दो जो मेरे लिए सुरक्षा बन जाए, संबल बन जाए। कोई ऐसा व्रत दो, कोई ऐसा नियम दो,
कोई ऐसा अनुशासन दो जिससे कि मैं पाप से बच जाऊं।
और मुश्किल यह है कि पाप से वह बच न सकेगा जब तक दीन है और दरिद्र है।
मजबूरी है उसकी। वह लाख उपाय करे, वह किसी न किसी तरह के पाप में
फंसेगा ही।
लाओत्सु के जीवन में यह प्यारा उल्लेख है कि चीन के सम्राट ने उसे
महान बुद्धिमान समझ कर अपना प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। लाओत्सु ने बहुत
इनकार किया कि मेरा और आपका साथ बैठेगा नहीं। लेकिन सम्राट माना नहीं, जिद्दी था। उसने कहा, क्यों नहीं बैठेगा? तुम जैसा बुद्धिमान व्यक्ति ही सम्यक न्याय कर सकता है। लाओत्सु ने कहा,
जैसी मर्जी।
पहले ही दिन मामला बिगड़ गया। पहला ही निर्णय लाओत्सु ने दिया और
सम्राट ने कहा कि यह आदमी ठीक ही कहता था। इससे ताल-मेल बैठना मुश्किल है।
एक चोर रंगे हाथों पकड़ा गया। लाओत्सु ने सारी बात सुनी। प्रत्यक्ष
प्रमाण थे और चोर ने स्वयं अंगीकार भी कर लिया कि मैं चोर हूं और मैंने चोरी की है, और जो भी दंड आप देना चाहें जरूर दें। आपके सामने मैं झूठ नहीं बोल सकता।
कोई और होता तो बात और थी। लेकिन लाओत्सु जैसे बुद्ध पुरुष के सामने कैसे मैं झूठ
बोलूं? मैं स्वीकार करता हूं। तुम्हारे हाथ से दंड भी
सौभाग्य है।
लाओत्सु ने कहा कि तुझे छह महीने की सजा और जिसके घर में तूने चोरी की
उसको भी छह महीने की सजा।
जिसके घर में चोरी हुई थी वह आदमी तो एकदम हैरान हो गया। उसने कहा, यह तो हद हो गई! न कभी ऐसा न्याय सुना, न देखा। यह
तो अन्याय की आखिरी सीमा हो गई। मेरे घर चोरी हो और मुझे सजा मिले!
लाओत्सु ने कहा कि सच पूछो तो अन्याय जरूर हो रहा है। अन्याय यह हो
रहा है कि तुझे सजा ज्यादा मिलनी चाहिए। लेकिन मैं इधर नया-नया हूं। अभी शुरुआत ही
है काम की। छह महीने काफी नहीं है। तू अपना सौभाग्य मना कि तुझे उतनी ही सजा दे
रहा हूं जितनी चोर को। क्योंकि तेरा पाप ज्यादा बड़ा है। तूने इस सारे गांव के धन
को इकट्ठा कर लिया है। तूने सारे गांव को दरिद्र कर दिया है। और दरिद्र पाप न
करेंगे तो क्या करेंगे? चोरी न करेंगे तो क्या करेंगे? तू
इस सारे गांव के चोरों के लिए जिम्मेवार है। इस आदमी का कसूर बड़ा नहीं है कि इसने
चोरी की। तेरा कसूर बहुत बड़ा है, अनंत गुना बड़ा है। तू चोरी
के लिए मूल आधार जुटाया है। तू चोरों का गुरु है।
वह आदमी भागा हुआ सम्राट के पास गया। और उसने कहा, यह हद हो गई। और अगर यह आदमी मुझे चोरों का गुरु कह रहा है तो आप भी सावधान!
क्योंकि मेरी क्या बिसात आपके सामने! आप तो समझो गुरुघंटाल! अगर मुझे छह महीने की
सजा तो तुम्हें तो छह जन्म की सजा भी कम होगी।
बात सम्राट को भी समझ में आई कि यह तो बात खतरनाक है। लाओत्सु को उसी
क्षण विदा किया कि तुम ठीक कहते थे, मेरी गलती है।
लाओत्सु ने कहा, मैंने पहले ही तुम्हें सचेत किया था कि मैं
तो वही करूंगा जो सत्य है।
धर्मगुरु, पंडित-पुरोहित नहीं चाहेंगे कि पाप मिट जाए। एकदम
जरूरी है उनके अस्तित्व के लिए कि पाप जारी रहे। और पाप जारी रखना हो तो गरीबी
जारी रहनी चाहिए। इसलिए गरीबी को आदर देना शुरू किया गया। गरीबी को सम्मान देना
शुरू किया गया। जैसे गरीबी में कोई गौरव है! जैसे गरीबी में कोई गुणवत्ता है! और
राजनेता भी नहीं चाहता कि दुनिया से पाप और अपराध समाप्त हो जाएं। राजनीति भी मर
जाएगी उसी दिन जिस दिन पाप और अपराध समाप्त हो जाएंगे। पाप हैं तो राजनीति है।
अपराध हैं तो राजनीति है। युद्ध हैं तो राजनीति है। हिंसाएं हैं, आत्महत्याएं हैं, तो राजनीति है। चोरी और डाके
बिलकुल जरूरी हैं।
इसलिए न तो राजनेता इस पक्ष में हैं, न धर्मगुरु इस पक्ष
में हैं कि दुनिया से दरिद्रता मिटनी चाहिए। कार्ल माक्र्स का यह वक्तव्य बिलकुल
सही है कि धर्म ने लोगों के लिए करीब-करीब अफीम का काम किया है। लोगों को अफीम
देकर धर्म की सुलाए रखा गया है। न बगावत कर सकें, न दीनता
मिटा सकें, न दरिद्रता मिटा सकें। और हजार तरकीबें खोजी गईं
कि परमात्मा ने तुम्हारे भाग्य में गरीबी लिखी है। या कि पिछले जन्मों का कर्मफल
तुम भोग रहे हो। सांत्वना से, धैर्य से, संतोष से भोग लो तो अगले जन्म में बहुत सुख पाओगे। गरीब को सब तरह से,
गरीब बना रहे, इसके उपाय किए गए हैं। और इस
ढंग से उपाय किए जाते हैं कि लगता नहीं, समझ में नहीं आता,
पकड़ में नहीं आता। महात्मा गांधी जैसे लोग विज्ञान के विरोध में थे।
और कुल कारण विज्ञान के विरोध में होने का यही है कि विज्ञान लोगों की गरीबी मिटा
सकता है। और गरीबी मिट जाए तो सब महात्मागिरी भी मिटती है। गरीबी संबल है सब
महात्मागिरी का। गरीबी मिट सकती है, गरीबी के मिटने में कोई
अड़चन नहीं है। लेकिन गरीबी को मिटने नहीं देना है, बचाए रखना
है।
इथोपिया के सम्राट हेल सिलासी के जीवन में यह उल्लेख है और महत्वपूर्ण
उल्लेख है कि इथोपिया में लोग भयंकर बीमारियों से ग्रस्त थे। और बीमारियों का कुल
कारण इतना था कि इथोपिया के लोग, बरसात में गङ्ढों में रास्तों के
किनारे जो पानी भर जाता है, उसको पीते हैं। वह गंदा पानी
होता है। उस पानी में सब तरह के कीटाणु होते हैं।
यू एन ओ ने चिकित्सकों का एक दल अध्ययन के लिए भेजा कि क्यों इथोपिया
में इतनी बीमारियों से लोग ग्रसित हैं। और उसने अपनी रिपोर्ट इथोपिया के सम्राट को
दी। और कहा कि बड़ी आसानी से बीमारियां मिटाई जा सकती हैं, सिर्फ लोगों को, पानी पीने की जो उनकी सदियों पुरानी
आदत है, उसे थोड़ा रोकना पड़ेगा। बेहतर कुएं बनाने पड़ेंगे या
पानी के जलाशय बनाने पड़ेंगे। बस पानी की व्यवस्था बदलनी है। ये लोग सड़कों के
किनारे गंदे डबरों में जो पानी इकट्ठा हो जाता है इसको पीना बंद कर दें तो यह सारी
बीमारी समाप्त हो सकती है। लोग स्वस्थ हो सकते हैं।
लेकिन हेल सिलासी ने कहा कि तुम्हारी बात सही होगी। लेकिन मैं यह करने
को राजी नहीं हूं। क्योंकि लोग जैसे ही स्वस्थ होंगे वैसे ही मेरे लिए उपद्रव खड़ा
होगा। न तो लोगों के स्वस्थ होने की जरूरत है, न शिक्षित होने की
जरूरत है। जैसे ही शिक्षित होते हैं, जैसे ही स्वस्थ होते
हैं, जैसे ही थोड़ा सा उनके जीवन में सुख आता है कि बस अड़चन
शुरू होती है, बगावत शुरू होती है, क्रांति
की बातें होने लगती हैं। मैं यह नहीं होने दूंगा।
और उसने नहीं होने दिया। लेकिन यह कब तक रुक सकती थी बात! आखिर जब
इथोपिया के लोगों को भी पता चलना शुरू हुआ कि हमारी बीमारी का असली कारण यह है, तो अंततः सिलासी को राजी होना पड़ा।
और जो उसने सोचा था वह सही साबित हुआ। जैसे ही लोग स्वस्थ हुए, और जैसे ही लोगों के लिए शिक्षा का उपाय हुआ, और
जैसे ही लोगों का बीमारी से जाल टूटा, वैसे ही बगावत हो गई।
वैसे ही हेल सिलासी को सिंहासन से उतार दिया गया। हेल सिलासी मजबूत से मजबूत
सम्राट था। लेकिन उसका सारा आधार बिखर गया। वह मरा एक कैदी की तरह।
हेल सिलासी की बात में सार्थकता है। ये सारे सत्ताधिकारी लोग, फिर चाहे वे धार्मिक सत्ताधिकारी हों और चाहे राजनीति के सत्ताधिकारी हों,
इनका सारा सत्ता का खेल, इनके अहंकार की
प्रतिष्ठा, इस बात में ही है कि लोग दीन हों, गरीब हों, अशिक्षित हों। ताकि लोग जैसे हैं उसको ही अंगीकार
कर सकें। इनके जीवन में कोई सूरज की किरण नहीं होनी चाहिए।
एतरेय ब्राह्मण का यह सूत्र बिलकुल ठीक कहता है। मगर न तो राजनेता
इससे राजी हैं, न धर्मगुरु राजी हैं।
अखिल भारतीय साधु समाज की मध्यस्थ सलाहकार समिति के अध्यक्ष श्री
गुलजारी लाल नंदा ने कहा है कि साधुओं को भौतिकवाद की ओर जा रहे लोगों में
आध्यात्मिक गुणों का विकास करना होगा। उन्हें एकांतवास से निकल कर महात्मा गांधी
के रामराज्य की स्थापना में सहयोग करना चाहिए।
भौतिकवाद के बिना समृद्धि नहीं हो सकती। भौतिकवाद के बिना एतरेय
ब्राह्मण का यह सूत्र पूरा नहीं हो सकता। दरिद्रता रहेगी। अब गुलजारी लाल नंदा जो
कह रहे हैं, इनका नाम रख दो: गुलजारी लाल अंधा। इन अंधे लोगों को
यह दिखाई भी नहीं पड़ता कि सदियों से यही बकवास लगा रखी है कि आध्यात्मिक गुणों का
विकास करना होगा। लोग भूखे मर रहे हैं। लोगों के पेट में रोटी नहीं है। और ये उनके
आध्यात्मिक गुणों का विकास करना चाहते हैं। ये भरे पेट लोग रामधुन करने में लगे
हैं। ये सोचते हैं कि इनके भरे पेट हैं तो सभी के भरे पेट हैं।
इस देश में नब्बे प्रतिशत लोग भूखे हैं। पचास प्रतिशत तो बिलकुल ही
भूखे हैं। इनमें आध्यात्मिक गुणों का विकास करवाना है। ये कहीं भौतिकवाद की तरफ न
चले जाएं, इससे गुलजारी लाल अंधा को बड़ी तकलीफ हो रही है। और
क्यों तकलीफ हो रही है गुलजारी लाल अंधा को? क्योंकि धंधा
खतरे में है। और आध्यात्मिक गुणों का विकास तुम दस हजार सालों से कर रहे हो,
और कितना समय चाहिए? कुछ और भी होने दोगे कि
आध्यात्मिक गुणों का विकास! और गुलजारी लाल अंधा में कौन से आध्यात्मिक गुण हैं?
यह बड़े मजे की बात है! इस देश में राजनेता भाषणबाजी में बड़े कुशल हैं।
सारे देश को आध्यात्मिक गुण सिखाना चाहते हैं। और इनके जीवन में कोई देखे, तो ये निपट गुंडे हैं, और कुछ भी नहीं। लेकिन सत्ता
में हैं, सो इनको गुंडा नहीं कह सकते। इनको कहना पड़ता
है--दादा। मगर मतलब वही है। इनमें कौन से आध्यात्मिक गुण हैं? इनके भीतर सब तरह की चालबाजियां, सब तरह की
कूटनीतियां, सब तरह की बेईमानियां, जितनी
इनके भीतर हैं और किसी के भीतर नहीं। राजनीति का पूरा दांव-पेंच बेईमानी का है। यह
धंधा लुच्चों का है। इसमें कोई सच्चा आदमी तो टिक ही नहीं सकता, लुच्चा ही टिक सकता है।
मगर जब ये व्याख्यान देते हैं तो जनता ताली बजाती है। और जनता भी
भलीभांति इनको पहचानती है; तभी तक ताली बजाती है जब तक ये सत्ता में हों। जैसे
ही सत्ता के बाहर होते हैं, फिर कोई ताली वगैरह नहीं बजाता।
अभी कुछ दिन पहले मैंने एक खबर पढ़ी कि मोरारजी देसाई यात्रा करके बंबई
पहुंचे, कोई लेने ही नहीं आया। वे पुराने ही खयाल में होंगे।
यह उनको पता ही नहीं है कि अब तुम्हारी गिनती भूत-प्रेतों में है। भूतपूर्व मतलब
भूत-प्रेत। अब तुम्हें कौन लेने आने वाला है! और मजा यह कि उन्हें खयाल ही नहीं था
कि कोई लेने नहीं आएगा, सो उनके पास पैसे भी नहीं थे टैक्सी
के। टैक्सी में चलने का सोचा भी नहीं होगा। टैक्सी में जाना पड़ा, और वह भी किसी आदमी से पैसे उधार लेकर! क्योंकि टैक्सी वाला भी
भूत-प्रेतों को ऐसे नहीं बिठालता। राजनेता जो जा चुके, खतम
हो चुके, जिनकी अरथी निकल चुकी, उनसे
वह कहता है, भैया, पैसा पहले। और सबसे
बाद में ले लेगा। मगर इनसे बाद में क्या भरोसा, मिलें न
मिलें। टैक्सी वाले ने पैसे पहले लिए होंगे।
ये राजनेता आध्यात्मिक गुणों का विकास करवाना चाहते हैं! इनके खुद के
जीवन में कोई आध्यात्मिक गुण हैं? और ये पंडित-पुरोहित भी इसी
बकवास में लगे हैं कि लोग कहीं भौतिकवादी न हो जाएं। और इस देश को बड़ी से बड़ी
जरूरत इस बात की है कि यह भौतिकवादी हो।
मेरे हिसाब में भौतिकवाद में और अध्यात्म में कोई विरोध नहीं है।
भौतिकवाद आधारशिला है अध्यात्म की। तभी एतरेय ब्राह्मण का यह सूत्र सत्य हो सकता
है, अगर भौतिकवाद अध्यात्म की आधारशिला बने तो ही। अगर भौतिकवाद और अध्यात्म
में विरोध रहे तो यह सूत्र पूरा नहीं हो सकता।
और यही, मधुसूदन मिश्र, उपद्रव हुआ।
धर्मगुरु भौतिकवाद का विरोध करता रहा। और भौतिकवाद ही पेट भर सकता है, अध्यात्मवाद पेट नहीं भर सकता। वह अध्यात्मवाद की सामर्थ्य नहीं है। वह
तुम्हें आत्मा के जगत में प्रवेश दिला सकता है। लेकिन जब तक पेट न भरा हो तब तक
आत्मा के जगत में प्रवेश करने योग्य शक्ति भी कहां? सामर्थ्य
भी कहां? पैर ही डगमगा जाएंगे उस अनंत की यात्रा पर। भूखे
भजन न होहिं गोपाला। भजन भी नहीं हो सकता, भगवान से मिलना तो
बहुत दूर, भगवान हो जाना तो बहुत दूर, भगवत्ता
का अनुभव तो असंभव।
तो पंडितों ने, पुजारियों ने, राजनेताओं ने यह
षडयंत्र रचा हुआ है।
महामंडलेश्वर स्वामी सुमित्रानंद सरस्वती, गोवर्धनपुरी, यहां मौजूद हैं। उन्होंने पूछा है--
हिंदू धर्म दुनिया का सबसे पुराना धर्म है। उसकी धारा गंगा की भांति
अखंड और पवित्र है। हिंदू धर्म की छाती बड़ी है। अपनी परम उदारता के ही कारण हिंदू
धर्म ने अपने विरोधी जैन धर्म, बुद्ध धर्म और चार्वाकी धर्मों
को भी बड़ी सरलता से अपने में समा लिया है। आप और आपके संन्यासी हिंदू धर्म का चाहे
जितना विरोध करें, अंततः हिंदू धर्म की इस सनातन धारा में
सरलता से खो जाएंगे। क्या यह धर्म और मानवता के हित में न होगा कि आप और आपके
संन्यासी सारा विरोध त्याग कर हिंदू धर्म की सेवा में लगें और हिंदू धर्म को नया
जीवन, नये आयाम, नये विस्तार दें?
इन महामंडलेश्वर की बुद्धि पर थोड़ा विचार करो। पहली तो बात कहते हैं:
"हिंदू धर्म दुनिया का सबसे पुराना धर्म है।'
इसमें क्या गौरव है? मूढ़ता दुनिया में बहुत पुरानी
है। अज्ञान बहुत पुराना है, हिंदू धर्म से भी पुराना है। पाप
बहुत पुराना है। लोगों की नींद बहुत पुरानी है। पुराने होने से किसी चीज की कोई
महत्ता होती है? पुराना होना ही क्या पर्याप्त है किसी चीज
के महत्वपूर्ण होने के लिए? सच तो यह है कि जितना पुराना
उतना ही सड़ा, जितना पुराना उतना ही मुर्दा, जितना पुराना उतना ही खंडहर और जराजीर्ण।
और फिर यह दावा भी जरूरी नहीं है कि सच हो, क्योंकि जैनों का दावा है कि उनका धर्म सबसे ज्यादा पुराना है। और उनके
दावे के भी आधार हैं। ऋग्वेद में जैनों के प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख है। ऋग्वेद के
आधार पर ही हिंदू कहते हैं कि हिंदू धर्म सबसे पुराना है, क्योंकि
हमारा ऋग्वेद सबसे पुराना है। लेकिन ऋग्वेद में जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव का
बहुत सम्मान से उल्लेख है। इससे दो बातें तय होती हैं कि ऋग्वेद के समय जैन धर्म
प्रतिष्ठित था। ऋग्वेद जितना पुराना है जैन धर्म उतना पुराना है, इतना तो निश्चित ही है; थोड़ा ज्यादा पुराना हो सकता
है। क्योंकि जैसा लोगों का रिवाज है, जिंदा आदमी को आदर देना
लोगों की आदत नहीं। अगर ऋषभदेव जिंदा थे तो गालियां मिली होंगी, आदर नहीं मिल सकता था। ऋषभदेव को मरे हजारों साल हो जाने चाहिए, तभी ऋग्वेद में समादर से उल्लेख हो सकता है, नहीं तो
समादर से उल्लेख नहीं हो सकता। समादर से उल्लेख होने के लिए समय का अंतराल होना
चाहिए।
संभावना इस बात की है कि जैन धर्म हिंदू धर्म से ज्यादा पुराना है।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई ने भी यह सिद्ध किया है। क्योंकि हड़प्पा और
मोहनजोदड़ो में ऐसी मूर्तियां मिली हैं जो नग्न हैं। वे नग्न मूर्तियां इस बात की
प्रतीक हैं। उनका ढंग, उनकी शैली वही है जो महावीर की प्रतिमाओं की है,
जो जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की है। इस बात की संभावना है कि
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैन धर्म से आच्छादित थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में हिंदू धर्म
की कोई भी संभावना का सूत्र अब तक नहीं मिला है। हिंदू धर्म उतना पुराना नहीं है
जितना मोहनजोदड़ो और हड़प्पा। लेकिन जैन धर्म के प्रतीक मिले हैं। स्वास्तिक का
प्रतीक मिला है; वह जैन धर्म का प्रतीक है। और नग्न
प्रतिमाएं मिली हैं जो ठीक जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं से मेल खाती हैं।
लेकिन पुराने होने से क्या होता है? मोहनजोदड़ो अच्छा शब्द
है; इसका मतलब होता है--मुर्दों का ढेर। मुर्दों का ढेर है
जितना पुराना कोई धर्म हो।
जीवन सदा नया है। जीवन प्रतिपल नया है, नितनूतन है। इतना नया
है जैसे सुबह की ओस। इतना ताजा है जैसे सूरज की पहली-पहली किरण। इतना युवा है जैसे
अभी-अभी खिला हुआ गुलाब का फूल।
मुझे, महामंडलेश्वर स्वामी सुमित्रानंद सरस्वती, हिंदू धर्म को पुराना कह कर तुम प्रभावित न कर सकोगे। पुराने में मैं कोई
गरिमा नहीं देखता। पुराने का मतलब ही यह होता है कि अब वह समय के बाहर हो चुका,
जमाना जा चुका, उसका समय व्यतीत हो चुका। अब
तुम लाश को ढोए फिरो, यह और बात है। लेकिन लाश बदबू दे रही
है। तुम्हारी सारी धारणाएं तुम्हारी गुलामी, तुम्हारी दीनता,
तुम्हारी दरिद्रता का कारण हैं।
मधुसूदन मिश्र, इस तरह के महामंडलेश्वर कारण हैं, जिन्होंने एतरेय ब्राह्मण के उस अदभुत सूत्र को नष्ट कर दिया।
महामंडलेश्वर कहते हैं: "उसकी धारा गंगा की भांति अखंड और पवित्र
है।'
किसने कहा कि गंगा की धारा पवित्र है? गंगा से ज्यादा
अपवित्र इस पृथ्वी पर दूसरी कोई नदी नहीं है। मुर्दे फेंको, अधजले
मुर्दे फेंको, मुर्दे तैरते हैं। वैज्ञानिकों ने खोजबीन की
है और पाया है कि गंगा अत्यधिक अपवित्र है। और यूं भी, अगर
हिंदू कहते हैं उसमें कुछ सचाई है कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं, तुम्हारे धुल जाते होंगे, गंगा का क्या होता है?
धुल कर कहां जाएंगे? गंगा में ही तैरेंगे।
सदियों से हिंदू अपने पाप गंगा में धोते रहे। करोड़ों-अरबों लोगों ने पाप धोए,
गंगा की तो दुर्गति हो गई होगी। गंगा की भी तो कुछ सोचो। किस आधार
पर तुम कहते हो कि गंगा जैसा पवित्र? गंगा जैसा ही अपवित्र
है।
और तुम कहते हो: "हिंदू धर्म की छाती बड़ी है।'
गलती में हो। हिंदू धर्म की छाती बिलकुल बड़ी नहीं है। यह वहम, यह अहंकार छोड़ दो। कौन कहता है कि तुम बौद्ध धर्म को पचा पाए? हिंदुओं ने बौद्ध भिक्षुओं को जलाया जिंदा, बौद्ध
मठों को बर्बाद किया, बौद्ध मंदिर गिराए, बौद्ध मंदिरों पर कब्जा करके बैठ गए। बोधगया का मंदिर अब भी हिंदू
ब्राह्मण के कब्जे में है। मंदिर बुद्ध का, लेकिन महंत हिंदू
ब्राह्मण। और हिंदुस्तान से बौद्ध धर्म तिरोहित कैसे हुआ, अगर
तुम्हारी छाती बड़ी है? यह बुद्ध ने जो बिरवा रोपा था इस देश
में क्रांति का, अदभुत, यह कैसे
तिरोहित हुआ? सारा एशिया बौद्ध हो गया, सिर्फ हिंदुस्तान से बौद्ध समाप्त हो गए। सिर्फ हिंदू बौद्ध धर्म से वंचित
रह गए। छाती बड़ी? यह किसने तुम्हें वहम दे दिया? किसी गलत दर्पण के सामने खड़े होओगे। दर्पण होते न, जिसमें
आदमी की छाती बड़ी दिखाई पड़ती है। होती तो नहीं, मगर बड़ी
दिखाई पड़ती है।
तुम्हारे शंकराचार्यों ने क्या किया फिर, अगर तुम्हारी छाती बड़ी थी? तो बुद्ध को स्वीकार
क्यों नहीं किया? बुद्ध का खंडन क्यों? छाती बड़ी नहीं है।
और शंकराचार्य निपट चोर हैं, क्योंकि जो भी वे कह
रहे हैं वह वही है जो बुद्ध ने कहा था। सिर्फ शब्द बदल कर सिद्ध करने की कोशिश कर
रहे हैं कि यह सब हिंदू शास्त्रों में है। और ऐसा मैं नहीं कहता हूं, रामानुज ने भी कहा है कि शंकर जो हैं प्रच्छन्न बौद्ध हैं। निम्बार्क ने
भी कहा कि शंकर प्रच्छन्न बौद्ध हैं, छिपे हुए बौद्ध हैं।
लेकिन शंकराचार्य हिंदू धर्म के रक्षक बन कर बैठे हैं।
तुम्हारी छाती बड़ी है, इस भ्रांति को छोड़
दो। बुद्ध के संबंध में तुम्हारे पुराणों में जो कथाएं हैं, वे
कहती हैं कि छाती बड़ी नहीं है। तुम्हारी कथाएं कहती हैं कि जब परमात्मा ने स्वर्ग
और नर्क बनाए तो दुनिया में कोई पाप ही नहीं करता था। इसलिए नर्क खाली ही पड़ा था।
अंततः नर्क के शैतान ने और उसके शिष्यों ने, जो वहां खाली
हाथ बैठे थे, कोई न आए, न कोई जाए। रोज
बेचारे आग जलाते होंगे, कढ़ाहे चढ़ाते होंगे, और सांझ उतार लेते होंगे। आखिर थक गए, यह भी क्या
दुकान कि ग्राहक हैं ही नहीं। उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की। तो परमात्मा ने
कहा, फिक्र न करो। अब जब नर्क बनाया है तो नर्क में लोगों को
भेजने का उपाय भी मैं करूंगा। मैं बुद्ध के रूप में अवतरित होऊंगा। और उसके बाद
फिर कोई अड़चन न रहेगी नर्क में। मैं बुद्ध के रूप में प्रकट होकर लोगों को भ्रष्ट
करूंगा। उनको पाप सिखाऊंगा। उनको नर्क की तरफ भेजूंगा।
यह कहानी बड़ी छाती वाले लोगों ने गढ़ी? यह पुराण बड़ी छाती
वाले लोगों ने लिखा? बुद्ध के बाद नर्क में भीड़ है, कतारें लगी हैं! आज मरोगे तो आज ही प्रवेश न पा सकोगे, खयाल रखना! कई सदियों तक तुम्हें खड़े रहना पड़ेगा कतार में। तब से स्वर्ग
में भीड़-भाड़ ही नहीं है, सन्नाटा है।
यह तुमने बुद्ध के नाम सम्मान दिया! और तुमने छाती बड़ी होने की बात
कही। लेकिन तुम्हारा कोई शास्त्र महावीर का उल्लेख भी नहीं करता। महावीर जैसा
अदभुत व्यक्ति पैदा हो, और हिंदू शास्त्रों में उल्लेख भी नहीं! इस तरफ की
उपेक्षा! और छाती तुम्हारी बड़ी है!
यह भ्रांति छोड़ो। तुम्हारी छाती बड़ी इत्यादि कुछ भी नहीं है। किसी
धर्म की छाती बड़ी नहीं होती--हो नहीं सकती। क्योंकि धर्म सीमा बनाता है। और धर्म पक्षपात
से भरता है। उन्हीं पक्षपातों से तुम भी भरे हुए हो।
तुम कह रहे हो: "अपनी परम उदारता के कारण ही हिंदू धर्म ने अपने
विरोधी जैन धर्म, बुद्ध धर्म और चार्वाकी धर्मों को भी बड़ी सरलता से
अपने में समा लिया है।'
जरा भी नहीं समाया। जैन धर्म आज भी अलग धर्म है। बुद्ध धर्म आज भी अलग
धर्म है। तुम क्या खाक बुद्धों को और जैनों को अपनी छाती में समाओगे! तुम अपनों को
नहीं समा पा रहे, तुम्हारे शूद्र तुम्हारे भीतर नहीं समा पा रहे,
तुम किसी और को क्या समाओगे?
और तुम कहते हो: "आप और आपके संन्यासी हिंदू धर्म का चाहे जितना
विरोध करें...।'
मुझे कोई हिंदू धर्म का विरोध करने में रस ही नहीं है। मैं तो समस्त
धर्मों का विरोध कर रहा हूं। उसमें हिंदू धर्म भी आ जाता है--प्रसंगवशात। लेकिन
मैं तो उन सारी धारणाओं का विरोध कर रहा हूं जिनके आधार पर पुराने धर्म निर्मित
रहे हैं। वे धारणाएं हिंदुओं की भी हैं, बौद्धों की भी हैं,
जैनों की भी हैं, ईसाइयों की भी हैं, पारसियों की भी हैं, मुसलमानों की भी हैं। मैं तो
मूल आधारशिलाओं पर चोट कर रहा हूं। कोई हिंदू धर्म से मुझे लेना-देना नहीं है।
इतना महत्वपूर्ण मैं उसे मानता भी नहीं। मैं तो मूल आधार पर चोट कर रहा हूं। और यह
चोट जारी रहेगी।
और तुम कहते हो: "अंततः हिंदू धर्म की सनातन धारा में आपके
संन्यासी भी सरलता से खो जाएंगे।'
यह भ्रांति छोड़ दो। मेरे संन्यासी किसी धर्म को ही नहीं मानते हैं।
मेरे संन्यासी न तो नास्तिक हैं, न आस्तिक; न
हिंदू हैं, न मुसलमान, न ईसाई। मेरे
संन्यासी तो एक नयी तरह की धार्मिकता की शुरुआत हैं। धर्म की शुरुआत नहीं; एक नयी तरह की धार्मिकता की शुरुआत हैं। धार्मिकता बड़ी और बात है।
जिनको तुम धार्मिक व्यक्ति मानते हो वे तो धार्मिक होते ही नहीं।
हिंदू जो है वह क्या खाक धार्मिक होगा! वह तो विचारधारा से बंधा है। और विचारधारा
तो मन का हिस्सा होती है। मुसलमान भी विचार से बंधा है और जैन भी विचार से बंधा
है। विचारों के कारण ही तो यह भेद है। और मैं निर्विचार सिखा रहा हूं। अमनी दशा
में उतरना है। उस दशा में कहां कौन हिंदू? कहां कौन मुसलमान?
कहां कौन ईसाई? उस अवस्था में तो सिर्फ एक
सुगंध रह जाती है परमात्मा की।
मेरे संन्यासियों को तुम न पचा सकोगे। मेरे संन्यासी को पचाने का कोई
उपाय ही नहीं है।
और तुम कहते हो कि "क्या यह धर्म और मानवता के हित में न होगा कि
आप और आपके संन्यासी सारा विरोध त्याग कर हिंदू धर्म की सेवा में लगें और हिंदू
धर्म को नया जीवन, नये आयाम, नये विस्तार दें?'
यह धर्म के हित में है जो मैं कर रहा हूं। धर्मों का विरोध धर्म के
हित में है, क्योंकि धार्मिकता धर्म की आत्मा है। और धर्म के नाम
से जो चलता है वह तो केवल देह मात्र है। देह के पार जाना है, शास्त्र के पार जाना है, तब सत्य मिलता है। मन के
पार जाना है, तब कभी आत्मा का साक्षात्कार होता है। समस्त
विचारों के पार जो उठ जाता है, वही भगवत्ता को पहचान पाता
है।
यही मनुष्यता के हित में है जो मैं कर रहा हूं। और तुम चाहते हो कि
हिंदू धर्म की सेवा में लगूं। हिंदू धर्म की सेवा से मनुष्यता का हित होना होता तो
मनुष्यता का हित कभी का हो चुका होता। तुम जैसे महामंडलेश्वर और क्या कर रहे हैं? दस हजार सालों से यही बकवास तो तुमने लगा रखी है। मनुष्यता का कोई हित तो
हुआ नहीं और न ही कोई धर्म का हित हुआ। अब समय आ गया है कि धर्म और मनुष्यता का
हित किया जाए। और उस हित के लिए जिस चीज का भी खंडन करना होगा, जिस चीज का भी विरोध करना होगा, उसका विरोध किया
जाएगा।
मैं न तो किसी बात की पवित्रता को मानता हूं, न किसी बात की प्राचीनता को मानता हूं। मेरे अनुभव से, मेरे सत्य से जो चीज मेल खाती है, जरूर मैं उसका
समर्थन करता हूं; जैसे एतरेय ब्राह्मण का मैंने समर्थन किया।
मगर इस कारण नहीं कि यह हिंदुओं का ग्रंथ है। एतरेय ब्राह्मण में ऐसे वचन हैं
जिनका मैंने विरोध किया है--इस कारण नहीं कि वह हिंदू ग्रंथ है। न मेरे विरोध में
कोई हिंदुओं से संबंध है, न मेरे समर्थन में। सत्य का समर्थन
है; वह कहीं भी हो। मेरी छाती बड़ी है, तुम्हारी
छाती बड़ी नहीं है।
अब तुम कहते हो कि हिंदू धर्म की सेवा करें, हिंदू धर्म को नया जीवन...।
अब जो मर ही गया, उसको नया जीवन कहां से दो?
और इंजेक्शन लगा-लगा कर किसी तरह से, और यंत्र
लगा-लगा कर किसी तरह से फेफड़ों को चलाए भी रखो, तो क्या
फायदा है? जो मर चुका उसे दफनाओ। रामनाम सत्य है। रामनाम
जान्यो नहीं! अब तो हिंदू धर्म के लिए एक ही बात है--रामनाम सत्य है! अब इसकी अरथी
बनाओ। इसकी अरथी बनाने में मैं, जो भी सेवा चाहिए, राजी हूं।
आज इतना ही।
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