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रविवार, 30 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-08

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

आपने आपनूं समझ पहले—प्रवचन-आठवां  
दिनांक 28 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह ने आत्म-परिचय पर जोर देते हुए इस प्रकार गाया है--
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
बाझ अपने आपदे सही कीते, रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
होर लख उपाओ न सुख होवे, पुछ वेख सियानने जग सारे।
सुख रूप अखेड़ चेतन है तू, बुल्लाशाह पुकार दे वेद सारे।
अर्थात हे प्यारे, पहले अपने आप को समझ कि तेरा यह रूप क्या है, किसलिए है?
बिना अपने आप की पहचान किए विश्वासों में जीना भारी दुख है।
और लाख उपाय करो, सुख न होगा, सारे जगत के सयाने लोगों से पूछ कर देख ले।
सुख-रूप तो केवल तेरा चैतन्य है, बुल्लेशाह कहते हैं कि समस्त वेद यही पुकारते हैं।
भगवान, बुल्लेशाह की इस काफी पर कुछ कहें।

विनोद भारती,

जीवन को जानने वाले लोग जगत में बहुत थोड़े-से हुए हैं--इतने थोड़े कि अंगुलियों पर गिने जा सकें। अधिकतर लोग तो तोतों की भांति बासे और उधार ज्ञान को दोहराते रहते हैं। उन अभागे लोगों को यह भी पता नहीं चलता कि वे जो कह रहे हैं उनका अपना नहीं है। और जो अपना नहीं है। वह है ही नहीं, सिर्फ उसकी भ्रांति है।
सत्य का तो स्वाद लेना होता है। सत्य तो अमृत है। पीओ तो जानो। अमृत शब्द के संबंध में कितना ही समझ लो, न प्यास बुझेगी, न जीवन में वसंत आएगा, न शाश्वत के फूल खिलेंगे, न आनंद की वर्षा होगी। नहीं कोई दीया जलेगा ज्योति का। नहीं बंधन कटेंगे। वरन बंधन और मजबूत हो जाएंगे। अज्ञान के बंधन इतने मजबूत नहीं, लेकिन थोथे ज्ञान के बंधन बहुत मजबूत होते हैं। अज्ञानी तो कभी भूले-चूके से परमात्मा तक पहुंच भी जाए, तथाकथित ज्ञानियों की कोई संभावना नहीं।
मैंने सुना है, एक पंडित मरा और स्वर्ग पहुंचा। जिस दिन वह मरा उसी दिन एक अदभुत फकीर भी मरा था। रहा होगा बुल्लेशाह जैसा। दोनों एक ही साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। पंडित का तो बहुत स्वागत किया गया, बैंड-बाजे बजे, फूल बरसाए गए, स्वर्ग के सारे देवी-देवता आरती उतारे। फकीर खड़ा एक कोने में यह सब देखता रहा। थोड़ा हैरान भी हुआ। इस पंडित को भलीभांति जानता था। यह तो निपट पोपट था। इसने जाना तो कभी कुछ था नहीं। लेकिन, यद्यपि अपनी आंखों पर भरोसा न आ रहा था, लेकिन बात तो हो ही रही थी। फिर भी सोचा शायद यह स्वर्ग का नियम ही हो कि जो भी आए उसका स्वागत हो।
जब पंडित प्रवेश कर गया और फकीर के प्रवेश का समय आया तो न तो बैंड-बाजे बजे, न फूल झरे, न देवी-देवताओं ने आरतियां उतारीं, न जय-जयकार हुआ। ऐसे ही भीतर ले लिया, जैसे कोई धर्मशाला में ठहरने आया हो। अब तो और भी ज्यादा चौंका। उसने पहरेदार से पूछा कि क्या एक जिज्ञासा कर सकता हूं? पंडित का तो इतना स्वागत, जिसे मैं जानता हूं कि निपट थोथा था। कुछ मुझे स्वागत की आकांक्षा नहीं है कि मेरे लिए बैंड-बाजे बजें। कुछ इसकी पीड़ा भी नहीं है कि क्यों नहीं बजे। सिर्फ जिज्ञासा है कि यह राज क्या है?
पहरेदार हंसने लगा। उसने कहा, राज कुछ भी नहीं। राज सीधा और साफ है। तुम जैसे फकीर तो हमेशा स्वर्ग आते रहे, यह तो तुम्हारा घर है। लेकिन पंडित यह पहली दफा आया है। कैसे आ गया, हम भी चकित हैं। और फिर कभी आएगा इस तरह का पंडित, इसकी कोई आशा नहीं। दफ्तर की कोई भूल-चूक होगी। इसलिए स्वागत का यह मौका छोड़ देना उचित नहीं है। कभी आया नहीं; कभी आएगा इसकी संभावना नहीं। यह पहला मौका है। तुम जैसे फकीर तो सदा आते रहे, सदा आते रहेंगे।
ज्ञान की जंजीरें महंगी हैं, भारी हैं। क्यों? क्योंकि ज्ञान अहंकार को भरता है। ज्ञान की जंजीरें यूं हैं जैसे किसी ने सोने की जंजीरें बना ली हों, हीरे-जवाहरात जड़ दिए हों। इतनी बहुमूल्य हैं कि छोड़ने का मन ही नहीं होता, तोड़ने का सवाल ही नहीं उठता। इतनी प्यारी हैं कि कोई जंजीरें कहे उन्हें तो नाराजगी पैदा होती है। हम तो उन्हें आभूषण मानते हैं। वे तो हमारा शृंगार हैं। तो जिसे तुमने अपना शृंगार समझा उसे कैसे छोड़ोगे? और जिसे तुमने मंदिर समझा, अगर कारागृह है, तो तुम उससे क्यों निकलोगे?
अज्ञान अहंकार को नहीं भरता, पांडित्य अहंकार को भरता है। इसलिए अज्ञानी होना ज्यादा सौभाग्यशाली! क्योंकि अज्ञान तो काटता है, चुभता है कांटे की भांति। लगता है कैसे छूटूं, कब छूटूं, क्यों इतनी देर हुई जाती है? तथाकथित पांडित्य को, थोथे ज्ञान को तो आदमी छाती से लगाता है कि कोई चुरा न ले, कोई छीन न ले, कहीं खो न जाए, कहीं भूल न जाऊं।
पंडित तो बहुत हुए और पंडित बहुत हैं और पंडित बहुत होते रहेंगे, क्योंकि पांडित्य सस्ता है, मुफ्त मिलता है। चार किताबें जुड़ा लीं कि पंडित हो जाते हो। थोड़ी सूचनाएं इकट्ठी कर लीं कि जानने का दंभ पैदा हो जाता है। जाना कुछ भी नहीं, सिर्फ माना है। और ध्यान रखना, मानना जानना नहीं है। मानता तो अंधा आदमी भी है कि रोशनी है। लेकिन मानता ही है, जानता नहीं। मानता तो बहरा भी है कि संगीत होता है, कि कोयल कूकती है, कि सुबह पक्षी गीत गाते हैं, मगर मानता है। स्वर तो कभी उसके कानों तक पहुंचे नहीं।
पंडित अंधा है, बहरा है, गूंगा है, संवेदनशून्य है। पंडित यूं समझो कि मुर्दा है। इतनी किताबें उसके चारों तरफ इकट्ठी हो गई हैं कि उन्हीं किताबों ने उसकी कब्र बना दी है। और किताबों से जितनी अच्छी कब्र बनती है उतनी किसी और चीज से नहीं बनती। लेकिन जिन्होंने जाना है वे बहुत थोड़े-से लोग हुए।
बुल्लेशाह उन थोड़े-से लोगों में एक हैं। बुल्लेशाह की यह काफी प्यारी है। इस काफी को काफी की तरह ही चुस्कियां लेना। यह गरम-गरम है और ताजी है। यह जीवंत स्रोत से आई है। जीवंत स्रोत से जब भी कोई चीज आती है तो अगर आंखें हों तो पहचानने में देर नहीं लगती। इसका एक-एक शब्द प्यारा है।
सबसे पहले तो बुल्लेशाह तुम्हें संबोधित करते हैं तो कहते हैं--प्यारे!
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
सच्चा गुरु गुरु नहीं होता, मित्र होता है; शिष्य से ऊपर नहीं होता, शिष्य का संगी-साथी होता है; शिष्य को छाती लगाता है। शिष्य भला उसके पैर छुए, यह शिष्य की तरफ से उचित, लेकिन गुरु की तरफ से अनुचित। गुरु तो उसे अपना प्रिय मानता है।
लेकिन तथाकथित मिथ्या गुरुओं ने दंभ के ऐसे सिंहासन बनाए हैं कि उनके समक्ष खड़े होओ तो कीड़े-मकोड़े मालूम होओगे। हालांकि तुम्हें कीड़े-मकोड़े सिद्ध करने की उनकी तरकीबें इतनी सूक्ष्म हैं, इतनी बारीक हैं कि शायद तुम पकड़ भी न पाओ। तुम जो कुछ कर रहे हो, सबकी निंदा। तुम जो कर रहे हो, उस सबसे तुम सिर्फ अपने नरक का मार्ग तय कर रहे हो। तुम्हारे भीतर जो है, सब गलत। तुम्हारे जीवन की सारी चर्या भ्रांत। तुम पशु हो। तुमको क्या मिथ्या गुरु प्यारे के संबोधन से पुकारेंगे!
विवेकानंद ने अमरीका में हो रहे विश्व धर्म सम्मेलन में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी, वह शायद तुम्हारी समझ में भी न आए। जिस बात से उनको सम्मान मिला वह यूं बड़ी साधारण बात थी। यहां तो हर कोई कहता है। यहां तो हर नेता भाषण देता है तो वही कहता है। लेकिन उनके पहले जो और बहुत-से पादरी और पुरोहित और पंडित बोले थे, उनकी पृष्ठभूमि में विवेकानंद का उदघोषण, विवेकानंद का संबोधन लोगों के हृदय को छू गया।
और विवेकानंद कोई पहुंचे हुए व्यक्ति नहीं थे। कोई सिद्ध पुरुष नहीं थे। हां, एक सिद्ध पुरुष के चरणों में जरूर बैठे थे। उन्हीं चरणों की कुछ धूल बटोर ली थी। लेकिन वह धूल स्वर्ण से भी बहुत बहुमूल्य थी। विवेकानंद जब बोलने को खड़े हुए अमरीका की उस विशाल सर्व धर्म सभा में तो उनके पहले संबोधन पर ही सारे लोग खड़े हो गए और मिनटों तक तालियों पर तालियां बजती रहीं। उनका बोलना मुश्किल हो गया। उन्होंने ऐसी क्या बात कह दी थी? उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा था--भाइयो एवं बहनो! ब्रदर्स एंड सिस्टर्स!
यह तो इस देश के गधे से गधे नेता कह रहे हैं। हालांकि जब कोई नेता तुमसे भाइयो एवं बहनो कहे तो फौरन उसे रोकना कि चुप, उल्लू के पट्ठे, हम को भी अपने में गिने ले रहा है! होंगे उल्लू के पट्ठे तेरे भाई और बहन! जा गधों की सभा में बोल! आदमियों को भाइयो और बहनो कहते हुए शर्म नहीं आती? अरे, चुल्लू भर पानी में डूब मर बदतमीज! कमबख्त! हमीं मिले तुझे भाई और बहन कहने को? इतने निकट के नाते-रिश्ते बना रहा है!
लेकिन विवेकानंद का यह सीधा-सादा संबोधन...उन्होंने तो सोचा भी नहीं था। यह तो इस मुल्क की आदत है--भाइयो एवं बहनो। लेकिन वे जो पादरी और पुरोहित पहले बोले थे, उनका तो ढंग हमेशा यह होता है कि हम पवित्र, तुम अपवित्र; हम पुण्यात्मा, तुम पापी; हम स्वर्ग के यात्री, तुम नरक के यात्री; हममें तुममें क्या लेना-देना! वे आसमान से बोलते हैं, बदलियों से बोलते हैं। और तुम कहां जमीन पर रेंगते हुए कीड़े-मकोड़े! तो जब विवेकानंद ने भाइयो एवं बहनो कहा, वह तो सिर्फ आदतवश कहा, वह तो भारतीय शैली थी, लेकिन लोग एकदम खड़े हो गए; लोग रुकें ही न, तालियों पर तालियां पिटीं। विवेकानंद खुद ही चौंके कि अभी तो मैंने कुछ कहा ही नहीं। अभी तो बात ही शुरू की थी। यह तो बाद में ही उन्हें खयाल आया कि लोगों को इतनी-सी बात इतनी गहरी क्यों उतर गई, इतनी मार्मिक क्यों हो गई!
लेकिन भाइयो एवं बहनो से भी काम नहीं चलता। वह औपचारिक है। बुल्लेशाह कहते हैं: प्यारे। वे जो संबंध जोड़ते हैं, भाई और बहन का नहीं; भाई और बहन का संबंध तो पारिवारिक है। जरूरी नहीं कि प्रेम का हो। अब बहन तुम्हारी कितनी ही कुरूप हो, असुंदर हो, लूली हो, लंगड़ी हो, तो भी बहन है। और भाई तुम्हारा कैसा ही बुद्धू हो तो भी भाई है। वह संबंध तुमने निर्णीत नहीं किया है। वह संबंध तो सांयोगिक है। नदी-नाव संयोग है। यह संयोग की बात है कि तुम भी उसी मार्ग से आए हो जिससे वह आया है--उसी मां से, उसी पिता से। और तो क्या नाता है? और तो क्या संबंध है? खून का भी कोई नाता होता है? लोग कहते हैं: खून का नाता पानी से बहुत गाढ़ा होता है। गाढ़ा भला होता होगा, मगर खून का भी कोई नाता होता है? नाता तो तब होता है जब स्वेच्छा से चुना जाता है।
बुल्लेशाह ने कहा: प्यारे।
गौतम बुद्ध ने कहा है, जब मैं पहली बार अपने पिछले जन्म में एक बुद्ध पुरुष के दर्शन करने को गया तो बहुत चौंका था। झुक कर मैंने उनके चरण छुए थे। और मैं उठ भी न पाया था कि वे झुके और उन्होंने मेरे चरण छुए। मैं तो घबड़ा गया था। मैं तो पसीने-पसीने हो गया था। मेरे तो हाथ-पैर कंप गए थे कि यह क्या हुआ। बुद्ध पुरुष और मेरे चरण छुएं! मैंने उनसे निवेदन किया था कि आप यह क्या कर रहे हैं? यह कैसा बोझ मेरे ऊपर डाल रहे हैं? मैं अपात्र, अयोग्य, साधारण, अज्ञानी; आप महाप्रबुद्ध, ज्योतिर्मय, भागवत-स्वरूप! आप मेरे चरण छुएं! मैं आपके छुऊं, यह समझ में आता है, छूने ही चाहिए। लेकिन आपने मेरे चरण क्यों छुए?
तो उन बुद्ध पुरुष ने हंस कर कहा था: जिस दिन से मैं बुद्ध हुआ, उस दिन से मुझे कोई और तो दिखाई पड़ता नहीं, सभी के भीतर वही एक प्यारा दिखाई पड़ता है। और मैं तुझसे कहता हूं कि देर-अबेर की बात है, अगर मैं अभी बुद्ध हो गया तो कल तू बुद्ध हो जाएगा। कल मैं भी बुद्ध नहीं था, आज मैं बुद्ध हो गया। आज तू बुद्ध नहीं है, कल तू बुद्ध हो जाएगा। यह आज-कल का फासला भी तेरे भीतर है, यह हिसाब भी तेरे भीतर है। जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, उसके लिए तो समय मिट जाता है। वह तो कालातीत हो जाता है। अब क्या कल और क्या आज! क्या फर्क पड़ता है इस अनंत धारा में? कौन कब जागा, कोई भेद पड़ने वाला है, घड़ी भर पहले कि घड़ी भर बाद? अगर अनंत काल है तो घड़ियों की गिनती क्या, दिनों की गिनती क्या, समय की गिनती क्या? तू फिक्र छोड़। तूने अगर मेरे चरण छुए हैं तो मैं भी तेरे चरण छूता हूं--इसलिए ताकि तुझे याद दिला सकूं कि जो मेरे भीतर है वही तेरे भीतर है। माना कि मेरे भीतर जाग गया है, तेरे भीतर अभी सो रहा है; लेकिन कल मेरे भीतर भी सोता था। यही जो जाग गया है, यही सोता था, रत्ती भर फर्क नहीं है। वही हूं मैं जो कल तक था। लेकिन कल जरा चादर ओढ़ कर सोया था, आज उठ आया हूं। कल लेटा था, आज खड़ा हो गया हूं। तू भी कब तक लेटा रहेगा और सोया रहेगा! जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी, तू भी यह चादर फेंक देगा और इस तंद्रा के बाहर आ जाएगा। जब याद तुझे आए जागने के बाद तो भूलना मत कि मैंने तेरे चरण छुए थे।
और बुद्ध को जब ज्ञान हुआ--एक जन्म के बाद--तब वे हंसे और उन्होंने कहा कि ठीक कहा था उस बुद्ध पुरुष ने। अब मैं देख सकता हूं कि जो अपने को सोया समझ रहे हैं, वे भी मेरे लिए सोए हुए नहीं हैं। क्योंकि जो मेरे भीतर है वही उनके भीतर है। एक ही प्यारे का वास है। वही एक प्रीतम सभी के भीतर श्वासें ले रहा है। वही फूलों में खिला है, वही चांदत्तारों में रोशन है। वही तुम्हारे भीतर कभी सोया कभी जागा, कभी उठा कभी बैठा, कभी चला, कभी चुप कभी मौन, कभी गीत गाता है, कभी नाचता है। लेकिन एक ही है।
उस एक की स्मृति दिलाने के लिए बुल्लेशाह कहते हैं:
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
"प्यारे, तेरा रूप क्या? सबसे पहले अपने आप को समझ।'
इस सूत्र में कुछ और बातें भी थोड़ी खोद कर देख लेनी जरूरी हैं। आपने आपनूं समझ पहले! खुद को खुद से जान। आपने आपनूं समझ पहले। खुद को खुद से जान!
यूं तो हम सभी जानते हैं, मगर हमारा जानना उधार है। कौन नहीं जानता! कम से कम इस देश में तो हरेक व्यक्ति जानता है। पान वाले से लेकर प्रेसिडेंट तक प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि सबके भीतर आत्मा है, चेतना है; शरीर मरता है, आत्मा थोड़े ही मरती है। मगर इसको जानना मत समझ लेना। सुना है तुमने, और इतनी बार सुना है कि सुनते-सुनते भूल ही गए कि तुम जानते नहीं। इतनी बार दोहराई गई है यह बात सदियों-सदियों में, इसका संस्कार गहरा हो गया है। यह सिर्फ संस्कार है, यह ज्ञान नहीं। और संस्कार ज्ञान में बाधा होते हैं। संस्कार से बड़ी बात ज्ञान में और कोई बाधा नहीं बनती। क्योंकि तुम जानने के पहले ही मान बैठते हो कि जानता हूं, तो फिर जानने की जरूरत नहीं रह जाती। क्यों खोजें? किसलिए खोजें? हमें तो पता ही है।
इसलिए भारत में जैसा गहन अंधकार है और जैसा अज्ञान है और ज्ञान की जिज्ञासा जैसे मर ही गई है, ऐसी दुनिया की किसी और जाति में नहीं है। कारण? हमने अपने सौभाग्य को अपना दुर्भाग्य बना लिया है। हमारे बुद्ध, हमारे महावीर, हमारे कृष्ण, हमारे बुल्लेशाह, हमारे नानक, हमारे कबीर, हमारी मीरा, हमारे चैतन्य--जो कि हमारे जीवन में ज्योति का कारण हो सकते थे--हम मूढ़ों ने उन्हें ही अपने अंधकार की आधारशिलाएं बना लिया है। हम बस उनके भजन दोहरा रहे हैं, हम उनके गीत दोहरा रहे हैं। और हम सोचते हैं: क्या करना है हमें जानकर?
एक बात खयाल रख लेना: विज्ञान में एक व्यक्ति जानता है, फिर वह ज्ञान सभी का हो जाता है। अगर न्यूटन ने यह बात खोज ली कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, तो अब कोई हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है। विज्ञान के सत्य आब्जेक्टिव होते हैं, वस्तुगत होते हैं। इसलिए अब छोटा-सा बच्चा भी स्कूल में पढ़ने वाला जानता है कि जमीन में कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है। अब किसी हर बच्चे को खोजने की जरूरत नहीं है। न्यूटन को वर्षों लगे, लेकिन बच्चा तो पांच मिनट में समझ लेता है कि चीजें फेंको ऊपर तो अपने आप नीचे की तरफ गिरती हैं, क्योंकि जमीन उन्हें खींच लेती है। अब यह ज्ञान हर आदमी को खोजने जैसा नहीं है। एक ने खोज लिया, सबका हो गया।
लेकिन भीतर के ज्ञान में भेद है। वह आयाम और। वहां तो ज्ञान प्रत्येक को अपना ही खोजना होता है। अपना ही हो तो जानना कि है। अगर जरा भी संदेह पैदा हो कि यह संस्कार मात्र है, तो सावधान हो जाना, सचेत हो जाना। वह संस्कार को अलग हटा कर रख देना। वह कितना ही प्यारा लगता हो, घातक है, जहर है। उससे सावचेत होना जरूरी है।
खुद को खुद से जान! और फिर देर नहीं लगती जानने में कि तू ही खुदा है। मगर खुद को खुद से जान। आपने आपनूं समझ! यह समझ कोई किसी को दे नहीं सकता। इसका हस्तांतरण नहीं होता है। अगर मैंने जाना, तो लाख उपाय करूं तो भी तुम्हें जना न सकूंगा। अगर मैंने चखा, तो लाख समझाऊं, उसका स्वाद तुम तक नहीं पहुंचा सकूंगा। फिर क्या करते हैं सदगुरु? इशारा करते हैं चांद की तरफ। और पागल उनकी अंगुलियां पकड़ कर बैठ जाते हैं। अंगुलियों की पूजा चल रही है। कोई जीसस की अंगुली पकड़े है, वह समझता है मैं ईसाई। कोई कृष्ण की अंगुली पकड़े है, वह समझता है मैं हिंदू। कोई बुद्ध की अंगुली पकड़े है, वह समझता है मैं बौद्ध।
यूं अंगुलियां पकड़ने से कुछ भी न होगा, क्योंकि कोई अंगुली चांद नहीं है। और अगर चांद को देखना हो तो अंगुली को छोड़ ही देना पड़ता है, भूल ही जाना पड़ता है। अंगुली की क्या बिसात? जब चांद पर नजर पड़ेगी तो क्या अंगुली को लिए फिरोगे?
तो जिन्होंने धर्म को पहचाना है वे न तो हिंदू होते हैं, न मुसलमान होते हैं, न ईसाई होते हैं, न जैन होते हैं, न सिक्ख होते--हो ही नहीं सकते। यह असंभव है। हां, अंगुलियों को पकड़ा हो तो फिर धर्म हैं, संप्रदाय हैं, उप-संप्रदाय हैं। फिर तो कोई अंत नहीं है। फिर तो पागलपन बंटता जाता है, कटता जाता है, छंटता जाता है, छोटे-छोटे आंगन और उनके भीतर और आंगन, और अपने-अपने कोने पर कब्जा, अपने मंदिर, अपनी मस्जिद, अपने गुरुद्वारे। और फिर झगड़े-फसाद। छोटी-छोटी बातों के झगड़े-फसाद, ऐसी बातों के झगड़े-फसाद कि बच्चे भी हंसें, मगर बूढ़े कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के एक गांव में, सिरपुर में--मैं सिरपुर गया था। तो गांव के लोगों ने बताया कि आज कोई सौ साल से एक मुकदमा चल रहा है। सल्तनत बदल गई, अंग्रेज चले गए, भारत आजाद हो गया, मगर मुकदमे का अंत नहीं होता। शायद कभी होगा भी नहीं। और मुकदमा क्या है? एक मंदिर है। जैनों का मंदिर है। प्रतिमा महावीर की है। लेकिन संप्रदाय दो हैं--श्वेतांबरों का और दिगंबरों का। आज से सौ साल पहले कभी झगड़ा हो गया था। छोटी बात पर झगड़ा हो गया था। झगड़े ही सब छोटी बातों के होते हैं। बड़ी बातों के लिए झगड़ा ही कहां होता है! बड़ी बातों को जो समझ सके, इतना बड़ा हो जाता है कि झगड़ा कहां बचता है! झगड़े ही क्षुद्र के होते हैं।
गांव में एक ही मंदिर था और थोड़े-से ही जैनों के घर थे, दो मंदिर बनाने की हैसियत भी न थी। तो दोनों संप्रदायों ने मिल कर ही मंदिर बनाया था। लेकिन उनकी पूजा-प्रक्रिया में थोड़ा-सा फर्क है, बहुत ज्यादा फर्क भी नहीं। वही महावीर, वही पूजा, वही मंत्र, वही नमोकार। और उस नमोकार में तुम देखते हो, एक अदभुत सूत्र आता है--णमो लोए सब्ब साहूणम। सब साधुओं को नमस्कार। लेकिन महावीर पर ही झगड़ा हो गया, और साधुओं की तो छोड़ ही दो। श्वेतांबर जब पूजा करते हैं महावीर की तो आंखों को खोल कर पूजा करते हैं। अब पत्थर की मूर्ति, आंखें कैसे खोलोगे? तो नकली आंख ऊपर से चिपका देते हैं। कागज की आंख या कोई भी नकली चीज की आंख--खुली हुई। तो महावीर जो हैं श्वेतांबर हो गए। भीतर आंख बंद ही है, पत्थर की मूर्ति की आंख बंद है, मगर ऊपर से एक आंख चिपका दी तो श्वेतांबर हो गए। और जब दिगंबर आते हैं तो आंख अलग कर दी, तो महावीर दिगंबर हो गए। बस इतना ही भेद है, बाकी सब वही का वही।
मगर एक दिन झगड़ा हो गया। झगड़ा यह हो गया कि समय बांटा हुआ था कि बारह बजे तक श्वेतांबर पूजा करेंगे, फिर बारह बजे अपनी आंख अलग कर लेंगे, फिर बारह बजे के बाद दिगंबर पूजा करेंगे। उस दिन किसी श्वेतांबर को ज्यादा धार्मिकता आ गई। बारह भी बज गए, मगर वह अपनी पूजा में मस्त ही हो गए। शरारती रहे होंगे, उपद्रव करना चाहते होंगे। और दिगंबरी भी कोई धर्म में पीछे तो नहीं, ठीक बारह घड़ियाल ने बजाए और उन्होंने कहा, बस बंद करो पूजा, बहुत हो गई! इसके पहले कि पूजा बंद हो, उन्होंने आंखें निकाल कर अलग कर दीं क्योंकि बारह बज गए। झगड़ा खड़ा हो गया। श्वेतांबरियों ने कहा कि यह क्या बात है? जब हमारी पूजा चल रही थी, तो अगर तुम दो-चार-पांच मिनट रुक जाते तो क्या बिगड़ता था? कम से कम पूजा तो बीच में नहीं तोड़नी थी!
और दिगंबरियों ने कहा, पूजा जाए भाड़ में। जब एक दफा तय हो गया कि बारह बजे आंख अलग होनी चाहिए तो बारह बजे आंख अलग होनी चाहिए, हम नियम के अनुसार चल रहे हैं। हमारी भी पूजा शुरू होनी है। और हम आंख वाले महावीर की पूजा नहीं कर सकते।
लट्ठ चल गए। मंदिर पर पुलिस का ताला पड़ गया। फिर तब से पूजा ही नहीं हुई मंदिर में--न आंख वाले महावीर की न गैर-आंख वाले महावीर की। फिर तो चूहे ही जो कुछ करते हों करते हों, आदमियों के तो जाने का सवाल न रहा। मुकदमा चलता रहा। प्रिवी कौंसिल तक मुकदमा गया। जिनके पास दो मंदिर बनाने के लिए पैसा नहीं था, उन्होंने खूब पैसा इकट्ठा किया दूर-दूर जा-जा कर, क्योंकि सवाल धर्म की रक्षा का था। प्रिवी कौंसिल तक मुकदमा लड़ा गया। हाईकोर्ट में गया होगा, सुप्रीम कोर्ट में गया होगा, फिर लंदन में भी मुकदमा लड़ा गया। लेकिन लंदन में भी झंझट थी। झंझट यह थी कि असली सवाल तो उसी से पूछ कर तय किया जा सकता है, जिसके ऊपर झगड़ा है। महावीर क्या कहते हैं कि आंख बंद ठीक कि आंख खुली ठीक?
जहां तक मेरा संबंध है, मैं सोचता हूं, कभी-कभी आंख खुली भी रखते होंगे, कभी-कभी बंद भी रखते होंगे। जो कि बिलकुल स्वाभाविक है। अब कोई चौबीस घंटे महावीर आंख खुली रखते होते तो पागल हो गए होते। और चौबीस घंटे बंद कैसे रखेंगे? जरूरत क्या बंद रखने की? और सच तो यह है कि आंख प्रतिपल खुलती और बंद होती है। ज्यादा उचित तो हो कि बिजली से चलने वाली पलकें लगा देनी चाहिए, तो आंख खुलती रहे, बंद होती रहे, झपकती रहे, आंख मारते रहें। चाहे दिगंबरी हों, चाहे श्वेतांबरी, जो भी आए। अब यह कैसे तय हो?
इसलिए मुकदमा वापस भेज दिया गया उसी छोटी अदालत में कि पहले महावीर से पूछा जाए। और तुम जान कर हैरान होओगे कि महावीर की मूर्ति को एक रिक्शे में बिठा कर अदालत में ले जाया गया, क्योंकि अदालत ने सम्मन्स निकाल दिए कि अगर तुम नहीं लाओगे तो पुलिस जाकर अरेस्ट करके लाएगी। अब महावीर स्वामी को हथकड़ियां डाल कर ले जाना अच्छा नहीं मालूम होगा, सो इस बात पर दोनों राजी हो गए कि ठीक है एक रिक्शा में बिठा कर ले चलो।
क्या-क्या गजब की बातें हैं। महावीर स्वामी भी बड़े प्रसन्न हुए होंगे। ढाई हजार साल पहले कोई रिक्शे तो चलते नहीं थे। रिक्शे में बैठ कर मजा आ गया होगा। जरा खुली हवा भी मिली होगी, चूहों से भी छूटे होंगे, कई दिन से बंद भी थे जनता जनार्दन के दर्शन करके प्रसन्न भी हुए होंगे, आह्लादित भी हुए होंगे। अदालत लेकिन क्या पूछे इन सज्जन से? तो अदालत ने यह जानना चाहा...क्योंकि इसी में और कुछ छोटे-छोटे झगड़े थे। श्वेतांबर वस्त्र पहना कर पूजा करते हैं, दिगंबर वस्त्र हटा कर पूजा करते हैं। अब आदमी तो नंगा ही पैदा होता है, सो महावीर भी नंगे पैदा हुए होंगे। वस्त्र तो ऊपर ही ऊपर होते हैं, वस्त्र के भीतर तो सभी नंगे होते हैं। अरे, वस्त्र किसी की नग्नता मिटा सकते हैं?
तो उन्होंने कहा कि एक उपाय है और वह यह कि हम जांच कर लें कि यह मूर्ति अगर दिगंबरियों की है तो यह नग्न होगी और अगर श्वेतांबरियों की है तो वस्त्र पहने हुए होगी। अगर मूर्ति पर वस्त्र पहनने के चिह्न मिल जाएं, मतलब वस्त्र पहनी हुई मूर्ति पर पत्थर की भी मूर्ति हो तो वस्त्र तो बनाना होगा, चादर तो बनानी होगी, नग्नता तो दिखाई नहीं पड़ेगी। एक हाथ उघड़ा होगा तो छाती पर से चादर गुजरेगी, उसका निशान तो होगा। पैर ढंके होंगे। तो इससे साफ हो जाएगा कि मूर्ति किसकी है।
लेकिन श्वेतांबरियों ने क्या किया था, यह देख कर कि मामला इसी से तय होने वाला है, उन्होंने मंदिर में पीछे से घुस कर महावीर की नग्नता पर प्लास्टर कर दिया। महावीर से किसको लेना-देना है! अब किसी जिंदा आदमी पर प्लास्टर करो तो वह इनकार भी करे, चिल्लाए भी, भागे-दौड़े भी, पुलिस को भी बुलाए कि यह क्या करते हो भाई। भले-चंगे आदमी का स्टैरिलाईजेशन कर रहे हो! नसबंदी कर दी! प्लास्टर कर दिया!
अब झगड़ा इस बात पर चल रहा है कि वह प्लास्टर पहले से था कि बाद में किया गया है! दिगंबरों का कहना है कि प्लास्टर बाद में किया गया, क्योंकि मूर्ति तो पत्थर की है और प्लास्टर तो पत्थर नहीं है; प्लास्टर तो वही प्लास्टर आफ पेरिस, मिट्टी का लोंदा चढ़ा दिया है ऊपर से। तो मूर्ति अगर पत्थर की है और प्लास्टर पत्थर नहीं है तो जाहिर है कि मूर्ति दिगंबरों की है। मगर श्वेतांबरियों का कहना है कि कपड़े कोई चमड़े के थोड़े-ही होते हैं; आदमी चमड़े का होता है, कपड़े तो कपड़े होते हैं। तो मूर्ति तो नग्न ही रही होगी। प्लास्टर हमने कपड़े की तरह पहनाया है जैसे हर आदमी को कपड़ा पहनाया जाता है।
वह मुकदमा अभी भी चल रहा है। अभी भी ताला पड़ा हुआ है। और अब कोई प्लास्टर अलग न कर दे, इसलिए अब खिड़कियों पर भी सींखचे जड़ दिए गए हैं और ताले लगा दिए गए हैं। सब तरफ से सील-मोहर मंदिर की बंद कर दी गई है। और मुकदमा चलता रहेगा।
कैसी छोटी और क्षुद्र बातों पर आदमी लड़ते हैं! और ये धार्मिक लोग हैं! और इनको लड़वाने वाले पंडित होते हैं, पुरोहित होते हैं! इस जमीन का बड़ा सौभाग्य होगा जिस दिन पंडित-पुरोहित विदा हो जाएं। मगर वे तब तक विदा न होंगे जब तक हम मूल से इस बात को ही न छोड़ दें कि सत्य कोई दे सकता है।
बुल्लेशाह उस पर ही चोट कर रहे हैं। आपने आपनूं समझ पहले। सबसे पहले तू अपने को समझ, फिर तू समझना कुछ और। सबसे पहले प्राथमिक रूप से अपने को समझ। फिर पढ़ना वेद, फिर पढ़ना कुरान, फिर पढ़ना बाइबिल, फिर पढ़ना धम्मपद, फिर पढ़ना जेन्दावेस्ता। पहले अपने को पढ़। यह जो किताब तेरे भीतर छिपी है चैतन्य की, पहले इसके पन्ने उलट। और जिसने उसे पढ़ लिया, उसने सब पढ़ने योग्य पढ़ लिया।
आपने आपनूं समझ पहले।
पहले शब्द को खयाल में रखना। उसको नंबर दो पर मत रखना, नहीं तो चूक हो जाएगी। इसलिए हिंदू मत हो जाना, मुसलमान मत हो जाना, जैन मत हो जाना। पहले अपने को समझ लेना। फिर जो करना हो करना। और जिसने भी अपने को समझा है, वह कभी हिंदू नहीं हुआ, कभी मुसलमान नहीं हुआ।
क्या तुम सोचते हो, बुद्ध बौद्ध थे? तो तुम गलती में हो। क्या तुम सोचते हो, ईसा ईसाई थे? तो तुम बिलकुल भूल में हो। क्या तुम सोचते हो, मोहम्मद मुसलमान थे? तो दुबारा ऐसी बात मत सोचना। मोहम्मद तो कैसे मुसलमान हो सकते हैं? अभी तो मुसलमान धर्म ही न था। ईसा तो कैसे ईसाई हो सकते हैं? यहूदी घर में पैदा हुए थे। और यहूदियों की यही तो नाराजगी थी कि वे यहूदी नहीं हो रहे थे। वे कुछ नई बातें कहना शुरू कर दिए थे, जो यहूदियों से तालमेल नहीं खाती थीं, जो यहूदियों की किताब के अनुकूल नहीं पड़ रही थीं। बौद्ध तो कैसे हो सकते थे बुद्ध? पैदा तो हिंदू घर में हुए थे। लेकिन उन्हें लाख भूलें दिखाई पड़ रही थीं शास्त्रों में, वेदों में, गीता में, रामायण में, तो वे हिंदू नहीं हो सकते थे। और बौद्ध धर्म तो अभी होने में देर थी। अभी तो बुद्ध जीएंगे, इशारा करेंगे, और उनकी अंगुलियों को जो लोग पकड़ लेंगे वे बौद्ध होंगे। अब बुद्ध को खुद अपनी अंगुली पकड़ने की तो कोई जरूरत नहीं। जिसको चांद दिखाई पड़ रहा है, वह क्यों अपनी अंगुली पकड़ेगा? कोई पागल है?
इस पृथ्वी पर जितने लोग सत्य को जानने वाले हुए हैं, वे किसी धर्म का हिस्सा नहीं होते, वे किसी मजहब का हिस्सा नहीं होते। वे किसी संप्रदाय के सदस्य नहीं होते। हो ही नहीं सकते। इसलिए जोर है बुल्लेशाह का:
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
"पहले यह तो देख ले कि तेरा रूप क्या है?'
यह रूप शब्द भी सोचने जैसा है। इसके दो अर्थ हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू। एक तो रूप का अर्थ होता है: सौंदर्य। और एक रूप का अर्थ होता है: स्वभाव, स्वरूप। प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव से सुंदर है। सौंदर्य हमारी निजता है। सौंदर्य हमारी सहज स्वाभाविकता है। कुरूपता सब थोपी गई है, आरोपित है, बाहर से लादी गई है।
हर बच्चा सुंदर पैदा होता है, मगर हर बच्चा कुरूप लोगों के हाथ में पड़ जाता है। और हर बच्चे को कुरूप लोग अपने ही ढंग में ढालने लगते हैं, अपने ही वस्त्र पहनाने लगते हैं, अपनी ही जंजीरें पहनाने लगते हैं, अपने ही मंदिरों में घसीटने लगते हैं, अपनी ही मूर्तियों की पूजा करवाने लगते हैं--जय गणेश, जय गणेश! बच्चा बेचारा क्या जाने? उसे तो देख कर मजा आता है कि वाह, सूंड वाले सज्जन बैठे हुए हैं! वह तो बड़ा प्रसन्न होता है। बच्चों की तो अपनी पकड़ होती है। हनुमान जी को देख कर वह प्रसन्न होता है कि वाह, पूंछ वाले हनुमान जी! वह तो बाजार में कोई मदारी बंदर भी नचा रहा होता है, वहां भी खड़ा होकर देखता है कि बंदर दो पैर पर खड़ा है। और हनुमान जी की कहानी उसको खूब प्रभावित करती है कि लंका में आग लगा दी, कि पहाड़ ही ले आए। वह तो जल्दी से प्रभावित हो जाता है।
मैंने सुना, एक आदमी पेरिस में बहुत दिन तक रहा। वह अपने बच्चे को लेकर पेरिस के एक बहुत बड़े बगीचे में रोज जाया करता था। उस बगीचे में, ठीक बीच में, सबसे महत्वपूर्ण स्थल पर एक बड़ा फव्वारा था और फव्वारे के बीच में एक बहुत शानदार घोड़ा था और घोड़े पर नेपोलियन की मूर्ति थी। बच्चा हमेशा बाप से कहता था कि चलें, चलने के पहले नेपोलियन को देख आएं। बाप इससे बहुत खुश होता था कि चलो नेपोलियन का इस पर प्रभाव पड़ रहा है! नेपोलियन जैसे व्यक्ति का प्रभाव पड़े तो अपने बच्चे में भी कुछ तो शौर्य, कुछ तो वीरभाव पैदा होगा। रोज उसे ले जाता था।
फिर बाप की बदली हुई, तो आखिरी दिन वह बगीचा गया। उसने कहा कि बेटा, तू अब आखिरी बार नेपोलियन को गौर से देख ले, फिर कभी हम आएं इस बस्ती में न आएं; दूर की बदली हो रही है, फिर कभी आना हो या न हो, तू ठीक से नेपोलियन को देख ले। तो वे दोनों देर तक देखते रहे। बच्चे की आंख से आंसू झरने लगे कि फिर दुबारा नेपोलियन देखने को मिले या न मिले। बाप ने कहा, रो मत!
उसने कहा, मैं रो नहीं रहा हूं, लेकिन दुख तो होता ही है छोड़ने में। अब नेपोलियन को फिर न देख पाऊंगा। एक सवाल सदा मुझे पूछना था, कभी पूछा नहीं, आज पूछ लूं? बाप ने कहा, पूछ ले। उसने पूछा कि मैं यह पूछना चाहता हूं कि नेपोलियन तो बहुत प्यारा है, मगर नेपोलियन के ऊपर यह कौन चढ़ा बैठा है! यह हरामजादा उतरता क्यों नहीं?
बच्चों की तो अपनी पकड़ होती है, वह तो घोड़े में उसे रस था। यह बाप समझ रहा था कि नेपोलियन में रस है। वह तो घोड़े को नेपोलियन समझता था और हैरान इससे होता था कि यह कौन है जो हमेशा नेपोलियन पर चढ़ा रहता है। कभी ऐसा नहीं कि थोड़ी देर आराम दे, कभी उतर जाए। तब बाप को पता चला कि हद हो गई, मैं समझ रहा था कि यह नेपोलियन में उत्सुक है।
बच्चे सीधे-साफ होते हैं। तो मंदिर में ले चले, कृष्ण कन्हैया खड़े हैं, बांसुरी बजा रहे हैं, राधा मैया खड़ी हैं। पीतांबर पहने हुए हैं, मोर-मुकुट बांधे। तुम सोचते हो वह कृष्ण में उत्सुक हो रहा है, हो सकता है मोर-मुकुट में उत्सुक हो रहा हो, कि अगर मौका मिल जाए तो मोर-मुकुट ले भागे, कि बांसुरी जंच रही है।
मैं तो अपनी जानता हूं। छोटा था तो मैं मंदिर एक ही काम के लिए जाता था। और वह काम मेरा यह था कि मंदिर में बहुत सुंदर फानूस थे और फानूसों में बड़े सुंदर कांच लटके हुए थे, प्रिज्म वाले कांच थे। बस मेरा कुल रस उन फानूसों में था। जब भी मौका देखता, एक-आध कांच झटक कर ले आता। उस कांच में से सूरज की रोशनी को निकाल कर इंद्रधनुष बन जाते थे। मैंने बहुत-से कांच इकट्ठे कर लिए थे। धीरे-धीरे फानूस के सब कांच नदारद हो गए। पंडित-पुजारियों को शक होने लगा कि ये कांच कहां जा रहे हैं! तब मैं पकड़ा गया, क्योंकि और किसी ने खबर दी कि कांच कहीं भी जा रहे हों...किसी ने इसको कांच ले जाते कभी देखा नहीं है। क्योंकि पहले, कांच निकालने के पहले मुझे काफी भक्ति-भाव दिखलाना पड़ता था। एकदम ऐसा मस्त हो जाता कि जब सब चले जाते, तभी तो कांच निकाल सकता था। पुजारी भी देखता कि यह तो बड़ा धार्मिक बच्चा है, करने दो पूजा! अब पुजारी को भी रोज-रोज कब तक बैठना पड़े। जब तक पुजारी रहे तब तक मेरी पूजा भी खतम न हो। मैं तो आरती उतारता ही रहूं, उतारता ही रहूं, क्योंकि मैं तो पुजारी को हटाने के लिए उतार रहा हूं। आखिर पुजारी को और भी काम थे। नहाना-धोना भी है, भोजन भी बनाना है, आस-पड़ोस में दूसरों की पूजा करवाने भी जाना है। और वह मुझको रोक भी नहीं सकता था कि ऐसे धार्मिक बच्चे को कैसे रोकें! वह इधर गया कि पूजा बंद। निकाला कांच एक-दो, जितने भी हाथ लगे, और भागा। लेकिन किसी ने खबर दे दी कि पकड़ा तो यह कभी नहीं गया है, लेकिन हमने इसके पास बहुत कांच देखे हैं।
एक दिन मैं पूजा करता रहा और पुजारी भी जमा रहा। मुझे भी कुछ शक हुआ कि बात क्या है। जब पुजारी हटा ही नहीं, मैं भी थक गया पूजा करते-करते, तो मैंने भी थाली रखी और मैं घर की तरफ चलने लगा। तो उसने कहा, क्यों? आज कांच नहीं ले जाने? कि तूने मुझे खूब धोखा दिया है, कि मैं समझा कि तू पूजा में रस लेता है और तू कांच निकाल कर ले जाता है।
मैंने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना! अब जब बात पता ही चल गई और अब कांच बचे भी नहीं हैं, सो कल से मुझे आना भी नहीं है। अब आकर भी क्या करूंगा?
छोटे बच्चों का अपना रस होता है। क्या लेना-देना तुम्हारी मूर्ति से और तुम्हारे शास्त्र से! मगर धीरे-धीरे संस्कार इन बच्चों को पकड़ना शुरू कर देते हैं। प्रसाद बंटता है मंदिरों में, बच्चों को प्रसाद में रस होता है। मैं कम से कम तीन-चार दफा प्रसाद तो लेता ही था। कभी टोपी लगा कर ले लूं, कभी टोपी निकाल कर ले लूं। आखिर पुजारी मुझे पहचान गया। उसने कहा, कि भैया, तू क्यों मेहनत करता है? कभी टोपी लगाता है, कभी टोपी निकालता है। पकड़ा न होता उसने; मैं एक दिन मूंछ लगा कर पहुंच गया। उसने कहा, हद हो गई! अब बंद कर! इस उम्र में इतनी बड़ी मूंछ कहां से आ गई? उसने झटका दिया, मूंछ निकल गई। मैंने कहा, भई मुझे सिर्फ चार दफा प्रसाद चाहिए। अगर तुम वैसे ही देते हो तो मैं बंद कर दूं। और ऐसा नहीं कि मैं कोई एक ही मंदिर जाता था। गांव में सब तरह के मंदिर थे, मुझे क्या लेना-देना?
कृष्णाष्टमी आती तो मैं कृष्ण के मंदिर में जाता। उन दिनों दो पैसे का अधेला चलता था। वह बिलकुल रुपए के बराबर था। उसमें मैं चांदी का वर्क चढ़ा देता था, तो वह रुपए जैसा मालूम पड़ता था। बिजली थी नहीं गांव में। सो दीए की रोशनी में और मंदिरों में इतने पैसे चढ़ते थे, रुपए चढ़ते थे, कि ठीक मूर्ति के सामने लोग पैसे फेंकते जाते थे। मैं भी जाता और इतने जोर से फेंकता वह नकली रुपया कि सब पुजारियों को पता चल जाए कि हां फेंका और फिर मैं कहता--आठ आने वापस! मेरा रस तो उसमें था। जन्माष्टमी की मैं प्रतीक्षा करता था, क्योंकि मेरे गांव में कम से कम कृष्ण के तीस मंदिर थे। बस एक आधा घंटे में पंद्रह-बीस रुपए झपट लाता था। और मुझे कुछ कभी नहीं लेना-देना रहा।
मुसलमानों के ताजिए उठते, मैं हाजिर। वली साहब उठते। तो मैं इतना भक्ति-भाव दिखलाता कि मुझे धीरे-धीरे वली साहब की रस्सी भी पकड़ने का मौका मिलने लगा था। और रस्सी का मौका मुझे इतना मिलने लगा और उसका कारण था, क्योंकि जिस वली की भी मैं रस्सी पकड़ लेता था उस पर ही चढ़ौत्तरी ज्यादा आती। लोग कहने लगे कि इस बच्चे में कुछ खूबी है! चमत्कारी है! और चमत्कार कुल इतना था कि मैं एक लंबी सुई अपने साथ रखता था, सो वली साहब को गुलकता रहता। वह काफी उछल-कूद मचाते, दूसरे वलियों को हरा देते। स्वभावतः। और जो जितना उछले-कूदे, लगता उतने ही बड़े वली साहब आए हैं। उनको चढ़ौत्तरी भी ज्यादा होती थी।
मगर वह वली साहब, जिसकी भी रस्सी मैं पकड़ता, वही घबड़ा जाते। वह मुझसे कहने लगे, भैया आधी चढ़ौत्तरी तू ले लेना और तुझे जब उचकाना हो सिर्फ हाथ का इशारा किया कर, हम उचकेंगे, मगर यह सुई न चुभाया कर। उस वक्त हम कुछ कह भी नहीं सकते कि सुई चुभा रहा है यह लड़का, क्योंकि अगर सुई का पता चल रहा है तो तुम वली साहब कैसे! अरे, वली साहब का तो मतलब कि तुम तो रहे ही नहीं, अब तो जिंद उतरे हुए हैं, वली उतरे हुए हैं, वे तुम्हारे ऊपर सवार हैं, तुम्हें कहां पता? अपना होश है तुम्हें तो फिर पता ही चल गया, तो फिर असलियत की बात नहीं, धोखा हो रहा है।
तो मेरे पास चढ़ौतियां आने लगीं--आधी चढ़ौती वली साहब की! कहते, बिलकुल आधी तू ले, आधी से भी ज्यादा ले लेना, मगर देख सुई न चुभाना। रास्ते भर जान ले लेता है कुदा-कुदा कर! जब भी कुदाना हो, तुझे लगे कि हां भई पैसे वालों का मामला है और ज्यादा कुदाई से फायदा होगा, हाथ का इशारा कर।
सभी धर्मों में मैं जाता था। क्योंकि धर्म से मुझे क्या लेना-देना था। आज भी कुछ लेना-देना नहीं है। तब धर्म से लेना-देना नहीं था, अब धार्मिकता से लेना-देना है। धार्मिकता बासी नहीं होती, उधार नहीं होती, कोई दे नहीं सकता। धार्मिकता संस्कार नहीं है।
ठीक कहते हैं बुल्लेशाह: आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे। तेरा सौंदर्य क्या! तेरे भीतर छिपा हुआ मालिक कौन! तेरे भीतर का स्वर्ग कैसा! उसको पहचान ले।
बाझ अपने आपदे सही कीते, रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
"और बिना अपने आप की पहचान किए विश्वासों में जीना भारी दुख है।'
और तुम सब विश्वासों में जी रहे हो, इसलिए दुखी हो। विश्वास का अर्थ है: झूठ। सच में भी विश्वास करो तो तुम झूठ कर लेते हो--विश्वास करके झूठ कर लेते हो। सत्य तो सिर्फ अनुभव ही हो, तभी सत्य होता है; जैसे ही विश्वास बना झूठ हो जाता है। जानने वाले के भीतर सत्य होता है; उसने कहा कि झूठ हुआ।
मुझसे किसी ने पूछा था, दो दिन पहले ही, संभवतः अविनाश भारती ने कि भगवान, आप अपने प्रवचन में कितना झूठ बोलते हैं, कितने परसेंट?
कितने परसेंट का सवाल ही नहीं, अविनाश। जो भी करता हूं, हंड्रेड परसेंट करता हूं, समग्रता से करता हूं, सौ प्रतिशत; क्योंकि सत्य तो बोला ही नहीं जा सकता। तुमने कभी सुना है कि सत्य बोला जा सके? लाओत्सु ने जिंदगी भर नहीं लिखा, मरते वक्त जबरदस्ती लिखवाया गया। तो उसने पहला वचन ताओ तेह किंग में लिखा कि मैं पहले यह कह देना चाहता हूं कि सत्य कहा नहीं जा सकता। इसको खयाल में रखना, फिर आगे पढ़ो। तो फिर जो कहा गया है वह सत्य नहीं है; सिर्फ सत्य की तरफ इशारा है।
सत्य तो मैं बोल ही नहीं सकता; कोई कभी नहीं बोला तो मैं कैसे बोलूंगा? बोला न जा सके, वही तो सत्य है! जीया जा सकता है, बोला नहीं जा सकता। दिखाया जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता। अनुभव कराया जा सकता है, लेकिन सिद्धांतों में नहीं ढाला जा सकता। सो जो बोलता हूं वह तो सौ प्रतिशत झूठ समझना। हां, जिस तरफ इशारा कर रहा हूं बोल कर वह सौ प्रतिशत सत्य है। इशारे को मत पकड़ना। सब इशारे झूठ हैं। हां, जिसकी तरफ इशारा है वह सच है।
जो मूल है बुल्लेशाह का, वह और भी प्यारा है: बाझ अपने आपदे सही कीते।
इसको ठीक-ठीक अनुवाद करें तो यूं करना होगा: अपने को इस भांति सही कर। किस भांति? अपने को जान कर। बाझ अपने आपदे सही कीते। अगर तू अपने को जान ले तो सब सही हो जाए, सब सम्यक हो जाए, सब ठीक हो जाए। और जिसने अपने को नहीं जाना वह कुछ भी करे तो ठीक नहीं होगा; जो भी करेगा गलत होगा। अच्छा भी करने जाएगा तो बुरा होगा। भला करने जाएगा और बदी होगी। क्योंकि भीतर रोशनी नहीं है और तुम चले दूसरों की रोशनी जलाने! डर यही है कि किसी की जलती रोशनी को न बुझा देना।
बाझ अपने आपदे सही कीते।
"अपने को जान ले तो सब सही हो जाए।'
इसलिए तो मैं जोर नहीं देता कि तुम ऐसा करो और ऐसा न करो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहता हूं: तुम जैसे हो अपने उस स्वरूप को जान लो। फिर तुम जो करोगे वह ठीक ही होगा। और जो नहीं करोगे वह गलत ही होगा, इसलिए नहीं करोगे। इसलिए करने पर मेरा जोर नहीं है, होने पर मेरा जोर है।
बाझ अपने आपदे सही कीते, रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
और अगर विश्वासों में ही जीए तो कभी ठीक तो हो न सकोगे, इसलिए दुख पाओगे। ठीक न होना अर्थात दुख पाना। ठीक होने का अर्थ है जीवन के छंद के साथ समरस हो जाना। जीवन का जो शाश्वत नियम है, जिसको हम धर्म कह सकते हैं--बुद्ध ने कहा है, एस धम्मो सनंतनो--यह जो सनातन जीवन का नियम है, अगर हम इससे अलग चले तो दुख पाएंगे; अगर इसके साथ चले, एकरूप होकर चले तो सुख पाएंगे। सुख की और कोई परिभाषा नहीं। जीवन के साथ तुम्हारा छंद ऐसा आबद्ध हो जाए, जीवन की बांसुरी के साथ तुम्हारा नृत्य ऐसा सध जाए कि तुम्हारे पैर बेढंगे न पड़ें, तुम्हारा जीवन ताल में आ जाए, सुरत्ताल में आ जाए, तालमेल में आ जाए, छंदोबद्ध हो जाए--बस फिर आनंद है। आनंद जीवन के साथ संगीत में है और दुख जीवन के साथ विसंगीत में है।
रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
अगर बहुत विश्वासों में जीए तो दुख का भार ढोओगे।
रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
और भारी है यह दुख। पहाड़ ढो रहे हो तुम विश्वासों के। और ज्ञान की एक किरण काफी है। ज्ञान निर्भार करता है, विश्वास भार देते हैं। ज्ञान पंख देता है, विश्वास सिर्फ तुम्हारे ऊपर पहाड़ थोप देते हैं।
बाझ अपने आपदे सही कीते।
और फिर दोहरा हूं, अपने को जान लो तो सब सही हो जाए।
मुझसे लोग पूछते हैं कि अपने संन्यासियों को आप अनुशासन नहीं देते। क्यों दूं अनुशासन? सदियों से अनुशासन दिया गया है, परिणाम क्या है? सिर्फ पाखंडी पैदा हुए हैं। अनुशासन नहीं देता, अनुबोध देता हूं। और उस अनुबोध से जो निकलेगा वह अनुशासन है। मैं दूं अनुशासन तो शासन हो जाएगा। मैं शास्ता नहीं हूं। मैं किसी को शासन नहीं देता। मैं तो सिर्फ जागा हुआ व्यक्ति हूं। तुम सोए हो, तुम्हें हिलाता-डुलाता हूं कि तुम भी जाग जाओ। फिर जाग कर तुम जो भी व्यवहार करोगे, वह ठीक होना ही चाहिए। जागा हुआ व्यक्ति न कभी गलत किया है, न कर सकता है। जानते हुए कौन आग में हाथ डालता है? जानते हुए कौन दीवार से निकलने की चेष्टा करता है?
होर लख उपाओ न सुख होवे।
और तुम लाख उपाय करते रहो तो भी सुख न होगा। सुख होने का एक ही उपाय है:
बाझ अपने आपदे सही कीते।
होर लख उपाओ न सुख होवे, पुछ वेख सियानने जग सारे।
जाओ और जगत के सारे सयानों से पूछ लो। मगर कौन है सयाना? सयाने का कोई उम्र से नाता नहीं। जो जागा है वह सयाना। जो सो रहा है वह बालबुद्धि; वह चाहे नब्बे साल का ही क्यों न हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह अभी झूला ही झूल रहे हैं। झूला झूलें कन्हैया लाल! वह अभी झूले के बाहर ही नहीं निकले। जो जाग गया वह सयाना है।
लाओत्सु के संबंध में कहानी है कि वह पैदा हुआ, सयाना ही पैदा हुआ। कहानी तो बड़ी प्यारी है कि जब वह पैदा हुआ, उसकी उम्र चौरासी साल थी। ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि चौरासी साल में बेचारी मां की क्या हालत हुई होगी! मां गर्भवती हुई होगी तो रही होगी, कम से कम सोलह-सत्रह साल की तो रही होगी। सोलह-सत्रह साल की उम्र से लेकर चौरासी साल तक लाओत्सु को अपने गर्भ में ढोना, कब की मर चुकी होगी। सौ साल की हो रही होगी। और चौरासी साल कहीं गर्भ रहता है?
लेकिन बात बड़ी प्रीतिकर है। मतलब सिर्फ इतना है कि लाओत्सु सयाना ही पैदा हुआ। बुद्ध बयासी साल में मरे। बुद्ध जिस घड़ी में मरे, जिस अवस्था में मरे, कहानी यह कह रही है कि लाओत्सु उसी चेतना की अवस्था में पैदा हुआ। जागा ही पैदा हुआ।
सयाने से अर्थ है, जिसने सत्य को जाना। और किसी तरह से तुम सुख न पाओगे। और सब तरह से दुख पाओगे। लाख करो उपाय, सुख न होगा। उपाय से सुख का कोई संबंध ही नहीं। आसन लगाओ, व्यायाम करो, प्राणायाम साधो, शीर्षासन, सर्वांगासन, मयूरासन, और कितने आसन हैं, करते रहो; शरीर को इधर हिलाओ उधर डुलाओ, दंड-बैठक लगाओ, लगाते रहो--कुछ भी न होगा। उपवास करो, भूखे मरो, दूसरों को भूखा मारो, कुछ भी नहीं होगा। शरीर को गलाओ, सड़ाओ--धूप में, सर्दी में--कुछ भी न होगा। उपाय से कुछ भी नहीं होने वाला। हां, ध्यान से कुछ होगा। और ध्यान उपाय नहीं है। ध्यान है शून्य अवस्था, निष्प्रयत्न की अवस्था, अक्रिय अवस्था, जहां सब क्रिया समाप्त हो जाती है। और उसी ध्यान की अवस्था में अपने से पहचान होती है। जब तुम बिलकुल मौन हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, करना छूट गया बहुत दूर, न करने की अवस्था में आ गए हो, तभी, तत्क्षण जगत के सत्य से तुम्हारा सत्य मेल खा जाएगा। संगीत बज उठेगा! पैरों में पायलें बंध जाएंगी! घूंघर छनक उठेंगे!
सुख रूप अखेड़ चेतन है तू।
तुम्हारा स्वभाव सुख है, क्योंकि तुम चैतन्य हो।
बुल्लाशाह पुकार दे वेद सारे।
ये सारे जगत के वेद...और ध्यान रखना, बुल्लेशाह कोई हिंदुओं के चार वेदों की बात नहीं कर रहा है। कुरान भी वेद है और बाइबिल भी वेद है और जेंदावेस्ता भी वेद है और तालमुद भी वेद है और धम्मपद भी वेद है। बुल्लेशाह जो बोल रहे हैं वह भी वेद है। नानक और कबीर और दादू और मीरा जो बोले, वह भी वेद है। जो भी जाग्रत पुरुष बोला है, वह वेद है।
वेद शब्द प्यारा है; वह बनता है विद से। विद से अर्थ है, जिसने जाना। जाना जो, वह जो भी बोला है, वह वेद है। तो कोई चार हिंदुओं के वेद ही नहीं हैं। जितने जगत में जाग्रत पुरुष हुए हैं, उनके सभी शब्द वेद हैं।
बुल्लाशाह पुकार दे वेद सारे।
बुल्लेशाह कहते हैं: सारे वेद, सारे जानने वाले लोगों के गीत एक ही तो गान गा रहे हैं, एक ही तो उनका स्वर है, एक ही तो उनका संगीत है। क्या है?
सुख रूप अखेड़ चेतन है तू।
तू सुखरूप है। तू चैतन्य है। तू शरीर नहीं। तू मन नहीं। तू चेतना है। और जिसने यह जान लिया कि मैं चैतन्य हूं, उसने सब जान लिया। क्योंकि उसने जान लिया मैं भगवतस्वरूप हूं। उसने जान लिया--अहं ब्रह्मास्मि! उसने जान लिया--अनलहक!
इस जिंदगी में सब बदल जाता है, सिर्फ एक चैतन्य की धारा नहीं बदलती।

छंट ही जाते हैं बादल तो हालात के
जख्म भरते नहीं दोस्तो बात के
अपनी तकदीर कि प्यास बुझ न सकी
छींटे हम तक भी आए हैं बरसात के
साकी की नजरें भी धोखा देने लगीं
खतम होने लगे सांस भी रात के
इस जफा का ऐ हमदम बहुत शुक्रिया
क्या करूं पेश बदले में सौगात के
अपने सीने से आंचल न सरकाइए
मुझ से रुकते नहीं तूफां जज्बात के
जिंदगानी के इस आखिरी मोड़ पर
ढूंढता हूं कहां खो गए साथ के
अच्छे अच्छों के तेवर बदल जाते हैं
रंग देखे नहीं तुमने हालात के
अश्क भी जिंदगी के साथी न बने
ये भी मोती थे उनकी ही सौगात के
छंट ही जाते हैं बादल तो हालात के
जख्म भरते नहीं दोस्तो बात के

इस जिंदगी में सब बदल जाता है, साथी बदल जाते, संगी बदल जाते, सब बदल जाते। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती--तुम्हारा चैतन्य, तुम्हारा बोध नहीं बदलता। वही तुम्हारे भीतर शाश्वत ज्योति है। शरीर बदलता है, मन बदलता है, भावनाएं बदलती हैं, सब बदलता है।
यूं समझो कि जैसे गाड़ी चलती है तो चाक तो घूमता रहता है, लेकिन कील जिस पर चाक घूमता है, सदा थिर होती है। वह चैतन्य ही तुम्हारी कील है। और जिसने उस थिरता को पा लिया, वह स्थितप्रज्ञ हो जाता है। जिसने उस थिरता को पा लिया, उसने परमात्मा के दरवाजे की कुंजी पा ली।
बुल्लेशाह के वचन प्यारे हैं। सोचना। सोचना ही मत--समझना। समझना ही मत--ध्याना। ध्याना ही मत--जीना।

आज इतना ही।



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