कुल पेज दृश्य

सोमवार, 10 जुलाई 2017

सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—प्रवचन-02

सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो
सहज निर्मलता—प्रवचन-दूसरा
दिनांक 02 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
मुझे ज्ञान दें। आज भिक्षु बन कर आपकी शरण में हूं। क्या आप शरण आए को क्षमा नहीं करेंगे? आपकी शरण आकर ही मैं आज ज्ञान-दान मांग रही हूं। मेरी स्थिति उस कनक ऋषि की पुत्री की तरह है, जो निर्मल थी, जिसे कुछ भी पता न था; जैसा जिसने बताया, सिखाया, उसके हृदय पर लिख गया। क्या इसे मिटा नहीं सकते? आप कहते हैं, जिन्होंने बताया उन्हीं से पूछो। नहीं, मैं आज आपकी शरण हूं। आप ही तटस्थता की स्थिति का मार्ग-दर्शन कराएंगे। क्या निराश वापस जाऊं? नहीं, सिर्फ एक बार मुझे मार्ग-दर्शन कराएं। चाहे किसी भी धर्म की होऊं, आपके लिए तो सब समान हैं न?

 कृष्णा पंजाबी,

अज्ञान से छूटना आसान, ज्ञान से छूटना बहुत मुश्किल। अज्ञान से छूटना इसलिए आसान कि अज्ञान अहंकार के विपरीत है। कौन होना चाहता है अज्ञानी? कौन रहना चाहता है अज्ञानी? अज्ञान काटता है। अज्ञान कांटे की तरह चुभता है। कांटे को तो कोई भी निकालने को राजी हो जाता है। लेकिन ज्ञान, चाहे झूठा ही सही, उधार ही सही, बासा ही सही, सड़ा-गला ही सही, फिर भी फूल जैसा लगता है। आदमी सम्हाल लेना चाहता है, बटोरना चाहता है। ज्ञान को छोड़ना इसीलिए मुश्किल हो जाता है--अहंकार को भरता है, सजाता है, शृंगार देता है। और अगर जंजीरें भी आभूषण मालूम होने लगें तो बहुत मुश्किल हो जाती है। कोई छुड़ाना भी चाहे तो जिसने जंजीरों को आभूषण समझा है, वह विरोध करेगा। कारागृह को किसी ने मंदिर समझा हो तो जीवन बहुत झंझट में पड़ जाता है।
और ऐसी ही तेरी झंझट है। अभी भी तुम उन्हीं उधार बातों को दोहराए जाती हो। कहती हो, "मेरी स्थिति उस कनक ऋषि की पुत्री की तरह है, जो निर्मल थी, जिसे कुछ भी पता न था।'
कहां के कनक ऋषि और कहां की उनकी पुत्री? सब बकवास सुनी हुई है--उधार और बासी।
एक विद्यालय निरीक्षक
विद्यालय का निरीक्षण
करता हुआ,
एक कक्षा में आया।
आते ही विद्यालय निरीक्षक ने
लड़कों के सामने
प्रश्न उठाया--
खानों के बारे में
क्या जानते हो?
एक लड़का बोला, श्रीमान,
जहां धरती से
खनिज निकलता है,
उसे कहते हैं खान।
तभी दूसरा लड़का,
जो फिल्में देखने का था
शौकीन।
ऐक्टरों के बारे में रखता था
जरूरत से ज्यादा ज्ञान। बोला--
खानों की बंबई में भी
कमी नहीं है।
तीन खान तो बहुत मशहूर हैं
कादर खान
संजय खान
और
फिरोज खान।

कहां के कनक ऋषि? सब सुनी हुई बकवास। लेकिन प्यारी लगती हैं ये बातें कि मैं कनक ऋषि की पुत्री की भांति हूं--निर्मल। जैसा जिसने बताया, सिखाया, उसके हृदय पर लिख गया।
यह तो निर्मलता की पहचान नहीं है। निर्मलता में तो बड़ी सजगता होती है। निर्मलता का तो अनिवार्य अंग है--जागरूकता। कोई भी आए और कुछ भी लिख जाए, यह बुद्धूपन हो सकता है, निर्मलता नहीं; मूढ़ता हो सकती है, सरलता नहीं। और ध्यान रखना, बुद्धू होना बुद्ध होना नहीं है; हालांकि दोनों शब्द एक ही धातु से बने हैं, लेकिन कितना आसमान और जमीन का अंतर है। कहां बुद्ध और कहां बुद्धू! एक अर्थ में दोनों निर्मल मालूम होते हैं--बुद्धू भी और बुद्ध भी। लेकिन बुद्ध की निर्मलता में बगावत है, विद्रोह है, सजगता है, तलवार की धार है। ऐसे हर कोई लिख जाए, हर कुछ लिख जाए, कूड़ा-करकट फेंक जाए, आसान नहीं है। बुद्धू तो कचरे का ढेर है; कुछ भी डाल दो, उसी को पकड़ लेगा। न सोचेगा, न विचारेगा। न खोजेगा, न प्रयोग करेगा। भरोसे को तैयार ही बैठा है।
और कैसी-कैसी बातें तुमने मान रखी हैं! उन पर प्रश्नचिह्न लगाओ। इसके पहले कि मानो, जानो। जानने से ज्ञान बनता है, मानने से नहीं। विश्वास अंधापन है।
हमारे पास एक शब्द है--अंधविश्वास। मगर वह शब्द ठीक नहीं, क्योंकि उस शब्द से यह भ्रांति पैदा होती है कि शायद कुछ विश्वास ऐसे भी होते होंगे जो अंधे नहीं होते। सभी विश्वास अंधे होते हैं। अंधविश्वास कहने की जरूरत ही नहीं है; विश्वास यानी अंधा। सिर्फ अंधा आदमी प्रकाश पर विश्वास करता है। आंख वाला क्यों विश्वास करे? किसलिए विश्वास करे? आंख वाला प्रकाश को देखता है, जानता है; विश्वास की जरूरत नहीं रह जाती। जहां विश्वास की जरूरत न रह जाए वहीं समझना कि ज्ञान हुआ। लेकिन विश्वास को ही हम ज्ञान समझ कर छाती से लगाए चलते हैं।
अब तू कहती है, "जैसा जिसने बताया, सिखाया, हृदय पर लिख गया।'
प्रश्न उठाने थे। जिज्ञासा करनी थी। संदेह करना था। लेकिन संदेह करने के लिए साहस चाहिए। और निर्मलता में साहस होता है। साहस तो चालबाज आदमी में नहीं होता, बेईमान आदमी में नहीं होता। साहस तो हर बच्चे में होता है। इसलिए छोटा बच्चा तो सांप को पकड़ ले, कोई भय नहीं; सिंह के साथ खेलने लगे, कोई भय नहीं; आग में हाथ डाल दे, कोई भय नहीं; जहर को पी जाए, कोई भय नहीं। अभय है। और जहां अभय है वहां सत्य की खोज हो सकती है।
तू कहती है, "मुझे ज्ञान-दान दें।'
फिर वही बात। दूसरे का दिया हुआ ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए ज्ञान-दान नहीं होता। ज्ञान का आविष्कार करना होता है। भिक्षा में नहीं मिलता ज्ञान, नहीं तो एक ही बुद्ध पुरुष सारे जगत को ज्ञान दे डाले। भिखारियों की कोई कमी तो नहीं है। और मुफ्त ज्ञान मिलता हो तो कौन छोड़े! और इसी मुफ्त ज्ञान के कारण हम धोखे में पड़े हैं। ज्ञान मुफ्त नहीं मिलता; बड़ी कीमत चुकानी होती है। अपने अहंकार को समर्पित करना होता है। और तू कहती है, मुझे ज्ञान-दान दें। तू भाषा ही गलत बोल रही है।
मगर ये तथाकथित सत्संग जो इस देश में चलते हैं, वहां इसी भाषा के सिक्के चलते हैं। हम तो किसी भी चीज का दान कर देते हैं। लड़की का विवाह करते हैं, उसको कहते हैं--कन्यादान। कन्या न हुई, कोई चीज हुई! कुर्सी हुई, फर्नीचर हुई, रेडियो हुई, टेलीविजन हुई, लड़की न हुई। कन्यादान शर्म भी नहीं आती कहते! जैसे कुछ भिक्षा दे रहे होओ। मगर शर्म इसलिए नहीं आती कि धारणाएं मजबूत बैठ गई हैं। स्त्री को संपत्ति मानने की धारणा है हमारी, इसलिए कहते हैं--स्त्री-संपत्ति। और स्त्रियां भी विरोध नहीं करतीं। वे शायद सोचती होंगी--अहा, संपत्ति! कैसा प्यारा शब्द! कितना मूल्य दिया जा रहा है, कितना सम्मान! संपत्ति!
लोग कहते हैं--जर जोरू जमीन, झगड़े के घर तीन। लेकिन पत्नी की भी गिनती जमीन के साथ कर रहे हैं, धन के साथ कर रहे हैं। और कोई पत्नी विरोध नहीं करती, कोई स्त्री विरोध नहीं करती। जिन स्त्रियों को तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा सतत गालियां देते हैं, वे ही स्त्रियां उनके सत्संग में बैठ कर सत्य वचन महाराज बोलती हैं। जिन साधु-महात्माओं की तुम्हें पिटाई कर देनी चाहिए, जिनको निकाल गांव के बाहर फेंक देना चाहिए--क्योंकि वे साधु-महात्मा कह रहे हैं कि स्त्रियां नरक का द्वार हैं--और स्त्रियां मंत्रमुग्ध होकर सुन रही हैं। वे साधु-महात्मा समझा रहे हैं स्त्रियों के विपरीत स्त्रियों को। और स्त्रियों के सिवाय कोई सत्संग नहीं कर रहा है उनका। स्त्रियां ही सत्संगी हैं। सौ सत्संगियों में नब्बे स्त्रियां मिल जाएंगी।
और दस जो पुरुष सत्संग करने आए हैं वे महात्मा का सत्संग करने नहीं आए हैं। वे बाकी स्त्रियों का सत्संग करने आए हुए हैं--कि भीड़-भाड़ में थोड़ा धक्का-मुक्की कर लेंगे। भारतीय संस्कृति! ऐसा अवसर नहीं चूकना चाहिए। और तो कहीं अवसर मिलता नहीं; यहीं सत्संग में थोड़ा-बहुत धक्का-मुक्की हो सके तो हो सके। और साधु-महात्मा जैसे ठेका ही लिए बैठे हैं। एक ही काम है कि स्त्रियों को गाली दो।
मगर बगावत का स्वर खो गया है। भिखारीपन की बात आ गई है। तू कहती है, मुझे ज्ञान-दान दें। जो दान में दिया जा सके उसकी चोरी भी हो सकती है। मैं तो दे दूं और कोई चुरा कर ले जाए, फिर? मैं तो तुझे दे दूं, कोई चकमा दे दे, फिर? और तू तो कनक ऋषि की पुत्री की तरह निर्मल है!
ज्ञान न तो दिया जाता, न लिया जाता। ज्ञान तो स्वयं के भीतर अनुभव करना होता है। ज्ञान तो स्वानुभव है। जरूर मैं तुझे विधि दे सकता हूं कि कैसे उस स्वयं के भीतर छिपे हुए राज को खोला जाए। मैं तुझे कुदाली दे सकता हूं कि कैसे अपने ही भीतर खुदाई की जाए और अमृत के झरनों को खोजा जाए। अमृत के झरने मैं नहीं दे सकता। मगर तू बड़ी जल्दी में मालूम पड़ती है।
तू कहती है, "सिर्फ एक बार मुझे मार्ग-दर्शन कराएं।'
एक बार में तू सोचती है तुझे मार्ग-दर्शन हो जाएगा? ऐसे भागते-भागते भूत की लंगोटी भी नहीं मिलती। कहते हैं लोग कि भागते भूत की लंगोटी भली। मगर भागते भूत की लंगोटी भी मिल सकती है? ऐसी आपाधापी में मालूम होती है तू, इतनी जल्दबाजी में कि बस एक बार! काश इतना आसान होता कि मैं एक बार कहता और तू समझ लेती। हजार बार में भी समझ ले तो जल्दी समझा। लाख बार में भी समझ ले तो सौभाग्यशाली है। क्योंकि समझ के विपरीत इतनी-इतनी बातें बैठी हैं, जो रुकावट डालेंगी, जो दीवारों की तरह हैं।
अब जैसे तू कह रही है कि "एक बार मुझे मार्ग-दर्शन कराएं। चाहे किसी भी धर्म की होऊं, आपके लिए तो सब समान हैं न?'
मेरे लिए तो एक ही धर्म है, समान का सवाल ही नहीं उठता। समान का तो सवाल तब उठे जब बहुत धर्म हों। हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन और बौद्ध धर्म नहीं हैं, संप्रदाय हैं। उस एक धर्म को पाने के विभिन्न रास्ते हैं। धर्म तो एक ही है। धर्म तो स्वभाव का नाम है, तुम्हारे चैतन्य की जो प्रतीति है। चैतन्य को अनुभव कर लेना, अपने भीतर बैठे परमात्मा को पहचान लेना धर्म है। और तो कोई धर्म नहीं है। ये मंदिर और ये मस्जिद और ये गिरजे और गुरुद्वारे, ये सब तो उसी धर्म की तरफ जाने वाले मार्ग हैं। इसलिए हमने इनको पंथ कहा है, धर्म नहीं; संप्रदाय कहा है, धर्म नहीं। धर्म कहीं दो हो सकते हैं? आत्मा का स्वभाव एक है, सत्य एक है, तो धर्म कैसे दो हो सकते हैं? अनेक तो हो ही नहीं सकते।
लेकिन तेरी धारणाएं खूब मजबूती से बैठी हैं। तू कहती है कि "क्या आप शरण आए को क्षमा नहीं करेंगे?'
मैं तुझ पर नाराज ही कब हुआ? क्षमा तो वह करे जो नाराज हुआ हो। कल तेरी बातों का हम सबने इतना रस लिया, फिर भी तू समझ रही है कि मैं नाराज हुआ। इतनी मीठी-मीठी बातें तूने कही थीं, सब गदगद हुए थे, आह्लादित हुए थे। नाराजगी का सवाल कहां है? लेकिन तू चूक गई होगी। क्योंकि तू तो ब्रह्मज्ञान के पीछे लट्ठ लेकर पड़ी है। ये ब्रह्मज्ञानी बड़े अजीब तरह के लोग हैं। ये तो एकदम गुरु-गंभीर, परमात्मा के ऐसे पीछे पड़े हैं कि मिल जाए तो उसे ठिकाने लगा दें। इसलिए तो मिलता नहीं। इसलिए वह भी भागा-भागा है।
जब पहले पहल--सुनी है मैंने कहानी--कि परमात्मा ने दुनिया बनाई थी तो एम.जी. रोड पर ही रहता था। लेकिन लोग बहुत सताने लगे, पहुंचने लगे होंगे कृष्णा पंजाबी और इत्यादि-इत्यादि। सिंधी सत्संगी जहां न पहुंच जाएं! यहां भी बहुत सिंधी सत्संगी हैं। मगर उन सबको मैंने भ्रष्ट कर दिया। और मैं जब किसी को भ्रष्ट करता हूं तो ऐसा भ्रष्ट करता हूं कि फिर कुछ बाकी नहीं छोड़ता। तो यहां भी एक से एक सिंधी सदगुरु मौजूद हैं। अगर तुझे सत्संग ही करना हो तो यहां भी कई सिंधी दादा हैं--चेनानी दादा! सीता मैया! रामचंद्र जी को ठिकाने लगा चुकीं--कई रामचंद्र जी को ठिकाने लगा चुकीं! और अभी भी मजबूती से तैयार हैं कि किसी को भी भरम-ज्ञान करना हो तो करवा दें। जैसी तू कृष्णा पंजाबी है, ऐसी हमारी पुष्पा पंजाबी है। बिगड़ गई, बिलकुल बिगड़ गई, नाम रख दिया--बिगड़ गई बहुत तो मैंने नाम रख दिया: धर्म ज्योति! तेरी जैसी ज्ञानी थी। जब शुरू-शुरू में आई थी, बड़ी ब्रह्मज्ञान की बातें करती थी। मगर मेरा काम ही लोगों को भ्रष्ट करना है; उनको जमीन पर लाना है। लोग आकाश में उड़ना चाहते हैं। पहले जमीन पर तो पैर टिकाओ।
तो कल तो हमने तेरा इतना आनंद लिया, तेरी बातों का, और तू समझी कि नाराज हैं! तू सुन ही न पाई होगी। तूने सोचा होगा कि तेरे ब्रह्मज्ञान की बातों पर मैं गंभीरता से चर्चा करूंगा। मैं तो सिर्फ सरलता से, सहजता से, आनंद-भाव से बात करता हूं। गंभीरता तो रोग है, बीमारी है।
मैं चंदूलाल को लेकर मुल्ला नसरुद्दीन से मिलने गया था। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक बहुत प्यारा चुटकुला सुनाया। मैं तो जी खोल कर हंसा, लेकिन चंदूलाल बिलकुल गंभीर रहे। मैं थोड़ा हैरान हुआ कि बात क्या। जब लौटे तो रास्ते में मैंने पूछा कि चंदूलाल, इतना प्यारा लतीफा सुनाया और तुम हंसे नहीं! कहा कि लतीफा तो प्यारा था, लेकिन पहले तो वह मुसल्ला, मैं हिंदू और मुसलमान की बात पर हंसूं, कभी नहीं! और वह क्या जानता है? ब्रह्मज्ञान की बातें उसे आती भी नहीं। लतीफा सुंदर था और सबके सामने हंसूं, उससे गंभीरता का क्षय होता है। और सत्य के खोजी को गंभीर होना चाहिए। अरे अपने घर जाकर एकांत में बैठ कर हंसूंगा, न किसी को पता चलेगा न किसी को खबर होगी।
तो तू भी गंभीर रही होगी। अगर तू भी हंस लेती, आनंदित होती, प्रसन्न होती, तो मैं जो बात कह रहा था वह तेरे समझ में आती। गंभीर आदमी तो बंद होता है। उसके द्वार-दरवाजे बंद। उसमें से तो किरण भी प्रवेश नहीं कर सकती, हवा का झोंका भीतर नहीं आ सकता। खुल! ये ज्ञान की, ये किताब की दीवारें जो तूने खड़ी रखी हैं, इनको अलग कर।
दुनिया में सिर्फ धार्मिकता है, धर्म नहीं। सत्य है धार्मिकता। और धार्मिक व्यक्ति न हिंदू होता, न मुसलमान होता, न ईसाई होता, न जैन होता। हो ही नहीं सकता। धार्मिक व्यक्ति तो सिर्फ धार्मिक होता है। उसके जीवन में अस्तित्व के प्रति एक प्रेम होता है, एक श्रद्धा होती है, अस्तित्व के प्रति एक प्रगाढ़ आनंद का भाव होता है। संगीत हिंदू होता है कि मुसलमान? नृत्य ईसाई होता है कि जैन? तो उत्सव, आनंद--अंतस का उत्सव, अंतस का आनंद--कैसे हिंदू, कैसे ईसाई, कैसे मुसलमान हो सकता है? असंभव।
इसलिए यह मत सोच कि मैं तुझ पर नाराज था, या तू किसी और धर्म की है। सब मेरे धर्म के हैं, क्योंकि एक ही धर्म है दुनिया में। जो धार्मिक हैं, वे सब एक धर्म के हैं। और जो अधार्मिक हैं, वे अनेक धर्मों के हो सकते हैं। और नाराज तो मैं कभी भी नहीं। लेकिन अपने-अपने ढंग होते हैं सोचने के। तूने सत्संग किए होंगे तथाकथित साधु-महात्माओं के, पढ़ी होगी रामायण बाबा तुलसीदास की--जो कह गए: ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी। स्त्रियां पढ़ रही हैं, फाड़ नहीं डालतीं, आग नहीं लगा देतीं! चूल्हा इतने करीब है। वहीं चूल्हे के सामने बैठी रामचरितमानस पढ़ रही हैं। खुद ही दोहरा रही हैं, सिर हिला-हिला कर दोहरा रही हैं: ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
चंदूलाल अपने कमरे में बैठे थे, उनका बड़ा लड़का आया और बोला, पिताजी मेरी वजह से एक लड़की मुसीबत में फंस गई। चुप रहने के लिए वह पांच हजार रुपए मांगती है। चंदूलाल ने बड़े अनमने भाव से चेक काट कर दे दिया। तभी उनका छोटा लड़का आया और उसने भी वैसी ही दास्तान सुनाई। फर्क सिर्फ इतना था कि इस मामले में लड़की दस हजार रुपए में ही चुप रह सकती थी। पिता परेशानी में चेक काट ही रहे थे कि उनकी सबसे छोटी लड़की आई और सोफे पर बैठ कर रोने लगी। कारण पूछने पर बोली, पिताजी, मैं भी मां बनने वाली हूं। सुनते ही पिताजी की बांछें खिल गईं और मूंछों पर बल देते हुए बोले, अब बटोरने की मेरी बारी है।
मारवाड़ी तो एक ही भाषा समझता है--पैसे की भाषा, कि अब बटोरने की मेरी बारी है। ठीक किया बिटिया, पंद्रह हजार हाथ से गए हैं, अब तीस हजार से कम नहीं बटोरूंगा।
तू भी एक भाषा की आदी हो गई है--वही गंभीर भाषा। सरल हो। जैसा तू कहती है कि निर्मल, तो थोड़ा हंस, थोड़ा मुस्कुरा, थोड़ा प्रसन्न हो। थोड़ी हलकी हो। भारी होने से कोई परमात्मा तक नहीं पहुंचता, हलका होने से पहुंचता है। इसलिए मेरी दृष्टि में तो जी भर कर हंस लेने से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं। क्योंकि हंसना जितना हलका करता है, प्रार्थना उतना हलका नहीं करती। प्रार्थना करने वाले तो बड़े गुरु-गंभीर हो जाते हैं, भारी हो जाते हैं, पत्थर जैसे हो जाते हैं। ये क्या आकाश में उड़ेंगे, इनके तो पंख ही कट गए!
न तो मैं तुझ पर क्रोधित हुआ हूं, न कभी किसी पर क्रोधित हुआ हूं। क्रोधित होता ही नहीं हूं। सार ही क्या है क्रोधित होने में! क्रोधित तो तू थी कि परमात्मा ने यह दुनिया क्यों बनाई? यह क्यों जंजाल शुरू किया? फिर पाप-पुण्य की परिभाषा न बनाता कुछ, न होता पाप न होता पुण्य। नाराज तो तू थी। मैं तो तुझसे कहूंगा कि परमात्मा को क्षमा कर दे, अरे गलती सभी से हो जाती है और एक बार गलती करने का तो सभी को हक है। दुबारा तो उसने दुनिया बनाई नहीं। एक बार बेचारा बना बैठा, बना बैठा। जो हो गया सो हो गया। बीती ताहि बिसार दे! अब आगे की सुध लो। अब जो हो गया पीछे, हो गया। अब किए को तो अनकिया नहीं किया जा सकता।
वही तो गलती की थी उसने, दुनिया बनाई, गलती कर दी, एम.जी. रोड पर रहने लगे। बस तेरी जैसी महिलाएं और महात्मागण उनको सताने लगे। दिन-रात चौबीस घंटे सत्संगी पहुंचने लगे, कि ऐसा क्यों किया, वैसा क्यों किया, क्यों दुनिया बनाई? आदमी के मन में पाप को क्यों रखा, वासना क्यों बसाई? प्रेम का उदय क्यों होता है? आदमी घर-गृहस्थी में क्यों फंसता है? आवागमन से छुटकारा कैसे होगा? जान ले ली उसकी! परमात्मा भाग खड़ा हुआ। उसने अपने वजीरों को इकट्ठा किया और पूछा कि कोई रास्ता बताओ, कहां छिपूं? ये दुष्ट अब मेरा पीछा न छोड़ेंगे। अब हो गई गलती, हो गई। अगर आदमी को न बनाता तो यह उपद्रव न होता। पशु-पक्षी भले थे। सब सुंदर थे। कोयल गीता गा रही थी, तोते हवाओं में हरियाली फैला रहे थे--यूं उड़ रहे थे जैसे वृक्षों से पत्ते उड़ गए हों! तितलियां धूप में आनंदमग्न हो उड़ रही थीं। आकाश में चीलें दूर-दूर की यात्रा पर निकली थीं। सब सुंदर था। फूल खिले थे। बदलियां तैर रही थीं। झीलों में वृक्षों की छाया बन रही थी। सब प्यारा था। यह आदमी को बना कर गलती हो गई। अब मैं कहां जाऊं, कहां छिपूं?
तो एक ने कहा कि आप ऐसा करें गौरीशंकर पर चले जाएं। वहां कोई आदमी नहीं आ पाएगा। ईश्वर ने जरा गौर से देखा और कहा कि नहीं, थोड़े ही दिनों बाद एक दुष्ट होगा पैदा, हिलेरी नाम का, वह वहां पहुंचेगा। और वह पहुंच गया कि फिर देर नहीं लगेगी। एक पहुंचा कि सब पहुंचे। थोड़ी देर में बसें आने लगेंगी, हवाई जहाज, हेलीकाप्टर, और यही सब दुष्ट, वही के वही सवाल। और जवाब मेरे पास कुछ भी नहीं। अरे भूल हो गई, हो गई। अब और क्या कहूं? कितनी बार माफी मांगूं, कि भाई माफ करो, अब कभी ऐसा न करूंगा! वहां से कुछ हल नहीं होगा।
किसी ने सलाह दी, आप चांद पर बस जाएं।
उसने कहा, वहां भी कुछ ही देर में ये अमरीकी पहुंच जाएंगे। ये अमरीकी जहां न पहुंचें! ये कोई स्थान ही छोड़ने वाले नहीं हैं। ये चले जाते हैं, साधु-संत रहते हैं हिमालय की गुफाओं में, वहां भी पहुंच जाते हैं। हिंदुस्तानी तो यहीं नीचे से बैठ कर प्रसन्न होते हैं कि साधु-संत हिमालय में रहते हैं, जाता-वाता कोई नहीं। ऐसी झंझट में कौन पड़े! अरे साधु-संतों की पड़ी होगी तो खुद ही आएंगे ज्ञान-दान करेंगे, जिनको करना होगा ज्ञान-दान करेंगे। जब बेचैनी खुद ही पैदा होगी तो आएंगे। मगर अमरीकी पहुंच जाते हैं।
तो हिलेरी भी पहुंचा। भारत का तो गौरीशंकर, मगर कोई भारतीय नहीं कोशिश किया। और अमरीकी पचास साल से कोशिश में लगे हुए थे। पाश्चात्य देशों के लोग पचास साल से आ रहे थे, जा रहे थे, मर रहे थे, गिर रहे थे, खो जाते थे, पता नहीं चलता था कि कहां गए, मगर चढ़ कर ही रहे। जब हिलेरी से किसी ने पूछा कि आखिर ऐसी क्या बेचैनी थी? किसी भारतीय पत्रकार ने पूछा कि हम भी यहीं रहते हैं, सामने ही गौरीशंकर है, अरे जब चाहे चले जाते, कभी न गए, ऐसी क्या पड़ी थी? और उधर रखा भी क्या है? पा क्या लिया जाकर? तो हिलेरी ने, मालूम है, क्या कहा? हिलेरी ने कहा कि सवाल पाने का नहीं है; सवाल यह है कि यह गौरीशंकर चुनौती है। यह खड़ा है और अब तक इस पर आदमी नहीं पहुंचा। पहुंच कर रहेंगे! इसको ठिकाने लगा कर रहेंगे! यह अकड़! यह आदमी बरदाश्त नहीं कर सकता।
तो अमरीकी तो जहां न पहुंच जाएं। वे कहीं भी पहुंचेंगे। गुफा-गुफा खोज डालेंगे। चांद पर भी पहुंच जाएंगे। पहुंचने ही वाले हैं--ईश्वर ने कहा--ज्यादा देर नहीं है। कोई ऐसी जगह बताओ जहां कोई न पहुंचे!
तब एक बूढ़े वजीर ने उसके कान में कहा, आप ऐसा करो। चुपचाप कान में कहा। परमात्मा एकदम प्रसन्न हो गया। उसने कहा, यह बात जंचती है। यही करूंगा। सबने पूछा कि वह कौन-सी बात है? उसने कहा, अब यह तुम न पूछो, नहीं तो बात फैल जाएगी।
तुम्हें मैं बता रहा हूं, लेकिन किसी से कहना मत। यह बात फैलानी नहीं है। इसे सम्हाल कर रखना है। संयम साधना। लाख मन हो कहने का, किसी से कहना ही मत।
उस बूढ़े वजीर ने परमात्मा से कहा था कि आप ऐसा करो, आदमी के भीतर छिप जाओ, वहां कोई आदमी कभी नहीं जाएगा। या कभी अगर कोई जाएगा भी--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मोहम्मद, कोई नानक, कोई कबीर, कोई पलटू--तो वे ऐसे आदमी नहीं हैं कि आप से प्रश्न करें, कि झंझटें खड़ी करें। वे तो इस तरह के लोग हैं कि आप उनसे प्रश्न करोगे तो वे कहेंगे, चुप रहो भाई, बेकार! फिजूल का सत्संग कर-कर के हम थक गए, अब चुप रहो। यहां भी आए, यहां भी आप बैठे हो। फिर सत्संग! किसी तरह तो सत्संगियों से छूटे। तो ये इस तरह के लोग नहीं हैं, इनसे आपको कोई बेचैनी नहीं होगी। न ये सवाल उठाएंगे, न जवाब देंगे।
और परमात्मा को बात जंच गई। और कृष्णा पंजाबी, तभी से वह आदमियों के भीतर छिपा बैठा है, तेरे भीतर भी छिपा बैठा है। और तू ज्ञान-दान मांग रही है और वह भीतर बैठा हुआ है। और वह भीतर बैठा हंस रहा है। वह कह रहा है, यह देखो, यह सिंधी बाई को देखो!
तू कहती है कि "आज मैं भिक्षु बन कर आपकी शरण में आई हूं।'
भिक्षु बन कर आने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे संन्यासी भिखारी नहीं हैं, भिक्षु नहीं हैं। सम्राट हैं। सम्राटों की तरह ही रहते हैं। यूं ही रहना चाहिए। अरे चार दिन की जिंदगी है, शान से रहो! गीत तुम्हारे ओंठों पर हों, आनंद तुम्हारे प्राणों में हो। यह भिक्षापात्र लिए क्या घूमना? और परमात्मा भीतर बैठा है, उसका भी तो कुछ संकोच करो। क्या सोचेगा?
नहीं, भिक्षु बन कर आने की कोई आवश्यकता नहीं है और न मांगने की कोई जरूरत है। जो भी तुम्हें पाना है, तुम्हारे भीतर मौजूद है। कहीं जाना नहीं है, भीतर मुड़ना है। आंखें जो बाहर भटक रही हैं, इनको बंद करो।
तू पूछती है कि तटस्थता का मार्ग बता दें। सीधा-साफ रास्ता है। बाहर से आंख बंद करो और भीतर देखना शुरू करो। सधते-सधते सध जाएगा। धैर्य रखना। जल्दबाजी की बात नहीं है। जल्दी की कोई जरूरत भी नहीं है। अनंत काल पड़ा हुआ है। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, देर-अबेर बात हो जाएगी। जब होनी है तब हो जाएगी। आपाधापी नहीं पैदा कर लेना, क्योंकि उसी से चिंता पैदा होती है, व्यग्रता पैदा होती है, अधैर्य पैदा होता है। अधैर्य, व्यग्रता, चिंता से मन में तरंगें उठ आती हैं। तरंगें उठ आती हैं, बस फिर भटक गए, फिर भीतर का दर्पण छिन्न-भिन्न हो गया।
निस्तरंग चित्त चाहिए। और निस्तरंग चित्त तभी होता है, जब कोई दौड़ न रह जाए--धन की नहीं, पद की नहीं, परमात्मा की भी नहीं। धन की नहीं, ध्यान की भी नहीं। उसी स्थिति का नाम ध्यान है, जहां दौड़ न रह जाए। लेकिन आदमी ऐसा पागल है कि जिसका हिसाब नहीं। वह किसी तरह धन छोड़ता है तो ध्यान की दौड़ में लग जाता है, मगर दौड़ जारी है। अब बाजार नहीं जाता तो हिमालय जाता है; मगर जाता है बाहर। बाजार भी बाहर है, हिमालय भी बाहर है। पहले जाकर फिल्में देखता था, अब जाकर साधु-महात्माओं का सत्संग करता है। फिल्में भी बाहर, संजय खान और फिरोज खान और सब खान बाहर। और ये महात्मा भी उतने ही बाहर।
ध्यान का अर्थ है, आपाधापी नहीं, दौड़-धूप नहीं, कहीं जाना नहीं है। चौबीस घंटों में जब भी तुझे थोड़ा समय मिल जाए कृष्णा, आंख बंद करके चुपचाप अपने भीतर देख। शुरू-शुरू में तो सिर्फ विचारों की भीड़ ही दिखाई पड़ेगी, क्योंकि वही जन्मों-जन्मों से पाली है, पोसी है, खिलाई है, पिलाई है। वही विचार डंड-बैठक लगा-लगा कर पहलवान हो गए हैं। वे मुगदर घुमाते हुए मिलेंगे, भुजाएं फड़काते मिलेंगे। भीतर देखेगी तो बस वहां कबड्डी खेल रहे हैं। वही विचार, जो तूने पाल रखे हैं। मगर कोई चिंता की जरूरत नहीं, चुपचाप देख, सिर्फ देख।
और यही कठिन मामला हो जाता है। सरल जैसी बात है, बहुत सरल बात है, मगर कठिन हो गई। क्योंकि देखने में ही हम मुश्किल में पड़ गए हैं। हम देख ही नहीं सकते। हम देखने के पहले निर्णय ले लेते हैं। हमारे भीतर साधु-महात्माओं ने पाप-पुण्य की धारणाएं भर दी हैं--यह बुरा, यह अच्छा। अच्छा विचार दिखेगा कृष्णा पंजाबी को तो एकदम गले लगा लेगी कि अहा, धन्य-भाग! कृष्ण कन्हैया बांसुरी बजा रहे हैं! मगर है कुल जमा विचार, कहां कृष्ण कन्हैया! कहां बांसुरी! बांसुरी भी गई, कृष्ण कन्हैया भी गए, पांच हजार साल हो गए। अब कुछ भी नहीं है। वह बात समाप्त हो गई। वह गीत परमात्मा गा चुका। और परमात्मा दोहराता नहीं है।
मगर भीतर जाएगी, तो गीता सुनती रही है--कल के प्रश्न में गीता से ही उसने प्रश्न उठाया था कि गीता में ऐसा कहा हुआ है और गीता में वैसा कहा हुआ है--भीतर जाएगी, गीता के विचार तैरते हुए मिलेंगे। छाती से लगा लेने का मन होगा कि आओ, बैठ जाओ मेरी गोदी में, आंचल ओढ़ा दूं, कहीं ठंड न लग जाए; कि अरे कहां जाते हो, बड़ी मुश्किल से तो आए हो! मगर ये विचार ही हैं। और अगर कोई ऐसा विचार आ जाएगा, जिसके साधु-महात्मा खिलाफ हैं, तो दुतकारेगी तू कि हट-हट, बदतमीज यहां कहां चला आ रहा है! मुझ कनक ऋषि की निर्मल कन्या के पास! अरे दुष्ट, जा किसी और को छेड़। जैसे कोई मोहनी मूरत किसी की दिखाई पड़ गई--किसी की क्या, वही पड़ोसी मोहल्ले वालों की--तो एकदम से दुतकारेगी तू कि हट, शर्म नहीं आती? पराई स्त्री के पास चला आ रहा है! है विचार ही, मगर चला आ रहा है। पड़ोसी चला आ रहा है। सपनों में चले आते हैं पड़ोसी! क्या करोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन रात बड़बड़ाने लगा; मगर स्त्रियां भी बड़ी होशियार हैं, पत्नी उसकी कान लगा कर सुनने लगी कि क्या बड़बड़ा रहा है। वह कह रहा है--विमला! हे विमला! और पत्नी ने दिया हुद्दा--दो किलो वाला हुद्दा--कि उठ, क्या कह रहा है? कौन-सी विमला? नसरुद्दीन नींद में था, एकदम घबड़ा गया। दो किलो वाला हुद्दा लगे तो कोई भी घबड़ा जाए। और पत्नियां जब हुद्दा मारती हैं तो वजनी मारती हैं, कोई...अरे अपने ही पति को मार रही हैं, किसी और को तो मार नहीं रहीं। और जब दे ही रहे हैं तो दिल खोल कर दो। फिर भी पति भी हमेशा सजग रहते हैं, नींद में भी सजग रहते हैं कि पत्नी बगल में ही सो रही है। अरे--नसरुद्दीन ने कहा--कुछ भी नहीं, यह विमला तो एक घोड़ी का नाम है, इस पर मैंने दांव लगाया हुआ है, रेसकोर्स की घोड़ी।
पत्नी को भरोसा तो नहीं आया। किसी पत्नी को कभी भरोसा नहीं आता। पति की बातों पर किसी पत्नी ने कभी भरोसा किया है! यह बात ही नहीं बनती। यह हुआ ही नहीं कभी। यह असंभव मामला है। मगर अब इतनी रात को क्या हुल्लड़ मचाना। और अभी कोई सूत्र खोजना पड़ेगा तब देखेंगे।
दूसरे दिन मुल्ला जब दफ्तर में था, फोन आया पत्नी का कि अरे सुनो जी, फजलू के पिता, फोन आया है।
नसरुद्दीन ने पूछा, किसका फोन?
पत्नी ने कहा, उसी घोड़ी का। वही विमला नाम की घोड़ी फोन कर रही है, कह रही है आज रात प्लाजा टाकीज के पास मिल जाना।
फंस गए! कहां जाओगे भाग कर? नींद में आएंगे पड़ोसी। आंख बंद करोगी तो आएंगे पड़ोसी। बड़े सज-धज कर आएंगे, बड़े छैल-छबीले बन कर आएंगे। और तेरा मन धार्मिक, कनक ऋषि की निर्मल कन्या! तू कहेगी, अरे हट-हट! बस वहीं गड़बड़ हो जाएगी। किसी विचार को लिया, छाती से लगाया और किसी को धक्का देकर हटाया कि तटस्थता खो गई।
तटस्थता का अर्थ होता है: अच्छा आए कि बुरा, कुछ लेना-देना नहीं। आए-जाए, जो आए, जैसा हो, कोई निर्णय न लेना, कोई मूल्यांकन न करना। न अच्छा कहना न बुरा; न पाप न पुण्य; न धर्म न अधर्म। बस देखते रहना तटस्थ भाव से; जैसे अपना कुछ प्रयोजन ही नहीं; जैसे रास्ते के किनारे खड़े हैं और राह चल रही है, लोग आ रहे जा रहे; अच्छे लोग भी हैं, बुरे लोग भी हैं। क्या प्रयोजन है? क्या लेना-देना है? हाथी-घोड़े भी निकल रहे हैं, गाड़ियां भी निकल रही हैं, रिक्शे भी निकल रहे हैं, तांगे भी निकल रहे हैं। सारी दुनिया चल रही है, रास्ता चल रहा है। चुपचाप किनारे पर खड़े होकर देखना। बस ऐसे ही मन के किनारे पर खड़े होकर चुपचाप देखने का नाम तटस्थता है। शास्त्र इसी को साक्षी-भाव कहते हैं।
और जो साक्षी है, वही एक दिन उस अपूर्व अनुभव को उपलब्ध होता है, जहां सब विचार चले जाते हैं--बुरे भी, अच्छे भी। विचार तो विचार हैं, बुरे और अच्छे का कोई सवाल नहीं। अरे पानी के बबूले हैं, क्या अच्छा क्या बुरा! जब सब विचार चले जाते हैं और चित्त निर्विचार होता है, तब उस निर्विचार क्षण में सत्य का साक्षात्कार है; तब उस निस्तरंग चेतना में अस्तित्व झलक आता है--वैसा, जैसा है।
और अस्तित्व न हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई। अस्तित्व तो बस अस्तित्व है। उस अस्तित्व के झलकने को तुम चाहे परमात्मा का अनुभव कहो, चाहे आत्मा का अनुभव कहो, चाहे सत्य का, चाहे सच्चिदानंद का, चाहे निर्वाण का, चाहे कैवल्य का; ये अलग-अलग शब्द हैं, लेकिन एक ही तरफ इनका इशारा है। ये अलग-अलग भाषाएं हैं, मगर बात एक ही है।
तटस्थता तो आसान है, कृष्णा, लेकिन तुझे थोड़ी कठिन पड़ेगी। क्योंकि तू थोड़ी सत्संगी महिला है, वही अड़चन है। तू थोड़ी धार्मिक है, वही अड़चन है।
जर्मनी में बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ--वेजनर। उसके पास जब भी कोई संगीत सीखने आता था, तो जो कभी संगीत नहीं सीखे थे, उनसे वह जितनी फीस लेता, उनसे दोगुनी फीस उनसे लेता जिन्होंने कहीं संगीत सीखा था। स्वभावतः जो दस साल संगीत सीख कर आया है, वह कहता कि यह अजीब उलटा न्याय हो रहा है! यह कैसी अंधेर नगरी है, यह क्या ढंग है! मैं दस साल मेहनत करके आया हूं, मुझसे दुगनी फीस और जिसने कभी हाथ में कोई वाद्य नहीं लिया, कभी तार नहीं छुआ, कभी स्वर की जिसे कोई पहचान नहीं है, छंद का कोई बोध नहीं है, उससे आधी फीस!
वेजनर कहता, हां, और इसमें अंधेर नहीं है, सीधा गणित है। पहले मुझे तुम जो जानते हो वह भुलाना पड़ेगा। और उस आदमी के साथ कुछ भुलाने की झंझट नहीं है, सीधा काम शुरू हो जाएगा। तुम्हारी स्लेट पर बहुत कुछ लिखा हुआ है, वह मुझे पोंछना पड़ेगा। उसकी तकलीफ की भी फीस लगेगी। इसलिए तुमसे दो गुनी फीस। और जो बिलकुल नया-नया आया है, संगीत के लिए अजनबी है, उससे आधी फीस में चल जाएगा। वह ताजा है, उसकी किताब कोरी है।
कृष्णा पंजाबी, तुझे थोड़ी दिक्कत होगी। यह मेरा अनुभव है वर्षों का। लाखों लोगों को मैंने ध्यान की विधि से परिचय कराया है। अनुभव में यह आया कि तथाकथित धार्मिक लोगों को सबसे ज्यादा कठिनाई होती है। जिनको धर्म से कुछ लेना-देना नहीं रहा कभी, सीधे-सादे लोग उनको ही मैं कहता हूं। जो अपने काम-धाम में ही रहे, न कभी मस्जिद की फिक्र की न कभी मंदिर की फिक्र की, न गीता में उलझे न कुरान में उलझे, जिन्हें सिद्धांतों की बकवास में पड़ने का समय नहीं मिला--सीधे-सादे लोग, सांसारिक लोग--वे जब आते हैं तो ध्यान में उनकी गति जल्दी हो जाती है।
इसलिए तुम यह जान कर चकित होओगी कि मेरे पास तुम्हें पश्चिम से आए हुए हजारों संन्यासी दिखाई पड़ेंगे, लेकिन भारतीय बहुत कम। क्योंकि भारतीय तो महाज्ञानी! उनकी तो खोपड़ी पर पहाड़ लदे हुए हैं शास्त्रों के। वे तो ब्रह्मज्ञान से ऐसे भरे हुए हैं कि उनको क्या ध्यान से लेना-देना है! उन्हें तो बकवास कंठस्थ हो गई है तोतों की तरह, दोहरा रहे हैं रामनाम, पढ़ रहे हैं जपुजी, नमोकार का पाठ कर रहे हैं--और सोच रहे हैं कि बस सब हो गया। हुआ कुछ भी नहीं है। ऐसे कहीं कुछ होता है? पश्चिम से आए हुए लोगों को मैं ज्यादा सरल पाता हूं, सीधे पाता हूं। अक्सर तो उनमें भौतिकवादी लोग हैं, जिनको कभी धर्म से कुछ लेना-देना नहीं रहा; या नास्तिक हैं, जिन्होंने कभी ईश्वर पर भरोसा नहीं किया। और मेरा अनुभव बड़ा अनूठा है कि इस तरह के लोग बड़ी शीघ्रता से ध्यान में गति कर जाते हैं। क्योंकि उनके पास पकड़ने को कोई अच्छी बात है ही नहीं। पकड़ने का सवाल ही नहीं है।
तो तुझे थोड़ी कठिनाई तो होगी तटस्थ होने में। उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। इसलिए मैंने तुझसे कहा था--नाराजगी के कारण नहीं--कि जिन्होंने तुझे यह सब ज्ञान दिया है उन्हीं से पूछ। नाराजगी के कारण नहीं कहा था; इसलिए कहा था कि अब यह कचरा कौन साफ करे! कचरा फैलाए कोई और साफ मैं करूं, यह गोरखधंधा कौन करे! उन्हीं के पास जा। नाराजगी के कारण नहीं कहा था; सिर्फ तुझे बोध देने के लिए कहा था, ताकि तुझे यह साफ हो सके कि ये जो तू बातें कर रही है ये बातें किसी काम की नहीं हैं। ये बिलकुल व्यर्थ की बातें हैं।
शास्त्रों को छोड़ देना होता है, तभी कोई ध्यान को उपलब्ध होता है। शब्दों को छोड़ो तो शून्य को उपलब्ध होओ। और जहां शून्य है वहां पूर्ण विराजमान हो जाता है। जो बिलकुल शून्य में उतर गया, सन्नाटे में, इसी क्षण परमात्मा का अनुभव हो जाता है। परमात्मा काबा में नहीं, कैलाश में नहीं, काशी में नहीं। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है--और अभी मौजूद है, इसी क्षण मौजूद है। अब देर उतनी ही लगेगी जितनी तुम्हें अपने ज्ञान को काटने में लगनी है। अगर समझ हो तो एक झटके में भी ज्ञान काटा जा सकता है। उठाओ कृपाण और काट डालो! मगर ज्ञान को काटना कठिन मामला तो होता ही है, क्योंकि उससे प्रीति बंध गई। और ज्ञान का खयाल है कि यह ज्ञान है।
और तू थोड़ी तो मुश्किल पाएगी। रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को बहुत मुश्किल हो गई थी। क्योंकि जिंदगी तो उन्होंने बिताई--जय मैया, काली मैया की भक्ति में। उतारते रहे आरती, करते रहे भजन। और भाव-भीने होकर करते रहे भजन। लेकिन एक बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी उन्हें कि द्वैत नहीं मिटता है, दो तो बने ही हैं--मैं और काली। आंख भी बंद करें तो काली सामने खड़ी है। द्वैत कैसे मिटे? एक कैसे बचे?
तो पूछा एक परमहंस से--तोतापुरी उनका नाम था। वे यूं ही भटकते हुए दक्षिणेश्वर के पास से निकलते थे, उनको देख कर रामकृष्ण एकदम चौंक गए। ऐसा प्रकाशित व्यक्तित्व, ऐसी चमकती हुई धार उन्होंने कभी देखी न थी। कहा तोतापुरी को कि रुक जाएं, थोड़े दिन यहां मेरे मंदिर में मेहमान हो जाएं। तोतापुरी ने कहा, ठीक। रामकृष्ण ने सेवा-सत्कार किया और कहा कि मुझे वर्षों हो गए पूजा करते, प्रार्थना करते और पूरे भाव से पूजा की...।
इसमें कोई शक नहीं कि पूरे भाव से पूजा की। लेकिन भाव भी है तो मन। विचार भी मन है और भाव भी मन है। विचार से भी बाहर जाना है, भाव से भी बाहर जाना है। विचार से बाहर जाने में भाव सहयोगी हो जाता है, लेकिन फिर भाव पकड़ लेता है। जैसे एक कांटे से दूसरा कांटा तो निकाल दिया, फिर अब दूसरे कांटे को उस घाव में रख लिया, तो बात तो वही रही, मुसीबत तो वही की वही रही। कांटा अब भी है। भाव से विचार कट जाता है, मगर भाव पकड़ जाता है। तो रामकृष्ण ने विचार तो काट दिया था, लेकिन भाव में खूब तल्लीन हो गए थे, ऐसे तल्लीन हो गए थे कि वह भाव मूर्च्छा दे रहा था। रास्ते पर चलते और कोई अगर काली का नाम ले देता तो वे वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़ते। ऐसे भावाविष्ट हो जाते। उनको रास्ते से ले जाने में कठिनाई होती थी। उनके भक्तों को पकड़ कर ले जाना पड़ता था। कोई अगर काली का नाम ले दे--और कलकत्ते में तो काली के खूब भक्त हैं और रामकृष्ण को देख कर कोई भी कह दे जय काली, क्योंकि वे भी काली के महा भक्त थे--बस वे वहीं गिर पड़ें रास्ते पर, बीच रास्ते पर। घंटों के लिए बेहोश हो जाएं। आंखों से आनंद की अश्रुधार बहने लगे। मगर यह कोई बुद्धत्व की अवस्था तो नहीं थी। एक जंजीर से छूटे, दूसरी जंजीर में फंस गए। लोहे की जंजीर छूट गई, माना, मगर सोने की जंजीर हाथ में पड़ गई। और सोने की जंजीर भी है तो जंजीर ही। हीरे-जवाहरात भी जड़ी हो तो क्या होता है?
तोतापुरी से कहा कि मुझे अब इस सोने की जंजीर से छुड़ाओ।
तोतापुरी ने कहा, बहुत आसान है। बड़ी आसान बात है। तू आंख बंद करके बैठ मेरे सामने और जब काली की मूर्ति खड़ी हो तो उठा कर तलवार और दो टुकड़े कर देना।
रामकृष्ण ने कहा, काली की मूर्ति को तलवार उठा कर दो टुकड़े कर दूं! क्या कहते हैं आप? यह मुझसे न हो सकेगा। अरे जिंदगी भर जिसकी पूजा की, आरती उतारी, जिंदगी भर जिसकी सेवा में लगा रहा, जिसकी अर्चना की, भावना की, जिसको बामुश्किल तो सजा पाया, अब तो आंख बंद करता हूं तो ऐसी ज्योतिर्मय प्रतिमा खड़ी होती है--पत्थर की नहीं, ज्योति की बनी हुई--उसको कैसे काट दूं? क्या बात करते हैं आप? कैसी अधार्मिक बात करते हैं?
इसलिए मेरी बातें भी बहुत लोगों को अधार्मिक लगती हैं। लगेंगी, क्योंकि तुम जिसे धर्म समझते हो वह मेरे लिए धर्म नहीं है।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं चला। तू जान तेरा काम। अगर तुझे धर्म मिल ही गया तो मुझसे क्या पूछता है? अगर तू पहुंच गया तो तू जान। मुझे क्या लेना-देना है? मुझे क्या पड़ी?
तोतापुरी ने अपना डंडा उठा लिया और चलने लगे। रामकृष्ण ने कहा, रुको-रुको! मेरा मतलब यह नहीं था। कुछ कमी तो है।
तो तोतापुरी ने कहा, कमी है तो फिर तलवार उठानी पड़ेगी। बस इतनी ही कमी है, तूने सब तो तोड़ दिया, अब यह काली से तेरा मोह बंध गया है, इसको भी काट दे। यह जंजीर प्यारी है, मगर मिटा।
रामकृष्ण ने कहा, तलवार कहां से लाऊंगा?
तोतापुरी ने कहा, यह भी तूने खूब बात कही! बड़ा होशियार है! काली कहां से लाया? अरे जहां से काली लाया वहीं से बंदूक, वहीं से तलवार।
मुल्ला नसरुद्दीन गया था नौकरी करने पानी के जहाज पर। कप्तान ने पूछा कि नसरुद्दीन, नौकरी तो मिल जाए, लेकिन समझ लो कि तूफान आ जाए तो क्या करोगे?
नसरुद्दीन ने कहा, अरे तूफान आएगा तो लंगर डाल देंगे।
कप्तान ने कहा, समझो कि तूफान फिर से आ जाए, और बड़ा तूफान आ जाए, फिर क्या करोगे?
नसरुद्दीन ने कहा, और बड़ा लंगर डाल देंगे।
कप्तान फिर भी न माना, बोला, और भी बड़ा तूफान चला आ रहा है उसके पीछे, फिर क्या करोगे?
उसने कहा, करेंगे क्या, उससे भी बड़ा लंगर डाल देंगे।
कप्तान ने कहा, ये सारे लंगर तुम ला कहां से रहे हो?
उसने कहा, और ये सारे तूफान तुम कहां से ला रहे हो? अरे जहां से तुम तूफान ला रहे हो वहीं से हम लंगर ला रहे हैं। तुम लाए जाओ तूफान, हम लाए जाएंगे लंगर। कहां से तुम ला रहे हो, यह पहले तुम बताओ। पहले तुम ला रहे हो, हम तो पीछे।
ठीक कहा तोतापुरी ने रामकृष्ण से कि तू काली कहां से लाया? कल्पना का जाल है। भावना मात्र है। तो जब काली बना ली तूने कल्पना से तो तलवार नहीं बना सकता! इतना छोटा-सा काम नहीं बनेगा!
रामकृष्ण को लाजवाब तो हो जाना पड़ा, जवाब तो न दे सके। बात तो सच थी। काली निर्मित ऐसे ही तो हुई थी भावना करने-करने-करने से। आंख बंद की। मगर आंख बंद करें, घंटों बाद आंख खोलें, आंखों से आंसुओं की धार लग जाए, मस्त हो जाएं और फिर कहें कि क्षमा करना--तोतापुरी से--कि जब काली मुझे दिखाई पड़ती है तो मैं भूल ही जाता हूं। तुम्हें भी भूल जाता हूं, तलवार भी भूल जाता हूं, सब सुध-बुध ही भूल जाती है। मैं तो मस्त हो जाता हूं।
तो फिर तोतापुरी ने कहा, अब एक ही रास्ता है। वे गए बाहर और रास्ते के किनारे से एक कांच का टुकड़ा उठा लाए--कोई टूटी हुई बोतल का टुकड़ा--और कहा कि तू बैठ और यह आखिरी है। अगर इससे हल नहीं हुआ तो मैं चला जाऊंगा। दांव आखिरी लगा ले। तू आंख बंद कर और मैं जब देखूंगा कि तू भाव में पड़ रहा है--क्योंकि तेरे आंसू बहने लगते हैं और तू डोलने लगता है, तू मस्त होने लगता है--जब देखूंगा कि मस्त होने लगा, तो यह कांच का टुकड़ा देखता है, इसको तेरे माथे पर रख कर, जहां तृतीय नेत्र है भीतर वहां जोर से काट दूंगा बाहर से, लहू की धार बह जाएगी। और जब मैं तेरे माथे को काटूं इस कांच के टुकड़े से तो तू भी चूकना मत, उसी वक्त उठा कर तलवार, देर-अबेर मत करना, सोच-विचार मत करना, उठा कर तलवार दो टुकड़े तू काली के कर देना। इधर मैं तेरे दो टुकड़े करूंगा बाहर से माथे पर, उधर भीतर तू दो टुकड़े कर देना। क्योंकि काली यहीं खड़ी होगी, इसी मस्तिष्क के तृतीय नेत्र के पास, यहीं, यही स्थान है कल्पना का। यहां बाहर से मैं कल्पना काटूंगा, तू भीतर से काट देना। इशारा तुझे मैं दे दूंगा। यह आखिरी। नहीं तो मैं चला। अब तू जान और तेरा काम।
रामकृष्ण ने आंख बंद करीं। तोतापुरी ने उठा कर माथे पर लकीर खींच दी, लहू का फव्वारा छूट गया। रामकृष्ण ने भी हिम्मत की और भीतर तलवार उठा कर प्रतिमा के दो टुकड़े कर दिए। प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिरी कि रामकृष्ण को परम समाधि उपलब्ध हो गई। छह दिन समाधि लगी रही। छह दिन बाद समाधि टूटी। तोतापुरी मौजूद रहे। जब समाधि टूटी और रामकृष्ण से पूछा कि कुछ कहना है, रामकृष्ण ने कहा कि बस चरण छू लेने दें। इतना ही कहना है कि आखिरी बंधन गिर गया, आखिरी दीवार गिर गई।
तू कहती है कि "मैं आपकी शरण आई हूं।'
अभी क्या शरण आएगी! पहले यह सारा कचरा गिरा। पहले यह सब उपद्रव जो तूने पाल रखा है तथाकथित ज्ञान का, कृष्णा, इसको मिटा। यह गीता, यह रामायण, ये सब जो तेरे भीतर भनभना रही हैं, इनको समाप्त कर। ये रिकार्ड जो तेरे भीतर चल रहे हैं ग्रामोफोन के, इनको काट डाल, तोड़ दे, मिटा दे। तब धन्यवाद देने के लिए आ जाना, वह बात और है। अभी शरण, अभी संभव नहीं है कि तू झुक सके। अभी तो खोपड़ी बहुत विचारों से भरी है, झुकेगी नहीं। झुकेगी भी तो झूठी झुकेगी, औपचारिक होगी।
तटस्थता का मैंने सूत्र तुझे बता दिया: साक्षी-भाव। भीतर बैठ कर अपने विचारों को, वासनाओं को, कामनाओं को, सपनों को, इनकी चलती हुई धारा को देखते रहना। देखते-देखते एक दिन यह धारा बंद हो जाती है। बस देखते-देखते ही यह बंद हो जाती है, और कुछ करना नहीं पड़ता। और जब बंद हो जाती है तो क्या शेष रह जाता है? जो शेष रह जाता है वह सन्नाटा ही परमात्मा है। यही सन्नाटा, जो यहां तुम्हें घेरे हुए है, अभी! यही सन्नाटा! और इसी सन्नाटे में परम साक्षात्कार है। इसी सन्नाटे में शाश्वत और सनातन का अनुभव है। मगर तू थोड़ा अपने ज्ञान को हटा, नहीं तो साक्षी न हो पाएगी।
एकर एक चोर कोई वकील साब रै घर में चोरी करण नै घुस्यो। झलोझल आधीक रात, च्यारूमेर सरणाटो। घर में सगलाई गैरी नींद में सूता हा कै कीं खुड़को सुणीज्यो। वकील साब री स्वान-निद्रा ही सो वै जागग्या। उणां झट रोसणी की वी। अब चोर घबरीजग्यो।
वकील साब चोर नै थावस देवतां कहयो--देख तू घबरीज मत। अठीनै म्हारे कनै आय नै बैठ जा! दूजो मारग नीं देखर चोर वकील साब रै कनै आय नै बैठग्यो।
वकील साब उणनै समझावतां थका बोल्या--मोटयार आदमी है, औ चोरी रो सूगलो धंधो क्यूं करै है? म्हारो कैवणो मानै तो ओ नपावट धंधो छोड़ दै। थारी जिंदगी सुधर जावैला अर म्हूं थनै पुलिस में ई नीं देवंला।
चोर वकील साबरा पग पकड़तो बोल्यो--अबे जीवतों ई ओ धंधो नीं करूं।
चोर ऊठने जावण लाग्यो तो वकील साब उणनै बिठावतां कहयो--जावै कठै है? म्हैं थनै सलाह दीवी जिणरो मैणतानो बीस रुपिया होवै। सो निकाल बीस रुपिया, पछै भलांई जाय सकै है तूं।
चोर झट बीस रुपिया निकाल कर वकील साब रै नजर किया, और उण दिन पछै कोई वकील रै घरै चोरी करण रो हाथपाणी ले लियो।
तो तू यहां आ फंसी! और यहां तो एक ही फीस है कि ला निकाल, दे तेरा मन मुझे। दे दे अपना मन। और तो कुछ देने की जरूरत नहीं। दे दे अपना ज्ञान, क्योंकि यह सब ज्ञान जो तेरे पास है बिलकुल थोथा है। थोथे ज्ञान से छुटकारा हो जाए तो सच्चे ज्ञान का अवतरण होता है। इसके पहले कि सच्चा ज्ञान आए, व्यक्ति को अज्ञान की सरल अवस्था बना लेनी पड़ती है।
सुकरात ने कहा है: मैं इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता हूं। और उपनिषद का बड़ा प्यारा वचन है कि अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं लेकिन ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। अज्ञानी का अंधकार तो मिट सकता है, क्योंकि छोटा अंधकार है; ज्ञानी का अंधकार महा अंधकार है, उसको मिटाने का बड़ा उपाय करने पर भी मिटेगा इसका भरोसा नहीं।
कृष्णा पंजाबी, तू अपना ज्ञान छोड़। मगर तू तो उलटे मुझसे ज्ञान मांगने आई है। तू कहती है, मुझे ज्ञान दें। ऐसे ही मांग-मांग कर तो तूने बहुत-सा ज्ञान इकट्ठा कर लिया है, अभी तेरा मन नहीं भरा ज्ञान से? मैं तुझे देता हूं अज्ञान। और अज्ञान ही निर्मल होता है। ज्ञान तो निर्मल होता नहीं। ज्ञान तो चालबाज है। ज्ञान तो गणित है। ज्ञान तो होशियारी है। ज्ञान तो दुकानदारी है। ज्ञान तू मुझे दे दे, अज्ञान तू मुझसे ले ले। मैं तो अज्ञानी हूं। सुकरात ने कहा न कि मुझे इतना ही पता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं। मैं तुझसे कहता हूं, मुझे तो उतना भी पता नहीं है। सुकरात को कुछ तो पता है। थोड़ा ज्ञान बाकी है। उसी ने अटका लिया सुकरात को। इसलिए सुकरात को मैं परम बुद्ध नहीं कह सकता; बस पहुंचते-पहुंचते अटक गया, आखिरी सीमा पर जाकर रुक गया। एक कदम और। इतना ही कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। मगर इतना जानता हूं, यह भी काफी जानना हो गया। यही काफी अड़चन हो गई।
मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं और यहां मैं यही सिखा रहा हूं कि तुम भी कुछ न जानो। जान-जान कर तो बहुत जन्मों से तुमने देख लिया, क्या जान पाए? थोड़ा अज्ञान का मजा भी ले लो। कौन जाने जान कर जो नहीं मिला, न जान कर मिल जाए। यह प्रयोग भी कर लो।
तो मैं अज्ञान देता हूं और उस अज्ञान को ही मैंने ध्यान का नाम दिया है। मेरा अपना हिसाब है। मेरा बड़ा अटपटा गणित है। अज्ञान को ही मैं ध्यान कहता हूं। ज्ञान से छूट जाओ, अज्ञान की अवस्था को बिलकुल थिर हो जाने दो। बस उतना ही तुम कर सकते हो। उतना ही तुम्हारे हाथ में है। शेष परमात्मा का प्रसाद है। फिर प्रसाद उतरता है।


दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप जब आदर्श जोड़ों का जिक्र करते हैं, तो हम कुंवारों के दिल को कुछ-कुछ होता है।
भगवान, हम क्या करें?

 कृष्णतीर्थ भारती,
भैया संयम रखो। होने दो कुछ-कुछ। ध्यान ही न दो, क्योंकि ध्यान दिया कि मुश्किल में फंसे।
एक युवक ने अपनी जान जोखिम में डाल कर एक सुंदर कुंवारी युवती को समुद्र में डूबने से बचाया। लड़की के बाप ने कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कहा, शाबाश नौजवान, तुम्हारे दुस्साहस का मैं शुक्रिया किस तरह अदा करूं? तुमने सचमुच एक बड़ा खतरा मोल लिया।
वह युवक बात काट कर बोला, खतरा तो कोई मोल नहीं लिया, क्योंकि मैं पहले से ही विवाहित हूं।
कृष्णतीर्थ, मैं लाख कहूं आदर्श जोड़ों की बात, तुम चक्कर में पड़ना मत। मैं तो कई उलटी-सीधी बातें कहता हूं। मेरी सब बातों में पड़ना ही मत। और जब ऐसी बातें कहूं तो बिलकुल चौंक गए, सुने ही मत, कान में अंगुली डाल ली।
एक पत्नी अपने पति के लिए रेडीमेड शर्ट खरीदने गई। सेल्समैन ने पूछा, उनके गले का नाप क्या है? पत्नी सोच में पड़ गई, फिर सोच कर कहने लगी, सही साइज तो मुझे याद नहीं, बस इतना याद है कि जब मैं उसे गर्दन से पकड़ती हूं तो उसकी पूरी गर्दन मेरे हाथ में आ जाती है।
तुम भैया, थोड़े सावधान रहना।
शॉपेनहार ने कहा है: यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां हर वह चीज जो आपको पसंद है, अनैतिक है, गैर-कानूनी है, असामाजिक है या फिर शादीशुदा है।
मगर मैं तुमसे कहता हूं: यह अच्छा ही है कि हर चीज जो तुम चाहते हो वह अनैतिक है, गैर-कानूनी है, असामाजिक है और शादीशुदा है, नहीं तो तुम फंस जाओ।
यह तो मैं तुम्हारी पहचान के लिए आदर्श जोड़ों वगैरह का जिक्र कर देता हूं। अब तुमको फांस लिया न! तुम्हारे भीतर का पता लगा लिया। तुम छिपे बैठे थे, बिलकुल संन्यासी बने हुए, कृष्णतीर्थ भारती। तुमको कोई भी देखता गैरिक वस्त्र में, कैसे भोले-भाले, दाढ़ी वगैरह बढ़ाए बैठे हैं! लोग समझते संत-महात्मा हैं। आदर्श जोड़ों का जिक्र क्या किया कि तुम जाल में फंस गए। ये तो जाल हैं जो मैं फेंकता हूं तरकीबों से। इसमें फांस लेता हूं लोगों को।
ढब्बू जी अपने मित्र चंदूलाल से कह रहे थे कि विवाह मैं इसलिए नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे स्त्रियों से बहुत डर लगता है।
चंदूलाल ने उसे समझाया और कहा, यह बात है तब तो तुम तुरंत विवाह कर डालो। मैं तुम्हें अनुभव से कहता हूं, क्योंकि विवाह के बाद एक ही स्त्री का भय रह जाता है।
अफसर बोला, देखो, हमें एक ऐसा चौकीदार चाहिए जो तंदुरुस्त हो, चुस्त चालाक चौकन्ना हो, जरूरत पड़ने पर लोगों को धमकी भी दे सके और जिसे देख कर आदमी में दहशत दौड़ जाए, कंपकंपी आ जाए, बुखार चढ़ जाए। यदि तुम में ऐसे गुण हों तो तुम्हें यह नौकरी मिलेगी अन्यथा नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन बोला, हुजूर, मुझमें तो ऐसे गुण नहीं मगर मेरी बीबी में ये सभी गुण हैं। मैं अभी लेकर उसे आता हूं। अरे किसी और की क्या, तुम भी देखोगे तो एकदम कंपकंपी छूट जाएगी।
कृष्णतीर्थ, तुम सौभाग्यशाली हो जो अभी तक बचे हो। आदर्श जोड़ों वगैरह के चक्कर में मत पड़ना।
ढब्बू जी ने अपने मित्र नसरुद्दीन को बताया कि हमारे यहां सभी काम आपस में बांट कर किए जाते हैं। तो नसरुद्दीन ने पूछा, वह कैसे?
ढब्बू जी बोले, इस उदाहरण से समझिए। कल शाम की ही बात है। मेरी पत्नी ने चाय पीने की इच्छा की, मैंने चाय बना दी, उसने चाय पी ली, और फिर मैंने बर्तन साफ कर दिए। बस काम आपस में बंट गया। आधा-आधा। पहले उसने चाय पीने की इच्छा की, एक काम उसने कर दिया। मैंने चाय बना दी, दूसरा मैंने कर दिया। उसने चाय पी ली, तीसरा उसने कर दिया। मैंने बर्तन साफ कर दिए, चौथा मैंने कर दिया। काम भी बंट गया।
इसको कहते हैं आदर्श जोड़ा! राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी! आदर्श जोड़ा बड़ी कठिन चीज है। आदर्श जोड़े के लिए कई गुण होने चाहिए, जो बहुत मुश्किल हैं। जैसे पति को बहरा होना चाहिए, अगर आदर्श जोड़ा चाहिए, कि पत्नी कुछ भी अंट-शंट बके, वह सुने ही नहीं। और पत्नी को अंधा होना चाहिए, कि पति यहां-वहां देखे, इस स्त्री को देखे उस स्त्री को देखे, आंखें मिचकाए, हाथ मटकाए, पत्नी को कुछ दिखाई ही न पड़े। पत्नी हो अंधी और पति हो बहरा, तब कहीं आदर्श जोड़ा बनता है। आदर्श जोड़ा बड़ी कठिन चीज है। बहुत ही असंभव। यह दुर्घटना कभी-कभी घटती है।
मटकानाथ ब्रह्मचारी ने ढब्बू जी को समझाते हुए कहा, बेटा, अपनी पत्नी से लड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि पति-पत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों के समान हैं।
ढब्बू जी बोले, गुरुदेव, यह बात तो ठीक है, परंतु जब एक पहिया साइकिल का हो और दूसरा ट्रैक्टर का, तो आप ही बताइए गाड़ी कैसे चलेगी?
और बहुत मुश्किल है कि दोनों पहिए साइकिल के हों कि दोनों ट्रैक्टर के हों; होता ही नहीं ऐसा। ज्योतिषी नहीं होने देते। मां-बाप नहीं होने देते। समाज नहीं होने देता। ये तो ऐसी जोड़ियां मिलवा देते हैं कि एक साइकिल का चक्का और एक ट्रैक्टर का। अब जो दुर्गति होने वाली है वह तुम समझ ही सकते हो।
एक भलै आदमी रै पड़ोस में एक लड़ोकड़ी लुगाई रैवती। आदत सूं लाचार होवण रै कारण वा नित-रोज लड़ाई करणनै त्यार रैवती। भलो आदमी पण उण सूं आंती आयोड़ो हो। एक दिन दिनूगै इज वा उण पड़ोसी सूं आय भिड़ी अर मूडै में आवै ज्यूं बोलण लागी--तू नीच है, तू नालायक है, तू रागस है, म्हारे तो इसो घर-धणी व्है तो म्हूं उणरै चार रै प्याले में जहर नाख देवती।
पड़ोसी ठीमरपणै सूं बोल्यो--अर म्हारै थां जिसी लुगाई व्हैती तो म्हूं वा चाय गटगट करतो पी लेवतो।
और क्या करोगे!
कृष्णतीर्थ भारती, सावधान! समय रहते सावधान! फिर पाछै पछताय होत का जब चिड़िया चुग गई खेत! एक दफा पत्नी मिल गई तो फिर बहुत मुश्किल मामला है। जब तक नहीं मिली, परमात्मा का धन्यवाद दो। हालांकि ज्यादा देर बच नहीं सकोगे, तुम्हारे ढंग से ऐसा मालूम पड़ता है। और मेरे पास आकर अगर न बच सके तो इस दुनिया में फिर कहीं भी नहीं बच सकते हो। मेरे पास यही तो सबसे बड़ी सुविधा है कि यहां स्त्री-पुरुष एक-दूसरे से बिलकुल मुक्त हो जाते हैं। इतनी स्त्रियां हैं, इतने पुरुष हैं और इतने खेल देखते हैं कि रोज परमात्मा को धन्यवाद देते हैं कि अहा, क्या बचाया! इस बाई से बचा दिया, उस बाई से बचा दिया! नहीं तो इस संसार में कितने जाल हैं। इतने जाल तुम्हें कहीं इकट्ठे एक जगह दिखाई पड़ेंगे नहीं। तो यहां अगर अनुभव नहीं हो पाया तो समझो तुम फिर जनम-जनम तक आवागमन में भटकोगे। फिर भवसागर पार होना बहुत मुश्किल है।

आज इतना ही।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें