राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रश्न-सार
1—क्या आप इस संत-वाणी को बोधगम्य बनाने की
अनुकंपा करेंगे--सेवा से पवित्रता, तप से शक्ति, त्याग से शांति तथा अपनत्व से प्रीति स्वतः हो जाती है।
पहला प्रश्न: भगवान,
आपके प्रश्नों के उत्तर बहुत ही तर्कपूर्ण तथा
कमाल के हैं। आपकी व्याख्या व्यावहारिक तथा जीवन-उपयोगी है। मैं विश्वास करता हूं
कि अपनी आंखों से देखो तथा अपने पैरों चलो।
क्या आप इस संत-वाणी को बोधगम्य बनाने की अनुकंपा
करेंगे--सेवा से पवित्रता, तप से शक्ति, त्याग से शांति तथा अपनत्व से प्रीति स्वतः हो जाती है।
हरिराम,
मैं जो कह रहा हूं वह तर्क नहीं है। तर्क तो केवल माध्यम है। अगर तुम
माध्यम में ही अटक गए तो चूक जाओगे। फिर तो तुमने घोड़े को देखा, सवार को नहीं। तर्क तो सिर्फ घोड़ा है। सवार पर नजर रखो, क्योंकि मालिक सवार है।
तर्क से प्रभावित होने का कोई भी मूल्य नहीं है, क्योंकि तर्क तो वेश्या है, तर्क तो वकील है। वही
तर्क पक्ष में हो सकता है, वही तर्क विपक्ष में हो सकता है।
कोई अंतर नहीं पड़ता।
लेकिन अनुभूति तर्कातीत है। तर्क इशारा बन सकता है, चांद की तरफ बताने वाली अंगुली हो सकता है, लेकिन
चांद नहीं।
और जो अंगुली से प्रभावित हो जाएं, वे चांद से वंचित रह
जाते हैं। और सारी पृथ्वी अंगुलियों में उलझ गई है। ये सारे मत-मतांतर तर्क के जाल
के सिवाय और क्या हैं? हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन और
बौद्ध--इनके बीच फासला क्या है? विवाद क्या है?
अलग-अलग तर्क की मान्यताओं को पकड़ रखा है, अलग-अलग अंगुलियां पकड़ रखी हैं। और ऐसे घनघोर विवाद में उलझे हैं सदियों
से कि मेरी अंगुली श्रेष्ठ है, कि किसी को याद भी नहीं रही
कि चांद का क्या हुआ! चांद पर नजर ही नहीं गई।
तुम कहते हो: "आपके प्रश्नों के उत्तर बहुत ही तर्कपूर्ण हैं।'
ऐसा सोचा कि चूके, कि मुझसे नाता टूटा। तर्क तो
केवल बहाना है--एक निमित्त, सीढ़ी। मगर सीढ?ी पर रुक मत जाना; सीढ़ी से पार होना है।
सब तर्कों के पार होना है, ताकि अतक्र्य में
प्रवेश हो सके। सत्य तो तर्कातीत है, क्योंकि मनातीत है,
शब्दातीत है। वहां विचार की कोई गति नहीं। न प्रवचनेन लभ्या! उसके
संबंध में कोई प्रवचन नहीं हो सकता। उसके संबंध में कोई बात नहीं हो सकती। गूंगे
का गुड़ है।
लेकिन हमारी सारी दीक्षा, हमारी सारी शिक्षा
तर्क की है। तो बहुत से लोग मेरे पास भी आकर, हरिराम,
भटक जाते हैं। मेरी बातें सुनते हैं, लेकिन
सुनते हैं अपने ढर्रे, अपने ढांचे से। और तब मुश्किल खड़ी हो
जाती है।
मैं तुम्हारी तर्कणा को संतुष्ट नहीं करना चाहता हूं, खंडित करना चाहता हूं। मैं तो तर्क का उपयोग तर्क को काटने के लिए करना
चाहता हूं। मगर तुम हो पागल। जैसे पैर में कांटा लग जाए तो हम दूसरे कांटे से उस
कांटे को निकालते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरा कांटा कांटा नहीं है,
फूल है। इसका यह अर्थ नहीं है कि पहले कांटे को जब निकाल लो तो फेंक
देना और दूसरे कांटे को घाव में सम्हाल कर रख लेना, पूजा
करना उसकी।
जब पहला कांटा निकल आए दूसरे कांटे से, दोनों कांटे हैं,
दोनों फेंक देने जैसे हैं। फेंकना ही नहीं, जला
ही देना, नहीं तो किसी और के पैर में अटकेंगे।
तुम्हारे भीतर तर्क के कांटे अटके हुए हैं। मैं तर्क के कांटों से ही
उन्हें खींच सकता हूं, और कोई उपाय नहीं है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि
मैं कोई तर्कवादी हूं, कि मेरा कोई तर्क में भरोसा है,
कि मेरी तर्क में कोई श्रद्धा है। तुम्हारे कांटे के कारण मुझे
कांटे का उपयोग करना पड़ रहा है। तुम्हारा कांटा निकल आए तो फिर कांटे के उपयोग की
कोई जरूरत नहीं। दोनों कांटों को हम जला देंगे--एक साथ जला देंगे।
तर्क की सामर्थ्य क्या है? समझने की कोशिश करो।
तर्क है क्या? तुम्हारे मन की चेष्टा सत्य को सिद्ध करने की।
लेकिन मन क्या सत्य को सिद्ध कर सकता है? यह तो यूं हुआ जैसे
अंधा आदमी विचार करके, मनन करके, शास्त्रों
को सुन कर, आंख वालों की बातों का संग्रह इकट्ठा करके,
और प्रकाश सत्य है, ऐसा सिद्ध करने की चेष्टा
करे।
तर्क जुटा सकता है। तर्क बहुत हैं, सारा बाजार भरा है।
लेकिन क्या तुम सोचते हो अंधा आदमी तर्कों की बड़ी शृंखला खड़ी कर ले अपने चारों तरफ
और सिद्ध भी कर ले कि प्रकाश है, तो भी क्या उसे आंख मिल
सकेगी? क्या वह प्रकाश के उस आनंद-अनुभव को उपलब्ध हो सकेगा?
क्या देख सकेगा आकाश में फैले इंद्रधनुषों को? क्या तर्क के सहारे फूलों के रंग, और किरणों का
जादुई आकाश, और तारों से भरी रात, और
ये प्यारे सूर्योदय और सूर्यास्त, और यह सारे जगत पर फैला
हुआ भागवत सौंदर्य, उसकी प्रतीति बन सकेगी?
बुद्ध के जीवन में यूं उल्लेख है। वे एक गांव में आए। और उस गांव के
लोग एक अंधे को बुद्ध के पास लाए। अंधा कोई साधारण अंधा नहीं था। हरिराम, बिलकुल तुम्हारे जैसा रहा होगा। बड़ा तार्किक था, बड़ा
पंडित था, शास्त्रों का ज्ञाता था। उसकी जबान पर वेद थे। उसे
शास्त्र कंठस्थ थे। उसने सारे गांव को हलाकान कर रखा था। उसके और गांव के लोगों के
बीच एक ही विवाद था कि वह अंधा आदमी कहता था कि प्रकाश नहीं है; अगर है, तो तर्क से सिद्ध करो। लाओ, मैं जरा छूकर देख लूं, स्पर्श कर लूं। अगर है,
तो स्पर्श हो सकता है; अगर नहीं है, तो स्पर्श कैसे होगा! लाओ, प्रत्यक्ष प्रमाण दो।
तर्क के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रमाण है। वह
तर्क की आधारशिला है। लेकिन गांव के लोग बेचारे करते भी तो क्या करते।
प्रत्यक्ष शब्द को ही समझो। आंख के सामने लाओ! आंख थी ही नहीं।
प्रत्यक्ष का अर्थ होता है: आंख के सामने लाना। मगर आंख भी तो होनी चाहिए।
लेकिन गांव के सीधे-सादे लोग, वे तो प्रत्यक्ष शब्द
का ठीक-ठीक अर्थ भी नहीं जानते थे, नहीं तो बात वहीं हल हो
जाती। उन्होंने बड़ी कोशिश की। सीधे-सादे लोग थे, पोटलियां
भर-भर कर, झोलियां भर-भर कर प्रकाश लाए।
मगर प्रकाश को क्या तुम पोटलियों में भर सकते हो? कि टोकरियों में भर सकते हो? टोकरियां आ गईं,
अंधे ने छू भी लिया, लेकिन टोकरी छुई गई,
प्रकाश तो नहीं छुआ गया। अंधे ने कहा, यह
टोकरी है। तुम मुझे धोखा देते हो? तुम खुद अंधे हो और मुझको
अंधा सिद्ध करते हो! टोकरी बताते हो और कहते हो यह प्रकाश है!
गांव के लोग देख रहे हैं कि टोकरी पर प्रकाश की किरणें झर रही हैं।
टोकरी में प्रकाश लबालब है। मगर जब अंधा छूता है, तो प्रकाश तो नहीं
छुआ जा सकता। हाथ प्रकाश को कैसे जान सकते हैं! टोकरी छुई जा सकती है।
अंधे ने कहा, अगर तुम ला नहीं सकते प्रकाश छूने के लिए, तो कम से कम प्रकाश को बजाओ, जैसे कि कोई ढोल बजाता
है, घंटा बजाता है मंदिर में। मैं जरा सुन लूं, प्रकाश की आवाज सुन लूं, तो मैं राजी हो जाऊं।
और स्वभावतः अंधों के कान साधारण लोगों के कान से ज्यादा संवेदनशील
होते हैं। क्योंकि आदमी की आंखों से अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का प्रवाह होता है। आदमी
की जिंदगी आंख से अस्सी प्रतिशत जीयी जाती है। इसीलिए तो अंधे पर बहुत दया आती है।
लंगड़े पर इतनी दया नहीं आती, लूले पर इतनी दया नहीं आती। अंधे
पर बहुत दया आती है। तुमने लंगड़े के लिए, लूले के लिए,
अपंग के लिए कोई प्यारा शब्द नहीं खोजा। लेकिन अंधे को अंधा कहने
में भी कष्ट होता है। हम उसे कहते हैं--सूरदास जी। इतना ही नहीं, हम एक ऐसे शब्द का प्रयोग करते हैं जो कि बिलकुल ही उचित नहीं है, मगर अंधे पर दया के कारण हम उसको कहते हैं--प्रज्ञाचक्षु।
प्रज्ञाचक्षु तो केवल बुद्ध को ही कहना चाहिए। जिसके भीतर की आंख खुल
गई, जिसकी ज्ञान की आंख खुल गई, उसको ही प्रज्ञाचक्षु
कहना चाहिए। लेकिन अंधे को भी कहते हैं, सिर्फ दयावश। अंधा
बड़ा दीन मालूम पड़ता है।
आंख से अस्सी प्रतिशत जीवन जुड़ा है। बाकी चार इंद्रियां शेष बीस
प्रतिशत जीवन पाती हैं। तो जब आंख नहीं होती, तो आंख के निकटतम कान
है, इसलिए आंख की सारी ऊर्जा कानों की तरफ प्रवाहित हो जाती
है। इसलिए अंधे संगीतज्ञ होते हैं। उनकी संगीत की पकड़ गहरी हो जाती है। अंधा आदमी
लोगों के पैरों की आवाज से पहचान जाता है--कौन आ रहा है। अंधा आदमी लोगों की आवाज
से पहचान जाता है--कौन बोला। अंधे की श्रवण-क्षमता बड़ी गहन हो जाती है।
तो उस अंधे ने कहा, यूं करो कि तुम प्रकाश को बजा कर
बता दो, यूं जैसे कि कोई तार छेड़ देता है सितार के, या यूं जैसे कि कोई बांसुरी बजा दे। करो कुछ उपाय। अंधे पर उन्हीं
इंद्रियों का प्रभाव पड़ सकता था जो सक्रिय थीं--कान, हाथ। या
लाओ मैं सूंघ लूं तुम्हारे प्रकाश को। या लाओ मैं चख लूं। कुछ तो करो। कोई प्रमाण
तो दो।
कहां से प्रमाण दिया जाए? गांव के लोग थक गए
थे। गांव के लोग जानते हैं कि प्रकाश है, मगर उनके पास तर्क
नहीं। अंधे के पास तर्क हैं, आंख नहीं। और अंधे ने गांव भर
के लोगों को पराजित कर रखा था। बुद्ध का आगमन हुआ तो लोगों ने कहा कि शायद अब यह
झंझट हम से छूट जाए, बुद्ध शायद इसे राजी कर सकें।
वे सब उसे लेकर गए। उन्होंने बुद्ध से सारी स्थिति निवेदन की।
बुद्ध ने कहा, तुम मेरे पास लाए, इससे ही मैं
देखता हूं कि तुम भूल में हो। मैं भी तर्क ही दे सकता हूं। इस आदमी के पास आंख तो
है नहीं, इसलिए अनुभव तो इसको हो नहीं सकता। और जिस तरह इसने
तुम्हारे तर्क खंडित किए हैं, यह मेरे तर्क भी खंडित कर
देगा। अच्छा हो, मेरा वैद्य है...। सम्राट बिंबिसार ने बुद्ध
की सेवा में अपना सबसे प्रसिद्ध वैद्य, उस समय का धनवंतरी,
जीवक, बुद्ध को भेंट किया था। बुद्ध ने कहा,
जीवक के पास ले जाओ। वह मेरे संघ में ही है, मेरे
साथ ही प्रवास करता है। जीवक इसकी आंखें ठीक कर सकता है। और वही एक उपाय है। अगर
इसकी आंख ठीक हो जाए तो शायद तर्क देने की जरूरत न रहे, यह
खुद ही देख ले।
और जीवक ने चिकित्सा की। और उस अंधे आदमी की आंख पर जाला था
सिर्फ--सभी की आंखों पर जाला है; अंधा कोई पैदा नहीं होता--वह
जाला कट गया। और जिस दिन उस अंधे का जाला कट गया, और उसने
सूरज को उगते देखा, और फूलों को खिलते देखा, और हजारों रंगों का विस्तार देखा, वह नाचता हुआ
बुद्ध के चरणों में आया। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। और उसने कहा कि तुमने बड़ी
कृपा की जो मुझे तर्क न दिया, नहीं तो मैं तुम्हें भी हरा कर
लौट जाता। हालांकि तुम्हें हराने में मेरी ही हार थी, मगर वह
मुझे पता ही न चलता। यह तो आज मैं जानता हूं कि मेरे सारे तर्क मूर्खतापूर्ण थे।
लेकिन आज जानता हूं तुम्हारी अनुकंपा थी कि तुमने मुझे वैद्य के पास भेजा।
बुद्ध ने कहा, इसमें कुछ खास बात नहीं। मैं भी कोई दार्शनिक नहीं
हूं, केवल एक वैद्य हूं। मैं भीतर की आंख का इलाज करता हूं।
जीवक बाहर की आंख का इलाज करता है। अब तेरे भीतर की आंख का इलाज अगर तुझे कराना हो
तो मेरे पास रुक जा। जैसे बाहर एक प्रकाश का जगत है, वैसे ही
भीतर इससे भी विराट प्रकाश का एक जगत है।
वह अंधा दीक्षित हुआ--तत्क्षण दीक्षित हुआ। अब अनुभूति की बात थी। अब
उसने एक बात देख ली थी। तर्क नहीं किया। बुद्ध ने कहा, तर्क तो नहीं करना?
उसने कहा, तर्क अब करना ही नहीं। जिंदगी गंवा दी थी। तुम न मिले
होते तो मैं यूं ही भटक जाता। तुम मिले तो जिंदगी मिली--बाहर की मिली। और जब इतना
हुआ है तो भीतर के संबंध में तो मुझे कुछ भी पता नहीं। मैं राजी हूं। तुम मेरी
भीतर की आंख की चिकित्सा करो।
और भीतर की आंख की चिकित्सा की विधि है ध्यान, मन से मुक्ति। क्योंकि मन है जाला, जो भीतर की आंख
को घेरे हुए है। अगर तुम मेरे तर्क से प्रभावित हुए तो तुमने अपने जाले को और गहरा
कर लिया। यह तो उलटी हो गई बात। आए थे हरिभजन को, ओटन लगे
कपास। हरिराम, ऐसा न करना। मेरे तर्क से क्या तुम्हें
लेना-देना? इतना ही उपयोग कर लो कि तुम्हारे तर्क कट जाएं।
लेकिन तुमने जो लिखा है कि आपके प्रश्नों के उत्तर बहुत ही तर्कपूर्ण
हैं...।
तर्क में तुम्हारी श्रद्धा होगी। दुनिया में सबसे खतरनाक श्रद्धा तर्क
में श्रद्धा है; क्योंकि वही व्यक्तियों के जीवन में क्रांति आने से
रोक लेती है, वही है जिसके कारण लोग अंधेरे में ही जीते हैं,
अंधेरे में ही मरते हैं, जीवन के रहस्य से
अपरिचित रह जाते हैं।
और तुम कहते हो कि आपके उत्तर कमाल के हैं।
मेरे उत्तर सीधे-सादे हैं। कमाल कुछ भी नहीं, चमत्कार कुछ भी नहीं। मेरे उत्तर दो टूक हैं, इसीलिए
तो सारा मुल्क मुझसे नाराज है। लोग मुझसे प्रसन्न होते अगर मैं हाथ से राख निकाल
देता। तब कमाल होता। सारा देश गुणगान करता। यह अजीब अंधों का देश है, जहां राख हाथ से निकाली जाए तो सम्मान मिलता है, सत्कार
मिलता है! जहां घड़ियां प्रकट की जाएं...जहां मदारीगिरी संतत्व का पर्यायवाची हो
चुकी है।
मेरी बातें सीधी-सादी हैं, दो टूक हैं। दो तरह
के खतरे हैं मेरी बातों के। एक खतरा जो तुम्हारे साथ घट सकता है कि तुम मेरी बातों
में से तर्क पकड़ लो। बस चूके। दूसरा खतरा...कल तीन महिलाएं यहां मौजूद थीं। जब तुम
हरिराम, मेरे तर्क और मेरे कमाल से प्रभावित हो रहे थे,
तब तीन महिलाएं यहां से उठ कर चली गईं। और द्वारपाल से कह कर गईं कि
हमारे हृदय को बहुत चोट पहुंची। हम बरदाश्त नहीं कर सकते। हम और नहीं सुन सकते।
ये दो खतरे हैं। या तो कुछ लोग हैं जो अपनी बुद्धि में अटके हैं, वे तर्कों को जोड़ लेंगे, उनकी बुद्धि का जाल बढ़
जाएगा। और कुछ लोग हैं जो अपनी भावनाओं में अटके हैं। उनकी भावना के अनुकूल कोई
बात हो तो ठीक, उनकी भावना के प्रतिकूल कोई बात हो जाए तो बस,
हृदय को चोट पहुंच गई।
अब मजबूरी है। तुम्हारी भावनाएं गलत, तुम्हारे विचार गलत।
मुझे तोड़ना ही पड़ेगा तुम्हारे विचारों को भी, तुम्हारी
भावनाओं को भी। जब मैं विचार तोड़ता हूं, तो जिनकी भावनाओं की
दुनिया है उनको कोई अड़चन नहीं होती। जब मैं भावनाएं तोड़ता हूं, तो जिनकी विचारों की दुनिया है उनको कोई अड़चन नहीं होती। महिलाएं थीं,
आखिर महिलाएं ही हैं। उनको भारी कष्ट हो गया कि मैंने कह दिया कि
कृष्ण ने हिंसा का समर्थन किया है, और कृष्ण से महा हिंसक
पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं हुआ। चोट पहुंच गई, भारी चोट पहुंच
गई। हृदय पर आघात हो गया।
लेकिन इसमें कसूर मेरा नहीं है। ऐसा कच्चा-कच्चा हृदय बना कर रखोगे, ऐसा छुई-मुई हृदय बना कर रखोगे, टूटेगा ही। कच्चे
घड़े को बरसात में रख दोगे, मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी।
मगर नहीं, लोग यह नहीं देखते कि हमारी भावना को चोट पहुंची,
इसका अर्थ है कि हमारी भावना कहीं न कहीं निराधार है। अगर मेरी बात
सच है तो चोट पहुंचने का क्या कारण? और अगर मेरी बात झूठ है,
चोट पहुंचने का सवाल ही नहीं उठता। और दो में से कुछ...।
पूरी गीता तो प्रमाण है कि कृष्ण के सारे तर्क हिंसा के पक्ष में हैं, युद्ध के पक्ष में हैं। महाभारत के समय भारत की जो रीढ़ टूटी, वह फिर कभी जुड़ न पाई। महाभारत के बाद भारत का जो अधोपतन हुआ, वह आज भी जारी है। कृष्ण के सिवाय और कौन जिम्मेवार है?
और मजा यह है कि ये तथाकथित भावनाशील लोग एक अजीब तरह की धारणाओं में, कल्पनाओं में, सपनों में जीने लगते हैं। ये अपनी
मान्यताओं में इस तरह घिर जाते हैं कि फिर देखते ही नहीं कि और भी जीवन के पहलू
हैं।
कृष्ण के जीवन को न तो गौर से देखा गया है, न परखा गया है। क्योंकि मुसलमान को तो कोई पड़ी नहीं; ईसाई को कुछ पड़ी नहीं; पारसी को कोई पड़ी नहीं;
जैन को कुछ पड़ी नहीं। हिंदू को ही सोचना है। और हिंदू अपनी शृंखलाओं
में जकड़ा है; सोच नहीं सकता। और अगर मुसलमान या ईसाई कुछ कहे
तो लड़ने-मरने को तैयार है, क्योंकि हृदय को चोट पहुंच जाती
है।
इस देश में ऐसे कमजोर हृदय के लोग हैं कि ऐसा लगता है पूरा का पूरा
देश हृदय की बीमारी से पीड़ित है, कि जरा सा कुछ कहो कि दौरा पड़ा।
अब ये तीन महिलाओं को इकट्ठा दौरा पड़ गया। यहां बैठना भी मुश्किल हो गया।
मगर ये दो तरह की अतियां संभव हैं। या तो तुम्हारी बुद्धि के तर्क के
अनुकूल मेरी बात बैठ जाएगी, तो तुम तत्काल अपने जाल को बढ़ा लोगे। वह एक गलती। और
या तुम्हारी भावना के प्रतिकूल बात पड़ जाएगी, तो तत्क्षण तुम
अपने द्वार बंद कर लोगे।
क्या घबराहट थी भागने की? अगर मैं बातें गलत कह
रहा था, तो हर्जा क्या है? सुन सकते
हैं। और अगर सही हैं...और निश्चित ही उन तीन महिलाओं को यह बात लगी होगी कि बात
सही है, अब सुनना खतरे से खाली नहीं है। अब और आगे सुनना
मंहगा सौदा हो जाएगा। घर जाकर कन्हैयालाल को झूला झुलाने लगी होंगी। झूला झूलें
कन्हैयालाल! वह झूला ही झुला रहे हैं लोग उनको। पांच हजार साल हो गए, कन्हैयालाल झूला झूल रहे हैं और पूरा मुल्क सड़ रहा है।
तुम कहते हो: "आपकी व्याख्या व्यावहारिक तथा जीवन-उपयोगी है।'
नहीं, ऐसा नहीं है। मुझसे ज्यादा अव्यावहारिक आदमी तुम खोज
नहीं सकोगे। काश, मैं व्यावहारिक होता तो यहां कुछ चुने हुए
हिम्मतवर और साहसी लोग ही नहीं होते; यहां करोड़ों मूढ़ों की
भीड़ इकट्ठी होती। व्यावहारिक मैं नहीं हूं। सत्य कभी व्यावहारिक नहीं होता।
व्यावहारिक व्यक्ति को सत्य से कुछ लेना-देना नहीं होता। व्यावहारिक व्यक्ति को
महत्वपूर्ण यह होता है कि कौन सी चीज भीड़ के साथ सफल होगी। व्यावहारिक व्यक्ति
राजनैतिक होता है, धार्मिक नहीं होता। क्या लोग पसंद करेंगे,
वह बोलता है; किसी को चोट नहीं पहुंचाता;
सभी को सांत्वना देता है; सभी पर मलहम-पट्टी
करता है।
मुझसे ज्यादा अव्यावहारिक आदमी कहां खोजोगे? मेरे साथ वही चलने को राजी हो सकता है, जिसको सत्य
की ही अभीप्सा हो और उस अभीप्सा के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने की तैयारी हो।
सिर्फ थोड़े से जुआरी मेरे साथ चल सकते हैं, थोड़े से शराबी,
थोड़े से पियक्कड़। साधारण दुकानदार, साधारण
भीड़-भाड़, साधारण लोग मेरे साथ खड़े भी नहीं हो सकते। मंहगा
सौदा है।
व्यावहारिक मेरी बातें नहीं हैं, हरिराम। और जल्दी ही
तुम देखोगे, जब तुम्हारे पूरे प्रश्न का उत्तर मैं दूंगा,
कि कैसे मेरी बातें व्यावहारिक नहीं हैं। जीवन-उपयोगी जरूर हैं। मगर
जीवन से किसको लेना-देना है? जीवन से किसको प्रयोजन है?
किसी को मोक्ष जाना है। और पता नहीं किसलिए जाना है! क्या करना है
मोक्ष जाकर इनको! यही भाड़ वहां झोंकेंगे जो यहां झोंक रहे हैं। करोगे क्या मोक्ष
जाकर? मोक्ष ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? यही तो करोगे न जो यहां कर रहे हो? आदमी कोई मर जाने
से ही थोड़े ही बदल जाता है। और आदमी कोई रामनाम की चदरिया ओढ़ लेने से थोड़े ही बदल
जाता है। और आदमी कोई सत्यनारायण की कथा सुनने से थोड़े ही बदल जाता है। करोगे क्या
मोक्ष में?
मैंने सुना, एक जहाज पर एक ह्वेल मछली ने हमला किया। बड़ी भयंकर
ह्वेल मछली थी। और जहाजी बड़े मुश्किल में पड़ गए। छोटा जहाज था। तो जो भी उनके पास
खाने-पीने का सामान था, वे ह्वेल मछली के मुंह में फेंकते
गए। थोड़ी देर के लिए ह्वेल मछली रुक जाए, जब पचा ले जो उसके
मुंह में फेंका गया, फिर हमला करे। धीरे-धीरे सारा भोजन का
सामान फिंक गया। फल-फूल, मेवा, जो भी
था सब फिंक गया। लोग कुर्सियां-टेबलें फेंकने लगे। वे भी ह्वेल मछली पचा गई। अब तो
कुछ भी न बचा फेंकने को। सिर्फ एक मारवाड़ी था, जो सबसे मोटा
था। और यह मौका लोगों ने देखा कि चूकने जैसा नहीं है। मारवाड़ी से भी छुटकारा हो
जाएगा। सो उन्होंने मारवाड़ी को फेंक दिया। ह्वेल मछली उसको भी पचा कर आ गई।
तब मल्लाहों ने सोचा कि अब कोई उपाय नहीं, अगर यह मारवाड़ी को पचा गई तो अब सबको पचा जाएगी। अब बेहतर है जूझ लेना। तो
उठा कर भाले और तलवारें वे टूट पड़े ह्वेल मछली पर। यह आखिरी उपाय था। और अंततः
उन्होंने ह्वेल को मार डाला। उसको खींचा जहाज पर और उसको काटा। भीतर जो दृश्य देखा,
देख कर चौंक गए।
मारवाड़ी ने दुकान खोल दी थी। कुर्सी पर बैठा हुआ था, टेबल सामने रखी थी; संतरे, मेवे,
काजू-किशमिश बेच रहा था। पुराने लोग, जो ह्वेल
मछली खा गई होगी कभी, वे बेचारे खरीद रहे थे। लोग दंग रह गए।
एक क्षण को तो उनकी सांसें रुक गईं कि हद हो गई। मारवाड़ी ने जल्दी से सामान बेचा,
जो कुछ पैसा-लत्ता इकट्ठा किया, वह रखा। और
बाकी लोगों से, जिनके पास नहीं था, उनसे
कहा, भई, बाद में चुका देना।
मोक्ष जाकर क्या करोगे? मारवाड़ी हो तो
मारवाड़ी रहोगे। सिंधी हो तो उल्हास नगर बसाओगे। करोगे क्या? किसी
को बैकुंठ जाना है, किसी को गोलोक जाना है! और कोई जिंदगी
में ऊंची आकांक्षा नहीं है? गोलोक! क्या पा लोगे गऊमाता होकर?
बहुत से बहुत सांड हो सकते हो, और क्या करोगे?
मगर गोलोक में करोगे क्या?
जीवन से किसको लेना-देना है? काश, हमने जीवन से ही संबंध जोड़ा होता तो आज यह दयनीय दशा न होती। हम सब बहुत
दूर देख रहे हैं, मृत्यु के बाद।
मेरे पास लोग आकर पूछते हैं कि मृत्यु के बाद क्या होता है? मैं उनसे पूछता हूं, पहले यह तो पूछो कि मृत्यु के
पहले क्या होता है? कोई नहीं पूछता, मैं
बीस साल देश के कोने-कोने में घूम आया हूं, एक आदमी नहीं
मिला जिसने मुझसे पूछा हो कि कुछ बताएं कि मृत्यु के पहले क्या होता है। सबकी
फिक्र है--मृत्यु के बाद क्या होता है?
मेरी बातें निश्चित ही मूलतः जीवन से संबंधित हैं। मेरे लिए जीवन
परमात्मा का पर्यायवाची है। मेरे लिए जीवन ही मुक्ति है; और जीवन ही सत्य है; और जीवन ही सब कुछ है। और जीने
की कला का नाम संन्यास है।
संन्यास जीवन का विरोध बन गया अतीत में, निषेध बन गया। कारण
साफ है। संन्यासी वे लोग थे, जिनकी उत्सुकता थी कि मरने के
बाद स्वर्ग, मोक्ष, कैवल्य, बैकुंठ, गोलोक, ऐसे-ऐसे
स्थानों पर जाना है। जीवन में कोई रस न था। ये उदास और रुग्ण, हताश और बीमार लोगों के कारण सारा भारत एक तरह की उदासीनता से भर गया।
जीवन का उल्लास खो गया। जीवन के उल्लास के प्रति एक निंदा का भाव पैदा हो गया।
जीवन गर्हित हो गया, पाप हो गया। इतना पाप हो गया कि लोग
पूछने लगे, आवागमन से छुटकारा कैसे हो?
आवागमन से छुटकारा का क्या मतलब? इतना ही मतलब न कि
फिर दुबारा जीवन न मिले, ऐसा कुछ इंतजाम करना। क्या तुम
सोचते हो इन लोगों की जीवन में कोई उत्सुकता थी? अगर जीवन
में उत्सुकता थी तो इनकी प्रार्थना होती कि हे प्रभु, तूने
यह जो जीवन दिया, यह जो अदभुत जीवन दिया, बार-बार देना, पुनः-पुनः देना!
लेकिन नहीं, एक ही प्रार्थना गूंज रही है सदियों से हर मंदिर में।
फिर वह जैन मंदिर हो, कि बौद्ध मंदिर हो, कि हिंदू मंदिर हो, एक ही प्रार्थना की अनुगूंज चल
रही है कि हे प्रभु, आवागमन से छुटकारा। शिकायत की जा रही है
कि क्यों तूने हमें जीवन दिया! क्यों न हमसे पहले पूछा।
और जीवन के लिए हमने क्या-क्या मूढ़तापूर्ण सिद्धांत खोजे हैं कि यह
तुम्हारे पिछले जन्मों के पापों के कारण तुम्हें मिला है।
अब जरा सोचने जैसा है कि पिछले जन्म क्यों मिले थे? वे और पिछले जन्मों के पापों के कारण। चलो यह भी ठीक। पहला जन्म किसलिए
मिला था? उसके पहले तो कोई जन्म था ही नहीं, इसलिए पाप का कोई सवाल नहीं उठता। पहला जन्म तो निश्चित ही परमात्मा का
कसूर है। अगर कोई पापी है तो परमात्मा है। क्योंकि न होता बांस न बजती बांसुरी। यह
जीवन दिया, और यह जीवन के प्रति तुम्हारी दृष्टि निंदा की,
घृणा की...।
तुमने परमात्मा को जीवन से बिलकुल विपरीत बना रखा है--परमात्मा वह है
जो जीवन को छोड़ कर मिलता है। और मैं तुमसे कह रहा हूं, परमात्मा वह है जो जीवन की गहराई में मिलता है; जीवन
की त्वरा में, जीवन के शिखरों पर। जीवन की धूप और जीवन की
छांव--ये परमात्मा के रंग हैं। यह जीवन उसका ही विस्तार है।
इसलिए मेरा संन्यास भारत की सदियों पुरानी सड़ी-गली संन्यास की परंपरा
में तहलका मचा दिया है। उनको लग रहा है, यह मैं क्या कर रहा
हूं! संन्यासी तो वह है जो घर छोड़े, द्वार छोड़े, पत्नी छोड़े, बच्चे छोड़े। संन्यासी यानी भगोड़ा,
पलायनवादी। और तुम्हारे बड़े-बड़े संन्यासी भी... अब मेरी मजबूरी है,
अब किसी के हृदय को चोट लगने ही वाली है, जब
मैं कहूंगा कि महावीर और बुद्ध भी पलायनवादी हैं। और इन्हीं का अनुसरण तुम कर रहे
हो सदियों से--भागो, छोड़ो!
इन सारे पलायनवादियों और पलायनवादी जीवन-दर्शनों का यह परिणाम हुआ है
कि तुम दीन हो, दरिद्र हो, बीमार हो, परेशान हो। सारी दुनिया में भारत की स्थिति भिखारियों जैसी हो गई है। कौन
जिम्मेवार है इसके लिए? चोट लगे तो लगे, लेकिन सत्य को समझना होगा। क्योंकि समझो तो बदला जा सकता है; छिपाओ तो बदलने का कोई उपाय नहीं। महावीर जिम्मेवार हैं, बुद्ध जिम्मेवार हैं, शंकराचार्य जिम्मेवार हैं।
इन्होंने जीवन-विरोधी पाठ सिखाया है। इन्होंने पलायन सिखाया है।
और यह भी खयाल रखना कि इन हजारों वर्षों में जो करोड़ों लोग घर छोड़ कर
भागे हैं, उनके कारण कितनी स्त्रियां विधवा हो गईं--पतियों के
रहते! कितने बच्चे अनाथ हो गए--पिताओं के रहते! कितनी स्त्रियां वेश्या हो गई
होंगी--मजबूरी में! कितने बच्चों को भीख मांगनी पड़ी होगी, चोरी
करनी पड़ी होगी, हत्यारे हो गए होंगे--मजबूरी में! एक-एक
संन्यासी के पीछे हजारों लोगों की जीवन-शृंखला पाप की तरफ मुड़ गई होगी। और ये
तुम्हारे पुण्यात्मा हैं! और ये तुम्हारे महापुरुष हैं! ये तुम्हारे महात्मा हैं
और तुम्हारे संत हैं! लेकिन सबके मूल में जीवन-विरोधी स्वर है।
तो हरिराम, उतनी बात जरूर मैं पूरी तरह घोषित करना चाहता हूं कि
मेरे लिए जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं, और न कोई
मोक्ष है, और न कोई कैवल्य है। जीवन की गहराई में डुबकी
मारनी है। जीवन में ही छिपा है सारा राज। जीवन से मुक्त नहीं होना है, जीवन को मुक्त करना है। भेद को समझो। जीवन को मुक्ति से जीना है। जीवन को
उसकी परिपूर्णता में अंगीकार करना है--एक उत्सव की भांति, एक
धन्यवाद। और तभी तुम्हारे प्राणों में प्रार्थना उठेगी। और उस प्रार्थना का स्वर
बड़ा अलग होगा, उसका संगीत अलग होगा।
तो मैं अपने संन्यासी को कह रहा हूं--घर में रहे, दुकान पर रहे, कारखाने में रहे, दफ्तर में रहे, बाजार में रहे; छोड़ना नहीं है, भागना नहीं है। इस सारे जीवन की जो
अनंत अनुभूतियां हैं, जो अनंत अभिव्यक्तियां हैं, इन सारे आयामों से परिचित होना है। इन सारे आयामों से परिचित होकर ही जीवन
में प्रौढ़ता आती है, परिपक्वता आती है, और एक समृद्धि आती है--बाहर की भी, भीतर की भी।
तुमने पूछा, और तुम्हारा पूछना बता रहा है कि तुम भी उन्हीं
पलायनवादियों से प्रभावित हो। तुम भी मूलतः उसी सड़ी-गली परंपरा के बोझ से लदे हुए
हो। शायद तुम्हें खयाल न हो, होश भी न हो, क्योंकि परंपरा इतनी सदियों से तुम्हारी छाती पर बैठी है कि लगता है छाती
का हिस्सा हो गई है।
तुम कहते हो: "मैं विश्वास करता हूं...।'
पहली तो बात, मैं विश्वास-विरोधी हूं। या तो जानते हो, या नहीं जानते हो। यह विश्वास क्या बला है? जानते हो
तो विश्वास की कोई जरूरत नहीं है। क्या तुम विश्वास करते हो कि सूरज में प्रकाश है?
जानते हो। विश्वास का क्या सवाल है! कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। बुद्ध
में और शंकराचार्य में और रामानुज में और निम्बार्क में कोई विवाद नहीं चलता कि
सूरज में प्रकाश है या नहीं। विवाद का कोई सवाल नहीं है। जिसके भी पास आंखें हैं,
वह देखता है कि प्रकाश है, बात खतम हो गई। या
तो तुम जानते हो। जो जानता है, उसके जीवन में विश्वास होते
ही नहीं। और या फिर तुम नहीं जानते हो। नहीं जानते हो, तो
विश्वास कैसे कर सकते हो?
मगर बेईमानी पैदा हो गई है। विश्वास है बेईमानी का स्रोत। जिस देश में
जितने ज्यादा विश्वासी लोग हैं, वह देश उतना पाखंडी होगा। और इस
देश से ज्यादा पाखंडी देश खोजना कठिन है। यही इस देश का एकमात्र गौरव समझो,
इसकी महिमा यही है--विश्वास। विश्वास का अर्थ है: पता तो नहीं है,
मगर मानते हैं; मालूम तो नहीं है, मगर मानते हैं। यह तो असत्य की शुरुआत हो गई। यह तो पहला कदम ही सत्य की
खोज में न गया।
सत्य को जानो, मानो मत; क्योंकि मान लिया तो
फिर जानोगे कैसे? जब मान ही लिया तो रुक गए। जानने की कोई जरूरत
न रही। विश्वास सस्ते हैं, दो कौड़ी के हैं। जानने में
क्रांति से गुजरना पड़ता है, अग्नि से गुजरना पड़ता है। जानने
में जागना पड़ेगा। विश्वास में जागने की कोई जरूरत नहीं है। सोओ मजे से, गहरी नींद लो, सपने देखो--बस, विश्वास
करते रहो। कभी-कभी मंदिर चले जाओ, मस्जिद चले जाओ, गुरुद्वारा चले जाओ; कभी गीता उठा कर पढ़ लो, कभी गुरुग्रंथ उठा कर पढ़ लो। विश्वास किए जाओ।
विश्वास आदमी के जीवन में सबसे बड़ा जहर है।
तुम कहते हो: "मैं विश्वास करता हूं कि अपनी आंखों देखो तथा अपने
पैरों चलो।'
बात तो बड़े पते की कह रहे हो। कहते हैं न, अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! मगर सवाल यह है कि पहले अपनी आंखें
होनी भी तो चाहिए। बात तो पते की कही--कि अपनी आंखों देखो और अपने पैरों चलो। मगर
अपनी आंखें होनी भी तो चाहिए। अपने पैर भी तो होने चाहिए, चलोगे
कैसे? अपनी आंखें नहीं हैं, देखोगे
कैसे? और जाहिर है कि अपनी आंखें नहीं हैं। विश्वास इसी की
तो घोषणा कर रहा है। अंधा आदमी कह सकता है, मुझे प्रकाश में
विश्वास है। बहरा कह सकता है, मैं मानता हूं कि संगीत होता
है। आंख वाले को विश्वास की कोई जरूरत नहीं होती।
अब तुमने भी गजब का विश्वास पकड़ा हुआ है--अपनी आंखों देखो तथा अपने
पैरों चलो। बात जंचेगी; जिससे भी कहोगे, उसी को जंचेगी।
वह तो मुझ जैसे पागल के पास आ जाओगे तो झंझट में पड़ोगे; क्योंकि
मुझे धोखा देना असंभव है।
हरिराम, आंखें हैं तुम्हारे पास अपनी? अपने
पैर हैं?
अपने पैर जिसके पास हैं, अपनी आंखें जिसके पास
हैं, उसको ही तो हम कहते हैं--बुद्धत्व को उपलब्ध, परम ज्ञान को उपलब्ध। मगर फिर विश्वास का कोई सवाल ही नहीं उठता। फिर जीवन
विश्वासों से नहीं जीया जाता। विश्वास तो यूं समझो जैसे लंगड़े के हाथ में
बैसाखियां। विश्वास तो यूं समझो जैसे पश्चिम के देशों में कुत्ते तैयार किए जाते
हैं, उनको प्रशिक्षित किया जाता है, अंधों
के लिए। जो अंधे खरीद सकते हैं--क्योंकि वे कुत्ते बड़े कीमती होते हैं--बस अंधा
आदमी कुत्ते की जंजीर पकड़े रहता है और कुत्ता उसे ले जाता है, जहां अंधा चाहे वहां ले जाता है। उसे पूछना नहीं पड़ता रास्तों पर, कुत्ता उसका मार्ग-दर्शक होता है। जिस दुकान पर जाना है, वहां पहुंचा देता है; जिस मकान पर जाना है, वहां पहुंचा देता है।
मैंने सुना है कि एक दर्जी की दुकान में यूं हुआ न्यूयार्क में कि एक
नये-नये दर्जी को नौकरी रखा, और उसने एक इस तरह का सूट तैयार
किया कि वह सूट बिके ही नहीं। था ही ऐसा बेहूदा। रंग भी उसने ऐसे चुने थे कि जो
देखे उसको एकदम हटा दे, कि हटाओ इसको सामने से! इसको कौन
पहनेगा? उसकी डिजाइन भी ऐसी थी कि जो पहने वही सरकस का जोकर
मालूम पड़े।
मालिक ने कहा कि तुमने कीमती वस्त्र खराब किया है, सात दिन का वक्त देता हूं, मैं छुट्टी पर जा रहा
हूं। सात दिन के भीतर, यह जो तुमने चीज बनाई है, बिकनी ही चाहिए। अगर नहीं बिकी तो तुम्हारी नौकरी खत्म।
सात दिन बाद मालिक लौटा। देखा कि उसका सहयोगी, कई जगह पट्टियां बंधी हैं, लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रहा
है। पूछा कि क्या हुआ भाई?
उसने कहा कि और तो सब ठीक है, वह जो मैंने ड्रेस
बनाई थी, बिक गई।
मालिक ने कहा, चलो वह तो ठीक हुआ बिक गई, मगर
तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?
उसने कहा कि एक अंधे आदमी को बेची। मगर उसके कुत्ते ने मेरी फजीहत कर
दी। अंधे के सिवाय उसको कोई लेने को तैयार था भी नहीं। किसी तरह अंधे को राजी किया, मगर कुत्ते ने हलाकान कर डाला; कुत्ता इनकार करता था,
कि मत खरीदो। अंधे को खींच कर बाहर ले जाना चाहता था। और मेरे जीवन
के लिए वही एक मौका था। मैं भी जूझ गया कुत्ते से। क्योंकि फिर अंधा आए या न आए।
और सात दिन निकले जा रहे हैं। सो हालांकि मेरी फजीहत हो गई, फ्रैक्चर
भी हो गया, जगह-जगह खाल मेरी छिल गई, खूना-खान
कर दिया। वह कुत्ता भी बड?ा खतरनाक था।
विश्वास या तो अंधे के हाथ की बैसाखियां हैं, लंगड़े के हाथ की बैसाखियां हैं, या अंधे और लंगड़ों
के साथ चलने वाले कुत्ते हैं। इससे ज्यादा नहीं।
तुम पूछते हो कि क्या आप इस संत-वाणी को बोधगम्य बनाने की अनुकंपा
करेंगे?
तुमने यह बात मान ही ली कि मैं इसको संत-वाणी समझूंगा, और बोधगम्य बनाने की कोशिश करूंगा। और जो वाणी तुमने...वह बोधगम्य बनाने
जैसी है ही नहीं। बुद्धू वाणी है, संत वाणी जैसा उसमें कुछ
भी नहीं है। मगर यह सदियों से ठोकी गई है तुम्हारी खोपड़ी में बात।
तुम पूछते हो: "सेवा से पवित्रता...।'
सेवा कहां से लाओगे? ओढ़ना पड़ेगी, थोपना पड़ेगी। सवाल तो सेवा से शुरू होगा न? सेवा से
पवित्रता। तो सेवा बीज है। सेवा कहां से लाओगे? सेवा कैसे
पैदा करोगे? क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रक्रिया, मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव सेवा नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है अपने
ढंग से जीए, अपने आनंद में जीए। क्यों अपने जीवन को किसी और
के जीवन के लिए समर्पित करे? यह जीवन की सहज-स्फुरणा है। यह
कोई सिखावन नहीं है।
और जिनको तुम कहते हो सेवा करने वाले लोग, सेवक। और हरिराम भी सेवक मालूम होते हैं। क्योंकि उन्होंने अपने नाम के
नीचे लिखा है--संचालक, मानव सेवा संघ। प्रत्येक व्यक्ति
मूलतः और स्वभावतः अपने आनंद में जीना चाहता है। और सेवा का अर्थ है: खुद न जीओ,
खुद के जीवन को दूसरों के जीवन के लिए समर्पित करो। यह एक
अस्वाभाविक प्रक्रिया है।
एक मां अपने बच्चे को समझा रही थी कि बेटा, भगवान ने तुम्हें किसलिए बनाया है, जानते हो?
दूसरों की सेवा करने के लिए।
उस बेटे ने कहा, चलो, यह तो
ठीक है। अब सवाल यह उठता है कि दूसरों को किसलिए बनाया? चलो,
मुझे इसलिए बनाया कि मैं दूसरों की सेवा करूं। मगर दूसरों को किसलिए
बनाया? इसीलिए कि मैं उनकी सेवा करूं?
मां ने कहा कि दूसरों को इसलिए बनाया कि वे भी दूसरों की सेवा करें।
तो बेटे ने कहा, फिर भगवान है कि उसको थोड़ा गणित
भी नहीं आता! मैं उनकी सेवा करूं, वे मेरी सेवा करें,
इतना घनचक्करपन क्या करना? मैं अपनी सेवा करूं,
वे अपनी सेवा करें। सीधी-साफ बात है।
मगर छोटे बच्चों को अक्सर साफ बात दिखाई पड़ जाती है, जो कि बड़े-बूढ़ों को नहीं दिखाई पड़ती। क्योंकि बड़े-बूढ़ों का मतलब है कि
काफी कचरा भर गया खोपड़ी में, स्लेट साफ नहीं है। यह बच्चा
ठीक कह रहा है कि यह अजीब भगवान है! मुझको बनाया किसी और की सेवा करने के लिए,
उनको बनाया मेरी सेवा करने के लिए! मैं उनके पैर दबाऊं, वे मेरे पैर दबाएं। मैं उनका भोजन बनाऊं, वे मेरा
भोजन बनाएं। अपना-अपना काम क्यों न कर लें?
सेवा का मौलिक अर्थ यही होता है कि तुम अपने जीवन को मत जीओ; तुम अपने आनंद को, अपने जीवन के अवसर को किसी और पर
समर्पित कर दो। यह तुम करोगे कैसे?
मैं सेवा का विरोधी नहीं हूं, खयाल रखना। मगर सवाल
यह है कि तुमने जो सूत्र दिया है, उस सूत्र के अनुसार यह बात
घट कैसे सकती है? कहां से लाओगे सेवा? तुम्हें
जबरदस्ती अपने को दबाना पड़ेगा, दमन करना पड़ेगा। अपनी
नैसर्गिकता को दबा देना होगा।
और जब तुम अपनी नैसर्गिकता को दबाओगे, तो स्वभावतः पीछे
अपेक्षा होगी। नहीं तो दबाना मुश्किल हो जाएगा। सवाल उठेगा तुम्हारे सामने कि
क्यों? क्यों दमन करूं? तो फिर
तुम्हारे भीतर से महत्वाकांक्षा जगेगी। वह कहेगी, अगर सेवा
करोगे तो मेवा पाओगे। मतलब सेवा असली चीज नहीं है, मेवा असली
चीज है! मतलब सेवा सेवा न रही, धंधा हो गया। सेवा करोगे तो
स्वर्ग जाओगे। सेवा करोगे तो पुण्य होगा, दिव्य लोक में पैदा
होओगे।
और दिव्य लोक में क्या करोगे? वहां भी सेवा करोगे?
सुना नहीं कभी किसी ने, किसी पुराण में उल्लेख
नहीं है कि देवता किसी की सेवा करते हैं। वहां भोग करना, जी
भर कर भोग करना। वहां मेनकाएं हैं, और उर्वशियां हैं,
और अप्सराएं हैं, और कल्पवृक्ष हैं।
अब सोचो जरा हरिराम, संचालक, मानव
सेवा संघ, बैठे कल्पवृक्ष के नीचे कि आने दो कोकाकोला! बहुत
कर ली सेवा, अब मेवा लूटें!
स्वर्गों की क्या-क्या कल्पनाएं हैं! वहां शराबों के झरने बह रहे हैं।
यहां चाय पीना गुनाह है! यहां तो प्याऊ खोलो और प्यासों को पानी पिलाओ। मगर नजर
कहां अटकी है? कि चलो थोड़े दिन की बात है, अरे
दो दिन की बात है, गुजार ही लेंगे, फिर
तो आनंद ही आनंद है। फिर तो स्वर्ग में, बहिश्त में शराब के
चश्मे बह रहे हैं। कोई लाइसेंस की जरूरत नहीं, कोई शराबबंदी
नहीं, जी भर कर पीओ। पीओ ही नहीं, नहाओ,
धोओ, डुबकी मारो, तैरो।
और कल्पवृक्ष के नीचे तो सब चीजें संभव हैं। जो चाहो। चाहा नहीं कि हुआ नहीं।
सेवा किसलिए? और सारे धर्म कहते हैं कि जो सेवा करेगा उसको परलोक
में अनंत गुना मिलेगा। यह तो लाटरी हो गई। सेवा लाओगे कैसे? यह
सवाल है। और यह सवाल कोई नया नहीं है। सेवा को लाने के लिए सारे धर्मगुरुओं को
स्वर्ग लाना पड़ा। सेवा को लाने के लिए स्वर्ग के सारे प्रलोभन लाने पड़े। सेवा को
लाने के लिए हजार तरह के लोभ तुम्हारे भीतर जगाने पड़े। इतना ही नहीं, नरक के भय भी जगाने पड़े। तुम्हें दो चक्कियों के बीच में पीसा गया--नरक और
स्वर्ग। नरक का डर कि अगर सेवा नहीं की तो याद रखना, नरक में
अग्नि धधक रही है। धधकती ही रहती है, बुझती नहीं कभी। कड़ाहों
में पकौड़ों की तरह चुड़ाए जाओगे।
अब हरिराम बिलकुल नहीं चाहेंगे कि कड़ाहे में और पकौड़े की तरह चुड़ाए
जाएं। यह बात बिलकुल जंचेगी भी नहीं, कि भई मैं तो मानव
सेवा संघ का संचालक हूं! यह दर्ुव्यवहार मेरे साथ? सदा जीवन
में सेवा में भरोसा किया।
तो नरक का डर, जो सेवा नहीं करेंगे। और स्वर्ग का प्रलोभन! आदमी को
शोषित करने का पुरोहित का रास्ता क्या रहा है? भय और लोभ।
सेवा को लाओगे कैसे?
यह सवाल महत्वपूर्ण है। लाने का उपाय एक ही है! या तो भय दो, घबड़ाओ; या प्रलोभन दो। और प्रलोभन और भय से जो सेवा
कर रहा है, क्या तुम सोचते हो वह सेवा है? क्या उसमें प्रेम है? क्या आनंद है? क्या उत्सव है? जहां हेतु है वहां कैसी सेवा?
धोखा है, पाखंड है। और इस पाखंड का परिणाम यह
होता है कि फिर तुम इसकी भी फिक्र नहीं करते कि जिसकी तुम सेवा कर रहे हो, उसको सेवा करवानी है या नहीं।
मैं इस देश में यात्रा करता रहा। जिन लोगों ने सबसे ज्यादा मुझे सताया
वे सेवा करने वाले लोग! वे कहें, हम तो सेवा करेंगे ही। भई मुझे
करवानी नहीं है। मगर वे कहें कि नहीं, संत-महात्माओं के पैर
तो दबाने ही पड़ते हैं। मगर मुझे दबवाने ही नहीं हैं।
मुझे बचपन से ही घृणा रही पैर दबवाने से। क्योंकि मेरे पिता के पिता
थे, उनको बड़ा शौक था पैर दबवाने का। उनसे बच कर निकलना पड़ता था। उन्होंने देखा
कि उन्होंने कहा, आओ, जरा पैर दबाओ!
फिर मेरे पिता थे, उनको भी पैर दबवाने का शौक था। उन दोनों
ने मुझे बिलकुल चौंका ही दिया। मैंने किसी से पैर नहीं दबवाए, क्योंकि मुझे भलीभांति पता है कि पैर दबाते वक्त मेरी क्या हालत होती
थी--कि इधर पैर दबाता रहता और भीतर-भीतर मंत्र पढ़ता कि अब सो भी जाओ, सो भी जाओ, गहरी नींद में खो जाओ! और जैसे ही मैंने
खुर्राटा उनका सुना कि मैं भागा। क्योंकि फिर नींद खुल जाए, अरे
कोई भरोसा है! ये पैर दबवाने वाले लोग बड़े होशियार होते हैं। जब तक पैर दबाओ,
बड़ी शांति से पड़े रहते हैं; जैसे ही छोड़ो कि
एकदम--कहां जा रहे हो?
मगर लोग दबाते थे। मैं यात्रा करता, जबरदस्ती। तब मैंने
देखा कि उनके विचारों का आधार क्या है। सदियों से उन्हें समझाया गया है कि सेवा
करो संतों की तो फिर मेवा ही मेवा है। ट्रेन में चढ़ जाते। मैं सोया हूं, अचानक नींद टूटती है कि कोई आदमी पैर दबा रहा है। कि भई क्या कर रहे हो?
वह कहता, आप आराम से सोएं, मैं सेवा कर रहा हूं।
मुझसे तो पूछ लेते!
अरे आपसे क्या पूछना! अरे संत-महात्माओं से क्या पूछना! और आपका क्या
बिगड़ जाएगा अगर हम सेवा कर लेंगे और पुण्य का फल हमें हो जाएगा?
एक स्कूल में एक ईसाई पादरी ने बच्चों को समझाया कि कम से कम एक सेवा
का कार्य तो रोज करना ही चाहिए चौबीस घंटे में। और दूसरे दिन पूछा कि कोई सेवा का
कार्य किया?
एक बच्चे ने कहा कि हां, एक बुढ़िया को रास्ता
पार करवाया। बड़ी भीड़-भाड़ थी। बड़ा ट्रैफिक था।
पादरी ने कहा कि बहुत अच्छा किया। भगवान तुम्हें बहुत-बहुत लाभ देगा।
इसी तरह बढ़े जाओ। सेवा करो। सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं, कोई पुण्य नहीं।
औरों से पूछा, किसी और ने सेवा की?
एक दूसरे बच्चे ने हाथ उठाया कि हां, मैंने भी एक बुढ़िया
को रास्ता पार कराया।
तब थोड़ा पादरी शंकित हुआ कि दोनों को बुढ़िएं मिल गईं! मगर बुढ़िएं भी
कोई कम थोड़े ही हैं, इतना बड़ा गांव, होंगी। कोई बात
नहीं। उसने कहा, अच्छा किया, बहुत
अच्छा किया। लाभ पाओगे।
तीसरे ने हाथ उठाया। मैंने भी एक बुढ़िया को पार किया।
पादरी बोला कि बुढ़िएं ही बुढ़िएं पार कीं? और तुम सबको बुढ़िएं मिल गईं?
उस तीसरे ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! बुढ़िया एक
ही थी, हम तीनों ने पार किया।
तो पादरी ने कहा कि तीन की क्या जरूरत थी?
अरे--उन्होंने कहा--आपको पता नहीं, बुढ़िया बड़ी शैतान थी।
इतनी मार-पीट की उसने, क्योंकि वह उस तरफ जाना ही नहीं चाहती
थी। मगर हमें तो करनी ही थी सेवा। पिट गए, कुट गए, मगर पार करवा कर रहे। मगर वह दुष्ट बुढ़िया, हम उसको
ले जाएं खींच कर, वह फिर भागे, चीख-पुकार
मचाए, शोरगुल मचाए, पुलिस वाले को
बुलाए। मगर जब तय कर लिया एक, संकल्प कर लिया, दृढ़ निश्चय, तो हम भी हटे नहीं। दो ने हाथ पकड़े और
तीसरे ने पीछे से कमर पकड़ी। बुढ़िया थी तो सौ साल की, मगर बड़ी
मजबूत काठी की थी। क्या ऊधम मचाया उसने! और क्या भीड़ खड़ी कर दी! मगर हम भी उसको उस
तरफ करके भाग खड़े हुए। और अब आपसे क्या छिपाना, हमारे भागते
से ही वह वापस दूसरी तरफ चली गई। मगर हमने जो सेवा करनी थी वह करके दिखा दी।
सेवा करना किसी चीज की शुरुआत नहीं हो सकती।
तुम पूछते हो: "सेवा से पवित्रता...।'
सेवा से सिर्फ पाखंड पैदा होगा, कोई पवित्रता नहीं
पैदा होगी। सेवा से अहंकार पैदा होगा, कोई पवित्रता पैदा
नहीं होगी। तथाकथित सेवकों का जितना अहंकार होता है, उतना
किसी और का नहीं होता।
और तुम पूछते हो: "तप से शक्ति...।'
शक्ति की जरूरत क्या है? शक्ति की आकांक्षा
मूलतः अहंकार की आकांक्षा है। क्या करोगे शक्ति का? लेकिन तप
करने वाले लोग इसी आशा में कर रहे हैं तप। सिर के बल खड़े हैं, चारों तरफ आग जला रखी है, नंगे खड़े हैं, भूखे खड़े हैं--इसी आशा में कि किसी तरह शक्ति को पा लेंगे। मगर शक्ति
किसलिए? शक्ति तो पोषण है अहंकार का। कोई धन पाने में लगा है,
वह भी शक्ति की खोज कर रहा है। और कोई राजनीति में उतरा हुआ है,
वह भी पद की खोज कर रहा है, पद शक्ति लाता है।
और कोई तपश्चर्या कर रहा है, मगर इरादे वही। इरादों में कोई
भेद नहीं।
तुम्हारे धार्मिक, अधार्मिक लोग बिलकुल एक ही तरह
के हैं। चाहे दिल्ली चलो, यह उनका नारा हो; और चाहे गोलोक चलो; मगर दोनों की खोपड़ी में एक ही
गोबर भरा है--शक्ति चाहिए। क्यों? क्या करोगे शक्ति का?
चमत्कार दिखलाने हैं!
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। रामकृष्ण से कहा कि तुमको लोग परमहंस
कहते हैं, अगर असली परमहंस हो तो आओ मेरे साथ, गंगा पर चल कर दिखाओ!
रामकृष्ण ने कहा कि नहीं भाई, मैं पानी पर नहीं चल
सकता। अगर परमात्मा ने मुझे पानी पर चलने के लिए बनाया होता, तो मछलियों जैसा बनाया होता। उसने जमीन पर चलने के लिए बनाया। उसके इरादे
के विपरीत मैं नहीं जा सकता। मगर मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं कि कितना समय लगा
तुम्हें पानी पर चलने की यह कला सीखने में?
उसने कहा, अठारह साल तपश्चर्या की है! कठिन तपश्चर्या की है!
खड्ग की धार पर चला हूं। तब कहीं यह शक्ति हाथ लगी है, यह
कोई यूं ही हाथ नहीं लग जाती।
रामकृष्ण कहने लगे, अठारह साल तुमने व्यर्थ गंवाए।
मुझे तो जब भी गंगा के उस तरफ जाना होता है तो दो पैसे में मांझी मुझे पार करवा
देता है। तो अठारह साल में तुमने जो कमाया उसकी कीमत दो पैसे से ज्यादा नहीं है।
लेकिन यह--तप से शक्ति!
शक्ति का क्या करोगे? तुम्हारे ऋषि-मुनि तपश्चर्या
कर-कर के शक्ति की कोशिश में लगे रहे। स्वभावतः राजनीति का ही सब दांव-पेंच था।
इसलिए कथाएं हैं तुम्हारे पुराणों में कि इंद्र का इंद्रासन डोलने लगता है।
क्योंकि इंद्र घबड़ाता है कि अब यह दूसरा आदमी शक्तिशाली हुआ जा रहा है, यह इंद्र न बन जाए। और इंद्र घबड़ाता है तो फिर डगमगाने की कोशिश करता है
ऋषि-मुनियों को। तो भेजता है उर्वशियों को, मेनकाओं को,
कि नाचो इनके आस-पास। क्योंकि उसे भी भलीभांति पता है कि इनको
भ्रष्ट करने का सबसे सुगम उपाय क्या है।
सिग्मंड फ्रायड के तीन हजार साल पहले इंद्र को पता था कि ये ऋषि-मुनि
कुछ भी नहीं हैं, कामवासना को दबाए बैठे हैं। इनके भीतर कामवासना दबी
बैठी है, उर्वशी को देखते ही भड़क उठेंगे। और भड़क जाते थे।
मुंह से लार टपकने लगती थी। और इन्हीं ऋषि-मुनियों की संतान तुम अपने को घोषित
कर-कर के बड़े प्रसन्न होते हो--कि हम ऋषि-मुनियों की संतान! जरा इन ऋषि-मुनियों के
चेहरे तो देखो! इनकी आकांक्षाएं तो देखो!
मगर एक बड़े मजे की बात है कि ऋषि-मुनियों की संतान जो लोग कहते हैं, वे यह सोचते ही नहीं कि एक ऋषि और एक मुनि दोनों के मिलने से संतान पैदा
हो कैसे सकती है? गजब की संतानें पैदा कर गए! चमत्कार कर गए।
तपश्चर्या का चमत्कार इसी को तो कहते हैं। इसमें स्त्रियां कहीं आती ही
नहीं--ऋषि-मुनि! स्त्रियों की तो कोई गिनती ही नहीं है। जिनकी संतान हो, उनकी गिनती नहीं। और ये जमाने भर के मूढ़ जिनकी कुल आकांक्षा इतनी है कि
किसी तरह स्वर्ग में प्रथम स्थान पा लें...। नहीं तो इंद्र क्यों डर रहा है?
इंद्र क्यों घबड़ा रहा है? उसने किसी तरह तो
सिंहासन पर कब्जा किया, अब ये दूसरे कब्जे वाले आ रहे हैं,
ये दूसरे दावेदार आ रहे हैं। इनको रोकना जरूरी है। इनको, इसके पहले कि ये करीब आ जाएं सिंहासन के, गिरा देना
जरूरी है।
और गिराने का उसने सबसे सुगम रास्ता खोजा है--स्त्री को पहुंचा देना।
इससे बात बड़ी साफ है। बात गहरी है और साफ है कि तुम्हारे ऋषि-मुनि आग दबाए बैठे
हैं, कामवासना को दबाए बैठे हैं। स्त्रियां छोड़ कर भागे
हैं, पत्नियों को छोड़ कर आए हैं, इसलिए
स्वभावतः स्त्रियों के द्वारा ही डगमगाए जा सकते हैं। और फिर उर्वशी आ जाए तो
ऋषि-मुनि भी सोचने लगते हैं कि अब साधना फिर कल शुरू करेंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है! हाथ जो फल लग रहा है, पहले तो
यह लो। फिर देखेंगे पीछे।
यह--तप से शक्ति--यह आकांक्षा ही अहंकार की है।
और तुम पूछते हो: "त्याग से शांति...।'
त्याग से शांति का क्या संबंध? भूखे रहोगे, भोजन का त्याग कर दोगे, शांति मिल जाएगी? सिर्फ शरीर अशांत होगा, बेचैन होगा, तड़फेगा मछली की तरह, जैसे मछली को किसी ने धूप में
रेत पर डाल दिया हो। इसको तुम शांति कह रहे हो? नंगे खड़े
रहोगे ठंड में, और शांति मिल जाएगी? नंगे
खड़े रहोगे धूप में और शरीर को सड़ाओगे और गलाओगे, और तुम
समझते हो शांति मिल जाएगी? काश, शांति
इतना आसान मामला होती!
नहीं, तुम्हारे सारे सूत्र गलत हैं। मगर ये सारे सूत्र
परंपरागत हैं, इसलिए तुमने कभी इन पर विचार नहीं किया होगा।
तुमने चुपचाप मान लिया है।
और तुम अंतिम बात कहते हो: "अपनत्व से प्रीति।'
अपनत्व का नाम ही तो मोह है। मेरा! और जहां मेरा है, वहां प्रीति नहीं। प्रीति में मेरा और मैं दोनों मर जाते हैं। प्रीति तो
निरहंकार अवस्था की सुगंध है। वहां कहां मेरा और कहां तेरा?
तुम्हारी पूरी शिक्षा हरिराम, गलत है। अगर तुम
मुझसे पूछो तो मैं सूत्र को ठीक कर दूं। सूत्र को यूं बनाओ--ध्यान से समाधि। ध्यान
का अर्थ होता है: निर्विचार होना। जैसे-जैसे तुम निर्विचार होने लगे, तुम्हारे भीतर समाधान आने लगा। क्योंकि विचारों के कारण ही समस्याएं हैं।
विचारों के कारण ही तनाव है। विचारों के कारण ही भीतर विक्षिप्तता है। ध्यान जैसे
ही उतरना शुरू हुआ कि तुम्हारे भीतर समाधि, समाधान का फूल
खिला।
जिस दिन ध्यान पूर्ण हो जाता है, पूर्ण अर्थात तुम्हारे
भीतर जब शून्य विराजमान हो जाता है, कोई विचार की तरंग नहीं,
कोई आकांक्षा नहीं--स्वर्ग की, मोक्ष की,
कैवल्य की, बैकुंठ की। क्योंकि वे सब विचार
हैं। कोई इच्छा नहीं अमरत्व पाने की। कोई इच्छा ही नहीं, क्योंकि
इच्छा मात्र विचार है। सारे विचार गए। और तुम्हारे चैतन्य की झील बिलकुल ही
निस्तरंग हो गई। उसका नाम समाधि। खिल गया फूल तुम्हारे जीवन का। खिल गया
कमल--सहस्रदल कमल।
ध्यान है प्रक्रिया, यात्रा; और
समाधि है गंतव्य। ध्यान है गति और समाधि है गंतव्य। फिर समाधि से सब पैदा होता है।
सेवा पैदा होती है। लेकिन उसका रंग-रूप और, रंग-ढंग और,
उसका सौंदर्य और। फिर तुम सेवा इसलिए नहीं करते कि मेवा पाना है।
समाधिस्थ व्यक्ति के जीवन में स्वभावतः, सहजतः, बिना किसी हेतु के, सेवा होती है। क्योंकि उसके भीतर
आनंद फलित हुआ है। और आनंद का यह स्वभाव है कि वह बंटना चाहता है। और आनंद का
बंटना ही सेवा है।
जिसके भीतर समाधि का दीया जला, उसके भीतर रोशनी हुई।
उसके चारों तरफ रोशनी प्रकट होने लगेगी। उसके खिड़की, द्वार-दरवाजों
से, रंध्र-रंध्र से प्रकाश दूसरों तक पहुंचने लगेगा। यह
प्रकाश, यह उत्सव, यह आनंद दूसरों तक
पहुंच जाना, इसको मैं सेवा कहता हूं। किस ढंग से पहुंचेगा,
यह और बात। हजार ढंग होंगे--हजार लोग होंगे तो उनके हजार ढंग होंगे।
लेकिन तब इस सेवा से कोई अहंकार नहीं भरेगा। और न इस सेवा में कोई इच्छा होगी कि
प्राप्ति हो। तब यह फलाकांक्षा-रहित होगी। तब तुम ऐसा न कहोगे कि सेवा से स्वर्ग
मिलता है। तब तुम ऐसा जानोगे कि सेवा स्वर्ग है। और यह क्रांतिकारी परिवर्तन है।
फिर पवित्रता भी आएगी। समाधि में सब आ जाएगा। क्योंकि जिसका चित्त
विचारों से निर्मल हुआ और वासनाओं से मुक्त हुआ, अब और क्या पवित्रता
में कमी रह गई? यही तो निर्दोषता है। यह पवित्रता और ढंग की
होगी। तुम्हारे साधु-संतों की जो पवित्रता है, वह थोथी है,
ऊपर से थोपी गई है, चेष्टा से लाई गई है। हर
तरह का उपाय कर रहे हैं कि पवित्र बने रहें। और क्या-क्या मूढ़ताएं उनको नहीं करनी
पड़तीं! अगर उनकी मूढ़ताओं को देखो तो पता चल जाएगा कि इनकी पवित्रता किस तरह की है।
एक जैन मुनि मुझे मिलने आए। वे जब मुझे मिलने आए उसके पहले ही एक
महिला मुझे मिल कर जा ही रही थी। मैंने उनसे बैठने को कहा। उन्होंने कहा, इस स्थान पर मैं नहीं बैठ सकता। इस स्थान पर स्त्री बैठी थी।
मैंने पूछा, स्त्री जा भी चुकी, क्या स्थान
स्त्रैण हो गया?
वे बोले, हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि कम से कम नौ मिनट
उस स्थान पर नहीं बैठना चाहिए जिस पर स्त्री बैठी हो। नहीं तो आदमी का मन डांवाडोल
होता है।
इन मूढ़ों को तुम साधु-संत समझ रहे हो? ये उस स्थान पर नहीं
बैठ सकते जहां स्त्री बैठी थी, क्योंकि इनका मन डांवाडोल
होगा। इनका मन ऐसा समझो कि डांवाडोल होने को तैयार ही है, बहाना
भर चाहिए। अब स्थान अगर यूं अपवित्र होने लगे...।
और स्त्री से ही ये पैदा हुए हैं, उसी की
हड्डी-मांस-मज्जा से बने हैं। पिता का दान कुछ बहुत नहीं होता बच्चे के जन्म में।
पिता का दान तो नकारात्मक है। एक इंजेक्शन से यह काम हो सकता है। बस इससे ज्यादा
पिता का कोई काम नहीं है। जल्दी एक भविष्य विज्ञान के द्वारा आ जाएगा, ज्यादा देर नहीं है। जब तुम पिता की तसवीर की जगह एक इंजेक्शन को रख कर
पूजा करोगे, कि ये हमारे पिताजी हैं। पिता का कोई बहुत बड़ा
दान नहीं है। दान तो सारा मां का है। निन्यानबे प्रतिशत से ज्यादा जो दिया है वह
मां ने दिया है। हड्डी-मांस-मज्जा उसकी है। नौ महीने उसके गर्भ में रहे हो। और अब
स्थान पर बैठने में घबड़ा रहे हो! मगर पवित्रता की यह धारणा।
पवित्रता की धारणाएं तो तुम देखो, किस-किस तरह की
धारणाओं में लोग जी रहे हैं! विनोबा भावे के पास अगर तुम रुपया ले जाओ, वे जल्दी से आंख बंद कर लेते हैं, क्योंकि रुपया
देखने से अपवित्रता हो जाती है।
गजब की पवित्रता है! रुपये में वैसे ही कुछ बचा नहीं है। एक रुपये के
नोट में कुछ बचा है? कब का खाली हो चुका, उसमें कुछ
है ही नहीं अब, मगर उसका डर बाकी है।
यह कैसी पवित्रता? यह कैसा भय? यह थोपी हुई पवित्रता है। यह निर्दोष चित्त का लक्षण नहीं है। समाधि से जो
पवित्रता आती है वह वही होती है जैसे छोटे बच्चे की पवित्रता। अभी-अभी पैदा हुए,
सद्यः जन्मे बच्चे की आंखों की पवित्रता। वही पवित्रता समाधि से
पैदा होती है।
मगर उसको पहचानना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारी धारणाएं पवित्रता
की जो हैं वे बाधा डालेंगी। जैनों की धारणाएं हैं, हिंदुओं की धारणाएं
हैं, बौद्धों की धारणाएं हैं, उन सबकी
अपनी धारणाएं हैं पवित्रता की।
बौद्ध भिक्षु को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए; यह पवित्रता का लक्षण है।
अब यह बिलकुल अवैज्ञानिक है, और शाकाहार के बिलकुल
विपरीत है। सिंह एक बार भोजन करता है, क्योंकि वह मांसाहारी
है। मांसाहारी एक बार भोजन करे, यह चल सकता है। क्योंकि मांस
पचा हुआ भोजन है, दूसरे जानवर ने पहले ही पचाने का काम कर
दिया है। तुम पचा-पचाया भोजन ले रहे हो।
लेकिन शाकाहारी व्यक्ति एक बार भोजन ले, यह आत्महिंसा है। तुम
जरा शाकाहारी पशुओं को देखो। गाय को देखो, भैंस को देखो। दिन
भर घास का चरना चल रहा है। बंदरों को देखो। शाकाहारी व्यक्ति को एक बार भोजन करने
का मतलब यह होता है कि उसकी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं होंगी। मांसाहारी एक बार
करे, चल जाएगा। लेकिन जैन और बौद्ध दोनों शाकाहार पर जोर
देते हैं, और फिर भी एक बार भोजन की पवित्रता पर जोर देते
हैं।
यह आदमी को अपने को सताने के सिवाय और क्या है? इसमें पवित्रता क्या है?
लेकिन एक और तरह की पवित्रता है जो समाधि से पैदा होती है, हरिराम। उस पवित्रता में किन्हीं सिद्धांतों का अंधानुकरण नहीं होता,
बल्कि तुम्हारी अपनी निजता, तुम्हारा खुद का
बोध तुम्हें गति देता है। तुम खुद अपने बोध से जीते हो। जितनी तुम्हारी जरूरत होती
है, उतना लेते हो--न ज्यादा, न कम।
तुम्हारे जीवन में एक समता होती है।
और समाधि से शांति तो आएगी ही। तुम्हारे जीवन में चारों तरफ शांति की
आभा होगी। और समाधि से एक नये तरह का त्याग आएगा--असार का त्याग, व्यर्थ का त्याग।
तुम्हारे जीवन में बहुत कुछ व्यर्थ है और असार है, जिसमें तुम नाहक उलझे हुए हो। कई दफे तो ऐसी व्यर्थ की बातों में लोग समय
खराब करते हैं जिसका हिसाब नहीं।
एक अदालत में मुकदमा था। दो मित्रों ने छुरेबाजी कर दी थी एक-दूसरे के
साथ। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम दोनों मित्र हो, सारा गांव जानता है,
यह हुआ क्या?
दोनों सिर झुका कर खड़े हो गए। एक ने दूसरे से कहा, भई, तू ही कह दे। दूसरे ने कहा, तू ही कह दे। दोनों न बोलें।
मजिस्ट्रेट ने कहा, कोई तो कहो। कहना तो पड़ेगा ही।
बात क्या है छिपाने की?
तो पहले ने कहा कि अब कहना है तो कहना पड़ेगा, कहने योग्य नहीं है। असल में बात यह है कि हम दोनों नदी पर बैठे गपशप कर
रहे थे। रेत में बैठे थे। और इस कमबख्त ने यह कहा कि मैं भैंस खरीद रहा हूं। खरीदी
नहीं है अभी, खरीद रहा हूं। मैंने कहा, भई तू खरीद रहा है, ठीक। मगर खयाल रख कि मैं भी खेत
खरीद रहा हूं। मेरे खेत में भैंस नहीं घुसनी चाहिए। मुझसे बुरा कोई नहीं, अगर मेरे खेत में भैंस घुसी। अच्छा तो यह हो कि तू यह भैंस खरीदने का खयाल
छोड़ दे। अपन पुराने दोस्त, यह भैंस के पीछे सब दोस्ती बिगड़
जाए! उसने कहा, यह भी खूब रही! अगर तुम इतने घबड़ाते हो भैंस
से तो खेत मत खरीदो। भैंस खरीदी जाएगी! और हम कोई दावा भी नहीं कर सकते कि भैंस
तुम्हारे खेत में नहीं घुसेगी। अरे भैंस भैंस है, कभी घुस भी
जाए। ऐसे बात बिगड़ गई।
और उस आदमी ने कहा कि मैंने कहा कि देख, इसमें खतरा हो जाएगा,
खून-खराबा हो जाएगा। अगर मेरे खेत में तेरी भैंस घुसी तो मुझसे बुरा
कोई नहीं। और मैंने वहीं लकीर खींच दी अपनी अंगुली से कि यह रहा मेरा खेत, घुसा अपनी भैंस! और इस हरामजादे ने अपनी अंगुली से एक लकीर खींच दी और कहा,
यह मेरी घुस गई भैंस, कर ले क्या करता है! बस
फिर छुरा चल गया।
इसलिए अब क्या आपसे कहें--दोनों कहने लगे--न भैंस है, न खेत है, मगर छुरा चल गया है।
समाधिस्थ व्यक्ति से, जो असार है, वह छूट जाता है; और जो सार है, वह उसका जीवन हो जाता है। मेरे लिए त्याग का यही अर्थ है। संसार का त्याग
नहीं, परिवार का त्याग नहीं। मगर बहुत कुछ असार है। जैसे मैं
नहीं कहता पत्नी को छोड़ो। मगर मैं कहूंगा कि निश्चित, समाधिस्थ
व्यक्ति को पत्नी के प्रति पत्नी-भाव छूट जाता है। पत्नी नहीं छोड़ता वह। पत्नी को
छोड़ने में क्या रखा है! रामकृष्ण ने पत्नी कभी नहीं छोड़ी, लेकिन
पत्नी-भाव नहीं रहा।
पत्नी-भाव अमानवीय है। किसी के मालिक होने की बात ही बुरी है, बेहूदी है। अब तुम देखो पति, पति का मतलब होता है
मालिक। पत्नी का क्या अर्थ होता है, मुझे मालूम नहीं। इतना
ही समझ में आता है--जो तनीत्तनी रहे! पति से तनीत्तनी रहे, सो
पत्नी! और मुझे पता नहीं। और क्यों न रहे तनीत्तनी? जब किसी
के गले में जंजीर डालोगे तो वह तनीत्तनी रहेगी ही।
पति बनने की आकांक्षा, मालिक होने की
आकांक्षा अमानवीय है। वह आकांक्षा समाधिस्थ व्यक्ति की छूट जाती है। समाधिस्थ
व्यक्ति धन को छोड़ कर नहीं भागता। कोई जरूरत नहीं है। धन से क्या भय है? धन तो एक सुगम उपाय है विनिमय का। मनुष्य-जाति के जीवन में जो महत्वपूर्ण
बातें घटी हैं, धन उनमें से एक है। समाधिस्थ व्यक्ति धन छोड़
कर नहीं जाता। कोई जरूरत नहीं है। लेकिन धन पर उसकी पकड़ नहीं रह जाती, पकड़ छूट जाती है। धन का वह दीवाना नहीं रह जाता। यूं नहीं है कि धन खो
जाएगा तो छाती पीट कर रोएगा, कि आत्महत्या कर लेगा। है तो
ठीक, नहीं है तो ठीक। उसके भीतर कुछ भेद नहीं पड़ेगा।
तो त्याग जरूर घटता है, लेकिन समाधि से। और
तब सम्यक त्याग घटता है। और समाधिस्थ व्यक्ति के जीवन में तप भी होता है, लेकिन तप की व्याख्या फिर और होती है। तप का मतलब यह नहीं होता कि नाहक
अपने को सताना। जीवन में ऐसे ही बहुत दुख हैं, क्या दुखों की
कुछ कमी है कि तुम अपने को और सताओ? लेकिन जब जीवन में
समाधिस्थ व्यक्ति के कोई दुख आता है तो वह साक्षी होता है--यह उसका तप है।
जैसे महर्षि रमण को कैंसर हो गया। इस कैंसर को साक्षी-भाव से देखते
रहे। यह तप है। यह वास्तविक तप है। जब भी उनके शिष्य उनको कहते कि भगवान, आपको बहुत पीड़ा हो रही होगी! तो वे कहते, नहीं,
मुझे पीड़ा नहीं हो रही, शरीर को पीड़ा हो रही
है, मैं देख रहा हूं।
रामकृष्ण को भी कैंसर हुआ था--गले का कैंसर हुआ था। पानी पीना भी
मुश्किल हो गया था। लेकिन वही मुस्कुराहट, वही आनंद, वही शांति। भोजन न ले सकते थे, तो शिष्यों ने कहा कि
हमें बहुत दुख होता है कि आप भोजन नहीं ले सकते। आप परमात्मा से इतना भी अगर कह दो
कि कम से कम भोजन तो लेने दो, तो ऐसा नहीं है कि आपकी बात
खाली जाएगी।
रामकृष्ण ने कहा, मैंने कभी कुछ मांगा नहीं,
मांगा ही नहीं; बिन मांगे इतना मिला है! बिन
मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून। मांगना तो मैंने छोड़ ही
दिया। कैसे मांगूं? किस मुंह से मांगूं?
लेकिन शिष्यों ने बहुत आग्रह किया तो उन्होंने कहा, ठीक है, तुम नहीं मानते तो मैं आंख बंद करके...।
रामकृष्ण सीधे-सादे आदमी थे। आंख बंद करके उन्होंने मांगा होगा, ऐसा नहीं है। मैं गवाही दे सकता हूं कि नहीं मांगा होगा। क्योंकि रामकृष्ण
जैसा व्यक्ति मांग नहीं सकता। मांग का सवाल ही नहीं। समाधिस्थ को क्या मांगना! सब
मिल गया--राज्यों का राज्य, साम्राज्यों का साम्राज्य! अब और
क्या मांगना? मगर शिष्यों को देख कर कि ये रो रहे हैं,
बार-बार प्रार्थना कर रहे हैं, आंख बंद कर ली
होगी।
और फिर आंख खोल कर कहा कि मैंने कहा और आवाज आई परमात्मा की...।
यह सब कल्पना है। कल्पना का मतलब, समझा रहे हैं
रामकृष्ण इन रोते हुए लोगों को, जैसे कोई खिलौना पकड़ा दे
बच्चे को, रोते बच्चे को खिलौना पकड़ा दे, बस इतना ही। कि मैंने मांगा और परमात्मा ने मुझसे कहा कि अरे रामकृष्ण,
अब कब तक तू इसी गले से भोजन करेगा? अब और
सारे गलों को भी अपना समझ। और मैंने तुमसे पहले से कहा था कि तुम मेरी फजीहत
करवाओगे। मैंने मांगा और यह फजीहत हुई। मुंह की खानी पड़ी। आंखें झुका कर खड़ा रहना
पड़ा। बात तो सच है, रामकृष्ण ने कहा, कि
अब सभी कंठ मेरे हैं। इतने कंठों से मैं ही भोजन कर रहा हूं। इसी कंठ से क्या बंधे
रहना!
त्याग घटेगा, तप घटेगा। तप का अर्थ होगा--जीवन में जब दुख हो तो
समता खंडित न हो, संतुलन न टूटे। कोई दुख पैदा करने की जरूरत
नहीं; दुख तो अपने आप काफी आ रहे हैं। बीमारियां आएंगी,
बुढ़ापा आएगा, मौत आएगी। अब तुम्हें कोई अलग से
और सिर के बल खड़े होने की जरूरत है? कि घसिट-घसिट कर तुम्हें
काशी की यात्रा करने की जरूरत है? कि नाहक भूखे मरने की
जरूरत है? जीवन में बहुत कांटे हैं। समाधिस्थ व्यक्ति उन
कांटों को साक्षी-भाव से स्वीकार कर लेता है। और साक्षी-भाव से स्वीकार करते ही
कांटे फूलों में रूपांतरित हो जाते हैं।
और समाधिस्थ व्यक्ति के जीवन में प्रीति तो घटने ही वाली है, अपरिहार्यरूपेण। समाधि का लक्षण ही प्रेम है। समाधि के पहले सब प्रेम धोखा
है, बकवास है। समाधि के बाद प्रेम की बात नहीं होती, मगर समाधिस्थ व्यक्ति से प्रेम झरता है; जैसे दीये
से रोशनी झरती है, फूलों से गंध झरती है, बदलियों से वर्षा की फुहार आती है। प्रेम समाधिस्थ व्यक्ति की छाया है। वह
उसके पीछे-पीछे चलता है।
हरिराम, अगर मेरा सूत्र समझना चाहो तो यह हुआ: ध्यान से समाधि;
और फिर समाधि से सब--सेवा, पवित्रता, शांति, त्याग, तप, प्रीति। शक्ति भर को मैंने छोड़ दिया। जान कर छोड़ दिया। क्योंकि समाधिस्थ
व्यक्ति बचता ही नहीं अहंकार की तरह, इसलिए क्या शक्ति!
शक्ति तो समग्र की है, व्यक्ति की नहीं। और समाधिस्थ व्यक्ति
तो यूं खो जाता है समस्त के सागर में, जैसे बूंद ओस की सरक
जाए कमल के पत्र से और गिर जाए झील में और हो जाए एक।
कबीर कहते हैं--
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाय।
हेरतऱ्हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराय।।
बूंद समुद्र में खो गई, अब तो उसे लौटाने का
कोई उपाय नहीं। और कबीर खोजने निकले थे, मगर खोजते-खोजते खुद
ही खो गए। और तब कबीर ने दूसरा सूत्र भी लिखा है, जो और भी
अदभुत है--
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाय।
हेरतऱ्हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराय।।
बूंद समुद्र में खो गई, यह तो ठीक। लेकिन
कबीर कहते हैं: जब बूंद समुद्र में खो गई तब मैंने जाना कि बूंद समुद्र में खो गई,
इतनी ही बात नहीं, इसका एक और भी पहलू
है--समुद्र भी बूंद में खो गया। और बूंद खो गई थी समुद्र में तो खोजना कठिन था,
वापस निकालना कठिन था। और अब तो बात और मुश्किल हो गई, क्योंकि समुद्र भी बूंद में खो गया। अब तो कहां खोजने जाऊं!
हेरतऱ्हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराय।
शक्ति की आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है, इसलिए उस बात को भर मैंने छोड़ दिया, बाकी तुम्हारी
सारी बातों को ले लिया है।
हरिराम, मैं जो कह रहा हूं, वह तर्क
नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, अनुभव है।
आज इतना ही।
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