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सोमवार, 31 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-09

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

दरवाजा खुला रखना—प्रवचन-नौवां  
दिनांक 29 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
कल बुल्लेशाह की आपने अलफ काफी हमें पिलाई। उनकी बे काफी इस प्रकार है--
बन्ह अखीं अते कन्न दोवें, गोशे बैठ के बात विचारिए जी।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा, कहिआ आरफा दा हीए धारिए जी।
पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी, इस नफस नूं कैद कर डारिए जी।
जा जान देवें जान रूप तेरा, बुल्लाशाह एह खुशी गुजारिए जी।
अर्थात आंख और कान दोनों बंद करके, होश में बैठ कर बात का विचार करो।
जगत की ख्वाहिशें छोड़ो, जगत झूठा है। ब्रह्मज्ञानी के कहे हुए को हृदय में धारण करो।
पैरों में बेख्वाहिशों की जंजीर पहन कर, इस क्षण को कैद कर डालो।
अगर अपनी जान जाने दो तो अपना रूप जानो। बुल्लेशाह कहते हैं कि यही खुशी है जिसमें गुजारा है।
भगवान, निवेदन है कि बुल्लेशाह की यह काफी भी हमें पिलाएं।

 योग शुक्ला,

बुल्लेशाह की बातें तो ओस की बूंदों की तरह हैं--ताजी, नई, छोटी-छोटी बूंदें। लेकिन इन बूंदों में जैसे सागर समाया हुआ है। और वह बूंद ही क्या जिसमें सागर न समाया हो! वह बात ही क्या, जो बेबात की दुनिया की खबर न ले आए! वह शब्द ही क्या जिसमें निःशब्द की वीणा न बजती हो! इसलिए बुल्लेशाह की इन अभिव्यक्तियों को जरा और ढंग से लेना।
बुल्लेशाह कोई पंडित नहीं, कोई पुरोहित नहीं--एक अलमस्त फकीर हैं। जिन्होंने जाना, जिन्होंने जीया, पीया, और पिलाया भी। सिर्फ विचार करने बैठोगे तो चूक जाओगे। ये बातें तो निर्विचार में ही समाविष्ट हो सकती हैं।
बन्ह अखीं अते कन्न दोवें, गोशे बैठ के बात विचारिए जी।
"आंख और कान दोनों बंद करके, होश में बैठ कर विचार करो।'
यह जरा सोचने की बात है। यह तो कबीर की उलटबांसी जैसी बात है। आंख और कान ही हमारे द्वार हैं, जहां से विचार प्रवेश करता है। आंख और कान से ही, देख कर और सुन कर ही, सुन कर और पढ़ कर ही, हमारे भीतर विचारों का संकलन होता है; विचारों की पर्त पर पर्त जमती है। धीरे-धीरे विचार के पहाड़ खड़े हो जाते हैं--इतने बड़े कि हमारा शून्य हमें भूल ही जाता है; हमारा स्व हमें विस्मृत ही हो जाता है। विचारों की धूल इतनी जम जाती है कि चेतना का दर्पण था भी कभी, इसकी याद भी नहीं आती। चेतना की भाषा ही भूल जाती है। बस हम शब्दों के जंगल में ही खो जाते हैं। और ये दोनों बातें आती हैं आंख और कान से; या तो सुन कर या देख कर।
बुल्लेशाह कहते हैं, बन्ह अखीं अते कन्न दोवें। दो चीजें बंद कर लो--आंख और कान। बुल्लेशाह सीधे-सादे आदमी हैं, सीधी-सादी बात कह रहे हैं। और ध्यान फलित हो जाएगा। जो आंख से पाया है उसे बाहर छोड़ दो। जो देखा है उसे भूल जाओ, ताकि जो देखने वाला है उसकी याद आ जाए। जो सुना है उसे विस्मृत कर दो, ताकि जो अन-सुना है उसका झरना तुम्हें सुनाई पड़ने लगे। हमारे कान बाहर की आवाजों से भरे हैं। बाहर का शोरगुल बहुत है। शोरगुल ही शोरगुल है। और हम ऐसे पागल हैं कि उस कचरे को इकट्ठा किए चले जाते हैं। व्यर्थ की बातों को भी लोग संभाल-संभाल कर रखते हैं। जिनका कोई मूल्य नहीं, कोई उपयोग नहीं। उन बातों से अपने भीतर के जगत को यूं कर लेते हैं जैसे कोई कबाड़खाना हो।
जो देखा है उसे बाहर छोड़ दो; वह बाहर का ही है, तुम्हारा नहीं है। जो सुना है उसे भी बाहर जाने दो; वह भी बाहर का है, वह भी तुम्हारा नहीं है। तब तुम्हारे अनुभव में पहली बार एक नई ज्योति उठेगी, जो तुम्हारी है। उसे कहो द्रष्टा, दृश्य नहीं। उसे कहो श्रावक, श्रवण नहीं।
महावीर ने कहा है: मूलतः दो तीर्थ हैं, जिनसे व्यक्ति उस दूर के किनारे तक पहुंचता है। एक तीर्थ है श्रावक का, श्राविका का। और एक तीर्थ है साधक का, साधु का, साध्वी का, साधिका का। जैन मुनियों ने ऐसी परिभाषा की कि लोगों को लगा कि साधु का जो तीर्थ है, साधु का जो मार्ग है, वह श्रावक से ऊपर है। वह बात बुनियादी रूप से गलत है। साधना तो तब करनी होती है जब सुन कर समझ में न आए। जो सुन कर ही समझ गए वे साधना क्यों करेंगे?
बुद्ध का एक शिष्य था, विमल कीर्ति। वह कभी साधु न हुआ, श्रावक ही रहा। मगर बुद्ध उसके पास अनेक बार अपने दूसरे शिष्यों को भेजते थे कि जाओ और विमल कीर्ति से पूछो। निश्चित ही साधु शिष्यों को बात अखरती थी। अहंकार को चोट लगती थी कि हम साधु और श्रावक के पास जाएं! जिसने कभी साधा ही नहीं, कोई तपश्चर्या नहीं की, कोई श्रम नहीं किया; सिर्फ बुद्ध को सुना है! हमने तो सुना भी है, और किया भी है। हम उसके पास समझने जाएं? श्रावक तो हमेशा साधु के पैर छूता है। लेकिन बुद्ध भेजते थे अपने साधुओं को विमल कीर्ति के पैर छूने। विमल कीर्ति के पास जाते हुए भी लोग डरते थे, क्योंकि वह ऐसी बातें उठा देता था, ऐसे तार छेड़ देता था कि बेचैनी पैदा हो। उसे उत्तर देना मुश्किल हो जाता था।
विमल कीर्ति बहुत बीमार था। कोई शिष्य जाने को राजी न था। सारिपुत्र को पूछा, वह भी टाल-मटोल कर गया। मोग्गलायन को पूछा, उसने कहा मुझे दूसरे काम हैं, मैं किन्हीं और कामों के लिए पहले ही आबद्ध हो चुका हूं। सिर्फ एक शिष्य मंजुश्री जाने को राजी हुआ।
और मंजुश्री भी लौटा तो उसने आते से ही कहा कि मैं समझा कि दूसरे शिष्य क्यों न गए। सर्दी के दिन थे, ठंडी-ठंडी हवाएं थीं। लेकिन मंजुश्री ने कहा मेरा पसीना छुड़ा दिया। यह आदमी क्या है, जैसे सिंह की दहाड़ हो। और मैंने कुछ ऐसी कठिन बात भी न पूछी थी। मैंने इतना ही पूछा था कि विमल कीर्ति, स्वास्थ्य तो ठीक है न? और बस! विमल कीर्ति एकदम उठ कर बैठ गया और कहने लगा, स्वास्थ्य कभी खराब भी होता है? स्वास्थ्य का तो अर्थ ही होता है जो स्वयं में स्थित है। बीमारियां शरीर को हो सकती हैं, मुझे नहीं। अरे पागल! तुझे अभी यह भी पता नहीं! शरीर जन्मा है, जवान होगा, बूढ़ा होगा, मरेगा। मैं न जन्मा, न जवान हुआ, न बूढ़ा होऊंगा, न मरूंगा; मैं शाश्वत हूं। कैसी बातें पूछता है? बुद्ध के पास से आया और ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें पूछता है! मैं तो सदा स्वस्थ हूं। मैं तो कभी स्वयं से रत्ती भर इधर-उधर नहीं। मैं तो अपने भीतर केंद्रित हूं। मैंने तो अपना घर पा लिया। शरीर रहे कि जाए। तूने बात कैसी पूछी? अपने शब्द वापस ले।
और मंजुश्री को अपने शब्द वापस लेने पड़े।
यह विमल कीर्ति सिर्फ श्रावक था। मंजुश्री ने कहा कि अब आ ही गया हूं तो जाते-जाते एक बात पूछता चलूं। हम साधु हैं, हम साधना करते हैं, ध्यान करते हैं, योग करते हैं। आप केवल श्रावक हैं। आपने सिर्फ बुद्ध को सुना है और कभी कुछ किया नहीं। और यह बात क्या है कि साधुओं को और श्रावक के पास समझने के लिए भेजा जाता है! और आप से वे कभी नहीं कहते कि किसी साधु के पास समझने जाओ।
विमल कीर्ति ने कहा, साधु नंबर दो पर आते हैं। जो सुन कर ही समझ गया, वह श्रावक। जो सुन कर न समझा, जिसकी बुद्धि प्रगाढ़ नहीं है, जिसकी बुद्धि थोड़ी मंद है, सुन कर न समझा, उसको करने के लिए कहा जाता है।
विमल कीर्ति ने कहा, तुझे तो याद होगा कि बुद्ध हमेशा कहते हैं कि चार तरह के घोड़े होते हैं। एक घोड़ा कि मारे-मारे नहीं चलता। जितना मारो बस उतना ही थोड़ा-बहुत चलता है। दूसरा घोड़ा, जिसको चोट पड़ी कि चलता है, फिर रुकता नहीं। तीसरा घोड़ा, जिसे मारना भी नहीं पड़ता, सिर्फ कोड़े की आवाज करनी पड़ती है, कोड़े की चटकार काफी है। और चौथे घोड़े वे अदभुत घोड़े होते हैं जिनको कोड़े की चोट भी आवश्यक नहीं है, कोड़े की चटकार भी आवश्यक नहीं, कोड़े की छाया भर काफी है। वे ही श्रेष्ठतम घोड़े हैं।
विमल कीर्ति ने कहा, मैं सुन कर ही समझ गया, करने की बात ही न रही। सुनते-सुनते ही बात पूरी हो गई।
मगर यह सुनने का ढंग कुछ और होगा। सुन कर जो शब्दों को पकड़ेगा, पंडित हो जाएगा; सिद्धांतों को पकड़ेगा तो सूचनाओं का संग्रह हो जाएगा। लेकिन सुन कर जो शून्य को पकड़ेगा, सुनते-सुनते, जैसे कोई संगीत सुनते-सुनते शांत हो जाए, ऐसे जो शांत हो जाएगा, वही समझ पाएगा।
हमारे पास दो ही उपाय हैं। और सत्संग में दोनों बातें घटती हैं। गुरु को सुनना भी है और गुरु को देखना भी है। जिसने ठीक से सुना वह गुरु के शब्दों को नहीं पकड़ता; शब्दों के भीतर पड़े हुए सार को पी लेता है और शब्दों को छोड़ देता है। जिसने गुरु को ठीक से देखा, वह उसकी देह को नहीं पकड़ लेता। देह माना कि बहुत प्यारी है और शब्द भी गुरु के बहुत प्यारे हैं, लेकिन देह के भीतर जो छिपा है अदृश्य, अदेही, उससे संबंध जोड़ लेता है। यह संबंध न आंख का है न कान का है। ऐसे संबंध का नाम ही सत्संग है।
बुल्लेशाह ठीक कहते हैं: बन्ह अखीं--दो चीजों को बंद कर--अते कन्न दोवें। बस दो। और दो दुई के भी प्रतीक, द्वैत के भी प्रतीक। और जहां द्वैत है वहां विचार है। क्योंकि जहां द्वैत है वहां संघर्ष है। जहां दुई है वहां सवाल है यह ठीक कि वह ठीक। और जहां द्वैत न रहा वहां तो निर्विचार है। इसलिए दूसरी बात को और भी खयाल से समझना--
बन्ह अखीं अते कन्न दोवें, गोशे बैठ के बात विचारिए जी।
बुल्लेशाह उलटबांसी कह रहे हैं। वे कह रहे हैं: आंख से जो देखा, बाहर छोड़ दो। कान से जो सुना, उसे पकड़ो मत। आंख और कान को बंद कर लो और अब होशपूर्वक बैठ कर विचार करो। अब तो विचार कर ही न सकोगे। अब तो विचार असंभव है। विचार के लिए द्वैत जरूरी है, अपरिहार्य है। बिना दो के कोई विचार नहीं हो सकता। और विचार के लिए मूर्च्छा भी जरूरी है, बेहोशी भी जरूरी है। जैसे सपने के लिए नींद जरूरी है, वैसे विचार के लिए बेहोशी जरूरी है। और जब आंख भी बंद, कान भी बंद और भीतर होश का दीया जला, फिर कैसा विचार? उसी को तो निर्विचार कहा है। उसी को तो निर्विकल्प समाधि कहा है। ऐसी ही घड़ी में तो आकाश तुम्हारे भीतर उतर आता है। ऐसी ही घड़ी में तो बूंद में सागर समाविष्ट हो जाता है।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा, कहिआ आरफा दा हीए धारिए जी।
योग शुक्ला ने अनुवाद किया है: "जगत की ख्वाहिशें छोड़ो, जगत झूठा है। ब्रह्मज्ञानी के कहे हुए को हृदय में धारण करो।'
इस अनुवाद में मैं थोड़ा फर्क करना चाहूंगा, क्योंकि मूल थोड़ा-सा भिन्न है। और मूल ज्यादा मूल्यवान है।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा।
झूठा नहीं कह रहे हैं; जहान को कूड़ा-कचरा कह रहे हैं। इस जगत की ख्वाहिशों को छोड़ दो, आकांक्षाओं को छोड़ दो, वासनाओं को छोड़ दो। नहीं कि संसार झूठा है, बल्कि इसलिए कि संसार कूड़ा है। जैसे रोज सुबह तुम अपने घर को बुहारते हो और कूड़े-कचरे को बाहर फेंक देते हो, ऐसे ही रोज अपने को भी बुहारते रहो, झाड़ते रहो। अपने भीतर कूड़े को इकट्ठे न होने देना। यह मन बड़ा अदभुत है। यह कूड़े-कचरे से भी मोह बना लेता है। यह तो व्यर्थ की चीजों के साथ भी परिग्रह बांध लेता है।
संसार झूठा है, ऐसा नहीं। संसार तो है, वस्तुतः है। अगर संसार झूठा हो तो दीवार से निकलो, पता चल जाएगा। निकलोगे तो दरवाजे से। दीवार से निकलोगे तो सिर फूटेगा। जहर पीओ, मौत हो जाएगी। पानी पीओ, मरते हो तो फिर श्वास लौट आएगी। क्या तुम सोचते हो बुल्लेशाह जैसे लोग फल, मेवा-मिष्ठान्न न खाकर कंकड़-पत्थर खाते होंगे? कि थाली में परोसा गया भोजन तो वहीं पड़ा रहा और थाली खा जाते होंगे?
नहीं, संसार तो सच्चा है। थाली थाली है, भोजन भोजन है; पत्थर पत्थर है, फल फल है। यह भेद तो साफ करना होगा। लेकिन कूड़ा है। कूड़े का मतलब यह है कि मूल्यहीन है। पा लो तो भी कुछ पाया नहीं जाता और गंवा दो तो कुछ गंवाया नहीं। मूल्यहीन है, निर्मूल्य है। और इस बात में फर्क हो जाता है। इस बात में यह बुनियादी फर्क हो जाता है कि अगर संसार निर्मूल्य है तो फिर मूल्य कहां है? फिर संपदा कहां है? संपदा स्वयं में है। आंख और कान बंद करो और होश को संभालो, और उस संपदा के मालिक हो जाओ।
कहिआ आरफा दा हीए धारिए जी।
शुक्ला ने अनुवाद किया है: "ब्रह्मज्ञानी के कहे हुए को हृदय में धारण करो।'
आरिफ शब्द ब्रह्मज्ञानी से ज्यादा बेहतर है। आरिफ का कुल मतलब होता है जो जानते हैं। ब्रह्मज्ञानी में तो झंझट हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी में वही बात मान ली गई कि जगत माया है और ब्रह्म सत्य है। तो माया का त्याग करना है और सत्य को पकड़ना है। और ब्रह्मज्ञानी में तो फिर बुद्ध न आ सकेंगे, क्योंकि वे तो किसी ब्रह्म को मानते नहीं; महावीर भी न आ सकेंगे, क्योंकि वे भी किसी ब्रह्म को नहीं मानते; मैं भी न आ सकूंगा, क्योंकि मैं भी किसी ब्रह्म को नहीं मानता। कोई व्यक्तिगत ईश्वर नहीं है जगत में। कोई ब्रह्म जैसा बैठा नहीं है जिसने बनाया, जो चला रहा है, जो मिटाएगा, जो सम्हाल रहा है। ज्यादा अच्छा हो कि हम कहें--जो जानते हैं।
आरिफ का वही मतलब होता है, जिन्होंने जाना। इससे सीमा नहीं बनती। इसमें फिर क्राइस्ट भी आ जाते हैं, फिर जरथुस्त्र भी आ जाते हैं, मोहम्मद भी आ जाते हैं, बुद्ध भी आ जाते हैं, महावीर भी आ जाते हैं, लाओत्सु भी आ जाते हैं, सुकरात भी आ जाते हैं--जिन्होंने जाना। ब्रह्मज्ञानी शब्द को लाओगे बीच में तो फिर तो शंकराचार्य के मतावलंबी ही शेष रह जाते हैं। क्योंकि बाकी तो कोई ब्रह्म की बात नहीं करते। वह बात संकीर्ण हो जाएगी, छोटी हो जाएगी। उसमें नागार्जुन न आ सकेंगे। क्योंकि नागार्जुन तो कहते हैं: कोई ब्रह्म नहीं है, सब शून्य है। ब्रह्मज्ञानी से तो शून्यज्ञानी कहीं ज्यादा बेहतर शब्द है, ज्यादा विराट। ब्रह्म में तो सीमा बन जाती है, परिभाषा बन जाती है।
मगर मैं तो यह कहूंगा कि शून्य में भी फिर, बड़ी सही, लेकिन सीमा तो बनेगी। अच्छा हो इतना ही, हम आरिफ को आरिफ ही रहने दें। जो जानते हैं। क्यों सीमा दो? क्यों व्याख्या दो? क्यों दीवार उठाओ? क्यों बागुड़ बनाओ? जो जानते हैं, उन्होंने जो कहा है--हीए धारिए जी--उसे हृदय में धारण करो।
और यह हीए शब्द याद रखने जैसा है। यह बुद्धि में न चला जाए, नहीं तो भटक गए। यह खोपड़ी में न चला जाए, नहीं तो किसी काम न आएगा। यह तो हृदय में प्रविष्ट हो, यह तो भावना को रंग दे, यह तो तुम्हारी प्रीति में पग जाए। तुम्हारे तर्क में नहीं, तुम्हारे प्रेम में। तुम्हारे विचार में नहीं, तुम्हारे शून्य में। यह बुद्धिवाद नहीं है, यह रहस्यवाद है।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा।
यह संसार कूड़ा-कर्कट है। इसकी ख्वाहिशें न करो। इसकी चाहें न करो।
कहिआ आरिफा दा हीए धारिए जी।
और जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने यही कहा है। उनकी बात को हीए धरो।
पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी।
प्यारी उलटबांसी है। और पैरों में बेख्वाहिशों की जंजीर पहन लो। क्या बात कही! जंजीर तो ख्वाहिश की होती है, वासना की होती है, तृष्णा की होती है। बेख्वाहिश की जंजीर नहीं होती। मगर तुम जंजीर की भाषा समझते हो, इसलिए बुल्लेशाह जंजीर की बात कर रहे हैं। तुम तो जंजीर के अतिरिक्त और कुछ जानते ही नहीं, इसलिए बेख्वाहिश की जंजीर पहन लो--तुम्हें राजी करने को कि चलो तुम्हें जंजीर ही पहननी है तो ठीक है, बेख्वाहिश की जंजीर पहन लो। बिना जंजीर के तुम्हारा जी नहीं मानता, तुम तो कुछ पहनोगे ही तो चलो बेख्वाहिश की जंजीर पहन लो। लेकिन बेख्वाहिश की कहीं जंजीर होती है? यह वही बात फिर से कही है--गोशे बैठ के बात विचारिए जी। होश में बैठ जाओ, आंख-कान बंद कर लो और अब विचारो। अब क्या खाक विचारोगे? अब विचारोगे तो क्या विचारोगे? विचार के लिए कोई विषय ही न बचा। विषय तो आंख और कान से आते हैं। और बेख्वाहिश की जंजीर पहन लो। बेख्वाहिश तो मुक्ति है। वासनारहित हुए कि मुक्त हुए। वासना ही जंजीर है।
मगर, चूंकि तुम्हारी भाषा में बोलना पड़ता है, इसलिए वे कहते हैं कि चलो, तुम्हें जंजीर बहुत प्यारी है, जन्मों-जन्मों से प्यारी है; हम भी एक नई जंजीर बताते हैं, पहन लो। पहन लोगे तब जान लोगे कि यह जंजीर न थी, कि धोखा खा गए।
पंडित लज्जाशंकर झा ने दोत्तीन दिन पहले प्रश्न पूछा था कि आपने इस स्थान का नाम आश्रम क्यों रखा है, क्योंकि यहां आश्रम जैसा तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं। न मंदिर है, न पूजा है, न पाठ है, न यज्ञ है, न हवन है। न लोग गीता, वेद, उपनिषद बैठ कर पढ़ रहे हैं। न कोई वृक्षों के नीचे गुरु बैठे हैं और शिष्य माला जप रहे हैं। कुछ भी तो नहीं है यहां आश्रम जैसा, इसे आपने आश्रम क्यों नाम दिया?
यूं ही समझना जैसे बुल्लेशाह ने कहा--गोशे बैठ के बात विचारिए जी। चुप हो जाओ, आंख-कान बंद करो, होश को जगा लो और अब विचारो। या यूं--पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी। पहन लो पैर में जंजीर बेख्वाहिश की, निर्वासना की। तुम जंजीर की भाषा समझते हो, इसलिए वे जंजीर की भाषा बोल रहे हैं। तुम आश्रम की भाषा समझते हो, इसलिए मैंने आश्रम की तख्ती लगा दी। मेरा बस चले तो यह मैकदा है, मधुशाला है। मगर फिर तुम्हें आने में बहुत मुश्किल हो जाएगी। अभी ही मुश्किल होती है। आश्रम की तख्ती देख कर भी लोग डर कर निकल जाते हैं, क्योंकि भीतर जो पीए हुए बैठे हैं, इनकी मस्ती की खबरें बाहर तक पहुंचने लगी हैं।
पंडित लज्जाशंकर झा जैसे लोगों को फांसने के लिए आश्रम लिख दिया। जैसे मछली को फांसते हैं न, तो कांटे में आटा लगा देते हैं, फिर बंसी लेकर बैठ जाता है मछुआ। मछली कांटा तो निगलेगी नहीं, आटा निगलेगी। आटा निगलने में कांटा निगल जाएगी। अब जैसे लज्जाशंकर झा यहां आ गए आश्रम समझ कर, अब थोड़ी-बहुत छींटा-छांटी तो हो ही जाएगी। अब बिलकुल वही तो नहीं जा सकते जैसे आए थे। कितनी ही लज्जा करें, कितना ही घूंघट मारें। देखा, मारवाड़ी स्त्रियां घूंघट भी मारती हैं तो दो अंगुलियों से देखती रहती हैं कि क्या हो रहा है! ऐसे लज्जाशंकर देख रहे होंगे दो अंगुलियों से कि हो क्या रहा है आश्रम में! यह माजरा क्या है! बस उतने में ही तो बात हो जाएगी। अरे, रंध्र मिल जाए जरा-सी, संध्र मिल जाए और मैं प्रवेश हो जाऊंगा। कहीं से अवसर तो बने।
ठीक कहते हैं बुल्लेशाह:
पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी, इस नफस नूं कैद कर डारिए जी।
नफस का अर्थ होता है क्षण, क्षणभंगुरता। यह जो समय की धारा है जिसमें हम जी रहे हैं, जन्मे हैं, जिसमें से हम गुजर रहे हैं, यह तो क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। यह जो क्षण-क्षण बदल रहा है, इसमें ही उलझे मत रह जाना, क्योंकि इसके पार एक शाश्वत का लोक है। एस धम्मो सनंतनो। इस क्षण से तो पार उठ जाना है, इस समय से तो पार उठ जाना है। क्योंकि इस क्षण में जो जीएगा वह ठीक से जी ही न पाएगा। क्षण में क्या जीना! मौत तो हमेशा द्वार पर दस्तक दे रही है। कब आ जाएगी कौन जाने। अभी आ जाए। आई ही खड़ी हो। एक क्षण के बाद का भी तो भरोसा नहीं है।
इसलिए हम अपने देश में समय को भी काल कहते हैं और मृत्यु को भी काल कहते हैं। हमारी भाषा दुनिया में अकेली भाषा है जिसने मृत्यु को और समय को एक ही नाम दिया है--काल। फिर काल से ही हमारा कल बना। उस संबंध में भी हमारी भाषा अकेली भाषा है दुनिया में। बीते हुए कल को भी हम कल कहते हैं और आने वाले कल को भी कल कहते हैं। दुनिया की सब भाषाओं में अलग-अलग शब्द होते हैं। जो बीत गया उसके लिए अलग शब्द, जो आने वाला है उसके लिए अलग शब्द। सिर्फ हम हैं पृथ्वी पर अकेले, जो बीते को भी वही नाम देते हैं और आने वाले को भी वही नाम देते हैं। क्योंकि हमने देखा, हमारे आरिफों ने देखा, जानने वालों ने देखा कि जो गया वह भी नहीं है और जो आ रहा है वह भी नहीं है, दोनों नहीं हैं। अलग नाम क्या देना? अलग नाम देने से फायदा क्या है? अतीत न हो चुका, भविष्य अभी हुआ नहीं; दोनों नकार हैं। दोनों का अनस्तित्व है। दोनों में एक ही समानता है कि दोनों नहीं हैं। जो है वह तो अभी का क्षण है।
और इस एक क्षण में क्या करोगे? कैसे जीओगे? यह क्षण बहुत छोटा है। इसमें जीना संभव नहीं है। यह आंगन इतना छोटा है, तिरछा भी होता तो नाच लेते, मगर यह आंगन इतना छोटा है कि इसमें नाचोगे कैसे? इसमें उठने-बैठने की भी जगह नहीं है। नाचना तो बहुत दूर, इसमें हिलने-डुलने का भी उपाय नहीं है। तुम हिले-डुले कि यह गया। जैसे ही तुम्हें खयाल आया यह क्षण, वह तुम्हारे हाथ से खिसक गया। हिलने-डुलने की भी बात नहीं है। जैसे ही तुमने कहा, अरे! यह क्षण! गया।
मैं एक कविता पढ़ रहा था। छोटी-सी कविता है--वसंत आ गया। पहली पंक्ति शुरू होती है--वसंत आ गया। और आखिरी पंक्ति समाप्त होती है--वसंत आ, गया। बस आ और गया को तोड़ दिया है। एक ही शब्द है, वही शब्द शुरुआत--आ गया; और वही शब्द अंत--आ, गया। ऐसा ही क्षण है। आ भी नहीं पाता कि गया। तुमने पकड़ा भी नहीं कि गया। तुमने खयाल भी किया कि यह क्षण--आ, गया! इतने छोटे क्षण में कैसे जीओ? कैसे उत्सव मनाओ? कैसे नाचो? सुविधा कहां? शाश्वत चाहिए उत्सव के लिए।
इसलिए ठीक कहते हैं बुल्लेशाह: समय को जीत लो। इस नफस को कैद कर लो। इस काल के पार उठ जाओ।
जा जान देवें जान रूप तेरा, बुल्लाशाह एह खुशी गुजारिए जी।
"अगर अपनी जान जाने दो तो अपना रूप जानो।'
और एक ही शर्त है: स्वयं को जानना हो तो स्वयं को खोना पड़ेगा। बूंद अगर जानना चाहती है कि मैं कौन हूं तो उसे सागर में डुबकी मारनी होगी। मगर सागर में डुबकी मारते ही खो जाएगी। सागर में प्रवेश करते ही खो जाएगी। मगर खोकर ही पाएगी कि मैं सागर हूं।
अहंकार बूंद है और हम सागर हैं। जब तक हम अहंकार को पकड़े बैठे हैं और कह रहे हैं--यह मैं हूं, यह मैं हूं, यह मेरी जाति, यह मेरा धर्म, यह मेरा देश, यह मेरा नाम, यह मेरा पता, यह मेरा ठिकाना, यह मेरा कुल, यह मेरा गोत्र--तब तक हम भटके रहेंगे। तब तक हमें अपना कोई भी पता नहीं है। क्योंकि न हमारी कोई जाति है, न हमारा कोई कुल, न हमारा कोई गोत्र। हम जन्मे ही नहीं तो जाति कैसे होगी? हम जन्मे ही नहीं तो क्या हमारा कुल होगा? क्या हमारा गोत्र होगा? कैसे हम ब्राह्मण हो सकते हैं, कैसे हम शूद्र हो सकते हैं, कैसे हम वैश्य हो सकते हैं, कैसे हम क्षत्रिय हो सकते हैं? और कैसे हम हिंदू, कैसे हम मुसलमान, कैसे हम ईसाई हो सकते हैं? हम तो शुद्ध चैतन्य हैं।
मगर ये अहंकार की सीमाएं हमारे उस विराट चैतन्य को अनुभव नहीं होने देतीं। हमारी आंखों पर परदे पड़े हैं। उन परदों के कारण हम परदों के भीतर जितना छोटा-सा जगत है, उसको ही अपना सब कुछ मान लेते हैं। जरा पर्दा उठाने...।
और कभी-कभी यूं होता है, आंख में धूल का छोटा-सा कण पड़ जाए, जरा-सी किरकिरी पड़ जाए आंख में, कि पूरा हिमालय तुम्हारे सामने खड़ा हो, अपने विराट सौंदर्य को लिए हुए, तो भी आंख में पड़ा हुआ छोटा-सा धूल का कण हिमालय को छिपा लेता है। जरा-से धूल के कण की ओट में विराट हिमालय विलीन हो जाता है। तारों से भरा आकाश हो, मगर आंख में किरकिरी पड़ गई, फिर कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
बस इतनी-सी छोटी-सी किरकिरी है हमारी, उसी से हमारा सारा जीवन किरकिरा हो गया है। अहंकार धूल का एक छोटा-सा कण है जो हमारी आंख पर बैठ गया है। उसे पोंछ डालो। उसको पोंछने के लिए बुल्लेशाह कहते हैं:
जा जान देवें जान रूप तेरा।
जो अपनी जान देने को तैयार हैं, अपने अहंकार का भाव देने को तैयार हैं, जो मिटने को तैयार हैं, जो शून्य होने को तैयार हैं, वे ही जान पाएंगे स्वयं के रूप को। और जिन्होंने स्वयं के रूप को जाना उन्होंने सर्व के रूप को भी जान लिया। क्योंकि वे दोनों बातें अलग नहीं हैं। बूंद ने अपने सागर-रूप को जान लिया कि सारे बूंदों के स्वभाव को जान लिया।
जा जान देवें जान रूप तेरा, बुल्लेशाह एह खुशी गुजारिए जी।
बुल्लेशाह कहते हैं, अगर जिंदगी को खुशी में गुजारना है, अगर जिंदगी को आनंद का एक उत्सव बना लेना है, तो एक ही रास्ता है: अहंकार को मिट जाने दो। अहंकार दुख है, अहंकार नर्क है। अहंकार के अतिरिक्त न कोई दुख है न कोई नर्क है। और जहां अहंकार गया वहीं स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। और वे द्वार तुम्हारे भीतर हैं। स्वर्ग तुम्हारी स्वाभाविकता है। नर्क तुम्हारी भ्रांति है। नर्क है अपने को भूल जाना; स्वर्ग है अपने को पहचान लेना।
योग शुक्ला, बुल्लेशाह की यह काफी भी प्यारी है। बुल्लेशाह जैसे लोग जो भी कहते हैं वह प्यारा ही होता है।




दूसरा प्रश्न: भगवान,
भगवान बुद्ध ने भी वर्षों प्रवचन दिए, परंतु आज भारत में उनके अनुयायी नहीं के बराबर हैं। क्या आपके प्रवचन का प्रतिफलन भी विदेशों में ही लोकप्रिय होगा, इस देश में नहीं? क्या कारण है कि आपके प्रवचन से अभी तक भारतवासी प्रभावित नहीं हो रहे हैं?

 जगन्नाथ महतो,
भारत के पैरों में कुछ गहरी जंजीरें हैं। भारत की आंखों में बहुत प्राचीन धूल की पर्तें हैं। भारत का मन गुलाम है। भारत की आत्मा गुलाम है। भारत जीया है अंधविश्वासों में। और इतनी लंबी सदियों से अंधविश्वासों में जी रहा है कि जब भी कभी इन अंधविश्वासों को तोड़ने की कोशिश की गई तो हमने प्राणपण से अपने अंधविश्वासों की रक्षा की है।
निश्चित ही, तुम ठीक कहते हो कि आज बुद्ध के मानने वाले भारत में न के बराबर हैं। और जो हैं भी थोड़े-से, उनको भी बुद्ध से कुछ लेना-देना नहीं है। वे तो मानने वाले हैं बाबा साहब भीमराव अंबेदकर के। उनको बुद्ध से क्या लेना-देना?
अंबेदकर को बुद्ध से क्या लेना-देना था? अंबेदकर शुद्ध राजनीतिज्ञ थे। धर्म से उनका क्या नाता था, क्या संबंध था? उन्होंने हरिजनों और खासकर महारों को महाराष्ट्र में--खुद महार थे, मराठी थे--तो महाराष्ट्र के महारों को हिंदुओं से कैसे अलग कर लिया जाए, इसके लिए बुद्ध धर्म को चुना। और ऐसा भी कुछ नहीं था कि बुद्ध धर्म से उन्हें खास लगाव था। उनकी जिंदगी में कई मोड़ आए। कई दफे उन्होंने सोचा कि मुसलमान हो जाएं सबको ले कर। कई दफा सोचा कि सबको लेकर ईसाई हो जाएं।
लेकिन शायद बहुत-से महार, बहुत-से हरिजन इतने दूर तक उनके साथ जाने को राजी न होते। मुसलमान होना, ईसाई होना जरा दूर की यात्रा हो जाती। बुद्ध इतने दूर नहीं मालूम पड़ते। कुछ भी हो, बुरे-भले जैसे भी हों, यूं हिंदुओं ने स्वीकार तो किया ही है कि हमारे दसवें अवतार हैं। हैं तो अवतार; थोड़े गलत किस्म के अवतार हैं, हिंदुओं ने कहा। कुछ ढंग के नहीं हैं, कुछ बेढंगे हैं। कुछ चाल वेद के अनुकूल नहीं है, वेद के प्रतिकूल है। मगर कुछ भी हो, हैं अवतार।
तो हिंदुओं को मुसलमान बनाना या ईसाई बनाना जरा दूर का पड़ाव होता, बहुत कम लोग जाने को राजी होते। इसलिए फिर अंततः राजनीतिक दांव-पेंच की वजह से अंबेदकर ने तय किया कि अपने अनुयायियों को लेकर बौद्ध हो जाएं। यह राजनैतिक काम था। इसमें बुद्ध से कुछ लेना-देना नहीं। ये जो थोड़े-से आज बौद्ध दिखाई पड़ते हैं, ये बाबा साहब अंबेदकर के अनुयायी हैं।
तुम्हारा पूछना महत्वपूर्ण है जगन्नाथ महतो कि क्या हुआ, बुद्ध चालीस-बयालीस वर्षों तक सतत बोलते रहे और सारा एशिया बुद्ध से प्रभावित हुआ, सारा एशिया आंदोलित हो उठा, सिर्फ भारत को छोड़कर!
तो या तो कसूर बुद्ध का हो या कसूर भारत का हो। बुद्ध का कसूर हो नहीं सकता। हां, अगर कसूर इसको ही कहो तो बात और कि उन्होंने सत्य को जैसा था वैसा ही कह दिया। सीधा-सीधा कह दिया, नग्न कह दिया। भारत के पांडित्य के वस्त्र उसे न पहनाए। और मैं कहता हूं अच्छा किया कि न पहनाए। भारत ने माना या न माना, लेकिन बुद्ध ने अपनी ओर से चेष्टा में कोई कमी नहीं की। भारत को जगाने का जैसा अथक प्रयास बुद्ध ने किया, न उनके पहले किसी ने किया था, न उनके बाद किसी ने किया।
और मैं तुमसे कहता हूं: सत्य के रास्ते पर असफल हो जाना असत्य के रास्ते पर सफल हो जाने से लाख दर्जा बेहतर है। बुद्ध की असफलता में भी राम और कृष्ण की सफलता से कहीं ज्यादा मूल्य है। बुद्ध एक ही तो बगावती पुरुष हैं। भारत के जीवन में अगर कहीं कोई नमक है तो वह बुद्ध के कारण है; थोड़ा कुछ स्वाद है तो बुद्ध के कारण है। नहीं तो भारत बिलकुल बेस्वाद होता।
क्यों बुद्ध को नहीं सुना जा सका? कई कारण हैं। पहला कारण तो भारत के पंडित हैं, पुरोहित हैं। उनका जाल पुराना है, कोई दस हजार साल पुराना है। और बुद्ध जैसा व्यक्ति जब भी कहीं पैदा होगा तो पंडित और पुरोहित उसके विपरीत खड़े हो जाएंगे। क्योंकि उसकी चोट उनके पूरे धंधे को ही तोड़ने लगती है। उसकी चोट में उनकी मूर्तियां गिरने लगती हैं, उनके मंदिर भूमिसात होने लगते हैं। उसकी चोट में उनके शास्त्र उखड़ने लगते हैं। उसकी चोट में लोग जागने लगते हैं और देखने लगते हैं कि पंडित तो केवल दुकानदार है, व्यवसायी है, शोषक है। उसकी मौजूदगी में साफ दिखाई पड़ने लगता है कि पंडित तो केवल बासी बातें दोहरा रहा है, तोते की तरह दोहरा रहा है। क्योंकि बुद्ध की मौजूदगी में तुलना हो सकती है।
पंडित बुद्ध जैसे व्यक्ति को क्षमा नहीं कर सकते। असंभव है। उनके न्यस्त स्वार्थ इसके विपरीत हैं। और दुनिया में पंडितों और पुरोहितों का इतना बड़ा जाल और इतना लंबा जाल और कहीं नहीं है। यह भारत का दुर्भाग्य है कि यहां सारा जाल इतना प्राचीन हो चुका है कि उसे तोड़ना मुश्किल होता है। वह हमारे रग-रेशे में समा गया है। कोई वेद के खिलाफ कुछ कहे, बस! न तुमने वेद देखा है, न तुमने वेद पढ़ा है, न वेद से तुम्हें कुछ लेना-देना है। लेकिन कोई वेद के खिलाफ कुछ कहे, बस झगड़ा खड़ा हुआ। तुम सुनने को ही राजी नहीं।
भारत में आज भी लोग कहे चले जाते हैं कि वेद ईश्वरीय है, ईश्वर ने रचा है। बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। पढ़े-लिखे लोग, सुशिक्षित लोग, विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले लोग भी यही मूढ़तापूर्ण बात कहते हैं कि वेद ईश्वर ने रचा है। और जरा वेद को कहीं से भी तो उलट कर देख लो तुम्हें साफ हो जाएगा कि ये बातें ईश्वर ने कैसे रची होंगी। हर वेद की ऋचाओं का जो अध्याय है उसके पहले ही ऋषि का नाम दिया हुआ है कि किस ऋषि के ये सूत्र हैं। और उन सूत्रों से जाहिर होता है कि वे मनुष्यों के रचे हुए हैं। कोई ब्राह्मण कह रहा है कि इस साल, हे इंद्र देवता! मेरे खेत में अच्छी तरह वर्षा करना। मैं खूब दान-दक्षिणा दूंगा, यज्ञ करूंगा। तुम्हें खूब सोमरस पिलाऊंगा।
अब जरा सोचो, क्या यह भगवान लिखेगा? भगवान का खेत! और मेरे खेत में वर्षा ठीक से कर देना, यह तो किसी आदमी की ही बात हो सकती है। यह तो इतनी साफ है कि किसी बच्चे को भी समझाने की जरूरत नहीं। और मामला यहीं खतम नहीं होता। मेरे खेत में ज्यादा वर्षा करना और पड़ोसी के खेत में वर्षा हो ही न, तो चढ़ौत्तरी खूब चढ़ाऊंगा। यह तो और भी बात बिगड़ गई। यह तो मानवीय भी न रही, अमानवीय हो गई। और मेरी गऊओं के थन में दूध बढ़ जाए और पड़ोसी की गऊओं के थन का दूध बिलकुल सूख ही जाए। यह ईश्वर कहेगा? ईश्वर का कौन पड़ोसी? सब गऊएं उसकी हैं। सबै भूमि गोपाल की! सारी भूमि उसकी है। कौन-सी मेरी और कौन-सी तेरी? वहां भी मेरात्तेरा चल रहा है?
तो बुद्ध ने यही कहा कि वेद कोई ईश्वरीय शास्त्र नहीं है। कोई शास्त्र ईश्वरीय नहीं है। सब शास्त्र आदमियों ने रचे हैं। और आदमियों में कई तरह के आदमी हैं। कुछ तो आरिफों ने रचे हैं--जिन्होंने जाना। शायद वहां कुछ सत्य की दूर की ध्वनि सुनाई भी पड़ जाए। मगर ये गऊओं के थनों में दूध बढ़ जाए, इसकी प्रार्थना करने वाले लोग आरिफ नहीं हो सकते। यह मेरे खेत में ज्यादा वर्षा हो जाए और पड़ोसी के खेत में ज्यादा वर्षा न हो, ये आरिफ नहीं हो सकते। बुल्लेशाह ऐसी प्रार्थना नहीं कर सकते। कबीर ऐसी प्रार्थना नहीं कर सकते। बुद्ध ऐसी प्रार्थना नहीं कर सकते।
बुद्ध ने तो अपने शिष्यों को कहा है कि तुम जब ध्यान करो और ध्यान में जब तुम आनंदित हो उठो तो ध्यान की पूर्णाहुति हमेशा इस बात से करना कि मेरे ध्यान से जो भी आनंद मुझे मिला है, समस्त प्राणियों में बंट जाए--समस्त प्राणियों में बेशर्त बंट जाए, मेरा ही न रह जाए। क्योंकि जो मेरा रहेगा तो मर जाएगा। और जो सब में बंट गया तो बच जाएगा। बांटने से बढ़ता है, रोकने से घटता है।
एक आदमी ने बुद्ध से जाकर कहा था कि आप कहते हैं तो करूंगा, इतनी भर आज्ञा चाहता हूं कि मेरा जो पड़ोसी है बहुत दुष्ट, उसको छोड़ कर मैं कह सकता हूं कि सबको मिल जाए। मुझे जो आनंद मिल रहा है ध्यान से, पड़ोसी को छोड़ कर सारे जगत को मिल जाए--पशुओं को, पक्षियों को, पौधों को, पहाड़ों को, जिसको कहो--मगर यह मुझसे न हो सकेगा कि इस दुष्ट को मिल जाए। इसको भर छोड़ने की आज्ञा दे दें।
बुद्ध ने कहा, उसके छोड़ने में ही सब गड़बड़ हो जाएगी। क्योंकि मैं वही मन तो बदलना चाहता हूं, जो दोस्ती और दुश्मनी की भाषा में सोचता है; जो अपने और पराए की भाषा में सोचता है; जो मैं और तू के भेद में सोचता है। उस पड़ोसी को तो पहले मिले, फिर और सबको मिले--ऐसा तू ध्यान करना। ध्यान जब आए और आनंद जगे तो कहना, पहले मेरे पड़ोसी को मिल जाए और फिर सबको। पड़ोसी को पहले मिलना ही चाहिए। पड़ोसी है, तेरे से आनंद की धारा बहेगी तो पहले तो उसी को छुएगी। फिर औरों को छुएगी, फिर दूर चांदत्तारों को छुएगी। और तू कहता है, पड़ोसी को ही न मिले! तो फिर धारा बहेगी ही कैसे? यहीं अड़चन आ जाएगी, यहीं पत्थर पड़ जाएगा।
वेद में जो कुछ कहा है, वे आदमी की कामनाएं हैं, आदमी की वासनाएं हैं। बुद्ध ने कहा कि वेद मनुष्यकृत हैं--और वह भी बहुत साधारण मनुष्यों द्वारा निर्मित हैं, जिनकी कोई महत्वपूर्ण बातें भी नहीं। कहीं कभी-कभार भूल-चूक से वेद में कोई सूत्र मिल जाता है, जो प्रशंसा के योग्य है। एक प्रतिशत, इससे ज्यादा नहीं। निन्यानबे प्रतिशत तो कूड़ा-कचरा है।
इस बात को सुनते ही पंडित नाराज हो गए। और पंडितों का पूरा का पूरा जो आयोजन था सारे जगत को ग्रसित किए हुए, उसने बुद्ध के खिलाफ जिहाद छेड़ दी। इसलिए बुद्ध को सुना नहीं जा सका। शायद मुझे भी नहीं सुना जा सकेगा। कोशिश करूंगा, कोशिश कर रहा हूं।
मगर मुझे इसकी बहुत फिक्र भी नहीं है, और बुद्ध को भी इसकी बहुत फिक्र थी, ऐसा मत मानना। जो सुन सकते हैं वे सुन लेंगे। जिनके काम का है उन्हें मिल जाएगा। जिनके पास थोड़ी बुद्धिमत्ता है वे पी लेंगे। और बुद्धुओं के लिए क्या किया जा सकता है! फिर वे भारतीय हों या गैर-भारतीय, बुद्धू तो बुद्धू। और इस देश में बुद्धुओं की लंबी परंपरा है, लंबी शृंखला है।
भारत जैसे मरना ही भूल गया है। और चूंकि मरना भूल गया, इसलिए लाशें रह गईं। मरना भूल गया, इसलिए पुनरुज्जीवित होना भी भूल गया। बूढ़ों को मरना चाहिए ताकि बच्चे जी सकें। इस देश में बूढ़े जिंदा हैं, इसलिए बच्चे तो पैदा ही नहीं हो पाते; या होते हैं तो बूढ़े ही पैदा होते हैं।
फिर, भारत कहने को आस्तिक है, लेकिन वस्तुतः आस्तिक नहीं, नास्तिक है। क्योंकि तुम्हारा सारा धर्म नकार पर खड़ा है। यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो--यह नकार है। संसार असत्य है, माया है, छोड़ो! घर-गृहस्थी माया है, छोड़ो! भागो! यह जो भगोड़ापन है, यह नकार है। और जहां नकार है वहां नास्तिकता है। तो हमारी आस्तिकता ऊपर से ओढ़ी हुई राम-नाम चदरिया है। भीतर कुछ और चल रहा है, बाहर हम कुछ और ओढ़े बैठे हुए हैं।
बुद्ध ने हमारी चदरिया छीन ली और कहा कि पहले अपनी असलियत देखो, क्योंकि असलियत में ही क्रांति हो सकती है। पहले अपने जीवन का सत्य समझो तो ही तुम्हारे जीवन में क्रांति हो सकती है। और अगर उस सत्य को नहीं देखा तो तुम थोथे आस्तिक बने रहोगे। मगर गहरे में तो तुम नास्तिक ही रहोगे।
असली आस्तिक होने के पहले व्यक्ति को नास्तिकता की अग्नि से गुजरना पड़ता है। जिसने नहीं कहना ही नहीं सीखा, वह हां क्या खाक कहेगा! उसकी हां में बल नहीं होगा। उसकी हां नपुंसक होगी। बुद्ध ने नास्तिकता से गुजरने का पाठ दिया। बजाय इसके कि भारत उनके पाठ को सीखता, भारत ने उन्हीं को नास्तिक करार दे दिया।
मैं भी तुमसे यही कहता हूं कि पहले नास्तिक। नास्तिकता की तलवार से काट डालो सारे अंधविश्वास, सब पाखंड। गिरा दो सब जंजीरें। तोड़ दो सब अंधकार। और जब नास्तिकता से तुम सब सफाई कर चुको तो फिर तुम बीज बो देना फूलों के। उनसे जो फूल खिलेंगे वे आस्तिकता के होंगे। जैसे कोई बगीचा बनाता है तो पहले पत्थर साफ करता है, जमीन गोड़ता है, जड़ें निकालता है, घास-पात उखाड़ता है। यह नास्तिकता का काम है। और फिर बीज बोता है। फिर फूल आते हैं, वसंत आता है।

क्या उसका गिला कीजै, उसे प्यार ही कब था?
वो अहदे-फरामोश, वफादार ही कब था?
उसने तो सदा पूजे हैं उड़ते हुए जुगनू;
वो चांद-सितारों का परस्तार ही कब था?
हम डूब गए जागती रातों के भंवर में;
हाथ उसका हमारे लिए पतवार ही कब था?
आमों की हसीं ऋतु के सिवा भी तो वे कूके;
लेकिन किसी कोयल का ये किरदार ही कब था?
आवाज जो मैं दूं तो किसी और को छू ले;
इस आंख-मिचौली से वो बेजार ही कब था?
मशहूरे-जमाना है "कतील' उनकी उड़ानें;
वो दामे-मुहब्बत में गिरफ्तार ही कब था?

तुम ठीक कहते हो, क्या मेरी बात भी परदेस के लोग ही समझ पाएंगे!
देस-परदेस का मैं तो कुछ फासला नहीं करता। जिसकी प्यास होगी वह समझ पाएगा।
आमों की हसीं ऋतु के सिवा भी तो वे कूके
लेकिन किसी कोयल का ये किरदार ही कब था?
आवाज  जो  मैं  दूं  तो  किसी  और  को  छू  ले;
मैं तो आवाज दे रहा हूं, जिसको छू सकती है उसी को छुएगी।
आवाज जो मैं दूं तो किसी और को छू ले;
इस  आंख-मिचौली  से  वो  बेजार  ही  कब  था?
यह भारत तो जमाने हो गए, तब से अंधविश्वासों में जी रहा है। इसने सत्य की खोज तो कब से बंद कर दी है। पुकार तो मैं दूंगा, आवाज तो मैं दूंगा; दे रहा हूं; लेकिन उनको ही सुनाई पड़ेगी जो सुनने को राजी हैं। इतना ही करो कि दरवाजा खुला रखो।
कम से कम तुम तो सुनो, जगन्नाथ महतो! औरों की फिक्र छोड़ो। क्योंकि तुम्हारे और दूसरे प्रश्न भी हैं। उनसे जाहिर होता है कि तुमको भी सुनाई नहीं पड़ रहा। तुम्हारे दूसरे प्रश्न भी हैं, जिनसे साबित होता है कि यह प्रश्न तुमने अपने ही बाबत पूछा है, नाम भारतीयों का ले रहे हो।

दिल दर्द की शिद्दत से खूंगश्ता व सीपारा,
इस शहर में फिरता है इक वहशी व आवारा
शायर है कि आशिक है, जोगी है कि बंजारा!
                               दरवाजा खुला रखना!
सीने से घटा उट्ठे, आंखों से झड़ी बरसे,
फागुन का नहीं बादल जो चार घड़ी बरसे!
बरखा है ये भादों की बरसे तो बड़ी बरसे।
                               दरवाजा खुला रखना!

आंखों में तो इक आलम, आंखों में तो दुनिया है,
ओंठों पे मगर मुहरें, मुंह से नहीं कहना है।
किस चीज को खो बैठा, क्या ढूंढने निकला है?
                               दरवाजा खुला रखना!

हां, थाम मुहब्बत की गर थाम सके डोरी,
साजन है तेरा साजन, अब तुझसे तो क्या चोरी।
यह जिसकी मुनादी है, बस्ती में तेरी गोरी।
                               दरवाजा खुला रखना!

शिकवों को उठा रखना, आंखों को बिछा रखना,
इक दीया दरीचे की चौखट पे जला रखना।
मायूस न फिर जाए, हां पासे-वफा रखना।
                               दरवाजा खुला रखना!
                             दरवाजा खुला रखना!!

आज इतना ही।





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