सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
विज्ञान और धर्म के बीच सेतु—प्रवचन-छठवां
दिनांक 26 जनवरी, सन्
1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
पड़ोसी देशों द्वारा किए जाने वाले शस्त्र-संग्रह
और उसके कारण बढ़ रहे तनाव के संदर्भ में देश की सुरक्षा की दृष्टि से श्रीमती
इंदिरा गांधी द्वारा हाल ही एक भाषण में दी गई चेतावनी की आलोचना करते हुए महर्षि
महेश योगी ने कहा है कि देश को इस प्रकार के भय और अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए
सरकार को उनके भावातीत ध्यान (टी.एम.) तथा टी.एम. सिद्धि कार्यक्रम का उपयोग करना
चाहिए। अपनी ध्यान पद्धति को वैदिक ज्ञान का सार बताते हुए उन्होंने कहा है कि
इसके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने तनावों से मुक्त होकर अपनी चेतना को ऊपर उठाते
हैं और समाज में सामंजस्य स्थापित करने में प्रभावशाली होते हैं। महर्षि महेश योगी
के अनुसार उनकी ध्यान पद्धति अपनाने से सेना और शस्त्रों की जरूरत नहीं रह जाएगी
और बहुत थोड़े-से खर्च में भारत की सुरक्षा हो सकेगी, उसकी समस्याएं हल हो सकेंगी तथा देश की चेतना में सत्व का उदय हो सकेगा।
भगवान, श्री महेश योगी
द्वारा किए गए इस दावे में क्या कुछ सचाई है? साथ ही आप जिस
ध्यान को समझाते हैं तथा उसका प्रयोग करा रहे हैं, क्या वही
ध्यान ऊपर बताई गई बातों के संदर्भ में अधिक प्रभावशाली और कारगर सिद्ध नहीं होगा?
निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।
सत्य
वेदांत,
भारत के दुर्भाग्यों में से यह एक बड़ी से बड़ी आधारशिला है। ऐसी ही
मूढ़तापूर्ण बातों के कारण भारत सदियों से गरीब है, गुलाम रहा है,
सब तरह से पददलित, शोषित, अपमानित। लेकिन फिर भी हम हैं कि अपनी जड़ता को दोहराए चले जाते हैं।
महर्षि महेश योगी ने जो कहा वह सिवाय शेखचिल्लीपन के और कुछ भी नहीं।
पहली बात, उन्होंने कहा कि यह वैदिक ज्ञान का सार है--उनका
भावातीत ध्यान।
वेद के ऋषि क्या कर सके? अगर यह वैदिक ज्ञान
का सार है तो वैदिक ऋषियों के जमाने में तो अस्त्र-शस्त्रों की कोई जरूरत नहीं
होनी चाहिए थी। लेकिन परशुराम भी, हिंदुओं के अवतार, स्वयं भगवान के अवतार हाथ में फरसा लिए जीवन भर क्षत्रियों की हत्या करते
फिरे। अठारह बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रियों से विनष्ट किया। भावातीत ध्यान ही काम
कर देता, फरसे को लेकर घूमने की क्या जरूरत थी? एक मंत्र की मार से सारे क्षत्रिय मर जाते। लेकिन परशुराम फरसे के साथ
इतने संयुक्त हो गए कि उनके नाम में भी फरसा जुड़ गया। परशुराम का अर्थ है--फरसे
वाले राम।
और अगर भावातीत ध्यान ही अस्त्र-शस्त्रों के लिए परिपूरक हो सकता है।
तो यह धनुष-बाण लिए हुए रामचंद्र जी क्या भाड़ झोंक रहे हैं? रामचंद्र जी को भी यह पता नहीं था जो महर्षि महेश योगी को पता है? ये धनुर्धारी राम किसलिए बोझ ढोते फिरते हैं?
और अगर भावातीत ध्यान अस्त्र-शस्त्रों की जगह काम आ सकता है तो फिर
महाभारत का युद्ध क्यों हुआ? कृष्ण भावातीत ध्यान ही समझा
देते अर्जुन को, सस्ते में बात निपट जाती। कोई सवा अरब आदमी
युद्ध में मरे। इतनी महान हिंसा न पहले कभी हुई थी न बाद में कभी हुई। जिनको हम आज
विश्व-युद्ध कहते हैं वे सब तो बहुत छोटे मालूम पड़ते हैं। कृष्ण को भी भावातीत ध्यान
का पता नहीं था! कृष्ण ने क्यों अर्जुन को युद्ध के लिए उत्सुक किया, आतुर किया? वह तो बेचारा भावातीत ध्यान में जाना
चाहता था, उसके हाथ-पैर कंपने लगे थे, गांडीव
छूट गया था। शस्त्र तो छूटे जा रहे थे। वह तो भावातीत ध्यान में जाने की तैयारी कर
रहा था। लेकिन कृष्ण ने उसे फिर ललकारा और कहा, सम्हाल अपने
गांडीव को। यह युद्ध तो होना ही है। यह युद्ध तो अपरिहार्य है।
और अगर कृष्ण भी कौरवों के मन को अपनी ध्यान की शक्ति से न बदल सके तो
तुम सोचते हो ये महर्षि महेश योगी और इनके आस-पास इकट्ठे हो गए कुछ मूढ़जन ये
कोकाकोला-कोकाकोला भज कर सस्ते में भारत की सुरक्षा का इंतजाम करवा देंगे?
मगर यह मूढ़ता पुरानी है; नई नहीं है, बड़ी पुरानी है। महमूद गजनवी ने भारत पर हमला किया। सोमनाथ का मंदिर उस समय
का श्रेष्ठतम मंदिर था, सबसे ज्यादा धनी। जैसे आज दक्षिण में
तिरुपति का मंदिर है, ऐसा सोमनाथ का मंदिर था, जहां हीरे-जवाहरातों के ढेर लग गए थे। महमूद गजनवी गजनी से चला था,
नजर सोमनाथ के मंदिर पर थी। और जब सोमनाथ के मंदिर पर महमूद गजनवी
पहुंचा तो देश के अनेक क्षत्रियों ने अपने जीवन को समर्पित करने की तैयारी दिखाई।
उन्होंने कहा, हम तैयार हैं युद्ध के लिए, मंदिर की सुरक्षा के लिए।
लेकिन वहां बारह सौ पुजारी थे मंदिर में--बारह सौ महर्षि महेश योगी!
उन्होंने कहा कि तुम और हमारी रक्षा करोगे! तुम और भगवान के मंदिर की रक्षा करोगे!
पागल हो गए हो! अरे भगवान, जो सबका रक्षक है, जिसने सारी
पृथ्वी को, सारे अस्तित्व को धारण किया है, तुम उसकी रक्षा करोगे! जिसने तुम्हें बनाया और जो तुम्हें मिटा दे,
जिसके इशारे की सारी बात है, उसकी तुम रक्षा
करोगे! क्षत्रिय योद्धा आने को तैयार थे, अपने जीवन की आहुति
देने को तैयार थे, लेकिन पुजारियों ने कहा कि इसकी कोई जरूरत
नहीं है। हमारे वैदिक मंत्र पर्याप्त हैं।
और जब महमूद गजनवी पहुंचा तो वह भी हैरान हुआ, क्योंकि मंदिर में कोई सुरक्षा का आयोजन नहीं था, कोई
तलवार न थी, कोई सैनिक न था। हां, बारह
सौ पुजारी वैदिक मंत्रोच्चार जरूर कर रहे थे। वे वैदिक मंत्रोच्चार करते रहे और
महमूद गजनवी ने उठाई गदा और मंदिर की प्रतिमा को खंड-खंड कर दिया। उस प्रतिमा के
भीतर बहुमूल्य से बहुमूल्य हीरे थे। वह प्रतिमा टूटी तो सारे मंदिर में हीरे बिखर
गए। और वे बारह सौ पुजारी मंत्रोच्चार करते रहे। उनके मंत्रोच्चार से इतना भी न
हुआ--बारह सौ पुजारियों के मंत्रोच्चार से--कि एक महमूद गजनवी का हृदय बदल जाता।
लेकिन यह मूर्खता अब भी जारी है, अब भी वही बकवास,
अब भी वही बेमानी बातें। और भारत का मन चूंकि सदियों से निर्मित हुआ
है इन्हीं गलत संस्कारों में पला हुआ, ये बातें प्रभावित
करती हैं। लगता है कि अहा, वैदिक ऋषि कैसा अदभुत विज्ञान
हमें दे गए हैं! न अस्त्रों की जरूरत, न शस्त्रों की जरूरत!
तो बाइस सौ साल तक तुम गुलाम क्यों रहे?
इस बाइस सौ साल में कितने तो ऋषि हुए, कितने महर्षि
हुए--शंकराचार्य हुए, रामानुजाचार्य हुए, वल्लभाचार्य हुए, निम्बार्क हुए--इन सबमें से किसी की
भी मंत्र की क्षमता इतनी न थी कि भारत की दासता को मिटा देता! छोटी-छोटी कौमें आईं,
शक आए, हूण आए, जिनकी
कोई कीमत न थी, जिनका कोई नामलेवा नहीं था, आज कोई नामलेवा नहीं है, छोटे-छोटे जत्थे आए और यह
विराट देश गुलाम होता चला गया, क्योंकि इस विराट देश के पास
मूर्खतापूर्ण बातों का अंबार है। यह उन्हीं पर भरोसा किए रहा। यह उन्हीं को छाती
से लगाए बैठा रहा। इसने सोचा कि यह तो पुण्यभूमि है, धर्मभूमि
है। स्वयं देवता यहां पैदा होने को तरसते हैं। वही करेंगे इसकी रक्षा। किसी ने कोई
रक्षा न की। कोई रक्षा न हुई।
और आज भी बीसवीं सदी में इस तरह की शेखचिल्लीपन की बातें, सिर्फ इस बात की सूचक हैं कि यह देश अभी भी समसामयिक नहीं है।
पदार्थ और चेतना के अलग-अलग नियम हैं। ध्यान से व्यक्ति की चेतना
रूपांतरित होती है, लेकिन पदार्थ पर उसका कोई परिणाम नहीं होता। पदार्थ
पर परिणाम के लिए तो विज्ञान चाहिए। विज्ञान की कोई क्षमता मनुष्य की चेतना पर काम
नहीं आती। और धर्म की कोई क्षमता पदार्थ पर काम नहीं आती। इस भेद को स्पष्ट समझ
लेना चाहिए। यदि देश में गरीबी है तो विज्ञान से मिटेगी, धर्म
से नहीं। धर्म से मिट सकती होती तो पैदा ही न होती। हजारों-हजारों साल से तो तुम
धार्मिक हो, अब और क्या ज्यादा धार्मिक होओगे? इससे ज्यादा और क्या धर्म सम्हालोगे? बहुत तो सम्हाल
चुके। महावीर और बुद्ध और कृष्ण और राम, इतनी विराट शृंखला
है तुम्हारे पास धार्मिक पुरुषों की, लेकिन गरीबी तो न मिटी
तो न मिटी। गरीबी तो विज्ञान से मिटेगी। उसके लिए तो आइंस्टीन चाहिए, न्यूटन चाहिए, एडीसन चाहिए, रदरफोर्ड
चाहिए।
हां, यह सच है कि भीतर की गरीबी, आत्मा
की गरीबी विज्ञान से न मिटेगी। उसके लिए बुद्ध चाहिए, जरथुस्त्र
चाहिए, जीसस चाहिए, लाओत्सु चाहिए।
और इन दोनों का हम स्पष्ट विभाजन समझ लें, इसमें कहीं भूल-चूक न हो। यही भूल-चूक हमें सता रही है, हमारे प्राणों पर भारी हो गई है। इसी भूल-चूक ने हमें मारा है। जब बीमारी
हो तो चले तुम पुजारी के पास, चले तुम किसी ज्योतिषी के पास,
चले तुम मंदिर किसी पत्थर की मूर्ति की प्रार्थना करने। जब बीमारी
हो तो चिकित्सक के पास जाओ, तो औषधि की तलाश करो। और जब
गरीबी हो तो तकनीक खोजो कि ज्यादा पैदावार कैसे हो। नहीं, लेकिन
हम तकनीक न खोजेंगे, हम यज्ञ करेंगे, हवन
करेंगे कि वर्षा हो जाए।
कितनी सदियों से तुम यज्ञ और हवन कर रहे हो, यह वर्षा कब होगी? बाढ़ आए तो पूजा और पाठ, अकाल पड़े तो पूजा और पाठ। और तुम्हारे पूजा-पाठ का परिणाम कुछ भी नहीं
हुआ। निरपवाद रूप से तुम्हारा पूजा-पाठ व्यर्थ गया है। उतना ही समय तुमने, उतना ही श्रम तुमने अगर विज्ञान को दिया होता तो तुम आज पृथ्वी पर
सर्वाधिक धनी देश होते। अमरीका की कुल उम्र तीन सौ साल है, तीन
सौ साल में संपदा बरस गई। और हम तो कोई दस हजार वर्षों से इस देश में हैं, शायद ज्यादा समय से हों। दस हजार सालों में भी हम गरीब के गरीब रहे। हमारे
सोचने में कहीं कोई आधारभूत भूल है, कहीं कोई बुनियादी,
कोई जड़ की, कोई मूल की गलती है। और उस गलती को
सुधारना जरूरी है।
हां, यह मैं कहूंगा कि कोई सोचता हो कि विज्ञान से आत्मा
की शांति मिलेगी तो वह भी उतना ही गलत है जितना कोई सोचता हो कि ध्यान से और पेट
की भूख बुझेगी। पेट के अपने नियम हैं और आत्मा के अपने नियम हैं। आंख देख सकती है,
कान सुन सकता है। जो कान से देखने की कोशिश करेगा, वह पागल है। और जो आंख से सुनने की कोशिश करेगा, वह
मूढ़ है। आखिर कुछ सीमाएं खींचना सीखो। कुछ जीवन के गणित की पहचान लो। भीतर के जगत
का अपना नियम है। वहां ध्यान सहयोगी है। वहां गहरी से गहरी शांति पैदा होगी,
मौन पैदा होगा, आनंद उभरेगा। लेकिन उससे रोटी
पैदा नहीं होगी, न मशीनें चलेंगी।
भावातीत ध्यान से कारें नहीं चल सकतीं; उसके लिए पेट्रोल
चाहिए। भावातीत ध्यान से उद्योग नहीं चल सकते; उसके लिए
मशीनें चाहिए। भावातीत ध्यान से वर्षा नहीं होगी। बादलों को कुछ चिंता नहीं पड़ी है
तुम्हारे भावातीत ध्यान की। पैदावार बढ़ नहीं जाएगी।
और महर्षि महेश योगी ने कहा है कि "देश को इस प्रकार के भय और
अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए सरकार को उनके भावातीत ध्यान तथा टी.एम. सिद्धि
कार्यक्रम का उपयोग करना चाहिए।'
इन नासमझों को कहो कि बकवास बंद करो। इंदिरा गांधी को मैं कहूंगा कि
इस तरह की मूढ़ता की बातों में मत पड़ना। दिल्ली में इस तरह के मूढ़ रोज कुछ न कुछ
उपद्रव करने में लगे हुए हैं। और ये क्यों दिल्ली में इकट्ठे होते हैं? महर्षि महेश योगी दिल्ली में अड्डा जमाए बैठे हैं कुछ महीनों से और
भावातीत ध्यान का प्रयोग चल रहा है! दिल्ली ही क्यों? क्योंकि
वहीं सत्ता है, राजनीति है। अब यह उन्होंने सोचा कि और अच्छी
बात हुई कि अगर देश पर संकट आ रहा है तो शोषण करो इस अवसर का, इस मौके को चूको मत। इस अवसर का फायदा उठा लो।
ये सब अवसरवादी हैं और इनको सहारा देने वाले राजनीतिज्ञ हैं। क्योंकि
वे राजनीतिज्ञ भी तुम्हारी भीड़ से ही पैदा होते हैं; तुम्हारी भीड़ के ही
मत से तो वे जिंदा होते हैं। वे तुम से गए-बीते होते हैं। तुम से गए-बीते होते हैं,
तभी तो तुम उन्हें अपना नेता चुनते हो। अगर पागल किसी को नेता
चुनेंगे तो महा-पागल को ही चुनेंगे; उनसे तो कुछ आगे होना ही
चाहिए।
देश में अगर भय है तो उसके लिए अस्त्र-शस्त्र चाहिए, ध्यान नहीं। और देश में अगर अनिश्चितता है तो इस देश को अणुबम बनाने होंगे,
उदजन-बम बनाने होंगे, इस देश को विज्ञान की
सारी सुविधाओं का उपयोग करना होगा। नहीं तो यह देश फिर सोमनाथ के मंदिर की तरह
टूटेगा और बरबाद होगा। और न महमूद गजनवी ने तुम्हारी बकवास सुनी और तुम्हारे मंत्र
सुने और न पाकिस्तान सुनेगा और न चीन सुनेगा। खतरा कहां से है? इन दो मुल्कों से खतरा है--चीन से है और पाकिस्तान से है। दोनों के पास
अणुबम की संभावना बढ़ती जा रही है। चीन के पास तो सुनिश्चित अणुबम है। और पाकिस्तान
के लिए सारे मुसलमान देश उदजन बम बनाने के लिए संपत्ति देने को तैयार हो गए हैं।
और यहां के ये तथाकथित पोंगा-पंडित, ये समझा रहे हैं इंदिरा
गांधी को कि भावातीत ध्यान से सब ठीक हो जाएगा, सब भय मिट
जाएगा, सब अनिश्चितता मिट जाएगी।
इस तरह के गधों ने इस देश की छाती को बहुत रौंदा। इन गधों से छुटकारा
चाहिए।
मैं ध्यान की क्षमता को स्वीकार करता हूं। ध्यान की अपूर्व संभावना
है--लेकिन अंतर्लोक में। तनाव से मुक्ति मिलेगी ध्यान से, लेकिन यह मत सोचना कि तुम दूसरे को बदलने में समर्थ हो जाओगे। क्या तुम
सोचते हो जीसस के पास इतना भी ध्यान नहीं था कि जिन्होंने उन्हें सूली दी उनका
हृदय परिवर्तन कर सकते? सूली देने वाले तो चार ही लोग थे;
जिन्होंने उनकी सूली गाड़ी और उनको सूली पर चढ़ाया और खीले ठोंके,
चार आदमियों ने। इन चार आदमियों को भी जीसस न बदल सके! इतना भी
ध्यान न था जीसस में! महर्षि महेश योगी के पास इससे बड़ा ध्यान है?
मंसूर के पास ध्यान न था कि एक हत्यारे ने पैर काट दिए, हाथ काट दिए, गर्दन काट दी और मंसूर का ध्यान कुछ भी
सुरक्षा न जुटा पाया? सरमद के पास ध्यान नहीं था कि एक झटके
में गर्दन काट दी गई? राम के पास ध्यान नहीं था कि रावण का
हृदय रूपांतरित कर देते? महर्षि महेश योगी का यह तथाकथित
भावातीत ध्यान न राम के पास था, न कृष्ण के पास था, न जीसस के पास था, न सरमद के पास, न मंसूर के पास! रावण का हृदय नहीं बदल सकते थे? क्या
जरूरत थी युद्ध की? क्यों अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग किया?
और ये किस वैदिक ज्ञान के सार की बात छेड़ रहे हैं? तुम्हारे वेदों में इंद्र से प्रार्थना की गई है कि हमें शक्ति दो,
अस्त्र-शस्त्र दो, दुश्मन पर विजय दो; हम दुश्मन का संहार कर सकें, इतना बल दो; हमारी गऊओं के थन में ज्यादा दूध आ जाए, ऐसी कृपा
करो। भावातीत ध्यान से ही आ जाता। गऊओं के थन में दूध भी न बढ़ा! ये वैदिक ऋषि
प्रार्थनाएं कर रहे हैं, यह वेद के ज्ञान का सार है! ये
वैदिक ऋषि प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारे खेत में ज्यादा उपज हो जाए और पड़ोसी के
खेत में, जो कि हमारा दुश्मन है--पड़ोसी और दुश्मन अक्सर
पर्यायवाची होते हैं--उसके खेत में बिलकुल फसल ऊगे ही नहीं। भावातीत ध्यान ही कर
लेते! जो भावातीत ध्यान ज्यादा करता उसकी फसल बड़ी होती।
लेकिन ये सब पागलपन की बातें हैं। अब समय है...बहुत हो चुका। बहुत इस
देश की छाती पर घूंघर मूती जा चुकी। अब इन सब व्यर्थ की बकवास करने वाले लोगों को
विदा दो, अलविदा दो, सदा के लिए विदा कर
दो। अब इस तरह का जहर और न फैलाया जाए।
पदार्थ के अपने नियम हैं और पदार्थ के नियम ध्यान से रूपांतरित नहीं
होते। और ध्यान के अपने नियम हैं और ध्यान के नियम पदार्थ के विज्ञान से रूपांतरित
नहीं होते। अलहिल्लाज मंसूर को तलवार काट सकती है, अलहिल्लाज मंसूर की
शांति को नहीं काट सकती, अलहिल्लाज मंसूर के आनंद को नहीं
काट सकती, उसकी समाधि को नहीं काट सकती। अलहिल्लाज मंसूर
हंसता हुआ मरता है--वही आनंद, वही मस्ती, वही आह्लाद! गर्दन तो कट जाती है, आंखें तो फोड़ दी
जाती हैं, हाथ काट दिए जाते हैं, पैर
काट दिए जाते हैं। इस तरह की हत्या कभी किसी की नहीं की गई जैसी मंसूर की की गई,
एक-एक अंग काटा गया, बड़ी निर्ममता से काटा
गया। लेकिन वही अनलहक का उदघोष उठता रहा। ध्यान की वही गरिमा रही। समाधि जरा भी डगमगाई
नहीं। आंखों में वही मस्ती, वही खुमार, वही रोशनी।
और आखिरी काम जो मंसूर ने किया वह यह, आकाश की तरफ देख कर
खिलखिला कर हंसा। सारा शरीर लहूलुहान है, अंग कट कर गिर गए
हैं, बस अब जबान कटने को है, उसके पहले
वह खिलखिला कर हंसा। किसी ने भीड़ में से पूछा कि मंसूर क्या तुम पागल हो गए हो?
तुम किस लिए हंस रहे हो?
मंसूर ने कहा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं ईश्वर को कहना चाहता
हूं कि देख, तू किसी भी रूप में आए, मैं
तुझे पहचान लूंगा। आज तू मौत की तरह आया है तो मुझे धोखा न दे सकेगा। यह मेरी हंसी
तेरा जवाब है। और तू चाहे जिंदगी हो और चाहे तू मौत हो, मेरी
खुशी वैसी की वैसी रहेगी।
तलवार शरीर को तो काटेगी। क्या तुम सोचते हो जापान पर जब हिरोशिमा पर
एटम बम गिरा और नागासाकी पर एटम बम गिरा तो नागासाकी और हिरोशिमा में ध्यान करने
वाले लोग न थे? सच तो यह है कि आज दुनिया में अगर सर्वाधिक ध्यान की
गहराइयों में उतरने वाले लोग कहीं हैं तो वह जापान है। क्योंकि बुद्ध की परंपरा का
जो शुद्धतम रूप है, झेन, वह जापान में
आज भी जिंदा है।
नागासाकी-हिरोशिमा दोनों नगरों में झेन फकीरों की बड़ी तादाद थी। उनके
सुंदर आश्रम थे, जिनमें सुबह से लेकर सांझ तक लोग ध्यान में लीन थे।
मगर जब एटम बम गिरा तो उसने कोई फर्क न किया कि ये ध्यानी हैं, इन्हें छोड़ दो; कि ये गैर-ध्यानी हैं, इन्हें मारो, दो गुना मारो! उसने न कुत्तों को देखा,
न घोड़ों को देखा, न गधों को देखा, न वृक्षों को देखा, न इस बात की फिक्र की कि कौन
बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है। उसने तो सभी को भस्मीभूत कर दिया।
जिन लोगों ने महावीर के कान में खीले ठोंके, महावीर उनका हृदय परिवर्तन न कर सके? इतना भी ध्यान
न था? बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन से हुई। इतना भी ध्यान न
था कि शरीर में विष का असर न हो, ऐसा उपाय कर लेते? कितने उल्लेख तुम्हें दिए जाएं? खुद कृष्ण की मृत्यु
बाण के लगने से हुई। वे विश्राम करने को एक वृक्ष के नीचे लेटे थे और किसी शिकारी
ने भूल से उनके पैर को समझा कि वह किसी पशु का पैर है, दूर
झाड़ियों में छिपे हुए उसने तीर मार दिया। पछताया बहुत, लेकिन
वह तीर विषाक्त था, कृष्ण की मृत्यु हो गई।
कृष्ण का ध्यान तीर से न बचा सका। और महर्षि महेश योगी, जो कृष्ण की ही गीता पर प्रवचन दे-देकर महर्षि हैं, इनको
यह पागलपन सवार हुआ है! ये देश को और देश के प्रधान मंत्री को सुझाव दे रहे हैं कि
कोई जरूरत नहीं है अस्त्रों-शस्त्रों की; बिना
अस्त्रों-शस्त्रों के, सस्ता-सुगम उपाय, लोग भावातीत ध्यान कर लें। पंद्रह मिनट सुबह, पंद्रह
मिनट शाम। पाकिस्तान और चीन के हृदय बदल जाएंगे!
इस पागलपन में न पड़ो। राम तो फिर भी धार्मिक व्यक्ति से लड़ रहे थे; रावण बहुत धार्मिक था, शिव का भक्त था। कहानी तो यह
है कि इतना भक्त था कि अपनी गर्दन भी चढ़ा देता था। राम तो एक धार्मिक व्यक्ति से
ही उलझ रहे थे, उसको भी न बदल सके! तुम चीन को बदल सकोगे,
जो कि ईश्वर को मानते ही नहीं, आत्मा को मानते
ही नहीं?
पहली दफा नास्तिकों के हाथ में देश है। चीन इस समय दुनिया का सबसे बड़ा
देश है। एक अरब के करीब उसकी संख्या जल्दी ही पहुंच जाएगी। नब्बे करोड़ तो पहुंच ही
गई। ये नब्बे करोड़ नास्तिकों का देश, जिसमें कोई ईश्वर को
मानता नहीं, आत्मा को मानता नहीं, इनको
भावातीत ध्यान से बदल सकोगे? कौरव कितने ही बुरे रहे हों,
भगवान को तो मानते ही थे, आत्मा को तो मानते
ही थे, नर्क और स्वर्ग से तो डरते ही थे। उनको भी कृष्ण न
बदल सके! और कृष्ण ने अर्जुन को न समझाया कि बेटा, गांडीव
छूट गया छूट जाने दे, यह ले भावातीत ध्यान, इससे सब हल हो जाएगा!
"न केवल देश की अनिश्चितता और भय से बचाने के लिए
वे भावातीत और तथाकथित सिद्धि का प्रयोग बता रहे हैं...।'
उनकी सिद्धि का प्रयोग क्या है? वे भी अभी तक कोई
सामूहिक प्रदर्शन नहीं कर सके हैं। वह भी एक झूठी बकवास है। महर्षि महेश योगी की
सिद्धि क्या है? सिद्धि है यह कि ध्यान करने वाला व्यक्ति एक
फीट ऊंचा जमीन से उठ जाता है। चलो मान लिया जाए कि उठ जाए, तो
भी क्या होगा? हवाई जहाज हजारों फीट ऊपर उठ रहे हैं।
तुम्हारे सिद्धि को पहुंचे हुए लोग एक फीट ऊपर उठेंगे, हवाई
जहाज ऊपर से बम गिराएंगे, ये वापस जमीन पर गिर जाएंगे। एक
फीट ऊपर भी उठ गए तो क्या होगा? ऐसे तो उठने वाले भी नहीं एक
फीट भी, क्योंकि महर्षि खुद ही क्यों नहीं प्रयोग करके दिखला
देते एक फीट ऊपर उठकर?
हां, फोटो छापते हैं। और फोटो तो बहुत आसान मामला है। वह
तो ट्रिक-फोटोग्राफी है। उसमें कुछ खास मामला नहीं। वह तो सिर्फ तरकीब है
फोटोग्राफी की। वह तो होशियारी है सिर्फ फोटोग्राफर की। वे एक फीट ऊपर आदमी को
बैठा हुआ बता देते हैं। इसमें तो कोई अड़चन नहीं है। औरों ने भी यह फोटोग्राफी करके
दिखा दी है। उन्होंने भी छाप दिए हैं फोटो। लेकिन दूसरे कम से कम ईमानदार हैं,
कम से कम उन्होंने साफ कह दिया है कि यह फोटोग्राफी है।
यह सिद्धि के नाम से जो बकवास चला रखी है कि आदमी भावातीत ध्यान में
जब जाता है तो एक फीट ऊपर उठ जाता है, इसका प्रदर्शन करो।
कहते तो वे यह हैं कि लाखों लोग भावातीत ध्यान कर रहे हैं, चलो
एकाध लाख आदमियों को एक फीट ऊपर उठा कर दिखा दो। सबको छोड़ो, कम
से कम तुम ही ऊपर उठ कर दिखा दो।
और उठ भी गए तो क्या होगा? मैं यह भी नहीं कहता
कि नहीं उठ सकते हो। उठ भी गए मान लो, तो क्या होगा? एक ही फीट ऊपर उठोगे न, दो फीट ऊपर उठोगे, कितने फीट ऊपर उठोगे? और ऊपर फीट उठ जाने से क्या
होने वाला है? जिसको तुम्हारी गर्दन काटनी है, फिर भी काटेगा। और एक फीट ऊपर रहे तो जरा बंदूक का निशाना ऊपर साधेगा,
और क्या करेगा? इससे तो बेहतर था कि न ही
जानते यह उठना, तो कम से कम किसी झाड़ी वगैरह में छिप जाते।
अब झाड़ी में छिपा हुआ सिपाही और सिद्धि कर ले तो एक फीट ऊपर उठ जाए, तो दुश्मन को अलग दिखाई पड़ जाए कि ये रहे भावातीत ध्यान करने वाले,
मारो! अल्ला हो अकबर! वहीं धड़ाम से नीचे गिरे।
और न केवल वे यह कह रहे हैं कि इससे युद्ध के संबंध में सहायता मिलेगी, बल्कि देश की सारी समस्याएं हल हो सकेंगी और देश की चेतना में सत्व का उदय
हो सकेगा।
देश की समस्याएं क्या हैं? रोटी नहीं है,
रोजी नहीं है, कपड़ा नहीं है। ध्यान से यह कैसे
हल हो सकेगा? रोटी आकाश से बरसेगी? कपड़े
जमीन से उगेंगे? पत्थर हीरे-जवाहरात बन जाएंगे? क्या होगा? हां, ध्यान से एक
बात हो सकती है कि व्यक्ति इस दुख और दारिद्रय को भी सहन करने में समर्थ रहे। और
वही तो हम सदियों से कर रहे हैं। सहनशीलता बढ़ जाएगी, बगावत
कम हो जाएगी। लोग बजाय इसके कि श्रम करते और जीवन को रूपांतरित करते, निठल्ले बैठे रहेंगे। और कहेंगे कि ठीक है, भूख है
तो ठीक है और प्यास है तो ठीक है। अब जैसा परमात्मा को चाहिए वैसा उसने किया है!
पिछले जन्म में किए होंगे बुरे कर्म, उनका फल भोग रहे हैं।
और अब तो कोई बुरे कर्म न करें, नहीं तो अगले जन्म में फिर
फल भोगने पड़ेंगे। तो सांत्वना मिल सकती है लोगों को, लेकिन
रोटियां नहीं मिलेंगी, कपड़े नहीं मिलेंगे, छप्पर नहीं मिलेगा। और सांत्वना अफीम होगी। उससे लोग बेहोशी में पड़े रहे
हैं, बेहोशी में पड़े रहेंगे।
और ये कहते हैं कि "भावातीत ध्यान से, जो कि वैदिक ज्ञान का सार है, देश की चेतना में सत्व
का उदय होगा।'
वेद को लिखे कितना समय हुआ? वैज्ञानिक ढंग से
सोचने वाले लोग भी मानते हैं कि कम से कम पांच हजार वर्ष। और अवैज्ञानिक ढंग से
सोचने वाले लोग, जैसे लोकमान्य तिलक, वे
मानते हैं कि नब्बे हजार वर्ष। नब्बे हजार वर्ष या पांच हजार वर्ष, इतने हजार वर्षों में भी वैदिक ज्ञान का निरंतर पठन-पाठन होता रहा,
गुरुकुल चलते रहे, ऋषि समझाते रहे और सत्व का
उदय अब तक नहीं हुआ देश की चेतना में! जितनी इस देश की चेतना असात्विक है, शायद दुनिया में किसी देश की न हो। जितनी बेईमानी, जितनी
घूसखोरी, जितनी रिश्वत, जितनी चार सौ
बीसी इस देश में है, जितना पाखंड, जितनी
अनैतिकता, उतनी शायद कहीं भी न हो। क्या हुआ? हम तो मान कर बैठ गए कि वेद हमारे पास हैं, गीता
हमारे पास है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हमारे पास हो चुके हैं,
अब हमें क्या करना है? हम तो उनकी बपौती की ही
पूजा करेंगे। हम तो दो फूल चढ़ा देंगे उनकी मजार पर और बस सत्व का उदय हो जाएगा!
सत्व का उदय नहीं हुआ। ऐसे कहीं सत्व का उदय नहीं होता।
और एक बात खयाल में रहे कि ध्यान व्यक्ति को घटता है, समाज या देशों को नहीं। क्योंकि चेतना व्यक्ति के पास है, समाज या देश के पास कोई चेतना नहीं होती। आत्मा व्यक्ति के पास है,
समाज या देश के पास कोई आत्मा नहीं होती। तुम पूरे भारत में घूम जाओ,
तुम्हें भारत कहीं भी नहीं मिलेगा। जहां मिलेगा कोई आदमी मिलेगा,
कोई औरत मिलेगी, कोई बच्चा मिलेगा, कोई बूढ़ा मिलेगा, भारत नहीं मिलेगा। भारतमाता की
कितनी ही तलाश करो, कई तरह की माताएं मिलेंगी, दुर्गा माता मिलेंगी, काली माता मिलेंगी, गोरी माता मिलेंगी, तरहत्तरह की माताएं मिलेंगी,
मगर भारतमाता नहीं मिलेगी। वह तो केवल तस्वीर में होती है। वह तो
काल्पनिक है। और अगर भारतमाता मिल जाए तो बड़ी अपंग हालत में होगी। क्योंकि
पाकिस्तान कट गया, बंगला देश कट गया, कभी
बर्मा भी इस देश का हिस्सा था, वे सब कटते चले गए। भारतमाता
मिलेगी भी तो तुम पहचान न सकोगे। एक आंख नदारद, एक हाथ नदारद,
एक टांग नदारद। मिलेगी भी तो कहीं सड़क पर भीख मांगती मिलेगी। और तुम
भी नजर बचा कर निकल जाओगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन तेजी से चला जा रहा था। मैंने पूछा कि क्या
हुआ, इतनी तेजी से कहां जा रहे हो? उसने
कहा कि मुझसे गरीबी नहीं देखी जाती, मुझसे बिलकुल नहीं देखी
जाती। तो मैंने कहा कि फिर इससे तेजी से चलने का क्या संबंध है? उसने कहा कि एक गरीब आदमी भीख मांग रहा है, मुझसे
नहीं देखा जाता। मैं तो दूसरी तरफ मुंह करके एकदम तेजी से निकल जाता हूं, मुझसे बरदाश्त ही नहीं होता। बड़ा कोमल हृदय है मेरा!
देशों की कोई चेतना नहीं होती, न कोई आत्मा होती है,
न कोई व्यक्तियों के जोड़ में आत्मा होती है। व्यक्ति में आत्मा होती
है। व्यक्ति में चेतना होती है। ध्यान वैयक्तिक है, न तो
राष्ट्रीय होता है, न सामाजिक होता है। यह तो व्यक्ति की ही
क्रांति है।
हां, व्यक्ति की चेतना में जरूर सत्व का उदय होता है। और
वह उदय भी सत्य वेदांत, महेश योगी द्वारा प्रचलित तथाकथित
भावातीत ध्यान से नहीं हो सकता। क्योंकि उनका भावातीत ध्यान है ही क्या, सिर्फ मंत्र-जाप। जिसको तुम पहले मंत्र-जाप कहते थे, उसके लिए उन्होंने नया शब्द खोज लिया है--भावातीत ध्यान।
करते क्या हैं भावातीत ध्यान में? कोई एक शब्द दे देंगे,
जिसको तुम सतत दोहराओ। पंद्रह मिनट तक मौका ही न दो मन में किसी और
चीज को आने का, दोहराए चले जाओ, राम-राम-राम
दोहराए चले जाओ। या ओम-ओम दोहराए चले जाओ। इतनी तेजी से दोहराओ कि एक ओम पर दूसरा
ओम चढ़ने लगे, जैसे मालगाड़ी टकरा जाएं और डब्बे पर डब्बे चढ़
जाएं, बीच में संध न छोड़ना। नहीं तो बीच संध में से ही गड़बड़
हो जाती है। कोई चेहरा झांक जाएगा, पड़ोसन स्त्री दिखाई पड़
जाएगी, रास्ते के किनारे पड़ा हुआ नोट दिखाई पड़ जाएगा,
कि आज कौन सी फिल्म में जाना है यह खयाल आ जाएगा, कि ये रहे विनोद खन्ना, एकदम दिखाई पड़ जाएंगे! बीच
में संध आने ही मत देना। ओम को ओम के ऊपर चढ़ाए जाना, बीच में
न रहेगी जगह, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इस तरह सतत अगर एक शब्द को कोई दोहराता रहे तो उसका कुल परिणाम एक तरह
की तंद्रा होता है। यह एक सम्मोहन की विधि है। यह कोई ध्यान नहीं। जिसको महर्षि
महेश योगी ध्यान कह कर प्रचारित कर रहे हैं, वह केवल आत्म-सम्मोहन
है, आटो-हिप्नोसिस है। और यह काम तुम किसी भी शब्द से कर
सकते हो, इसके लिए कोई वैदिक मंत्रों की जरूरत नहीं है। अपना
ही नाम दोहराने लगो बार-बार, उसी को दोहराए चले जाओ, उसी से यह काम हो जाएगा। कुछ भी दोहराने लगो, बस एक
शब्द पकड़ लो और उसको दोहराए चले जाओ। दोहराने का एक परिणाम होता है कि मन थक जाता
है दोहराने से। थक जाता है तो थोड़ा विश्राम मांगता है।
जैसे किसी बच्चे को अगर तुम कहो कि बैठ चुपचाप एक कोने में, तो नहीं बैठेगा। और डर के मारे बैठ भी जाए तो करवटें बदलेगा, हाथ-पैर हिलाएगा, हां-हूं करेगा, गीत गुनगुनाएगा, इधर की चीज उधर रखेगा, सिर खुजलाएगा, कहीं पीठ खुजलाएगा, कुछ न कुछ करेगा, कमीज की बटनें खोलेगा-लगाएगा। मतलब
उसके भीतर बेचैनी है, ऊर्जा है, शक्ति
है।
अगर उसको शांत बिठालना है तो एक ही रास्ता है, उससे कहो कि जाओ, एक दर्जन पूरे घर के चक्कर लगाओ!
दौड़ कर लगाना, जी-जान से लगाना। बारह चक्कर लगाने के बाद
तुम्हें कहने की जरूरत नहीं रहेगी कि चुपचाप बैठ जाओ, वह
चुपचाप खुद ही बैठ जाएगा। वह खुद ही एक कोने में शांति से बैठा रहेगा, न बटन खोलेगा, न सिर खुजलाएगा, कुछ भी नहीं करेगा, बैठा रहेगा।
और अगर उसको बिलकुल ही बिठालना हो तो मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन
को ट्रेन पकड़नी थी, सो उसने एक लड़के से पूछा कि भई यह रास्ता तो बड़ा लंबा
है और मुझे जल्दी पहुंचना है, कहीं ट्रेन चूक न जाऊं,
तो कोई जल्दी पहुंचने का रास्ता बता दो। उस लड़के के पास एक कुत्ता
था, उसने कुत्ते को कहा: लग-छू! मुल्ला भागा। कुत्ता उसके
पीछे हो लिया।
जो रास्ता साठ मिनट में पूरा होता, दस मिनट में पूरा हो
गया। मुल्ला मुझे कह रहा था कि गजब कर दिया उस लड़के ने; बताया
ही नहीं रास्ता, पार ही करवा दिया! जवाब ही नहीं दिया,
एकदम कहा: लग-छू! और मैं पहुंच गया। अभी गाड़ी आने में तो कोई चालीस
मिनट की देर थी, जाकर कैसा विश्राम किया है--ऐसा विश्राम जो
कई वर्षों से नहीं जाना था! एकदम जाकर लेट ही गया कुर्सी में और ऐसी राहत पाई कि
वाह रे लड़के, क्या गजब का रास्ता सुझाया! कुत्ते को पीछे लगा
दिया।
ये मंत्र वगैरह जो हैं, कुछ नहीं बस लग-छू!
दोहराए जाओ, दोहराए जाओ, कुत्ता पीछे
लगा है। भागे जाओ, भागे जाओ। पंद्रह मिनट में परेशान हो
जाओगे, पसीना-पसीना हो जाओगे, अपने आप
बैठ जाओगे। उस अपने आप बैठ जाने को तुम ध्यान मत समझ लेना। यह कोई ध्यान नहीं है।
यह तो केवल थकान से आई हुई एक तंद्रा है। एक झपकी आ जाएगी। एक तरह की मन में दौड़
बंद हो जाएगी। मगर यह दौड़ कितनी देर बंद रहेगी? यह फिर शुरू
हो जाएगी। यह थोड़ी देर का खेल है। हां, थोड़ी देर को राहत की
सांस ले लोगे। इससे ज्यादा भावातीत ध्यान का कोई मूल्य नहीं है।
और अगर यही वैदिक धर्म का सार है तो वैदिक धर्म में भी फिर कोई मूल्य
नहीं है। और होना भी नहीं चाहिए ज्यादा मूल्य, क्योंकि महावीर ने
विरोध किया वैदिक धर्म का, बुद्ध ने विरोध किया वैदिक धर्म
का, नागार्जुन ने विरोध किया वैदिक धर्म का, वसुबंध ने विरोध किया, धर्मकीर्ति ने विरोध किया,
चंद्रकीर्ति ने विरोध किया। परंपरा है लंबी वैदिक धर्म के विरोध की।
और मैं कोई अकेला आदमी नहीं हूं, हजारों बुद्ध पुरुषों ने
इसका विरोध किया है। और विरोध इसीलिए किया है कि वैदिक धर्म सिवाय पंडितों के
पाखंड के और कुछ भी नहीं है। यह पुरोहितों के शोषण का जाल है। यह आदमी को कैसे
बंधनों में बांधे रखना, आदमी को कैसे नए-नए जालों में ग्रसित
रखना--इसके सिवाय और कुछ भी नहीं है।
तो मैं सोचता हूं कि होगा वैदिक ज्ञान का सार ही होगा यह भावातीत।
तुमने पूछा, सत्य वेदांत, कि आप जिस ध्यान
को समझाते हैं तथा उसका प्रयोग करा रहे हैं, क्या वही ध्यान
ऊपर बताई गई बातों के संदर्भ में अधिक प्रभावशाली और कारगर सिद्ध नहीं होगा?
बिलकुल नहीं। ध्यान से इन बातों का कोई संबंध ही नहीं है। मैं बहुत
स्पष्ट प्रत्येक चीज के संबंध में वक्तव्य देना चाहता हूं। मेरा ध्यान तुम्हारी
आंतरिक शांति, सौमनस्य, तुम्हारे आंतरिक
आनंद-उत्सव में जरूर प्रगाढ़ता लाएगा, लेकिन इससे तुम्हारे
बाहर की दुनिया में कोई बहुत फर्क होने वाला नहीं है।
हां, अगर बहुत लोग इस ध्यान को करेंगे तो बाहर के वातावरण
में थोड़ा फर्क आएगा, लेकिन वह फर्क बहुत लोगों के ध्यान करने
से आएगा। आएगा तो उन बहुत लोगों के जीवन-व्यवहार में, लेकिन
चूंकि बहुत लोग करेंगे तो स्वभावतः वे एक-दूसरे से संबंधित होंगे, उनके बाहर के व्यवहार में भी फर्क आएगा।
लेकिन इससे कुछ युद्ध समाप्त नहीं हो जाएंगे। क्योंकि कौन तय करेगा कि
पाकिस्तान भी ध्यान करे? कौन तय करेगा कि चीन भी ध्यान करे? ये महर्षि महेश योगी यहां तो उपद्रव करते रहेंगे भारत में, ये जाकर अमरीका को भी इसी तरह की मूर्खतापूर्ण बातें समझाते रहेंगे;
लेकिन रूस को कौन समझाएगा? चीन को कौन समझाएगा?
वहां तो इस तरह की बकवास नहीं चलने दी जाएगी। और खतरा वहां से है।
पाकिस्तान में कौन इनके भावातीत ध्यान को करने को राजी होगा? और खतरा वहां से है। जिनसे खतरा है उनको कौन समझाने जाएगा?
हां, अगर सारी दुनिया ध्यान करने लगे तो निश्चित ही
अस्त्र-शस्त्रों की जरूरत न रह जाएगी, क्योंकि लोग इतने
आनंदपूर्ण होंगे कि कौन किसकी हिंसा करना चाहेगा! लेकिन सारी दुनिया कब ध्यान
करेगी? इसकी कोई आशा है? आज तो नहीं
होने वाला, कल तो नहीं होने वाला। और सवाल अभी है। भारत पर
हमला आज हो सकता है, कल हो सकता है।
और मैं मानता हूं, ज्यादा देर नहीं लगेगी हमला होने
में। क्योंकि चीन और अमरीका रोज-रोज करीब होते जा रहे हैं। और रोनाल्ड रीगन के
सत्ता में आ जाने के बाद चीन और अमरीका के बीच संबंध बहुत गहरे हो जाने वाले हैं।
इस बात की बहुत संभावना है कि निक्सन को चीन में राजदूत बना कर भेजा जाए। निक्सन
के समय में चीन पहली दफा अमरीका के करीब आया और अब निक्सन को ही राजदूत बना कर
भेजे जाने की संभावना है। अब रीगन के पीछे से निक्सन ही काम करेंगे। रीगन तो केवल
बाहर का दिखावा रहेंगे, पीछे निक्सन और किसिंगर का जाल
चलेगा।
चीन के साथ अमरीका का गठबंधन भारत के लिए सबसे खतरनाक सिद्ध होने वाला
है, क्योंकि चीन और अमरीका का गठबंधन रूस के खिलाफ है। और अगर चीन और अमरीका
बहुत करीब आते हैं तो भारत को अनिवार्यरूपेण रूस के खेमे में खड़ा होना पड़ेगा। और
एक बात खयाल रखना कि अमरीका और रूस कभी सीधे लड़ने वाले नहीं हैं। इतनी मूर्खता वे
नहीं करेंगे; दोनों समझदार हैं। दोनों में से कोई इतना
पागलपन नहीं करेगा कि सीधा युद्ध करे। वे हमेशा किसी और की भूमि पर लड़ेंगे। युद्ध
होगा तो चीन और भारत में होगा।
और चीन ने जो जमीन पर कब्जा कर लिया है भारत की, वह यूं ही नहीं कर लिया है। वह खास उस जमीन पर कब्जा किया है जिसके माध्यम
से वह पाकिस्तान से जुड़ गया है। चीन ने इस बीच पाकिस्तान तक रास्ते बना लिए हैं।
जिस जमीन पर कब्जा किया उस पर कब्जा करने का कारण ही यही था, ताकि पाकिस्तान और चीन के बीच रास्ते का संबंध हो जाए। अब चीन और
पाकिस्तान जुड़े हुए हैं। और अमरीका और चीन जुड़ेंगे तो भारत के लिए खतरा सुनिश्चित
है।
मैं इंदिरा गांधी को कहूंगा कि इस खतरे से अगर बचना हो तो जितनी
शीघ्रता से हो सके उतनी शीघ्रता से, व्यर्थ की बकवास में
न पड़ कर, अणु-शस्त्रों उदजन-शस्त्रों और नए-नए
प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण करना हमें शुरू करना ही होगा।
और यह जल्दी किया जाना चाहिए, क्योंकि चीन के पास
अणु-शस्त्र हैं और जापान अणु-शस्त्रों की खोज में काफी आगे निकल गया है। पाकिस्तान
को सारे मुसलमान देश अरबों-खरबों डालर दे रहे हैं कि वे उदजन बम को बना लें। जिस
दिन पाकिस्तान के पास उदजन बम होगा उस दिन वह अपने अपमान का बदला लेगा। भारी अपमान
उसका हो गया है बंगला देश के टूट जाने से। और बंगला देश के टूट जाने में भारत ने
सहायता दी है, इस बात को भूल मत जाना। इसलिए भारत से बदला
लेना जरूरी है।
और इस तरह की बातें जो महर्षि महेश योगी जैसे लोग कर रहे हैं, इनसे सावधान रहना। ये खतरनाक लोग हैं, ये दुश्मन
हैं। इन्हीं तरह के नासमझों ने इस देश को अब तक बर्बाद किया है, इसी तरह के नासमझ आगे भी इस देश को बर्बाद कर सकते हैं।
इसलिए मैं तो इंदिरा गांधी को चेतावनी देता हूं कि इस तरह के गुरगों
के जाल में मत फंसना, इस तरह की बातों को भी मत सुनना। पदार्थ के नियम
पदार्थ के नियम हैं, उन्हें विज्ञान से हल किया जा सकता है;
और आत्मा के नियम आत्मा के नियम हैं, उन्हें
धर्म से हल किया जा सकता है। और दोनों को एक-दूसरे में कभी मिश्रित मत करना,
अन्यथा कोई बहुत बड़ा दुर्भाग्य भारत को घेर ले सकता है।
सैकड़ों अस्री मसाइल में उलझ कर रह गए
वर्ना "ताबां' हसरतेत्तामीर भी रखते हैं हम
आज की मजबूरियां, माजूरियां अपनी जगह
दिल में फर्दा की हसीं तस्वीर भी रखते हैं हम
इल्मो-दानिश बेहकीकत दस्ते-मेहनत के बगैर
ख्वाब भी रखते हैं हम, ताबीर भी रखते हैं हम
अहले-दिल करते हैं जिनसे माहो-परवीं को शिकार
अपने तरकश में कुछ ऐसे तीर भी रखते हैं हम
रफ्ता-रफ्ता जो बदल दे खुद जमाने का मिजाज
शौक के जज्बों में वो तासीर भी रखते हैं हम
अपने कातिल आप हैं, अपने मसीहा आप हैं
जहर भी रखते हैं हम, इक्सीर भी रखते हैं हम
हम अपने ही तो हत्यारे हैं और हम अपने ही उपचारक भी हैं।
अपने कातिल आप हैं, अपने मसीहा आप हैं
जहर भी रखते
हैं हम...
हमारे भीतर जहर भी है।
...इक्सीर भी रखते
हैं हम
और अमृत भी, और वह रामबाण औषधि भी। लेकिन किसका कहां प्रयोग,
इसका ध्यान रखना जरूरी है। कभी तो अमृत भी जहर हो जाता है--गलत
हाथों में, गलत प्रयोग से। और कभी जहर भी अमृत हो जाता है
ठीक हाथों में, ठीक प्रयोग से।
अस्त्र-शस्त्रों में कुछ बुराई नहीं है। हमारे पास भीतर की सजगता
चाहिए, होश चाहिए। फिर हाथ में तलवार भी फूल हो जाती है। होश
से भरे हाथों में तलवार चाहिए। हां, बेहोश हाथों में तलवार
खतरनाक है। मगर मजा यह है कि बेहोश हाथों में तलवार है और होश जिनके पास हो उनके
हाथ में तलवार नहीं।
मेरे पास जापान से किसी ने एक प्रतिमा भेजी थी। बुद्ध की प्रतिमा थी, बहुत अदभुत प्रतिमा थी, बहुत प्यारी थी। आधी प्रतिमा
एक तरफ से देखने में यूं लगती थी जैसे अर्जुन की प्रतिमा हो--हाथ में तलवार और उस
तलवार की चमक आधे चेहरे पर। और वही रौनक जो अर्जुन के चेहरे पर रही हो। और दूसरी
तरफ से आधी मूर्ति पर बुद्ध की शांत ध्यान-अवस्था, समाधि। एक
हाथ में तलवार और उसकी चमक आधे चेहरे पर, दूसरे हाथ में एक
छोटा-सा दीया और उस दीए की ज्योति, धीमी-धीमी, चेहरे के दूसरे हिस्से पर। एक तरफ से देखो तो बुद्ध और दूसरी तरफ से देखो
तो अर्जुन। यह एक समुराई की प्रतिमा थी। यह समुराई के संबंध में जापान की धारणा
रही है कि उसके पास ध्यान तो होना चाहिए बुद्ध जैसा और हाथ में तलवार होनी चाहिए
अर्जुन जैसी।
मैं तो इस देश को यही सिखाना चाहूंगा।
अपने कातिल आप हैं, अपने मसीहा आप हैं
जहर भी रखते
हैं हम, इक्सीर भी रखते
हैं हम
हमें दोनों की तैयारी चाहिए। और जहां जिस चीज की जरूरत होगी, हम उसका उपयोग करेंगे।
महात्मा गांधी को भी यह वहम था। इस तरह के वहम हमारे सभी महात्माओं को
होते हैं। हमारे महात्माओं से ज्यादा वहमी इस दुनिया में लोग खोजने मुश्किल हैं।
महात्मा गांधी को यह वहम था कि जब भारत आजाद हो जाएगा तो अस्त्र-शस्त्रों की कोई
जरूरत न रह जाएगी।
उनसे जब पूछा गया था उन्नीस सौ पैंतालीस में आजादी के पहले कि आजादी
के बाद सैनिकों का क्या होगा? उन्होंने कहा, सेनाएं विसर्जित कर दी जाएंगी। क्या जरूरत? अहिंसा
की शक्ति इतनी है कि हमें अस्त्र-शस्त्रों की क्या जरूरत? अरे,
राम का नाम लेंगे! राम के नाम में तो इतनी शक्ति है! ब्रह्मचर्य
साधेंगे! और ब्रह्मचर्य में तो इतनी शक्ति है कि क्या करेंगे अस्त्र-शस्त्रों का?
फौजों को विदा कर देंगे।
फिर भारत आजाद हुआ, लेकिन न तो फौजें विदा हुईं,
न अस्त्र-शस्त्र विदा हुए। उलटे जिस राम की शक्ति पर उनको भरोसा था,
जिसके बल से वे सोचते थे अस्त्र-शस्त्रों की कोई जरूरत न रह जाएगी,
एक पूना निवासी नाथूराम गोडसे ने एक गोली से उनको मार डाला। राम का
भरोसा था, नाथूराम आ गए! क्या मजाक हुआ! गहरा मजाक हो गया न!
जब गोली लगी तो उन्होंने कहा, हे राम! जल्दी में होंगे,
क्योंकि अब खतम ही हो रहे थे। अगर थोड़ी फुर्सत होती तो वे कहते,
हे नाथूराम गोडसे! कहना तो चाहते होंगे नाथूराम, लेकिन जल्दी में थे, सो राम ही कह पाए। लेकिन एक
गोली पार कर गई। कहां गई सब अहिंसा की शक्ति? और जीवन भर का
आत्मबल और जीवन भर का ब्रह्मचर्य और भजन-कीर्तन और अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, बस एक गोली सबको पार कर गई!
मैं इस तरह की बेहूदगियों में भरोसा नहीं करता। गोली तो गोली से ही
निपटी जाएगी। तलवार हो तो ढाल चाहिए। और तलवार हो तो और बड़ी तलवार चाहिए। यह
राम-राम जपने से कुछ भी न होगा। अभी गांधी को तुमने मरा हुआ देखा, फिर भी अकल नहीं आती! ये जिंदगी भर भजन-कीर्तन करते रहे, इनको भावातीत ध्यान नहीं लगा? ये जिंदगी भर राम-राम
का उच्चारण करते रहे और एक गोली भी...कम से कम इतना तो हो जाता कि गोली इनकी छाती
के पास से कहती कि नहीं-नहीं, और लौट जाती, कि यहां नहीं, अरे ये तो महात्मा गांधी हैं! कि लौट
कर नाथूराम गोडसे को ही लग जाती, कि कमबख्त कहां गोली चलाता
है। कि यहां तो अदृश्य ध्यान की दीवार है!
क्या तुम सोचते हो मुझे कोई गोली मारे तो लौटेगी? कभी नहीं। लगेगी। लगनी ही चाहिए। क्योंकि प्रकृति के नियम प्रकृति के नियम
हैं और प्रकृति के नियमों का कोई अपवाद नहीं होता।
महर्षि महेश योगी को ऐसा करो कि पोटेशियम साइनाइड पिला दो और कहना कि
देखें, भावातीत ध्यान और टी.एम. सिद्धि अगर बचा लें तो हम
समझेंगे कुछ। तत्क्षण चारों खाने चित हो जाएंगे। या कहना कि चलो एक छुरा ही मार कर
देख लें! हम मारें छुरा और भीतर से निकले दूध की धार, तो मान
लेंगे कि भावातीत ध्यान में कुछ खूबी है।
ध्यान की अपनी खूबियां हैं। हां, मुझे कोई गोली मारेगा
तो मैं इसी समाधि अवस्था में जाऊंगा जिसमें हूं, इसमें कुछ
भेद न पड़ेगा। लेकिन शरीर तो गोली को मानेगा। शरीर थोड़े ही ध्यान को मानेगा। शरीर
का थोड़े ही ध्यान होता है। शरीर तो मिट्टी है, मिट्टी के
नियम से चलेगा। तुम किसी घड़े के भीतर बैठ कर ध्यान करो, इसका
क्या यह मतलब हुआ कि घड़े को कोई डंडा मारे तो घड़ा फूटे ही नहीं! घड़ा तो फूटेगा,
घड़ा तो मिट्टी है। यह शरीर तो घड़ा है, इससे
ज्यादा नहीं, मिट्टी की देह है। इसको बचाने के लिए तो
अस्त्र-शस्त्र चाहिए होंगे।
मैं विज्ञान और धर्म के बीच एक जोड़ चाहता हूं, एक सेतु चाहता हूं। पूरब परेशान रहा है अकेले धर्म के कारण; पश्चिम परेशान है अकेले विज्ञान के कारण। और दोनों ही आनंदित हो सकते हैं,
अगर यह जोड़ बन जाए, अगर यह धर्म और विज्ञान का
मिलन हो जाए।
सैकड़ों अस्री मसाइल
में उलझ कर
रह गए
समय की समस्याएं बड़ी हैं। कितने लोग उलझ कर नहीं रह गए हैं!
वर्ना "ताबां' हसरतेत्तामीर भी
रखते हैं हम
इरादे तो अच्छे होते हैं, कि निर्माण करेंगे।
मगर जिंदगी की समस्याएं बड़ी हैं। अगर सूझ-बूझ साफ न हो तो तुम भटक जाओगे जिंदगी की
समस्याओं में।
आज की मजबूरियां,
माजूरियां
अपनी जगह
कितनी विवशताएं हैं! कितनी तकलीफें, कितनी चिंताएं हैं!
आज की मजबूरियां, माजूरियां अपनी जगह
दिल में फर्दा
की हसीं तस्वीर
भी रखते हैं हम
लेकिन इरादा तो कल का है, भविष्य का है। अच्छी
तस्वीर रखते हैं, सुंदर तस्वीर रखते हैं। मगर आज की समस्याएं
हल होंगी तो आज से ही तो कल पैदा होगा। वर्तमान की समस्याएं हल होंगी तो भविष्य का
जन्म होगा।
इल्मो-दानिश बेहकीकत दस्ते-मेहनत
के बगैर
ज्ञान व्यर्थ है, जब तक कि परिश्रमी हाथों का उसको
जोड़ न मिले।
इल्मो-दानिश बेहकीकत दस्ते-मेहनत के बगैर
ख्वाब भी रखते
हैं हम, ताबीर भी रखते
हैं हम
सपने तो ठीक हैं, मगर उन सपनों को ताबीर देना,
उन सपनों को यथार्थ में बदलना, उसकी कला भी
जाननी चाहिए। जरूर हमारे पास है, सभी के पास है, लेकिन न मालूम किस तरह के मूढ़ों ने हमें भरमाया है और भटकाया है। और
सदियां हो गईं और अब भी हम जागते नहीं। हमारे पास भी हाथ हैं और हमारे हाथों में
भी निर्माण की कला है। और हमारे पास विवेक भी है और विज्ञान भी हो सकता है।
सच तो यह है कि सबसे पहले दुनिया में विज्ञान हम ही ने खोजा। गणित
हमने खोजा और गणित के ऊपर सारा विज्ञान खड़ा हुआ है। लेकिन ये महर्षि महेश योगी
जैसे लोग हमारे विज्ञान को विकसित न होने दिए। ये महात्मा गांधी जैसे लोग हमसे
तकलियां चलवाते रहे, चरखे चलवाते रहे, राम-नाम
जपवाते रहे।
अहले-दिल करते हैं जिनसे माहो-परवीं को शिकार
अपने तरकश में
कुछ ऐसे तीर
भी रखते हैं हम
हमारे तरकश में भी तीर हैं, मगर जंग खा गए हैं,
बहुत सदियों की जंग खा गए हैं।
रफ्ता-रफ्ता जो बदल दे खुद जमाने का मिजाज
शौक के जज्बों
में वो तासीर
भी रखते हैं हम
आकांक्षाएं भी हैं, भावनाएं भी हैं, उन भावनाओं को प्रभावित करने की क्षमता भी है। सृजन की हम में बड़ी ऊर्जा
भी है। सच तो यह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा ऊर्जा हमारे पास है। इसलिए है कि
जैसे किसी खेत को बहुत दिनों तक खेती-बाड़ी के काम में न लाया जाए, तो जिन खेतों में खेती-बाड़ी होती रही उनके तत्व तो समाप्त हो जाते हैं;
लेकिन जो खेत बंजर पड़ा रहा, जिसमें कोई
खेती-बाड़ी न हुई, उसमें अगर आज खेती की जाए तो दोगुनी फसल
आएगी। कोई पांच हजार वर्षों से हमने अपनी चेतना में कोई खेती ही नहीं की है,
विज्ञान को जन्म नहीं दिया, कला को जन्म नहीं
दिया। आज मौका है कि हम चाहें तो आज सारी पृथ्वी पर सबसे ज्यादा चमत्कार पैदा कर
सकते हैं।
रफ्ता-रफ्ता जो बदल दे खुद जमाने का मिजाज
शौक के जज्बों में वो तासीर भी रखते हैं हम
अपने कातिल आप हैं, अपने मसीहा आप हैं
जहर भी रखते हैं हम, इक्सीर भी रखते हैं हम।
आज इतना ही।
ओशो को शत-शत नमन
जवाब देंहटाएं