सुबह उठकर जब मम्मी—पापा ने हमारी कारस्तानी देखी तो दंग रह गये। जहां देखो वहीं चारों और मिट्टी—मिट्टी का ढेर लगा था। पैरो से खोद—खोद कर फैंकने के कारण दूर आँगन तक भी मिटटी बिखरी हुई थी। हमने इतना गहरा गढ़ा खोद दिया था। दूसरी बात की उसे खोदते हुए हम दबे नहीं। यह हमारा सौभाग्य ही था। इतनी गहराई तक खोदने पर भी वो बड़-बड़े पत्थर ऐसे के ऐसे ही जमे हुए थे। खरगोश के बाल और खून यहां-वहां पर बिखरे हुए थे। बचे हुए खरगोश के अंग भी वहीं पड़े थे। सारा खरगोश हमसे नहीं खाया गया था। ये सब देख कर पापा जी ने मेरी और जब देखा तो वह तुरंत समझ गये कि ये कारस्तानी किस की हो सकती थी। उस समय पापा जी मुझे एक अलग ही अंदाज में देख रहे थे। मैं तुरंत समझ गया कि पापा जी को सब पता चल गया। अब बात छुपाने से कोई लाभ नहीं रहा। और मैं अपनी पूछ हिलाते हुए पापा जी के पास चल दिया।
मैंने आपने को सिकोड़ कर गोल मोल कर लिया और अपने कानों को भी दबोच कर उनके चरणों में लेट गया। पापा जी ने मेरी और देखा और समझ गये कि मैं बहुत बुरी तरह से डर गया हूं। सच पूछो तो मैं बहुत इतना डर गया था। कि मुझे अपने दिल की धड़कन खुद ही सुनाई दे रही थी। वो ऐसे धड़क रहा था जैसे किसी लोहार की धौंकनी हो या कि मैं मीलों दौड़ कर आया हूं।
पापा जी मेरे ऊपर झुके, तब मैं एक दम डर के मारे जमीन पर लेट गया। मैंने सोचा अब लगा थप्पड़…….पर उन्होंने मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरा, और धीरे—धीरे उसे पूंछ तक ले गये। उन्होंने फिर दोबारा ऐसा किया। मैं पीटने के लिए तैयार हो गया। पर क्या हम जो सोचते है वह सब सही होता है, शायद कभी नहीं...पर फिर भी ने जाने क्यों प्रत्येक प्राणी अपने को हमेशा सही समझता आया है। वह अपने को छोड़ नहीं पाता उस पूर्णता के हवाले, मैं पीटने के लिए तैयार था पर ऐसा नहीं हुआ।पापा जी का हाथ बार—बार मेरी पीठ पर कहीं—कहीं रूक कर कुछ देखता और फिर आगे बढ़ जाता। मैं तो इतना डरा हुआ था, की मुझे उनके प्यार और दुलार की छुअन का आनंद भी नहीं मिल पा रहा था। अचानक पापा जी ने मम्मी जी को कहां देखो पोनी के शरीर पर ये कैसी गाँठें पड़ गई। कैसे इसके शरीर की चमड़ी उभर कर उबड़-खाबड़ हो गई थी। और पूरे शरीर के ऊपर छोटी-छोटी गांठे उभर आई है। फिर टोनी के पास जाकर देखा उसके शरीर पर ऐसे कुछ भी लक्षण नहीं थे। हम तीनों ने एक ही समय पर एक ही खरगोश को खाया है पर तीनों के शरीर पर उसका अलग—अलग प्रभाव क्यों हुआ। क्या ये हमारी शारीरिक संरचना के कारण। या उसके प्रतिरोधक शामत से लड़ने के कारण से। परंतु बेचारे टोनी ने तो उसे छुआ भी नहीं था।
उस समय तो मैं कुछ भी समझ नहीं पाया पर अपनी पिटाई न होने के कारण खुश जरूर था। दो ही चार दिन के अंदर मेरे पूरे शरीर में खुजली शुरू हो गई। इतनी खुजली होती की में आपको बता नहीं सकता। खुजाते—खुजाते वहां से खून तक निकाल देता पर खुजली है के खत्म ही नहीं होती थी। फिर उस खुजली की हुई जगह जख्म और दर्द अलग शुरू से हो जाता था। लगता था पूरे शरीर की चमड़ी उतार कर फेंक दूँ। मैं सारा दिन खुजाते—खुजाते पागल हुआ रहता था। पर देखिये हमारी लाचारी हमारे पैर तो एक ही स्थान पर लगातार खुजली करते रहते थे। जहां तक मेरे पैरो की पहुंच थी वो एक मशीन की तरह अपना काम जाने अनजाने करते रहते थे।। खुजली करने से इतना अच्छा लगता, मानो आपको स्वर्ग ही मिल रहा हो। पर कुछ ही देर बाद वहां पर इतनी ही पीड़ा होती थी। जैसे वहां पर किसी ने आग लगी दी हो।
इस समय तो खुजाने का मजा ले लिया जाये। शरीर में खुजली दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही थी। पूरे शरीर में जगह—जगह से गाँठें हो गयी थी। पूरे दिन ऐसा लगता की जैसे अनंत कीड़े मेरे शरीर पर रेग रहे हो। मुझे कहीं पर भी चेन नहीं मिलता था। न ही कुछ खाने को मन करता था। न ही नींद आती थी। मैं बहुत बेचैन रहने लगा। नींद न आने से मैं चिड़—चिड़ा भी होता जा रहा था। न ही टोनी के साथ खेलने को मन करता था। और नहीं किसी का पास आना अच्छा लगाता था। बच्चे भी जब पास आते या हाथ लगा कर मुझे उठने की कोशिश करते तब में उन पर गुर्रा पड़ता था। और भाग कर चार पाई के नीचे जा कर छुप जाता था।
मुझे कई बार डर भी लगता था कि कहीं शायद में उन्हें काट न लूं। लगभग मेरी अवस्था पागल जैसी होता जा रही थी। मेरा मस्तिष्क धीरे—धीरे बंद होने लग गया था। जैसे आपके सर के आँगन में धूप सरक रही हो और धीरे—धीरे उसपर काली साया फैलता जा रहे हो। जिसके कारण वहां पर रखी प्रत्येक वस्तु धुँधली पड़ती जा रही थी। देखने की, सोचने विचारने की, क्षमता भी कम होती जा रही थी। इसी तरह एक दिन पूरे आँगन में छांव हो जायेगी फिर शायद मैं किसी को पहचान भी नहीं पाऊंगा। उसके बाद शायद फिर मेरी कोई मदद करना चाहे तो भी नहीं कर सकेगा।
छत पर जो कमरा था उसके सामने भी बड़ा सा बरांडा था। वही पर सारा परिवार चारपाई बिछा कर रात को सोता था। मेरे और टोनी के लिए अलग से एक छोटी सी चारपाई बिछा कर उस पर बिस्तरा लगा दिया जाता था। जिस पर मैं और टोनी बड़े मजे से साथ—साथ सोते थे। और अपने पर गर्व करते थे की देखो हमारा भी अलग से भैया ओर दीदी की तरह बिस्तरा है। पर इन दिनों एक अजीब सी सनक मेरे दिमाग में भर गई थी। मैं अपने बिस्तरे पर न सोकर किसी के भी बिस्तरे पर चढ़ कर सो जाता था। न जाने एक अंजान सा भय मेरे अंदर समाया रहता था। मुझे इसके कारण का कुछ भी पता नहीं था। परंतु मैं जानता था कि मेरे साथ कुछ गलत होता जा रहा था। जिसे मैं केवल देख और महसूस सकता हूं। परंतु उस जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा था। और दिन ब दिन अधिक चिड़—चिड़ा होता जा रहा था।
किसी का हाथ तक लगाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। फिर भी किसी के पास चिपक कर सोने का कौन सा नया रोग लगा मुझे। मुझ पर अजीब सनक सी हो गई थी, दिमाग में एक उलझन सी भरने लग गई थी। जैसे किसी ने जब कोई काम के लिए मना कर दिया तो एक जिद सी चढ़ जाती है मन पर बस उसी तरह से। कह नहीं सकता परंतु ये सब हो रहा था। अनजाने में एक नकारात्मकता गहरे में बैठ जाती की इस काम को जरूर करना है। फिर ये सही गलत इस का मुझे कोई पता नहीं चलता था। मम्मी—पापा के बिस्तरे पर न चढ़ कर मैं बच्चों के बिस्तरे पर उन से चिपक कर सोने लगा था। मम्मी ने कई बार मुझे डांटा फटकारा पर मैं नहीं माना। अब उन्हें फिकर हो गई की बच्चों के बिस्तरे में सोना तो गलत था, क्योंकि खाज की बीमारी एक छूत की बीमारी थी। कहीं पोनी से ये बीमारी बच्चों को न लग जाये। बात भी एक दम सही थी। आज इस बात को मैं भी महसूस करता हूं की वो सब गलत था। पर उस समय मुझे ये सब नहीं दिखाई सुनाई क्यों नहीं दे रहा था।
मैं बहुत जिद्दी हो गया था। आखिर दुःखी हो कर पापा जी ने मेरा बिस्तरा नीचे आँगन में लगा दिया। पर मैं तो उस पर पैर रखने को भी तैयार नहीं था। ऊपर चढ़ कर सोने की बात तो दूर की कोड़ी थी। आपने एक कहावत सुनी होगी कि गीदड़ की मौत आती है तो वह गांव की और चल देता है। अब ये मेरी हरकत मेरी खुद की गर्दन पर छुरी चलने वाली बात नहीं तो और क्या था?
पापा जी ने एक आखरी उपाय किया। हमारी सीढ़ियाँ खुली थी, यानि कि उन पर छत नहीं थी और न ही दरवाजा। अगर वो भी होता तो कुछ किया जा सकता। उसे बंद कर दिया जाता मुझे ऊपर चढ़ने से रोकने के लिए। उन्होंने एक कारगर उपाय सुझा। एक लोहै का ड्रम जो करीब चार फिट उचा होता है। उसे उन्होंने सीढ़ियों के बीच में रख कर रास्ते को रोक दिया। मेरा बिस्तरा नीचे लगा था। मैं वहां अकेला नहीं रहना चाहता था।
खास कर रात को दिन में तो मक्खीयों से बचने के लिए किसी अंधेरी जगह पर छुप कर पड़ा रहता था। पर रात को अकेला रहने में एक असुरक्षा का भाव बना रहता था। पर मैं ये नहीं समझ पा रहा था जो कर रहा हूं वह गलत था। न ही मेरी समझ में आ रहा था कि मेरी इस हरकत के कारण मुझे इस घर से भी हाथ धोना पड़ सकता था। फिर तो इससे भी बुरी हालात होगी, दिन रात अकेले ही गुजारनी पड़ेगी। पर पशु इतना कहां सोच पाता है। ये तो मनुष्य में भी कोई विरल ही सोचता होगा। परंतु मेरी जिद के आगे कोई भी बाधा मुझे ऊपर चढ़ने से नहीं रोक सकती थी।
मैं रात को उस ड्रम पर न चढ़ पाने के कारण रोता रहा। चढ़ने की भरपूर कोशिश कर रहा था। मुझे न अपने ऊपर दया आ रही थी। न अपने इस कृत्य पर शर्म। दिन भर मम्मी—पापा इतनी मेहनत मशकत करते थे। इस तरह शोर मचाने के कारण उन्हें आराम कहां मिल पाता होगा। वैसे भी मम्मी पापा रात भी चार पाँच घंटे ही तो सोते थे। और मैं मुर्ख उन्हें रात भी चेन से नहीं सोने दे रहा था। जोर—जोर से चिल्ला कर रो रहा था। उस लोहे के ड्रम पर चढ़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था। और आखिर घंटे दो घंटे की मेहनत मशकत के बाद में उस पर चढ़ ही गया। और पहुंच गया अपनी मंजिल पर।
पूरे घर की नाक में दम कर दिया था मैंने। निकू तो उसी दिन से गायब था, न जाने कहां निकल गया। शायद उसे भी मेरे की तरह कुछ बिमारी हो गई थी। हम कितनी मुसीबतों को खुद ही अपने ऊपर ओढ़ लेते है आ बेल मुझे मार। क्या जरूरत थी। उस खरगोश को खाने की क्या यहां कोई कमी थी खाने की परंतु ये जीभ जो चाहे वो करवा दे वहीं कम। पर नहीं हमें चेन कहां। रात भर जो मैंने सरकस किया और पूरे घर को सताया। उस के कारण मुझे बनवास का हुक्म सुना दिया गया। मणि दीदी और पापा जी उदास थे। वरूण और हिमांशु भैया अभी नासमझ थे या शायद उन्हें पता नहीं था। पर वो बेचारे बच्चे थे, लाचार थे। छोड़ना तो कोई नहीं चाहता था। मेरी हरकत ही मुझे इस और ले जा रही थी। मम्मी ने फैसला कर लिया कि कल ही इस बीमारी को यहां से गायब कर देगी। उन्हीं लोग के हाथों इसे जंगल में इसके परिवार के पास भेज दिया जायेगा। जहां से इस पागल को लाया गया था।
चाहे उसे पचास—सौ रूपये ही क्यों न देने पड़े। उसे बुला कर कह दिया गया कि इधर उधर बिलकुल मत छोड़ना अगर हमें पता चल गया तो ठीक नहीं होगा। कम से कम मरे तो अपने परिवार के साथ रह कर मेरे। अभी कोई ज्यादा दिन नहीं हुए है। इसकी मां इसे पहचान लेगी। मम्मी ने कहा की कहीं और नहीं छोड़ना, जंगल इतना बड़ा और खतरनाक है। अगर कहीं मर गया तो ये पाप हम नाहक आपने सर पर नहीं लेना चाहते। लेकिन ये बात खतरनाक थी मुझे चुराना जितना कठिन था, उससे कठिन मुझे मेरी मां को सोप देना था। क्योंकि चुराया तो गया था पीछे से जब मां नहीं थी और छोड़ना होता उसके पास जब वो हो। पर क्या पता वो खुश हो या अपना गुस्सा इन लोगों पर उतारे।
इस शर्त के कारण वो थोड़ा घबरा गये थे। शायद वह.....लोग मम्मी जी की इस शर्त के कारण डर गये और कल आने की कह कर चले गये। अगले दिन भी नहीं आये। बच्चे रोज मुझे देख कर स्कूल जाते कि शायद वे जब स्कूल से वापस आये तब पोनी वहां नही होगा। पर में मिल जाता तो बहुत खुश हो जाते। वो तीन दिन नहीं आये। शायद उस दिन रविवार था। सभी बच्चे घर पर ही थे।
मम्मी का पार सातवें आसमान पर था। मेरी हरकत दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही थी। उस दिन सब ने निर्णय कर लिया कि आज हम खुद ही इसे इसके हाल पर छोड़ कर आयेंगे। बच्चें सुबह से ही मुझे बिदा करने के लिए तैयार हो कर बैठ गये। कि कब पापा जी दुकान से घर आये और हम पोनी को जंगल में ले कर जाये। उनके चेहरो पर मायूसी और उदासी साफ दिखाई दे रही थी। इतने दिनों इस घर में रहा अब बिदा होने का समय आ गया था। ये कैसी लीला थी। पर ये सब मेरी ही गलती के कारण तो हो रहा था। उन लोगों का इस में कोई कसूर नहीं था। समझ मैं भी गया था। परंतु अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहा था। वहीं कुत्ते के पूछ वाली बात ठीक ही थी। जो टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है सही ही कहा होगा किसी ने अनुभव के आधार पर।
पापा जी ने आ कर घर की घंटी बजाईं। सब के दिल की धड़कन एक दम से तेज हो गई। मैं भी भाग कर अंधेर कोने में जा कर दूबक गया। मम्मी जी भी क्रोध और पीड़ा के भावों को अपने चेहरे पर छुपाने की नाहक कोशिश कर रही थी। और बार—बार ये दिखा रही थी कि उसे कोई दुःख नहीं हो रहा था। पर मैं जानता था। सबसे ज्यादा दुःख मम्मी जी को ही हो रहा होगा। पापा जी के हाथ में एक पिंक रंग कि शीशी थी। और एक मरहम कि टयूब। बच्चे आज शायद पापा जी को आते देख कर पहली बार उदासी महसूस कर रहे थे। और जंगल में जाने की जो प्रसन्नता हर दिन उनके चेहरे पर होती थी आज वहां पर नहीं थी। ये कैसा विरोधाभास एक जैसी घटना में भी कितना विरोध भरा होता है। सब के चेहरे से खुशी गायब थी।
पापा जी ने मम्मी को कहां की थोड़ा गर्म पानी एक बाल्टी में भर दो और में ये डिटोल के दो ढक्कन भी डाल देना। ये खुजली के लिए पिंक दवाई है। याद है हिमांशु को जब खसरा हुआ था। वह बहुत खुजाता रहता था। तब यही तो दवा लगाने के लिए दी थी। और ये मरहम मैं डा0 घोष से बात चीत कर के मैं लाया हूं। वो कह रहा था इसे लगाने के बाद कुछ गोलियां भी उसने दी है, ये खिला देना जरूर आराम हो जायेगा। फिर एक बार कोशिश कर के देखने में क्या बुराई है। अगर वो लोग दो—तीन दिन इसे लेने नहीं आ रहे है, तो प्रकृति की गोद में जरूर कोई रहस्य छुपा होगा। ये हमे थोड़ा ही पता होता है कि कल क्या होने वाला है। पर कोई तो कारण होना ही चाहिए। वरना तो पोनी को गये आज तीन दिन हो गये होते। पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई। मम्मी का भी मन नहीं था। मुझे भेजने के लिए शायद सबसे ज्यादा पत्थर उन्होंने ही अपने सिने पर रख कर ये फैसला किया था।
सब बच्चो को काम मिल गया। मेरे नहाने की सब तैयारी कर के मुझे चारपाई के नीचे से निकालने की नाकाम कोशिश चलती रही। अब ये एक नई मुसीबत, एक तो पहले ही मैं पानी से इतना डरता था, और ऊपर से ये बीमारी। पर पापा जी ने मेरे पास आ कर मुझे प्यार से छुआ और कहां चल बहार निकल। में थोड़ा गुर्रा या पर पापा जी नहीं डरे क्योंकि वो जानते थे ये काम मुझे ही करना था। अगर मैं ही डर गया तो फिर पोनी का बचना बहुत मुशिकल हो जायेगा।
उन्होंने प्यार से मुझे पीठ से पकड़ कर बहार निकल लिया मैं ग़ुर्राता रहा मम्मी ने मुझे डांटा कि तुझे शर्म नहीं आती जो तेरा भला कर रहा है उसे ही गर्रा रहा है। मेरे गले में एक चेन पहना दी और मुझे गर्म पानी से नहलाया शुरू कर दिया। जहां पर मैंने खुजली करके जख्म कर रखे थे वहाँ पर वह साबुन थोड़ा दर्द कर रहा था। पर में अंदर से ये जानता था। ये जो भी हो रहा है मेरी भलाई के लिए हो रहा था। इसलिए मुझे क्रोध भी आ रहा था और अंदर से अच्छा भी लग रहा था। हमारा चित भी कैसा होता है, हम जानते है कि यह हमारे लिए अच्छा हो रहा है, परंतु फिर भी उसके विरोध का दिखावा करते ही रहते है। परंतु मैं अंदर-अंदर परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था कि देखो मुझ जैसे धूर्त के लिए भी इन लोगो के मन में कितना प्यार है।
नहला कर मुझे एक दरी पर धूप में बिठा दिया गया। मैंने उस पर खूब रगड़म्म पटटी की। और चाट—चाट कर अपने शरीर को सुखाने लगा। जब मेरा शरीर सुख गया। तब दीदी और पापा जी ने वो पिंक दवा मेरे शरीर पर लगानी शुरू की। मैं थोड़ा डरा। पर ये डरना कम था डरने का दिखावा ज्यादा था। पूरे शरीर पर दवाई लगते—लगते वह पूरी शीशी खत्म हो गई। फिर वह मरहम खोल कर मेरी गाँठों और जहां पर में खुजली करके मैंने खून निकाल दिया था वहाँ पर लगाई गई। पहली दवा लगाने से शरीर में कुछ ठंडक सी महसूस हुई। पर मैं उसे बार—बार चाटनें की कोशिश कर रह रहा था। दीदी मेरे मुंह को पकड़ कर हटा देती थी। दवाई लगा कर पापा जी मेरी गर्दन को कुछ देर तक पकड़ रहे बीच मैं छूडा कर भागने की नाकाम कोशिश भी करता रहा। पर आखिर मुझे छोड़ दिया गया। मैंने सबसे पहले अपने शरीर को खूब चाटा। पर ये सब में एक मशीन की तरह कर रहा था। परंतु एक नाकामी जो बीच में आ गई थी वह जुराब थी...जो पापा जी ने मेरे मुख पर पहना दी थी। जिसके कारण में चाटने का नाटक भर कर सकता था....क्योंकि न तो जीभ मेरे मुख बाहर आ रही थी तो चाटता कैसे।
थोड़ी देर बाद जब दवाई सूख गई तो मुझे खाने के लिए कुछ मिठाई दि गई। मेरे मुख की जुर्राब हटा दी थी। मैं मिठाई को खाकर अति प्रसन्न था। मेरी खुजली वाली जगह पर पहले से बहुत आराम था। थोड़ी देर के ही लिए मैं आपने दर्द को और दुःख को भूल गया था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कोई जलती हुई गर्म चीज को अचानक ठंडे पानी में डाल दिया गया था। और उसकी तपीस और जलन एक छू मंतर की तरह क्षण में न जाने कहां गायब हो गई थी। परिवार के लोग भी खुश थे की उनकी मेहनत रंग लाई बेचारा टोनी तो दूर बैठा ये सब देख रहा था। पापा जी ने यह गोली जो मिठाई में मुझे दी थी निकू को भी दी थी वह दुकान पर आता था। उसके शरीर की हालत अच्छी नहीं थी।
करीब एक घंटे बाद मम्मी ने मेरे लिए हल्दी वाला दूध तैयार कर मुझे पीने को दिया। जिसको पीना बाद मुझे पहली बार अपने अंदर कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा था। टोना ये सब दूर से डर सहमा देख रहा था। वह एक तो मुझसे ही डर रहा था। कि न जाने मुझे क्या हो गया है। मैं दूध पीकर एक अंधेरे कोने में जा कर सो गया। आज कई दिनो बाद मुझे मेरा शरीर फूल सा हल्का लगा रहा था। मैं जान रहा था की मैं जितनी भी थोड़ी बहुत खुजली कर रहा हूं आदत की वजह से ही है। अब उन जगहों पर कम ही खुजली हो रही थी। अब यह दवा मुझे दिन में दो बार लगाई जाती था। मैं आपने आप को अच्छा महसूस कर रहा था। मेरी खुशी तो लोटी इस घर में भी खुशी की एक बुझी रोशनी फिर लोट आई थी। जैसे की मैं इस घर की खुशी का एक चिराग था। यहां सब मेरा बहुत ख्याल रख रहे थे।
टोनी भी मेरे पास आ कर मेरे शरीर को सूंघ कर देख रहा था। और मेरे मुंह को भी चाट कर कुछ कहने की कोशिश कर रहा था। मत घबरा मेरे दोस्त देखना तू जरूर ठीक हो जाओगे। अब हम दोनों दोस्त मिल कर फिर से भैया के खिलौने से खेलेंगे। कुछ ही दिनों मैं ठीक होकर खेलने खाने लगेगा। परंतु खेल में ज्यादा देर टोनी का साथ नहीं दे पाता था। इन दिनों मुझे आइसक्रीम खूब खिलाई जाती थी। टोनी को भी दी जाती थी। पर मुझे थोड़ी ज्यादा दी जाती थी। आइसक्रीम को जैसे—जैसे मैं खाता था मेरे शरीर के साथ मेरे पेट में भी जलती हुई आगा में ठंडक महसूस होती थी। मेरे शरीर के नीचे का अंग पेट के आस पास हमेशा गर्म तवे के समान जलता रहता था। मन करता था किसी ठंड़े पानी में बैठा रहूं....इसलिए एक तसले में पानी भर कर रख दिया गया था। पहले तो मुझे डर लगा परंतु शरीर की जलन को कम करने का ये एक नायाब तरीका था। उस में कुछ नीम की पत्तियाँ भी डाल दि गई थी। जिससे उसमें एक मधुर कड़वापन महसूस हो रहा था।
शायद उस में कोई दवाई भी डाली जाती थी। जिस की दुर्गंध मुझे आती थी और जूबान भी कड़वी हो जाती थी। मैं समझता ये मेरी बिमारी के कारण मेरी जीभ का स्वाद खत्म हो गया था। पर एक दिन जब मेंने टोनी की छोड़ी हुई आइसक्रीम चाट कर देखी तब मुझे पता चला कि मेरी आइसक्रीम में कुछ कड़वापन या कशयापन सा था। पर वो आइसक्रीम लगती इतनी स्वाद थी की में उसे छोड़ ही नहीं सकता था। वो कड़वापन उसके स्वाद में ऐसे घूलमिल जाता था कि पता ही नहीं चलता था।
लेकिन अचानक एक दिन निकू आ गया। एक बार तो उसे देख कर हममें से किसी ने उसे पहचाना ही नहीं। उस शरीर के सारे बाल उतर गये थे। उसके इतने सुदंर सफेद बदामी बाल, जो रेशम कि तरह मुलायम थे जाने कहा चले गये थे। बाल रहित उसका शरीर बहुत कुरूप लग रहा था। मैंने सोचा हाय राम ये क्या हो गया। क्या इसकी ये हालत उसी खरगोश ने की है। चमड़ी पूरे शरीर की सुकड़ कर गाँठ—गठिला हो गई थी। बाल रहित उसे देखना कैसा लगता होगा। मैं आपको बता नहीं सकता। जब कुदरत ने हमारे शरीर पर बालों को उगाया है तो जरूर इन बालों की हमारे दैनिक जीवन पर कुछ तो जरूर प्रभाव पड़ता ही होगा। एक तो हमारे बाल हमें शारदी, धूप, और बरसात से बचाते है। जो सीधी हमारी चमड़ी पर नहीं पड़ती। और दूसरा सबसे बड़ा जो फायदा है वह लड़ाई से समय जब कोई हमे दांतों से पकड़ता है तो चमड़ी से पहले बाल हमारी सुरक्षा करते है।
कितना कमजोर लग रहा था निकू बालों रहित। मम्मी जी अंदर से आई और निकू की ये हालत देख कर उसे भी यकीन नहीं हो रहा था। वो तो शायद पहचान में ही नहीं पाती अगर उसके सर और कान पर थोडे बाल न बचे होते। वह फटाफट अंदर गई ओर एक वर्तन में दही लेकर आई। उस में पीला—पीला सा डाल कर निकू के सामने रख दिया। निकु एक कोने में जो मिटी वाली क्यारी थी उस में छुप कर बैठ गया था। शायद मक्कियाँ भी अब उसे बहुत सताती होंगी। उसे देख कर मुझे उस पर दया भी आ रही थी। कि ये सब मेरे कारण हुआ था। ना में उस दिन वो सब खुराफात करता और ने मेरी ये हालत होती और न ही निकू की। वह अच्छा बहुत था। ये घर पहले उसी का तो था। जिस में हम आये थे। पर उस ने कभी हमे मार नहीं। वह बहुत ही सरल सीधा और प्यार वाला था। हाय मैं कितना पापी हूं...।
जब हम छोटे थे तो पहले वह हमारे साथ खेलता भी था। पर वह थोड़ा बूढ़ हो गया था। इसलिए वह जल्दी ही थक जाता था। पर वह नाराज हम लोगों से कभी नहीं हुआ। और न ही मम्मी पापा ने उस की किसी चीज में कमी की। उस का खाना और दुध जो उसके खाने के बाद बच जाता हम दोनों मिल कर खाते थे। पर वह कभी कुछ नहीं कहता था। शायद इसका सबसे बड़ा कारण था, इस परिवार का प्यार जो उसे भर पूर मिला था और पेट भर कर खाना। पर अब उस की ये हालत.....मैं इतना डर गया की। मानो ये सब मेरे साथ ही हो गया। क्योंकि मैं अब जान गया था ये हालत अब मेरी भी होने वाली है।
भैया और दीदी भी उस की ये हालत देख कर दंग रह गये। और सब यही कह रहे है। ये पोनी ही आफत की जड़ है। इसी के कारण निकू की ये हालत हुई है। बात भी सत्य थी पर अब मैं केवल पछता ही सकता हूं और जो मैंने बोया है उसे भोग सकता हूं। और वो मैंने भोगा जीवन के आखिरी क्षण तक एक गलत कदम भी हम कहां से कहां पहुंचा सकता है। एक सही कदम वो भी था जब में इस घर में आया और एक गलत कदम ये भी है जब मैंने खरगोश को निकाल कर खाया।
आगे देखते है इस का अंजाम जो की बद से बदतर हो सकता है इस इंतजार का रहस्य तो समय की गर्त में छूपा है की भविष्य क्या लिय चला आ रहा है। अच्छा बुरा या कुछ और......अंधकार भरा रहस्य समेटे आगे का मार्ग था।
भू........भू........भू.....
आज बस इतना ही।
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